HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

HBSE 12th Class Sociology बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
अदृश्य हाथ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एडम स्मिथ आरंभिक राजनीतिक अर्थशास्त्री थे जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘द वेल्थ ऑफ नेशन्स’ में बाज़ार र्थव्यवस्था को समझाने का प्रयास किया जोकि उस समय अपनी आरंभिक अवस्था में थी। स्मिथ का कहना था कि जारी अर्थव्यवस्था व्यक्तियों के आदान-प्रदान अथवा लेन-देन का एक लंबा क्रम है जो अपनी क्रमबदधता के कारण स्वयं ही एक कार्यशील और स्थिर व्यवस्था स्थापित करती है। यह उस समय होता है जब करोड़ों के लेन देन में शामिल व्यक्तियों में से कोई भी व्यक्ति इसको स्थापित करने का इरादा नहीं रखता।

हरेक व्यक्ति अपने लाभ को बढ़ाने के बारे में सोचता है तथा इसके लिए वह जो भी कुछ करता है वह अपने आप ही समाज के हितों में होता है। इस तरह ऐसा लगता है कि कोई एक अदृश्य बल यहां कार्य करता है जो इन व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में परिवर्तित कर देता है। इस बल को ही एडम स्मिथ ने ‘अदृश्य हाथ’ का नाम दिया था।

प्रश्न 2.
बाज़ार एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण, आर्थिक दृष्टिकोण से किस तरह अलग है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बाज़ार सामाजिक संस्थाएं हैं जो विशेष सांस्कृतिक तरीकों द्वारा निर्मित हैं। जैसे कि बाजारों का नियंत्रण अथवा संगठन विशेष सामाजिक समूहों के द्वारा होता है तथा यह अन्य संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं तथा संरचनाओं से विशेष रूप से संबंधित होता है। परंतु आर्थिक दृष्टिकोण से बाज़ार में केवल आर्थिक क्रियाओं तथा संस्थाओं को भी शामिल किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि बाज़ार में केवल लेन-देन तथा सौदे ही होते हैं जोकि पैसे पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 3.
किस तरह से एक बाज़ार जैसे कि एक साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार, एक सामाजिक संस्था है?
अथवा
बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में स्पष्ट करें।
अथवा
‘बाज़ार एक सामाजिक संस्था है’ स्पष्ट करें।
उत्तर:
ग्रामीण तथा नगरीय भारत में साप्ताहिक बाज़ार अथवा हाट.एक आम नज़ारा होता है। पहाड़ी तथा जंगलाती इलाकों में (विशेषतया जहां आदिवासी रहते हैं) जहां लोग दूर-दूर रहते हैं, सड़कों तथा संचार की स्थिति काफी जर्जर होती है तथा अपेक्षाकृत अर्थव्यवस्था अविकसित होती है, वहां पर साप्ताहिक बाज़ार चीज़ों के लेन देन के साथ-साथ सामाजिक मेलजोल की प्रमुख संस्था बन जाता है। स्थानीय लोग अपने कृषि उत्पाद अथवा जंगलों से इकट्ठी की गई वस्तुएं व्यापारियों को बेचते हैं जिन्हें व्यापारी दोबारा कस्बों में ले जाकर बेचते हैं।

स्थानीय इस कमाए हुए पैसे से ज़रूरी चीजें जैसे कि नमक, कृषि के औजार तथा उपभोग की चीजें जैसे कि चू कि चूड़ियां और गहने खरीदते हैं। परंत अधिकतर लोगों के लिए इस बाज़ार में जाने का प्रमख कारण सामाजिक है। जहां वह अपने रिश्तेदारों से मिल सकता है, घर के जवान लड़के-लड़कियों का विवाह तय कर सकता है, गप्पें मार सकता है तथा कई अन्य कार्य कर सकता है। इस प्रकार साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार एक सामाजिक संस्था बन जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

प्रश्न 4.
व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी संपर्क कैसे योगदान कर सकते हैं?
उत्तर:
अगर हम प्राचीन भारतीय परिदृश्य को देखें तो हमें पता चलता है कि व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। व्यापार के कुछ विशेष क्षेत्र विशेष समुदायों द्वारा नियंत्रित होते हैं। व्यापार और खरीद-फरोख्त साधारणतया जाति तथा नातेदारी तंत्रों में ही होती है।

इसका कारण यह है कि व्यापारी अपने स्वयं के समुदायों के लोगों पर विश्वास औरों की अपेक्षा अधिक करते हैं। इसलिए वे बाहर के लोगों की अपेक्षा इन्हीं संपर्कों में व्यापार करते हैं। इससे व्यापार के कुछ क्षेत्रों पर एक जाति का एकाधिकार हो जाता है तथा वह अधिक से अधिक लाभ कमाते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों में भी मालिक के साथ बोर्ड ऑफ डायरैक्टर्ज़ में मालिक के नातेदार ही होते हैं जो उसकी व्यापार करने में तथा कंपनी चलाने में सहायता करते हैं।

प्रश्न 5.
उपनिवेशवाद के आने के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था किन अर्थों में बदली?
अथवा
उपनिवेशवाद के आने से भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या परिवर्तन आये हैं?
अथवा
भारतीय समाज पर उपनिवेशवाद के प्रभाव का वर्णन करें।
अथवा
उपनिवेश आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या परिवर्तन आये?
उत्तर:
भारत में उपनिवेशवाद के आते ही यहां की अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन हुए जिससे उत्पादन, व्यापार और कृषि में काफी विघटन हुआ। हम उदाहरण ले सकते हैं हस्तकरघा के कार्य के खत्म हो जाने की। ऐसा इस कारण हुआ कि उस समय इंग्लैंड के बने सस्ते कपड़े की बाज़ार में बाढ़ सी आ गई। चाहे भारत में उपनिवेशवाद के आने से पहले एक जटिल मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था मौजूद थी फिर भी इतिहासकार औपनिवेशिक काल को एक संधि काल के रूप में देखते हैं। इस समय दो मुख्य परिवर्तन आए तथा वे हैं :

(i) भारतीय अर्थव्यवस्था का पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ना-अंग्रेजी राज में भारतीय अर्थव्यवस्था संसार की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से गहरे रूप से जुड़ गई। अंग्रेजों से पहले भारत से बना बनाया सामान काफी अधिक निर्यात होता था। परंतु उपनिवेशवाद के भारत आने के पश्चात् भारत कच्चे माल तथा कृषि उत्पादों का स्रोत और उत्पादित माल का उपभोग करने का मुख्य केंद्र बन गया। इन दोनों कार्यों से इंग्लैंड के उद्योगों को लाभ होना शुरू हो गया।

उसी समय पर नए समूह (मुख्यतः यूरोपीय लोग) व्यापार तथा व्यवसाय करने लगे। वह या तो पहले से जमे हुए व्यापारियों के साथ अपना व्यापार शुरू करते थे या फिर कभी उन समुदायों को अपना व्यापार छोड़ने के बाध्य करते थे। परंतु पहले से ही मौजूद आर्थिक संस्थाओं को पूर्णतया नष्ट करने के स्थान पर भारत में बाज़ार अर्थव्यवस्था के विस्तार ने कुछ व्यापारिक समुदायों को नए मौके प्रदान किए। इन समुदायों ने बदले हुए आर्थिक हालातों के अनुसार अपने आपको ढाला तथा अपनी स्थिति में सुधार किया।

(ii) नए समुदायों का सामने आना-उपनिवेशवाद के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे समुदाय सामने आए जो मुख्यता व्यापार से ही संबंधित थे। उदाहरण के तौर पर मारवाड़ी जोकि सबसे जाना माना व्यापारिक समुदाय है तथा जो हरेक स्थान पर पाया जाता है। मारवाड़ी न केवल बिड़ला परिवार जैसे प्रसिद्ध औद्योगिक घरानों से हैं बल्कि यह तो छोटे-छोटे व्यापारी और दुकानदार भी हैं जो हरेक नगर में पाए जाते हैं। अंग्रेजों के समय उन्होंने नए शहरों, कलकत्ता में मिलने वाले नए अवसरों का लाभ उठाया और सफल व्यापारिक समुदाय बन गए।

यह देश के सभी भागों में बस गए। मारवाड़ी अपने गहन सामाजिक तंत्र के कारण सफल हुए जिसने उनकी बैंकिंग व्यवस्था के संचालन के लिए ज़रूरी विश्वास से भरपूर संबंधों को स्थापित किया। बहुत-से मारवाड़ी परिवारों के पास इतनी पंजी इकटठी हो गई कि वह ब्याज पर कर्ज देने लगे। इन बैंकों जैसी आर्थिक प्रवत्ति की सहायता से भारत के वाणिज्यिक विस्तार को भी सहायता प्राप्त हुई।

स्वतंत्रता से कुछ समय पहले तथा स्वतंत्रता के पश्चात् कुछ मारवाड़ी परिवारों ने आधुनिक उद्योग स्थापित किए जिस कारण आज के समय में उद्योगों में मारवाड़ियों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। अंग्रेजों के समय में नए व्यापारिक समूहों का सामने आना तथा छोटे प्रवासी व्यापारियों का बड़े उद्योगपतियों में बदल जाना आर्थिक प्रक्रियाओं में सामाजिक संदर्भ के महत्त्व को प्रदर्शित करता है।

प्रश्न 6.
उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पण्यीकरण उस समय होता है जब कोई चीज़ बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो तथा अब वह बेची खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह वस्तु बाजार में बिकने वाली बन गई है। उदाहरण के लिए कौशल तथा श्रम अब ऐसी चीजें बन गई हैं जिन्हें बाजार में खरीदा तथा बेचा जा सकता हैं। कार्ल मार्क्स तथा पूंजीवाद के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी है। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है, परंतु और भी उदाहरण समाज में मिल जाते हैं।

उदाहरण के लिए आजकल निर्धन लोगों द्वारा अपनी किडनी उन अमीर लोगों को बेचना जिन्हें किडनी बदलने की आवश्यकता है। बहुत से लोगों का कहना है कि मनुष्यों के अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। कुल समय पहले तक मनुष्यों को गुलामों के रूप में खरीदा तथा बेचा जाता था, परंतु आज के समय में मनुष्यों को वस्तु समझना अनैतिक समझा जाता है। परंतु आधुनिक समाज में यह विचार व्याप्त है कि मनुष्य का श्रम बिकाऊ है अर्थात पैसे के साथ कौशल या अन्य सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स का कहना था कि यह स्थिति केवल पूंजीवादी समाजों में पाई जाती है जहां पर पण्यीकरण की प्रक्रिया व्याप्त है।

उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए। – उत्तर:पण्यीकरण उस समय होता है जब कोई चीज़ बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो तथा अब वह बेची खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह वस्तु बाजार में बिकने वाली बन गई है। उदाहरण के लिए कौशल तथा श्रम अब ऐसी चीजें बन गई हैं जिन्हें बाजार में खरीदा तथा बेचा जा सकता हैं। कार्ल मार्क्स तथा पूंजीवाद के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी है। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है, परंतु और भी उदाहरण समाज में मिल जाते हैं।

उदाहरण के लिए आजकल निर्धन लोगों द्वारा अपनी किडनी उन अमीर लोगों को बेचना जिन्हें किडनी बदलने की आवश्यकता है। बहुत से लोगों का कहना है कि मनुष्यों के अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। कुल समय पहले तक मनुष्यों को गुलामों के रूप में खरीदा तथा बेचा जाता था, परंतु आज के समय में मनुष्यों को वस्तु समझना अनैतिक समझा जाता है। परंतु आधुनिक समाज में यह विचार व्याप्त है कि मनुष्य का श्रम बिकाऊ है अर्थात पैसे के साथ कौशल या अन्य सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स का कहना था कि यह स्थिति केवल पूंजीवादी समाजों में पाई जाती है जहां पर पण्यीकरण की प्रक्रिया व्याप्त है।

प्रश्न 7.
‘प्रतिष्ठा का प्रतीक’ क्या है?
उत्तर:
अपने रिश्तेदारों, नातेदारों अथवा जाति में ही व्यापार करना प्रतिष्ठा का प्रतीक है क्योंकि इससे अपनी जाति, नातेदारी में प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी होती है।

प्रश्न 8.
‘भूमंडलीकरण’ के तहत कौन-कौन सी प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं?
उत्तर:
भूमंडलीकरण के कई पहलू हैं, उनमें से विशेष हैं-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं, पूंजी, समाचार और लोगों का संचलन एवं साथ ही प्रौद्योगिकी (कंप्यूटर, दूरसंचार और परिवहन के क्षेत्र में) और अन्य आधारभूत सुविधाओं का विकास, जो इस संचलन को गति प्रदान करते हैं।

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प्रश्न 9.
उदारीकरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
उदारीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें कई प्रकार की नीतियां सम्मिलित हैं जैसे कि सरकारी विभागों का निजीकरण, पूंजी, श्रम और व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए आयात शुल्क में कमी करना तथा विदेशी कंपनियों को देश में उद्योग स्थापित करने में सुविधाएं प्रदान करना।

प्रश्न 10.
आपकी राय में, क्या उदारीकरण के दूरगामी लाभ उसकी लागत की तुलना में अधिक हो जाएंगे? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
भारतीय अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण मुख्यतः उदारीकरण की नीति के कारण हुआ जोकि 1980 के दशक में शुरू हुई। उदारीकरण में कई प्रकार की नीतियां सम्मिलित हैं जैसे कि सरकारी विभागों का निजीकरण, पूंजी, श्रम तथा व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए सीमा शुल्क कम करना तथा विदेशी कंपनियों को देश में उद्योग स्थापित करने के लिए सुविधाएं देना।

इसमें आर्थिक नियंत्रण को सरकार द्वारा कम या खत्म करना, उदयोगों का निजीकरण तथा मज़दूरी और मूल्यों पर से सरकारी नियंत्रण खत्म करना भी शामिल है। जो लोग बाजारीकरण के समर्थक हैं उनका कहना है कि इससे समाज आर्थिक रूप से समृद्ध होगा क्योंकि निजी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं की अपेक्षा अधिक कुशल होती हैं।

उदारीकरण से कई परिवर्तन आए जिनसे आर्थिक संवृद्धि बढ़ी तथा साथ ही भारतीय बाजार विदेशी कंपनियों के लिए खुल गए। जैसे कि अब भारत में बहुत-सी विदेशी वस्तुएं मिलने लग गई हैं जो पहले नहीं मिलती थीं। यह माना जाता है कि विदेशी पूंजी के निवेश से आर्थिक विकास के साथ रोज़गार के अवसर भी बढ़ते हैं। सरकारी कंपनियों का निजीकरण करने से उनकी कुशलता बढ़ती है तथा सरकार पर दबाव कम होता है।

चाहे हमारे देश में उदारीकरण का प्रभाव मिश्रित ही रहा है परंतु फिर भी बहुत-से लोग यह मानते हैं कि उदारीकरण से हम अपनी अधिक चीजें खोकर कम चीजों को पाएंगे तथा इसका भारतीय परिवेश पर प्रतिकल असर हुआ है। उनका कहना है कि भारतीय योग किलोदेवर या पचना तकनीमा सो महणी सफल उत्पादन को वैश्विक बाज़ार से लाभ होगा परंतु कई क्षेत्रों कि आटोमोबाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और तेलीय अनाजों के उद्योग पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि हम विदेशी उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे।

अब भारतीय किसान अन्य देशों के किसानों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं क्योंकि अब कृषि उत्पादों का आयात होता है। पहले भारतीय किसान कृषि सहायता मूल्य (M.S.P.) तथा सबसिडी द्वारा विश्व बाजार से सुरक्षित थे। इस समर्थन मूल्य से किसानों की न्यूनतम आय सुनिश्चित होती है क्योंकि इस मूल्य पर सरकार किसानों से उनके उत्पाद खरीदने को तैयार होती है। सबसिडी देने से किसानों द्वारा प्रयोग की जाने वाली चीज़ों जैसे कि डीज़ल, उर्वरक इत्यादि का मूल्य सरकार कम कर देती है।

परंतु उदारवाद इस सरकारी सहायता के विरुद्ध है जिस कारण सबसिडी का समर्थन मूल्य या तो कम कर दिया गया या हटा लिया गया। इससे बहुत-से किसान अपनी रोजी-रोटी कमाने में भी असफल रहे हैं। इसके साथ ही छोटे उत्पादकों को विश्व स्तर के उत्पादकों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। इससे हो सकता है कि उनका बिल्कुल ही सफाया हो जाए। निजीकरण से सरकारी नौकरियां भी कम हो गई हैं तथा उनमें स्थिरता कम हो रही है। गैर-सरकारी असंगठित रोज़गार सामने आ रहे हैं। उदारीकरण कामगारों के लिए भी ठीक नहीं है क्योंकि उन्हें कम तनख्वाह तथा अस्थायी नौकरियां ही मिलेंगी।

प्रश्न 11.
बस्तर में एक आदिवासी गांव का बाज़ार।
धोराई एक आदिवासी बाज़ार वाले गांव का नाम है जोकि छत्तीसगढ़ के उत्तरी बस्तर जिले के भीतरी इलाके में बसा है… जब बाज़ार नहीं लगता, उन दिनों धोराई एक उँघता हुआ, पेड़ों के छपरों से छना हुआ, घरों का झुरमुट है जो पैर पसारे उन सड़कों से जा मिलता है जो बिना किसी नाप-माप के जंगल भर में फैली हुई है… धोराई का सामाजिक जीवन, यहां की दो प्राचीन चाय की दुकानों तक सीमित है, जिसके ग्राहक राज्य वन सेवा के निम्न श्रेणी के कर्मचारी हैं जो दुर्भाग्यवश इस दूरवर्ती और निरर्थक इलाके में कर्मवश फंसे पड़े हैं…

धोराई का गैर-बाज़ारी दिनों में या शक्रवार को छोडकर अस्तित्व शन्य के बराबर होता है. पर बाजार वाले दिन वो किसी और जगह में तबदील हो जाता है। टकों से रास्ता जाम हआ होता है…वन के सरकारी कर्मचारी अपनी इस्तरी की हई पोशाकों में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे होते हैं और वन सेवा के महत्त्वपूर्ण अधिकारी अपनी डयटी बजाकर वन विभाग के विश्राम गृहों के आँगनों से बाज़ार पर बराबर नज़र बनाए रखते हैं। वे आदिवासी श्रमिकों को उनके काम का भत्ता बांटते हैं…

जब अफ़सरात आराम घर में सभा लगाते हैं तो आदिवासियों की कतार चारों ओर से खिंचती चली जाती है, वो जंगल के समान अपने खेतों की उपज या फिर अपने हाथ से बनाया हुआ कुछ लेकर आते हैं। इनमें तरकारी बेचने वाले हिंदू एवं विशेषज्ञ शिल्पकार, कुम्हार, जुलाहे एवं लोहार सम्मिलित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि समृद्धि के साथ अस्त-व्यस्तता है, बाज़ार के साथ-साथ कोई धार्मिक उत्सव भी चल रहा है…लगता है जैसे सारा संसार, इंसान, भगवान् सब एक ही जगह बाज़ार में एकत्रित हो गए हैं। बाज़ार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है, लगभग 100 एकड़ के वर्गमूल में बसा हुआ है जिसके बीचों-बीच एक भव्य बरगद का पेड़ है।

बाजार की छोटी-छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी है और यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे से बन गए हैं, जिनमें से खरीदार संभलते हुए किसी तरह कम स्थापित दुकानदारों के कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थाई दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

स्रोत : गेल 1982 : 470-71
दिए गए उद्धरण को पढ़िए एवं नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
(1) यह लेखांश आप को आदिवासियों और राज्य (जिसका प्रतिनिधित्व वन विभाग के अधिकारियों द्वारा होता है) के बीच के संबंध के बारे में क्या बताता है? वन विभाग के अर्दली, आदिवासी जिलों में इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारी आदिवासी श्रमिकों को भत्ता क्यों दे रहे हैं?

(2) बाज़ार की रूपरेखा उसके संगठन और कार्य-व्यवस्था के बारे में क्या प्रकट करती है? किस प्रकार के लोगों की स्थाई दुकानें होंगी और ‘कम स्थापित’ दुकानदार कौन हैं, जो ज़मीन पर बैठते हैं?

(3) बाज़ार के मुख्य विक्रेता और खरीदार कौन हैं? बाज़ार में किस प्रकार की वस्तुएं होती हैं और इन विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को कौन लोग खरीदते व बेचते हैं? इससे आपको इस क्षेत्र की स्थानीय अर्थव्यवस्था और आदिवासियों के बड़े समाज और अर्थव्यवस्था से संबंध के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
(1) इस लेखांश से हमें राज्य तथा आदिवासियों के बीच के संबंध के बारे में पता चलता है कि आदिवासियों का जीवन राज्य कर्मचारियों के बिना पूर्ण नहीं है बल्कि अधूरा है क्योंकि वन के सरकारी कर्मचारी उनके बाज़ारों पर नज़र रखते हैं तथा उनकी सहायता करते हैं। वन विभाग के अर्दली आदिवासी जिलों में महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वह वनों की देख-रेख करते हैं तथा इस कारण कर्मचारियों के आदिवासियों से अच्छे संबंध बन गए हैं।

(2) धोराई एक आदिवासी साप्ताहिक बाज़ार वाला ग्राम है। बाज़ार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है जो लगभग 100 एकड़ वर्गमूल में बसा हुआ है। इसके बीचोंबीच एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है। बाज़ार की छोटी छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी हुई है तथा यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे बने हुए हैं जिनमें से खरीदार संभलते हुए, किसी प्रकार कम स्थापित दुकानदारों के कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थायी दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

(3) इस बाज़ार के मुख्य खरीदार तथा विक्रेता आदिवासी ही हैं। इस बाज़ार में वनों में मिलने वाली चीजें तथा शहर से आने वाली आवश्यकता की चीजें उपलब्ध होती हैं। आदिवासियों की स्थानीय अर्थव्यवस्था एक-दूसरे पर आश्रित होती है तथा इनका काफ़ी बड़ा समाज होता है।

प्रश्न 12.
तमिलनाडु के नाकरट्टारों में जाति आधारित व्यापार।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नाकारट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था अर्थशास्त्रियों के पश्चिमी स्वरूप के बैंकिंग व्यवस्था के प्रारूप से मिलती है…नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जोकि व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था।

आधनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था के विपरीत, नाकरटटारों में नेकनामी (प्रतिष्ठा) निर्णय, क्षमता और जमा पूंजी जैसे सिद्धांतों के अनुसार विनिमय होता था, न कि सरकार नियंत्रित केंद्रीय बैंक के नियमों के अंतर्गत और यही प्रतीक संपूर्ण जाति के प्रतिनिधि की तरह प्रत्येक एकल नाकरट्टर व्यक्ति के इस व्यवस्था में विश्वास को सुनिश्चित करते थे। दूसरे शब्दों में, नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी।

हर एक नाकरट्टार ने अपना जीवन विभिन्न प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में शामिल होने और उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया था। यह वह संस्थाएं थीं जो उनके समुदाय में पूंजी जमा करने और बांटने में जुटी हुई थीं।
स्रोत : रुडनर 1994 : 234
कास्ट एंड केपिटेलिज्म इन कॉलोनियल इंडिया (रुडनर 1994) से लिए गए लेखांश को पढ़ें और निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दें-
(1) लेखक के अनुसार, नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में क्या महत्त्वपूर्ण अंतर हैं?
(2) नाकरट्टाओं की बैंकिंग और व्यापारिक गतिविधियां अन्य सामाजिक संरचनाओं से किन विभिन्न तरीकों से जुड़ी हुई हैं।
(3) क्या आप आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत ऐसे उदाहरण सोच सकते हैं जहां आर्थिक गतिविधियां नाकरट्टाओं की ही तरह सामाजिक संरचना में घुली-मिली हों?
उत्तर:
(1) यह अंतर अग्रलिखित हैं:

  • नाकरट्टाओं में एक दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित संबंधों से जुड़ा होता है जबकि आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में ऐसा नहीं होता है।
  • नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित थी परंतु पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था पैसे पर आधारित है।
  • नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी परंतु पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था सरकार द्वारा नियंत्रित होती है।

(2) नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जोकि व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था। उनकी बैंकिंग व्यवस्था जाति पर आधारित व्यवस्था थी। हरेक नाकरट्टार ने अपने जीवन को अलग प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में सम्मिलित होने तथा उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया हुआ था।

(3) आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सहकारी संस्थाएं होती हैं जहां पर आर्थिक गतिविधियां नाकरट्टाओं की तरह ही सामाजिक संरचना में घुली-मिली होती हैं।

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प्रश्न 13.
इस गद्यांश में दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
पण्यीकरण बड़ा शब्द है, जो सुनने में जटिल लगता है। पर जिन प्रक्रियाओं की तरफ़ वो इशारा करता है उनसे हम परिचित हैं और वे हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। एक साधारण उदाहरण है : बोतल का पानी।

शहर या कस्बे में, यहां तक कि अधिकांश गांवों में भी बोतल का पानी खरीदना अब संभव है, 2, 1 लीटर या उससे छोटे पैमाने में वो हर एक जगह बेची जाती है। अनेक कंपनियां हैं और अनेक ब्रांड के नाम हैं जिससे पानी की बोतलें पहचानी जाती हैं। पर यह एक नयी प्रघटना है जो दस-पंद्रह साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। मुमकिन है कि आप खुद उस समय को याद कर सकते हैं जब पानी की बोतलें नहीं बिका करती थीं। बड़ों से पूछो। माता-पिता के पीढ़ी के लोगों को अजीब लगा होगा और आप के दादा-दादी के जमाने में तो इसके बारे में बिरले लोगों ने सुना या सोचा होगा। ऐसा सोचना भी कि पेयजल के लिए कोई पैसा मांग सकता है, उनके लिए अविश्वसनीय होगा।

पर, आज यह हमारे लिए आम बात है, एक साधारण-सी बात, एक वस्तु जिसे हम खरोद (या बेच) सकते हैं। इसी को पण्यीकरण (commoditisation/commodification) कहते हैं, एक प्रक्रिया जिसके द्वारा कोई भी चीज़ जो बाज़ार में नहीं बिकती हो वह बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बन जाती है और बाजार अर्थव्यवस्था का एक भाग बन जाती है। क्या आप ऐसी चीजों के बारे में सोच सकते हैं जो हाल ही में बाजारों में शामिल हुई हों? याद रहे कि यह ज़रूरी नहीं कि कोई वस्तु ही एक पण्य हो, कोई सेवा भी पण्य हो सकती है।

ऐसी चीजों के बारे में भी सोचें जो आज पण्य भले न हों पर भविष्य में हो सकती हों। आप कारण भी सोचें कि ऐसा क्यों होगा। अंत में, इस बारे में भी सोचें कि पहले जमाने की कुछ चीजें अब बिकनी बंद क्यों हो गई हैं (मतलब जिनका पहले विनिमय में योगदान था पर अब नहीं है) क्यों और कब कोई कमॉडिटी, कमॉडिटी नहीं रह जातो?
उत्तर:
(i) आजकल के समय में बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जो हमारे बाजार में शामिल हई हैं जैसे कि बना हुआ पैक्ड खाना, बोतलों में पानी, विदेशी कारें, विदेशी इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान. इंटरनेट तथा उस पर मौजूद कई प्रकार की सेवाएं इत्यादि।

(ii) कई चीजें जो हो सकता है आने वाले समय में बाजार में मौजूद हों वे हैं- भगवान के दर्शन, इच्छा अनुसार रूप बदलना, अपनी इच्छा की संतान प्राप्ति इत्यादि।

(iii) बहुत-सी प्राचीन चीजें हमारे समाज में बिकनी बंद हो गई हैं जैसे कि कई प्रकार के आभूषण। हो सकता है कि उनकी समाज के लिए उपयोगिता ही खत्म हो गई हो जिस कारण यह आज बिकनी बंद हो गई हैं।

प्रश्न 14.
जब बाज़ार भी बिकता हो : पुष्कर पशु मेला
“कार्तिक का महीना आते ही…. ऊंटों के गाड़ीवान अपने रेगिस्तानी जहाजों को सजाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के वक्त पहुंचने के लिए समय से पुष्कर की लंबी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं…हर साल लगभग 2,00,000 लोग और 50,000 ऊँट और अन्य पशुओं का यहां जमावड़ा लगता है।

वो उन्माद देखते ही बनता है जब रंग, शोर और चहल-पहल से लोग घिरे होते हैं, संगीतवादक, रहस्यवादी, पर्यटक, व्यापारी, पशु और भक्त सब एक जगह इकट्ठा होते हैं। एक तरह से कहें तो यह ऊंटों को सँवारने का निर्वाण है-जिसमें मकई के बाल की तरह बाल संवारे हुए ऊंटों, पायलों की झनकार, कढ़ाई किए वस्त्रों और टम-टम पर सवार लोगों से आपकी अद्भुत भेंट हो सकती है।”

“ऊंटों के मेले के साथ ही धार्मिक प्रतिष्ठान भी एक जंगली-जादुई चरम पर होता है-अगरबत्तियों का घना धुआं, मंत्रों का शोर और मेले की रात में, हजारों भक्त नदी में डुबकी लगाकर अपने पाप धोते हैं और पवित्र पानी में टिमटिमाते दिए छोड़ते हैं।”

स्रोत : लोनली प्लानेट, भारत के लिए पर्यटन गाइड के ग्यारहवें संस्करण से। पीछे दिए लेखांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें:
(1) पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से इस जगह पर कौन सी नयी वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी और लोगों के दायरे का विकास हुताा है?
(2) आपके विचार में बड़ी संख्या में भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से मेले का रूप किस तरह बदल गया
(3) इस जगह का धार्मिक उन्माद किस तरह से इसकी बाज़ारी कीमत को बढ़ाता है? क्या हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्मक का एक बाज़ार है?
उत्तर:
(1) पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से यहां पर विदेशी वस्तुओं, सभी प्रकार की सुविधाओं, विदेशी पूंजी तथा विदेशी लोगों के आने से यहां के लोगों के दायरे का काफी विकास हुआ है।

(2) पहले इस मेले को एक क्षेत्रीय मेले के रूप में देखा जाता था परंतु भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से यह मेला क्षेत्रीय मेले से अंतर्राष्ट्रीय मेले का रूप धारण कर चुका है।

(3) यह कहा जाता है कि पुष्कर के सरोवर में स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। इस समय लाखों लोग यहां पर आते हैं। यहां पर धर्म से संबंधित खूब साहित्य बिकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्म का एक काफी बड़ा बाजार है।

बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में HBSE 12th Class Sociology Notes

→ दैनिक बोलचाल की भाषा में बाजार शब्द को विशेष वस्तु के बाजार के रूप में प्रयोग किया जाता है जैसे कि फलों का बाज़ार, सब्जी का बाजार अर्थात् हम इसे अर्थव्यवस्था से संबंधित करते हैं। परंतु यह एक सामाजिक संस्था भी है जिसका अध्ययन इस अध्याय में किया जाएगा।

→ समाजशास्त्रियों के अनुसार बाज़ार वह सामाजिक संस्थाएं हैं जो विशेष सांस्कृतिक तरीकों द्वारा निर्मित हैं। बाज़ारों का नियंत्रण तो विशेष सामाजिक वर्गों द्वारा होता है तथा इसका अन्य संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं और संरचनाओं से भी विशेष संबंध होता है।

→ विभिन्न सामाजिक समूह अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अपने बाजार निर्मित कर लेते हैं। जैसे कि जनजातीय क्षेत्रों में साप्ताहिक बाज़ार स्थापित किए गए थे। उपनिवेशिक दौर में तो जनजातीय श्रम का एक बाज़ार विकसित हो गया था।

→ बाजारों का एक सामाजिक संगठन भी होता है तथा समाज में पारंपरिक व्यापारिक समुदाय भी होते हैं। चाहे यह समुदाय वैश्य वर्ण से संबंधित होते हैं परंतु कई और समुदाय भी इनमें जुड़ गए हैं जैसे कि पारसी, सिंधी, बोहरा, जैन इत्यादि।

→ उपनिवेशवाद के कारण प्राचीन बाज़ार नष्ट हो गए तथा नए बाज़ार सामने आ गए। उपनिवेशवाद के कारण भारत कच्चे माल का उत्पादक तथा उत्पादित माल के उपयोग का साधन बन गया। इसका मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड को आर्थिक लाभ पहुंचाना था। स्वतंत्रता के बाद तो बाज़ार का स्वरूप ही बदल गया।

→ पूंजीवाद में उत्पादन बाजार के लिए किया जाता है ताकि अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। पूंजीपति धन का निवेश करके लाभ कमाता है। वह श्रमिकों को अधिक पैसा न देकर उनके श्रम से अतिरिक्त मूल्य निकाल लेता है।

→ भूमंडलीकरण का अर्थ है संसार के चारों कोनों में बाजारों का विस्तार और एकीकरण का बढ़ना। इस एकीकरण का अर्थ है कि संसार में किसी एक कोने में किसी बाज़ार में परिवर्तन होता है तो दूसरे कोनों में उसका अनुकूल-प्रतिकूल असर हो सकता है।

→ उदारवादिता में सरकारी दखल कम करना, सीमा शुल्क खत्म करना तथा अपने देश के बाज़ार को और देशों की कंपनियों के लिए खोलना है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है तथा उपभोक्ताओं का लाभ होता है।

→ भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण के कारण स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजारों का गठजोड़ हो रहा है जिससे स्थानीय क्षेत्र में संसार की हरेक वस्तु उपलब्ध हो रही है।

→ अदृश्य हाथ-वह अदृश्य बल जो व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में बदल देता है।

→ लेसे-फेयर-वह नीति जिसके अनुसार बाज़ार को अकेला छोड़ दिया जाए अथवा हस्तक्षेप न किया जाए।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

→ बाज़ार-वह स्थान जहां वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है या उन्हें खरीदा या बेचा जाता है।

→ जजमानी व्यवस्था-गाँवों में विभिन्न प्रकार की गैर-बाज़ारी विनिमय व्यवस्था अथवा सेवा के बदले चीज़ देने का प्रचलन।

→ खेतिहर-किसान अथवा कषि का कार्य करने वाले लोग।

→ पण्यीकरण-वस्तु को खरीद या बेच सकने की प्रक्रिया।

→ निजीकरण-सरकारी संस्थानों को प्राइवेट कंपनियों को बेच देने की प्रक्रिया।

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