HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

HBSE 12th Class Sociology सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति व्यवस्था में पृथक्करण (Separation) और अधिक्रम (Hierarchy) की क्या भूमिका है?
अथवा
जाति व्यवस्था में पृथककरण तथा अधिकार की भूमिका पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अगर हम ध्यान से जाति व्यवस्था को देखें तो हमें पता चलता है कि जाति व्यवस्था में पृथक्करण तथा अधिक्रम की बहुत बड़ी भूमिका है। इन दोनों के न होने की स्थिति में जाति व्यवस्था के मुख्य लक्षण ही खत्म हो जाएंगे।
इनका विवेचन इस प्रकार है-
1. पृथक्करण (Separation)-जाति व्यवस्था की यह विशेषता थी कि इसमें हरेक जाति दूसरी जाति से पूर्णतया पृथक् होती थी। पृथक् होने के कारण दो जातियों के एक-दूसरे में मिश्रित होने का खतरा नहीं रहता है। प्रत्येक जाति के कुछ नियम होते थे; जैसे कि खाने-पीने के, विवाह के, सामाजिक संबंध रखने के, व्यवसाय के इत्यादि तथा इनके कारण ही वह एक-दूसरे से पृथक् होती थी। चाहे यह सभी जातियां एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् होती थीं, परंतु इनका अस्तित्व संपूर्ण जाति-व्यवस्था के कारण ही संभव था। इससे अलग होने से इनका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता था।

2. अधिक्रम (Hierarchy)-जाति व्यवस्था की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता इसमें अधिक्रम का पाया जाना था। अधिक्रम का अर्थ है प्रत्येक वर्ग अथवा जाति का व्यवस्था में विशेष स्थान होता था
तथा एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का विशेष स्थान। प्रत्येक जाति के बीच कुछ अंतर होते थे तथा ये अंतर शुद्धता तथा अशुद्धता पर आधारित होते थे। उन जातियों को उच्च स्थान प्राप्त होता था जिन्हें शुद्ध माना जाता था तथा जिन जातियों को अशुद्ध समझा जाता था उन्हें निम्न स्थान प्राप्त होता था। मुख्यतः आजकल के समाजों में उन वर्गों को उच्च स्थान प्राप्त होता था जिनके पास सत्ता अथवा शक्ति होती थी।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 2.
वे कौन-से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।
अथवा
जाति व्यवस्था की चार विशेषताएं बताइए।
अथवा
जाति व्यवस्था की कुछ विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
जाति व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक होता है जिनका वर्णन इस प्रकार है
(i) प्रत्येक व्यक्ति की जाति जन्म से ही निर्धारित हो जाती थी अर्थात् जिस जाति में व्यक्ति जन्म लेता है उसे उस जाति में ही तमाम आयु व्यतीत करनी पड़ती थी। वह योग्यता होते हुए भी अपनी जाति को परिवर्तित नहीं कर सकता था। हम न तो अपनी जाति को छोड़ सकते थे तथा न ही अन्य जाति को अपना सकते थे।

(ii) प्रत्येक जाति में विवाह के संबंध में नियम बनाये होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को पता होता है कि किस जाति से वैवाहिक संबंध स्थापित करने थे। जाति अंतर्वैवाहिक होती थी अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था।

(iii) जाति व्यवस्था में एक निश्चित अधिक्रम पाया जाता था। अर्थात् इसमें एक निश्चित सोपान होता है। प्रत्येक जाति का एक निश्चित स्थान होता था तथा इसके आधार पर प्रत्येक जाति की सामाजिक स्थिति उच्च अथवा निम्न होती थी।

(iv) जाति व्यवस्था में खाने-पीने के संबंध में प्रतिबंध होते हैं। प्रत्येक जाति के लिए यह निश्चित होता है कि किस जाति के साथ खाने-पीने के संबंध रखने हैं तथा किस के साथ नहीं रखने हैं।

(v) प्रत्येक जाति का अपना एक निश्चित व्यवसाय होता था तथा व्यक्ति का व्यवसाय उसके जन्म के अनुसार ही निश्चित हो जाता था। व्यक्ति को उस जाति का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था जिसमें उसने जन्म लिया था।

(vi) प्रत्येक जाति आगे बहुत-सी उपजातियों में विभाजित होती थी तथा प्रत्येक उपजाति के अपने ही नियम होते थे। प्रत्येक व्यक्ति इन नियमों को मानने को बाध्य होता था।

प्रश्न 3.
उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?
अथवा
उपनिवेशवाद व जाति में संबंध बताइए।
उत्तर:
भारत में उपनिवेशवाद के स्थापित होने से पहले तथा स्थापित होने के कुछ समय तक जाति व्यवस्था सुदृढ़ता से कार्य कर रही थी। परंतु उपनिवेशवाद के स्थापित होने के बाद औपनिवेशिक शासकों ने भारत में बहुत से परिवर्तन किए जिनका जाति व्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस प्रकार उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) पश्चिमी शिक्षा के कारण आए परिवर्तन-उपनिवेशवाद में भारत में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के बच्चों को समान रूप से शिक्षा दी जाती थी। पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के बाद सभी को एक-दूसरे के अधिकारों के बारे में पता चला जिससे जाति प्रथा का प्रभाव कम हो गया। स्त्रियों तथा निम्न जातियों के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए गए जिस कारण जाति प्रथा की इन्हें शिक्षा न देने की विशेषता खत्म हो गई तथा जाति प्रथा का प्रभाव कम हो गया।

(ii) सर्वेक्षण करवाना-औपनिवेशिक शासकों ने भारत में बहुत-से परिवर्तन तो किए तथा यह सभी परिवर्तन सोच समझकर लाए गए। शुरू में उन्होंने जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया ताकि शासन को कुशलतापूर्वक चलाया जा सके। इसलिए उन्होंने अलग-अलग जातियों तथा जनजातियों की प्रथाओं तथा तौर-तरीकों के बारे में गहन सर्वेक्षण किए तथा रिपोर्ट तैयार की गई। इनके आधार पर उन्होंने समाज में परिवर्तन लाने शुरू किए जिससे जाति व्यवस्था भी परिवर्तित होनी शुरू हो गई।

(iii) समाज सुधार-पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के बाद पढ़े-लिखे भारतीयों ने समाज-सुधार के कार्य शुरू किए तथा उनका मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा को समाज में से खत्म करना था। अंग्रेजों ने भी उनका साथ दिया। सभी समाज सुधारकों ने जाति-प्रथा के विरुद्ध कई प्रकार के प्रयास किए। निम्न जातियों के कल्याण के कार्य किए गए, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया गया, विधवा विवाह को तथा बाल विवाह खत्म करने को कानूनी मान्यता प्राप्त हुई। इससे जाति प्रथा की जटिलता कम होनी शुरू हो गई।

(iv) परंपरागत व्यवसायों का कम होना-उपनिवेशवाद के आने से भारत में नए सैंकड़ों प्रकार के व्यवसाय भी आए। उद्योग शुरू हुए, स्कूल, कॉलेज इत्यादि शुरू हुए, दफ्तर खुल गए जिससे लोगों ने अपनी पसंद तथा योग्यता के अनुसार कार्य करने शुरू किए। इससे परंपरागत व्यवसायों का समाप्त होना शुरू हुआ जिससे जाति व्यवस्था में परिवर्तन आना शुरू हो गया।

(v) निम्न जातियों का कल्याण-औपनिवेशिक काल के अंतिम दौर में निम्न जातियों के कल्याण के कार्य शुरू हुए। प्रशासन ने इनके कल्याण में विशेष रुचि ली। 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया गया जिसने राज्य द्वारा विशेष व्यवहार के लिए निर्धारित जातियों तथा जनजातियों की सूचियों या अनुसूचियों को वैध मान्यता प्रदान कर दी।

इससे अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियाँ जैसे शब्द अस्तित्व में आए। जातीय सोपान में निम्न स्थान पर रहने वाली जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया तथा उनके कल्याण के अनेकों कार्य किए गए। इस प्रकार उपनिवेशवाद से जाति व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। यदि हम यह कहें कि औपनिवेशिक काल में जाति व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन आए हैं तो गलत भी नहीं होगा।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 4.
किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई है?
अथवा
जाति व्यवस्था के समकालीन रूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में जाति व्यवस्था में आए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक परिवर्तन यह भी है कि अब नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य होती जा रही है। यह समूह, जो स्वतंत्रता के बाद की विकासात्मक नीतियों से सबसे अधिक लाभांवित हुए हैं, जातीय महत्ता को बहुत ही कम महत्त्व देते हैं। इसका कारण यह है कि जाति व्यवस्था का कार्य अच्छी तरह संपन्न हो चुका है। इन समूहों की जातीय परिस्थिति ने यह बात सुनिश्चित किया है कि इन समूहों के लिए विकास करने के लिए आवश्यक आर्थिक तथा शैक्षिक संसाधन उपलब्ध हों। उच्च जातियों के लोग सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों विशेषतया विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा प्रबंधन इत्यादि से व्यावसायिक शिक्षा लेने में सफल हुए।

उन्होंने राजकीय क्षेत्रों में स्वतंत्रता के पश्चात् नौकरियां की तथा लाभ उठाया। इनकी अग्रणी शैक्षिक स्थिति के कारण इन्हें किसी गंभीर प्रतिस्पर्धा का सामना करना नहीं पड़ा। उनकी दूसरी तथा तीसरी पीढ़ियों में जब उनकी स्थिति और सुदृढ़ हो गई तो इन समूहों को यह विश्वास हो गया कि उनकी प्रगति का जाति से कुछ भी लेना देना नहीं है।

उनकी अगली पीढ़ियों की आर्थिक तथा शैक्षिक पूँजी यह सुनिश्चित करने के लिए काफी थी कि उन्हें जीवन में सर्वोत्तम अवसर प्राप्त होते रहेंगे। इन समूहों के सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्त्व खत्म हो गया है। अगर है भी तो वह है धार्मिक रीति-रिवाज अथवा नातेदारी के.व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही सीमित है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई है।

प्रश्न 5.
भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
अथवा
भारत में जनजातियों के वर्गीकरण की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
अथवा
जनजातियों के अर्जित विशेषकों पर संक्षेप में प्रकाश डालिये।
अथवा
जनजातियों के स्थायी विशेषकों पर प्रकाश डालिये।
अथवा
जनजातीय समाज की स्थायी एवं अर्जित विशेषताएं बताइए।
अथवा
भाषायी दृष्टि से जनजातियों की कौन-कौन सी श्रेणियाँ हैं?
अथवा
जनजातीय समाज के अर्जित विशेषक क्या हैं?
उत्तर:
यदि हम ध्यान से देखें तो जनजातियों को स्थायी तथा अर्जित विशेषताओं के आधार पर विभाजित किया जाता है। इन दोनों आधारों का वर्णन इस प्रकार है-
1. स्थायी विशेषक-भारत में जनजातियाँ अलग-अलग क्षेत्रों में फैली हुई हैं, परंतु कुछ क्षेत्रों में यह काफ़ी अधिक हैं। 85% जनजातीय लोग मध्य भारत में रहते हैं जो पश्चिम में गुजरात और राजस्थान से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा तक फैला हुआ है। इनकी 11% जनसंख्या पूर्वोत्तर राज्यों में तथा 3% से कुछ अधिक शेष भारत में रहते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी जनसंख्या सबसे घनी हैं। असम को छोड़कर उनका घनत्व 30% से अधिक है, परंतु अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम तथा नागालैंड जैसे राज्यों में इनकी जनसंख्या 60% से लेकर 95% तक है। देश के शेष भागों में इनकी जनसंख्या बहुत ही कम है।

(a) भाषा के आधार पर विभाजन-भाषा के आधार पर इन्हें चार श्रेणियों में बाँटा गया है। इनमें से दो श्रेणियों अर्थात् भारतीय आर्य तथा द्रविड़ परिवार की भाषाएँ शेष भारतीय जनसंख्या द्वारा भी बोली जाती हैं। जनजातियों में से लगभग 1% लोग भारतीय आर्य परिवार की भाषाएँ तथा 3% लोग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। दो और भाषा समूह-आस्ट्रिक तथा तिब्बती-बर्मी, जनजातीय लोगों द्वारा बोले जाते हैं। इनमें से आस्ट्रिक परिवार की भाषाएँ पूर्णतया जनजातीय लोगों द्वारा तथा तिब्बती-बर्मी परिवार की भाषाएँ 80% से अधिक जनजातीय लोगों द्वारा ही प्रयुक्त होती हैं।

(b) शारीरिक प्रजातीय आधार-शारीरिक प्रजातीय दृष्टि से जनजातियों के लोगों को नीग्रिटो, आर्टेलॉयड, द्रविड़ तथा आर्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। भारत की जनसंख्या का शेष भाग भी आर्य तथा द्रविड़ श्रेणियों के अंतर्गत आता है।

(c) जनसंख्या के आधार पर-जनसंख्या के आधार पर जनजातियों में काफी विविधता पाई जाती है। सबसे बड़ी जनजाति की संख्या 70 लाख के लगभग है जबकि सबसे छोटी जनजाति के लोग 100 से भी कम हैं। गोंड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो तथा मुंजा जनजातियों की जनसंख्या 10 लाख से ऊपर है। यह लोग भारत की जनसंख्या का 8.2% अथवा 8.4 करोड़ लोग हैं।

(ii) अर्जित विशेषक-अर्जित विशेषताओं के आधार पर उन्हें अजीविका साधन तथा हिंदू समाज में उनके समावेश की सीमा अथवा दोनों के आधार पर विभाजित किया जा सकता है।

(a) आजीविका के आधार पर-आजीविका के आधार पर इन्हें मछुआ, खाद्य संग्राहक तथा शिकारी, भूमि कृषि करने वाले, कृषक और बागान तथा औद्योगिक कामगारों की श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। परंतु इनका सबसे प्रभावी वर्गीकरण इस बात पर आधारित है कि हिंदू समाज में किसी जनजाति को कहाँ तक शामिल किया गया है। मुख्यधारा के दृष्टिकोण से, जनजातियों को हिंदू समाज में मिली परिस्थिति की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। कुछेक को तो उच्च स्थान दिया जाता है, परंतु अधिकांश को मुख्यता निम्न स्थान ही दिया जाता है।

प्रश्न 6.
जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं, इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर:
कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि जनजातियों को ऐसे आदिम अथवा मौलिक समाज मानने का कोई आधार नहीं है कि यह सभ्यता से अछूते रहे हों। इनके स्थान पर उनका कहना था कि जनजातियों को वास्तव में ऐसी दवितीयक प्रघटना माना जाए जो पहले से मौजूद राज्यों तथा जनजातियों जैसे राज्येतर समहों के बीच शोषण करने वाले और उपनिवेशवादी संपर्क के कारण अस्तित्व में आया। इस प्रकार का संपर्क स्वयं ही एक जनजातिवादी विचारधारा को जन्म देता है-जनजातीय समूह नए संपर्क में आए अन्य लोगों से अपने आपको अलग दिखाने के लिए. स्वयं को जनजातीय के रूप में परिभाषित करने लगता है।

प्रश्न 7.
आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है उसके पीछे क्या कारण हैं?
अथवा
समकालीन जनजातीय पहचान की विवेचना कीजिए।
अथवा
जनजातीय पहचान आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आज के समय में जनजातीय पहचान को बनाए रखने का आग्रह लगातार बढ़ रहा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जनजातीय समाज के अंदर भी एक मध्य वर्ग का प्रादुर्भाव हो चला है। विशेष रूप से इस वर्ग के आगे आने के साथ ही परंपरा, संस्कृति, आजीविका यहाँ तक कि भूमि तथा संसाधनों पर नियंत्रण और आधुनिकता की परियोजनाओं के लाभों में हिस्से की मांगें भी जनजातियों में अपनी पहचान को बनाए रखने के आग्रह का अभिन्न अंग बन गई हैं। इसलिए अब जनजातियों में उनके मध्य वर्ग के कारण एक नई जागरूकता की लहर आ रही है। यह मध्य वर्ग स्वयं भी आधुनिक शिक्षा तथा आधुनिक व्यवसायों के कारण सामने आया है जिन्हें सरकार की आरक्षण रखने की नीतियों से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है।

प्रश्न 8.
परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
यदि हम ध्यान से देखें तो आधुनिक समाज में मुख्य दो प्रकार के परिवार पाए जाते हैं जो कि इस प्रकार हैं-
(i) एकाकी परिवार-परिवार का मूल रूप एकाकी परिवार है। एकाकी परिवार में पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। जब उनके बच्चों का विवाह हो जाता है तो वह अपना नया घर बसा लेते हैं। चाहे परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ जाती है, परंतु मौलिक रूप से परिवार एकाकी ही रहता है। इस परिवार में पति-पत्नी को समान परिस्थिति… तथा समान अधिकार प्राप्त होते हैं। कोई निर्णय लेने से पहले पत्नी तथा बच्चों की राय भी ली जाती है।

(ii) संयुक्त परिवार-चाहे आजकल के नगरीय परिवारों में परिवार का यह रूप बहत ही कम देखने को मिलता है, परंतु ग्रामीण परिवार आज भी संयुक्त परिवार ही होते हैं। इस प्रकार के परिवार में परिवार की कई पीढ़ियों के सदस्य एक ही छत के नीचे इकट्ठे रहते हैं तथा एक ही रसोई में बना हुआ भोजन खाते हैं। परिवार पर सबसे बड़े सदस्य का पूर्ण अधिकार होता है तथा वह ही परिवार की सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार रखता है।

प्रश्न 9.
सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर:
यह निश्चित है कि सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों से पारिवारिक संरचना में भारी परिवर्तन होता है। कभी-कभी तो यह परिवर्तन अचानक तथा कभी-कभी यह धीरे-धीरे होते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर अंग्रेजों के भारत में आने से शासन व्यवस्था में परिवर्तन आया, पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ, औद्योगिकीकरण का विकास हुआ जिससे विभिन्न प्रकार के पेशे सामने आए। लोगों ने कार्य की तलाश में ग्रामीण क्षे परिवारों को छोड़ दिया। वह शहरों में रहने लगे तथा उन्होंने एकाकी परिवार स्थापित कर लिए। इस प्रकार उपनिवेशवाद द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन आया तथा इससे पारिवारिक संरचना में भी परिवर्तन आया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 10.
मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarachy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
हमारे समाज में कई प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। आवास के आधार पर कुछ समाज पत्नी-स्थानिक तथा कुछ पति-स्थानिक होते हैं। पत्नी-स्थानिक परिवार में नवविवाहित जोड़ा लड़की के माता-पिता के साथ रहता है तथा पति-स्थानिक परिवार में लड़के के माता-पिता के साथ। उत्तराधिकार के नियम के अनुसार, मातृवंशीय समाज में बेटी को माँ से जायदाद प्राप्त होती है तथा पितृवंशीय समाज में पिता से पुत्र को। पितृतंत्रात्मक परिवार में सत्ता तथा प्रभुत्व पुरुष के पास होता है तथा मातृतंत्रात्मक परिवारों में स्त्रियों के पास सत्ता तथा प्रभुत्व होता है। चाहे पितृतंत्र के विपरीत मातृतंत्र एक आनुभाविक संकल्पना की जगह एक सैद्धांतिक कल्पना है।

माततंत्र का कोई मानवशास्त्रीय अथवा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है अर्थात ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ स्त्रियों का प्रभुत्व अधिक हो। चाहे मातृवंशीय समाज होते हैं जहाँ स्त्रियाँ अपनी माताओं से उत्तराधिकार के रूप में जायदाद प्राप्त करती हैं। परंतु उस पर उनका न तो अधिकार होता है तथा न ही सार्वजनिक क्षेत्र में उन्हें कोई निर्णय लेने का अधिकार होता है।

सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ कोई भी समाज संस्थाओं के बिना नहीं चल सकता है। इसलिए सभी समाजों ने अपने क्रिया-कलापों को ठीक ढंग से चलाने के लिए कुछेक संस्थाओं का निर्माण किया हुआ है। इन संस्थाओं को अलग-अलग हिस्सों में भी वर्गीकृत किया गया है जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक इत्यादि।

→ इस अध्याय में केवल सामाजिक संस्थाओं का ही वर्णन किया जाएगा। भारत में भी बहुत-सी सामाजिक संस्थाएं व्याप्त हैं। उनमें से जाति व्यवस्था, विवाह, परिवार, नातेदारी इत्यादि प्रमुख हैं। इस अध्याय में इन संस्थाओं का अध्ययन किया जाएगा।

→ जाति व्यवस्था अपने आप में भारतीय समाज की एक ऐसी संस्था है जिसकी उदाहरण संसार के किसी और देश में देखने को नहीं मिलती है। जाति व्यवस्था का प्रमुख आधार भेदभाव है। चाहे कई आधारों पर अन्य देशों में भी भेदभाव देखने को मिल जाता है, परंतु ऐसी सुदृढ़ संस्था कहीं और देखने को नहीं मिलती है जिसने संपूर्ण समाज तथा देश को बाँधकर रखा था।

→ जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था थी जिसने खान-पान, विवाह करने, सामाजिक संबंधों इत्यादि के संबंध में बहुत से नियम बनाए हुए थे। व्यक्ति के पास चाहे जितनी मर्जी योग्यता हो, वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता।

→ वैसे तो बहुत-से समाजशास्त्रियों ने इसकी परिभाषाएं दी हैं परंतु घुर्ये के अनुसार यह इतनी जटिल व्यवस्था है कि इसको परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए उन्होंने जाति व्यवस्था की छः परिभाषाएं दी हैं।

→ चाहे प्राचीन समय से लेकर 20वीं शताब्दी तक जाति प्रथा के पाँव मज़बूती से भारतीय समाज में बने रहे, परंतु अंग्रेजों के आने के पश्चात् तथा स्वतंत्रता के पश्चात् जाति प्रथा कमजोर पड़नी शुरू हो गई। विधानों, औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण, पश्चिमी शिक्षा जैसी प्रक्रियाओं ने जाति प्रथा को आज के समय में काफी कमजोर कर दिया है।

→ हमारे देश में एक ऐसा समुदाय भी है जो आधुनिक समाज तथा अवस्था से दूर जंगलों, पहाड़ों, घाटियों इत्यादि में आदिम अवस्था में रहता है। इसे जनजातीय समुदाय कहते हैं। इनकी अपनी ही संस्कृति तथा भाषा होती है तथा अपना ही समाज होता है जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहता है।

→ जनजाति को कबीला, आदिवासी, वनवासी, अनुसूचित जनजाति इत्यादि के नाम से भी जाना जाता है। यह माना जाता है कि भारत के असली निवासी तो यही हैं। जब आर्य लोग भारत में आए तो इन्हें जंगलों की तरफ़ खदेड़ दिया गया।

→ क्योंकि यह लोग आदिम अवस्था में रहते हैं इसलिए इनके उत्थान तथा कल्याण के लिए सरकार ने कई प्रकार के कल्याण कार्यक्रम चलाए हैं। यहाँ तक कि इन्हें शैक्षिक संस्थाओं तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया ताकि यह अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठा सकें। इनके नाम तो संविधान में भी दर्ज हैं।

→ परिवार हमारे समाज की सबसे मौलिक संस्थाओं में से एक है। संसार में कोई भी ऐसा समाज नहीं है, जहाँ पर परिवार मौजूद न हो। समाज में बहुत-सी संस्थाएं बनीं, विकसित हुईं तथा खत्म हो गईं, परंतु परिवार नाम की संस्था सदियों से समाज में चल रही है तथा यह चलती ही रहेगी।

→ परिवार उस समूह को कहते हैं जो यौन संबंधों पर आधारित होता है तथा जो इतना छोटा व स्थायी है कि उससे बच्चों की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण हो सके। जो हमदर्दी तथा प्यार व्यक्ति को परिवार में रहकर प्राप्त होता है वह और कहीं भी नहीं होता है।

→ परिवार व्यक्ति के लिए हरेक प्रकार के कार्य करता है। परिवार में बच्चे पैदा होते हैं, उनका पालन-पोषण होता है, उन्हें हरेक प्रकार की शिक्षा दी जाती है, उनका समाजीकरण किया जाता है, उन्हें प्रस्थिति प्रदान की जाती है, उन्हें नियंत्रण में रहना सिखाया जाता है इत्यादि। अगर ध्यान से देखा जाए तो परिवार ही ऐसी संस्था है जो व्यक्ति के लिए हरेक प्रकार का कार्य करती है।

→ हमारे समाज में कई प्रकार के परिवार कई आधारों पर पाए जाते हैं जैसे कि संख्या के आधार पर, रहने के स्थान के आधार पर, सत्ता के आधार पर। वैसे मुख्य रूप से हमारे समाज में एकाकी परिवार तथा संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। चाहे बहुत-सी प्रक्रियाओं के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, परंतु फिर भी एकाकी परिवार हमारे सामने आ रहे हैं। नातेदारी ऐसे संबंधियों के बीच संबंधों की व्यवस्था होती है जिनसे हमारा संबंध वंशावली के आधार पर होता है। वंशावली संबंध परिवार के द्वारा विकसित होते हैं। नातेदारी संसार के सभी समाजों में व्याप्त है। नातेदारी के लिए बंधुत्व, संगोत्रता तथा स्वजनता इत्यादि जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

→ नातेदारी मुख्य दो आधारों पर विकसित होती है। पहला है रक्त संबंधों के आधार पर अर्थात् इसमें केवल रक्त संबंधियों को ही शामिल किया जाता है जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताया-दादा, पौत्र इत्यादि। दूसरा आधार है विवाह का जिसमें केवल विवाह संबंधियों को शामिल किया जाता है जैसे कि सास-ससुर, जीजा, साला, ननद, बहनोई इत्यादि।

→ नातेदारी में तीन प्रकार के संबंध पाए जाते हैं-प्राथमिक, द्वितीय तथा तृतीय। प्राथमिक संबंधों में वे संबंध आते हैं जो सीधे तौर पर बनते हैं जैसे कि पिता, माता, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री इत्यादि। द्वितीय संबंध प्राथमिक संबंधों के आधार पर बनते हैं जैसे कि पिता का भाई, माता का भाई इत्यादि। तृतीय संबंधी द्वितीय संबंधियों के कारण बनते हैं जैसे कि पिता के भाई की पत्नी चाची। शब्दावली

→ जाति (Caste)-वह अंतर्वैवाहिक समूह जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा जिसने सामाजिक सहवास, खान-पान, पेशे इत्यादि से संबंधित सख्त नियम बना कर रखे हैं।

→ संस्कृतिकरण (Sanskritization)-वह प्रक्रिया जिसके द्वारा निम्न जातियों के लोग किसी उच्च जाति की धार्मिक क्रियाओं, घरेलू या सामाजिक पारिपाटियों को अपनाकर अपनी सामाजिक परिस्थिति को ऊँचा करने का प्रयत्न करते हैं।

→ प्रबल जाति (Dominent Caste) यह शब्द ऐसी जातियों के लिए प्रयोग किया जाता है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनसंख्या में काफ़ी बड़ी होती है अथवा वह उस क्षेत्र में अपने पैसे या शक्ति के आधार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करती हैं। इसके सदस्य कम भी हो सकते हैं।

→ जनजातीय (Tribal)-यह एक आधुनिक शब्द है जो उन समुदायों के लिए प्रयोग होता है जो बहुत प्राचीन हैं तथा उप-महाद्वीप के सबसे प्राचीन निवासी हैं। ये हमारी सभ्यता से दूर जंगलों, पहाड़ों पर रहते हैं तथा इनकी अपनी ही संस्कृति होती है।

→ आदिम (Prestine)-मौलिक अथवा विशुद्ध समाज जो सभ्यता से अछूते रहे हों।

→ मूल परिवार (Nuclear Family)-परिवार का वह रूप जिसमें केवल पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे ही रहते हैं।

→ संयुक्त परिवार (Joint Family)-परिवार का वह रूप जिसमें दो-तीन पीढ़ियों के सदस्य इकट्ठे एक ही छत के नीचे रहते हैं तथा एक ही रसोई में पका हुआ भोजन खाते हैं।

→ पति स्थानिक (Patrilocal)-परिवार का वह रूप जिसमें विवाह के पश्चात् पत्नी, पति अथवा उसके पिता के घर जाकर रहती है।

→ पत्नी स्थानिक (Matrilocal)-परिवार का वह रूप जिसमें विवाह के पश्चात् पति पत्नी के घर जाकर रहता है।

→ मातृवंशीय समाज (Matriarchal Society)-वह समाज जहाँ पर वंश का नाम माता के नाम से चलता है तथा जायदाद माँ से बेटी को मिलती है।

→ पितृवंशीय समाज (Patriarchal Society)-वह समाज जहाँ पर वंश का नाम पिता के नाम से चलता है तथा जायदाद पिता से पुत्र को मिलती है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *