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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
विकास की अवधारणा का अर्थ भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। भौतिकवाद में विकास का अर्थ आर्थिक विकास से तथा अध्यात्मवाद में आध्यात्मिक विकास से है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास की अवधारणा का तात्पर्य भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास से भी है। अतः विकास एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति मात्र नहीं है, बल्कि यह ऐसी प्रक्रिया है जो समाज में उत्पन्न समस्याओं (आर्थिक, सामाजिक, नैतिक व राजनीतिक) का समाधान निकालने में समर्थ हो।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 2.
विकास की दो मुख्य परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
विकास की दो मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. विलियम चैम्बर्स (William Chambers) के अनुसार, “विकास को एक ऐसी आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था की ओर अग्रसर समझा जा सकता है जिसमें उन समस्याओं का समाधान ढूँढने की क्षमता हो जिनका उसे सामना करना पड़ता है। उसमें संरचनाओं का निवेदन और कार्यों की विशिष्टता होती है।”
2. मैकेंजी (Mackenzie) का कहना है, “विकास समाज में उच्चस्तरीय अनुकूलन के प्रति अनुकूल होने की क्षमता है।”

प्रश्न 3.
प्रकृति के दोहन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रकृति के दोहन का अर्थ है कि प्रकृति द्वारा दी गई वस्तुओं का अधिक-से-अधिक उपयोग करना चाहिए जिससे भौतिक सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रकृति का बिना किसी सीमा के प्रयोग करना एक भूल है, क्योंकि प्रकृति ने विश्व में प्रत्येक वस्तुओं को सीमित रूप से बनाया है। यदि उसका उपयोग आँख बन्द करके किया गया तो यह अहितकर होगा।

इसलिए मानव जाति से यह आशा की जाती है कि वे प्राकृतिक साधनों का प्रयोग एक सीमा में रहकर करें, जिससे प्राकृतिक साधनों का नाश न हो अर्थात् प्राकृतिक साधनों का शोषण न करके उनका मात्र दोहन (Milking the Nature) होना चाहिए।

प्रश्न 4.
विकास के कोई दो पक्ष या रूप लिखें।
उत्तर:
विकास के दो पक्ष या रूप निम्नलिखित हैं
1. सामाजिक विकास-सामाजिक विकास से तात्पर्य है-समाज में परिवर्तन। इसमें सामाजिक न्याय, सामाजिक समानता, सार्वजनिक शिक्षा एवं जन-स्वास्थ्य की सुविधाएँ सम्मिलित हैं।

2. आर्थिक विकास आर्थिक विकास से तात्पर्य हैप्रति व्यक्ति की वास्तविक आय में वृद्धि। इसमें उत्पादक की प्रणालियों का आधुनिकीकरण, रोज़गार के अवसर में बढ़ोतरी, नई तकनीक का विकास आदि शामिल हैं।

प्रश्न 5.
विकास के विभिन्न मॉडलों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • बाजार अर्थव्यवस्था मॉडल,
  • कल्याणकारी राज्य के विकास का मॉडल,
  • विकास का समाजवादी मॉडल,
  • विकास का गांधीवादी मॉडल।

प्रश्न 6.
बाजार मॉडल की तीन विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
बाजार मॉडल की तीन विशेषताएँ हैं-

  • बिक्री के लिए उत्पादन,
  • मुक्त उद्यम,
  • मुक्त व्यापार।

प्रश्न 7.
बाजार अर्थव्यवस्था के कोई दो गुण लिखें।
उत्तर:
1. लोकतान्त्रिक व्यवस्था-बाजार अर्थव्यवस्था का लाभ है कि यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था का समर्थन करती है, क्योंकि प्रत्येक व्यापारी व उद्योगपति को अपने ढंग से विकास करने की इजाजत होती है।

2. उत्तम उत्पादन इस मॉडल में उत्पादन उत्तम स्तर का होता है, नहीं तो उसकी माँग होगी ही नहीं और उत्पादन को हानि पहुँचेगी।

प्रश्न 8.
बाजार अर्थव्यवस्था मॉडल के दो अवगुण लिखें।
उत्तर:

  • यह व्यवस्था समाज के लाभ के विरुद्ध है। इस व्यवस्था में निजी लाभ को ध्यान में रखकर ही सभी कार्य किए जाते हैं।
  • यह मॉडल आय व धन को असमानता की ओर ले जाता है, क्योंकि उद्योग केवल कुछ ही लोगों को लाभ पहुंचाते हैं।

प्रश्न 9.
कल्याणकारी राज्य की दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:

  • केन्ट के अनुसार, “वह राज्य कल्याणकारी राज्य होता है, जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्याख्या करता है।”
  • डॉ० अब्राहम के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह समुदाय है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था के संचालन में आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से कार्य करता है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 10.
विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल के दो लक्षण या उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
1. आर्थिक सुरक्षा के रूप में इस मॉडल में कोई व्यक्ति निर्धन नहीं होगा। राज्य प्रत्येक व्यक्ति के रोज़गार का प्रबन्ध करता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवनयापन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

2. भेदभाव का अन्त इस मॉडल में समाज के व्यक्तियों में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता सामाजिक न्याय पर बल दिया जाता है। सभी व्यक्तियों से समानता का व्यवहार किया जाता है।

प्रश्न 11.
कल्याणकारी राज्य के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर:

  • इसमें आन्तरिक सुव्यवस्था तथा नागरिकों की विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है।
  • इसमें व्यक्तियों के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा की जाती है।

प्रश्न 12.
कल्याणकारी राज्य सिद्धान्त की आलोचना के दो शीर्षक लिखें।
उत्तर:

  • इस व्यवस्था में नागरिकों के लिए अनेक कार्य करने से यह व्यवस्था अधिक खर्चीली बन जाती है।
  • राज्य के अधिक हस्तक्षेप के कारण नागरिकों की स्वतन्त्रता में कमी आ जाती है।

प्रश्न 13.
समाजवादी मॉडल की कोई एक परिभाषा दो।
उत्तर:
इमाइल के अनुसार, “समाजवाद मजदूरों का संगठन है, जिसका उद्देश्य पूँजीवादी सम्पत्ति को समाजवादी सम्पत्ति में परिवर्तित करके राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करना है।”

प्रश्न 14.
समाजवादी मॉडल की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
समाजवादी मॉडल की दो विशेषताएँ हैं-

  • उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में,
  • क्रान्ति की तुलना में शान्तिपूर्ण तरीके अपनाए जाते हैं।

प्रश्न 15.
गांधीवादी मॉडल के मुख्य रूप लिखें।
उत्तर:
गांधीवादी मॉडल के मुख्य तीन निम्नलिखित रूप हैं

  • विकास का आर्थिक पक्ष,
  • विकास का सामाजिक पक्ष,
  • विकास का राजनीतिक पक्ष

प्रश्न 16.
गांधीवादी मॉडल के सामाजिक पक्ष की तीन विशेषताओं का विवरण दें।
उत्तर:

  • यह वर्ण व्यवस्था को दूर करने के पक्ष में है,
  • यह मॉडल अस्पृश्यता के अन्त के पक्ष में है,
  • यह मॉडल साम्प्रदायिक एकता पर बहुत बल देता है।

प्रश्न 17.
गांधीयन मॉडल के विकास के आर्थिक पक्ष की दो बातें लिखें।
उत्तर:

  • यह मॉडल कृषि के महत्त्व पर बल देता है,
  • यह मॉडल कुटीर व ग्रामीण उद्योगों की स्थापना के पक्ष में है।

प्रश्न 18.
पोषणकारी विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
साधारण शब्दों में पोषणकारी विकास की अवधारणा का अर्थ निरन्तर चलने वाला विकास अथवा अखण्ड विकास है।

प्रश्न 19.
वर्तमान पीढ़ी व भावी पीढ़ी के दावों को सन्तुलन करने वाले तीन तत्त्वों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करना,
  • गरीबी उन्मूलन,
  • पर्यावरण संरक्षण।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास की अवधारणा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विकास की अवधारणा का सम्बन्ध परिवर्तन से लिया जाता है। वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति या समाज के विकास की अवधारणा का अर्थ आर्थिक विकास से ही लिया जाता है। भौतिकवाद का सम्बन्ध मुख्य रूप से पूँजीवाद का साम्यवाद से लिया जाता है, परन्तु यह अर्थ सीमित है। क्योंकि मनुष्य केवल भौतिक प्राणी ही नहीं होता, उसमें मन, बुद्धि, आत्मा भी होती है।

वह भौतिक लक्ष्यों से भी उच्चतर लक्ष्यों के लिए जीवित रहता है और उन्हें प्राप्त करना चाहता है। वह भौतिक सुख से ऊपर उठकर आध्यात्मिक सुख प्राप्त करना चाहता है। भौतिक सुख क्षणभंगुर होता है, जबकि आत्मिक सुख चिरस्थायी होता है। आत्मिक सुख परमानन्द की स्थिति होती है और यही विकास की भारतीय अवधारणा है लेकिन समय परिवर्तन के कारण भारतीय भी भौतिक विकास की ओर आकर्षित हो गए हैं और भारत में भी आज भौतिक सुख में विकास को ही विकास माना जाने लगा है।

इसीलिए विकास की अवधारणा को परिभाषित करना कठिन कार्य है। कुछ विद्वान विकास का सम्बन्ध केवल भौतिकता से मानते हैं, तो कुछ राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिवर्तन से मानते हैं। कुछ लेखक विकास को आधुनिकीकरण का सूचक मानते हैं। फिर भी विकास की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं के अनुसार, “राजनीतिक विकास, संस्कृति का विसरण और जीवन के पुराने प्रतिमानों को नई माँगों के अनुकूल बनाने, उन्हें उनके साथ मिलाने या उनके साथ सामंजस्य बैठाना है।”

2. आमंड और पावेल के अनुसार, “विकास राजनीतिक संरचनाओं की अभिवृद्धि, विमिनीकरण और विशेषीकरण तथा राजनीतिक संस्कृति का बढ़ा हुआ लौकिकीकरण है।” उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकास एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति मात्र नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो ऐसी संरचनाओं या संस्थाओं का निर्माण करती है, जो समाज में उत्पन्न समस्याओं का समाधान निकालने में समर्थ हो।

प्रश्न 2.
विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास की चार अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं
1. राजनीतिक एकीकरण-इस अवस्था में सरकार राज्य की जनसंख्या पर राजनीतिक व प्रशासनिक नियन्त्रण रखती है, क्योंकि इस नियन्त्रण के अभाव में लोगों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। राजनीतिक एकीकरण के अभाव में राज्य का आर्थिक विकास भी रुक जाता है।

2. औद्योगीकरण-विकास की द्वितीय अवस्था औद्योगीकरण से सम्बन्धित है। इस अवस्था में लोगों द्वारा संचित पूँजी का प्रयोग करके औद्योगीकरण किया जाता है। बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे स्थापित किए जाते हैं, जिसमें लोगों को अधिक रोज़गार मिलता है और वे अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं।

3. राष्ट्रीय लोक-कल्याण-तीसरी अवस्था औद्योगीकरण के बाद आती है, जब सरकार औद्योगिक विकास के बाद राष्ट्रीय लोक-कल्याण के कार्य करती है; जैसे शिक्षा, मानव-अधिकार, स्वतन्त्रता के अधिकार, धर्म-निरपेक्षता आदि।

4. समृद्धि यह विकास की चौथी व अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में लोग समृद्धि की ओर अग्रसर होते हैं। लोग शासन के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। राजनीतिक, प्रजातन्त्र का विकास होता है। लोगों के पास आराम के साधन होते हैं। वे भोग-विलास की वस्तुओं का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 3.
विकास के चार उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
विकास के चार उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. जीवन का स्तर-विकास का पहला और महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है कि लोगों के रहन-सहन के स्तर का विकास हो। इसका तात्पर्य है कि लोगों को जीवन के स्तर की न केवल आवश्यक सुविधाएँ ही प्राप्त हों, बल्कि उन्हें वे सुविधाएँ भी मिलनी चाहिएं, जिन्हें प्राप्त करके वे अपने जीवन को सुखी और सम्पन्न बना सकें। उन्हें वे सभी सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिएं जिन्हें प्राप्त करके वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, अपनी कार्य-कुशलता को बढ़ा सकें। यही नहीं, उन्हें अवकाश के क्षणों का भी इस्तेमाल करना चाहिए।

2. प्रकृति का दोहन-विकास का दूसरा लक्ष्य है, प्रकृति का दोहन। भौतिकवादियों की यह धारणा है कि जो भी इस विश्व में है, उसका जी भर कर अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाना चाहिए और इसी में ही भौतिक सुख मिलता है। इसलिए आज वे प्रकृति का अधिक-से-अधिक शोषण कर रहे हैं। लेकिन वे इस प्रकार प्रकृति का बिना किसी सीमा के प्रयोग करते समय यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ने विश्व में प्रत्येक वस्तु को सीमित रूप से बनाया है।

यदि उसका उपभोग आँख बन्द करके किया गया तो यह अहितकर होगा। इसलिए मानव जाति से यह आशा की जाती है कि वे प्राकृतिक साधनों का प्रयोग एक सीमा में रहकर करें, जिससे प्राकृतिक साधनों का नाश न हो अर्थात् प्राकृतिक साधनों का शोषण न करके उनका मात्र दोहन होना चाहिए।

3. दरिद्र की सहायता-विकास के लिए राज्य द्वारा विभिन्न योजनाओं का निर्माण किया जाता है। लेकिन विकास को वास्तविक विकास तब माना जाएगा, जब इससे दरिद्र का विकास होगा अर्थात् विकास का उद्देश्य दरिद्रतम का विकास होना चाहिए। यदि विकास के उद्देश्य में दरिद्र की सहायता न रखी गई तो विकास तो अवश्य होगा, लेकिन विकास का लाभ धनी लोगों को होगा, न कि दरिद्र वर्ग को। यदि विकास से धनी वर्ग को ही लाभ होता है और उन्हीं का जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, तो इसे वास्तविक स्थिति में विकास नहीं कह सकते। विकास से सभी का, विशेषकर दरिद्र का (गरीब का) विकास होना चाहिए।

4. रोज़गार देना विकास का एक और अन्य लक्ष्य है, देश के नागरिकों को रोजगार उपलब्ध करवाना। आधुनिक युग को कई बार मशीनी युग भी कहा जाता है। फलस्वरूप जिन देशों की जनसंख्या पहले ही अधिक है, वहाँ पर बेरोज़गारी की समस्या और अधिक बढ़ गई है। अतः जनसंख्या पर नियन्त्रण रखना रोज़गार के लिए आवश्यक है। इसलिए यह जरूरी है कि विकास के लक्ष्य को निर्धारित करते समय बेरोज़गारी को दूर करने का लक्ष्य सामने होना चाहिए।

प्रश्न 4.
विकास के तीन पक्षों का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास के तीन पक्षों का वर्णन निम्नलिखित है
1. सामाजिक विकास-समाज का निर्माण उसी दिन ही हो गया था जब मनुष्य ने इस भूमि पर कदम रखा था। प्राचीन समाज आधुनिक समाज से भिन्न था और धीरे-धीरे समाज का विकास हुआ। इसका अर्थ हुआ कि प्राचीन समाज में परिवर्तन होना विकास कहलाता है। समाज में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करना, जाति-पाति की भावना को दूर करना, सामाजिक समानता स्थापित करना, धार्मिक भेदभाव को दूर करना, सार्वजनिक शिक्षा, जन-स्वास्थ्य की सुविधाएँ तथा मकान की सुविधाएँ उपलब्ध कराना, अनेक सामाजिक कुरीतियों को दूर करना आदि सामाजिक विकास के क्षेत्र में आते हैं।

2. आर्थिक विकास आर्थिक विकास का सम्बन्ध समाज के आर्थिक जीवन से सम्बन्धित है। आर्थिक विकास की एक निश्चित और सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन कार्य है। कुछ विद्वान् आर्थिक विकास का अर्थ कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि से तथा कुछ विद्वान् प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि से लगाते हैं। कुछ विद्वानों ने आर्थिक कल्याण में वृद्धि को आर्थिक विकास माना है।

आधुनिक युग के विद्वानों ने आर्थिक विकास की विचारधारा को पूर्ण विकास का रूप माना है। अतः आर्थिक विकास का लक्ष्य केवल मात्र वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि लाना ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लिए उत्पादन की प्रणालियों का आधुनिकीकरण करना, रोज़गार के अवसर बढ़ाना, उद्योगों का विकास करना, आर्थिक विषमताओं को दूर करना, नई टैक्नोलाजी का विकास करना, प्राकृतिक संसाधनों का सही रूप से दोहन करना आदि सभी आर्थिक विकास के क्षेत्र में आते हैं।

3. राजनीतिक विकास-विकास की अवधारणा का अर्थ साधारणतया राजनीतिक विकास से जोड़ा जाता है। राजनीतिक विकास के स्वरूप के बारे में भी पर्याप्त अस्पष्टता है। कुछ विद्वान् राजनीतिक विकास को ऐसी स्थिति मानते हैं जोकि आर्थिक उन्नति में सुविधा पहँचा सके। कई विद्वान औद्योगिक समाजों की विशेष राजनीति के रूप में राजनीतिक विकास का अध्ययन करते हैं। कुछ लेखक राजनीतिक विकास को राजनीतिक आधुनिकीकरण का संसूचक मानते हैं। यह भी कहा जाता है कि राजनीतिक विकास राज्य की संस्थाओं के प्रसंग में राष्ट्रवाद की राजनीति है। कुछ लेखक राजनीतिक विकास को प्रशासकीय और वैधानिक विकास भी मानते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 5.
बाजार अर्थव्यवस्था के मॉडल से क्या अर्थ है?
अथवा
बाजार अर्थव्यवस्था विकास के मॉडल का क्या रूप है?
उत्तर:
बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल विकास का नया मॉडल नहीं है। भारत में यह व्यवस्था मुगल साम्राज्य से चली आ रही है। अंग्रेज़ी काल में इस मॉडल का चलन धीमा हो गया, परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस मॉडल में तेजी से विकास हुआ है भारत में आज इसी मॉडल का बोलबाला है। इस मॉडल के अन्तर्गत ही उदारीकरण की नीति को अपनाया गया है।

मूल रूप से इस व्यवस्था का सम्बन्ध अर्थशास्त्र से है, लेकिन इस व्यवस्था को देशों में विकास का आधार बनाया गया है। साधारण शब्दों में बाजार अर्थव्यवस्था का अर्थ है कि उत्पादकों द्वारा अपने उत्पादन को अपने द्वारा ही निश्चित की गई कीमतों पर बाजार में बेचना। इस व्यवस्था में उदारीकरण किया जाता है। इसे विश्वीकरण के नाम से भी जाना जाता है।

अन्तिम रूप में यह मॉडल निजीकरण की ओर बढ़ता है। यह मॉडल आर्थिक उदारवाद, प्रतियोगिता, अहस्तक्षेप और माँग व पूर्ति की शक्तियों का समर्थन करता है। जिस प्रकार यातायात के साधनों के विकास ने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार में परिवर्तित कर दिया है, राष्ट्रीय सीमाओं को समाप्त कर दिया है, उसी तरह विकास का बाजार, अर्थव्यवस्था का मॉडल व्यापार, पूँजी व उद्यमशीलता के क्षेत्र में राष्ट्रीय सीमाओं को समाप्त करने के पक्ष में है।

प्रश्न 6.
बाजार अर्थव्यवस्था के विकास मॉडल की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
बाजार अर्थव्यवस्था के विकास मॉडल की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. बिक्री के लिए उत्पादन इस मॉडल की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि उत्पादक वस्तुओं का उत्पादन अपने लिए नहीं करता, बल्कि बाजार में खरीद तथा बिक्री के लिए करता है। इस तरह उत्पादन की कीमतें माँग व पूर्ति की शक्तियों के आधार पर निश्चित होती हैं, जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ होता है। इस तरह समाज के लाभ की उपेक्षा होती है।

2. स्वदेशी उद्योगों का ह्रास-विकास का यह मॉडल उदारीकरण की नीति पर आधारित है, जिससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ नवोदित राष्ट्रों में भारी मुनाफा कमाने की दृष्टि से आती हैं। नवोदित राष्ट्रों के उद्योग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले में नहीं टिक सकते और अन्त में उन्हें इन कम्पनियों में विलीन होना पड़ता है। इस तरह से स्वदेशी उद्योगों का ह्रास होता है। भारत को आजकल इसी प्रकार की स्थिति का ही सामना करना पड़ रहा है।

3. आय व धन की असमानता-विकास का यह मॉडल आय व धन की असमानता की ओर ले जाता है, क्योंकि उद्योग केवल कुछ ही लोगों को लाभ पहुंचाते हैं। उद्योग केवल कुछ ही प्रान्तों में लगाए जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उद्योगों को केवल पहले से ही विकसित प्रान्तों में लगाती हैं। पिछड़े हुए प्रान्तों में किसी भी प्रकार के उद्योगों को नहीं लगाया जाता। अतः यह क्षेत्रीय असन्तुलन को पैदा करता है जोकि हर दृष्टि-सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से हानिकारक है।

4. बेरोज़गारी को दूर नहीं करता-विकास के इस मॉडल के पक्ष में यह तर्क दिया गया है कि यह रोज़गार उत्पन्न करता है, क्योंकि जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्रवेश करती हैं, तो अधिक रोज़गार प्रदान करने का वायदा करती हैं। नवोदित राष्ट्र इस लालच में फंस जाते हैं। लेकिन जब ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने ही देशों में बेरोज़गारी की समस्या को दूर नहीं कर पाई हैं, तो यह विदेशों में बेरोज़गारी को कैसे दूर कर सकती हैं, यह विचारणीय प्रश्न है।

प्रश्न 7.
विकास के समाजवादी मॉडल का क्या अर्थ है? अथवा विकास के समाजवादी मॉडल की व्याख्या करें।
उत्तर:
विकास के समाजवादी मॉडल को निम्नलिखित आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं विकास के विभिन्न मॉडलों में से विकास का समाजवादी मॉडल एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मॉडल है। यह दृष्टिकोण समाजवादी मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। इस मॉडल के अन्तर्गत विकासशील देशों का विकास साम्यवादी तथा समाजवादी मापदण्डों के आधार पर होना चाहिए।

समाजवादी राज्य की स्थापना ही विकास का अन्तिम उद्देश्य है। इस दृष्टिकोण या मॉडल के समर्थकों का विचार है कि विकसित देशों व विकासशील देशों की पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर है क्योंकि विकसित देश पूँजीवादी व्यवस्था के माध्यम से अपनी सभी समस्याओं का निदान कर चुके हैं लेकिन विकासशील देश पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं अपना सकते, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी साम्राज्यवादी शक्तियों से स्वतन्त्रता प्राप्त की है।

साम्राज्यवादी शक्तियाँ अभी तक उनका शोषण कर रही थीं। उन्होंने इन विकासशील देशों का आर्थिक दृष्टि से जी भरकर शोषण किया। ये देश पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अपना और अधिक शोषण नहीं करवा सकते। इसलिए उन्होंने पूँजीवाद से अपने सम्बन्ध पूर्ण रूप से तोड़ने में ही विकास की आशा की है।

यह मॉडल अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा का विरोधी है, क्योंकि इसमें शक्तिशाली राष्ट्र ही लाभ उठाते हैं। विकासशील देशों को इससे उसी प्रकार हानि पहुँचती है, जिस प्रकार खुली प्रतियोगिता तथा मुक्त व्यापार से श्रमिकों को हानि पहुँचती है। उन्नत देश विकासशील देशों में पूँजी लगाकर उस देश का कच्चा माल खरीदते हैं। कच्चे माल से उत्पादन करके उस उत्पादन बाजार में भारी कीमतों में बेचकर उनका शोषण करते हैं। अतः विकासशील देशों को पूँजीवादी व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा एवं मुक्त बाजार से कोई लाभ नहीं पहुँचता। इस प्रकार विकास का मॉडल समाजवादी व्यवस्था को अपना आदर्श मानता है और इसी व्यवस्था के अन्तर्गत विकास की किरण देखता है और अपनी गतिविधियों का संचालन करता है।

प्रश्न 8.
कल्याणकारी राज्य किसे कहते हैं? परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
साधारण शब्दों में कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो जनता के जीवन को सुखी तथा समृद्ध बनाने के लिए कार्य करे, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।
1. केन्ट के शब्दों में, “कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए पर्याप्त मात्रा में सामाजिक सेवाएँ प्रदान करता है।”

2. जी०डी०एच० कोल के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह है जिसमें प्रत्येक नागरिक को रहन-सहन के निम्नतम स्तर तथा अवसर प्राप्त हों।”

3. पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करते हुए कहा था, “सबके लिए समान अवसर प्रदान करना, अमीरों और गरीबों के बीच अन्तर मिटाना और जीवन-स्तर को ऊपर उठाना लोक-हितकारी राज्यों का आधारभूत तत्त्व है।” अतः कल्याणकारी राज्य के प्रसंग में लोक कल्याण से हमारा तात्पर्य राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से व्यक्ति को अवसर की समानता देकर उसकी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना है।

प्रश्न 9.
कल्याणकारी राज्य की कोई चार मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य की चार महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. व्यक्ति के न्यूनतम जीवन-स्तर की व्यवस्था-कल्याणकारी राज्य की पहली विशेषता यह है कि इसमें स्वतन्त्र उद्योग का अन्त किए बिना सभी नागरिकों के न्यूनतम जीवन-स्तर की व्यवस्था की जाती है। साथ ही व्यक्ति को स्वतन्त्रता के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाते हैं।

2. व्यक्तियों की आय में कुछ अंश तक विषमता का अन्त-कल्याणकारी राज्य में आय का सीमित पुनर्वितरण किया जाता है और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऊँचे कर लगाए जाते हैं। जिसकी जितनी अधिक आय होती है, उस पर उतने ही अधिक कर लगाए जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक समानता लाने का प्रयत्न किया जाता है।

3. सामाजिक सुरक्षा-कल्याणकारी राज्य की अन्य विशेषता सामाजिक सुरक्षा है। इसके अन्तर्गत राज्य समाज में किसी भी आधार पर किए जा रहे भेदभाव को समाप्त करता है। राज्य द्वारा कानूनों के सम्मुख समानता तथा सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं।

4. राजनीतिक सुरक्षा-कल्याणकारी राज्य में राजनीतिक सुरक्षा भी स्थापित की जाती है। राजनीतिक सुरक्षा से तात्पर्य है शासन में सभी लोगों की सहभागीदारी होना। सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राजनीति अधिकार प्राप्त कराए जाते हैं लोकतन्त्र की स्थापना की जाती है।

प्रश्न 10.
कल्याणकारी राज्य के प्रभाव पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। कल्याणकारी राज्य ने गरीबी और बेरोज़गारी को दूर करने में काफी सफलता प्राप्त की है। श्रमिकों और किसानों का जीवन-स्तर ऊँचा हुआ है। भारत में कल्याणकारी राज्य का प्रभाव काफी पड़ा है। शिक्षा का प्रसार हआ है तथा बच्चों को प्राइमरी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य दी जाती है।

उद्योगों और कृषि में बहत उन्नति हई है। बड़े-बड़े उद्योगों तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है। आजकल बैंक गरीब किसानों तथा पढ़े-लिखे बेरोज़गार नौजवानों को कम ब्याज पर ऋण दे रहे हैं। यद्यपि कल्याणकारी राज्य के कारण काफी उन्नति हुई है, तथापि अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। भारत की अधिकांश जनता गरीब है और करोड़ों लोग बेरोज़गार हैं।

आर्थिक असमानता बहुत अधिक है। कल्याणकारी राज्य की सफलता के लिए आर्थिक विकास दर को बढ़ाना होगा। सामाजिक तथा आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए प्रभावी कदम उठाने होंगे और सरकार को जाति, वर्ग, समुदाय आदि बातों से ऊपर उठकर सभी के कल्याण के लिए काम करना होगा जिससे कि सच्चे कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकेगी।

प्रश्न 11.
कल्याणकारी राज्य के चार कार्य बताएँ।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य के चार प्रमख कार्य निम्नलिखित हैं
1. आन्तरिक शान्ति व व्यवस्था की स्थापना-राज्य के अन्दर शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना भी सरकार का एक कार्य है। यदि राज्य में अव्यवस्था होगी तो उन्नति और विकास के रास्ते में बाधा आएगी, इसलिए शान्ति व व्यवस्था बनाए रखना कल्याणकारी राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

2. नौकरी देना-राज्य का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के लिए नौकरी का प्रबन्ध करे जिससे नागरिक अपनी जीविका कमा सकें। राज्य में नए उद्योग-धन्धे स्थापित किए जाएँ, ताकि नागरिकों को अधिक कार्य मिल सके। कई कल्याणकारी राज्यों में ना राज्य का काननी कर्त्तव्य घोषित किया गया है। नौकरी न दे पाने की स्थिति में बेरोजगार नागरिकों को निर्वाह भत्ता दिया जाता है।

3. गरीबी दूर करना कल्याणकारी राज्य गरीबी को दूर करने के लिए अनेक कार्य करता है। प्रत्येक नागरिक को अच्छा वेतन मिले, उसकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हो और नागरिकों को रोजी, रोटी तथा कपड़ा प्रदान करने के लिए राज्य द्वारा अनेक योजनाएँ बनाई जाती हैं।

4. सामाजिक सुरक्षा कल्याणकारी राज्य बुढ़ापे, दुर्घटना, बीमारी, बेकारी से दुःखी व्यक्तियों के लिए सामाजिक सुरक्षा का प्रबन्ध करता है। दुर्घटना की स्थिति में अंगहीन व्यक्तियों को आर्थिक सहायता दी जाती है। बेकार व्यक्तियों को भत्ता दिया जाता है। बूढ़े व्यक्तियों को पेन्शन दी जाती है। युद्ध में मारे जाने वाले सैनिकों के परिवारों को आर्थिक सहायता दी जाती है। कर्मचारियों के लिए पेन्शन एवं भविष्य निधि के प्रावधान की व्यवस्था की जाती है।

प्रश्न 12.
कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध आपत्तियों का वर्णन करें।
अथवा
कल्याणकारी राज्य की आलोचना कीजिए।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य की आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं
1. महँगी व्यवस्था कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध प्रथम आपत्ति है कि इसकी स्थापना पर बहुत अधिक खर्चा होता है। प्रायः इसके अन्तर्गत आने वाले सभी विषयों पर काफी धन खर्च होता है।

2. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन-कल्याणकारी राज्य की एक अन्य कमी है कि इसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन होता है। कल्याणकारी राज्य में व्यक्तियों को सब कुछ प्राप्त हो जाता है अथवा प्राप्त होने की सम्भावना होती है, इसलिए उनमें कार्य करने की प्रवृत्ति कम होने लगती है। परिणामस्वरूप लोगों में हाथ फैलाने की भावना भी उत्पन्न होने लगती है।

3. अफसरशाही का पनपना कल्याणकारी राज्य में कर्मचारियों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। उनके अधिकार व शक्तियाँ बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। परिणामस्वरूप लाल फीताशाही पनपने लगती है।

4. पूँजीवाद का दूसरा नाम लोक कल्याणकारी राज्य को पूँजीवाद का दूसरा नाम दिया जाता है, क्योंकि आर्थिक दृष्टि से राज्य में कोई परिवर्तन नहीं आता और समाज की सत्ता शोषक वर्ग के हाथ में ही बनी रहती है।

5. आदर्श मात्र है-कल्याणकारी राज्य की स्थापना केवल एक आदर्श मात्र ही है। किसी भी देश में इसे पूर्ण रूप से स्थापित नहीं किया गया है और न ही इसके स्थापित किए जाने की कोई सम्भावना है।

प्रश्न: 13.
मार्क्स के समाजवादी मॉडल का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समाजवाद का सबसे प्रभावशाली समर्थक मार्क्स था। उसने दीन, दुःखी व शोषित श्रमिक वर्ग के विकास के लिए एक नई राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिपादन किया। वह जानता था कि श्रमिक वर्ग की दयनीय हालत में सुधार केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता है। मार्क्स समाज को दो वर्गों में बाँटता है-शोषक व शोषित वर्ग ।

पहले वर्ग का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण होता है, वह साधनों का स्वामी होता है और दूसरा वर्ग अपने श्रम पर जीने वाला है। पूँजीपति अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहता है। इस कारण वह मजदूरों को कम-से-कम मजदूरी देना चाहता है। दूसरी ओर मज़दूर अधिक-से-अधिक मज़दूरी लेना चाहते हैं। अतः हितों के इस विरोध के कारण दोनों में संघर्ष आरम्भ हो जाता है। यह वर्ग-संघर्ष की बुनियाद है और इसी कारण वर्ग-संघर्ष हमेशा चलता रहता है।

मार्क्स का विचार था कि मज़दूरों में असन्तोष, चेतना तथा संगठन बढ़ेगा। वह विश्व के मजदूरों को संगठित होने के लिए कहता है। उसने कहा है कि विश्व के मज़दूरों, इकट्ठे हो जाओ और पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्ति कर दो। इस क्रान्ति के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग राज्य की शक्ति पर काबू पा लेगा। पूँजीवाद को जड़ से समाप्त कर देगा। सारी सम्पत्ति पर मजदूरों का ही नियन्त्रण हो जाएगा।

सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना हो जाएगी और ऐसे समाज की स्थापना हो जाएगी जिसमें अन्याय, शोषण और अत्याचार नहीं होगा। वर्ग-विहीन व राज्य-विहीन व्यवस्था की स्थापना हो जाएगी, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके सामर्थ्य और उसकी आवश्यकतानुसार सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी। इस तरह मार्क्स एक नवीन समाज का विकास करता है।

प्रश्न 14.
विकासवादी या लोकतान्त्रिक समाजवादी मॉडल की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स की मृत्यु के बाद उसके विचारों का संगठित रूप से प्रचार किया गया, लेकिन कुछ बातों को लेकर मार्क्सवादियों में मतभेद उत्पन्न हो गए और उसी आधार पर एक नई विचारधारा ने जन्म लिया, जिसे लोकतान्त्रिक समाजवाद (Democratic Socialism) या विकासवादी समाजवाद का नाम दिया गया।

लोकतान्त्रिक समाजवाद, समाजवाद का वह रूप है जो जन-सहमति के आधार पर धीरे-धीरे स्थापित किया जाता है। समाजवाद (मार्क्सवाद) व लोकतान्त्रिक समाजवाद में मुख्य अन्तर दोनों द्वारा अपनाए गए साधनों पर है। दोनों का उद्देश्य तो एक ही है–पूँजीवाद को समाप्त करना, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना।

दोनों ही व्यक्तिगत सम्पत्ति को समाप्त करने के पक्ष में हैं, परन्तु जहाँ मार्क्सवादी इस उद्देश्य की प्राप्ति रक्तिम क्रान्ति (Bloody Revolution) द्वारा करना चाहते हैं, वहाँ लोकतान्त्रिक समाजवादी इस उद्देश्य की प्राप्ति संवैधानिक तरीके से करने के पक्ष में हैं। वे वर्ग-सहयोग व शान्तिपूर्ण उपायों से सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं। उनका विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा श्रमिकों की तानाशाही द्वारा समाजवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। लोकतान्त्रिक समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में।
  • समाज में दो वर्गों की बजाय तीन वर्ग हैं।
  • समाजवाद की स्थापना धीरे-धीरे कानून बनाकर होगी।
  • क्रान्ति की तुलना में शान्तिपूर्ण तरीके अपनाने होंगे।
  • राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाज-कल्याण व आर्थिक सुरक्षा के क्षेत्र में नागरिकों को अनेक सुविधाएँ जुटाते हैं।
  • श्रमिकों की तानाशाही अनावश्यक व लोकतन्त्र विरोधी है।
  • राज्य-विहीन समाज की स्थापना कोरी कल्पना है। समाजवाद की स्थापना में राज्य को अहम् भूमिका निभानी है।

अन्त में यह कहा जा सकता है कि समाजवाद की चाहे कितनी भी शाखाएँ क्यों न हों, लेकिन विकास के बारे में सभी समाजवादियों ने सहमति प्रकट की है। उनका कहना है कि उत्पादन और वितरण व्यक्ति के हाथ में न होकर राज्य के में होना चाहिए। व्यक्तिगत लाभ की तुलना में सामाजिक हित को प्रमुखता दी जानी चाहिए। उत्पादन समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। उत्पादन के क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतिस्पर्द्धा समाप्त की जानी चाहिए।

प्रश्न 15.
विकास सम्बन्धी गाँधीयन मॉडल के राजनीतिक पक्ष की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
गांधी जी का विकास का मॉडल एक ‘राम-राज्य’ की स्थापना करने के पक्ष में है। यह आदर्श राज्य लोकतन्त्र पर आधारित होगा। राज्य के प्रबन्ध के मामलों में अहिंसक ढंगों का प्रयोग किया जाएगा।

नागरिकों को प्रत्येक प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी। राज्य को साधन माना जाएगा अर्थात् राज्य व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति राज्य के लिए। राज्य का मुख्य कार्य सभी व्यक्तियों के अधिकतम हित का सम्पादन करना है।

अपने इस आदर्श राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी ने ग्राम पंचायत को महत्त्व दिया। वे सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में थे। केन्द्र के पास तो कुछ निश्चित अधिकार होंगे, जबकि बाकी सभी शक्तियाँ पंचायतों के पास होंगी। अतः सत्ता का आधार नीचे से ऊपर की ओर होगा। इस तरह गांधीयन मॉडल के विकास के लिए लोकतन्त्रीय व्यवस्था पर बल दिया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 16.
पोषणकारी विकास की अवधारणा का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विकास और पर्यावरण के सम्बन्ध के बारे में विकास की एक अवधारणा है, जिसे पोषणकारी विकास की अवधारणा कहते हैं। साधारण शब्दों में पोषणकारी विकास का अर्थ निरन्तर चलने वाला विकास अथवा अखण्ड विकास अर्थात् ऐसा विकास जिसकी गति में खण्ड न हो, इसे अक्षय विकास भी कहा जाता है।

यह अवधारणा वर्तमान पीढ़ी के दावों एवं भविष्य पीढ़ी के दावों में सन्तुलन बनाने पर बल देती है। जो आज आर्थिक विकास के परिणामों का उपभोग कर रहे हैं वे पृथ्वी के संसाधनों का अधिक शोषण करके तथा पृथ्वी को प्रदूषित करके भावी पीढ़ी के बारे में अहितकर सोच रख सकते हैं। ऐसा न हो कि एक पीढ़ी प्रकृति की सम्पदा का पूरा उपभोग कर ले और भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरण में असन्तुलन हो जाने के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़े और उन्हें विकास के अवसर ही प्राप्त न हों।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि किस तरह वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करते समय भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाए। इसे वर्तमान पीढ़ी तथा भावी पीढ़ी के दावों के मध्य सामंजस्य बनाना भी कहा जा सकता है। यही कारण था कि पर्यावरण और विकास पर विश्व पर्यावरण आयोग गठित किया गया। विश्व पर्यावरण आयोग के अनुसार “पोषणकारी विकास का अर्थ है, ऐसा विकास जो हमारी आज की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की अनदेखी न करता हो।”

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास को परिभाषित करते हुए विकास के विभिन्न उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विकास की अवधारणा का सम्बन्ध परिवर्तन से बताया जाता है। वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति या समाज के विकास की अवधारणा का अर्थ आर्थिक विकास से ही लिया जाता है । भौतिकवाद से सम्बन्धित दो मुख्य विचारधाराएँ हैं-पूँजीवाद व साम्यवाद। इस समय साम्यवादी विचारधारा अपने अन्तर्विरोधों के कारणों से नष्ट होती जा रही है और पूँजीवादी विचारधारा अपने ही बोझ में दबकर समाप्त होने के कगार पर खड़ी है, लेकिन मनुष्य केवल भौतिक प्राणी नहीं होता। उसमे मन, बुद्धि तथा आत्मा भी होती है। वह भौतिक स्यों से भी उच्चतर लक्ष्यों के लिए जीवित रहता है। वह भौतिक सुख से ऊपर उठकर आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना चाहता है।

भौतिक क्षण-भंगुर होता है, जबकि आध्यात्मिक सुख चिर-स्थायी होता है। आध्यात्मिक सुख की तुलना भौतिक सुख से नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक सुख परमानन्द की स्थिति है। यही विकास की भारतीय अवधारणा है। विकास के इसी रूप को व्यक्ति का आदर्श माना गया है, किन्तु गत हज़ार वर्षों की गुलामी के कारण, विदेशियों के आक्रमण के कारण और समाजवाद के प्रभाव के कारण भारतीय आध्यात्मिक विकास की धारणा भौतिकवाद की अवधारणा में परिवर्तित हो गई।

भारतीय भी भौतिक विकास की ओर आकर्षित हो गए और आज भारत में भी विकास से तात्पर्य मात्र भौतिक विकास माना जाने लगा है। अतः जब हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास की अवधारणा का अध्ययन करते हैं तो इसका तात्पर्य भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी है। विकास की परिभाषाएँ विकास की परिभाषा करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि विभिन्न खकों ने इसकी परिभाषाएँ अपने-अपने दृष्टिकोण से दी हैं।

विकास के स्वरूप के बारे में पर्याप्त अस्पष्टता है। कुछ विद्वान विकास को राजनीति की ऐसी स्थिति मानते हैं, जो आर्थिक उन्नति में सुविधा पहँचा सके। कुछ लोग इसका सम्बन्ध राजनीतिक परिवर्तन से बताते हैं। कुछ विद्वान औद्योगिक समाजों का विशेष राजनीतिक विकास के रूप में अध्ययन करते हैं। कुछ लेखक राजनीतिक विकास को आधुनिकीकरण (Modernization) का सूचक मानते हैं।

विकास को राज्य की संस्थाओं के प्रसंग में राष्ट्रवाद की राजनीति भी माना गया है। इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत विकास के लिए राष्ट्रवाद का होना बहुत आवश्यक होगा। कुछ विद्वान विकास का अर्थ प्रशासनिक और वैधानिक विकास से लेते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि विकास का अर्थ राजनीति में अधिक-से-अधिक लोगों का भाग लेना भी है। विकास की परिभाषाओं पर विभिन्न मत होने पर भी सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित कुछ परिभाषाएँ दी गई हैं

1. विलियम चैम्बर्स (William Chambers) के अनुसार, “विकास को एक ऐसी आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था की ओर अग्रसर समझा जा सकता है जिसमें उन समस्याओं का समाधान ढूँढने की क्षमता हो जिनका उसे सामना करना पड़ता है। उसमें संरचनाओं का निवेदन और कार्यों की विशिष्टता होती है।”

2. मैकेंजी (Mackenzie) का कहना है, “विकास समाज में उच्चस्तरीय अनुकूलन के प्रति अनुकूल होने की क्षमता है।”

3. ल्यूसियन पाई (Lucian Pye) के अनुसार, “राजनीतिक विकास, संस्कृति का विसरण (diffusion) और जीवन के पुराने प्रतिमानों को नई माँगों के अनुकूल बनाने, उन्हें उनके साथ मिलाने या उनके साथ सामंजस्य बैठाना है।” ‘विकास का अर्थ सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के तर्क-संगत प्रयोग की क्षमता को बढ़ाना है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकास एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति मात्र नहीं है, बल्कि यह ऐसी प्रक्रिया है जो ऐसी संरचनाओं या संस्थाओं का निर्माण करती है, जो समाज में उत्पन्न समस्याओं का समाधान निकालने में समर्थ है।

विकास के उद्देश्य (Objectives of Development) ऊपर हमने चर्चा की कि विश्व दो प्रकार के राष्ट्रों में बंटा हुआ है विकसित व विकासशील देश। जब हम विकासशील देशों की बात करते हैं, तो वहाँ के निर्धन व दरिद्र लोगों का ध्यान आता है क्योंकि इन लोगों की स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। विकसित देशों में भी वहाँ की जनसंख्या का बड़ा भाग ऐसा है, जिन तक देश की समृद्धि का अंश पहुँच नहीं पाया है और वहाँ की समृद्धि की तुलना में ये लोग अपने-आपको दरिद्र पाते हैं।

अतः विकास के उद्देश्यों पर विचार करते समय समद्ध देशों के इन वर्गों का भी अध्ययन करना होगा। विकास के उद्देश्यों के सम्बन्ध में यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक युग के परिवेश में विकास की परिभाषा या लक्ष्य बदल गया है। एक समय था, जब विकास का अर्थ मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से था, लेकिन आज सामान्य लोग आवश्यक वस्तुओं के साथ-साथ विलास की वस्तुओं का भी उपयोग करने लगे हैं अर्थात् वर्तमान में आर्थिक दृष्टि से दुर्बल व सबल वर्गों की अवधारणा अब धमिल हो गई है।

इसी सन्दर्भ में प्रो० गालब्रेथ (Galbraith) ने ठीक ही कहा है कि अब विलास की वस्तुओं (Luxury Goods) व आवश्यक वस्तुओं (Necessity goods) का अन्तर समाप्त हो गया है। कारण यह है कि जनसाधरण अब उन वस्तुओं का प्रयोग करने लगा है, जिन्हें कभी विलास की वस्तुएँ माना जाता था। इसलिए विकास के लक्ष्यों या उद्देश्यों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। विकास के उद्देश्यों का विवरण निम्नलिखित है

1. जीवन का स्तर-विकास का पहला और महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है कि लोगों के रहन-सहन के स्तर का विकास हो। इसका तात्पर्य है कि लोगों को जीवन के स्तर की न केवल आवश्यक सुविधाएँ ही प्राप्त हों, बल्कि उन्हें वे सुविधाएँ भी मिलनी चाहिएँ, जिन्हें प्राप्त करके वे अपने जीवन को सुखी और सम्पन्न बना सकें। उन्हें वे सभी सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिएँ, जिन्हें प्राप्त करके वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, अपनी कार्य-कुशलता को बढ़ा सकें। यही नहीं, उन्हें अवकाश के क्षणों का भी इस्तेमाल करना चाहिए।

2. प्रकृति का दोहन-विकास का दूसरा लक्ष्य है, प्रकृति का दोहन। भौतिकवादियों की यह धारणा है कि जो भी इस विश्व में है, उसका जी भर कर अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाना चाहिए और इसी में ही भौतिक सुख मिलता है। इसलिए आज वे प्रकृति का अधिक-से-अधिक शोषण कर रहे हैं। लेकिन वे इस प्रकार प्रकृति का बिना किसी सीमा के प्रयोग करते समय यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ने विश्व में प्रत्येक वस्तु को सीमित रूप से बनाया है।

यदि उसका उपभोग आँख बन्द करके किया गया तो यह अहितकर होगा। इसलिए मानव जाति से यह आशा की जाती है कि वे प्राकृतिक साधनों का प्रयोग एक सीमा में रहकर करें, जिससे प्राकृतिक साधनों का नाश न हो अर्थात् प्राकृतिक साधनों का शोषण न करके उसका मात्र दोहन होना चाहिए।

3. दरिद्र की सहायता-विकास के लिए राज्य द्वारा विभिन्न योजनाओं का निर्माण किया जाता है, लेकिन विकास को वास्तविक विकास तब माना जाएगा, जब इससे दरिद्र का विकास होगा अर्थात् विकास का उद्देश्य दरिद्रतम का विकास होना चाहिए। यदि विकास के उद्देश्य में दरिद्र लोगों को ध्यान में नहीं रखा गया, तो विकास तो अवश्य होगा, लेकिन विकास का लाभ धनी लोगों को होगा, न कि दरिद्र वर्ग को।

यदि विकास से धनी वर्ग को ही लाभ होता है और उन्हीं का जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, तो इसे वास्तविक स्थिति में विकास नहीं कह सकते। विकास से सभी का, विशेषकर दरिद्र का (गरीब का) विकास होना चाहिए। समाज के पिछड़े वर्ग का कल्याण होना चाहिए। विकास के लिए सरकार को चाहिए कि निवेश ग्रामीण क्षेत्र में किया जाए, जिससे ग्रामीण क्षेत्र भी विकसित होकर देश की मुख्य धारा में आ जाए। वह भी देश की समृद्धि का लाभ उठा सकें।

4. रोज़गार देना-विकास का एक और अन्य लक्ष्य है, देश के नागरिकों को रोजगार उपलब्ध करवाना। आधुनिक,युग को कई बार मशीनी युग भी कहा जाता है। फलस्वरूप जिन देशों की जनसंख्या पहले ही अधिक है, वहाँ पर बेरोज़गारी की समस्या और भी अधिक बढ़ गई है। यही नहीं, बेरोज़गारी की समस्या इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि उन्नत देशों में भी विकट रूप धारण करती जा रही है।

यह बात अलग है कि विकसित देशों में बेरोज़गारों को ‘बेकारी भत्ता’ (Unemployment Allowance) दिया जाता है। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। यह ठीक है कि इस भत्ते से बेरोज़गार व्यक्ति की भौतिक आवश्यकता तो पूरी हो जाती है, लेकिन उसकी मानसिक पीड़ा का कोई समाधान नहीं निकलता, क्योंकि वह बेरोज़गार होने पर अपने-आपको समाज का अवांछित व्यक्ति समझता है।

इसलिए यह जरूरी है कि विकास के लक्ष्य को निर्धारित करते समय बेरोज़गारी को दूर करने के लिए कुछ प्रावधान रखे जाएँ; जैसे भारत में बेरोज़गारी को दूर करने के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं और बजट में इसके लिए व्यवस्था (Budgetary Provisions) की जाती है।

5. लोकतन्त्र का विकास-विकास का एक अन्य लक्ष्य है-लोकतन्त्र का विकास। ‘विकास’ लोकतन्त्र के विकास में सहायता करता है और इसके फलस्वरूप लोकतन्त्र विकास में अपना योगदान देता है।

यह ठीक है कि तानाशाही देशों में विकास की गति तेज़ होती है, क्योंकि भय और आतंक की वजह से विकास के रास्ते में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती, लेकिन यह विकास चिरस्थायी नहीं होता क्योंकि इसमें जनता के सहयोग का अभाव होता है; जैसे साम्यवादी देशों में विकास के कितने ढोल पीटे गए, लेकिन वास्तविकता में विकास था ही नहीं।

उनके विकास की पोल खुलने पर पता चला कि वहाँ विकास के नाम पर लोगों की स्वतन्त्रता व अधिकारों का किस तरह हनन किया गया। अतः लोकतन्त्र के विकास में जन-सहयोग होता है। यह विकास खुला और जन-हिताय होता है। किसी विशिष्ट वर्ग के लिए किए जाने वाले विकास का विरोध होता है। लोकतन्त्र में ही विकास के लाभ का समानता के आधार पर वितरण सम्भव होता है। लोकतन्त्र को विकास विरोधी बताना अनुचित है। यदि यह कहा जाए कि “जब लोकतन्त्र सुरक्षित रहेगा, तभी विकास सर्वाधिक सुरक्षित होगा।” तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

प्रश्न 2.
विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल की विवेचना कीजिए।
अथवा
कल्याणकारी राज्य के विकास मॉडल से आप क्या समझते हैं? इसके लक्षणों एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। अथवा कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करते हुए विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
विकास के लिए दिए गए विभिन्न मॉडलों में से एक कल्याणकारी राज्य का मॉडल है। यह कल्याणकारी राज्य के लक्षणों को विकास का मापदण्ड मानता है। यह मॉडल भी प्रजातन्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित है। इस दृष्टिकोण के अनुसार विकास का अर्थ है-एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना।

हम सभी यह जानते हैं कि राज्य का सबसे बड़ा उद्देश्य अपनी जनता का सामाजिक व आर्थिक कल्याण करना है। इस सिद्धान्त के समर्थक देश औद्योगीकरण करना चाहते हैं। साथ में वे यह भी चाहते हैं कि सर्वसाधारण का जीवन-स्तर भी ऊँचा उठे। राज्य में केवल शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि समाज की विभिन्न प्रकार की विषमताओं को दूर करना होगा, ताकि व्यक्ति का प्रत्येक दृष्टि से विकास हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति केवल लोक-कल्याण राज्य द्वारा ही की जा सकती है।

कल्याणकारी राज्य द्वारा लोगों का आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक व आध्यात्मिक विकास सम्भव होगा अर्थात् राज्य का कर्तव्य समाज का सर्वांगीण विकास करना होगा। कल्याणकारी राज्य व्यक्ति के आर्थिक विकास की ओर ध्यान देकर उसे भौतिक सुख-साधन प्रदान करता है, लेकिन केवल भौतिक विकास ही व्यक्ति के लिए काफी नहीं हैं।

मनुष्य केवल भौतिक प्राणी ही नहीं है, बल्कि उसमें मन, बुद्धि और आत्मा भी है, इसलिए आध्यात्मिक व नैतिक विकास की भी आवश्यकता होती है। कल्याणकारी राज्य मनुष्य के आध्यात्मिक व नैतिक विकास के लिए भी कार्य करता है। अतः राज्य मनुष्य के नैतिक कल्याण व आर्थिक कल्याण का साधन है और इसे विकास के महत्त्वपूर्ण मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

यद्यपि यह ठीक है कि आधुनिक युग में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को विकास के मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कोई नई अवधारणा नहीं है। इस अवधारणा का वर्णन राजनीति शास्त्र के जनक अरस्तु ने भी किया है। आधुनिक युग में कल्याणकारी राज्य के इस मॉडल को इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, ऑस्ट्रेलिया, ज आदि देशों में भी अपनाया गया है।

सुविधा की दृष्टि से विकास के इस मॉडल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक हो जाता , है कि कल्याणकारी राज्य की विस्तृत जानकारी प्राप्त करें। कल्याणकारी राज्य की परिभाषाएँ (Definitions of Welfare State) कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करना एक बड़ा कठिन कार्य है क्योंकि राज्य को कार्यों की सीमा में बांधना मुश्किल है। फिर भी इसकी कुछ परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं

1. कैन्ट (Kent) के अनुसार, “वह राज्य कल्याणकारी राज्य होता है, जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्याख्या करता है।”

2. डॉ० अब्राहम (Dr. Abraham) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह समुदाय है जो अपनी आर्थिक अवस्था के संचालन में आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से कार्य करता है।”

3. जी०डी०एच० कोल (G.D.H. Cole) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य एक ऐसा समुदाय है, जिसमें जीवन का न्यूनतम स्तर प्राप्त करने का विश्वास तथा अवसर प्रत्येक नागरिक के अधिकार में होते हैं।”

4. शकैल सिंगर (Schlesinger) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें सरकार प्रत्येक व्यक्ति को रोज़गार, आय, विद्या, डॉक्टरी सहायता, सामाजिक सुरक्षा तथा रहने के लिए मकान आदि एक न्यूनतम अथवा विशिष्ट स्तर तक स्वीकार करती है।”

5. डॉ० गार्नर (Dr. Garner) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य राष्ट्रीय जीवन, राष्ट्रीय धन तथा जीवन में भौतिक तथा नैतिक स्तर को विस्तृत करना है।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि कल्याणकारी राज्य विकास के मॉडल के रूप में उन सभी सुविधाओं या अवस्थाओं को प्रदान करता है, जिनको प्राप्त करके व्यक्ति अपने जीवन का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आधार पर विकास कर सकता है। इस व्यवस्था में विकास के मॉडल का उद्देश्य किसी विशेष समुदाय, वर्ग विशेष अथवा समाज के अंग विशेष के हित की ओर ध्यान देना नहीं होता, बल्कि इसका उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के कुछ आवश्यक हितों की साधना करना होता है।

यद्यपि आर्थिक हित मानव-कल्याण के लिए अत्यन्त आवश्यक है, तथापि आर्थिक हित साधन से होता है, जिसमें सामाजिक, नैतिक, आर्थिक तथा बौद्धिक सभी प्रकार के साधन आ जाते हैं। इस प्रकार कल्याणकारी राज्य सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान देता है।

विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल के उद्देश्य या लक्षण कल्याणकारी राज्य के विकास के मॉडल या मार्ग के रूप में उद्देश्यों का वर्णन निम्नलिखित है

1. विकास लोकतन्त्र के रूप में कल्याणकारी राज्य में शासन का मुख्य उद्देश्य लोक-कल्याण करना होता है। शासन के सभी कार्य इस प्रकार सम्पादित किए जाते हैं कि उससे जनता का हित एवं कल्याण हो। इसमें कुछ सम्भ्रान्त व्यक्तियों या समूहों के स्थान पर सारी जनता के भले के बारे में विचार करके कार्य होते हैं।

2. विकास आर्थिक सुरक्षा के रूप में कल्याणकारी राज्य में कोई व्यक्ति निर्धन नहीं होता। राज्य हर व्यक्ति के रोज़गार एवं आजीविका की व्यवस्था करता है। राज्य यह देखता है कि किस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-यापन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो।

3. विकास सामाजिक सुरक्षा के रूप में कल्याणकारी राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान की जाती है। बूढ़े, असहाय, प्राकृतिक प्रकोपों से पीड़ित व्यक्तियों को राज्य की ओर से सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती है। शासन की ओर से सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था की जाती है।

4. विकास राजनीतिक सुरक्षा के रूप में कल्याणकारी राज्य में सभी व्यक्तियों का जीवन सुरक्षित रखने के लिए पुलिस आदि की व्यवस्था की जाती है। शासन का यह प्रथम कार्य होता है कि वह कानून और व्यवस्था को बनाए रखे। राज्य ही ऐसी व्यवस्था करता है जिसमें कि लोग अपनी सहज एवं सामान्य गतिविधियाँ निर्भीकतापूर्वक सम्पादित कर सकें।

5. विकास भेदभाव के अन्त के रूप में कल्याणकारी राज्य में भाषा, जाति, सम्प्रदाय आदि किसी भी आधार पर समाज में व्यक्तियों के साथ भेदभाव का व्यवहार नहीं होता। इस व्यवस्था में सामाजिक न्याय पर बल दिया जाता है। सभी व्यक्तियों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है।

6. विकास लोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था के रूप में कोई ऐसा शासन जहाँ निरंकुशवादी हो और जो अत्याचारी हो, वहाँ कल्याणकारी राज्य हो ही नहीं सकता। कल्याणकारी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ की शासन-व्यवस्था लोकतान्त्रिक हो। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का और नागरिकों का शासन हो और नागरिकों को विचार एवं अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता हो। अन्यथा पता ही कैसे चलेगा कि राज्य कल्याणकारी है या नहीं।

7. विकास विश्व-शान्ति में विश्वास के रूप में कल्याणकारी राज्य विश्व-शान्ति में विश्वास रखता है। वह जानता है कि परस्पर युद्ध का रास्ता विनाश का रास्ता है। इसलिए कल्याणकारी राज्य सभी पड़ोसियों के साथ मित्रता स्थापित करने के लिए प्रयास करता है। इतना ही नहीं वरन् वह तो सम्पूर्ण विश्व में शान्ति चाहता है और विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान में विश्वास करता है।

कल्याणकारी राज्य के कार्य (Functions of Welfare State) कई विद्वानों ने राज्य के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया है-अनिवार्य कार्य और ऐच्छिक कार्य। लेकिन कल्याणकारी राज्य इस प्रकार के कार्य विभाजन में विश्वास नहीं रखता। अतः कल्याणकारी राज्य के कार्य निम्नलिखित हैं

1. आन्तरिक सुव्यवस्था तथा विदेशी आक्रमणों से रक्षा एक राज्य जब तक विदेशी आक्रमणों से अपनी भूमि और सम्मान की रक्षा करने की क्षमता नहीं रखता और आन्तरिक शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित रखते हुए व्यक्तियों के जीवन की सुरक्षा का आश्वासन नहीं देता, उस समय तक वह राज्य कहलाने का ही अधिकारी नहीं है। इस कार्य को पूरा करने के लिए राज्य सेना और पुलिस रखता है। जिस देश के नागरिकों को इस बात का विश्वास नहीं कि उसकी सरकार बाहरी आक्रमणों से उनकी रक्षा कर सकेगी तो वे नागरिक निश्चिन्त नहीं रह सकते।

2. जीवन और सम्पत्ति की रक्षा राज्य का प्रमुख कार्य नागरिकों की रक्षा करना है। वास्तव में राज्य का जन्म ही इस आवश्यकता के कारण हुआ है। यदि राज्य व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं करेगा तो राज्य का अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। राज्य में व्यक्ति इस कारण रहता है कि राज्य में उसके जीवन और सम्पत्ति की रक्षा हो सकती है। राज्य के पास प्रभुसत्ता होती है और ऐसे व्यक्तियों को, जो दूसरों के अधिकारों की अवहेलना करते हैं, राज्य कठोर-से-कठोर दण्ड दे सकता है।

3. शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्य-कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के लिए उन सभी सुविधाओं की व्यवस्था करना होता है, जो उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु सहायक और आवश्यक हैं। इस दृष्टि से शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार राज्य शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना करता है और एक निश्चित स्तर तक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क किया जाता है। औद्योगिक तथा प्राविधिक शिक्षा की व्यवस्था भी राज्य द्वारा की जाती है। इसी प्रकार राज्य द्वारा चिकित्सा-गृहों तथा प्रसव-गृहों आदि की स्थापना की जाती है जिसका उपयोग जनसाधारण निःशुल्क कर सकते हैं।

4. न्यायिक व्यवस्था करना यह बात एकदम स्वाभाविक है कि समाज में रहने वाले व्यक्तियों में अनेक विषयों पर तरह-तरह के विवाद और झगड़े उत्पन्न हों। उन विवादों का समाधान करने के लिए राज्य की ओर से न्यायिक व्यवस्था की जानी चाहिए। यह कल्याणकारी राज्य का ही कार्य है कि वह सभी व्यक्तियों को समान रूप से, बिना किसी भेदभाव के न्याय प्रदान करे। न्यायपालिका निष्पक्ष हो और सभी के मन में उसके प्रति आदर की भावना हो।

5. आर्थिक विकास की व्यवस्था आज का युग तेजी का युग है। संसार के देशों में आर्थिक विकास की होड़ लगी हुई है। व्यक्तियों का जीवन-स्तर तेजी से सुधर रहा है। ऐसी अवस्था में समाज की अर्थव्यवस्था और व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति के प्रति कोई भी राज्य मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकता। उसका यह प्रमुख कार्य हो जाता है कि वह सम्पूर्ण देश के आर्थिक विकास का प्रयत्न करे।

समाजवादी देशों में तो राज्य यह कार्य स्वयं हाथ में लेता ही है; परन्तु पूँजीवादी देशों में आर्थिक विकास के लिए राज्य की ओर से विशाल पैमाने पर प्रयत्न किए जाने लगे हैं। अनेक उद्योग निजी उद्योगपतियों के हाथों में होने पर भी राज्य पर उनका पर्याप्त नियन्त्रण रहता है। सभी देशों में आर्थिक विकास के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति तथा अनुसन्धान भी राज्य का कार्य बन गया है।

राज्य की ओर से आर्थिक विकास के कार्य करते समय यह देखना भी जरूरी है कि समाज का कोई वर्ग या समुदाय उपेक्षित न रह जाए। पूर्ण रूप से समानता तो किसी भी देश में सम्भव नहीं है। रूस में भी वह नहीं है। चीन में भी नहीं; परन्तु आर्थिक समानता को कम किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार दिया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे न रहे-यह प्रयत्न किया जा सकता है और यही कल्याणकारी राज्य को करना चाहिए।

6. कृषि, उद्योग और व्यवसायों का विकास-अपनी सीमा के अन्दर रहने वाले नागरिकों के आर्थिक विकास की जिम्मेदारी भी लोक-कल्याणकारी राज्य की है। इसके लिए राज्य कृषि, उद्योगों और व्यवसायों को प्रोत्साहन देता है। राज्य के द्वारा सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने के लिए नहरों, नलकूपों आदि का निर्माण किया जाता है और बड़ी-बड़ी नदियों पर बांध आदि बनाकर बिजली के उत्पादन द्वारा उद्योग-धन्धों और व्यापार को प्रोत्साहित किया जाता है।

7. आर्थिक शोषण की समाप्ति-लोक-कल्याणकारी राज्य आर्थिक शोषण की समाप्ति के लिए औद्योगिक क्षेत्र पर नियन्त्रण रखता है और यदि किन्हीं उद्योगों को सरकारी अधिकार में लेना आवश्यक मालूम होता है तो राज्य उनका राष्ट्रीयकरण कर देता है।

8. श्रमिकों के हित में कानून बनाना-उद्योग-धन्धों को नियन्त्रण करने के साथ-साथ लोक-कल्याणकारी राज्य श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए काम के घण्टे निश्चित करने, उन्हें उचित वेतन प्राप्त कराने, कारखानों में स्वच्छ वातावरण उत्पन्न करने, श्रमिकों की शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था करने, अयोग्य होने ही हालत में बीमा योजना को लागू करने, तालाबन्दी आदि से उनकी रक्षा करने और बोनस आदि दिलाने के सम्बन्ध में कानून बनाते हैं। श्रम-न्यायालय (Labour Courts) की स्थापना करके श्रमिक झगड़ों का शीघ्र निपटारा करने की व्यवस्था भी लोक-कल्याणकारी राज्यों द्वारा की जाती है।

9. समाज-सुधार सम्बन्धी कार्य-सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देने के लिए छुआछूत, जाति और वर्गों की संकुचित भावना, रूढ़ियों, अन्ध-विश्वासों और बाल-विवाह एवं दहेज सरीखी कुरीतियों को दूर करना भी लोक-कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक है। महिलाओं की दशा सुधारने या विधवाओं के भरण-पोषण की व्यवस्था और उन्हें सम्मानपूर्ण जीवन दिलाने की व्यवस्था भी लोक-कल्याणकारी राज्यों द्वारा की जाती है। ..

10. सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी कार्य-इसके अन्तर्गत लोक-कल्याणकारी राज्य रोगी, दिव्यांग, असहाय तथा वृद्ध व्यक्तियों को पेन्शन देने का प्रबन्ध करता है और उनके लिए आश्रय केन्द्र स्थापित करता है। समाज के पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें कुछ विशेष सुविधाएँ भी दी जा सकती हैं।

11. उच्च नैतिक विकास-लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सरक्षा देकर ही अपने कार्यों को पूरा हुआ नहीं मान लेता। उसे नागरिकों के नैतिक विकास की भी चिन्ता होती है। अतः श्रेष्ठ साहित्य के निर्माण में सहायता देना, विभिन्न विषयों के अभिकृत विद्वानों को पुरस्कृत करना और अश्लील साहित्य पर रोक लगाकर नागरिकों के नैतिक विकास में भी लोक-कल्याणकारी राज्य सहायक बनता है।

12. नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा-लोक-कल्याणकारी राज्य जनहित के अनेक कार्यों को करते हुए भी नागरिक स्वाधीनता को छीनने की कोशिश नहीं करता; उल्टे उसकी सुरक्षा करके उसे बढ़ावा देता है। इसका कारण यह है कि नागरिकों का सभी तरह का विकास स्वतन्त्रता के उत्तम वातावरण में ही सम्भव है, राजनीतिक घुटन से भरे वातावरण में नहीं।

इसलिए लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों को अपने विचार प्रकट करने और उनका प्रचार करने की पूरी छूट देता है। आर्थिक सुरक्षा की गारण्टी देकर राज्य स्वतन्त्रता को सही अर्थों में सार्थक बना देता है। कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त की आलोचना लोक-कल्याणकारी राज्यों के कार्यों के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि इस तरह का राज्य मानव-समाज के लिए बहुत अधिक उपयोगी है। फिर भी लोक-कल्याणकारी राज्य की कुछ विद्वानों ने आलोचना की है, जो निम्नलिखित है

1. खर्चीली व्यवस्था-कल्याणकारी राज्य के आलोचकों का कहना है कि इस व्यवस्था में राज्य द्वारा अनेक तरह के कार्य करने से राज्य पर होने वाला व्यय-भार बहुत अधिक बढ़ जाता है। अतः इस व्यवस्था का उपयोग ब्रिटेन, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के अन्य सम्पन्न देशों में ही किया जा सकता है, भारत जैसे गरीब देश में नहीं। यदि यहाँ इस व्यवस्था का सहारा लिया गया तो सरकार को जनता पर और अधिक टैक्स लगाने पड़ेंगे जिससे जनमत का जीवन और अधिक कष्टपूर्ण हो जाएगा।

2. पूँजीपतियों द्वारा विरोध-लोक-कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था का सबसे अधिक विरोध पूँजीपतियों द्वारा किया जाता है, क्योंकि इस व्यवस्था में उनके द्वारा संचालित उद्योगों में मनमाना मुनाफा कमाने पर राज्य द्वारा रोक लगाकर उन पर भारी कर भी लगाए जाते हैं। पूँजीपतियों का कहना है कि इससे उत्पादन घट जाएगा और राष्ट्रीय आय को हानि होगी।

3. नौकरशाही को अनुचित महत्त्व लोक-कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध प्रायः यह तर्क भी दिया जाता है कि इस व्यवस्था में राज्य के कार्य-क्षेत्र का दायरा बहुत अधिक बढ़ जाने से शासन में नौकरशाही का प्रभाव और महत्त्व अनावश्यक रूप से बढ़ जाता है। विशेषज्ञ होने के कारण आमतौर पर नीतियों और कार्यक्रमों का निर्धारण सरकारी अधिकारियों द्वारा ही उन पर केवल हस्ताक्षर करते हैं। अतः लोक-कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था ठीक नहीं है।

4. नागरिक स्वतन्त्रता में कमी-भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राज्य का कार्य बढ़ाने से नागरिकों की स्वतन्त्रता में कमी आ जाती है। राज्य द्वारा लागू नियमों को मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है और इससे उनका नैतिक विकास भी रुक जाता है। राज्य पर निर्भरता बढ़ने से व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं रह पाता और उसकी राज्य पर आश्रित होने की भावना बढ़ती चली जाती है।

5. विरोधाभासी अवधारणा कल्याणकारी राज्य में आर्थिक असमानता समाप्त करने पर विशेष आग्रह नहीं किया जाता। केवल गरीबों का स्तर ऊँचा उठाने की बात की जाती है, परन्तु जिस समाज में आर्थिक विषमता बहुत अधिक हो, वहाँ अवसर की समानता हो ही नहीं सकती। अतः मूल रूप से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ‘यथास्थितिवादी अवधारणा’ है।

6. अस्पष्ट अवधारणा कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह एक अस्पष्ट अवधारणा है। यह कहना तो अच्छा है कि राज्य का उद्देश्य लोक-कल्याण होना चाहिए। परन्तु लोक-कल्याण से तात्पर्य क्या है, इसकी सुनिश्चित व सर्वमान्य व्याख्या किसी ने नहीं की। किसी विद्वान ने लोक-कल्याण का अर्थ कुछ लगाया, किसी ने कुछ लगाया।

निष्कर्ष:
यद्यपि आलोचकों ने लोक-कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था के विरुद्ध अनेक तर्क दिए हैं, लेकिन गहराई से विचार करने पर उनका खोखलापन स्वतः प्रकट हो जाता है। उदाहरण के लिए, यह कहना बिल्कुल गलत है कि इस व्यवस्था का सहारा ब्रिटेन और अमेरिका जैसे सम्पन्न देशों में ही लिया जा सकता है, भारत जैसे गरीब देश में नहीं।

आजादी मिलने के बाद भारत में भी लोक-कल्याण के अनेक कार्य शासन द्वारा पूरे किए गए हैं और उससे सर्व-साधारण को लाभ ही हुआ है। इसी तरह नागरिक स्वतन्त्रता का उपभोग भूखे पेट नहीं किया जा सकता, यह भी हमें स्मरण रखना चाहिए। लोक-कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही के कार्यों में बढोतरी होती है, इसमें संदेह नहीं।

इस तरह विकास का यह मॉडल बल पकड़ता जा रहा है और अमेरिका जैसे विकसित देशों ने अपने नागरिकों को और अधिक सुविधाएँ प्राप्त कराने के लिए इसी मॉडल को ही अपनाया है। सच्चाई तो यह है कि विकास के इस मॉडल की बढ़ती हुई लोकप्रियता ही उसके औचित्य का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसलिए कोई भी समझदार व्यक्ति लोक-कल्याण के इस मॉडल की आलोचना या विरोध करने के लिए तैयार नहीं है। भारत में विकास के इसी मॉडल को अपनाया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 3.
विकास सम्बन्धी समाजवादी मॉडल का विवेचन कीजिए।
अथवा
विकास सम्बन्धी समाजवादी मॉडल से आप क्या समझते हैं? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
समाजवाद क्या है? विकास सम्बन्धी समाजवादी दृष्टिकोण या मॉडल की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
विकास के विभिन्न मॉडलों में से विकास का समाजवादी मॉडल एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मॉडल है। यह मॉडल समाजवादी मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। इस मॉडल के अन्तर्गत विकासशील देशों का विकास साम्यवादी तथा समाजवादी मापदण्डों के आधार पर होना चाहिए। समाजवादी राज्य की स्थापना ही विकास का अन्तिम उद्देश्य है।

इस दृष्टिकोण या मॉडल के समर्थकों का विचार है कि विकसित देशों व विकासशील देशों की पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर है, क्योंकि विकसित देश पूँजीवादी व्यवस्था के माध्यम से अपनी सभी समस्याओं का निदान कर चुके हैं, लेकिन विकासशील देश पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं अपना सकते, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी साम्राज्यवादी शक्तियों से स्वतन्त्रता प्राप्त की है।

साम्राज्यवादी शक्तियाँ अभी तक उनका शोषण कर रही थीं। उन्होंने विकासशील देशों का आर्थिक दृष्टि से जी भरकर शोषण किया। ये देश पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अपना और अधिक शोषण नहीं करवा सकते। इसलिए उन्होंने पूँजीवाद से अपने सम्बन्ध पूर्ण रूप से तोड़ने में ही विकास की आशा की है।

यह मॉडल अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा का विरोधी है, क्योंकि इसमें शक्तिशाली राष्ट्र ही लाभ उठाते हैं। विकासशील देशों को इससे उसी प्रकार हानि पहुँचती है, जिस प्रकार खुली प्रतियोगिता तथा मुक्त व्यापार से श्रमिकों को हानि पहुँचती है। उन्नत देश विकासशील देशों में पूँजी लगाकर उस देश का कच्चा माल खरीदते हैं। कच्चे माल से उत्पादन करके उस उत्पादन को उसी देश के बाजार में भारी कीमतों में बेचकर उनका शोषण करते हैं।

अतः विकासशील देशों को पूँजीवादी व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा एवं मुक्त बाजार से कोई लाभ नहीं पहुँचता। इस प्रकार विकास का मॉडल समाजवादी व्यवस्था को अपना आदर्श मानता है और इसी व्यवस्था के अन्तर्गत विकास की किरण देखता है और अपनी गतिविधियों का संचालन करता है, अतः इस मॉडल को पूरी तरह समझने के लिए समाजवादी व्यवस्था या समाजवाद पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है।

समाजवाद क्या है? समाजवाद व्यक्तिवादी विचारधारा के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। समाजवाद की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है इसलिए इसके विचारकों द्वारा इसे अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया गया है। एक लेखक ने तो समाजवाद की तुलना एक टोपी से की है जिसका आकार बिगड़ चुका है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति ने इसे अपने तरीके से पहना है।

रैम्जेम्योर (Ramsay Muir) ने समाजवाद के बारे में कहा है, “यह एक गिरगिट के समान है जो परिस्थिति के अनुसार अपना रंग बदलता रहता है।” समाजवाद एक व्यापक मानवीय आन्दोलन है। अतः व्यक्तियों, विचारकों तथा परिस्थितियों के अनुसार इसका स्वरूप बदलता रहता है। यह केवल राजनीतिक आन्दोलन ही नहीं है, बल्कि आर्थिक आन्दोलन भी है। समाजवाद की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1. रैम्जे मेक्डोनल्ड (Ramsay Macdonald) के अनुसार, “साधारण भाषा में समाजवाद की सबसे अधिक अच्छी परिभाषा यह है कि इसका उद्देश्य समाज के आर्थिक व भौतिक साधनों का संगठन करना तथा मानव साधनों द्वारा उसका नियन्त्रण करना है।”

2. इमाइल (Emiles) ने परिभाषा देते हुए कहा है, “समाजवाद मजदूरों का संगठन है जिसका उद्देश्य पूँजीवादी सम्पत्ति को समाजवादी सम्पत्ति में परिवर्तित करके राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करना है।”

3. ह्यून (Hughan) के अनुसार, “समाजवाद मजदूर वर्ग का एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य उत्पादन तथा वितरण के बुनियादी साधनों का सामूहिक स्वामित्व और लोकतन्त्रीय शासन के द्वारा शोषण का अन्त करना है।”

4. रॉबर्ट (Robert) ने समाजवाद की परिभाषा इस प्रकार से दी है, “समाजवाद के कार्यक्रम की मांग है कि सम्पत्ति तथा उत्पाद के अन्य साधन जनता की सामूहिक सम्पत्ति हो और उनका प्रयोग भी जनता के द्वारा जनता के लिए किया जाए।”

समाजवाद की उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि समाजवाद वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक आन्दोलन है। इसके अनुसार राज्य का कार्य-क्षेत्र इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह जनता की भलाई के लिए कार्य कर सके और भिन्न-भिन्न स्वतन्त्रताओं की भी व्यवस्था कर सके। समाजवादियों के अनुसार राज्य एक बुराई न होकर एक अच्छी संस्था है।

इसलिए राज्य को अधिकार है कि वह व्यक्तियों की भलाई के लिए जो उचित समझे, करे। गार्नर का कथन है कि व्यक्तिवादियों के विपरीत, समाजवाद के समर्थक राज्य पर विश्वास करके उसे बुराई न मानकर उसके कार्य-क्षेत्र को सीमित करने की बजाय विस्तृत करना चाहते हैं। वे राज्य को जनता के आर्थिक, नैतिक व बौद्धिक हितों के विकास के लिए अनिवार्य समझते हैं।

समाजवादी, पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था से असन्तुष्ट हैं। अतः वे पूँजीवाद को समाप्त करके उत्पादन और वितरण के साधनों को सरकार के हाथों में देना चाहते हैं, ताकि आर्थिक समानता स्थापित की जा सके और लोगों को बिना किसी भेदभाव के विकास के अवसर मिल सकें। समाजवाद की अवधारणा को साधारणतः दो भागों में विभाजित किया गया है-

  • कार्ल मार्क्स व ऐंजल्स की विचारधारा पर आधारित समाजवाद, जिसे मार्क्सवाद कहा जाता है।
  • विकासवादी अथवा लोकतान्त्रिक समाजवाद।

(मार्क्सवाद-समाजवाद का सबसे प्रभावशाली समर्थक मार्क्स था। उसने दीन, दुःखी व शोषित श्रमिक वर्ग के विकास के लिए एक नई राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिपादन किया। वह जानता था कि श्रमिक वर्ग की दयनीय हालत में सुधार केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता है। मार्क्स समाज को दो वर्गों में बांटता है-शोषक व शोषित वर्ग।

पहले वर्ग का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण होता है, वह साधनों का स्वामी होता है और दूसरा वर्ग अपने श्रम पर जीने वाला है। पूँजीपति अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहता है। इस कारण वह मजदूरों को कम-से-कम मजदूरी देना चाहता है। दूसरी ओर मज़दूर अधिक-से-अधिक मज़दूरी लेना चाहते हैं। अतः हितों के इस विरोध के कारण दोनों में संघर्ष आरम्भ हो जाता है। यह वर्ग-संघर्ष की बुनियाद है और इसी कारण वर्ग-संघर्ष हमेशा चलता रहता है।

मार्क्स का विचार था कि मजदूरों में असन्तोष, चेतना तथा संगठन बढ़ेगा। वह विश्व के मजदूरों को संगठित होने के लिए कहता है। उसने कहा है कि विश्व के मज़दूरों, इकट्ठे हो जाओ और पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्ति कर दो। इस क्रान्ति के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग राज्य की शक्ति पर काबू पा लेगा। पूँजीवाद को जड़ से समाप्त कर देगा। सारी सम्पत्ति पर मजदूरों का ही नियन्त्रण हो जाएगा। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना हो जाएगी और ऐसे समाज की स्थापना हो जाएगी जिसमें अन्याय, शोषण और अत्याचार नहीं होगा।

वर्ग-विहीन व राज्य-विहीन व्यवस्था की स्थापना हो जाएगी, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके सामर्थ्य और उसकी आवश्यकता अनुसार सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी इस तरह मार्क्स एक नवीन समाज का विकास करता है।

(ii) विकासवादी अथवा लोकतान्त्रिक समाजवाद कार्ल मार्क्स की मृत्यु के बाद उसके विचारों का संगठित रूप से प्रचार किया गया, लेकिन कुछ बातों को लेकर मार्क्सवादियों में मतभेद उत्पन्न हो गए और उसी आधार पर एक नई विचारधारा ने जन्म लिया, जिसे लोकतान्त्रिक समाजवाद या विकासवादी समाजवाद का नाम दिया गया।

लोकतान्त्रिक समाजवाद, समाजवाद का वह रूप है जो जन-सहमति के आधार पर धीरे-धीरे स्थापित किया जाता है। समाजवाद (मार्क्सवाद) व लोकतान्त्रिक समाजवाद में मुख्य अन्तर दोनों द्वारा अपनाए गए साधनों से है। दोनों का उद्देश्य तो एक ही है पूँजीवाद को समाप्त करना, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना। दोनों ही व्यक्तिगत सम्पत्ति को समाप्त करने के पक्ष में हैं, परन्तु जहाँ मार्क्सवादी इस उद्देश्य की प्राप्ति रक्तिम क्रान्ति (Bloody Revolution) द्वारा करना चाहते हैं, वहाँ लोकतान्त्रिक समाजवादी

इस उद्देश्य की प्राप्ति संवैधानिक तरीके से करने के पक्ष में हैं। वे वर्ग-सहयोग व शान्तिपूर्ण उपायों से सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं। उनका विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा श्रमिकों की तानाशाही द्वारा समाजवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। लोकतान्त्रिक समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में।
  • समाज में दो वर्गों की बजाय तीन वर्ग हैं।
  • समाजवाद की स्थापना धीरे-धीरे कानुन बनाकर होगी।
  • क्रान्ति की तुलना में शान्तिपूर्ण तरीके अपनाने होंगे।
  • राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाज-कल्याण व आर्थिक सुरक्षा के क्षेत्र में नागरिकों को अनेक सुविधाएँ जुटाते हैं।
  • श्रमिकों की तानाशाही अनावश्यक व लोकतन्त्र विरोधी है।
  • राज्य-विहीन समाज की स्थापना कोरी कल्पना है। समाजवाद की स्थापना में राज्य को अहम् भूमिका निभानी है।

अन्त में यह कहा जा सकता है कि समाजवाद की चाहे कितनी भी शाखाएँ क्यों न हों, लेकिन विकास के बारे में सभी समाजवादियों ने सहमति प्रकट की है। उनका कहना है कि उत्पादन और वितरण व्यक्ति के हाथ में न होकर राज्य के नियन्त्रण में होना चाहिए।

व्यक्तिगत लाभ की तुलना में सामाजिक हित को प्रमुखता दी जानी चाहिए। उत्पादन समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। उत्पादन के क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धा समाप्त की जानी चाहिए। समाजवादी मॉडल की समीक्षा विकास के समाजवादी मॉडल की आलोचकों द्वारा आलोचना की गई है।

उनका कहना है कि यह मॉडल रूस और चीन में अपनाया गया। रूस में सन् 1917 तथा चीन में सन् 1949 में समाजवादी अथवा साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की गई। दोनों देशों में क्रान्तिकारी ढंग से समाजवाद की स्थापना की गई है, लेकिन वहाँ पर अभी तक लोकतन्त्र की स्थापना नहीं हो पाई, यद्यपि वहाँ पर संविधान में लोगों के लिए अधिकारों की व्यवस्था की गई है।

ये अधिकार केवल नाममात्र के हैं क्योंकि वहाँ न्यायपालिका, प्रैस और भाषण की पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है और केवल एक ही साम्यवादी दल की स्थापना का अधिकार दिया गया है। चुनाव लड़ने का अधिकार भी केवल नाममात्र है।

इस मॉडल में व्यक्ति मशीन का मात्र एक पुर्जा बनकर रह गया है। साम्यवादी समाज में व्यक्ति अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं वस्था में शक्तियों का बहत अधिक केन्द्रीयकरण देखने को मिलता है। इसमें व्यक्ति की गरिमा के लिए कोई स्थान नहीं है। अतः रूस में पूर्वी यूरोप के सभी देशों में विकास के इस मॉडल का सफाया हो चुका है। चीन ने भी बाजार अर्थव्यवस्था से समझौता कर लिया गया है।

सभी साम्यवादी देशों ने उदारीकरण की नीति को अपना लिया है। वास्तविकता यह है कि किसी भी देश में अर्थव्यवस्था पर न तो पूर्ण रूप से राज्य का नियन्त्रण है और न ही व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्र छोड़ दिया गया है, बल्कि सभी देशों में ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ को अपनाया गया है। फलस्वरूप राज्य का सीमित हस्तक्षेप होता है।

प्रश्न 4.
विकास सम्बन्धी गाँधीवादी मॉडल की विवेचना कीजिए।
अथवा
विकास के गाँधीवादी दृष्टिकोण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
विकास के गाँधीवादी मॉडल के विभिन्न पक्षों या रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अभी तक अध्ययन किए गए विकास के मॉडलों या मार्गों या दृष्टिकोणों का सम्बन्ध व्यक्ति या राष्ट्र के भौतिकवादी पक्ष से है जिसमें भौतिकता के आधार पर समाज को दो वर्गों में बाँटा जाता है। इन दोनों वर्गों में संघर्ष होता है और संघर्ष के बाद क्रान्ति और क्रान्ति के बाद राज्य-विहीन या वर्ग-विहीन व्यवस्था की स्थापना। इसके बाद कल्याणकारी राज्य रूपी विकास का मॉडल सामने आया। उसमें भी व्यक्ति के जीवन के भौतिक पक्ष को ही महत्त्व दिया गया। अतः सभी उपरोक्त विकास के मॉडलों में विकास के वास्तविक लक्ष्यों की उपेक्षा की गई। उनमें केवल एक ही वर्ग की भलाई या विकास की बात कही गई है।

गांधी जी समाज के एक वर्ग के विकास से सम्बन्धित नहीं थे। वे समाज के प्रत्येक वर्ग के विकास की कामना करते थे। उन्होंने समाज के दलित, उपेक्षित व दरिद्र वर्गों की भलाई की बात की है। गांधी जी ने जो विकास की बात की है वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में की है। उनका उद्देश्य था ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ अर्थात् उन्होंने सम्पूर्ण मानव के विकास एवं सुख की बात की है।

इसी सन्दर्भ में यहाँ यह कहा जा सकता है कि गांधी जी के विकास के मॉडल में केवल भौतिक सुख की ही बात नहीं की जाती, बल्कि भौतिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख की भी बात की जाती है। भौतिक सुख क्षणभंगुर है। इसमें व्यक्ति का बाह्य विकास होता है। गांधीवादी मॉडल में जहाँ अध्यात्मवाद पर बल दिया गया है, वहाँ आध्यात्मिक विकास को भी महत्ता दी गई है। अतः गांधीवादी मॉडल अन्तर्मुखी एवं आदर्शवादी है।

महात्मा गांधी एक अर्थशास्त्री नहीं थे तथा न ही उन्होंने कोई विकास का औपचारिक मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने भारत की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कृषि व उद्योग से सम्बन्धित कुछ नीतियों का अवश्य ही प्रतिपादन किया है। प्राचार्य एस०एन० अग्रवाल के द्वारा 1994 में ‘गांधीयन योजना’ बनाई गई तथा 1998 में इसकी पुनर्रचना की।

इनके लेख गांधीयन योजना या गांधी के ‘विकास मॉडल’ के आधार माने जाते हैं जिसमें गांधी जी के विचारों का प्रतिपादन किया गया है। गांधीवादी मॉडल का मुख्य उद्देश्य देश की जनता का भौतिक व सांस्कृतिक विकास करना है। इसका मुख्य उद्देश्य देश के 5.5 लाख गांवों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। इसलिए इस मॉडल में अधिक बल कृषि विकास व ग्रामीण विकास पर दिया गया है।

गांधीवादी मॉडल की विशेषताएँ गांधी जी ने समाज के विकास की जो योजनाएँ प्रस्तुत की, उनका अधिक सम्बन्ध भारत से है। उनका विचार था कि विकास मात्र भौतिक नहीं होता, बल्कि आत्मिक विकास सर्वोपरि है। यह बात अलग है कि भारत बहुत समय तक गुलाम रहा। उस पर पाश्चात्य सभ्यता का पूर्ण प्रभाव था। इसलिए भारतीयों का भी दृष्टिकोण भौतिकवादी ही बन गया। गांधी जी के मॉडल के मुख्य रूप से तीन पक्ष हैं

(क) विकास का आर्थिक पक्ष,
(ख) विकास का सामाजिक पक्ष,
(ग) विकास का राजनीतिक पक्ष।

(क) विकास का आर्थिक पक्ष (Economic Aspect of Development)-गांधी मॉडल में विकास के आर्थिक पक्ष पर गांधी जी के विचार अग्रलिखित हैं

1. कृषि का महत्त्व-भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमें लगभग 75% लोग कृषि पर निर्भर करते हैं। इसलिए कृषि का विकास अनिवार्य है। गांधी जी ने कृषि विकास पर बल दिया है। इसलिए ज़मींदारी प्रथा का अन्त, भू-धारण प्रणाली में परिवर्तन, खाद्यान्नों में आत्म-निर्भरता, कम ब्याज पर धन उपलब्ध करवाना, किसानों को अच्छे बीज तथा अच्छी खाद उपलब्ध करवाना, सिंचाई की व्यवस्था करना आदि कुछ योजनाएँ हैं जिनके द्वारा कृषि में विकास किया जा सकता है।

2. कुटीर व ग्रामीण उद्योग-गांधीयन मॉडल में कुटीर व ग्रामीण उद्योग-धन्धों पर बल दिया गया है। उन्होंने विकेद्रित अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया है। उनका विचार था कि भारत की जनसंख्या का अधिक भाग गाँवों में रहता है। इसलिए गाँवों का विकास अनिवार्य है। गाँवों के विकास के लिए उन्होंने जो योजनाएँ प्रस्तुत की हैं, उनमें कुटीर व ग्रामीण उद्योग पर बल दिया गया है।

भारत में आत्म-निर्भरता लाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों का विकास आवश्यक है। उनका विचार है कि जैसे ग्रामीणवासी अपने लिए अन्न उगाते हैं वैसे ही उन्हें अपने लिए कपड़ा बुनना चाहिए। गांधी जी ने खादी बनाने व पहनने पर बल दिया है। एक अनुमान के अनुसार स्वतन्त्रता प्राप्त करने से पहले ग्रामीण उद्योगों में 40% श्रम-शक्ति लगी हुई थी। अब इसमें 20% श्रम-शक्ति लगी हुई है। इससे स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है।

3. औद्योगीकरण का विरोध-गांधीयन मॉडल औद्योगीकरण के विरुद्ध है। बड़े उद्योगों में अधिक मात्रा में कच्चे माल और बहुत बड़ी मात्रा में निर्मित पदार्थों के विक्रय के लिए बड़े बाजारों की आवश्यकता होती है तथा कच्चे माल व बड़े बाजारों की खोज में यह प्रवृत्ति साम्राज्यवाद को जन्म देती है। औद्योगीकरण में बड़ी-बड़ी मशीनों की आवश्यकता पड़ती है। गांधी जी मशीनों को पूरी मानव जाति के लिए अभिशाप मानते थे, क्योंकि मशीनों से मानव का शारीरिक व नैतिक पतन होता है। औद्योगीकरण से धन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाता है। इससे शोषण को प्रोत्साहन मिलता है।

यह बेरोज़गारी को बढ़ावा देता है। इसकी सबसे बड़ी हानि यह है कि केन्द्रीयकृत उत्पादन के परिणामस्वरूप राजनीतिक शक्ति का भी केन्द्रीयकरण हो जाता है जो लोकतन्त्र के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गांधी जी उद्योगों में मशीनीकरण के विरुद्ध थे। उनका सिद्धान्त था कि जो मशीनें सर्व-साधारण के हित साधन में काम आती हैं, उनका प्रयोग उचित है और जो मशीनें मनुष्य के शोषण को प्रोत्साहित करती हैं, उनका विरोध करना चाहिए अर्थात् औद्योगीकरण या कुटीर उद्योगों के विकास पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। गांधी जी आधारभूत उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्रों में किए जाने के पक्ष में थे।

4. वर्ग-सहयोग की धारणा मार्क्स ने साम्यवादी व्यवस्था का मुख्य आधार वर्ग-संघर्ष को बनाया था, लेकिन गांधीयन मॉडल में मार्क्स के वर्ग-संघर्ष की धारणा के विपरीत वर्ग-सहयोग की धारणा का प्रतिपादन किया गया है। गांधी जी आर्थिक क्षेत्र में श्रमिक व पूँजीपतियों में सहयोग की बात करते हैं। उनका विचार है कि पूँजीपति वर्ग को समाप्त करने की बजाय उसकी शक्ति को सीमित करना ही उपयोगी होगा और वे श्रमिकों की उद्योगों में भागीदारी के पक्ष में थे। यदि श्रमिकों को उद्योगों में भागीदार बना दिया जाए तो काफी हद तक संघर्ष की समस्या ही समाप्त हो जाएगी।

5. बाजार अर्थव्यवस्था का विरोधी-गांधीयन मॉडल बाजार की अर्थव्यवस्था का विरोध करता है, क्योंकि यह मॉडल प्रतियोगिता पर आधारित है। प्रतियोगिता शोषण के मार्ग के द्वार खोलती है। अधिक उत्पादन शक्ति के आधार पर राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण हो जाता है और श्रमिकों, कृषकों, छोटा काम करने वालों तथा अन्य सामान्य लोगों को अपने उत्पादन को खरीदने के लिए बाध्य करता है। इसका उदाहरण बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हैं जो अधिक प्रचार करके अपने उत्पादन को खरीदने के लिए मजबूर कर देती हैं। भारत में आजकल ऐसा ही हो रहा है।

6. श्रम के लिए सम्मानगांधी जी ने विकास की योजना के अन्तर्गत श्रम को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके अनुसार आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने भरण-पोषण हेतु श्रम करना अनिवार्य होगा। कोई भी मनुष्य अपने निर्वाह के लिए दूसरों की कमाई हड़पने का प्रयत्न नहीं करेगा। बौद्धिक श्रम करने वालों को भी वे थोड़ा-बहुत श्रम करने की सलाह देते हैं। इससे समाज में समानता स्थापित होगी।

7. न्यासी-गांधीयन मॉडल के अनसार समाज में विकास आर्थिक विषमताओं को दूर करने के बाद हो सकता है, लेकिन प्रश्न यह है कि इन विषमताओं को कैसे दूर किया जाए? गांधी जी साम्यवादी ढंग से (क्रान्तिकारी ढंग से) इस विषमता को दूर करने के पक्ष में नहीं हैं। इसके लिए गांधी जी ने धनिकों के हृदय परिवर्तन का सुझाव दिया है।

धनिकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए गांधी जी के द्वारा न्यास सिद्धान्त (Trusteeship Theory) का प्रतिपादन किया गया, जिसके अनुसार धनिकों को चाहिए कि वे अपने धन को अपना न समझकर उसे समाज की धरोहर समझें और उसे अपने ऊपर निर्वाह मात्र खर्च करते हुए, शेष धन समाज के हित-कार्यों में लगाएँ। यदि धनिक ऐसा न करें तो उनके विरुद्ध अहिंसात्मक ढंग अपनाने चाहिएँ। इस तरह न्यास सिद्धान्त द्वारा मनुष्य में शुभ प्रवृत्तियों का विकास होता है और समाज में सहयोग पैदा होता है और इस प्रकार समाज का विकास सम्भव होता है।

(ख) विकास का सामाजिक पक्ष (Social Aspect of Development)-गांधीयन मॉडल केवल आर्थिक विकास की ओर ही ध्यान नहीं देता, बल्कि इसमें मनुष्य के सामाजिक पक्ष के विकास की ओर भी ध्यान दिया गया है। इसके लिए गांधी जी के सामाजिक विचारों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। गांधी जी के सामाजिक विचार निम्नलिखित हैं

1. वर्ण-व्यवस्था-हिन्दू समाज का एक दोष वर्ण-व्यवस्था है और अनेक व्यक्तियों व समाज-सुधारकों ने इसे पूर्णतया समाप्त करने की बात कही है। गांधी जी का भी यही विचार है कि समाज में समानता लाने के लिए वर्ण-व्यवस्था को दूर करना चाहिए। उन्होंने कार्य की दृष्टि से किसी को छोटा या बड़ा नहीं समझा है।

2. अस्पृश्यता का अन्त-गांधी जी विकास की दृष्टि से समाज में अस्पृश्यता को दूर करने के पक्ष में थे। उनके अनुसार अस्पृश्यता मानव जाति के लिए एक अपराध है। यह भारतीय समाज के लिए एक कलंक है और उनका कथन था कि यह एक ऐसा घातक रोग है, जो समस्त समाज को नष्ट कर देगा। वे अछूतों को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक अधिकार दिलवाने के पक्ष में थे।

3. साम्प्रदायिक एकता-गांधीयन मॉडल में साम्प्रदायिक एकता पर बहुत बल दिया गया है, क्योंकि जब तक समाज साम्प्रदायिक भावना के आधार पर बंटा हुआ है, तब तक विकास हो ही नहीं सकता।

4. स्त्री-सुधार-गांधीयन मॉडल स्त्री-सुधार पर बल देता है क्योंकि स्त्री-सुधार न होने से समाज का एक मुख्य भाग अविकसित रह जाएगा और समाज का वांछित विकास नहीं हो पाएगा। इसलिए गांधी जी स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के पक्ष में थे। उन्होंने सती-प्रथा, बाल-विवाह और देवदासी प्रथा आदि स्त्री-जीवन से सम्बन्धित बुराइयों का डटकर विरोध किया और इस बात का प्रतिपादन किया कि कानून तथा व्यवहार में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ।

5. बुनियादी शिक्षा-गांधीयन मॉडल में बुनियादी शिक्षा पर बहुत बल दिया गया है। उनका विचार था कि शिक्षा विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती है। शिक्षा द्वारा मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का समन्वित विकास किया जा सकता है। अंग्रेजों द्वारा लागू की गई शिक्षा-प्रणाली भारतीय आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं थी।

यह प्रणाली भारतीयों के शारीरिक, बौद्धिक या आत्मिक किसी भी प्रकार का विकास करने में असमर्थ थी। इसलिए वे इस शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर नवीन शिक्षा-प्रणाली को लागू करना चाहते थे, जिसे बुनियादी शिक्षा का नाम दिया गया। बुनियादी शिक्षा में दस्तकारी पर बल दिया गया। इसमें शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा होगा। यह शिक्षा प्रणाली भारतीयों को स्वावलम्बी बनाएगी और उन्हें विकास के मार्ग पर अग्रसर करेगी।

(ग) विकास का राजनीतिक पक्ष (Political Aspect of Development) गांधी जी का विकास का मॉडल एक ‘राम-राज्य’ की स्थापना करने के पक्ष में है। यह आदर्श राज्य लोकतन्त्र पर आधारित होगा। राज्य के प्रबन्ध के मामलों में अहिंसक ढंगों का प्रयोग किया जाएगा। नागरिकों को प्रत्येक प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी।

राज्य को साधन माना जाएगा अर्थात् राज्य व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति राज्य के लिए। राज्य का मुख्य कार्य सभी व्यक्तियों के अधिकतम हित का सम्पादन करना है। अपने इस आदर्श राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी ने ग्राम पंचायत को महत्त्व दिया। वे सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में थे। केन्द्र के पास तो कुछ निश्चित अधिकार होंगे, जबकि बाकी सभी शक्तियाँ पंचायतों के पास होंगी। अतः सत्ता का आधार नीचे से ऊपर की ओर होगा। इस तरह गांधीयन मॉडल के विकास के लिए लोकतन्त्रीय व्यवस्था पर बल दिया गया है।

निष्कर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था को दृष्टि में रखते हुए गांधीयन मॉडल भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद नेहरू का राजनीति में अधिक प्रभाव रहा और गांधीयन मॉडल को एक तरह से भुला दिया गया था। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे०डी० सेठी ने लिखा है कि नेहरू ने अपने अन्तिम समय में यह मान लिया था कि हमनें गांधी मॉडल को भुलाया है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

केवल 1977 में जब पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, तो गांधीयन मॉडल को अपनाने का प्रयास किया गया क्योंकि उस समय इस मॉडल के समर्थक मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमन्त्री थे, लेकिन उनके समय में कुछ विशेष नहीं हो पाया।

प्रश्न 5.
अखण्ड विकास की संकल्पना का विस्तार से विवेचन कीजिए। अथवा पोषणकारी विकास की अवधारणा का विस्तार से उल्लेख कीजिए।
अथवा
अखण्ड विकास की अवधारणा वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के दावों में कैसे सन्तुलन स्थापित करती है? वर्णन कीजिए।
अथवा
अखण्ड विकास की अवधारणा के मुख्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विकास और पर्यावरण के सम्बन्ध के बारे में विकास की एक अवधारणा है, जिसे पोषणकारी विकास की अवधारणा (The concept of sustainable development) कहते हैं। साधारण शब्दों में, पोषणकारी विकास का अर्थ निरन्तर चलने वाला विकास अथवा अखण्ड विकास अर्थात् ऐसा विकास जिसकी गति में खण्ड न हो इसे अक्षय विकास भी कहा जाता है।

यह अवधारणा वर्तमान पीढ़ी के दावों एवं भविष्य पीढ़ी के दावों में सन्तुलन बनाने पर बल देती है। जो आज आर्थिक विकास के परिणामों का उपभोग कर रहे हैं वे पृथ्वी के संसाधनों का अधिक शोषण करके तथा पृथ्वी को प्रदूषित करके भावी पीढ़ी के बारे में अहितकर सोच रख सकते हैं। ऐसा न हो कि एक पीढ़ी प्रकृति की सम्पदा का पूरा उपभोग कर ले और भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरण में असन्तुलन हो जाने के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़े और उन्हें विकास के अवसर ही प्राप्त न हों।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि किस तरह वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करते समय भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाए। इसे वर्तमान पीढ़ी तथा भावी पीढ़ी के दावों के मध्य सामंजस्य बनाना भी कहा जा सकता है। यही कारण था कि पर्यावरण और विकास पर विश्व पर्यावरण आयोग गठित किया गया। विश्व पर्यावरण आयोग के अनुसार “पोषणकारी विकास का अर्थ है, ऐसा विकास जो हमारी आज की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की अनदेखी न करता हो।”

सन् 1987 में आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वर्तमान पीढ़ी को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय यह ध्यान रखना होगा कि इसके कारण कहीं भावी पीढ़ियाँ अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ न हो जाएँ। इससे अभिप्राय यह याँ, झीलें, खाने, गैस तथा पेट्रोलियम पदार्थों आदि का प्रयोग करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति में इन पदार्थों की मात्रा सीमित है और यह केवल हमारे लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हैं।

अन्तःपीढ़ी साम्या की मूल भावना को स्पष्ट करते हुए “भारत में पर्यावरण विधि और नीति” में स्पष्ट किया गया है कि, “अन्तःपीढ़ी साम्या का केन्द्रीय अभिप्राय यह है कि प्रत्येक मानव प्राणियों की पीढ़ी को भूतकालीन पीढ़ी की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत से लाभ प्राप्त हो। साथ ही साथ यह दायित्व हो कि ऐसी विरासत को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखा जाए।”

1992 के रियो घोषणा के सिद्धान्त 3 में स्पष्ट कहा गया है कि विकास के अधिकार की पूर्ति इस प्रकार की जानी चाहिए कि वर्तमान और भावी पीढ़ियों की विकासात्मक और पर्यावरणीय आवश्यकताएँ साम्यिक ढंग (Equitable) से पूरी हो सकें। अवधारणा वर्तमान व भावी पीढ़ी के दावों में सन्तुलन स्थापित करती है। अखण्ड विकास के महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्नलिखित हैं

1. विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करना-विकासशील देशों में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मानव संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया जाता है जिससे पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। यही नहीं विकासशील देशों में वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि पोषणीय विकास हेतु पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले पदार्थों के प्रयोग को कम किया जा सके या वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि विकासशील देशों को विकसित देशों से आर्थिक सहायता दी जाए और सस्ती दर पर प्रौद्योगिकी का अन्तरण किया जाए। रोम की सन्धि (यथा संशोधित 1992) के अनुच्छेद 130 U (1) में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की उपेक्षा करते हुए कहा गया कि सदस्य राज्यों द्वारा विकासशील देशों और विशेषकर अति पिछड़े देशों के आर्थिक और सामाजिक विकास को पोषणीय (सतत्) बनाने के लिए आर्थिक सहयोग देना चाहिए। रियो घोषणा में यह सहमति व्यक्त की गयी कि विकसित देश, विकासशील देशों को सस्ती दर पर प्रौद्योगिकी का अन्तरण करेंगे।

2. गरीबी उन्मूलन-गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक तत्त्व मानी गयी है। स्टाकहोम सम्मेलन के समक्ष भारत के प्रधानमन्त्री ने बड़े प्रभावी शब्दों में कहा था कि जितने प्रदूषक तत्त्व हैं गरीबी उनमें सबसे खराब है। पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग ने भी यह आगाह किया था कि गरीबी के कारण लोगों को पोषणीय तरीके से संसाधनों के प्रयोग की क्षमता कम हो जाती है और पर्यावरण पर दबाव घनीभूत हो जाता है।

यही कारण था कि रोम की सन्धि के अनुच्छेद 130 U (1) में सदस्य राष्ट्रों से अपील की गयी थी कि वे विकासशील देशों में गरीबी के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ें। पर्यावरण और विकास पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी पोषणीय विकास के लिए गरीबी उन्मूलन पर विशेष जोर दिया गया। विकास हेतु निर्धारित कार्यक्रम के अन्तर्गत यह कहा गया कि विकास की संकल्पना के अन्तर्गत गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, मृत्यु-दर को कम करना सम्मिलित है। अतः इन्हें दूर करने के लिए सर्वाधिक प्रभावकारी तरीके अपनाए जाने चाहिएँ।

3. पर्यावरणीय संरक्षण पर्यावरण संरक्षण पोषणीय विकास का एक आवश्यक तत्त्व है। पर्यावरणीय समस्याओं का निराकरण सभी स्तर पर सभी के सहयोग द्वारा आसानी से किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति को लोक प्राधिकारियों के पास उपलब्ध पर्यावरणीय सूचनाओं तथा निर्णयकारी प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार स्वीकार किया गया है जिससे कि पर्यावरणीय विकास के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जा सके।

रियो घोषणा के सिद्धान्त 11 में राज्यों से अपेक्षा की गयी है कि वे पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रभावी विधान का निर्माण करें और सिद्धान्त 12 के अन्तर्गत यह अपेक्षा की गयी है कि राज्यों को इस प्रकार मुक्त अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए सहयोग करना चाहिए जिससे कि सभी राज्यों का आर्थिक और पोषणीय विकास हो, ताकि पर्यावरणीय अवनयन की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ा जा सके।

4. प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग एवं संचय-पोषणीय विकास के लिए यह आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधनों का संयत प्रयोग किया जाए, उनकी वृद्धि और संचय को बढ़ावा दिया जाए। प्राकृतिक साधनों का संचय और विकास बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है। यह सभी का नैतिक दायित्व है कि प्राकृतिक संसाधनों को सामूहिक विरासत मानकर दूसरे लोगों तथा पीढ़ी के लिए संरक्षित करें।

5. आवश्यकताओं में कमी करना लोगों को अपनी आवश्यकताओं में कमी करनी चाहिए। यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं को फैलने न दे, उन्हें अपनी आर्थिक दशा के अनुरूप रखे और कृत्रिम जीवन-स्तर की ओर आकर्षित न हो। पूर्वी विचारधारा के अनुसार ‘सादा जीवन तथा उच्च विचार’ (Simple living and high thinking) का आदर्श अपनाना चाहिए।

व्यक्ति की वास्तविक आवश्यकताएँ कम होती हैं और कृत्रिम आवश्यकताएँ अधिक होती हैं। यदि उत्पादन आवश्यकताओं के अनुसार हो तो पर्यावरण के संरक्षण की समस्या काफी मात्रा में कम हो जाती है। भौतिकवादी दृष्टिकोण की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अपनाने से मन और आत्मा की शुद्धि में व्यक्ति ध्यान देने लगता है और कृत्रिम इच्छाओं तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का त्याग करने लगता है। ऐसे व्यक्तियों के समाज में सभी वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में मिल जाती हैं।

6. जनसंख्या नियन्त्रण-विश्व की जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है और भारत जैसे देश के लिए तो यह एक गम्भीर समस्या का रूप धारण किए हुए है। एशिया तथा अफ्रीका के अधिकतर देशों की यही स्थिति है और इन्हें अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए रोटी, कपड़ा तथा मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को जुटाना कठिन हो रहा है। जनसंख्या पर नियन्त्रण किए बिना पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर काबू पाना बहुत कठिन है।

कैथौलिक (Catholic) तथा इस्लाम धर्म के कुछ अनुयायी, जो परिवार-नियोजन का धर्म के नाम पर विरोध करते हैं, उन्हें समझा-बुझाकर इसके लिए तैयार करना चाहिए। विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ा देना चाहिए और छोटे परिवारों के बच्चों को सरकारी नौकरियों आदि में प्राथमिकता दी जाए। रेडियो, टेलीविज़न तथा प्रचार के अन्य माध्यमों के द्वारा भी नागरिकों में परिवार-नियोजन के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाए।

7. जनता को पर्यावरण-सम्बन्धी शिक्षा देना–पर्यावरण की सुरक्षा के लिए यह भी आवश्यक है कि साधारण व्यक्ति को इस सम्बन्ध में शिक्षित किया जाए। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा को जोड़ा जाए। भारत में प्रतिवर्ष 19 नवम्बर से 18 दिसम्बर तक का मास ‘राष्ट्रीय पर्यावरण मास’ के रूप में मनाया जाता है।

इस मास के दौरान पर्यावरण के प्रति साधारण जनता में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों की सफलता के लिए इसमें छात्रों, अध्यापकों, महिलाओं तथा उद्योगपतियों की अधिक-से-अधिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए। सन् 1982 में भारत में पर्यावरण सूचना प्रणाली कायम की गई जो सांसदों तथा अन्य पर्यावरण प्रेमियों को पर्यावरण के विषय में महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्रदान कर रही है।

8. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग-पर्यावरण प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या है और इसका समाधान भी अन्तर्राष्ट्रीय संसाधनों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसकी एजेन्सियाँ इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। भारत ने विभिन्न राष्ट्रों अमेरिका, इंग्लैण्ड, नार्वे तथा स्वीडन इत्यादि के साथ कुछ समझौते किए हुए हैं, जिसका प्रमुख लक्ष्य यह हैं कि वन्य प्राणियों और वनस्पति के अवैध व्यापार को रोका जाए और विभिन्न राष्ट्रों से खतरनाक पदार्थों के आवागमन पर रोक लगाए।

सन् 1992 में रियो-द-जनेरियो (ब्राज़ील) में एक विश्व-सम्मेलन हुआ था जिसमें पर्यावरण और विकास से सम्बन्धित उपयुक्त जानकारी का आदान-प्रदान किया गया था। इससे पर्यावरण के संरक्षण में समस्त विश्व की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ। दिए गए पक्षों तथा तर्कों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण की सुरक्षा के बाद ही अखण्ड विकास सम्भव है और इनके द्वारा ही वर्तमान पीढ़ी व भावी पीढ़ी के मध्य साम्य (Balance) स्थापित किया जा सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास की अवधारणा है
(A) आर्थिक विकास
(B) सामाजिक विकास
(C) आध्यात्मिक विकास
(D) राजनीतिक विकास
उत्तर:
(C) आध्यात्मिक विकास

2. विकास का सम्बन्ध निम्नलिखित से है
(A) आर्थिक विकास से
(B) परिवर्तन से
(C) आधुनिकीकरण से
(D) उपर्युक्त सभी से
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी से

3. कैनेथ आर्गेन्सकी के अनुसार विकास की एक अवस्था सही नहीं है
(A) राजनीतिक एकीकरण
(B) औद्योगीकरण
(C) राष्ट्रीय लोक-कल्याण
(D) जनसंख्या में वृद्धि
उत्तर:
(D) जनसंख्या में वृद्धि

4. विकास का उद्देश्य निम्नलिखित है
(A) जीवन के स्तर का उत्थान
(B) प्रकृति का दोहन
(C) दरिद्र की सहायता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

5. विकास के विभिन्न पक्षों में निम्नलिखित में से कौन-सा है?
(A) सामाजिक पक्ष
(B) आर्थिक पक्ष
(C) राजनीतिक पक्ष
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. विकास की बाजार की अर्थव्यवस्था के बारे में निम्नलिखित लक्षण सही है
(A) विदेशी तकनीक का स्वागत
(B) आधुनिकीकरण
(C) मुक्त उद्यम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

7. निम्नलिखित कल्याणकारी राज्य का कार्य है
(A) अन्तर्राष्ट्रीयवाद का विरोध
(B) निरंकुशता की स्थापना
(C) जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा

8. कल्याणकारी सिद्धान्त के अनुसार राज्य की स्थिति निम्नलिखित है
(A) एक साध्य
(B) एक साधन
(C) शोषण का साधन
(D) एक बुराई के रूप में
उत्तर:
(B) एक साधन

9. आर्थिक विकास से सम्बन्धित निम्नलिखित में से कौन-सा पक्ष सही नहीं है?
(A) प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होना
(B) राष्ट्रीय आय में वृद्धि होना
(C) आर्थिक विषमताओं में वृद्धि होना
(D) प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन करना
उत्तर:
(C) आर्थिक विषमताओं में वृद्धि होना

10. किसी देश में आर्थिक विकास का प्रभाव निम्नलिखित में से होगा
(A) राष्ट्र का विकास की ओर अग्रसर होगा
(B) समाज में व्यक्तियों के शोषण का अन्त होगा
(C) समाज में सभी वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध होंगी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

11. बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल निम्नलिखित में से आर्थिक क्षेत्र में किसका समर्थन करता है?
(A) आर्थिक उदारवाद की नीति का
(B) प्रतियोगिता की नीति का
(C) राज्य के आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

12. विकास का बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में राष्ट्रीय सीमाओं को समाप्त करने के पक्ष में है?
(A) व्यापार
(B) पूँजी
(C) उद्यमशीलता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

13. बाजार अर्थव्यवस्था पर आधारित मॉडल के लिए आधुनिकीकरण की स्थिति हेतु निम्नलिखित में से कौन-सा पहलू आवश्यक है?
(A) शहरीकरण
(B) साक्षरता का विस्तार
(C) औद्योगीकरण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

14. बाजार अर्थव्यवस्था का अवगुण निम्नलिखित में से है
(A) स्वदेशी उद्योगों का हास
(B) संस्कृति का पतन
(C) आय एवं धन की असमानता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

15. गाँधी मॉडल में विकास के आर्थिक पक्ष से सम्बन्धित विचार निम्नलिखित में से सही है
(A) कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग-धंधों पर बल
(B) न्यासी सिद्धान्त पर बल
(C) औद्योगीकरण का विरोध
(D) उपर्युक्त सभी सही हैं
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी सही हैं

16. गाँधीयन मॉडल में विकास के सामाजिक पक्ष से सम्बन्धित निम्नलिखित में कौन-सा विचार सही नहीं है?
(A) अस्पृश्यता का अन्त
(B) वर्ण व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण
(C) साम्प्रदायिक एकता पर बल
(D) स्त्री-सुधार पर बल
उत्तर:
(B) वर्ण व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. “विकास समाज में उच्चस्तरीय अनुकूलन के प्रति अनुकूल की क्षमता है।” ये शब्द किस विद्वान के हैं?
उत्तर:
मैकेन्जी के।

2. समाजवाद का सबसे प्रभावशाली समर्थक किसे माना जाता है?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स को।

3. बाजार मॉडल की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर:
बिक्री के लिए उत्पादन।

रिक्त स्थान भरें

1. “राज्य का उद्देश्य बाधाओं को बाधित करना है।” यह ……….. के विचार हैं।
उत्तर:
टी०एच० ग्रीन

2. जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा ……………… राज्य का कार्य है।
उत्तर:
कल्याणकारी

3. “राज्य भौतिक सुख के लिए अस्तित्व में आया तथा उसका अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए बना रहेगा।” यह कथन ……….. का है।
उत्तर:
अरस्तू

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 शांति Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शान्ति को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
साधारण अर्थ में शान्ति का अर्थ ‘युद्ध रहित’ अवस्था से लिया जाता है। इस तरह युद्ध या किसी अप्रिय स्थिति की आशंका को शान्ति नहीं कहा जा सकता। अतः शान्ति को हम युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार सहित सभी प्रकार की हिंसक स्थिति या संघर्षों के अभाव के रूप में, परिभाषित कर सकते हैं।

प्रश्न 2.
शान्ति स्थापना हेतु राष्ट्रों के बीच अपनाई जाने वाली किन्हीं दो नीतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • एक-दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना,
  • राष्ट्रों के बीच शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति को अपनाना।

प्रश्न 3.
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
राष्ट्रों के मध्य ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को व्यक्त करता है, जिसमें युद्ध का कोई स्थान नहीं है।

प्रश्न 4.
ऐसी किन्हीं दो स्थितियों का उल्लेख कीजिए जिनमें युद्ध की आवश्यकता होती है।
उत्तर:

  • राज्य की सुरक्षा के लिए,
  • राज्यों के मध्य शान्तिपूर्ण वार्ता विफल होने पर।

प्रश्न 5.
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना के लिए अपनाए जाने वाले किन्हीं दो साधनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था,
  • अन्तर्राष्ट्रीय कानून।

प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के किन्हीं दो उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • राष्ट्रों के बीच परस्पर बातचीत द्वारा,
  • संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् द्वारा।

प्रश्न 7.
भारत विश्व-शान्ति को क्यों आवश्यक मानता है? कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:

  • भारत का मानना है कि विश्व-शान्ति कायम रहने पर ही तीव्र आर्थिक विकास सम्भव हो सकता है,
  • भारत गाँधी दर्शन के प्रभाव के कारण भी विश्व-शान्ति को आवश्यक मानता है।

प्रश्न 8.
विश्व में शान्ति स्थापित करने के लिए हिंसा की आवश्यकता नहीं है? कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  • राष्ट्रों के बीच शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा से विश्व में भय एवं हिंसा का वातावरण उत्पन्न होगा जिससे विश्व-शान्ति को गहरा झटका लगेगा,
  • संयुक्त राष्ट्र संघ भी राष्ट्रों के बीच विवाद को हिंसा पूर्ण तरीकों से नहीं, बल्कि शान्तिपूर्ण तरीकों; जैसे वार्ता, मध्यस्थता, न्यायिक निपटारे आदि को अपनाने पर ही बल देता है।

प्रश्न 9.
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के परिपेक्ष्य में ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त का क्या अर्थ या सार है?
उत्तर:
जब विश्व के समस्त राष्ट्र पारस्परिक सहयोग के आधार पर एक-दूसरे की सत्ता एवं स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए विश्व के लोगों के बीच समानता एवं न्यायपूर्ण स्थिति की स्थापना करते हैं तो राष्ट्रों के बीच स्वतः ही शान्ति का अस्तित्व हो जाएगा। इसी सिद्धान्त को ही ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त के नाम से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में जाना जाता

प्रश्न 10.
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को खतरा या चुनौती उत्पन्न करने वाले किन्हीं दो प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • आतंकवाद की निरन्तर बढ़ती गतिविधियाँ,
  • विध्वंस जैविक, रासायनिक हथियारों का बढ़ता विकास एवं प्रयोग की आशैंका।

प्रश्न 11.
मार्गेन्थो के द्वारा शान्ति को सुरक्षित रखने की समस्या के सन्दर्भ में कौन-से तीन सुझाव दिए हैं?
उत्तर:

  • प्रतिबन्धों से शान्ति सुरक्षा,
  • बदलाव से शान्ति सुरक्षा,
  • कूटनीति द्वारा शान्ति सुरक्षा।

प्रश्न 12.
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान हेतु कोई चार शान्तिपूर्ण उपाय लिखिए।
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान हेतु चार शान्तिपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं-

  • वार्ता,
  • मध्यस्थता,
  • पंच-निर्णय,
  • जाँच आयोग।

प्रश्न 13.
‘सत्सेवा’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
जब दो राज्यों के बीच कोई महत्त्वपूर्ण समस्या विद्यमान हो, परन्तु अपने कटुतापूर्ण सम्बन्धों के कारण दोनों आपस में बातचीत न कर रहे हों, ऐसे में यदि कोई तीसरा राज्य अपनी सेवाएँ अर्पित करे और उन राज्यों के बीच बातचीत कराए, तो उसे सत्सेवा कहते हैं। सत्सेवा करने वाला राज्य स्वयं बातचीत करने में सम्मिलित नहीं होता। वह केवल दोनों पक्षों को वार्ता मेज पर ले आता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

प्रश्न 14.
‘मध्यस्थता’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
जब दो राज्यों के बीच समस्याओं के समाधान के लिए तीसरा राज्य अपनी सेवाएँ अर्पित करता है, दोनों की बातचीत कराता है, स्वयं भी सम्मिलित होता है और समस्या समाधान हेतु सुझाव देता है, तो इसे मध्यस्थता कहते हैं।

प्रश्न 15.
विश्व में शान्ति की स्थापना के लिए हिंसा या युद्ध का सिद्धान्त आवश्यक या सहायक है। कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  • विश्व में राष्ट्रों के मध्य उत्पन्न अशांति को हिंसा या युद्ध द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है,
  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की सामूहिक सुरक्षा परिषद की अवधारणा में भी सैन्य कार्रवाई या हिंसा को स्वीकृति प्रदान की गई है।

प्रश्न 16.
क्या शस्त्रीकरण की प्रवृत्ति विश्व को अशांति की ओर ले जाती है। इसके पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  • शस्त्रीकरण की प्रवृत्ति राष्ट्रों में शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ उन्हें युद्ध की ओर अग्रसर करेगी। फलतः अशांति को जन्म मिलेगा,
  • शस्त्रीकरण की अवधारणा से राष्ट्रों में राजनीतिक रूप से सैन्यवाद की प्रवृत्ति भी जन्म लेती है। फलतः शस्त्रीकरण की प्रवृत्ति सैन्यवाद राष्ट्रों के बीच शत्रुता एवं ईर्ष्या को जन्म देगी जो युद्ध में परिवर्तित होकर अशांति को जन

प्रश्न 17.
निःशस्त्रीकरण विश्व शान्ति में कैसे सहायक है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
निःशस्त्रीकरण वास्तव में समूची अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में हिंसा के स्थान पर समस्याओं को शान्तिपूर्ण ढंग से आपसी सद्भाव और सहानुभूति से सुलझाने का एक तरीका है जो राष्ट्रों के बीच सुरक्षा, समृद्धि एवं आत्म-सुरक्षा की स्थिति को उत्पन्न कर सकता है।

प्रश्न 18.
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में युद्ध को नियन्त्रित करने एवं शान्ति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कौन-कौन-से उपकरण या साधनों का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:

  • शक्ति-सन्तुलन,
  • सामूहिक सुरक्षा,
  • अन्तर्राष्ट्रीय कानून,
  • निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियन्त्रण,
  • अन्तर्राष्ट्रीय संगठन,
  • अन्तर्राष्ट्रीय कानून

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शान्ति की अवधारणा का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
अथवा
शान्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
अथवा
जिओ और जीने दो’ का दूसरा नाम ही शान्ति है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
साधारण शब्दों में शान्ति का तात्पर्य ‘युद्ध रहित अवस्था’ से लिया जाता है। इस तरह युद्ध या किसी अप्रिय स्थिति की आशैंका को शान्ति नहीं कहा जा सकता। अतः शान्ति को हम युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार सहित सभी प्रकार की हिंसक स्थिति या संघर्षों के अभाव के रूप में, परिभाषित कर सकते हैं। अतः शान्ति एक ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें सभी लोग पारस्परिक सहयोग के साथ-साथ समानता एवं न्यायपूर्ण ढंग से रहते हों और सभी लोगों को विकास के उचित अवसर प्राप्त हों।

यही स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति स्थापना हेतु राष्ट्रों पर लागू होती है। दूसरे शब्दों में, जब विश्व के समस्त राष्ट्र पारस्परिक सहयोग के आधार पर एक-दूसरे की सत्ता एवं स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए विश्व के लोगों के बीच समानता एवं न्यायपूर्ण स्थिति की स्थापना करते हैं तो राष्ट्रों के बीच स्वतः ही शान्ति का अस्तित्व हो जाएगा। इसी सिद्धान्त को दूसरे शब्दों में ‘जिओ और जीने दो’ के नाम से जाना जाता है। वास्तव में जिओ और जीने दो का वाक्य शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व है जिसमें युद्ध का कोई स्थान नहीं होता है।

प्रश्न 2.
विश्व शान्ति की स्थापना के लिए राष्ट्रों को क्या-क्या नीतियाँ अपनानी चाहिएँ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
विश्व शान्ति की स्थापना के लिए राष्ट्रों द्वारा निम्नलिखित नीतियाँ या सिद्धान्तों को अपनाया जा सकता है

  • एक-दूसरे राष्ट्र की भू-क्षेत्रीय अखण्डता तथा प्रभुसत्ता के लिए परस्पर सम्मान करना,
  • एक-दूसरे राष्ट्र के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना,
  • एक-दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण न करना,
  • एक-दूसरे राष्ट्रों द्वारा परस्पर लाभ पहुँचाना,
  • राष्ट्रों के बीच शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति को अपनाना,
  • राष्ट्रों के बीच झगड़ों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान करने की प्रवृत्ति,
  • देश हित के लिए गुप्त समझौतों में सम्मिलित न होना,
  • मानवता हेतु न्याय के लिए सम्मान की भावना को विकसित करना।

प्रश्न 3.
भारत ने किन कारणों से विश्व शान्ति को आवश्यक माना? अथवा भारत किन कारणों से विश्व शान्ति का समर्थक बना?
उत्तर:
भारत की यह मान्यता है कि यदि तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो इसका अर्थ होगा सम्पूर्ण मानव सभ्यता की समाप्ति। इसलिए भारत सदैव यह चाहता रहा है कि विश्व-शान्ति बनी रहे। युद्ध से किसी भी देश का हित नहीं होता। अपार धन-जन की शांति हानि होती है। विभिन्न देश बर्बाद हो जाते हैं। विजयी देश आर्थिक रूप से टूट जाते हैं।

भारत के नेता यह जानते रहे हैं कि भारत एक विकासशील देश है। उसके आर्थिक व राष्ट्रीय विकास के लिए यह आवश्यक है कि वह युद्ध में न उलझे। इसलिए भारत विश्व-शान्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। भारत जिन कारणों से विश्व-शान्ति को आवश्यक मानता है, वे निम्नलिखित हैं

  • स्वतन्त्रता के साथ ही देश का विभाजन हुआ तथा लाखों शरणार्थियों को बसाने की जिम्मेदारी पूरी करने और देश का विकास करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की आवश्यकता थी,
  • विश्व-शान्ति कायम रहने पर ही तीव्र आर्थिक विकास सम्भव था,
  • दो विश्वयुद्धों के प्रभाव का भुक्तभोगी होने के कारण भारत विश्व-शान्ति को आवश्यक मानता है,
  • गाँधी दर्शन के प्रभाव के कारण भी विश्व-शान्ति के दर्शन का भारत ने समर्थन किया।

प्रश्न 4.
भारत द्वारा विश्व शान्ति को कायम रखने हेतु कौन-कौन से प्रयास किए गए?
अथवा
विश्व शान्ति की स्थापना में भारत के योगदान का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत ने न केवल विश्व-शान्ति का सैद्धान्तिक समर्थन किया, अपितु उसके लिए सक्रिय भूमिका भी अदा की। भारत द्वारा इस हेतु किए गए प्रमुख प्रयास निम्नलिखित हैं-

  • प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय संकटों को सुलझाने हेतु भारत ने प्रयास किए, यथा 1967 का अरब-इजराइल युद्ध, इंग्लैंड और अर्जेंटाइना के मध्य फाकलैंड विवाद, ईरान-इराक युद्ध,
  • भारत द्वारा शीत युद्ध से अलग रहने की नीति अपनाई गई,
  • भारत द्वारा परस्पर विरोधी शक्तियों के मध्य सेतुबंध कार्य किया गया। कोरिया युद्ध विराम हेतु भारत के प्रयास, हिन्द-चीन युद्ध में शान्ति प्रयास आदि इसके उदाहरण हैं,
  • भारत ने नाटो, सीटो, सेंटो तथा वारसा पेक्ट जैसे सैन्य संगठनों का विरोध किया।

भारत का यह प्रयत्न रहा है कि विश्व में जहाँ कहीं भी युद्ध की आशैंका हो उस स्थिति तथा उसके कारण को समाप्त किया जाए। जहाँ कहीं शान्ति को खतरा उत्पन्न होता है, भारत उस खतरे को मिटाने में सक्रिय भूमिका निभाता रहा है। भारत ने शान्ति के लिए सदैव प्रयास किया है, परन्तु उसे स्वयं युद्ध लड़ने पड़े।

चीन ने उस पर आक्रमण किया, उसे पाकिस्तान से तीन बार युद्ध लड़ने पड़े, परन्तु युद्ध के दौरान भी वह शान्ति का प्रयास करता रहा। इस प्रकार स्पष्ट है कि शान्ति के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण मानव जाति की उन्नति एवं विकास में सकारात्मक भूमिका वाला रहा है।

प्रश्न 5.
विश्व शान्ति की स्थापना हेतु हिंसा की आवश्यकता के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
विश्व शान्ति की स्थापना हेतु हिंसा सहायक एवं आवश्यक है। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

1. राष्ट्रों के मध्य उत्पन्न अशांति को हिंसा या युद्ध द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इस युग में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को बनाए रखने की आवश्यकता, जिसमें भविष्य में होने वाला युद्ध पूर्ण विध्वंसक युद्ध होने वाला है, मानव के लिए यह आवश्यक कर देता है कि वह विश्व में राज्यों के व्यवहार को नियमित करने तथा सम्भावित शान्ति भंग को रोकने के लिए युद्ध या हिंसा के साधन की अपरिहार्यता को स्वीकार करे। ऐसी स्थिति में सम्भावित अराजकता एवं अशांति हेतु युद्ध एवं हिंसा को एक सशक्त साधन कहा जाएगा।

2. संयुक्त राष्ट्र संघ की सामूहिक सुरक्षा परिषद की अवधारणा में भी सैन्य कार्रवाई या हिंसा की स्वीकृति-संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुच्छेद प्रथम में संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख है कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा संयुक्त राष्ट्र की मुख्य प्राथमिकता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, “

अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा कायम रखना तथा इसके लिए प्रभावपूर्ण सामूहिक प्रयत्नों द्वारा शान्ति के संकटों को रोकना और समाप्त करना तथा आक्रमण को एवं शान्ति भंग की अन्य चेष्टाओं को दबाना है।” यह एक अन्तर्राष्ट्रीय उद्देश्य है। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 42 में यह भी उल्लेख किया गया है कि “यदि सुरक्षा परिषद् यह समझे कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बनाए रखने के लिए अथवा पुनः स्थापित करने के लिए सुरक्षा परिषद् वायु, समुद्र तथा स्थल सेनाओं की सहायता से आवश्यक कार्रवाई कर सकती है।

अतः स्पष्ट है कि सुरक्षा परिषद् की ऐसी सामूहिक कार्रवाई में सैन्य कार्रवाई की भी स्वीकृति है।” ऐसी स्वीकृति राष्ट्रों की राजनीतिक स्वाधीनता एवं विश्व शान्ति के संकटों के प्रतिकार के रूप में एक तरह से हिंसा की अवधारणा को स्वीकार करने की ही नीति कही जा सकती है।

अतः यह कहा जा सकता है कि शान्ति की स्थापना के लिए युद्ध, सैन्य कार्रवाई एवं हिंसा सिद्धान्त को स्वीकारना एक सार्वभौमिक मान्यता का रूप ले चुका है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के विरुद्ध आत्मरक्षा हेतु अधिक-से-अधिक सैन्य कार्रवाई एवं हिंसा के लिए सदैव तैयार रहना होगा, तभी विश्व शान्ति संभव होगी।

प्रश्न 6.
विश्व शान्ति की स्थापना हेतु हिंसा की आवश्यकता नहीं है। संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
जैसा कि शान्ति की स्थापना हेतु हिंसा को आवश्यक मानने का तर्क दिया गया है, ठीक इसके विपरीत यह भी तर्क दिया जाता है कि शान्ति की स्थापना का मार्ग हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा हो सकता है। महात्मा गाँधी जैसे विचारकों ने अहिंसा को ही शान्ति का सशक्त आधार माना है और व्यवहार में अहिंसा रूपी शस्त्र का प्रयोग भी अपने व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति करने में किया है।

गाँधी जी के अनुसार सत्य के मार्ग पर चलते हुए विरोधी को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाए बिना अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना अहिंसा का मार्ग है। गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में इसी अहिंसा रूपी शस्त्र का प्रयोग करते हुए अपने विभिन्न आंदोलनों को सफल अन्जाम दिया था। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि गाँधी जी ने अहिंसा के विचार को सकारात्मक अर्थ प्रदान किया है।

नके लिए अहिंसा का अर्थ कल्याण और अच्छाई का सकारात्मक और सक्रिय क्रियाकलाप है। इसलिए जो लोग अहिंसा का प्रयोग करते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि अत्यन्त गम्भीर उकसावे की स्थिति में भी शारीरिक, मानसिक संयम रखने का प्रयास करें। वास्तव में अहिंसा अतिशय सक्रिय शक्ति है, जिसमें कायरता और कमजोरी का कोई स्थान नहीं है।

कहने का अभिप्राय यह है कि यदि अहिंसा के द्वारा शान्तिपूर्ण तरीके से उद्देश्य की प्राप्ति करने में हम असफल रहते हैं, तो व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु वहाँ हम हिंसा का सहारा भी ले सकते हैं। लेकिन शान्तिपूर्ण प्रक्रिया के मार्ग में हमें अहिंसा को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। गाँधी जी के उपरोक्त विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि, शान्ति के लिए हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा एक सशक्त आधार हो सकता है।

प्रश्न 7.
किस परिस्थिति में युद्ध को न्यायोचित माना जाता है? स्पष्ट कीजिए। अथवा युद्ध के न्यायसंगत होने के पक्ष में कौन-कौन से तर्क दिए जा सकते हैं?
उत्तर:
यद्यपि युद्ध एक बुराई है, परन्तु जैसा कि मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि यह भी सत्य है कि मानव-स्वभाव में युद्ध की प्रवृत्ति है। जैसे भय तथा असुरक्षा मानवीय स्वभाव के भाग हैं, उसी प्रकार आक्रमणशीलता भी उसकी प्रकृति का एक भाग है। सिग्मंड फ्रायड (Sigmund Freud) नामक एक मनोवैज्ञानिक का यह विश्वास है कि मानव स्वभाव से ही बुराई, आक्रमणशीलता, विध्वंसकता तथा दृष्ठता की प्रतिमूर्ति है।

उसके अनुसार, “मानव केवल मधुर तथा मैत्रीपूर्ण स्वभाव वाले प्राणी नहीं, जो मात्र प्यार की इच्छा रखते हैं तथा जो आक्रमण की स्थिति में सिर्फ अपनी सुरक्षा ही करते हैं, बल्कि आक्रमण की इच्छा प्रबल मात्रा में उनके अन्दर होती है, जो उसकी सहज प्राकृतिक देन के भाग के रूप में मानी जानी चाहिए।”

स्पष्ट है कि मानव-स्वभाव के अनुरूप व्यक्तियों के बीच विवादों एवं युद्धों का अस्तित्व तो रहेगा, परन्तु यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि राज्य द्वारा अपनाए या प्रयोग किए जाने वाले मुद्दों को किन परिस्थितियों में न्यायसंगत कहा जा सकता है। युद्ध के न्यायसंगत होने के पक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं

(1) राज्यों को अपनी सम्प्रभुता एवं लोगों के जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए बल प्रयोग या युद्ध करने की गतिविधियों को न्यायसंगत माना जाता है,

(2) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को कायम रखने के लिए सामूहिक सुरक्षा के अन्तर्गत आक्रामक राष्ट्र के विरुद्ध शेष सदस्य देशों के द्वारा संयुक्त रूप से सैन्य बल या युद्ध का सहारा लेना भी न्यायसंगत ही माना जाएगा,

(3) असहनीय एवं अमानवीय अत्याचारों से बचने के लिए भी बल प्रयोग या युद्ध को न्यायसंगत माना जाता है। जैसे कि फ्रांसीसी क्राँति ने भ्रष्टाचारी तथा तानाशाही राजतंत्र को उलटकर रख दिया था।

अतः उपर्युक्त वर्णन से यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि चाहे युद्ध एक बुराई है, परन्तु कई बार उपर्युक्त वर्णित परिस्थितियों में युद्ध एक उपयोगी उपकरण के रूप में भी प्रयोग करना उपयुक्त होता है। इस सम्बन्ध में प्रो० इगल्टन के अनुसार, “सदियों से युद्ध का अनुचित परिस्थितियों को सुधारने जैसे झगड़ों का निपटारा करने के लिए तथा अधिकारों को लागू करने के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है।”

परन्तु यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अब युद्ध पूर्णतः विध्वंसक बन गया है, तो हमें युद्ध से कोई सकारात्मक परिणामों की आशा नहीं रखनी चाहिए। भविष्य में होने वाला युद्ध निश्चय ही मानव जाति के लिए विध्वंसकारी सिद्ध हो सकता है। अतः उचित यही होगा कि हम युद्ध की प्रवृत्ति से हर संभव बचने का प्रयत्न करें।

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प्रश्न 8.
शस्त्रीकरण की अवधारणा से कैसे शांति भंग होगी? किन्हीं तीन तर्कों के द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर:
शस्त्रीकरण की अवधारणा से कैसे अशांति उत्पन्न होगी, हम निम्नलिखित तर्कों के माध्यम से स्पष्ट करेंगे

1. शस्त्रीकरण युद्ध की ओर ले जाता है-शस्त्रीकरण की अवधारणा राष्ट्रों को शस्त्रों की होड़ की ओर ले जाती है तथा शस्त्रों की होड़ उन्हें युद्ध की ओर अग्रसर करती है। अतः स्पष्ट है कि शस्त्र, युद्ध का कारण बनते हैं। फलतः अशांति उत्पन्न होती है।

2. शस्त्रीकरण सैन्यवाद को प्रोत्साहित करता है-शस्त्रीकरण की अवधारणा से राष्ट्रों में राजनीतिक रूप से सैन्यवाद की प्रवृत्ति भी जन्म लेती है। इस सैन्यवाद की प्रवृत्ति में राष्ट्र जहाँ सुरक्षा की भावना पैदा करने का प्रयास करते हैं, वहाँ वे अपने अन्तिम रूप में हमेशा असुरक्षा की भावना को ही बढ़ावा देते हैं। परिणामस्वरूप राष्ट्रों के बीच परस्पर शत्रुता तथा ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है और जिसकी परिणति सशस्त्र मुठभेड़ एवं युद्ध के रूप में होती है। ऐसी स्थिति ही अशांति का कारण बनती है।

3. शस्त्रीकरण से शस्त्रों के प्रयोग की इच्छा-शक्ति जागृत होती है-यह भी एक मान्य सच्चाई है कि राष्ट्रों के द्वारा शस्त्रों के विकास एवं विस्तार पर किए जाने वाले भारी खर्च के औचित्य को सिद्ध करने के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व उनका प्रयोग करने के लिए भी सदैव तत्पर रहता है। इस प्रकार राष्ट्रों द्वारा शस्त्रों के प्रयोग की प्रवृत्ति ही संघर्ष, युद्ध एवं अशांति को जन्म देती है।

प्रश्न 9.
शस्त्रीकरण नहीं बल्कि शस्त्र नियन्त्रण एवं निःशस्त्रीकरण ही वैश्विक शान्ति के प्रभावी साधन सिद्ध हो सकते हैं? अपने तर्क के माध्यम से समझाइए।
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध में विजय घोष के रूप में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी नगरों के ऊपर किए गए परमाणु शस्त्रों के प्रयोग के पश्चात् जिस तरह से शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच शस्त्रों की होड़ के परिणामस्वरूप शस्त्रीकरण की अवधारणा को जो बल मिला, उसके पश्चात् यह एक विचारणीय एवं चिन्तनीय विषय उभरकर सामने आया कि क्या हम शस्त्रीकरण के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को कायम या बनाए रख सकते हैं? यद्यपि इस प्रश्न के उत्तर में दार्शनिकों में मतभेद पाए जाते हैं।

एक ओर के पक्षधरों का मानना है कि शस्त्रीकरण के द्वारा शान्ति को बनाए रखा जा सकता है, क्योंकि इसके स्वयं आक्रमणकारी राष्ट्र भी अन्य राष्ट्र की शक्ति से भयभीत एवं आतंकित हो सकता है और युद्ध करने का दुष्साहस त्याग सकता है, परन्तु दूसरी तरफ के विरोधी विचार रखने वालों का कहना है कि शस्त्रीकरण के माध्यम से अर्जित शक्ति का प्रयोग करने की लालसा ऐसे शक्ति-सम्पन्न राष्ट्रों को युद्ध की ओर ले जाने को प्रेरित कर सकती है जो राष्ट्रों को अशांतिपूर्ण जीवन जीने को बाध्य कर सकती है। इसलिए अशांति की समस्या का समाधान हमारी सभ्यता की सम्भावनाओं को कम करना या समाप्त करना राष्ट्रों के बीच एक मुख्य उद्देश्य बन गया।

इस उद्देश्य के लिए शस्त्रीकरण पर अंकुश लगाने के लिए निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियन्त्रण आदर्श साधन समझे गए। निःशस्त्रीकरण की धारणा में विद्यमान शस्त्र-भंडार को समाप्त करने का निर्णय शामिल है तथा शस्त्र नियंत्रण की अवधारणा में, शस्त्रों के विस्तार तथा उनके अनुचित प्रयोग के लिए भविष्य में शस्त्रों के विस्तार तथा उनके अनुचित प्रयोग के लिए भविष्य में शस्त्रों के उत्पादन को नियन्त्रित किए जाने का विचार शामिल है। अतः निःशस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण दोनों ही युद्ध को रोकने के लिए तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, व्यवस्था तथा सुरक्षा के विकास के लिए संभव तथा प्रभावशाली साधन माने गए।

इसके अतिरिक्त आधुनिक आणविक युग में परमाणु शस्त्रों की विध्वंसता पैदा करने की क्षमता भी शस्त्रीकरण की अपेक्षा निःशस्त्रीकरण के महत्त्व को और भी अधिक बढ़ा देती है। अन्त में, यह कहा जा सकता कि शस्त्र-युद्ध मानवीय साधनों की व्यर्थ बर्बादी करते हैं तथा मानवता को अनैतिक कार्यों की ओर ले जाते हैं, इसलिए निःशस्त्रीकरण ही एक ऐसा साधन है जो शान्ति, सुरक्षा, समृद्धि तथा आत्म-सुरक्षा की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शान्ति की अवधारणा का अर्थ स्पष्ट करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शान्ति स्थापित करने के विभिन्न साधनों या उपकरणों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में शान्ति कायम रखने के विभिन्न साधनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शान्ति का अर्थ (Meaning of Peace)-साधारण शब्दों में शान्ति का तात्पर्य ‘युद्ध रहित अवस्था’ से लिया जाता है। इस तरह युद्ध या किसी अप्रिय स्थिति की आशैंका को शान्ति नहीं कहा जा सकता। अतः शान्ति को हम युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार सहित सभी प्रकार की हिंसक स्थिति या संघर्षों के अभाव के रूप में, परिभाषित कर सकते हैं।

अतः शान्ति एक ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें सभी लोग पारस्परिक सहयोग के साथ-साथ समानता एवं न्यायपूर्ण ढंग से रहते हों और सभी लोगों को विकास के उचित अवसर प्राप्त हों। यही स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति स्थापना हेतु राष्ट्रों पर लागू होती है। दूसरे शब्दों में, जब विश्व के समस्त राष्ट्र पारस्परिक सहयोग के आधार पर एक-दूसरे की सत्ता एवं स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए विश्व

के लोगों के बीच समानता एवं न्यायपूर्ण स्थिति की स्थापना करते हैं तो राष्ट्रों के बीच स्वतः ही शान्ति का अस्तित्व हो जाएगा। इसी सिद्धान्त को दूसरे शब्दों में ‘जिओ और जीने दो’ के नाम से जाना जाता है। वास्तव में जिओ और जीने दो का वाक्य शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व है जिसमें युद्ध का कोई स्थान नहीं होता है।

शान्ति के साधन:
शान्ति युद्ध की अनुपस्थिति के अतिरिक्त एक ऐसी परिस्थिति होती है, जिसमें विश्व के समस्त लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं साँस्कृतिक विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सहयोग, मेल-मिलाप तथा व्यवस्थापूर्ण एवं न्यायपूर्ण वातावरण को कायम रखे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शान्ति की सुरक्षा हेतु पहली आवश्यकता युद्ध को दूर रखना है, परन्तु यह भी स्पष्ट है कि युद्ध को हम पूर्णतया समाप्त नहीं कर सकते हैं

क्योंकि युद्ध की प्रवृत्ति राष्ट्रों के बीच अवश्यम्भावी है। इसलिए युद्ध होने पर हमारी प्राथमिकता इसे सीमित रखने और समाप्त करने की होनी चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रसिद्ध विद्वान् मार्गेथो (Morgenthou) ने अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों के मध्य राजनीति’ में शान्ति को सुरक्षित रखने की समस्या पर विश्लेषण करते हुए तीन सुझाव दिए हैं

(1) प्रतिबन्धों से शान्ति इसके अधीन मार्गेथो ने सामूहिक सुरक्षा, निःशस्त्रीकरण, न्यायिक सुझाव, शान्तिपूर्ण परिवर्तनों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (यू.एन.ओ.) की धारणाओं का वर्णन किया है, (i) बदलाव से शान्ति-इसके अधीन उसने विश्व राज्य, विश्व समुदाय तथा कार्यात्मकता का वर्णन किया है। परस्पर सहमति के द्वारा शान्ति अथवा कूटनीति द्वारा शान्ति की सुरक्षा। इन सभी साधनों में से मार्गेथो कूटनीति द्वारा शान्ति की सुरक्षा को प्राथमिक महत्त्व देता है, लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था या सम्बन्धों में युद्ध एवं हिंसा को नियन्त्रित करने एवं शान्ति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित साधनों या उपकरणों का प्रयोग किया जाता है

1. शक्ति-सन्तुलन-शक्ति-सन्तुलन के सिद्धान्त को कुछ विद्वान् अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का आधार मानते हैं। वान डाइक के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के रूप में इसका उद्देश्य सुरक्षा व शान्ति कायम रखना है। इस दृष्टि से इसका मुख्य उद्देश्य सुरक्षा व शान्ति है, जो राज्यों की स्वतन्त्रता और विश्व-शान्ति में सहयोग देता है।”

इस सिद्धान्त में किसी राष्ट्र को इतना अधिक बढ़ने नहीं दिया जाता है कि वह अपार शक्ति से दूसरे देशों पर अत्याचार व मनमानी करने के लिए स्वतन्त्र हो जाए। इस सिद्धान्त का प्रयोग लगभग 100 वर्षों तक इंग्लैंड, यूरोप के साथ करता रहा। उसने किसी यूरोपीय देश या समूह को इतना शक्तिशाली नहीं बनने दिया, जो वह मनमानी कर सके।

शक्ति-सन्तुलन की व्यवस्था युद्धों को रोकने में सहायक है। इसने कई बार युद्धों को रोका है। युद्ध प्रायः तभी होता है, जबकि एक देश बहुत अधिक शक्ति प्राप्त कर लेता है। प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने के कारण पर टिप्पणी करते हुए क्लिमैंसो ने लिखा था,

“प्रथम विश्वयुद्ध सन्तुलन टूटने का परिणाम था। यदि शक्ति-सन्तुलन की व्यवस्था कायम रहती तो निश्चय ही विश्वयुद्ध न छिड़ता।” इस प्रकार स्पष्ट है कि शक्ति-सन्तुलन जब तक बना रहता है, तब तक युद्ध का खतरा टलता रहता है। यह आक्रमणों को रोककर राज्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है। यह विश्व विजय की योजनाओं को हतोत्साहित कर विश्व साम्राज्य की स्थापना को रोकता है और साथ ही गड़बड़ी की स्थिति को भी रोकता है। यह सिद्धान्त वास्तव में लड़ाई के स्थान पर समझौता कराने का प्रयास करता है।

अतः विश्व-शान्ति की स्थापना के लिए, युद्धों को रोकने, शक्ति के दुरुपयोग को रोकने तथा प्रत्येक देश की सम्प्रभुता व निर्णय लेने की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए शक्ति सन्तुलन के प्रयास करना जरूरी है। यद्यपि वर्तमान समय में विश्व राजनीति में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं, सोवियत संघ के विघटन तथा साम्यवादी राष्ट्रों के निष्फल हो जाने से शक्ति-सन्तुलन की धारणा में अन्तर आया है।

शक्ति-सन्तुलन की अवधारणा की पुनर्व्याख्या आज की आवश्यकता बन गया है, सोवियत रूस के विघटन के पश्चात् एक ध्रुवीयता के इस युग में शक्ति सन्तुलन के लिए नए सिरे से कोशिशें तेज करना जरूरी है। सुपर पावर या महाशक्ति के रूप में अमेरिका का वर्चस्व स्थापित हुआ है।

विश्व नए खतरे की तरफ बढ़ रहा है। सोवियत रूस के विघटन, दुर्भाग्य से गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का नेतृत्व विहीन होना, संयुक्त राष्ट्रसंघ का अमेरिका के समक्ष मूक दर्शक बनना ऐसी घटनाएँ हैं जिन्होंने शक्ति सन्तुलन की अवधारणा को अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य से बाहर-सा कर दिया है। शक्ति-सन्तुलन के लिए राष्ट्रों का सामूहिक प्रतिरोध एकमात्र सहारा है।

शक्ति की रणा के उदय ने शक्ति-सन्तुलन के लिए जैसे दरवाजे बन्द कर दिए हैं। किन्तु महाशक्ति के रूप में अमेरिकी वर्चस्व के विरुद्ध नए शक्ति-सन्तुलन की आज आवश्यकता है। अनेक विश्व प्रसंगों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ का दयनीय रवैया उजागर हो चुका है। ओपनहाइम ने “अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अस्तित्व के लिए शक्ति सन्तुलन को अनिवार्य व्यवस्था माना है।”

2. सामूहिक सुरक्षा विश्व राजनीति में शान्ति स्थापित करने एवं आक्रमण का सामूहिक प्रतिरोध करने की प्रक्रिया का नाम सामूहिक सुरक्षा है। संसार के छोटे और कमजोर राष्ट्र शक्ति और बल में बड़े राज्यों की तुलना नहीं कर सकते। शक्तिशाली राज्य जब चाहें दुर्बल राज्यों को कुचल सकते हैं। संसार का इतिहास कमजोर राज्यों पर ताकतवर राज्यों की विजय का इतिहास है। ऐसी अवस्था में कमजोर राज्यों के पास केवल एक रचनात्मक उपाय है, वे मिलकर अपनी रक्षा का उपाय करें। “सामूहिक सुरक्षा” का सिद्धान्त इसी आवश्यकता का परिणाम है।

सामूहिक सुरक्षा को वास्तविक रूप प्रदान करने तथा इस विचार को विकसित व लोकप्रिय बनाने में प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व से प्रयास किए गए। प्रथम विश्वयुद्ध के उपराँत राष्ट्रसंघ के जन्मदाताओं को राष्ट्रों के मध्य सहयोग व सामूहिक सुरक्षा की भावना के उदय की आशा थी, किन्तु राष्ट्रसंघ अपने इस कार्य में सफल नहीं हो सका।

लोकार्नो समझौता तथा पेरिस समझौता सामूहिक सुरक्षा के अल्प-कालीन प्रयास सिद्ध हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना भी सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त के आधार पर की गई। संयुक्त राष्ट्रसंघ कोरिया, काँगो, साइप्रस के प्रश्न पर शान्ति स्थापना करने में सफल रहा है। किन्तु सोवियत रूस के विघटन के पश्चात पूंजीवादी राष्ट्रों की बढ़ती ताकत के समक्ष विशेषकर इराक के प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र निष्प्रभावी रहा है।

अतः राष्ट्रों को सुरक्षा प्रदान करने वाली इस धारणा की प्रासंगिकता सोवियत संघ के विघटन के पश्चात ज्यादा बढ़ी है। अमेरिका के सुपर पावर या महाशक्ति के रूप में उदय ने सामूहिक सुरक्षा की भावना को पुनर्जन्म दिया है। महाशक्ति के रूप में अमेरिका की भूमिका बदली हुई है। संयुक्त राष्ट्रसंघ अमेरिका के समक्ष बौना सिद्ध हुआ है।

गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का विशाल संगठन नेतृत्व विहीन होने के कारण बिखरा हुआ है। यह संगठन अमेरिका के वर्चस्व का सामूहिक रूप से सामना कर सकता है, यदि इस गट में कोई ऐसा प्रभावशाली नेतत्व उत्पन्न हो। जॉन स्वजन बर्गर ने सामूहिक सुरक्षा को “अन्तर्राष्ट्रीय रोकने अथवा उनके विरुद्ध प्रतिक्रिया करने के लिए किए गए संयुक्त कार्यों का अंग” कहा है।

3. अन्तर्राष्ट्रीय कानून अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय कानून का विशिष्ट महत्त्व है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के सम्मान और पालन के बिना सम्पूर्ण विश्व में अराजकता व्याप्त हो जाएगी। अन्तर्राष्ट्रीय कानून विश्व-शान्ति की पहली शर्त है। सम्पूर्ण विश्व में विवादों के न उठने अथवा उनके समाधान के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि नियमों का कोई समूह हो जिनके अनुसार सभी राज्य परस्पर व्यवहार करें।

जिस प्रकार एक राज्य में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना के लिए कानून आवश्यक है, उसी प्रकार संपूर्ण विश्व में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून बहुत आवश्यक हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के प्रसिद्ध विद्वान फेनविक के शब्दों में “अन्तर्राष्ट्रीय कानून विश्व-शान्ति का आधार है।”

कानून के अभाव में किसी भी समाज में अराजकता का साम्राज्य स्थापित हो जाता है तथा समाज में ‘जंगल के कानून’ की स्थिति आ जाती है। इसी तरह विश्व समाज में भी अराजकता की स्थिति समाप्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय अन्तर्राष्ट्रीय कानून ही है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून की स्थापना से अनिश्चय की स्थिति समाप्त हो जाती है, सुनिश्चित नियमों का सर्वमान्य निर्धारण हो जाता है और अराजकता का अन्त हो जाता है।

अन्तर्राष्ट्रीय कानून की वजह से शान्तिपूर्ण समाधान का मार्ग प्रशस्त होता है। यद्यपि कानून की व्याख्या को लेकर कई विवाद उत्पन्न भी होते हैं, तथापि इन विवादों के समाधान के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की उपस्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि विवादों के समाधान का एकमात्र उपाय शस्त्र उपयोग नहीं है। शक्ति के बिना भी विवादों का समाधान हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान के लिए निम्नलिखित आठ प्रकार के शान्तिपूर्ण उपाय अपनाए जाते हैं।

(1) वार्ता अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान का सर्वश्रेष्ठ उपाय परस्पर बातचीत अथवा वार्ता है। प्रायः राज्यों के बीच सीमाओं के सम्बन्ध में, लेन-देन के सम्बन्ध में कई तरह के विवाद रहते हैं। इन विवादों को लेकर आपस में लड़ने की बजाय, बातचीत द्वारा उन्हें सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। मूरे (Moore) के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अर्थ में वार्ता एक कानूनी, व्यवस्थित एवं प्रशासनात्मक प्रक्रिया है। इसकी सहायता से राज्य सरकारें अपनी असंदिग्ध शक्तियों का प्रयोग करके एक-दूसरे के साथ अपने सम्बन्धों का संचालन करती हैं।”

वार्ता द्वारा समस्याओं के समाधान के कई उदाहरण हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच गंगा के पानी को लेकर विवाद रहा है। इस विवाद का समाधान दोनों देशों के बीच वार्ता द्वारा ही होता आया है। भारत और पाकिस्तान के बीच पाक युद्ध बंदियों की समस्या को लेकर और भारत द्वारा युद्ध में जीती हुई भूमि को लेकर भी 1972 में शिमला में ‘वार्ता’ हुई और ‘शिमला समझौता’ हुआ।

कालान्तर में 1999 तक वार्ताएँ होती रहीं, किन्तु इनसे निर्णय की स्थिति कभी नहीं बनी। वार्ता होते रहनी चाहिए। यह कोई आवश्यक नहीं है कि वार्ताओं के परिणाम सदा फलदायी हों। परन्तु वार्ता से वातावरण स्वस्थ बनता है और समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है। समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान की पहली सीढ़ी वार्ता है। वार्ता के द्वारा ही अन्य उपायों के द्वार खुलते हैं।

(2) सत्सेवा जब दो राज्यों के बीच कोई महत्त्वपूर्ण समस्या हो, परन्तु अपने कटुतापूर्ण सम्बन्धों के कारण दोनों आपस में बातचीत न कर रहे हों, ऐसे में यदि कोई तीसरा राज्य अपनी सेवाएँ अर्पित करे और उन राज्यों के बीच बातचीत कराए, तो इसे सत्सेवा कहते हैं। सत्सेवा करने वाला राज्य स्वयं बातचीत करने में सम्मिलित नहीं होता। वह केवल दोनों पक्षों की वार्ता मेज पर ले आता है।

सत्सेवा करने वाले राज्य के सम्बन्ध दोनों पक्षों के साथ अच्छे होते हैं। इसी आधार पर वह दोनों के बीच बातचीत कराता है। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत कराने के लिए तत्कालीन सोवियत संघ ने अपनी सत्सेवाएँ अर्पित की। ताशकंद में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत कराई। इसी बातचीत के परिणामस्वरूप 10 जनवरी, 1966 को दोनों देशों के बीच ताशकंद समझौता हुआ और शान्ति की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।

यद्यपि सत्सेवा का अन्त समस्या के समाधान से हो, यह आवश्यक नहीं, परन्तु फिर भी सत्सेवा अनेक बार समस्याओं के समाधान में सहायता देती है। भारत ने भी ईरान और इराक के बीच युद्ध को समाप्त करने के लिए सत्सेवाएँ अर्पित की। अन्त में यह तो कहा ही जा सकता है कि सत्सेवा हमें शान्ति के मार्ग की ओर अग्रसर करने का एक माध्यम है।

(3) मध्यस्थता-जब दो राज्यों के बीच समस्याओं के समाधान के लिए तीसरा राज्य अपनी सेवाएँ अर्पित करता है, दोनों की बातचीत कराता है, स्वयं भी सम्मिलित होता है और अपने सुझाव देता है, तो इसे मध्यस्थता कहते हैं। विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के सम्बन्ध में हुए हेग सम्मेलन में कहा गया था, “तीसरे राज्य द्वारा विवाद करने वाले राज्यों में उत्पन्न नाराजगी के भावों को दूर करना तथा

परस्पर विरोधी भाव को दूर करना तथा परस्पर विरोधी दावों का समन्वय करना मध्यस्थता है।” मध्यस्थता द्वारा विवादों के समाधान के कई उदाहरण हैं। हैनरी किसिंजर की मध्यस्थता से मिस्र और इजराइल के बीच युद्ध विराम हुआ। अमेरिका की मध्यस्थता से मिस्र और इजराइल के बीच ‘कैम्प डेविड’ समझौता हुआ।

(4) संराधन-संराधन के सम्बन्ध में ओपनहाइम ने कहा है-“यह विवाद के समाधान की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें कार्य कुछ को सौंप दिया जाता है। यह आयोग दोनों पक्षों का विवरण सुनता है तथा विवाद को तय करने की दृष्टि से तथ्यों के आधार पर अपना प्रतिवेदन देता है इसमें विवाद के समाधान के लिए कुछ प्रस्ताव होते हैं। यह प्रस्ताव किसी अदालत की तरह अनिवार्य रूप से मान्य नहीं होते।”

संराधन में और पंच निर्णय में अन्तर होता है। पंच निर्णय का फैसला दोनों पक्षों को मानना होता है। परन्तु, संराधन की सिफारिशें मानना या न मानना आवश्यक नहीं है। दोनों पक्ष इस बात पर तो सहमत हो जाते हैं कि कोई आयोग या कोई मध्यस्थ या कोई पंथ दोनों पक्षों के तर्क सुने और तथ्यों का अवलोकन करे। परन्तु, उस पंच के निर्णय मानने अथवा न मानने के लिए दोनों पक्ष स्वतन्त्र होते हैं।

(5) जाँच आयोग-सन् 1899 के हेग सम्मेलन में विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए जाँच आयोग की बात सुझाई गई और यह कहा गया कि जाँच आयोग की स्थापना और जाँच की कार्रवाई से भी विवादों के समाधान में सहायता मिल सकती है।

कई बार विभिन्न राज्यों में तथ्यों को लेकर बहुत विवाद होता है। सीमा के सम्बन्ध में, सन्धि के उपबन्धों के सम्बन्ध में, ओं के सम्बन्ध में कई प्रकार के विवाद होते हैं। ऐसे विवादों के समाधान का श्रेष्ठ उपाय यही है कि जाँच कर ली जाए और तथ्यों का पता लगा लिया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, सन् 1983 में उत्तरी कोरिया के एक यात्री विमान को सोवियत रूस ने मार गिराया।

रूस का कहना था कि यह विमान जासूसी करने के लिए उसकी भूमि के ऊपर से उड़ा था। उत्तरी कोरिया ने हर्जाना माँगा, जो सोवियत रूस ने नहीं दिया। इस विवाद के समाधान का श्रेष्ठ उपाय यही हो सकता था कि जाँच आयोग द्वारा यह निर्णय किया जाए कि वास्तविकता क्या है? विभिन्न जाँच आयोगों का कार्य तथ्यों का पता लगाना है, वास्तविकता की तह तक पहुँचना है। इससे समस्याओं के समाधान में मदद मिलती है।

(6) पंच निर्णय-विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान का एक अन्य उपाय है, पंच निर्णय। इसमें विवादग्रस्त राज्य इस बात पर सहमत हो जाते हैं कि अपने विवाद को किसी पंच को सौंप दें। साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि पंच जो भी निर्णय करेंगे वह निर्णय दोनों पक्षों को स्वीकार होगा। ओपनहाइम के अनुसार, “पंच निर्णय का अर्थ है कि राज्यों के मतभेद का समाधान कानूनी निर्णय द्वारा किया जाए। निर्णय दोनों पक्षों द्वारा निर्वाचित अनेक पंचों के एक न्यायाधिकरण द्वारा होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से भिन्न होता है।”

विवादों के समाधान के लिए पंच मुख्य रूप से विवादों के कानूनी पक्ष का अध्ययन करते हैं और कानूनों के अनुसार ही अपना निर्णय देते हैं। ब्रियर्ली के शब्दों में, “पंच और जज दोनों के लिए यह अनिवार्य है कि वे कानून के नियमों के अनुसार अपना निर्णय दें, किसी को यह अधिकार नहीं है कि कानून का निरादर करते हुए अपने विवेक का प्रयोग करें अथवा जिसे उचित और न्यायपूर्ण समझता है, उसके अनुसार अपना निर्णय करें।” भारत और पाक के बीच कच्छ समस्या का समाधान भी पंच निर्णय के द्वारा ही हुआ था। इस प्रकार स्पष्ट है पंच निर्णय भी संघर्ष से टकराव को दूर कर शान्ति की प्रक्रिया की ओर अग्रसर करने में सहायक हैं।

(7) अधिनिर्णय राज्यों के बीच अधिकाँश विवाद कानूनी विवाद होते हैं। अतः इन विवादों का समाधान अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक संस्थान द्वारा ही होना चाहिए। यह कार्य करने के लिए ही हेग में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय गठित किया गया है। यह न्यायालय, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ही अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का निर्णय करता है। सन् 1945 से 1984 अभी तक पचास से अधिक महत्त्वपूर्ण विवादों का निर्णय अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय कर चुका है। यह न्यायालय जिन विवादों का निर्णय कर चुका है, उनमें मुख्य हैं-को’ चैनल विवाद, एंग्लो ईरानियन आइल कंपनी विवाद, भारत और पुर्तगाल के बीच दादर-नगर हवेली विवाद आदि।

(8) संयुक्त राष्ट्र संघ-विश्व के राजनीतिक विवादों को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी ले जाया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में विवादों पर केवल वाद-विवाद होता है। इससे विश्व जनमत जानने में सहायता मिलती है। विवादों के समाधान का मुख्य कार्य सुरक्षा परिषद् का है। परन्तु सुरक्षा परिषद् में शीत युद्ध के कारण तथा वीटो के कारण अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता है। विवादों के समाधान में सुरक्षा परिषद् को केवल आँशिक सफलता ही मिली है। है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानुन अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के अनेक उपाय करता है। आवश्यकता केवल उन उपायों को अपनाने की है।

4. निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियंत्रण:
प्रसिद्ध इतिहासकार आर्नोल्ड टायनबी के अनुसार, “आज के युग में यदि हमने युद्ध को समाप्त नहीं किया तो युद्ध हमें समाप्त कर देगा।” यही सबसे बड़ा सत्य है। आज संसार में इतने अधिक विनाशक शस्त्र बन चुके हैं कि उनका प्रयोग किया जाए, तो सारी मानव जाति का विनाश हो सकता है। इसलिए आज संसार की सबसे बड़ी समस्या निःशस्त्रीकरण ही है। निःशस्त्रीकरण’ का शाब्दिक अर्थ है, “शारीरिक हिंसा के प्रयोग के संपूर्ण भौतिक तथा मानवीय साधनों का उन्मूलन” तथा हथियारों के अस्तित्व एवं उनके खतरों को कम करना है। विश्व के विनाशकारी युद्धों के पीछे शक्ति की होड़ का योगदान ही मुख्य है।

मार्गेयो के अनुसार, “निःशस्त्रीकरण कुछ या सब शस्त्रों में कटौती या उनको समाप्त करना है, ताकि शस्त्रीकरण की दौड़ का अन्त हो।” अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय निःशस्त्रीकरण की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व के विभाजन ने हालाँकि निःशस्त्रीकरण के स्थान पर शस्त्रीकरण को जन्म दिया है,

किन्तु सामूहिक विनाश के विचार ने दोनों गुटों को मानवीय अस्तित्व के लिए चिन्तित किया है। मार्गेथो के इस कथन “निःशस्त्रीकरण के प्रयासों का इतिहास अधिक असफलताओं और कम सफलताओं का इतिहास है” के द्वारा भी यह ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है कि विश्व समुदाय निःशस्त्रीकरण की दिशा में भले ही सफल नहीं हो पाया है, किन्तु उसके प्रयास निरन्तर जारी हैं।

निःशस्त्रीकरण एकमात्र सार्थक साधन है विश्व-शान्ति और कराहती पीड़ित मानवता को बचाने का। इस हेतु संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में अनेक प्रयास हुए या निःशस्त्रीकरण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रतिमान बदलने लगे हैं। विश्व राजनीति की स्थिति विस्फोटक होने लगी है। मानवीय मूल्यों के सम्मुख साम्राज्यवादी, परमाणु-सम्पन्न राष्ट्रों के हित प्रमुख हैं। परमाणु-सम्पन्न राष्ट्रों ने इतने आणविक हथियार बना रखे हैं, जिससे वर्तमान विश्व को अनेक बार नष्ट किया जा सकता है। परमाणु हथियारों ने विश्व व्यवस्था को आतंक के युग में रहने एवं जीने को बाध्य किया है।

मानव सभ्यता व विश्व-शान्ति के लिए किए गए प्रयासों में एक प्रयास सी.टी.बी.टी. अर्थात कंप्रीहेंसिव न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी समग्र परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध संधि प्रमुख हैं। परमाणुशास्त्र सम्पन्न राष्ट्रों के समक्ष प्रारम्भ से यह माँग थी कि वे परमाणु निःशस्त्रीकरण की दिशा में एक समग्र नीति अपनाएँ। समग्र परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध संधि (C.T.B.T.) 1996 निःशस्त्रीकरण की दिशा में नवीनतम कदम है।

5. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन:
विश्व में शान्ति व्यवस्था कायम करने में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विशेषकर लीग ऑफ नेशॆज एवं संयुक्त राष्ट्र संघ का बहुत अधिक योगदान रहा है। यद्यपि प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात जिस आशय के साथ लीग ऑफ नेशॆज की स्थापना की गई थी वह द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने के पश्चात पूर्णतः धूमिल हो गई, लेकिन भविष्य में युद्ध की पुनरावृत्ति की संभावना और उसके घातक परिणामों को ध्यान में रखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के दृढ़ संकल्प ने नए रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का आधार तैयार किया। विश्व में आज इसकी उपयोगिता का अनुमान वर्तमान में इसके 193 सदस्यीय संगठन से ही लगाया जा सकता है।

यद्यपि यह ठीक है कि यह संगठन भी पूर्णतः सफल नहीं रहा, लेकिन चाहे इसकी आँशिक सफलता ही रही हो, इसकी महत्ता और भूमिका को आज हम निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं। इसी संगठन के माध्यम से हम न केवल विश्व-शान्ति को कायम रखने में सफल रहे हैं, बल्कि तृतीय विश्वयुद्ध की संभावना को भी नियन्त्रित करने में सफल रहे हैं। इसके अतिरिक्त विश्व व्यवस्था में उभरे अन्य अनेक क्षेत्रीय संगठनों; जैसे नाटो (NATO), सीटो (SEATO), सार्क (SAARC), आसियान (ASEAN), अरब लीग (ARAB LEAGUE) आदि ने भी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता की है।

6. कूटनीति:
वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का सर्वाधिक महत्त्व है। विदेश नीति के लक्ष्य को प्राप्त करने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन कुटनीति ही है। यदि किसी राष्ट्र के पास अपनी कूटनीति को कार्यान्वित करने की क्षमता नहीं है तो उसके पास युद्ध के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता है और यदि युद्ध को संचालित करने का सामर्थ्य उसमें नहीं है तो उसे अपने राष्ट्रीय हितों का परित्याग करना होगा।

आधुनिक शस्त्रों ने युद्ध की उपादेयता को संदिग्ध बना दिया है और इस बात की कोई गारंटी नहीं कि द्विपक्षीय युद्ध आणविक युद्ध में परिवर्तित न हो जाए अतः राज्यों के सामने कूटनीति के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।

वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का उद्देश्य परमाणु युद्ध का निवारण करना है। परमाणु युद्ध की समस्या एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है जिसका सामना कूटनीति को करना है। वर्तमान में कूटनीति का कार्य अन्तर्राष्ट्रीय संकटों और का हल खोजना है। इसके साथ ही परमाणु अस्त्रों के फैलाव को रोकना तथा तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना को रोकना है। केवल कूटनीति के माध्यम से ही युद्ध से बचा जा सकता है।

मार्गेथो (Morgenthou) के शब्दों में, “कूटनीति शान्ति सर्वेक्षण का सफल उत्तम साधन है। कुटनीति आज की अपेक्षा शान्ति को अधिक सुरक्षित बना सकती है और यदि राष्ट्र कूटनीति के नियमों का पालन करें तो उस परिस्थिति की अपेक्षा विश्व राज्य शान्ति को अधिक सुरक्षित बना सकता है तथापि जिस प्रकार एक विश्व राज्य के बिना स्थायी शान्ति सम्भव नहीं है, उसी प्रकार कूटनीति की शान्ति सर्वेक्षण तथा लोक समाज निर्माण सम्बन्धी प्रक्रियाओं के बिना संभव नहीं है।”

अतः दिए गए वर्णन से स्पष्ट है कि राष्ट्रों के मध्य युद्ध की संभावना को विराम देने एवं शान्ति की व्यवस्था को कायम रखने के लिए दिए गए साधनों ने विश्व व्यवस्था में कारगर भूमिका का निर्वाह किया है और भविष्य में भी समय की आवश्यकता के अनुरूप भूमिका निभाकर मानव जाति की सुरक्षा एवं विकास में अपना बराबर योगदान देंगे।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

प्रश्न 2.
क्या राष्ट्रों के मध्य शान्ति की स्थापना सदैव अहिंसा द्वारा सम्भव है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
क्या राष्ट्रों के मध्य शान्ति की स्थापना का माध्यम हिंसा या अहिंसा हो सकता है? यह राजनीतिक दार्शनिकों के बीच एक विवाद का विषय है। इसलिए यहाँ हम स्पष्टता हेतु शान्ति स्थापना के लिए हिंसा आवश्यक है एवं हिंसा आवश्यक नहीं है दोनों तर्कों पर विचार स्पष्ट करेंगे एवं तत्पश्चात ही इस सम्बन्ध में किसी उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुँचेगे। शान्ति की स्थापना के लिए हिंसा की आवश्यकता है शांति की स्थापना के लिए हिंसा की निम्नलिखित कारणों से आवश्यकता होती है

1. राष्टों के मध्य उत्पन्न अशांति को हिंसा या यद्ध द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इस युग में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को बनाए रखने की आवश्यकता, जिसमें भविष्य में होने वाला युद्ध पूर्ण विध्वंसक युद्ध होने वाला है, मानव के लिए यह आवश्यक कर देता है कि वह विश्व में राज्यों के व्यवहार को नियमित करने तथा संभावित शान्ति भंग को रोकने के लिए युद्ध या हिंसा के साधन की अपरिहार्यता को स्वीकार करे। ऐसी स्थिति में सम्भावित अराजकता एवं अशांति हेतु युद्ध एवं हिंसा को एक सशक्त साधन कहा जाएगा।

2. संयुक्त राष्ट्र संघ की सामूहिक सुरक्षा परिषद की अवधारणा में भी सैन्य कार्रवाई या हिंसा की स्वीकृति संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुच्छेद प्रथम में संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख है कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा संयुक्त राष्ट्र की मुख्य प्राथमिकता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा कायम रखना तथा इसके लिए प्रभावपूर्ण सामूहिक प्रयत्नों द्वारा शान्ति के संकटों को रोकना और समाप्त करना तथा आक्रमण को एवं शान्ति भंग की अन्य चेष्टाओं को दबाना है।” यह एक अन्तर्राष्ट्रीय उद्देश्य है।

इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 42 में यह भी उल्लेख किया गया है कि “यदि सुरक्षा परिषद यह समझे कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बनाए रखने के लिए अथवा पुनः स्थापित करने के लिए सुरक्षा परिषद वायु, समुद्र तथ स्थल सेनाओं की सहायता से आवश्यक कार्रवाई कर सकती है। अतः स्पष्ट है कि सुरक्षा परिषद की ऐसी सामूहिक कार्रवाई में सैन्य कार्रवाई की भी स्वीकृति है।” ऐसी स्वीकृति राष्ट्रों की राजनीतिक स्वाधीनता एवं विश्व शान्ति के संकटों के प्रतिकार के रूप में एक तरह से हिंसा की अवधारणा को स्वीकार करने की ही नीति कही जा सकती है।

अतः यह कहा जा सकता है कि शान्ति की स्थापना के लिए युद्ध, सैन्य कार्रवाई एवं हिंसा सिद्धान्त को स्वीकारना एक सार्वभौमिक मान्यता का रूप ले चुका है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के विरुद्ध आत्मरक्षा हेतु अधिक-से-अधिक सैन्य कार्रवाई एवं हिंसा के लिए सदैव तैयार रहना होगा, तभी विश्व शान्ति सम्भव होगी। शान्ति की स्थापना के लिए हिंसा की आवश्यकता नहीं है शान्ति की स्थापना के लिए हिंसा की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से नहीं होती

उपर्युक्त मत में जैसा कि शान्ति की स्थापना हेतु हिंसा को आवश्यक मानने का तर्क दिया गया है, ठीक इसके विपरीत यह भी तर्क दिया जाता है कि शान्तिं की स्थापना का मार्ग हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा हो सकता है। महात्मा गाँधी जैसे विचारकों ने अहिंसा को ही शान्ति का सशक्त आधार माना है और व्यवहार में अहिंसा रूपी शस्त्र का प्रयोग भी अपने व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति करने में किया है।

गाँधी जी के अनुसार सत्य के मार्ग पर चलते हुए विरोधी को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाए बिना अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना अहिंसा का मार्ग है। गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इसी अहिंसा रूपी शस्त्र का प्रयोग करते हुए अपने विभिन्न आन्दोलनों को सफल अन्जाम दिया था। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि गाँधी जी ने अहिंसा के विचार को सकारात्मक अर्थ प्रदान किया है।

उनके लिए अहिंसा का अर्थ कल्याण और अच्छाई का सकारात्मक और सक्रिय क्रियाकलाप है। इसलिए जो लोग अहिंसा का प्रयोग करते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि अत्यन्त गम्भीर उकसावे की स्थिति में भी शारीरिक, मानसिक संयम रखने का प्रयास करें। वास्तव में अहिंसा अतिशय सक्रिय शक्ति है, जिसमें कायरता और कमजोरी का कोई स्थान नहीं है।

कहने का अभिप्राय है यह है कि यदि अहिंसा के द्वारा शान्तिपूर्ण तरीके से उद्देश्य की प्राप्ति करने में हम असफल रहते हैं, तो व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु वहाँ हम हिंसा का सहारा भी ले सकते हैं। लेकिन शान्तिपूर्ण प्रक्रिया के मार्ग में हमें अहिंसा को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। गाँधी जी के इन विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि, शान्ति के लिए हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा एक सशक्त आधार हो सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. शांति का अर्थ है
(A) युद्ध रहित अवस्था
(B) हिंसक स्थिति का अभाव
(C) दंगा या नरसंहार की स्थिति का अभाव
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. निम्नलिखित में से कौन-सा शांति का तत्त्व नहीं है?
(A) हिंसा
(B) अहिंसा
(C) राष्ट्रों के बीच विश्वास
(D) राष्ट्रों के बीच पारस्परिक भाईचारा एवं मानवता की भावना
उत्तर:
(A) हिंसा

3. विश्व शांति की सुरक्षा हेतु मार्गेन्यो ने निम्नलिखित में से कौन-सा सुझाव दिया है?
(A) प्रतिबन्धों द्वारा शांति का
(B) बदलाव द्वारा शांति का
(C) कूटनीति द्वारा शांति का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

4. प्रतिबन्धों द्वारा शांति स्थापित करने के निम्नलिखित में से कौन-से साधन हैं?
(A) सामूहिक सुरक्षा
(B) निःशस्त्रीकरण
(C) संयुक्त राष्ट्र संघ
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. शक्ति संतुलन का प्रभाव निम्नलिखित में से होता है
(A) इससे युद्ध का खतरा टलता है
(B) यह आक्रमणों को रोककर राज्यों की स्वतंत्रता की रक्षा करता है
(C) यह साम्राज्यवाद को रोकता है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में शांति स्थापना का साधन निम्नलिखित में से कौन-सा है?
(A) शक्ति संतुलन
(B) सामूहिक सुरक्षा
(C) अन्तर्राष्ट्रीय कानून
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

7. निम्नलिखित में से किस परिस्थिति में युद्ध न्यायोचित होता है?
(A) राज्य की सम्प्रभुत्ता की रक्षा करने के लिए
(B) असहनीय एवं अमानवीय अत्याचारों से बचने के लिए
(C) अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को कायम रखने के लिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. संयुक्त राष्ट्र संघ का विश्व शांति कायम करने में निम्नलिखित में से किस क्षेत्रीय संगठन ने सहयोग किया है?
(A) सार्क
(B) नाटो
(C) सीटो
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

9. विश्व-शांति हेतु भारत ने निम्नलिखित में से किस विवाद या संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाई?
(A) ईरान-इराक युद्ध
(B) फाकलैण्ड विवाद
(C) अरब-इजराइल संघर्ष
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. विश्व-शांति हेतु निःशस्त्रीकरण आवश्यक है
(A) अनियन्त्रित शस्त्र संचय पर अंकुश हेतु
(B) परमाणु युद्ध के भय से मुक्ति हेतु
(C) शस्त्रीकरण ही युद्धों को जन्म देते
(D) उपर्युक्त सभी हैं, के भय के कारण
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान हेतु कोई एक उपाय बताएँ।
उत्तर:
वार्ता।

2. किस विद्वान् ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून को विश्व शांति का आधार माना है?
उत्तर:
फेनविक ने।

3. “आज के युग में यदि हमने युद्ध को समाप्त नहीं किया तो युद्ध हमें समाप्त कर देगा।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
आर्नोल्ड टायनबी का।

4. 15 जून, 2007 को किसके द्वारा विश्व शांति हेतु अहिंसा के सिद्धान्त को प्रतिवर्ष 2 अक्तूबर को अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया गया?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा।

5. विश्व-शांति के लिए कोई एक खतरनाक कारक (खतरा उत्पन्न करने वाला कारक) लिखिए।
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद।

6. वर्तमान में विश्व-शान्ति को बढ़ावा देने में कौन-सा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ।।

7. वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में सुपर पावर या महाशक्ति का दर्जा किस राष्ट्र को प्राप्त है?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका को।

रिक्त स्थान भरें

1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में शांति स्थापना का साधन …………….. नहीं है।
उत्तर:
युद्ध

2. ‘राष्ट्रों के मध्य राजनीति’ नामक पुस्तक के लेखक ……………… हैं।
उत्तर:
हंस जे मार्गेन्थो

3. “शांति एक प्रक्रिया का नाम है जिसके माध्यम से व्यक्ति बिना शस्त्र उठाए, दूसरे व्यक्ति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर सकता है।” यह कथन …………….. का है।
उत्तर:
ब्रटेण्ड रसल

4. ………………. विश्व-शांति की स्थापना का एक साधन है।
उत्तर:
सामूहिक सुरक्षा

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मनिरपेक्षता का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
धर्म-निरपेक्ष शब्द अंग्रेज़ी भाषा के सेक्युलर (Secular) शब्द का हिन्दी पर्याय है। सेक्युलर शब्द लेटिन भाषा के सरकुलम (Surculum) शब्द से बना है। लेटिन भाषा से उदित इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘साँसारिक’ अर्थात् राजनीतिक गतिविधियों को केवल लौकिक क्षेत्र तक सीमित रखना है।

प्रश्न 2.
धर्मनिरपेक्ष राज्य की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
श्री वैंकटरमन के अनुसार, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक, न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी होता है। वह धार्मिक कार्यों तथा सिद्धान्तों से पूर्णतः अलग है और इस प्रकार धार्मिक विषयों में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रहता है।”

प्रश्न 3.
धर्मनिरपेक्षता के नकारात्मक रूप से क्या तात्पर्य है? ।
उत्तर:
नकारात्मक धर्मनिरपेक्षता के अन्तर्गत राज्य धार्मिक विषयों में पूर्ण तटस्थता की नीति पर चलता है। वह किसी विशेष धर्म को नहीं अपनाता और न ही धर्म-प्रचार के कार्यों तथा धार्मिक संस्थाओं के विकास सम्बन्धी विषयों में भाग लेता। राज्य की नीतियों का निर्माण या कार्यान्वयन भी धार्मिक आधार पर नहीं किया जाता और न ही सार्वजनिक पदों का आधार धर्म होता है।

प्रश्न 4.
धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक रूप से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता के अन्तर्गत राज्य समस्त नागरिकों को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्थाएँ स्थापित करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। सभी धर्मावलम्बियों को सार्वजनिक पदों की प्राप्ति हेतु समान अवसर प्रदान करता है।

प्रश्न 5.
धर्मनिरपेक्ष राज्य की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता।
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, राज्य के सभी धर्मों का बराबर सम्मान करता है।

प्रश्न 6.
धर्मनिरपेक्ष राज्य सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु किस प्रकार माना जाता है?
उत्तर:
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य जहाँ प्रत्येक धर्म के अनुयायी को स्वतन्त्रता प्रदान करता है, वहाँ यह भी स्पष्ट करता है कि प्रत्येक धर्म के अनुयायी द्वारा यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि एकमात्र हमारा धर्म ही सत्य का प्रतिपादन करता है, क्योंकि सभी धर्म आधारभूत रूप में एक ही हैं। इसलिए हमें सभी धर्मों का बराबर सम्मान करना चाहिए।

प्रश्न 7.
आधुनिक समय में हमारे लिए पथ-निरपेक्ष राज्य कैसे सहायक है? कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:

  • प्रत्येक देश में पाए जाने वाले अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा प्रदान करने में धर्म-निरपेक्ष राज्य सहायक सिद्ध होता है।
  • एक धर्म-निरपेक्ष राज्य में साम्प्रदायिकता की समस्या को नियन्त्रित करना भी आसान हो जाता है, क्योंकि धर्म-निरपेक्ष राज्य सभी धर्मों के लोगों में एकरसता एवं सद्भाव की भावना को जागृत करता है।

प्रश्न 8.
धर्मनिरपेक्षता की अमेरिकी संकल्पना में राज्यसत्ता एवं धर्म की स्थिति क्या है?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की अमेरिकी संकल्पना में राज्यसत्ता एवं धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग हैं, जिसके अनुसार, राज्यसत्ता धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्यसत्ता के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस प्रकार अमेरिकी या यूरोपीय मॉडल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानता है और इसे राज्यसत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं मानता।

प्रश्न 9.
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय संकल्पना में राज्यसत्ता एवं धर्म की स्थिति क्या है?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय संकल्पना ने धार्मिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है, जिसके अनुसार वह अमेरिकन या यूरोपीय मॉडल में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वास्तव में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का ऐसा चरित्र समाज में शान्ति, स्वतन्त्रता एवं समानता के मूल्यों को बढ़ावा देन की ही एक रणनीति का एक भाग है।

प्रश्न 10.
भारत में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • भारत में किसी धर्म को राज-धर्म की संज्ञा नहीं दी गई है।
  • धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का मूल सिद्धान्त बन गई है।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द कब जोड़ा गया?
उत्तर:
संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा 1976 ई० में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़कर यह पूर्णतः स्पष्ट किया गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।

प्रश्न 12.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष उत्पन्न किन्हीं दो चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • भारतीय समाज में उत्पन्न साम्प्रदायिकता ने भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की है।
  • संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों से युक्त राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने भी लोगों में धार्मिक कट्टरता पैदा करके भारत के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के समक्ष चुनौती उत्पन्न की है।

प्रश्न 13.
धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने और कब किया था?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉर्ज जैकब होलियॉक ने सन् 1846 में किया था।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान सभा में धर्मनिरपेक्षता पर अपने विचार प्रकट करने वाले किन्हीं दो प्रमुख व्यक्तियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा में प्रो० के०टी० शाह एवं श्री एल०एन० मिश्र ने धर्मनिरपेक्षता पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति बड़े प्रभावी रूप से की थी।

प्रश्न 15.
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के विपक्ष या आलोचना में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का आधार भौतिकवादी होने के कारण उसका नैतिक एवं अध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में मत-पंथ या धर्म की पूरी तरह उपेक्षा किए जाने से धार्मिक एकता का अभाव हो जाता है जिससे राष्ट्र की एकता’ पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 16.
आधुनिक समय में धर्मनिरपेक्ष राज्य की आवश्यकता के पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
(1) एक धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म को राजनीतिक जीवन से पृथक् करके उसे व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित रखता है जिसके फलस्वरूप राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में अनेक कुरीतियों पर स्वतः ही अंकुश लग जाता है।

(2) एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी मत-पंथो के श्रेष्ठ नैतिक आदर्शों को पूर्णतः सम्मान मिलता है जिसके फलस्वरूप नागरिकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास विशेष सामाजिक वातावरण का निर्माण होता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का स्वरूप या व्यवहार विभिन्न धर्मों या धार्मिक समुदायों के सन्दर्भ में कैसा होना चाहिए? संक्षेप में लिखिए।
अथवा
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में राजसत्ता एवं धर्म के मध्य सम्बन्धों के स्वरूप का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वास्तव में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए राज्यसत्ता को न केवल धर्मतान्त्रिक होने से इन्कार करना होगा, बल्कि उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से भी परहेज करना होगा। धर्म और राज्यसत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता के लिए जरूरी है, मगर केवल यही पर्याप्त नहीं है।

धर्मनिरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो अंशतः ही सही और गैर-धार्मिक स्रोतों से निकलते हों। ऐसे लक्ष्यों में शान्ति, धार्मिक स्वतन्त्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी और साथ ही अन्तर-धार्मिक व अन्तः धार्मिक समानता शामिल रहनी चाहिए। अतः इन लक्ष्यों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य को संगठित धर्म और इसकी संस्थाओं से कुछ मूल्यों के लिए अवश्य ही पृथक् रहना चाहिए।

प्रश्न 2.
धर्मनिरपेक्ष राज्य की पश्चिमी या यूरोपीय संकल्पना को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। अथवा धर्म एवं राज्यसत्ता के सम्बन्ध में यूरोपीय मॉडल की अवधारणा को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी संकल्पना (अमेरिकी मॉडल) राज्यसत्ता और धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग मानती है और इस तरह दोनों के सम्बन्ध विच्छेद को पास्परिक निषेध के रूप में समझा जाता है। राज्यसत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और इसी प्रकार धर्म राज्यसत्ता के मामलों से हस्तक्षेप नहीं करेगा। राज्यसत्ता की कोई नीति पूर्णतः धार्मिक तर्क के आधार पर नहीं बन सकती और कोई धार्मिक वर्गीकरण किसी सार्वजनिक नीति की बुनियाद नहीं बन सकता। अगर ऐसा हुआ तो वह राज्यसत्ता के मामले में धर्म की अवैध घुसपैठ मानी जाएगी।

इस प्रकार यूरोपीय मॉडल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानता है और इसे राज्यसत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं मानता। इस पश्चिमी संकल्पना में राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की सहायता करेगा और न ही किसी धार्मिक संस्था द्वारा संचालित शिक्षण संस्था की वित्तीय सहायता करेगा। जब तक धार्मिक समुदायों की गतिविधियाँ देश के कानून द्वारा निर्मित व्यापक सीमा के अन्दर होती हैं, वह इन गतिविधियों में व्यवधान नहीं पैदा कर सकता। जैसे कोई विशेष धर्म अपने मुख्य सदस्यों को मन्दिर के गर्भगृह में जाने से रोकता है, तो राज्य के पास मामले को बने रहने देने के लिए अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

प्रश्न 3.
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी भारतीय अवधारणा को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। अथवा भारतीय धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी दृष्टिकोण पश्चिमी दृष्टिकोण से कैसे भिन्न है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर ही बल नहीं देती है, बल्कि अन्तर-धार्मिक समानता भारतीय संकल्पना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त अन्तःधार्मिक वर्चस्व पर भी अपना बराबर ध्यान केन्द्रित किया है।

इसने हिन्दुओं के अन्दर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किए जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया है। इसके अतिरिक्त भारतीय धर्मनिरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक स्वतन्त्रता से ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतन्त्रता से भी है।

इसके अन्तर्गत हर आदमी को अपनी पसन्द का धर्म मानने का अधिकार तो है ही, इसके साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्पित धर्म-सुधार की गुंजाइश भी है। जैसे भारतीय संविधान ने जहाँ छुआछूत पर प्रतिबन्ध लगाया है, वहाँ बाल-विवाह उन्मूलन एवं अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को समाप्त करने हेतु कई कानून बनाए गए हैं।

इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने धार्मिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है जिनके अनुरूप वह अमेरिकन या यूरोपीय मॉडल में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वास्तव में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का ऐसा चरित्र समाज में शान्ति, स्वतन्त्रता एवं समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने की ही रणनीति का एक भाग है।

प्रश्न 4.
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नकारात्मक एवं स्वीकारात्मक दृष्टिकोण से आप क्या समझते हैं? अथवा धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नकारात्मक एवं स्वीकारात्मक दृष्टिकोण में क्या अन्तर है?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नकारात्मक रूप से राज्य धार्मिक मामलों में पूर्ण तटस्थता की नीति पर चलता है। वह किसी धर्म-विशेष को नहीं अपनाता और किसी धर्म-विशेष के उत्थान या उसे निरुत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाता। वह धर्म-प्रचार के कार्यों या धार्मिक संस्थाओं के विकास सम्बन्धी मामलों में भाग नहीं लेता। राज्य की नीतियों का निर्माण या कार्यान्वयन धार्मिक आधार पर नहीं किया जाता। राज्य किसी धर्म के विकास हेतु कोई कर नहीं लगाता। सार्वजनिक सेवाओं व पदों पर नियुक्तियों में धर्म के आधार पर राज्य कोई भेदभाव नहीं करता।

स्वीकारात्मक रूप में राज्य सब नागरिकों को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्थाएँ स्थापित करने की स्वतन्त्रता देता है। सभी धर्मावलम्बियों को सार्वजनिक पदों की प्राप्ति हेतु समान अवसर देता है। राजकीय अनुदान देने में सभी धर्मावलम्बियों द्वारा स्थापित संस्थाओं के साथ समान नीति बरतता है।

इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के स्वीकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों पक्षों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य अधार्मिक या धर्म-विहीन नहीं है, बल्कि वह सब धर्मों की शिक्षाओं का सम्मान करता है, परन्तु राजनीतिक कार्य-कलापों में ऐसा कुछ नहीं करता जिससे किसी धर्म-विशेष के मानने वालों का अहित हो और किसी अन्य धर्म के मानने वालों का हित हो।

प्रश्न 5.
धर्मनिरपेक्षता की कोई चार परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1. स्मिथ (Smith) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसमें व्यक्तिगत अथवा सामूहिक धार्मिक स्वतन्त्रता होती है, जो व्यक्ति के साथ धर्म के विषयों में बिना किसी भेदभाव के नागरिक जैसा व्यवहार रखता है, जो सवैधानिक रूप से किसी को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म से सम्बन्धित नहीं होता तथा न ही किसी धर्म में हस्तक्षेप अथवा उसे बढ़ाने का प्रयत्न करता है।”

2. श्री वेंकटरमन (Venkataraman) ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक, न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी होता है, वह धार्मिक कार्यों तथा सिद्धान्तों से पूर्णतः अलग है और इस प्रकार धार्मिक विषयों में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रहता है।”

3. डॉ० बी०आर० अम्बेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष राज्य का अभिप्राय यह नहीं है कि लोगों की धार्मिक भावनाओं का ख्याल नहीं किया जाएगा। इसका अर्थ सिर्फ यह होगा कि संसद को जनता पर किसी विशेष धर्म को लादने की शक्ति नहीं होगी। संविधान द्वारा सिर्फ यही नियन्त्रण लगाया जाएगा।”

4. डॉ० के०आर० बम्बवाल (Dr. K.R. Bombwall) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष प्रबन्ध में राज्य न धार्मिक होता है, न अधार्मिक और न ही धर्म के विरुद्ध होता है, अपितु धार्मिक विश्वासों और गतिविधियों से पूरी तरह अलग होता है और इस तरह धार्मिक मामलों में निष्पक्ष होता है।”

अतः उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य उस राज्य को कहते हैं जो किसी धर्म-विशेष पर आधारित न हो। ऐसे राज्य में सरकार के द्वारा सभी धर्मों को समान समझा जाता है और किसी एक धर्म को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। कानून की दृष्टि से सभी नागरिक समान माने जाते हैं और धर्म के आधार पर नागरिकों में किसी प्रकार जाता। धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को मानने तथा उसका प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।

प्रश्न 6.
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की कोई चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता।
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है।
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, राज्य के सभी धर्मों का बराबर सम्मान करता है।
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव की मनाही होती है।

धर्मनिरपेक्षता के अर्थ, विशेषताओं पर प्रकाश डालने के बाद यहाँ पर यह स्पष्ट करना भी उपयुक्त होगा कि धर्मनिरपेक्षता का भारतीय स्वरूप होता है।

प्रश्न 7.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। अथवा क्या भारत सच्चे अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार, ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) व्यक्ति वह है जो “केवल दुनियावी या लौकिक मामलों से सम्बन्ध रखता है, धार्मिक मामलों से नहीं”। साम्यवादी देशों में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘धर्म-विरोधी प्रवृत्ति’ से लिया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्म एवं राज्य दोनों को अलग-अलग रखने की नीति अपनाई गई है, जिसके अनुसार, राज्य धर्म के क्षेत्र में न हस्तक्षेप करेगा और न ही किसी तरह का सहयोग करेगा।

अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में कहा था, “हम लोग धर्म के विरुद्ध नहीं हैं, परन्तु राजकोष का पैसा धार्मिक प्रचार हेतु व्यय नहीं किया जा सकता।” भारतीय संविधान की विभिन्न व्यवस्थाओं से पता चलता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप के निम्नलिखित पहल हैं

(1) भारतीय संविधान ने भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्यवस्था की है।

(2) राज्य व्यक्ति के धार्मिक विश्वास एवं क्रिया-कलापों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा, क्योंकि भारत में धर्म को एक व्यक्तिगत मामला माना गया है।

(3) भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की मनाही करता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद-14 ‘विधि के समक्ष समानता’ का अधिकार प्रदान करता है।

(4) संविधान के अध्याय तीन में अनुच्छेद-25 से 28 तक सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।

(5) भारत में किसी धर्म-विशेष को राज-धर्म की संज्ञा नहीं दी गई है।

(6) भारत में धार्मिक स्वतन्त्रताएँ असीमित नहीं हैं। राज्य द्वारा उन पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त व्यवस्थाएँ भारत में सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करती हैं। इस तरह भारतीय राज्य न तो धार्मिक है, न अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी, किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं तथा वृत्तियों से दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्थ है।

प्रश्न 8.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष उत्पन्न किन्हीं चार प्रमुख चुनौतियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय समाज में उत्पन्न कुछ विकृतियों ने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। ऐसी चुनौतियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं
(1) भारतीय समाज में उत्पन्न साम्प्रदायिकता ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष एक कड़ी चुनौती प्रस्तुत की है।

(2) हिन्दू एवं मुस्लिम धर्मों में धार्मिक कट्टरता की भावना एवं उन्माद ने भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को हानि पहुँचाई है।

(3) भारत के साधु-सन्तों, मुल्ला, मौलवियों, इमामों द्वारा अपने धर्म के लोगों में धार्मिक उन्माद फैलाने की नीति ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुंचाई है।

(4) संकीर्ण स्वार्थों से युक्त राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने भी लोगों में धार्मिक कट्टरता पैदा करके भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को ठेस पहुँचाई है।

प्रश्न 9.
क्या भारतीय संविधान में किए गए प्रावधान सच्चे अर्थों में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाते हैं?
अथवा
क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है? क्यों? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
क्या धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उचित है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निःसन्देह भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। भारतीय संविधान में किए गए विभिन्न प्रावधान भी भारत को सच्चे रूप में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्षता को सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान करना एक तरह से अपरिहार्यता भी थी, क्योंकि भारत की स्वाधीनता के समय भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग रहते थे और उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने के लिए धर्मनिरपेक्षता की नीति सर्वाधिक उपयुक्त लगती थी।

इसीलिए हमने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी प्रावधान करके यह सुनिश्चित कर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा। यद्यपि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हमने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को 42वें संशोधन द्वारा सन् 1976 में जोड़कर स्पष्ट कर दिया कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का मूल आधार है। भारतीय संविधान में किए गए निम्नलिखित प्रावधान भारत के लिए पथ-निरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता की औचित्यतता को सिद्ध करते हैं

  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग करना।
  • भारतीय संविधान द्वारा साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करना।
  • संविधान द्वारा नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान करना।
  • भारत राज का अपना कोई राजधर्म न होना आदि।

अतः उपर्युक्त धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी प्रावधान जहाँ भारत को सच्चे अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित करते हैं वहाँ भारत में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच एकता और समन्वय की स्थापना में भी सहायक हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मनिरपेक्षता का क्या अभिप्राय है? आधुनिक समय में हमें धर्मनिरपेक्ष राज्य की क्या आवश्यकता है? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी यूरोपीय एवं भारतीय मॉडल को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि आधुनिक युग में हमें धर्मनिरपेक्ष राज्य की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
धर्म या पथ-निरपेक्ष शब्द अंग्रेजी भाषा के सेक्युलर (Secular) शब्द का हिन्दी पर्याय है। सेक्युलर शब्द लेटिन भाषा के सरकुलम (Surculam) शब्द से बना है। लेटिन भाषा से उदित इस शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सांसारिक’ है अर्थात् राजनीतिक गतिविधियों को केवल लौकिक क्षेत्र तक सीमित रखना है। सेक्युलर (Secular) शब्द के प्रथम प्रयोगकर्ता जॉर्ज जैकब हॉलीओक ने स्पष्ट किया है कि, “धर्मनिरपेक्षता का अर्थ, इस विश्व या मानव जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण, जो धार्मिक या द्वैतवादी विचारों से बंधा हुआ न हो।”

एनसाइकलोपीडिया आफ ब्रिटेनिका के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष शब्द का तात्पर्य है-गैर-आध्या वस्त जो धार्मिक तथा आध्यात्मिक तथ्यों की विरोधी तथा उनसे असम्बद्ध होने के कारण स्वयं में पहचान योग्य है, आध्यात्मिक तत्त्वों के विपरीत सांसारिक है।” अतः धर्मनिरपेक्षता को सर्वप्रथम एवं सर्वप्रमुख रूप से ऐसा सिद्धान्त समझा जाना चाहिए जो अन्तर-धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। यद्यपि यह धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से केवल एक है। धर्मनिरपेक्षता का इतना ही महत्त्वपूर्ण दूसरा पहलू अन्तःधार्मिक वर्चस्व यानि धर्म के अन्दर छुपे वर्चस्व का विरोध करना है।

इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा नियामक सिद्धान्त है जो धर्मनिरपेक्ष समाज अर्थात् अन्तर-धार्मिक तथा अन्तःधार्मिक दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है। यदि इसी बात को सकारात्मक रूप से कहें तो यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है।

परन्तु यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को अपनाने वाले किसी राज्य को धर्म और धार्मिक समुदाय से कैसे सम्बन्ध रखने चाहिएँ। इसके साथ-साथ किसी समाज में धार्मिक टकरावों को रोकने एवं धार्मिक समानता को प्रोत्साहित करने के लिए राजसत्ता एवं धर्म के बीच कैसे सम्बन्ध स्थापित होने चाहिएँ? यह जानना भी दिलचस्प होगा।

यहाँ यह स्पष्ट है कि वास्तव में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए राज्यसत्ता को न केवल धर्मतान्त्रिक होने से इन्कार करना होगा, बल्कि उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से भी परहेज करना होगा। धर्म और राज्यसत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता के लिए जरूरी है, मगर केवल यही पर्याप्त नहीं है।

धर्मनिरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो अंशतः ही सही और गैर-धार्मिक स्रोतों से निकलते हों। ऐसे लक्ष्यों में शान्ति, धार्मिक स्वतन्त्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी और साथ ही अन्तर-धार्मिक व अन्तःधार्मिक समानता शामिल रहनी चाहिए।

अतः इन लक्ष्यों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य को संगठित धर्म और इसकी संस्थाओं से कुछ मूल्यों के लिए अवश्य ही पृथक् रहना चाहिए, परन्तु यहाँ यह भी प्रश्न पैदा होता है कि राज्यसत्ता व धर्म के मध्य पृथक्कता कैसी होनी चाहिए? इस सम्बन्ध में धर्म-निरपेक्षता सम्बन्धी निम्नलिखित दो प्रकार की संकल्पनाएँ मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं

  • धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल,
  • धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल।

1. धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी संकल्पना (अमेरिकी मॉडल) राज्यसत्ता और धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग मानती है और इस तरह दोनों के सम्बन्ध विच्छेद को पास्परिक निषेध के रूप में समझा जाता है। राज्यसत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और इसी प्रकार धर्म राज्यसत्ता के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। राज्यसत्ता की कोई नीति पूर्णतः धार्मिक तर्क के आधार पर नहीं बन सकती और कोई धार्मिक वर्गीकरण किसी सार्वजनिक नीति की बुनियाद नहीं बन सकता। अगर ऐसा हुआ तो वह राज्यसत्ता के मामले में धर्म की अवैध घुसपैठ मानी जाएगी।

इस प्रकार यूरोपीय मॉडल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानता है और इसे राज्यसत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं मानता। इस पश्चिमी संकल्पना में राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की सहायता करेगा और न ही किसी धार्मिक संस्था द्वारा संचालित शिक्षण संस्था की वित्तीय सहायता करेगा। जब तक धार्मिक समुदायों की गतिविधियाँ देश के कानून द्वारा निर्मित व्यापक सीमा के अन्दर होती हैं, वह इन गतिविधियों में व्यवधान नहीं पैदा कर सकता। जैसे कोई विशेष धर्म अपने मुख्य सदस्यों को मन्दिर के गर्भगृह में जाने से रोकता है, तो राज्य के पास मामले को बने रहने देने के लिए अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

2. धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर ही बल नहीं देती है, बल्कि अन्तर-धार्मिक समानता भारतीय संकल्पना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त अन्तःधार्मिक वर्चस्व पर भी अपना बराबर ध्यान केन्द्रित किया है।

इसने हिन्दुओं के अन्दर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किए जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया है। इसके अतिरिक्त भारतीय धर्मनिरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक स्वतन्त्रता से ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतन्त्रता से भी है।

इसके अन्तर्गत हर आदमी को अपनी पसंद का धर्म मानने का अधिकार तो है ही, इसके साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्पित धर्म-सुधार की गुंजाइश भी है। जैसे भारतीय संविधान ने जहाँ छुआछूत पर प्रतिबन्ध लगाया है, वहाँ बाल-विवाह उन्मूलन एवं अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को समाप्त करने हेतु कई कानून बनाए गए हैं।

इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने धार्मिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है जिनके अनुरूप वह अमेरिकन या यूरोपीय मॉडल में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वास्तव में भारतीय धर्मनिरपेक्ष समाज में शान्ति, स्वतन्त्रता एवं समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने की ही रणनीति का एक भाग है।,

अतः उपर्युक्त धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी अमेरिकन मॉडल एवं भारतीय मॉडल के विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दो रूप होते हैं-(i) निषेधात्मक तथा (i) स्वीकारात्मक। नकारात्मक रूप से राज्य धार्मिक मामलों में पूर्ण तटस्थता की नीति पर चलता है। वह किसी धर्म-विशेष को नहीं अपनाता और किसी धर्म-विशेष के उत्थान या उसे निरुत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाता। वह धर्म-प्रचार के कार्यों या धार्मिक संस्थाओं के विकास सम्बन्धी मामलों में भाग नहीं लेता। राज्य की नीतियों का निर्माण या कार्यान्वयन धार्मिक आधार पर नहीं किया जाता।

राज्य किसी धर्म के विकास हेतु कोई कर नहीं लगाता। सार्वजनिक सेवाओं व पदों पर नियुक्तियों में धर्म के आधार पर राज्य भेदभाव नहीं करता। स्वीकारात्मक रूप में राज्य सब नागरिकों को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्थाएँ स्थापित करने की स्वतन्त्रता देता है। सभी धर्मावलम्बियों को सार्वजनिक पदों की प्राप्ति हेतु समान अवसर देता है। राजकीय अनुदान देने में सभी धर्मावलम्बियों द्वारा स्थापित संस्थाओं के साथ समान नीति बरतता है।

इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के स्वीकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों पक्षों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य अधार्मिक या धर्म-विहीन नहीं है, बल्कि वह सब धर्मों की शिक्षाओं का सम्मान करता है, परन्तु राजनीतिक कार्य-कलापों में ऐसा कुछ नहीं करता जिससे किसी धर्म-विशेष के मानने वालों का अहित हो और किसी अन्य धर्म के मानने वालों का हित हो। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के उपर्युक्त अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं को निम्नलिखित रूप में विवेचित किया जा सकता है

1. स्मिथ (Smith) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसमें व्यक्तिगत अथवा सामूहिक धार्मिक स्वतन्त्रता होती है, जो व्यक्ति के साथ धर्म के विषयों में बिना किसी भेदभाव के नागरिक जैसा व्यवहार रखता है, जो सवैधानिक रूप से किसी को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म से सम्बन्धित नहीं होता तथा न ही किसी धर्म में हस्तक्षेप अथवा उसे बढ़ाने का प्रयत्न करत

2. श्री वैंकटरामन (Venkataraman) ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक, न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी होता है, वह धार्मिक कार्यों तथा सिद्धान्तों से पूर्णतः अलग है और इस प्रकार धार्मिक विषयों में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रहता है।”

3. डॉ० के०आर० बम्बवाल (Dr. K.R. Bombwall) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष प्रबंध में.राज्य न धार्मिक होता है, न अधार्मिक और न ही धर्म के विरुद्ध होता है, अपितु धार्मिक विश्वासों और गतिविधियों से पूरी तरह अलग होता है और इस तरह धार्मिक मामलों में निष्पक्ष होता है।” रिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य उस राज्य को कहते हैं जो किसी धर्म-विशेष पर आधारित न हो।

ऐसे राज्य में सरकार के द्वारा सभी धर्मों को समान समझा जाता है और किसी एक धर्म को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। कानून की दृष्टि से सभी नागरिक समान माने जाते हैं और धर्म के आधार पर नागरिकों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को मानने तथा उसका प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार संक्षेप में धर्मनिरपेक्ष राज्य की मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं

  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता,
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है,
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, राज्य के सभी धर्मों का बराबर सम्मान करता है,
  • एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव की मनाही होती है।

आधुनिक समय में हमें धर्मनिरपेक्ष राज्य की क्या आवश्यकता है? वर्तमान युग में प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा बहुत ही लोकप्रिय एवं राज्य की एक आवश्यक विशेषता बन गई है। इसलिए यहाँ हम आधुनिक समय में एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की आवश्यकता के कुछ कारणों का संक्षिप्त उल्लेख कर रहे हैं

(1) वर्तमान युग लोकतान्त्रिक युग है और धर्मनिरपेक्षता लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत आधार प्रदान करती है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य स्वतन्त्रता की शर्त के रूप में धार्मिक स्वतन्त्रता पर बल देकर लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में मुख्यतः सहयोग देती है।

(2) वर्तमान में समूचा विश्व भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की प्रक्रिया में से गुजर रहा है, जिसमें विश्व का स्वरूप एक ग्राम विश्व के रूप में उभर रहा है। विश्व के लोगों द्वारा ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीकी आदान-प्रदान के अतिरिक्त निवेश एवं व्यापार सम्बन्धी प्रक्रियाओं के चलते अब एक क्षेत्र में एक धर्म को मानने वाले ही नहीं, बल्कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले व्यक्ति होंगे।

ऐसी स्थिति में प्रत्येक देश में प्रत्येक धर्म को मानने वाले व्यक्ति को उसमें अपनी आस्था रखने, पूजा-अर्चना करने व प्रचार इत्यादि करने का अधिकार देना होगा। इसलिए ऐसी स्थिति में उस राज्य विशेष का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के अतिरिक्त कोई अन्य स्वरूप उसके लिए उचित नहीं हो सकता।

(3) आज प्रत्येक देश में धर्म एवं भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक वर्ग पाए जाते हैं। इसलिए इन अल्पसंख्यक वर्गों में सुरक्षा रने के लिए राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप सबसे अधिक कारगर सिद्ध होगा। जैसे कि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा द्वारा यहाँ प्रत्येक वर्ग को अपने-अपने धर्म को मानने एवं उसका प्रचार इत्यादि करने का अधिकार दिया गया है। इसीलिए यहाँ बहुसंख्यक हिन्दुओं के आगे अन्य अल्पसंख्यक समुदाय; जैसे जैन, सिख, ईसाई एवं मुस्लिम इत्यादि अपने-आपको असुरक्षित महसूस नहीं करते हैं।

(4) किसी भी राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप उसके भिन्न-भिन्न धर्मों के साथ सम्बन्धित लोगों में पारस्परिक सहयोग एवं प्रेम की भावना को जन्म देने में बहुत सहायक होगा। आज प्रायः सभी राज्य बहुधर्मी स्वरूप के हैं। ऐसी स्थिति में राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ही श्रेष्ठ होगा क्योंकि इससे राज्य में शान्ति, सद्भाव एवं कानून-व्यवस्था बनाए रखने में भी सहायता मिलेगी।

यहाँ पर, यह भी उल्लेखनीय है कि बहुधर्मी राज्यों में धर्मनिरपेक्षता का अभाव विभिन्न धर्मों के बीच श्रेष्ठता की जंग को जन्म दे सकते है, जिससे वह राज्य साम्प्रदायिकता की समस्या से ग्रस्त हो सकता है। अतः साम्प्रदायिकता की समस्या का एकमात्र निदान उस राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ही हो सकता है।

(5) एक राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप राज्य की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में भी सहायक है। जैसे भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के कारण ही विभिन्न धर्मों की मान्यताओं एवं संस्कारों ने मिलकर भारतीय संस्कृति को विकसित स्वरूप प्रदान किया है। आज समूचे विश्व में ‘विभिन्नता में एकता’ के रूप में भारतीय संस्कृति की विशेष पहचान है।

अतः यह कहा जा सकता है कि एक राज्य की संस्कृति एवं सभ्यता के विकास में धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप बहुत सहायक होगा। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विश्व में राज्यों का लोकतान्त्रिक स्वरूप एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया में धर्म-निरपेक्ष राज्य की अवधारणा की सर्वाधिक उपयुक्त व्यवस्था है।

प्रश्न 2.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि क्या धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उचित है?
अथवा
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी किए गए प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए यह भी बताएँ कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियाँ हैं?
उत्तर:
ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार, ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) व्यक्ति वह है जो “केवल दुनियावी या लौकिक मामलों से सम्बन्ध रखता है, धार्मिक मामलों से नहीं”। (Concerned with the affairs of this world, worldly, not sacred.)। साम्यवादी देशों में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘धर्म-विरोधी प्रवृत्ति’ से लिया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्म एवं राज्य दोनों को अलग-अलग रखने की नीति अपनाई गई है, जिसके अनुसार, राज्य धर्म के क्षेत्र में न हस्तक्षेप करेगा और न ही किसी तरह का सहयोग करेगा।

अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में कहा था, “हम लोग धर्म के विरुद्ध नहीं हैं, परन्तु राजकोष का पैसा धार्मिक प्रचार हेतु व्यय नहीं किया जा सकता।” भारतीय संविधान की विभिन्न व्यवस्थाओं से पता चलता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप के निम्नलिखित पहलू हैं

(1) भारतीय संविधान ने भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्यवस्था की है।

(2) राज्य व्यक्ति के धार्मिक विश्वास एवं क्रिया-कलापों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा, क्योंकि भारत में धर्म को एक व्यक्तिगत मामला माना गया है।

(3) भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की मनाही करता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद-14 ‘विधि के समक्ष समानता’ का अधिकार प्रदान करता है।

(4) संविधान के अध्याय तीन में अनुच्छेद-25 से 28 तक सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।

(5) भारत में किसी धर्म-विशेष को राज-धर्म की संज्ञा नहीं दी गई है।

(6) भारत में धार्मिक स्वतन्त्रताएँ असीमित नहीं हैं। राज्य द्वारा उन पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त व्यवस्थाएँ भारत में सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करती हैं। इस तरह भारतीय राज्य न तो धार्मिक है, न अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी, किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं तथा वृत्तियों से दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्थ है। क्या धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उचित है? (Is Secularism suitable for India?) उपर्युक्त धर्मनिरपेक्षता के भारतीय स्वरूप की विशेषताओं से यह बात स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।

भारतीय संविधान में किए गए विभिन्न प्रावधान भी भारत को सच्चे रूप में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्षता को सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान करना एक तरह से अपरिहार्यता भी थी, क्योंकि भारत की स्वाधीनता के समय भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग रहते थे और उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने के लिए धर्मनिरपेक्षता की नीति सर्वाधिक उपयुक्त लगती थी।

इसीलिए हमने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी प्रावधान करके यह सुनिश्चित कर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा। यद्यपि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हमने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को 42वें संशोधन द्वारा सन् 1976 में जोड़कर स्पष्ट कर दिया कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का मूल आधार है। भारतीय संविधान में किए गए निम्नलिखित प्रावधान भारत के लिए पंथ-निरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता की औचित्यतता को सिद्ध करते हैं

1. संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग-संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़कर भारत को स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। भारत में चाहे किसी भी दल की सरकार हो, उसे धर्मनिरपेक्षता की नीति का ही अनुसरण करना पड़ेगा।

इसके अतिरिक्त प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि भारत में रहने वाले सभी लोगों के लिए न्याय (Justice), स्वतन्त्रता (Liberty) और समानता एवं भ्रातृत्व (Equality and Fraternity) को बढ़ावा देना ही संविधान का उद्देश्य है। इस प्रकार भारत का संविधान किसी एक धर्म अथवा वर्ग के विकास के लिए नहीं है।

2. पृथक तथा साम्प्रदायिक चुनाव-प्रणाली का अन्त स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में ब्रिटिश शासकों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ (Divide and Rule) की नीति का अनुसरण करते हुए साम्प्रदायिक चुनाव-प्रणाली को लागू किया था, परन्तु भारत के नए संविधान द्वारा इस चुनाव-प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर संयुक्त चुनाव-प्रणाली (Joint Election) तथा वयस्क मताधिकार प्रणाली (Adult Franchise) की व्यवस्था की गई। देश के प्रत्येक नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, एक निश्चित आयु तक पहुंचने पर मतदान करने तथा चुनाव लड़ने का अधिकार दिया गया है।

3. राज्य का कोई धर्म नहीं भारत में राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। यद्यपि भारत का विभाजन मुख्य रूप से धर्म के आधार पर ही हुआ था, परन्तु स्वतन्त्र भारत का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है। राज्य के कानूनों का निर्माण किसी धर्म के नियमों के आधार पर नहीं किया जाता और न ही राज्य किसी धर्म को कोई विशेष संरक्षण प्रदान करता है।

भारत में किसी भी धर्म का अनुयायी देश के बड़े-से-बड़े पद को ग्रहण कर सकता है। हमारे चार राष्ट्रपति मुसलमान (डॉ० जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद तथा डॉ० ए.पी. जे. अब्दुल कलाम) तथा एक राष्ट्रपति सिक्ख (श्री ज्ञानी जैल सिंह) थे। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह भी एक सिक्ख हैं। यह स्थिति हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान से सर्वथा भिन्न है।

पाकिस्तान में इस्लाम धर्म, राज्य-धर्म है और वहाँ पर देश के कानूनों तथा नीतियों का निर्माण इस धर्म के नियमों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। वहाँ पर उच्च पद केवल इस्लाम धर्म में विश्वास रखने वालों को ही प्राप्त हो सकते हैं।

4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार-नागरिकों के धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार को संविधान के द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मान प्रचार करने की स्वतन्त्रता दी गई है। धार्मिक स्वतन्त्रता का यह अधिकार केवल भारत के नागरिकों को ही नहीं, वरन भारत में रहने वाले विदेशियों को भी दिया गया है। संविधान सभी नागरिकों को अपने धर्म का प्रचार करने के लिए अपनी धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करने का भी अधिकार देता है।

5. कानून के सामने समानता तथा सरकारी सेवाओं में समान अवसर-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार देश के प्रत्येक नागरिक को कानून के सामने समानता प्रदान की गई है। इसका अर्थ यह है कि कानून की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं और धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद-16 में यह कहा गया है कि सरकारी पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में नागरिकों में धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

6. सरकारी शिक्षा-संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा की मनाही-भारतीय संविधान के अनुच्छेद-28 के अनुसार सरकारी शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा की मनाही की गई है। ऐसी शिक्षा संस्थाओं में किसी भी धर्म से सम्बन्धित शिक्षा नहीं दी जा सकती और न ही किसी धर्म का प्रचार किया जा सकता है। गैर-सरकारी शिक्षा संस्थाओं, जो सरकार से वित्तीय सहायता अथवा अनुदान लेती हैं, में धार्मिक शिक्षा दी तो जा सकती है, परन्तु उसे अनिवार्य नहीं किया जा सकता।

7. किसी धर्म के प्रचार के लिए कर नहीं लगाया जा सकता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिससे प्राप्त आय किसी धर्म के प्रचार अथवा विकास के लिए खर्च की जानी हो।

8. छुआछूत की समाप्ति-संविधान के अनुसार छुआछूत का अन्त कर दिया है और किसी भी व्यक्ति के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना या उसे अछूत मानकर मन्दिरों, होटलों, तालाबों, स्नानगृहों तथा मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोकना कानूनी अपराध घोषित किया गया है। ये सभी बातें भारत के एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का स्पष्ट प्रमाण हैं।

कि भारतीय संविधान के द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, फिर भी भारतीय राजनीति में धर्म की एक विशेष भूमिका है। वास्तव में, संविधान लागू होने के दिन से लेकर आज तक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना के मार्ग में अनेक बाधाएँ खड़ी हुई हैं। जातीय भेदभाव, धार्मिक विभिन्नता एवं क्षेत्रीय संकीर्ण भावनाओं के चलते भारत में सच्चे अर्थ में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है।

राजनीति ने हिन्दुओं और मुसलमानों को साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं में जकड़ लिया है। धार्मिक विभिन्नता ने समाज में अनेक प्रकार के तनाव उत्पन्न कर दिए हैं। साम्प्रदायिकता का बीज बोने में, सत्ता-प्राप्ति की होड़ में लगे राजनेताओं का भी बड़ा हाथ है। स्वाधीनता के बाद के चुनावों की राजनीति ने धर्म और सम्प्रदाय के नकारात्मक महत्त्व को उभारा है।

यदि हम यह कहें कि सम्प्रदाय आज राजनीतिक दलों के लिए वोट-बैंक बन गए हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। धर्म और संप्रदाय का खुलेआम दुरुपयोग आज राजनीतिक शक्ति के रूप में किया जा रहा है। वास्तव में, संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ हेतु धर्म के प्रयोग ने राष्ट्रीय एकीकरण के लिए चुनौती को खड़ा कर दिया है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भारतीय समाज में उत्पन्न कुछ विकृतियों ने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। ऐसी चुनौतियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं

  • भारतीय समाज में उत्पन्न साम्प्रदायिकता ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष एक कड़ी चुनौती प्रस्तुत की है।
  • हिन्दू एवं मुस्लिम धर्मों में धार्मिक कट्टरता की भावना एवं उन्माद ने भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को हानि पहुंचाई है।
  • भारत के साधु-सन्तों, मुल्ला, मौलवियों, इमामों द्वारा अपने धर्म के लोगों में धार्मिक उन्माद फैलाने की नीति ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुँचाई है।
  • संकीर्ण स्वार्थों से युक्त राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने भी लोगों में धार्मिक कट्टरता पैदा करके भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को ठेस पहुँचाई है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. धर्म-निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सी धारणा सही नहीं है? ‘
(A) धर्म व्यक्ति का निजी विषय है
(B) राजसत्ता और धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग हैं
(C) राज्य कानून के अधीन की गई गतिविधियों में व्यवधान पैदा नहीं करेगा
(D) राज्य धार्मिक शिक्षण संस्थाओं की वित्तीय सहायता करेगा
उत्तर:
(D) राज्य धार्मिक शिक्षण संस्थाओं की वित्तीय सहायता करेगा

2. धर्म-निरपेक्षता के भारतीय मॉडल के सन्दर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है?
(A) पश्चिमी धर्म-निरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है
(B) अन्तः धार्मिक समानता की संकल्पना पर आधारित है
(C) अन्तः धार्मिक वर्चस्व पर भी ध्यान केन्द्रित करते हुए बहुसंख्यक वर्ग के खतरों का विरोध करता है
(D) उपर्युक्त सभी सत्य हैं
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी सत्य हैं

3. भारतीय धर्म-निरपेक्षता के नकारात्मक रूप का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) राज्य का धार्मिक मामलों में तटस्थता का दृष्टिकोण
(B) राज्य का कोई विशेष धर्म नहीं होता
(C) राज्य में नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन का आधार धर्म पर आधारित होता है।
(D) राज्य में नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन किसी विशेष धर्म पर आधारित नहीं होता है
उत्तर:
(C) राज्य में नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन का आधार धर्म पर आधारित होता है

4. एक धर्म-निरपेक्ष राज्य का लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) राज्य का अपना कोई धर्म नहीं
(B) प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता
(C) राज्य द्वारा सभी धर्मों का बराबर सम्मान करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता सम्बन्धी निम्नलिखित में से कौन-सा प्रावधान नहीं किया गया है?
(A) भारतीय संविधान की प्रस्तावना में
(B) धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग
(C) सभी नागरिकों को असीमित धार्मिक स्वतंत्रताएँ
(D) सभी नागरिकों को कानूनी एवं सीमित धार्मिक स्वतंत्रताएँ
उत्तर:
(C) सभी नागरिकों को असीमित धार्मिक स्वतंत्रताएँ

6. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द को कब और कौन-से संशोधन द्वारा जोड़ा गया?
(A) 1985 में 52वें संशोधन द्वारा
(B) 1976 में 42वें संशोधन द्वारा
(C) 1978 में 44वें संशोधन द्वारा
(D) 1994 में 74वें संशोधन द्वारा
उत्तर:
(B) 1976 में 42वें संशोधन द्वारा

7. भारतीय संविधान के सन्दर्भ में निम्नलिखित में से ठीक है-
(A) संयुक्त चुनाव प्रणाली की व्यवस्था को अपनाना
(B) वयस्क मताधिकार की प्रणाली को अपनाना
(C) धार्मिक स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. भारतीय संविधान में छुआछूत की समाप्ति निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद द्वारा की गई है?
(A) अनुच्छेद 17
(B) अनुच्छेद 27
(C) अनुच्छेद 37
(D) अनुच्छेद 57
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 17

9. भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने एवं प्रचार करने की स्वतंत्रता निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद में प्रदान की गई है?
(A) अनुच्छेद 14
(B) अनुच्छेद 16
(C) अनुच्छेद 25
(D) अनुच्छेद 26
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 25

10. सरकारी पदों पर नियुक्ति के लिए धर्म के आधार पर भारतीय संविधान में भेदभाव की मनाही निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद में की गई है?
(A) अनुच्छेद 16
(B) अनुच्छेद 17
(C) अनुच्छेद 27
(D) अनुच्छेद 28
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 16

11. धार्मिक कार्य हेतु किए गए खर्च पर सरकार द्वारा कर में छूट देने सम्बन्धी प्रावधान संविधान के कौन-से अनुच्छेद में वर्णित किया गया है?
(A) अनुच्छेद 25
(B) अनुच्छेद 26
(C) अनुच्छेद 27
(D) अनुच्छेद 28
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 27

12. भारतीय धर्म-निरपेक्षता के समक्ष चुनौती निम्नलिखित में से है
(A) साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति का बढ़ना
(B) धार्मिक कट्टरता की भावना में वृद्धि होना
(C) धार्मिक उन्माद फैलाने की प्रवृत्तियों का होना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में

1. सेकुलर (Secular) शब्द का प्रथम प्रयोगकर्ता का श्रेय किसे जाता है?
उत्तर:
जॉर्ज जैकब हॉलीओक को।

2. अंग्रेज़ी भाषा का सेक्युलर (secular) शब्द, सरकुलम (surculam) शब्द से बना है। यह शब्द किस भाषा का है?
उत्तर:
लैटिन भाषा का।

3. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धर्म विशेष पर आधारित धार्मिक शिक्षा देने की मनाही की गई है?
उत्तर:
अनुच्छेद 28 में।

रिक्त स्थान भरें

1. धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम …………………. ने किया था।
उत्तर:
जॉर्ज जैकब

2. धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही भारतीय संविधान के ……………….. में की गई है।
उत्तर:
अनुच्छेद 14

3. धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सन् …………………. में किया गया था।
उत्तर:
1846

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ लिखिए।
उत्तर:
‘राष्ट्र’ या अंग्रेज़ी भाषा का नेशन (Nation) शब्द, लेटिन भाषा के ‘नेशिओ’ (Natio) शब्द से बना है। इसका अर्थ जन्म या नस्ल या जाति से होता है। इस आधार पर एक ही जाति, वंश या नस्ल से जातिगत एकता में जुड़े हुए संगठित जन-समूह को एक राष्ट्र कहा जाता है।

प्रश्न 2.
‘राष्ट्र’ की परिभाषा किन-किन आधारों पर की जाती है?
उत्तर:
विभिन्न विद्वानों द्वारा ‘राष्ट्र’ की परिभाषा जातीय, राजनीतिक एवं भावनात्मक आधारों पर की जाती है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 3.
‘राष्ट्र’ की नस्ल या जातिगत एकता सम्बन्धी परिभाषा देने वाले समर्थक विद्वानों के नाम लिखिए।
उत्तर:
‘राष्ट्र’ की नस्ल या जातीय एकता सम्बन्धी परिभाषा देने वाले समर्थक विद्वान बर्गेस, प्रेडियर-फोडेर और लीकॉक आदि हैं। .

प्रश्न 4.
जातीय एकता सम्बन्धी ‘राष्ट्र’ की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
बर्गेस के अनुसार, “वह जन-समूह जिसमें जातीय एकता हो और जो भौगोलिक एकता वाले प्रदेश में बसा हुआ हो, राष्ट्र कहलाता है।”

प्रश्न 5.
क्या वर्तमान में नस्ल या जातीय आधार पर विश्व में कोई राज्य है?
उत्तर:
वर्तमान में विश्व में कोई भी राज्य पूर्णतः नस्ल या जातीय आधार पर नहीं है।

प्रश्न 6.
‘राष्ट्र’ की राजनीतिक एकता सम्बन्धी परिभाषा देने वाले समर्थक विद्वानों के नाम लिखिए।
उत्तर:
लॉर्ड ब्राइस, हेज एवं गिलक्राइस्ट आदि विद्वानों ने राष्ट्र की राजनीतिक एकता सम्बन्धी परिभाषा दी है।

प्रश्न 7.
राजनीतिक एकता सम्बन्धी राष्ट्र की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “राष्ट्र वह राष्ट्रीयता है जिसने अपने-आपको स्वतन्त्र होने या स्वतन्त्रता की इच्छा रखने वाली राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित कर लिया हो।”

प्रश्न 8.
राष्ट्र की भावनात्मक एकता सम्बन्धी परिभाषा देने वाले किन्हीं दो समर्थक विद्वानों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्र की भावनात्मक आधार पर परिभाषा देने वाले समर्थक विद्वान गार्नर, ब्लंशली, हाऊसर, बार्कर आदि हैं।

प्रश्न 9.
भावनात्मक एकता सम्बन्धी राष्ट्र की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
ब्लंशली के शब्दों में, “राष्ट्र ऐसे मनुष्यों के समूह को कहते हैं जो विशेषतः भाषा और रीति-रिवाजों के द्वारा एक समान सभ्यता से बँधे हुए हों जिससे उनमें अन्य सभी विदेशियों से अलग एकता की सुदृढ़ भावना पैदा होती हो।”

प्रश्न 10.
बार्कर ने ‘राष्ट्र’ को कैसे परिभाषित किया है?
उत्तर:
बार्कर के अनुसार, “राष्ट्र लोगों का वह समूह है जो एक निश्चित भू-भाग में रहते हुए आपसी प्रेम और स्नेह की भावना से एक-दूसरे के साथ बँधे हुए हों।”

प्रश्न 11.
राष्ट्रीयता का शाब्दिक अर्थ समझाइए।
उत्तर:
उत्पत्ति की दृष्टि से यह शब्द भी अंग्रेज़ी के नेशनलिटी शब्द का रूपान्तरण है जो लेटिन भाषा के ‘नेट्स’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ जन्म या जाति होता है। इस प्रकार राष्ट्रीयता भी समान नस्ल वाले लोगों का समुदाय है, परन्तु आजकल नस्ल की एकता नहीं पाई जाती। इसलिए यहाँ राष्ट्रीयता की अवधारणा का अर्थ एक मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्मिक भावना के रूप में लिया जाता है।

प्रश्न 12.
राष्ट्रीयता की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
ब्राइस के अनुसार, “राष्ट्रीयता वह जनसंख्या है जो भाषा एवं साहित्य, विचार, प्रथाओं और परम्पराओं जैसे बन्धनों में परस्पर इस प्रकार बंधा हुआ हो कि वह अपनी ठोस एकता अनुभव करें तथा उन्हीं आधारों पर बंधी हुई अन्य जनसंख्या से अपने-आपको भिन्न समझे।”

प्रश्न 13.
राष्ट्र राज्य के लिए सहयोगी है कैसे? स्पष्ट करें।
उत्तर:
राष्ट्र ‘एकता’ की भावना का प्रतीक है और यही एकता की भावना न केवल राज्य रूपी संस्था को जन्म देने में सहायक है वरन् राज्य को विश्व में एक शक्तिशाली रूप धारण करने में सहायता देती है।

प्रश्न 14.
राज्य और राष्ट्र में कोई दो अन्तर लिखिए।
उत्तर:
राज्य एवं राष्ट्र में दो प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं

  • राज्य एक राजनीतिक संगठन है जबकि राष्ट्र एक भावनात्मक संगठन है, जिसमें एकता की चेतना होती है।
  • राज्य के लिए निश्चित सीमा का होना अनिवार्य है जबकि राष्ट्र की कोई निश्चित सीमा नहीं होती।

प्रश्न 15.
राष्ट्रवाद का शाब्दिक अर्थ लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद जिसे अंग्रेज़ी में ‘Nationalism’ कहते हैं, अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Nation’ से बना है, जिसकी उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द नेशिओ (Natio) से हुई है, जिसका अर्थ है जन्म अथवा जाति। दूसरे शब्दों में एक ही नस्ल या जाति के साथ सम्बन्ध रखने वाले लोगों को राष्ट्र कहा जाता है तथा उन लोगों की अपने राष्ट्र के प्रति श्रद्धा को ‘राष्ट्रवाद’ कहा जाता है।

प्रश्न 16.
राष्ट्रवाद की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
डॉ० महाजन के अनुसार, “राष्ट्रवाद का अर्थ साधारणतः उस शक्ति से लिया जाता है जो एक निश्चित क्षेत्र में बसने वाले एक जाति के लोगों को इकट्ठा रखती है ताकि वे राज्य में मनमर्जी से प्रयोग की जाने वाली शक्ति के विरुद्ध अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें तथा बाहरी आक्रमण के विरुद्ध अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकें।”

प्रश्न 17.
राष्ट्रवाद के कोई दो प्रकार लिखिए।
उत्तर:

  • उदारवादी राष्ट्रवाद एवं
  • लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद।

प्रश्न 18.
राष्ट्रवाद के कोई दो निर्माणक तत्त्व लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के दो निर्माणक तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • नस्ल की समानता तथा
  • भाषा, संस्कृति तथा परम्पराओं की समानता।

प्रश्न 19.
राष्ट्रवाद के रास्ते में आने वाली किन्हीं दो बाधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के रास्ते में आने वाली दो बाधाएँ निम्नलिखित हैं

  • लोगों में क्षेत्रीय संकीर्णता की भावना का होना।
  • लोगों में संकुचित एवं निजी स्वार्थ की भावनाएँ होना।

प्रश्न 20.
राष्ट्रवाद के विकास में बाधाओं को दूर करने हेतु कोई दो उपाय लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के विकास में बाधाओं को दूर करने हेतु दो प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं

  • साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद का प्रचार करने वाले संगठनों पर पाबन्दी लगा दी जाए।
  • लोगों में क्षेत्रवाद की भावना को समाप्त करने के लिए देश के सभी क्षेत्रों का समान विकास करना चाहिए, प्रान्तीय तथा क्षेत्रीय भावनाओं के प्रचार पर पाबन्दी लगानी चाहिए।

प्रश्न 21.
एक राष्ट्र द्वारा अपने नागरिकों से की जाने वाली किन्हीं दो माँगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
एक राष्ट्र द्वारा अपने नागरिकों से की जाने वाली दो माँगें निम्नलिखित हैं

  • एक राज्य या राष्ट्र अपने देश के प्रत्येक नागरिक से देश की प्रभुसत्ता, एकता एवं अखण्डता को बनाए रखने की माँग करता है।
  • एक राज्य अपने देश के प्रत्येक नागरिक से देश के संविधान का पालन करने एवं इसके आदर्शों, संस्थाओं एवं राष्ट्रीय झण्डे एवं गान का सम्मान करने की मांग भी करता है।

प्रश्न 22.
आत्म-निर्णय का क्या अर्थ है?
उत्तर:
साधारण अर्थ में, आत्म-निर्णय का अर्थ है ‘स्वतन्त्र राज्य’ । आत्म-निर्णय के अपने दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से माँग करता है कि उसके पृथक राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता या स्वीकार्यता दी जाए।

प्रश्न 23.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग प्रायः किस आधार पर की जाती है?
उत्तर:
सामान्यतः ऐसी माँग उन लोगों की ओर से की जाती है जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें भाषा, धर्म, रीति-रिवाज, संस्कृति एवं ऐतिहासिक परम्पराओं के आधार पर साझी समझ एवं पहचान का बोध हो।

प्रश्न 24.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार सम्बन्धी माँग को निरुत्साहित करने का क्या समाधान हो सकता है?
उत्तर:
हमं एक संस्कृति एक राज्य के विचार या विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आधार पर नए स्वतन्त्र राज्यों के गठन के विचार को छोड़कर विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों को एक ही देश में उन्नति एवं विकास के लिए उन्हें संवैधानिक संरक्षण सम्बन्धी व्यवस्था की जा सकती है, जैसे भारत में अल्पसंख्यकों को भाषायी, धार्मिक आदि संरक्षण प्रदान किए गए हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्र एवं राज्य में कोई चार अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यद्यपि ये दोनों शब्द एक ही मूल धातु लेटिन शब्द ‘नेशिओ’ (Natio) से निकले हैं, फिर भी इनके अर्थ में वैज्ञानिक भेद है। यह भेद इतना सूक्षम है कि इनकी विभाजन रेखा ढूँढना कठिन हो जाता है। फिर भी हमें इन दोनों में इस प्रकार के भेद को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि आधुनिक राज्य राष्ट्र-राज्य हैं। राज्य राष्ट्र के रूप में विकसित हो रहे हैं। इसलिए प्रायः राज्य तथा राष्ट्र शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त किया जाता है। परन्तु इन दोनों शब्दों में मौलिक भेद हैं जो निम्नलिखित हैं

(1) राष्ट्र ऐसे लोगों का समूह है जो समान नस्ल, भाषा, रीति-रिवाज़, संस्कृति तथा ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर एकता की भावना में बंधे हुए हैं। राष्ट्र एक भावनात्मक संगठन है। इसके विपरीत राज्य एक राजनीतिक संगठन है। जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखता है।

(2) एक राज्य के लिए निश्चित प्रदेश अनिवार्य है। मातृभूमि के प्रति बलिदान की भावना निश्चित प्रदेश के कारण ही लोगों में पैदा होती है। परन्तु राष्ट्र की कोई निश्चित सीमा नहीं होती।

(3) राज्य के निश्चित चार तत्त्व अनिवार्य हैं जनसंख्या, निश्चित प्रदेश, संगठित सरकार तथा प्रभुसत्ता राज्य के अनिवार्य तत्त्व
गा तो राज्य नहीं बनेगा। परन्तु राष्ट्र के लिए कोई तत्त्व अनिवार्य नहीं । धर्म, रीति-रिवाज़, जाति, भाषा, भौगोलिक एकता कोई भी अथवा सभी तत्त्व राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकते हैं।

(4) एक राज्य में कई राष्ट्रीयताएँ होती हैं। भारत, स्विट्जरलैण्ड तथा अन्य देशों में एक नहीं कई राष्ट्रीयताओं के लोग बसे हुए हैं। परन्तु राष्ट्र में एक ही राष्ट्रीयता के लोग संगठित होते हैं।

प्रश्न 2.
क्या प्रत्येक राष्ट्र के लिए एक राज्य की अनिवार्यता होनी आवश्यक है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्र एक व्यापक शब्द है और इसका सम्बन्ध मुख्यतः आध्यात्मिक भावना से है और इसलिए यह निष्कर्ष हम आसानी से निकाल सकते हैं कि एक राष्ट्र के लिए राज्य की आवश्यकता नहीं है। जैसा कि गार्नर (Garmer) ने कहा है “राष्ट्र के लिए लोगों को राज्य के रूप में संगठित होना जरूरी नहीं है और न ही राज्य के लिए राष्ट्र होना आवश्यक है।”

परन्तु यहाँ यह भी स्पष्ट है कि उपर्युक्त कथन का अभिप्राय हमें यह भी नहीं लेना चाहिए कि इन दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता ही नहीं है। वास्तव में इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध भी पाया जाता है। जैसे राष्ट्र एकता की भावना का प्रतीक है और यही एकता की भावना न केवल राज्य रूपी संस्था को जन्म देने में सहायक है वरन् राज्य को विश्व में एक शक्तिशाली रूप धारण करने में सहायता देती है।

जैसे कि विश्व में बिखरे हुए यहूदियों की एकता की भावना और वर्षों प्रयत्नों के फलस्वरूप उन्होंने इज़राइल नामक राज्य को जन्म दिया और तत्पश्चात् अपनी इसी भावना के फलस्वरूप वह विश्व में एक शक्तिशाली राज्य के रूप में अपनी पहचान रखता है। अतः स्पष्ट है कि दोनों एक-दूसरे के लिए सहायक हैं, परन्तु फिर भी बिना राज्य के राष्ट्र हो सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 3.
रूढ़िवादी राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक देश की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है और उसका वर्तमान रूप एक लम्बे ऐतिहासिक विकास का परिणाम होता है। एक देश में कुछ ऐसी परम्पराएँ अथवा संस्थाएँ चली आ रही होती हैं जिनके साथ उस देश के लोगों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं, जिसके कारण वे उन्हें समाप्त नहीं करना चाहते। वे उन्हें जारी रखना चाहते हैं। ऐसी भावनात्मक लगन को रूढ़िवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया जाता है। इन्हीं भावनाओं के कारण ही लोकतन्त्र के वर्तमान युग में कई देशों में राजतन्त्र की संस्था बनी हुई है। इंग्लैण्ड में लॉर्ड सदन (House of Lords) का अस्तित्व भी इसी भावना के कारण ही आज तक बना हुआ है।

प्रश्न 4.
उदारवादी राष्ट्रवाद तथा लोकतान्त्रिक राष्ट्रवाद क्या है?
उत्तर:
उदारवादी राष्ट्रवाद-उदारवादी राष्ट्रवाद का विकास 17वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड के संवैधानिक संघर्ष तथा 18वीं शताब्दी में फ्रांस और अमेरिका की क्रान्तियों के सामूहिक प्रभाव के फलस्वरूप हुआ। उदारवादी राष्ट्रवाद के अनुसार, प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है और प्रत्येक राष्ट्र को यह अधिकार होता है कि वह अपने ढंग से अपनी राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक, सांस्कृतिक प्रगति कर सके। एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों पर अपनी इच्छा लादने का कोई अधिकार नहीं है।

अतः उदारवादी राष्ट्रवाद प्रत्येक राष्ट्र की स्वतन्त्रता का समर्थन करता है। यह साम्राज्यवाद का विरोधी है तथा विभिन्न राष्ट्रों के बीच आपसी प्रेम, भ्रातृत्व तथा सद्भावना का समर्थन करता है। यह ‘कानून का शासन’ (Rule of Law) का समर्थन करता है, लेकिन राष्ट्र तथा सरकार के नाम पर मनमानी करने की अनुमति नहीं देता।

लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद-लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद वास्तव में उदारवादी राष्ट्रवाद का ही सर्वोत्तम रूप है। यह कुछ लोगों को नहीं, बल्कि समस्त जनता को ही राष्ट्र का प्रतीक मानता है। यह रूढ़िवादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है और सामाजिक असमानताओं पर आधारित प्राचीन संस्थाओं के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार, सभी व्यक्तियों को राष्ट्रीय सम्पन्नता को भोगने का समान अधिकार होना चाहिए।

लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद लोकतन्त्रीय मूल्यों (Democratic Values) पर आधारित है और स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व भाव को लोकतन्त्र का आधार मानकर उसका समर्थन करता है। इस व्यवस्था में प्रभुसत्ता लोगों के पास होती है तथा राष्ट्रों के आत्म-निर्णय के अधिकार को स्वीकार किया जाता है।

प्रश्न 5.
सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद उदारवादी तथा लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध है। इस राष्ट्रवाद के समर्थक व्यक्ति को साधन तथा राज्य को साध्य (End) मानते हैं और व्यक्ति को राज्य के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान देने के लिए कहा जाता है। जर्मनी में हिटलर के अधीन राष्ट्रवाद तथा इटली में मुसोलिनी के अधीन राष्ट्रवाद सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद के उदाहरण हैं। ऐसी व्यवस्था एक ही विचारधारा पर आधारित होती है और उसी विचारधारा को सरकारी मान्यता प्राप्त होती है। ऐसी व्यवस्था में अधिकारों के मुकाबले, कर्तव्यों तथा अनुशासन पर अधिक बल दिया जाता है।

ऐसा शासन राष्ट्र के लिए युद्ध को आवश्यक मानता है और राज्य के क्षेत्रीय विस्तार का समर्थन करता है। देश के लोगों में राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रबल बनाने के लिए सर्वसत्तावादी शासक लोगों को यह एहसास करवाने का प्रयत्न करते हैं कि वे श्रेष्ठ जाति एवं नस्ल के लोग हैं तथा उनकी नस्ल विश्व में सबसे उत्तम नस्ल है और उन्हें अन्य लोगों पर शासन करने का अधिकार है। ऐसा राष्ट्रवाद विश्व-शान्ति के लिए बहुत खतरनाक होता है, क्योंकि यह युद्ध का समर्थन करता है तथा उसे बढ़ावा देता है।

प्रश्न 6.
मार्क्सवादी राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मार्क्सवादी राष्ट्रवाद पूँजीवाद राष्ट्रवाद, उदारवादी तथा लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद का विरोधी है। यह मजदूरों की तानाशाही का समर्थन तथा साम्राज्यवाद का विरोध करता है। इस राष्ट्रवाद के अनुसार, रूढ़िवादी और लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद पूँजीवाद का समर्थन करते हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य राष्ट्रहित का साधन न होकर पूँजीपतियों के हितों को सुरक्षित रखना होता है। इस व्यवस्था में श्रमिक वर्ग का शोषण किया जाता है और उनके हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

मार्क्सवादी राष्ट्रवाद का उद्देश्य वर्ग-रहित समाज की स्थापना करना है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार कार्य करे और अपनी आवश्यकतानुसार वेतन प्राप्त करे। मार्क्सवादी राष्ट्रवाद पूँजीवाद को समाप्त करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्ति में विश्वास रखता है। यह प्रत्येक राष्ट्र को आत्म-निर्णय (Self-determination) का अधिकार देने का समर्थन करता है। चीनी राष्ट्रवाद मार्क्सवादी राष्ट्रवाद का मुख्य उदाहरण है।

प्रश्न 7.
राष्ट्रवाद के विकास में आने वाली किन्हीं चार बाधाओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद की भावना के विकास में आने वाली चार प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं

1. धर्म की भिन्नता-धर्म की एकता जहाँ लोगों में एकता की भावना पैदा करती है, वहाँ धर्म की भिन्नता एकता को नष्ट करती है। धर्म के आधार पर प्रायः लोगों के बीच दंगे-फसाद होते रहते हैं, जिनके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता नष्ट होती है और देश की उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है। भारत में धार्मिक विभिन्नता के कारण समय-समय पर साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। सन् 1947 में भारत का विभाजन भी धर्म के ही आधार पर हुआ था।

2. भाषायी भिन्नता-धार्मिक विभिन्नता की भाँति भाषायी भिन्नता भी राष्ट्रवाद के विकास में बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोग अपने को एक-दूसरे से अलग समझते हैं। भारत की स्थिति इस बात का स्पष्ट उदाहरण है। दक्षिणी भारत के लोग आज भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

3. संकुचित दलीय वफादारियाँ-आधुनिक लोकतन्त्रीय युग में राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य है। कई राजनीतिक दल ऐसे होते हैं जिनका दृष्टिकोण बड़ा संकीर्ण होता है, जिसके पारणाम नका दृष्टिकोण बड़ा संकीर्ण होता है, जिसके परिणामस्वरूप लोग अलग-अलग गुटों में बँट जाते हैं। उनमें आपसी ईर्ष्या-द्वेष की भावना बढ़ती है, जो राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत हानिकारक होती है। कई बार राजनीतिक दल अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए राष्ट्रीय हितों को बलिदान कर देते हैं। वे दल के हितों को राष्ट्र के हितों से बड़ा समझने लगते हैं। इससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुँचती है।

4. स्वार्थ की भावना-स्वार्थ की भावना भी राष्ट्रवाद के विकास के मार्ग में एक बड़ी बाधा है। स्वार्थी व्यक्ति केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं और उन्हें साधने का ही प्रयत्न करते हैं। उन्हें दूसरों के हितों की परवाह नहीं होती। कई बार तो ऐसे व्यक्ति अपने हितों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय हितों तक को कुर्बान कर देते हैं। सभी राष्ट्र-विरोधी कार्य; जैसे तस्करी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी, मिलावट तथा रिश्वतखोरी आदि स्वार्थी लोगों के द्वारा ही किए जाते हैं।

प्रश्न 8.
आत्म- निर्णय के अधिकार का क्या अर्थ है?
अथवा
आत्म-निर्णय के अधिकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आत्म-निर्णय के अधिकार का आधार वास्तव में व्यक्ति का मौलिक अधिकार ही है। साधारण अर्थ में आत्म-निर्णय का अर्थ है ‘स्वतन्त्र राज्य’ । आत्म-निर्णय के अपने दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से माँग करता है कि उसके पृथक राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाए। सामान्यतः ऐसी माँग उन लोगों की ओर से आती है जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साँझी पहचान का बोध हो। कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतन्त्र राज्य बनाने की उस इच्छा से भी जुड़ जाते हैं।

इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की सुरक्षा से होता है। डॉ० एच०ओ० अग्रवाल (Dr. H.O. Aggarwal) ने आत्म-निर्णय सिद्धान्त को दो भागों में बाँटा है-बाह्य तथा आन्तरिक। प्रथम बाह्य भाग या पहलू के कारण राष्ट्र की जनसंख्या या तो पृथक् होकर या स्वतन्त्र होकर अथवा स्वतन्त्र राज्य का निर्माण करके अपनी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति का निर्धारण करती है।

द्वितीय, आन्तरिक पहलू के कारण उनके आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनके अधिकारों को मान्यता देती है। संक्षेप में, आत्म-निर्णय का तात्पर्य एक राज्य में रहने वाले लोगों की जनसंख्या को उसके बाह्य व आन्तरिक पहलुओं पर स्वयं निर्णय लेने के अधिकार से लिया जाता है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय सिद्धान्त के पक्ष एवं विपक्ष में दो-दो तर्कों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पक्ष में तर्क-राष्ट्रीय आत्म-निर्णय सिद्धान्त के पक्ष में दो तर्क निम्नलिखित हैं

(1) यह सिद्धान्त लोकतन्त्र एवं प्रतिनिधि शासन के लिए अधिक उपयोगी है, क्योंकि लोकतन्त्र की सफलता राज्य के नागरिकों की एकता पर निर्भर करती है, जबकि एक राष्ट्रीय राज्य में लोगों में एकता की सम्भावना अधिक होने की प्रवृत्ति विद्यमान होती है।

(2) यह सिद्धान्त राज्य की उन्नति या विकास की दृष्टि से भी अधिक उपयुक्त है, क्योंकि एक राष्ट्रीय राज्य में नागरिकों में एकता, पारस्परिक स्नेह एवं सहयोग तथा राष्ट्र के प्रति भक्तिभाव की प्रवृतियाँ अधिक देखने को मिलती हैं। अतः ऐसी प्रवृत्तियाँ प्रत्येक नागरिक को जहाँ राष्ट्र के विकास में भागीदार बनाने में प्रेरित करती हैं, वहाँ राज्य के सम्पूर्ण विकास की सम्भावना स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है।

विपक्ष में तर्क-राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के विपक्ष में दो निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

(1) इस सिद्धान्त से तानाशाही की प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलने की अधिक सम्भावना हो जाती है, क्योंकि ऐसे राज्यों में जातीय श्रेष्ठता का झूठा अभिमान आ जाता है।

(2) एक राष्ट्रीय राज्य का संकुचित दृष्टिकोण उस राज्य की प्रगति में बाधा उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि ऐसे राज्य अपने आप में सीमित रहते हैं और अन्य राज्यों से सम्पर्क स्थापित करने में संकोच करते हैं जिसके फलस्वरूप उनकी उन्नति या प्रगति अवरुद्ध होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रवाद की परिभाषा दीजिए। इसके मुख्य प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद एक विशाल धारणा है, जिसके कारण इसकी कोई निश्चित परिभाषा देना बहुत कठिन है। यह तो एक भावना है जिसे व्यक्ति भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट करता है। इसे हम अनुभव तो कर सकते हैं, परन्तु देख नहीं सकते।

राष्ट्रवाद, जिसे अंग्रेजी में (Nationalism’ कहते हैं, अंग्रेजी भाषा के शब्द (Nation’ से बना है, जिसकी उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द ‘नेशिओ’ (‘Natio’) से हुई है, जिसका अर्थ है-जन्म अथवा जाति। अतः राष्ट्र का अर्थ हुआ वह जन-समूह जो वंश अथवा जन्म की एकता से बंधा हुआ है। दूसरे शब्दों में, एक ही नस्ल या जाति के साथ सम्बन्ध रखने वाले लोगों को राष्ट्र कहा जाता है तथा उन लोगों की अपने राष्ट्र के प्रति श्रद्धा को राष्ट्रवाद (Nationalism) कहा जा सकता है। राष्ट्रवाद की धारणा का विकास राष्ट्रीय-राज्य (Nation-State) की धारणा के विकास के साथ हुआ है।

राष्ट्रीय राज्य के सिद्धान्त का अर्थ है कि प्रत्येक राज्य की सीमाओं का आधार राष्ट्रीय होना चाहिए, भौगोलिक नहीं। अतः राष्ट्र से अभिप्राय लोगों के उस समूह से है जो अपने को एक अनुभव करते हैं तथा अन्य लोगों से भिन्न महसूस करते हैं। ऐसा समूह या तो राजनीतिक रूप से पूर्णतः स्वतन्त्र होता है या स्वतन्त्र होने की इच्छा रखता है। राष्ट्र में रहने वाले लोगों की जो भावना उन्हें राष्ट्र के प्रति वफादार रहने के लिए प्रेरित करती है, उस भावना को हम राष्ट्रवाद कहते हैं। राष्ट्रवाद की परिभाषाएँ (Definitions of Nation)-विभिन्न विद्वानों द्वारा राष्ट्रवाद की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी गई हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. डॉ० महाजन (Dr. Mahajan) के अनुसार, “राष्ट्रवाद का अर्थ साधारणतः उस शक्ति से लिया जाता है जो एक निश्चित क्षेत्र में बसने वाले एक जाति के लोगों को इकट्ठा रखती है, ताकि वे राज्य में मनमर्जी से प्रयोग की जाने वाली शक्ति के विरुद्ध अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें तथा बाहरी आक्रमण के विरुद्ध अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकें।”

2. सी०डी० बर्नज़ (C.D. Burns) के अनुसार, “यह एक भावात्मक राजनीतिक धारणा है जिसका सीधा सम्बन्ध शक्ति के लिए संघर्ष से है, जो राज्यों के व्यक्तित्व का सम्मान करता है। कानून तथा सरकारों के बीच अन्तरों को स्वीकार करती है तथा आदेशों और विश्वासों के आधार पर एक समूह को दूसरे समूह से अलग करती है।”

3. हांस कोहिन (Hans Kohin) के अनुसार, “राष्ट्रवाद मन की स्थिति तथा सचेत रूप में किया गया कार्य है।”

4. जोसफ डनर (Joseph Dunner) के शब्दों में, “राष्ट्रवाद एक आधुनिक राजनीतिक विचारधारा है जो राष्ट्र को एक सम्पूर्ण सम्प्रदाय या समाज मानती है। इस विचारधारा के अनुसार, राजनीतिक संगठन का आदर्श रूप वह है जिसमें राज्य का अधिकार क्षेत्र उस क्षेत्र तक लागू होता है जिस क्षेत्र में घना राष्ट्र रहता हो।”

राष्ट्रवाद की ऊपर दी गई परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद उस भावना का नाम है जा सकता है कि राष्ट्रवाद उस भावना का नाम है जो व्यक्ति को अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठावान रहने के लिए प्रेरणा देती है। दूसरे शब्दों में, अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम तथा भक्ति की लगन को राष्ट्रवाद कहते हैं। यह एक ऐसी भावना है जो राष्ट्र के निर्माण तथा संचालन का आधार होती है।

राष्ट्रवाद के प्रकार (Kinds of Nationalism)-राष्ट्रवाद मुख्य रूप से देश-प्रेम और देश-भक्ति की भावना है, जिसके भिन्न-भिन्न रूप नहीं हो सकते, परन्तु विभिन्न देशों और विभिन्न स्तरों पर राष्ट्रवाद के कई रूप दिखाई देते हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. रूढ़िवादी राष्ट्रवाद-प्रत्येक देश की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है और उसका वर्तमान रूप एक लम्बे ऐतिहासिक विकास का परिणाम होता है। एक देश में कुछ ऐसी परम्पराएँ अथवा संस्थाएँ चली आ रही होती हैं जिनके साथ उस देश के लोगों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं, जिसके कारण वे उन्हें समाप्त नहीं करना चाहते। वे उन्हें जारी रखना चाहते हैं। ऐसी भावनात्मक लगन को रूढ़िवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया जाता है। इन्हीं भावनाओं के कारण ही लोकतन्त्र के वर्तमान युग में कई देशों में राजतन्त्र की संस्था बनी हुई है। इंग्लैण्ड में लॉर्ड सदन (House of Lords) का अस्तित्व भी इसी भावना के कारण ही आज तक बना हुआ है।

2. उदारवादी राष्ट्रवाद-उदारवादी राष्ट्रवाद का विकास 17वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड के संवैधानिक संघर्ष तथा 18वीं शताब्दी में फ्रांस और अमेरिका की क्रान्तियों के सामूहिक प्रभाव के फलस्वरूप हुआ। उदारवादी राष्ट्रवाद के अनुसार, प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है और प्रत्येक राष्ट्र को यह अधिकार होता है कि वह अपने ढंग से अपनी राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक प्रगति कर सके।

एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों पर अपनी इच्छा लादने का कोई अधिकार नहीं है। अतः उदारवादी राष्ट्रवाद प्रत्येक राष्ट्र की स्वतन्त्रता का समर्थन करता है। यह साम्राज्यवाद का विरोधी है तथा विभिन्न राष्ट्रों के बीच आपसी प्रेम, भ्रातृत्व तथा सद्भावना का समर्थन करता है। यह ‘कानून का शासन’ ‘Rule of Law’ का समर्थन करता है, लेकिन राष्ट्र तथा सरकार के नाम पर मनमानी करने की अनुमति नहीं देता।

3. लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद-लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद वास्तव में उदारवादी राष्ट्रवाद का ही सर्वोत्तम रूप है। यह कुछ लोगों को नहीं, बल्कि समस्त जनता को ही राष्ट्र का प्रतीक मानता है। यह रूढ़िवादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है और सामाजिक असमानताओं पर आधारित प्राचीन संस्थाओं के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार, सभी व्यक्तियों को राष्ट्रीय सम्पन्नता को भोगने का समान अधिकार होना चाहिए।

लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद लोकतन्त्रीय मूल्यों (Democratic Values) पर आधारित है और स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व भाव को लोकतन्त्र का आधार मानकर उसका समर्थन करता है। इस व्यवस्था में प्रभुसत्ता लोगों के पास होती है तथा राष्ट्रों के आत्म-निर्णय के अधिकार को स्वीकार किया जाता है।

4. सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद-सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद उदारवादी तथा लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध है। इस राष्ट्रवाद के र व्यक्ति को साधन तथा राज्य को साध्य (End) मानते हैं और व्यक्ति को राज्य के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान देने के लिए कहा जाता है। जर्मनी में हिटलर के अधीन राष्ट्रवाद तथा इटली में मुसोलिनी के अधीन राष्ट्रवाद सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद के उदाहरण हैं।

ऐसी व्यवस्था एक ही विचारधारा पर आधारित होती है और उसी विचारधारा को सरकारी मान्यता प्राप्त होती है। ऐसी व्यवस्था में अधिकारों के मुकाबले, कर्तव्यों तथा अनुशासन पर अधिक बल दिया जाता है। ऐसा शासन राष्ट्र के लिए युद्ध को आवश्यक मानता है और राज्य के क्षेत्रीय विस्तार का समर्थन करता है। देश के लोगों में राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रबल बनाने के लिए सर्वसत्तावादी शासक लोगों को यह एहसास करवाने का प्रयत्न करते हैं कि वे श्रेष्ठ जाति एवं नस्ल के लोग हैं तथा उनकी नस्ल विश्व में सबसे उत्तम नस्ल है और उन्हें अन्य लोगों पर शासन करने का अधिकार है। ऐसा राष्ट्रवाद विश्व-शान्ति के लिए बहुत खतरनाक होता है, क्योंकि यह युद्ध का समर्थन करता है तथा उसे बढ़ावा देता है।

5. मार्क्सवादी राष्ट्रवाद-मार्क्सवादी राष्ट्रवाद पूँजीवादी राष्ट्रवाद, उदारवादी तथा लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद का विरोधी है। यह मज़दूरों की तानाशाही का समर्थन तथा साम्राज्यवाद का विरोध करता है। इस राष्ट्रवाद के अनुसार, रूढ़िवादी और लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद पूँजीवाद का समर्थन करते हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य राष्ट्रहित का साधन न होकर पूँजीपतियों के हितों को सुरक्षित रखना होता है।

इस व्यवस्था में श्रमिक वर्ग का शोषण किया जाता है और उनके हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता । मार्क्सवादी राष्ट्रवाद का उद्देश्य वर्ग-रहित समाज की स्थापना करना है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार कार्य करे और अपनी आवश्यकतानुसार वेतन प्राप्त करे। मार्क्सवादी राष्ट्रवाद पूँजीवाद को समाप्त करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्ति में विश्वास रखता है। यह प्रत्येक राष्ट्र को आत्म-निर्णय (Self-determination) का अधिकार देने का समर्थन करता है। चीनी राष्ट्रवाद मार्क्सवादी राष्ट्रवाद का मुख्य उदाहरण है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रवाद के निर्माणात्मक तत्त्वों का वर्णन कीजिए। क्या इनमें से कोई तत्त्व आवश्यक है?
अथवा
राष्ट्रवाद के विभिन्न तत्त्वों या कारकों का वर्णन कीजिए।
अथवा
राष्ट्रवाद के विकास में सहायक तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के निर्माणात्मक तत्त्व (Determinates of Nationalism)-राष्ट्रवाद के निर्माण में सहायक तत्त्वों का उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है

1. भौगोलिक एकता या सामान्य मातृभूमि-राष्ट्रवाद को जन्म देने वाले तत्त्वों में भौगोलिक एकता एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो व्यक्ति-समूह काफी लम्बे समय तक एक निश्चित क्षेत्र पर, जिसके सभी भाग आपस में मिले हुए हैं, मिल-जुलकर रहते हैं, तो उनके जीवन में एक ऐसी एकता की उत्पत्ति हो जाती है जो राष्ट्रीयता का सार है।

इसका अभाव राष्ट्रीयता के निर्माण में बहुत बड़ी बाधा बन सकता है; जैसे पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) तथा पश्चिमी पाकिस्तान में काफी भौगोलिक दूरी के कारण राष्ट्रीयता का अभाव था। एक निश्चित प्रदेश में रहने से वहाँ के निवासियों में भूमि के प्रति काफी मान तथा श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है और वे उस भूमि को अपनी मातृ तथा पितृ-भूमि कहने लगते हैं और सभी मिलकर उसकी रक्षा करने के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान देने को तैयार रहते हैं।

एक ही स्थान पर रहने वाले लोगों में आपस में एक-जैसे रीति-रिवाज़, समान रहन-सहन तथा खान-पान का विकास होता है जोकि राष्ट्रीयता के निर्माण में बहुत बड़ा सहयोग देता है। उदाहरणस्वरूप, यहूदी लोगों को अरबों के आक्रमण के कारण फिलिस्तीन से भागना पड़ा और वे यूरोप के कई भागों में बिखरे रहे, परन्तु उन्होंने अपने हृदय से अपनी मातृ-भूमि को कभी नहीं निकाला और उसकी स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष जारी रखा।

सन् 1948 में जब अंग्रेजों ने फिलिस्तीन खाली कर दिया तो ये लोग वहाँ आकर बस गए और यहूदी राज्य की स्थापना की। इसी प्रकार पोलैंड निवासियों ने अपने राज्य पोलैंड पर दूसरे देश का कब्जा हो जाने के बाद भी अपनी राष्ट्रीयता को जागृत रखा, अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न जारी र पश्चात् फिर से वे अपना स्वतन्त्र राज्य (पोलैंड) स्थापित करवाने में सफल हो गए।

2. नस्ल की समानता-एक ही नस्ल में पैदा होने वाले लोगों में स्वाभाविक ही एकता की भावना उत्पन्न हो जाती है। लीकॉक और बर्गेस (Leacock and Burgess) आदि लेखक तो नस्ल को राष्ट्र का मुख्य आधार मानते हैं। इसी प्रकार गिलक्राइस्ट (Gilchrist) ने भी लिखा है, “एक ही नस्ल से उत्पत्ति के प्रति विश्वास-चाहे वह वास्तविक हो या अवास्तविक, राष्ट्रीयता का बन्धन होता है।

प्रत्येक राष्ट्रीयता की ऐतिहासिक उत्पत्ति की पौराणिक कथाएँ होती हैं।” इस प्रकार नस्ल एकता की भावना राष्ट्रीयता को जन्म देने में एक बहुत ही प्रबल शक्ति है, परन्तु यह कहना उचित नहीं है कि इस एकता के बिना राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि आजकल जातियों अथवा नस्लों का ऐसा सम्मिश्रण हो गया है कि कोई भी राष्ट्र अपनी शुद्धता का दावा नहीं कर सकता। लगभग प्रत्येक राष्ट्रीय इकाई में कई जातियों का मिश्रण हो गया है। उदाहरणस्वरूप स्विट्ज़रलैंड, कनाडा, अमेरिका आदि कई देशों में कई नस्लों का सम्मिश्रण मिलता है।

भारत तथा रूस आदि में भी यही बात मिलती है। स्टालिन ने भी लिखा है,“आधुनिक इटालियन राष्ट्र का निर्माण रोमन, ट्रयूटन, इटरस्कन, ग्रीक, अरब आदि लोगों से हुआ था। फ्रांसीसी राज्य का निर्माण गाल, रोमन, ब्रिटिश, ट्यूटन आदि लोगों से हुआ था। यही ब्रिटिश, जर्मन अथवा अन्य राष्ट्रों के विषय में कहा जाना चाहिए, जो अनेक नस्लों तथा कबीलों से मिलकर राष्ट्र बने हैं।”

दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ पर एक ही नस्ल के लोगों ने एक से अधिक राष्ट्रों का निर्माण किया। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश और स्कॉट लोग लगभग एक ही नस्ल के हैं, फिर भी उनकी राष्ट्रीयता भिन्न-भिन्न है। इसलिए हम कह सकते हैं कि यद्यपि नस्ल राष्ट्रवाद के निर्माण में आवश्यक योग देती है, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि यह निर्णायक तत्त्व है।

3. धर्म की समानता-राष्ट्रवाद के निर्माण में धर्म का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। धर्म की समानता लोगों में एकता की भावना पैदा कर देती है जो राष्ट्रवाद का मुख्य आधार है। उदाहरणस्वरूप, जिस समय मुगल सम्राट् औरंगजेब ने हिन्दुओं पर धर्म के नाम पर अनेक अत्याचार किए और उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया तो हिन्दुओं में राष्ट्रवाद को जीवित रखने वाली एकता की भावना और अधिक मजबूत हुई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सन् 1947 में भारत का बंटवारा केवल धर्म के नाम पर हुआ और अब भी पाकिस्तान में राष्ट्रवाद की भावना धर्म पर ही आधारित है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ धार्मिक भेदभाव के कारण राज्य तथा राष्ट्र भिन्न-भिन्न हो गए हैं। सन् 1815 में वियाना काँग्रेस (Congress of Vienna) से बेल्जियम तथा हॉलैंड को मिलाकर एक राज्य नीदरलैंड (Neatherland) की स्थापना की गई, परन्तु धार्मिक भेदभाव के कारण बेल्जियम के लोग रोमन कैथोलिक (Roman Catholic) और हॉलैंड के प्रोटेस्टेंट (Protestant) थे, दोनों इकट्ठे न रह सके.और सन् 1831 में अलग-अलग हो गए।

आधुनिक युग में राष्ट्रीयता के निर्माण में धर्म का महत्त्व काफी कम हो गया है। जैसा कि बर्गेस (Burgess) ने भी लिखा है, “किसी युग में धार्मिक एकता राष्ट्रीय विकास में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना जाता था, परन्तु आधुनिक काल में धार्मिक स्वतन्त्रता दे दी गई है और मज़हब का प्रभाव काफी कम हो गया है।” आज के युग में धर्म-निरपेक्षता के कारण लोगों के राष्ट्रीय जीवन में धर्म काफी पीछे हटता जा रहा है।

इसके अतिरिक्त कई लोग, विशेष रूप से साम्यवादी धर्म में विश्वास नहीं रखते, जिससे धर्म का महत्त्व काफी कम हो गया है। हम देखते हैं कि भारत, जर्मनी तथा स्विट्जरलैंड आदि राज्यों में लोग धार्मिक भेदभाव होते हुए भी राष्ट्रवाद के सूत्र में बंधे हुए हैं। अतः हम यह कह सकते हैं कि यद्यपि धर्म की समानता राष्ट्रवाद के निर्माण में बहुत सहयोगी होती है, परन्तु यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है।

4. भाषा, संस्कृति तथा परम्पराओं की समानता भाषा की समानता भी राष्ट्रवाद का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक ही भाषा बोलने वाले लोगों में बहुत ही जल्दी तथा आसानी से सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं और यदि किसी देश में भाषा की समानता न हो तो वहाँ एक-दूसरे के साथ सम्पर्क स्थापित करने में काफी कठिनाई होती है। इस सम्बन्ध में म्यूर (Muir) ने लिखा है, “विभिन्न जातियों और नस्लों को प्रेम सत्र में बाँधने वाली शक्ति केवल भाषा है। विचारों की एकता तभी आ भाषा आ जाएँ।”

इसी प्रकार स्टालिन (Stalin) ने लिखा है,”राष्ट्रीय एकता की कल्पना समान भाषा के बिना नहीं की जा सकती, जबकि राज्य के लिए समान भाषा का होना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार समान भाषा राष्ट्र की एक मुख्य विशेषता है।” इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि एक ही भाषा बोलने वाले लोगों को एक-दूसरे को समझने में बहुत ही आसानी होती है और भाषा उनको एक-दूसरे के निकट लाकर उनमें राष्ट्रवाद की भावना को जागृत करने में बहुत सहायता करती है। भारत में अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेजी भाषा ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना के विकास में बहुत ही योगदान दिया।

इसके अतिरिक्त एक-सी संस्कृति अर्थात् समान रहन-सहन, समान रीति-रिवाज, समान खान-पान, समान वेश-भूषा तथा समान कला-साहित्य आदि लोगों में एकता की भावना को, जो राष्ट्रीयता का मुख्य आधार है, पैदा करने में बहुत सहयोग देते हैं। यही कारण है कि जब कोई राज्य दूसरे राज्य को जीतकर अपना कब्जा जमा लेता है तो वहाँ के लोगों पर पहले अपनी भाषा तथा संस्कृति थोपने की कोशिश करता है, ताकि वे लोग अपनी संस्कृति को भूल जाएँ जिससे वह उन पर अपना अधिकार स्थायी रूप से स्थापित कर सकें।

परन्तु ये कहना उचित नहीं है कि भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाले लोग एक राष्ट्रीयता का निर्माण नहीं कर सकते। हमारे सामने अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जहाँ पर भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वालों ने एक राष्ट्र का निर्माण किया है। सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण हमारा अपना ही देश भारतवर्ष है। भारत में 22 भाषाएँ हैं, फिर भी यहाँ राष्ट्रीयता की भावना बलवती और सुदृढ़ है।

इसी प्रकार स्विट्ज़रलैंड में चार भाषाएँ–जर्मन, फ्रेंच, इटालियन तथा रोमन बोली जाती हैं, फिर भी वहाँ एक ही राष्ट्रीयता की भावना है। दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जहाँ एक ही भाषा बोलने वाले लोगों ने अपने को अलग-अलग राष्ट्रों में संगठित कर लिया है; जैसे अमेरिका, इंग्लैंड तथा ऑस्ट्रेलिया के लोग एक ही भाषा अर्थात् अंग्रेज़ी बोलते हैं, परन्तु इनकी राष्ट्रीयता अलग-अलग है।

5. समान राजनीतिक आकांक्षाएँ-आजकल समान राजनीतिक आकांक्षाओं को राष्ट्रवाद के निर्माण के लिए समान धर्म तथा समान भाषा आदि से भी अधिक महत्त्व दिया जाता है। एक ही सरकार के अधीन रहने तथा एक ही प्रकार के कानूनों का पालन करने से लोगों में एकता की भावना पैदा हो जाती है।

यह एकता उस समय और भी अधिक मजबूत होती है जब वह किसी विदेशी सरकार के अधीन रहते हों, क्योंकि अधीनस्थ लोग अपनी स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए और अपने राष्ट्र का निर्माण करने के लिए आसानी से संगठित हो जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, भारत में राष्ट्रवाद की भावना उस समय मजबूत हुई जब इन्होंने मिलकर अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध अपना संघर्ष शुरु किया। एशिया तथा अफ्रीका के कुछ अधीनस्थ देशों में इसी तत्त्व ने राष्ट्रीयता की लहर फैलाई। इसी प्रकार भारतवर्ष पर 1962 ई० में किए गए चीनी आक्रमण ने भारतवासियों में राष्ट्रवाद की भावना को और दृढ़ कर दिया।

6. समान इतिहास समान इतिहास व्यक्तियों में राष्ट्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। लोगों की समान स्मृतियाँ, समान जय-पराजय, समान राष्ट्रीय अभिमान की भावनाएँ, समान राष्ट्रीय वीर, समान लोक गीत आदि उनमें राष्ट्रीयता की भावना को प्रबल बनाने में बहुत योग देते हैं। किसी देश की जनता का विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध किया गया सामूहिक संघर्ष उनमें राष्ट्रीयता की भावना भर देता है।

श्री जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, भगतसिंह जैसे नेताओं ने भारत के इतिहास में शानदार कार्य किए जिन्हें कोई भी भारतीय भुला नहीं सकता, क्योंकि उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की भावना जागृत की। रैम्जे म्यूर (Ramsey Muir) ने साँझे इतिहास के तत्त्व के महत्त्व को बताते हुए लिखा है, “बहादुरी से प्राप्त की गई उपलब्धियाँ तथा बहादुरी से झेले गए कष्ट, दोनों ही राष्ट्रवाद की भावना के लिए ताकतवर भोजन हैं। भूत में उचित सम्मान, वर्तमान में पूर्ण विश्वास तथा भविष्य की आशा, ये सभी राष्ट्रीय भावनाओं को मजबूत बनाते हैं तथा उन्हें स्थिर करते हैं।”

7. लोक इच्छा-राष्ट्रवाद के निर्माण में सहायता देने वाला एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व लोगों में ‘राष्ट्रवाद की इच्छा’ का होना है। मैज़िनी (Mazzini) ने लोक-इच्छा को राष्ट्रवाद का आधार बताया है। डॉ० अम्बेडकर (Dr.Ambedkar) ने लोक-इच्छा को भारत में राष्ट्रवाद के विकास में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना है। लोगों में जब तक राष्ट्र बनाने की इच्छा प्रबल नहीं होती, तब तक किसी भी देश में राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं हो सकता।

8. समान हित-समान सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हित भी लोगों में एकता तथा राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न करने में सहायता करते हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड के अधीन 13 उपनिवेशों ने अपने समान आर्थिक हितों की रक्षा हेतु संगठन बनाकर इंग्लैंड के विरुद्ध विद्रोह किया और विजयी होकर अपने समान राजनीतिक हितों के कारण ही अपने को संयुक्त राज्य अमेरिका के संघ में गठित किया।

सन् 1707 में इंग्लैंड तथा स्कॉटलैंड के संघ स्थापित होने का मुख्य कारण उनका समान आर्थिक हित था। इसी प्रकार भारत में सन् 1947 से पहले भाषा तथा धर्म आदि की विभिन्नताएँ होते हुए भी राष्ट्रवाद की भावना जागृत हुई, क्योंकि अंग्रेजों के अधीन रहने के कारण उनके आर्थिक तथा राजनीतिक हित एक थे। अतः हम यह कह सकते हैं कि समान हित (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक) राष्ट्रवाद के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दिए गए तत्त्व राष्ट्रवाद के निर्माण में सहयोगी हैं, परन्तु उनमें कोई भी तत्त्व अनिवार्य नहीं है। एकता तथा राष्ट्रवाद की भावना की उत्पत्ति तथा विकास के लिए इन सभी तत्त्वों का एक साथ शामिल होना आवश्यक नहीं है। ऐसा राष्ट्रवाद मिलना बहुत कठिन है जिसमें ये सभी तत्त्व मौजूद हों। इनमें से कुछ तत्त्वों के मिल जाने से ही राष्ट्रवाद का निर्माण हो जाना सम्भव है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद के रास्ते में आने वाली बाधाओं का उल्लेख करते हुए उन्हें दूर करने के सुझाव दीजिए।
उत्तर:
निम्नलिखित तत्त्व राष्ट्रवाद की भावना के विकास में बाधाएँ हैं

1. धर्म की भिन्नता-धर्म की एकता जहाँ लोगों में एकता की भावना पैदा करती है, वहाँ धर्म की भिन्नता एकता को नष्ट करती है। धर्म के आधार पर प्रायः लोगों के बीच दंगे-फसाद होते रहते हैं, जिनके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता नष्ट होती है और देश की उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है। भारत में धार्मिक विभिन्नता के कारण समय-समय पर साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। सन् 1947 में भारत का विभाजन भी धर्म के ही आधार पर हुआ था।

2. भाषायी भिन्नता धार्मिक विभिन्नता की भांति भाषायी भिन्नता भी राष्ट्रवाद के विकास में बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोग अपने को एक-दूसरे से अलग समझते हैं। भारत की स्थिति इस बात का स्पष्ट उदाहरण हैं। दक्षिणी भारत के लोग आज भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। कई बार तो भाषा के नाम पर कुछ क्षेत्र देश से अलग होने की बात भी कर देते हैं।

तमिलनाडु तथा केरल के बीच भी भाषा के आधार पर झगड़े होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले लोग अलग राज्यों की माँग करते हैं। वास्तव में भारत में राज्यों का गठन भाषष के आधार पर ही किया गया है। आज भी भारत में भाषा की समस्या बनी हुई है जो राष्ट्रवाद के मार्ग में मुख्य बाधा है।

3. क्षेत्रवाद-व्यक्ति का जन्म जिस स्थान पर होता है तथा जहाँ पर उसका पालन-पोषण होता है, उस क्षेत्र (भूमि) के साथ व्यक्ति का विशेष भावनात्मक प्यार हो जाता है। ऐसा प्यार अथवा लगन ही क्षेत्रवाद का आधार बनता है। जब विभिन्न क्षेत्रों में बसे लोगों में आपस में टकराव होता है तो वह स्थिति लोगों में क्षेत्रवाद की भावना को जन्म देती है। ऐसी भावना राष्ट्रवाद के विकास के लिए हानिकारक सिद्ध होती है। आज भी भारत में लोग अपने को भारतवासी कम तथा पंजाबी, हरियाणवी, गुजराती, बंगाली, तमिल आदि अधिक समझते हैं।

4. जातिवाद-जातिवाद भी राष्ट्रवाद के विकास में बाधा उत्पन्न करता है। जिस समाज में भिन्न-भिन्न जातियों से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति रहते हैं, वहाँ उनमें भावनात्मक एकता अधिक मजबूत नहीं हो पाती। अपनी जाति के प्रति व्यक्ति की लगन तथा वफादारी उसकी सोच-समझ को सीमित कर देती है, जिसके परिणामस्वरूप वह राष्ट्र की अपेक्षा जाति के हितों को अधिक महत्त्व देता है। जब कभी विभिन्न जातियों के लोगों में आपस में टकराव होता है, तो यह भावना और अधिक प्रबल हो जाती है। बिहार इसका स्पष्ट उदाहरण है।

5. आर्थिक असमानताएँ-मार्क्सवादियों के अनुसार, आर्थिक असमानताएँ राष्ट्रवाद के विकास के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। जिस समाज में धनी तथा निर्धन में बहुत अधिक आर्थिक अन्तर होगा तथा उनके हितों में विरोध होगा वहाँ लोगों में राष्ट्रवाद की भावना का कभी विकास नहीं हो सकता। आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली लोगों का राजनीतिक सत्ता पर भी नियन्त्रण रहता है और वे उसका प्रयोग अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए ही करते हैं।

गरीब लोगों के पास राष्ट्र के कार्यों में रुचि लेने के लिए समय ही नहीं होता, वे तो अपनी रोटी-रोज़ी कमाने में ही लगे रहते हैं। समाज का यह शोषित वर्ग शोषण करने वालों (Exploiters) के विरुद्ध संघर्ष करता रहता है। ऐसी स्थिति में लोगों में राष्ट्रवाद की भावना का विकास होना बहुत ही कठिन होता है।

6. स्वार्थ की भावना-स्वार्थ की भावना भी राष्ट्रवाद के विकास के मार्ग में एक बड़ी बाधा है। स्वार्थी व्यक्ति केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं और उन्हें साधने का ही प्रयत्न करते हैं। उन्हें दूसरों के हितों की परवाह नहीं होती। कई बार तो ऐसे व्यक्ति अपने हितों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय हितों तक को कुर्बान कर देते हैं। सभी राष्ट्र-विरोधी कार्य; जैसे तस्करी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी, मिलावट तथा रिश्वतखोरी आदि स्वार्थी लोगों के द्वारा ही किए जाते हैं।

7. विशेषाधिकारों वाला वर्ग-राज्य के विशेषाधिकारों वाले वर्ग का होना भी राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है और राष्ट्रवाद के विकास के मार्ग में बाधा बनता है। विशेषाधिकारों वाला वर्ग अपने को अन्य लोगों से श्रेष्ठ तथा अन्य लोगों को अपने से निम्न स्तर का मानता है। इससे साधारण लोगों के मन में विशेषाधिकार वर्ग के प्रति ईर्ष्या-द्वेष तथा घृणा की भावना उत्पन्न होती है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों के बीच संघर्ष होते रहते हैं और राष्ट्रवाद के विकास के मार्ग में बाधा आती रहती है।

8. संकुचित दलीय वफादारियां-आधुनिक लोकतन्त्रीय युग में राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य है। कई राजनीतिक दल ऐसे होते हैं जिनका दृष्टिकोण बड़ा संकीर्ण होता है, जिसके परिणामस्वरूप लोग अलग-अलग गुटों में बंट जाते हैं। उनमें आपसी ईर्ष्या-द्वेष की भावना बढ़ती है, जो राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत हानिकारक होती है। कई बार राजनीतिक दल अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए राष्ट्रीय हितों को बलिदान कर देते हैं। वे दल के हितों को राष्ट्र के हितों से बड़ा समझने लगते हैं। इससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचती है।

9. विदेशी प्रभाव-कई बार विदेशी प्रभाव भी राष्ट्रवाद के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। विदेशी सहायता पर निर्भर रहने वाले विकासशील देश विदेशी प्रभाव से बच नहीं सकते, क्योंकि आर्थिक सहायता देने वाले देश गरीब तथा विकासशील देशों की नीतियों को प्रभावित करने का प्रयत्न करते रहते हैं। इससे सहायता पाने वाले देशों की स्वतन्त्रता सीमित रहती है। भारत में कई विदेशी धर्म प्रचारक, विशेष रूप से ईसाई धर्म के प्रचारक भारतीयों को मामूली प्रलोभन देकर उन्हें राष्ट्रवाद के मार्ग से विचलित करते रहते हैं। भारत के कई विश्वविद्यालय भी विदेशी प्रभाव के केन्द्र बने हुए हैं। भारतीय विद्यार्थी कई बार ऐसे गलत कार्य कर देते हैं जो राष्ट्रवाद के मार्ग में बाधा बन जाते हैं।

10. पक्षपाती प्रेस-आज के युग में प्रेस व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करने तथा जनमत का निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, परन्तु प्रायः यह देखने को मिलता है कि अधिकतर समाचार-पत्र किसी विशेष विचारधारा, राजनीतिक दल अथवा किसी विशेष वर्ग के हितों के साथ जुड़े हुए हैं और वे समाचार छापते समय विशेष हितों को ध्यान में रखते हैं। वे लोगों तक ठीक समाचार नहीं पहुँचाते और उन्हें तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय विचारधारा का प्रचार ठीक ढंग से नहीं हो पाता, जिससे राष्ट्रवाद के विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

11. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली व्यक्ति के विकास के लिए शिक्षा सर्वोत्तम साधन है, परन्तु जहाँ ठीक शिक्षा-प्रणाली राष्ट्रवाद के विकास में सहायता करती है, वहाँ दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली इस पर बुरा प्रभाव डालती है। यदि शिक्षा का आधार राष्ट्रवादी नहीं है तो वह राष्ट्रवादी भावनाओं को कमजोर करती है। जिस देश की शिक्षा-संस्थाओं में साम्प्रदायिकता तथा प्रान्तीयता का प्रचार किया जाएगा वहाँ राष्ट्रवाद को बहुत हानि पहुँचेगी। जिस शिक्षा-प्रणाली के अधीन देश के लोगों को अपने गौरवमय इतिहास तथा शानदार सभ्य विरासत के बारे में तथा राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती, वहाँ पर पढ़े-लिखे लोगों में भी राष्ट्रवादी भावनाओं का अभाव रहेगा।

राष्ट्रवाद के विकास में ऊपर दी गई बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिएँ

(1) साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद का प्रचार करने वाले संगठनों पर पाबन्दी लगा दी जाए।

(2) लोगों में क्षेत्रवाद की भावना को समाप्त करने के लिए देश के सभी क्षेत्रों का समान विकास करना चाहिए, प्रान्तीय अथवा क्षेत्रीय भावनाओं के प्रचार पर पाबन्दी लगानी चाहिए।

(3) देश में आर्थिक असमानताओं को दूर करने के लिए प्रयत्न किया जाए। (4) देश में विशेषाधिकार वर्ग को समाप्त कर देना चाहिए। देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ।

(5) राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत करने के लिए तथा लोगों में संकुचित दलीय वफादारियों को समाप्त करने के लिए प्रचार किया जाना चाहिए।

(6) राजनीतिक दलों का गठन धर्म, जाति अथवा क्षेत्र के आधार पर न होकर निश्चित आर्थिक व राजनीतिक सिद्धान्तों के आधार पर किया जाना चाहिए तथा ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त कर देनी चाहिए, जो इस प्रकार की भावनाओं को उभारते हैं। सभी राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय मुद्दे उठाने चाहिएँ।

(7) विदेशियों के प्रभाव तथा प्रचार को रोकने के लिए सरकार द्वारा प्रभावशाली कदम उठाए जाएँ।

(8) देश की शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे राष्ट्रवाद के विकास में सहायता मिले। लोगों को अपने गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी देनी चाहिए।

प्रश्न 4.
आत्म-निर्णय के अधिकार का क्या अर्थ है? आत्म-निर्णय के अधिकार का आधार क्या हो सकता है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
आज विश्व में आत्म-निर्णय के अधिकार का सिद्धान्त लगभग सभी राज्य सत्ताओं के समक्ष चुनौती बना हुआ है। जैसा कि हम जानते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विश्व के लगभग एक-चौथाई लोग गुलामी का जीवन व्यतीत करते थे। उस स्थिति में एक ऐसे सिद्धान्त की आवश्यकता महसूस की गई जो गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर उन्हें स्वतन्त्र जीवन जीने के मार्ग की ओर आरम्भ कर सके एवं उपनिवेशवादी सिद्धान्तों को पूर्णतः समाप्त कर सके।

इसी उद्देश्य हेतु जब विशेषकर एशिया, अफ्रीका आदि देशों में औपनिवेशिक प्रभुत्व के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चलाए जा रहे थे तो इनमें मुख्यतः राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग एवं घोषणा सबसे प्रमुख थी। राष्ट्रीय आन्दोलनों का यह मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान एवं मान्यता प्रदान करेगी और साथ ही वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा भी करेगी।

अधिकांश राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के लिए न्याय, अधिकार और समृद्धि हासिल करने के लक्ष्य से प्रेरित थे। लेकिन आज हम उन अनेक राष्ट्रों को विरोधाभासी स्थिति में पाते हैं जिन्होंने संघर्षों की बदौलत स्वाधीनता प्राप्त की, लेकिन अब वे अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों का विरोध कर रहे हैं।

अतः ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार का आधार क्या हो? परन्तु यहाँ हम पहले आत्म-निर्णय के अधिकार के अर्थ को स्पष्ट करेंगें। . आत्म-निर्णय का अर्थ-आत्म-निर्णय के अधिकार का आधार वास्तव में व्यक्ति का मौलिक अधिकार ही है।

साधारण अर्थ में आत्म-निर्णय का अर्थ है ‘स्वतन्त्र राज्य’ । आत्म-निर्णय के अपने दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से माँग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाए। सामान्यतः ऐसी माँग उन लोगों की ओर से आती है जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें सांझी पहचान का बोध हो। कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतन्त्र राज्य बनाने की उस इच्छा से भी जुड़ जाते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की सुरक्षा से होता है। डॉ० एच०ओ० अग्रवाल (Dr. H.O.Aggarwal) ने आत्म-निर्णय सिद्धान्त को दो भागों में बाँटा है-बाह्य तथा आन्तरिक ।

प्रथम बाह्य भाग या पहलू के कारण राष्ट्र की जनसंख्या या तो पृथक् होकर या स्वतन्त्र होकर अथवा स्वतन्त्र राज्य का निर्माण करके अपनी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति का निर्धारण करती है। द्वितीय, आन्तरिक पहलू के कारण उनके आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनके अधिकारों को मान्यता देती है। संक्षेप में, आत्म-निर्णय का तात्पर्य एक राज्य में रहने वाले लोगों की जनसंख्या को उसके बाह्य व आन्तरिक पहलुओं पर स्वयं निर्णय लेने के अधिकार से लिया जाता है। इस प्रकार आत्म-निर्णय के अधिकार का अर्थ जानने के पश्चात् इसके आधार के सम्बन्ध में भी विवेचना की जा सकती है।

आत्म-निर्णय के अधिकार का आधार (Basis of Right to Self Determination)-राष्ट्रीयता का मूलभूत अधिकार यह है कि उसे आत्म-निर्णय या स्वभाग्य निर्णय का अवसर हो। जिन लोगों की नस्ल, भाषा, धर्म, रीति-रिवाज, संस्कृति व ऐतिहासिक परम्परा एक हो, जो अपने को एक अनुभव करते हों, जिनमें अपनी राष्ट्रीय एकता की अनुभूति विद्यमान हो, उन्हें यह अधिकार है कि वे अपने भाग्य का स्वयं निर्णय कर सकें। उन्हें यह अवसर होना चाहिए कि यदि वे चाहें, तो अपना पृथक् राज्य बना सकें, या वे किसी अन्य शक्तिशाली राज्य की रक्षा में स्वतन्त्रता के साथ रहते हुए अपनी राष्ट्रीय विशेषताओं का विकास कर सकें।

उन्नीसवीं सदी से पूर्व राष्ट्रीयता के इस मूलभूत अधिकार को संसार में कहीं भी स्वीकार नहीं किया जाता था। फ्रांस की राज्यक्रान्ति ने इस सिद्धान्त का प्रबलता के साथ प्रतिपादन व समर्थन किया था और 1939-45 द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो एशिया और अफ्रीका के राज्यों को भी राष्ट्रीय दृष्टि से स्वभाग्य निर्णय का अवसर प्राप्त हो गया है। लेकिन यहाँ पर विचारणीय बिन्दु यह है कि जिस आधार पर आज विश्व के विभिन्न भागों में आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग की जा रही है?

क्या इससे शक्तिशाली राज्यों की स्थापना को ठेस नहीं पहुँचेगी? क्या इससे समाज में सभी वर्गों एवं समूहों का समुचित विकास एवं उन्नति हो पाएगी? ऐसे प्रश्नों की जिज्ञासा को हम निम्न विवेचन द्वारा स्पष्ट करते हुए यह समाधान करने का प्रयास करेंगे कि तान्त्रिक तरीके से कैसे विभिन्न संस्कृतियों, भाषायी एवं धार्मिक भिन्नता के साथ कैसे समाज के विभिन्न समूहों का एक साथ समन्वित विकास हो सकता है।

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक राष्ट्रीयता को स्वभाग्य निर्णय का अधिकार है, यह सिद्धान्त इस समय सर्वमान्य है। यद्यपि इस विचार के विरोधियों की भी कमी नहीं है क्योंकि यदि संसार राष्ट्रीयता के सिद्धान्त पर स्थिर रहता, तो इस समय पृथ्वी पर हजारों राज्य होते। जैसे ग्रेट ब्रिटेन को ही लीजिए, उसमें स्कॉट और वेल्स लोग इंगलिश लोगों से भिन्न हैं।

अतः स्काटलैंड और वेल्स का पृथक् राज्य होना चाहिए था। कनाडा के निवासी फ्रेंच और इंगलिश दो जातियों के हैं, उन्हें भी अपने पृथक् राज्य बनाने का अधिकार होना चाहिए था। दक्षिणी अफ्रीका के गौरे रंग के लोग भी दो भागों में विभक्त हैं, इंगलिश और डच । यदि यूरोप में निवास करने वाले इंगलिश और डच लोगों के दो पृथक् राज्य हैं, तो दक्षिणी अफ्रीका में बसे हुए इंगलिश और डच लोगों के दो पृथक राज्य क्यों नहीं होने चाहिएँ?

स्विट्जरलैंड में फ्रेंच, इटालियन और जर्मन जातियों का निवास है, उनके प्रदेश भी एक-दूसरे से प्रायः पृथक हैं। इस दशा में उन्हें क्या यह अवसर नहीं मिलना चाहिए, कि या तो वे अपने-अपने पृथक राज्य बना लें और या फ्रांस, इटली और जर्मनी के साथ मिल जाएँ।

दिए गए वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि इतिहास में राष्ट्रीयता के सिद्धान्त को महत्त्व दिया जाता, तो बड़े व शक्तिशाली राज्यों का विकास सम्भव न हो पाता। किसी समय ग्रीस अनेक छोटे-छोटे नगर-राज्यों में विभक्त था। इन राज्यों का आधार जन (Tribe) की भिन्नता थी। स्पार्टन लोग एथीनियन लोगों से भिन्न थे।

इन विविध ग्रीकस जनों में जहाँ अनेक अंशों में समता थी, वहाँ भिन्नता की भी कमी नहीं थी। परन्तु मैसिडोनियन सम्राटों ने इन सबको विजय कर इन्हें एक विशाल राज्य का अंग बना दिया। एक व्यापक ग्रीक राष्ट्रीयता का विकास भी तभी सम्भव हुआ, जब स्पार्टन, एथीनियन आदि ‘जनों’ के स्वभाग्य निर्णय के अधिकार की उपेक्षा की गई। भारत में भी कभी सैकड़ों-हजारों छोटे-छोटे राज्य थे।

मालव, शिवि, क्षुद्रक, आरट्ट, आग्रेय आदि राज्य पंजाब में और शाक्य, वज्जि, मल्ल, मोरिय, बुलि आदि राज्य उत्तरी बिहार में थे। मगध के सम्राटों ने इन सबको जीत कर अपने अधीन किया। यदि इन सभी राज्यों में निवास करने वाले ‘जनों को स्वभाग्य निर्णय करने का अधिकार रहता, तो एक शक्तिशाली भारतीय राष्ट्र का विकास कभी सम्भव न होता।

विशाल राष्ट्रों के निर्माण के लिए यह आवश्यक है, कि कमजोर जातियों व राष्ट्रीयताओं के स्वभाग्य निर्णय के अधिकार को कुचला जाए और उन्हें एक शक्तिशाली जाति के अधीन करके एक संगठन में संगठित किया जाए।

ऐसा राज्य अधिक शक्तिशाली होता है, जिसमें अनेक जातियों व राष्ट्रीयताओं का सम्मिश्रण हो। प्रत्येक राष्ट्रीयता के अनेक पृथक् गुण व विशेषताएँ होती हैं। किसी में वीरता का गुण अधिक होता है, किसी में बुद्धि का। जिस प्रकार अनेक धातुओं के सम्मिश्रण से अधिक मजबूत धातु बनती है, वैसे ही अनेक जातियों से युक्त राज्य अधिक शक्तिशाली होता है।

लॉर्ड एक्टन का कथन है, कि जातियों के स्वभाग्य निर्णय का सिद्धान्त साम्राज्यवाद की अपेक्षा भी अधिक भंयकर और हानिकारक है। जिस प्रकार समाज का निर्माण विविध व्यक्तियों द्वारा होता है, वैसे ही राज्य का निर्माण विविध जातियों व राष्ट्रीयताओं द्वारा होता है। जब कोई पिछड़ी हुई व अवनत जाति किसी उन्नत जाति के साथ एक राज्य का अंग बनकर रहती है, तो उसे भी उन्नत होने का अवसर मिलता है।

सब जातियाँ एक सदृश योग्य व उन्नत नहीं होती। अवनत जातियों को स्वतन्त्र रूप से पृथक् रहने देने की अपेक्षा यह कहीं अधिक अच्छा है, कि वे उन्नत जाति के साथ एक राज्य में संगठित हों और इस प्रकार अपने को उन्नत करने का स्वर्णावसर प्राप्त करें।

यूरोप के साम्राज्यवादी यह कहा करते थे, कि परमेश्वर ने उन्हें पिछड़े हुए मानव-समुदायों को उन्नत करने का कार्य सुपुर्द किया है और इसलिए यह सर्वथा उचित है, कि वे एशिया और अफ्रीका के विविध देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करें और उन्हें सभ्यता के मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायता दें। ब्रिटिश लोग भी भारत में अपने प्रभुत्व के समर्थन में यही युक्ति देते थे। परन्तु यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उक्त सिद्धान्त उन राज्यों के सम्बन्ध में तो ठीक हैं, जिनमें विभिन्न जातियों व राष्ट्रीयताओं के लोग स्वेच्छापूर्वक एक राज्य का अंग बन कर मिलकर रहते हैं, वह उनकी अपनी इच्छा का परिणाम है।

यही बात ग्रेट ब्रिटेन के अन्तर्गत स्काटलैंड और वेल्स के विषय में भी कही जा सकती है। परन्तु जहाँ कोई एक उन्नत जाति अन्य जातियों को शक्ति द्वारा जीतकर जबरदस्ती अपने अधीन रखने का प्रयत्न करती है, वहाँ विजेता जाति को चाहे कोई लाभ पहुँचा हो, पर अधीन जाति को उससे नुकसान ही होता है। ऐसे राज्यों में अधीन जाति सदा असन्तुष्ट रहती है, वह अपनी स्वतन्त्रता के लिए निरन्तर षड्यन्त्र व विद्रोह करती रहती है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि राष्ट्रीयता का यह मूलभूत अधिकार है कि वह अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर सके। यदि वह अपना राष्ट्रीय हित इस बात में समझें, कि उसे किसी अन्य उन्नत जाति के साथ एक संगठन में संगठित होकर रहना है, तो इस प्रकार रहने का उसे पूरा अधिकार होना चाहिए। इसके विपरीत यदि कोई राष्ट्रीयता यह चाहे, कि उसे अपना एक पृथक् राज्य बनाना है, तो उसे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का पूरा अधिकार होना चाहिए।

आत्म-निर्णय के अधिकार सम्बन्धी समस्या का समाधान यद्यपि वर्तमान में आत्म-निर्णय के अधिकार को संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा भी मान्यता दी जा चुकी है, लेकिन हमें ‘एक संस्कृति एक राज्य’ के विचार या विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आधार पर नए स्वतन्त्र राज्यों के गठन के विचार को छोड़कर एक ऐसा समाधान करना होगा जिसमें विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों को एक ही देश में उन्नति एवं विकास करने का अवसर मिल सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनेक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को शुरु किया है।

भारतीय संविधान में भी इसी बात के अनुरूप धार्मिक, भाषायी एवं सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा हेतु विभिन्न प्रकार के अधिकारों के विस्तृत प्रावधान किए हैं। जैसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक तथा अनुच्छेद 29 और 30 में भाषा एवं संस्कृति से सम्बन्धित मूल अधिकार प्रदान करके विभिन्न धर्मों, भाषायी एवं संस्कृतियों के लोगों को अपना-अपना विकास करने का अधिकार प्रदान किया है। इसी उद्देश्य हेतु अन्य देशों की तरह भारत में समाज के कमजोर समूह के लोगों को विधायी संस्थाओं एवं अन्य राजकीय संस्थाओं में सुनिश्चित प्रतिनिधित्व प्रदान करके समाज के समस्त समुदायों का विकास करने का प्रयास किया है।

यद्यपि उपर्युक्त संवैधानिक प्रावधानों से यह उम्मीद की जाती है कि समाज के ऐसे समूहों को विशेष अधिकार एवं सुरक्षा प्रदान करने से उनकी आकांक्षाएँ सन्तुष्ट होंगी, फिर भी यह सम्भव है कि कुछ समूह स्वतन्त्र राष्ट्र एवं पृथक् राज्य की माँग पर आधारित आन्दोलन करेंगे जैसे कि पूर्व में तमिलनाडु एवं उत्तर में पंजाब राज्य देश से अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता एवं धर्म की एकता के आधार पर अलग होने या स्वतन्त्र होने की माँग कर चुके हैं, तो देश में कुछ हिस्सों में पृथक् राज्य बनाने की माँग हुई जिसके परिणामस्वरूप अनेक राज्यों का; जैसे मुम्बई, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ इत्यादि का गठन हुआ।

भारत में अभी भी बोडोलैंड एवं विदर्भ क्षेत्रों से आज भी नए राज्यों के गठन करने के लिए निरन्तर आन्दोलन चल रहे हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि किसी भी समाज में ऐसी माँगों का विभिन्न आधारों पर उठना एक तरह से मानवीय समूहों की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो चुकी है। इसलिए इनके समाधान हेतु यह आवश्यक है कि ऐसी समस्याओं को लोकतान्त्रिक ढंग से ही सुलझाने का प्रयास करना चाहिए और विभिन्न संस्कृतियों, भाषायी एवं धार्मिक इत्यादि भिन्नताओं को एक सर्वोच्च कानून (संविधान) के अधीन समन्वित करते हुए उन्हें एक सूत्र में पिरोने का प्रयास करना चाहिए। एक देश के लोगों में उत्पन्न ऐसी राष्ट्रवाद की भावनाएँ ही उस देश को उन्नति के शिखर की ओर अग्रसर कर सकती हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्र के लिए लोगों को राज्य के रूप में संगठित होना जरूरी नहीं है और न ही राज्य के लिए राष्ट्र होना आवश्यक है गार्नर। इस कथन के सन्दर्भ में राज्य और राष्ट्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
राज्य और राष्ट्र में भिन्नता या अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्र एक व्यापक शब्द है और इसका सम्बन्ध मुख्यतः आध्यात्मिक भावना से है और इसलिए यह निष्कर्ष हम आसानी से निकाल सकते हैं कि एक राष्ट्र के लिए राज्य की आवश्यकता नहीं है। जैसा कि गार्नर (Garmer) ने कहा है “राष्ट्र के लिए लोगों को राज्य के रूप में संगठित होना जरूरी नहीं है और न ही राज्य के लिए राष्ट्र होना आवश्यक है।”

परन्तु यहाँ यह भी स्पष्ट है कि उपर्युक्त कथन का अभिप्राय हमें यह भी नहीं लेना चाहिए कि इन दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता ही नहीं है। वास्तव में इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध भी पाया जाता है। जैसे राष्ट्र एकता की भावना का प्रतीक है और यही एकता की भावना न केवल राज्य रूपी संस्था को जन्म देने में सहायक है वरन राज्य को विश्व में एक शक्तिशाली रूप धारण करने में सहायता देती है।

जैसे कि विश्व में बिखरे हुए यहूदियों की एकता की भावना और वर्षों प्रयत्नों के फलस्वरूप उन्होंने इज़राइल नामक राज्य को जन्म दिया और तत्पश्चात् अपनी इसी भावना के फलस्वरूप वह विश्व में एक शक्तिशाली राज्य के रूप में अपनी पहचान रखता है। परन्तु इस पक्ष के पश्चात् भी एक राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी के लिए यह आवश्यक है कि वह इन दोनों शब्दों के अन्तर को भी समझे ताकि उनका यथास्थान उचित प्रयोग किया जा सके। इसलिए यहाँ इन दोनों में अन्तर स्पष्ट करना भी हमारे लिए अपरिहार्य हो जाता है।

राज्य और राष्ट्र में भिन्नता आधुनिक राज्य राष्ट्र-राज्य हैं। राज्य राष्ट्र के रूप में विकसित हो रहे हैं। इसलिए प्रायः राज्य तथा राष्ट्र शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त किया जाता है। परन्तु इन दोनों शब्दों में मौलिक भेद हैं जो निम्नलिखित हैं

1. राज्य राजनीतिक संगठन है, राष्ट्र भावनात्मक-राष्ट्र ऐसे लोगों का समूह है जो समान नस्ल, भाषा, रीति-रिवाज़, संस्कृति तथा ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर एकता की भावना में बंधे हुए हैं। राष्ट्र एक भावनात्मक संगठन है, जिसमें एकता की चेतना होती है। राज्य न तो इस भावना को उत्पन्न कर सकता है और न ही समाप्त कर सकता है। इसके विपरीत राज्य एक राजनीतिक संगठन है। जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखता है। राज्य का सम्बन्ध मनुष्य की आध्यात्मिक व मानसिक भावनाओं से नहीं होता।

2. राज्य की निश्चित सीमा, राष्ट्र की नहीं-एक राज्य के लिए निश्चित प्रदेश अनिवार्य है। मातृभूमि के प्रति बलिदान की भावना निश्चित प्रदेश के कारण ही लोगों में पैदा होती है। परन्तु राष्ट्र की कोई निश्चित सीमा नहीं होती। सिक्ख, मुसलमान दुनिया के सभी देशों में बसे हुए हैं। यहूदी भी यूरोप के बहुत-से देशों में बसे हुए हैं। चाहे 1948 ई० के पश्चात् उनका अपना एक अलग राष्ट्र स्थापित हो गया है।

3. राज्य के निश्चित तत्त्व, राष्ट्र के नहीं राज्य के निश्चित चार तत्त्व हैं जनसंख्या, निश्चित प्रदेश, संगठित सरकार तथा प्रभुसत्ता राज्य के अनिवार्य तत्त्व हैं। यदि एक भी तत्त्व नहीं होगा तो राज्य नहीं बनेगा। परन्तु राष्ट्र के लिए कोई तत्त्व अनिवार्य नहीं। धर्म, रीति-रिवाज़, जाति, भाषा, भौगोलिकता एकता कोई भी अथवा सभी तत्त्व राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकते हैं।

4. प्रभुसत्ता राज्य का अनिवार्य तत्त्व है, राष्ट्र का नहीं-प्रभुसत्ता राज्य का अनिवार्य तत्त्व है। यह उसकी आत्मा के समान है। इसके बिना राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रभुसत्ता का तत्त्व ही राज्यों को अन्य समुदायों से भिन्न करता है। जब राज्य से प्रभुसत्ता छिन्न जाती है तो राज्य का अन्त हो जाता है। इसके विपरीत राष्ट्र के लिए प्रभुसत्ता अनिवार्य नहीं है। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि एक संगठन प्रभुसत्ता के अभाव में राष्ट्र तो था पर राज्य नहीं। जैसे सन् 1947 से पूर्व भारत राष्ट्र तो था पर एक राज्य नहीं था।

5. राज्य के पास दण्डनीय शक्ति है, राष्ट्र के पास नहीं-राज्य के पास एक ऐसी शक्ति होती है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य की आज्ञा न मानने वाले को दण्ड दिया जाता है। अतः राज्य की शक्ति पुलिस शक्ति है। वह आज्ञा देता है। राज्य की दण्ड देने की कोई सीमा नहीं है। इसके विपरीत राष्ट्र के पास इस प्रकार की कोई शक्ति नहीं है। राष्ट्र अपनी बात मनवाने के लिए प्रार्थना, प्रोत्साहन और बहिष्कार जैसे साधनों का प्रयोग करता है। .

6. एक राज्य में कई राष्ट्रीयताएँ-एक राज्य में कई राष्ट्रीयताएँ होती हैं। भारत, स्विट्जरलैंड तथा अन्य देशों में एक नहीं कई राष्ट्रीयताओं के लोग बसे हुए हैं। परन्तु राष्ट्र में एक ही राष्ट्रीयता के लोग संगठित होते हैं।

7. आकार के आधार पर अन्तर-राज्य का आकार राष्ट्र से छोटा भी हो सकता है तथा बड़ा भी। एक राज्य में अनेक राष्ट्र हो सकते हैं तथा एक राष्ट्र अनेक राज्यों में फैला हो सकता है। गार्नर के अनुसार, राज्य की सीमाएँ राष्ट्र की सीमाओं को पार कर सकती हैं, यदि राष्ट्र को जाति तथा भाषा सम्बन्धी समूह मान लिया जाए। इसके विपरीत राष्ट्र की सीमाएँ राज्य की सीमाओं से विस्तृत हो सकती हैं। वास्तव में ये कभी भी आपस में मेल नहीं खातीं।

निष्कर्ष:
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राष्ट्र व राज्य भिन्न-भिन्न हैं। यद्यपि वे एक जैसे प्रतीत होते हैं तथा राष्ट्र का एक रूप में प्रयोग भी किया जाता है। वास्तव में राज्य के स्थान पर राष्ट्र का प्रयोग भ्रमात्मक है। उग्र राष्ट्रवाद से साम्प्रदायिकता की भावना को प्रोत्साहन मिला है। आज भारत को सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषा सम्बन्धी तथा आर्थिक भिन्न का सामना करना पड़ रहा है। समाज का विभिन्न जातियों में विभाजन एक और समस्या है। ये समस्याएँ एक-दूसरे से मिलकर कुछ इलाकों में प्रभावशाली क्षेत्रीय भावना का रूप ले चुकी हैं। कुछ इलाकों में ‘बाहर तथा अन्दर’ के लोगों में भेद किया जा रहा है। इन बहुपक्षीय समस्याओं के सामने राष्ट्रीय एकता एक कठिन समस्या बनी हुई है।

प्रश्न 6.
राष्ट्र का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
राजनीति-विज्ञान के विद्वानों ने ‘राष्ट्र’ शब्द की परिभाषा अलग-अलग दृष्टिकोण से की है जिन्हें हम क्रमशः जातीय दृष्टिकोण, राजनीतिक दृष्टिकोण और भावनात्मक एकता सम्बन्धी दृष्टिकोण कह सकते हैं। विषय की स्पष्टता के लिए उनका संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित प्रकार है

1. जातीय एकता सम्बन्धी-‘राष्ट्र’ या अंग्रेजी भाषा का ‘नेशन’ (Nation) शब्द, लेटिन भाषा के ‘नेशियो’ (Natio) शब्द से बना है। इसका अर्थ जन्म या नस्ल अथवा जाति से होता है। इस आधार पर एक ही जाति, वंश या नस्ल से जातिगत एकता से जुड़े हुए संगठित जन-समूह को एक राष्ट्र कहा जाता है। बर्गेस (Burgess) के अनुसार, “जातीय एकता से हमारा अर्थ ऐसी जनसंख्या से है जिसकी एक समान भाषा और साहित्य, समान परम्परा या इतिहास, समान रीति-रिवाज़ और उचित-अनुचित की समान चेतना हो।”

परन्तु यह धारणा वर्तमान युग में स्वीकार नहीं की जा सकती। यद्यपि यह धारणा राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधती है तथापि कोई भी राष्ट्र ऐसा नहीं है, जिसका आधार पूर्णतया जाति, भाषा या नस्ल हो। आधुनिक युग में रक्त के आधार पर पवित्रता का दावा करना गलत है। अतः यदि वंश की एकता को राष्ट्रवाद का आधार माना जाए तो आज कोई भी राष्ट्र नहीं है।

2. राजनीतिक एकता सम्बन्धी-जाति या वंश की एकता के आधार पर दिए गए ‘राष्ट्र’ के इस दृष्टिकोण को बहुत-से विद्वान सही नहीं मानते हैं। वे राष्ट्र के राजनीतिक स्वरूप को अधिक महत्त्व देते हैं। उनके अनुसार राष्ट्र के लिए राज्यत्व (Statehood) प्राप्त करना जरूरी है। लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) ने कहा है, “राष्ट्र वह राष्ट्रीयता है जिसने अपने-आपको स्वतन्त्र होने या स्वतन्त्रता की इच्छा रखने वाली राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित कर लिया है।”
यद्यपि अधिकांश लोग आज राष्ट्र को एक राजनीतिक इकाई के रूप में देखते हैं, तथापि यह दृष्टिकोण उचित नहीं है, क्योंकि एक राज्य में अलग-अलग राष्ट्र हो सकते हैं। अतः राज्यत्व के आधार पर राष्ट्र की धारणा सर्वमान्य नहीं है; क्योंकि इनमें जाति, वंश, भाषा इत्यादि की एकता के अभाव से भी राष्ट्र की स्थापना हो सकती है।

3. भावनात्मक एकता सम्बन्धी दृष्टिकोण बहत-से विद्वान ऊपर बताए गए दोनों आधारों को सही नहीं मानते। उनक कहना है कि अमेरिका आदि देशों के उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्र के लिए जातीय एकता होना अनिवार्य नहीं है। इसी तरह राज्य भी राष्ट्र के अस्तित्व के लिए अनिवार्य तत्त्व नहीं कहा जा सकता। सन् 1947 से पहले भारतवासियों का अपना राज्य नहीं था। फिर भी भारत उस समय भी एक राष्ट्र था और आज भी है। इसलिए ये विद्वान राष्ट्र के लिए भावनात्मक एकता पर बहुत अधिक जोर देते हैं।

उनका कहना है कि राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों का समूह होता है जिनमें एकता की भावना मौजूद होने के साथ-साथ इस जन-समूह में अपने-आपको दुनिया के दूसरे जन-समूहों से अलग समझने की प्रबल भावना होती है। वे यह भी मानते हैं कि इस तरह की एकता की भावना समान जाति, भाषा, धर्म, रीति-रिवाज़, साहित्य, संस्कृति, इतिहास आदि से आसानी के साथ उत्पन्न हो जाती है। लेकिन इन सभी तत्त्वों की अनिवार्यता की बात को वे मंजूर नहीं करते हैं। ब्लंशली (Bluntschli) के शब्दों में, “राष्ट्र ऐसे मनुष्यों के समूह को कहते हैं जो विशेषतया भाषा और रीति रिवाजों के द्वारा एक समान सभ्यता से बंधे हुए हों जिससे उनमें अन्य सभी विदेशियों से अलग एकता की सुदृढ़ भावना पैदा होती हो।”

अतः निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि “राष्ट्र एक ऐसा मानव-समूह है जिसमें भावनात्मक एकता विकसित हुई हो; जिसकी एक निश्चित मातृ-भूमि हो; सम्भवतः एक ही नस्ल, समान ऐतिहासिक अनुभव, समान भाषा, साहित्य, आर्थिक, धार्मिक व सामाजिक तत्त्वों पर आधारित सामान्य संस्कृति हो; समान राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा आदि या इनमें से कुछ बातें पाई जाएँ और जिनमें साथ-साथ रहने और विकसित होने की इच्छा पर आधारित एक सामूहिक व्यक्तित्व हो जिसको साधारणतः आत्म-निर्णय के अधिकार द्वारा अथवा कभी-कभी केवल सांस्कृतिक स्वतन्त्रता द्वारा उन्नत बनाए रखने का उसमें उत्साह हो।”

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. राष्ट्र (Nation) शब्द की उत्पत्ति ‘नेशियो’ (Natio) शब्द से हुई है, जो निम्नलिखित भाषा का शब्द है
(A) यूनानी
(B) लैटिन
(C) इटालियन
(D) फ्रैंच
उत्तर:
(B) लैटिन

2. निम्नलिखित में से कौन-सा राष्ट्र का तत्त्व है?
(A) भौगोलिक एकता
(B) समान भाषा
(C) नस्ल की समानता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

3. निम्नलिखित तत्त्व राष्ट्र-निर्माण को प्रभावित नहीं करता
(A) औद्योगीकरण
(B) शिक्षा का प्रसार
(C) नगरीकरण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

4. भारत में निम्नलिखित में से कौन-सा तत्त्व राष्ट्र-निर्माण में बाधा है?
(A) साम्प्रदायिकता
(B) जातिवाद
(C) भ्रष्टाचार
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. निम्नलिखित में से कौन-सा कारक राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा है?
(A) जातिवाद
(B) साम्प्रदायिकता
(C) भाषावाद
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. निम्नलिखित में से कौन-सा राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग की बाधाओं को दूर करने का उपाय है?
(A) भाषावाद
(B) साम्प्रदायिकता
(C) गरीबी
(D) सामाजिक समानता
उत्तर:
(D) सामाजिक समानता

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

7. राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् की स्थापना निम्नलिखित वर्ष में की गई
(A) 1956 में
(B) 1990 में
(C) 1975 में
(D) 1978 में
उत्तर:
(A) 1956 में

8. भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या का मुख्य कारण है
(A) विभिन्न धर्मों के लोगों का होना
(B) भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोगों का होना
(C) भारत का एक विशाल देश होना
(D) भारत की जनता का अनपढ़ एवं अज्ञानी होना
उत्तर:
(D) भारत की जनता का अनपढ़ एवं अज्ञानी होना

9. निम्नलिखित में से राष्ट्रीय निर्माण के तत्त्व हैं
(A) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता
(B) राष्ट्रीय भावना
(C) विभिन्नता में एकता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. निम्नलिखित में से कौन-सा कथन असत्य है?
(A) राष्ट्र का क्षेत्र राष्ट्रीयता से बड़ा है
(B) राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता दोनों समानार्थक हैं
(C) राष्ट्र का क्षेत्र राष्ट्रीयता से संकुचित है
(D) राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता में कोई भी नहीं है
उत्तर:
(A) राष्ट्र का क्षेत्र राष्ट्रीयता से बड़ा है

11. राष्ट्रवाद का लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) राष्ट्र से संबंधित होने की मनोवैज्ञानिक भावना
(B) राष्ट्रीय राज्य के सिद्धान्त पर आधारित
(C) लोगों की सांझी नस्ल, भाषा, संस्कृति, धर्म, इतिहास एवं हित आदि का होना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

12. निम्नलिखित में से कौन-सा राष्ट्रवाद के रूप का प्रकार है?
(A) लोकतन्त्रीय राष्ट्रवाद
(B) सर्वसत्तावादी राष्ट्रवाद
(C) रूढ़िवादी राष्ट्रवाद
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

13. राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्त्व निम्नलिखित में से हैं
(A) भौगोलिक एकता
(B) भाषा, संस्कृति एवं परम्पराओं की समानता
(C) समान राजनीतिक आकांक्षाएँ
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

14. राष्ट्र और राज्य में भेद निम्नलिखित है
(A) राज्य की सीमा निश्चित राष्ट्र की नहीं
(B) राज्य के पास प्रभुसत्ता है, राष्ट्र के पास नहीं
(C) राज्य राजनीतिक संगठन है
(D) राष्ट्र भावनात्मक है
उत्तर:
(D) राष्ट्र भावनात्मक है

15. राष्ट्रवाद के प्रकार निम्नलिखित हैं
(A) रूढ़िवाद राष्ट्रवाद
(B) उदारवादी राष्ट्रवाद
(C) मार्क्सवादी राष्ट्रवाद
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

16. राष्ट्रवाद के तत्त्व हैं
(A) भौगोलिक एकता
(B) धर्म की समानता
(C) भाषा की एकता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. “समान नस्ल, भाषा, समान आदतों, रीति-रिवाजों तथा समान धर्म जैसे तत्त्वों द्वारा राष्ट्र का निर्माण होता है” राष्ट्र की यह परिभाषा किस विद्वान् ने दी है?
उत्तर:
फोडेर ने।

2. भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग का कोई एक बाधक कारक लिखिए।
उत्तर:
जातिवाद।

3. अन्तर्राज्यीय परिषद् का अध्यक्ष कौन होता है?
उत्तर:
प्रधानमन्त्री।

4. “राष्ट्रीय एकीकरण लोगों के हृदयों तथा मस्तिष्कों का एकीकरण है।” ये शब्द किसके हैं?
उत्तर:
जवाहरलाल नेहरू के।

रिक्त स्थान भरें

1. राष्ट्रीय एकता परिषद् का पुनर्गठन …………… वर्ष में किया गया।
उत्तर:
1980

2. भारतीय संविधान में ……………. की व्यवस्था की गई है।
उत्तर:
अन्तर्राज्यीय परिषद्

3. …………….. भाषाओं को संवैधानिक मान्यता दी गई है।
उत्तर:
22

4. “राष्ट्रवाद मन की स्थिति तथा सचेत रूप में किया गया कार्य है।” यह कथन ……….. ने कहा।
उत्तर:
हांस कोहिन

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नागरिक किसे कहते हैं?
उत्तर:
नागरिक वह व्यक्ति है जो राज्य का सदस्य होता है, राज्य के प्रति श्रद्धा रखता है, उसे नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा अधिकारों के बदले वह राज्य के प्रति कुछ कर्त्तव्यों का पालन करता है।

प्रश्न 2.
नागरिक की कोई दो परिभाषाएँ लिखिए।
उत्तर:
नागरिक की दो परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. ए०के० सिऊ के अनुसार, “नागरिक वह व्यक्ति है जो राज्य के प्रति वफाद र हो, जिसे सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों तथा जो समाज-सेवा की भावना से प्रेरित हो।”

2. वैटल के अनुसार, “नागरिक किसी राज्य के वे सदस्य हैं जो उस राज्य के प्रति कुछ कर्तव्यों से बँधे हैं, उसकी सत्ता के नियन्त्रण में रहते हैं तथा उसके लाभ में सबके साथ बराबरी के साझीदार हैं।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 3.
नागरिक की कोई चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
नागरिक की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • राज्य की सदस्यता,
  • स्थायी निवास,
  • अधिकारों की प्राप्ति,
  • कर्तव्यों का पालन।

प्रश्न 4.
नागरिक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
नागरिक दो प्रकार के होते हैं
1. जन्मजात नागरिक वे नागरिक होते हैं जो जन्म के आधार पर नागरिकता प्राप्त करते हैं, उन्हें जन्मजात नागरिक कहते हैं। जन्म से तात्पर्य रक्त-सम्बन्ध तथा जन्म-स्थान से लिया जाता है।

2. राज्यकृत नागरिक वह नागरिक होते हैं जो पहले किसी अन्य देश के नागरिक होते हैं, परन्तु किसी दूसरे देश की कुछ शर्तों को पूरा करने पर यदि वहाँ की सरकार उचित समझे, तो उन्हें नागरिकता प्रदान कर देती है। इस प्रकार से नागरिकता प्राप्त नागरिक को राज्यकृत नागरिक कहा जाता है।

प्रश्न 5.
नागरिक तथा विदेशी में दो अन्तर बताइए।
उत्तर:
नागरिक तथा विदेशी (Alien) में दो अन्तर निम्नलिखित हैं

(1) नागरिक उस राज्य के स्थायी सदस्य होते हैं जबकि विदेशी उस राज्य के स्थायी सदस्य नहीं होते। वह देश में घूमने-फिरने, शिक्षा-प्राप्त करने अथवा कोई व्यापार अथवा नौकरी करने के लिए देश में आते हैं और अपना काम समाप्त होने के पश्चात् वापस अपने देश लौट जाते हैं।

(2) नागरिक को राज्य के सभी अधिकार-सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं जबकि विदेशी को सामाजिक अधिकार तो प्राप्त होते हैं, परन्तु उसे राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होते।

प्रश्न 6.
नागरिकता किसे कहते हैं?
उत्तर:
नागरिकता एक व्यक्ति की वह स्थिति (स्तर) है जिसमें व्यक्ति को राज्य में विभिन्न प्रकार के सामाजिक व राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं और उनके बदले में वह राज्य के प्रति कुछ कर्त्तव्यों का पालन करता है। गैटल के अनुसार, “नागरिकता व्यक्ति की वह स्थिति है जिसमें उसे राजनीतिक समाज के सभी राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा उस समाज में वह कर्तव्यों का पालन करता है।”

प्रश्न 7.
दोहरी नागरिकता का सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
कई बार ऐसा होता है कि एक बच्चे को जन्म के आधार पर दोहरी नागरिकता प्राप्त हो जाती है। रक्त-सिद्धांत के आधार पर वह एक राज्य का नागरिक बन जाता है और भूमि सिद्धांत (जन्म स्थान) के आधार पर दूसरे राज्य का नागरिक। परन्तु यह भी सत्य है कि वह केवल किसी एक ही राज्य का नागरिक रह सकता है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति के वयस्क होने पर उसे स्वयं घोषणा करनी पड़ती है कि वह किस राज्य का नागरिक बने रहना चाहता है। उसके पश्चात् उसकी दूसरे राज्य की नागरिकता समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 8.
राज्यकृत नागरिकता प्राप्त करने के कोई दो तरीके लिखें।
उत्तर:
राज्यकृत नागरिकता प्राप्त करने के दो तरीके निम्नलिखित हैं
1. लम्बा निवास-जब कोई व्यक्ति अपने देश को छोड़कर एक लम्बे समय तक किसी दूसरे देश में रह लेता है तो प्रार्थना-पत्र देने पर वह उस राज्य का नागरिक बन सकता है। निवास की अवधि के बारे में भिन्न-भिन्न देशों के कानून अलग-अलग हैं।

2. विवाह-जब कोई लड़की किसी विदेशी लड़के से विवाह कर लेती है, तो वह स्त्री अपने पति के देश की नागरिक बन जाती है। इस सम्बन्ध में भी विभिन्न राज्यों के नियमों में कुछ अन्तर है।

प्रश्न 9.
एक अच्छे नागरिक के कोई तीन गुण लिखें।
उत्तर:
एक अच्छे नागरिक के तीन गुण निम्नलिखित हैं

  • नागरिक को शिक्षित होना चाहिए ताकि उसे अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान हो सके।
  • अच्छे नागरिक में समाज-सेवा, परस्पर-प्रेम और मेल-जोल, सहनशीलता आदि गुण होने चाहिएँ।
  • एक अच्छे नागरिक को अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नागरिक की क्या विशेषताएँ हैं?
उत्तर:
एक नागरिक की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. राज्य की सदस्यता नागरिक को किसी एक राज्य की सदस्यता प्राप्त करना अनिवार्य है।

2. स्थायी निवासी-नागरिक अपने राज्य का स्थायी रूप से निवासी होता है। इसका अर्थ यह है कि नागरिक दूसरे राज्य में अस्थायी तौर पर रह सकता है। वह विदेश यात्रा अपने राज्य की आज्ञा से कर सकता है।

3. अधिकारों की प्राप्ति-नागरिक को राज्य की ओर से कुछ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार मिले होते हैं जिनका प्रयोग करके वह अपने जीवन का विकास और समाज का कल्याण कर सकता है।

4. कर्त्तव्यों का पालन-नागरिक को राज्य के प्रति कुछ कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है, यहाँ तक कि संकट आने पर अनिवार्य सैनिक सेवा भी करनी पड़ती है।

5. राज्य के प्रति वफादारी-नागरिक राज्य के प्रति वफादारी रखता है और आवश्यकता पड़ने पर राज्य के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने के लिए तत्पर रहता है।

6. समाज सेवा-प्रो० श्रीनिवास के अनुसार, नागरिक में समाज सेवा की भावना का होना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
प्रजा (Subject) शब्द का क्या अर्थ है? नागरिकों तथा प्रजा में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रजा-जिन राज्यों में राजतन्त्रीय व्यवस्था होती है वहाँ के नागरिकों को प्रजा कहा जाता है, भले ही उन्हें प्रजातन्त्रीय राज्यों की तरह अधिकार प्राप्त हों; जैसे इंग्लैण्ड में नागरिकों को प्रजा कहा जाता है जबकि भारत और अमेरिका में नागरिक शब्द का प्रयोग किया जाता है। नागरिकों तथा प्रजा में अन्तर-साधारण शब्दों में, राज्य में रहने और उसकी सत्ता को स्वीकार करने वाले सभी नागरिक इसकी प्रजा होते हैं।

आजकल प्रजा शब्द को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि यह भूतकाल का अवशेष है और इसका सम्बन्ध प्रायः स्वेच्छाचारी राजतन्त्र या सामन्तवाद (Feudalism) से जोड़ा जाता है। यूनान, ईरान, इंग्लैण्ड और अफगानिस्तान जैसे देशों में जहाँ पर अब भी राजतन्त्र विद्यमान है, नागरिकों को प्रजा कहा जाता है। यही कारण है कि अंग्रेजी कानून में नागरिक शब्द का प्रयोग नहीं होता।

किन्तु फ्रांस और अमेरिका जैसे गणतन्त्रीय देशों में नागरिक शब्द को प्रजा शब्द की अपेक्षा अधिक पसन्द किया जाता है। इसी कारण से अमेरिकी कानून में प्रजा शब्द का बिल्कुल ही प्रयोग नहीं किया जाता।

प्रश्न 3.
भारतीय नागरिकता प्राप्त अधिनियम, 1955 पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
विदेशियों को भारतीय नागरिकता की प्राप्ति के सम्बन्ध में भारतीय संसद द्वारा सन् 1955 में (भारतीय) नागरिकता प्राप्ति अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं

  • भारत की नागरिकता प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति किसी ऐसे देश का नागरिक नहीं होना चाहिए जो भारत के लोगों को नागरिकता प्रदान नहीं करता।
  • वह चरित्र सम्पन्न व्यक्ति हो।
  • संविधान की 8वीं अनुसूची में वर्णित भाषाओं में से किसी एक भाषा को जानने वाला हो।
  • नागरिकता प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति आवेदन की तिथि से कम-से-कम एक वर्ष पूर्व से भारत में रह रहा हो अथवा यहाँ सरकारी सेवा में हो।
  • उपरोक्त एक वर्ष से पहले के सात वर्षों में कुल मिलाकर वह चार वर्ष भारत में रहा हो या चार वर्ष तक यहाँ सरकारी सेवा में रहा हो।
  • यदि किसी विदेशी ने दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, विश्व-शान्ति अथवा मानव विकास के क्षेत्र में कोई विशेष योग्यता प्राप्त कर ली हो तो उसे उपरोक्त शर्तों को पूरा किए बिना ही भारत का नागरिक बनाया जा सकता है।

यदि कोई विदेशी भारतीय नागरिकता प्राप्त करना चाहता है तो उसे उपरोक्त अधिनियम में दी गई शर्तों को पूरा करना होगा तथा भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करनी होगी।

प्रश्न 4.
नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के उद्देश्य क्या हैं?
उत्तर:
नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं
(1) नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के कारण वहां से आए हिंदू, ईसाई, सिक्ख, पारसी, जैन और बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी।

(2) ऐसे शरणार्थियों को जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 की निर्णायक तारीख तक भारत में प्रवेश कर लिया है, वे भारतीय नागरिकता के लिए सरकार के पास आवेदन कर सकेंगे।

(3) अभी तक भारतीय नागरिकता लेने के लिए 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था। नए अधिनियम में प्रावधान है कि पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक अगर पाँच साल भी भारत में रहे हों, तो उन्हें नागरिकता दी जा सकती है।

(4) यह भी व्यवस्था की गई है कि उनके विस्थापन या देश में अवैध निवास को लेकर उन पर पहले से चल रही कोई भी कानूनी कार्रवाई स्थायी नागरिकता के लिए उनकी पात्रता को प्रभावित नहीं करेगी।

प्रश्न 5.
अच्छी नागरिकता के मार्ग में आने वाली चार बाधाएँ बताएँ।
उत्तर:
अच्छी नागरिकता के मार्ग में आने वाली चार बाधाएँ निम्नलिखित हैं
1. स्वार्थ स्वार्थ अच्छी नागरिकता का शत्रु है। अधिकतर नागरिक सार्वजनिक हितों का त्याग कर अपने स्वार्थ की पूर्ति में लग जाते हैं, जिससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचती है।

2. अनपढ़ता-निरक्षरता मनुष्य को पशु के समान बना देती है। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति को अपने अधिकारों और कर्तव्यों अनपढ़ व्यक्ति राज्य का प्रबंध सुचारू रूप से नहीं कर सकते और अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरा नहीं कर सकते।

3. गरीबी-गरीबी भी कई बार अच्छी नागरिकता के मार्ग में बाधा बनती है। एक गरीब व्यक्ति अपराध की ओर अग्रसर हो जाता है। उसके चोर-डाकू तथा लुटेरा बनने की सम्भावना अधिक होती है। एक गरीब व्यक्ति लोकहित के कार्यों में भागीदार नहीं बन सकता।

4. दलबन्दी दलबन्दी भी अच्छी नागरिकता के मार्ग में एक रुकावट है। व्यक्ति राष्ट्रीय हितों को त्याग कर दलीय अवस्थाओं का शिकार हो जाता है।

प्रश्न 6.
नागरिकता को प्राप्त करने के कोई चार तरीके लिखें।
उत्तर:
एक देश की नागरिकता को प्राप्त करने के चार तरीके निम्नलिखित हैं

1. विवाह-जब कोई स्त्री किसी विदेशी पुरुष से विवाह कर लेती है तो वह स्त्री अपने पति के देश की नागरिक बन जाती है। इस सम्बन्ध में भी विभिन्न राज्यों के नियमों में कुछ अन्तर है। जापान में यदि कोई विदेशी पुरुष जापानी स्त्री से विवाह करता है तो उस पुरुष को जापान की नागरिकता मिलने का नियम है। यदि कोई विदेशी रूस की स्त्री से विवाह करता है तो उसे रूस में ही रहना होता है क्योंकि रूस के नियमानुसार वहाँ की स्त्री किसी विदेशी पति के साथ दूसरे देश में नहीं जा सकती।

2. सम्पत्ति खरीदना कई देशों में यह भी नियम है कि यदि किसी दूसरे देश का नागरिक वहाँ जाकर सम्पत्ति खरीद लेता तो उसे वहाँ की नागरिकता प्राप्त हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति सम्पत्ति खरीदने से उस देश के हितों में रुचि लेने लगता है। ब्राजील, मैक्सिको, पीरू आदि देशों में यह नियम लागू है।

3. सरकारी नौकरी-कई देशों में (जैसे इंग्लैण्ड में) यह भी नियम है कि यदि किसी विदेशी को वहाँ कोई सरकारी नौकरी मिल जाती है तो प्रार्थना-पत्र देने पर उसे वहाँ की नागरिकता भी प्राप्त हो सकती है। इस आधार पर कई भारतीय इंग्लैण्ड के नागरिक हैं।

4. गोद लेना-ऐसा लगभग सभी देशों में नियम है कि यदि कोई व्यक्ति किसी विदेशी बच्चे को गोद ले लेता है तो उस बच्चे को उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है, जहाँ के व्यक्ति ने गोद लिया हो।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 7.
नागरिकता को खोने के कोई पाँच तरीके लिखें।
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों से एक व्यक्ति की किसी देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है

1. लम्बी अनुपस्थिति से यदि एक व्यक्ति अपने देश से बहुत दिन तक अनुपस्थित रहता है तो उसकी अपने देश की नागरिकता खोई जाती है। जिस प्रकार लम्बे निवास से नागरिकता मिलती है, उसी प्रकार लम्बी अनुपस्थिति से नागरिकता खोई जा सकती है।

2. विवाह विवाह के द्वारा जहाँ एक देश की नागरिकता प्राप्त होती है, वहाँ अपने देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है। जैसे यदि एक इंग्लैण्ड की लड़की किसी भारतीय लड़के से विवाह कर लेती है तो उसकी इंग्लैण्ड की नागरिकता खोई जाती है।

3. दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से भी एक व्यक्ति अपने देश की नागरिकता खो बैठता है, क्योंकि दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से उसकी वफ़ादारी उसी देश की तरफ हो जाती है।

4. विदेशों में अलंकरण प्राप्त करने से किसी दूसरे देश से अलंकरण प्राप्त कर लेने से भी कई बार अपने देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है। कई बार अलंकार की प्राप्ति को भी विदेश के प्रति वफ़ादारी माना जाता है।

5. देश-द्रोह के कारण-सेना से भागने के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का देश-द्रोह करता है तो उसकी भी नागरिकता खोई जाती है। कारण साफ है कि देश-द्रोह, देश के प्रति वफादार न होने की मुख्य निशानी है।

प्रश्न 8.
वैश्विक नागरिकता पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
हम आज एक ऐसे विश्व में रहते हैं जो आपस में जुड़ा हुआ है, संचार के साधनों-इन्टरनेट, टेलीविजन और सैलफोन जैसे नए साधनों ने उन तरीकों में भारी बदलाव ला दिया है, जिनसे हम विश्व को देखते और समझते हैं। हम अपने टेलीविजन पर विनाश और युद्धों को होते देख सकते हैं, जिससे विभिन्न देशों के लोगों में सांझे सरोकार और सहानुभूति विकसित करने में मदद मिलती है।

विश्व नागरिकता समर्थक यह दलील पेश करते हैं कि चाहे विश्व-कुटुम्ब और विश्व-समाज अभी मौजूद नहीं है, परन्तु राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार लोग आज एक-दूसरे से जुड़ा महसूस करते हैं। उदाहरणस्वरूप सन् 2004 में दक्षिण एशिया के कई देशों पर कहर बरसाने वाली सुनामी (Tsunami) से पीड़ित लोगों के लिए सहानुभूति और सहायता के भावोद्गार फूट पड़े थे। उनका कहना है कि इससे राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का मुकाबला करना आसान हो जाता है जिसमें कई देशों की. सरकारों और लोगों की संयुक्त कार्रवाई आवश्यक होती है।

परन्तु अभी विश्व नागरिकता का विचार एक स्वप्न ही है। जब तक राष्ट्र-राज्य मौजूद हैं, एक विश्व-राष्ट्र का विचार बहुत दूर है। एक राष्ट्र के भीतर की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान केवल उस राष्ट्र की सरकार तथा जनता ही कर सकती है। प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रवाद की भावना से भरा हुआ है। अतः लोगों के लिए आज एक राज्य की पूर्ण और समान सदस्यता महत्त्वपूर्ण है। जब तक लोगों के मन में इस प्रकार की भावनाएँ मौजूद हैं। विश्व नागरिकता की बात व्यावहारिक नहीं हो सकती।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नागरिक का क्या अर्थ है? एक नागरिक और विदेशी में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
नागरिक का अर्थ (Meaning of Citizen)-साधारण बोलचाल की भाषा में नगर में रहने वाले व्यक्ति को नागरिक कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि ग्राम निवासियों को नागरिक नहीं कहा जा सकता। नागरिक का उपर्युक्त अर्थ संकुचित और अमान्य है। राजनीति शास्त्र की भाषा में नागरिक से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जो किसी राज्य का निवासी है और राज्य द्वारा उसे विभिन्न प्रकार के सामाजिक और राजनीतिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। वह व्यक्ति राज्य के प्रति कुछ कर्तव्यों की पालना करता हो। अतः यह स्पष्ट है कि नागरिक के लिए नगर में रहने वाला होना आवश्यक नहीं है।

कोई भी व्यक्ति जो राज्य की सीमाओं के अन्दर रहता हो और राज्य द्वारा उसे अधिकार प्राप्त हों, उसे नागरिक कहा जाता है। यूनान के प्रसिद्ध विद्वान् अरस्तू (Aristotle) ने नागरिक का अर्थ बताते हुए लिखा था, “नागरिक राज्य का वह सदस्य है जो शासन व न्याय प्रबन्ध में भाग लेता हो।” परन्तु अरस्तु द्वारा दिया गया नागरिक का अर्थ बड़ा संकुचित है।

यह केवल उसी समय लागू होता था जब छोटे-छोटे नगर-राज्य अस्तित्व में थे। आधुनिक युग नगर राज्यों का न होकर राष्ट्र राज्यों का है। जहाँ राज्यों की संख्या करोड़ों में है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए शासन और न्याय प्रबन्ध में भाग लेना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। नागरिक की परिभाषाएँ यद्यपि नागरिक शब्द की परिभाषा पर विद्वानों में मतभेद है तथापि कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1. वैटल के अनुसार, “नागरिक किसी राज्य के वे सदस्य हैं जो उस राज्य के प्रति कुछ कर्तव्यों से बँधे हैं, उसकी सत्ता के नियन्त्रण में रहते हैं तथा उसके लाभ में सबके साथ बराबरी के साझीदार हैं।”

2. प्रो० लास्की का कथन है, “नागरिक उस व्यक्ति को कहते हैं जो न केवल समाज का ही सदस्य है, अपितु जो कुछ तकनीकी कर्तव्यों का पालन करता है।”

3. मिलर के अनुसार, “नागरिक एक राजनीतिक समाज के सदस्य होते हैं, उन्हीं लोगों से राज्य बनता है और वे व्यक्तिगत तथा सामूहिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक सरकार की स्थापना कर लेते हैं या उसकी सत्ता स्वीकार कर लेते हैं।”

4. ए०के० सिऊ के अनुसार, “नागरिक वह व्यक्ति है जो राज्य के प्रति वफादार हो, जिसे सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों तथा जो समाज-सेवा की भावना से प्रेरित हो।”

5. श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “नागरिक राज्य के उस सदस्य को कहते हैं जो राज्य में रहकर ही अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने का प्रयत्न करता हो तथा उसे इस बात का बुद्धिमत्तापूर्ण ज्ञान हो कि समाज में सर्वोच्च नैतिक कल्याण के लिए क्या करना चाहिए।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति जो राज्य का सदस्य है, राज्य के प्रति श्रद्धा रखता है, अधिकार का प्रयोग करता है तथा अधिकारों के बदले वह राज्य के प्रति कुछ कर्तव्यों की पालना करता है, उसे नागरिक कहा जाता है। नागरिक तथा विदेशी में अन्तर नागरिक तथा विदेशी में निम्नलिखित अन्तर हैं

विदेशी का अर्थ:
नागरिक शब्द का अर्थ जान लेने के बाद विदेशी तथा प्रजा शब्द का अर्थ भी जान लेना आवश्यक हो जाता है। राज्य में रहने वाले सभी व्यक्ति राज्य के नागरिक नहीं होते। नागरिकों के अतिरिक्त प्रत्येक राज्य में कुछ विदेशी भी मिलते हैं। विदेशी किसी अन्य राज्य के नागरिक होते हैं और अस्थायी रूप से घूमने-फिरने, व्यापार करने, पढ़ने या

राजदूत के रूप में आए हुए होते हैं। अतः विदेशी वह व्यक्ति होता है जो अपना राज्य छोड़कर अस्थायी रूप में दूसरे राज्य में जाकर रहता है तथा जिसकी वफ़ादारी अपने राज्य के प्रति ही रहती है।
विदेशी तीन प्रकार के होते हैं-

  • स्थायी विदेशी,
  • अस्थायी विदेशी तथा
  • राजदूत।

1. स्थायी विदेशी-स्थायी विदेशी वे व्यक्ति होते हैं जो अपने राज्य को छोड़कर आए हुए हों तथा जिन्होंने इस राज्य में स्थायी रूप से व्यापार या नौकरी कर ली हो और जो अपने राज्य में वापस जाने के इच्छुक न हों, बल्कि नागरिकता मिलने पर इस राज्य के नागरिक बनने को तैयार हों।

2. अस्थायी विदेशी-अस्थायी विदेशी वे व्यक्ति होते हैं जो अपने देश से कुछ समय के लिए घूमने-फिरने या अध्ययन करने । के लिए आए हों और अपना काम समाप्त होते ही वापस अपने देश को चले जाते हैं।

3. राजदूत राजदूत वे व्यक्ति होते हैं जो किसी अन्य राज्य द्वारा अपने प्रतिनिधि के रूप में दूसरे राज्य में भेजे जाते हैं। आज के अन्तर्राष्ट्रवाद के युग में सभी राज्य अन्य राज्यों से राजदूतों का आदान-प्रदान करते हैं। इन पर अपने ही राज्य के कानून लागू होते हैं, उस राज्य के नहीं, जहाँ वे आए हुए होते हैं। नागरिक और विदेशी में अन्तर-एक नागरिक और एक विदेशी में काफी अन्तर हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. सदस्यता के आधार पर अन्तर-नागरिक अपने राज्य का सदस्य होता है, परन्त विदेशी नहीं। विदेशी तो किसी अन्य राज्य का सदस्य होता है।

2. देश-भक्ति के आधार पर अन्तर–नागरिक अपने राज्य के प्रति स्वामी-भक्त होता है, परन्तु विदेशी उस राज्य के प्रति वफादार होता है जिसका कि वह सदस्य होता है।

3. निष्कासित करने के आधार पर अन्तर-नागरिक अपने राज्य में स्थायी तौर पर रह सकता है, उसे वहाँ से जाने के लिए नहीं कहा जा सकता, परन्तु सरकार विदेशी को कभी भी देश छोड़ने का आदेश दे सकती है।

4. अधिकारों के आधार पर अन्तर–नागरिक को राज्य की ओर से सभी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार मिलते हैं, परन्तु विदेशी को सभी अधिकार नहीं मिलते, विशेषकर राजनीतिक अधिकार तो विदेशी को नहीं दिए जाते।

5. सैनिक सेवा के आधार पर अन्तर-संकट के समय राज्य अपने नागरिकों से सैनिक सेवाएँ ले सकता है, परन्तु विदेशियों को सैनिक सेवाओं के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

6. सम्पत्ति के आधार पर अन्तर-कई देशों में विदेशियों को सम्पत्ति खरीदने का अधिकार नहीं होता, जबकि अपने नागरिकों को सम्पत्ति खरीदने-बेचने का अधिकार होता है।

प्रश्न 2.
एक आदर्श नागरिक के गुणों का वर्णन करें।
अथवा
आदर्श नागरिकता की आवश्यक विशेषताओं की व्याख्या करें।
उत्तर:
किसी भी समाज की उन्नति व विकास वहाँ के नागरिकों के स्तर पर निर्भर करता है। यदि नागरिकों में अच्छे गुण हैं तो समाज शीघ्र उन्नति और विकास करता है अन्यथा नहीं। अतः एक अच्छे नागरिक के गुण क्या हैं उनकी विवेचना यहाँ करना उचित है। आदर्श नागरिक के गुण निम्नलिखित हैं

1. अच्छा स्वास्थ्य-एक आदर्श नागरिक के लिए सबसे प्रथम आवश्यकता उसका अपना स्वास्थ्य है। स्वस्थ नागरिक ही अपने परिवार, राज्य तथा समाज के प्रति अपने दायित्वों को ठीक ढंग से निभा सकता है। एक स्वस्थ मन के लिए स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है। निर्बल व्यक्ति तो अपना कार्य भी नहीं कर सकते, दूसरों की सेवा तो बहुत दूर की बात है।

2. अच्छी बुद्धि-एक बुद्धिमान व्यक्ति ही अच्छा नागरिक हो सकता है। लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) ने आदर्श नागरिक के बुद्धिमत्ता, आत्म-संयम और विवेक आवश्यक गुण बताए हैं। इसी प्रकार हाइट (White) के अनुसार, नागरिक के लिए ‘साधारण बुद्धि, ज्ञान और निष्ठा आवश्यक गुण हैं।’ एक शिक्षित नागरिक देश की समस्याओं को भली-भाँति समझ सकता है तथा अपने जीवन को आदर्श जीवन बना सकता है। एक अशिक्षित नागरिक में आदर्श गुणों के अभाव की अधिक सम्भावना रहती है।

3. अच्छा चरित्र-अच्छा चरित्र आदर्श नागरिकता की नींव है। चरित्र के बिना नागरिक न तो अपने व्यक्तित्व का विकास कर अथवा राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। सत्य, अहिंसा, अनुशासन, ईमानदारी, आज्ञापालन आदि गुणों का होना चरित्रवान् नागरिक के लक्षण हैं। आदर्श नागरिक प्रत्येक क्षेत्र में अच्छे चरित्र का प्रदर्शन करता है।

4. सामाजिक भावना-समाज के प्रति सहयोग, स्नेह, सेवा, त्याग आदि की भावना से आदर्श नागरिकता का विकास होता है। सामाजिक बुराइयों को दूर करना आदर्श नागरिक की विशेषता है। अपने स्वार्थ को त्याग कर सामाजिक भलाई करना ही आदर्श नागरिकता है।

5. कर्त्तव्य-पालन-गाँधी जी के अनुसार, आदर्श नागरिक वही है जो अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों का अधिक ध्यान रखता है। निःसन्देह नागरिक को सभी मुख्य अधिकार मिलने चाहिएँ, परन्तु जो नागरिक अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों का नागरिकत पालन नहीं करता उसे एक आदर्श नागरिक नहीं कहा जा सकता। दूसरों के अधिकारों का ध्यान रखना ही कर्तव्यों का पालन है। अधिकारों और कर्त्तव्यों के उचित सम्बन्ध को ही हम आदर्श नागरिकता कहते हैं।

6. मताधिकार का उचित प्रयोग-नागरिक के राजनीतिक अधिकारों में एक महत्त्वपूर्ण अधिकार वोट देने का अधिकार है। आदर्श नागरिक वही है जो अपने वोट का ठीक प्रयोग करता है। योग्य व्यक्ति को वोट देने से अच्छी सरकार निर्वाचित होती है और का कल्याण होता है। कई नागरिक अपने स्वार्थ में आकर वोट बेचते हैं जोकि देश के लिए बहुत हानिकारक है। आदर्श नागरिकता के लिए वोट का उचित प्रयोग करना आवश्यक है।

7. नागरिक गुण-आदर्श नागरिक वह व्यक्ति हो सकता है, जिसमें स्नेह, सहयोग, त्याग, सहनशीलता, आत्म-संयम, आज्ञा-पालन आदि गुण होते हैं। नागरिक गुणों के बिना हम अपने समाज और राज्य को आदर्श नहीं बना सकते। स्नेह, सहयोग और त्याग से नागरिक अनेक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को हल कर सकते हैं। सहनशीलता, आत्म-संयम और आज्ञा-पालन से नागरिक का दृष्टिकोण व्यापक बनता है और इससे राष्ट्र-हितों की रक्षा होती है।

8. परिश्रम-आलसी मनुष्य कभी भी एक आदर्श नागरिक नहीं बन सकता। कई बार स्वस्थ तथा शिक्षित व्यक्ति अपने कार्य को ठीक समय पर नहीं करता और न ही वह प्रगतिशील होता है। नागरिक में सदैव आगे बढ़ने की भावना होनी चाहिए जोकि परिश्रम द्वारा ही सम्भव हो सकती है।

9. जागरुकता आदर्श नागरिक का एक अन्य आवश्यक गुण जागरुकता है। नागरिक को अपने अधिकारों, कर्तव्यों, देश तथा विश्व की समस्याओं के प्रति जागरुक रहना चाहिए। नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से निभाए, लगनपूर्वक कार्य करे, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में रुचि ले। एक जागरुक अथवा सचेत नागरिक ही देश के लिए . उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

10. देश-भक्ति-आदर्श नागरिक वह होता है जो अपने देश के लिए किसी भी प्रकार का बलिदान देने के लिए तैयार रहता है। देश के हित को अपना हित समझना ही देश-भक्ति है। नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि जब भी कोई शत्रु देश पर आक्रमण करता है अथवा देश पर कोई और आपत्ति आ जाती है तो वह तन, मन और धन से देश की सहायता करे। देश-द्रोही नागरिक तो विदेशी शत्रु से भी बुरा होता है।

11. विश्व-प्रेम की भावना-आज का नागरिक विश्व का नागरिक है। इसलिए उसमें राष्ट्रीय भावना के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय भावना भी होनी चाहिए। वैज्ञानिक प्रगति ने समस्त संसार को एक इकाई अथवा एक समाज बना दिया है। विश्व के नागरिकों में पारस्परिक सम्बन्ध और सहयोग का होना आवश्यक है। आज के लोकतन्त्रीय संसार में अधिकांश राष्ट्रीय सरकारें नागरिकों द्वारा निर्वाचित होती हैं।

प्रश्न 3.
नागरिकता किसे कहते हैं? नागरिकता कैसे प्राप्त की जा सकती है?
उत्तर:
नागरिकता का अर्थ  ‘नागरिक’ शब्द की परिभाषा का अध्ययन करने के पश्चात् नागरिकता का अर्थ बताना आसान हो जाता है। नागरिक शब्द की परिभाषा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नागरिक के अधिकारों का प्रयोग तथा कर्तव्यों का पालन नागरिकता है। यह उल्लेखनीय है कि नागरिकता शब्द का अर्थ समयानुसार बदलता रहा है।

प्राचीन यूनान में नगर राज्य की संस्कृति प्रचलित थी तब राज्य के सभी नागरिकों को नागरिकता के अधिकार प्राप्त नहीं थे। नागरिकता के अधिकार कुछ ही लोगों तक सीमित थे। अरस्तु ने केवल कुछ ही लोगों को जो शासन और न्यायिक कार्यों में
रिक कहा है, परन्तु आधुनिक युग में नागरिकता का अधिकार सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के प्रदान किया जाता है। विषय की स्पष्टता के लिए नागरिकता की कुछ परिभाषाएँ नीचे दी जा रही हैं

  • प्रो० लास्की (Prof. Laski) के शब्दों में, “अपनी सुलझी हुई बुद्धि को लोक हित के लिए प्रयोग करना ही नागरिकता है।”
  • बॉयड (Boyd) के अनुसार, “नागरिकता अपनी निष्ठाओं को ठीक से निभाना है।”
  • गैटेल (Gettel) के मतानुसार, “नागरिकता व्यक्ति की वह स्थिति है जिसमें उसे राजनीतिक समाज के सभी राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त हों तथा उस समाज में वह कर्तव्यों का पालन करता हो।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि नागरिकता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति को राज्य में विभिन्न प्रकार के सामाजिक व राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। उनके बदले में वह राज्य के प्रति कुछ कर्तव्यों का निर्वाह करता है।

नागरिकता प्राप्त करने के तरीके:
नागरिकता प्राप्त करने के निम्नलिखित तरीके हैं नागरिक दो प्रकार के होते हैं-जन्मजात नागरिक और राज्यकृत नागरिक जो व्यक्ति जन्म से ही अपने देश के नागरिक होते हैं, वे जन्मजात नागरिक कहलाते हैं। जो व्यक्ति किसी अन्य राज्य या देश के सदस्य होते हैं, परन्तु किसी दूसरे देश में जाकर बस जाते हैं और वहाँ की नागरिकता प्राप्त कर लेते हैं, वे राज्यकृत नागरिक कहलाते हैं।

उदाहरणतः जो लोग भारत में पैदा होते हैं, वे भारत के जन्मजात नागरिक कहलाते हैं। इसके विपरीत, यदि हमारे देश में रहने वाले कुछ विदेशी हमारे देश के नागरिक बनना चाहते हैं तो उन्हें कुछ शर्तों को पूरा करना पड़ता है। इन शर्तों को पूरा करने से ही उन्हें इस देश की नागरिकता प्रदान की जाती है। ये शर्ते प्रत्येक देश में भिन्न-भिन्न होती हैं।

भारत जैसे कुछ देश विदेशियों को नागरिकता प्रदान करने में अत्यन्त उदार हैं। कुछ अन्य देश भी हैं; जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, म्यांमार, श्रीलंका, जहाँ पर नागरिक बनने के लिए अत्यन्त कठिन शर्ते रखी गई हैं, जिनके कारण विदेशियों के लिए इन देशों का नागरिक बनना बड़ा ही कठिन है।

कुछ देशों में जन्मजात एवं राज्यकृत नागरिकों में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा जाता। वे दोनों एक-जैसे राजनीतिक और अन्य अधिकारों का उपयोग करते हैं, परन्तु कुछ देश ऐसे हैं जहाँ इन दोनों प्रकार के नागरिकों में काफी अन्तर किया जाता है; जैसे अमेरिका में केवल जन्मजात नागरिक ही राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति के पद को पा सकते हैं। उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि नागरिकता दो प्रकार की होती है (क) जन्मजात नागरिकता, (ख) राज्यकृत नागरिकता। (क) जन्मजात नागरिकता (Natural Citizenship)-जन्मजात नागरिकता की प्राप्ति के निम्नलिखित आधार हैं

1. भूमि सिद्धांत इस सिद्धांत के अनुसार एक बच्चा उसी देश का नागरिक होता है, जिस देश की भूमि पर वह पैदा होता है, जैसे यदि एक भारतीय अपनी स्त्री के साथ इंग्लैण्ड गया हुआ हो और वहाँ उनसे कोई बच्चा पैदा हो जाए तो वह बच्चा इंग्लैण्ड का नागरिक होगा।

2. रक्त सिद्धांत-रक्त सिद्धांत के अनुसार एक बच्चा उस देश का नागरिक होगा, जिस देश के रहने वाले उसके माता-पिता हैं, चाहे वह किसी भी देश की भूमि पर पैदा हो। यदि एक भारतीय अपनी धर्म पत्नी के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका गया हुआ हो और वहाँ उनका कोई बच्चा पैदा हो तो वह बच्चा रक्त सिद्धांत के अनुसार भारतीय नागरिक होगा।

3. दोहरी नागरिकता कई बार ऐसा होता है कि एक बच्चे को दोहरी जन्मजात नागरिकता मिल जाती है। रक्त सिद्धांत से वह एक राज्य का नागरिक बन जाता है और भूमि सिद्धांत के आधार पर किसी दूसरे राज्य का नागरिक, परन्तु यह भी सत्य है कि व्यक्ति एक ही राज्य का नागरिक रह सकता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को बड़ा (वयस्क) होने पर स्वयं घोषणा करनी पड़ती है कि वह किस राज्य की नागरिकता अपनाता है। इस पर दूसरे राज्य की नागरिकता समाप्त हो जाती है।

(ख) राज्यकृत नागरिकता (Naturalized Citizenship) राज्यकृत नागरिकता निम्नलिखित आधारों पर प्राप्त हो सकती है

1. लम्बा निवास-जब कोई व्यक्ति अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में काफी समय तक रह लेता है तो प्रार्थना-पत्र देने पर वह वहाँ का नागरिक बन सकता है। निवास की अवधि के बारे में विभिन्न देशों के नियमों में भिन्नता है; जैसे भारत में 4 वर्ष, अमेरिका और इंग्लैण्ड में 5 वर्ष का नियम है। कोई भी राज्य निर्धारित अवधि पूरी होने पर भी नागरिकता प्रदान करने से इन्कार कर सकता है और विशेष परिस्थितियों में अवधि से पूर्व भी नागरिकता प्रदान की जा सकती है।

2. विवाह-जब कोई स्त्री किसी विदेशी पुरुष से विवाह कर लेती है तो वह स्त्री अपने पति के देश की नागरिक बन जाती है। इस सम्बन्ध में भी विभिन्न राज्यों के नियमों में कुछ अन्तर है। जापान में यदि कोई विदेशी पुरुष जापानी स्त्री से विवाह करता है तो उस पुरुष को जापान की नागरिकता मिलने का नियम है। यदि कोई विदेशी रूस की स्त्री से विवाह करता है तो उसे रूस में ही रहना होता है, क्योंकि रूस के नियमानुसार वहाँ की स्त्री किसी विदेशी पति के साथ दूसरे देश में नहीं जा सकती।

3. सम्पत्ति खरीदना-कई देशों में यह भी नियम है कि यदि किसी दूसरे देश का नागरिक वहाँ जाकर सम्पत्ति खरीद लेता है तो उसे वहाँ की नागरिकता प्राप्त हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति सम्पत्ति खरीदने से उस देश के हितों में रुचि लेने लगता है। ब्राजील, मैक्सिको, पेरू आदि देशों में यह नियम लागू है।

4. सरकारी नौकरी-कई देशों में (जैसे इंग्लैण्ड में) यह भी नियम है कि यदि किसी विदेशी को वहाँ कोई सरकारी नौकरी मिल जाती है तो प्रार्थना-पत्र देने पर उसे वहाँ की नागरिकता भी प्राप्त हो सकती है। इस आधार पर कई भारतीय इंग्लैण्ड के नागरिक हैं। गोद लेना-ऐसा लगभग सभी देशों में नियम है कि यदि कोई व्यक्ति किसी विदेशी बच्चे को गोद ले लेता है तो उस बच्चे को उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है, जहाँ के व्यक्ति ने गोद लिया हो।

6. माता-पिता को नागरिकता की प्राप्ति-ऐसा नियम भी सभी राज्यों में है कि जब माता-पिता को किसी देश की नागरिकता प्राप्त होती है तो उनके बच्चों को भी उस देश का नागरिक समझा जाता है।

7. विजय इस सामान्य नियम के अनुसार जब एक देश किसी दूसरे देश के किसी भाग को विजय द्वारा अपने राज्य में मिला लेता है तो उस भाग के निवासियों को जीतने वाले देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है। जब कोई राज्य अपना कोई क्षेत्र दूसरे राज्य को देता है तब भी यही नियम लागू होता है।

8. सेना में भर्ती होने से कई बार किसी दूसरे देश में जाकर सेना में भर्ती हो जाने से उस देश की नागरिकता मिल जाती है। सरकारी नौकरी की तरह सेना में भर्ती होना भी वफादारी की निशानी मानी जाती है।

9. इच्छा द्वारा इच्छा द्वारा नागरिकता उस व्यक्ति को मिली हुई समझी जाती है जो मिश्रित सिद्धांतों के अनुसार दो देशों का नागरिक हो और वयस्क होने पर वह अपनी इच्छा से उनमें से किसी एक देश की नागरिकता ले ले।

10. भाषा सीख लेने पर कुछ देशों में यह भी नियम है कि यदि कोई विदेशी वहाँ की राष्ट्रभाषा सीख ले तो उसे वहाँ की नागरिकता मिल सकती है।

11. प्रार्थना-पत्र देने पर राज्यकृत नागरिकता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सरकार के पास प्रार्थना-पत्र भेजना पड़ता है, उसे अच्छे चाल-चलन का प्रमाण-पत्र भी पेश करना पड़ता है तथा अदालत में राज्य के प्रति वफादारी की शपथ लेनी पड़ती है। प्रार्थना-पत्र स्वीकृत हो जाने पर उसे नागरिकता मिल जाती है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 4.
नागरिकता खोई कैसे जा सकती है? अथवा किन कारणों से एक नागरिक की किसी राज्य की नागरिकता समाप्त हो सकती है?
उत्तर:
जिस प्रकार से नागरिकता कई तरीकों से मिल जाती है, उसी प्रकार कई तरीकों से खोई भी जा सकती है। उन तरीकों का वर्णन निम्नलिखित है
1. लम्बी अनुपस्थिति से यदि एक व्यक्ति अपने देश से बहुत दिन तक अनुपस्थित रहता है तो उसकी अपने देश की नागरिकता खोई जाती है। जिस प्रकार लम्बे निवास से नागरिकता मिलती है, उसी प्रकार लम्बी अनुपस्थिति से नागरिकता खोई जा सकती है।

2. विवाह विवाह के द्वारा जहाँ एक देश की नागरिकता प्राप्त होती है, वहाँ अपने देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है। जैसे यदि एक इंग्लैण्ड की लड़की किसी भारतीय लड़के से विवाह कर लेती है तो उसकी इंग्लैण्ड की नागरिकता खो जाती है।

3. दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से भी एक व्यक्ति अपने देश की नागरिकता खो बैठता है, क्योंकि दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से उसकी वफादारी उसी देश की तरफ हो जाती है।

4. निवास स्थान न होने से-साधुओं, संन्यासियों, बेघरों और पागलों आदि की नागरिकता समाप्त हो जाती है, क्योंकि उनका कोई निवास स्थान नहीं होता। आमतौर से मतदाताओं की सूची में नाम लिखवाने के लिए किसी एक निश्चित निवास स्थान का होना अनिवार्य है।

5.विदेशों में अलंकरण प्राप्त करने से किसी दूसरे देश से अलंकरण प्राप्त कर लेने से भी कई बार अपने देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है। कई वार अलंकार की प्राप्ति को भी विदेश के प्रति वफादारी माना जाता है।

6. देश-द्रोह के कारण–सेना से भागने के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का देश-द्रोह करता है तो उसकी भी नागरिकता खो जाती है। कारण साफ है कि देश-द्रोह, देश के प्रति वफादार न होने की मुख्य निशानी है।

7. न्यायालय के फैसले द्वारा-यदि न्यायपालिका किसी मुकद्दमे में किसी व्यक्ति को दण्ड के तौर पर देश से निकाल दे तो उसकी नागरिकता समाप्त हो सकती है। आमतौर से ऐसा निर्णय तभी दिया जाता है जब किसी व्यक्ति की वफादारी पर शक हो।

8. देश-त्याग यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से विदेशी नागरिकता ग्रहण करना चाहता है तो उसे अपने देश की नागरिकता को त्याग करने की घोषणा करनी पड़ती है। इससे उसकी मूल नागरिकता समाप्त हो जाती है।

9. पागल या दिवालिया हो जाने पर अदालत द्वारा पागल या दिवालिया घोषित कर दिए जाने पर व्यक्ति की नागरिकता समाप्त हो जाती है।

10. गोद लेना यदि कोई बच्चा किसी विदेशी द्वारा गोद लिया जाए तो बच्चे की अपने देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है और वह नए माता-पिता के देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है।

11. सम्पत्ति खरीदने पर यदि दूसरे देश का कोई व्यक्ति पेरू या मैक्सिको आदि देशों में सम्पत्ति खरीद लेता है तो उसे वहाँ की नागरिकता प्राप्त हो जाती है और उसके अपने देश की नागरिकता समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 5.
आदर्श नागरिकता के मार्ग में कौन-कौन सी बाधाएँ हैं?
उत्तर:
आदर्श नागरिक किसी भी देश की अमूल्य सम्पत्ति है तथा राष्ट्र की प्रगति और विकास आदर्श नागरिकों पर ही निर्भर करता है, परन्तु समाज में कुछ ऐसी परिस्थतियाँ होती हैं या उत्पन्न हो जाती हैं जो नागरिक को उसके आदर्श मार्ग से विचलित कर देती हैं। उन्हीं परिस्थितियों को ही आदर्श नागरिकता के मार्ग की बाधाएँ कहा जाता है। इन्हीं बाधाओं का वर्णन निम्नलिखित है

1. आलस्य-आलस्य अच्छी नागरिकता का घोर शत्रु है। आलस्य से तात्पर्य राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीनता तथा लापरवाही है। यदि नागरिक को राजनीतिक विषयों का ज्ञान नहीं होगा तब वह राजनीतिक कार्यों में भाग नहीं ले सकेगा। अधिकतर व्यक्ति यह समझते हैं कि राजनीतिक विषयों का उनके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः उनको इनमें रुचि लेने की क्या आवश्यकता है? वे सार्वजनिक मामलों के प्रति उदासीन रहना ही पसन्द करते हैं। न वे सार्वजनिक समस्याओं का अध्ययन करते हैं और न ही इनके हल ढूंढने का प्रयत्न करते हैं।

परिणाम यह होता है कि राज्य का प्रबन्ध कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के हाथों में चला जाता है जो राज्य की शक्ति को अपनी स्वार्थ-पर्ति के लिए प्रयोग करने लगते हैं। हम जानते हैं कि अनेक मतदाता केवल आलस्य के कारण अपना मत देने के लिए भी नहीं जाते। वे समझते हैं कि उनकी ओर से कोई भी दल शासन करे, उनको कोई चिन्ता नहीं। ऐसे विचार निःसन्देह अच्छी नागरिकता के मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।

यह ठीक है कि आधुनिक राज्य की विशालता के कारण एक अकेला नागरिक प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय समस्याओं पर प्रभाव नहीं डाल सकता, परन्तु उसको यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य की शक्ति में वृद्धि के साथ-साथ उसकी ज़िम्मेदारी बढ़ रही है, अतः उसको राजकीय कार्यों के प्रति उदासीनता का दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए।

2. स्वार्थ-स्वार्थ भी अच्छी नागरिकता का भारी शत्रु है। बहुधा नागरिक सार्वजनिक हितों का त्याग करके अपने स्वार्थों की पूर्ति में लग जाते हैं। जब एक मतदाता विधानमण्डल के लिए खड़े हुए उम्मीदवार से रिश्वत लेकर अपना मत दे देता है तो देश के हित का त्याग करके अपने स्वार्थ को पूरा करता है। उसके इस स्वार्थी हित से अनुचित उम्मीदवार का चुनाव हो सकता है, जो विधानमण्डल में जाकर अपने स्वार्थ को पूरा करेगा। इस प्रकार देश में स्वार्थ का साम्राज्य छा जाता है और चारों ओर बेईमानी, रिश्वतखोरी और धोखेबाजी का बोलबाला हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने में लग जाता है, जिससे देश के हित को हानि पहुँचती है।

3. दलबन्दी-अच्छी नागरिकता के लिए दलबन्दी भी एक रुकावट है। वैसे तो राजनीतिक दलों को प्रजातन्त्र का प्राण कहा जाता है, परन्तु जब राजनीतिक दलों का निर्माण राष्ट्रीय हितों के आधार पर न होकर जातिगत हितों के आधार पर होता है तो दल राजनीतिक वातावरण को भ्रष्ट कर देते हैं। नागरिक जातिगत दलबन्दी में फंसकर राष्ट्रीय हितों का त्याग कर देते हैं और अपनी-अपनी जाति के हितों को पूरा करने में लग जाते हैं, जिससे समाज में परस्पर द्वेष, घृणा तथा कलह उत्पन्न हो जाता है। भारत के विभाजन का मूल कारण दलीय भावना थी।

4. निरक्षरता-निरक्षरता मनुष्य को पशु-तुल्य बना देती है। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। उसमें बुद्धि तथा व्यक्तित्व जैसी वस्तुओं का अभाव हो जाता है। प्रो० लॉस्की (Prof. Laski) के मतानुसार, नागरिकता व्यक्ति के लोक हित कार्य के प्रति न्यायात्मक दृष्टि (Judicious Power) पर निर्भर करती है। एक निरक्षर व्यक्ति के पास यह दृष्टि नहीं होती। अनपढ़ व्यक्ति राज्य का प्रबन्ध सुचारू रूप से नहीं कर सकते। अज्ञानी तथा अशिक्षित मतदाताओं के कारण प्रजातन्त्र भीड़तन्त्र (Mobocracy) बन जाता है।

5. गरीबी-यदि नागरिक निर्धन हैं तो अच्छी नागरिकता का उत्पन्न होना कठिन है। गरीब व्यक्ति अपराध की ओर अग्रसर हो जाता है। वह डाकू, चोर, घातक और धोखेबाज बन जाता है। निर्धनता की मौजूदगी में नागरिकों का चरित्र अच्छा नहीं बन सकता। जैसा कि कहा गया है, निर्धनता सब बुराइयों की जननी है। इसके अतिरिक्त निर्धन व्यक्ति को लोक हित के कार्य में भी कोई रुचि नहीं होगी, क्योंकि इसको तो पहले उदर-पालन की चिन्ता होती है। जिस व्यक्ति को दो समय भरपेट भोजन नहीं मिलता, वह देश के कार्यों में क्या रुचि दिखलाएगा? जिस देश के लोग अत्यधिक गरीब हैं, वह कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

6. बुरे रीति-रिवाज-पुराने तथा बुरे रीति-रिवाज भी अच्छी नागरिकता को बढ़ने से रोकते हैं। उदाहरणतः भारत में जाति-पाति की प्रथा अच्छी नागरिकता के मार्ग में बड़ी बाधा है। इस प्रकार दहेज-प्रथा, पर्दा-प्रथा आदि बुराइयां भी अच्छी नागरिकता को विकसित होने से रोकती हैं।

7. साम्प्रदायिकता यदि नागरिकों का दृष्टिकोण साम्प्रदायिक होगा तो वे राष्ट्रीय हितों का त्याग करके अपने साम्प्रदायिक हितों की पूर्ति करेंगे। साम्प्रदायिकता व्यक्तियों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित कर देती है जिसका परिणाम परस्पर ईर्ष्या-द्वेष होता है। हिन्दू अपने-आपको मुसलमानों से अलग समझते हैं और सिक्ख अपने को हिंदुओं से। यह सांप्रदायिकता का ही परिणाम था कि भारत का विभाजन हुआ। सांप्रदायिकता के कारण नागरिक का दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। उनमें सद्भावना नहीं रहती तथा स्वार्थपरता बढ़ जाती है।

सांप्रदायिकता के साथ-साथ प्रान्तीयता भी आदर्श नागरिकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। प्रान्तीयता के कारण देश की एकता को हानि पहुंचती है और देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंट जाता है। अतः जिस देश में सांप्रदायिकता, जातीयता तथा धार्मिक भेदभाव होगा, उस देश के नागरिक कदापि आदर्श नागरिक नहीं बन सकेंगे।

8. संकुचित राष्ट्रीयता अनेक लेखकों का विचार है कि संकुचित राष्ट्रीयता भी अच्छी नागरिकता के मार्ग में बड़ी भारी रुकावट है। संकुचित राष्ट्रीयता के कारण कभी-कभी एक देश दूसरे देश पर आक्रमण कर देता है जिससे संसार की शान्ति भंग हो जाती है और मानव-जाति को हानि पहंचती है। राष्ट्रीयता तभी तक अच्छी है जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के साथ पंचशील के सिद्धांत में विश्वास करे, परन्तु जब राष्ट्रीयता साम्राज्यवाद की ओर बढ़ जाती है तो संसार युद्ध में फंस जाता है। नागरिकता का आदर्श विश्व-नागरिकता का आदर्श है, परन्तु संकुचित राष्ट्रीयता विश्व-नागरिकता के मार्ग में बाधा डालती है।

9. क्षेत्रवाद सांप्रदायिकता की भाँति, क्षेत्रवाद भी आदर्श नागरिकता के मार्ग में आने वाली बड़ी बाधा है। क्षेत्रवाद की भावना नागरिकता के दृष्टिकोण और सोच को संकुचित कर देती है। वह अपने क्षेत्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोचता। यही नहीं, इस भावना के कारण एक क्षेत्र के वासी दूसरे क्षेत्र के वासियों से घृणा करने लगते हैं। यहाँ तक कि क्षेत्रीय भावना के आधार पर लोग हिंसा पर भी उतर आते हैं। ये सभी बातें राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक होती हैं। अतः स्पष्ट है कि क्षेत्रवाद की भावना आदर्श नागरिकता के मार्ग में बाधा है।

10. पूंजीवाद-पूंजीवाद भी आदर्श नागरिकता के मार्ग में एक बाधा है। पूंजीवाद आदर्श नागरिकता के लिए घातक सिद्ध हुआ है। पूंजीवाद एक व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत पूंजीपतियों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। पूंजीपति श्रमिकों का शोषक है। पूंजीवाद में श्रमिक अधिक गरीब और धनिक अधिक धनी होते चले जाते हैं। श्रमिकों और पूंजीपतियों में संघर्ष चलता है तो हिंसा का जन्म होता है। यही नहीं, पूंजीवाद में राष्ट्रीय हितों की भी अवहेलना होती है। पूंजीपति अपने ही हितों की पूर्ति के लिए उत्पादन करते हैं।

इसीलिए विचारकों ने पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने या फिर उस पर कठोर नियन्त्रण लगाने के सुझाव दिए हैं ताकि पूंजीपति मजदूरों का शोषण न कर सकें और न ही आर्थिक व्यवस्था खराब कर सकें। उपर्युक्त बाधाओं की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये बाधाएँ नागरिक को एक आदर्श नागरिक बनने से रोकती हैं। यही नहीं, ये बाधाएँ अन्तिम रूप से राष्ट्र की प्रगति और विकास के मार्ग को भी अवरुद्ध करती हैं, क्योंकि आदर्श नागरिक ही समाज और राष्ट्र के कर्णधार बन सकते हैं।

प्रश्न 6.
आदर्श नागरिकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर कैसे किया जा सकता है?
उत्तर:
यह स्पष्ट है कि यदि देश में अच्छी नागरिकता का विकास करना है तो इसके मार्ग की बाधाओं को दूर किया जाए। लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) ने इन बाधाओं को दूर करने के निम्नलिखित दो उपाय बतलाए हैं

(क) यान्त्रिक उपचार (Mechanical Remedies), (ख) नैतिक उपचार (Ethical Remedies)।
यान्त्रिक उपचार वे हैं जो सरकार की मशीनरी में कुछ परिवर्तन लाकर इन बाधाओं को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। नैतिक उपचार वे हैं जो नागरिकों के चरित्र को उच्च बनाने का उद्देश्य रखते हैं।

(क) यान्त्रिक उपचार (Mechanical Remedies) यान्त्रिक उपचार में निम्नलिखित उपचार के ढंग सम्मिलित हैं

1. अनिवार्य मतदान कुछ लेखकों का विचार है कि अनिवार्य मतदान द्वारा नागरिकों की राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीनता को दूर किया जा सकता है। बैल्जियम (Belgium) तथा ऑस्ट्रेलिया (Australia) में मतदाताओं के लिए मतदान करना आवश्यक है, परन्तु यह उपचार अनेक देशों द्वारा नहीं अपनाया गया। यह ठीक है कि अनिवार्य मतदान से नागरिकों की उदासीनता को कुछ अंश तक दूर किया जा सकता है, परन्तु दबाव में मतदाता लापरवाही से वोट डाल सकते हैं, जिसका परिणाम अयोग्य उम्मीदवारों का चुनाव हो सकता है।

2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व यह विचार किया जाता है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व द्वारा अल्पसंख्यकों को अपनी वोट-शक्ति के अनुसार विधानमण्डल में स्थान प्राप्त हो सकते हैं। इस प्रणाली द्वारा प्रत्येक अल्पसंख्यक वर्ग अपने-आपकी बहुसंख्यक वर्ग के अत्याचारों से रक्षा कर सकता है। यह प्रणाली विधानमण्डल को जनता का वास्तविक प्रतिनिधि रूप प्रदान करती है।

3. प्रत्यक्ष विधि निर्माण-राजनीतिक कार्यों के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए लोकमत संग्रह (Refrendum) तथा अनुक्रम (Initiative) के उपायों को अपनाया जाता है। लोकमत संग्रह के अन्तर्गत नागरिक विधानमण्डल द्वारा पास किए गए किसी बिल पर अपने विचार प्रकट करते हैं। यदि जनता का बहुमत उस बिल के पक्ष में मतदान कर देता है तो वह बिल कार्यान्वित हो जाता है अन्यथा नहीं। अनुक्रम के अन्तर्गत नागरिक विधानमण्डल के विचार हेतु कोई बिल भेज सकते हैं । इस प्रकार इन उपायों द्वारा लोगों को सार्वजनिक महत्त्व के विषयों पर सोच-विचार करने तथा अपनी उदासीनता त्यागने के योग्य बनाया जाता है।

4. भ्रष्टाचार विरोधी उपायराज्य ऐसे कानूनों का निर्माण कर सकता है जिनके द्वारा चुनावों में भ्रष्टाचार तथा गैर-कानूनी विधियों के प्रयोग करने पर कठोर दण्ड दिया जा सके। ऐसा करने पर चुनाव ठीक प्रकार से हो सकेगा और मतों का क्रय-विक्रय आदि बन्द हो जाएगा।

(ख) नैतिक उपचार (Ethical Remedies)-यान्त्रिक उपचारों की अपेक्षा नैतिक उपचारों को अधिक कार्यसाधक अर्थात् प्रभावशाली सिद्ध माना गया है, जिसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है

1. अच्छी शिक्षा नागरिकों को नैतिक बनाने का सर्वश्रेष्ठ साधन उनको शिक्षित करना है। सच तो यह है कि बिना शिक्षा के किसी भी व्यक्ति का नागरिक जीवन श्रेष्ठ नहीं हो सकता। अच्छी नागरिकता अच्छे मन तथा अच्छे चरित्र पर निर्भर है। चरित्र-निर्माण का एकमात्र साधन उत्तम शिक्षा है। प्लेटो (Plato) ने ठीक ही कहा है कि उस राज्य में कानूनों की कोई आवश्यकता नहीं, जहाँ के सभी नागरिक
श के सारे राजनीतिक दल मिलकर यह प्रयत्न करें कि बच्चों में आदर्श नागरिकता के गुण उत्पन्न किए जाएँ। शिक्षा तथा प्रचार द्वारा सांप्रदायिकता, प्रान्तीयता, स्वार्थपरता तथा दलबन्दी का अन्त किया जाना चाहिए।

2. गरीबी का अन्त-गरीबी आदर्श नागरिक के लिए अभिशाप है। इसे दूर किया जाना चाहिए। गरीबी नागरिक को गलत कार्य करने के लिए विवश कर देती है। अतः राज्य को समाज से गरीबी को दूर करने के लिए उपाय करने चाहिएँ। राज्य की आर्थिक व्यवस्था का संचालन इस प्रकार होना चाहिए कि अमीर और गरीब में अन्तर कम हो जाए। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि राज्य को आर्थिक असमानता को दूर करना चाहिए। जब तक आर्थिक असमानता रहेगी तब तक आदर्श नागरिकता भी स्थापित नहीं हो पाएगी और राज्य या समाज का कल्याण भी नहीं हो पाएगा।

3. सामाजिक समानता-सामाजिक समानता की स्थापना भी बाधाओं को दूर करने का एक सशक्त माध्यम है। सामाजिक भेदभाव दूर करके सामाजिक समानता की स्थापना की जा सकती है। सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का बराबर अंग है और सभी को समान सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिएँ। किसी व्यक्ति से धर्म, जाति, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। जो व्यक्ति सामाजिक असमानता को बढ़ावा दे या देने का प्रयत्न करे, सरकार द्वारा उसे दण्डित किया जाना चाहिए।

4. सामाजिक बुराइयों का अन्त-समाज में प्राचीनकाल से कुछ सामाजिक बुराइयाँ चली आ रही हैं जो आदर्श नागरिकता के लिए कलंक हैं; जैसे छुआछूत, दहेज-प्रथा, सती-प्रथा आदि। इन सामाजिक बुराइयों को राज्य द्वारा दूर किया जाना चाहिए। सरकार द्वारा सामाजिक बुराइयां विरोधी कानूनों का निर्माण किया जाना चाहिए तथा कठोर दण्ड की व्यवस्था की जानी चाहिए।

5. उच्च आदर्श नागरिकों के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करना अपने-आप में बाधाओं को दूर करने का सर्वोच्च माध्यम है। यदि नागरिकों को नैतिकता के आधार पर उच्च आदर्शों का पाठ पढ़ाया जाए तो बहुत-सी बाधाएँ; जैसे सांप्रदायिकता, प्रान्तीयता, क्षेत्रवाद, संकीर्णता की भावनाएँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी। उच्च आदर्शों की स्थापना के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो तथा टेलीविज़न का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु ध्यान रहे रेडियो तथा टेलीविज़न पर केवल आदर्शात्मक कार्यक्रमों का ही प्रसारण किया जाना चाहिए।

6. निष्पक्ष और स्वतन्त्र प्रेस-रेडियो और टेलीविज़न की भाँति समाचार-पत्र भी आदर्श नागरिकता के मार्ग में बाधाओं को दूर करने में एक महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, परन्तु प्रेस स्वतन्त्र और निष्पक्ष होनी चाहिए तभी एक निष्पक्ष लोकमत तैयार किया जा सकेगा और समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में सहायता मिल सकेगी।।

7. राजनीतिक दल-राजनीतिक दल भी आदर्श नागरिकता की बाधाओं को दूर करने में अहम् भूमिका निभाते हैं। वास्तविकता में आधुनिक लोकतान्त्रिक युग में राजनीतिक दल लोकतन्त्र व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं परन्तु राजनीतिक दल का निर्माण कुछ आदर्शों के आधार पर होना चाहिए। राजनीतिक दलों को राष्ट्र हित को समक्ष रखकर कार्य करना चाहिए। राजनीतिक दलों को चुनाव के समय निम्न स्तर के तरीकों को नहीं अपनाना चाहिए तथा राजनीतिक नेताओं को ईमानदारी, बुद्धिमत्ता एवं समझदारी का परिचय देना चाहिए, क्योंकि राजनेता जनता के आदर्श होते हैं। यदि वे आदर्श प्रस्तुत नहीं करते तो नागरिक उनसे आदर्श का पाठ कैसे पढ़ सकते हैं।

निष्कर्ष-दी गई चर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि आदर्श नागरिकता का निर्माण करना और आदर्श नागरिकता के मार्ग में व्याप्त बाधाओं को दूर करना समाज के एक पक्ष के वश की बात नहीं है। इस पवित्र कार्य में तो प्रत्येक पक्ष को अपना-अपना योगदान देना होगा। राज्य, सरकार, राजनीतिक दल, राजनेता, अभिनेता, रेडियो, समाचार-पत्र आदि सभी का यह संयुक्त दायित्व बनता है कि वे आदर्श नागरिकता की स्थापना में अपना सम्पूर्ण योगदान प्रदान करें।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्नलिखित में से कौन-सी नागरिक की विशेषता नहीं है?
(A) राज्य की सदस्यता
(B) अधिकारों की प्राप्ति
(C) राज्य के प्रति वफादारी
(D) अस्थायी निवासी
उत्तर:
(D) अस्थायी निवासी

2. निम्नलिखित में से कौन-सा आदर्श नागरिक का गुण है?
(A) अच्छा स्वास्थ्य
(B) अच्छा चरित्र
(C) सामाजिक भावना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

3. नागरिकता प्राप्त करने का आधार है
(A) उस देश में व्यापार करना
(B) उस देश के किसी विश्वविद्यालय में दाखिला लेना
(C) उस देश के किसी नागरिक से विवाह करना
(D) उस देश में सैर करने के लिए जाना
उत्तर:
(C) उस देश के किसी नागरिक से विवाह करना

4. नागरिक को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होते हैं
(A) सामाजिक अधिकार
(B) राजनीतिक अधिकार
(C) आर्थिक अधिकार
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

5. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में कानून संसद द्वारा निम्नलिखित वर्ष में पास किया गया था
(A) 1948 में
(B) 1951 में
(C) 1957 में
(D) 1955 में
उत्तर:
(D) 1955 में

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

6. नागरिकता के उदारवादी सिद्धान्त का समर्थक कौन है?
(A) रॉबर्ट नाजिक
(B) लास्की
(C) एंथनी गिडेन्स
(D) टी०एच०मार्शल
उत्तर:
(D) टी०एच०मार्शल

7. निम्नलिखित में से किसे विदेशी के अन्तर्गत माना जाता है?
(A) स्थायी विदेशी
(B) अस्थायी विदेशी
(C) राजदूत
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

8. लॉर्ड ब्राइस ने आदर्श नागरिकता के लिए निम्नलिखित में से कौन-सा गुण बताया है?
(A) बुद्धिमता
(B) आत्मसंयम
(C) विवेक
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

9. एक चरित्रवान नागरिक का गुण निम्नलिखित में से कौन-सा नहीं है?
(A) आज्ञापालन
(B) हिंसा
(C) सत्य
(D) ईमानदारी
उत्तर:
(B) हिंसा

10. नागरिकता प्राप्त करने का तरीका निम्नलिखित में से कौन-सा है?
(A) जन्मजात नागरिक
(B) राज्यकृत नागरिक
(C) (A) और (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) (A) और (B) दोनों

11. जन्मजात नागरिकता प्राप्ति का आधार निम्नलिखित में से है
(A) भूमि सिद्धान्त
(B) रक्त सिद्धान्त
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) (A) एवं (B) दोनों

12. राज्यकृत नागरिकता का निम्नलिखित में से कौन-सा आधार नहीं है?
(A) लम्बा निवास
(B) सेना में भर्ती होने पर
(C) प्रार्थना-पत्र देने पर
(D) स्वयं मनचाही इच्छा से
उत्तर:
(D) स्वयं मनचाही इच्छा से

13. निम्नलिखित में से कौन-सा तरीका एक नागरिक की नागरिकता के खोने का आधार हो सकता है?
(A) लम्बी अनुपस्थिति से
(B) दूसरे देश की सेना में भर्ती होने से
(C) देश-द्रोह के कारण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

14. किसी विदेशी द्वारा भारतीय नागरिकता को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित में से किस शर्त को पूर्ण करना होगा?
(A) संविधान की 8वीं अनुसूची में वर्णित किसी एक
(B) आवेदन की तिथि से पूर्व कम-से-कम एक वर्ष भारत में भाषा को जानता हो रहा हो
(C) वह चरित्र सम्पन्न व्यक्ति हो
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

15. लॉर्ड ब्राइस द्वारा अच्छी नागरिकता के मार्ग में बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित में से कौन-सा उपाय सुझाया है?
(A) यांत्रिक उपचार
(B) नैतिक उपचार
(C) यांत्रिक एवं नैतिक उपचार
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) यांत्रिक एवं नैतिक उपचार

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीनता को दूर करने का कोई एक उपाय बताएँ।
उत्तर:
अनिवार्य मतदान।

2. इंग्लैंड में एक विदेशी के लिए जन्मजात नागरिकता के कौन-से सिद्धान्त को अपनाया गया है?
उत्तर:
भूमि सिद्धान्त।

3. किस देश में नागरिकों को प्रजा कहा जाता है?
उत्तर:
इंग्लैंड में।

4. नागरिकता के सम्बन्ध में ‘रेखीय’ (Linear) सिद्धान्त किस विद्वान द्वारा पेश किया गया है?
उत्तर:
मार्शल द्वारा।

रिक्त स्थान भरें

1. …………….. नागरिकता के मार्क्सवादी सिद्धान्त का व्याख्याकर्ता है।
उत्तर:
एंथनी गिडिन्स

2. “किसी राज्य का नागरिक वह व्यक्ति है जिसको उस राज्य के विधान-कार्य तथा न्याय-प्रशासन में भाग लेने का पूर्ण अधिकार है।” यह शब्द ……………… के हैं।
उत्तर:
अरस्तू

3. “नागरिकता अपनी निष्ठाओं को ठीक से निभाना है।” यह कथन ………. ने कहा।
उत्तर:
बॉयड

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
अधिकार वे सुविधाएँ, अवसर व परिस्थितियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त करके व्यक्ति अपने जीवन के शिखर पर पहुँच सकता है।

प्रश्न 2.
अधिकार की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर:
डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक अवस्थाएँ हैं जो व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। अधिकार सामाजिक जीवन का आवश्यक पक्ष है।”

प्रश्न 3.
अधिकारों की कोई एक विशेषता बताइए।
उत्तर:
अधिकार व्यापक होते हैं। वे किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं होते, बल्कि समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं।

प्रश्न 4.
कानूनी अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
जिन अधिकारों को राज्य की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, उन्हें कानूनी अधिकार या वैधानिक अधिकार कहते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अदालत में दावा कर सकता है। इनकी अवहेलना करने वाले को दंडित किया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 5.
कानूनी अधिकार के प्रकार बताएँ।
उत्तर:
कानून अधिकार चार प्रकार के होते हैं-

  • नागरिक अधिकार,
  • राजनीतिक अधिकार,
  • आर्थिक अधिकार,
  • मौलिक अधिकार।

प्रश्न 6.
सामाजिक अधिकार से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
जीवन को सुखी एवं सभ्य बनाने के लिए प्राप्त सुविधाओं को सामाजिक अधिकार कहा जाता है। सामाजिक अधिकार बहु-पक्षीय हैं। ये अधिकार समाज में रहने वाले प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 7.
किन्हीं दो सामाजिक अधिकारों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:

  • जीवन का अधिकार यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। जीवन के अधिकार में आत्मरक्षा का अधिकार भी शामिल है।
  • संपत्ति का अधिकार-संपत्ति का अधिकार जीवन-यापन के लिए अनिवार्य है। इसके अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को निजी संपत्ति रखने का अधिकार है।

प्रश्न 8.
किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों के नाम बताएँ।
उत्तर:

  • मताधिकार-मताधिकार से तात्पर्य है कि सभी व्यस्क नागरिकों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप देश के शासन में भाग लेने की व्यवस्था।
  • निर्वाचित होने का अधिकार-25 वर्ष की आयु प्राप्त प्रत्येक नागरिक को निर्वाचित होने का अधिकार प्राप्त है।

प्रश्न 9.
मुख्य प्राकृतिक अधिकारों की सूची बनाएँ।
उत्तर:
जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता के अधिकार एवं संपत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
प्राकृतिक अधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य को जन्म से प्राकृतिक रूप में प्राप्त होते हैं। राज्य द्वारा इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता। ..

प्रश्न 11.
कानूनी अधिकार की आधारभूत विशेषता क्या है?
उत्तर:
कानूनी अधिकार की आधारभूत विशेषता, उसके पीछे कानून की शक्ति है जिसकी अवहेलना करने पर दंड मिलता है।

प्रश्न 12.
अधिकार व्यक्ति के लिए क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
अधिकार व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए एक आवश्यक शर्त है जिसके अभाव में विकास संभव नहीं है।

प्रश्न 13.
प्रेस की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
प्रेस की स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि प्रेस पर सरकार के किसी भी प्रकार के अनुचित प्रतिबंधों का अभाव।

प्रश्न 14.
संपत्ति के अधिकार को किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
उत्तर:
संपत्ति के अधिकार को नागरिक एवं आर्थिक अधिकार की श्रेणी में रखा जा सकता है।

प्रश्न 15.
कर्त्तव्य शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई?
उत्तर:
कर्त्तव्य को अंग्रेजी में Duty कहते हैं, जिसका मूल शब्द Debt है, जिसका अर्थ ऋण है। अतः इसी शब्द से कर्त्तव्य शब्द की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न 16.
कर्तव्यों को कितने भागों में विभाजित किया जा सकता है?
उत्तर:

  • नैतिक कर्त्तव्य-नैतिक कर्त्तव्य का अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक हित में जिन कार्यों को हमें करना चाहिए, उन्हें स्वेच्छापूर्वक करें। नैतिक कर्तव्यों के पहले दंड की भावना के स्थान पर नैतिकता की भावना होती है।
  • कानूनी कर्तव्य-जिन कर्त्तव्यों को कानून के दबाव से अथवा दंड पाने के भय से माना जाता है, उन्हें कानूनी कर्त्तव्य कहते हैं।

प्रश्न 17.
कानूनी कर्तव्यों में कौन से कर्त्तव्य सम्मिलित हैं? अथवा किन्हीं दो कानूनी कर्तव्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:

  • करों की अदायगी-करों की अदायगी न करने पर दंड दिया जा सकता है।
  • कानूनों की पालना कानून का उल्लंघन करना राज्य का विरोध करना ही है। कानून भंग करना अपराध है। इसलिए कानून की अवहेलना पर दंड दिया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 18.
नागरिकों द्वारा निभाए जाने वाले किन्हीं दो कर्तव्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों का उल्लेख निम्नलिखित है

  • नागरिक को अपने राज्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए।
  • सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करना चाहिए।

प्रश्न 19.
अधिकार और कर्त्तव्य में दो संबंध बताइए।
उत्तर:

  • एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है। एक व्यक्ति का जो अधिकार है, वही दूसरों का कर्त्तव्य बन जाता है कि वह उसके अधिकार को माने तथा उसमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करे।
  • दूसरे का अधिकार उसका कर्त्तव्य भी है।

प्रश्न 20.
नागरिकों के दो आर्थिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • काम का अधिकार,
  • उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार।

प्रश्न 21.
‘अधिकार में कर्तव्य निहित हैं। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं, इसलिए अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पक्ष बताए गए हैं। वाइल्ड (Wilde) का कहना है, “केवल कर्तव्यों की दुनिया में ही अधिकारों का महत्त्व होता है।” कर्त्तव्य के बिना कोई भी अधिकार वास्तविक और व्यावहारिक रूप में लागू नहीं हो सकता।

प्रश्न 22.
अधिकार किसे कहते हैं?
उत्तर:
समाज में रहते हुए मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज से मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों में, अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और उन्हें समाज ने मान्यता दी होती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार की चार मुख्य परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
अधिकार की चार मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  • प्रो० ग्रीन के अनुसार, “अधिकार वह शक्ति है जो सामान्य हित के लिए अभीष्ट और सहायक रूप में स्वीकृत होती है।”
  • वाइल्ड के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वाधीनता की उचित मांग को ही अधिकार कहते हैं।”
  • प्रो० हैरोल्ड लास्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।”
  • हॉलैंड के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कार्य को समाज के मत तथा शक्ति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है।”

प्रश्न 2.
अधिकार के पाँच मुख्य तत्त्वों अथवा विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
अधिकार के पाँच मुख्य तत्त्व अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. अधिकार व्यक्ति की मांग है अधिकार एक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों के विरूद्ध अपनी सुविधा की मांग है। यह समाज पर एक दावा है, परंतु इसे हम शक्ति नहीं कह सकते।

2. अधिकारों का नैतिक आधार है-व्यक्ति की नैतिक मांगें ही अधिकार बन सकती हैं, अनैतिक मांगें नहीं। जीवित रहने, संपत्ति रखने, विचार प्रकट करने आदि की मांगें नैतिक हैं परंतु चोरी करने, मारने या गाली-गलौच करने की मांग अनैतिक है।

3. समाज द्वारा स्वीकृत मांगें ही अधिकार हैं व्यक्ति की वे मांगें ही अधिकार कहलाती हैं, जिन्हें समाज स्वीकार करता है। व्यक्ति द्वारा बलपूर्वक प्राप्त की गई सुविधा अधिकार नहीं कहलाती।

4. अधिकार समाज में प्राप्त होते हैं-अधिकारों तथा कर्तव्यों का क्रम समाज में ही चलता है। समाज से बाहर व्यक्ति के न तो कोई अधिकार हैं और न ही कोई कर्त्तव्य।।

5. अधिकारों के साथ कर्तव्य जुड़े हैं-प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा है। समाज के प्रति व्यक्ति के उतने ही कर्तव्य होते हैं जितने उसे अधिकार प्राप्त होते हैं। बिना कर्त्तव्यों के अधिकार का अस्तित्व ही नहीं होता।

प्रश्न 3.
व्यक्ति को प्राप्त किन्हीं तीन अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति को निम्नलिखित तीन अधिकार प्राप्त हैं
1. जीवन का अधिकार-जीवन का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसके बिना अन्य अधिकार व्यर्थ हैं। सरकार को नागरिकों के जीवन की रक्षा करनी चाहिए।

2. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार-धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ है कि मनुष्य को स्वतंत्रता है कि वह जिस धर्म में चाहे विश्वास रखे। जिस देवता की जिस तरह चाहे पूजा करे। सरकार को नागरिकों के धर्म में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

3. काम का अधिकार प्रत्येक नागरिक को अपनी योग्यता तथा शक्ति के अनुसार नौकरी प्राप्त करने और व्यवसाय करने का पूरा-पूरा अधिकार होता है। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह सभी नागरिकों को काम दे। यदि राज्य नागरिकों को काम नहीं दे सकता तो उसे उन्हें मासिक निर्वाह भत्ता देना चाहिए। भारत में सरकार नागरिकों को काम दिलवाने में सहायता करती है।

प्रश्न 4.
नैतिक अधिकार क्या है?
उत्तर:
कुछ अधिकार नैतिक आधार पर दिए जाते हैं। मनुष्य तथा समाज दोनों के हित के लिए व्यक्ति को कुछ सुविधाएं दी जानी चाहिएँ । जीवन की सुरक्षा, स्वतंत्रता, धर्म-पालन, शिक्षा-प्राप्ति, संपत्ति रखने आदि की सुविधाएं देने पर ही मनुष्य की भलाई हो सकती है। इनसे समाज भी उन्नत होता है, इसलिए समाज स्वेच्छा से इन अधिकारों को प्रदान करता है।

जब तक ऐसे अधिकारों के पीछे कानून की मान्यता या दबाव नहीं रहता, ये नैतिक अधिकार कहलाते हैं। नैतिक अधिकारों को मान्यता सामाजिक निंदा तथा आलोचना के भय से दी जाती है। यदि बुढ़ापे में माता-पिता की सेवा नहीं की जाती है तो समाज निंदा करता है। इसलिए माता-पिता की सेवा करना नैतिक अधिकार है।

प्रश्न 5.
कानूनी अधिकार का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जिन अधिकारों को राज्य की स्वीकृति मिल जाती है, उन्हें कानूनी या वैधानिक अधिकार कहते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अदालत में दावा कर सकता है। जीवन, संपत्ति, कुटुंब आदि के अधिकार राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। यदि कोई व्यक्ति या अधिकारी इन्हें छीनने का प्रयत्न करता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। राज्य इनका उल्लंघन करने वालों को दंड देता है, इसलिए कानूनी अधिकार के पीछे राज्य की शक्ति रहती है। कानूनी अधिकारों के चार उप-विभाग बन गए हैं जो हैं मौलिक अधिकार, सामाजिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार एवं आर्थिक अधिकार ।

प्रश्न 6.
मौलिक अधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मौलिक अधिकार मनुष्य के महत्त्वशाली दावों (Claims) को मौलिक अधिकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कहना चाहिए कि मनुष्य के विकास के लिए जो सामाजिक शर्ते अधिक आवश्यक हैं, उन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं। मौलिक अधिकार सभी देशों में एक प्रकार के नहीं हैं। भारत में निम्नलिखित मौलिक अधिकार संविधान में दिए हुए हैं

  • समानता का अधिकार,
  • स्वतंत्रता का अधिकार,
  • शोषण के विरूद्ध अधिकार,
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार,
  • संवैधानिक उपचार का अधिकार।

प्रश्न 7.
नागरिक अथवा सामाजिक अधिकारों का क्या अर्थ है? पांच महत्त्वपूर्ण नागरिक अथवा सामाजिक अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नागरिक अथवा सामाजिक अधिकार राज्य के द्वारा देशवासियों, राज्यकृत नागरिकों तथा प्रायः विदेशियों को भी दिए जाते हैं। ऐसे अधिकार व्यक्ति के सर्वोन्मुखी विकास के लिए अनिवार्य होते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण नागरिक अथवा सामाजिक अधिकार इस प्रकार हैं

  • जीवन का अधिकार,
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार,
  • संपत्ति का अधिकार,
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और
  • परिवार तथा निवास का अधिकार।

प्रश्न 8.
राजनीतिक अधिकारों का क्या अभिप्राय है? पांच महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक अधिकार उन अधिकारों का नाम है जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में राजनीतिक स्वरूप के हैं अथवा राजनीतिक प्रणाली से संबंधित हैं। ऐसे अधिकारों की मुख्य विशेषता यह है कि ये अधिकार केवल नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं तथा विदेशियों को इन अधिकारों से प्रायः वंचित रखा जाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  • मताधिकार,
  • चुनाव लड़ने का अधिकार,
  • सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार,
  • याचिका देने का अधिकार,
  • सरकार की आलोचना करने का अधिकार।

प्रश्न 9.
नागरिक के दो रूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नागरिक दो प्रकार के होते हैं

  • जन्मजात नागरिक,
  • राज्यकृत नागरिक। इनका वर्णन निम्नलिखित है

1. जन्मजात नागरिक जन्मजात नागरिक वे होते हैं जो जन्म से ही अपने देश के नागरिक होते हैं। कुछेक देशों में जन्मजात नागरिकों को अधिक सुविधाएं प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में केवल जन्मजात नागरिक ही राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकता है।

2. राज्यकृत नागरिक-राज्यकृत नागरिक वे होते हैं जो जन्म से ही किसी अन्य देश के नागरिक होते हैं, परंतु किसी अन्य देश की कानूनी शर्ते पूरी करने के बाद उस देश की नागरिकता प्राप्त कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, बहुत-से भारतीयों ने इंग्लैंड में बस कर वहाँ की राज्यकृत नागरिकता प्राप्त कर ली है। राज्यकृत नागरिकों को जन्मजात नागरिकों से कम अधिकार प्राप्त होते हैं। देश-विरोधी कार्य करने पर उनकी राज्यकृत नागरिकता समाप्त कर दी जाती है।

प्रश्न 10.
अवैध राज्य की अवज्ञा के अधिकार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अधिकार वह मांग है जिसे समाज मानता है और राज्य लागू करता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि राज्य द्वारा लागू न किए जाने से समाज द्वारा मान्य कोई मांग कानून बन ही नहीं सकती। राज्य का उद्देश्य ऐसी दशाएं उत्पन्न करना है, जिनमें व्यक्ति अपने जीवन का सामान्य विकास कर सके। राज्य हमारे जीवन, संपत्ति की रक्षा करके, शांति और व्यवस्था स्थापित करके तथा समुचित अधिकारों की व्यवस्था करके ही ऐसा वातावरण पैदा करता है और इसीलिए व्यक्ति राज्य के प्रति भक्ति और आज्ञा-पालन का कर्तव्य निभाते हैं।

यदि राज्य अपने इस आधारभूत उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता तो उसे व्यक्तियों से आज्ञा का पालन करवाने का भी अधिकार नहीं है, इसलिए एक अवैध सत्ता की अवज्ञा करने के अधिकार को कई बार सबसे अधिक आधारभूत और प्राकृतिक माना गया है। यदि राज्य तानाशाह या भ्रष्ट हो जाए तो जनता को उसकी अवज्ञा करने, उसके विरूद्ध खड़ा होने और उसे बदलने का बुनियादी अधिकार है। जिस उद्देश्य के लिए राज्य को सर्वोच्च शक्ति प्रदान की गई है, यदि राज्य उसकी पूर्ति नहीं करता तो . उसे अस्तित्व में रहने का कोई अधिकार नहीं और लोगों को उसकी अवज्ञा का अधिकार है।

प्रश्न 11.
अधिकार व्यक्ति के लिए क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
लास्की का कहना है कि अधिकार सामाजिक जीवन की वे दशाएं हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता, अर्थात अधिकार वे सुविधाएं, अवसर तथा स्वतंत्रताएं हैं जो व्यक्ति के जीवन के विकास के लिए आवश्यक हैं और जिन्हें समाज मान्यता देता है तथा राज्य लागू करता है। यदि अधिकार न हों तो समाज में जंगल जैसा वातावरण पैदा हो जाएगा और केवल ताकतवर व्यक्ति ही जीवित रह सकेंगे।

हर व्यक्ति स्वच्छंदतापूर्वक अपनी इच्छानुसार आचरण नहीं कर सकेगा और उनका जीवन व संपत्ति सुरक्षित नहीं होंगे। अधिकारों के वातावरण में ही व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग और अपने जीवन का विकास कर सकेगा। इस प्रकार अधिकार व्यक्ति के लिए बहुत आवश्यक हैं।

प्रश्न 12.
आर्थिक अधिकारों से क्या अभिप्राय है? पांच महत्त्वपूर्ण अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक अधिकारों से अभिप्राय उन अधिकारों से है जो व्यक्ति की आर्थिक आवश्यकताओं से संबंधित हैं तथा उसके आर्थिक विकास के लिए अत्यंत अनिवार्य हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण आर्थिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  • काम का अधिकार,
  • उचित वेतन का अधिकार,
  • विश्राम करने का अधिकार,
  • संपत्ति का अधिकार,
  • आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार।

प्रश्न 13.
‘प्राकृतिक-अधिकारों’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार समझे जाते हैं जो व्यक्ति को प्राकृतिक रूप में जन्म के साथ ही मिल जाते हैं। इंग्लैंड के दार्शनिक जॉन लॉक का विचार है कि समाज और राज्य की स्थापना से पहले भी व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) में कुछ अधिकार प्राप्त थे; जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार। उन्हें ही प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है।

ये आज भी व्यक्तियों को प्राप्त हैं और इन्हें छीना नहीं जा सकता। कुछ लोगों का कहना है कि जो अधिकार व्यक्ति के जीवन के लिए स्वाभाविक और आवश्यक हैं, उन्हें प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है, परंतु आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। अधिकार और स्वतंत्रता व्यक्ति को समाज और राज्य में ही मिल सकते हैं, इनके बाहर नहीं। प्राकृतिक अधिकारों के बारे में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 14.
कर्त्तव्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
साधारण शब्दों में किसी काम के करने या न करने के दायित्व को कर्त्तव्य कहते हैं। ‘कर्त्तव्य’ को अंग्रेजी में ‘Duty’ कहते हैं, जिसका मूल शब्द है-Debt, जिसका अर्थ है-कर्ज या ऋण, अर्थात जो व्यक्ति को देना है। कर्त्तव्य व्यक्ति का सकारात्मक या नकारात्मक कार्य है जो व्यक्ति को दूसरों के लिए करना पड़ता है, चाहे उसकी इच्छा उसको करने की हो या न हो।

एक व्यक्ति को जो अधिकार मिलता है, वह उस समय मिल सकता है, जब दूसरे व्यक्ति अपने कर्त्तव्य का पालन उसके लिए करते हैं और उसी प्रकार जब वह व्यक्ति दूसरों के लिए कुछ कार्यों को करता है, तो इससे दूसरों को अधिकार प्राप्त होते हैं। अतः कर्त्तव्य कुछ ऐसे निश्चित और अवश्य किए जाने वाले कार्यों को कहते हैं जो कि एक सभ्य समाज और राज्य में रहते हुए व्यक्ति को प्राप्त किए गए अधिकारों के बदले में करने पड़ते हैं।

प्रश्न 15.
कर्तव्यों के पाँच प्रकार बताइए।
उत्तर:
कर्तव्यों के पाँच प्रकार निम्नलिखित हैं
1. नैतिक कर्त्तव्य-इन कर्त्तव्यों के पीछे दंड की भावना नहीं होती। इनकी अवहेलना से समाज में निंदा होती है। सत्य बोलना, माता-पिता की सेवा करना व दूसरे के प्रति अच्छा व्यवहार करना नैतिक कर्त्तव्य हैं।

2. कानूनी कर्त्तव्य-जिन कर्त्तव्यों को दंड के भय से माना जाता है, वे कानूनी कर्त्तव्य होते हैं। करें की अदायगी, कानून का पालन करना कानूनी कर्तव्य हैं।

3. मौलिक कर्त्तव्य-मौलिक कर्तव्यों का राज्य के संविधान में उल्लेख होता है। उनका महत्त्व राजनीतिक व नागरिक कर्तव्यों से अधिक होता है।

4. नागरिक कर्त्तव्य-अपने ग्राम, नगर तथा शहर के प्रति निभाए जाने वाले कर्त्तव्य नागरिक कर्त्तव्य कहलाते हैं। नगर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, सफाई का ध्यान रखना, सार्वजनिक स्थानों को गंदा न करना इसके उदाहरण हैं।

5. राजनीतिक कर्त्तव्य-मतदान में भाग लेना, चुनाव लड़ना, सार्वजनिक पद प्राप्त करना आदि राजनीतिक कर्त्तव्य हैं। इन कर्तव्यों की पालना करके नागरिक देश की राजनीति में हिस्सा लेते हैं।

प्रश्न 16.
नागरिक के पाँच नैतिक कर्त्तव्य बताइए।
उत्तर:
नागरिक के पाँच नैतिक कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं

  • सत्य बोलना नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है।
  • माता-पिता की सेवा करना भी नैतिक कर्तव्यों में आता है।
  • दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना नैतिक कर्त्तव्य है।
  • अपने कार्य को ईमानदारी से करना भी नैतिक कर्तव्य है।
  • शिक्षा प्राप्त करना व बच्चों को शिक्षित करना आदि भी नैतिक कर्त्तव्य हैं।

प्रश्न 17.
नागरिक के पाँच कानूनी कर्तव्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
नागरिक के पाँच कानूनी कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
1. राज-भक्ति-प्रत्येक नागरिक को राज्य के प्रति वफादार रहना चाहिए। देशद्रोह से दूर रहना चाहिए। राज्य के साथ कभी भी विश्वासघात नहीं करना चाहिए।

2. कानून का पालन-नागरिक को राज्य के कानून का पालन करना चाहिए, ताकि राज्य में शांति व व्यवस्था बनाए रखी जा सके। यदि कोई कानून अनुचित है तो उसे शांतिपूर्ण ढंग से बदलवाना चाहिए।

3. करों की अदायगी कर राज्य का आधार हैं। बिना धन के कोई भी सरकार कार्य नहीं कर सकती। अतः नागरिक को करों की ईमानदारी से अदायगी करनी चाहिए।

4. मताधिकार का प्रयोग-प्रजातंत्र में नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया गया है। यह नागरिकों की एक पवित्र धरोहर है। अतः प्रत्येक नागरिक को मताधिकार का उचित प्रयोग करना चाहिए।

5. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा-प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह देश की सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करे। वास्तव में सार्वजनिक संपत्ति नागरिकों की अपनी ही संपत्ति है। कानूनी कर्तव्यों की अवहेलना करने पर दंड दिया जाएगा, यह उल्लेखनीय है।

प्रश्न 18.
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्तव्यों में क्या अंतर है?
उत्तर:
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्तव्यों में मुख्य अंतर है कि नैतिक कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति नहीं होती, जबकि कानूनी कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति होती है। नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करना या न करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। नैतिक कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य द्वारा दंड नहीं दिया जा सकता। कानूनी कर्तव्यों का पालन करना नागरिकों के लिए अनिवार्य है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य द्वारा दंड दिया जा सकता है।

प्रश्न 19.
अधिकारों और कर्तव्यों के परस्पर संबंधों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का आपस में बहुत गहरा संबंध है तथा इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इन दोनों में उतना ही घनिष्ठ संबंध है, जितना कि शरीर तथा आत्मा में। जहां अधिकार हैं, वहीं कर्तव्यों का होना आवश्यक है। दोनों का चोली-दामन का साथ है। मनुष्य अपने अधिकार का आनंद तभी उठा सकता है, जब दूसरे मनुष्य उसे उसके अधिकार का प्रयोग करने दें, अर्थात अपने कर्तव्य का पालन करें।

उदाहरण के लिए, प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है, परंतु मनुष्य इस अधिकार का आनंद तभी उठा सकता है, जब दूसरे मनुष्य उसके जीवन में हस्तक्षेप न करें, परंतु दूसरे मनुष्यों को भी जीवन का अधिकार प्राप्त है, इसलिए उस मनुष्य का भी यह कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप न करे, अर्थात ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत अपनाया जाता है, इसीलिए तो कहा जाता है कि अधिकारों में कर्तव्य निहित हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार की परिभाषा दीजिए। इसकी विशेषताओं का वर्णन भी कीजिए।
उत्तर:
अधिकार व्यक्ति के जीवन-विकास के लिए बहुत आवश्यक हैं। वही सरकार अधिक अच्छी मानी जाती है जो नागरिकों को अधिक-से-अधिक अधिकार प्रदान करती है। “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” प्रो० लास्की का उक्त कथन अधिकारों की सुंदर व्याख्या करता है। मनुष्य पूर्ण रूप से समाज पर निर्भर रहने वाला प्राणी है। उसे अपने जीवन का विकास करने के लिए समाज में रहना पड़ता है।

प्रत्येक सभ्य समाज अपने सदस्यों को ऐसे अवसर उपलब्ध कराता है जो उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। मनुष्य को जीवित रहने, भरण-पोषण करने, शिक्षित बनने, समृद्ध होने तथा मानवीय जीवन बिताने की आवश्यकता है। यदि समाज उसे इन सभी प्रकार की उन्नति करने का अवसर नहीं देता तो वह समाज ही नष्ट हो जाता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सभ्य समाज में काम करने की वे सब स्वतंत्रताएं, जिनसे मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक गुणों के विकास में सहायता मिलती है, अधिकार कहलाते हैं। प्रजातंत्र का पूरा लाभ उठाने के लिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को कई अधिकार प्रदान करता है।

अधिकारों की परिभाषाएँ (Definitions of Rights)-विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई अधिकारों की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

1. प्रो० ग्रीन के अनुसार, “अधिकार वह शक्ति है जो सामान्य हित के लिए अभीष्ट और सहायक रूप में स्वीकृत होती है।”

2. वाइल्ड के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वाधीनता की उचित मांग को ही अधिकार कहते हैं।”

3. प्रो० हैरोल्ड लास्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनके बिना कोई मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।”

4. हॉलैंड के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कार्य को समाज के मत तथा शक्ति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है।”

5. श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “अधिकार उस व्यवस्था या नियम को कहते हैं जिसे किसी समाज के कानून का समर्थन प्राप्त हो तथा जिससे नागरिक का सर्वोच्च कल्याण होता है।”

6. डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार, “अधिकार न अधिक और न कम वे सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक और अनुकूल हैं।”

7. बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग या दावा है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।”

8. ऑस्टिन के अनुसार, “अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों से बलपूर्वक कार्य कराने की क्षमता का नाम ही अधिकार है।”

9. क्रौसे के अनुसार, “अधिकार सभ्य जीवन की बाहरी शर्तों का आंगिक समूह है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि अधिकार सामान्य जीवन का एक ऐसा वातावरण है, जिसके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का विकास कर ही नहीं सकता। अधिकार व्यक्ति के विकास और स्वतंत्रता का एक ऐसा दावा है जो कि व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए लाभदायक है, जिसे समाज मानता है और राज्य लागू करता है।

अधिकारों की विशेषताएँ उपरोक्त परिभाषाओं की व्याख्या से अधिकारों में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं

1. अधिकार व्यक्ति की मांग है (Right is Claim of the Individual)-अधिकार एक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध अपनी सुविधा की मांग है। यह समाज पर एक दावा है, परंतु इसे हम शक्ति नहीं कह सकते, जैसा कि ऑस्टिन ने कहा है। शक्ति हमें प्रकृति से प्राप्त होती है, जिसमें देखने, सुनने, दौड़ने आदि की शक्तियां सम्मिलित हैं।

2. अधिकारों का नैतिक आधार है (Rights are Based on Morality) व्यक्ति की नैतिक मांगें ही अधिकार बन सकती हैं, अनैतिक मांगें नहीं। जीवित रहने, संपत्ति रखने, विचार प्रकट करने आदि की मांगें नैतिक हैं, परंतु चोरी करने, मारने या गाली-गलौच करने की सुविधा की मांग अनैतिक है। जिन मांगों से व्यक्ति तथा समाज दोनों का ही हित होता हो, वे ही अधिकार कहलाएंगे।

3. समाज द्वारा स्वीकृत मांगें ही अधिकार हैं (Rights are Recognised by the Society) व्यक्ति की वे मांगें ही अधिकार कहलाती हैं, जिन्हें समाज स्वीकार करता है। व्यक्ति द्वारा जबरन प्राप्त की गई सुविधा अधिकार नहीं कहलाती।
4. अधिकार समाज में प्राप्त होते हैं (Rights are Possible in the Society) अधिकारों तथा कर्तव्यों का क्रम समाज में ही चलता है। समाज से बाहर व्यक्ति के न तो कोई अधिकार हैं और न ही कोई कर्त्तव्य।

5. अधिकार सार्वजनिक होते हैं (Rights are Universal) अधिकार व्यापक होते हैं। वे किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं होते, वरन समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं। अधिकारों को प्रदान करते समय किसी के साथ जाति, धर्म, वर्ण आदि का भेदभाव नहीं किया जा सकता।

6. अधिकारों के साथ कर्त्तव्य जुड़े हैं (Rights Imply Duties) प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा है। समाज के प्रति व्यक्ति के उतने ही कर्त्तव्य होते हैं, जितने उसे अधिकार प्राप्त होते हैं। बिना कर्तव्यों के अधिकार का अस्तित्व ही नहीं होता।

7. अधिकार बदलते रहते हैं (Rights Keep on Changing)-अधिकार स्थायी रूप से नहीं रहते। अधिकारों की सूची में परिवर्तन होता रहता है। राजतंत्र अथवा तानाशाही शासन-व्यवस्था में जो अधिकार नागरिकों को दिए जाते हैं, उनकी संख्या गिनी-चुनी होती है। प्रजातंत्र में इनकी संख्या बहुत बढ़ जाती है। समाजवादी राज्य में लोगों को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे पूंजीवादी राज्य में नहीं पाए जाते। पूंजीवादी राज्य में जो स्वतंत्रता है, वह समाजवादी राज्य में नहीं होती। इस प्रकार स्थान तथा शासन के अनुसार अधिकार बदलते रहते हैं।

8. अधिकार असीमित नहीं होते (Rights are not Unlimited) कोई अधिकार असीमित या निरंकुश नहीं होता। प्रत्येक अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाए जाते हैं। यदि हमें बोलने का अधिकार है तो इससे किसी को गालियां देने या विद्रोह फैलाने का अधिकार नहीं मिल जाता। यदि हमें अपने धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार मिल जाता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि हमें दूसरे धर्मों की निंदा करने या जबरन अपना धर्म दूसरों पर लादने का अधिकार प्राप्त हो गया। इसी प्रकार सभी धर्मों पर नैतिक प्रतिबंध लगाए जाते हैं।

9. अधिकार लोक-हित में प्रयोग किए जा सकते हैं (Rights can be used for Social Good) अधिकार का प्रयोग समाज के हित के लिए किया जा सकता है, अहित के लिए नहीं। अधिकार समाज में ही मिलते हैं और समाज द्वारा ही दिए जाते हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इनका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए किया जाए।

10. अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित होते हैं (Rights are Protected by the State)-अधिकारों की एक विशेषता यह भी है कि राज्य ही अधिकारों को लागू करता है और उनकी रक्षा भी राज्य ही करता है। राज्य कानून द्वारा अधिकारों को निश्चित करता है और उनके उल्लंघन के लिए दंड की व्यवस्था करता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 2.
अधिकारों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
किसी राज्य का समाज के लिए अधिकारों की सूची तैयार करना बहुत कठिन है, अर्थात अधिकारों का वर्गीकरण यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। वास्तव में सभ्यता के विकास के साथ-साथ अधिकारों की सूची भी बढ़ती जाती है। एक प्रजातंत्र राज्य के नागरिक को बहुत-से अधिकार मिले हुए होते हैं। अधिकारों को प्रायः तीन निम्नलिखित भागों में बांटा जाता है

  • प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights),
  • नैतिक अधिकार (Moral Rights),
  • कानूनी अधिकार (Legal Rights)। कानूनी अधिकारों को क्रमशः चार भागों में बांट सकते हैं-(क) मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), (ख) सामाजिक अधिकार (Civil Rights), (ग) राजनीतिक अधिकार (Political Rights), (घ) आर्थिक अधिकार (Economic Rights)।

1. प्राकृतिक अधिकार प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार समझे जाते हैं जो व्यक्ति को प्राकृतिक रूप में जन्म के साथ ही मिल जाते हैं। इंग्लैंड के दार्शनिक जॉन लॉक का विचार है कि समाज और राज्य की स्थापना से पहले भी व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) में कुछ अधिकार प्राप्त थे; जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार।

उन्हें ही प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है। ये आज भी व्यक्तियों को प्राप्त हैं और इन्हें छीना नहीं जा सकता। कुछ लोगों का कहना है कि जो अधिकार व्यक्ति के जीवन के लिए स्वाभाविक और आवश्यक हैं, उन्हें प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है, परंतु आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। अधिकार और स्वतंत्रता व्यक्ति को समाज और राज्य में ही मिल सकते हैं, इनके बाहर नहीं। प्राकृतिक अधिकारों के बारे में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

2. नैतिक अधिकार कुछ अधिकार नैतिक आधार पर दिए जाते हैं। मनुष्य तथा समाज दोनों के हित के लिए व्यक्ति को कुछ सुविधाएँ दी जानी चाहिएँ। जीवन की सुरक्षा, स्वतंत्रता, धर्म-पालन, शिक्षा-प्राप्ति, संपत्ति रखने आदि की सुविधाएँ देने पर ही मनुष्य की भलाई हो सकती है। इनसे समाज भी उन्नत होता है, इसलिए समाज स्वेच्छा से इन अधिकारों को प्रदान करता है।

जब तक ऐसे अधिकारों के पीछे कानून की मान्यता या दबाव नहीं रहता, ये नैतिक अधिकार कहलाते हैं। नैतिक अधिकारों की मान्यता सामाजिक निंदा तथा आलोचना के भय से दी जाती है। यदि बुढ़ापे में माता-पिता की सेवा नहीं की जाती है तो समाज निंदा करता है। इसलिए माता-पिता का यह नैतिक अधिकार है।

3. कानूनी अधिकार जिन अधिकारों को राज्य की स्वीकृति मिल जाती है, उन्हें कानूनी या वैधानिक अधिकार कहते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अदालत में दावा कर सकता है। जीवन, संपत्ति, कुटुंब आदि के अधिकार राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। यदि कोई व्यक्ति.या अधिकारी इन्हें छीनने का प्रयत्न करता है तो उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। राज्य इनका उल्लंघन करने वालों को दंड देता है, इसलिए कानूनी अधिकार के पीछे राज्य की शक्ति रहती है। कानूनी अधिकारों के चार उप-विभाग बन गए हैं जो निम्नलिखित हैं-

(क) मौलिक अधिकार मनुष्य के महत्त्वशाली दावों (Claims) को मौलिक अधिकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कहना चाहिए कि मनुष्य के विकास के लिए जो सामाजिक शर्ते अधिक आवश्यक हैं, उन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं। मौलिक अधिकार सभी देशों में एक प्रकार के नहीं हैं। भारत में निम्नलिखित मौलिक अधिकार संविधान में दिए हुए हैं

  • समानता का अधिकार (Right to Equality),
  • स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom),
  • शोषण के विरूद्ध अधिकार (Right against Exploitation),
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion),
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights),
  • संवैधानिक उपचार का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

(ख) नागरिक या सामाजिक अधिकार प्रायः वे सामाजिक सुविधाएँ, जिनके बिना सभ्य जीवन संभव नहीं हो सकता, सामाजिक अधिकारों के रूप में प्रदान की जाती हैं और प्रत्येक राज्य इसीलिए उन्हें मान्यता देता है। ऐसे अधिकार राज्य सभी निवासियों को प्रदान किए जाते हैं, चाहे वे नागरिक हों या अनागरिक। विचार प्रकट करने, सभाएं बुलाने, धर्म-पालन करने आदि के अधिकार सभ्य जीवन के लिए आवश्यक हैं, परंतु अशांति काल या आपातकाल के समय सरकार इन पर प्रतिबंध भी लगा सकती है।

राजनीतिक अधिकार राजनीतिक अधिकार नागरिकों को अपने देश की शासन-व्यवस्था में भाग लेने का अवसर प्रदान करते हैं। ये अधिकार राज्य में केवल नागरिकों को ही दिए जाते हैं। विदेशियों, अनागरिकों; जैसे नाबालिग, पागल, दिवालिया तथा अपराधी को ये अधिकार नहीं दिए जाते। इन अधिकारों में मतदान, चुनाव लड़ने, सरकारी पद प्राप्त करने, आलोचना करने आदि के अधिकार प्रमुख हैं।

(घ) आर्थिक अधिकार आर्थिक अधिकार वे सुविधाएं हैं, जिनके बिना व्यक्ति की आर्थिक उन्नति नहीं हो सकती। आधुनिक राज्यों में प्रत्येक नागरिक को काम प्राप्त करने, उचित पारिश्रमिक लेने, अवकाश प्राप्त करने आदि के अधिकार दिए जाने जरूरी हैं। पहले प्रायः गरीब लोगों का शोषण होता था तथा उन्हें मानवीय जीवन-निर्वाह के साधन भी प्राप्त नहीं थे, परंतु आधुनिक राज्य कल्याणकारी राज्य है, इसलिए गरीब तथा निःसहाय लोगों को आर्थिक संरक्षण प्रदान करना उसका कर्त्तव्य बन गया है।

प्रश्न 3.
आधुनिक राज्य में नागरिक को कौन से सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार मिलते हैं? अथवा एक लोकतांत्रिक राज्य के नागरिक के मुख्य अधिकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। अथवा व्यक्ति के किन्हीं तीन अधिकारों का वर्णन कीजिए। अथवा प्रजातंत्रात्मक राज्यों में नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त हैं?
उत्तर:
विभिन्न प्रजातंत्रीय देशों में अलग-अलग मात्रा में नागरिकों को अधिकार दिए गए हैं। पश्चिमी देशों में नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सभी अधिकार दिए गए हैं, परंतु वहाँ काम पाने तथा अवकाश प्राप्त करने के अधिकारों को मौलिक अधिकारों की सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है। रूस में इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों में स्वीकृत किया गया है। भारतीय संविधान में जिन अधिकारों को मौलिक अधिकारों की सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है, उन्हें राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में शामिल कर लिया गया है। सभी राज्यों में इन अधिकारों के संबंध में उचित प्रतिबंध भी लागू किए गए हैं।

साधारण रूप से सभी प्रगतिशील देशों में नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार दिए जाते हैं

(क) सामाजिक या नागरिक अधिकार (Social or Civil Rights)-सभ्य तथा सुखी जीवन के निम्नलिखित सामाजिक अधिकार नागरिक-अनागरिक सभी व्यक्तियों को प्रदान किए जाते हैं

1. जीवन का अधिकार प्रत्येक मनुष्य का यह मौलिक अधिकार है कि उसका जीवन सुरक्षित रखा जाए। राज्य बनाने का प्रथम उद्देश्य भी यही है। यदि लोग ही जीवित नहीं रहेंगे तो समाज व राज्य भी समाप्त हो जाएंगे। इसलिए राज्य अपनी प्रजा की बाहरी आक्रमणों तथा आंतरिक उपद्रवों से रक्षा करने के लिए सेना और पुलिस का संगठन करता है।

जीवन के अधिकार के साथ-साथ व्यक्ति को आत्मरक्षा करने का भी अधिकार है। मनुष्य का जीवन समाज की निधि है। उसकी रक्षा करना राज्य का परम कर्तव्य है। इसलिए किसी व्यक्ति की हत्या करना राज्य के विरुद्ध घोर अपराध माना जाता है। यही नहीं, आत्महत्या का प्रयत्न करना भी अपराध माना जाता है, परंतु राज्य उस व्यक्ति के जीवन के अधिकार को समाप्त कर देता है जो समाज का शत्रु बन जाता है तथा दूसरों की हत्या करता फिरता है।

2. संपत्ति का अधिकार संपत्ति जीवन के विकास के लिए आवश्यक है। इसलिए व्यक्ति को निजी संपत्ति रखने का अधिकार दिया जाता है। कोई उसकी संपत्ति छीन नहीं सकता अन्यथा चोरी अथवा डाका डालने को अपराध माना जाता है। बिना कानूनी कार्रवाई किए तथा उचित मुआवजा दिए राज्य भी किसी व्यक्ति की संपत्ति जब्त राज्य में निजी संपत्ति की कोई सीमा नहीं रखी जाती, फिर भी समाजवादी राज्य में व्यक्तिगत संपत्ति रखने की एक सीमा है।

अपनी शारीरिक मेहनत से प्राप्त धन रखने का वहाँ अधिकार होता है, परंतु लोगों का शोषण करके संपत्ति इकट्ठी नहीं की जा सकती। आधुनिक कल्याणकारी राज्य में यद्यपि संपत्ति रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता, परंतु सरकार अधिक धन कमाने वालों पर अधिक-से-अधिक कर (Tax) लगाती है।

3. स्वतंत्र भ्रमण का अधिकार सुखी तथा स्वस्थ जीवन के लिए भ्रमण करना भी जरूरी है। राज्य प्रत्येक व्यक्ति को आवागमन की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। वह देश भर में कहीं भी आ-जा सकता है। विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट भी मिल सकता है। शांतिपूर्ण ढंग से आजीविका कमाने तथा सामाजिक संबंध स्थापित करने के लिए सभी लोगों को घूमने-फिरने की स्वतंत्रता है, परंतु विद्रोह फैलाने, तोड़-फोड़ की कार्रवाइयां करने वालों को यह अधिकार नहीं दिया जाता। युद्ध के समय विदेशियों के भ्रमण पर भी कठोर नियंत्रण लागू कर दिया जाता है।

4. विचार तथा भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार प्रजातांत्रिक राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से विचार करने तथा बोलने अथवा भाषण देने का अधिकार दिया जाता है। विचारों के आदान-प्रदान से ही सत्य का पता लगता है। इससे जागृत लोकमत तैयार होता है जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करके उसे जनहित में कार्य करते रहने के लिए बाध्य करता है।

मंच जनता के दुःखों तथा अधिकारों को दबाने संबंधी अत्याचारों को दूर करने का शक्तिशाली माध्यम है, परंतु भाषण की स्वतंत्रता का अर्थ झूठी अफवाहें फैलाने, अपमान करने या गालियां देने का अधिकार नहीं है। मानहानि करना या राजद्रोह फैलाना अपराध है। युद्ध के समय राज्य की सुरक्षा के लिए इस स्वतंत्रता पर प्रतिबंध भी लगा दिए जाते हैं।

5. प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार समाचार-पत्र प्रजातंत्र के पहरेदार होते हैं। ये लोकमत तैयार करने के अच्छे साधन हैं। इनके माध्यम से जनता तथा सरकार एक-दूसरे की बातें समझ सकते हैं। समाचार-पत्रों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए। स्वतंत्र प्रेस द्वारा ही शासन की जनहित विरोधी कार्रवाई की आलोचना की जा सकती है। प्रेस पर प्रतिबंध लगा देने से जनता का गला घोंट दिया जाता है। तानाशाही राज्यों में प्रेस को स्वतंत्र नहीं रहने दिया जाता, परंतु प्रजातंत्रीय देशों में प्रेस को स्वतंत्रता का अधिकार होता है। समाचार-पत्रों को इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

6. सभा बुलाने तथा संगठित होने का अधिकार मनुष्य में सामाजिक प्रवृत्ति होती है। वह सभा बुलाकर तथा संगठन बनाकर उसे पूर्ण करता है। जनता को शांतिपूर्वक सभाएं करने तथा अपने हितों की रक्षा करने के लिए समुदाय बनाने का अधिकार होना चाहिए। आधुनिक राज्य लोगों को यह अधिकार प्रदान करता है। सार्वजनिक वाद-विवाद,

मत-प्रकाशन तथा जोरदार आलोचना शासन के अत्याचारों तथा अधिकारों की मनमानी क्रूरताओं के विरुद्ध जनता के शस्त्र हैं, परंतु इन सभाओं, जुलूसों तथा समुदायों का उद्देश्य सार्वजनिक हित की वृद्धि करना ही होना चाहिए। द्वेष या विद्रोह फैलाने, शांति भंग करने आदि के लिए इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता। राज्य ऐसे कार्यों को रोकने के लि पर प्रतिबंध लगा देता है, परंतु राज्य की सुरक्षा के नाम पर नागरिक स्वतंत्रता का दमन करना फासिस्टवाद है।

7. पारिवारिक जीवन का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करने तथा कुटुंब बनाने का अधिकार है। परिवार की पवित्रता, स्वतंत्रता तथा संपत्ति की राज्य रक्षा करता है। प्रगतिशील देशों में पारिवारिक कलह दूर करने के लिए पति-पत्नी को एक-दूसरे को तलाक देने का भी अधिकार है। बहु-विवाह एवं बाल-विवाह की प्रथाओं पर भी प्रतिबंध लगाए जाते हैं।

8. शिक्षा का अधिकार आधुनिक राज्य में नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है। कई देशों में चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध किया गया है। शिक्षा प्रजातांत्रिक शासन की सफलता का आधार है। शिक्षित नागरिक ही अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान रखते हैं। शिक्षा अच्छे सामाजिक जीवन के लिए भी आवश्यक है, इसलिए राज्य स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, वाचनालय, पुस्तकालय नागरिकों को शिक्षा देना राज्य अपना परम कर्त्तव्य समझता है।

9. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार आधुनिक राज्य धर्म-निरपेक्ष राज्य है। ऐसे राज्य में सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार धर्म-पालन करने, अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की उपासना करने का अधिकार होता है। राज्य उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से अपने धर्म का प्रचार करने का भी अधिकार देता है, परंतु जबरन किसी को धर्म को परिवर्तन करने, धर्म के नाम पर शांति भंग करने अथवा अन्य धर्मों का निरादर करने का अधिकार नहीं है। भारत में नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया गया है।

10. समानता का अधिकार आधुनिक राज्य में सभी लोगों को समानता का अधिकार दिया जाता है। कानून के सामने सब बराबर हैं। किसी के साथ छोटे-बड़े, अमीर-गरीब का भेद नहीं किया जाता। समाज में सभी मनुष्यों को समान समझा जाता है। पहले की तरह ऊंच-नीच, छूत-अछूत अथवा काले-गोरे का भेद नहीं किया जाता। राज्य सभी की उन्नति के लिए समान अवसर प्रदान करता है।

11. न्याय पाने का अधिकार आधुनिक राज्य में सभी लोगों को पूर्ण न्याय प्राप्त करने का अधिकार है। अपराध करने पर सभी पर सामान्य अदालत में मुकद्दमा चलाया जाता है तथा सामान्य कानून के अंतर्गत दंड दिया जाता है। गरीब तथा निर्बल व्यक्तियों को अमीरों के अत्याचारों से बचाया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अदालत में जाने तथा न्याय पाने का अधिकार है। भारतीय संविधान में भी न्याय प्राप्त करने के लिए कानूनी उपचार की व्यवस्था की गई है। कोई भी व्यक्ति न्याय पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक अपील कर सकता है।

12. संस्कृति का अधिकार आधुनिक राज्य सभी वर्ग के लोगों को अपनी संस्कृति कायम रखने का अधिकार देता है। राज्य में कई संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं। उन्हें अपनी भाषा, रहन-सहन, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, कला व साहित्य को कायम रखने तथा उनका विकास करने का अवसर दिया जाता है। अल्पसंख्यक जातियों के लिए ऐसे अधिकार की अत्यंत आवश्यकता है।

13. व्यवसाय तथा व्यापार की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के लिए कोई भी व्यवसाय अथवा व्यापार करने का अधिकार है। परंतु वह व्यवसाय उचित तथा कानून के अंतर्गत होना चाहिए।

(ख) राजनीतिक अधिकार राजनीतिक अधिकारों द्वारा नागरिक अपने देश के शासन-प्रबंध में हिस्सा लेते हैं। विदेशियों को ये अधिकार नहीं दिए जाते। इनमें मुख्य अधिकार निम्नलिखित हैं

1. मतदान का अधिकार:
मताधिकार प्रजातंत्र की देन है। मतदान के अधिकार द्वारा सभी वयस्क नागरिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन-प्रबंध में हिस्सा लेने लगे हैं। जनता संसद तथा कार्यपालिका के लिए अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है, जिससे कानून बनाने तथा प्रशासन चलाने के कार्य जनता की इच्छानुसार किए जाते हैं। इस प्रकार प्रजातांत्रिक शासन जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा चलाया जाता है।

सभी आधुनिक राज्य अधिक-से-अधिक नागरिकों को मताधिकार देने का प्रयत्न करते हैं। इसके लिए अब शिक्षा, संपत्ति, जाति, लिंग, जन्म-स्थान आदि का भेदभाव नहीं किया जाता, परंतु नाबालिगों, अपराधियों, दिवालियों, पागलों तथा विदेशियों को मताधिकार नहीं दिया जाता, क्योंकि मताधिकार एक पवित्र तथा ज़िम्मेदारी का काम है। भारत में 18 वर्ष के सभी स्त्री-पुरुषों को मताधिकार प्राप्त है।

2. चुनाव लड़ने का अधिकार:
प्रजातंत्र में सभी नागरिकों को योग्य होने पर चुनाव लड़ने का भी अधिकार दिया जाता है। मताधिकार के साथ-साथ यदि चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं दिया जाता है तो मताधिकार व्यर्थ है। प्रजातंत्र में तभी जनता की तथा जनता द्वारा सरकार बन सकती है, जब प्रत्येक नागरिक को कानून बनाने में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का अधिकार दिया जाता हो। जनता के वास्तविक प्रतिनिधि भी वही होंगे जो उन्हीं में से निर्वाचित किए गए हों।

इसलिए राज्य नागरिकों को चुनाव लड़ने का भी अधिकार देता है, परंतु कानून बनाना अधिक ज़िम्मेदारी का काम होता है, इसलिए ऐसे नागरिक को ही निर्वाचन में खड़े होने का अधिकार होता है जो कम-से-कम 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो तथा पागल, दिवालिया व अपराधी न हो। भारत में 25 वर्ष की आयु वाले नागरिक को यह अधिकार मिल जाता है।

3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार:
सभी नागरिकों को उनकी योग्यतानसार अपने राज्य में सरकारी पद या नौकरियां प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, वंश, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत में ऐसा कोई भेदभाव नहीं रखा गया है। यहाँ कोई भी नागरिक राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ सकता है, परंतु पाकिस्तान में गैर-मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बन सकता। अमेरिका में भी केवल जन्मजात अमेरिकी नागरिक को ही राष्ट्रपति बनाया जाता है, परंतु ये केवल अपवाद हैं।

4. राजनीतिक दल बनाने का अधिकार:
प्रजातंत्र में लोगों को दल बनाने का अधिकार होता है। समान राजनीतिक विचार रखने वाले लोग अपना दल बना लेते हैं। राजनीतिक दल ही उम्मीदवार खड़े करते हैं, चुनाव आंदोलन चलाते हैं तथा विजयी होने पर सरकार बनाते हैं। जो दल अल्पसंख्या में रह जाते हैं, वे विरोधी दल का कार्य करते हैं। इन राजनीतिक दलों के बिना प्रजातंत्र सरकार बनाना असंभव है, परंतु ऐसे राजनीतिक दल हानिकारक होते हैं जो विद्रोह फैलाने, दंगे करने तथा तोड़-फोड़ की नीति अपनाते हैं। राज्य ऐसे दलों को गैर-कानूनी घोषित कर देता है।

5. सरकार की आलोचना करने का अधिकार:
लोकतंत्र में नागरिकों को शासन-कार्यों की रचनात्मक आलोचना करने का अधिकार है। वास्तव में लोकतंत्र लोकमत पर आधारित सरकार है। विरोधी मतों के संघर्ष से ही सच्चाई सामने आती है। स्वतंत्रता का मूल जनता की निरंतर जागृति ही है। शासन के अत्याचारों अथवा अधिकारों के दोषों को दूर करने के लिए सरकार की आलोचना एक उत्तम तथा प्रभावशाली हथियार है। इससे सरकार दक्षतापूर्वक कार्य करती है। धन व सत्ता का दुरुपयोग नहीं होने पाता। केवल तानाशाही सरकार ही अपनी आलोचना सहन नहीं करती।

6. विरोध करने का अधिकार:
नागरिकों को सरकार का विरोध करने का भी अधिकार है। यदि सरकार अन्यायपूर्ण कानून बनाती है अथवा राष्ट्र-हित के विरूद्ध कार्य करती है तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। ऐसे शासन के सामने झुकना आदर्श नागरिकता का लक्षण नहीं है। इसलिए नागरिकों को बुरी सरकार का विरोध करना चाहिए तथा उसे बदल देने का प्रयत्न करना चाहिए, परंतु ऐसा संवैधानिक तरीकों के अंतर्गत ही किया जाना चाहिए। यह भी ध्यान में रखना पड़ता है कि निजी स्वार्थ-सिद्धि के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता। नागरिक को सरकार का विरोध करने का तो अधिकार है, परंतु राज्य का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं।

7. प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार:
नागरिकों को अपने कष्टों का निवारण करने के लिए। देने का अधिकार है। सरकार का ध्यान अपनी परेशानियों की ओर आकर्षित करने का यह एक पुराना तरीका है। प्रजातंत्र में संसद में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा लोगों को भी स्वतः याचिका भेजकर सरकार के सामने अपनी समस्याएं रखने तथा उन्हें हल करने की मांग करने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
आधुनिक राज्य में नागरिकों को कौन-कौन से आर्थिक अधिकार प्राप्त हैं?
उत्तर:
आधुनिक राज्य में नागरिकों को अनेक अधिकार प्रदान किए जाते हैं; जैसे राजनीतिक अधिकार, सामाजिक अधिकार, मौलिक अधिकार तथा आर्थिक अधिकार। यद्यपि राजनीतिक अधिकारों एवं सामाजिक अधिकारों का व्यक्ति के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है तथापि आर्थिक अधिकारों के अभाव में ये अधिकार अधूरे हैं। इसलिए आर्थिक अधिकारों का अपना महत्त्व है।

आर्थिक अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक समझे जाते हैं। आर्थिक अधिकार देने की प्रथा आधुनिक कल्याणकारी राज्य की देन है। समाजवादी विचारधारा में नागरिकों के आर्थिक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है। यद्यपि सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार सभी देशों में दिए जाते हैं, परंतु आर्थिक अधिकार देने की प्रथा आधुनिक कल्याणकारी राज्य द्वारा आरंभ की गई है। समाजवादी विचारधारा में नागरिकों के आर्थिक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है।

यद्यपि सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार सभी देशों में दिए जाते हैं, परंतु आर्थिक अधिकार देने की प्रथा आधुनिक कल्याणकारी राज्य द्वारा आरंभ की गई है। समाजवादी विचारधारा ने नागरिकों के आर्थिक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है, क्योंकि इनके बिना दूसरे अधिकार निरर्थक सिद्ध हुए हैं। प्रमुख आर्थिक अधिकार निम्नलिखित हैं

1. काम का अधिकार प्रत्येक नागरिक को काम करने का अधिकार है। यदि उसे काम नहीं मिलता तो वह अपनी आजीविका नहीं कमा सकता और अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकता। इसलिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को काम दिलाने का प्रयत्न करता है। रूस में नागरिकों को काम पाने (रोज़गार) का मौलिक अधिकार है, परंतु अन्य देशों में अभी ऐसा नहीं किया गया।

भारत में काम का अधिकार मौलिक अधिकार तो नहीं, परंतु निदेशक तत्त्वों में स्वीकृत अधिकार है। भारत की राज्य सरकारों का यह कर्त्तव्य है कि बेकारी दूर करें तथा अधिक-से-अधिक लोगों को काम पर लगाने का प्रयत्न करें। कई देशों में बेकार रहने पर लोगों को बेकारी भत्ता दिया जाता है।

2. उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार आधुनिक राज्य में प्रत्येक नागरिक को काम के अनुसार उचित मजदूरी अथवा वेतन प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। इन्हीं अधिकारों के अंतर्गत जीवन-स्तर को उन्नत बनाने के लिए न्यूनतम वेतन कानून भी बनाए जाते हैं। इसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को एक निश्चित राशि से कम मजदूरी नहीं दी जा सकती। स्त्री-पुरुषों को समान मजदूरी देने का भी नियम है।

3. काम के घंटे निश्चित करने का अधिकार प्रत्येक राज्य में मजदूरों के लिए काम के घंटे निश्चित कर दिए जाते हैं। पहले की तरह उनसे 16 से 18 घंटे काम नहीं लिया जा सकता। सभी देशों में प्रायः 8 घंटे काम करने का समय निश्चित हो चुका है। इससे मजदूरों का अधिक शोषण नहीं किया जा सकता है तथा उनका स्वास्थ्य भी अच्छा रह सकता है।

4. उचित अवकाश तथा मनोरंजन का अधिकार मनुष्य को दिन भर काम करने के पश्चात आराम की भी जरूरत है, तभी वह अपनी थकान दूर कर सकता है तथा खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक राज्य में मजदूरों को उचित अवकाश दिलाया जाता है। काम के घंटे निश्चित हो जाने से अवकाश की सुविधा हो गई है। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी रखी जाती है। अवकाश के समय श्रमिक वर्ग के मनोरंजन की व्यवस्था की जाती है। सिनेमा, रेडियो तथा नाटक-घरों की व्यवस्था भी की जाती है, जहां लोग अपना अवकाश का समय व्यतीत कर सकें।

5. सामाजिक सुरक्षा का अधिकार राज्य में लोगों को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार भी दिया जाता है। सामाजिक सुरक्षा का अर्थ है कि बीमार पड़ने, बेकार होने, बूढ़े होने अथवा अपंग हो जाने की स्थिति में मनुष्य का संरक्षण किया जाना चाहिए। मजदूरों तथा वेतनभोगी लोगों की सुरक्षा के लिए राज्य कई कानून बनाता है।

उनके लिए बीमा कराने, सुरक्षा-निधि कोष की व्यवस्था करने, बच्चों की शिक्षा तथा चिकित्सा का प्रबंध करने, बेकारी के समय भत्ता दिलाने, बीमार पड़ने पर आर्थिक सहायता करने, कारखाने में काम करते हुए दिव्यांग हो जाने पर सहायता देने, बुढ़ापे में पेंशन प्रदान करने आदि के लिए कानून बनाए जाते हैं। राज्य इन कानूनों के द्वारा लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

  • प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत
  • कानून के सम्मुख समानता 3. राज्य की अवज्ञा का अधिकार।

उत्तर:
1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत (Theory of Natural Rights) इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार प्रकृति की देन हैं, समाज की नहीं। व्यक्ति को अधिकार जन्म से ही प्राप्त होते हैं। ये अधिकार क्योंकि प्रकृति की देन हैं, इसलिए ये राज्य तथा समाज से स्वतंत्र और ऊपर हैं। राज्य तथा समाज प्राकृतिक अधिकारों को छीन नहीं सकते। इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार राज्य तथा समाज बनने से पूर्व के हैं। इस सिद्धांत के मुख्य समर्थक हॉब्स, लॉक तथा रूसो थे। मिल्टन, वाल्टेयर, थॉमस पैन तथा ब्लैकस्टोन जैसे विद्वानों ने भी प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का समर्थन किया।

प्राकृतिक अधिकारों के इस सिद्धांत को सैद्धांतिक रूप में ही नहीं, अपितु व्यावहारिक रूप में भी मान्यता प्राप्त हुई । अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा में यह स्पष्ट कहा गया कि सभी मनुष्य जन्म से ही स्वतंत्र तथा समान हैं और इन अधिकारों को राज्य नहीं छीन सकता। फ्रांस की क्रांति में प्राकृतिक अधिकारों का बोलबाला रहा। आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों की व्याख्या का एक नया अर्थ लिया जाता है।

लास्की, ग्रीन, हॉबहाऊस, लॉर्ड आदि लेखकों ने प्राकृतिक अधिकारों को इसलिए प्राकृतिक नहीं माना कि ये अधिकार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को प्राप्त थे, अपितु इसलिए माना क्योंकि ये अधिकार मनुष्य के स्वभाव के अनुसार उसके व्यक्तित्व के लिए आवश्यक हैं। आलोचना प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांतों की, विशेषकर इसकी प्राचीन विचारधारा की, निम्नलिखित आधारों पर कड़ी आलोचना की गई है

1. ‘प्रकृति’ तथा ‘प्राकृतिक’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं इस सिद्धांत की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इस सिद्धांत में प्रयुक्त ‘प्रकृति’ तथा ‘प्राकृतिक’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया है।

2. प्राकृतिक अधिकारों की सूची पर मतभेद प्राकृतिक शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होने के कारण इस सिद्धांत के समर्थक अधिकारों की सूची पर भी सहमत नहीं होते।

3. प्राकृतिक अवस्था में अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते। अधिकार तो केवल समाज में ही प्राप्त होते हैं।

4. प्राकृतिक अधिकार असीमित हैं, जो कि गलत है प्राकृतिक अधिकार असीमित हैं और इन अधिकारों पर कोई नियंत्रण नहीं है, यह बात गलत है। समाज में मनुष्य को कभी भी असीमित अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते।

5. अधिकार परिवर्तनशील हैं प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के अनुसार अधिकार निश्चित हैं, जो सर्वथा गलत है। ये परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।

6. प्राकृतिक अधिकारों के पीछे कोई शक्ति नहीं है प्राकृतिक अधिकारों के पीछे कोई शक्ति नहीं है, जो इन्हें लागू करवा सके। सिद्धांत का महत्त्व (Value of the Theory) यदि हम प्राकृतिक शब्द का अर्थ आदर्श अथवा नैतिक लें तो इस सिद्धांत का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। आधुनिक काल में प्राकृतिक अधिकारों का अर्थ उन अधिकारों से लिया जाता है जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक हैं।

2. कानून के सम्मुख समानता कानून के सम्मुख समानता का अर्थ है-विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति व सभी सामाजिक वर्गों पर कानून की समान बोध्यता। दुर्बल, सबल दोनों ही इस स्थिति में समान होते हैं जो कानून द्वारा स्थापित कार्य-विधि का परिणाम है और जिसको देश के साधारण न्यायालयों द्वारा लागू किया जाता है। हालांकि राज्य इस संदर्भ में उचित वर्गीकरणों का सहारा ले सकता है, क्योंकि कानून के सम्मुख समानता का मूल भाव यही है कि समान परिस्थितियों में व्यक्तियों से समान व्यवहार किया जाए। इसका केवल यही अर्थ है कि समान व्यक्तियों से समान व्यवहार किया जाना चाहिए।

जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है, राज्य द्वारा प्रतिपादित यह वर्गीकरण हर हालत में तर्कसंगत होना चाहिए और उसे जन-कल्याण के अतिरिक्त अन्य किसी मापदंड से न्यायोचित सिद्ध नहीं किया जाना चाहिए। यदि सबके कल्याण की प्रेरणा पाते हुए कोई कानून समाज के वर्ग विशेष या उसके सदस्यों से कोई सरोकार रखे तो यह सहज माना जा सकता है कि उक्त कानून समानता के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करता है, भले ही वह अन्य वर्गों पर लागू न होता हो। भारत में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण से संबंधित सवैधानिक प्रावधान इसका एक उदाहरण है।

3. राज्य की अवज्ञा का अधिकार राजनीति विज्ञान के विचारकों के मतानुसार नागरिकों को अपने उस राज्य की अवज्ञा का अधिकार है जो राज्य अपनी जनता को सुखी रख पाने में असमर्थ होता है। आवश्यकता इस बात की है कि जनता को इतना शिक्षित बनाया जाए कि वह राज्य के मूल उद्देश्य को भली-भांति समझ सके और इस दृष्टि से अधिकारों के प्रति अपनी उपयुक्त निष्ठा व्यक्त कर सके। यह शिक्षित जनता किसी भी अनुचित हस्तक्षेप के आगे सिर नहीं झुकाएगी। अतः यह अपने आप में जनता के अधिकारों पर राज्य के अनावश्यक अतिक्रमण को दूर करने के लिए पर्याप्त होगा।

अतः किसी गैर-कानूनी सत्ता की अवज्ञा के अधिकार को अक्सर जनता के सर्वाधिक मौलिक व अंतर्निहित अधिकारों में से एक माना जाता है। कोई अच्छी-से-अच्छी सरकार भी इस अधिकार को नहीं छीन सकती। जनता के हाथों में यही अंतिम प्रभावी सुरक्षा उपाय है। यदि राज्य तानाशाह बन जाए या भ्रष्टाचार का आश्रय ले तो नागरिकों को अवज्ञा के अंतिम अधिकार का प्रयोग करने की पूरी आज़ादी है, अन्यथा कोई भी समाज कभी-न-कभी रोगग्रस्त हो जाएगा, अपना संतुलन खो बैठेगा और विखंडित हो जाएगा। अतः राज्य-हित समाज और उसके सदस्यों के हितों की पूर्ति पर ही आधारित है। दोनों के हित आवश्यक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

प्रश्न 6.
अधिकार व्यक्ति के लिए क्यों आवश्यक हैं?
अथवा
नागरिक के लिए अधिकारों की महत्ता का विवेचन करें।
उत्तर:
अधिकारों का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा समाज की प्रगति के लिए अधिकारों का होना अनिवार्य है। लास्की ने अधिकारों के महत्त्व के विषय में कहा है, “एक राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है, उन्हीं के आधार पर राज्य को अच्छा या बुरा समझा जा सकता है।” नागरिक जीवन में अधिकारों के महत्त्व निम्नलिखित हैं

1. व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास जिस प्रकार एक पौधे के विकास के लिए धूप, पानी, मिट्टी, हवा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए भी अधिकारों की अत्यधिक आवश्यकता है। अधिकारों की परिभाषाओं में भी स्पष्ट संकेत दिया गया है कि अधिकार समाज के द्वारा दी गई वे सुविधाएं हैं, जिनके आधार पर व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में व्यक्ति अधिकारों की प्राप्ति से ही विकास कर सकता है।

2. अधिकार समाज के विकास के साधन व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है। यदि अधिकारों की प्राप्ति से व्यक्तित्व का विकास होता है तो सामाजिक विकास भी स्वयंमेव हो जाता है। इस तरह अधिकार समाज के विकास के साधन हैं।

3. लोकतंत्र की सफलता के लिए अधिकार आवश्यक हैं लोकतंत्र में अधिकारों का विशेष महत्त्व है। अधिकारों के बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही लोकतंत्र सफल हो सकता है। अधिकारों के द्वारा जनता को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है। अधिकार और लोकतंत्र एक-दूसरे के पूरक हैं।

4. स्वतंत्रता तथा समानता के पोषक स्वतंत्रता तथा समानता लोकतंत्र के दो आधारभूत स्तंभ हैं। प्रजातंत्र की सफलता के लिए इन दोनों का होना आवश्यक है, परंतु इन दोनों का कोई महत्त्व नहीं है, यदि नागरिकों को समानता और स्वतंत्रता के अधिकार प्राप्त नहीं होते।

5. अधिकारों की व्यवस्था समाज की आधारशिला अधिकारों की व्यवस्था के बिना समाज का अस्तित्व बना रहना संभव नहीं है, क्योंकि इनके बिना समाज में लड़ाई-झगड़े, अशांति और अव्यवस्था फैली रहेगी तथा मनुष्यों के आपसी व्यवहार की सीमाएं निश्चित नहीं हो सकेंगी। वस्तुतः अधिकार ही मनुष्य द्वारा परस्पर व्यवहार से सुव्यवस्थित समाज की आधारशिला का निर्माण करते हैं।

6. अधिकार सुदृढ़ तथा कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक प्रत्येक राज्य की सुदृढ़ता तथा सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है। जिस राज्य के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरुक नहीं होंगे और अपने कर्त्तव्यों का सही तरह से पालन नहीं करेंगे, उस राज्य की योजनाएं असफल हो जाएंगी और वह राज्य कभी भी प्रगति एवं मजबूती नहीं प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत, अधिकारों को सही रूप से प्रयोग करने वाले सजग नागरिक राष्ट्र को सुदृढ़ता व शक्ति प्रदान करते हैं। अतः अधिकार कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक होते हैं।

प्रश्न 7.
कर्त्तव्य से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों का विवेचन कीजिए। अथवा कर्तव्य किसे कहते हैं? एक नागरिक के प्रमुख कर्तव्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति के अपने विकास के लिए जो शर्ते (Conditions) आवश्यक हैं, वे उसके अधिकार हैं, परंतु दूसरों के और समाज के विकास के लिए जो शर्ते आवश्यक हैं, वे उसके कर्त्तव्यं हैं। दूसरे शब्दों में यह कहना उचित होगा कि जो एक व्यक्ति के अपने दावे (Claims) हैं, वे उसके अधिकार भी हैं, परंतु दूसरों के और सरकार के दावे, जो उसके विरुद्ध हैं, वे उसके कर्त्तव्य हैं।

अपने विकास के लिए जो वह दूसरों से और सरकार से आशाएं रखता है, वे उसके अधिकार हैं तथा दूसरे व्यक्ति और राज्य अपने विकास के लिए जो आशाएं रखते हैं, वे उसके कर्तव्य हैं। जैसे एक व्यक्ति दूसरे से यह आशा करता है कि वह उसके जीवन और संपत्ति को न छीने, वे उसके अधिकार हैं। दूसरे व्यक्ति, जो यह आशा करते हैं कि वह भी दूसरों के जीवन और संपत्ति को न छीने, वे उसके कर्त्तव्य हैं।

र्तव्य एक दायित्व है। कर्त्तव्य को अंग्रेजी में ड्यूटी (Duty) कहते हैं। यह शब्द डैट (Debt) से लिया गया है, जिसका अर्थ है-ऋण या कर्ज। इसलिए ड्यूटी का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति किसी कार्य को करने या न करने के लिए नैतिक रूप से बंधा हुआ है। कर्त्तव्य एक प्रकार का ऋण है जिसके हम देनदार हैं। सामाजिक जीवन लेन-देन की सहयोग भावना पर आधारित है।

सामाजिक क्षेत्र में जो सुविधाएं हमें प्राप्त होती हैं, उनके बदले में हमें कुछ मूल्य चुकाना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, समाज से हमें जो अधिकार मिलते हैं, उनकी कीमत कर्त्तव्यों के रूप में चुकानी पड़ती है। कर्तव्यों के प्रकार (Kinds of Duties)-अधिकारों की तरह कर्त्तव्य भी भिन्न प्रकार के होते हैं–

व्यक्ति के कर्तव्यों को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties),
  • कानूनी कर्त्तव्य (Legal Duties),
  • नागरिक कर्त्तव्य (Civil Duties),
  • राजनीतिक कर्त्तव्य (Political Duties),
  • मौलिक कर्त्तव्य (Fundamental Duties)।

लेकिन नैतिक तथा कानूनी दोनों प्रकार के कर्तव्यों को आगे दो भागों में बांटा जा सकता है, क्योंकि कुछ कार्य ऐसे हैं जो व्यक्ति को नहीं करने चाहिएँ, उन्हें नकारात्मक (Negative) कर्त्तव्य कहा जाता है और जो करने चाहिएँ, वे आदेशात्मक (Positive) कर्तव्य कहलाते हैं।

1. नैतिक कर्त्तव्य नैतिक कर्त्तव्य का अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक हित में जिन कामों को हमें करना चाहिए, उन्हें स्वेच्छापूर्वक करें। यदि हम इन्हें नहीं करते तो समाज में हमारी निन्दा होगी। सत्य बोलना, माता-पिता की सेवा करना, दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना आदि नैतिक कर्त्तव्य हैं। नैतिक कर्तव्यों का उल्लंघन करने पर समाज दण्ड नहीं दे सकता, केवल निन्दा कर सकता है।

2. कानूनी कर्त्तव्य जिन कर्त्तव्यों को कानून के दबाव से अथवा दण्ड पाने के भय से किया जाता है, उन्हें कानूनी कर्त्तव्य कहते हैं। करों की अदायगी, कानून का पालन आदि कानूनी कर्त्तव्य हैं।

3. नागरिक कर्त्तव्य अपने ग्राम, नगर तथा मोहल्ले के प्रति किए जाने वाले कर्त्तव्य नागरिक कर्त्तव्य कहलाते हैं। घर व मोहल्ले में सफाई रखना, सार्वजनिक स्थानों को गंदा न करना, शांति स्थापित करने में सहायता करना आदि नागरिक कर्त्तव्य हैं।

4. राजनीतिक कर्त्तव्य देश की शासन-व्यवस्था में हिस्सा लेने के लिए किए जाने वाले कर्तव्य राजनीतिक कर्त्तव्य कहलाते हैं। मतदान में भाग लेना, चुनाव लड़ना, सार्वजनिक पद प्राप्त करना आदि राजनीतिक कर्त्तव्य हैं।

5. मौलिक कर्त्तव्य मौलिक कर्त्तव्य राज्य के संविधान में उल्लिखित रहते हैं। इनका महत्त्व साधारण राजनीतिक व नागरिक कर्त्तव्यों से अधिक होता है।

6. नकारात्मक कर्त्तव्य जब किसी व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह किसी कार्य विशेष को न करे तो वह उसका नकारात्मक कर्त्तव्य कहलाता है। शराब न पीना, चोरी न करना तथा झूठ न बोलना आदि नकारात्मक कर्त्तव्य हैं।

7. आदेशात्मक कर्त्तव्य:
आदेशात्मक कर्त्तव्य उन कर्तव्यों को कहा जाता है जिनके किए जाने की आशा व्यक्ति से की जाती है; जैसे कर देना, माता-पिता की सेवा करना, राज्य के प्रति वफादार होना तथा राज्य के कानूनों को मानना आदि आदेशात्मक कर्तव्य हैं। नागरिक के कर्त्तव्य व्यक्ति को जीवन में बहुत-से कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक लेखक का कहना है कि सच्ची नागरिकता अपने कर्तव्यों का पालन करने में है।

समाज में विभिन्न समुदायों तथा संस्थाओं के प्रति नागरिक के भिन्न-भिन्न कर्त्तव्य होते हैं, जैसे उसके कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति हैं, वैसे ही अपने पड़ोसियों के प्रति, अपने गांव या शहर के प्रति, अपने राज्य के प्रति, अपने देश के प्रति, मानव जाति के प्रति और यहाँ तक कि अपने प्रति भी हैं। नागरिक के मुख्य कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं

(क) कानूनी कर्त्तव्य (Legal Duties) नागरिकों के कानूनी कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं

1. राज-भक्ति:
प्रत्येक नागरिक को राज्य के प्रति वफादार रहना चाहिए। उसे राज्य के साथ कभी विश्वासघात नहीं करना चाहिए। राज्य के शत्रुओं की सहायता करना, उन्हें गुप्त भेद देना देश-द्रोह है। ऐसे अपराध के लिए आजीवन कैद से लेकर मृत्यु-दंड तक दिया जा सकता है। इसलिए नागरिक को ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे राज्य को हानि हो। युद्ध तथा अन्य संकट के समय अपने स्वार्थों को त्याग कर तन-मन-धन से देश की सुरक्षा में सहायता करनी चाहिए। राज-भक्ति के आधार पर ही नागरिक तथा अनागरिक की पहचान होती है।

2. कानूनों का पालन:
एक नागरिक को अपने राज्य के कानूनों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। कानून समाज में शांति-व्यवस्था तथा सुखी जीवन स्थापित करने के लिए बनाए जाते हैं, इसलिए उनका उचित पालन करना नागरिकों का कर्तव्य है। कानूनों का उल्लंघन करना राज्य का विरोध करना है। यदि कोई कानून अनुचित नजर आता है तो शांतिपूर्ण ढंग से सरकार को उसे बदलने के लिए मजबूर करना चाहिए, परंतु नागरिक स्वयं कानूनों को नहीं बदल सकते। कानून भंग करना अपराध है।

3. शासन अधिकारियों के साथ सहयोग:
प्रत्येक नागरिक का यह भी कर्त्तव्य है कि अपराधी की खोज, शांति की स्थापना, महामारियों आदि की रोकथाम में शासन के अधिकारियों की सहायता करे। इसी प्रकार जनहित में किए जाने वाले सरकारी कार्यों में सहायता देनी चाहिए।

जमाखोरी तथा भ्रष्टाचार करने वाले लोगों की सूचना सरकार को देनी चाहिए। न्यायालयों में सच्ची गवाही देकर न्याय-कार्य में सहायता करें । राशन व अन्य आवश्यक सामग्रियों के उचित वितरण तथा प्रबंध के संबंध में सही सूचनाएं देकर उसे अधिकारियों के साथ सहयोग करना चाहिए।

4. करों की अदायगी:
कर राज्य का आधार हैं। बिना धन के कोई सरकार काम नहीं कर सकती। अधिकांश धन सरकार करों द्वारा एकत्रित करती है। नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि राज्य की सेवाओं के बदले उसे करों के रूप में सहायता पहुंचाएं। राज्य नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा शिक्षा आदि की व्यवस्था करता है। इन सुविधाओं को नागरिक तभी भली प्रकार प्राप्त कर सकते हैं, जब करों का समय पर भुगतान करते रहें। करों की चोरी नहीं करनी चाहिए।

5. मताधिकार का उचित प्रयोग:
प्रजातंत्र में नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया जाता है। मताधिकार एक पवित्र धरोहर है। प्रत्येक नागरिक को अपने मत का उचित प्रयोग करना चाहिए। उसे जनहित का ध्यान रखकर सदैव योग्य व्यक्ति को ही अपना वोट देना चाहिए। मतदान में जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि की भावनाएं नहीं अपनानी चाहिएँ, अन्यथा शासन अयोग्य तथा भ्रष्ट व्यक्तियों के हाथों में चला जाता है। नागरिक का परम कर्त्तव्य है कि वह स्वार्थ-रहित होकर बुद्धिमत्तापूर्वक अपने मत का प्रयोग करे।

6. सार्वजनिक सेवा के लिए उद्यत:
जब कभी किसी नागरिक से स्थानीय अथवा राष्ट्रीय संस्थाओं का सदस्य बनने की आशा की जाए तो उसे सदैव ऐसे कार्यों के लिए तत्पर रहना चाहिए। यदि वह किसी सरकारी नौकरी के योग्य हो तो उसे उसके लिए भी अपने आपको आवश्यकतानुसार प्रस्तुत करना चाहिए।

7. सेना में भर्ती होना:
राज्य की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने के लिए सुसंगठित सेना होनी चाहिए। इसलिए सेना में भर्ती होकर नागरिकों को देश की रक्षा के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। आपातकाल में केवल सेना ही देश की रक्षा करने के लिए काफी नहीं होती। साधारण नागरिकों को भी सैनिक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, जिससे आवश्यकता पड़ने पर वे द्वितीय सुरक्षा पंक्ति का कार्य कर सकें।

8. राजनीति में बुद्धिमत्ता से काम लेना:
प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि ते में पूरी समझदारी से भाग ले। किसी के झूठे बहकावे में न आए। राष्ट्रीय समस्याओं को भली प्रकार समझे तथा उनको सुलझाने का उचित प्रयत्न करे । संकुचित दलबंदी से ऊपर रहे। राष्ट्र-विरोधी प्रचार रोकने के लिए उपाय करे। सभी वर्गों के हितों की रक्षा करे तथा विचार सहिष्णुता से कार्य करे।।

9. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा:
प्रत्येक नागरिक का यह भी कर्त्तव्य है कि वह देश की सामाजिक संपत्ति की रक्षा करे। रेल, डाक, तार, तेल के कुएँ, पेट्रोल पंप आदि को नष्ट होने से बचाए तथा तोड़-फोड़ करने वालों की सूचना सरकार को दे। रूस में सामाजिक संपत्ति की रक्षा करना एक संवैधानिक कर्त्तव्य घोषित किया गया है तथा इसके दोपी को मृत्यु-दंड तक दिया जा सकता है।

(ख) नैतिक कर्तव्य:
समाज तथा राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए नागरिकों को कुछ नैतिक कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए। राज्य के प्रति जितने कर्त्तव्य हैं, उनका पालन न करने पर राज्य जबरन उनका पालन करवा सकता है। परंतु नैतिक कर्त्तव्य नागरिक की स्वेच्छा पर निर्भर है, यद्यपि उनकी उपेक्षा करने से कोई दंड नहीं दिया जा सकता, फिर भी एक आदर्श समाज स्थापित करने के लिए निम्नलिखित कर्त्तव्यों का पालन करना प्रत्येक नागरिक का धर्म है

1. अच्छा आदमी बनना:
एक अच्छे नागरिक को अच्छा आदमी भी बनना चाहिए। उसे सदा सच बोलना चाहिए। झूठे व्यक्ति पर कोई विश्वास नहीं करता। उसे सदैव ईमानदारी से कार्य करना चाहिए। वह जो भी व्यवसाय या सेवा करे, उसमें धोखेबाजी, बेईमानी अथवा मिलावट न करे। सभी की सहायता करने तथा धर्मानुसार चलने का प्रयत्न करे। उसे मृदुभाषी, दयावान तथा अहिंसक प्रवृत्ति का बनना चाहिए। अपने नैतिक गुणों के आधार पर वह नागरिक अपने कर्तव्यों का भी अच्छी प्रकार से पालन कर सकेगा।

2. अपने प्रति कर्त्तव्य:
व्यक्ति के अपने प्रति भी बहुत-से कर्तव्य हैं। अच्छे सामाजिक जीवन के लिए नागरिकों का उन्नतशील होना बहुत जरूरी है। इसलिए व्यक्ति को अपने सर्वोमुखी विकास का ध्यान रखना चाहिए। उसे शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, जिससे उसका शारीरिक तथा मानसिक विकास पूरी तरह से हो सके। इसके साथ ही उसे नागरिक गुणों को धारण करना चाहिए। उसे सहयोग, सहनशीलता, सहानुभूति, आत्म-संयम सत्य-भाषण आदि गुणों को धारण करना चाहिए तथा अनुशासन में रहना चाहिए, ताकि उसके अंदर आत्म-विश्वास और उत्तरदायित्व की भावना आदि गुण भी आ सकें।

3. परिवार के प्रति:
जिस प्रकार एक व्यक्ति के कर्त्तव्य अपने प्रति हैं, ताकि वह अपना विकास तथा समाज-सेवा कर सके, उसी प्रकार उसके कर्त्तव्य अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के प्रति भी हैं। उसे चाहिए कि वह अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को भी विकास के समान अवसर प्रदान करे और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक रहने का अवसर दे। उसे परिवार के अच्छे रीति-रिवाजों को मानना चाहिए और बुरे रीति-रिवाजों को निकालने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपने माता-पिता और दूसरे वृद्धों का आदर करे तथा अपने से छोटे भाई-बहिनों और बच्चों से प्रेम करे।

प्रति कर्त्तव्य:
प्रत्येक नागरिक के अपने पड़ोसी के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य हैं। नागरिक शास्त्र प्रायः अच्छे पड़ोसी-धर्म के पालन की शिक्षा पर बल देता है। नागरिक को अपने पड़ोसी के साथ प्रेम और सहिष्णुता का व्यवहार करना चाहिए। उसे अपने पड़ोसी के सुख-दुःख में सहायक बनना चाहिए। उसे अपने घर का कूड़ा-कचरा पड़ोसी के घर के सामने नहीं फेंकना चाहिए। उसे छोटी-छोटी बातों को लेकर पड़ोसी से किसी प्रकार का लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। पड़ोसी के साथ-साथ अपने सगे-संबंधियों से भी अच्छा व्यवहार करना मानव-धर्म है। अच्छा पड़ोसी बनना ही उत्तम नागरिकता है।

5. ग्राम या नगर या प्रांत के प्रति कर्त्तव्य:
प्रत्येक नागरिक के अपने ग्राम या नगर या प्रांत के प्रति भी कर्त्तव्य हैं। उसे अपने निवास स्थान को साफ-सुथरा रखकर गांव में सफाई व स्वच्छता बनाए रखने में सहायता करनी चाहिए। गलियों व सड़कों में कूड़ा-कर्कट नहीं फेंकना चाहिए। पंचायत या नगरपालिका के कार्यों में सहयोग देना चाहिए। जिस सेवा के लिए वह योग्य हो, उसे निःस्वार्थ रूप से करे। अपने प्रांत के लोगों के हितों की तरफ भी उसे ध्यान देना चाहिए। अकाल, बाढ़, दल या अन्य विपत्तियों के आने पर अपने प्रांत की सहायता करनी चाहिए। उसे प्रांत में रहने वाले सभी लोगों में सौहार्द पैदा करना चाहिए।

6. देश के प्रति कर्त्तव्य:
प्रत्येक नागरिक के अपने देश के प्रति भी कई कर्त्तव्य हैं। देश, प्रांत, नगर, ग्राम तथा परिवार से भी ऊपर है। यदि देश स्वतंत्र रहेगा तो नागरिक भी स्वतंत्र व सुखी रह सकेंगे, अन्यथा नहीं, इसलिए प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने देश की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व बलिदान करने को तैयार रहे। सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त कर आक्रमणकारी के विरुद्ध सदैव हथियार उठाने को त्तपर रहे। सेना, प्रादेशिक सेना, होम गार्ड या एन०सी०सी० में भर्ती होकर राष्ट्रीय एकता, शांति तथा व्यवस्था बनाए रखने में सहयोग दे।

प्रांतीयता, जातिवाद या भाषा संबंधी विवादों में न पड़े, सहिष्णुता तथा भाईचारे की भावना पैदा करे, सरकार के साथ पूर्ण सहयोग करे, विदेशी एजेंटों से सतर्क रहे तथा उनकी सूचना पुलिस को दे; भ्रष्टाचार, जमाखोरी, कालाबाजारी तथा नफाखोरी न करे, आर्थिक योजनाओं को सफल बनाने में सहायता करे।

7. समस्त विश्व के प्रति कर्त्तव्य:
जहां नागरिक के अपने देश तथा राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य हैं, वहाँ उसके विश्व के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य हैं। उसे अपने आपको अपने देश का ही नहीं, अपितु विश्व का नागरिक भी समझना चाहिए। आज व्यक्ति का जीवन अंतर्राष्ट्रीय बन चुका है। इसलिए उसे सभी देशों के लोगों के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए। उसे विश्व-शांति स्थापित करने में पूर्ण सहयोग देना चाहिए।

उसे गुलाम तथा पिछड़े देशों को स्वतंत्र तथा उन्नत बनाने के लिए साम्राज्यवादी भावनाओं का डटकर विरोध करना चाहिए। नागरिक का कर्तव्य है कि वह विनाशकारी अस्त्रों की होड़ का विरोध करे तथा मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव मिटाने का प्रयत्न करे। इस प्रकार नागरिक को संपूर्ण मानवता के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए।

प्रश्न 8.
अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का परस्पर क्या संबंध है?
अथवा
“अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे पर निर्भर हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
अथवा
“अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।” व्याख्या करें।
अथवा
“अधिकारों में कर्तव्य निहित हैं।”-व्याख्या करें।
उत्तर:
अधिकारों और कर्तव्यों में संबंध अधिकारों तथा कर्तव्यों में घनिष्ठ संबंध है। अधिकारों के साथ कर्त्तव्य भी चलते हैं। समाज में न तो केवल अधिकार ही होते हैं और न केवल कर्त्तव्य ही। यदि हमें अधिकार चाहिएँ तो साथ में हमें कर्त्तव्यों का पालन भी करना होगा। अधिकारों और कर्त्तव्यों में चोली-दामन का साथ रहता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

एक की अनुपस्थिति में दूसरा असंभव है। जो लोग उन्हें एक-पक्षीय मानकर चलते हैं, वे गलती करते हैं। प्रायः लोग अपने अधिकारों की मांग तो करते हैं, परंतु कर्त्तव्यों को भूल जाते हैं। लेकिन कर्त्तव्यों से अलग कोई अधिकार नहीं होते, केवल कर्त्तव्यों की दुनिया में ही अधिकारों की प्राप्ति हो सकती है। नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करके ही अधिकारों का उपभोग कर सकते हैं। इन अधिकारों तथा कर्तव्यों में परस्पर संबंध निम्नलिखित प्रकार है

1. प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा है:
जब हम समाज से किसी अधिकार की मांग करते हैं तो हमें उसका मूल्य कर्त्तव्य के रूप में चुकाना पड़ता है। बिना कर्त्तव्य-पालन किए अधिकार का दावा करना वैसा ही है, जैसे बिना दाम किए बाजार से चीजें लेने का प्रयत्न करना। प्रो० लास्की (Laski) का यह कथन उचित है, “मेरे अधिकार के साथ मेरा कर्तव्य भी है कि मैं तुम्हारे अधिकार को भी स्वीकार करूं।

जो दूसरे का अधिकार है, वही मेरा कर्तव्य है।” यदि हमें जीवित रहने, संपत्ति रखने या भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार चाहिए तो हमारा यह भी कर्त्तव्य है कि दूसरों को जिंदा रहने दें, उनकी संपत्ति नष्ट न करें, उन्हें अपशब्द न कहें।

जो अधिकार एक व्यक्ति को प्राप्त हैं, वही दूसरों को भी प्राप्त हैं। इसलिए हमारा धर्म है कि हम दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्य को भी अदा करें। जब समाज में एक वर्ग यह समझने लगता है कि उसके अधिकार तो हैं, परंतु कर्त्तव्य नहीं तथा दूसरे वर्ग के केवल कर्त्तव्य ही हैं, अधिकार नहीं, तब शक्तिशाली वर्ग दुर्बल वर्ग का शोषण करने लगता है। जमींदारों द्वारा किसानों का तथा पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का इसी धारणा के आधार पर शोषण होता रहा है। इससे समाज में दुःख तथा अशांति रहती है। प्रजातंत्र तथा समाजवाद ऐसी ही विषमताओं को मिटाने के लिए विकसित हुए हैं।

2. एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है:
अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी व्यक्ति को उसका अधिकार तभी मिल सकता है जब दूसरे उसको ऐसा करने का अवसर दें। प्रो० लास्की (Laski) के शब्दों में, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्त्तव्य है। यदि मुझे कुछ अधिकार प्राप्त हैं तो दूसरों का कर्तव्य है कि उन अधिकारों में बाधा उत्पन्न न करें।

यदि मुझे जीने का अधिकार है तो दूसरों का कर्तव्य है कि वे मुझे किसी प्रकार का आघात न पहुंचाए।” इसी प्रकार मुझे संपत्ति रखने का अधिकार है तो इसका अर्थ यही है कि अन्य लोग मेरी संपत्ति पर ज़बरन कब्जा न करें। इस प्रकार अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन पूरक हैं। वे एक ही व्यवस्था के दो पहलू हैं। व्यक्तिगत दृष्टि से जो बात एक का अधिकार है, सामाजिक दृष्टि से वही बात दूसरों का कर्तव्य कहलाती है।

3. प्रत्येक अधिकार एक नैतिक कर्त्तव्य भी है:
अधिकार केवल व्यक्ति के विकास का साधन ही नहीं, वरन् समाज के हित को बढ़ाने का उपकरण भी है। इस प्रकार अधिकार का सामाजिक पहलू भी है। चूंकि अधिकार समाज की ही देन है इसलिए व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह उसका उपयोग समाज के हित में करे । उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत नागरिक को भाषण, प्रकाशन, भ्रमण, व्यापार आदि की स्वतंत्रता प्रदान की गई है, परंतु उसका यह कर्त्तव्य भी है कि वह इसका अनुचित प्रयोग न करे।

अनैतिक व्यापार या देश-द्रोह फैलाने की कार्रवाइयां करने पर न केवल ये अधिकार छीन लिए जाते हैं, वरन उचित दंड भी दिया जाता है। अधिकारों के उचित प्रयोग से व्यक्ति का निजी हित भी सुरक्षित रहता है। यातायात के नियमों का पालन करते हुए ही हम सड़क पर चलने के अपने अधिकार का उपयोग कर सकते हैं, अन्यथा हम किसी दुर्घटना के शिकार हो सकते हैं।

4. अधिकार एक कानूनी कर्तव्य भी है:
राज्य अपने नागरिकों को कई प्रकार के सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्रदान करता है। इनमें से कुछ अधिकारों का प्रयोग कानूनी तौर से अनिवार्य भी कहा जा सकता अधिकार है; जैसे मताधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, अवकाश प्राप्त करने का अधिकार आदि। ऑस्ट्रेलिया में मताधिकार का प्रयोग न करने पर दंड दिया जाता है। रूस में अवकाश ग्रहण करना, काम पाना कानूनी तौर पर अनिवार्य है। भारत में दुकानदारों को भी सप्ताह में एक दिन की छुट्टी मनाना अनिवार्य कर दिया गया है। इस प्रकार कई अधिकार कानूनी कर्त्तव्य भी होते हैं।

5. राज्य अधिकारों की रक्षा करता है तो नागरिक का कर्तव्य राज-भक्त रहना है:
राज्य लोगों के जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति आदि के अधिकारों की रक्षा करता है, इसलिए नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य को कर (Taxes) दें, उसके कानूनों का पालन करें तथा उसकी सुरक्षा के लिए सैनिक शिक्षा प्राप्त करें। प्रो० लास्की (Laski) के अनुसार, “जब राज्य मुझे मताधिकार प्रदान करता है, तो मेरा यह कर्त्तव्य है कि मैं योग्य व्यक्ति को चुनने में ही उसका प्रयोग करूं।” इस प्रकार राज-भक्त नागरिक ही अधिकारों का उपयोग करने के अधिकारी हैं।

6. अधिकार का अंतिम लक्ष्य कर्त्तव्य की पूर्ति है:
यह भी ध्यान देने की बात है कि अधिकार केवल अधिकार के लिए नहीं मिलते। यदि हम अधिकार के लिए दावा करेंगे और कर्त्तव्यों की उपेक्षा करेंगे तो हमारे हो जाएंगे। उदाहरण के लिए, यदि हम मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं तो वह अधिकार स्वतः नष्ट हो जाता है। इसलिए अधिकारों का अंतिम उद्देश्य कर्त्तव्यों की पूर्ति ही है। डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के शब्दों में, “यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों पर ही जोर दे और दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन न करे तो शीघ्र ही किसी के लिए कोई भी अधिकार नहीं रह जाएगा।”

7. अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक लक्ष्य:
अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक ही लक्ष्य होता है-व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाना। समाज व्यक्ति को अधिकार इसलिए देता है, ताकि वह उन्नति कर सके तथा अपने जीवन का विकास कर सके। कर्त्तव्य उसको लक्ष्य पर पहुंचने में सहायता करते हैं। कर्त्तव्यों के पालन से ही अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं।

8. अधिकार व कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू:
अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) ने ठीक ही कहा है, “अधिकार और कर्त्तव्य एक वस्तु के दो पक्ष हैं, जब कोई व्यक्ति उन्हें अपने दृष्टिकोण से देखता है तो वह अधिकार है और जब दूसरे के दृष्टिकोण से देखता है तो वह कर्त्तव्य है।”

निष्कर्ष:
अंत में हम कह सकते हैं कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं तथा एक का दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। जहां अधिकारों का नाम आता हो, वहाँ कर्त्तव्य अपने-आप उसमें शामिल हो जाते हैं। अधिकार तथा कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लास्की के अनुसार, “हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कुछ अधिकारों की आवश्यकता होती है,

इसलिए अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो अंश हैं” श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “कर्त्तव्य और अधिकार दोनों एक ही वस्तु हैं। अंतर केवल उनको देखने में ही है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्त्तव्यों के क्षेत्र में ही अधिकारों का सही महत्त्व सामने आता है।” अतएव यह स्पष्ट है कि अधिकारों एवं कर्तव्यों में घनिष्ठ संबंध है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असंभव है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्न में अधिकारों का लक्षण है
(A) अधिकार समाज की देन हैं
(B) अधिकार असीमित नहीं होते
(C) अधिकारों का लक्ष्य सर्वहित है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. निम्न में अधिकारों का लक्षण नहीं है
(A) अधिकार समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं
(B) अधिकार बदलते रहते हैं
(C) अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित नहीं होते
(D) अधिकारों के साथ कर्त्तव्य जुड़े हैं
उत्तर:
(C) अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित नहीं होते

3. प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन निम्न में से किस विद्वान ने किया?
(A) लॉक
(B) आस्टिन
(C) हॉब्स
(D) अरस्तू
उत्तर:
(A) लॉक

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

4. निम्नलिखित में से कौन-सा व्यक्ति का सामाजिक अधिकार नहीं है?
(A) जीवन का अधिकार
(B) परिवार का अधिकार
(C) धर्म का अधिकार
(D) कार्य का अधिकार
उत्तर:
(D) कार्य का अधिकार

5. अधिकारों का महत्त्व निम्न में से है
(A) व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक
(B) समाज के विकास का साधन
(C) लोकतंत्र की सफलता में अनिवार्य शर्त
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सार्वभौम घोषणा हुई थी
(A) सन् 1948 में
(B) सन् 1950 में
(C) सन् 1952 में
(D) सन् 1954 में
उत्तर:
(A) सन् 1948 में

7. निम्नलिखित में से राज्य का कानूनी कर्त्तव्य है
(A) कानूनों का पालन
(B) राज्य भक्ति
(C) करों की अदायगी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. कानूनी अधिकार होते हैं
(A) प्रकृति से प्राप्त
(B) नैतिक बल प्राप्त
(C) कानूनी सत्ता प्राप्त
(D) जनमत पर आधारित
उत्तर:
(C) कानूनी सत्ता प्राप्त

9. व्यक्ति द्वारा अपने परिवार के प्रति कर्त्तव्य की पूर्ति करना, निम्न में कौन-सा कर्त्तव्य कहलाता है?
(A) कानूनी कर्तव्य
(B) नैतिक कर्त्तव्य
(C) संवैधानिक कर्त्तव्य
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनके बिना कोई मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” यह परिभाषा किस विद्वान ने दी है?
उत्तर:
प्रो० हैरोल्ड लास्की ने।

2. “अधिकार वह माँग या दावा है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” यह परिभाषा किस विद्वान की है?
उत्तर:
बोसांके की।

3. “अधिकार एवं कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
डॉ० बेनी प्रसाद का।

4. कोई एक कानूनी कर्त्तव्य लिखिए।
उत्तर:
आयकर का भुगतान करना।

रिक्त स्थान भरें

1. भारतीय संविधान में …….. व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है।
उत्तर:
संपत्ति का अधिकार

2. भारतीय संविधान के अनुच्छेद …………… में अधिकारों के संरक्षण या उपचार का प्रावधान किया गया है।
उत्तर:
32

3. “केवल कर्त्तव्यों के जगत् में ही अधिकारों का महत्त्व है।” यह कथन …………….. का है।
उत्तर:
प्रो० वाइल्ड।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘न्याय’ शब्द की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई है?
उत्तर:
न्याय (Justice) शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से हुई है, जिसका अर्थ है-बंधन अथवा बांधना।

प्रश्न 2.
‘न्याय’ क्या है?
उत्तर:
न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसमें व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में सामंजस्य हो तथा व्यक्ति अपने-अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का पालन करते हों।

प्रश्न 3.
न्याय के किन्हीं दो पक्षों के नाम बताएँ।
उत्तर:
न्याय के दो पक्ष हैं-

  • सामाजिक पक्ष,
  • आर्थिक पक्ष।

प्रश्न 4.
न्याय के तीन आधारभूत तत्त्व लिखें।
उत्तर:

  • कानून के समक्ष समानता,
  • निष्पक्षता तथा
  • मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 5.
न्याय की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
सालमंड के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना न्याय है।”

प्रश्न 6.
सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और व्यक्तियों के परस्पर सामाजिक संबंधों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है।

प्रश्न 7.
आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्रता तथा समानता प्राप्त हो, प्रत्येक को अपने आर्थिक जीवन का विकास करने के समान अवसर प्राप्त हों।।

प्रश्न 8.
क्या सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय आपस में संबंधित हैं?
उत्तर:
सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का आपस में घनिष्ठ संबंध है। जहाँ सामाजिक न्याय की व्यवस्था है, वहाँ लोगों को आर्थिक न्याय भी मिल जाता है और जहाँ आर्थिक न्याय है, वहाँ सामाजिक न्याय वास्तविक बन सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक और सहायक हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के किन्हीं दो प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • समानता का अधिकार तथा
  • छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित करना।

प्रश्न 10.
प्रजातंत्र में न्याय का क्या स्थान है?
उत्तर:
प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों की पूर्ति न्याय द्वारा ही की जाती है। न्याय समाज में सामाजिक, आर्थिक व कानूनी समानता को स्थापित करता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
न्याय का अर्थ स्पष्ट करें। अथवा न्याय की अवधारणा की समीक्षा करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा का राजनीति शास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका व्यक्ति के जीवन में भी बड़ा महत्त्व है और हर व्यक्ति न्याय की मांग करता है। अन्याय होने की स्थिति में व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है। न्याय व्यक्ति और समाज के हितों में सामंजस्य स्थापित करता है। ‘न्याय का अर्थ-न्याय को अंग्रेजी में Justice’ कहते हैं। ‘Justice’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द Jus’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ बंधन या बांधना है। इसका अभिप्राय यह है कि ‘न्याय’ उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्ति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

न्याय का अर्थ है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व कानूनी आधार पर कैसे संबंधित है। प्लेटो ने न्याय के बारे में कहा है, “न्याय वह गुण है जो अन्य गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।” इसी तरह सालमंड ने भी कहा है, “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना है।” प्रो० मेरियम के अनुसार “न्याय मान्यताओं और प्रतिक्रियाओं की वह प्रणाली है, जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार व सुविधाएं दी जाती । हैं, जिन्हें समाज उचित मानता है।”

प्रश्न 2.
न्याय के चार आधारभूत तत्त्व लिखें।
उत्तर:
न्याय के चार आधारभूत तत्त्व निम्नलिखित हैं

1. कानून के समक्ष समानता-न्याय के इस तत्त्व से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून के सामने समान है। सभी व्यक्तियों पर एक से कानून लागू होने चाहिएँ। जाति, रंग, वंश, लिंग आदि पर बने भेदभाव के बिना सभी को कानून का समान संरक्षण मिलना चाहिए।

2. सत्य-सत्य का अर्थ है-घटना का ज्यों-का-त्यों प्रस्तुतीकरण करना। न्याय की मांग है कि तथ्यों को सत्य के आधार पर व्यक्त करना चाहिए। न्यायालयों में तथ्यों की सत्यता पर विशेष बल दिया जाता है।

3. स्वतंत्रता-न्याय और स्वतंत्रता में गहरा संबंध है। बिना स्वतंत्रता के न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल स्वतंत्र और स्वच्छ वातावरण में ही मनुष्य न्याय प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।

4. प्रकृति की अनिवार्यताओं का सम्मान-जो कार्य व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है और जो कार्य प्राकृतिक रूप से व्यक्ति के लिए करना असंभव है, उसे करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय की भावना के विरूद्ध है। उदाहरणस्वरूप किसी बूढ़े या बीमार व्यक्ति से भारी शारीरिक काम लेना अन्याय है।

प्रश्न 3.
न्याय की अवधारणा के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा के विभिन्न रूप हैं। उनमें से दो मुख्य रूपों का वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक न्याय-राजनीति शास्त्र में आर्थिक व सामाजिक न्याय ने मुख्य रूप से ज़ोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय की धारणा एक विशाल धारणा है, जिसकी व्याख्या विभिन्न लेखकों ने विभिन्न ढंगों से की है। कुछ इसे धन का समान वितरण मानते हैं तो कुछ इसे समाज में अवसरों की समानता मानते हैं। सामाजिक न्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में पाई जाने वाली असमानताओं, भेदभाव और अन्याय को दूर करना है, ताकि सभी व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की भावना ने समाजवाद को भी लोकप्रिय बनाया है।

2. राजनीतिक न्याय राजनीतिक न्याय से तात्पर्य यह है कि राजनीतिक शक्ति किसी वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित न होकर सर्व साधारण के पास होनी चाहिए और सभी लोगों को प्रशासन में भाग लेने के अवसर प्राप्त हों। इसका अर्थ है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सभी व्यक्तियों को समान रूप से करने का अधिकार होना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 4.
समाज में आप सामाजिक न्याय किस प्रकार प्राप्त करेंगे?
अथवा
सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन करें। उत्तर सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन अग्रलिखित है

1. सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए समाज में व्यक्तियों को न तो कोई विशेष प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ तथा न ही किसी व्यक्ति के साथ जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव होना चाहिए।

2. कानून के समक्ष समानता सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि सभी लोगों को कानून के समक्ष समानता तथा एक समान वैधानिक सुरक्षा प्राप्त हो। सभी प्रकार के विशेष अधिकारों तथा सुविधाओं को समाप्त किया जाए।

3. पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ-इस प्रकार की सुविधाएं कुछ समय के लिए पिछड़ी जातियों तथा निर्बल वर्गों के लोगों को अवश्य दी जानी चाहिएं, ताकि वे इन सुविधाओं से लाभ प्राप्त कर सकें तथा अन्य नागरिकों के समान विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए जाति-प्रथा का अंत किया जाना अनिवार्य है।

4. समान अधिकार-यह भी अनिवार्य है कि सभी नागरिकों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अधिकार समान रूप से दिए जाएं।

प्रश्न 5.
आर्थिक न्याय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताइए।
अथवा
न्याय के आर्थिक पक्ष का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक न्याय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्नलिखित हैं
(1) सभी नागरिकों की मूल आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिएँ।

(2) प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के साधन उपलब्ध कराने चाहिएँ और व्यक्ति को अपने काम के लिए उचित मजदूरी मिलनी चाहिए। किसी व्यक्ति का शोषण नहीं होना चाहिए।

(3) आर्थिक न्याय का यह भी अर्थ है कि विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति को राजकीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार हो। बुढ़ापे, बेरोज़गारी तथा असमर्थता में राज्य सामाजिक एवं आर्थिक संरक्षण प्रदान करे।

(4) स्त्रियों और पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।

(5) संपत्ति और उत्पादन के साधनों के नियंत्रण के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है।

प्रश्न 6.
समाज में आप आर्थिक न्याय किस प्रकार प्राप्त करेंगे?
उत्तर:
आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि समाज में ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित हो जाएँ, जिनमें किसी व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा आर्थिक शोषण न हो सके तथा सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुसार जीविकोपार्जन के आवश्यक साधन प्राप्त हो सकें।

आर्थिक न्याय की प्राप्ति तथा सभी लोगों को कार्य देने के लिए सरकार को उत्तरदायी होना चाहिए तथा कार्य न देने की अवस्था में बेरोज़गारी भत्ता सरकार की ओर से दिया जाना चाहिए। अपाहिज हो जाने अथवा बीमारी या वृद्धावस्था में लोगों को आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार प्राप्त होना अनिवार्य है।

आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए धन कुछेक व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसका उचित विभाजन होना अनिवार्य है। आर्थिक न्याय की प्राप्ति तभी संभव हो सकती है, यदि निर्बल वर्गों तथा श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए जाएं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 7.
लोकतंत्र में न्याय का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
लोकतंत्र में न्याय के निम्नलिखित महत्त्व हैं
(1) लोकतंत्र के लिए नागरिकों के उच्च चरित्र की आवश्यकता होती है। उच्च चरित्र से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। न्याय नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।

(2) लोकतंत्र की सफलता के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का होना आवश्यक है। न्याय द्वारा समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में एकता स्थापित की जाती है जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है।

(3) लोकतंत्र के लिए नागरिकों के विभिन्न अधिकारों का बड़ा महत्त्व है। न्याय के द्वारा लोगों के विभिन्न अधिकारों की सुरक्षा की जाती है। अधिकारों की सुरक्षा लोकतंत्र के लिए जरूरी है।

(4) लोकतंत्र के लिए सामाजिक एकता आवश्यक है, अर्थात जाति, धर्म, रंग, वंश या लिंग भेद के आधार पर ऊंच-नीच की दीवारें नहीं होनी चाहिएं। न्याय समाज के सभी वर्गों को उन्नति के समान अवसर प्रदान करके इस भेदभाव को समाप्त करता है।

(5) आर्थिक सुरक्षा को लोकतंत्र का आधार माना गया है। भूख, महंगाई व बेकारी के वातावरण में राजनीतिक स्वतंत्रताएं मूल्यहीन बन जाती हैं। न्याय द्वारा इस आर्थिक असुरक्षा को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है।

(6) लोकतंत्र चुनावों पर आधारित है। न्याय की यह मांग है कि चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से कराए जाएं।

प्रश्न 8.
भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए क्या प्रावधान है? अथवा भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु मौलिक अधिकारों से कौन-सी व्यवस्थाएं की गई हैं ?
उत्तर:
भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा प्राचीन समय से चली आ रही है। प्राचीन भारत में लोगों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के प्रयत्न किए गए थे, लेकिन फिर भी सामाजिक न्याय की समस्या जटिल बनी रही है। भारत में जाति, लिंग, धर्म वरंग के आधार पर भेदभाव होता रहा है और इस भेदभाव को अनेक सुधारकों ने दूर करने का प्रयत्न किया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के अध्याय में सामाजिक न्याय को स्थापित करने के प्रावधान निम्नलिखित हैं

(क) (1) अनुच्छेद 14 में कानून के सामने समानता का प्रावधान है।
(2) धारा 15 व 16 के अनुसार किसी के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
(3) धारा 17 के अनुसार छुआछूत को समाप्त किया गया है।
(4) धारा 18 में उपाधियाँ देने पर रोक लगाई गई है।
(5) धारा 23-24 में मनुष्य के शोषण पर रोक लगाई गई है।
(6) संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकालकर आर्थिक न्याय स्थापित किया गया है।

(ख) नागरिकों की आर्थिक स्थिति को सुधारने और उन्हें आर्थिक न्याय प्रदान करने के लिए राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की व्यवस्था की गई है। धारा 46 में कमजोर वर्गों के शोषण के विरूद्ध व्यवस्था की गई है। धारा 47 में राज्य को सभी लोगों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का निर्देश दिया गया है।

प्रश्न 9.
आर्थिक न्याय के कोई चार लक्षण बताएँ।
उत्तर:
आर्थिक न्याय के चार लक्षणों का वर्णन निम्नलिखित है

1. काम का अधिकार मनुष्य की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। उनकी पूर्ति अनिवार्य है। उनकी पूर्ति के लिए नागरिकों को काम चाहिए अर्थात प्रत्येक नागरिक को काम मिलना चाहिए। काम के अधिकारों की स्थिति भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। इंग्लैंड में नागरिकों को काम देना सरकार का कर्त्तव्य है। काम न मिलने की स्थिति में उन्हें बेरोजगार भत्ता दिया जाता है। साम्यवादी देशों में भी काम देना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत में सरकार प्रत्येक व्यक्ति को काम देने का प्रयत्न कर रही है।

2. समान कार्य के लिए समान वेतन-यह भी ज़रूरी है कि पुरुष व महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। महिलाओं की मजबूरी का लाभ न उठाया जाए। लोगों को वेतन उनके काम व गुण के आधार पर दिया जाए। एक से श्रमिकों का वेतन सभी जगह एक-सा होना चाहिए। एक स्तर के अधिकारियों का वेतन भी एक ही होना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अध्यापक व एक श्रमिक का वेतन एक-सा नहीं हो सकता।

3. न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति होना अनिवार्य है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने की स्थिति में लोकतंत्र व राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना एक ढोंग व दिखावा है, क्योंकि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति राजनीति के बारे में सोच ही नहीं सकता। आर्थिक शोषण व्यक्ति को लोकतंत्र के लिए सोचने का मौका ही नहीं देता।

4. आर्थिक सुरक्षा-आर्थिक सुरक्षा भी आर्थिक न्याय का एक भाग है। इसका अर्थ है कि बुढ़ापे, बीमारी, दिव्यांग और असहाय होने की स्थिति में जब व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा नहीं सकता तो राज्य द्वारा उसकी आर्थिक सहायता होनी चाहिए। उन्हें पेंशन, निःशुल्क चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएँ।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय से आप क्या समझते हैं? इसके आधारभूत तत्त्वों का उल्लेख करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा राजनीति विज्ञान में विशेष महत्त्व रखती है। इसका व्यक्ति के जीवन में भी बड़ा महत्त्व है और हर व्यक्ति न्याय की मांग करता है। यहाँ तक कि जब किसी व्यक्ति को न्यायालय से न्याय न मिले, तो वह भगवान से न्याय मांगता है। न्याय द्वारा ही व्यक्ति को अत्याचार से छुटकारा मिलता है। न्याय व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक हितों में सामंजस्य स्थापित करता है, समाज के विभिन्न वर्गों को संगठित रखता है, सामाजिक व्यवस्था को दृढ़ बनाता है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं का लाभ उठाने का वातावरण उत्पन्न करता है।

न्याय के बिना किसी का जीवन और संपत्ति सुरक्षित नहीं रह सकते। न्याय के बिना समाज और राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। न्यायविहीन समाज में तो जंगल का-सा वातावरण ही मिल सकता है। न्याय की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना कि मानव-समाज। व्यक्ति ने इसके लिए सदैव संघर्ष किया है। न्याय की धारणा भी समयानुसार बदलती रहती है।

प्लेटो (Plato) ने नैतिकता और सद्गुणों को ही न्याय का नाम दिया था। मध्यकालीन युग में धार्मिक नियमों पर आधारित मानव व्यवहार को न्याय के अनुरूप माना जाता था। रूसो ने स्वतंत्रता और समानता को न्याय का नाम दिया। ग्रोशियस ने व्यक्तिगत हितों और सामाजिक हितों के सामंजस्य को न्याय कहा है। जॉन स्टुअर्ट मिल तथा बैंथम जैसे उपयोगितावादियों ने अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को ही न्याय बताया है। समाजवादियों ने आर्थिक समानता को ही न्याय का आधार बताया है। इस प्रकार न्याय की अवधारणा बदलती रही है।

न्याय का अर्थ एवं परिभाषाएँ न्याय को अंग्रेजी में ‘Justice’ कहते हैं। Justice शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से बना है, जिसका अर्थ होता है- ‘बंधन या बांधना’ इसका अभिप्राय यह है कि न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जुड़ा हुआ है। न्याय की भाषा इस बात से संबंधित है कि एक व्यक्ति के दूसरे के साथ नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा कानूनी संबंध क्या हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र में न्याय का अर्थ सामाजिक जीवन की उस अवस्था से है जिसमें वैयक्तिक अधिकारों का सामाजिक कल्याण के साथ समन्वय स्थापित किया गया हो। न्याय की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. बेन तथा पीटर्स के अनुसार, “न्यायपूर्वक कार्य करने का अर्थ यह है कि जब तक भेदभाव किए जाने का कोई उचित कारण न हो, तब तक सभी व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार किया जाए।”

2. प्रो० सी०ई० मेरियम ने कहा है, “न्याय मान्यताओं और प्रक्रियाओं की वह प्रणाली है जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार व सुविधाएं दी जाती हैं जिन्हें समाज उचित मानता हो।”

3. सालमंड के अनुसार, “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना है।”

4. प्लेटो के अनुसार, “न्याय वह गुण है जो अन्य गुणों के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है।”

5. जे०एस० मिल के अनुसार, “न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव-कल्याण की धारणाओं से संबंधित है और इसलिए जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी अन्य नियम से महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।”

6. डी०डी० राफेल के अनुसार, “न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की भी रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिक युग में न्याय से तात्पर्य सामाजिक जीवन की उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति के आचरण तथा समाज-कल्याण में उचित समन्वय स्थापित किया जा सके।

न्याय के आधारभूत तत्त्व यद्यपि न्याय का प्रत्येक युग में महत्त्व रहा है, तथापि न्याय का रूप प्रत्येक युग में अलग रहा है। न्याय का रूप स्थान, परिस्थितियों, समाज के ढांचे और राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। परंतु कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो न्याय की सभी धारणाओं में विद्यमान हैं और इन तत्त्वों को न्याय के आधारभूत तत्त्व कहा जा सकता है। ऑर्नोल्ड ब्रैशर ने न्याय के निम्नलिखित आधारभूत तत्त्वों का वर्णन किया है

1. कानून के समक्ष समानता:
न्याय का यह तत्त्व बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि कानून के सामने सबको समान समझा जाना चाहिए और उन पर एक से कानन लागू किए जाने चाहिएं। जाति, धर्म, वंश, लिंग आदि के आधार पर बने भेदभाव के बिना सभी को कानून का समान संरक्षण मिलना चाहिए। सी०के० एलेन ने कहा है, “जहाँ पक्षपात द्वार से अन्दर आया, न्याय खिड़की से बाहर गया।” अतः कानून के समक्ष समानता समाज में अन्याय को समाप्त करती है।

2. सत्य:
सत्य न्याय का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सत्य का अर्थ है-घटना का ज्यों-का-त्यों प्रस्तुतिकरण करना। वस्तुनिष्ठ रूप में न्याय की मांग है कि तथ्य और संबंध विषयक अपने सभी कथनों में हम सत्य का प्रयोग करें। न्यायालयों में तथ्यों की सत्यता का विशेष महत्त्व है।

3. स्वतंत्रता:
न्याय और स्वतंत्रता में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। बिना स्वतंत्रता के न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल स्वतंत्र और स्वच्छंद वातावरण में ही मनुष्य न्याय प्राप्त कर सकता है। इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना अन्याय है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर केवल उस सीमा तक प्रतिबंध लगाना चाहिए जितना कि राष्ट्र-हित व समाज-हित के लिए आवश्यक हो।

4. मूल्यों की व्यवस्था की सामान्यता:
न्याय का यह रूप इसे समरूपता (uniformity) प्रदान करता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक मामले में तथा विभिन्न परिस्थितियों में न्याय की एक ही धारणा का प्रयोग किया जाना चाहिए। अलग-अलग मामलों में न्याय की अलग-अलग धारणाओं को लागू करना अनुचित है।

5. प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान:
जो कार्य व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है और जो कार्य प्रकृति की ओर से व्यक्ति के लिए असंभव है, उन्हें करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय की भावना के विरूद्ध है। उदाहरण के लिए, किसी बीमार या बूढ़े व्यक्ति से भारी शारीरिक काम लेना अन्याय है।

6. निष्पक्षता:
निष्पक्षता न्याय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, वंश व लिंग के आधार जा सकता। इन आधारों पर भेदभाव करना अन्याय माना जाता है। सभी व्यक्ति कानून के सामने समान हैं, इसे न्याय का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है।

इस संदर्भ में आर्नल्ड ब्रेस्ट ने कहा है, “स्वीकृत अवस्था के अन्तर्गत जो समान है उसके साथ समान व्यवहार होना चाहिए। समान परिस्थितियों में स्वेच्छाचारी ढंग से भेदभाव करना अन्याय है।” स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में न्याय प्राप्त करने के लिए उपर्युक्त आधारभूत तत्त्वों का पालन करना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
न्याय की अवधारणा के विविध रूपों का वर्णन कीजिए।
अथवा
न्याय का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
राजनीति विज्ञान में न्याय का विशेष महत्त्व है। न्याय का अस्तिव उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव-समाज। प्रत्येक युग में समाज में न्याय की मांग रही है। इतिहास में न्याय की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। कभी उसे ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ का पर्याय माना जाता है तो कभी ईश्वर की इच्छा और पूर्वजन्म के कर्मों का फल।

भारतीय चिंतन में न्याय को धर्म का पर्याय माना गया है। प्लेटो ने न्याय के सिद्धांत की विस्तार से चर्चा की है। प्लेटो ने न्याय को आध्यात्मिक तथा सत्यता का रूप दिया। एबेंस्टीन (Ebenstein) के अनुसार, “प्लेटो के न्याय संबंधी विवेचन में उसके राजनीतिक दर्शन के समस्त तत्त्व शामिल थे।” अनेक विद्वानों ने समयानुसार न्याय का अर्थ एवं परिभाषा दी है। मूल रूप में न्याय को हम निम्नलिखित रूपों में समझ सकते हैं

1. प्राकृतिक न्याय:
इससे अभिप्राय उस न्याय से है जो प्राकृतिक नियमों तथा औचित्य पर आधारित हो। इतना ही नहीं, जो न्याय प्राकृतिक नियमों के अतिरिक्त निष्पक्षता, तर्कसंगतता, औचित्य तथा ईमानदारी पर आधारित है, उसे भी प्राकृतिक न्याय का नाम देते हैं। प्राकृतिक न्याय को न्यायालय भी मान्यता देते हैं और जो कार्य प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत के विरूद्ध हो, उसे अवैध घोषित कर देते हैं। यदि किसी व्यक्ति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिए बिना कोई दंड दे दिया जाए तो उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरूद्ध कहकर न्यायालय उसे रद्द कर देते हैं।

2. सामाजिक न्याय:
आधुनिक युग में सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को न्याय दिए जाने की भावना ने बहुत जोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय राजनीतिक विज्ञान की एक नवीन अवधारणा के रूप में 20वीं शताब्दी में ही विकसित हुआ है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में पाई जाने वाली असमानताओं, भेदभाव और अन्याय को दूर करना है ताकि सभी व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की भावना ने समाजवाद को भी लोकप्रिय बनाया है।

3. राजनीतिक न्याय:
राजनीतिक न्याय से अभिप्राय है कि राजनीतिक शक्ति किसी वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित न होकर सर्वसाधारण के पास होनी चाहिए और सभी लोगों को प्रशासन में भाग लेने के अवसर प्राप्त हों। इसका अर्थ है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सभी व्यक्तियों को समान रूप से करने का अधिकार होना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

4. कानूनी न्याय:
कानूनी न्याय से अभिप्राय है कि कानून न्याय-संगत हों, समान व्यक्तियों के लिए समान कानून हों। किसी भी वर्ग विशेष को विशेषाधिकार प्राप्त न हों। कानून जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाए जाएं और उनका औचित्य सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा समय-समय पर परखा जाए। न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) निष्पक्ष, सरल, व सस्ती हो ताकि निर्धन व्यक्ति धन के अभाव में कहीं न्याय से वंचित रहकर धनी वर्ग के शोषण का शिकार न हो जाएं। इस प्रकार हम देखते हैं कि कानून तथा न्याय एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

5. आर्थिक न्याय:
सामाजिक न्याय की तरह आर्थिक न्याय की अवधारणा भी आजकल बड़ी लोकप्रिय है। इसका अर्थ है-व्यक्तियों को आर्थिक क्षेत्र में न्याय प्रदान करना, आर्थिक असमानताओं को दूर करना, लोगों को आर्थिक शोषण से मुक्त करना तथा उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना।

आर्थिक न्याय के अंतर्गत यह बात भी आती है कि सभी व्यक्तियों को काम उपलब्ध हो, काम के कम-से-कम घंटे और अधिक-से-अधिक मजदूरी निश्चित हो, किसी का आर्थिक शोषण न हो और आर्थिक मजबूरी के कारण किसी को कोई अनैतिक काम न करना पड़े। सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा आज सामाजिक और आर्थिक न्याय की दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं।

6. नैतिक न्याय:
संसार में कुछ नियम सर्वव्यापक, अपरिवर्तनशील और प्राकृतिक हैं। इनके अनुसार होने वाले आचरण या व्यवहार को ही नैतिक न्याय कहते हैं। उदाहरण-स्वरूप सच बोलना, प्रतिज्ञा-पालन, दया, सहानुभूति पूर्ण व्यवहार, उदारता, क्षमा आदि नैतिक न्याय के अंतर्गत आते हैं। ऐसे व्यवहार की स्थापना में राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी और सबको स्वतः ही नैतिक न्याय की प्राप्ति हो जाएगी।

प्रश्न 3.
सामाजिक न्याय के अर्थ और महत्त्व बताएँ।
अथवा
सामाजिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक न्याय का अर्थ (Meaning of Social Justice)-20वीं शताब्दी में सामाजिक न्याय की अवधारणा ने बड़ा जोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय का अर्थ मुख्य रूप से यह है कि समाज के सभी सदस्य समान समझे जाने चाहिएँ और उन्हें अधिकार तथा सुविधाएं भी समान रूप से मिलनी चाहिएं, कम या अधिक नहीं। वैसे सामाजिक न्याय की अवधारणा बड़ी पुरानी है।

भारतीय राजनीतिज्ञ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सामाजिक और आर्थिक न्याय का उल्लेख है। उसने लिखा है, “राज्य अनाथों, असहायों, दिव्यांगों आदि को निर्वाह के साधन प्रदान करेगा तथा आर्थिक व्यवस्था का संचालन ऐसे करेगा कि नागरिकों को न्याय प्राप्त हो।” सामाजिक न्याय की अवधारणा को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

पी०वी० गजेन्द्रगड़कर के अनुसार सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है। बार्कर का कहना है कि प्रत्येक समाज का उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति में निहित गुणों को विकसित करने के लिए समान अवसर प्रदान करना है जिसके लिए एक उचित व्यवस्था की स्थापना करना ही सामाजिक न्याय है।

लास्की के अनुसार, “समान सामाजिक अधिकार देना ही सामाजिक न्याय है।” कुछ विद्वानों के अनुसार, समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित भाग प्रदान करना ही सामाजिक न्याय है। अपनी पुस्तक आस्पैक्ट्स ऑफ जस्टिस (Aspects of Justice) में सर सी०के० एलेन (C.K. Allen) ने सामाजिक न्याय के विषय में लिखा है, “आज हम सामाजिक न्याय के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं।

कुछ इसका अर्थ संपत्ति के विभाजन अथवा पुनर्विभाजन से लेते हैं, कुछ इसकी व्याख्या ‘अवसर की समानता’ के रूप में करते हैं जो एक भ्रामक कथन है। मुझे भय है कि कुछ इसका अर्थ यह लेते हैं कि उनमें किसी का भी आर्थिक रूप से समृद्ध होना अन्यायपूर्ण है और अधिक बुद्धिमान लोग

इसका अर्थ यह लेते हैं कि प्राकृतिक मानवीय असमानता की सूक्ष्मता को कम किए जाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाए और आत्मोन्नति के व्यावहारिक अवसरों में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए, वरन् उन्हें सहायता पहुंचानी चाहिए।” सर सी०के० एलेन के इस कथन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक न्याय की धारणा बहुत हद तक अस्पष्ट है।

सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाओं का अस्तिव आवश्यक है

1. कानून के समक्ष समानता:
सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि कानून की दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाए। किसी व्यक्ति के साथ रंग, जाति, धर्म, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए। सभी लोगों के लिए एक जैसे कानून होने चाहिएं। प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार दिया गया है।

2. सामाजिक समानता:
सामाजिक न्याय की यह विशेषता है कि इससे सामाजिक समानता की स्थापना की जाती है। समाज में सभी व्यक्ति समान समझे जाने चाहिएं और सबको अपने जीवन-विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएं। सब पर एक ही प्रकार के कानून लागू होने चाहिएं और कानून के सामने सब सदस्य समान होने चाहिएं।

3. समान अधिकार:
सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। अधिकार किसी विशेष वर्ग की निजी संपत्ति नहीं होने चाहिएं। सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। यदि किसी वर्ग अथवा व्यक्ति को रंग, जाति, वंश, धर्म और लिंग आदि के आधार पर अधिकारों से वंचित किया जाता है तो वहाँ पर सामाजिक न्याय नहीं हो सकता है।

4. पिछड़े वर्गों के लिए विशेष सुविधाएं:
सामाजिक न्याय की यह भी विशेषता है कि यह समाज के पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ने के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान करने की व्यवस्था करता है। यूं भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय के अंतर्गत व्यक्ति के रास्ते में जो बाधाएं हैं (जैसे कि पिछड़ापन), उन्हें दूर करने के लिए विशेष सुविधाएं और संरक्षण प्रदान किया जाता है, ताकि पिछड़ा वर्ग भी दूसरों के समान स्तर पर आ जाए।

5. असमानता का हटाना:
सामाजिक न्याय की यह भी विशेषता है कि यह समाज में फैली प्राकृतिक असमानताओं को कम करने का प्रयास करता है और सामाजिक असमानताओं को दूर करता है। इसी के अंतर्गत भारत में छुआछूत को समाप्त किया गया है और इसे गैर-कानूनी घोषित किया गया है। जिस समाज में एक वर्ग को अछूत समझा जाता हो, वहाँ सामाजिक न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

6. सामाजिक बुराइयों को दूर करना:
प्रत्येक समाज अनेक प्रकार के भ्रमों और सामाजिक बुराइयों का शिकार होता है और ये भ्रम व सामाजिक बुराइयां ही सामाजिक न्याय के रास्ते में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। अतः सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए सामाजिक बुराइयां जैसे बाल-विवाह, सती-प्रथा, दहेज-प्रथा आदि को दूर करना आवश्यक है।

7. धन का न्यायपूर्ण वितरण:
धन का असमान वितरण भी सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधक है। अतः सामाजिक न्याय की मांग है कि समाज में धन का न्यायपूर्ण वितरण होना चाहिए। राज्य द्वारा इस प्रकार की व्यवस्था की स्थापना करनी चाहिए, जिससे धन के असमान वितरण को दूर किया जा सके।

8. सामाजिक सुरक्षा:
प्रत्येक समाज में दुर्बल, असहाय, दिव्यांग, रोगी एवं बुजुर्ग व्यक्ति होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों को सहायता प्रदान करना समाज का कर्तव्य है। इसे ही सामाजिक सुरक्षा कहते हैं। जिस समाज में इस प्रकार के व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है, वहाँ सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः राज्य को इस प्रकार के सभी मनुष्यों के हितों की सुरक्षा का प्रबंध करना चाहिए।

9. लोकतांत्रिक व्यवस्था:
लोकतंत्र प्रणाली समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व पर आधारित है। लोकतंत्र में व्यक्तियों में किसी भी आधार पर अंतर नहीं किया जाता। सभी को बिना किसी भेदभाव के अधिकार प्राप्त कराए जाते हैं। यह सब कुछ सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है अतः लोकतंत्रीय व्यवस्था सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिए आवश्यक शर्त है। उपरोक्त बातों को लागू करके सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।

सामाजिक न्याय का महत्त्व:
आधुनिक युग में सामाजिक न्याय का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक न्याय की स्थापना के बाद वर्ग-विहीन समाज की स्थापना है। जिसमें शिक्षा का विकास होता है नागरिकों की संख्या बढ़ती है। शिक्षित नागरिक देश की संपत्ति हैं। सामाजिक न्याय राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करता है लोकतंत्र को सफल बनाने में सहायता करता है। अंत में नागरिक सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 4.
सामाजिक न्याय क्या है? भारतीय संविधान में दिए गए सामाजिक न्याय के विभिन्न प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है और भारत में यह कहाँ तक प्राप्त है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय से अभिप्राय सामाजिक न्याय से तात्पर्य यह है कि नागरिकों के साथ सामाजिक दृष्टिकोण से किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए तथा उन्हें उन्नति और विकास के समान अवसर प्राप्त हों। सामाजिक न्याय का आधार सामाजिक समानता है, जिसके लिए राजनीतिक सत्ता को प्रयत्न करना चाहिए।

सामाजिक न्याय की अवधारणा मूल रूप से इस बात पर आधारित है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और धर्म, जाति, रंग, वंश आदि के आधार पर उन्हें असमान नहीं माना जाना चाहिए। भारतीय विद्वान श्री पी०वी० गजेन्द्रगड्कर के अनुसार, “सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है।” प्रो० लास्की के अनुसार, “न्याय स्वतंत्रता का आधार है और सामाजिक न्याय का अर्थ समान सामाजिक न्याय से है।”

अंत में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध कराना और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही सामाजिक न्याय है। भारत में सामाजिक न्याय (Social Justice in India)-वैसे तो प्राचीनकाल से ही भारत में सामाजिक न्याय का समर्थन हुआ है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में लिखा था कि

राज्य अनाथों, असहायों, दिव्यांग आदि को निर्वाह के साधन प्रदान करेगा, स्त्रियों, बच्चों व बीमारों को सुविधाएं देगा और आर्थिक व्यवस्था का गठन इस ढंग से करेगा कि नागरिकों को न्याय प्रदान किया जा सके। यह व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक न्याय की व्यवस्था है। आरम्भ में जाति-प्रथा काम पर आधारित थी, जन्म पर नहीं। इस समय सामाजिक न्याय को किसी प्रकार की हानि नहीं थी।

बाद में जाति-प्रथा जन्म पर आधारित हो गई और भारतीय समाज में छुआछूत आदि की बुराइयां उत्पन्न हुईं। इसके बाद तो भारतीय समाज अनेकों बुराइयों का शिकार रहा; जैसे छुआछूत, ऊंच-नीच, सांप्रदायिकता आदि। एक वर्ग को अछूत समझा जाने लगा जिसे जीवन के विकास के अवसर भी प्रदान नहीं किए गए थे। यहाँ तक कि अनुसूचित जातियों पर कुओं, तालाबों, पाठशालाओं व मंदिरों का प्रयोग करने पर भी प्रतिबंध था।

19वीं शताब्दी में समाज-सुधारकों और राष्ट्रीय नेताओं ने इन बुराइयों को दूर करने के प्रयत्न किए और सामाजिक न्याय पर जोर दिया। लोगों में जागृति उत्पन्न हुई। 20वीं शताब्दी में महात्मा गांधी ने हरिजनों के कल्याण के लिए विशेष कार्य किए। 1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सामाजिक न्याय की व्यवस्था के लिए सरकार ने विशेष कदम उठाए और संविधान के द्वारा भी भारत में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करने के प्रयत्न किए गए।

भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के प्रावधान भारत में मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों द्वारा सामाजिक न्याय की व्यवस्था की गई है, जो इस प्रकार है

(क) संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक समाजवादी धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, जो सामाजिक समानता, सामाजिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक न्याय की ओर इशारा करता है और ये सभी बातें सामाजिक न्याय के आधार हैं।

(ख) मौलिक अधिकार धारा 14-15 में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है तथा सभी पर समान कानून लागू होते हैं और कानून के सामने सब समान हैं। जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता और सभी व्यक्तियों को अपने जीवन के विकास के अवसर प्रदान किए गए हैं।

(1) धारा 17 में छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और सभी सार्वजनिक स्थान सभी लोगों के लिए समान रूप से खोल दिए गए हैं।

(2) पिछड़े वर्गों के उत्थान, स्त्रियों, बच्चों तथा श्रमिकों की स्वास्थ्य-रक्षा तथा उन्हें शोषण से बचाने के लिए विशेष सुविधाओं और संरक्षण की व्यवस्था है। पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए विधानमंडल, सरकारी कार्यालयों और शिक्षा-संस्थाओं में स्थान आरक्षित हैं।

(3) धारा 19 में लोगों को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं जो बिना किसी भेदभाव के दी गई हैं और ये सामाजिक न्याय को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

(4) संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकालना आर्थिक न्याय की ओर एक कदम है, जो सामाजिक न्याय का आधार है। बेगार की समाप्ति कर दी गई है और लोगों को शोषण के विरूद्ध अधिकार दिया गया है।

(5) धारा 29 और 30 में अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक व शैक्षणिक विकास के लिए उन्हें मौलिक अधिकार दिए गए हैं, ताकि वे समाज में स्वतंत्रता-पूर्वक रह सकें और बहुसंख्यक वर्ग उन पर प्रभाव न जमा सके।

(ग) राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संविधान के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सामाजिक न्याय की स्थापना की व्यवस्था की गई है। राज्य के नीति के निदेशक सिद्धांतों में ऐसे कितने ही सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, जिनका लक्ष्य सामाजिक न्याय की स्थापना करना है, जैसे

(1) अनुच्छेद 38 के अनुसार, राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।

  • राज्य अपनी नीति का संकलन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्रियों और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले,
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार से हो कि जन-साधारण के हितों की प्राप्ति हो सके।
  • श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार व्यवस्था का दुरुपयोग न हो।

(2) अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य न्यायपूर्ण तथा मानवीय दशाओं और प्रसूति सहायता की व्यवस्था करेगा।
(3) अनुच्छेद 43 के अंतर्गत राज्य मजदूरों के लिए जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का प्रयत्न करेगा।
(4) अनुच्छेद 46 में यह स्पष्ट कहा गया है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष रूप से वृद्धि करे और उनका सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे।
(5) अनुच्छेद 47 के अनुसार राज्य लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा करने का प्रयास करेगा।

उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संविधान के अंतर्गत सामाजिक न्याय की स्थापना की व्यवस्था की गई है। भारत सरकार ने भी सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए अनेक प्रकार की नीतियां बनाई हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
अथवा
आर्थिक न्याय क्या है? इसके लक्षण बताएँ।
उत्तर:
आर्थिक न्याय उदारवादियों ने न्याय के कानूनी, राजनीतिक व सामाजिक पक्ष पर बल दिया है। इसके विपरीत मार्क्सवादियों ने न्याय के आर्थिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने इसे ‘न्याय’ का मूल आधार माना है। आर्थिक न्याय आर्थिक समानता के आदर्श को मूल स्थान देता है, अर्थात आर्थिक न्याय का अर्थ आर्थिक समानता से लिया जाता है। इसी कारण आधुनिक युग में आर्थिक न्याय की अवधारणा प्रबल और लोकप्रिय होती जा रही है।

आर्थिक न्याय का अर्थ सभी नागरिकों को धन प्राप्त करने व आर्थिक जीवन में विकास करने के अवसर प्रदान करने से है। आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक को समानता व स्वतंत्रता प्राप्त हो। समाज में आर्थिक असमानताओं को दूर करना और नागरिकों को आर्थिक शोषण से मुक्त कराना भी आर्थिक न्याय के क्षेत्र में आता है। इतना ही नहीं, आर्थिक न्याय में यह भी निहित है कि समाज को अपने उस असहाय वर्ग की सहायता करनी चाहिए जो धनोपार्जन नहीं कर सकता। समाज के कमजोर वर्ग को आर्थिक सहायता प्रदान करना आर्थिक न्याय ही है। वास्तव में आर्थिक न्याय की कल्पना को साकार करने के लिए सभी नागरिकों को राष्ट्रीय

संपत्ति और न्याय में समान रूप से भागीदार होना चाहिए। ऐसा न हो कि संपत्ति देश के कुछ वर्गों के हाथ में इकट्ठी होकर रह जाए। सीतलवाद (Setalvad) ने आर्थिक न्याय के बारे में विचार व्यक्त किए हैं, “आर्थिक न्याय का अर्थ नागरिक को धन प्राप्त करने व जीवन में उसका प्रयोग करने के समान अवसर प्रदान करने से है। इसमें यह निहित भी है कि जो व्यक्ति असहाय है, वृद्ध या बेकार है और धन अर्जित नहीं कर सकता, समाज को उसकी सहायता करनी चाहिए।”

आर्थिक न्याय के लक्षण: आर्थिक न्याय के मुख्य लक्षणों का वर्णन निम्नलिखित है

1. काम का अधिकार:
मनुष्य की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएं होती हैं जिनकी पूर्ति अनिवार्य है। उनकी पूर्ति के लिए नागरिकों को काम चाहिए अर्थात प्रत्येक नागरिक को काम मिलना चाहिए। काम के अधिकारों की स्थिति भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। इंग्लैंड में नागरिकों को काम देना सरकार का कर्त्तव्य है। काम न मिलने की स्थिति में उन्हें बेरोजगार भत्ता दिया जाता है। साम्यवादी देशों में भी काम देना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत में सरकार प्रत्येक व्यक्ति को काम देने का प्रयत्न कर रही है।

2. समान कार्य के लिए समान वेतन:
यह भी जरूरी है कि पुरुष व महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। महिलाओं की मजबूरी का लाभ न उठाया जाए। लोगों को वेतन उनके काम व गुण के आधार पर दिया जाए। एक से श्रमिकों का वेतन सभी जगह एक-सा होना चाहिए। एक से अधिकारियों का वेतन भी एक ही होना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अध्यापक व एक श्रमिक का वेतन एक-सा नहीं हो सकता।

3. न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति:
मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताएं हैं, उनकी पूर्ति होना अनिवार्य है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने की स्थिति में लोकतंत्र व राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना एक ढोंग व दिखावा है, क्योंकि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति राजनीति के बारे में सोच ही नहीं सकता। आर्थिक शोषण व्यक्ति को लोकतंत्र के लिए सोचने का मौका ही नहीं देता।

4. आर्थिक सुरक्षा:
आर्थिक सुरक्षा भी आर्थिक न्याय का एक भाग है। इसका अर्थ है कि बुढ़ापे, बीमारी, दिव्यांग और असहाय होने की स्थिति में जब व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा नहीं सकता तो राज्य द्वारा उसकी आर्थिक सहायता होनी चाहिए। उन्हें पेंशन, निःशुल्क चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं।।

5. श्रमिकों के हितों की रक्षा:
आर्थिक न्याय का एक और पक्ष है कि श्रमिकों के हितों की रक्षा की जाए। इस पक्ष का मार्क्सवादियों ने समर्थन किया है। उनके अनुसार श्रमिकों का शोषण नहीं होना चाहिए। श्रमिकों को उनके काम के गुण व मात्रा के अनुसार वेतन दिया जाना चाहिए। श्रमिकों के स्वास्थ्य की देखभाल की जाती है। स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह, बच्चों के लिए बाल-गृह या हित-केंद्र खोले जाते हैं।

6. आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप:
राज्य का आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी न्याय के आर्थिक पक्ष में आता है। इसका तात्पर्य यह है कि क्या राज्य को आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया जाए या नहीं। कुछ लोगों का विचार है कि राज्य के हस्तक्षेप से आर्थिक विकास रुक जाता है। अतः राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने दिया जाना चाहिए। परंतु इसके विपरीत मार्क्सवादी राज्य द्वारा हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं।

सभी प्रकार के उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण होता है। आर्थिक न्याय इस बात का समर्थन करता है कि राज्य को आर्थिक क्षेत्र में सीमित हस्तक्षेप का अधिकार होना चाहिए, अर्थात आधुनिक युग में मिश्रित अर्थव्यवस्था को मान्यता प्रदान की गई है। जिसमें एक ओर राज्य व्यक्ति के आर्थिक कल्याण के लिए आर्थिक कार्य करता है तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र में व्यक्ति को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है।।

निष्कर्ष:
आर्थिक न्याय की अवधारणा के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आधुनिक युग की महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। यह सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायता करती है। बिना आर्थिक न्याय की स्थापना के समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं की जा सकती।

प्रश्न 6.
सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष प्रकार की अवस्थाओं या व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। इन व्यवस्थाओं को सामाजिक न्याय की विशेषताएं या पहलू भी कहा जाता है। सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक व्यवस्था में सुधार-समय के परिवर्तन के साथ-साथ समाज में भी परिवर्तन होता है। समाज में कई प्रकार की कुरीतियाँ स्थापित हो जाती हैं। पारिवारिक और सामाजिक विघटन के कारण कई प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। युवक व युवतियां कई बुराइयों के शिकार हो जाते हैं; जैसे नशीली दवाओं का शिकार होना, किशोरों और किशोरियों में अपराध प्रवृत्ति का बढ़ना। इन सभी समस्याओं को शासन या राज्य कानून बनाकर दूर कर सकता है और किया जा रहा है इसे सामाजिक न्याय ही कहते हैं।

2. सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की एक और विशेषता यह है कि समाज में समानता स्थापित हो । समाज में व्यक्ति, व्यक्ति के बीच किसी भी आधार पर असमानता नहीं होनी चाहिए। सभी कानून के सामने समान होने चाहिएं और सभी को प्रगति के समान अवसर मिलने चाहिएं। समाज में रंग, जाति व वर्ग के आधार पर भेदभाव किया जाता है। जैसे भारत में या फिर अफ्रीका में गोरे और काले के आधार पर अंतर किया जाता था। उन्हें समाज में समान दर्जा नहीं दिया जाता था। इसलिए समाज में इस प्रकार की असमानता को कानून बनाकर राज्य दूर कर सकता है। यही नहीं, नागरिकों को शिक्षित करके भी इस असमानता को दूर किया जा सकता है और सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।

3. विशेषाधिकारों की समाप्ति सामाजिक न्याय की यह विशेषता है कि समाज में विशेषाधिकारों की समाप्ति। सामाजिक न्याय-युक्त समाज में किसी वर्ग विशेष को अधिकार या सुविधाएँ नहीं दी जाती हैं। सभी को योग्यतानुसार विकास के अधिकार दिए जाते हैं। धर्म, जाति, वंश के आधार पर विकास की सुविधाओं से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता।

4. अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग के हितों की सुरक्षा अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग के हितों की सुरक्षा करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग को कुछ विशेष सुविधाएं देकर उन्हें उन्नति व विकास के रास्ते पर अग्रसर किया जा सकता है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय में इन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर उसके विकास के रास्ते में जो बाधाएं हैं उन्हें दूर किया जा सकता है ताकि ये समाज के दूसरे वर्गों के समान स्तर पर आ जाएं। भारत में अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे भाषा, लिपि व संस्कृति के विकास के लिए शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं। राज्य द्वारा ऐसी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाएगी।

5. सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग-अब यह बात सभी समाजों में स्वीकार कर ली गई है कि सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग सभी नागरिक कर सकते हैं। इनके उपयोग के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. न्याय की अवधारणा का प्रभाव निम्नलिखित में से होता है
(A) अराजकता की समाप्ति
(B) भ्रष्टाचार की समाप्ति
(C) शोषण से मुक्ति
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

2. प्लेटो ने न्याय का कौन-सा रूप बताया है?
(A) व्यक्तिगत न्याय
(B) सामाजिक न्याय
(C) व्यक्तिगत एवं सामाजिक न्याय
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) व्यक्तिगत एवं सामाजिक न्याय

3. अरस्तु ने न्याय को निम्नलिखित किन दो भागों में बांटा है?
(A) व्यक्तिगत न्याय एवं सामाजिक न्याय
(B) वितरणात्मक एवं सुधारक न्याय
(C) ईश्वरीय न्याय एवं सांसारिक न्याय
(D) निष्पक्षता एवं सत्य पर आधारित न्याय
उत्तर:
(B) वितरणात्मक एवं सुधारक न्याय

4. न्याय का आधारभूत लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) सत्य
(B) निष्पक्षता
(C) संरक्षित भेदभाव
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. लॉक ने निम्नलिखित में से किसे प्राकृतिक अधिकार माना है?
(A) जीवन का अधिकार
(B) स्वतंत्रता का अधिकार
(C) संपत्ति का अधिकार
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. रॉल्स के वितरणात्मक न्याय सिद्धांत की मुख्य विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) समाज में न्याय का प्रथम स्थान
(B) स्वतंत्रता एवं अधिकारों (प्राथमिक वस्तुओं) का न्यायपूर्ण वितरण
(C) अवसरों की समानता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

7. रॉल्स के वितरणात्मक न्याय सिद्धांत निम्नलिखित में से मुख्य मार्क्सवादी विद्वान आलोचक है
(A) मिल्टन फिस्क
(B) रिचर्ड मिलर
(C) मिल्टन फिस्क एवं रिचर्ड मिलर
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) मिल्टन फिस्क एवं रिचर्ड मिलर

8. सामाजिक न्याय का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) कानून के समक्ष समानता
(B) समाज में विशेषाधिकारों की समाप्ति
(C) शोषण का निषेध
(D) समाज के अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा
उत्तर:
(D) समाज के अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. ‘वितरणात्मक न्याय’ के मुख्य प्रवर्तक किसे माना जाता है?
उत्तर:
जान रॉल्स को।

2. A Theory of Justice (1971)’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
जॉन राल्स।

3. किस विद्वान ने ‘न्याय’ को राज्य का प्राण कहा है?
उत्तर:
कौटिल्य ने।

4. जस्टिस (Justice) शब्द लेटिन भाषा के जस (Jus) शब्द से लिया गया है। लेटिन भाषा में जस (Jus) शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जस शब्द का अर्थ है बांधना।

रिक्त स्थान भरें

1. अंग्रेजी भाषा के जस्टिस (Justice) शब्द की उत्पत्ति …………. शब्द से हुई है।
उत्तर:
जस

2. समाज में धन एवं संपत्ति के असमान वितरण को …………. कहा जाता है।
उत्तर:
आर्थिक अन्याय

3. ……………… ने न्याय को समानता एवं स्वतंत्रता का मिश्रण बताया है।
उत्तर:
रूसो एवं लॉक

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता के कोई तीन लक्षण लिखें।
उत्तर:

  • विशेष सुविधाओं का अभाव।
  • इसमें सभी को विकास के समुचित या पर्याप्त अवसर दिए जाते हैं।
  • प्रत्येक व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।

प्रश्न 2.
नागरिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
नागरिक असमानता को कानूनी असमानता भी कहा जाता है। इसमें नागरिकों को अधिकार समान रूप से प्राप्त नहीं होते। इसमें सभी लोगों को जीवन, स्वतंत्रता, परिवार और धर्म आदि से संबंधित अधिकार असुरक्षित होते हैं। अधिकार प्रदान करते समय नागरिकों में रंग, जाति, धर्म या लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 3.
सामाजिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
सामाजिक असमानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान नहीं समझा जाता। समाज में रंग, जाति, धर्म, भाषा, वर्ण आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
राजनीतिक असमानता का अर्थ है कि नागरिकों को राजनीतिक अधिकार प्रदान करते समय विभिन्न आधारों पर भेदभाव किया जाना अर्थात वोट का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार ये सभी नागरिकों को भेदभाव के आधार पर प्राप्त कराए जाते हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
आर्थिक असमानता में साधनों के वितरण की असमान स्थिति होती है। समाज में आर्थिक आधार पर भेदभाव किया जाता है। आर्थिक असमानता में प्रत्येक व्यक्ति को जीवन-यापन के समान व उचित अवसर प्राप्त नहीं होते। आर्थिक असमानता की स्थिति देश के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं होती। यह समाज को दो वर्गों में विभाजित कर देती है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 6.
समानता के महत्त्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतंत्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। बिना समानता के व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती। समानता लोकतंत्र की आधारशिला है। समानता के बिना सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं हो सकती। समानता का महत्त्व इस बात में निहित है कि किसी मनुष्य के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 7.
किन्हीं दो विचारधाराओं के नाम लिखिए जो स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी मानती हैं।
उत्तर:
स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी मानने वाली दो विचारधाराएँ निम्नलिखित हैं

  • व्यक्तिवादी विचारधारा तथा
  • अराजकतावादी विचारधारा।

प्रश्न 8.
सभी व्यक्ति समान पैदा होते हैं। इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
कुछ विद्वानों का मत है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान पैदा किया है और इसीलिए समाज की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलनी चाहिएँ। प्राकृतिक रूप से सभी व्यक्ति समान हैं और सभी के साथ एक-सा व्यवहार होना चाहिए।

प्रश्न 9.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘अवसर की समानता’ समानता के सभी रूपों से जुड़ी हुई है। सामाजिक समानता में सभी को उन्नति व प्रगति के समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। इसी तरह आर्थिक समानता में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने व अपनी आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ।।

प्रश्न 10.
‘कानून के समक्ष समानता’ के सिद्धांत की व्याख्या करें। अथवा ‘कानून के समक्ष समानता’ का क्या अभिप्राय हैं?
उत्तर:
कानून के समक्ष समानता का अर्थ है कि सब पर एक से कानून लागू हों और कानून की दृष्टि में सब समान हों, कोई छोटा-बड़ा न हो, जाति, वंश, रंग व लिंग आदि के आधार पर कानून भेदभाव न करता हो अर्थात बड़े-से-बड़ा अधिकारी व छोटे-से-छोटे कर्मचारी कानून के सामने समान है। देश में सभी के लिए एक-सा कानून लागू होता है।

प्रश्न 11.
समानता की कोई दो परिभाषाएँ लिखें।
उत्तर:

  • स्टीफेंसन के अनुसार, “समानता से अभिप्राय मानव विकास के नियमित आवश्यक उपकरणों का समान विभाजन है।”
  • लास्की के अनुसार, “समानता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों के यथासंभव प्रयोग के समान अवसर प्रदान करने के प्रयास करना है।”

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
साधारण शब्दों में समानता का यह अर्थ लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए, परंतु समानता का यह अर्थ ठीक नहीं है कि किसी को विशेषाधिकार नहीं मिलने चाहिएँ और सभी को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएँ। समाज के अंदर सभी व्यक्तियों को उन्नति के लिए समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ। समानता के मुख्य प्रकार हैं-

  • प्राकृतिक समानता,
  • नागरिक समानता,
  • राजनीतिक समानता,
  • सामाजिक समानता,
  • आर्थिक समानता।

प्रश्न 2.
समानता की कोई पाँच विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
समानता की पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति सभी नागरिकों की मूल आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिएँ।।

2. विशेष अधिकारों का अभाव-प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के साधन उपलब्ध होने चाहिएँ और प्रत्येक व्यक्ति को अपने काम के लिए उचित मज़दूरी मिलनी चाहिए। किसी व्यक्ति का शोषण नहीं होना चाहिए।

3. आर्थिक न्याय आर्थिक न्याय का यह भी अर्थ है कि विशेष परिस्थितियों में राजकीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार हो। बुढ़ापे, बेरोज़गारी तथा असमर्थता में राज्य सामाजिक एवं आर्थिक संरक्षण प्रदान करे।

4. प्राकृतिक असमानताओं की समाप्ति-स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।

5. उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण-संपत्ति और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 3.
समानता के पाँच रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
समानता के पाँच रूप निम्नलिखित हैं
1. प्राकृतिक समानता इसका अर्थ है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है, इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।
2. नागरिक समानता या कानूनी समानता इसका अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों और सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हों।
3. सामाजिक समानता-इसका अर्थ है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए।
4. राजनीतिक समानता इसका अर्थ है कि नागरिकों को राजनीतिक अधिकार समान रूप से मिलने चाहिएँ।
5. आर्थिक समानता आर्थिक समानता का अर्थ है कि समाज में सभी व्यक्तियों को आर्थिक विकास के समान अवसर प्राप्त हों तथा अमीर और गरीब का अंतर नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 4.
‘नागरिक समानता, स्वतंत्रता की एक आवश्यक दशा के रूप में’, पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हों। धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ। नागरिक समानता स्वतंत्रता की एक आवश्यक शर्त है। बिना नागरिक समानता के नागरिक स्वतंत्रता का आनंद नहीं उठा सकते, इसलिए सभी लोकतंत्रीय राज्यों में कानून के समक्ष सभी नागरिकों को समान समझा जाता है और सभी को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होता है।

प्रश्न 5.
‘स्वतंत्रता व समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं।’ व्याख्या करें। अथवा क्या स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं? अथवा स्वतंत्रता और समानता में क्या संबंध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता तथा समानता में गहरा संबंध है। अधिकांश आधुनिक विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। समानता के अभाव में स्वतंत्रता व्यर्थ है। आर०एच० टोनी ने ठीक ही कहा है, “समानता स्वतंत्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।” आधुनिक लोकतंत्रात्मक राज्य मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए आर्थिक तथा सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है। जिस देश में नागरिकों को आर्थिक समानता प्राप्त नहीं होती, वहाँ नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। भारत में राजनीतिक स्वतंत्रता तो है, परंतु आर्थिक समानता नहीं है। गरीब, बेकार एवं अनपढ़ व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं है। एक गरीब व्यक्ति अपना वोट बेच सकता है और चुनाव लड़ने की तो वह सोच भी नहीं सकता। अतः स्वतंत्रता के लिए समानता का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 6.
समानता के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतंत्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। स्वतंत्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। समानता तथा स्वतंत्रता प्रजातंत्र के दो महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं। समानता का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि नागरिकों के बीच जाति, धर्म, भाषा, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

सामाजिक न्याय और सामाजिक स्वतंत्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। वास्तव में समानता न्याय की पोषक है। कानून की दृष्टि में सभी को समान समझा जाता है। भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद में समानता का अधिकार लिखा गया है।

प्रश्न 7.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है।” व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीति शास्त्र में आर्थिक समानता और राजनीतिक स्वतंत्रता बहुत महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि लोगों को विभिन्न राजनीतिक अधिकार प्रदान करना। राजनीतिक अधिकारों में चुनाव का अधिकार व वोट का अधिकार हैं। राजनीतिक स्वतंत्रताएं प्रजातंत्र का आधार हैं, लेकिन केवल राजनीतिक स्वतंत्रताओं से ही प्रजातंत्र के लक्ष्यों को पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह साधारणतया देखा गया है कि धनाढ्य व्यक्तियों का ही राजनीति पर अधिकार होता वे ही चुनाव लड़ते हैं।

वे ही पैसे के ज़ोर पर वोटों को खरीदते हैं। गरीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो सोच ही नहीं सकता। उसे दो वक्त की रोटी की चिंता सताए रहती है। चुनाव लड़ने के लिए धन चाहिए, जिसकी वह व्यवस्था नही कर सकता। अतः समाज में आर्थिक विषमता को दूर किया जाना चाहिए। जहां आर्थिक विषमता होगी, वहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती।

इस संबंध में प्रो० लास्की ने ठीक ही कहा है, “राजनीतिक समानता तब तक कदापि वास्तविक नहीं हो सकती, जब तक उसके साथ आर्थिक समानता न हो।” अंत में कहा जा सकता है कि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता केवल मात्र ढोंग, दिखावा और मिथ्या है।

प्रश्न 8.
आर्थिक असमानता का अर्थ एवं कारण बताएं।
उत्तर:
आर्थिक असमानता का अर्थ है-आर्थिक क्षेत्र में असमानता। यह अमीर तथा गरीब के बीच का अंतर होता है। आर्थिक असमानता में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ता है क्योंकि गरीब व्यक्तियों को चुनाव में खड़े होने तथा अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने का अवसर नहीं मिलता। सरकार पर अमीरों का अधिकार रहता है और वे अपने वर्ग के हितों को सुरक्षित रखने के लिए कार्य करते हैं। निर्धन व्यक्ति तो कई बार अपना मत बेचने पर भी मज़बूर हो जाते हैं। प्रेस पर भी धनी वर्ग का ही नियंत्रण रहता है। आर्थिक असमानता के कारण भारतीय समाज निम्नलिखित आधारों पर आर्थिक असमानता का शिकार है

(1) समाज में दो वर्ग हैं-अमीर और गरीब। अमीर वर्ग संख्या में बहुत कम है, लेकिन समाज की अधिकतर संपत्ति पर उसका कब्जा है। गरीब वर्ग समाज का बहुत बड़ा भाग है जिसके पास संपत्ति नहीं है। इस कारण अमीर वर्ग गरीबों का शोषण करने में सफल हो रहा है।

(2) आर्थिक विकास का लाभ समाज के गरीब वर्ग को नहीं पहुंचा है, जिसके कारण गरीब और अधिक गरीब हो गया है तथा अमीर और अधिक अमीर हुआ है।

(3) अनियंत्रित महंगाई के कारण मध्यम वर्ग भी बदल चुका है। वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के कारण साधारण जनता बहुत कठिनाई का सामना कर रही है।

(4) ग्रामीण लोगों का एक बड़ा भाग आज भी ऋण के बोझ के नीचे दबा हुआ है और बंधुआ मज दूरों जैसा जीवन व्यतीत करता है। भूमिहीन श्रमिकों को आज भी जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं होती।

(5) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन-जातियों को दी गई सुविधाओं का लाभ केवल कुछ परिवारों तक ही सीमित रहा है। इन जातियों के लिए आरक्षित किए गए बहुत से पद अब भी खाली पड़े हैं।

प्रश्न 9.
राजनीतिक समानता तथा आर्थिक समानता में संबंधों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मानता तथा आर्थिक समानता में घनिष्ठ संबंध है। वास्तव में राजनीतिक समानता की स्थापना करने के लिए आर्थिक समानता की स्थापना करना बहुत आवश्यक है। उदारवादी राजनीतिक समानता को महत्त्व देते हैं, जबकि मार्क्सवादी आर्थिक समानता पर अधिक बल देते हैं। परंतु वास्तव में यह दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।

राजनीतिक समानता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि समाज में आर्थिक विषमताएं कम से कम हों और सभी की मौलिक आर्थिक आवश्यकताएं पूरी हों। एक भूखे तथा गरीब व्यक्ति के लिए आर्थिक समानता व्यर्थ है क्योंकि वह न तो चुनाव लड़ सकता है और न ही स्वतंत्रतापूर्वक अपने मत का प्रयोग कर सकता है।

सरकारी पद (नौकरी) प्राप्त करने के लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता होती है, परंतु एक निर्धन व्यक्ति के पास इसके लिए धन नहीं होता और उसके बच्चे इससे वंचित रह जाते हैं। अतः राजनीतिक समानता की वास्तविक स्थापना के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक होता है। अतः दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों में घनिष्ठ संबंध हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से आपका क्या अभिप्राय है? समानता की प्रमुख विशेषताओं/लक्षणों का वर्णन कीजिए। अथवा समानता की परिभाषा करके इसके अर्थ का विस्तृत विवेचन कीजिए।
उत्तर:
समानता का अर्थ स्वतंत्रता की तरह समानता की अवधारणा का अपना महत्त्व है। समानता को भी लोकतंत्र का आधार माना गया है। समानता के बिना लोकतंत्र को सफल नहीं बनाया जा सकता और न ही व्यक्ति के विकास को संभव बनाया जा सकता है। समानता के महत्त्व को प्राचीन काल से ही विचारकों ने स्वीकार किया है, किंतु यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवधारणा के रूप में 18वीं शताब्दी में ही सामने आई। सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के कारण पैदा हुई यह धारणा आज राजनीति विज्ञान के अध्ययन-क्षेत्र में एक प्रमुख स्थान रखती है। समानता की अवधारणा को विश्वव्यापी और प्रभावशाली बनाने का श्रेय समाजवादियों को ही जाता है।

समानता का गलत अर्थ:
साधारण रूप से समानता का यह अर्थ लिया जाता है कि सब मनुष्य समान हैं, सभी के साथ एक-सा व्यवहार हो और सभी की आमदनी भी एक-सी होनी चाहिए। इस अर्थ के समर्थक मनुष्य की प्राकृतिक समानता पर बल देते हैं कि मनुष्य समान ही पैदा होते हैं और प्रकृति ने उन्हें समान रहने के लिए पैदा किया है, परंतु यह कहना ठीक नहीं है। प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान नहीं बनाया है। एक व्यक्ति दूसरे से शक्ल-सूरत तथा शरीर के विस्तार में समान नहीं है। मनुष्य किसी फैक्ट्री में बना एक उच्चकोटि का माल नहीं है। साथ ही उसकी प्राकृतिक शक्तियों में भी अंतर है। इसलिए यह धारणा गलत है।

समानता का सही अर्थ:
समानता का अर्थ हम प्राकृतिक समानता से नहीं रखते। प्रकृति ने तो हमें असमान ही बनाया है। समानता का अर्थ हम सामाजिक और सांसारिक भावना के रूप में करते हैं। मनुष्य मात्र में कुछ मौलिक समानताएं पाई जाती हैं, परंतु सामाजिक व्यवस्था ने उन समानताओं को स्थान नहीं दिया। प्राचीन काल से ही समाज में इतनी विषमता चली आ रही है कि मनुष्य, मनुष्य के अत्याचारों तथा शोषण से कराह उठा है। राजनीतिक जागृति के साथ-साथ इस असमानता के विरुद्ध भी मानव ने विद्रोह किया है।

शारीरिक समानता और असमानता तो प्राकृतिक है, किंतु समाज में फैली असमानता प्राकृतिक नहीं है। वह मनुष्य द्वारा ही स्थापित की गई है। इस सामाजिक असमानता को दूर कर समानता स्थापित करने की बात पर विचार तथा व्यवहार किया जाने लगा है। समानता की महत्ता को ध्यान में रखते हुए डॉ० आशीर्वादम ने कहा है, “फ्रांस के क्रांतिकारी न तो पागल थे और न मूर्ख, जब उन्होंने स्वतंत्रता और भ्रातृत्व का नारा लगाया था, अर्थात स्वतंत्रता और समानता साथ-साथ चलती है।”

समानता का वास्तविक अर्थ सामाजिक और आर्थिक समानता से है। परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि सभी मनुष्यों की समान आय हो तथा उनमें छोटे-बड़े, शिक्षित-अशिक्षित, बुद्धिमान-मूर्ख, योग्य-अयोग्य का भेदभाव न किया जाए। प्रकृति ने भी सभी मनुष्यों को शारीरिक बनावट, बुद्धि, रुचि और योग्यता में एक जैसा नहीं बनाया। जब तक यह अंतर रहेगा, तब तक यह बिल्कुल असंभव है कि सभी लोगों को बराबर बनाया जा सके। समानता की परिभाषाएँ समानता के सही अर्थ को समझने के लिए उसकी विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन आवश्यक है, जो निम्नलिखित हैं

1. प्रो० लास्की:
के शब्दों में, “समानता का यह अर्थ है कि प्रत्येक के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि ईंट ढोने वाले का वेतन एक प्रसिद्ध गणितज्ञ या वैज्ञानिक के बराबर कर दिया गया तो इससे समाज का उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए समानता का यह अर्थ है कि कोई विशेष अधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त हों।”

2. जे०ए० कोरी:
के अनुसार, “समानता का विचार इस बात पर बल देता हैं कि सभी मनुष्य राजनीतिक रूप में समान होते हैं, राजनीतिक जीवन में समान रूप से भाग लेने, अपने मताधिकार का प्रयोग करने, निर्वाचित होने एवं कोई भी पद ग्रहण करने के लिए सभी नागरिक समान रूप से अधिकारी होते हैं।”

3. बार्कर:
के अनुसार, “समानता का यह अर्थ है कि अधिकारों के रूप में जो सुविधाएँ मुझे उपलब्ध हैं वैसे ही और उतनी ही सुविधाएं दूसरों को भी उपलब्ध हों तथा दूसरों को जो अधिकार प्रदान किए गए हैं, वे मुझे अवश्य दिए जाएं।”

4. अप्पादोराय:
का कथन है, “यह कहना कि सब मनुष्य समान हैं, ऐसे ही गलत है जैसे कि यह कहना कि पृथ्वी समतल है।”

5. टॉनी:
के मतानुसार, “सबके लिए व्यवस्था की समानता विभिन्न आवश्यकताओं को एक ही प्रकार से संसाधित कर (या समझकर) प्राप्त नहीं की जा सकती है, बल्कि आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न प्रकारों से उन्हें पूरा करने के लिए एक समान ध्यान देकर प्राप्त की जा सकती है।” समानता की विशेषताएँ/लक्षण-समानता की निम्नलिखित विशेषताएँ लक्षण स्पष्ट होते हैं।

1. विशेष सुविधाओं का अभाव:
लास्की के अनुसार समानता का पहला अर्थ होता है-विशेष सुविधाओं का अभाव, अर्थात उनके कहने का तात्पर्य यह है कि जाति, वंश, रंग, भाषा, धर्म, संपत्ति आदि के आधार पर राज्य में किसी भी व्यक्ति को विशेष सुविधाएँ नहीं मिलनी चाहिएँ। सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। जहां तक प्रजातंत्र राज्य का प्रश्न है, इसमें सभी को समान मताधिकार मिलने चाहिएँ। सभी व्यक्ति प्रशासन के कार्य में भाग ले सकते हैं। किसी भी व्यक्ति को विशेष सुविधा प्राप्त नहीं होनी चाहिए।

2. सभी को पर्याप्त अवसर:
लास्की के अनुसार समानता का दूसरा अर्थ यह होता है कि सभी व्यक्तियों को विकास के लिए समुचित या पर्याप्त अवसर दिया जाए अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह अपने गुणों का विकास समुचित रूप से कर सके। उसके आंतरिक गुणों के विकास में किसी प्रकार का रोड़ा न अटकाया जाए। उसे उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित अवसर मिलना चाहिए। महान दार्शनिक एवं विद्वान व्यक्ति मध्यम पैदा होते हैं। अगर उन्हें राज्य की ओर से समुचित अवसर न दिया जाए तो शायद ही वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकते हैं।

3. प्राकृतिक असमानताओं की समाप्ति:
समानता की तृतीय विशेषता यह है कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं को नष्ट किया जाता है। यदि समाज में प्राकृतिक असमानताएं रहेंगी तो समानता के अधिकार : का कोई लाभ नहीं है।

4. मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति:
समानता का चौथा अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए अर्थात सभी को समान भोजन, वस्त्र, आवास एवं सम्पत्ति नहीं दी जा सकती है। लेकिन उनकी मौलिक आवश्यकताओं-भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। उसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि समाज में मनुष्य की जीवनयापन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य रूप से होनी चाहिए।

लास्की (Laski) ने भी कहा है, “समानता का अर्थ एक-सा व्यवहार करना नहीं है, इसका तो आग्रह इस बात पर निर्भर : है कि मनुष्यों को सुख का समान अधिकार होना चाहिए, उनके इस अधिकार में किसी प्रकार का आधारभूत अंतर स्वीकार नहीं किया जा सकता है।”

5. तर्क के आधार पर भेदभाव:
यद्यपि समानता का अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव है तथापि समाज में तर्क के आधार पर कुछ लोगों को विशेष सुविधाएं प्रदान कराई जा सकती हैं; जैसे पिछड़े वर्ग, अपंग स्त्रियों, रोगी तथा दिव्यांग को समाज में कुछ विशेष सुविधाएं प्राप्त कराई जाती हैं। इस व्यवस्था को कानून के सामने संरक्षण कहते हैं। ये विशेष सुविधाएं ऐसे लोगों को समाज में उन्नति व विकास करने में सहायता प्रदान करती हैं।

निष्कर्ष:
समानता का सही अर्थ यह है कि राज्य और समाज में विशेष सुविधाओं का अंत होना चाहिए और सभी को अपने-अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। अवसर की समानता ही सच्ची समानता है। जाति, वंश, रंग, संपत्ति, भाषा, धर्म आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति को विशेष सुविधाएं नहीं मिलनी चाहिएँ। लास्की के अनुसार समानता के लिए निम्नलिखित बातें होनी चाहिएँ

  • सभी को पर्याप्त अवसर,
  • सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति,
  • विशेष सुविधाओं का अंत।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 2.
समानता के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समानता की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
समानता का अर्थ जानने के बाद हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम समानता के विभिन्न रूपों का अध्ययन करें। भिन्न-भिन्न लेखक समानता के प्रकारों को भिन्न-भिन्न संख्या और नाम देते हैं, जैसे बार्कर दो प्रकार की समानता मानता है- वैधानिक तथा सामाजिक। प्रो० लास्की के अनुसार समानता राजनीतिक तथा आर्थिक दो प्रकार की होती है। ब्राइस चार प्रकार की समानता मानता है-

  • नागरिक समानता,
  • सामाजिक समानता,
  • राजनीतिक समानता तथा
  • प्राकृतिक समानता।

आजकल समानता पांच प्रकार की मानी जाती है; जैसे

  • प्राकृतिक समानता,
  • नागरिक समानता,
  • सामाजिक समानता,
  • राजनीतिक समानता तथा
  • आर्थिक समानता।

उपर्युक्त समानताओं का विस्तारपूर्वक वर्णन नीचे दिया गया है

1. प्राकृतिक समानता:
कुछ लोगों का विचार है कि सभी लोग जन्म से ही समान हैं। वे संसार में दिखाई देने वाली सभी असमानताओं को मानवकृत मानते हैं। प्राकृतिक समानता की अवधारणा को 1789 की फ्रांस की मानव अधिकारों की घोषणा में माना गया है और 1776 ई० की अमेरिका की स्वतंत्रता घोषणा में भी माना गया है। परंतु ऐसा विचार गलत है, क्योंकि लोगों में काफी असमानताएं हैं जो जन्म से ही होती हैं और उनका समाप्त करना भी असंभव है।

दो भाई भी आपस में बराबर नहीं होते। सभी लोगों में शरीर और दिमाग से संबंधित परस्पर असमानता है। वास्तव में जन्म से ही बच्चों में शारीरिक और मानसिक असमानता होती है जिसे दूर करना संभव नहीं है। इसलिए यह कहना गलत है कि प्रकृति मनुष्यों को जन्म से समानता प्रदान करती है।

2. नागरिक समानता:
नागरिक समानता का अर्थ है कि नागरिक अधिकार सब लोगों के लिए समान हों। सब लोगों के लिए जीवन, स्वतंत्रता, परिवार और धर्म आदि से संबंधित अधिकार पूरी तरह से सुरक्षित हों। किसी भी व्यक्ति के साथ रंग, जाति, धर्म या लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। यदि किसी राज्य में किसी भी आधार पर कुछ भेदभाव किया जाता है तो वहाँ पूर्ण नागरिक समानता नहीं कही जा सकती।

नागरिक समानता में यह भी शामिल है कि सब लोग कानून के सामने बराबर (Equal before Law) हों। प्रधानमंत्री से लेकर साधारण नागरिक तक सभी के ऊपर एक ही कानून लागू हो। सरकारी कर्मचारियों के लिए भी अलग कानून न हों। किसी भी व्यक्ति को बिना कानून तोड़े कोई दंड न दिया. जाए। इसे कई बार वैधानिक समानता भी कहा जाता है।

3. सामाजिक समानता:
सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का बराबर अंग है और सभी को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएँ। किसी व्यक्ति से धर्म, जाति, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव न हो। भारत में जाति-पाति के आधार पर भेद किया जाता था। भारत सरकार ने कानून द्वारा छुआछूत को समाप्त कर दिया है। दक्षिण अफ्रीका में कुछ समय पहले रंग के आधार पर भेदभाव किया जाता था, जिसे 1991 में एक कानून पास करके समाप्त कर दिया गया है।

अब वहाँ सामाजिक समानता पाई जाती है। अमेरिका में भी काले और गोरे लोगों में भेद किया जाता रहा है। वहाँ पर काले लोगों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कानून द्वारा इस भेदभाव को समाप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है। इस प्रयास में सरकार को काफी सफलता भी मिली है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सामाजिक समानता की स्थापना केवल कानून बनाकर ही नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए लोगों को शिक्षित करके उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा अर्थात लोगों के सामाजिक, धार्मिक व जातिगत दृष्टिकोण में परिवर्तन करना आवश्यक है।

4. राजनीतिक समानता:
राजनीतिक समानता का अर्थ है कि जो लोग संविधान और कानून की दृष्टि से योग्य हैं, उन्हें समान राजनीतिक अधिकार प्रदान किए जाएं। संविधान या कानून के द्वारा जो लोग इन अधिकारों से वंचित किए जाएं, वे किसी भेदभाव के आधार पर वंचित न किए जाएं। सभी प्रौढ़ लोगों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए और किसी विशेष आयु से ऊपर सब लोगों को चुनाव लड़ने का अधिकार हो। राजनीतिक समानता में समान स्वतंत्रताएं (भाषण, प्रैस और संगठन से संबंधित) और सरकार की आलोचना करने का अधिकार भी शामिल है।

इन अधिकारों पर कोई ऐसे प्रतिबंध नहीं होने चाहिएँ, जिनसे धर्म, रंग, जाति या लिंग आदि के आधार पर किसी के साथ पक्षपात हो, जैसे पाकिस्तान में कोई गैर-मुसलमान वहाँ का राष्ट्रपति नहीं बन सकता। इसी तरह कई देशों में स्त्रियों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया है, जैसे स्विट्ज़रलैंड में पहले नीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। अभी कुछ वर्ष पहले ही वहाँ स्त्रियों को ये अधिकार दिए गए। कुछ मुस्लिम देशों में अब भी महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। यह राजनीतिक समानता के विरुद्ध है।

5. आर्थिक समानता:
आर्थिक समानता का तात्पर्य है कि लोगों में आर्थिक भेद न हों। इसका यह अर्थ नहीं कि लोगों की आमदनी व खर्च के आंकड़े समान हों, परंतु इसका उद्देश्य समाज में पाई जाने वाली धन और आय की असमानताओं को दूर करना है। आर्थिक समानता के सिद्धांत की मांग है कि समाज के सभी सदस्यों को जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त होने चाहिएँ अर्थात सभी लोगों को कम-से-कम आवश्यक भोजन, वस्त्र और निवास-स्थान मिलना चाहिए, क्योंकि ये अच्छे जीवन की मूल आवश्यकताएं हैं।

सबकी प्रारम्भिक आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद ही किसी के लिए विलास-सामग्री की बात सोची जाए। लास्की का कथन है, “मुझे अपने लिए केक पकाने का कोई अधिकार नहीं है, जबकि मेरा पड़ोसी उसी अधिकार को रखते हुए भी भूखा सो रहा है।”सबको काम पाने तथा मजदूरी का उचित फल पाने का अधिकार हो। आर्थिक समानता इस बात पर जोर देती है कि किसी के पास भी अपने लिए जरूरत से अधिक धन नहीं होना चाहिए, जबकि दूसरे भूखे मर रहे हों।

इस प्रकार आर्थिक समानता समाजवादी आदर्श स्थापित करना चाहती है जिसमें देश की संपत्ति का न्यायपूर्ण और ठीक-ठीक वितरण हो, जिनमें आर्थिक शोषण न हो और जिसमें समाज को हानि पहुंचाकर धन एकत्रित करने का मौका न दिया जाए। वास्तव में जब तक आर्थिक समानता नहीं होगी, तब तक नागरिक, राजनीतिक और सामाजिक समानता स्थापित नहीं हो सकती।

निष्कर्ष: समानता के उपरोक्त रूपों का अध्ययन करने के पश्चात ऐसा मालूम पड़ता है कि सभी रूप अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। अकेले में कोई समानता लाभकारी नहीं है। आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक या सामाजिक समानता स्थापित नहीं की जा सकती। ऐसे ही राजनीतिक समानता के बिना आर्थिक या नागरिक समानता स्थापित नहीं की जा सकती। अतः समाज में सभी प्रकार की समानताओं का होना आवश्यक है। व्यक्ति का विकास भी सभी समानताओं पर निर्भर करता है।

प्रश्न 3.
समानता और स्वतंत्रता में क्या संबंध है? अथवा राजनीतिक समानता और आर्थिक समानता के आपसी संबंधों का वर्णन करें। क्या स्वतंत्रता और समानता एक-दूसरे के विरोधी हैं? अथवा राजनीतिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक समानता में संबंध बताएं।
उत्तर:
समानता और स्वतंत्रता लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं। व्यक्ति के विकास के लिए स्वतंत्रता तथा समानता का विशेष महत्त्व है। बिना स्वतंत्रता और समानता के मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता, परंतु स्वतंत्रता और समानता के संबंध पर विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विचारकों का मत है कि स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं, जबकि कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता में गहरा संबंध है और स्वतंत्रता की प्राप्ति के बिना समानता नहीं की जा सकती अर्थात एक के बिना दूसरे का कोई महत्त्व नहीं है।

स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं:
कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं और एक ही समय पर दोनों की प्राप्ति नहीं की जा सकती। टॉक्विल तथा लॉर्ड एक्टन इस विचारधारा के मुख्य समर्थक हैं। इन विद्वानों के मतानुसार जहां स्वतंत्रता है, वहाँ समानता नहीं हो सकती और जहां समानता है, वहाँ स्वतंत्रता नहीं हो सकती। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि समाज में आर्थिक समानता स्थापित कर दी. गई तो स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर धन नहीं कमा सकेगा। इन विचारकों ने निम्नलिखित आधारों पर स्वतंत्रता तथा समानता को विरोधी माना है

1. सभी मनुष्य समान नहीं हैं:
इन विचारकों के अनुसार असमानता प्रकृति की देन है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही शक्तिशाली होते हैं तथा कुछ कमजोर। कुछ व्यक्ति जन्म से ही बुद्धिमान होते हैं और कुछ मूर्ख। अतः मनुष्य में असमानताएं प्रकृति की देन हैं और इन असमानताओं के होते हुए सभी व्यक्तियों को समान समझना अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।

2. आर्थिक स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं:
व्यक्तिवादी सिद्धांत के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी माना जाता है। व्यक्तिवादी सिद्धांत के अनुसार मनुष्य को आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए तथा आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्र प्रतियोगिता होनी चाहिए। यदि स्वतंत्र प्रतियोगिता को अपनाया जाए तो कुछ व्यक्ति अमीर हो जाएंगे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ेगी और यदि आर्थिक समानता की स्थापना की जाए तो व्यक्ति का स्वतंत्र व्यापार का अधिकार समाप्त हो जाता है। आर्थिक समानता तथा स्वतंत्रता परस्पर विरोधी हैं और एक समय पर दोनों की स्थापना नहीं की जा सकती।

3. समान स्वतंत्रता का सिद्धांत अनैतिक है:
सभी व्यक्तियों की मूल योग्यताएं समान नहीं होती। इसलिए सबको समान अधिकार अथवा स्वतंत्रता प्रदान करना अनैतिक और अन्यायपूर्ण है।

4. प्रगति में बाधक (Resists the Progress) यदि स्वतंत्रता के सिद्धांत को समानता के आधार पर लागू किया जाए तो इससे व्यक्ति तथा समाज को समान रूप दे दिए जाते हैं जिससे योग्य तथा अयोग्य व्यक्ति में अंतर करना कठिन हो जाता है। इससे योग्य व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का अवसर नहीं मिलता।

स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी नहीं हैं स्वतंत्रता और समानता के संबंधों के विषय में दूसरा दृष्टिकोण व्यक्त किया गया है कि यह दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। जिन विचारकों ने स्वतंत्रता को समानता का विरोधी माना है, वास्तविकता में उन्होंने स्वतंत्रता का सही अर्थ नहीं लिया है। यदि वे स्वतंत्रता को सही अर्थ में लें तो स्वतंत्रता और समानता का संबंध स्पष्ट हो जाएगा कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

जो विचारक स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी न मानकर एक-दूसरे का पूरक मानते हैं और इनका आपस में घनिष्ठ संबंध बतलाते हैं, उनमें प्रसिद्ध हैं रूसो, प्रो० आर०एच० टॉनी व प्रो० पोलार्ड। रूसो (Rousseau) के अनुसार, “बिना स्वतंत्रता के समानता जीवित नहीं रह सकती।” प्रो० आर०एच० टॉनी (Prof. R.H. Tony) के अनुसार, “समानता की प्रचुर मात्रा स्वतंत्रता की विरोधी नहीं, वरन इसके लिए अत्यंत आवश्यक है।” प्रो० पोलार्ड (Prof. Pollard) के अनुसार, “स्वतंत्रता की समस्या का केवल एक ही समाधान है और वह है समानता।” ऊपरलिखित विचारक अपने पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं

1. स्वतंत्रता और समानता का विकास एक साथ हुआ है:
स्वतंत्रता और समानता का संबंध जन्म से है। जब निरंकुशता और असमानता के विरुद्ध मानव ने आवाज उठाई और क्रांतियां हुईं, तो स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों का जन्म हुआ। इस प्रकार इन दोनों में रक्त-संबंध है।

2. दोनों प्रजातंत्र के आधारभूत सिद्धांत हैं:
स्वतंत्रता और समानता का विकास प्रजातंत्र के साथ हुआ है। प्रजातंत्र के दोनों मूल सिद्धांत हैं। दोनों के बिना प्रजातंत्र की स्थापना नहीं की जा सकती।

3. दोनों के रूप समान हैं:
स्वतंत्रता और समानता के प्रकार एक ही हैं और उनके अर्थों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। प्राकृतिक स्वतंत्रता तथा प्राकृतिक समानता का अर्थ प्रकृति द्वारा प्रदान की गई स्वतंत्रता अथवा समानता है। नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ समान नागरिक अधिकारों की प्राप्ति है। इसी प्रकार दोनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि रूप हैं।

4. दोनों के उद्देश्य समान हैं:
दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है व्यक्ति के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। एक के बिना दूसरे का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के बिना समानता असंभव है और समानता के बिना स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। आशीर्वादम (Ashirvatham) ने दोनों में घनिष्ठ संबंध बताया है।

उसने लिखा है, “फ्रांस के क्रांतिकारियों ने जब स्वतंत्रता, समानता तथा भाई-चारे को अपने युद्ध का नारा बताया तो वे न पागल थे और न ही मूर्ख।” इस प्रकार स्पष्ट है कि समानता तथा स्वतंत्रता में गहरा संबंध है।

5. आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता संभव नहीं है:
समानता और स्वतंत्रता में घनिष्ठ संबंध ही नहीं है बल्कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता एक धोखा व कपट मात्र है, क्योंकि गरीब व्यक्ति अपनी राजनीतिक स्वतंत्रताओं का भोग कर ही नहीं सकता। उसके लिए राजनीतिक स्वतंत्रताओं का कोई मूल्य नहीं है।

जैसा कि हॉब्सन ने ठीक ही कहा है, “भूखे व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का क्या लाभ है? वह स्वतंत्रता को न खा सकता है और न पी सकता है।” अतः जिस समाज में गरीबी है, वहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती।

निष्कर्ष:
स्वतंत्रता और समानता के आपसी संबंधों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के सहायक हैं। जो विद्वान इन दोनों को विरोधी मानते हैं, उन्होंने समानता व स्वतंत्रता को सही अर्थों में नहीं लिया है। यदि इन दोनों को सकारात्मक अर्थों में लिया जाए तो ये एक-दूसरे के पूरक हैं। समानता के बिना स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बिना समानता अधूरी है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 4.
आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है।
अथवा
आर्थिक समानता व राजनीतिक स्वतंत्रता में संबंध बताएँ।
अथवा
“आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक धोखा मात्र है।” इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक समानता को प्रजातंत्र का आधार माना गया है। प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिए इन दोनों स्वतंत्रताओं में आपसी संबंध होना आवश्यक है। इस संदर्भ में लास्की ने ठीक ही कहा है, “आर्थिक समानता की अनुपस्थिति में राजनीतिक स्वतंत्रता एक धोखा है।” लास्की के इस कथन में काफी सच्चाई है, क्योंकि गरीब व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं है।

गरीब व्यक्ति मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। वह चुनाव नहीं लड़ सकता है अर्थात निर्धन व्यक्ति राजनीतिक स्वतंत्रताओं का आनंद नहीं उठा सकता। राजनीतिक स्वतंत्रता व आर्थिक समानता के परस्पर संबंधों को देखने से पहले राजनीतिक स्वतंत्रता एवं आर्थिक समानता के अर्थों को जानना आवश्यक है।

राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ:
राजनीतिक स्वतंत्रता का तात्पर्य है कि राज्य के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना। व्यक्ति को इसमें अपने नागरिक अधिकारों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता होती है। व्यक्ति अपने विवेकपूर्ण निर्णय का राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग कर सकता है। उसे अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है और निर्वाचित होने का भी अधिकार प्राप्त होता है। इस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता शासन कार्यों में भाग लेने और शासन-व्यवस्था को प्रभावित करने की शक्ति का नाम है।

आर्थिक समानता का अर्थ:
आर्थिक समानता का साधारण शब्दों में अर्थ है कि समाज में आर्थिक असमानता को दूर किया जाए। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति की आय और संपत्ति समान हो। इसका अर्थ यह है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने व अपनी आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। आर्थिक समानता के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है

  • समान अवसरों की प्राप्ति,
  • समान कार्य के लिए समान वेतन,
  • आर्थिक समानता को कम किया जाए,
  • आर्थिक शोषण को समाप्त करना,
  • स्वामी और सेवक की व्यवस्था को समाप्त करना आदि।

इन दोनों के संबंधों के बारे में हॉब्सन ने ठीक कहा है, “एक भूखे मर रहे व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का क्या लाभ है? वह स्वतंत्रता को न खा सकता है और न पी सकता है।” श्री जी०डी० एच० कोल ने भी ठीक ही कहा है, “राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक समानता के बिना एक ढोंग है।” अतः स्पष्टता के लिए इन दोनों के संबंधों को निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है

1. निर्धन व्यक्ति के लिए मताधिकार का कोई महत्त्व नहीं है:
राजनीतिक स्वतंत्रताओं में वोट का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण है लेकिन निर्धन व्यक्ति के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि वह न तो इसको खा सकता है और न पी सकता है। निर्धन व्यक्ति हमेशा अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में लगा रहता है। निर्धन व्यक्ति को वोट का अधिकार देना एक वास्तविक वस्तु की बजाए उसकी परछाई मात्र है। यदि निर्धन व्यक्ति को मताधिकार व मजदूरी में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो वह मजदूरी को ही चुनेगा। अतः गरीब व्यक्ति के लिए मताधिकार का कोई महत्त्व नहीं है।

2. निर्धन व्यक्ति द्वारा मताधिकार का दुरुपयोग:
व्यक्ति की आर्थिक स्थिति उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता को प्रभावित करती है। निर्धन व्यक्ति अपने मताधिकार का दुरुपयोग कर सकता है। वह लोभ में आकर अपने मताधिकार को बेच देता है। वास्तविकता में इसके लिए निर्धन व्यक्ति की आर्थिक स्थिति उत्तरदायी है जो उसे अपने पवित्र अधिकार, मताधिकार को बेचने के लिए मजबूर कर देती है। वह मताधिकार के बदले में प्राप्त धन से अपने परिवार की भूख मिटा सकता है। अतः स्पष्ट है कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता संभव नहीं है।

3. निर्धन व्यक्ति मताधिकार का प्रयोग नहीं करते:
राजनीतिक स्वतंत्रताओं का प्रयोग व्यक्ति के बुद्धि के स्तर पर निर्भर करता है अर्थात् व्यक्ति का शिक्षित व जागरूक होना आवश्यक है। निर्धनता व्यक्ति के शिक्षित होने के रास्ते में बाधा बनती है। अशिक्षित व्यक्ति न तो राजनीतिक समस्या पाता है और न ही उनका समाधान निकाल सकता है। अशिक्षित होने से व्यक्ति अपने मताधिकार का ठीक प्रयोग नहीं कर सकता और सही नेता का चुनाव भी नहीं कर सकता। अतः स्पष्ट है कि निर्धन व्यक्ति अशिक्षित रह जाते हैं तथा चालाक राजनीतिज्ञ साधारण व्यक्तियों का राजनीतिक रूप से शोषण करते हैं।

निर्धन व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता :
लोकतंत्रीय राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त है। परंतु यह अधिकार नाममात्र का है, क्योंकि आधुनिक युग में चुनाव लड़ने के लिए लाखों रुपयों की आवश्यकता होती है जो निर्धन व्यक्ति के पास नहीं होते। वास्तविकता यह है कि निर्धन व्यक्ति धन के अभाव में चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। वह बड़े-बड़े धनिकों या पूंजीपतियों का चुनाव में मुकाबला कैसे कर सकता है? अतः स्पष्ट है कि राजनीतिक स्वतंत्रता निर्धन के लिए मात्र एक दिखावा है।

5. निर्धन व्यक्ति उच्च पद प्राप्त नहीं कर सकता:
निर्धन व्यक्ति या श्रमिक वर्ग अशिक्षित होता है और उसके पास इतने साधन नहीं होते हैं कि वह अपने बच्चों को शिक्षित करके उन्हें उच्च पद प्राप्त करने के योग्य बना सके। उसे अपनी रोजी-रोटी कमाने से ही फुरसत नहीं मिलती, इसलिए वह राजनीति में भाग नहीं ले सकता और न ही उच्च पदों को प्राप्त कर सकता है।

6. राजनीतिक दलों पर पूंजीपतियों का नियंत्रण:
राजनीतिक स्वतंत्रता में राजनीतिक दलों का अध्ययन आता है और लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य भी है। आज की राजनीति राजनीतिक दलों पर निर्भर करती है। राजनीतिक दल ही सरकार का निर्माण करते हैं। राजनीतिक दलों को अपना काम चलाने के लिए धन चाहिए। उन्हें यह धन पूंजीपतियों से मिलता है। पूंजीपतियों का राजनीतिक दलों पर प्रभुत्व होता है।

वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक दलों को प्रभावित करते हैं। पूंजीपतियों द्वारा समर्थित राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद पूंजीपतियों के ही गुणगान करते हैं। अतः निर्धन लोगों की राजनीतिक स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। इस संबंध में किसी लेखक ने ठीक ही कहा है कि धनवान व्यक्ति कानून पर शासन करते हैं और कानून निर्धन व्यक्ति को पीसता है।

7. प्रेस धनी व्यक्ति का साधन है :
प्रेस राजनीतिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। प्रैस ही सरकार के कार्यों की आलोचना करती है। प्रैस द्वारा ही लोगों की समस्याओं को सरकार तक पहुंचाया जा सकता है, लेकिन प्रैस पर पूंजीपतियों का नियंत्रण होता है। प्रैस गरीब व्यक्तियों की समस्याओं को न तो छापती है और न ही सरकार का उनकी ओर ध्यान जाता है। अतः अमीर व्यक्ति ही प्रैस का प्रयोग करते हैं। प्रैस उनको ही लाभ पहुंचाती है। अतः राजनीतिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए जिस प्रकार से स्वतंत्र प्रैस की आवश्यकता होती है, वह उसके अनुसार नहीं होती।

8. इतिहास इसका समर्थन करता है :
इतिहास इस बात का समर्थन करता है कि आर्थिक असमानता के रहते राजनीतिक स्वतंत्रता स्थापित नहीं हो सकती। पूंजीपति श्रमिकों का न केवल आर्थिक आधार पर बल्कि राजनीतिक आधार पर भी उनका शोषण करते हैं। यह निश्चित है कि श्रमिक पूंजीपतियों की दया पर निर्भर करते हैं और उनके राजनीतिक अधिकार भी पूंजीपतियों के हाथों में ही चले जाते हैं।

निष्कर्ष:
उपरोक्त तर्कों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक समानता में गहरा संबंध है। लास्की का यह कहना कि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक ढोंग है, बिल्कुल सच है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक स्वतंत्रता को वास्तविक बनाने के लिए आर्थिक समानता का होना अनिवार्य है इसलिए वास्तविक प्रजातंत्र का अस्तित्व केवल वही हो सकता है, जहां आर्थिक प्रजातंत्र है।

वस्तु निष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम एवं फ्रांस की राज्य क्रांति में स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व का नारा देने वाले विचारक निम्नलिखित में से हैं
(A) जेफरसन
(B) जॉन लॉक एवं रूसो
(C) वाल्टेयर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. समानता की अवधारणा को विकसित एवं प्रेरित करने में निम्नलिखित में से किस कारक का योगदान रहा है?
(A) साम्राज्यवाद
(B) सामंतवाद
(C) पूंजीवाद
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

3. समानता की अवधारणा के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?
(A) सभी को समान वेतन
(B) विशेषाधिकारों का अभाव
(C) सभी को समान गुजारा-भत्ता
(D) सबके साथ समान व्यवहार
उत्तर:
(B) विशेषाधिकारों का अभाव

4. समानता का लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) सभी को पर्याप्त अवसर देना
(B) सभी को मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति
(C) समाज में विशेष सुविधाओं का अंत
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. समाज में नागरिकों के अधिकारों का लोगों को समान रूप से प्राप्त न होना कौन-सी असमानता का रूप है?
(A) सामाजिक असमानता
(B) प्राकृतिक असमानता
(C) नागरिक असमानता
(D) संवैधानिक असमानता
उत्तर:
(C) नागरिक असमानता

6. स्वतंत्रता एवं समानता को परस्पर विरोधी मानने वाला विचारक निम्नलिखित में से हैं
(A) डी० टॉकविल
(B) लार्ड एक्टन
(C) डी० टॉकविल एवं लार्ड एक्टल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) डी० टॉकविल एवं लार्ड एक्टन

7. स्वतंत्रता एवं समानता को एक-दूसरे के संपूरक मानने वाले विद्वान निम्नलिखित में से हैं
(A) रूसो
(B) प्रो० पोलार्ड
(C) प्रो०आर०एच०टोनी
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

8. “फ्रांस के क्रांतिकारियों ने जब स्वतंत्रता, समानता तथा भाई-चारे को अपने युद्ध का नारा बनाया तो वे न पागल थे और न ही मूर्ख।” यह कथन निम्नलिखित में से है
(A) हॉब्सन
(B) आशीर्वादम
(C) लार्ड एक्टन
(D) सी०ई०एम० जोड
उत्तर:
(B) आशीर्वादम

9. आर्थिक समानता का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) समान कार्य के लिए समान वेतन
(B) आर्थिक शोषण को समाप्त करना
(C) समान अवसरों की प्राप्ति होना
(D) कानून के समक्ष समानता
उत्तर:
(D) कानून के समक्ष समानता

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. किस प्रकार की समानता में सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त होता है?
उत्तर:
राजनीतिक समानता में।।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

2. समाज में जाति, रंग, धर्म, भाषा, वर्ण एवं जन्म के आधार पर भेदभाव होना कौन-सी असमानता का रूप है?
उत्तर:
सामाजिक असमानता का।

3. “भूखे व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का क्या लाभ है? वह स्वतंत्रता को न खा सकता है और न पी सकता है।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
हॉब्सन का।

रिक्त स्थान भरें

1. पुरुष एवं स्त्रियों में भेदभाव करना ……………. असमानता का रूप कहलाता है।
उत्तर:
लैंगिक

2. जन्म के आधार पर सभी मनुष्यों को समान मानने वाली समानता …………….. कहलाती है।
उत्तर:
प्राकृतिक समानता

3. “राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक समानता के बिना एक ढोंग है।” यह कथन एक ढाग है।” यह कथन …………….. का है।
उत्तर:
जी०डी०एच० कोल

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता को परिभाषित करें।
उत्तर:
राजनीति विज्ञान के विद्वान मैक्नी के अनुसार, “स्वतंत्रता सभी प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि युक्ति-रहित प्रतिबंधों के स्थान पर युक्ति-युक्त प्रतिबंधों को लगाना है।”

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता के नकारात्मक रूप का वर्णन करें।
उत्तर:
नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होना और उसकी स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध न होना, परंतु स्वतंत्रता का यह अर्थ सही नहीं है। यदि स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध न हो तो समाज में अराजकता फैल जाएगी और समाज में एक ही कानून होगा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस ।’

प्रश्न 3.
आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ बताइए।
उत्तर:
आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि लोगों को अपनी जीविका कमाने की स्वतंत्रता हो तथा इसके लिए उन्हें उचित साधन व सुविधाएं प्राप्त हों। नागरिकों की बेरोज़गारी और भूख से मुक्ति हो तथा प्रत्येक को काम करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ।

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता किसे कहते हैं?
उत्तर:
व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि व्यक्ति को ऐसे कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करना जो केवल उस तक ही सीमित हों और उनके करने से दूसरों पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़ता हो।

प्रश्न 5.
प्राकृतिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है? उत्तर प्राकृतिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को वह सभी कुछ करने की स्वतंत्रता दी जाए जो कुछ वह करना चाहता है। प्रश्न 6. स्वतंत्रता की किन्हीं तीन विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:

  • स्वतंत्रता सभी बंधनों का अभाव नहीं है,
  • स्वतंत्रता केवल समाज में ही प्राप्त हो सकती है,
  • स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को समान रूप से मिलती है।

प्रश्न 7.
किसी व्यक्ति द्वारा स्वतंत्रता के उपयोग की आवश्यक दो दशाएँ बताइए।
अथवा
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए आवश्यक किन्हीं दो शर्तों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • स्वतंत्रता के उपयोग के लिए आवश्यक है कि स्वतंत्रता सबके लिए एक समान हो तथा सबको स्वतंत्रता एक समान मिलनी चाहिए।
  • शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध स्वतंत्रता का होना अनिवार्य है। स्वतंत्रता के उपयोग के लिए लोकतंत्र तथा प्रेस की स्वतंत्रता का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 8.
क्या स्वतंत्रता असीम है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता व्यक्ति के विकास के लिए अति आवश्यक है। स्वतंत्रता का सही अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार हो जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे। स्वतंत्रता पर अनैतिक तथा निरंकुश बंधन नहीं होने चाहिएँ, परंतु स्वतंत्रता असीम नहीं है। सभ्य समाज में स्वतंत्रता बिना बंधनों व कानूनों के दायरे में होती है, परंतु स्वतंत्रता पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित बंधन नहीं होने चाहिएँ।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 9.
स्वतंत्रता के किन्हीं चार प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के चार प्रकार निम्नलिखित हैं

  • प्राकृतिक स्वतंत्रता,
  • नागरिक स्वतंत्रता,
  • आर्थिक स्वतंत्रता तथा
  • राजनीतिक स्वतंत्रता।

प्रश्न 10.
स्वतंत्रता के किन्हीं तीन संरक्षकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
स्वतंत्रता के तीन संरक्षक निम्नलिखित हैं

  • मौलिक अधिकारों की घोषणा,
  • प्रजातंत्र व्यवस्था का होना,
  • कानून का शासन।

प्रश्न 11.
सकारात्मक स्वतंत्रता की किन्हीं तीन विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है।
  • सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव है।
  • राज्य स्वतंत्रताओं का रक्षक है।

प्रश्न 12.
स्वतंत्रता के मार्क्सवादी सिद्धांत की तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • पूंजीवादी व्यवस्था में स्वतंत्रता संभव नहीं है।
  • हिंसात्मक क्रांति द्वारा परिवर्तन।
  • स्वतंत्र न्यायपालिका का अभाव।

प्रश्न 13.
स्वतंत्रता के मार्क्सवादी सिद्धांत की आलोचना के दो शीर्षकों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध गलत है।
  • पूंजीवादी समाज की आलोचना अनुचित।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता का अर्थ बताइए।
उत्तर:
स्वतंत्रता शब्द को अंग्रेज़ी भाषा में ‘Liberty’ कहते हैं। ‘लिबर्टी’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकला है, जिसका अर्थ है-‘पूर्ण स्वतंत्रता’ अथवा किसी प्रकार के बंधनों का न होना। इस प्रकार स्वतंत्रता का अर्थ है-व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बंधन नहीं होना चाहिए, परंतु स्वतंत्रता का यह अर्थ गलत है। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबंध नहीं होने चाहिएं, वरन उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जिनसे उसे अपना विकास करने में सहायता मिलती हो।

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की कोई तीन परिभाषाएँ लिखिए।
उत्तर:
1. गैटेल के अनुसार, “स्वतंत्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनंद प्राप्त होता है जो कि करने योग्य हैं।”

2. कोल के अनुसार, “बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करने का नाम स्वतंत्रता है।”

3. प्रो० लास्की के अनुसार, “स्वतंत्रता का अर्थ उस वातावरण की उत्साहपूर्ण रक्षा करना है जिससे मनुष्य को अपना उज्ज्वलतम स्वरूप प्रकट करने का अवसर प्राप्त होता है।” अतः स्वतंत्रता अनुचित प्रतिबंधों के स्थान पर उचित प्रतिबंधों का होना है। स्वतंत्रता उस वातावरण को कहा जा सकता है, जिसका लाभ उठाकर व्यक्ति अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास कर सके।

प्रश्न 3.
स्वतंत्रता की कोई पाँच विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
स्वतंत्रता की पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • सभी तरह की पाबंदियों का अभाव स्वतंत्रता नहीं है।
  • निरंकुश, अनैतिक, अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है।
  • स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होती है।
  • व्यक्ति को वह सब कार्य करने की स्वतंत्रता है जो करने योग्य हैं।
  • स्वतंत्रता का प्रयोग समाज के विरुद्ध नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 4.
नागरिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नागरिक स्वतंत्रता वह स्वतंत्रता है जो व्यक्ति को एक संगठित समाज का सदस्य होने के रूप में मिलती है। जीवन के विकास के लिए व्यक्ति को अनेक प्रकार की सुविधाओं की आवश्यकता होती है। ऐसी सुविधाएं केवल संगठित समाज में ही संभव हो सकती हैं। समाज में रह रहे व्यक्ति को राज्य के कानूनों के प्रतिबंधों के प्रसंग में जो सुविधाएं प्राप्त होती हैं, उन सुविधाओं को सामूहिक रूप से नागरिक स्वतंत्रता का नाम दिया जाता है।

नागरिक स्वतंत्रता प्राकृतिक स्वतंत्रता के बिल्कुल विपरीत है। प्राकृतिक स्वतंत्रता संगठित समाज में प्रदान नहीं की जा सकती, जबकि नागरिक स्वतंत्रता केवल संगठित समाज में ही संभव हो सकती है।

प्रश्न 5.
राजनीतिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
राजनीतिक स्वतंत्रता से अभिप्राय राजनीतिक अधिकारों का प्राप्त होना है। ऐसे अधिकार केवल प्रजातांत्रिक समाज में ही प्राप्त हो सकते हैं। जिन राज्यों में राजनीतिक अधिकार प्रदान नहीं किए जाते, वहां राजनीतिक स्वतंत्रता का अस्तित्व नहीं हो सकता। राजनीतिक स्वतंत्रता का अभिप्राय राज्य के कार्यों में भाग लेने के सामर्थ्य से है। मताधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, सरकार की आलोचना करने का अधिकार, याचिका देने का अधिकार आदि कुछ ऐसे राजनीतिक अधिकार हैं जिनकी प्राप्ति पर ही राजनीतिक स्वतंत्रता का अस्तित्व निर्भर करता है।

प्रश्न 6.
स्वतंत्रता के दो संरक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के दो संरक्षण निम्नलिखित हैं

1. लोकतंत्र की व्यवस्था लोकतंत्रीय व्यवस्था में ही लोगों को स्वतंत्रता अधिक समय तक और अधिक-से-अधिक मात्रा में मिल सकती है। स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक आधार है और शासक जनता के प्रतिनिधि होने के कारण आसानी से स्वतंत्रता का हनन नहीं कर सकते।

2. मौलिक अधिकारों की घोषणा अधिकारों का अतिक्रमण होने की संभावना राज्य की ओर से अधिक होती है। मौलिक अधिकार संविधान में लिखे होते हैं। ऐसा होने से अधिकारों का हनन राज्य द्वारा या व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता। मौलिक अधिकारों की घोषणा से स्वतंत्रता की रक्षा होती है।

प्रश्न 7.
स्वतंत्रता के सकारात्मक दृष्टिकोण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को वह सब कुछ करने की स्वतंत्रता है जो सभ्य समाज में करने के योग्य होता है। स्वतंत्रता के इस पक्ष का अर्थ प्रत्येक प्रकार के प्रतिबंधों का अभाव नहीं, अपितु अनैतिक, निरंकुश तथा अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों का अभाव है। स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष का अभिप्राय एक ऐसा वातावरण स्थापित करना है, जिसमें मनुष्य को अपना सर्वोत्तम विकास करने के लिए उपयुक्त अवसर प्राप्त हों। स्वतंत्रता के सकारात्मक रूप का साधारण अर्थ है करने योग्य कार्यों को करने तथा उपभोग योग्य वस्तुओं का उपभोग करने की स्वतंत्रता।

प्रश्न 8.
आर्थिक स्वतंत्रता तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के संबंधों का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है-भूख और अभाव से मुक्ति। जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अवसर, काम की उचित मजदूरी की व्यवस्था तथा आर्थिक अभाव से छुटकारा । राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ है-मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता। राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता में घनिष्ठ संबंध है।

जहाँ आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है, वहां राजनीतिक स्वतंत्रता कोई अर्थ नहीं है और यह वास्तविक नहीं है। एक भूखे व्यक्ति के लिए मताधिकार का भी कोई मूल्य नहीं, यदि वह अपनी रोजी-रोटी के लिए दूसरे की दया पर निर्भर है। एक मजदूर को यदि उसका मालिक बिना कारण तुरंत नौकरी से निकाल सकता है और उसे भूखा मरने पर मजबूर कर सकता है तो क्या वह मजदूर अपने मत का प्रयोग अपने मालिक की इच्छा के विरुद्ध नहीं कर सकता।

एक भूखे व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ने के अधिकार का तो कोई अर्थ ही नहीं क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए धन चाहिए। गरीबी के कारण वोट बेचे जाते हैं और धनवान व्यक्ति उन्हें खरीदते हैं। यह भी सत्य है कि जिस व्यक्ति का धन पर नियंत्रण है, उसका प्रशासन पर भी प्रभाव जम जाता है। एक दिन की मजदूरी खोकर कोई भी मजदूर अपनी आत्मा की आवाज़ के अनुरूप वोट डालने नहीं जा सकता। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वतंत्रता में गहरा संबंध है तथा दोनों साथ-साथ ही रह सकती हैं।

प्रश्न 9.
आधुनिक राज्य में स्वतंत्रता किस प्रकार सुरक्षित रखी जा सकती है? अथवा स्वतंत्रता की सुरक्षा के कोई पांच उपाय बताइए।
उत्तर:
स्वतंत्रता मनुष्य के विकास व उन्नति के लिए अत्यंत आवश्यक है। स्वतंत्रता की सुरक्षा के विभिन्न उपायों में से पांच उपाय अग्रलिखित हैं

1. प्रजातंत्र-स्वतंत्रता व प्रजातंत्र में गहरा संबंध है। स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रजातंत्र में ही की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार की प्रणाली में जनता की सरकार होती है और लोगों के अधिकारों को छीना नहीं जा सकता। इसके विपरीत राजतंत्र प्रणाली में स्वतंत्रता की सुरक्षा नहीं हो सकती।

2. मौलिक अधिकारों की घोषणा जनता को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए लोगों के मौलिक अधिकारों की घोषणा कर उन्हें संविधान में लिख दिया जाता है, ताकि संविधान द्वारा लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा हो सके।

3. स्वतंत्र प्रेस स्वतंत्र प्रेस भी लोगों की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने में सहायता करती है। यदि प्रेस पर अनुचित दबाव हो तो कोई भी व्यक्ति अपने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रकट नहीं कर सकता। स्वतंत्र प्रेस ही सरकार की सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखती है।

4. कानून का शासन-कानून का शासन स्वतंत्रता की सुरक्षा करता है। कानून के सामने सभी समान होने चाहिएं और सभी लोगों के लिए एक-सा कानून होना चाहिए। इससे शासन वर्ग की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगती है।

5. स्वतंत्र न्यायपालिका स्वतंत्र न्यायपालिका लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा करती है। कानून कितने ही अच्छे क्यों न हों, जब तक न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होती, कानूनों को सही ढंग से लागू नहीं किया जा सकता। अतः कानूनों को लागू करने के लिए न्यायाधीश स्वतंत्र, निडर व ईमानदार होने चाहिएँ।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 10.
क्या स्वतंत्रता पूर्ण होती है?
उत्तर:
स्वतंत्रता वास्तविक रूप में पूर्ण नहीं हो सकती। किसी भी व्यक्ति को पूर्ण रूप से वह सब कुछ करने का अवसर या आजादी नहीं दी जा सकती जो वह करना चाहता है। समाज में रहते हुए व्यक्ति सामाजिक नियमों व कर्तव्यों से बंधा हुआ होता है और उसे अपने सभी कार्य दूसरों के सुख-दुःख, सुविधा-असुविधा को ध्यान में रखकर करने पड़ते हैं। पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है स्वेच्छाचारिता, जो सामाजिक जीवन में संभव नहीं है।

समाज लोगों के आपसी सहयोग पर खड़ा है और कार्य कर रहा है। यदि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मनमानी करेगा तो समाज की शांति समाप्त हो जाएगी तथा जंगल जैसा वातावरण पैदा हो जाएगा। एक सभ्य समाज में हम पूर्ण स्वतंत्रता की कल्पना भी नहीं कर सकते। इस प्रकार स्वतंत्रता पूर्ण नहीं होती, बल्कि उचित प्रतिबंधों के अस्तित्व में ही कायम रहती है।

प्रश्न 11.
“शाश्वत जागरूकता ही स्वतंत्रता की कीमत है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
प्रो० लास्की ने ठीक ही कहा है, “शाश्वत जागरुकता ही स्वतंत्रता की कीमत है।” स्वतंत्रता की सुरक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय स्वतंत्रता के प्रति जागरुक रहना है। नागरिकों में सरकार के उन कार्यों के विरुद्ध आंदोलन करने की हिम्मत व हौंसला होना चाहिए जो उनकी स्वतंत्रता को नष्ट करते हों। सरकार को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि यदि उसने नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचला तो नागरिक उसके विरुद्ध पहाड़ की तरह खड़े हो जाएंगे। लास्की के शब्दों में, “नागरिकों की महान भावना, न कि कानूनी शब्दावली स्वतंत्रता की वास्तविक संरक्षक है।”

प्रश्न 12.
कानून तथा स्वतंत्रता में क्या संबंध है? अथवा ‘कानून स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है।’ व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
व्यक्तिवादियों के मतानुसार, राज्य जितने अधिक कानून बनाता है, व्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी ही कम होती है। अतः उनका कहना है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रह सकती है जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग कम-से-कम करे। परंतु आधुनिक लेखकों के मतानुसार स्वतंत्रता तथा कानून परस्पर विरोधी न होकर परस्पर सहायक तथा सहयोगी हैं।

राज्य ही ऐसी संस्था है जो कानूनों द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का आनंद उठा सकता है। राज्य कानून बनाकर एक नागरिक को दूसरे नागरिक के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोकता है। राज्य कानूनों द्वारा सभी व्यक्तियों को समान सुविधाएं प्रदान करता है, ताकि मनुष्य अपना विकास कर सके। स्वतंत्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। लॉक ने ठीक ही कहा है, “जहाँ कानून नहीं, वहां पर स्वतंत्रता भी नहीं।”

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं? स्वतंत्रता के नकारात्मक तथा सकारात्मक सिद्धांतों का वर्णन करें।
अथवा
नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता में अंतर बतलाइए। अथवा सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता का मानव समाज में बड़ा महत्त्व है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास तथा उसकी प्रसन्नता के लिए इसका होना बहुत ही आवश्यक है। स्वतंत्र व्यक्ति ही अपने जीवन को अपनी इच्छा के अनुसार ढालकर उसे प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर सकता है। एक व्यक्ति को दूसरे के आदेश से किसी कार्य को करने में उतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी कि उसे उसी कार्य को अपनी इच्छा के अनुसार करने से होती है।

इसके अतिरिक्त अपने व्यक्तिगत मामलों को जितनी अच्छी तरह से एक व्यक्ति स्वयं समझ सकता है और उनकी गुत्थियों को सुलझा सकता है, उतनी अच्छी तरह से दूसरा व्यक्ति न तो उन मामलों को समझ सकता है और न ही उनकी गुत्थियों को सुलझा सकता है। स्वतंत्रता से व्यक्ति का नैतिक स्तर भी ऊंचा होता है। उसमें आत्म-विश्वास, स्वावलंबिता तथा कार्य को प्रारंभ करने की शक्ति आदि गुण उत्पन्न होते हैं।

इस दृष्टिकोण से यह प्रजातंत्र के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में, स्वतंत्रता प्रजातंत्र का आधार है। इंग्लैंड में तो स्वतंत्रता, जिसका अर्थ उस समय जनता के स्वार्थों की रक्षा करना ही समझा जाता था, की भावना तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही दिखाई दी थी, जब मैग्ना कार्टा (MagnaCarta) नामक नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार-पत्र की राजा जॉन के द्वारा घोषणा करवाई गई, परंतु इसका विस्तार से प्रचार व प्रसार सत्रहवीं शताब्दी में ही हुआ।

इंग्लैंड की महान क्रांति तथा फ्रांस की क्रांति ने यूरोप के सभी देशों में स्वतंत्रता की भावना फैला दी। फ्रांस की क्रांति के बाद लोकतंत्र के सिद्धांतों (Liberty, Equality, Fraternity) का झंडा सर्वत्र फहराया जाने लगा। बीसवीं शताब्दी तक यह झंडा एशिया व अफ्रीका के देशों में भी फहराया जाने लगा। व्यक्तिगत व राष्ट्रीय स्वतंत्रता अब भी सभी लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। स्वतंत्रता अर्थात Liberty शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से बना है, जिसका अर्थ है ‘कोई भी कार्य अपनी इच्छा के अनुसार करने की स्वतंत्रता’

साधारण व्यक्ति इस शब्द का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता से लेता है जो बिल्कुल प्रतिबंध-रहित हो, परंतु राजनीति शास्त्र में प्रतिबंध-रहित स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता (Licence) है, स्वतंत्रता नहीं। राजनीति शास्त्र में स्वतंत्रता का अर्थ उस हद तक स्वतंत्रता है, जिस हद तक वह दूसरों के रास्ते में बाधा नहीं बनती। इसलिए स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाने पड़ते हैं, ताकि प्रत्येक व्यक्ति की समान स्वतंत्रता सुरक्षित रहे।

इसी कारण से मैक्नी ने कहा है, “स्वतंत्रता सभी प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि युक्तिरहित प्रतिबंधों के स्थान पर युक्तियुक्त प्रतिबंधों को लगाना है।” इसकी पुष्टि करते हुए जे०एस० मिल ने कहा है, “स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि हम अपने हित के अनुसार अपने ढंग से उस समय तक चल सकें जब तक कि हम दूसरों को उनके हिस्से से वंचित न करें और उनके प्रयत्नों को न रोकें।”

मानव अधिकारों की घोषणा (1789) में भी स्वतंत्रता का अर्थ इसी प्रकार से दिया है। इस घोषणा के अनुसार स्वतंत्रता व्यक्ति की वह शक्ति है जिसके द्वारा व्यक्ति वे सभी कार्य कर सकता है जो दूसरों के उसी प्रकार के अधिकारों पर कोई दुष्प्रभाव न डालें।

राजनीति विज्ञान के आधुनिक विद्वान स्वतंत्रता को केवल बंधनों का अभाव नहीं मानते, बल्कि उनके अनुसार स्वतंत्रता सामाजिक बंधनों में जकड़ा हुआ अधिकार है।

(क) स्वतंत्रता के दो रूप (Two Aspects of Liberty) स्वतंत्रता के सकारात्मक रूप के समर्थक लॉक, एडम स्मिथ, हरबर्ट स्पैंसर, जे०एस०मिल आदि हैं। प्रारंभिक उदारवादियों ने नकारात्मक स्वतंत्रता का समर्थन किया। इस प्रकार एडम स्मिथ व रिकार्डो आदि अर्थशास्त्रियों ने खुली प्रतियोगिता का समर्थन किया और कहा कि राज्य को व्यक्ति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

जॉन स्टुअर्ट मिल (J.S. Mill) ने अपनी पुस्तक ‘On Liberty’ में व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया है-स्व-संबंधी कार्य व पर-संबंधी कार्य। मिल व्यक्ति के स्व-संबंधी कार्यों में राज्य के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करता। यहां तक कि व्यक्ति के गलत कार्यों में राज्य को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि इनका संबंध व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से होता है,

परंतु यदि व्यक्ति के कार्यों का प्रभाव दूसरे व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है तो राज्य या समाज उसमें हस्तक्षेप कर सकता है। इसलिए जे०एस० मिल व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्र छोड़ देने के पक्ष में है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए।

1. स्वतंत्रता का नकारात्मक स्वरूप (Negative Aspect of Liberty):
स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी में ‘लिबर्टी’ (Liberty) शब्द का प्रयोग किया जाता है। लिबर्टी शब्द लेटिन भाषा के Liber शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है-स्वतंत्र। इसका प्रायः यही अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की छूट हो। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति जैसा चाहे करे, उस पर कोई नियंत्रण या बंधन न हो, उसके काम का दूसरों पर चाहे जो भी प्रभाव पड़े।

इस प्रकार इसका अर्थ है-‘सभी प्रतिबंधों का अभाव’, परंतु सभ्य समाज में रहकर इस प्रकार की अनियंत्रित स्वतंत्रता मिलनी असंभव है। समाज में रहकर व्यक्ति अपनी इच्छा से जो चाहें, नहीं कर सकते। किसी भी व्यक्ति को चोरी करने या दूसरों को मारने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। यह स्वतंत्रता का निषेधात्मक या नकारात्मक अर्थ है। समाज व्यक्ति को स्वेच्छा-अधिकार नहीं दे सकता, क्योंकि वह तो स्वतंत्रता न होकर उच्छृखलता हो जाती है। इससे ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। ऐसी स्वतंत्रता केवल सबल व्यक्ति ही उपयोग में ला सकेंगे, निर्बलों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं होगा।

स्वतंत्रता के नकारात्मक स्वरूप के विश्लेषण के पश्चात इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्टं होती हैं

  • कानून एक बुराई है, क्योंकि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाता है।
  • व्यक्ति को विकास के लिए विभिन्न राजनीतिक व नागरिक स्वतंत्रताएं मिलनी चाहिएं।
  • व्यक्ति को स्व-कार्यों में पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए।
  • आर्थिक गतिविधियों और विचार व भाषण पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।
  • पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करते हैं।
  • मताधिकार को व्यापक बनाना चाहिए।
  • सरकार का कार्यक्षेत्र सीमित होना चाहिए। वह सरकार सबसे अच्छी सरकार है जो सबसे कम काम करती है।

2. स्वतंत्रता का सकारात्मक स्वरूप (Positive Aspect of Liberty):
नकारात्मक स्वतंत्रता, स्वतंत्रता न होकर लाइसैंस बन जाती है। इससे व्यक्ति को अपनी स्वेच्छा से बिना किसी प्रतिबन्ध के कुछ भी करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इससे किसी को स्वतंत्रता नहीं मिलती। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है, “प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा काम करने की छूट, जिससे दूसरों को हानि न पहुंचे।” समाज में रहते हुए मनुष्य सीमित और नियंत्रित स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकता है।

सभी पर न्यायोचित और समान प्रतिबंध होना चाहिए, जिससे स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं होता, बल्कि ऐसे प्रतिबंधों का अभाव होता है जो अन्यायपूर्ण, असमान तथा अनुचित हों। परंतु स्वतंत्रता केवल नकारात्मक अर्थ ही नहीं रखती, वरन उसका एक सकारात्मक अर्थ भी है। इसका अर्थ केवल अन्यायपूर्ण, अनुचित तथा असमान प्रतिबंधों का अभाव ही नहीं है,

बल्कि उन अवसरों की उपस्थिति भी है जो व्यक्ति को करने योग्य कामों को करने के और भोगने योग्य वस्तुओं को भोगने के योग्य बनाती है। इस प्रकार सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ है “वे परिस्थितियां, जिसमें मनुष्यों को अपने व्यक्तित्व के विकास का और अपने आपको अच्छा बनाने का पर्याप्त अवसर मिलता है।”

(ख) सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थन में तर्क (Arguments in Favour of Positive Liberty):
सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थकों का कहना है कि राज्य के कानून तथा नियम मनुष्यों की स्वतंत्रता का विनाश नहीं करते, बल्कि उसकी स्वतंत्रता में वृद्धि करते हैं। लेकिन जो प्रतिबंध राज्य द्वारा लगाए जाएं, वे जनता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए लगाए जाने चाहिएं। यदि वे प्रतिबंध व्यक्ति के कार्यों में किसी प्रकार भी बाधक होंगे तो यह स्वतंत्रता के लिए हानिकारक है।

स्वतंत्रता का सकारात्मक सिद्धांत मनुष्य को उस स्तर तक उठाने से संबंधित है जिस स्तर तक वह अपने मानसिक और नैतिक गुणों का सर्वोत्तम ढंग से उपयोग कर सके। यह सरकार का दायित्व है कि वह नागरिकों को इसके लिए शिक्षित करे और उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाए। इस सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि व्यक्ति क्योंकि स्वयं विचारशील है, उसे स्वयं सोचना चाहिए कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अपने हित के अनुसार ही कार्य करता है।

लास्की, लॉक, टी०एच० ग्रीन, मैक्नी, मैकाइवर और गैटेल आदि स्वतंत्रता के सकारात्मक सिद्धांत के प्रमुख समर्थक हैं। उनका कहना है कि स्वतंत्रता केवल बंधनों का अभाव नहीं है। मनुष्य समाज में रहता है और समाज का हित ही उसका हित है। समाज-हित के लिए सामाजिक नियमों तथा आचरणों द्वारा नियंत्रित रहकर व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के अवसर की प्राप्ति ही ब्दों में, “स्वतंत्रता एक सकारात्मक चीज है। इसका मतलब केवल बंधनों का अभाव नहीं है।” लास्की के अनुसार, “स्वतंत्रता से मेरा अभिप्राय उस वातावरण की स्थापना से है, जिसमें मनुष्यों को अपना सर्वोत्तम विकास करने का अवसर मिलता है।”

टी०एच० ग्रीन के अनुसार, “स्वतंत्रता से अभिप्राय प्रतिबंधों का अभाव नहीं है। स्वतंत्रता का सही अर्थ है उन कार्यों को करने या उन सुखों को भोग सकने की क्षमता जो वास्तव में भोगने योग्य हों।” संक्षेप में, सकारात्मक स्वतंत्रता का क्षेत्र नकारात्मक स्वतंत्रता के क्षेत्र से कहीं अधिक विस्तृत तथा व्यापक है। सकारात्मक स्वतंत्रता की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है। सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थक उचित प्रतिबंधों को स्वीकार करते हैं, परंतु वे अनुचित प्रतिबंधों के विरुद्ध हैं। सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

(2) स्वतंत्रता का अर्थ केवल नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता भी है। आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है आर्थिक सुरक्षा की भावना जिसे राज्य अपने अनेक कानूनों द्वारा उपलब्ध कराएगा।

(3) राज्य का कार्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करना है।

(4) राज्य का कार्य ऐसी परिस्थितियां पैदा करना है जो व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों।

(5) स्वतंत्रता और राज्य के कानून परस्पर विरोधी नहीं हैं। कानून स्वतंत्रता को नष्ट नहीं करते बल्कि स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।

(6) स्वतंत्रता का अर्थ उन सामाजिक परिस्थितियों का विद्यमान होना है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों।

(7) स्वतंत्रता अधिकारों के साथ जुड़ी हुई है। जितनी अधिक स्वतंत्रता होगी, उतने ही अधिक अधिकार होंगे। अधिकारों के बिना व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती।

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए। अथवा स्वतंत्रता का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता को अंग्रेजी में ‘Liberty’ कहते हैं, जो लैटिन भाषा के शब्द ‘Liber’ से निकला है, जिसका अर्थ है “सब प्रतिबंधों का अभाव अर्थात प्रत्येक मनुष्य पर से सब प्रकार के प्रतिबंध हटा दिए जाएं और उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने का अधिकार दे दिया जाए।” परंतु राजनीति विज्ञान में स्वतंत्रता का अर्थ उस हद तक स्वतंत्रता है जिस हद तक वह दूसरों की स्वतंत्रता के मार्ग में बाधा नहीं बनती। यदि व्यक्ति को सभी प्रकार के कार्य करने की स्वतंत्रता दे दी जाए तो समाज में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी।

इसका अर्थ यह होगा कि केवल शक्तिशाली ही अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग कर सकेंगे और समाज में एक ही कानून होगा-“जिसकी लाठी उसकी भैंस”। किसी भी व्यक्ति को चोरी करने या दूसरों की हत्या करने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। अतः स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है-“प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा कार्य करने की छूट जिससे दूसरों को हानि न पहुंचे।”

परंतु स्वतंत्रता केवल नकारात्मक अर्थ ही नहीं रखती, बल्कि उसका सकारात्मक अर्थ भी है। इस रूप में स्वतंत्रता का अर्थ केवल अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबंधों का अभाव ही नहीं, बल्कि उन अवसरों की उपस्थिति भी है, जो व्यक्ति को करने योग्य कार्यों को करने और भोगने योग्य वस्तुओं को भोगने का अवसर भी प्रदान करती है। विभिन्न विद्वानों द्वारा स्वतंत्रता की विभिन्न परिभाषाएं और विभिन्न अर्थ बताए गए हैं तथा परिभाषाओं के आधार पर ही स्वतंत्रता के विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। अतः उन तत्त्वों के आधार पर स्वतंत्रता के निम्नलिखित विभिन्न रूपों का वर्णन किया जा सकता है

1. प्राकृतिक स्वतंत्रता (Natural Liberty):
प्राकृतिक स्वतंत्रता की कल्पना समझौतावादी विचारकों ने विशेष रूप से की है। प्राकृतिक स्वतंत्रता का ठीक-ठीक अर्थ क्या है, यह कहना कठिन है। रूसो के कथनानुसार, “मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न होता है, किंतु प्रत्येक स्थान पर वह बंधन से बंधा हुआ है।” इसका अर्थ है कि प्रकृति ने व्यक्ति को स्वतंत्र पैदा किया है और यदि उसमें कोई दासता की भावना है, तो वह समाज द्वारा दी गई स्वतंत्रता का परिणाम है।

समाज बनने से पहले व्यक्ति जंगल में रहने वाले पशु-पक्षियों की तरह स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करता था। प्राकृतिक स्वतंत्रता के होने से सब व्यक्ति इच्छानुसार जीवन व्यतीत करते थे और वे किसी कानून या नियम से नहीं बंधे हुए थे। उस समय तेरे-मेरे की भावना नहीं थी, आवश्यकता की वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में लोगों को मिल जाया करती थीं, इसलिए मनुष्य प्राकृतिक स्वतंत्रता का उपभोग करता था।

परंतु इस मत से अधिकांश विचारक सहमत नहीं हैं, क्योंकि निरंकुश स्वतंत्रता का अर्थ है कि कोई भी स्वतंत्र नहीं है। प्राकृतिक स्वतंत्रता केवल जंगल की स्वतंत्रता है जो वास्तव में स्वतंत्रता है ही नहीं। सच्चे अर्थ में तो स्वतंत्रता केवल राजनीतिक दृष्टि से संगठित समाज में ही पाई जा सकती है। प्राकृतिक स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रता के बीच मौलिक अंतर यह है कि प्राकृतिक स्वतंत्रता व्यक्ति अपनी शारीरिक शक्ति के आधार पर ही प्राप्त करता है, जबकि नागरिक स्वतंत्रता का संरक्षण राज्य करता है। प्राकृतिक स्वतंत्रता बलवानों की वस्तु है, किंतु नागरिक स्वतंत्रता सभी की वस्तु है।

2. नागरिक स्वतंत्रता (Civil Liberty) नागरिक स्वतंत्रता प्राकृतिक स्वतंत्रता से उलट है। जहाँ प्राकृतिक स्वतंत्रता राज्य की स्थापना से पहले मानी जाती है, वहां नागरिक स्वतंत्रता राज्य के द्वारा सुरक्षित मानी जाती है। गैटेल के अनुसार, “नागरिक स्वतंत्रता में वे अधिकार और विशेषाधिकार शामिल हैं जिन्हें राज्य अपनी प्रजा के लिए बनाता और सुरक्षित रखता है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक (व्यक्ति) को कानून की सीमा के अंदर अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने का अधिकार है। इसमें दूसरे लोगों के हस्तक्षेप से रक्षा करना या सरकार के हस्तक्षेप से रक्षा करना शामिल हो सकते हैं।”

इस प्रकार नागरिक स्वतंत्रता उन अधिकारों के समूह का नाम है जो कानून के द्वारा मान लिए गए हों और राज्य जिनको सुरक्षित रखता हो। दूसरे शब्दों में, इसी बात को गिलक्राइस्ट इस प्रकार कहते हैं कि कानून दो प्रकार के होते हैं सार्वजनिक (Public) तथा व्यक्तिगत (Private)। सार्वजनिक कानून स्वतंत्रता की सरकार के हस्तक्षेप से रक्षा करता है। बार्कर के अनुसार, “नागरिक स्वतंत्रता तीन प्रकार की है-

  • शारीरिक स्वतंत्रता,
  • मानसिक स्वतंत्रता और
  • व्यावहारिक स्वतंत्रता।

वह शारीरिक स्वतंत्रता में जीवन, स्वास्थ्य और घूमना-फिरना, मानसिक स्वतंत्रता में विचारों और विश्वासों का प्रकट करना तथा व्यावहारिक स्वतंत्रता में दूसरे व्यक्तियों के साथ संबंधों और समझौतों से संबंधित कार्यों में अपनी इच्छा और छांट आदि को शामिल करता है।”

अमेरिका के संविधान में भी नागरिक स्वतंत्रताओं का उल्लेख मिलता है। संविधान में कहा गया है कि कानून की उचित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा की हद तथा तरीके का आधार सरकार का रूप है। प्रजातंत्र में नागरिक स्वतंत्रता अधिक सुरक्षित होती है, जबकि स्वेच्छाचारी सरकार में इसकी अधिक सुरक्षा नहीं होती।

इससे यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए । नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन नहीं होता। लोकतंत्र में भी व्यक्तियों पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं, जिनसे नागरिक स्वतंत्रताओं पर रोक लग जाती है, जैसे भारत के संविधान में विभिन्न स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं। इसके साथ संविधान में ही निवारक नजरबंदी कानून, भारत सुरक्षा अधिनियम, आंतरिक सुरक्षा कानून आदि के द्वारा समाज व राष्ट्र की सुरक्षा का बहाना लेकर नागरिक स्वतंत्रताओं पर रोक लगा दी गई है।

अतः नागरिक स्वतंत्रता का बहुत अधिक महत्त्व है। इस स्वतंत्रता के आधार पर ही देश की उन्नति व विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। जिस देश में नागरिक स्वतंत्रता जितनी अधिक होगी, वह देश उतना ही विकासशील होगा।

3. आर्थिक स्वतंत्रता (Economic Liberty):
प्रजातंत्र तभी वास्तविक हो सकता है जब राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी हो। लेनिन के शब्दों में, “नागरिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता के बिना निरर्थक है।” आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ वह नहीं, जिसे पूंजीवादी मुक्त प्रतिद्वंद्विता (Free Competition) कहते हैं वरन इसका अर्थ शोषण का अभाव और मालिक के अत्याचार से मुक्ति है।

प्रो० लास्की के अनुसार, “आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ मनुष्य को अपना दैनिक भोजन कमाते हुए युक्तियुक्त रूप में सुरक्षा व अवसर प्राप्त होना है।” प्रत्येक नागरिक को बेकारी और अभाव के भय से स्वतंत्र बनाया जाना ही सच्ची स्वतंत्रता है। आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कराने के लिए ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित की जाए जिसमें व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से अन्य व्यक्तियों के अधीन न रहे।

सब व्यक्तियों को अपनी आर्थिक उन्नति करने का समान अवसर प्राप्त हो। यदि इसके लिए राज्य को व्यक्ति के आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी करना पड़े तो उसे करना चाहिए। आर्थिक स्वतंत्रता का यह विचार उस आर्थिक व्यवस्था की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है, जिसमें पूंजीपति श्रमिकों का मनमाना शोषण करते थे और उनकी मजदूरी का एक बड़ा भाग स्वयं हड़प करके धनी बन जाते थे।

इसलिए जिस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक शक्ति को कुछ लोगों के हाथों से निकालकर जनता के हाथों में सौंपा गया, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति भी थोड़े-से पूंजीपतियों के हाथों से निकालकर जन-साधारण को दी जानी चाहिए। इसके लिए एक ओर मजदूरों के कुछ आर्थिक अधिकार हों; जैसे काम पाने,

उचित घंटे काम करने, उचित मजदूरी पाने, अवकाश पाने, बेकारी, बीमारी, बुढ़ापे और दुर्घटना की अवस्था में सहायता व सुरक्षा पाने तथा मजदूर संघ बनाकर अपने हितों की रक्षा करने के अधिकार तो दूसरी ओर मजदूरों को उद्योग-धंधों के प्रबंध में भागीदार बनाया जाना चाहिए। समाजवादी विचारक भी इसी बात पर बल देते हैं कि आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है।

4. राष्ट्रीय स्वतंत्रता (National Liberty):
राष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ है-विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्रता। जनता की राजनीतिक तथा नागरिक स्वतंत्रता तभी संभव है जब राष्ट्र स्वयं पूर्ण रूप से प्रभुसत्ता-संपन्न राज्य हो। साम्राज्यवादी देश के अधीन रहने पर विदेशी सत्ता जनता को अपनी सरकार बनाने या शासन में हिस्सा लेने का मौका नहीं देती तथा शासन के अत्याचारों के विरुद्ध जनता को भाषण, संगठन, प्रकाशन आदि तक नहीं करने देती।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता साम्राज्यवाद को नष्ट करना चाहती है। व्यक्ति का पूर्ण विकास एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही हो सकता है। इसलिए व्यक्ति की उन्नति के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आवश्यक है। भारत ने 15 अगस्त, 1947 को राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त की। तभी से जनता को वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव होने लगा।

5. व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individual Liberty):
व्यक्तिगत स्वतंत्रता से अभिप्राय उन कार्यों को करने की स्वतंत्रता है जो व्यक्ति के अपने निजी जीवन से संबंधित हों। कुछ मामले ऐसे हैं जो व्यक्ति के निजी जीवन से संबंधित होते हैं। ऐसे कार्यों में कोई भी व्यक्ति दूसरे का हस्तक्षेप सहन नहीं करता, यहाँ तक कि निजी संबंधियों का भी हस्तक्षेप सहन नहीं किया जाता।

अपने निजी मामलों में प्राप्त स्वतंत्रता को व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहते हैं, जैसे वस्त्र, रहन-सहन, पारिवारिक जीवन, विवाह-संबंध आदि। मिल का कहना है, “प्रत्येक व्यक्ति के कुछ कार्य ऐसे हैं जिनका दूसरों पर प्रभाव नहीं पड़ता और इन मामलों में उसे पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी आवश्यक है, परंतु वास्तव में व्यक्ति का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसका प्रभाव केवल उसी तक सीमित हो, दूसरों पर भी उसका कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है।

व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में भी सामाजिक हित, कानून और व्यवस्था, नैतिकता, राष्ट्र की सुरक्षा आदि के आधार पर कुछ अंकुश लगाए जाते हैं। निरंकुशता या पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई बात समाज में नहीं हो सकती।”

6. राजनीतिक स्वतंत्रता (Political Liberty):
राजनीतिक स्वतंत्रता व्यक्ति के राजनीतिक जीवन को उन्नत और विकसित करने के लिए आवश्यक है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति को जो राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, उनका यह स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करे, वह कानून-निर्माण तथा प्रशासन में भाग ले। लास्की ने कहा है, “राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने की शक्ति से है।

यह स्वतंत्रता केवल लोकतंत्र में ही संभव है, राजतंत्र और तानाशाही में नहीं। प्रतिनिधियों को चुनने के लिए मतदान की स्वतंत्रता, चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता, सार्वजनिक पद प्राप्त करने की स्वतंत्रता, सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता केवल लोकतंत्र में ही मिलती है। अधिनायकतंत्र में यह स्वतंत्रता लोगों को प्राप्त नहीं होती।

लीकॉक महोदय ने राजनीतिक स्वतंत्रता को संवैधानिक स्वतंत्रता का नाम दिया है और कहा है कि जनता को अपनी सरकार स्वयं चुनने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता के अंतर्गत केवल सरकार के कार्यों में भाग लेने का अधिकार नहीं है, बल्कि सरकार का विरोध करना भी इसके अंतर्गत आता है।

राजनीतिक दलों का निर्माण करना व उनकी सदस्यता ग्रहण करना इस स्वतंत्रता में आते हैं। इस प्रकार की स्वतंत्रता साम्यवादी राज्यों में प्रदान नहीं की जाती है। अंत में इस प्रकार की स्वतंत्रता को सीमित तो किया जा सकता है, लेकिन पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए राजनीतिक क्षेत्र में उसे अधिकार देना अत्यंत आवश्यक है।

7. धार्मिक स्वतंत्रता (Religious Liberty):
धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके विश्वास के अनुसार किसी धर्म को मानने, पूजा-पाठ करने व धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसलिए व्यक्ति अपने धर्म में किसी दूसरे व्यक्ति या राज्य के हस्तक्षेप को सहन नहीं करता। आधुनिक युग में अधिकांश देशों ने अपने नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया है।

जिन देशों में विभिन्न संप्रदायों के लोग निवास करते हैं, वहां धार्मिक स्वतंत्रता का महत्त्व और भी अधिक होता है। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देने से अल्पसंख्यकों में देश के शासन के प्रति विश्वास बना रहता है और राज्य में स्थिरता आती है। भारत ने इसी भावना के अनुसार धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया है। भारतीय संविधान में धारा 25 से 28 तक प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि राज्य धर्म के आधार पर नागरिकों में कोई मतभेद नहीं करेगा। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है।

8. नैतिक स्वतंत्रता (Moral Liberty):
स्वतंत्रता केवल बाह्य परिस्थितियों द्वारा ही प्रदान नहीं की जा सकती। यह एक मनोवैज्ञानिक भावना है जिसे मनुष्य अनुभव करता है। व्यक्ति केवल तभी पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो सकता है, जब वह नैतिक रूप से भी स्वतंत्र हो। नैतिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी बुद्धि व विवेक के अनुसार तथा अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व को सम्मान प्रदान करते हुए निर्णय ले सके तथा कार्य कर सके।

आदर्शवादी राजनीतिक विचारकों ने नैतिक स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया है। हीगल (Hegel), ग्रीन (Green) व बोसांके (Bosanquet) के अनुसार, “नैतिक स्वतंत्रता केवल राज्य में ही प्राप्त की जा सकती है। राज्य उन परिस्थितियों का निर्माण करता है, जिनमें रहकर मनुष्य नैतिक उन्नति कर सकता है और नैतिक रूप से स्वतंत्र हो सकता है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 3.
स्वतंत्रता की रक्षा के लिए मुख्य उपायों का वर्णन कीजिए।
अथवा
किसी व्यक्ति द्वारा स्वतंत्रता के उपभोग की आवश्यक दो दशाएं बताइए। अथवा स्वतंत्रता के मुख्य सरंक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अति आवश्यक है। स्वतंत्रता का अर्थ नियंत्रण का अभाव नहीं वरन व्यक्ति के विकास के लिए उचित परिस्थितियों का रहना है, इसलिए स्वतंत्रता में वे अधिकार तथा परिस्थितियां शामिल हैं, जिनसे मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के विकास में सहायता मिलती है। राज्य उन अधिकारों को सुरक्षित रखता है।

इसके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे न तो सरकार और न ही लोग किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को नष्ट कर सकें। इसलिए निम्नलिखित साधन स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए अपनाए जाते हैं स्वतंत्रता के संरक्षण (Safeguard of Liberty) स्वतंत्रता के संरक्षण निम्नलिखित हैं

1. प्रजातंत्र की स्थापना (Establishment of Democracy):
लोगों की स्वतंत्रता पर सरकार के रूप का भी प्रभाव पड़ता है। जहाँ राजतंत्र या कुलीनतंत्र होता है, वहां स्वेच्छाचारिता की अधिक संभावना होती है। प्रजातंत्र में सभी लोगों का प्रतिनिधित्व होता है, इसलिए जिन लोगों के अधिकारों पर आक्षेप होता है, उनके प्रतिनिधि विशेष रूप से और सांसद आम तौर से उनके लिए लड़ते हैं।

आम लोग भी ऐसे अवसरों पर भाषण और प्रैस आदि की स्वतंत्रताओं का लाभ उठा सकते हैं तथा स्वतंत्र न्यायालय फैसले में उनकी सहायता कर सकता है। वास्तव में, स्वतंत्रता के दूसरे रक्षा कवच; जैसे प्रैस, पक्षपात रहित न्यायालय, अधिकारों का संवैधानीकरण, मजबूत विरोधी दल, कानून का शासन आदि प्रजातंत्र में ही जीवित रह सकते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए प्रजातांत्रिक सरकार होनी चाहिए।

2. जागरूकता तथा शिक्षा (Vigilance and Education):
स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए लोगों का जागरूक रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए कहा जाता है, “शाश्वत-जागरूकता स्वतंत्रता की कीमत है।” (Eternal vigilance is the price of Liberty.) स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए लोगों को हमेशा देखते रहना चाहिए कि सरकार, कोई संघ या कोई व्यक्ति उनकी स्वतंत्रता पर आक्षेप तो नहीं कर रहा है।

यदि आक्षेप होता है तो तुरंत उसका विरोध करना चाहिए। जागरूकता के लिए और अधिकारों के ज्ञान की प्राप्ति के लिए तथा उन्हें सुरक्षित रखने के ढंग को जानने के लिए शिक्षा अनिवार्य है, क्योंकि अशिक्षित आदमी , अपने अधिकारों को और उन्हें सुरक्षित रखने के ढंग को नहीं समझ सकता है।

3. मौलिक अधिकारों की घोषणा (Declaration of Fundamental Rights):
जनता को स्वतंत्रता प्रदान करने वाले नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों को संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में घोषित कर दिया जाना चाहिए। इससे उनकी स्थायी सुरक्षा हो जाती है और उनका उल्लंघन सुगमता से नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार स्वतंत्रता देश के संविधान द्वारा सुरक्षित कर दी जाती है। वह सरकार द्वारा छीनी भी नहीं जा सकती, क्योंकि वह उनकी पहुंच से बाहर हो जाती है।

4. न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of Judiciary):
किसी भी देश के लोगों की स्वतंत्रता तब तक सुरक्षित नहीं रह सकती, जब तक कि न्यायालय स्वतंत्र न हों। कानून चाहे कितने ही अच्छे हों, परंतु उनसे स्वतंत्रता की रक्षा तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि उन कानूनों को लागू करने वाले न्यायधीश स्वतंत्र, ईमानदार, निडर तथा निष्पक्ष न हों।

न्यायधीशों पर न तो कार्यपालिका का और न ही विधानमंडल का दबाव होना चाहिए, तब ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता व अधिकारों को अधिकारियों के दबाव से या लोगों से सुरक्षित रख सकते हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि वैयक्तिक स्वतंत्रता बहुत कुछ उस पद्धति पर निर्भर है, जिसके द्वारा न्याय किया जाता है।

5. शक्ति का पृथक्करण (Separation of Powers):
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए शक्ति का पृथक्करण (Separation of Power) आवश्यक है। शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन माण्टेस्क्यू ने किया। उसने सरकार के तीनों अंगों के अलग होने पर बल डाला है। न्यायालय तभी स्वतंत्र रह सकते हैं जबकि राज्य में शासन-सत्ता को अलग-अलग अंगों में विभाजित कर दिया जाए अर्थात कानून बनाने वाली, शासन करने वाली तथा न्याय करने वाली संस्थाएं अलग-अलग संगठित हों तथा उनका एक-दूसरे पर कोई दबाव या प्रभाव न हो। इससे जनता की स्वतंत्रता की गारंटी मिल जाती है।

6. शक्ति का विकेंद्रीयकरण (Decentralization of Authority):
स्वतंत्रता की सुरक्षा का एक अन्य उपाय सत्ता का विकेंद्रीयकरण है। जहाँ भी शासन-सत्ता केंद्रित की जाती है, वहां तानाशाही व अनुत्तरदायी शासन स्थापित हो जाता है। अतः राज्य में स्वायत्त-शासन संस्थाओं को अधिक-से-अधिक सत्ताएं सौंपी जाएं। इससे जनता भी राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करती है। स्थानीय संस्थाएं राष्ट्रीय-स्वशासन की पाठशालाएं कहलाती हैं।

इस संदर्भ में लास्की ने विचार व्यक्त किया हैं, “राज्य में शक्तियों का जितना अधिक वितरण होगा, उसकी प्रकृति उतनी अधिक विकेंद्रित होगी और व्यक्तियों में अपनी स्वतंत्रता के लिए उतना ही अधिक उत्साह होगा।” इसी प्रकार डॉ० टॉक्विल ने भी कहा है, “किसी भी राष्ट्र में स्वतंत्र सरकार स्थापित की जा सकती है, लेकिन स्वशासन की संस्थाओं के बिना लोगों में स्वतंत्रता की भावना विकसित नहीं हो सकती है।”

7. आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय (Economic Equality and Social Justice):
यह बिल्कुल उचित कहा गया है कि स्वतंत्रता आर्थिक समानता के बिना बिल्कुल व्यर्थ है (Liberty without Economic Equality is a farce)। स्वतंत्रता, वास्तविकता में साधन है, साध्य नहीं। स्वतंत्रता की आवश्यकता व्यक्तित्व के विकास और समान अवसरों के उपभोग के लिए पड़ती है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर सके और अपने विचारानुसार जीवन के ध्येय की प्राप्ति कर सके।

परंतु यह सब आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय के बिना संभव नहीं, क्योंकि सभी अधिकारों से पूरा लाभ उठाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है और समाज के भेदभाव भी उसमें बाधक सिद्ध हो सकते हैं। इस तरह के तत्त्व एक देश में होने से वहां के लोगों की स्वतंत्रता पूरी तरह से सुरक्षित रह सकती है। प्रत्येक देश में इन सारे तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है। सरकार के रूप के अनुसार इनमें थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है, परंतु इनमें से अधिकतर प्रत्येक देश में होने चाहिएं।

8. कानून (Law) कानून भी स्वतंत्रता की सुरक्षा में बहुत अधिक सहायता करता है हालांकि कभी-कभी कानून स्वतंत्रता का विरोध भी करता है परंतु साधारणतः यह स्वतंत्रता को सुरक्षित ही रखता है। समान स्वतंत्रता कानून के बिना असंभव है। कानून अधिकारों को सरकार तथा दूसरे लोगों के आक्षेप से बचाता है। जो लोग दूसरे लोगों के अधिकारों को छीनने के लिए कानून को तोड़ते हैं, उन पर मुकद्दमे चलाए जाते हैं और न्यायपालिका उन्हें दंड देती है। जो कानून स्वतंत्रता को सुरक्षित नहीं रखता और असमानता फैलाता है, वह अच्छा नहीं समझा जाता और कई बार ऐसे कानूनों का विरोध किया जाता है।

आधुनिककाल में ‘कानून का शासन’ (Rule of Law) सबसे अच्छा समझा जाता है। कानून के सामने सब समान होने चाहिएँ और सब लोगों पर, साधारण व्यक्ति से लेकर प्रधानमंत्री तक एक ही कानून लागू होना चाहिए। किसी व्यक्ति या वर्ग को कोई विशेषाधिकार (Privileges) नहीं दिए जाने चाहिएं। कानून के शासन का यह भी अर्थ है कि किसी व्यक्ति को बिना कानून तोड़े हुए दंड नहीं दिया जाना चाहिए।

9. सशक्त विरोधी दल (Strong Opposition Party):
स्वतंत्रता की सुरक्षा में विरोधी दल का भी बड़ा भारी हाथ होता है। जब कभी भी शासक दल लोगों के अधिकारों में हस्तक्षेप करता है, उसी समय विरोधी दल संसद में तथा संसद से बाहर उसकी आलोचना करता है। आलोचना से सरकार को भी जनमत के खिलाफ होने का भय रहता है। यदि विरोधी दल मज़बूत है तो शासक दल को आने वाले निर्वाचनों में हार जाने का भय हो सकता है। इस प्रकार मज़बूत विरोधी दल स्वतंत्रता की सुरक्षा में सहायक सिद्ध होता है।

10. स्वतंत्र प्रैस (Free Press):
स्वतंत्र प्रैस भी लोगों की स्वतंत्रताओं को सुरक्षित रखने के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। यदि प्रैस के ऊपर कोई दबाव और अनुचित नियंत्रण नहीं है तो प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को स्वतंत्रता-पूर्वक प्रकट कर सकता है। यदि कभी किसी व्यक्ति या संघ के अधिकारों पर कोई आक्षेप होता है तो प्रैस उस मामले के सत्य को प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचा सकता है।

जनमत बनाने में भी स्वतन्त्र प्रैस की अहम भूमिका होती है। स्वतंत्र प्रेस से सरकार भी डरती है जिसके कारण वह कोई ऐसा कार्य नहीं करती जिससे लोगों के अधिकारों को कोई ठेस पहुंचे। प्रैस की स्वतंत्रता में प्रेस सरकार के तथा धनी लोगों के अनुचित प्रभाव से मुक्त होनी चाहिए तथा प्रैस को भी रंग, जाति, धर्म तथा भाषा आदि के आधार पर कोई पक्षपात नहीं करना चाहिए।

निष्कर्ष (Conclusion)-दी गई चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए रक्षा कवचों का होना अनिवार्य है। स्वतंत्रता की रक्षा पर लोकतंत्र का भविष्य निर्भर करता है। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जो लोगों को जागरूक व कर्त्तव्यपरायण बनाती है। लोगों की कर्त्तव्यपरायणता और जागरूकता पर स्वतंत्रता की सुरक्षा हो सकती है। ऐसा होने से शासक वर्ग व्यक्तियों की स्वतंत्रता का अपहरण करने का दुःसाहस नहीं कर सकेंगे।

प्रश्न 4.
कानून व स्वतंत्रता के आपसी संबंधों की विवेचना कीजिए। अथवा कानून और स्वतंत्रता में क्या संबंध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता और कानून के संबंधों का विषय इतना महत्त्वपूर्ण है कि अनेक विद्वानों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ है। विद्वानों ने स्वतंत्रता और कानून के संबंध के विषय में दो दृष्टिकोण व्यक्त किए हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है

(क) स्वतंत्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं (Liberty and Law opposed to each other):
पहले दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति कानून व स्वतंत्रता को एक-दूसरे का विरोधी मानती है। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में अधिकांश राजनीतिक विचारक यह मत रखते हैं कि स्वतंत्रता और कानून में परस्पर विरोध है। अराजकतावादियों तथा व्यक्तिवादियों का यह भी मत रहा है कि स्वतंत्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी हैं।

जितने अधिक कानून होंगे, उतनी कम स्वतंत्रता होगी। राज्य का कार्य-क्षेत्र इतना व्यापक है कि मनुष्य को हर कदम पर कानून रोकता है। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है और उसका काम करने का उत्साह मारा जाता है। इसलिए इनका मत है कि कानून स्वतंत्रता का विरोधी है। इस संबंध में विलियम गोडविन (Villiam Godwin) ने कहा है, “कानून स्वतंत्रता के लिए सबसे अधिक हानिकारक संस्था है।” इसी प्रकार कोकर (Coker) का भी यही विचार है, “राजनीतिक सत्ता अनावश्यक तथा अवांछनीय है।” इन विचारकों के मत निम्नलिखित हैं

1. व्यक्तिवादियों का मत (View of Individualists):
18वीं शताब्दी में व्यक्तिवादियों ने व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर कि राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक प्रतिबंध है, इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रह सकती है, जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग कम-से-कम करे, अर्थात उनके मतानुसार, “वह सरकार अच्छी है जो कम-से-कम शासन या कार्य करती है।” इसी प्रकार जे०एस० मिल (J.S. Mill) ने भी कहा है, “सरकार का हस्तक्षेप व्यक्ति के शारीरिक अथवा मानसिक विकास के कुछ-न-कुछ भाग को अवरुद्ध कर देता है।”

2. अराजकतावादियों का मत (View of Anarchists):
अराजकतावादियों के अनुसार राज्य प्रभुसत्ता का प्रयोग करके नागरिकों की स्वतंत्रता को नष्ट करता है, अतः अराजकतावादियों ने राज्य को समाप्त करने पर जोर दिया ताकि राज्य-विहीन समाज की स्थापना की जा सके। इसी संदर्भ में अराजकतावादी प्रोधा (Prondha) ने विचार व्यक्त किया है, “मनुष्य पर मनुष्य का किसी भी रूप में शासन अत्याचार है।”

3. सिंडीकलिस्ट का मत (View of Syndicalists):
सिंडीकलिस्ट अराजकतावादियों की तरह राज्य को पूर्णतः समाप्त करना चाहते हैं, क्योंकि उनके मतानुसार राज्य सदैव पूंजीपतियों का समर्थन करता है जिससे व्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस प्रकार सिंडीकलिस्ट राज्य और सरकार को समाप्त करके उसके स्थान पर श्रमिक संघों का शासन स्थापित करने के पक्ष में हैं। श्रमिक संघों की व्यवस्था में व्यक्तियों की स्वतंत्रता अधिक सुरक्षित रहती है।

4. बहुत्ववादियों का मत (View of Pluralists):
बहुत्ववादियों का विचार है कि राज्य के पास जितनी अधिक सत्ता होती है, उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी ही कम होती है, इसलिए वे राज्य सत्ता को विभिन्न समुदायों में बांटने के पक्ष में हैं। इस प्रकार बहुत्ववादी राज्य को भी एक संस्था मानते हैं और उसे अन्य संस्थाओं से अधिक शक्ति देने के पक्ष में नहीं हैं। अगर राज्य को अधिक शक्ति दी गई तो उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी। इस विचार का समर्थन करते हुए लास्की (Laski) महोदय ने कहा है, “असीमित और अनत्तरदायी राज्य मानवता के हितों के विरुद्ध है।”

(ख) स्वतंत्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं (Liberty and Law are not opposed to Each Other) स्वतंत्रता और कानून को एक-दूसरे का विरोधी होने का विचार ऐसे लेखकों ने दिया जो स्वतंत्रता के नकारात्मक पक्ष में विश्वास रखते थे। यह विचार उस समय व्यक्त किया गया जिस समय तानाशाही प्रवृत्तियां पूरे जोर पर थीं, परंतु जैसे-जैसे लोकतंत्रात्मक प्रवृत्तियां सामने आईं तो राजनीतिक विचारकों ने यह स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया कि कानून और स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।

अतः स्वतंत्रता और कानून के संबंध के विषय में दूसरा दृष्टिकोण यह है कि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के बिना खतरे में पड़ जाएगा। इस दृष्टिकोण के समर्थक समाजवादी और आदर्शवादी हैं। इन विचारकों का कहना है कि कानून स्वतंत्रता का हनन नहीं करता, बल्कि उसकी रक्षा करता है।

इसलिए लॉक (Locke) महोदय ने ठीक ही कहा है, “जहाँ कानून नहीं है, वहां स्वतंत्रता नहीं है।” हॉकिंस (Hockins) ने भी लिखा है, “व्यक्ति जितनी अधिक स्वतंत्रता चाहता है, उतना ही उसे सत्ता के आगे झुकना पड़ता है।” इस दृष्टिकोण का विस्तारपूर्वक वर्णन निम्नलिखित है

1. कानून स्वतंत्रता का रक्षक है (Law safeguards Liberty):
अराजकतावादियों तथा अन्य विचारकों का मत सही नहीं है। कानून स्वतंत्रता का विरोधी तभी दिखाई देता है, जब स्वतंत्रता का अर्थ ही स्वेच्छाचारिता लगाया जाता है। स्वतंत्रता को जब मनमाना काम करने की छूट समझ लिया जाता है, तब बुरे कामों की रुकावट के लिए जो कानून नज़र आते हैं, वे विरोधी ही कहलाएंगे।

व्यक्ति को जब कानून चोरी-डकैती, लूटमार, जुआ, शराबखोरी नहीं करने देता तो ऐसे व्यक्ति कानून को उनकी स्वतंत्रता का बाधक समझेंगे ही, परंतु भले-मानसों की सुरक्षा तथा उनकी सुविधा के लिए ऐसे कानून बनाना राज्य के लिए जरूरी है। यह व्यक्ति के हित में होता है कि मनमाने काम करने की स्वतंत्रता पर सीमाएं लगाई जाएं, नहीं तो व्यक्ति एक-दूसरे के दायरे में कदम आघात करेंगे। इसलिए स्वतंत्रता का अर्थ सभी के लिए सीमित स्वाधीनता है।

अपने दायरे में रहकर अपना विकास करना ही स्वतंत्रता है, जिसका अभिप्राय है कि सब पर कुछ प्रतिबंध लगाए जाएं, जिससे वे एक-दूसरे की स्वतंत्रता न छीन सकें। ऐसे प्रतिबंध किसी व्यक्ति या संस्था के निजी प्रतिबंध नहीं हो सकते। यह कार्य तो राज्य ही अपनी शक्ति द्वारा कर सकता है। राज्य अपनी सत्ता कानून द्वारा प्रदर्शित करता है, इसलिए कानून सबकी स्वतंत्रता के लिए आवश्यक होते हैं। कानून स्वतंत्रता के विरोधी नहीं, बल्कि उसकी पहली शर्त होते हैं। वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं।

इसलिए लॉक (Locke) ने कहा था, “जहाँ कानून नहीं होते, वहां स्वतंत्रता नहीं होती।” जब तक हम कानून को बाहरी बंधन के रूप में मानते हैं तब तक उसके प्रति विरोध और असंतोष रहता उसे उचित समझकर अपनी अंतरात्मा से उसे स्वीकार कर लें तो वह स्वतंत्रता का सहायक नज़र आता है। जैसे रूसो ने कहा है, “उस कानून का पालन, जिसे हम अपने लिए बनाते हैं, स्वतंत्रता कहलाता है।”

2. कानून स्वतंत्रता की पहली शर्त है (Law is the first condition of Liberty):
जो विचारक स्वतंत्रता का सकारात्मक अर्थ स्वीकार करते हैं और स्वतंत्रता पर उचित बंधनों को आवश्यक मानते हैं, वे कानून को स्वतंत्रता की सुरक्षा की पहली शर्त समझते हैं और सत्ता को आवश्यक मानते हैं। हॉब्स, जो निरंकुशतावादी (Absolutist) माना जाता है, स्वीकार करता है कि कानून के अभाव में व्यक्ति हिंसक पशु बन जाता है।

अतः सत्ता व कानून का होना आवश्यक है, ताकि व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक जीवन बिता सके। मॉण्टेस्क्यू (Montesquieu) ने स्वतंत्रता की परिभाषा करते हुए कहा है, “स्वतंत्रता वे सभी कार्य करने का अधिकार है, जिनको करने की अनुमति कानून देता है।” रूसो (Rousseau) ने सामान्य इच्छा (General Will) को मानने को ही वास्तविक स्वतंत्रता कहा है। विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “स्वतंत्रता केवल वहीं सुरक्षित है, जहाँ बंधन हैं।”

रिचि (Ritchie) के स-विकास के सुअवसर के रूप में स्वतंत्रता को संभव बनाते हैं और सत्ता के अभाव में इस प्रकार की स्वतंत्रता संभव नहीं हो सकती।” स्वतंत्रता की प्रकृति में ही प्रतिबंध हैं और प्रतिबंध इसलिए आवश्यक हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर व सुविधाएं प्राप्त हो सकें और एक व्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता या सामाजिक हित में बाधक न बन सके।

स्वतंत्रता को वास्तविक रूप देने के लिए आवश्यक है कि उसे सीमित किया जाए। समाज में रहते हुए शांतिमय जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के व्यवहार पर कुछ नियंत्रण लगाए जाएं। नियंत्रणों से मर्यादित व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है और समाज की एक लाभदायक इकाई सिद्ध हो सकता है। अरस्तू (Aristotle) ने ठीक ही कहा है, “मनुष्य अपनी पूर्णता में सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है, लेकिन जब वह कानून व न्याय से पृथक हो जाता है तब वह सबसे निकृष्ट प्राणी बन जाता है।”

3. आदर्शवादियों के विचार (View of Idealist) आदर्शवादी (Idealist) विचारकों ने कानून व स्वतंत्रता में घनिष्ठ संबंध स्वीकार किया है और इनके अनुसार स्वतंत्रता न केवल कानून द्वारा सुरक्षित है, अपितु कानून की देन है। हीगल (Hegel) के अनुसार, “राज्य में रहते हुए कानून के पालन में ही स्वतंत्रता निहित है।” हीगल ने राज्य को सामाजिक नैतिकता की साक्षात मूर्ति कहा है और कानून चूंकि राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति है। अतः नैतिक रूप से भी व्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के पालन में ही निहित है।

टी०एच० ग्रीन (T.H. Green) के अनुसार, “हमारे अधिकांश कानून हमारी सामाजिक स्वतंत्रता को कम करते हैं, परंतु इनका उद्देश्य ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करना है जिनके अंतर्गत व्यक्ति अपने गुणों का पूर्ण विकास कर सकता है।” स्पष्ट है कि स्वतंत्रता व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है और व्यक्तित्व का विकास कानून के पालन द्वारा ही हो सकता है। रूसो ने भी कहा है, “ऐसे कानून का पालन, जो हम स्वयं अपने लिए निश्चित करते हैं, वही स्वतंत्रता है।”

4. क्या प्रत्येक कानून स्वतंत्रता का रक्षक है? (Does every law protect the Liberty?)-प्रत्येक कानून स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करता। कई बार ऐसे कानूनों का निर्माण किया जाता है जो शासकों के हित में होते हैं, न कि समस्त जनता के हित में। ब्रिटिश साम्राज्य के समय भारत में कई बार ऐसे कानूनों का निर्माण किया गया था, जिनका उद्देश्य भारतीयों की स्वतंत्रता को नष्ट करना होता था।

तानाशाही राज्य में ऐसे कानूनों का निर्माण किया जाता है। नागरिकों को उन कानूनों का पालन करना चाहिए जो नैतिकता पर आधारित हों तथा समाज के हित में हों। परंतु नागरिकों को शांतिपूर्वक उन कानूनों का विरोध करना चाहिए जो उनकी स्वतंत्रता को नष्ट करने के लिए पास किए गए हों।

निष्कर्ष (Conclusion) दिए गए विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कानून स्वतंत्रता का विरोधी है या सहयोगी, यह परिस्थितियों पर निर्भर है। यदि कानून जनता के हित को ध्यान में रखकर बनाया जाता है तो वह स्वतंत्रता का सहयोगी होता है और स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है परंतु जब कानून थोड़े-से लोगों के हित को ध्यान में रखकर बनाए जाएं अथवा शासकों के हित में बनाए जाएं तो ऐसे कानून स्वतंत्रता के विरोधी होते हैं। स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रजातंत्र की स्थापना सर्वोत्तम साधन है, क्योंकि प्रजातंत्र में जनता स्वयं ही शासक और शासित होती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. लेटिन भाषा के लिबर (Liber) शब्द का शाब्दिक अर्थ निम्नलिखित में से है
(A) बंधनों का अंकुश
(B) बंधनों से मुक्ति
(C) प्रतिबंधों की उपस्थिति
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(B) बंधनों से मुक्ति

2. “जिस तरह बदसूरती का न होना स्वतंत्रता नहीं है, उसी तरह बंधनों का होना स्वतंत्रता नहीं है।” यह कथन किस विद्वान का है?
(A) बार्कर
(B) लास्की
(C) हरबर्ट स्पेंसर
(D) ग्रीन
उत्तर:
(A) बार्कर

3. नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ निम्नलिखित में से है
(A) स्व-कार्यों में पूर्ण स्वतंत्रता
(B) व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के कारण कानून एक बुराई है
(C) सरकार का सीमित कार्यक्षेत्र
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

4. सकारात्मक स्वतंत्रता की विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) अनुचित प्रतिबंधों के विरुद्ध जबकि उचित प्रतिबंधों का समर्थन
(B) कानून स्वतंत्रता को नष्ट नहीं बल्कि रक्षा करते हैं
(C) स्वतंत्रता अधिकारों के साथ जुड़ी हुई है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. “मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, परंतु प्रत्येक स्थान पर वह बंधन में बंधा हुआ है।” यह कथन निम्न में से है
(A) रूसो
(B) हॉब्स
(C) लॉक
(D) मिल
उत्तर:
(A) रूसो

6. राष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ निम्न में से है
(A) एक राष्ट्र को विदेशी नियंत्रण से पूर्णतः स्वतंत्रता का प्राप्त होना
(B) एक राष्ट्र की विदेश नीति पर अन्य राष्ट्र का नियंत्रण होना
(C) एक राष्ट्र के आंतरिक मामलों में अन्य राष्ट्रों का हस्तक्षेप न होना
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(A) एक राष्ट्र को विदेशी नियंत्रण से पूर्णतः स्वतंत्रता का प्राप्त होना

7. निम्नलिखित में से स्वतंत्रता का संरक्षण माना जाता है
(A) कानून का शासन
(B) मौलिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था
(C) स्वतंत्र प्रेस
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. स्वतंत्रता की सुरक्षा हेतु निम्नलिखित उपाय उपयुक्त नहीं है
(A) निरंकुशतंत्र की स्थापना
(B) सशक्त विरोधी सत्तापक्ष
(C) न्यायपालिका एवं विधानपालिका में पृथक्करण
(D) प्रजातंत्र की स्थापना
उत्तर:
(A) निरंकुशतंत्र की स्थापना

9. “स्वतंत्रता अति शासन का उल्टा रूप है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है
(A) मिल
(B) गैटेल
(C) लास्की
(D) रूसो
उत्तर:
(C) लास्की

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

10. “व्यक्ति जितनी अधिक स्वतंत्रता चाहता है, उतना ही उसे सत्ता के आगे झुकना पड़ता है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है?
(A) हॉकिन्स
(B) लास्की
(C) प्रोंधा
(D) मिल
उत्तर:
(A) हॉकिन्स

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. अंग्रेजी भाषा के लिबर्टी (Liberty) शब्द की उत्पत्ति लिबर (Liber) शब्द से हुई है। यह शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
लेटिन भाषा से।

2. “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
बाल गंगाधर तिलक का।

3. सामाजिक समझौता (Social Contract) नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
रूसो।

4. “जहाँ कानून नही होते, वहाँ स्वतंत्रता नहीं होती।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
जॉन लॉक।

रिक्त स्थान भरें

1. अंग्रेजी भाषा के ‘लिबर्टी’ शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के …………. शब्द से हुई है।
उत्तर:
लिबर

2. …………… विचारधारा के विद्वान कानून को स्वतंत्रता का शत्रु नहीं मानते।
उत्तर:
समाजवादी

3. “पूँजीवाद के उदय से मजदूर लगातार जंजीरों में जकड़ा हुआ है।” यह कथन ……………. का है।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई और यह किस भाषा का है?
उत्तर:
राजनीति शब्द की उत्पत्ति ‘पोलिस’ (Polis) शब्द से हुई है और यह यूनानी भाषा का शब्द है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान का पितामह किसको माना जाता है और उसका संबंध किस देश से था?
उत्तर:
राजनीति विज्ञान का पितामह अरस्तू को माना जाता है। अरस्तू का संबंध यूनान देश से था।

प्रश्न 3.
राजनीति को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ (Master Science) की संज्ञा किसने दी थी?
उत्तर:
राजनीति को सर्वोच्च विज्ञान की संज्ञा अरस्तू ने दी थी।

प्रश्न 4.
राजनीति से संबंधित विभिन्न दृष्टिकोणों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राजनीति से संबंधित मुख्यतः तीन दृष्टिकोण हैं-

  • प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण,
  • परंपरागत दृष्टिकोण,
  • आधुनिक दृष्टिकोण।

प्रश्न 5.
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण के किन्हीं दो मुख्य समर्थकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
अरस्तू और प्लेटो को प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण का समर्थक माना जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 6.
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की तीन मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • नगर राज्यों से संबंधित है,
  • राज्य और समाज में भेद नहीं करता,
  • आदर्श राज्य की परिकल्पना करता है।

प्रश्न 7.
राजनीति की कोई एक परंपरागत परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
लॉर्ड एक्टन के अनुसार, “राजनीति शास्त्र राज्य व उसके विकास के लिए अनिवार्य दशाओं से संबंधित है।”

प्रश्न 8.
किन्हीं दो विद्वानों के नाम लिखें जो राजनीति को राज्य का अध्ययन मानते हैं।
उत्तर:
गार्नर व लॉर्ड एक्टन राजनीति को केवल राज्य का अध्ययन मानते हैं।

प्रश्न 9.
राजनीतिक सिद्धांत के आधुनिक दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर:
आधुनिक दृष्टिकोण में औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के स्थान पर अनौपचारिक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 10.
आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति के क्षेत्र के मूल में क्या आता है?
उत्तर:
आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति के क्षेत्र में शक्ति का अध्ययन आता है। यह मानव व्यवहार का भी अध्ययन करता है।

प्रश्न 11.
पोलिटिक्स (Politics) नामक पुस्तक किस विद्वान ने लिखी थी और किस देश का निवासी था?
उत्तर:
पोलिटिक्स नामक पुस्तक अरस्तू ने लिखी थी और वह यूनान देश का निवासी था।

प्रश्न 12.
गैर-राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति के हस्तक्षेप के दो शीर्षकों के नाम लिखें।
उत्तर:
गैर-राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति के हस्तक्षेप के मुख्य दो उदाहरण हैं-(1) घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप, (2) महिलाओं को संपत्ति के अधिकार की प्राप्ति।

प्रश्न 13.
सिद्धांत से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सिद्धांत से अभिप्राय एक ऐसी मानसिक दृष्टि से है जो कि एक वस्तु के अस्तित्व एवं उसके कारणों को प्रकट करती है।

प्रश्न 14.
‘सिद्धांत’ शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई और यह किस भाषा का है?
उत्तर:
‘सिद्धांत’ शब्द की उत्पत्ति ‘थ्योरिया’ शब्द से हुई और यह ग्रीक भाषा का है।

प्रश्न 15.
सिद्धांत की कोई एक परिभाषा दें।।
उत्तर:
गिब्सन के अनुसार, “सिद्धांत ऐसे व्यक्तियों का जो विभिन्न जटिल तरीकों के द्वारा आपस में एक दूसरे से संबंधित हो एक समूह का संग्रह है।”

प्रश्न 16.
राजनीतिक सिद्धांत के मुख्य तीन तत्त्वों के नाम लिखें।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत के मख्य तीन तत्त्व-(1) अवलोकन. (2) व्याख्या और (3) मल्यांकन हैं।

प्रश्न 17.
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • यह मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन है,
  • यह समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 18.
राजनीतिक सिद्धांत के परंपरागत तथा आधुनिक विचारों में दो मुख्य अंतर लिखें।[
उत्तर:

  • परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत संस्थाओं से जबकि आधुनिक राजनीति सिद्धांत एक प्रयोग सिद्ध अध्ययन है।
  • परंपरावादी आदर्शवादी है जबकि आधुनिक यथार्थवादी है।

प्रश्न 19.
राजनीतिक सिद्धांत का आधुनिक दृष्टिकोण किस बात पर अधिक बल देता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का आधुनिक दृष्टिकोण विस्तृत है। यह यथार्थवाद एवं व्यावहारिक अध्ययन पर भी बल देता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 20.
राजनीतिक सिद्धांत की कोई दो महत्त्वपूर्ण उपयोगिताएं लिखें।
उत्तर:

  • यह भविष्य की योजना संभव बनाता है,
  • यह राजनीतिक वास्तविकताओं को समझाने में सहायक है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘राजनीति’ आधुनिक युग में सबसे अधिक प्रयोग होने वाला शब्द है। इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने इस शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। साधारण अर्थों में इस शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं और प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिन्हें अच्छा नहीं समझा जाता है; जैसे विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए या फिर अपने मित्रों के साथ राजनीति नहीं खेलनी चाहिए अर्थात् राजनीति शब्द का प्रयोग विकृत अर्थ में किया जाता है।

वर्तमान लोक जीवन में यह शब्द बड़ा अप्रतिष्ठित हो गया है और इससे छल, कपट, बेईमानी आदि का बोध होता है। राजनीति का उपरोक्त अर्थ संकुचित व विकृत है, परंतु राजनीति शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। राजनीति एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम सभी किसी-न-किसी रूप में अवश्य भाग लेते हैं। लोकतंत्र में रहते हुए राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता।

राजनीति अरस्तू के समय से ही समाज में है। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में अनेक प्रकार के संघ, दल और समुदायों का निर्माण करता है। इन संस्थाओं या संगठनों के संघर्ष से समाज में मतभेद पैदा हो जाते हैं, मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते क्रांति या शक्ति का सहारा न लेकर शांतिपूर्ण संघर्ष द्वारा अपने मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। समाज के इस संघर्ष से उत्पन्न क्रिया को राजनीति कहा जाता है।

प्रश्न 2.
राजनीति की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
यद्यपि ‘राजनीति’ शब्द को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है फिर भी सुविधा की दृष्टि से राजनीति की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  • हरबर्ट जे० स्पाइरो (Herbert J. Spiro) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।”
  • डेविड ईस्टन (David Easton) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति सीमित (मानवीय, भौतिक और आध्यात्मिक) साधनों का सामाजिक इकाई में (चाहे नगर हो, राज्य हो या संगठन) बंटवारा करता है।”

प्रश्न 3.
राजनीति के प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
यूनानी दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. नगर-राज्यों से संबंधित-प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण नगर-राज्य को राजनीति के अध्ययन का प्रमुख विषय मानता है। नगर-राज्यों का आकार बहुत छोटा होता था। जनसंख्या भी सीमित होती थी, परंतु नगर-राज्य अपने-आप में निर्भर और स्वतंत्र होते थे। नगर-राज्य का उद्देश्य लोगों को अच्छा जीवन प्रदान करना था।

2. सामुदायिक जीवन में भाग लेना जरूरी-यूनानी विचारकों के अनुसार प्रत्येक नागरिक के लिए राजनीति में भाग लेना आवश्यक है। इसलिए अरस्तू ने नागरिक का अर्थ बताते हुए कहा था कि वह व्यक्ति नागरिक है जो राज्य के कानूनी और न्यायिक कार्यों में भाग लेता है, लेकिन अरस्तू ने नागरिकों को राजनीतिक जीवन में भाग लेने तक सीमित रखा अर्थात् समाज के कुछ ऐसे वर्ग थे जिन्हें राजनीति में या राज्य के कार्यों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था; जैसे श्रमिकों, गुलामों और स्त्रियों को राज्य . के कार्यों में भाग लेने के अधिकार से वंचित रखा गया था।

3. राज्य और समाज में भेद नहीं यूनानी दार्शनिकों ने राज्य और समाज में कोई अंतर नहीं किया। दोनों शब्दों का प्रयोग उन्होंने एक-दूसरे के लिए किया है। उनके अनुसार, राज्य व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष; सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक से संबंधित है।

4. आदर्श राज्य यूनानी विचारकों के लिए राज्य एक नैतिक संस्था है। मनुष्य केवल राज्य में रहकर ही नैतिक जीवन व्यतीत करता है। राज्य द्वारा ही नागरिकों में नैतिक गुणों का विकास किया जाता है। इसलिए यूनानी एक आदर्श राज्य की स्थापना करना चाहते थे।

प्रश्न 4.
राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • प्राचीन लेखक संस्थाओं की संरचनाओं और सरकार के गठन पर विचार करते हैं। वे यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि संस्थाओं का उदय कैसे हुआ।
  • परंपरागत विचारक आदर्शवादी हैं। वे देखते हैं कि क्या होना चाहिए? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि क्या है? अर्थात् वह राजनीतिक मूल्यों, नैतिकता व सात्विक विचारों पर अधिक बल देते हैं। इसमें कल्पना अधिक है।
  • परंपरावादियों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत अधिक है। उसमें चिंतन और कल्पना है। ये दार्शनिक व विचारात्मक पद्धति में विश्वास करते हैं।
  • परंपरावादी विचारक राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानते हैं।

प्रश्न 5.
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. सीमित साधनों का आबंटन राजनीति है समाज में मूल्य-भौतिक साधन; जैसे सुख-सुविधाएँ, लाभकारी पद, राजनीतिक पद आदि सीमित हैं। इन सीमित साधनों को समाज में बांटना है। अतः सीमित साधनों को पाने के लिए संघर्ष होता है तथा एक होड़-सी लग जाती है। प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह द्वारा साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। साधनों के बंटवारे की इसी प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है।

2. समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण ही राजनीति है-परंपरावादियों ने राजनीति को राज्य व शासन का अध्ययन मात्र माना है। लेकिन आधुनिक विचारक न केवल राज्य व शासन का अध्ययन करते हैं, बल्कि उन सभी पहलुओं का भी अध्ययन करते हैं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष रूप से राज्य व शासन से होता है अर्थात वह समुदाय, समाज, श्रमिक संगठन, दबाव-समूह व हित-समूह आदि का अध्ययन करते हैं।

3. राजनीति शक्ति का अध्ययन है-आधुनिक लेखकों ने राजनीति की शक्ति के अध्ययन में अधिक रुचि प्रकट की है। उन्होंने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष कहा है। इन लेखकों में से केटलिन, लासवैल, वाइज़मैन, मैक्स वेबर और राबर्ट डहल उल्लेखनीय हैं।

4. राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है-आधुनिक लेखक राजनीति को एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानते।जैसे कार्ल मार्क्स ने राजनीति को वर्ग-संघर्ष माना है। उसके अनुसार समाज सदा ही दो वर्गों में विभाजित रहा है शासक वर्ग व शासित वर्ग।

प्रश्न 6.
क्या गैर-राजनीति क्षेत्र में राजनीति का हस्तक्षेप है? व्याख्या करें।
उत्तर:
साधारणतः यह धारणा बन चुकी है कि राजनीति आम जीवन को प्रभावित नहीं करती, लेकिन आधुनिक समय में इस धारणा में परिवर्तन हुआ है और यह सोचा जाने लगा है कि राजनीति सामान्य जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है। 19वीं शताब्दी के आधुनिकीकरण ने तथा जन-आंदोलनों ने राजनीति के क्षेत्र का विस्तार किया है। अब राजनीति लगभग प्रत्येक घर में प्रवेश कर चुकी है। अब हम कुछ ऐसे क्षेत्रों का अध्ययन करेंगे जो कभी राजनीति की परिधि से बाहर माने जाते थे, लेकिन अब के राजनीति से अछूते नहीं हैं।

1. घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप-पारिवारिक मामलों को कभी राजनीति से पूर्ण रूप से स्वतंत्र माना जाता और घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप न के बराबर था। लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घरेलू मामलों में राजनीति के हस्तक्षेप का आरंभ हुआ।

2. महिलाओं को संपत्ति में अधिकार की प्राप्ति-भारतीय संसद ने संविधान में संशोधन कर हिंदू संपत्ति उत्तराधिकार अधिनियम में सन् 2005 में संशोधन किया। अब महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति में बराबर का अधिकार प्राप्त हो गया है।

3. विभिन्न अधिकारों के क्षेत्र में बढ़ोतरी-प्रारंभ में व्यक्ति को केवल कर्त्तव्य-पालन की ही शिक्षा मिलती थी। उसके अधिकार बड़े सीमित थे। लेकिन राजनीति के हस्तक्षेप से व्यक्तियों के अधिकारों में बढ़ोतरी हुई है। जैसे उसे अब दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। उसे विदेश भ्रमण का भी अधिकार प्राप्त हो चुका है।

4. शिक्षा का अधिकार-किसी भी समाज की उन्नति व विकास शिक्षा पर निर्भर करता है। यदि नागरिक शिक्षित है तो निश्चित रूप से समाज अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्त होता है। इसलिए निरक्षरता को दूर करने के लिए संविधान में संशोधन कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी रख दिया है।

प्रश्न 7.
पर्यावरण के संरक्षण में राजनीति का हस्तक्षेप कैसे है? व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीति पर्यावरण के संरक्षण को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। विकास और पर्यावरण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यदि पर्यावरण विकास के लिए आधार प्रदान करता है तो विकास पर्यावरण के रख-रखाव, इसके पोषण और समृद्धि में सहायता देता है। पर्यावरण विकास की प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण सहायक तत्व है।

यही नहीं मानव जीवन के लिए पर्यावरण अति-आवश्यक है और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए भारतीय संसद ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक अधिनियमों वायु प्रदूषण अधिनियम, जल प्रदूषण अधिनियम, पर्यावरण प्रदूषण अधिनियम आदि का निर्माण किया है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक सिद्धांत की कोई चार परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत की चार परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

1. डेविड हैल्ड (David Held):
के अनुसार, “राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक जीवन से संबंधित अवधारणाओं और व्यापक अनुमानों का एक ऐसा ताना-बाना है जिसमें शासन, राज्य और समाज की प्रकृति व लक्ष्यों और मनुष्यों की राजनीतिक क्षमताओं का विवरण शामिल है।”

2. जॉन प्लेमैंनेज़ (John Plamentaz):
के अनुसार, “एक सिद्धांतशास्त्री राजनीति की. शब्दावली का विश्लेषण और स्पष्टीकरण करता है। वह उन सभी अवधारणाओं की समीक्षा करता है जो कि राजनीतिक बहस के दौरान प्रयोग में आती हैं। सीमाओं के उपरान्त अवधारणाओं के औचित्य पर भी प्रकाश डाला जाता है।”

3. कोकर (Coker):
के अनुसार, “जब राजनीतिक शासन, उसके रूप एवं उसकी गतिविधियों का अध्ययन केवल अध्ययन या तुलना मात्र के लिए नहीं किया जाता अथवा उनको उस समय के और अस्थायी प्रभावों के संदर्भ में नहीं आंका जाता, बल्कि उनको लोगों की आवश्यकताओं, इच्छाओं एवं उनके मतों के संदर्भ में घटनाओं को समझा व इनका मूल्य आंका जाता है, तब हम इसे राजनीतिक सिद्धांत कहते हैं।” ।

4. एण्ड्रयु हैकर (Andrew Hecker):
के शब्दों में, “राजनीतिक सिद्धांत एक ओर बिना किसी पक्षपात के अच्छे राज्य तथा समाज की तलाश है तो दूसरी ओर राजनीतिक एवं सामाजिक वास्तविकताओं की पक्षपात रहित जानकारी का मिश्रण है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 9.
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की कोई तीन विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विश्लेषणात्मक अध्ययन आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। वे संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहार के विश्लेषण पर बल दिया।

2. अध्ययन की अन्तर्शास्त्रीय पद्धति-आधुनिक विद्वानों की यह मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उपव्यवस्थाओं (Multi-Systems) में से एक है और इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक उपव्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है।

इसीलिए किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने के लिए उस समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

3. आनुभाविक अध्ययन-राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीति को शुद्ध विज्ञान बनाने के लिए राजनीतिक तथ्यों के माप-तोल पर बल दिया है। यह तथ्य-प्रधान अध्ययन है जिसमें वास्तविकताओं का अध्ययन होता है। इससे उन्होंने नए-नए तरीके अपनाए, जैसे जनगणना तथा आंकड़ों का अध्ययन करना तथा जनमत जानने की विधियां और साक्षात्कार के द्वारा कुछ परिणाम निकालना आदि।

प्रश्न 10.
राजनीतिक सिद्धांत के कार्यक्षेत्र के किन्हीं तीन शीर्षकों की व्याख्या करें।
उत्तर:”
राजनीतिक सिद्धांत के तीन कार्यक्षेत्र निम्नलिखित हैं

1. राज्य का अध्ययन-प्राचीनकाल से ही राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति तथा कार्य-क्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है कि राज्य का विकास कैसे हुआ तथा नगर-राज्य के समय से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के रूप में पहुंचने तक इसके स्वरूप का कैसा विकास हुआ आदि।

2. सरकार का अध्ययन सरकार ही राज्य का वह तत्व है जिसके द्वारा राज्य की अभिव्यक्ति होती है। अतः सरकार भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सरकार के तीन अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका-माने गए हैं। इन तीनों अंगों का संगठन, इनके अधिकार, इनके आपस में संबंध तथा इन तीनों से संबंधित भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का अध्ययन भी हम करते हैं।

3. शक्ति का अध्ययन वर्तमान समय में शक्ति के अध्ययन को भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में शामिल किया जाता है। शक्ति के कई स्वरूप हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक शक्ति, व्यक्तिगत शक्ति, राष्ट्रीय शक्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति इत्यादि।

प्रश्न 11.
राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के कोई चार लाभ लिखें।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के लाभों को निम्नलिखित तथ्यों से प्रकट किया जा सकता है

1. भविष्य की योजना संभव बनाता है नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण किया जाता है। ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

2. वास्तविकता को समझने का साधन-राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।।

3. अवधारणा के निर्माण की प्रक्रिया संभव-राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न विचारों का संग्रह है। यह किसी राजनीतिक घटना को लेकर उस पर विभिन्न विचारों को इकट्ठा करता है तथा उनका विश्लेषण करता है। जब कोई निष्कर्ष निकल आता है तो उसकी तुलना की जाती है। उन विचारों की परख की जाती है तथा अंत में एक धारणा बना ली जाती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जो नए संकलित तथ्यों को पुनः नए सिद्धांत में बदल देती है।।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक-राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक . व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति से आप क्या समझते हैं? इसकी परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
राजनीति क्या है, यह एक विवादास्पद व रोचक प्रश्न है। इस प्रश्न का सही उत्तर देना बड़ा कठिन है। साधारण व्यक्ति से लेकर विद्वानों तक ने इस प्रश्न का अपने-अपने ढंग से उत्तर देने का प्रयत्न किया है, लेकिन कोई भी इसका संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया है। राजनीति का अध्ययन प्राचीन समय से चला आ रहा है। अरस्तू ने राजनीति को सामान्य जीवन से संबंधित माना और राजनीति को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ (Master Science) की संज्ञा दी। उनके अनुसार मनुष्य के चारों ओर के वातावरण को समझने के लिए राजनीति-शास्त्र का ज्ञान अति आवश्यक है।

अरस्तू के विचार में मनुष्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं में से उसका राजनीतिक पहलू अधिक महत्त्वपूर्ण है। यही पहलू जीवन के अन्य पहलुओं को प्रभावित करता है। उसका कहना था कि राजनीति वैज्ञानिक रूप से यह निश्चित करती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

वर्तमान काल में राजनीति की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि अब राज्य एक पुलिस राज्य न होकर एक कल्याणकारी राज्य बन गया है, जो व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष में हस्तक्षेप करता है अर्थात राज्य व्यक्ति की हर छोटी व बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयास करता है। इस प्रकार शासक व शासितों में घनिष्ठ संबंध स्थापित हो जाते हैं। एक ओर शासक अपने-आपको सत्ता में रखने का प्रयत्न करते हैं तो दूसरी ओर शासित उन पर अंकुश लगाना चाहते हैं। इससे राजनीति का जन्म होता है।

अतः राजनीति का मनुष्य जीवन पर इतना प्रभाव होने से यह अनिवार्य हो जाता है कि इस शब्द की उत्पत्ति और अर्थ को समझा जाए। राजनीति शब्द की उत्पत्ति और अर्थ (Origin and Meaning of Politics)-प्राचीन काल से ही राजनीति विज्ञान के लिए ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग होता आ रहा है। अरस्तू ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘पॉलिटिक्स’ (Politics) रखा था।

पॉलिटिक्स शब्द ग्रीक भाषा के पॉलिस (Polis) शब्द से बना है। पॉलिस शब्द का संबंध नगर-राज्यों (City States) से है। प्राचीन यूनान में छोटे-छोटे नगर-राज्य होते थे। प्रत्येक नगर एक प्रभुसत्ता संपन्न राज्य था। इसलिए यूनानियों के दृष्टिकोण से पॉलिटिक्स का अर्थ उस विज्ञान से हुआ जो राज्य की समस्याओं से संबंधित हो, परंतु आधुनिक समय में बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना होने के कारण पॉलिटिक्स का अर्थ उन राजनीतिक समस्याओं से है जो किसी ग्राम, नगर, प्रांत, देश और विश्व के सामने हैं।

‘राजनीति’ आधुनिक युग में सबसे अधिक प्रयोग होने वाला शब्द है। इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने इस शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। साधारण अर्थों में इस शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं और प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिन्हें अच्छा नहीं समझा जाता है; जैसे विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए या फिर अपने मित्रों के साथ राजनीति नहीं खेलनी चाहिए अर्थात् राजनीति शब्द का प्रयोग विकृत अर्थ में किया जाता है। वर्तमान लोक जीवन में यह शब्द बड़ा अप्रतिष्ठित हो गया है और इससे छल, कपट, बेईमानी आदि का बोध होता है।

राजनीति का उपर्युक्त अर्थ संकुचित व विकृत है, परंतु राजनीति शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। राजनीति एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम सभी किसी-न-किसी रूप में अवश्य भाग लेते हैं। लोकतंत्र में रहते हुए राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता। राजनीति अरस्तू के समय से ही समाज में है। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है।

वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में अनेक प्रकार के संघ, दल और समुदायों का निर्माण करता है। इन संस्थाओं या संगठनों के संघर्ष से समाज में मतभेद पैदा हो जाते हैं, मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते क्रांति या शक्ति का सहारा न लेकर शांतिपूर्ण संघर्ष द्वारा अपने मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। समाज के इस संघर्ष से उत्पन्न क्रिया को राजनीति कहा जाता है।

गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राजनीति से अभिप्राय आजकल सरकार की वर्तमान समस्याओं से होता है जो अक्सर वैज्ञानिक दृष्टि से राजनीति के ढंग की होने की बजाय आर्थिक ढंग की होती हैं। जब हम किसी मनुष्य के बारे में यह कहते हैं कि वह राजनीति में रुचि रखता है तो हमारा आशय यह होता है कि वह वर्तमान समस्याओं, आयात-निर्यात, श्रम समस्याओं, कार्यकारिणी का विधानपालिका से संबद्ध और वास्तव में किसी अन्य ऐसे प्रश्नों में रुचि रखता है, जिनकी ओर देश के कानून निर्माताओं को ध्यान देना आवश्यक है या ध्यान देना चाहिए।”

इस प्रकार राजनीति का क्षेत्र बहुत व्यापक है। वह केवल व्यावहारिक बातों तक ही सीमित नहीं होती। राजनीति में हम राजनीतिक क्रियाओं तथा संबंधों को शामिल करते हैं। राजनीति प्रत्येक समाज में पाई जाती है। राजनीति में सर्वव्यापकता है। राजनीति व्यक्ति की हर गतिविधि में विद्यमान है।

1. राजनीति की परिभाषाएँ (Definitions of Politics):
यद्यपि ‘राजनीति’ शब्द को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है फिर भी सुविधा की दृष्टि से राजनीति की कुछ मुख्य परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं हरबर्ट जे० स्पाइरो (Herbert J. Spiro) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।”

2. डेविड ईस्टन (David Easton):
के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति सीमित (मानवीय, भौतिक और आध्यात्मिक) साधनों का सामाजिक इकाई में (चाहे नगर हो, राज्य हो या संगठन) बंटवारा करता है।”

3. हेनरी बी० मेयो (Henri B. Meyo):
के शब्दों में, “राजनीति केवल विवाद ही नहीं है, बल्कि एक ऐसी विधि भी है जिसके द्वारा झगड़ों को सुलझाकर और संघर्ष का निपटारा करके ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं जो शासन से संबंधित और बाध्यकारी होती हैं।”

प्रश्न 2.
परंपरागत तथा आधुनिक दृष्टिकोणों में राजनीति के अर्थ बताएँ।
उत्तर:
परंपरागत दृष्टिकोण (Traditional View)-परंपरागत दृष्टिकोण से तात्पर्य है कि राजनीति का संबंध जीवन की ओं से है। इसलिए परंपरावादियों का दृष्टिकोण औपचारिक व संस्थात्मक (Formal and Institutional) है। उन्होंने अपने अध्ययन के क्षेत्र को संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित रखा है और उन्होंने राजनीति को राजनीति शास्त्र कहना उचित समझा। इस दृष्टिकोण के मुख्य समर्थक प्लेटो, हॉब्स व रूसो हैं। इस दृष्टिकोणं का अध्ययन निम्नलिखित है

1. राजनीति विज्ञान राज्य से संबंधित (Political Science deals with State):
इस क्षेत्र में ऐसे लेखक आते हैं, जिन्होंने राजनीति विज्ञान को केवल राज्य से संबंधित माना है। उनके अध्ययन का आधार राज्य है और राज्य राजनीति विज्ञान का केंद्र-बिंदु है। ब्लंशली (Bluntschli) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र वह विज्ञान है जिसका संबंध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधार का मूल तत्व क्या है, उसका आवश्यक रूप क्या है, उसकी किन विविध रूपों में अभिव्यक्ति होती है तथा उसका विकास कैसे हुआ।”

इसी तरह लार्ड एक्टन (Lord Acton) ने कहा है, “राजनीति शास्त्र राज्य व उसके विकास के लिए अनिवार्य दशाओं से संबंधित है।” गार्नर (Garner) द्वारा भी इसी प्रकार का मत व्यक्त किया गया है, “राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अंत राज्य के साथ होता है।” उपर्युक्त परिभाषाएं राजनीति शास्त्र में राज्य के महत्त्व को समझने का प्रयत्न करती हैं।

2. राजनीति विज्ञान सरकार से संबंधित है (Political Science is related to Government):
राजनीति शास्त्र में राज्य के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, परंतु राज्य के अतिरिक्त राजनीति शास्त्र में सरकार, मानव तथा राज्य के बाहरी संबंधों का भी अध्ययन किया जाता है। इसलिए राजनीति शास्त्र को सरकार व शासन से संबंधित संस्थाओं का अध्ययन भी माना जाता है। कुछ परंपरावादी लेखक इसी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

लीकॉक (Leacock) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र सरकार से संबंधित है।” इसी तरह सीले (Seeley) का भी मत है, “राजनीति शास्त्र शासन के तत्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है; जैसे अर्थशास्त्र संपत्ति का, जीवशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामिति-शास्त्र स्थान तथा ऊंचाई का करता है।”

इन लेखकों ने सरकार को राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय माना है। इसका कारण यह है कि राज्य अपने कार्य स्वयं नहीं कर सकता, इसलिए सरकार की इस उद्देश्य के लिए आवश्यकता पड़ती है। राजनीति शास्त्र में सरकार की रचना, उसके उद्देश्य व उसके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।

3. राजनीति विज्ञान में राज्य व सरकार का अध्ययन (Study of State and Government in Political Science):
राजनीति विचारकों का एक समूह राज्य के अध्ययन पर बल देता है तो दूसरा सरकार व शासन के अध्ययन को अपना विषय बनाता है। वस्तुतः यह दोनों ही धारणाएँ महत्त्वपूर्ण तो हैं, लेकिन दोनों ही अधूरी हैं। ये दोनों धारणाएं एक-दूसरे की पूरक हैं। क्योंकि राज्य का सरकार के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सरकार राज्य का न केवल अंग है, बल्कि वह उसके स्वरूप की व्याख्या भी करता है।

इस तरह राजनीतिक वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसी परिभाषाएं दी हैं जो राज्य तथा सरकार दोनों के अध्ययन पर प्रकाश डालती हैं। इसी संदर्भ में गिलक्राइस्ट (Gilchrist) ने कहा है, “राजनीति शास्त्र राज्य तथा सरकार से संबंधित है।” इसी तरह पाल जैनेट (Paul Janet) द्वारा भी विचार व्यक्त किया गया है, “यह समाज शास्त्र का वह भाग है जो राज्य के मूल आधारों तथा शासन के सिद्धांत की विवेचना करता है।”

गैटेल (Gettel) भी राजनीति शास्त्र में सरकार व राज्य दोनों का अध्ययन करता है। गैटेल के अनुसार, “राजनीति शास्त्र राज्य के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के राजनीतिक संगठन तथा राजनीतिक कार्यों का, राजनीतिक समस्याओं तथा राजनीति सिद्धांतों का अध्ययन करता है।”

परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ (Characteristics of the Traditional View)-दी गई विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) प्राचीन लेखक संस्थाओं की संरचनाओं और सरकार के गठन पर विचार करते हैं। वे यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि संस्थाओं का उदय कैसे हुआ।
परंपरागत विचारक आदर्शवादी हैं।

(2) वे देखते हैं कि क्या होना चाहिए? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि क्या है? अर्थात् वह राजनीतिक मूल्यों, नैतिकता व सात्विक विचारों पर अधिक बल देते हैं। इसमें कल्पना अधिक है।

(3) परंपरावादियों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत अधिक है। उसमें चिंतन और कल्पना है। ये दार्शनिक व विचारात्मक पद्धति में विश्वास करते हैं।

(4) परंपरावादी विचारक राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानते हैं।

(5) परंपरावादी केवल राजनीति से संबंधित नहीं हैं। उनका संबंध अनेक समाजशास्त्रों से है। परंपरावादी नैतिकवाद व अध्यात्मवाद में विश्वास रखते हैं। उन्होंने राज्य को एक नैतिक संस्था माना है। उनका झुकाव उदारवाद की ओर था। इसलिए उन्होंने राज्य को कल्याणकारी कहा था। वे व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता देने के पक्ष में हैं।

आधुनिक द्र ष्टिकोण (Modern View)-परंपरावादियों और उदारवादियों ने राजनीति के अध्ययन के विषय को केवल राज्य, सरकार व कानून तक ही सीमित रखा। उन्होंने राजनीति को केवल औपचारिक माना अर्थात उन्होंने राजनीति में औपचारिक दिया, लेकिन इसके विपरीत आधुनिक दृष्टिकोण में राजनीति को औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन के बंधन से मुक्त करने का प्रयत्न किया गया है।

आधुनिक विचारधारा के अनुसार राजनीति में औपचारिक संस्थाओं की अपेक्षा अनौपचारिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है। उनका कहना है कि संस्थाएं विधानमंडल, कार्यपालिका व न्यायालय तथा अन्य संस्थाएं स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकतीं। ये संस्थाएं किस प्रकार से कार्य करती हैं, इन्हें कौन-से लोग चलाते हैं तथा देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति कैसी है, इन सब बातों का अध्ययन राजनीति में किया जाता है।

अतः आधुनिक विचारक राजनीतिक गतिविधियों पर अधिक जोर देते हैं। वे औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के स्थान पर अनौपचारिक राजनीतिक संस्थाओं; जैसे राजनीतिक दल, दबाव-समूह, लोकमत, चुनाव, मतदान व आचरण आदि पर अधिक ध्यान देते हैं। कछ आधनिक लेखक राजनीति को संघर्ष के रूप में देखते हैं। इस प्रकार आधनिक राजनीति दृष्टिकोण से अधिक विस्तृत है। राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण का संक्षेप में इस प्रकार वर्णन किया जा सकता है

1. सीमित साधनों का आबंटन राजनीति है (Allocation of Scarce Resources is Politics):
डेविड ईस्टन (David Easton) ने राजनीति की परिभाषा देते हुए कहा है, “राजनीति का संबंध मूल्यों के अधिकारिक आबंटन से है।” इसका अर्थ यह है कि समाज में मूल्य–भौतिक साधन; जैसे सुख-सुविधाएं, लाभकारी पद, राजनीतिक पद आदि सीमित हैं। इन सीमित साधनों को समाज में बांटना है। इनका वितरण करने के लिए एक ऐसी शक्ति की आवश्यकता है जिसकी बात सभी मानें।

इसलिए ईस्टन ने ‘अधिकारिक’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार की बाध्यकारी शक्ति प्रत्येक समाज में होती है। अतः सीमित साधनों को पाने के लिए संघर्ष होता है तथा एक होड़-सी लग जाती है। प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह द्वारा साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। साधनों के बंटवारे की इसी प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है। एक अन्य आधुनिक लेखक लासवैल (Lasswell) ने इसे दूसरे शब्दों में लिखा है, “राजनीति की विषय-वस्तु है कौन प्राप्त करता है, क्या प्राप्त करता है, कब प्राप्त करता है और कैसे प्राप्त करता है।”

2. समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण ही राजनीति है (Politics is an Analysis of the whole Political System):
परंपरावादियों ने राजनीति को राज्य व शासन का अध्ययन मात्र माना है। लेकिन आधुनिक विचारक न केवल राज्य व शासन का अध्ययन करते हैं, बल्कि उन सभी पहलुओं का भी अध्ययन करते हैं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष रूप से राज्य व शासन से होता है अर्थात वह समुदाय, समाज, श्रमिक संगठन, दबाव-समूह व हित-समूह आदि का अध्ययन करते हैं।

इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि आधुनिक लेखक राजनीति में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सम्मिलित करते हैं; जैसे कि ऐलन बाल (Alan Ball) ने कहा है, “राजनीतिक व्यवस्था में केवल औपचारिक संस्थाओं (विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका) का ही समावेश नहीं है, बल्कि उसमें समाज की हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि समाहित है।”

इस तरह राजनीतिक व्यवस्था विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों का एक समूह है जिसमें प्रत्येक गतिविधि का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। जैसे चुनाव-प्रणाली के दोषों का प्रभाव सभी गतिविधियों पर पड़ता है। अतः राजनीति में सामाजिक जीवन के उन सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है जिनका प्रभाव राजनीतिक संस्थाओं, गतिविधियों व प्रक्रियाओं पर पड़ता है।

राजनीति शक्ति का अध्ययन है (Politics is the study of Power)-आधुनिक लेखकों ने राजनीति की शक्ति के अध्ययन में अधिक रुचि प्रकट की है। उन्होंने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष कहा है। इन लेखकों में से केटलिन, लासवैल, वाइज़मैन, मैक्स वेबर और राबर्ट डहल उल्लेखनीय हैं। केटलिन (Catlin) ने कहा है, “समस्त राजनीति स्वभाव से शक्ति-संघर्ष है।”

मैक्स वेबर (Max Weber) ने इसी संदर्भ में व्यक्त किया है, “राजनीति शक्ति के लिए संघर्ष है अथवा जिन लोगों के हाथ में सत्ता है उन्हें प्रभावित करने की क्रिया है। यह संघर्ष राज्यों के मध्य तथा राज्य के भीतर संगठित समुदायों के बीच चलता है और यह दोनों संघर्ष राजनीति के अंतर्गत आ जाते हैं।” इस तरह इस परिभाषा से यह निश्चित हो जाता है कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाला शक्ति के लिए संघर्ष राजनीति के अध्ययन का विषय बन गया है। लासवैल (Lasswell) ने राजनीति को इस प्रकार से परिभाषित किया है, “राजनीति शक्ति को बनाने व उसमें भाग लेने का यन है।”

वाइज़मैन (Wiseman) ने शक्ति की व्याख्या करते हुए अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं “विरोध के होते हुए किसी व्यक्ति की इच्छाओं का पालन करवाने की योग्यता को शक्ति कहते हैं।” अर्थात आधुनिक लेखकों के अनुसार राजनीति में, शक्ति क्या है? कैसे प्राप्त की जाती है? कैसे खोई जाती है? इसके क्या आधार हैं; इत्यादि आते हैं।

4. राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है (Politics is a Class Struggle):
आधुनिक लेखक राजनीति को एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानते। जैसे कार्ल मार्क्स ने राजनीति को वर्ग-संघर्ष माना है। उसके अनुसार समाज सदा ही दो वर्गों में विभाजित रहा है-शासक वर्ग व शासित वर्ग। शासक वर्ग हमेशा शासित वर्ग का शोषण करता रहा है क्योंकि उसके पास शक्ति है और वह राज्य के यंत्र का प्रयोग शासितों का शोषण करने के लिए करता है।

इसी शोषण प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है। यह शोषण या वर्ग-संघर्ष तब तक चलता रहता है जब तक समाज में वर्ग-भेद समाप्त नहीं हो जाता। इसलिए मार्क्स एक वर्ग-विहीन समाज की स्थापना करना चाहता था। न वर्ग होंगे, न संघर्ष होगा और न राजनीति होगी।

5. राजनीति सामान्य हित स्थापित करने का साधन है (Politics as a mean to bring Common Good):
साधारणतः राजनीति को संघर्ष माना जाता है जिसमें समाज में रहने वाला एक वर्ग दूसरे वर्ग पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है या शक्ति-विहीन लोग शासन पर अधिकार प्राप्त करके शक्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं।

लेकिन यह राजनीति का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है कि राजनीति वर्ग-संघर्ष नहीं है, बल्कि समाज के विभिन्न समुदायों अथवा वर्गों के बीच संघर्षों को दूर करके शांति स्थापित करने का साधन है। राजनीति समाज में शांति व्यवस्था व न्याय की स्थापना का प्रयास है जिसमें समाज हित व व्यक्तिगत हित में सामंजस्य स्थापित किया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 3.
राजनीतिक सिद्धांत की परिभाषा दीजिए। आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ लिखिए। शांत क्या है? लंबे समय से विद्वानों के बीच यह विवाद का विषय रहा है। विभिन्न अवधारणाएं इसे विभिन्न तरह से परिभाषित करती हैं। इसके लिए विभिन्न शब्दावली; जैसे राजनीति शास्त्र (Political Science), राजनीति (Politics), राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy) आदि का प्रयोग किया जाता है।

परंतु इन सभी के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। राजनीतिक सिद्धांत को अंग्रेजी में पॉलिटिकल थ्योरी (Political Theory) कहा जाता है। राजनीतिक सिद्धांत ‘राजनीति एवं सिद्धांत’ दो शब्दों से मिलकर बना है। राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ जानने से पूर्व ‘सिद्धांत’ का अर्थ समझना अति आवश्यक है।

सिद्धांत का अर्थ (Meaning of Theory)-सिद्धांत को अंग्रेजी में थ्योरी (Theory) कहा जाता है। ‘थ्योरी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द थ्योरिया (Theoria) से हुई है, जिसका अर्थ होता है “एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो कि एक वस्तु के अस्तित्व एवं उसके कारणों को प्रकट करती है।” ‘विवरण’ (Description) या किसी लक्ष्य के बारे में कोई विचार या सुझाव देने (Proposals of Goals) को ही सिद्धांत नहीं कहा जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति संसार में घटने वाली घटनाओं, वस्तुओं, प्राणियों एवं समूहों को अपने दृष्टिकोण से देखता है तथा उस पर अपनी टिप्पणियां करते हैं। प्रत्येक मानव आवश्यकता पड़ने पर उस पर कुछ प्रयोग भी करते हैं तथा आवश्यकता एवं समय के अनुसार उसमें कुछ परिवर्तन भी करते हैं, जिसे सिद्धांत (Theory) कहा जाता है। आर्नोल्ड ब्रेट (Armold Breht) के शब्दों में, “सिद्धांत के अंतर्गत तथ्यों का वर्णन, उनकी व्याख्या, लेखक का इतिहास बोध, उनकी मान्यताएं एवं लक्ष्य शामिल हैं जिनके लिए किसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाता है।”

आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ (Characteristics of Modern Political Theory)-आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विश्लेषणात्मक अध्ययन (Analytical Study)-आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। वे संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे। इस व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहार के विश्लेषण पर बल दिया। ईस्टन, डहल, वेबर तथा आमंड इत्यादि अनेक विद्वानों ने व्यक्ति के कार्यों व उसके व्यवहार पर अधिक बल दिया क्योंकि इनके विश्लेषण से राजनीतिक व्यवस्था को समझना आसान था।

2. अध्ययन की अन्तर्शास्त्रीय पद्धति (Inter-Disciplinary Approach to the Study of Politics)-आधुनिक विद्वानों की यह मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उपव्यवस्थाओं (Multi-Systems) में से एक है और इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक उपव्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है।

इसीलिए किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने के लिए उस समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

वर्तमान समय में यह धारणा ज़ोर पकड़ रही है कि अंतर्राष्ट्रीयकरण (Globalization) की प्रक्रिया को समझे बिना राज्य के बारे में कोई चिंतन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक सिद्धांत में विश्व अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन अलग-अलग नहीं बल्कि एक साथ करने की आवश्यकता है। इसका कारण यह है कि ये सभी तत्व राज्य के कार्यक्षेत्र और इसकी प्रभुसत्ता को प्रभावित करते हैं।

3. आनुभाविक अध्ययन (Empirical Study or Approach) राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीति को शुद्ध विज्ञान बनाने के लिए राजनीतिक तथ्यों के माप-तोल पर बल दिया है। यह तथ्य-प्रधान अध्ययन है जिसमें वास्तविकताओं का अध्ययन होता है। इससे उन्होंने नए-नए तरीके अपनाए, जैसे जनगणना (Census Records) तथा आंकड़ों (Datas) का अध्ययन करना तथा जनमत जानने की विधियां (Opinion Polls) और साक्षात्कार (Interviews) के द्वारा कुछ परिणाम निकालना आदि।

डेविड ईस्टन (David Easton) ने कहा है, “खोज सुव्यवस्थित रूप से की जानी चाहिए। यदि कोई सिद्धांत आंकड़ों पर आधारित नहीं है तो वह निरर्थक साबित होगा।” आधुनिक विद्वान् वर्तमान काल के लोकतंत्रात्मक शासन के आदर्श स्वरूप के अध्ययन में रुचि न रखकर लोकतंत्र के वास्तविक व्यावहारिक रूप का आनुभाविक अध्ययन करते हैं और इस धारणा से उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि अन्य शासन-प्रणालियों की भांति लोकतंत्र में भी एक ही वर्ग-छोटा-सा विशिष्ट वर्ग (Elite)-शासन करता है। यह दृष्टिकोण लोकतंत्र के आनुभाविक अध्ययन का ही परिणाम है।

4. अनौपचारिक कारकों का अध्ययन (Study of Informal Factors) आधुनिक विद्वानों के अनुसार परंपरागत अध्ययन की औपचारिक संस्थाओं; जैसे राज्य, सरकार व दल आदि का अध्ययन काफी नहीं है। वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने के लिए उन सभी अनौपचारिक कारकों का अध्ययन करना आवश्यक समझते हैं जो राजनीतिक संगठन के व्यवहार को प्रभावित करता है।

वह जनमत, मतदान आचरण (Voting Behaviour), विधानमंडल, कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक दल, दबाव-समूहों तथा जनसेवकों (Public Servants) के अध्ययन पर भी बल देते हैं। इस श्रेणी में व्यवहारवादी विचारक-डहल, डेविस ईस्टन, आमंड तथा पॉवेल शामिल हैं।

5. मूल्यविहीन अध्ययन (Value-free Study)-आधुनिक लेखक, विशेष रूप से व्यवहारवादी (Behaviouralists), नीति के मूल्यविहीन अध्ययन पर बल देते हैं। उनका कहना है कि राजनीतिक विचारकों को ‘मूल्यनिरपेक्ष’ अर्थात तटस्थ (Neutral) रहना चाहिए। उन्हें ‘क्या होना चाहिए’ (What ought to be) के स्थान पर ‘क्या है’ (What exists) का उत्तर खोजना चाहिए। उन्हें ठीक तथा गलत के प्रश्नों से मुक्त रहना चाहिए।

लेखक को चाहिए कि वह तथ्यों तथा आंकड़ों के स्थान पर मात्र वर्गीकरण तथा विश्लेषण करे। उसे यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि कौन-सी शासन-प्रणाली अच्छी है और कौन-सी बुरी है। इस प्रकार व्यवहारवादी विचारक मूल्यविहीन अध्ययन पर बल देते हैं जिससे उपयुक्त वातावरण में वास्तविकताओं का अध्ययन किया जा सके।

6. उत्तर व्यवहारवाद-मूल्यों को पुनः स्वीकार करने की पद्धति (Post-Behaviouralism : Acceptance of Values in the Study of Politics)-व्यवहारवादी क्रांति ने आदर्शों तथा मूल्यों को पूर्णतः अस्वीकार कर दिया था। राजनीति को पूर्ण विज्ञान बनाने की चाह में व्यवहारवादी लेखक आंकड़ों तथा तथ्यों में ही उलझकर रह गए थे।

उन्होंने किसी लक्ष्य व आदर्श के साथ जुड़ने से साफ इन्कार कर दिया। परंतु शीघ्र ही एक नई क्रांति का उदय हुआ जिसे उत्तर व्यवहारवाद (Post Behaviouralism) के नाम से पुकारा जाता है। इस युग के सिद्धांतशास्त्रियों को यह अनुभव हो गया कि राजनीति प्राकृतिक विज्ञानों की भांति पूर्ण विज्ञान का रूप नहीं ले सकती। अतः उन्होंने मानवीय उद्गम (Normative Approach) और आनुभाविक उद्गम (Empirical Approach) दोनों को स्वीकार कर लिया।

डेविड ईस्टन की ही भांति कोबन (Cobban) तथा ‘लियो स्ट्रास’ (Leo Starauss) ने भी मूल्यों के पुनर्निर्माण (Reconstruction of Values) पर बल दिया है। जॉन रॉल्स (John Rawls) ने उन सिद्धांतों तथा प्रक्रियाओं का पता लगाने का प्रयत्न किया है जिन पर चलकर हम न्यायोचित समाज की स्थापना कर सकते हैं।

7. समस्या समाधान का प्रयास (Problem Solving Efforts) सिद्धांतशास्त्रियों द्वारा मूल्यों को स्वीकार कर लेने का यह परिणाम निकला है कि अब वे समस्याओं के समाधान में जुट गए हैं। आधुनिक सिद्धांतशास्त्री जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं वे हैं युद्ध तथा शांति, बेरोज़गारी, पर्यावरण, असमानता तथा सामाजिक हलचल। राजसत्ता, प्रभुसत्ता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा न्याय आदि तो पहले से ही राजनीतिक विज्ञान के अंग हैं।

प्रश्न 4.
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन (Mainly Descriptive Studies):
परंपरागत सिद्धांत की मुख्य विशेषता यह है कि यह मुख्यतः वर्णनात्मक है। इसका अर्थ यह है कि इसमें केवल राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन किया गया है। अतः यह न तो व्याख्यात्मक है, न विश्लेषणात्मक और न ही इसके माध्यम से राजनीतिक समस्या का समाधान हो पाया है। इन विद्वानों के अनुसार राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन मात्र पर्याप्त है और उनके द्वारा इस बात पर विचार नहीं किया गया कि इन संस्थाओं की समानताओं तथा भिन्नताओं के मूल में कौन-सी ऐसी परिस्थितियां हैं, जो इन्हें प्रभावित करती हैं।

2. समस्याओं का समाधान करने का प्रयास (Study for Solving Problems):
परंपरागत लेखकों की रचनाओं पर अपने युग की घटनाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है और वे अपने-अपने ढंग से इन समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए प्रयत्नशील थे। उदाहरणस्वरूप, प्लेटो (Plato) के सामने यूनान के नगर-राज्यों के आपसी ईर्ष्या-द्वेष तथा कलह का जो वातावरण मौजूद था उससे छुटकारा पाने के लिए उसने दार्शनिक राजा (Philosopher King) के सिद्धांत की रचना की। उस व्यवस्था का उद्देश्य शासक वर्ग को निजी स्वार्थ से ऊपर रखना था।

दार्शनिक राजा का अपना कोई निजी परिवार नहीं होगा और शासक वर्ग में शामिल अन्य व्यक्तियों को भी अपना निजी परिवार बसाने का अधिकार नहीं होगा। उन्हें तो समस्त समाज को ही अपना परिवार समझना होगा। इटली की तत्कालीन स्थिति को देखकर मैक्यावली (Machiavelli) इस परिणाम पर पहुंचा कि शासक के लिए अपने राज्य को विस्तृत तथा मज़बूत बनाने के लिए झूठ, कपट, हत्या और अन्य सभी साधन उचित हैं।

इस प्रकार इंग्लैंड में अशांति तथा अराजकता की स्थिति को देखते हुए हॉब्स (1588-1679) ने निरंकुश राजतंत्र (Absolute Monarchy) का समर्थन किया। हॉब्स के चिंतन का मुख्य उद्देश्य किसी ऐसी व्यवस्था की खोज करना था जिससे गृह-युद्ध तथा अशांति के वातावरण को समाप्त किया जा सके।

3. परंपरागत चिंतन पर दर्शन, धर्म तथा नीतिशास्त्र का प्रभाव (Influence of Philosophy, Religion and Ethics on Classical Studies):
परंपरागत चिंतन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे दर्शन तथा धर्म से प्रभावित रहा है तथा उसमें नैतिक मूल्य विद्यमान रहे हैं। यद्यपि प्लेटो तथा अरस्तू के चिंतन में ये कुछ हद तक दिखाई देते हैं परंतु इनका स्पष्ट उदाहरण मध्ययुग में ईसाई धर्म द्वारा राज्य के प्रभावित हो जाने पर प्राप्त हुआ।

इस समय राज्य तथा चर्च (Church) के आपसी संबंध को लेकर एक भीषण विवाद उठ खड़ा हुआ जो उस काल की विचारधारा का मुख्य विषय बन गया। यूरोप के कई विद्वानों ने यह विचार व्यक्त किया कि धर्म राज्य से श्रेष्ठ है और धर्माधिकारी भी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

सेंट थॉमस एक्वीनास (Saint Thomas Acquinas) इसी मत के समर्थक थे। दूसरी ओर, यह विचार निरंतर महत्त्वपूर्ण बना रहा कि राजसत्ता, धर्मसत्ता से श्रेष्ठ है और उसे चर्च को विनियमित करने का अधिकार है। इस विचार का समर्थन मुख्य रूप से विलियम ऑकम (William Occam) द्वारा किया गया।

4. मुख्यतः आदर्शात्मक अध्ययन (Mainly Normative Studies):
परंपरागत चिंतनों के ग्रंथों को पढ़ने से यह पता चलता है कि इनमें कुछ आदर्शों को न केवल पहले से ही स्वीकार कर लिया गया है, बल्कि इन्हीं मान्यताओं की कसौटी पर अन्य देशों की राजनीतिक संस्थाओं व शासन को परखा जाता है। इस प्रकार उन लेखकों ने मानवीय उद्गम (Normative Approach) का सहारा लिया।

मानवीय उद्गम का अर्थ यह है कि पहले मस्तिष्क में किसी विशेष आदर्श की कल्पना कर ली जाती है और फिर उस कल्पना को व्यावहारिक रूप देने के लिए सिद्धांत का निर्माण किया जाता है। इस अध्ययन पद्धति को अपनाने वाले लेखकों में प्लेटो, हॉब्स, रूसो, थाटे तथा हीगल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने मनघड़त अथवा काल्पनिक आदर्शों के आधार पर आदर्श राज्य की रचना का प्रयास किया।

प्लेटो ने दार्शनिक राजा (Philosopher King) तथा रूसो ने सामान्य इच्छा (General Will) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा कभी असत्य व भ्रांत नहीं हो सकती और वही शासन अच्छा होगा जो सामान्य इच्छा के अनुसार चलाया जाएगा। हीगल (Hegal) ने लिखा है कि पूर्ण विकसित राज्य राजतंत्र हो सकता है। सम्राट राज्य की एकता का प्रतीक है।

परंतु कुछ परंपरागत लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने मानवीय उद्गम के साथ-साथ आनुभाविक उद्गम (Empirical Approach) को भी अपनाया। उन्होंने तथ्यों तथा आंकड़ों का संकलन करके उनका विधिवत् विश्लेषण किया। उदाहरणस्वरूप अरस्तू ने अपने काल के 158 नगर-राज्यों के संविधानों का अध्ययन किया और फिर उसने अपने आदर्श राज्य की कल्पना की। इसी प्रकार मार्क्स के विचारों में भी मानवीय तथा आनुभाविक, दोनों पद्धतियों का मिला-जुला रूप मिलता है।

5. मुख्यतः कानूनी, औपचारिक तथा संस्थागत अध्ययन (Primarily Legal, Formal and Institutional Studies) परंपरागत अध्ययन मुख्यतः विधि तथा संविधान द्वारा निर्मित औपचारिक संस्थाओं से संबंधित था। उस काल के लेखकों ने इस बात का प्रयास नहीं किया कि संस्था के औपचारिक रूप से बाहर जाकर उसके व्यवहार का अध्ययन किया जाए, जिससे उसके विशिष्ट व्यवहार का परीक्षण किया जा सके।

उदाहरणस्वरूप डायसी (Diecy), जेनिंग्स (Jennings), लास्की (Laski) तथा मुनरो (Munro) आदि विद्वानों ने अपने अध्ययनों में संस्थाओं के कानूनी व औपचारिक रूप का ही अध्ययन किया। इस प्रकार परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत दार्शनिक, आदर्शवादी तथा इतिहासवादी था। प्रश्न 5. राजनीति सिद्धांत के कार्यक्षेत्र या विषय-वस्तु का वर्णन करो।
उत्तर:
आज के युग में मनुष्य के जीवन का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जो राजनीति से अछूता रह सके। उदारवादियों ने राज्य तथा राजनीति का संबंध केवल सरकार तथा नागरिकों तक ही सीमित रखा जबकि मार्क्सवादियों ने उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का स्वामित्व माना है। आज के नारीवादी लेखक (Feminist Writers) पारिवारिक तथा घरेलू मामलों में भी राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं।

इस प्रकार अब राजनीति विज्ञान का क्षेत्र बहुत ही व्यापक हो गया है। राजनीतिक सिद्धांतशास्त्रियों को अब बहुत से विषयों के बारे में सिद्धांतों का निर्माण करना पड़ता है। आजकल मुख्य रूप से निम्नलिखित विषयों को राजनीतिक सिद्धांत के कार्यक्षेत्र में शामिल किया जाता है

1. राज्य का अध्ययन (Study of State):
प्राचीनकाल से ही राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति तथा कार्य-क्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है कि राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, उसका विकास कैसे हुआ तथा नगर-राज्य के समय से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के रूप में पहुंचने तक इसके स्वरूप का कैसा विकास हुआ आदि। इसके अतिरिक्त मनुष्य के राज्य संबंधी विचारों में भी लगातार परिवर्तन होता आया है।

प्राचीनकाल में लोग राजा की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा मानते थे और उसका विरोध करना पाप समझा जाता था। परंतु वर्तमान काल में राजनीति शास्त्रियों के अनुसार राज्य की सत्ता का अंतिम स्रोत जनता है और राज्य को जनता की भलाई के लिए ही कार्य करना होता है। इस प्रकार हम राज्य के स्वरूप, उद्देश्यों तथा कार्यक्षेत्र के बारे में अध्ययन करते हैं।

2. सरकार का अध्ययन (Study of the Government):
सरकार ही राज्य का वह तत्त्व है जिसके द्वारा राज्य की अभिव्यक्ति होती है। अतः सरकार भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सरकार के तीन अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका-माने गए हैं। इन तीनों अंगों का संगठन, इनके अधिकार, इनके आपस में संबंध तथा इन तीनों से संबंधित भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का अध्ययन भी हम करते हैं।

जिस प्रकार राज्य के ऐतिहासिक स्वरूप का हमें अध्ययन करना होता है, ठीक उसी प्रकार हमें सरकार के स्वरूप का भी अध्ययन करना होता है जैसे एक समय था, जब दरबारियों की सरकारें हुआ करती थीं, अब वह समय है, जब सरकारें जनता के प्रतिनिधियों की होती हैं। अतः राजनीतिशास्त्र में सरकार के अंग, उसके प्रकार तथा उसके संगठन आदि का भी अध्ययन किया जाता है।

3. नीति-निर्माण प्रक्रिया (Policy-making Process):
आधुनिक विद्वानों के अनुसार नीति-निर्माण प्रक्रिया भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में अध्ययन की जानी चाहिए। इस विषय में उन सब साधनों का अध्ययन होना चाहिए जो कि शासकीय नीति निश्चित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। इस दृष्टि से राजनीतिशास्त्र में विधानपालिका तथा कार्यपालिका के शासन-संबंधी कार्यों, मतदाताओं, राजनीतिक दलों, उनके संगठनों तथा उनको प्रभावित करने वाले ढंगों का अध्ययन किया जाता है।

राज्य की अनेक संस्थाएं क्या नीतियां अपनाएं, उन नीतियों को किस प्रकार लागू किया जाए, यह भी राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन का एक मुख्य विषय है। सिद्धांतशास्त्रियों ने राजनीतिक दलों की न केवल परिभाषाएं दी हैं, बल्कि उनकी संरचना, कार्यों तथा उनके रूपों के बारे में भी लिखा है।

प्रायः तीन प्रकार की दल-प्रणालियों की चर्चा की जाती है-एकदलीय पद्धति, द्विदलीय पद्धति तथा बहुदलीय पद्धति। इसी प्रकार मतदान तथा प्रतिनिधित्व के विषय में भी कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कुछ वर्ष पहले तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया था और इसके पक्ष में अनेक दलीलें दी जाती थीं परंतु अंत में व्यस्क मताधिकार के सिद्धांत की विजय हुई। इस प्रणाली के अंतर्गत केवल कुछ लोगों (पागल, दिवालिये तथा अपराधियों) को छोड़कर अन्य सभी नागरिकों को एक निश्चित आयु प्राप्त करने पर मतदान का अधिकार दे दिया जाता है।

4. शक्ति का अध्ययन (Study of Power):
वर्तमान समय में शक्ति के अध्ययन को भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में शामिल किया जाता है। शक्ति के कई स्वरूप हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक शक्ति, व्यक्तिगत शक्ति, राष्ट्रीय शक्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति इत्यादि। राजनीतिक सिद्धांतकार शक्ति के इन विभिन्न रूपों के पारस्परिक संबंधों को देखता है और यह जानना चाहता है कि मानव समाज में किसको क्या मिलता है, कैसे मिलता है और क्यों मिलता है। परंतु शक्ति के अध्ययन में प्रमुख स्थान राजनीतिक शक्ति को दिया जाता है और राजनीतिक सिद्धांतकार इसी को महत्त्व देते हैं।

5. व्यक्ति तथा राज्य के संबंधों का अध्ययन (Study of Individual’s Relations with State):
व्यक्ति और राज्य का क्या संबंध हो, इस विषय पर राजनीतिक सिद्धांत के विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए। प्राचीनकाल से लेकर अब तक इस विषय पर अनेक विरोधी विचार आए हैं। 18वीं सदी में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल दिया गया तथा राज्य के अधिकारों को सीमित करने का समर्थन किया गया। आदर्शवादियों के विचारों में काफी मतभेद रहा है।

वर्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था ने मौलिक अधिकारों पर बहुत जोर दिया है, ताकि व्यक्ति का पूर्ण विकास हो सके। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से आरंभ होकर अब तक जितने भी संविधान बने हैं उनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। यहाँ तक कि साम्यवादी राज्यों में भी नागरिकों को मौलिक अधिकर दिए गए हैं भले ही उनकी रक्षा की उचित व्यवस्था न की गई हो।

आज जबकि भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को अपनाने वाले देश अपने राज्यों में ‘कल्याणकारी राज्य’ के सिद्धांतों को अपना रहे हैं जिनके अनुसार राज्य नागरिकों के जीवन के सभी क्षेत्रों-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक आदि में हस्तक्षेप कर सकता है। यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण बना हुआ है कि इस परिस्थिति में नागरिकों के अधिकारों को किस हद तक सुरक्षित किया जाए।

भारत में जहाँ आर्थिक व्यवस्था एक निश्चित योजना के अनुसार चलाई जा रही है, वहाँ भी यह प्रश्न गंभीर है कि कहीं इससे राज्य नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण न कर दे। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति तथा राज्य के आपसी संबंध राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण विषय हैं।

6. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन (Study of International Relations):
आवागमन के विकास के कारण आज का संसार एक लघु संसार बन गया है जिसके कारण भिन्न-भिन्न राज्यों में आपसी संबंध होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आज हमें राजनीतिक सिद्धांत में अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा भिन्न-भिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organization) आदि का अध्ययन भी राजनीतिक क्षेत्र में आता है।

7. शक्ति सिद्धांत तथा क्षेत्रीय संगठन जैसे यूरोपियन समुदाय तथा दक्षेस का अध्ययन (Study of the concept of Power and Regional Organization like SAARC and European Community):
राजनीतिशास्त्र के आधुनिक विद्वानों ने शक्ति को इस शास्त्र का मुख्य विषय माना है। उनके अनुसार राजनीति में जो कुछ होता है वह सब इसी शक्ति-संघर्ष के कारण होता है। कैटलीन ने भी राजनीति को संघर्ष पर आधारित माना है। उसके अनुसार जहाँ कहीं भी राजनीति है, वहाँ शक्ति का होना स्वाभाविक है। इसी विचारधारा का समर्थन लासवैल ने भी किया है।

इन विद्वानों के अनुसार शक्ति के कई रूप; जैसे सत्ता, प्रभाव, बल, अनुनय, दमन या दबाव भी हो सकते हैं जो परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। राज्य और राजनीतिक संस्थाओं द्वारा शक्ति और उसके विभिन्न रूपों का प्रयोग किया जाता है परंतु इसके साथ-साथ राजनीति में सहयोग का भी प्रमुख स्थान है।

8. स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के आदर्शों की समीक्षा (Review of the ideals of Liberty, Equality and Justice):
प्राचीनकाल से लेकर अब तक ऐसे अनेक राजनीतिक विचारक हुए हैं जो बहुत-सी विचारधाराओं–व्यक्तिवाद, आदर्शवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, उपयोगितावाद तथा गांधीवाद आदि के साथ जुड़े हुए हैं। इन सभी विचारधाराओं का लक्ष्य एक ऐसे समाज की स्थापना करना था जिसमें स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के सिद्धांत को समर्थन प्राप्त हो।

उदारवादियों ने राजनीतिक स्वतंत्रता तथा नागरिकों के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया उसका समर्थन कार्ल मार्क्स द्वारा भी किया गया। यद्यपि उन्होंने इस बात पर बल दिया कि वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना तभी होगी जब समाज से वर्ग-भेद दूर हो जाएंगे। महात्मा गांधी ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें सत्ता का अधिक से अधिक विकेंद्रीकरण होगा। यह विकेंद्रीकरण न केवल राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में बल्कि आर्थिक क्षेत्रों में भी होगा। ऐसी व्यवस्था में प्रशासन, उत्पादन तथा वितरण की मूल इकाई ‘ग्राम’ (Village) होगा। इसे उन्होंने ग्राम स्वराज्य का नाम दिया।

9. नारीवाद (Feminism):
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पारिवारिक मामलों में केवल एक सीमा तक ही सरकार द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार इस ओर कोई भी ध्यान न दे। अनेक देशों में स्त्रियों की दशा को लए आंदोलन हो रहे हैं परंतु व्यक्तिवादी तथा मार्क्सवादी विचारकों ने एक लंबे अर्से तक नारी-उत्पीड़न के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाई।

सन् 1970 के दशक में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए बहुत गंभीर प्रयत्न किए गए और अनेक लेखकों ने इस बात पर विचार प्रकट किया है कि सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उनकी स्थिति कैसे सुनिश्चित की जाए।

भारत में सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा देवदासी प्रथा के विरुद्ध लड़ाई लड़ी गई और राज्य द्वारा इनके विरुद्ध कानून पास करके ही इन्हें समाप्त किया गया। अब भारत में सभी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए 1/3 स्थान सुरक्षित करने की व्यवस्था की गई है और संसद तथा राज्य विधानमंडलों में भी उनके लिए स्थान सुरक्षित रखने से संबंधित बिल विचाराधीन है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

10. मानव व्यवहार का अध्ययन (Study of Human Behaviour):
राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीतिक व्यवहार को राजनीतिशास्त्र का मुख्य विषय माना है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्ति जो कुछ करता है उसके पीछे जो प्रेरणाएं कार्य करती हैं उनका अध्ययन राजनीतिक सिद्धांत में होना चाहिए। इस प्रकार राजनीति मनुष्य व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

मनुष्य समाज में रहते हुए जो कुछ क्रिया-कलाप करता है वे सभी क्रिया-कलाप राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत आने चाहिएं। इन आधुनिक विद्वानों, जो व्यवहारवादी दृष्टिकोण से राजनीतिक सिद्धांत के विषय का अध्ययन करते हैं, की मान्यताएं हैं कि मनुष्य भावनाओं का समूह होता है, उसकी अपनी प्रवृत्तियां और इच्छाएँ होती हैं जिनके अनुसार उसका राजनीतिक व्यवहार नियंत्रित होता है।

इसलिए ये आधुनिक विद्वान् व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों के राजनीतिक व्यवहार को बहुत महत्व देते हैं और राजनीतिक संस्थाओं को बहुत कम। मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन करके उसकी कमियों को दूर करने के उपाय बतलाए जा सकते हैं जिससे कि भविष्य में ऐसी गलतियां न हों।

11. विकास, आधुनिकीकरण और पर्यावरण की समस्याएँ (Problems of Development, Modernization and Environment):
समाजशास्त्र के बढ़ते प्रभाव के कारण राजनीतिक सिद्धांत में कुछ नवीन अवधारणाओं को भी अपनाया गया है जिसमें समाजीकरण, विकास, गरीबी, असमानता तथा आधुनिकीकरण आदि शामिल हैं। विकासशील देशों के राजनीतिक विकास के संबंध में लिखने वाले लेखकों में जी० आमण्ड (G. Almond) तथा डेविड एप्टर (David Apter) हैं।

माईरन वीनर (Myren Wenir) तथा रजनी कोठारी (Rajni Kothari) ने भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक विकास का क्रमबद्ध अध्ययन किया जिससे जातिवाद, संप्रदायवाद तथा दलित राजनीति अब भारतीय राजनीति के मुख्य केंद्र-बिंदु बन गए हैं।

पिछले कई वर्षों से पर्यावरण संबंधी समस्याएं भी मनुष्य जाति के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आई हैं। पर्यावरण संरक्षण के अनेक उपाय सुझाए जाते हैं; जैसे जनसंख्या नियंत्रण, वन सर्वेक्षण तथा औद्योगिक विकास के लिए साफ-सुथरे वातावरण की आवश्यकता आदि।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीतिक सिद्धांत का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है और यह दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है।

प्रश्न 6.
राजनीति सिद्धांत के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के समक्ष आने वाली सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढना है। यह मनुष्य के सामने आई कठिनाइयों की व्याख्या करता है तथा सुझाव देता है ताकि मनुष्य अपना जीवन अच्छी प्रकार व्यतीत कर सके। राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के महत्त्व (उद्देश्य) को निम्नलिखित तथ्यों से प्रकट किया जा सकता है

1. भविष्य की योजना संभव बनाता है (Makes Future Planning Possible):
राजनीतिक सिद्धांत सामान्यीकरण (Generalization) पर आधारित है, अतः यह वैज्ञानिक होता है। इसी सामान्यीकरण के आधार पर वह राजनीति विज्ञान को तथा राजनीतिक व्यवहार को भी एक विज्ञान बनाने का प्रयास करता है। वह उसके लिए नए-नए क्षेत्र ढूंढता है और नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण करता है।

ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

2. वास्तविकता को समझने का साधन (Source to Know the Truth):
राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं मझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।

वह अध्ययन तथ्यों तथा घटनाओं का विश्लेषण करके समाज में प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को उजागर करता है। वास्तविकता को जानने के पश्चात ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। अतः यह हमें शक की स्थिति से बाहर निकाल देता है।

3. अवधारणा के निर्माण की प्रक्रिया संभव (Process of the Concept of Construction Possible):
राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न विचारों का संग्रह है। यह किसी राजनीतिक घटना को लेकर उस पर विभिन्न विचारों को इकट्ठा करता है तथा उनका विश्लेषण करता है। जब कोई निष्कर्ष निकल आता है तो उसकी तुलना की जाती है। उन विचारों की परख की जाती है तथा अंत में एक धारणा बना ली जाती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जो नए संकलित तथ्यों को पुनः नए सिद्धांत में बदल देती है।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक (Useful in Solving Problems):
राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

5. सरकार (शासन) को औचित्य प्रदान करता है (Provides legitimacy to the Government):
कोई भी सरकार (शासन) केवल दमन तथा आतंक के आधार पर अधिक समय तक नहीं चल सकती। उसका ‘वैधीकरण’ आवश्यक होता है। जनता के मन में यह विश्वास बिठाना आवश्यक होता है कि अमुक व्यक्ति अथवा दल को देश पर शासन करने का कानूनी अधिकार प्राप्त है। जब भी कोई शासक शासन पर अधिकार करता है और शासन के स्वरूप को बदलता है तब वह उसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए किसी सिद्धांत का सहारा लेता है।

हिटलर तथा मुसोलिनी जैसे व्यक्तियों ने भी अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए क्रमशः नाजीवाद (Nazism) तथा फासीवाद (Fascism) जैसी विचारधाराओं का सहारा लिया। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद तथा विशिष्ट वर्गीय शासन की स्थापना के लिए भी सिद्धांत ही औचित्य प्रदान करते हैं। अपनी विचारधाराओं का जनता में प्रचार करके वे जनता का समर्थन प्राप्त करने तथा लोगों का विश्वास जीतने में सफल होते हैं। इससे उनका वैधीकरण हो जाता है।

6. अनुगामियों का मार्गदर्शन (Guidance to Followers):
सिद्धांतशास्त्री विभिन्न सिद्धांतों का निर्माण करके अपने अनुगामियों तथा समर्थकों व शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करते हैं। हिन्दू चिंतन की लंबी परंपरा में अनेक ऋषियों ने अपने संपूर्ण जीवन को लगाकर विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे सार्वकालिक सिद्धांतों की रचना की जो हजारों वर्षों के पश्चात भी उनके अनुयायियों तथा समर्थकों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और वे बड़े आत्मविश्वास के साथ इन सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं।

मार्क्स (Marx) तथा एंगेल्स (Engles) ने जिस साम्यवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया और जिस सिद्धांत की रचना की उसने उनके समर्थकों में बहुत विश्वास उत्पन्न किया था।

7. सिद्धांत राजनीतिक आंदोलन के प्रेरणा स्रोत बनते हैं (Theories become inspiration behind many Political Movements):
सिद्धांत राजनीतिक आंदोलनों को प्रभावित करते हैं। लेनिन (Lenin) जो राजनीतिक आंदोलन के लिए सिद्धांत के महत्व को समझते थे, ने सन् 1902 में कहा था, “एक विकसित या प्रगतिशील सिद्धांत के बिना कोई दल किसी संघर्ष का नेतृत्व नहीं कर सकता।” लेनिन (Lenin) ने यह बात बार-बार कही, “क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना क्रांतिकारी आंदोलन संभव नहीं है।”

भारत में गांधी जी द्वारा चलाए गए राष्ट्रीय आंदोलन के पीछे देशवासियों का समर्थन उस विचारधारा के कारण था जो .. सत्य तथा अहिंसा के आधार पर आधारित था। इस प्रकार प्लेटो, अरस्तू, चाणक्य, लॉक, माण्टेस्क्यू, गांधी, मार्क्स तथा एगेल्स जैसे . विचारकों की कृतियों में उस समय की परिस्थितियों के संबंध में जो प्रश्न उन्होंने उठाए, उनका आज भी महत्व है। 20वीं शताब्दी में इस कार्य के लिए ग्राहम वालास, लास्की, मैकाइवर, चार्ल्स मैरियम, रॉबर्ट डहल, डेविड ईस्टन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

8. सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक (Helpful in understanding the Social Change):
मानव समाज एक गतिशील संस्था है जिसमें दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन समाज के राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर कुछ न कुछ प्रभाव डालते हैं। ऐसे परिवर्तनों के विभिन्न पक्षों तथा उनके द्वारा उत्पन्न हुए प्रभावों को समझने के लिए राजनीतिक सिद्धांत सहायक सिद्ध होता है।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन देशों में स्थापित सामाजिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध क्रांतियां हुईं अथवा विद्रोह हुए उनका मुख्य कारण यह था कि स्थापित सामाजिक व्यवस्थाएं (Established Social Order) नई उत्पन्न परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थीं। फ्रांस की सन् 1789 की क्रांति का उदाहरण हमारे सामने है।

कार्ल मार्क्स ने राजनीतिक सिद्धांत को एक विचारधारा (Ideology) का ही रूप माना है और उसका विचार था कि जब नई सामाजिक व्यवस्था (वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज) की स्थापना हो जाएगी तो फिर सिद्धांतीकरण की आवश्यकता नहीं रहेगी। मार्क्स ने एक विशेष विचारधारा और कार्यक्रम के आधार पर वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज की कल्पना की थी।

उसका यह विचार ठीक नहीं है कि ऐसा समाज स्थापित हो जाने के पश्चात सिद्धांतीकरण (Theorising) की आवश्यकता नहीं रहेगी। वास्तव में, सभ्यता के निरंतर हो रहे विकास के कारण जैसे-जैसे मानव-समाज का अधिक विकास होगा वैसे-वैसे सामाजिक परिवर्तन को समझने तथा उसकी व्याख्या करने के लिए राजनीतिक सिद्धांत की आवश्यकता महसूस होगी।

9. स्पष्टता प्राप्त करना (Acquiring Clarity):
राजनीतिक सिद्धांत वैचारिक तथा विश्लेषणात्मक स्पष्टता (Conceptual and Analytical) प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण सहायता करते हैं। राजनीतिक विचारों का यह कर्त्तव्य है कि लोकतंत्र, कानून, स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय आदि मूल्यों की रक्षा करें। इसके लिए राजनीतिक सिद्धांत का ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि इससे हमें इन राजनीतिक अवधारणाओं का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। ये स्पष्टतया विश्लेषणात्मक अध्ययन से प्राप्त होती हैं।

10. राजनीतिक सिद्धांत की राजनीतिज्ञों, नागरिकों तथा प्रशासकों के लिए उपयोगिता (Utility of Political Theory for Politicians, Citizens and Administrators) राजनीतिक सिद्धांत के द्वारा वास्तविक राजनीति के अनेक स्वरूपों का शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस कारण वे अपने सही निर्णय ले सकते हैं।

डॉ० श्यामलाल वर्मा ने लिखा है, “उनका यह कहना केवल ढोंग या अहंकार है कि उन्हें राज सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है या उसके बिना ही अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं अथवा कर सकते हैं। वास्तविक बात यह है कि ऐसा करते हुए भी वे किसी न किसी प्रकार के राज-सिद्धांत को काम में लेते हैं।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान के सम्पूर्ण ढांचे का भविष्य राजनीतिक सिद्धांत के निर्माण पर ही निर्भर करता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्नलिखित में से किस विद्वान को प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक कहा जाता है ?
(A) प्लेटो
(B) सुकरात
(C) अरस्तू
(D) कार्ल मार्क्स
उत्तर:
(C) अरस्तू

2. राजनीति की प्रकृति संबंधी यूनानी दृष्टिकोण की विशेषता निम्न में से नहीं है
(A) राज्य एक नैतिक संस्था है
(B) राज्य एवं समाज में अंतर नहीं
(C) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है।
(D) नगर-राज्यों से संबंधित अध्ययन पर बल
उत्तर:
(C) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है

3. निम्नलिखित में से राजनीति संबंधी परंपरागत दृष्टिकोण के समर्थक हैं
(A) प्लेटो
(B) हॉब्स
(C) रूसो
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

4. राजनीति संबंधी परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) दार्शनिक एवं विचारात्मक पद्धति में विश्वास
(B) नैतिकवाद एवं अध्यात्मवाद में विश्वास
(C) राजनीति शास्त्र को विज्ञान के रूप में स्वीकार करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. राजनीति संबंधी आधुनिक दृष्टिकोण की विशेषता निम्नलिखित में से नहीं है
(A) राजनीति शक्ति का अध्ययन है
(B) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है
(C) राजनीति केवल राज्य एवं सरकार का अध्ययन
(D) राजनीति समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण है मात्र है
उत्तर:
(C) राजनीति केवल राज्य एवं सरकार का अध्ययन

6. मात्र है “राजनीति शास्त्र शासन के तत्त्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है जैसे अर्थशास्त्र संपत्ति का जीवशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामिति-शास्त्र स्थान तथा ऊंचाई का करता है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है?
(A) गार्नर
(B) लाई एक्टन
(C) गैटेल
(D) सीले
उत्तर:
(D) सीले

7. निम्नलिखित में से परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत का लक्षण है
(A) यह मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन है
(B) यह मुख्यतः आदर्शात्मक अध्ययन है
(C) यह मुख्यतः कानूनी, औपचारिक एवं संस्थागत अध्ययन है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. निम्नलिखित में से आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत का लक्षण नहीं है
(A) विश्लेषणात्मक अध्ययन
(B) आनुभाविक अध्ययन
(C) अनौपचारिक कारकों का अध्ययन
(D) वर्णनात्मक अध्ययन पर बल
उत्तर:
(D) वर्णनात्मक अध्ययन पर बल

9. राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में निम्नलिखित में से सम्मिलित है
(A) शक्ति का अध्ययन
(B) राज्य एवं सरकार का अध्ययन
(C) मानव व्यवहार का अध्ययन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में निम्नलिखित में से सम्मिलित नहीं है
(A) राज्य एवं व्यक्तियों के संबंधों का अध्ययन
(B) नारीवाद का अध्ययन
(C) विदेशी संविधानों का अध्ययन
(D) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं संगठनों का अध्ययन
उत्तर:
(C) विदेशी संविधानों का अध्ययन

11. राजनीतिक सिद्धांत का महत्त्व निम्न में से है
(A) यह राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायक है
(B) यह सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक है
(C) यह सरकार को औचित्यपूर्णता प्रदान करने में सहायक है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. ‘पॉलिटिक्स’ नामक ग्रंथ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:
अरस्तू।

2. “राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अंत राज्य के साथ होता है।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
गार्नर का।

3. राजनीति शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के किस शब्द से हुई है?
उत्तर:
पोलिस (Polis) शब्द से।

4. थ्योरी (Theory) शब्द की उत्पत्ति थ्योरिया (Theoria) शब्द से हुई है। यह शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
ग्रीक भाषा से।

5. “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
हरबर्ट जे० स्पाइरो ने।

रिक्त स्थान भरें

1. “राजनीतिक सिद्धांत एक प्रकार का जाल है जिससे संसार को पकड़ा जा सकता है, ताकि उसे समझा जा सके। यह एक अनुभवपूरक व्यवस्था के प्रारूप की अपने मन की आँख पर बताई गई रचना है।” यह कथन ………… विद्वान का है।
उत्तर:
कार्ल पॉपर

2. “समस्त राजनीति स्वभाव से शक्ति-संघर्ष है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
केटलिन

3. “राजनीति का संबंध मूल्यों के अधिकारिक आबंटन से है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
डेविड ईस्टन।