HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘न्याय’ शब्द की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई है?
उत्तर:
न्याय (Justice) शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से हुई है, जिसका अर्थ है-बंधन अथवा बांधना।

प्रश्न 2.
‘न्याय’ क्या है?
उत्तर:
न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसमें व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में सामंजस्य हो तथा व्यक्ति अपने-अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का पालन करते हों।

प्रश्न 3.
न्याय के किन्हीं दो पक्षों के नाम बताएँ।
उत्तर:
न्याय के दो पक्ष हैं-

  • सामाजिक पक्ष,
  • आर्थिक पक्ष।

प्रश्न 4.
न्याय के तीन आधारभूत तत्त्व लिखें।
उत्तर:

  • कानून के समक्ष समानता,
  • निष्पक्षता तथा
  • मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 5.
न्याय की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
सालमंड के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना न्याय है।”

प्रश्न 6.
सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और व्यक्तियों के परस्पर सामाजिक संबंधों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है।

प्रश्न 7.
आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्रता तथा समानता प्राप्त हो, प्रत्येक को अपने आर्थिक जीवन का विकास करने के समान अवसर प्राप्त हों।।

प्रश्न 8.
क्या सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय आपस में संबंधित हैं?
उत्तर:
सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का आपस में घनिष्ठ संबंध है। जहाँ सामाजिक न्याय की व्यवस्था है, वहाँ लोगों को आर्थिक न्याय भी मिल जाता है और जहाँ आर्थिक न्याय है, वहाँ सामाजिक न्याय वास्तविक बन सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक और सहायक हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के किन्हीं दो प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • समानता का अधिकार तथा
  • छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित करना।

प्रश्न 10.
प्रजातंत्र में न्याय का क्या स्थान है?
उत्तर:
प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों की पूर्ति न्याय द्वारा ही की जाती है। न्याय समाज में सामाजिक, आर्थिक व कानूनी समानता को स्थापित करता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
न्याय का अर्थ स्पष्ट करें। अथवा न्याय की अवधारणा की समीक्षा करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा का राजनीति शास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका व्यक्ति के जीवन में भी बड़ा महत्त्व है और हर व्यक्ति न्याय की मांग करता है। अन्याय होने की स्थिति में व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है। न्याय व्यक्ति और समाज के हितों में सामंजस्य स्थापित करता है। ‘न्याय का अर्थ-न्याय को अंग्रेजी में Justice’ कहते हैं। ‘Justice’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द Jus’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ बंधन या बांधना है। इसका अभिप्राय यह है कि ‘न्याय’ उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्ति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

न्याय का अर्थ है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व कानूनी आधार पर कैसे संबंधित है। प्लेटो ने न्याय के बारे में कहा है, “न्याय वह गुण है जो अन्य गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।” इसी तरह सालमंड ने भी कहा है, “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना है।” प्रो० मेरियम के अनुसार “न्याय मान्यताओं और प्रतिक्रियाओं की वह प्रणाली है, जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार व सुविधाएं दी जाती । हैं, जिन्हें समाज उचित मानता है।”

प्रश्न 2.
न्याय के चार आधारभूत तत्त्व लिखें।
उत्तर:
न्याय के चार आधारभूत तत्त्व निम्नलिखित हैं

1. कानून के समक्ष समानता-न्याय के इस तत्त्व से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून के सामने समान है। सभी व्यक्तियों पर एक से कानून लागू होने चाहिएँ। जाति, रंग, वंश, लिंग आदि पर बने भेदभाव के बिना सभी को कानून का समान संरक्षण मिलना चाहिए।

2. सत्य-सत्य का अर्थ है-घटना का ज्यों-का-त्यों प्रस्तुतीकरण करना। न्याय की मांग है कि तथ्यों को सत्य के आधार पर व्यक्त करना चाहिए। न्यायालयों में तथ्यों की सत्यता पर विशेष बल दिया जाता है।

3. स्वतंत्रता-न्याय और स्वतंत्रता में गहरा संबंध है। बिना स्वतंत्रता के न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल स्वतंत्र और स्वच्छ वातावरण में ही मनुष्य न्याय प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।

4. प्रकृति की अनिवार्यताओं का सम्मान-जो कार्य व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है और जो कार्य प्राकृतिक रूप से व्यक्ति के लिए करना असंभव है, उसे करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय की भावना के विरूद्ध है। उदाहरणस्वरूप किसी बूढ़े या बीमार व्यक्ति से भारी शारीरिक काम लेना अन्याय है।

प्रश्न 3.
न्याय की अवधारणा के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा के विभिन्न रूप हैं। उनमें से दो मुख्य रूपों का वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक न्याय-राजनीति शास्त्र में आर्थिक व सामाजिक न्याय ने मुख्य रूप से ज़ोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय की धारणा एक विशाल धारणा है, जिसकी व्याख्या विभिन्न लेखकों ने विभिन्न ढंगों से की है। कुछ इसे धन का समान वितरण मानते हैं तो कुछ इसे समाज में अवसरों की समानता मानते हैं। सामाजिक न्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में पाई जाने वाली असमानताओं, भेदभाव और अन्याय को दूर करना है, ताकि सभी व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की भावना ने समाजवाद को भी लोकप्रिय बनाया है।

2. राजनीतिक न्याय राजनीतिक न्याय से तात्पर्य यह है कि राजनीतिक शक्ति किसी वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित न होकर सर्व साधारण के पास होनी चाहिए और सभी लोगों को प्रशासन में भाग लेने के अवसर प्राप्त हों। इसका अर्थ है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सभी व्यक्तियों को समान रूप से करने का अधिकार होना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 4.
समाज में आप सामाजिक न्याय किस प्रकार प्राप्त करेंगे?
अथवा
सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन करें। उत्तर सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन अग्रलिखित है

1. सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए समाज में व्यक्तियों को न तो कोई विशेष प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ तथा न ही किसी व्यक्ति के साथ जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव होना चाहिए।

2. कानून के समक्ष समानता सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि सभी लोगों को कानून के समक्ष समानता तथा एक समान वैधानिक सुरक्षा प्राप्त हो। सभी प्रकार के विशेष अधिकारों तथा सुविधाओं को समाप्त किया जाए।

3. पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ-इस प्रकार की सुविधाएं कुछ समय के लिए पिछड़ी जातियों तथा निर्बल वर्गों के लोगों को अवश्य दी जानी चाहिएं, ताकि वे इन सुविधाओं से लाभ प्राप्त कर सकें तथा अन्य नागरिकों के समान विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए जाति-प्रथा का अंत किया जाना अनिवार्य है।

4. समान अधिकार-यह भी अनिवार्य है कि सभी नागरिकों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अधिकार समान रूप से दिए जाएं।

प्रश्न 5.
आर्थिक न्याय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताइए।
अथवा
न्याय के आर्थिक पक्ष का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक न्याय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्नलिखित हैं
(1) सभी नागरिकों की मूल आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिएँ।

(2) प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के साधन उपलब्ध कराने चाहिएँ और व्यक्ति को अपने काम के लिए उचित मजदूरी मिलनी चाहिए। किसी व्यक्ति का शोषण नहीं होना चाहिए।

(3) आर्थिक न्याय का यह भी अर्थ है कि विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति को राजकीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार हो। बुढ़ापे, बेरोज़गारी तथा असमर्थता में राज्य सामाजिक एवं आर्थिक संरक्षण प्रदान करे।

(4) स्त्रियों और पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।

(5) संपत्ति और उत्पादन के साधनों के नियंत्रण के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है।

प्रश्न 6.
समाज में आप आर्थिक न्याय किस प्रकार प्राप्त करेंगे?
उत्तर:
आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि समाज में ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित हो जाएँ, जिनमें किसी व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा आर्थिक शोषण न हो सके तथा सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुसार जीविकोपार्जन के आवश्यक साधन प्राप्त हो सकें।

आर्थिक न्याय की प्राप्ति तथा सभी लोगों को कार्य देने के लिए सरकार को उत्तरदायी होना चाहिए तथा कार्य न देने की अवस्था में बेरोज़गारी भत्ता सरकार की ओर से दिया जाना चाहिए। अपाहिज हो जाने अथवा बीमारी या वृद्धावस्था में लोगों को आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार प्राप्त होना अनिवार्य है।

आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए धन कुछेक व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसका उचित विभाजन होना अनिवार्य है। आर्थिक न्याय की प्राप्ति तभी संभव हो सकती है, यदि निर्बल वर्गों तथा श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए जाएं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 7.
लोकतंत्र में न्याय का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
लोकतंत्र में न्याय के निम्नलिखित महत्त्व हैं
(1) लोकतंत्र के लिए नागरिकों के उच्च चरित्र की आवश्यकता होती है। उच्च चरित्र से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। न्याय नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।

(2) लोकतंत्र की सफलता के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का होना आवश्यक है। न्याय द्वारा समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में एकता स्थापित की जाती है जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है।

(3) लोकतंत्र के लिए नागरिकों के विभिन्न अधिकारों का बड़ा महत्त्व है। न्याय के द्वारा लोगों के विभिन्न अधिकारों की सुरक्षा की जाती है। अधिकारों की सुरक्षा लोकतंत्र के लिए जरूरी है।

(4) लोकतंत्र के लिए सामाजिक एकता आवश्यक है, अर्थात जाति, धर्म, रंग, वंश या लिंग भेद के आधार पर ऊंच-नीच की दीवारें नहीं होनी चाहिएं। न्याय समाज के सभी वर्गों को उन्नति के समान अवसर प्रदान करके इस भेदभाव को समाप्त करता है।

(5) आर्थिक सुरक्षा को लोकतंत्र का आधार माना गया है। भूख, महंगाई व बेकारी के वातावरण में राजनीतिक स्वतंत्रताएं मूल्यहीन बन जाती हैं। न्याय द्वारा इस आर्थिक असुरक्षा को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है।

(6) लोकतंत्र चुनावों पर आधारित है। न्याय की यह मांग है कि चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से कराए जाएं।

प्रश्न 8.
भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए क्या प्रावधान है? अथवा भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु मौलिक अधिकारों से कौन-सी व्यवस्थाएं की गई हैं ?
उत्तर:
भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा प्राचीन समय से चली आ रही है। प्राचीन भारत में लोगों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के प्रयत्न किए गए थे, लेकिन फिर भी सामाजिक न्याय की समस्या जटिल बनी रही है। भारत में जाति, लिंग, धर्म वरंग के आधार पर भेदभाव होता रहा है और इस भेदभाव को अनेक सुधारकों ने दूर करने का प्रयत्न किया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के अध्याय में सामाजिक न्याय को स्थापित करने के प्रावधान निम्नलिखित हैं

(क) (1) अनुच्छेद 14 में कानून के सामने समानता का प्रावधान है।
(2) धारा 15 व 16 के अनुसार किसी के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
(3) धारा 17 के अनुसार छुआछूत को समाप्त किया गया है।
(4) धारा 18 में उपाधियाँ देने पर रोक लगाई गई है।
(5) धारा 23-24 में मनुष्य के शोषण पर रोक लगाई गई है।
(6) संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकालकर आर्थिक न्याय स्थापित किया गया है।

(ख) नागरिकों की आर्थिक स्थिति को सुधारने और उन्हें आर्थिक न्याय प्रदान करने के लिए राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की व्यवस्था की गई है। धारा 46 में कमजोर वर्गों के शोषण के विरूद्ध व्यवस्था की गई है। धारा 47 में राज्य को सभी लोगों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का निर्देश दिया गया है।

प्रश्न 9.
आर्थिक न्याय के कोई चार लक्षण बताएँ।
उत्तर:
आर्थिक न्याय के चार लक्षणों का वर्णन निम्नलिखित है

1. काम का अधिकार मनुष्य की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। उनकी पूर्ति अनिवार्य है। उनकी पूर्ति के लिए नागरिकों को काम चाहिए अर्थात प्रत्येक नागरिक को काम मिलना चाहिए। काम के अधिकारों की स्थिति भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। इंग्लैंड में नागरिकों को काम देना सरकार का कर्त्तव्य है। काम न मिलने की स्थिति में उन्हें बेरोजगार भत्ता दिया जाता है। साम्यवादी देशों में भी काम देना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत में सरकार प्रत्येक व्यक्ति को काम देने का प्रयत्न कर रही है।

2. समान कार्य के लिए समान वेतन-यह भी ज़रूरी है कि पुरुष व महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। महिलाओं की मजबूरी का लाभ न उठाया जाए। लोगों को वेतन उनके काम व गुण के आधार पर दिया जाए। एक से श्रमिकों का वेतन सभी जगह एक-सा होना चाहिए। एक स्तर के अधिकारियों का वेतन भी एक ही होना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अध्यापक व एक श्रमिक का वेतन एक-सा नहीं हो सकता।

3. न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति होना अनिवार्य है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने की स्थिति में लोकतंत्र व राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना एक ढोंग व दिखावा है, क्योंकि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति राजनीति के बारे में सोच ही नहीं सकता। आर्थिक शोषण व्यक्ति को लोकतंत्र के लिए सोचने का मौका ही नहीं देता।

4. आर्थिक सुरक्षा-आर्थिक सुरक्षा भी आर्थिक न्याय का एक भाग है। इसका अर्थ है कि बुढ़ापे, बीमारी, दिव्यांग और असहाय होने की स्थिति में जब व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा नहीं सकता तो राज्य द्वारा उसकी आर्थिक सहायता होनी चाहिए। उन्हें पेंशन, निःशुल्क चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएँ।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय से आप क्या समझते हैं? इसके आधारभूत तत्त्वों का उल्लेख करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा राजनीति विज्ञान में विशेष महत्त्व रखती है। इसका व्यक्ति के जीवन में भी बड़ा महत्त्व है और हर व्यक्ति न्याय की मांग करता है। यहाँ तक कि जब किसी व्यक्ति को न्यायालय से न्याय न मिले, तो वह भगवान से न्याय मांगता है। न्याय द्वारा ही व्यक्ति को अत्याचार से छुटकारा मिलता है। न्याय व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक हितों में सामंजस्य स्थापित करता है, समाज के विभिन्न वर्गों को संगठित रखता है, सामाजिक व्यवस्था को दृढ़ बनाता है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं का लाभ उठाने का वातावरण उत्पन्न करता है।

न्याय के बिना किसी का जीवन और संपत्ति सुरक्षित नहीं रह सकते। न्याय के बिना समाज और राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। न्यायविहीन समाज में तो जंगल का-सा वातावरण ही मिल सकता है। न्याय की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना कि मानव-समाज। व्यक्ति ने इसके लिए सदैव संघर्ष किया है। न्याय की धारणा भी समयानुसार बदलती रहती है।

प्लेटो (Plato) ने नैतिकता और सद्गुणों को ही न्याय का नाम दिया था। मध्यकालीन युग में धार्मिक नियमों पर आधारित मानव व्यवहार को न्याय के अनुरूप माना जाता था। रूसो ने स्वतंत्रता और समानता को न्याय का नाम दिया। ग्रोशियस ने व्यक्तिगत हितों और सामाजिक हितों के सामंजस्य को न्याय कहा है। जॉन स्टुअर्ट मिल तथा बैंथम जैसे उपयोगितावादियों ने अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को ही न्याय बताया है। समाजवादियों ने आर्थिक समानता को ही न्याय का आधार बताया है। इस प्रकार न्याय की अवधारणा बदलती रही है।

न्याय का अर्थ एवं परिभाषाएँ न्याय को अंग्रेजी में ‘Justice’ कहते हैं। Justice शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से बना है, जिसका अर्थ होता है- ‘बंधन या बांधना’ इसका अभिप्राय यह है कि न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जुड़ा हुआ है। न्याय की भाषा इस बात से संबंधित है कि एक व्यक्ति के दूसरे के साथ नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा कानूनी संबंध क्या हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र में न्याय का अर्थ सामाजिक जीवन की उस अवस्था से है जिसमें वैयक्तिक अधिकारों का सामाजिक कल्याण के साथ समन्वय स्थापित किया गया हो। न्याय की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. बेन तथा पीटर्स के अनुसार, “न्यायपूर्वक कार्य करने का अर्थ यह है कि जब तक भेदभाव किए जाने का कोई उचित कारण न हो, तब तक सभी व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार किया जाए।”

2. प्रो० सी०ई० मेरियम ने कहा है, “न्याय मान्यताओं और प्रक्रियाओं की वह प्रणाली है जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार व सुविधाएं दी जाती हैं जिन्हें समाज उचित मानता हो।”

3. सालमंड के अनुसार, “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना है।”

4. प्लेटो के अनुसार, “न्याय वह गुण है जो अन्य गुणों के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है।”

5. जे०एस० मिल के अनुसार, “न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव-कल्याण की धारणाओं से संबंधित है और इसलिए जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी अन्य नियम से महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।”

6. डी०डी० राफेल के अनुसार, “न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की भी रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिक युग में न्याय से तात्पर्य सामाजिक जीवन की उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति के आचरण तथा समाज-कल्याण में उचित समन्वय स्थापित किया जा सके।

न्याय के आधारभूत तत्त्व यद्यपि न्याय का प्रत्येक युग में महत्त्व रहा है, तथापि न्याय का रूप प्रत्येक युग में अलग रहा है। न्याय का रूप स्थान, परिस्थितियों, समाज के ढांचे और राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। परंतु कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो न्याय की सभी धारणाओं में विद्यमान हैं और इन तत्त्वों को न्याय के आधारभूत तत्त्व कहा जा सकता है। ऑर्नोल्ड ब्रैशर ने न्याय के निम्नलिखित आधारभूत तत्त्वों का वर्णन किया है

1. कानून के समक्ष समानता:
न्याय का यह तत्त्व बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि कानून के सामने सबको समान समझा जाना चाहिए और उन पर एक से कानन लागू किए जाने चाहिएं। जाति, धर्म, वंश, लिंग आदि के आधार पर बने भेदभाव के बिना सभी को कानून का समान संरक्षण मिलना चाहिए। सी०के० एलेन ने कहा है, “जहाँ पक्षपात द्वार से अन्दर आया, न्याय खिड़की से बाहर गया।” अतः कानून के समक्ष समानता समाज में अन्याय को समाप्त करती है।

2. सत्य:
सत्य न्याय का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सत्य का अर्थ है-घटना का ज्यों-का-त्यों प्रस्तुतिकरण करना। वस्तुनिष्ठ रूप में न्याय की मांग है कि तथ्य और संबंध विषयक अपने सभी कथनों में हम सत्य का प्रयोग करें। न्यायालयों में तथ्यों की सत्यता का विशेष महत्त्व है।

3. स्वतंत्रता:
न्याय और स्वतंत्रता में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। बिना स्वतंत्रता के न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल स्वतंत्र और स्वच्छंद वातावरण में ही मनुष्य न्याय प्राप्त कर सकता है। इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना अन्याय है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर केवल उस सीमा तक प्रतिबंध लगाना चाहिए जितना कि राष्ट्र-हित व समाज-हित के लिए आवश्यक हो।

4. मूल्यों की व्यवस्था की सामान्यता:
न्याय का यह रूप इसे समरूपता (uniformity) प्रदान करता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक मामले में तथा विभिन्न परिस्थितियों में न्याय की एक ही धारणा का प्रयोग किया जाना चाहिए। अलग-अलग मामलों में न्याय की अलग-अलग धारणाओं को लागू करना अनुचित है।

5. प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान:
जो कार्य व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है और जो कार्य प्रकृति की ओर से व्यक्ति के लिए असंभव है, उन्हें करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय की भावना के विरूद्ध है। उदाहरण के लिए, किसी बीमार या बूढ़े व्यक्ति से भारी शारीरिक काम लेना अन्याय है।

6. निष्पक्षता:
निष्पक्षता न्याय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, वंश व लिंग के आधार जा सकता। इन आधारों पर भेदभाव करना अन्याय माना जाता है। सभी व्यक्ति कानून के सामने समान हैं, इसे न्याय का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है।

इस संदर्भ में आर्नल्ड ब्रेस्ट ने कहा है, “स्वीकृत अवस्था के अन्तर्गत जो समान है उसके साथ समान व्यवहार होना चाहिए। समान परिस्थितियों में स्वेच्छाचारी ढंग से भेदभाव करना अन्याय है।” स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में न्याय प्राप्त करने के लिए उपर्युक्त आधारभूत तत्त्वों का पालन करना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
न्याय की अवधारणा के विविध रूपों का वर्णन कीजिए।
अथवा
न्याय का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
राजनीति विज्ञान में न्याय का विशेष महत्त्व है। न्याय का अस्तिव उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव-समाज। प्रत्येक युग में समाज में न्याय की मांग रही है। इतिहास में न्याय की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। कभी उसे ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ का पर्याय माना जाता है तो कभी ईश्वर की इच्छा और पूर्वजन्म के कर्मों का फल।

भारतीय चिंतन में न्याय को धर्म का पर्याय माना गया है। प्लेटो ने न्याय के सिद्धांत की विस्तार से चर्चा की है। प्लेटो ने न्याय को आध्यात्मिक तथा सत्यता का रूप दिया। एबेंस्टीन (Ebenstein) के अनुसार, “प्लेटो के न्याय संबंधी विवेचन में उसके राजनीतिक दर्शन के समस्त तत्त्व शामिल थे।” अनेक विद्वानों ने समयानुसार न्याय का अर्थ एवं परिभाषा दी है। मूल रूप में न्याय को हम निम्नलिखित रूपों में समझ सकते हैं

1. प्राकृतिक न्याय:
इससे अभिप्राय उस न्याय से है जो प्राकृतिक नियमों तथा औचित्य पर आधारित हो। इतना ही नहीं, जो न्याय प्राकृतिक नियमों के अतिरिक्त निष्पक्षता, तर्कसंगतता, औचित्य तथा ईमानदारी पर आधारित है, उसे भी प्राकृतिक न्याय का नाम देते हैं। प्राकृतिक न्याय को न्यायालय भी मान्यता देते हैं और जो कार्य प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत के विरूद्ध हो, उसे अवैध घोषित कर देते हैं। यदि किसी व्यक्ति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिए बिना कोई दंड दे दिया जाए तो उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरूद्ध कहकर न्यायालय उसे रद्द कर देते हैं।

2. सामाजिक न्याय:
आधुनिक युग में सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को न्याय दिए जाने की भावना ने बहुत जोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय राजनीतिक विज्ञान की एक नवीन अवधारणा के रूप में 20वीं शताब्दी में ही विकसित हुआ है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में पाई जाने वाली असमानताओं, भेदभाव और अन्याय को दूर करना है ताकि सभी व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की भावना ने समाजवाद को भी लोकप्रिय बनाया है।

3. राजनीतिक न्याय:
राजनीतिक न्याय से अभिप्राय है कि राजनीतिक शक्ति किसी वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित न होकर सर्वसाधारण के पास होनी चाहिए और सभी लोगों को प्रशासन में भाग लेने के अवसर प्राप्त हों। इसका अर्थ है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सभी व्यक्तियों को समान रूप से करने का अधिकार होना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

4. कानूनी न्याय:
कानूनी न्याय से अभिप्राय है कि कानून न्याय-संगत हों, समान व्यक्तियों के लिए समान कानून हों। किसी भी वर्ग विशेष को विशेषाधिकार प्राप्त न हों। कानून जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाए जाएं और उनका औचित्य सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा समय-समय पर परखा जाए। न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) निष्पक्ष, सरल, व सस्ती हो ताकि निर्धन व्यक्ति धन के अभाव में कहीं न्याय से वंचित रहकर धनी वर्ग के शोषण का शिकार न हो जाएं। इस प्रकार हम देखते हैं कि कानून तथा न्याय एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

5. आर्थिक न्याय:
सामाजिक न्याय की तरह आर्थिक न्याय की अवधारणा भी आजकल बड़ी लोकप्रिय है। इसका अर्थ है-व्यक्तियों को आर्थिक क्षेत्र में न्याय प्रदान करना, आर्थिक असमानताओं को दूर करना, लोगों को आर्थिक शोषण से मुक्त करना तथा उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना।

आर्थिक न्याय के अंतर्गत यह बात भी आती है कि सभी व्यक्तियों को काम उपलब्ध हो, काम के कम-से-कम घंटे और अधिक-से-अधिक मजदूरी निश्चित हो, किसी का आर्थिक शोषण न हो और आर्थिक मजबूरी के कारण किसी को कोई अनैतिक काम न करना पड़े। सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा आज सामाजिक और आर्थिक न्याय की दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं।

6. नैतिक न्याय:
संसार में कुछ नियम सर्वव्यापक, अपरिवर्तनशील और प्राकृतिक हैं। इनके अनुसार होने वाले आचरण या व्यवहार को ही नैतिक न्याय कहते हैं। उदाहरण-स्वरूप सच बोलना, प्रतिज्ञा-पालन, दया, सहानुभूति पूर्ण व्यवहार, उदारता, क्षमा आदि नैतिक न्याय के अंतर्गत आते हैं। ऐसे व्यवहार की स्थापना में राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी और सबको स्वतः ही नैतिक न्याय की प्राप्ति हो जाएगी।

प्रश्न 3.
सामाजिक न्याय के अर्थ और महत्त्व बताएँ।
अथवा
सामाजिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक न्याय का अर्थ (Meaning of Social Justice)-20वीं शताब्दी में सामाजिक न्याय की अवधारणा ने बड़ा जोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय का अर्थ मुख्य रूप से यह है कि समाज के सभी सदस्य समान समझे जाने चाहिएँ और उन्हें अधिकार तथा सुविधाएं भी समान रूप से मिलनी चाहिएं, कम या अधिक नहीं। वैसे सामाजिक न्याय की अवधारणा बड़ी पुरानी है।

भारतीय राजनीतिज्ञ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सामाजिक और आर्थिक न्याय का उल्लेख है। उसने लिखा है, “राज्य अनाथों, असहायों, दिव्यांगों आदि को निर्वाह के साधन प्रदान करेगा तथा आर्थिक व्यवस्था का संचालन ऐसे करेगा कि नागरिकों को न्याय प्राप्त हो।” सामाजिक न्याय की अवधारणा को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

पी०वी० गजेन्द्रगड़कर के अनुसार सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है। बार्कर का कहना है कि प्रत्येक समाज का उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति में निहित गुणों को विकसित करने के लिए समान अवसर प्रदान करना है जिसके लिए एक उचित व्यवस्था की स्थापना करना ही सामाजिक न्याय है।

लास्की के अनुसार, “समान सामाजिक अधिकार देना ही सामाजिक न्याय है।” कुछ विद्वानों के अनुसार, समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित भाग प्रदान करना ही सामाजिक न्याय है। अपनी पुस्तक आस्पैक्ट्स ऑफ जस्टिस (Aspects of Justice) में सर सी०के० एलेन (C.K. Allen) ने सामाजिक न्याय के विषय में लिखा है, “आज हम सामाजिक न्याय के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं।

कुछ इसका अर्थ संपत्ति के विभाजन अथवा पुनर्विभाजन से लेते हैं, कुछ इसकी व्याख्या ‘अवसर की समानता’ के रूप में करते हैं जो एक भ्रामक कथन है। मुझे भय है कि कुछ इसका अर्थ यह लेते हैं कि उनमें किसी का भी आर्थिक रूप से समृद्ध होना अन्यायपूर्ण है और अधिक बुद्धिमान लोग

इसका अर्थ यह लेते हैं कि प्राकृतिक मानवीय असमानता की सूक्ष्मता को कम किए जाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाए और आत्मोन्नति के व्यावहारिक अवसरों में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए, वरन् उन्हें सहायता पहुंचानी चाहिए।” सर सी०के० एलेन के इस कथन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक न्याय की धारणा बहुत हद तक अस्पष्ट है।

सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाओं का अस्तिव आवश्यक है

1. कानून के समक्ष समानता:
सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि कानून की दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाए। किसी व्यक्ति के साथ रंग, जाति, धर्म, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए। सभी लोगों के लिए एक जैसे कानून होने चाहिएं। प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार दिया गया है।

2. सामाजिक समानता:
सामाजिक न्याय की यह विशेषता है कि इससे सामाजिक समानता की स्थापना की जाती है। समाज में सभी व्यक्ति समान समझे जाने चाहिएं और सबको अपने जीवन-विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएं। सब पर एक ही प्रकार के कानून लागू होने चाहिएं और कानून के सामने सब सदस्य समान होने चाहिएं।

3. समान अधिकार:
सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। अधिकार किसी विशेष वर्ग की निजी संपत्ति नहीं होने चाहिएं। सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। यदि किसी वर्ग अथवा व्यक्ति को रंग, जाति, वंश, धर्म और लिंग आदि के आधार पर अधिकारों से वंचित किया जाता है तो वहाँ पर सामाजिक न्याय नहीं हो सकता है।

4. पिछड़े वर्गों के लिए विशेष सुविधाएं:
सामाजिक न्याय की यह भी विशेषता है कि यह समाज के पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ने के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान करने की व्यवस्था करता है। यूं भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय के अंतर्गत व्यक्ति के रास्ते में जो बाधाएं हैं (जैसे कि पिछड़ापन), उन्हें दूर करने के लिए विशेष सुविधाएं और संरक्षण प्रदान किया जाता है, ताकि पिछड़ा वर्ग भी दूसरों के समान स्तर पर आ जाए।

5. असमानता का हटाना:
सामाजिक न्याय की यह भी विशेषता है कि यह समाज में फैली प्राकृतिक असमानताओं को कम करने का प्रयास करता है और सामाजिक असमानताओं को दूर करता है। इसी के अंतर्गत भारत में छुआछूत को समाप्त किया गया है और इसे गैर-कानूनी घोषित किया गया है। जिस समाज में एक वर्ग को अछूत समझा जाता हो, वहाँ सामाजिक न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

6. सामाजिक बुराइयों को दूर करना:
प्रत्येक समाज अनेक प्रकार के भ्रमों और सामाजिक बुराइयों का शिकार होता है और ये भ्रम व सामाजिक बुराइयां ही सामाजिक न्याय के रास्ते में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। अतः सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए सामाजिक बुराइयां जैसे बाल-विवाह, सती-प्रथा, दहेज-प्रथा आदि को दूर करना आवश्यक है।

7. धन का न्यायपूर्ण वितरण:
धन का असमान वितरण भी सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधक है। अतः सामाजिक न्याय की मांग है कि समाज में धन का न्यायपूर्ण वितरण होना चाहिए। राज्य द्वारा इस प्रकार की व्यवस्था की स्थापना करनी चाहिए, जिससे धन के असमान वितरण को दूर किया जा सके।

8. सामाजिक सुरक्षा:
प्रत्येक समाज में दुर्बल, असहाय, दिव्यांग, रोगी एवं बुजुर्ग व्यक्ति होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों को सहायता प्रदान करना समाज का कर्तव्य है। इसे ही सामाजिक सुरक्षा कहते हैं। जिस समाज में इस प्रकार के व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है, वहाँ सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः राज्य को इस प्रकार के सभी मनुष्यों के हितों की सुरक्षा का प्रबंध करना चाहिए।

9. लोकतांत्रिक व्यवस्था:
लोकतंत्र प्रणाली समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व पर आधारित है। लोकतंत्र में व्यक्तियों में किसी भी आधार पर अंतर नहीं किया जाता। सभी को बिना किसी भेदभाव के अधिकार प्राप्त कराए जाते हैं। यह सब कुछ सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है अतः लोकतंत्रीय व्यवस्था सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिए आवश्यक शर्त है। उपरोक्त बातों को लागू करके सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।

सामाजिक न्याय का महत्त्व:
आधुनिक युग में सामाजिक न्याय का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक न्याय की स्थापना के बाद वर्ग-विहीन समाज की स्थापना है। जिसमें शिक्षा का विकास होता है नागरिकों की संख्या बढ़ती है। शिक्षित नागरिक देश की संपत्ति हैं। सामाजिक न्याय राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करता है लोकतंत्र को सफल बनाने में सहायता करता है। अंत में नागरिक सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 4.
सामाजिक न्याय क्या है? भारतीय संविधान में दिए गए सामाजिक न्याय के विभिन्न प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है और भारत में यह कहाँ तक प्राप्त है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय से अभिप्राय सामाजिक न्याय से तात्पर्य यह है कि नागरिकों के साथ सामाजिक दृष्टिकोण से किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए तथा उन्हें उन्नति और विकास के समान अवसर प्राप्त हों। सामाजिक न्याय का आधार सामाजिक समानता है, जिसके लिए राजनीतिक सत्ता को प्रयत्न करना चाहिए।

सामाजिक न्याय की अवधारणा मूल रूप से इस बात पर आधारित है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और धर्म, जाति, रंग, वंश आदि के आधार पर उन्हें असमान नहीं माना जाना चाहिए। भारतीय विद्वान श्री पी०वी० गजेन्द्रगड्कर के अनुसार, “सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है।” प्रो० लास्की के अनुसार, “न्याय स्वतंत्रता का आधार है और सामाजिक न्याय का अर्थ समान सामाजिक न्याय से है।”

अंत में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध कराना और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही सामाजिक न्याय है। भारत में सामाजिक न्याय (Social Justice in India)-वैसे तो प्राचीनकाल से ही भारत में सामाजिक न्याय का समर्थन हुआ है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में लिखा था कि

राज्य अनाथों, असहायों, दिव्यांग आदि को निर्वाह के साधन प्रदान करेगा, स्त्रियों, बच्चों व बीमारों को सुविधाएं देगा और आर्थिक व्यवस्था का गठन इस ढंग से करेगा कि नागरिकों को न्याय प्रदान किया जा सके। यह व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक न्याय की व्यवस्था है। आरम्भ में जाति-प्रथा काम पर आधारित थी, जन्म पर नहीं। इस समय सामाजिक न्याय को किसी प्रकार की हानि नहीं थी।

बाद में जाति-प्रथा जन्म पर आधारित हो गई और भारतीय समाज में छुआछूत आदि की बुराइयां उत्पन्न हुईं। इसके बाद तो भारतीय समाज अनेकों बुराइयों का शिकार रहा; जैसे छुआछूत, ऊंच-नीच, सांप्रदायिकता आदि। एक वर्ग को अछूत समझा जाने लगा जिसे जीवन के विकास के अवसर भी प्रदान नहीं किए गए थे। यहाँ तक कि अनुसूचित जातियों पर कुओं, तालाबों, पाठशालाओं व मंदिरों का प्रयोग करने पर भी प्रतिबंध था।

19वीं शताब्दी में समाज-सुधारकों और राष्ट्रीय नेताओं ने इन बुराइयों को दूर करने के प्रयत्न किए और सामाजिक न्याय पर जोर दिया। लोगों में जागृति उत्पन्न हुई। 20वीं शताब्दी में महात्मा गांधी ने हरिजनों के कल्याण के लिए विशेष कार्य किए। 1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सामाजिक न्याय की व्यवस्था के लिए सरकार ने विशेष कदम उठाए और संविधान के द्वारा भी भारत में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करने के प्रयत्न किए गए।

भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के प्रावधान भारत में मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों द्वारा सामाजिक न्याय की व्यवस्था की गई है, जो इस प्रकार है

(क) संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक समाजवादी धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, जो सामाजिक समानता, सामाजिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक न्याय की ओर इशारा करता है और ये सभी बातें सामाजिक न्याय के आधार हैं।

(ख) मौलिक अधिकार धारा 14-15 में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है तथा सभी पर समान कानून लागू होते हैं और कानून के सामने सब समान हैं। जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता और सभी व्यक्तियों को अपने जीवन के विकास के अवसर प्रदान किए गए हैं।

(1) धारा 17 में छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और सभी सार्वजनिक स्थान सभी लोगों के लिए समान रूप से खोल दिए गए हैं।

(2) पिछड़े वर्गों के उत्थान, स्त्रियों, बच्चों तथा श्रमिकों की स्वास्थ्य-रक्षा तथा उन्हें शोषण से बचाने के लिए विशेष सुविधाओं और संरक्षण की व्यवस्था है। पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए विधानमंडल, सरकारी कार्यालयों और शिक्षा-संस्थाओं में स्थान आरक्षित हैं।

(3) धारा 19 में लोगों को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं जो बिना किसी भेदभाव के दी गई हैं और ये सामाजिक न्याय को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

(4) संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकालना आर्थिक न्याय की ओर एक कदम है, जो सामाजिक न्याय का आधार है। बेगार की समाप्ति कर दी गई है और लोगों को शोषण के विरूद्ध अधिकार दिया गया है।

(5) धारा 29 और 30 में अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक व शैक्षणिक विकास के लिए उन्हें मौलिक अधिकार दिए गए हैं, ताकि वे समाज में स्वतंत्रता-पूर्वक रह सकें और बहुसंख्यक वर्ग उन पर प्रभाव न जमा सके।

(ग) राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संविधान के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सामाजिक न्याय की स्थापना की व्यवस्था की गई है। राज्य के नीति के निदेशक सिद्धांतों में ऐसे कितने ही सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, जिनका लक्ष्य सामाजिक न्याय की स्थापना करना है, जैसे

(1) अनुच्छेद 38 के अनुसार, राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।

  • राज्य अपनी नीति का संकलन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्रियों और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले,
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार से हो कि जन-साधारण के हितों की प्राप्ति हो सके।
  • श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार व्यवस्था का दुरुपयोग न हो।

(2) अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य न्यायपूर्ण तथा मानवीय दशाओं और प्रसूति सहायता की व्यवस्था करेगा।
(3) अनुच्छेद 43 के अंतर्गत राज्य मजदूरों के लिए जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का प्रयत्न करेगा।
(4) अनुच्छेद 46 में यह स्पष्ट कहा गया है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष रूप से वृद्धि करे और उनका सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे।
(5) अनुच्छेद 47 के अनुसार राज्य लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा करने का प्रयास करेगा।

उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संविधान के अंतर्गत सामाजिक न्याय की स्थापना की व्यवस्था की गई है। भारत सरकार ने भी सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए अनेक प्रकार की नीतियां बनाई हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
अथवा
आर्थिक न्याय क्या है? इसके लक्षण बताएँ।
उत्तर:
आर्थिक न्याय उदारवादियों ने न्याय के कानूनी, राजनीतिक व सामाजिक पक्ष पर बल दिया है। इसके विपरीत मार्क्सवादियों ने न्याय के आर्थिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने इसे ‘न्याय’ का मूल आधार माना है। आर्थिक न्याय आर्थिक समानता के आदर्श को मूल स्थान देता है, अर्थात आर्थिक न्याय का अर्थ आर्थिक समानता से लिया जाता है। इसी कारण आधुनिक युग में आर्थिक न्याय की अवधारणा प्रबल और लोकप्रिय होती जा रही है।

आर्थिक न्याय का अर्थ सभी नागरिकों को धन प्राप्त करने व आर्थिक जीवन में विकास करने के अवसर प्रदान करने से है। आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक को समानता व स्वतंत्रता प्राप्त हो। समाज में आर्थिक असमानताओं को दूर करना और नागरिकों को आर्थिक शोषण से मुक्त कराना भी आर्थिक न्याय के क्षेत्र में आता है। इतना ही नहीं, आर्थिक न्याय में यह भी निहित है कि समाज को अपने उस असहाय वर्ग की सहायता करनी चाहिए जो धनोपार्जन नहीं कर सकता। समाज के कमजोर वर्ग को आर्थिक सहायता प्रदान करना आर्थिक न्याय ही है। वास्तव में आर्थिक न्याय की कल्पना को साकार करने के लिए सभी नागरिकों को राष्ट्रीय

संपत्ति और न्याय में समान रूप से भागीदार होना चाहिए। ऐसा न हो कि संपत्ति देश के कुछ वर्गों के हाथ में इकट्ठी होकर रह जाए। सीतलवाद (Setalvad) ने आर्थिक न्याय के बारे में विचार व्यक्त किए हैं, “आर्थिक न्याय का अर्थ नागरिक को धन प्राप्त करने व जीवन में उसका प्रयोग करने के समान अवसर प्रदान करने से है। इसमें यह निहित भी है कि जो व्यक्ति असहाय है, वृद्ध या बेकार है और धन अर्जित नहीं कर सकता, समाज को उसकी सहायता करनी चाहिए।”

आर्थिक न्याय के लक्षण: आर्थिक न्याय के मुख्य लक्षणों का वर्णन निम्नलिखित है

1. काम का अधिकार:
मनुष्य की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएं होती हैं जिनकी पूर्ति अनिवार्य है। उनकी पूर्ति के लिए नागरिकों को काम चाहिए अर्थात प्रत्येक नागरिक को काम मिलना चाहिए। काम के अधिकारों की स्थिति भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। इंग्लैंड में नागरिकों को काम देना सरकार का कर्त्तव्य है। काम न मिलने की स्थिति में उन्हें बेरोजगार भत्ता दिया जाता है। साम्यवादी देशों में भी काम देना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत में सरकार प्रत्येक व्यक्ति को काम देने का प्रयत्न कर रही है।

2. समान कार्य के लिए समान वेतन:
यह भी जरूरी है कि पुरुष व महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। महिलाओं की मजबूरी का लाभ न उठाया जाए। लोगों को वेतन उनके काम व गुण के आधार पर दिया जाए। एक से श्रमिकों का वेतन सभी जगह एक-सा होना चाहिए। एक से अधिकारियों का वेतन भी एक ही होना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अध्यापक व एक श्रमिक का वेतन एक-सा नहीं हो सकता।

3. न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति:
मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताएं हैं, उनकी पूर्ति होना अनिवार्य है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने की स्थिति में लोकतंत्र व राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना एक ढोंग व दिखावा है, क्योंकि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति राजनीति के बारे में सोच ही नहीं सकता। आर्थिक शोषण व्यक्ति को लोकतंत्र के लिए सोचने का मौका ही नहीं देता।

4. आर्थिक सुरक्षा:
आर्थिक सुरक्षा भी आर्थिक न्याय का एक भाग है। इसका अर्थ है कि बुढ़ापे, बीमारी, दिव्यांग और असहाय होने की स्थिति में जब व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा नहीं सकता तो राज्य द्वारा उसकी आर्थिक सहायता होनी चाहिए। उन्हें पेंशन, निःशुल्क चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं।।

5. श्रमिकों के हितों की रक्षा:
आर्थिक न्याय का एक और पक्ष है कि श्रमिकों के हितों की रक्षा की जाए। इस पक्ष का मार्क्सवादियों ने समर्थन किया है। उनके अनुसार श्रमिकों का शोषण नहीं होना चाहिए। श्रमिकों को उनके काम के गुण व मात्रा के अनुसार वेतन दिया जाना चाहिए। श्रमिकों के स्वास्थ्य की देखभाल की जाती है। स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह, बच्चों के लिए बाल-गृह या हित-केंद्र खोले जाते हैं।

6. आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप:
राज्य का आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी न्याय के आर्थिक पक्ष में आता है। इसका तात्पर्य यह है कि क्या राज्य को आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया जाए या नहीं। कुछ लोगों का विचार है कि राज्य के हस्तक्षेप से आर्थिक विकास रुक जाता है। अतः राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने दिया जाना चाहिए। परंतु इसके विपरीत मार्क्सवादी राज्य द्वारा हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं।

सभी प्रकार के उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण होता है। आर्थिक न्याय इस बात का समर्थन करता है कि राज्य को आर्थिक क्षेत्र में सीमित हस्तक्षेप का अधिकार होना चाहिए, अर्थात आधुनिक युग में मिश्रित अर्थव्यवस्था को मान्यता प्रदान की गई है। जिसमें एक ओर राज्य व्यक्ति के आर्थिक कल्याण के लिए आर्थिक कार्य करता है तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र में व्यक्ति को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है।।

निष्कर्ष:
आर्थिक न्याय की अवधारणा के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आधुनिक युग की महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। यह सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायता करती है। बिना आर्थिक न्याय की स्थापना के समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं की जा सकती।

प्रश्न 6.
सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष प्रकार की अवस्थाओं या व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। इन व्यवस्थाओं को सामाजिक न्याय की विशेषताएं या पहलू भी कहा जाता है। सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक व्यवस्था में सुधार-समय के परिवर्तन के साथ-साथ समाज में भी परिवर्तन होता है। समाज में कई प्रकार की कुरीतियाँ स्थापित हो जाती हैं। पारिवारिक और सामाजिक विघटन के कारण कई प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। युवक व युवतियां कई बुराइयों के शिकार हो जाते हैं; जैसे नशीली दवाओं का शिकार होना, किशोरों और किशोरियों में अपराध प्रवृत्ति का बढ़ना। इन सभी समस्याओं को शासन या राज्य कानून बनाकर दूर कर सकता है और किया जा रहा है इसे सामाजिक न्याय ही कहते हैं।

2. सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की एक और विशेषता यह है कि समाज में समानता स्थापित हो । समाज में व्यक्ति, व्यक्ति के बीच किसी भी आधार पर असमानता नहीं होनी चाहिए। सभी कानून के सामने समान होने चाहिएं और सभी को प्रगति के समान अवसर मिलने चाहिएं। समाज में रंग, जाति व वर्ग के आधार पर भेदभाव किया जाता है। जैसे भारत में या फिर अफ्रीका में गोरे और काले के आधार पर अंतर किया जाता था। उन्हें समाज में समान दर्जा नहीं दिया जाता था। इसलिए समाज में इस प्रकार की असमानता को कानून बनाकर राज्य दूर कर सकता है। यही नहीं, नागरिकों को शिक्षित करके भी इस असमानता को दूर किया जा सकता है और सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।

3. विशेषाधिकारों की समाप्ति सामाजिक न्याय की यह विशेषता है कि समाज में विशेषाधिकारों की समाप्ति। सामाजिक न्याय-युक्त समाज में किसी वर्ग विशेष को अधिकार या सुविधाएँ नहीं दी जाती हैं। सभी को योग्यतानुसार विकास के अधिकार दिए जाते हैं। धर्म, जाति, वंश के आधार पर विकास की सुविधाओं से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता।

4. अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग के हितों की सुरक्षा अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग के हितों की सुरक्षा करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग को कुछ विशेष सुविधाएं देकर उन्हें उन्नति व विकास के रास्ते पर अग्रसर किया जा सकता है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय में इन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर उसके विकास के रास्ते में जो बाधाएं हैं उन्हें दूर किया जा सकता है ताकि ये समाज के दूसरे वर्गों के समान स्तर पर आ जाएं। भारत में अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे भाषा, लिपि व संस्कृति के विकास के लिए शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं। राज्य द्वारा ऐसी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाएगी।

5. सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग-अब यह बात सभी समाजों में स्वीकार कर ली गई है कि सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग सभी नागरिक कर सकते हैं। इनके उपयोग के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. न्याय की अवधारणा का प्रभाव निम्नलिखित में से होता है
(A) अराजकता की समाप्ति
(B) भ्रष्टाचार की समाप्ति
(C) शोषण से मुक्ति
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

2. प्लेटो ने न्याय का कौन-सा रूप बताया है?
(A) व्यक्तिगत न्याय
(B) सामाजिक न्याय
(C) व्यक्तिगत एवं सामाजिक न्याय
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) व्यक्तिगत एवं सामाजिक न्याय

3. अरस्तु ने न्याय को निम्नलिखित किन दो भागों में बांटा है?
(A) व्यक्तिगत न्याय एवं सामाजिक न्याय
(B) वितरणात्मक एवं सुधारक न्याय
(C) ईश्वरीय न्याय एवं सांसारिक न्याय
(D) निष्पक्षता एवं सत्य पर आधारित न्याय
उत्तर:
(B) वितरणात्मक एवं सुधारक न्याय

4. न्याय का आधारभूत लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) सत्य
(B) निष्पक्षता
(C) संरक्षित भेदभाव
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. लॉक ने निम्नलिखित में से किसे प्राकृतिक अधिकार माना है?
(A) जीवन का अधिकार
(B) स्वतंत्रता का अधिकार
(C) संपत्ति का अधिकार
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. रॉल्स के वितरणात्मक न्याय सिद्धांत की मुख्य विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) समाज में न्याय का प्रथम स्थान
(B) स्वतंत्रता एवं अधिकारों (प्राथमिक वस्तुओं) का न्यायपूर्ण वितरण
(C) अवसरों की समानता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

7. रॉल्स के वितरणात्मक न्याय सिद्धांत निम्नलिखित में से मुख्य मार्क्सवादी विद्वान आलोचक है
(A) मिल्टन फिस्क
(B) रिचर्ड मिलर
(C) मिल्टन फिस्क एवं रिचर्ड मिलर
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) मिल्टन फिस्क एवं रिचर्ड मिलर

8. सामाजिक न्याय का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) कानून के समक्ष समानता
(B) समाज में विशेषाधिकारों की समाप्ति
(C) शोषण का निषेध
(D) समाज के अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा
उत्तर:
(D) समाज के अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. ‘वितरणात्मक न्याय’ के मुख्य प्रवर्तक किसे माना जाता है?
उत्तर:
जान रॉल्स को।

2. A Theory of Justice (1971)’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
जॉन राल्स।

3. किस विद्वान ने ‘न्याय’ को राज्य का प्राण कहा है?
उत्तर:
कौटिल्य ने।

4. जस्टिस (Justice) शब्द लेटिन भाषा के जस (Jus) शब्द से लिया गया है। लेटिन भाषा में जस (Jus) शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जस शब्द का अर्थ है बांधना।

रिक्त स्थान भरें

1. अंग्रेजी भाषा के जस्टिस (Justice) शब्द की उत्पत्ति …………. शब्द से हुई है।
उत्तर:
जस

2. समाज में धन एवं संपत्ति के असमान वितरण को …………. कहा जाता है।
उत्तर:
आर्थिक अन्याय

3. ……………… ने न्याय को समानता एवं स्वतंत्रता का मिश्रण बताया है।
उत्तर:
रूसो एवं लॉक

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