Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ
HBSE 12th Class History भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Questions and Answers
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों की दृष्टि में भारत के विभिन्न समुदायों में विचारों व विश्वासों का आदान-प्रदान होता था। धार्मिक विश्वासों के बारे में वे मानते हैं कि कम-से-कम दो प्रक्रियाएँ चल रही थीं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार की थी। यह परंपरा मूल रूप से उच्च वर्गीय परंपरा थी जो वैदिक ग्रंथों में फली-फूली। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में भी रचे गए। वैदिक परंपरा का यह सरल साहित्य सामान्य लोगों के लिए था। दूसरी परंपरा शूद्र, स्त्रियों व अन्य सामाजिक वर्गों के बीच स्थानीय स्तर पर विकसित हुई विश्वास प्रणालियों पर आधारित थी। अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ऐसी प्रणालियाँ काफी लंबे समय में विकसित हुईं। इन दोनों अर्थात् ब्राह्मणीय व स्थानीय परंपराओं के संपर्क में आने से एक-दूसरे में मेल-मिलाप हुआ। इसी मेल-मिलाप को (ख) इतिहासकार समाज की गंगा-जमुनी संस्कृति या संप्रदायों के समन्वय के रूप में देखते हैं। इसमें ब्राह्मणीय ग्रंथों में
शूद्र व अन्य सामाजिक वर्गों के आचरणों व आस्थाओं को स्वीकृति मिली। दूसरी ओर सामान्य लोगों ने कुछ सीमा तक ब्राह्मणीय परंपरा को स्थानीय विश्वास परंपरा में शामिल कर लिया। इसका एक बेहतरीन उदाहरण उड़ीसा में पुरी में देखने को मिलता है। यहाँ स्थानीय देवता जगन्नाथ अर्थात् संपूर्ण विश्व का स्वामी था। बारहवीं सदी तक आते-आते उन्होंने अपने इस देवता को विष्णु के रूप में स्वीकार कर लिया।
प्रश्न 2.
किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है?
उत्तर:
इस्लाम का लोक प्रचलन जहाँ भाषा व साहित्य में देखने को मिलता है, वहीं स्थापत्य कला (विशेषकर मस्जिद) के निर्माण में भी स्पष्ट दिखाई देता है। मस्जिद के लिए अनिवार्य है कि उसका प्रार्थना स्थल का दरवाजा मक्का की ओर खुले तथा मस्जिद में मेहराब तथा मिनबार (व्यासपीठ) हो। इन समानताओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ मस्जिदें बनीं जिनमें मौलिकताएँ तो वही हैं लेकिन छत की स्थिति, निर्माण का सामान, सज्जा के तरीके व स्तंभों के बनाने की विधि अलग थी। इनको जन-सामान्य ने अपनी भौगोलिक व परंपरा के अनुरूप बनाया। कश्मीर में श्रीनगर स्थित झेलम नदी के किनारे बनी चरार-ए-शरीफ को देखिए जो पहाड़ी क्षेत्र की भवन निर्माण परंपराओं को प्रदर्शित करती है। इससे स्पष्ट होता है कि इस्लामिक स्थापत्य स्थानीय लोक प्रचलन का एक हिस्सा बन गया, अर्थात् इनमें मस्जिद के सार्वभौमिक गुण भी थे तथा स्थानीय परिपाटी को भी अपनाया गया था।
प्रश्न 3.
बे शरिया और बा शरिया सूफी परंपरा के बीच एकरूपता और अंतर, दोनों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूफी फकीरों ने सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या कर नवीन मतों की नींव रखी। जैसे उन्होंने खानकाह का जीवन त्यागकर रहस्यवादी, फकीर की जिंदगी को निर्धनता व ब्रह्मचर्य के साथ जिया। इन्हें कलंदर, मदारी, मलंग व हैदरी इत्यादि नामों से जाना गया। इन सूफी मतों में जो शरिया में विश्वास करते थे उन्हें बा-शरिया कहते थे तथा जो शरिया की अवहेलना करते थे उन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इनमें एकरूपता इस बात की थी कि ये दोनों सूफी आंदोलन से थे। इनकी जीवन-शैली सरल थी। ये इस्लामिक परंपराओं की व्याख्या सरल ढंग से करते थे। इनमें अंतर इनके विश्वास को लेकर था। बा-शरिया के फकीर धर्म को राजनीति से जुड़ा मानते थे तथा वे शासन को शरियत के अनुसार चलाने के पक्षधर थे, जबकि बे-शरिया धर्म की व्याख्या देश, काल, परिस्थिति के अनुसार करने में विश्वास करते थे।
प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार व वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
अलवार, नयनार व वीरशैव दक्षिण भारत में उत्पन्न विचारधाराएँ थीं। इनमें अलवार व नयनार तमिलनाडु में तथा वीरशैव कर्नाटक में थे। इन्होंने जाति प्रथा के बंधनों को अपने ढंग से नकारा। अलवार व नयनार संतों ने जाति प्रथा का खंडन किया। उन्होंने सभी मनुष्यों को एक ईश्वर की संतान घोषित किया। इनके साहित्य में वैदिक ब्राह्मणों की तुलना में विष्णु भक्तों को प्राथमिकता दी गई है। ये भक्त चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण से थे। अलवार व नयनार संत ब्राह्मण समाज, शिल्पकार और किसान समुदाय से थे। इनमें से कुछ तो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों में से भी थे। अलवार समाज ने इन संतों व उनकी रचनाओं को पूरा सम्मान दिया तथा उन्हें वेदों जितना प्रतिष्ठित बताया।
अलवार संतों का एक मुख्य काव्य ‘नलयिरादिव्यप्रबंधम्’ को तमिल वेद के रूप में मान्यता दी गई। लिंगायत समुदाय के लोगों ने भी जाति व्यवस्था का विरोध किया। इन्होंने ब्राह्मणीय धर्मशास्त्रों की मान्यताओं को नहीं स्वीकारा। उन्होंने वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान की। इस समुदाय में अधिकतर वे लोग शामिल हुए जिनको ब्राह्मणवादी व्यवस्था में विशेष महत्त्व नहीं मिला। इनका विश्वास था कि जाति व्यवस्था वर्ग विशेष के हितों की पूर्ति करती है।
प्रश्न 5.
कबीर तथा बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस तरह संप्रेषण हुआ ?
उत्तर:
कबीर तथा गुरु नानक मध्यकालीन संत परंपरा में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके उपदेशों ने समाज को नई दिशा दी। कबीर-कबीर के जन्म, प्रारंभिक जीवन और वंश आदि के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार उनका जन्म बनारस में हिन्दू परिवार में हुआ, परन्तु उनका पालन-पोषण नीरू नामक जुलाहे के घर में हुआ। वे ईश्वर की एकता, समानता में विश्वास रखते थे। उन्होंने अच्छे कर्मों, चरित्र की उच्चता व मन की पवित्रता पर बल दिया। जाति-पांति व वर्ग में वे विश्वास नहीं करते थे। उन्हें हिन्दू-मुसलमान एकता में दृढ़ विश्वास था। हजारों हिन्दू, मुस्लिम उनके शिष्य थे। वे मूर्ति-पूजा, व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों व आडंबरों के घोर विरोधी थे। मूर्ति-पूजा का खंडन करते हुए
उन्होंने बहुत सुंदर दोहा लिखा
“जे पाहन पूजै हरि मिलें, तो मैं पूनँ पहार।
वा ते यह चाकी भली, पीस खाए संसार।”
कबीर को रामानन्द का शिष्य माना जाता है। भक्ति आंदोलन के सुधारकों में कबीर को बड़ा ऊँचा और महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किए। उन्होंने जात-पात, छुआछूत, व्यर्थ के रीति-रिवाज़, मूर्ति पूजा, धार्मिक यात्राओं, अंधविश्वासों और बाह्य आडम्बरों का खंडन किया। उन्होंने मन की शुद्धता और अच्छे कर्म करने पर अधिक बल दिया।
श्री गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी सिख धर्म के प्रणेता थे। उनका जन्म 1469 ई० में रावी नदी के तट पर स्थित तलवंडी (वर्तमान ननकाना साहिब) नामक गाँव में हुआ था। उनका झुकाव शुरू से ही अध्यात्मवाद की ओर था। उन्होंने सारे भारत में, दक्षिण में श्रीलंका से पश्चिम में मक्का और मदीना तक का भ्रमण किया था।
उनकी प्रमुख शिक्षा थी कि ईश्वर एक है। वह सर्वशक्तिमान है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने निष्काम भक्ति, शुभ कर्म, शुभ जीवन, नाम के स्मरण और आत्मसमर्पण पर अधिक बल दिया। मार्गदर्शन के लिए उन्होंने गुरु की अनिवार्यता को स्वीकार किया है। वे जाति-पाति, ऊँच-नीच, धर्म व वर्ग के भेदभाव के विरुद्ध थे। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। वे गृहस्थ जीवन को सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उसके त्याग के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने गृहस्थ जीवन में ही ईश्वर की प्राप्ति को संभव बताया। धर्मनिरपेक्षता के प्रचार के लिए उन्होंने लंगर की प्रथा प्रारंभ की, उन्हें गरीबों से अत्यधिक सहानुभूति थी, धर्म के नाम पर आपसी संघर्ष व्यर्थ है। इन्होंने एक साधारण व्यक्ति का जीवन जीते हुए लोक भाषा में अपनी बात कही। इनके तर्क करने का ढंग तथा उपदेश जनता में लोकप्रिय हुए जिस कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग इनका अनुसरण करने लगे।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)
प्रश्न 6.
सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सूफी मत के धार्मिक विश्वास सरल थे। ये सरल आदर्श ही इनके आचरण का आधार बने। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है नौवीं सदी में जब सूफी मत का आंदोलन के रूप में आविर्भाव हुआ, तो इसके लिए कुछ नियमों तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। सूफी साधकों ने परमात्मा, आत्मा तथा सृष्टि आदि की विवेचना की। संक्षेप में, सूफी मत के सिद्धान्तों को निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जा सकता है
(1) परमात्मा के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि परमात्मा एक है। उनका मानना था कि वह अद्वितीय पदार्थ जो
(2) आत्मा को सूफी साधक ईश्वर का अंग मानते हैं। यह सत्य प्रकाश का अभिन्न अंग है, परन्तु मनुष्य के शरीर से उसका अस्तित्व खो जाता है।
(3) जगत के संबंध में सूफी साधकों का विचार है कि परमात्मा से सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, नक्षत्रगण आदि उत्पन्न हुए। परमात्मा की कृपा से ही अग्नि, हवा, जल, पृथ्वी का निर्माण हुआ। सूफी साधक जगत को माया से पूर्ण नहीं देखते थे।
(4) मनुष्य के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि मनुष्य परमात्मा के सभी गुणों को अभिव्यक्त करता है।
(5) सूफी साधकों ने पूर्ण मानव को अपना गुरु (मुर्शीद) माना। बिना आध्यात्मिक गुरु के वह कभी, कुछ नहीं प्राप्त कर सकता है।
(6) प्रेम को प्रायः सभी धर्मों में परमात्मा को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधक माना है। सूफियों ने भी इसी प्रेम के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने की आशा की।
(7) परमात्मा के साक्षात्कार के लिए, मिलन या एकाकार होने के लिए अपनी यात्रा में सूफियों को दस अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। सूफी मत के अनुसार ये दस अवस्थाएँ इस प्रकार थीं
- तैबा (प्रायश्चित)
- बरा (संयम)
- जुहद (धर्मपरायणता)
- फगर (निर्धनता)
- सब्र (धैर्य)
- शुक्र (कृतज्ञता)
- खौफ (भय)
- रज़ा (आशा)
- तवक्कुल (संतुष्टि)
- रिजा (देवी इच्छा के समक्ष आत्म-समर्पण)
इन सिद्धान्तों पर चलते हुए सूफी संत व उनके अनुयायी कष्टमय जीवन जीना पसन्द करते थे। उनके लिए सुख, साधन इतना अर्थ नहीं रखते थे जितना कि जिंदगी के सरलतम व ऊँचे आदर्शों के अनुरूप जीना। ये प्रायः समझौतावादी चिंतन नहीं अपनाते थे।
प्रश्न 7.
क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तर:
अलवार, नयनार व सूफी संत जन-साधारण के बीच काफी लोकप्रिय होते थे। शासक की तुलना में समाज पर उनकी पकड़ काफी अच्छी होती थी। शासकों की हमेशा यह इच्छा रहती थी कि वे इन संत-फकीरों का विश्वास जीत लें। इससे जनता के साथ जुड़ने में आसानी रहेगी तथा उन्हें जन समर्थन मिलने की उम्मीद रहेगी। तमिलनाडु क्षेत्र में शासकों ने अलवार-नयनार संतों को हर प्रकार का सहयोग दिया। इन शासकों ने उन्हें अनुदान दिए तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया।
चोल शासकों ने चिदम्बरम, तंजावुर तथा गंगैकोंडचोलपुरम में विशाल शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया। इन मन्दिरों में शिव की कांस्य प्रतिमाओं को बड़े स्तर पर स्थापित किया। अलवार व नयनार संत वेल्लाल कृषकों व सामान्य जनता में ही सम्मानित नहीं थे, बल्कि शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। सुन्दर मन्दिरों का निर्माण व उनमें मूर्तियों (कांस्य, लकड़ी, पत्थर व अन्य धातुओं) की स्थापना के अतिरिक्त शासक वर्ग ने संत कवियों के गीतों व विचारों को भी महत्त्व दिया। उन्होंने इन संत-कवियों की प्रतिमाएँ भी देवताओं के साथ लगवाईं। इन संतों के उपदेशों व भजनों का संग्रह करवाकर शासकों ने एक तमिल ग्रन्थ ‘तवरम’ का संकलन भी किया।
इसी तरह से सूफी संतों को भी शासकों ने विभिन्न तरह के अनुदान दिए। अजमेर में मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह तो शासक व शाही परिवार के सदस्यों की पहली पसन्द बन गई थी। मुहम्मद तुगलक सल्तनत काल का पहला सुल्तान था जिसने इस दरगाह की यात्रा की। मुहम्मद तुगलक स्वयं निजामुद्दीन औलिया की खानकाह पर भी निरन्तर जाया करता था। मुगल काल में अकबर ने अपने जीवन में अजमेर की 14 बार यात्रा की। उसने इस दरगाह को विभिन्न चीजें दीं। इसके बाद जहाँगीर, शाहजहाँ व शाहजहाँ की
पुत्री जहाँआरा द्वारा भी इस स्थान पर जाने के प्रमाण मिलते हैं। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में सलीम चिश्ती से न केवल भेंट की, बल्कि उससे प्रभावित होकर अपनी राजधानी भी आगरा से बदलकर फतेहपुर सीकरी कर दी। बाद में उसने सलीम चिश्ती की दरगाह का निर्माण भी फतेहपुर सीकरी के अन्य भवनों के बीच करवाया।
अतः स्पष्ट है कि शासक इन संत फकीरों के माध्यम से समाज से जुड़ना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे संतों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते थे और समाज पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता था।
प्रश्न 8.
उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर:
सूफी फकीरों व भक्ति संतों की लोकप्रियता का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने स्थानीय भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी। चिश्ती सिलसिले के शेख व अनुयायी तो मुख्य रूप से हिंदवी में बात करते थे। बाबा फरीद, कबीर व श्री गुरु नानक की काव्य रचनाएँ स्थानीय भाषा में थीं। इनमें से अधिकतर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। कुछ और सूफियों ने ईश्वर के प्रति आस्था व मानवीय प्रेम को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया। इनकी भाषा भी सामान्य व्यक्ति की थी। मलिक मोहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ चित्तौड़ के राजा रतनसेन व पद्मिनी के बीच प्रेम-प्रसंग पर आधारित है। इसने समाज को सूफी विचारधारा से जोड़ने में मदद की। जायसी के अनुसार, प्रेम आत्मा का परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग है। चिश्तियों की तरह अन्य सूफियों ने भी विभिन्न तरह का काव्य वाचन किया। इस काव्य को खानकाहों व दरगाहों पर विभिन्न अवसरों पर गाया जाता था।
सूफी कविता की एक विधा 17वीं व 18वीं शताब्दी में कर्नाटक में बीजापुर क्षेत्र में विकसित हुई। इसे दक्खनी (उर्दू का एक रूप) कहा गया। इसमें महिलाओं के दैनिक जीवन व कार्य प्रणाली की छोटी-छोटी कविताएँ चिश्ती संतों द्वारा रची गईं। इनमें विभिन्न पारिवारिक परंपराओं पर कविताएँ लोरीनामा, शादीनामा तथा चरखानामा इत्यादि थीं। ये कविताएँ कार्य करते समय महिलाएँ गाया करती थीं। भक्ति सन्तों के उपदेश आज भी गीतों इत्यादि में इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वे सामान्य व्यक्ति की भाषा में थे। इसी सरल भाषा के माध्यम से आम व्यक्ति धर्म व अध्यात्म जैसी जटिल बातों को समझ पाते थे। इसी तरह सामाजिक रूढ़ियों व अन्ध-विश्वासों को कमजोर करने में सफलता तभी मिल सकती थी जब भाषा को समझा जा सके। इस तरह सूफी फकीरों व भक्ति संतों ने अपने विचार सामान्य व्यक्ति की भाषा में अभिव्यक्त किए।
प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
यह भक्ति व सूफी परंपराओं से संबंधित है। ये परंपराएँ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ी हुई नहीं हैं। मुख्यतयाः इनका आकार सामाजिक व धार्मिक है। विषय की प्रकृति में भिन्नता के कारण इनके स्रोतों में भी अंतर है। इस अध्याय में प्रयुक्त मुख्य पाँच स्रोतों व उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचार इस प्रकार हैं
1. लोकधारा-भक्ति व सूफी संतों की जानकारी के लिए अध्याय में मूर्ति कला, स्थापत्य कला एवं धर्म गुरुओं के संदेशों का प्रयोग किया गया है। इसी तरह उनके अनुयायियों द्वारा रचित गीत, काव्य रचनाएं, जीवनी इत्यादि भी प्रयोग में लाई गई हैं। सामाजिक-धार्मिक दृष्टि से इन्हें इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि जन-मानस उनमें विश्वास कर सके तथा जीवन के आदर्शों की प्रेरणा ले सके।
2. ‘कश्फ-उल-महजुब’-यह अली बिन उस्मान हुजविरी (मृत्यु 1071) द्वारा सूफी विचार व आचरण पर लिखित प्रारंभिक मुख्य पुस्तक है। इस पुस्तक में यह ज्ञान मिलता है कि बाह्य परंपराओं ने भारत के सूफी चिन्तन को कैसे प्रभावित किया या इससे स्थानीय समाज व धर्म कैसे प्रभावित हुआ।
3. मुलफुज़ात (सूफी संतों की बातचीत)-यह फारसी के कवि अमीर हसन सिजज़ी देहलवी द्वारा संकलित है। इस कवि द्वारा शेख निजामुद्दीन औलिया की बातचीत को आधार बनाकर ‘फवाइद-अल-फुआद’ ग्रन्थ लिखा गया। इनका उद्देश्य शेखों के उपदेशों एवं कथनों को संकलित करना होता था ताकि नई पीढ़ी उनका अनुकरण कर सके।
4. मक्तुबात-यह लिखे हुए पत्रों का संकलन होता है जिन्हें या तो स्वयं शेख ने लिखा था या उसके किसी करीबी अनुयायी ने। इन पत्रों में धार्मिक सत्य, अनुभव, अनुयायियों के लिए आदर्श जीवन-शैली व शेख की आकांक्षाओं का पता चलता है। शेख अहमद सरहिंदी (मृत्यु 1624) के लिखे पत्र ‘मक्तुबात-ए-इमाम रब्बानी’ में संकलित हैं जिसमें अकबर की उदारवादी तथा असांप्रदायिक विचारधारा का ज्ञान मिलता है।
5. ‘तज़किरा’-इसमें सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण होता है। भारत में पहला सूफी तज़किरा मीर खुर्द किरमानी का सियार-उल-औलिया है जो चिश्ती संतों के बारे में है। भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण तज़किरा ‘अख्यार-उल-अखयार’ है। तज़किरा में सिलसिले की प्रमुखता स्थापित करने का प्रयास किया जाता था। इसके साथ ही आध्यात्मिक वंशावली की महिमा को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा जाता था। इस तरह तज़किरा में कल्पनीय, अद्भुत व अविश्वसनीय बातें भी होती हैं। परंतु इतिहासकार का दायित्व है कि वह इन पक्षों के होते हुए भी इसमें से जानकारी ग्रहण करें। प्रस्तुत अध्याय में धार्मिक परंपरा के इतिहास लेखन के बारे में मौखिक व लिखित दोनों तरह की परंपराओं को समझने का प्रयास किया गया है। इनमें अभी कुछ ही साक्ष्य सुरक्षित हो पाए हैं।
मानचित्र कार्य
प्रश्न 10.
भारत के एक मानचित्र पर, 3 सूफी स्थल और 3 वे स्थल जो मंदिरों (विष्णु, शिव तथा देवी से जुड़ा एक मंदिर) से संबद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।
परियोजना कार्य (कोई एक)
प्रश्न 11.
इस अध्याय में वर्णित 3 धार्मिक उपदेशकों/चिंतकों/संतों का चयन कीजिए और उनके जीवन व उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और हमें क्यों लगता है कि वे महत्त्वपूर्ण हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें। इसके लिए दीर्घउत्तरीय प्रश्न 7 एवं 8 में संत कबीर एवं गुरु नानक देव जी का अध्ययन करें।
प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित सूफी व देव स्थलों से संबद्ध तीर्थयात्रा के आचारों के बारे में अधिक जानकारी हासिल कीजिए। क्या ये यात्राएँ अभी भी की जाती हैं? इन स्थानों पर कौन लोग और कब-कब जाते हैं? वे यहाँ क्यों जाते हैं? इन तीर्थयात्राओं से जुड़ी गतिविधियाँ कौन सी हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।
भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ HBSE 12th Class History Notes
→ शास्त्ररूढ़ शास्त्रों से संबंधित
→ जगन्नाथ-संपूर्ण विश्व का स्वामी
→ अलवार-तमिलनाडु में विष्णु के भक्त
→ अंडाल-तमिलनाडु की एक अलवार स्त्री भक्त
→ वीरशैव-शिव के वीर
→ आनुष्ठानिक-धार्मिक अनुष्ठान संबंधी
→ पतंजलि की कृति-पतंजलि की रचना
→ वैष्णव-विष्णु को इष्टदेव मानने वाले
→ नयनार-तमिलनाडु में शिव के भक्त
→ तवरम-तमिल भाषा में नयनारों के भजनों का एक ग्रन्थ
→ लिंगायत-लिंग धारण करने वाले शिव भक्त
→ जिम्मी-इस्लामिक राज्य में (गैर इस्लामी) संरक्षित श्रेणी के लोग
→ मुकद्दस-पवित्र
→ तामीर-निर्माण
→ मातृकुलीयता-माता के कुल से अपना संबंध जोड़ना
→ मिनबार-व्यासपीठ
→ जजिया-इस्लामिक राज्य में जिम्मियों से लिया जाने वाला कर
→ तामील-आज्ञा का पालन
→ मातृ-गृहता-माता का अपनी संतान के साथ मायके में रहना व पति का भी उसी परिवार में रहना
→ मेहराब-प्रार्थना का स्थल
→ इन्सान-ए-कामिल-मर्यादा पुरुषोत्तम
→ मुरीद-भक्त या अनुयायी
→ दरगाह-शेख का समाधि-स्थल
→ लंगर-सामुदायिक रसोई
→ काकी-रोटी (अन्न) बाँटने वाला
→ जियारत प्रार्थना
→ उलटबाँसी-विपरीत अर्थ वाली उक्तियाँ
→ कबीर-महान
→ सगुण-ईश्वर को किसी रूप या आकार में मानना
→ खालसा पंथ-पवित्रों की सेना
→ मक्तुबात-लिखे हुए पत्रों का संकलन
→ मुर्शीद-पीर या शेख
→ खानकाह-शेख का निवास
→ उर्स-पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन
→ फुतूह-बिना मांगा दान
→ मुरक्का-ए-दिल्ली-दिल्ली का एलबम
→ सल्तान-उल-मशेख शेखों में सुल्तान
→ नाम-सिमरन-ईश्वर का सच्चा जाप
→ निर्गुण-ईश्वर को किसी आकार या रूप में न स्वीकारना
→ संगत-सामुदायिक उपासना (उपासक)
→ मुलफुजात-सूफी संतों की बातचीत
→ तजकिरा-सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण
→ 8वीं से 18वीं सदी का काल भारत के इतिहास में धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है, क्योंकि इस काल में धार्मिक विश्वास व श्रद्धा में विभिन्न तरह के परिवर्तन हो रहे थे। ये परिवर्तन आन्तरिक व बाह्य दोनों कारणों से हो रहे थे। इनके कारण केवल धर्म व धार्मिक परंपराएँ ही नहीं बदल रही थीं, बल्कि सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित हो रहा था। इस तरह के सामाजिक-धार्मिक परिवर्तनों के कारण राजनीतिक व्यवस्था, स्थिति व शासन करने की शैली में भी बदलाव आ रहा था। इन सभी परिवर्तनों की जड़ में भक्ति व सूफी परंपराएँ थीं। यहीं भक्ति व सूफी परंपराएँ इस अध्याय की विषय-वस्तु हैं।
→ वैदिक धर्म में जीवन के चार उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष बताए गए हैं। इन उद्देश्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मोक्ष को माना जाता है। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए तीन मार्ग ज्ञान, कर्म व भक्ति बताए गए हैं। इन मार्गों में जनसामान्य में सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति मार्ग रहा। मध्यकाल में तो इसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना गया है, परंतु ध्यान योग्य पहलू यह है कि मध्यकाल तो इस परंपरा का शिखर काल था। इसकी जड़ें प्राचीन काल में ही प्रकट होने लगी थीं। जब उपासक अपने इष्टदेव की आराधना मंदिरों में तल्लीनता से करते हुए प्रेम-भाव को व्यक्त करते थे। ये उपासक विभिन्न तरह की रचनाओं को गाते एवं श्रद्धा व्यक्त करते थे। इस तरह के भाव वैष्णव व शैव दोनों संप्रदायों के लोग अभिव्यक्त करते थे।
→ भक्ति शब्द की उत्पत्ति ‘भज्’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ सेवा से लिया जाता है। भक्ति व्यापक अर्थ में मनुष्य द्वारा ईश्वर या इष्टदेव के प्रति पूर्ण समर्पण होता है जिसके अनुरूप व्यक्ति स्वयं को अपने श्रद्धेय में समा लेता है। इसमें सामाजिक रूढ़ियाँ, ताना-बाना, मर्यादाएँ तथा बंधनों की भूमिका नहीं होती, बल्कि सरलता, समन्वय की भावना तथा पवित्र जीवन पर बल दिया जाता है। भक्ति संत कवियों ने समाज की रूढ़ियों व नकारात्मक चीजों का विरोध कर, उसके प्रत्येक वर्ग को अपने साथ जोड़ा, जिनके चलते हुए समाज का एक बड़ा वर्ग इनका अनुयायी व समर्थक बन गया। सभी भक्त कवियों ने मोटे तौर पर एक ईश्वर में विश्वास, ईश्वर के प्रति निष्ठा व प्रेम तथा गुरु के महत्त्व पर बल दिया। साथ ही मानव मात्र की समानता, जीवन की पवित्रता, सरल धर्म तथा समन्वय की भावना के लिए कहा। इन संत कवियों में सगुण व निर्गुण के आधार पर अंतर था। सगुण के कुछ संत कवि भगवान राम के रूप में लीन थे, जबकि कुछ को कृष्ण का रूप पसन्द था। इन्हीं आधारों पर इन्हें राममार्गी तथा कृष्णमार्गी कहा जाता था।
→ भक्ति परंपरा की शुरुआत वर्तमान तमिलनाडु क्षेत्र में छठी शताब्दी में मानी जाती है। प्रारंभ में इस परंपरा का नेतृत्व विष्णु भक्त अलवारों तथा शिव भक्त नयनारों ने किया। ये अलवार तथा नयनार संतों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। ये अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन इत्यादि गाते थे। इन संतों ने कुछ स्थानों को अपने इष्टदेव का निवास स्थान घोषित कर दिया जहाँ पर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण किया गया। इस तरह ये स्थल तीर्थ स्थलों के रूप में उभरे। संत-कवियों के भजनों को मन्दिरों में अनुष्ठान के समय गाया जाने लगा तथा इन संतों की प्रतिमा भी इष्टदेव के साथ स्थापित कर दी गई। इस तरह इन संतों की भी पूजा प्रारंभ हो गई।
→ बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक क्षेत्र में एक नए आंदोलन की शुरुआत हुई जिसको बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण संत ने नेतृत्व दिया। बासवन्ना चालुक्य राजा के दरबार में मंत्री थे व जैन धर्म में विश्वास करते थे। उनकी विचारधारा को कर्नाटक क्षेत्र में बहुत लोकप्रियता मिली। उसके अनुयायी शिव के उपासक वीरशैव कहलाए। उनमें से लिंग धारण करने वाले लिंगायत बने। इस समुदाय के लोग शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं तथा पुरुष अपने बाएं कंधे पर, चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। इन लिंगधारी पुरुषों को लोग बहुत सम्मान देते हैं तथा श्रद्धा व्यक्त करते हैं। कन्नड़ भाषा में इन्हें जंगम या यायावर भिक्षु कहा जाता है।
→ अरब क्षेत्र में इस्लाम का उदय विश्व के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। 7वीं शताब्दी में इसके उदय के पश्चात् यह धर्म पश्चिमी एशिया में तेजी से फैला और कालांतर में यह भारत में भी पहुँचा। तत्पश्चात् यहाँ बाहर से आई धार्मिक व वैचारिक पद्धति के साथ आदान-प्रदान की प्रक्रिया शुरू हुई। फलतः एक नया सामाजिक ताना-बाना उभरा।
→ इस्लाम के भारत में आगमन के पश्चात् जो परिवर्तन हुए वे मात्र शासक वर्ग तक सीमित नहीं थे, बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप के जन-सामान्य के विभिन्न वर्गों; जैसे कृषक, शिल्पी, सैनिक, व्यापारी इत्यादि से भी जुड़े थे। समाज के बहुत-से लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया। उन्होंने अपनी जीवन-शैली व परंपराओं का पूरी तरह परित्याग नहीं किया, लेकिन इस्लाम की आधार स्तम्भ पाँच बातें अवश्य स्वीकार कर लीं।
→ सूफी शब्द की उत्पत्ति के बारे में सभी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। हाँ यह स्पष्ट है कि सूफीवाद का अंग्रेज़ी समानार्थक शब्द ‘सूफीज्म’ है। सूफीज्म शब्द हमें प्रकाशित रूप में 19वीं सदी में मिलता है। इस्लामिक साहित्य में इसके लिए तसब्बुफ शब्द मिलता है। कुछ विद्वान यह स्वीकारते हैं कि यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ है ऊन अर्थात् जो लोग ऊनी खुरदरे कपड़े पहनते थे उन्हें सूफी कहा जाता था। कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ साफ होता है। इसी तरह कुछ अन्य विद्वान सूफी को सोफिया (यानि वे शुद्ध आचरण) से जोड़ते हैं। इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति के बारे में एक मत तो नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि इस्लाम में 10वीं सदी के बाद अध्यात्म, वैराग्य व रहस्यवाद में विश्वास करने वाली सूचियों की संख्या काफी थी तथा ये काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह 11वीं शताब्दी तक सूफीवाद एक विकसित आंदोलन बन गया।
→ भारतीय उपमहाद्वीप में कई सिलसिलों की स्थापना हुई। इनमें सर्वाधिक सफलता चिश्ती सिलसिले को मिली, क्योंकि जन-मानस इसके साथ अधिक जुड़ पाया। चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती ने की। परंतु भारत में इसकी स्थापना का श्रेय मुईनुद्दीन चिश्ती को जाता है। मुईनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1141 ई० में ईरान में हुआ। इस सिलसिले के अन्य संतों में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हमीदुद्दीन नागौरी, निजामुद्दीन औलिया व शेख सलीम चिश्ती इत्यादि हैं। इनकी कार्य प्रणाली, जीवन-शैली व ज्ञान ने भारत के जन-सामान्य को आकर्षित किया।
समय-रेखा
काल (लगभग) | व्यक्ति व क्षेत्र की जानकारी |
1. छठी व सातवीं शताब्दी 500-700 ईo | तमिलनाडु में अलवार व नयनारों के नेतृत्व में भक्ति आन्दोलन का उदय। |
2. आठवीं व नौवीं शताब्दी 700-900 ई० | तमिलनाडु में सुन्दर मूर्ति, नम्मलवर, मणिक्वचक्कार व अंडाल का समय, शंकराचार्य (788-820) का काल |
3. दसर्वं व ग्यारहवीं शताब्दी 900-1100 ई० | उत्तर भारत में राजपूतों का उत्थान, पंजाब में अल हुजविरी, दाता गंज बख्श तथा तमिलनाडु में रामानुजाचार्य का काल। |
4. बारहवीं शताब्दी 1100-1200 ई० | कर्नाटक में बासवन्ना (1106-68) तथा उत्तर भारत में मोहम्मद गोरी के आक्रमण 1192 ई० में मुइनुद्दीन चिश्ती का भारत आगमन। |
5. तेरहवीं शताब्दी 1200-1300 ई० | खाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का अजमेर में स्थापित होना, दिल्ली में बख्तियार काकी, महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, पंजाब में बहाऊद्दीन जकारिया व फरीदुद्दीन गंज-ए-शंकर; दिल्ली सल्तनत की स्थापना। |
6. चौदहवीं शताब्द्री 1300-1400 ई० | दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो व जियाऊद्दीन बर्नी, सिन्ध में शाहबाज कलन्दर, कश्मीर में लाल देद, उत्तर प्रदेश में रामानंद। |
7. पंद्रहवीं शताब्द्री 1400-1500 ई० | उत्तर प्रदेश में कबीर, रैदास व सूरदास; पंजाब में गुरुनानक; महाराष्ट्र में तुकाराम व नामदेव; असम में शंकरदेव; गुजरात में बल्लभाचार्य व ग्वालियर में अब्दुल्ला सत्तारी। |
8. सोलहवीं शताब्दी 1500-1600 ई० | राजस्थान में मीराबाई; पंजाब में गुरु अंगददेव व गुरु अर्जुन देव, उत्तर प्रदेश में मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास। भारत में मुगल वंश की स्थापना, बंगाल में श्री चैतन्य। |
9. सत्रहवीं शताब्दी 1600-1700 ई० | हरियाणा क्षेत्र में शेख अहमद सरहिन्दी; पंजाब व दिल्ली में गुरु तेग बहादुर, उत्तर भारत में गुरु गोबिन्द सिंह व पंजाब में मियाँ मीर। |
10. अठारहवीं शताब्दी 1700-1800 ई० | बंगाल में संन्यासी व चुआरो का उत्थान, भारत में अंग्रेजी शासन का प्रारंभ, राजा राम मोहन राय का जन्म (1774)। |