Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?
HBSE 11th Class Political Science संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
इनमें कौन-सा संविधान का कार्य नहीं है?
(क) यह नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है।
(ख) यह शासन की विभिन्न शाखाओं की शक्तियों के अलग-अलग क्षेत्र का रेखांकन करता है।
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।
(घ) यह कुछ साझे मूल्यों की अभिव्यक्ति करता है।
उत्तर:
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन इस बात की एक बेहतर दलील है कि संविधान की प्रमाणिकता संसद से यादा है?
(क) संसद के अस्तित्व में आने से कहीं पहले संविधान बनाया जा चुका था।
(ख) संविधान के निर्माता संसद के सदस्यों से कहीं ज्यादा बड़े नेता थे।
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
(घ) संसद, संविधान का संशोधन नहीं कर सकती।
उत्तर:
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
प्रश्न 3.
बतायें कि संविधान के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत?
(क) सरकार के गठन और उसकी शक्तियों के बारे में संविधान एक लिखित दस्तावेज़ है।
(ख) संविधान सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में होता है और उसकी जरूरत ऐसे ही देशों में होती है।
(ग) संविधान एक कानूनी दस्तावेज़ है और आदर्शों तथा मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं।
(घ) संविधान एक नागरिक को नई पहचान देता है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) गलत,
(घ) सही।
प्रश्न 4.
बतायें कि भारतीय संविधान के निर्माण के बारे में निम्नलिखित अनुमान सही हैं या नहीं? अपने उत्तर का कारण बतायें।
(क) संविधान-सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई। इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।
(ख) संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।
(ग) संविधान में कोई मौलिकता नहीं है क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा दूसरे देशों से लिया गया है।
उत्तर:
(क) भारत की संविधान सभा का निर्माण कैबिनेट मिशन योजना, 1946 के अनुसार किया गया था। इस योजना के अनुसार पहले प्रांतों की विधानसभाओं के चुनाव हुए। विधानसभा के चुने हुए सदस्यों के द्वारा प्रांतों में संविधान सभा के प्रतिनिधियों को निर्वाचित किया गया। देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को देशी रियासतों के राजाओं के द्वारा मनोनीत किया गया था।
भारतीय संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गई, जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर वाले प्रांतों के तथा 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि होते थे। प्रांतों के 296 सदस्यों के चुनाव जुलाई, 1946 में करवाए गए। इनमें से 212 स्थान काँग्रेस को, 73 मुस्लिम लीग को एवं 11 स्थान अन्य दलों को प्राप्त हुए।
काँग्रेस की इस शानदार सफलता को देखकर मुस्लिम लीग को बड़ी निराशा हुई और उसने संविधान सभा का बहिष्कार करने का निर्णय किया। 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का विधिवत उद्घाटन हुआ। प्रायः संविधान सभा के गठन के लिए यह आरोप लगाया जाता है कि इसके प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था, लेकिन उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह अनिवार्य था कि संविधान सभा को शीघ्र गठित किया जाए। अगर मान लिया जाए कि चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर भी होता तो भी यही प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आने थे, क्योंकि काँग्रेस देश में एक बहुत ही शक्तिशाली एवं प्रभावशाली संस्था बन चुकी थी। जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व था।
इसके अतिरिक्त इसमें भी तनिक सन्देह नहीं कि देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को भी संविधान सभा में मनोनीत किया गया था और यह पद्धति प्रजातंत्र सिद्धांतों के विपरीत थी, लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए ऐसा करना आवश्यक था, अन्यथा देशी रियासतों के राजा संविधान सभा में शामिल ही नहीं होते। अतः भारतीय संविधान सभा हर दृष्टि से भारत की एक सच्ची प्रतिनिधित्व सभा थी। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि इसमें भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई।
(ख) यदि देखा जाए तो किसी भी विविधतापूर्ण एवं व्यापक प्रतिनिध्यात्मक संस्था में सदस्यों के बीच मतभेद का होना अस्वाभाविक नहीं है। भारतीय संविधान सभा में भी सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद होते थे लेकिन वे मतभेद वास्तव में वैध सैद्धान्तिक आधार पर होते थे। भारतीय संविधान सभा में व्यापक मतभेद के पश्चात् भी संविधान का केवल एक ही प्रावधान ऐसा है, जो बिना किसी वाद-विवाद के पास हुआ। यह प्रावधान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार था, जिस पर वाद-विवाद आवश्यकह सदस्यों के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का ही सचक था। अत: यह कहना सही नहीं है कि संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया, क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में सामान्यतया आम सहमति थी।
(ग) यह कहना सही नहीं है कि भारतीय संविधान में कोई मौलिकता नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा विश्व के दूसरे देशों से लिया गया है। वास्तविकता तो यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधान के आदर्शों, मूल्यों एवं परंपराओं से बहुत कुछ सीखने अथवा ग्रहण करने का प्रयास किया।जो उन देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही थीं और भारत की परिस्थितियों के अनुकूल थीं। इस प्रकार भारतीय संविधान विदेशों से उधार लिया हुआ संविधान नहीं, बल्कि विभिन्न विदेशी संविधानों की आदर्श-व्यवस्थाओं का संग्रह है।
वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता का ही कार्य किया। विदेशी संविधान की आँख मूंदकर नकल नहीं की गई है, बल्कि विभिन्न संविधानों की विशेषताओं को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल संशोधित कर अपनाने से भारतीय संविधान में मौलिकता भी आ गई है। वैसे भी संवैधानिक व्यवस्थाओं पर किसी भी देश का एकाधिकार नहीं है और कोई भी देश किसी भी सवैधानिक व्यवस्था को अपना सकता है। ऐसे में भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भी विश्व की किसी संवैधानिक व्यवस्था को अपनाने से भारतीय संविधान की मौलिकता के प्रति कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहिए।
प्रश्न 5.
भारतीय संविधान के बारे में निम्नलिखित प्रत्येक निष्कर्ष की पुष्टि में दो उदाहरण दें।
(क) संविधान का निर्माण विश्वसनीय नेताओं द्वारा हुआ। उनके लिए जनता के मन में आदर था।
(ख) संविधान ने शक्तियों का बँटवारा इस तरह किया कि इसमें उलट-फेर मुश्किल है।
(ग) संविधान जनता की आशा और आकांक्षाओं का केंद्र है।
उत्तर:
(क) भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐसी संवैधानिक सभा द्वारा किया गया था जिसका निर्माण समाज के सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदायों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा ये प्रतिनिधि सक्रिय रूप से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से भी जुड़े हुए थे। अतः स्वाभाविक रूप से उन्हें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और समस्याओं का पूर्ण ज्ञान था।
संविधान निर्माण के क्रम में इन नेताओं द्वारा समस्त तथ्यों का गहन विश्लेषणात्मक अध्ययन कर देश के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए संविधान का निर्माण किया गया। इन नेताओं के प्रति जनता के मन में आदर होना बिल्कुल स्वाभाविक है। जनता के इसी आदर भाव के कारण लोकसभा संविधान लागू होने के बाद हुए प्रथम आम लोकसभा चुनाव, 1952 में संविधान सभा के लगभग सभी सदस्यों ने चुनाव लड़ा और जिनमें अधिकांश विजयी हुए। अतः जनता द्वारा उनको विजयी बनाना संविधान सभा के सदस्यों के प्रति आदर भाव को ही व्यक्त करना है।
(ख) संविधान में विभिन्न संस्थाओं और अंगों की शक्तियों और दायित्वों का स्पष्ट और पृथक वितरण किया गया है ताकि सरकार के विभिन्न अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कार्य-संचालन में किसी प्रकार की समस्या एवं टकराहट उत्पन्न न हो। इसके साथ-साथ संविधान में शक्ति-वितरण में नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत को अपनाया गया और जन-कल्याण के लिए प्रतिबद्धता को भी दर्शाया गया।
संविधान सभा ने शक्ति के समुचित और संतुलित वितरण के लिए संसदीय शासन व्यवस्था और संघात्मक व्यवस्था को स्वीकार किया तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र एवं सर्वोच्च रखा और उसे संसद तथा समीक्षा का अधिकार भी दिया गया। इस प्रकार किसी भी प्रकार के टकराहट और उलट-फेर को रोकने का पर्याप्त प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है।
(ग) भारतीय संविधान बहुत ही संतुलित एवं न्यायपूर्ण स्वरूप का है। इसमें समाज के विभिन्न वर्गों के व्यापक हितों के अनुरूप अनेक विशेष प्रावधान किए गए हैं। इसमें समाज के उपेक्षित, दलित, शोषित और कमजोर वर्गों के लिए अलग से विशेष प्रावधान किए गए हैं। संविधान में जन-कल्याण को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। संविधान निर्माण में न्याय के बुनियादी सिद्धांत का पालन किया गया है।
इसके अतिरिक्त वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को साकार करने की व्यवस्था भी की गई है। अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान जनता की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप है और उनका केंद्र भी है।
प्रश्न 6.
किसी देश के लिए संविधान में शक्तियों और जिम्मेदारियों का साफ-साफ निर्धारण क्यों जरूरी है? इस तरह का निर्धारण न हो तो क्या होगा?
उत्तर:
किसी भी संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों और कार्यों का स्पष्ट और संतुलित विभाजन बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके अभाव में इन संस्थाओं के बीच परस्पर टकराहट और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच शक्ति का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि उनमें शक्ति संतुलन बना रहे और उनका आचरण संविधान की मर्यादाओं के विरुद्ध न हो; जैसे यदि विधायिका द्वारा अपने अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है अथवा किसी प्रकार संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण किया जाता है, तो न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इसके द्वारा बनाए कानून को ही असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
उसी प्रकार, विधायिका कार्यपालिका के कार्यों को; जैसे प्रश्नकाल, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव आदि द्वारा नियंत्रण रख सकती है। इस प्रकार वह सभी संस्थाएँ स्वतंत्र एवं सुचारु रूप से अपना कार्य कर सकती हैं, परन्तु अपने-अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकती हैं। यदि इनके द्वारा अतिक्रमण का प्रयास किया जाता है तो दूसरी संस्थाओं द्वारा उस पर संविधान द्वारा नियंत्रण का पर्याप्त प्रावधान किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अत्यंत सूझबूझ एवं दूरदर्शिता के साथ विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया है।
हाँ, इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इन संवैधानिक संस्थाओं द्वारा परस्पर अतिक्रमण की संभावनाएँ हो सकती थी जिसके परिणामस्वरूप अराजकता एवं अव्यवस्था की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। ऐसी स्थिति में जनता के अधिकार एवं स्वतंत्रताएँ भी असुरक्षित हो सकती हैं। अतः इससे देश का संवैधानिक ढाँचा ही असफलता की ओर अग्रसर हो सकता है।
प्रश्न 7.
शासकों की सीमा का निर्धारण करना संविधान के लिए क्यों ज़रूरी है? क्या कोई ऐसा भी संविधान हो सकता है जो नागरिकों को कोई अधिकार न दें।
उत्तर:
किसी भी शासन में शासकों की निरंकुश तथा असीमित शक्ति पर नियंत्रण लगाने के लिए संविधान द्वारा शासकों की सीमाओं का निर्धारण किया जाता है। समाज में नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित रखना संविधान का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। कई बार संसद या मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा मनमाना कानून बनाकर जनता की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया जाता है। ऐसी स्थिति में संसद अथवा मंत्रिमंडल की इस शक्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है। इसीलिए संविधान में शासकों की शक्तियों पर अंकुश लगाने के व्यापक प्रावधान किए गए हैं।
किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस शक्ति का उपयोग एक निश्चित अवधि के पश्चात् होने वाले चुनाव में जनता द्वारा मताधिकार के रूप में किया जाता है। संविधान शासकों की सीमाओं को संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्पष्ट प्रावधान करके भी नियंत्रित कर सकता है। क्योंकि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कोई भी सरकार नहीं कर सकती है। इस प्रकार शासकों की शक्ति पर सीमाएँ लगाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी स्पष्ट है कि विश्व में कोई ऐसी संवैधानिक व्यवस्था नहीं है जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का प्रावधान नहीं किया गया हो। यहाँ तक कि साम्यवादी व्यवस्था वाले देशों; जैसे चीन के संविधान में भी मौलिक अधिकारों का . प्रावधान किया गया है।
प्रश्न 8.
जब जापान का संविधान बना तब दूसरे विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद जापान अमेरिकी सेना के कब्जे में था। जापान के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान होना असंभव था, जो अमेरिकी सेना को पसंद न हो। क्या आपक लगता है कि संविधान को इस तरह बनाने में कोई कठिनाई है? भारत में संविधान बनाने का अनुभव किस तरह इससे अलग है?
उत्तर:
जापान का संविधान-निर्माण करते समय जापान पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण था। इसलिए संवैधानिक प्रावधानों पर अमेरिकी प्रभाव का होना स्वाभाविक सी बात है। इसीलिए जापान के संविधान का कोई भी प्रावधान अमेरिका की सरकार की आकांक्षाओं एवं इच्छाओं के विरुद्ध नहीं था। इसमें अमेरिका के हितों एवं प्राथमिकताओं को पर्याप्त महत्त्व दिया गया। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि किसी भी देश के संविधान का निर्माण किसी दूसरे देश के प्रभाव में करना निश्चित रूप से बहुत ही कठिन कार्य है।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर अन्य देश का नियंत्रण होने के कारण स्वयं उस देश की जनता की अपेक्षाओं एवं आशाओं की अनदेखी की जाती है। अतः ऐसा संविधान जनता की इच्छाओं पर खरा नहीं उतर सकता है। दूसरी तरफ, भारतीय संविधान का निर्माण सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में निर्मित हुआ था। भारतीय संविधान का निर्माण एक प्रतिनिध्यात्मक संविधान सभा द्वारा किया गया था।
विभिन्न विषयों के लिए संविधान सभा में अलग-अलग समितियाँ थीं। सदस्यों द्वारा विभिन्न विषयों पर व्यापक तर्क-वितर्क एवं गहन विचार-विमर्श के बाद ही अधिकांशतः सर्वसम्मति के आधार पर अंतिम निर्णय लिया गया। ऐसे में कहा जा सकता है कि संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक आधार पर किया गया।
यद्यपि सदस्यों के बीच कुछ विषयों पर मत-भेद थे, तथापि देश के व्यापक हितों के मद्देनजर सहमति एवं समायोजन के सिद्धांत के आधार पर फैसले लिए गए। भारतीय संविधान का निर्माण एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। भारतीय संविधान के निर्माण में 2 वर्ष, 11 महीने एवं 18 दिन लगे। संविधान निर्माण में राष्ट्रीय आंदोलनों के क्रम में उभरी जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं को भी प्राथमिकता दी गई।
इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान में समाज के सभी वर्गों के व्यापक हितों का ध्यान रखा गया है। अतः संविधान में समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता है। अतः संविधान निर्माण का भारतीय अनुभव दूसरे देशों से सर्वथा भिन्न था।
प्रश्न 9.
रजत ने अपने शिक्षक से पूछा- “संविधान एक पचास साल पुराना दस्तावेज़ है और इस कारण पुराना पड़ चुका है। किसी ने इसको लागू करते समय मुझसे राय नहीं माँगी। यह इतनी कठिन भाषा में लिखा हुआ है कि मैं इसे समझ नहीं सकता। आप मुझे बतायें कि मैं इस दस्तावेज़ की बातों का पालन क्यों करूँ?” अगर आप शिक्षक होते तो रजत को क्या उत्तर देते?
उत्तर:
रजत के प्रश्न का उत्तर यह है कि संविधान पचास साल पुराना दस्तावेज़ मात्र नहीं है बल्कि यह नियमों एवं कानूनों का एक ऐसा संग्रह है जिसका पालन समाज के व्यापक हितों की दृष्टि से बहुत आवश्यक है। जैसा कि हम जानते हैं कि कानूनों के कारण ही समाज में शांति और व्यवस्था कायम रहती है। लोगों का जीवन एवं संपत्ति सुरक्षित रहती है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास के लिए उचित वातावरण सम्भव होता है।
इसके अतिरिक्त संविधान सरकार के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों का स्रोत है। संविधान द्वारा ही सरकार के तीन अंगों का गठन होता है तथा इनकी शक्तियों का विभाजन होता है। इसके द्वारा ही जनता के अधिकारों को सुरक्षित एवं कर्त्तव्य निश्चित किया जाता है। संविधान ही सरकार के निरंकुश स्वच्छेचारी आचरण पर अंकुश लगाता है।
इसके अतिरिक्त यह कहना गलत है कि संविधान पचास साल पुराना दस्तावेज़ हो चुका है और इसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह कठोर और लचीले संशोधन विधि का मिश्रित रूप है। इसमें समय, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन किया जा सकता है।
संविधान में विषयानुरूप संशोधन की अलग-अलग प्रक्रियाओं का प्रावधान है। कुछ विषयों में संसद के स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर संशोधन किया जा सकता है। परंतु कुछ विषयों में संशोधन की प्रक्रिया जटिल है। इसके लिए कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों से प्रस्ताव का अनुमोदित होना आवश्यक है।
दूसरे शब्दों में, भारतीय संविधान एक ऐसा संविधान है जो कभी भी पुराना नहीं पड़ सकता, क्योंकि इसके प्रावधानों को समय और परिस्थिति के अनुकूल संशोधित किया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मात्र लगभग 70 वर्षों में ही संविधान में 104 संशोधन किए जा चुके हैं। इस प्रकार समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए संविधान में पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं। अतः हमारा संविधान एक जीवन्त प्रलेख है जो सदैव गतिमान रहता है। इसलिए हमें संविधान की पालना अवश्य करनी चाहिए।
प्रश्न 10.
संविधान के क्रिया-कलाप से जुड़े अनुभवों को लेकर एक चर्चा में तीन वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पक्ष लिए
(क) हरबंस-भारतीय संविधान एक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।
(ख) नेहा-संविधान में स्वतंत्रता, समता और भाईचारा सुनिश्चित करने का विधिवत् वादा है। चूँकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए संविधान असफल है।
(ग) नाजिमा संविधान असफल नहीं हुआ, हमने उसे असफल बनाया। क्या आप इनमें से किसी पक्ष से सहमत हैं, यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं, तो आप अपना पक्ष बतायें।
उत्तर:
वाद-विवाद के द्वारा इन वक्ताओं ने संविधान की सार्थकता, उपयोगिता और सफलता पर अलग-अलग प्रश्न उठाने का प्रयास किया है। प्रथम वक्ता हरबंस के अनुसार भारतीय संविधान लोकतांत्रिक शासन का ढाँचा तैयार करने में सफल रहा है, तो दूसरे वक्ता नेहा के अनुसार संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के वायदे किए गए, परन्तु ये पूरे नहीं हुए।
इस कारण संविधान असफल रहा, जबकि तीसरे वक्ता नाजिमा का दृष्टिकोण है कि संविधान स्वयं असफल नहीं हुआ, बल्कि हमने ही इसे असफल बनाया। इस तथ्य को हम सब स्वीकार करते हैं कि भारतीय संविधान का निर्माण तत्कालीन समय के योग्यतम, अनुभवी एवं दूरदर्शी नेताओं द्वारा व्यापक विचार-विमर्श एवं गहन तर्क-वितर्क के आधार पर ही किया गया था।
इसमें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं का पूरा ध्यान रखा गया। इसके अतिरिक्त जन सामान्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इसमें मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया तथा न्यायपालिका को इन मूल अधिकारों के संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है। संविधान द्वारा व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता को मौलिक अधिकारों के द्वारा सुनिश्चित किया गया।
वास्तविक सत्ता का केंद्र जनता में निहित किया गया है। जिसका प्रयोग जनता अपने मताधिकार के माध्यम से करती है, क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से ही सरकार का गठन एवं संचालन किया जाता है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है।
इन सबके मूल में एक प्रमुख उद्देश्य यह था कि भारत में लोकतांत्रिक ढाँचा सशक्त बने । जिसमें हमें काफी हद तक सफलता भी मिली है, जिसका प्रमाण यह है कि यहाँ अब तक 17 लोकसभा एवं अनेक राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं। जनता द्वारा मताधिकार का प्रयोग किया जाता रहा है।
या है कि चुनाव के समय धन और बाहुबलियों द्वारा चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है जिससे संविधान की मूल भावना को ठेस भी पहुँची है। नेहा के अनुसार संविधान असफल रहा, क्योंकि संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए गए वायदे सफल नहीं हुए। लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल अलग है।
क्योंकि जनता द्वारा विभिन्न स्तरों पर व्यापक स्वतंत्रता का उपयोग किया जाता है। कुछ विशेष स्थितियों में ही सरकार द्वारा नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों को शिक्षा, रोजगार तथा अन्य प्रकार की समानता प्राप्त है। छुआछूत और भेदभाव की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा है। यद्यपि इसमें हमें पूर्ण सफलता प्राप्त करना शेष है। परन्तु फिर भी स्थिति में सुधार हुआ है।
तीसरी वक्ता नाजिमा का विश्वास है कि संविधान असफल नहीं हुआ बल्कि हमने इसे असफल बनाया। हाँ, नाजिमा के तर्क से सहमत होने के कारण पर्याप्त हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने संकीर्ण हितों के मद्देनजर संविधान के मूल ढाँचे से भी छेड़छाड़ करने से नहीं चूकते हैं। यद्यपि संविधान में विभिन्न परिस्थितियों और परिवर्तनों तथा चुनौतियों का सामना करने के लिए व्यापक प्रावधान किए गए हैं तथापि संविधान में छुआछूत की समाप्ति, बाल-श्रम उन्मूलन, समान कार्य के लिए समान वेतन इत्यादि अनेक प्रावधानों के होते हुए भी व्यवहार में अमल न करना यही दर्शाता है कि हमने संवैधानिक व्यवस्थाओं और प्रावधानों को पूर्ण सच्चाई और ईमानदारी से लागू नहीं किया है।
संविधान में समाजवादी ढाँचे को अपनाया है, लेकिन आजादी के 70 वर्षों के बाद भी देश की जनसंख्या का लगभग 26 प्रतिशत भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। आज भी देश के विभिन्न भागों में लोग भुखमरी एवं कुपोषण के शिकार हैं। ये सारे तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि कहीं न कहीं हमारी कार्यप्रणाली में दोष है। इन सबके बावजूद देश में हो रहे चहुंमुखी विकास, साक्षरता की बढ़ती दर, लोक-स्वास्थ्य की बेहतर स्थिति, गिरती मृत्यु दर, बढ़ती औसत आयु आदि ऐसे संकेत हैं, जो भारत के सुखद भविष्य की ओर संकेत कर रहे हैं।
संविधान : क्यों और कैसे? HBSE 11th Class Political Science Notes
→ आधुनिक समय में प्रत्येक राज्य का प्रायः एक संविधान होता है। साधारण शब्दों में, संविधान उन मौलिक नियमों, सिद्धांतों तथा परंपराओं का संग्रह होता है, जिनके अनुसार राज्य की सरकार का गठन, सरकार के कार्य, नागरिकों के अधिकार तथा नागरिकों और सरकार के बीच संबंध को निश्चित किया जाता है।
→ शासन का स्वरूप लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, कुछ ऐसे नियमों के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता जो राज्य में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं तथा शासकों की भूमिका को निश्चित करते हैं।
→ इन नियमों के संग्रह को ही संविधान कहा जाता है। संविधान में शासन के विभिन्न अंगों तथा उनके पारस्परिक संबंधों का विवरण होता है।
→ इन संबंधों को निश्चित करने हेतु कुछ नियम बनाए जाते हैं, जिनके आधार पर शासन का संचालन सुचारू रूप से संभव हो जाता है तथा शासन के विभिन्न अंगों में टकराव की संभावनाएँ कम हो जाती हैं।
→ संविधान के अभाव में शासन के सभी कार्य निरंकुश शासकों की इच्छानुसार ही चलाए जाएँगे जिससे नागरिकों पर अत्याचार होने की संभावना बनी रहेगी।
→ ऐसे शासक से छुटकारा पाने के लिए नागरिकों को अवश्य ही विद्रोह करना पड़ेगा जिससे राज्य में अशांति तथा अव्यवस्था फैल जाएगी।
→ इस प्रकार एक देश के नागरिकों हेतु एक सभ्य समाज एवं कुशल तथा मर्यादित सरकार का अस्तित्व एक संविधान की व्यवस्थाओं पर ही निर्भर करता है।
→ इसीलिए हम इस अध्याय में संविधान के अर्थ को जानने के पश्चात् संविधान की आवश्यकता एवं संविधान के निर्माण की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए संविधान के विभिन्न स्रोतों का भी हम उल्लेख करेंगे।