Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़ Important Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़
अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत में वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा कितने स्तरीय है? उनके नाम बताएँ।
उत्तर:
भारत में वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा तीन स्तरीय है
- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत,
- खण्ड (ब्लॉक) अथवा तहसील स्तर पर पंचायत समिति,
- जिला स्तर पर जिला-परिषद् ।
प्रश्न 2.
ग्राम सभा किसे कहते हैं?
उत्तर:
एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके हैं और जिनका नाम मतदाताओं की सूची में होता है, मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करते हैं। दूसरे शब्दों में, ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।
प्रश्न 3.
ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या कितनी होती है?
उत्तर:
एक ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या गाँव की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। पंजाब में यह संख्या 5 से 13 के बीच तथा हरियाणा में 5 से 9 तक हो सकती है।
प्रश्न 4.
ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को क्या कहा जाता है? उसका चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को सरपंच कहा जाता है। उसका चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली द्वारा किया जाता है।
प्रश्न 5.
ग्राम-पंचायत के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है।
प्रश्न 6.
ग्राम पंचायत का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार ग्राम पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। सरकार द्वारा उसे पहले भी भंग किया जा सकता है।
प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत के कोई तीन कार्य लिखिए।
उत्तर:
- अपने क्षेत्र के विकास के लिए बजट तैयार करना तथा उसे ग्राम सभा के सामने पेश करना,
- गाँव की गलियाँ बनवाना तथा उनकी मुरम्मत करवाना,
- पीने के लिए शुद्ध पानी का प्रबन्ध करना।
प्रश्न 8.
ग्राम पंचायत की आय के कोई तीन साधन बताएँ।
उत्तर:
- गृह-कर,
- सरकार तथा अन्य संस्थाओं द्वारा प्राप्त अनुदान,
- पंचायत द्वारा किए गए जुर्माने से आय।
प्रश्न 9.
पंचायत समिति के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर:
- सामुदायिक विकास पंचायत समिति का मुख्य कार्य है। इसके अतिरिक्त अन्य कार्य हैं-क्षेत्र में विकास योजनाएँ लागू करना, उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रयास करना तथा लोगों के लिए रोज़गार आदि पैदा करना,
- कुटीर उद्योगों, ग्रामीण कला तथा कारीगरी के विकास के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना करना।
प्रश्न 10.
पंचायत समिति की आय के कोई साधन बताएँ।
उत्तर:
- मेलों तथा मण्डियों से प्राप्त आय,
- राज्य सरकार द्वारा वित्तीय सहायता अथवा अनुदान।
प्रश्न 11.
ज़िला-परिषद् के कोई दो कार्य बताएँ।
उत्तर:
- अपने क्षेत्र में स्थापित पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करना,
- पंचायत समितियों के बजट का निरीक्षण करना तथा उसे अपनी स्वीकृति प्रदान करना,
- जिले में ग्रामीण विकास के सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।
प्रश्न 12.
जिला-परिषद् की आय के कोई दो साधन बताएँ।
उत्तर:
- राज्य सरकार द्वारा सहायता के रूप में दिया गया धन,
- स्थानीय करों (Local Taxes) का कुछ भाग ज़िला-परिषद् को मिलता है।
प्रश्न 13.
74वाँ संवैधानिक संशोधन कब तथा किस लिए पास किया गया?
उत्तर:
74वाँ संवैधानिक संशोधन देश में शहरी स्थानीय संस्थाओं को अधिक मजबूत बनाने और उनमें लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए भारतीय संसद द्वारा सन 1992 में पास किया गया, जो सन 1993 में लागू हआ।
प्रश्न 14.
74वें संवैधानिक संशोधन की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
- इस संवैधानिक संशोधन द्वारा स्थानीय नगर संस्थाओं को पहली बार संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई,
- इस संवैधानिक संशोधन के अनुसार तीन स्तरीय शहरी संस्थाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई
(a) परिवर्तनीय क्षेत्र के लिए नगर पंचायत,
(b) छोटे नगरों के लिए नगर-परिषद् तथा
(c) बड़े नगरों के लिए नगर-निगम।
प्रश्न 15.
नगर-निगम किसे कहते हैं? हरियाणा में कुल कितने नगर निगम हैं?
उत्तर:
नगर-निगम शहरी स्थानीय प्रशासन की सर्वोच्च संस्था है, जिसकी स्थापना बड़े-बड़े नगरों में की जाती है। हरियाणा में कुल 10 नगर-निगम हैं।
प्रश्न 16.
नगर-निगम में कितने सदस्य होते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक नगर-निगम के सदस्यों की संख्या उस नगर की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा विशेष अधिनियम के अन्तर्गत निश्चित की जाती है।
प्रश्न 17.
नगर-निगम के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
नगर-निगम के सदस्यों अर्थात् सभासदों (Councillors) का चुनाव नगर के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के अनुसार किया जाता है। सभासद कुछ अन्य सदस्यों का चुनाव करते हैं, जिन्हें एल्डरमैन (Aldermen) कहा जाता है, ये व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति होते हैं जो साधारण चुनाव के झंझट में नहीं पड़ना चाहते।
प्रश्न 18.
नगर-निगम का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
गम का साधारण कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। राज्य सरकार द्वारा इसे निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी भंग किया जा सकता है।
प्रश्न 19.
नगर-निगम के अध्यक्ष को क्या कहते हैं? उसका चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
नगर-निगम के अध्यक्ष को महापौर (Mayor) कहा जाता है। उसका चुनाव नगर-निगम के सदस्यों द्वारा किया जाता है।
प्रश्न 20.
महापौर (Mayor) के कोई दो कार्य लिखें।।
उत्तर:
- वह नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है,
- महापौर नगर का प्रथम नागरिक कहलाता है। वह नगर में आने वाले विशिष्ट अतिथियों का अभिनन्दन करते है।
प्रश्न 21.
नगर-निगम के कोई चार कार्य लिखें।
उत्तर:
- अपने क्षेत्र में सफाई का प्रबन्ध करना,
- पीने के लिए पानी तथा बिजली की व्यवस्था करना,
- गली-सड़ी तथा मिलावट वाली वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना,
- श्मशान घाट तथा कब्रिस्तान की व्यवस्था करना।
प्रश्न 22.
नगर-निगम की आय के कोई दो साधन लिखें।
उत्तर:
- गृह-कर (House Tax),
- व्यवसाय कर (Profession Tax)
प्रश्न 23.
नगर-परिषद् (Municipal Council) की स्थापना किन नगरों में की जाती है ?
उत्तर:
नगर-परिषद् की स्थापना प्रायः उन नगरों में की जाती है जिनकी जनसंख्या 20,000 से अधिक होती है, परन्तु बहुत अधिक नहीं होती। इसकी स्थापना छोटे नगरों में की जाती है।
प्रश्न 24.
नगर-परिषद् के सदस्यों की संख्या कितनी होती है?
उत्तर:
नगर-परिषद् के सदस्यों की संख्या नगर की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है।
प्रश्न 25.
नगर-परिषद् के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
नगर-परिषद् के सदस्यों का चुनाव नगर में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है।
प्रश्न 26.
नगर-परिषद् का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
नगर-परिषद् का साधारण कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है, परन्तु राज्य सरकार द्वारा इसे पहले भी भंग किया जा सकता है।
प्रश्न 27.
नगर परिषद् के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर:
- नगर में पीने के पानी का प्रबन्ध करना,
- नगर में बीमारी को फैलने से रोकना।
प्रश्न 28.
नगर-परिषद् की आय के कोई तीन साधन लिखें।
उत्तर:
- गृह कर,
- व्यवसाय कर,
- मनोरंजन कर।
प्रश्न 29.
छावनी बोर्ड (Cantonment Board) की स्थापना कहाँ और क्यों की जाती है?
उत्तर:
छावनी बोर्ड की स्थापना उन शहरों में की जाती है जिनमें सैनिक छावनी (Army cantonment) है। यह बोर्ड केन्द्रीय सरकार के अधीन होता है। छावनी बोर्ड-छावनी क्षेत्र में वही कार्य करता है, जो नगर में नगर-परिषद् करती है।
प्रश्न 30.
शहरी स्थानीय संस्थाओं की कार्यविधि में कोई तीन दोष (त्रुटियाँ) लिखें।
उत्तर:
- धन की कमी,
- दलबन्दी की भावना,
- जातिवाद तथा सम्प्रदायवाद।
प्रश्न 31.
स्थानीय सरकार के दोषों को दूर करने के कोई तीन उपाय लिखिये।
सरकार के दोषों को दूर करने के तीन उपाय इस प्रकार है-
- शिक्षा का प्रचार करना,
- राजनीतिक जागरूकता लाना,
- अधिकार क्षेत्र में वृद्धि करना।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
स्थानीय शासन की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन. की दो मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. पी० स्टोन्स के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी देश के शासन का वह भाग है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनता से सम्बन्धित मामलों का प्रशासन करता है।”
2. एल० गोल्डिंग के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी क्षेत्र की जनता द्वारा अपने मामलों का स्वप्रबन्ध है।”
प्रश्न 2.
स्थानीय शासन की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
स्थानीय शासन की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. निश्चित क्षेत्र स्थानीय शासन की प्रत्येक इकाई का निश्चित क्षेत्र होता है, जिसके अन्दर रहकर स्थानीय इकाई अपने दायित्वों का निर्वाह करती है।
2. स्थानीय सत्ता स्थानीय निकायों के पास स्थानीय सत्ता होती है तथा इसके निर्वाचित प्रतिनिधि इस सत्ता का प्रयोग करते हैं।
3. स्वायत्तता स्थानीय शासन की संस्थाएँ को स्वायत्तता प्राप्त होती है। अन्यथा ये संस्थाएँ अपना उत्तरदायित्व निभा नहीं सकती, लेकिन इन पर राज्य सरकार के कुछ अंकुश भी होते हैं।
4. सरकार व जनता के बीच कड़ी-स्थानीय स्वशासन की इकाइयों को सरकार एवं जनता के बीच कड़ी माना जाता है। जिला प्रशासन इनके माध्यम से ही जनता तक पहुँच सकता है।
प्रश्न 3.
स्थानीय शासन के महत्त्व के चार शीर्षक लिखें।
उत्तर:
स्थानीय शासन के चार महत्त्वपूर्ण शीर्षक निम्नलिखित हैं-
1. लोकतन्त्र की पाठशाला-स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की पाठशाला कहा जाता है, क्योंकि इनके द्वारा स्थानीय स्तर पर नागरिकों को प्रशासन चलाने का ज्ञान प्राप्त होता है।
2. जनता की सेवा स्थानीय शासन की संस्थाएँ ऐसी सेवाओं और वस्तुओं का प्रबन्ध करती हैं, जिनसे स्थानीय जनता का जीवन सुखी और खुशहाल बनता है। ये संस्थाएँ कठिन परिस्थितियों में लोगों की सेवा भी करती हैं।
3. धन की बचत-स्थानीय संस्थाएँ केन्द्रीय सरकार का अनावश्यक खर्च कम करती हैं। ये स्थानीय स्तर पर कम खर्च से अधिक लाभ कमा सकती हैं।
4. राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण स्थानीय शासन सत्ता के राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण का उदाहरण है। इसमें सत्ता का केन्द्रीयकरण नहीं होता, बल्कि सत्ता लोगों में विभाजित होती है।
प्रश्न 4.
पंचायती राज का क्या अर्थ है? अथवा भारत में पंचायती राज की अवधारणा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पंचायती राज की धारणा ग्रामीण क्षेत्रों के विकास तथा प्रबन्ध के सम्बन्ध में एक नया विचार है। ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय स्वशासन को पंचायती राज कहा जाता है। पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत गाँवों में रहने वाले लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास सम्बन्धी कार्य स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया जाता है।
ऐसा अनुभव किया जाता है कि एक क्षेत्र में रहने वाले लोग ही उस क्षेत्र की समस्याओं से भली भाँति परिचित होते हैं और उन्हीं के द्वारा ही स्थानीय समस्याओं को ठीक तरह से हल किया जा सकता है। पंचायती राज की स्थापना से ही ग्रामीण स्तरों पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं की स्थापना करके शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण किया जाता है जिससे लोकतन्त्र अधिक मज़बूत होता है।
प्रश्न 5.
पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-
- पंचायती राज का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में लोकतन्त्र की स्थापना करना है,
- पंचायती राज का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने स्थानीय मामलों को स्वयं नियोजित करने तथा शासन प्रबन्ध करने का अधिकार देना है,
- पंचायती राज का उद्देश्य गाँवों के लोगों में सामुदायिक और आत्म-निर्भरता की भावना उत्पन्न करना है,
- पंचायती राज का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में कमज़ोर तथा पिछड़े वर्ग के लोगों का स्वशासन में सहभागी बनाना है,
- पंचायती राज का उद्देश्य साम्प्रदायिक विकास योजनाओं को लागू करने में ग्रामीण लोगों को उत्साहित करना है।
प्रश्न 6.
पंचायती राज का तीन-स्तरीय ढाँचा क्या है? अथवा भारत में पंचायती राज के त्रि-स्तरीय ढाँचे की कार्य-प्रणाली का विवरण दीजिए।
उत्तर:
संविधान के 73वें संशोधन द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज का ढाँचा निश्चित किया गया। कुछ छोटे राज्यों (जिनकी कुल जनसंख्या 20 लाख से कम है) के लिए यह ढाँचा दो-स्तरीय है, जबकि अन्य राज्यों में तीन-स्तरीय है। छोटे राज्यों में पंचायती राज की बीच की इकाई पंचायत समिति की स्थापना नहीं की जाएगी। पंचायती राज का तीन-स्तरीय ढाँचा निम्नलिखित प्रकार से कार्य करता है।
1. ग्राम पंचायतें पंचायती राज के ढाँचे में सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायतें हैं। लगभग सभी गाँवों में ग्राम पंचायतें हैं और छोटे-छोटे गाँवों को पंचायत के लिए किसी साथ वाले गाँव के साथ मिला दिया जाता है। पंच गाँव में रहने वाले सभी मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं और इनका कार्यकाल पाँच वर्ष होता है। ग्राम पंचायतें अपने गाँव के चहुंमुखी विकास के लिए सभी कार्य करती हैं और न्यायिक पंचायतों को तो न्यायिक अधिकार भी दिए गए हैं। पंचायत अपना काम चलाने के लिए कर (Tax) भी लगाती है।
2. पंचायत समिति-पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार प्रत्येक विकास खण्ड में पंचायतों के ऊपर पंचायत समिति की व्यवस्था की गई है। इस अधिनियम के अनुसार पंचायत समिति में निम्नलिखित सदस्य होंगे…
(1) प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्य पंचायत समिति के क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कुछ पंचायत समिति के सदस्य च जाएँगे। जिनकी संख्या 6 से 10 तक होगी।
(2) सरपंचों द्वारा निर्वाचित सदस्य पंचायत समिति के कुछ सदस्य इसके क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के सरपंच अपने में से चुनकर भेजेंगे। सरपंचों द्वारा निर्वाचित सदस्यों और जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों का पंचायत समिति में अनुपात 40:60 का होगा।
(3) विधान सभा के सदस्य पंजाब विधान सभा के वे सदस्य, जिनके चुनाव क्षेत्र का कुछ भाग पंचायत समिति के क्षेत्र में आता है, उसके पदेन सदस्य होंगे।
3. जिला परिषद्-पंजाब पंचायती राज अधिनियम 1994 के अनुसार प्रत्येक जिले में विकास खण्डों के ऊपर एक ज़िला परिषद् होती है। इस अधिनियम के अनुसार ज़िला-परिषद् के निम्नलिखित सदस्य होंगे
- प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्य-ज़िला-परिषद् के क्षेत्र मतदाताओं द्वारा कुछ सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं और हर निर्वाचित क्षेत्र से एक सदस्य चुना जाता है। एक ज़िला-परिषद् में 10 से लेकर 25 तक सदस्य हो सकते हैं। जिले के प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या लगभग समान होती है,
- पंचायत समितियों के अध्यक्ष इसके सदस्य होते हैं,
- लोक सभा और राज्य विधान सभा के वे सदस्य जिनका चुनाव क्षेत्र उस जिला परिषद् में आता है वे उसके पदेन सदस्य होते हैं,
- राज्य सभा के वे सदस्य, जिनका नाम उस जिले की मतदाता की सूची में अंकित है, भी जिला परिषद् के पदेन सदस्य होंगे।
प्रश्न 7.
ग्राम सभा किसे कहते हैं?
उत्तर:
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकों का होना अनिवार्य है। ग्राम सभा अपने अध्यक्ष (जिसे सरपंच कहते हैं) तथा कार्यकारी समिति (ग्राम पंचायत) का चुनाव करती है।
ग्राम सभा ग्राम पंचायत द्वारा बनाए गए वार्षिक बजट पर सोच-विचार करती है और अपने क्षेत्र के लिए विकास योजनाएँ तैयार करती है। ग्राम सभा विकास योजनाओं को लागू करने में भी सहायता करती है। परन्तु व्यवहार में ग्राम सभा कोई विशेष कार्य नहीं करती क्योंकि इसकी बैठकें बहुत कम होती हैं।
प्रश्न 8.
ग्राम पंचायत का गठन कैसे किया जाता है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत ग्राम सभा की कार्यकारिणी तथा पंचायती राज की त्रि-स्तरीय प्रणाली में प्रथम अर्थात् सबसे निचले स्तर की इकाई है। पंजाब में ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या एक सरपंच तथा 5-13 पंचों के बीच (ग्राम सभा की सदस्य-संख्या के आधार पर) निश्चित की जाती है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है।
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली द्वारा किया जाता है। प्रत्येक पंचायत में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाते हैं। सरपंच का चुनाव भी ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकों की अध्यक्षता करता है। ग्राम पंचायत में निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं। ग्राम पंचायत का कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है।
प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत का अध्यक्ष कौन होता है? उसके क्या कार्य हैं? अथवा ग्राम पंचायत अथवा ग्राम के स्थानीय मामलों में सरपंच की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ग्राम पंचायत का अध्यक्ष (सभापति) सरपंच होता है। उसका चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। सरपंच के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-
- सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है,
- सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकों की कार्रवाई का रिकार्ड रखता है,
- सरपंच अपने गाँव की पंचायत के वित्तीय और कार्यकारी प्रशासन के लिए उत्तरदायी होता है,
- सरपंच ग्राम पंचायत के अधिकारी तथा अन्य कर्मचारी, जिनकी सेवाएँ ग्राम पंचायत को दी गई हों, उनके कार्यों की देखभाल तथा उन पर नियन्त्रण रखता है,
- सरपंच अपने सभी पंचों के साथ मिलकर गाँव में शान्ति तथा व्यवस्था को बनाए रखता है।
प्रश्न 10.
पंचायत समिति का गठन कैसे किया जाता है।
उत्तर:
पंचायत समिति में निम्नलिखित तीन प्रकार के सदस्य शामिल होते हैं
1. निर्वाचित सदस्य पंचायत समिति के कुछ सदस्य समिति के क्षेत्र में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर चुने जाते हैं। पंजाब में इन सदस्यों की संख्या 6 तथा 10 के बीच में राज्य सरकार द्वारा पंचायत समिति क्षेत्र की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। प्रायः 15,000 की जनसंख्या पर एक सदस्य का निर्वाचन किया जाता है। परन्तु यह संख्या कम-से-कम 6 तथा अधिक-से-अधिक 10 होगी। पंचायत समिति के कुछ सदस्य सरपंचों तथा पंचों द्वारा चुने जाते हैं। इस प्रकार के सदस्यों तथा प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्यों का अनुपात 6 : 4 होगा।
2. सहायक सदस्य-पंचायत समिति द्वारा चुने गए राज्य विधान सभा के सदस्य तथा संसद के सदस्य समिति के सहायक सदस्यों के रूप में शामिल होते हैं। उन्हें पंचायत समिति की बैठकों में भाग लेने तथा पंचायत समिति के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के चुनाव तथा पदच्युत होने को छोड़कर अन्य सभी निर्णयों के लेने में मतदान का भी अधिकार होता है।
3. पदेन सदस्य-सब डिवीज़ीनल मैजिस्ट्रेट तथा खण्ड विकास अधिकारी पंचायत समिति के पदेन सदस्य होते हैं। उन्हें पंचायत समिति की बैठकों में भाग लेने तथा बोलने का अधिकार होता है, परन्तु वे मतदान में भाग नहीं ले सकते।
4. आरक्षित स्थान पंचायत समिति के निर्वाचित सदस्यों में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों के सदस्यों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाते हैं। पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है।
प्रश्न 11.
पंचायत समिति के कोई पाँच कार्य लिखें।
उत्तर:
पंचायत समिति क्षेत्र के सभी विकास कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इसके मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-
- पंचायत समिति का मुख्य कार्य सामुदायिक विकास है। इसमें विकास योजना को लागू करना, उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रयत्न करना तथा लोगों के लिए रोज़गार पैदा करना,
- क्षेत्र में लघु-सिंचाई योजनाएँ बनाना तथा भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए नीति बनाना,
- स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना करना तथा बीमारी को रोकने के लिए टीके लगवाना,
- आपात्कालीन सहायता का वितरण,
- पिछड़ी जातियों के विकास के लिए योजनाएँ बनाना।
प्रश्न 12.
पंचायत समिति की आय के मुख्य साधन बताइए।
उत्तर:
पंचायत समिति की आय के मुख्य साधन इस प्रकार हैं-
- पंचायत समिति के क्षेत्र में लगाए गए स्थानीय करों का कुछ भाग पंचायत समिति को मिलता है,
- मेलों तथा मण्डियों से प्राप्त आय,
- राज्य सरकार से सहायता के रूप में प्राप्त धन,
- पंचायत समिति की अपनी सम्पत्ति से होने वाली आय,
- समिति के क्षेत्र से इकट्ठा होने वाले लगान का कुछ भाग भी पंचायत समिति को मिलता है,
- पंचायत समिति जिला परिषद् की अनुमति से कुछ अन्य कर भी कर लगा सकती है तथा अपनी आमदनी को बढ़ा सकती है।
प्रश्न 13.
हरियाणा राज्य पंचायती अधिनियम, 1994 के अधीन सरपंचों के तीन मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ग्राम पंचायत के सभापति (अध्यक्ष) को सरपंच कहा जाता है। उसके तीन कार्य इस प्रकार हैं-
- सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाता है तथा उनका सभापतित्व करता है,
- सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकों की कार्रवाई का रिकार्ड रखता है,
- सरपंच अपने गाँव की पंचायत के वित्तीय तथा कार्यकारिणी प्रशासन के लिए जिम्मेवार होता है।
प्रश्न 14.
जिला परिषद् की रचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जिला-परिषद् पंचायती राज की सबसे ऊपर की इकाई है। प्रत्येक जिले में पंचायत समिति के ऊपर जिला परिषद् का . गठन किया गया है। वर्तमान में हरियाणा में 21 जिला-परिषद् है क्योंकि नवनिर्मित नए चरखी दादरी जिले में जिला परिषद् के गठन की अधिसूचना अभी जारी नहीं हुई। इसमें ये सदस्य शामिल होते हैं
- प्रत्येक जिले में कुछ सदस्य, जिनकी संख्या 10 से 25 तक होगी, जिला परिषद् क्षेत्र में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाएँगे,
- जिले में गठित पंचायत समितियों के अध्यक्ष,
- राज्य सभा, विधान सभा तथा लोक सभा के वे सदस्य जो जिला परिषद् के क्षेत्र से चुने गए हों,
- राज्य सभा के वे सदस्य जिनका नाम उस जिले के मतदाताओं की सूची में हो।
प्रत्येक जिला परिषद् में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों तथा महिलाओं के लिए सुरक्षित किए जाते हैं। जिला-परिषद् का कार्यकाल (73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार) 5 वर्ष निश्चित किया गया है।
प्रश्न 15.
जिला परिषद् के अध्यक्ष (Chairman) पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
जिला-परिषद् के अध्यक्ष का चुनाव जिला परिषद् के निर्वाचित सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अपनी पहली बैठक में किया जाता है। यह चुनाव डिप्टी कमिशनर अथवा उस द्वारा मनोनीत अधिकारी की देख-रेख में होता है। उसका चुनाव 5 वर्ष के लिए होता है। उसे इस अवधि के समाप्त होने से पहले भी सदस्यों के 2/3 बहुमत से हटाया जा सकता है। जिला-परिषद् के अध्यक्ष के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-
- वह जिला परिषद् की बैठक बुलाता है तथा उसकी अध्यक्षता करता है,
- वह जिला-परिषद् के लिए नियुक्त अधिकारियों व कर्मचारियों पर निगरानी व नियन्त्रण रखता है,
- वह अपने जिले में प्राकृतिक आपदा के शिकार लोगों की सहायता के लिए प्रतिवर्ष एक लाख रुपए खर्च करता है,
- वह जिला परिषद् के वार्षिक बजट पर भी निगरानी रखता है।
प्रश्न 16.
सरकार पंचायती राज पर कैसे नियन्त्रण रखती है?
उत्तर:
पंचायती राज पूर्णरूप से सरकार से स्वतन्त्र नहीं है। राज्य सरकारें पंचायती राज संस्थाओं पर नियन्त्रण रखती हैं और उन्हें आदेश दे सकती हैं। राज्य सरकार निम्नलिखित ढंग से पंचायती राज की संस्थाओं पर नियन्त्रण रखती है
- पंचायती राज की संस्थाओं की स्थापना राज्य सरकार द्वारा की जाती है और इन संस्थाओं के संगठन, कार्य तथा क्षेत्र का निर्धारण सरकार द्वारा ही किया जाता है,
- पंचायती राज संस्थाएँ नीति-निर्माण में स्वतन्त्र नहीं हैं। इन संस्थाओं द्वारा पास किए गए प्रस्तावों और नीतियों पर सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती है,
- पंचायती राज संस्थाओं के सभी प्रथम अधिकारियों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है,
- सरकार या उसका अधिकारी पंचायती राज संस्थाओं को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए आदेश दे सकता है,
- पंचायती राज संस्थाएँ वित्त के मामले में आत्म-निर्भर नहीं हैं। इन संस्थाओं को सरकार से अनुदान प्राप्त होता है। अतः सरकार इन संस्थाओं के हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल करने के लिए लेख परीक्षक भेजती है,
- सरकार डिप्टी कमिशनर के माध्यम से पंचायत और पंचायत समिति के बजट पर नियन्त्रण रखती है,
- इन संस्थाओं द्वारा बनाए गए उप-नियमों को सरकार की स्वीकृति मिलने के बाद ही लागू किया जा सकता है,
- विशेष परिस्थितियों में पंचायती राज संस्थाओं को सरकार निलम्बित या भंग कर सकती है।
प्रश्न 17.
वर्तमान ग्रामीण जीवन की तीन प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 70 वर्षों के बाद भी ग्रामीण जीवन का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। इसकी तीन प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं
1. जल-आपूर्ति ग्रामीण जनता को पीने का शुद्ध जल आज भी उपलब्ध नहीं है। अधिकतर गाँवों में मनुष्यों और पशुओं के लिए गाँव का तालाब ही जल-आपूर्ति का काम करता है। ऐसे तालाबों का पानी पशुओं के पीने के लिए भी शुद्ध नहीं कहा जा सकता, मनुष्यों की तो बात ही दूसरी है। इस उद्देश्य की पूर्ति में कुछ प्रगति अवश्य हुई है, परन्तु अब भी इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है।
2. ऊर्जा-ग्रामीण विकास के लिए ऊर्जा को उपलब्ध करवाना भी आवश्यक है। ग्रामीण जीवन का काफी बड़ा भाग आज भी ऊर्जा के साधन से वंचित है। कुछ ही राज्य ऐसे हैं जहाँ सभी गाँवों में बिजली की आपूर्ति की व्यवस्था की गई है। आज भी अधिकतर ग्रामवासी घरों में रोशनी करने तथा खाना पकाने के लिए तेल, लकड़ी एवं गोबर के प्रयोग पर निर्भर हैं। उन्हें बिजली की आपूर्ति तथा उन्नत किस्म के चूल्हों और गोबर गैस आदि की सुविधाएँ उपलब्ध कराने की जरूरत है।
3. भूमि का असमान वितरण-ग्रामीण जीवन की यह भी प्रमुख समस्या है कि यहाँ कृषि भूमि का बहुत असमान वितरण देखने को मिलता है। बड़े-बड़े ज़मींदारों के पास बहुत अधिक भूमि है, चाहे वह बेनामी तौर पर है या किसी गैर-कानूनी तरीके से रखी हुई है और वास्तविक रूप में खेती-बाड़ी करने वाले लोग भूमिहीन मज़दूर ही हैं।
प्रश्न 18.
74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की कोई पाँच विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारत में शहरी स्थानीय संस्थाओं के वर्तमान गठन तथा कार्यविधि का आधार 74वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम है। इसकी पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. संवैधानिक मान्यता इस संवैधानिक संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं को पहली बार सवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।
2. तीन प्रकार की शहरी स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था इस अधिनियम द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए तीन स्तरीय शहरी स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था की गई है-
- परिवर्तनीय क्षेत्र के लिए नगर पंचायत,
- छोटे नगरों के लिए नगर-परिषद्,
- बड़े नगरों के लिए नगर-निगम।
3. आरक्षण की व्यवस्था इस संशोधन अधिनियम द्वारा सभी शहरी, स्थानीय संस्थाओं में अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए कुछ स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था है।
4. अवधि इस संशोधन द्वारा सभी स्तर की शहरी स्थानीय संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है।
5. विशेष व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व-इस संशोधन के द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि विशिष्ट व्यक्तियों, क्षेत्र से सम्बन्धित राज्य विधानमण्डल तथा संसद सदस्यों को भी नगर-परिषद् में शामिल किया जाएगा।
प्रश्न 19.
नगर-निगम का सभापति कौन होता है? उसके कार्य लिखें। अथवा महापौर (Mayor) कौन होता है?
उत्तर:
महापौर (Mayor) नगर-निगम का अध्यक्ष होता है। उसका चुनाव नगर-निगम के सभी सदस्यों, पार्षदों तथा एल्डरमैन द्वारा किया जाता है। साधारणतः उसका चुनाव एक वर्ष के लिए किया जाता है, परन्तु एक वर्ष की समाप्ति पर उसे प्रायः दोबारा महापौर चन लिया जाता है। महापौर नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है और निगम (सदन) में शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखता है। वह निगम का सबसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है।
प्रश्न 20.
नगर-निगम अथवा नगरपालिका (नगर-परिषद्) के कोई छः कार्य लिखें।
उत्तर:
नगर-निगम दिए गए कार्य करती है
- नगर में पानी तथा बिजली की व्यवस्था करना,
- नगर की सफाई की व्यवस्था करना,
- गली-सड़ी वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना,
- स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह (Maternity centres) तथा बच्चों के लिए स्वास्थ्य कल्याण केन्द्र स्थापित करना,
- यातायात के लिए लोकल बसें चलाना,
- श्मशान-भूमि तथा कब्रिस्तान का प्रबन्ध करना,
- जन्म व मृत्यु के आँकड़े रखना,
- गलियों व सड़कों को बनवाना तथा उनकी मुरम्मत करवाना।
प्रश्न 21.
नगर-परिषद् (Municipal Council) की रचना पर नोट लिखें।
उत्तर:
नगर-परिषद् के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। पंजाब सरकार द्वारा जारी की गई एक अधिसूचना के अनुसार पाँच हजार से कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों के लिए 9 सदस्य और पाँच लाख से अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र के नगर-परिषद् में अधिक-से-अधिक 49 सदस्य होंगे। नगर-परिषद् के सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नगर के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
चुनाव के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले चुनाव क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है और प्रत्येक चुनाव क्षेत्र (वाड) से एक सदस्य चुना जाता है। नगर के सदस्यों को प्रायः नगर पार्षद कहा जाता है। इन सदस्यों के अतिरिक्त राज्य विधान सभा के सभी सदस्य, जिनके चुनाव क्षेत्र पूर्ण अथवा आंशिक रूप से उस नगर की सीमा में आते हैं, नगर-परिषद् के सदस्य होंगे। उन्हें परिषद् की बैठक में भाग लेने तथा बोलने का अधिकार होता है। परन्तु वे मतदान में भाग नहीं ले सकते। नगर-परिषद् का साधारण कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है।
प्रश्न 22.
नगर पंचायत पर एक नोट लिखिए।
उत्तर:
नगर पंचायत की स्थापना सरकार द्वारा उन परिवर्तनीय क्षेत्रों में की जाती है, जिसकी जनसंख्या 20,000 से अधिक न हो। पंजाब में इस समय 32 नगर पंचायतों की स्थापना की गई है। पंजाब तथा हरियाणा में नगर पंचायतों के सदस्यों की संख्या कम-से-कम पाँच रखी गई है। इन सदस्यों का चनाव परिवर्तनीय क्षेत्र के मतदाताओं की सूची में शामिल मतदाताओं द्वारा किया जाता है।
नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या के आधार पर क्षेत्र को भिन्न-भिन्न वार्डों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र (वाड) से एक सदस्य चुना जाता है। नगर पंचायत अपने क्षेत्र के लिए वही कार्य करती है जो नगर-परिषद् द्वारा अपने क्षेत्र के लिए किए जाते हैं। ये हैं-नगर की सफाई का प्रबन्ध, लोगों के स्वस्थ की देखभाल, सड़कें अथवा पुल बनवाना तथा उनकी मुरम्मत, पीने के पानी तथा बिजली का प्रबन्ध करना आदि।
प्रश्न 23.
नगर-परिषद् पर सरकार के नियन्त्रण के कोई तीन तरीकों का वर्णन करें।
उत्तर:
सरकार इस प्रकार तरीकों द्वारा नगर-परिषद् पर नियन्त्रण रख सकती है
- जिले का जिलाधीश (Deputy Commissioner) नगर-परिषद् के कार्यों की देख-रेख करता है। वह नगर-परिषद् को उसके कार्यों के सम्बन्ध में आदेश दे सकता है,
- नगरपालिका के प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है,
- सरकार किसी भी नगर परिषद् को उसका कार्यकाल समाप्त होने से पहले भँग करके वहाँ प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर सकती है,
- नगर-परिषद् जो भी नियम तथा अधिनियम बनाती है उनकी स्वीकृति सरकार से लेनी पड़ती है,
- सरकार किसी भी नगर-परिषद् का रिकॉर्ड मँगवाकर उसकी देखभाल कर सकती है।
प्रश्न 24.
छावनी बोर्ड पर नोट लिखें।
उत्तर:
जिन नगरों में सैनिक छावनियाँ हैं, उन छावनी क्षेत्रों में स्थानीय विषयों का प्रबन्ध करने के लिए केन्द्रीय सुरक्षा मन्त्रालय छावनी बोर्ड की स्थापना की जाती है। इसके सदस्यों की संख्या केन्द्रीय रक्षा मन्त्रालय द्वारा निश्चित की जाती है। इसके आधे सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते हैं तथा शेष आधे सदस्यों का चुनाव छावनी क्षेत्र में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। छावनी बोर्ड का कमांडिंग अफसर छावनी बोर्ड का पदेन (Ex-officio) अध्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त एक कार्यकारी अधिकारी होता है जिसकी नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती है।
निबंधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
स्थानीय शासन का अर्थ क्या है? स्थानीय शासन की परिभाषाएँ देते हुए इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Local Government) स्थानीय शासन हमारे देश में शासन की त्रि-स्तरीय प्रणाली का एक अनिवार्य भाग है अन्य दो स्तर हैं, केन्द्रीय शासन एवं राज्य शासन। दूसरे शब्दों में, स्थानीय शासन शासकीय संस्थाओं के स्तम्भ के निम्नतम स्तर पर अव्यवस्थित है राष्ट्रीय शासन इस स्तम्भ का शीर्ष स्तर है जबकि राज्य शासन मध्यवर्ती स्तर।
स्थानीय शासन ग्रामीण एवं नगरीय दोनों क्षेत्रों में कार्यशील है, अतएव इसे क्रमशः ग्रामीण एवं नगरीय शासन कहते हैं। नगरीय स्थानीय शासन नगर-निगमों, नगरपालिकाओं, टाउन एरिया एवं अधिसूचित क्षेत्र समितियों द्वारा क्रियारत है, जबकि ग्रामीण स्थानीय शासन जिला-परिषदों, पंचायत समितियों एवं ग्राम पंचायतों के माध्यम से कार्य करता है। स्थानीय शासन की परिभाषाएँ विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित प्रकार से दी गई हैं
1. पी० स्टोनस (P. Stones):
के अनसार, “स्थानीय शासन किस देश के शासन का वह भाग है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनता से सम्बन्धित मामलों का प्रशासन करता है।” उसका आगे कथन है कि यह समुदाय की पत्नी के रूप में कार्य करता है, क्योंकि यह उसके पर्यावरण को रहने योग्य बनाता है, सड़कों को स्वच्छ रखता है, बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है, मकानों का निर्माण करता है, एवं अन्य सभी ऐसे कार्य, जो सभ्य जीवन व्यतीत करने हेतु योग्य बनाते हैं, करता है।
2. वी. वेंकट राव (V.Venkat Rao):
का कथन है, “स्थानीय शासन सरकार का वह भाग है जो मुख्यतया स्थानीय विषयों से सम्बन्धित है, जिनका प्रशासन राज्य सरकार के अधीन प्राधिकारियों द्वारा होता है, परन्तु जिन्हें योग्यता प्राप्त निवासियों द्वारा स्वतन्त्र रूप से निर्वाचित किया जाता है।”
3. जोन जे० क्लार्क (John J. Clarke):
के शब्दों में, “स्थानीय शासन किसी राष्ट्र अथवा राज्य सरकार का वह भाग है जो मुख्यतया किसी विशेष जिले अथवा स्थान के निवासियों से सम्बन्धित मामलों का निपटारा करता है।”
4. एल० गोल्डिंग (L. Golding):
के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी क्षेत्र की जनता द्वारा अपने मामलों का स्वप्रबन्ध है।”
5. जी० मोंटग्यू हैरिस (G Montagu Haris):
का कथन है, “स्थानीय शासन स्वतन्त्र रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयं लोगों द्वारा प्रशासन है।”
6. के० वेंकट रंगैया (K. Venkatarangaiya):
के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी क्षेत्र, देहात, नगर अथवा राज्य से छोटे अन्य किसी क्षेत्र का स्थानीय निवासियों के प्रतिनिधि निकाय द्वारा प्रशासन है जिसे पर्याप्त भागों में स्वायत्तता प्राप्त होती है, जो स्थानीय करारोपण द्वारा अपने राजस्व का कुछ अंश एकत्रित कर सकती है एवं अपनी आय को स्थानीय सेवाओं पर व्यय कर सकती है। अतः इस प्रकार यह राज्य एवं केन्द्रीय सेवाओं से विभिन्न होती है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन का सरल अर्थ यह निकलता है कि स्थानीय शासन एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत किसी विशेष स्थान का शासन वहाँ के लोगों द्वारा चलाया जाता है। इस व्यवस्था का रूप, संगठन व प्रकृति केन्द्रीय या राज्य सरकार के विशेष अधिनियम के अनुसार निर्धारित की जाती है।
स्थानीय शासन सत्ता के विकेन्द्रीयकरण पर आधारित है और इसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय क्षेत्र के निवासियों का कल्याण व विकास करना होता है। स्थानीय स्तर पर गठित संस्थाएँ स्वतन्त्र व स्वायत्तता होती हैं और ये प्रशासन का संचालन बिना रोक-टोक व हस्तक्षेप से करती हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ये संस्थाएँ पूर्णतः स्वतन्त्र होती हैं। ये राज्य या केन्द्रीय सरकारों के अधीन रहकर कार्य करती हैं और ये राज्य या केन्द्रीय सरकारों के कानूनों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकतीं। स्थानीय शासन का अर्थ समझने के बाद अब हम स्थानीय शासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करेंगे, जो इस प्रकार हैं
स्थानीय शासन की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of Local Government):
स्थानीय शासन के अर्थ व परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी विशेष क्षेत्र के स्थानीय प्रतिनिधियों द्वारा संचालित शासन-प्रबन्ध ही स्थानीय शासन कहलाता है। स्थानीय शासन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. निश्चित स्थानीय क्षेत्र स्थानीय शासन की प्रत्येक इकाई, चाहे वह नगरपालिका की कोई संस्था हो या पंचायत की कोई संस्था हो, का अपना एक निश्चित कार्य क्षेत्र होता है। स्थानीय शासन की प्रत्येक इकाई का अधिकार क्षेत्र व सीमान्तर का निर्धारण राज्य सरकार/संघीय सरकार करती है। इस निश्चित अधिकार क्षेत्र के अन्दर रहकर ही स्थानीय शासन की इकाई अपने दायित्वों का निर्वाह करती है।
राज्य सरकार स्थानीय शासन की किसी भी इकाई की सीमा का निर्धारण करते समय सम्बन्धित क्षेत्र का जनसंख्या घनत्व (एक k.m. वर्ग में रहने वाले लोग), स्थानीय क्षेत्र की आय के साधन, शहरीकरण या ग्रामीण पृष्ठभूमि का विस्तार आदि तत्त्वों को ध्यान में रखती है।
2. स्थानीय सत्ता-स्थानीय शासन की संस्थाओं का प्रशासन कुशलतापूर्वक चलाने के लिए वहाँ के नागरि को सत्ता व शक्ति सौंपना आवश्यक है। ये चुने हुए प्रतिनिधि स्थानीय शासन की संस्थाओं के प्रशासन का संचालन करते हैं और अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इन प्रतिनिधियों को स्थानीय समस्याओं के बारे में ज्ञान होता है और ये अपने विचार, केन्द्र या राज्य सरकार के पास प्रभावशाली तरीके से पहुंचा सकते हैं। इसलिए स्थानीय शासन की संस्थाओं के जन-प्रतिनिधियों को स्थानीय स्तर पर शक्ति सौंप देनी चाहिए।
3. स्थानीय लोगों की सेवा-स्थानीय शासन पर गठित सभी संस्थाएँ लोगों की सेवा और सुविधा के लिए कार्यरत होती हैं। इन संस्थाओं का मख्य उद्देश्य स्थानीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों का कल्याण करना होता है। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, यातायात. शिक्षा आदि सभी प्रकार की सेवाओं का लाभ स्थानीय क्षेत्र के लोगों को मिलता है। यदि वित्तीय स्थिति अच्छी हो और राज्य सरकार कुछ सहायता प्रदान कर दे तो स्थानीय लोगों की सेवा के स्तर व गुणों में वृद्धि हो सकती है।
4. स्थानीय आय के साधन-स्थानीय शासन की संस्थाएँ स्थानीय सेवाओं व प्रशासन का प्रबन्ध करने हेतु स्थानीय वित्तीय स्रोतों से प्राप्त धन का ही प्रयोग करती हैं। इन संस्थाओं की आय की अनेक साधन होते हैं जिनमें स्थानीय कर (Local Tax) राज्य से प्राप्त ऋण व सेवाओं के बदले ली गई फीस शामिल है।
स्थानीय संस्थाओं को अपना बजट बनाने की स्वतन्त्रता होती है। वे अपने शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए आय के सभी उपलब्ध साधनों का पूरा लाभ उठाती हैं। कई बार स्थानीय नागरिक . भी स्वेच्छा से स्थानीय क्षेत्र के विकास के लिए चन्दा, दान आदि भी देते हैं।
5. स्वायत्तता स्थानीय शासन की संस्थाएँ स्थानीय लोगों की जरूरतों को पूरा करती हैं। यदि इन संस्थाओं पर अत्यधिक नियन्त्रण व प्रतिबन्ध लगाए जाएँ तो ये कुशलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकतीं। इन संस्थाओं को एक अधिकार क्षेत्र की सीमा में रहकर पूर्ण स्वतन्त्रता व स्वायत्तता होती है।
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि ये संस्थाएँ अपनी इच्छा से कुछ भी कार्य कर सकती हैं। राज्य या केन्द्रीय सरकार के कानूनों व नियमों के विरुद्ध ये संस्थाएँ कुछ भी नहीं कर सकतीं। इन संस्थाओं को किस हद तक स्वायत्तता दी जाए व किस सीमा तक स्वतन्त्रता दी जाए, इसका निर्णय सम्बन्धित विषय पर निर्भर करता है।
6. अप्रभुसत्तामयी अस्तित्व-ये संस्थाएँ प्रभुसत्ताधारी नहीं होतीं। इन पर केन्द्र व राज्य सरकारों के आदेश व शक्ति का नियन्त्रण होता है। ये केवल स्वायत्तता होती हैं। पूर्ण प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास होती है। पूर्ण प्रभुसत्ता का अर्थ यह होता है कि किसी मामले पर निर्णय लेने का अन्तिम अधिकार किसके पास हो। स्थानीय प्रशासन चलाने के लिए इन संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई है, परन्तु कर्तव्यों का पालन ठीक प्रकार से नहीं करने पर सरकार इनके कार्यों में हस्तक्षेप भी कर सकती है।
ये संस्थाएँ अपने कार्यों व शक्तियों के सफलतापूर्वक संचालन के लिए, वित्तीय सहायता, तकनीकी सहायता, कानूनों की स्वीकृति एवं कर्मचारियों की भर्ती व प्रशिक्षण के लिए राज्य सरकार की स्वीकृति पर निर्भर रहती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राज्य सरकार स्थानीय शासन की संस्थाओं पर वैधानिक, प्रशासनिक व वित्तीय नियन्त्रण रखती है। इस प्रकार ये संस्थाएँ पूर्णतः प्रभुसत्ता सम्पन्न नहीं होती।
7. संवैधानिक दर्जा प्रत्येक देश की स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को संविधान या विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों या कार्यकारी आदेशों के द्वारा वैधानिक दर्जा दिया जाता है। भारत में 73वें व 74वें संवैधानिक संशोधन के पारित हो जाने के उपरान्त पंचायतों व नगरपालिकाओं से सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन संविधान की धारा 243, 11वीं अनुसूची व 12वीं अनुसूची में किया गया है। इससे पूर्व पंचायतों का जिक्र धारा 40 में आता था।
8. सभी स्तरों पर गठित सरकारों का आधार अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राज्य तथा जिला स्तर पर गठित सरकारों का आधार व नींव स्थानीय शासन की इकाइयाँ होती हैं। इन्हें सरकार की स्टाफ एजेंसी माना जाता है। केन्द्रीय व राज्य सरकार के कल्याणकारी व विकास सम्बन्धी कार्यक्रम स्थानीय स्तर पर ही लागू किए जाते हैं।
सभी विषय चाहे वह कानून व व्यवस्था का विषय हो या फिर समाज कल्याण या राष्ट्रीय विकास का, स्थानीय लोगों के लिए होते हैं। सरकार व जनता के बीच कड़ी-स्थानीय स्वशासन की इकाइयों को सरकार व जनता को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। जिला प्रशासन जिसे भारतीय लोक प्रशासन का आधार माना जाता है, वास्तव में स्थानीय शासनीय इकाइयों के माध्यम से ही जनता तक पहुँचता है। इन इकाइयों को राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त होती है जिनकी उपेक्षा करना व्यावहारिक तौर पर सम्भव नहीं होता।
10. जनता का शासन-स्थानीय शासन को जनता का शासन कहा जाता है, क्योंकि जनता के प्रतिनिधि, जो कि प्रत्यक्ष चुनाव से चुने जाते हैं, ही लोगों के सहयोग व परामर्श के अनुसार स्थानीय स्वशासन का प्रबन्ध करते हैं। इस स्तर पर जन-प्रतिनिधियों और जनता के मध्य विशेष दूरी नहीं होती। प्रजातन्त्र, जिसका अर्थ लोगों का शासन होता है, स्थानीय शासन की इकाइयों में ही विराजमान होता है।
11. स्थानीय शासन का विभाजन प्रत्येक देश की स्थानीय शासन की इकाइयों का विभाजन दो प्रकार से होता है ग्रामीण एवं शहरी संस्थाएँ। भारत में ग्रामीण स्तर पर गठित शासन की इकाइयों में पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद और शहरी स्तर पर गठित शहरी शासन की इकाइयों में नगर परिषद, नगर पालिका एवं नगर-निगम सम्मिलित हैं। ग्रामीण इकाइयों में जिला-परिषद और शहरी इकाइयों में नगर-निगम उच्चतम, स्वायत्तता, शक्तिशाली तथा स्वतन्त्र निकाय माने जाते हैं।
12. सरकार पर निर्भरता स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय लोगों द्वारा गठित प्रशासकीय इकाइयों, जो कि स्वयं निर्णय करती हैं, को स्थानीय सरकार कहा जाता है, परन्तु व्यवहार में ये निकाय पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं होते। केन्द्रीय या राज्य सरकार भिन्न-भिन्न आधारों पर इनकी आन्तरिक कार्य-प्रणाली में हस्तक्षेप करती रहती है।
सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर प्रभाव डालते हैं और इन अधिकारियों को स्थानीय शासन की इकाइयों की स्वतन्त्रता के रास्ते में गले की हड्डी माना जाता है। ये निकाय धन की उपलब्धता, नियमों की व्याख्या, तकनीकी परामर्श, पदाधिकारियों की अवधि तथा कार्यकाल आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर सरकार के दृष्टिकोण व सोच पर ही निर्भर होते हैं।
13. निरन्तर विकास की अवस्था में स्थानीय प्रशासन की संस्थाओं की एक और विशेषता यह होती है कि ये संस्थाएँ निरन्तर विकास की अवस्था में रहती हैं क्योंकि इनमें हर समय विकास की गुंजाइश रहती है। इतिहास के भिन्न-भिन्न कालों; जैसे प्राचीन युग, वैदिक युग, मौर्य युग, मुगल युग, ब्रिटिश युग और स्वतन्त्रता के पश्चात् के युग में इन संस्थाओं में किसी-न-किसी प्रकार का सुधार हुआ है। आज संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद भी इन संस्थाओं के विकास का क्रम रुका नहीं है।
14. प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग-स्थानीय सरकार की भिन्न-भिन्न इकाइयों में राज्य या केन्द्रीय सरकारों द्वारा प्रदत्त की गई शक्तियों का प्रयोग किया जाता है। सम्बन्धित उचित सत्ता (Concerned Appropriate Authority) अधिनियमों व उप-नियमों के अनुसार इन इकाइयों की शक्तियाँ व कार्य हस्तान्तरित करती रहती है, ताकि प्रजातन्त्र का विकास हो सके और ये संस्थाएँ सरकार के अधीन रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकें।
निष्कर्ष स्थानीय शासन की इकाइयों को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद और प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीयकरण की अवधारणा के विकास के फलस्वरूप स्थानीय शासन का महत्त्व बढ़ गया है। प्रजातन्त्र की गति और सफलता स्थानीय शासन की कार्यकुशलता व श्रेष्ठता पर निर्भर करती है।
प्रश्न 2.
स्थानीय शासन के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
स्थानीय शासन का महत्त्व (Significance of Local Government)-स्थानीय शासन प्रजातन्त्र की नींव (Foundation) है। यह केन्द्रीय स्तर पर गठित प्रशासनिक व्यवस्था की आधारशिला है। यदि स्थानीय स्तर पर लोगों को शासन करने का अधिकार न दिया जाए तो प्रजातन्त्र का विकास नहीं हो सकता। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा और लोगों के अपने अधिकारों ता के कारण स्थानीय शासन की संस्थाओं का महत्त्व बढ़ रहा है।
सरकार की एक विशेष इकाई के रूप में स्थानीय शासन के उद्भव के कई कारण रहे हैं। इनमें ऐतिहासिक, वैधानिक और प्रशासनिक कारण मुख्य हैं। यदि भिन्न-भिन्न लेखकों के विचारों का विश्लेषण किया जाए तो स्थानीय शासन के महत्त्व को आसानी से समझा जा सकता है, जो इस प्रकार हैं
1. लोकतन्त्र की पाठशाला स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की पाठशाला कहा जाता है क्योंकि इनके द्वारा स्थानीय स्तर पर नागरिकों को प्रशासन चलाने के दायित्वों का ज्ञान मिलता है और वे शासन-प्रणाली के संचालन की तथा प्रबन्ध की शिक्षा ग्रहण करते हैं। स्थानीय शासन लोगों को प्रशासनिक प्रक्रियाओं में प्रत्यक्ष भाग लेने का अवसर प्रदान करता है।
लोग स्थानीय समस्याओं व झगड़ों को दूर करने का उत्तदायित्व सम्भालते हैं और उनकी प्रजातन्त्र में रुचि बढ़ जाती है। ब्राइस (Bryce) के अनुसार, स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की सर्वोत्तम पाठशाला और लोकतन्त्र का सूक्ष्म रूपं मानता है। वी. वेंकट राव (V.Venkat Rao) के अनुसार, “स्थानीय शासन लोकतन्त्र का आधार है। इसके बिना लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती अथवा इसके बिना लोकतान्त्रिक ढाँचा ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। दूसरी ओर स्थानीय शासन का स्थायित्व भी लोकतन्त्र पर निर्भर है। यह सम्भवतः लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में सम्भव है।” इसलिए हम कह सकते हैं कि स्थानीय शासन प्रजातन्त्र का पालना है, जहाँ पर प्रजातन्त्र जन्म लेता है और विकसित होता है।
2. सामाजिक सहयोग का साधन स्थानीय शासन की संस्थाएँ लोगों में सामाजिक भावना का विकास करती हैं। स्थानीय स्तर पर किसी भी प्रकार की समस्या, झगड़े व वाद-विवादों का हल वे मिल-जुलकर निकाल लेते हैं। स्थानीय शासन सामाजिक सहयोग व भाईचारे का उचित साधन है। स्थानीय शासन की संस्थाएँ एक ऐसा माध्यम हैं जिनसे समाज को व्यक्तिगत व स्वार्थी तत्त्वों के कारण टूटने से बचाया जा सकता है। स्थानीय स्तर पर लोगों में परस्पर सहयोग, पहलकदमी और उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है, जिससे सामुदायिकी भावना और प्रजातन्त्र को शक्ति मिलती है।
3. जनता की सेवा स्थानीय शासन की संस्थाओं का मुख्य उद्देश्य स्थानीय लोगों की सेवा करना होता है। ये संस्थाएँ ऐसी सेवाओं व वस्तुओं का प्रबन्ध करती हैं जिनसे स्थानीय जनता का जीवन सुखी व खुशहाल बनता है। इन संस्थाओं द्वारा लोगों को प्रदान की गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं में सफाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, पानी का प्रबन्ध, लाइब्रेरी व यातायात के साधनों का प्रबन्ध आदि आते हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय लोगों की कठिन परिस्थितियों में भी सेवा करती हैं।
4. प्रशासन में कुशलता यदि स्थानीय संस्थाओं का अस्तित्व न हो तो केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रशासन का संचालन करना अति कार्यों की अधिकता व स्थानीय समस्याओं के ज्ञान के अभाव के कारण राज्य सरकार के अधिकारी अपना पूरा ध्यान स्थानीय समस्याओं की ओर नहीं दे पाते। स्थानीय लोगों को शासन का अधिकार देकर हम उन्हें प्रशासन का भाग बन सकते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कोई भी उत्तरदायित्वपूर्ण प्रशासकीय कार्य सौंपा जा सकता है। ये संस्थाएँ लोगों के सबसे नजदीक होती हैं जिसके कारण लोगों के द्वारा स्थानीय समस्याओं का हल करना सम्भव हो जाता है।
5. केन्द्रीय शासन के कार्यभार को कम करना स्थानीय शासन की संस्थाएँ केन्द्र व राज्य सरकार तथा जिला प्रशासन के कार्यभार को हल्का करती हैं। इससे उनका बचा हुआ समय व ऊर्जा राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों की ओर केंद्रित हो सकते हैं। इससे राज्य व केन्द्रीय स्तर की सरकारें अपना-अपना उत्तरदायित्व अच्छी तरह निभा सकती हैं।
6. अधिकारी वर्ग को तानाशाह बनने से रोकना-स्थानीय शासन अधिकारी तन्त्र की तानाशाही प्रवृत्ति के विरुद्ध एक कवच के रूप में कार्य करता है। कई बार अधिकारी गण लोगों की समस्याओं का समाधान करने की बजाय स्वेच्छाचारी व्यवहार करते हैं और जन-भावनाओं का बिल्कुल आदर नहीं करते। ऐसे समय में स्थानीय शासन की संस्थाएँ, जोकि एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति होती है, अधिकारियों पर पूर्ण अनुशासन बनाए रखती हैं जिससे अधिकारियों की तानाशाही नीतियों को रोकने में सफलता मिलती है। डॉ० फाइनर (Dr. Finer) ने इस विषय पर बहुत सटीक विचार व्यक्त करते हुए कहा है, “स्थानीय शासन केन्द्रीयकरण के बढ़ते हुए खतरे की प्रतिक्रिया है।”
7. विकास योजनाओं की सफलता-देश के विकास के लिए चलाई जा रही विकास योजनाओं की सफलता स्थानीय शासन की संस्थाओं पर निर्भर करती है। विकास व कल्याणकारी योजनाएँ तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक ये संस्थाएँ अपना योगदान न दें। विकास योजनाओं में लोगों की सहभागिता इन संस्थाओं के माध्यम से सुनिश्चित हो जाती है। संविधान के 73वें व 74वें संशोधन के लागू होने के बाद ग्राम सभाओं व जिला योजना समितियों को विकास का मुख्य उत्तरदायित्व सौंपा गया है। केन्द्र व राज्य सरकारें सभी विकास योजनाओं को इन संस्थाओं के माध्यम से लागू करती हैं।
8. राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण स्थानीय शासन सत्ता के राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण का उदाहरण है। इस प्रकार की व्यवस्था में सत्ता का केन्द्र एक नहीं होता, बल्कि लोगों के मध्य विभाजित हो जाता है। स्थानीय नागरिकों को राजनीतिक निर्णय लेने की है और वे बार-बार आवश्यक कार्यों हेतु केन्द्रीय सत्ता या अधिकारियों के पास नहीं जाते। प्राकृतिक आपदाओं में ये संस्थाएँ लोगों की कुशलता से सेवा करती हैं।
9. लोकतन्त्र को मजबूत बनाना-स्थानीय शासन से लोकतन्त्र मजबूत बनता है। लोग स्थानीय स्तर पर सभी समस्याओं को हल कर लेते हैं और उन्हें निर्णय लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे जनता में प्रजातान्त्रिक भावना का विकास होता है। इन संस्थाओं से लोगों में नागरिकता के गुण पनपते हैं। इन संस्थाओं को अधिक उपयोगी और कारगर बनाने के लिए अधिक-से-अधिक अधिकार दिए जाने चाहिएँ।
10. धन की बचत-स्थानीय शासन की संस्थाएँ केन्द्रीय सरकार का अनावश्यक खर्च कम करती हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध साधनों का कुशलतम प्रयोग करके कम-से-कम धन से अधिक लाभ कमा सकती हैं। यदि ये संस्थाएँ न हों तो केन्द्रीय सरकार को विशेष कार्य लागू करने के लिए अलग-अलग विभागों की स्थापना करनी पड़ती और इन विभागों में भर्ती किए गए कर्मचारियों को वेतन एवं अन्य सुविधाओं के लिए धन खर्च करना पड़ता।
11. मानव संसाधनों का विकास-स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो कोई कार्य नहीं करते, जबकि उनमें कार्य करने की क्षमता, योग्यता और प्रतिभा होती है। ये व्यक्ति स्थानीय संस्थाओं में अपना योगदान देते हैं जिस कारण इन्हें अपने गुणों का विकास करने का अवसर मिल जाता है। स्थानीय शासन की संस्थाओं के अभाव में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मानव व भौतिक संसाधन व्यर्थ में ही नष्ट हो जाते हैं।
12. नागरिक गुणों व राष्ट्रीय भावना का विकास-जब स्थानीय लोग पंचायतों व नगरपालिकाओं की कार्य-प्रणालियों में भाग लेते हैं तो उन्हें अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का ज्ञान हो जाता है। इससे उनमें एक अच्छे नागरिक के कर्तव्यों का विकास होता है। इसके अतिरिक्त उनमें जन-सेवा, उदारता, त्याग, राष्ट्र-भक्ति, कर्तव्य-पालन आदि की भावनाओं का विकास होता है। प्रो० लॉस्की का विचार है कि स्थानीय शासन की संस्थाएँ नागरिक गुणों और राष्ट्रीय भावना के विकास का मुख्य साधन हैं। इस स्तर पर वे देश-भक्ति का प्रथम पाठ भी सीखते हैं।
स्थानीय शासन के उपर्युक्त महत्त्वों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि स्थानीय शासन का.मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। हर आदमी को किसी-न-किसी काम के लिए स्थानीय शासन की जरूरत पड़ती है। संक्षेप में यह स्वीकार किया जा सकता है कि लोगों की सेवा करने, प्रजातन्त्र का विकास करने, अधिकारी वर्ग की तानाशाही को कम करने, आर्थिक मितव्ययता तथा योजनाओं को सफल बनाने में स्थानीय शासन की संस्थाएँ अति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
प्रश्न 3.
पंचायती राज की धारणा की व्याख्या करें। इसके मुख्य उद्देश्य क्या हैं? अथवा पंचायती राज का क्या अर्थ है? इसकी तीन-स्तरीय संरचना की व्याख्या करें।
उत्तर:
पंचायती राज स्वतन्त्र भारत की एक महान् उपलब्धि है। पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत गाँवों में रहने वाले लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास सम्बन्धी कार्य स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया गया है। भारत में प्राचीनकाल से ही ग्राम पंचायतों का महत्त्व रहा है। वैदिक काल में स्थानीय समस्याओं को स्थानीय लोग स्वयं ही सुलझा लेते थे।
वैदिक काल के पश्चात् भी सैंकड़ों वर्षों तक ग्रामीण जीवन स्वतन्त्रता-पूर्वक व्यतीत होता रहा। मुस्लिम युग में यद्यपि मुस्लिम शासकों ने पंचायतों को महत्त्व नहीं दिया, परन्तु पंचायतें फिर भी झगड़ों का निपटारा करती थीं और कई अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य भी करती थीं। अंग्रेजी शासन के प्रारम्भिक काल में पंचायतों को नष्ट कर दिया गया।
उसके पश्चात् 20वीं शताब्दी के आरम्भ में यद्यपि पंचायतों की फिर से स्थापना करने के लिए एक कानून भी पास किया गया, परन्तु इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश में पंचायतों की स्थापना की ओर भी ध्यान दिया। ग्रामों में पंचायतों की स्थापना के महत्त्व को समझते हुए संविधान के अनुच्छेद 40 में यह व्यवस्था की गई कि राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करेगा और उन्हें इतनी शक्तियाँ व अधिकार देगा, जिससे वे स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बन सकें। इस कार्य के लिए सन् 1956 में श्री बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही सम्पूर्ण देश में तीन-स्तरीय (Three-Tier). पंचायती राज की स्थापना की गई। इसमें सबसे निचले अथवा गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायत (Gram Panchayat), ब्लॉक अथवा खण्ड के स्तर पर पंचायत समिति (Panchayat Samiti) तथा जिले । स्तर पर जिला परिषद् (Zila Parishad) की व्यवस्था की गई। इस ढाँचे का कार्य-क्षेत्र जिले के ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बन्धित था।
पंचायती राज की स्थापना भारत में सबसे पहले 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में हुई। आन्ध्र प्रदेश ने 1 नवम्बर, 1959 को पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया तथा असम, कर्नाटक एवं उड़ीसा ने भी उसी वर्ष इसे लागू किया। गुजरात, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश ने सन् 1961 में, मध्य प्रदेश ने सन् 1962 में, पश्चिम बंगाल ने सन् 1963 में तथा हिमाचल प्रदेश ने इसे सन् 1968 में अपनाया।
संविधान के 73वें संशोधन, जो सन् 1992 में पास हुआ तथा 1993 में लागू हुआ, द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को सं मान्यता प्रदान की गई है। इस संशोधन द्वारा संसद ने इस व्यवस्था का एक सामान्य ढाँचा (General Structure) निर्धारित कर दिया जिसके आधार पर राज्यों को पंचायती राज व्यवस्था के लिए नए कानून बनाने के लिए कहा गया। पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं
- ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने स्थानीय मामलों में स्वयं नियोजन तथा प्रबन्ध का अवसर देना,
- लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली को स्थानीय स्तर पर क्रियान्वित करना तथा शक्ति के विकेन्द्रीयकरण को विश्वसनीय बनाना है,
- ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़े तथा कमज़ोर लोगों को ग्रामीण विकास के कार्यक्रम में भागीदार बनाने का अवसर प्रदान करना है,
- ग्रामीण सामुदायिक विकास योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए ग्रामीण लोगों को सहभागी बनाने, उनकी पहल शक्ति (Initiative) को उत्साहित करना तथा उनके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्न करना है,
- गाँवों में उपलब्ध मानव-शक्ति तथा अन्य साधनों का उचित प्रयोग करना,
- ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दूर करना तथा सामाजिक न्याय का विकास करना।
पंचायती राज की संरचना संविधान के 73वें संशोधन, जो सन् 1993 में लागू हुआ, द्वारा यह व्यवस्था की गई थी कि प्रत्येक राज्य सरकार के लिए इस संशोधन की व्यवस्थाओं के अनुसार पंचायती राज सम्बन्धी नए अधिनियम का निर्माण करना अनिवार्य है। ऐसा अधिनियम 73वें संवैधानिक संशोधन के लागू होने के एक वर्ष के अन्दर बन जाना चाहिए।
इस व्यवस्था के अनुसार हरियाणा विधान सभा ने ‘हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994’ (Haryana Panchayati RajAct, 1994) पास किया, जो 21 अप्रैल, 1994 को लागू हुआ। इस अधिनियम द्वारा हरियाणा में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज के नए ढाँचे की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार हरियाणा में पंचायती राज व्यवस्था की निम्नलिखित चार संस्थाएँ स्थापित की गई हैं ।
- ग्राम सभा,
- ग्राम पंचायत,
- पंचायत समिति,
- ज़िला-परिषद्।
1. ग्राम सभा हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अधीन यह व्यवस्था की गई है कि सरकार 500 अथवा उससे अधिक की जनसंख्या वाले एक गाँव तथा कुछ पड़ोसी गाँवों को सामूहिक तौर पर ग्राम सभा क्षेत्र (Gram Sabha Area) घोषित कर सकती है। इस क्षेत्र में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है तथा उसका नाम मतदाता सूची में है, ग्राम सभा का सदस्य होता है। दूसरे शब्दों में, ग्राम सभा क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।
2. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)-ग्राम पंचायत ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाई है। इस समय देश में 2,50,000 के लगभग ग्राम पंचायतें मौजूद हैं जबकि हरियाणा में 6311 ग्राम पंचायतें वर्तमान में हैं। हरियाणा में पंचायती राज का गठन हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 (Haryana Panchayati RajAct, 1994) के आधार पर किया गया है।
हरियाणा के प्रत्येक गांव जिसकी जनसंख्या 500 या इससे अधिक है, में एक ग्राम सभा (Gram Sabha) की स्थापना की जाती है। इससे कम जनसंख्या वाले गाँव को इस उद्देश्य से किसी साथ वाले गांव से मिलाकर एक सांझी ग्राम सभा की स्थापना की जाती है। उस क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिक, जिनकी आयु 18 वर्ष अथवा उससे अधिक होती है, ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।
हरियाणा में एक ग्राम पंचायत में एक सरपंच (Sarpanch) तथा 6 से 20 तक पंच (Members) होते हैं। यह संख्या गांव की जनसंख्या, के आधार पर निश्चित की जाती है। सरपंच तथा अन्य पंचों (सदस्यों) का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है।
3. पंचायत समिति-पंचायत समिति का गठन खण्ड (Block) स्तर पर किया जाता है। पंचायत समिति के कुछ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है। इसके कुछ संदस्य सरपंचों तथा पंचों द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं। लोगों द्वारा चुने गए सदस्यों तथा पंचायतों के सदस्यों द्वारा चुने गए पंचायत समिति के सदस्यों का अनुपात 60:40 होता है। इसके अतिरिक्त राज्य विधान सभा के सदस्य तथा सहकारी संस्थाओं के प्रतिनिधि भी इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति का मुख्य कार्य अपने क्षेत्र में ग्रामीण विकास तथा सामुदायिक विकास योजनाओं को क्रियान्वित करना होता है।
4. जिला परिषद्-जिला-परिषद् की स्थापना जिला स्तर पर की जाती है। प्रत्येक जिले में एक ज़िला-परिषद् होती है। जिले । में गठित सभी पंचायत समितियों के अध्यक्ष जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। जिले से चुने गए विधान सभा तथा संसद के सदस्य इसके सहायक सदस्य होते हैं। जिलाधीश (Deputy Commissioner) ज़िला-परिषद् का पदेन सदस्य होता है। जिला-परिषद् का मुख्य कार्य अपने अधीन पंचायत समितियों के कार्यों की देखभाल करना, उनमें तालमेल बनाए रखना तथा उन्हें निर्देश देना होता है।
प्रश्न 4.
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वें संवैधानिक संशोधन पर संक्षिप्त नोट लिखें। अथवा 73वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज प्रणाली में क्या परिवर्तन किए गए हैं?
उत्तर:
पंचायती राज से संबंधित 72वां सवैधानिक संशोधन बिल 16 सितंबर, 1992 को लोकसभा में पेश किया गया। यह संशोधन लोकसभा द्वारा 22 दिसंबर को और राज्यसभा द्वारा 23 दिसंबर, 1992 को पास कर दिया गया। इसे 24 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति की मंजूरी 73वें संवैधानिक संशोधन के रूप में मिली। इस संशोधन द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए एक वर्ष के अन्दर पंचायती राज एक्ट के आधार पर राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून बनाना अनिवार्य किया गया। यह संशोधन 24 अप्रैल, 1993 को लागू हुआ। 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (Constitutional Recognition to Panchayati Raj Institutions):
73वें संवैधानिक संशोधन के पास होने से पहले स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं थी और संविधान में इनकी कोई व्यवस्था भी नहीं थी। इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग (Part-IX) तथा एक नई अनुसूची शामिल किए गए हैं। भाग 9 में अंकित सभी अनुच्छेद तथा 11वीं अनुसूची में उच्च विषयों का वर्णन किया गया है, जिनके संबंध में शक्तियाँ पंचायतों को सौंपी जा सकती हैं।
2. ग्रामसभा की परिभाषा (Definition of Gram Sabha):
73वें संवैधानिक संशोधन में ग्राम सभा की परिभाषा दी गई है। इस परिभाषा के अनुसार एक पंचायत के क्षेत्र में आए गाँवों के जिन लोगों के नाम मतदाताओं की सूची में दर्ज हैं-वे सभी लोग सामूहिक रूप से ग्रामसभा का निर्माण करेंगे। ग्रामसभा गाँव के स्तर पर ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगी और ऐसे कार्यों को करेगी जो राज्य विधानमंडल कानून बनाकर निश्चित करेगी। .
3. पंचायत की परिभाषा तथा संरचना (Definition and Composition of Panchayat):
73वें सवैधानिक संशोधन के अनुसार पंचायत शासन की एक ऐसी संस्था है जिसकी स्थापना सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए की जाती है।
4. तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली (Three Tier System of Panchayati Raj):
अनुच्छेद 243 (ख) त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था करता है। प्रत्येक राज्य में निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति तथा सबसे ऊपर जिला स्तर पर जिला परिषद् का गठन किया जाएगा परंतु उस राज्य में जिसकी जनसंख्या 20 लाख से अधिक नहीं है, वहाँ मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समितियों का गठन करना आवश्यक नहीं होगा। प्रत्येक राज्य में पंचायतों की संरचना संबंधी व्यवस्था संबंधित राज्य के विधानमंडल द्वारा की जाएगी।
5. सदस्यों का प्रत्यक्ष चुनाव (Direct Election of Members of Panchayats):
पंचायती राज की नई प्रणाली के अधीन यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक पंचायत-क्षेत्र को विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में बांटा जाएगा और इन चुनाव-क्षेत्रों से पंचायत के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा किया जाएगा। ग्राम स्तर पर पंचायत का अध्यक्ष ऐसी रीति से चुना जाएगा, जो राज्य विधानमंडल द्वारा कानून बनाकर निश्चित की जाएगी। मध्यवर्ती तथा जिला स्तर पर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव उसके सदस्यों द्वारा अपने में से किया जाएगा।
6. पंचायतों के अध्यक्ष को पद से हटाना (Removal of Chairman from office):
73वें संवैधानिक संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि ग्राम स्तर की पंचायत के अध्यक्ष (Sarpanch) को उसके निश्चित कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व ग्राम सभा द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है। ग्राम सभा ऐसी कार्यवाही केवल तभी कर सकती है यदि इस संबंध में पंचायत ग्राम सभा को ऐसा करने की सिफारिश करे।
पंचायत द्वारा ऐसी सिफारिश करने के लिए यह आवश्यक है कि पंचायत अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत से अध्यक्ष को हटाने संबंधी प्रस्ताव प्राप्त करे। जब पंचायत का ऐसा प्रस्ताव ग्राम सभा को प्राप्त होगा, तो ग्राम सभा उस पर विचार करने के लिए अपनी एक विशेष बैठक बुलाएगी। ऐसी बैठक 15 दिन की पूर्व सूचना देने के बाद की जाएगी तथा ऐसी बैठक में ग्राम सभा के 50 प्रतिशत सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक होगी। यदि ऐसी बैठक में ग्राम सभा अपने उपस्थिति तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत द्वारा अध्यक्ष के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर देती है, तो ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को पद से हटा दिया जाएगा।
मध्यवर्ती स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों (Chairmen of Panchayat Samitis and Zila Parishads) के किसी अध्यक्ष को उसका निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले उसके पद से हटाने के लिए यह आवश्यक है कि संबंधित पंचायत इस उद्देश्य के लिए अपने चुने हुए कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत के साथ अपने अध्यक्ष के विरुद्ध प्रस्ताव पास करे।
7. विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों, अधिकारियों का पंचायतों में प्रतिनिधित्व (Representation of certain categories of Persons and Officials in Panchayats):
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा राज्य विधानमंडल को यह शक्ति दी गई है कि वह भिन्न-भिन्न स्तर की पंचायतों में निम्नलिखित व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दल के संबंध में व्यवस्था कर सकती है-
- सदन स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों (Chairmen of Panchayat Samitis) का जिला स्तर की पंचायतों (Zila Parishad) में प्रतिनिधित्व,
- ग्राम स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों (Sarpanches) का मध्यम स्तर की पंचायतों (Panchayat Samiti) में प्रतिनिधित्व,
- मध्यम स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों में लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के उन सदस्यों को प्रतिनिधित्व जो उनके क्षेत्र में निर्वाचित हुए हों,
- राज्य सभा तथा राज्य विधान परिषद् के सदस्यों को उन पंचायतों में प्रतिनिधित्व जिस पंचायत के क्षेत्र में उनका नाम मतदाता के रूप में शामिल हो।
यदि उनका नाम मध्यम स्तर की पंचायत के क्षेत्र में मतदाता के रूप में शामिल होगा तथा उस मध्यम स्तर की पंचायत (Panchayat Samiti) में प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है और यदि उसका नाम जिला-परिषद् के क्षेत्र में मतदाता सूची में शामिल होगा तो उसे जिला परिषद् में प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि ग्राम पंचायत में ऐसे सदस्यों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता है।
8. स्थानों का आरक्षण (Reservation of seats)-नई पंचायती राज प्रणाली में विभिन्न पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था की गई है। इसके लिए संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं-
(1) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रत्येक पंचायत में स्थान आरक्षित किए जाएंगे। उनकी संख्या पंचायत के क्षेत्र की जनसंख्या के अनुपात के अनुसार निश्चित की जाएगी,
(2) आरक्षित स्थानों के चुनाव-क्षेत्रों में समय-समय पर परिवर्तन किया जाएगा,
(3) प्रत्येक पंचायत में चुनाव द्वारा भरे जाने वाले स्थान में से 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाएगा,
(4) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किए गए स्थानों में से 1/3 स्थान उन जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाएंगे,
(5) ग्राम स्तर, मध्यम स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों के पदों की अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियाँ और महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की व्यवस्था संबंधित राज्य के विधानमंडल द्वारा कानून पास करके की जाएगी,
(6) पंचायतों के अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या का 50% भाग महिलाओं के लिए आरक्षित करने की घोषणा की गई,
(7) ऊपर दी गई व्यवस्थाओं के अतिरिक्त राज्य विधानमंडल कानून द्वारा नागरिकों की किसी अन्य पिछड़ी श्रेणी के लिए पंचायतों में स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था कर सकता है।
9. पंचायतों का कार्यकाल (Tenure of Panchayats):
पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष होगा। यह कार्यकाल पंचायत की पहली बैठक की तिथि से आरंभ होगा। किसी भी स्तर की पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष से अधिक नहीं हो सकता।
10. पंचायतों के कार्य (Functions of Panchayats):
संविधान की 11वीं अनुसूची में कुल 29 विषय रखे गए हैं, जिन पर पंचायत कानून बनाकर उन कार्यों को कर सकती है। इनमें से कुछ प्रमुख विषय इस प्रकार हैं
- कृषि, जिसमें कृषि विस्तार शामिल है,
- भूमि सुधार, चकबंदी तथा भूमि संरक्षण,
- लघु सिंचाई तथा जल-प्रबंध,
- पशु पालन, दुग्ध उद्योग तथा मुर्गी पालन व मत्स्य उद्योग,
- खादी ग्राम और कुटीर उद्योग,
- पीने का पानी,
- ईंधन और चारा,
- सड़कें, पुल, गोघाट, जलमार्ग तथा संचार के अन्य साधन,
- गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोत,
- शिक्षा, जिसमें प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालय शामिल हैं;
- तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा,
- पुस्तकालय,
- बाजार तथा मेले,
- परिवार कल्याण, स्त्री तथा बाल विकास,
- समाज के कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन-जातियों का कल्याण,
- स्वास्थ्य और स्वच्छता जिसके अंतर्गत अस्पताल तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय आदि शामिल हैं।
11. वित्त आयोग की स्थापना (Establishment of Finance Commission):
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था यह की गई है कि इस संशोधन के लागू होने के एक वर्ष के भीतर राज्य या राज्यपाल एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेगा जो निम्नलिखित विषयों पर राज्यपाल को अपनी सिफारिश करेगा-
- ऐसे करों, शुल्कों तथा फीसों को दर्शाना जो पंचायतों को प्रदान किए जा सकें,
- राज्य की संचित निधि (Consolidated fund of the State) से पंचायतों के लिए सहायता अनुदान,
- पंचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए सुझाव देना, वित्त-आयोग में कितने सदस्य होंगे, उनके लिए कौन-सी योग्यताएँ आवश्यक होंगी, उनका चुनाव किस प्रकार होगा तथा आयोग को क्या शक्तियाँ प्राप्त होंगी, इन सभी बातों के संबंध में व्यवस्था राज्य विधानमंडल के कानून द्वारा की जाएगी।
निष्कर्ष (Conclusion)-73वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम इस कारण से बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इसके अनुसार पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। इस अधिनियम के अनुसार पंचायतों का कार्यकाल निश्चित करके उनके चुनावों की निश्चित अवधि पर यह व्यवस्था की गई है कि इन संस्थाओं को अब छः महीने से अधिक समय तक भंग अथवा स्थगित नहीं किया जा सकता। इस एक्ट के पास होने से पहले इन संस्थाओं के चुनाव कई-कई वर्षों तक नहीं होते थे। इसके अतिरिक्त पंचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें कर लगाने की शक्ति देना तथा वित्तीय आयोग की स्थापना करना भी पंचायती राज प्रणाली को मजबूत बनाने के महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
प्रश्न 5.
ग्राम पंचायत के संगठन एवं कार्यों का वर्णन करें। अथवा ग्राम पंचायत की संरचना, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
ग्राम पंचायत (Gram Panchayat) ग्राम पंचायत ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाई है। इस समय देश में 2,50,000 के लगभग ग्राम पंचायतें मौजूद हैं। जबकि हरियाणा में 6311 ग्राम पंचायतें वर्तमान में है। रचना (Composition) हरियाणा में पंचायती राज का गठन हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 (Haryana Panchayati RajAct, 1994) के आधार पर किया गया है।
हरियाणा के प्रत्येक गांव जिसकी जनसंख्या 500 या इससे अधिक है, में एक ग्राम सभा (Gram Sabha) की स्थापना की जाती है। इससे कम जनसंख्या वाले गाँव.को इस उद्देश्य से किसी साथ वाले गांव से मिलाकर एक सांझी ग्राम सभा की स्थापना की जाती है। उस क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिक, जिनकी आयु 18 वर्ष अथवा उससे अधिक होती है, ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।
हरियाणा में एक ग्राम पंचायत में एक सरपंच (Sarpanch) तथा 6 से 20 तक पंच (Members) होते हैं। यह संख्या गांव की जनसंख्या, के आधार पर निश्चित की जाती है। सरपंच तथा अन्य पंचों (सदस्यों) का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है। योग्यताएँ-ग्राम पंचायत का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए-
- वह भारत का नागरिक हो,
- वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
- वह दिवालिया अथवा पागल न हो,
- वह किसी अपराध के लिए दण्डित न किया गया हो तथा न्यायालय द्वारा चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित न किया गया हो,
- वह संसद अथवा राज्य विधानमण्डल का सदस्य न हो,
- वह कम-से-कम एक वर्ष से उस गाँव में रह रहा हो।
स्थानों का आरक्षण-पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों (पंजाब में अनुसूचित जनजातियाँ नहीं हैं) महिलाओं तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। यह आरक्षण इस प्रकार है
(1) अनुसूचित जातियों के लिए प्रत्येक क्षेत्र में इन जातियों की जनसंख्या के अनुपात. के आधार पर स्थान सुरक्षित रखे जाएँगे,
(2) आरक्षित स्थानों की कुल संख्या का कम-से-कम एक-तिहाई (1/3) स्थान अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे और ऐसे स्थान विभिन्न आरक्षित वार्डों को चक्रानुक्रम द्वारा तथा लॉटरी द्वारा (By rotation and by lottery) आबंटित किए जाएँगे,
(3) प्रत्येक ग्राम पंचायत में प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के 1/3 आरक्षित स्थान (अनुसूचित जातियों से सम्बन्धित महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या सहित) महिलाओं के
(4) प्रत्येक खण्ड में ग्राम पंचायतों के सरपंचों के कुछ पद अनुसूचित जातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाएँगे।
हरियाणा में जनवरी सन् 2016 में हुए पंचायी राज संस्थाओं के हुए चुनावों से पहले कुछ अन्य योग्यताएं भी जोड़ दी गई हैं। ये इस प्रकार हैं हरियाणा में जनवरी 2016 में हुए पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों से पहले हरियाणा विधानसभा में एक संशोधन बिल पास करके इसमें चार शर्ते और जोड़ दी गई हैं जो इस प्रकार हैं-
- महिलाओं व एस सी (S.C.) वर्ग के लिए शैक्षिक योग्यता (Educational Qualification) 8वीं, बाकी सभी के लिए 10वीं पास, 5वीं पास दलित महिलाएं पंच पद के लिए चुनाव लड़ सकेंगी,
- पर्चा भरने से पहले प्रत्याशी के घर में टॉयलेट (Toilet) होना जरूरी है,
- सहकारी लोन, बिजली बिल तथा गृह कर (House Tax) समेत सभी सरकारी देनदारियों का भुगतान हो,
- 10 वर्ष की सज़ा वाले गंभीर अपराधिक मामलों में चार्जशीट न हो।
कार्यकाल (Tenure):
73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार समस्त भारत में पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया गया । है। यदि सरकार की राय में कोई पंचायत अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करती है अथवा अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन नहीं करती, तो सरकार द्वारा उसे भंग किया जा सकता है। किसी पंचायत के भंग होने के छह महीने के अन्दर उसके नए चुनाव करवाने अनिवार्य हैं।
अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष-ग्राम पंचायत का एक अध्यक्ष होता है, जिसे सरपंच (Sarpanch) कहते हैं। उसका चुनाव मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। उसे अपनी अवधि पूरी करने से पहले भी पद से हटाया जा सकता है। सरपंच ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायतों की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है। उसकी अनुपस्थिति में ये कार्य उप-सरपंच द्वारा पूरे किए जाते हैं। उप-सरपंच का चुनाव पंचायत के सदस्यों द्वारा किया जाता है।
बैठकें ग्राम पंचायत की एक महीने में कम-से-कम दो बैठकें होनी अनिवार्य हैं। यदि पंचायत के सदस्यों का बहमत लिखित रूप में विशेष बैठक की माँग करता है तो सरपंच द्वारा तीन दिन के अन्दर ऐसी बैठक बुलाना अनिवार्य है। पंचायत की बैठकों के लिए गणपूर्ति (Quorum) (सरपंच सहित कुल सदस्यों का बहुमत) निश्चित की गई है। पंचायत में निर्णय बहुमत से लिए जाएँगे। किसी विषय पर समान मत पड़ने की स्थिति में सरपंच को निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार होगा। ग्राम पंचायत के कार्य-ग्राम पंचायत के कार्यों का वर्णन (73वें संवैधानिक संशोधन, 1992 के अनुसार) संविधान की 11वीं अनुसूची में किया गया है। ये कार्य इस प्रकार हैं
(i) प्रशासनिक कार्य-
- (1) ग्राम पंचायत ग्राम सभा द्वारा निश्चित किए गए कार्यों को पूरा करेगी,
- यह क्षेत्र के विकास के लिए बज़ट तैयार करेगी और ग्राम सभा में पेश करेगी तथा विकास की योजनाओं को भी तैयार करेगी। ये कार्य मुख्य रूप से प्रशासनिक हैं।
(ii) कल्याणकारी कार्य-पंचायती राज व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना है। इसीलिए ग्राम पंचायत के कल्याणकारी कार्य निश्चित इस प्रकार किए गए हैं-
(1) कृषि के क्षेत्र में कृषि तथा बागवानी का विकास, बंजर भूमि का विकास और चराई भूमि का विकास आदि,
(2) पशुपालन के क्षेत्र में पशु धन में सुधार, डेरी उद्योग, मुर्गी पालन आदि को प्रोत्साहन देना। इसके साथ ही मछली उत्पादन में विकास भी शामिल है,
(3) ग्राम पंचायत का यह भी कार्य है कि वह सड़कों के दोनों ओर वृक्ष लगवाए और वन के विकास में सहयोग दे,
(4) ग्रामीण लोगों को रोजगार देने के लिए कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना,
(5) ग्रामीणों के लिए आवास की व्यवस्था करना तथा पीने के पानी के लिए कुओं, तालाबों आदि का निर्माण कराना,
(6) गाँवों में ऊर्जा की योजनाओं का विकास करना और विकसित चूल्हों का प्रचार करना,
(7) शिक्षा के क्षेत्र में लोगों में शिक्षा के प्रसार के लिए वयस्क, औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा का प्रसार करना। पुस्तकालय खोलना और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना,
(8) ग्रामीण क्षेत्र में सफाई के लिए सड़कें और सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करना तथा इसी प्रकार की अन्य व्यवस्थाएँ करना,
(9) सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में परिवार कल्याणकारी कार्यक्रम लागू करना और बीमारियों की रोकथाम के लिए उपाय करना। इसी के साथ महिला, शिशु और दिव्यांगों के कल्याण के लिए भी कार्य करना, (10) अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए भी कार्य करना,
(11) कानून द्वारा अन्य और भी ऐसे कार्य निश्चित किए गए हैं जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के साथ चेतना भी जागृत क्षेत्र में यह भी व्यवस्था है कि पंचायत समिति भी ग्राम पंचायत को कोई कार्य सौंप सकती है,
(12) बाढ़, सूखा तथा अन्य संकटकाल की स्थिति में गाँव वालों की सहायता करना,
(13) प्रसूति केन्द्र (Maternity Centre) तथा बाल कल्याण केन्द्र (Child Welfare Centre) खोलना तथा उनका प्रबन्ध करना,
(14) पुलों तथा पुलियों का निर्माण तथा मुरम्मत करवाना,
(15) कुएँ, तालाब आदि बनवाना तथा उनकी रक्षा करना,
(16) श्मशान भूमि तथा कब्रिस्तान की देखभाल करना,
(17) मेलों तथा मण्डियों का आयोजन करना,
(18) सार्वजनिक उद्यान, खेल के मैदान आदि का प्रबन्ध करना तथा सार्वजनिक मनोरंजन के लिए आयोजन करना,
(19) पुस्तकालयों तथा वाचनालयों (Libraries and Reading Rooms) की स्थापना व देखभाल करना,
(20) महामारियों के विरुद्ध निवारणात्मक तथा औपचारिक उपाय करना,
(21) यात्रियों के ठहरने का प्रबन्ध करना,
(22) पंचायत किसी पटवारी, सन्तरी, चौकीदार, टीकाकरण कर्मचारी, कनिष्ठ अभियन्ता या गाँव से सम्बन्धित किसी अन्य सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध शिकायत ज़िलाधीश (उपायुक्त) को पहुंचा सकती है।
(i) न्याय सम्बन्धी कार्य-हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंचायतों को निम्नलिखित न्याय-सम्बन्धी कार्य सौंपे गए हैं .. यदि कोई व्यक्ति पंचायत के फौजदारी आदेशों का उल्लंघन करता है तो पंचायत को उस पर 100 रुपए तक जुर्माना करने का अधिकार है। यदि कोई व्यक्ति पंचायत के आदेशों का लगातार उल्लंघन करता है तो पंचायत उस पर 10 रुपए प्रतिदिन की दर से जुर्माना कर सकती है जो 1000 रुपए तक हो सकता है। पंचायत के इस निर्णय के विरुद्ध निर्देशक पंचायत’ (Director of Panchayats) के पास 30 दिन के अन्दर अपील की जा सकती है, जिसका निर्णय अन्तिम माना जाएगा।
ग्राम पंचायत की आय के साधन प्रत्येक ग्राम पंचायत के लिए एक ग्राम निधि (Fund) होगी जिसमें से ग्राम पंचायत खर्च कर सकेगी। ग्राम पंचायत की आय के स्रोत इस प्रकार हैं-
- सरकार या अन्य संस्थाओं द्वारा प्राप्त अनुदान,
- वसूल किए गए हार, पंचायत भमि आदि से प्राप्त आय,
- क्षेत्र के कड़ा-कर्कट, पशुओं के शव, गोबर या कड़ा आदि बेचने से आय,
- ग्राम मछली क्षेत्रों से हुई आय जो सम्बन्धित ग्राम पंचायत के अधीन है,
- गृह-कर द्वारा आय,
- ग्राम-कर द्वारा आय,
- पंचायत द्वारा किए गए जुर्माने से प्राप्त आय,
- पशु मेलों या अन्य मेलों में दुकानदारों से प्राप्त आय,
- जनता से प्राप्त अनुदान अथवा ऋण,
- 73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार राज्य विधानमण्डल पंचायतों की आय में वृद्धि करने हेतु राज्य सरकार द्वारा लगाए गए कुछ करों को भी पंचायतों को सौंप सकता है।
प्रश्न 6.
जिला-परिषद् के गठन, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
पंचायती राज के तीनों स्तरों में सबसे ऊपर जिला परिषद् है। प्रत्येक जिले में पंचायत समिति के ऊपर एक ज़िला-परिषद् की स्थापना की जाती है ज़िला-परिषद् का गठन-जिला-परिषद् पंचायती राज की सबसे ऊपर की इकाई है। प्रत्येक जिले में पंचायत समिति के ऊपर जिला परिषद का गठन किया गया है। वर्तमान में हरियाणा में 21 जिला परिषद हैं क्योंकि नवनिर्मित नए चरखी दादरी जिले में जिला परिषद् के गठन की अधिसूचना अभी जारी नहीं हुई है। हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार प्रत्येक जिला परिषद् में प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्य होंगे
1. प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्य
(1) ज़िला-परिषद् क्षेत्र में रहने वाले लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कुछ सदस्यों का चुनाव किया जाता है। इन सदस्यों की संख्या 10 से लेकर 25 तक हो सकती है, जो जिले की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। जिस जिला-परिषद् के क्षेत्र की जनसंख्या 5 लाख से अधिक नहीं होगी, उसमें न्यूनतम 10 सदस्य चुने जाएँगे। वह ज़िला-परिषद् क्षेत्र, जिसकी जनसंख्या 12 लाख से अधिक होगी, उसके सदस्यों की संख्या 25 से अधिक नहीं हो सकती,
(2) जिले में गठित सभी पंचायत समितियों के अध्यक्ष,
(3) राज्य विधान सभा तथा लोकसभा के वे सदस्य जिसका चुनाव-क्षेत्र उस जिले में पड़ता है, जिला-परिषद् के सदस्य होंगे,
(4) राज्य सभा तथा राज्य विधान परिषद् क्षेत्र (यदि राज्य में विधान परिषद् हो) यदि उनका नाम ज़िला-परिषद् क्षेत्र के मतदाताओं की सूची में अंकित है, तो वह ज़िला-परिषद् का सदस्य होगा। स्थानों का आरक्षण प्रत्येक जिला परिषद में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किए जाते हैं। अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी जातियों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरे जाने वाले स्थानों का अनुपात वही होगा जो उस ज़िला-परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या का होगा।
2. स्त्रियों के लिए आरक्षण-प्रत्येक ज़िला-परिषद् में प्रत्यक्ष चुनावों से भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या का 1/3 भाग स्त्रियों के लिए आरक्षित किया जाएगा। स्त्रियों के लिए आरक्षित किए गए स्थानों में अनुसूचित जातियों की स्त्रियों के लिए आरक्षित किए गए स्थान भी शामिल होंगे।
3. पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षण-जिस ज़िला-परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत भाग पिछड़ी श्रेणियों के । लोगों का होगा, उस ज़िला-परिषद् में एक स्थान उन श्रेणियों के लिए भी आरक्षित रखा जाएगा।
कार्यकाल (Tenure):
संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार जिला परिषद् का कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है। यदि जिला परिषद् का कोई सदस्य बिना सूचना दिए परिषद की लगातार चार बैठकों में अनुपस्थित रहता है तो उसकी ज़िला-परिषद् की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। जिला परिषद् को उसकी अयोग्यता, भ्रष्टाचार अथवा अपनी शक्ति के दुरुपयोग के कारण राज्य सरकार द्वारा उसे उसका कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी भँग किया जा सकता है।
बैठकें तथा गणपूर्ति ज़िला-परिषद् की तीन मास में कम-से-कम एक बैठक अवश्य होनी चाहिए। इन साधारण बैठकों के अतिरिक्त ज़िला-परिषद् के कुल सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों के लिखित अनुरोध पर जिला परिषद् के अध्यक्ष द्वारा दो सप्ताह के भीतर इसकी विशेष बैठक बुलाई जाएगी। जिला-परिषद् की साधारण बैठक के लिए कुल सदस्य संख्या का 1/3 भाग तथा विशेष बैठक के लिए कुल सदस्यों का 1/2 भाग उपस्थित होना आवश्यक होता है।
अध्यक्ष-जिला-परिषद् के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं। अध्यक्ष ज़िला-परिषद् की बैठकों में सभापतित्व करता है और उनमें अनुशासन बनाए रखता है तथा उसकी कार्रवाई को ठीक प्रकार से चलाने का उत्तरदायी है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में ये कार्य उपाध्यक्ष द्वारा किए जाते हैं।
सचिव जिला परिषद् के निर्णयों को लागू करने तथा इसके दैनिक कार्यों को चलाने के लिए एक सचिव की नियुक्ति की जाती है जो मासिक वेतन लेता है और वह सरकार द्वारा नियक्त किया जाता है तथा अपने कार्यों के लिए जिला परिषद के प्रति उत्तरदायी होता है।
समितियाँ-जिला-परिषद् अपना काम समितियों के माध्यम से करती है। इसकी विभिन्न समितियाँ हैं कार्य समिति, विकास समिति, योजना तथा वित्त समिति, समाज कल्याण समिति, स्वास्थ्य समिति, शिक्षा समिति आदि। इन समितियों का गठन ज़िला-परिषद् आरम्भ में ही कर लेती है।
जिला-परिषद् के कार्य-ज़िला-परिषद् के कार्य इस प्रकार हैं-
- यह मूल रूप से अपने क्षेत्र में स्थित पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय पैदा करती है और जिले का सामूहिक विकास करने का प्रयत्न करती है,
- ज़िला-परिषद् पंचायत समितियों के बजट का निरीक्षण करती है और उन पर अपनी स्वीकृति देती है,
- यह पंचायत समितियों के कार्यों पर निगरानी रखती है, उन्हें परामर्श देती है और आवश्यक हो तो आदेश देती है, ताकि पंचायत समिति अपने कार्य ठीक प्रकार से कर सके,
- यह दो या दो से अधिक पंचायत समितियों से सम्बन्धित विकास योजनाएँ बनाती है और उन्हें कार्यान्वित करती है,
- यह पंचायत समितियों की विकास योजनाओं को समस्त जिले की विकास योजनाओं के साथ समन्वित करने का प्रयत्न करती है,
- यह जिले के ग्रामीण विकास के सम्बन्ध में सरकार को सुझाव दे सकती है,
- सरकार किसी भी योजना को लागू करने का उत्तरदायित्व जिला परिषद् को सौंप सकती है,
- ज़िला-परिषद् ग्रामीण जीवन को विकसित करने और उनके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए अनिवार्य कदम उठा सकती है।
ज़िला-परिषद् की आय के साधन (Sources of Income of Zila Parishad):
जिला-परिषद् को जिन साधनों से आय प्राप्त होती है वे इस प्रकार हैं-
- स्थानीय करों (Local Taxes) का कुछ भाग ज़िला-परिषद् को मिलता है,
- ज़िला-परिषद् सरकार की आज्ञा से कुछ धन पंचायतों से ले सकती है,
- राज्य सरकार जिला परिषद् को सहायता के रूप में प्रतिवर्ष कुछ धन देती है,
- ज़िला-परिषद् को अपनी सम्पत्ति से बहुत-सी आय होती है,
- ज़िला-परिषद् सरकार की अनुमति से ब्याज पर धन उधार भी ले सकती है,
- केन्द्रीय सरकार द्वारा ज़िला-परिषदों के लिए निश्चित किया गया धन,
- कुटीर व लघु उद्योगों की उन्नति के लिए अखिल भारतीय संस्थाओं द्वारा दिए गए अनुदान और अन्य विशेष योजनाओं के लिए समय-समय पर मिलने वाले अनुदान।
प्रश्न 7.
भारत में पंचायती राज की कार्य-प्रणाली में मौजूद त्रुटियों पर एक लेख लिखिए।
अथवा
पंचायती राज से सम्बन्धित मुख्य समस्याओं का वर्णन कीजिए। साथ ही यह भी बताइए कि पंचायती राज की समस्याओं को कैसे दूर किया जा सकता है?
अथवा
भारत की पंचायती राज प्रणाली को सफलतापूर्वक चलाने के मार्ग में आने वाली समस्याओं की चर्चा करें।
उत्तर:
इसमें सन्देह नहीं है कि पंचायती राज की स्थापना से कई लाभ हुए हैं, परन्तु इस व्यवस्था में अनेक त्रुटियाँ (कमियाँ) हैं, जिनके कारण भारत में पंचायती राज अधिक सफल नहीं हो पाया है। ये त्रुटियाँ निम्नलिखित हैं
1. अनपढ़ता-स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 70 वर्षों के बाद भी निरक्षरता साक्षरता में नहीं बदली जा सकी है। गाँव के प्रौढ़ व्यक्ति तो विशेषकर अनपढ़ हैं। उन्हें पंचायती राज के उद्देश्यों और कार्य-प्रणाली का ज्ञान नहीं है। कई जगह तो ग्राम सभा की बैठकें होती ही नहीं, वैसे ही कागजों में दिखा दी जाती हैं। कुछ पढ़े-लिखे और चालाक व्यक्ति अधिकाँश अनपढ़ लोगों को बेवकूफ बनाकर पंचायतों को अपने लाभ के लिए चलाते रहते हैं और अधिकाँश जनता तक उसके लाभ नहीं पहुँचते।
2. राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप-पंचायती राज एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें राजनीतिक दलों की कोई आवश्यकता नहीं, जिसमें गाँव के सभी लोग एक मंच पर इकट्ठे होकर समस्याओं पर विचार करें तथा निर्णय करें और उस निर्णय को लागू करें। परन्तु राजनीतिक दल अपनी हितपूर्ति के लिए गाँव के लोगों को एक मंच पर इकट्ठा नहीं होने देते, उन्हें जाति, धर्म आदि के आधार पर बाँटे रखते हैं, उन्हें लड़ाते रहते हैं और साम्प्रदायिकता तथा गुटबन्दी की भावना को बढ़ाकर शक्ति निर्माण कार्यों में नहीं लगने देते। इससे पंचायती राज का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता और प्रगति भी धीमी पड़ती है।
3. धन का अभाव पंचायती राज की संस्थाओं के अपनी आय के साधन सीमित हैं, उनके पास धन की कमी रहती है, वे स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार धन इकट्ठा नहीं कर सकतीं। परिणाम यह होता है कि वे अपनी योजनाओं को लागू करने, ग्रामीण जीवन को विकसित करने, उनके जीवन को सुविधाजनक बनाने के काम नहीं कर पातीं। बिना धन के कौन-सी योजना लागू की जा सकती है? बहुत-से गाँवों में तो सड़कों और नालियों की व्यवस्था भी पंचायत नहीं कर पाती, क्योंकि इसके लिए उसके पास धन नहीं है।
4. सरकार का अत्यधिक नियन्त्रण-पंचायती राज जिस भावना से लागू होना चाहिए, वह भावना इसमें विद्यमान नहीं है। पंचायती राज एक प्रकार से लोगों पर थोपा गया है और सरकार पंचायती राज की संस्थाओं पर बहुत अधिक नियन्त्रण रखती है। जिले के उपायुक्त महोदय पंचायती राज संस्थाओं को अनावश्यक आदेश देता है। यहाँ तक कि इन संस्थाओं के अनेक निर्णयों को निरस्त कर देता है।
वास्तव में सरकार की भूमिका तो उन्हें सलाह तथा सहायता देने की होनी चाहिए, आदेश देने की नहीं, परन्तु व्यवहार में ये संस्थाएँ भी सरकार के नियन्त्रण में काम करती हैं और सरकार इन्हें आदेश तथा निर्देश अधिक देती है। इस कारण ग्रामीण यह महसूस नहीं करते कि यह उनकी अपनी स्वतन्त्र संस्था है। यद्यपि 1994 के हरियाणा पंचायती राज अधिनियम के पास होने के बाद सरकारी हस्तक्षेप में कमी तो आई है, फिर भी सरकारी नियन्त्रण से इन संस्थाओं को अभी और स्वतन्त्रता की आवश्यकता है।
5. जातिवाद तथा सम्प्रदायवाद-ग्रामीण लोगों में निर्धनता तथा निरक्षरता के कारण जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता की दुर्भावना बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है। ये भावनाएँ गाँव के लोगों में भाई-चारा, आपसी सहयोग तथा प्रेम की भावनाओं को जागृत नहीं होने देतीं। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव जाति-भेद के आधार पर लड़े जाते हैं और चुने जाने के बाद भी सदस्यों के बीच ये भेदभाव बने रहते हैं।
पंचायती राज संस्थाओं के सदस्य जातिवाद के आधार पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं, जिससे पंचायत का काम ठीक प्रकार से नहीं हो सकता। प्रायः पंचायती राज संस्थाओं में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न तथा उच्च जाति के लोगों का ही प्रभुत्व रहता है। जाति, धर्म तथा कई बार दलों के आधार पर भी इसके सदस्यों में गुटबन्दी (Groupism) बनी रहती है, जिससे संस्था का काम ठीक प्रकार से नहीं चल पाता।
6. निर्धनता-गाँवों में रहने वाले लोगों की गरीबी भी पंचायती राज की एक मुख्य समस्या है। गरीब व्यक्ति दिन भर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरने की चिन्ता में रहता है और उसके लिए सार्वजनिक मामलों अथवा गाँव की समस्याओं के बारे में सोचने का समय ही नहीं होता। वे ग्राम पंचायत की कार्यविधि में उत्साहपूर्वक भाग नहीं ले सकते।
इसके अतिरिक्त गरीबी के कारण लोग कर नहीं दे सकते जिससे पंचायतें नए कर लगाकर अपनी आमदनी को बढ़ा नहीं सकतीं। भारत में निर्धनता का मुख्य कारण संपत्ति का असमान वितरण है, जिसके कारण अमीरों की आय में तेजी से वृद्धि हो रही है और निर्धन निर्धनता की जंजीरों में ही जकड़े हुए हैं। निर्धनों की संपत्ति कच्चे मकान, बर्तन और पशु ही हैं, जिसके कारण उनके लिए आय के नए स्रोत प्राप्त करना असंभव है।
7. सरकारी कर्मचारियों की भूमिका सरकारी कर्मचारियों की भूमिका ने भी, जोकि बड़ी निराशाजनक तथा आश्चर्यजनक है, पंचायती राज की प्रगति को धीमा कर रखा है। पंचायत समिति के निर्णयों को लागू करने के कार्य जिन कर्मचारियों के जिम्मे हैं, वे सरकार के अधीन हैं और वे पंचायत समिति को अपना स्वामी न मानकर उसे आदेश देने का प्रयत्न करते हैं। सरकारी कर्मचारी समितियों तथा पंचायतों को स्वतन्त्रतापूर्ण काम नहीं करने देते, जिससे कि पंचायती राज के कार्य में रुकावट आती है।
8. ग्राम सभा की प्रभावहीन भूमिका-ग्राम सभा, जिसे गाँव की संसद भी कहा जाता है, आजकल नाममात्र की बनकर रह गई है। कहने को तो इसकी वर्ष में दो बैठकें अवश्य होनी चाहिएँ और बजट आदि इसके द्वारा पास होना चाहिए, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है या तो इसकी बैठकें होती ही नहीं और हो भी तो ग्रामवासी इनमें रुचि नहीं लेते। केवल ग्राम पंचायत के चुनाव के समय ही इसके अस्तित्व का पता चलता है। इसके बाद तो पंचायत ही जो चाहे करती चली जाती है। इसकी बैठकों की कार्रवाई कागजों में ही लिख ली जाती है।
निष्कर्ष-आज देश में पंचायती राज की स्थिति सराहनीय नहीं है। यह जनता का राज है और लोगों को अपनी स्थानीय आवश्यकताएँ पूरी करने तथा विकास कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु इसने बड़ी धीमी गति से कार्य किया है। जब तक इसमें पाई जाने वाली कमियों को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक यह अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती।
पंचायतों तथा पंचायत समितियों के पास अपना स्वतन्त्र पर्याप्त धन होना चाहिए और सरकार का इन पर नियन्त्रण कम होना चाहिए तथा सरकार इन्हें सहायता और सलाह देने का कार्य करे, न कि आदेश देने और इसके कार्य में रुकावट लाने का। आशा है कि इन सुविधाओं के परिणामस्वरूप पंचायती राज अपना प्रभाव अवश्य दिखाएगा और भारत के ग्रामीण जीवन का विकास होगा। त्रुटियों को दूर करने के उपाय-पंचायती राज व्यवस्था की त्रुटियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं
1. शिक्षा का प्रसार-पंचायती राज संस्थाओं को सफल बनाने के लिए प्रथम आवश्यकता शिक्षा का प्रसार है। जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे और अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के प्रति सजग नहीं होंगे, तब तक ये संस्थाएँ सफलतापूर्वक काय
2. सदस्यों को प्रशिक्षण आज पंचायती राज संस्थाओं का कार्य बहुत अधिक पेचीदा तथा जटिल है। प्रशिक्षण (Training) के बिना पंचायती राज संस्थाओं के सदस्य अपना कार्यों को ठीक प्रकार से नहीं कर सकते और न ही उचित निर्णय ले सकते हैं। इस कारण इन सदस्यों के प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।
3. योग्य और ईमानदार कर्मचारी स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए। उनके वेतन आदि अन्य सरकारी कर्मचारियों के बराबर होने चाहिएँ, ताकि योग्य व्यक्ति इन संस्थाओं में नौकरी प्राप्त करने के लिए आकर्षित हों। इन कर्मचारियों के प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।
4. राजनीतिक दलों पर रोक स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। वैसे तो कानून द्वारा उन दलों पर कुछ एक प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में ये प्रतिबन्ध निष्प्रभावी सिद्ध हए हैं। इस कप्रथा को रोकने के लिए कानून पर अधिक निर्भर रहना ठीक नहीं है, बल्कि लोगों की सावधानी, दलों की सद्भावना तथा शुभ नीति ही अधिक उपयोगी हो सकते हैं।
5. ग्राम सभा को सक्रिय करना चाहिए- पंचायती राज को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि ग्राम सभा को एक प्रभावशाली संस्था बनाया जाए। इसकी बैठकें नियमित रूप से होनी चाहिएँ और गाँव के नागरिकों को इसकी कार्रवाइयों में रुचि लेनी चाहिए। जब तक गाँव के नागरिक स्वयं अपनी समस्याओं तथा अपने क्षेत्र के प्रति उत्साह नहीं दिखाएँगे, तब तक पंचायती राज का सफल होना असम्भव है।
6. सरकारी हस्तक्षेप में कमी स्थानीय संस्थाओं को अपने कार्यों में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, तभी ये संस्थाएँ सफल हो सकती हैं। सरकारी हस्तक्षेप या नियन्त्रण की बजाय इन संस्थाओं को उचित परामर्श (Proper Guidance) की अधिक आवश्यकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं को अधिक स्वतन्त्रता दे और इनके पथ-प्रदर्शन की व्यवस्था करे।
7. धन की अधिक सहायता-धन का अभाव भी इन संस्थाओं की सफलता में एक बहुत बड़ी बाधा है। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं की धन से पूरी-पूरी सहायता करे। लोगों के जीवन में सुधार करने के लिए ये संस्थाएँ जो नई योजनाएँ बनाएँ, सरकार को चाहिए कि उसके लिए पर्याप्त मात्रा में धन दे।
8. नियमित चुनाव पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव निश्चित अवधि के पश्चात् नियमित रूप से होने चाहिएँ। फरवरी, 1989 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वेंकटरमन ने यह सुझाव दिया था कि पंचायत के चुनावों को राज्यों की विधान सभाओं तथा लोकसभा के चुनावों की तरह अनिवार्य बना दिया जाए और इसके लिए संविधान में संशोधन कर दिया जाए। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव आयोग की देख-रेख में होने चाहिएँ।
9. पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक शक्तियाँ देनी चाहिएँ पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक दायित्व तथा शक्तियाँ मिलनी चाहिएँ। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 23 दिसम्बर, 1992 को संविधान का 73वाँ संशोधन पारित किया गया है, जिसके अन्तर्गत अब पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक शक्तियाँ प्राप्त हो गई हैं।
प्रश्न 8.
भारत में पंचायती राज के महत्त्व की विवेचना कीजिए। अथवा पंचायती राज की स्थापना से भारत में गाँवों में रहने वाले लोगों को क्या-क्या लाभ हुए हैं?
उत्तर:
2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में पंचायती राज का उद्घाटन करते हुए भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “हम भारत के लोकतन्त्र की आधारशिला रख रहे हैं।” वास्तव में पंचायती राज की स्थापना से प्रजातन्त्र का विकेन्द्रीयकरण होता है और देश का प्रत्येक साधारण-से-साधारण नागरिक भी देश के प्रशासन में स्वयं को भागीदार समझने लगता है। अतः पंचायती राज का बहुत महत्त्व है। निम्नलिखित तथ्यों से पंचायती राज के महत्त्व का पता चलता है
1. प्रत्यक्ष लोकतन्त्र-गाँवों में पंचायती राज की स्थापना का होना प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से कम नहीं है, क्योंकि गाँवों के सब लोग ग्राम सभा के सदस्य के रूप में, जिनकी बैठक एक वर्ष में दो बार बुलाई जाती है, गाँव की समस्याओं पर विचार करते हैं और उनका निर्णय करते हैं। ग्राम सभा गाँव की संसद (Parliament) की तरह है और गाँव के सभी नागरिक इस संसद के सदस्य हैं। पंचायती राज के वे सब लाभ हैं जो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से प्राप्त होते हैं। पंचायती राज की स्थापना से प्रत्यक्ष और वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
2. जनता का अपना शासन-पंचायती राज जनता का अपना राज्य होता है। इसकी स्थापना से भारत के गाँवों में लोगों का अपना शासन स्थापित हो चुका है। गाँव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है। ग्राम पंचायत ग्राम के प्रशासन सम्बन्धी, समाज कल्याण सम्बन्धी, विकास सम्बन्धी तथा न्याय सम्बन्धी सब कार्य करती है।
इस प्रकार गाँव का व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं निर्माता बना हुआ है। भारत का नागरिक अब किसी के अधीन नहीं है और वह वास्तविक रूप में अपने ऊपर स्वयं शासन करता है और अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता।
3. अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान पंचायती राज की स्थापना से गाँव का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को गाँव के प्रशासन के साथ सम्बन्धित समझता है। आज के ग्रामीण को अपने कर्तव्यों के बारे में जानकारी है तथा वे अपने अधिकारों के बारे में पहले की अपेक्षा अधिक सचेत हैं। गाँव के निवासी अब ग्राम सभा की बैठकों में भाग लेकर ग्राम पंचायत आदि के चुनाव में दिलचस्पी लेते हैं और ग्राम पंचायतों द्वारा निश्चित ‘करों’ इत्यादि को देने से भी हिचकते नहीं हैं।
4. आत्म-निर्भरता-पंचायती राज का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ग्रामों को आत्म-निर्भर बनाना है। ग्राम पंचायत व पंचायत समितियाँ जनता की अपनी संस्थाएँ हैं और वे स्वयं आवश्यकतानुसार कर आदि लगाकर अपनी जरूरतों को पूरा करती हैं तथा अपने विकास की योजनाएँ बनाती हैं और उन्हें लागू करती हैं।
पंचायती राज से पहले ग्रामीण विकास की योजनाएँ सरकारी कर्मचारियों द्वारा बनाई जाती थीं और सरकारी कर्मचारी स्वेच्छा से उन्हें लागू करते थे, परन्तु अब यह लोगों की अपनी इच्छा पर निर्भर है। पंचायती राज की स्थापना के बाद गाँव के लोग अपनी विकास योजनाओं को स्वयं लागू करते हैं और इस प्रकार से हमारे बहुत-से गाँव आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुके हैं।
5. स्थानीय समस्याओं का समाधान-किसी विशेष क्षेत्र की स्थानीय समस्याओं का समाधान केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा शीघ्रता एवं सुगमता से नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकार के अधिकारियों का गाँव के लोगों के साथ सीधा सम्पर्क नहीं होता। पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों का जनता के साथ सीधा सम्पर्क होता है। वे क्षेत्र की समस्याओं से भली-भाँति परिचित होते हैं। अतः इस सदस्यों द्वारा स्थानीय समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकता है।
6. स्वतन्त्रता की भावना का विकास-पंचायती राज की स्थापना से लोगों में स्वतन्त्रता की भावना का बहुत विकास हुआ है, जिससे देश में लोकतन्त्र की जड़ों को मजबूत करने में सहायता मिली है। इस सम्बन्ध में पंचायती राज के महत्त्व का वर्णन करते हुए स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने एक बार कहा था, “हमारे देश के लोकतन्त्र की बुनियाद मज़बूत होने में पंचायती राज संस्थाओं का प्रमुख स्थान रहा है। इन पर जो बड़ी आशाएँ रखी गई हैं वे पूरी हो सकती हैं जबकि गाँवों में रहने वाले कमज़ोर वर्ग के लोग, ग्रामीण, स्वायत्तता शासन में सक्रिय रूप से भाग लें।”
7. न्यायिक कार्य का महत्त्व पंचायती राज की संस्थाएँ गाँवों के लोगों को सस्ता तथा शीघ्र न्याय दिलाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। साधारण झगड़ों को सुलझाने के लिए ग्रामीण लोगों को न्यायालयों में नहीं जाना पड़ता। इससे धन तथा समय दोनों की बहुत बचत होती है।
8. कृषि का विकास व आर्थिक उन्नति-पंचायती राज की स्थापना का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इसकी स्थापना के बाद से ग्रामों में कृषि का बहुत अधिक विकास हुआ है। उसका कारण यह है कि ग्राम पंचायतें, पंचायत समितियाँ व जिला परिषदें सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की सहायता से किसानों को अच्छे किस्म के बीज प्रदान करती रहती हैं व वैज्ञानिक कृषि तथा नवीनतम कृषि-यन्त्रों के बारे में जानकारी देती रहती है।
परिणामस्वरूप कृषि की उपज बढ़ी है। कृषि की उपज बढ़ने से जहाँ एक ओर किसानों व गाँव के अन्य लोगों की आर्थिक व सामाजिक रूप से उन्नति हुई है, वहाँ दूसरी ओर देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है। यह पंचायती राज का ही महत्त्व है।
9. प्रशासन की शिक्षा भारत में लोकतन्त्रात्मक सरकार की स्थापना की गई है। इस प्रकार की सरकार में प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की ज़िम्मेदारी सम्भालने के लिए तैयार रहना चाहिए। पंचायती राज गाँव के अशिक्षित व कम शिक्षा प्राप्त लोगों को प्रशासन की शिक्षा देने का सबसे अच्छा साधन है। पंचायती राज द्वारा स्थापित स्थानीय स्वशासन शहरों की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं की अपेक्षा लोगों को प्रशासन की अधिक शिक्षा प्रदान करता है।
जैसे कि नगरों की स्थानीय संस्थाएँ नियम बनाने का प्रशिक्षण तो लोगों को देती हैं, लेकिन न्याय करने का प्रशिक्षण उन संस्थाओं के सदस्यों को नहीं मिलता। पंचायती राज गाँव के लोगों को नियम बनाने, उन्हें लागू करने, विकास योजनाएँ बनाने तथा उन्हें लागू करने और न्याय करने का भी अवसर देता है। इस प्रकार पंचायती राज द्वारा गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की शिक्षा प्राप्त होती है।
निष्कर्ष इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंचायती राज लोगों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता की भावना पैदा करता है और उनकी स्थानीय मामलों में रुचि उत्पन्न करता है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में स्वतन्त्रता तथा उत्पन्न करता है। इससे ग्रामीण जीवन के विकास में बहुत सहायता मिलती है। लोगों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के बारे में जागरूक करके पंचायती राज लोकतन्त्र को सफल बनाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
प्रश्न 9.
शहरी स्वशासन संस्थाओं से सम्बन्धित 74वें संवैधानिक संशोधन की मुख्य धाराओं का वर्णन करें। अथवा 74वें संविधान संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं में किए गए परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
देश में शहरी स्थानीय संस्थाओं को अधिक मजबूत बनाने और उनमें लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए भारतीय संसद द्वारा सन् 1992 में 74वाँ संवैधानिक संशोधन पास किया गया जो 1993 में लागू हुआ। इस संवैधानिक संशोधन के मुख्य अनुच्छेद निम्नलिखित हैं-
1. स्थानीय संस्थाओं की संवैधानिक मान्यता-74वें संशोधन द्वारा स्थानीय नगर संस्थाओं को पहली बार संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। इस संशोधन द्वारा संविधान में भाग 9A शामिल किया गया तथा 12वीं सूची इसमें जोड़ी गई जिसमें 18 विषय शामिल हैं। संविधान के इस भाग में शहरी स्थानीय संस्थाओं की संरचना, कार्य, शक्तियों आदि का उल्लेख है।
2. तीन प्रकार की स्थानीय संस्थाओं का वर्णन-74वें संविधान संशोधन ने प्रत्येक राज्य के लिए तीन स्तरीय शहरी स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था की है; जैसे-
- परिवर्तनीय क्षेत्र के लिए नगर पंचायत-नगर पंचायत 10,000 से 20,000 तक की जनसंख्या के क्षेत्र में होगी। ये ऐसे क्षेत्र हैं जो ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र में परिवर्तित हो रहे हैं,
- छोटे नगरीय क्षेत्रों के लिए नगरपालिका,
- विशाल शहरी क्षेत्रों के लिए नगर-निगम। यहाँ पर स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन संस्थाओं का निर्णय राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा।
3. नगरपालिका का संगठन प्रत्येक नगरपालिका का क्षेत्र राज्य सरकार द्वारा निश्चित किया जाएगा। नगरपालिका को वार्डो में विभाजित किया जाएगा और प्रत्येक वार्ड से प्रत्यक्ष रूप से मतदाता एक प्रतिनिधि को निर्वाचित करेंगे। नगरपालिका के चुनाव सम्बन्धी विषय राज्य के विधानमण्डल द्वारा निश्चित किए जाएंगे।
4. विशेष प्रतिनिधित्व की व्याख्या इस संशोधन के द्वारा यह भी व्यवस्था है कि राज्य का विधानमण्डल विशिष्ट व्यक्तियों, क्षेत्र से सम्बन्धित लोकसभा, विधानसभा और राज्यसभा के सदस्यों को भी नगरपरिषद् में शामिल कर सकता है।
5. अध्यक्ष या सभापति का चुनाव इसकी व्यवस्था राज्य का विधानमण्डल कानून द्वारा करेगा।
6. वार्ड समितियों की व्यवस्था इस संशोधन के द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि जिस नगरपरिषद् के क्षेत्र में तीन लाख या इससे अधिक जनसंख्या होगी, वहाँ वार्ड समितियाँ स्थापित की जाएँगी। इनका संगठन और अधिकार-क्षेत्र राज्य विधानमण्डल के कानून द्वारा किया जाएगा।
7. आरक्षण की व्यवस्था-74वें संविधान संशोधन ने शहरी स्थानीय संस्थाओं में स्थानों के लिए आरक्षण की निम्नलिखित व्यवस्था की है-
- प्रत्येक नगरपालिका में जनसंख्या के अनुपात के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्थान सुरक्षित होंगे। इन स्थानों में से 1/3 स्थान अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए सुरक्षित किए जाएँगे,
- नगरपालिका के कुल स्थानों में 50% स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित करने की घोषणा की गई,
- पिछड़ी जाति के लिए भी एक स्थान सुरक्षित करने की व्यवस्था है,
- इस संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि राज्य का विधानमण्डल प्रधान पदों के लिए अनुसूचित जातियों, जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करेगा।
8. अवधि-शहरी स्थानीय संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। यदि निश्चित अवधि से पूर्व नगरपालिका भंग कर दी जाती है तो उसके चुनाव छह महीने के अन्दर करवाने आवश्यक हैं।
9. सदस्यो की योग्यताएँ-शहरी स्थानीय संस्थाओं का सदस्य होने के लिए अन्य योग्यताओं के साथ 21 वर्ष की आय आवश्यक है।
10. नगरपालिका की शक्तियाँ-74वें संविधान संशोधन द्वारा 18 विषयों पर नगरपालिका को कार्य करने का अधिकार दिया गया है। इन 18 विषयों का उल्लेख संविधान की 12वीं सूची में किया गया है। इसके साथ यह भी व्यवस्था है कि राज्य का विधानमण्डल नगरपालिका को कुछ ‘कर’ लगाने और उन्हें इकट्ठे करने का भी अधिकार दे सकता है।
11. चुनाव आयोग की व्यवस्था-शहरी क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं के चुनाव राज्य के चुनाव आयोग द्वारा करवाए जाएँगे। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा होगी।
12. वित्त आयोग की व्यवस्था शहरी स्थानीय संस्थाओं के गठन के बाद राज्य सरकार एक वित्तीय आयोग नियुक्त करेगी जो इन संस्थाओं की वित्त सम्बन्धी विषयों पर विचार करेगा।
13. जिला आयोजन समिति-74वें संशोधन में यह भी व्यवस्था है कि राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा जिला आयोजन समिति की स्थापना करेगा। इसका संगठन भी राज्य विधानमण्डल द्वारा ही निश्चित किया जाएगा। जिला आयोजन समिति का कार्य ज़िला पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समन्वित करके पूरे जिले के विकास के लिए कार्य करना है।
14. महानगर योजना समिति-74वें संविधान संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि ऐसे क्षेत्रों में, जिनकी जनसंख्या 20 लाख अथवा उससे अधिक है, महानगर योजना समिति की स्थापना की जाए। यह समिति महानगर के सम्पूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए योजनाएँ तैयार करेगी।
15. नगरपालिकाओं को कर लगाने की शक्ति और निधियाँ-
- राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा नगरपरिषदों को कर (Tax) शुल्क (Duty), पथ-कर (Toll-tax) तथा फीसें (Fees) लगाने की शक्ति प्रदान कर सकता है।
- राज्य विधानमण्डल राज्य सरकार द्वारा लगाए गए करों, शुल्कों, पथ-करों और फीसों को नगरपालिका को सौंप सकती है।
- राज्य की संचित निधि में से (Consolidated Fund of State) नगरपालिकाओं को सहायता अनुदान (Grant-in-aid) दिया जा सकता है।
- राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा प्राप्त होने वाले धनों (Moneys) के लिए निधियों (Funds) और उन निधियों से निकाले जाने वाले धनों की व्यवस्था कर सकता है।
16. नगरपालिकाओं के चुनाव-सम्बन्धी मामले न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर-74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि नगरपालिकाओं के चुनाव-क्षेत्र के परिसीमित (Delimitation of constituencies) या ऐसे चुनाव-क्षेत्रों के बँटवारे से सम्बन्धित किसी कानून को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। नगरपालिका के किसी सदस्य के चुनाव को उसी प्राधिकारी के पास चुनौती दी जा सकती है जिसकी व्यवस्था राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून बना कर की गई हो।
17. वर्तमान कानूनों तथा नगरपालिकाओं का जारी रहना-74वें संवैधानिक संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि नगरपालिकाओं से सम्बन्धित कोई भी कानून और नगरपालिकाएँ, जो 74वें संवैधानिक संशोधन के लागू होने से पहले अस्तित्व में थीं, तब तक अपने पदों पर कायम रहेंगी जब तक कि राज्य विधानमण्डल द्वारा प्रस्ताव पारित करके उनको भंग नहीं किया जाता।
18. उपरोक्त व्यवस्थाएँ कुछ क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगी-74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की उपरोक्त व्यवस्थाएँ निम्नलिखित क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगी।
- संविधान के अनुच्छेद 244 पद (1) और पद (2) में वर्णित अनुसूचित क्षेत्रों और कबायली क्षेत्रों (Scheduled areas and Tribal areas)।
- पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले के पहाड़ी क्षेत्र जहाँ ‘दार्जिलिंग गोरखा परिषद्’ (Darjeeling Gorkha Hill Council) स्थापित है।
19. संघीय क्षेत्रों पर लागू होना-74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की सभी व्यवस्थाएँ संघीय क्षेत्रों पर लागू होंगी। संघीय क्षेत्र के सम्बन्ध में इस अधिनियम में राज्य के राज्यपाल’ के स्थान पर ‘संघीय क्षेत्र प्रशासक’ (Administrative of Union Territory) और ‘राज्य विधानमण्डल’ के स्थान पर ‘संघीय विधानसभा’, यदि उस क्षेत्र में विधानसभा’ ही प्रयोग, किए जाएँगे।
इस विवरण से यह स्पष्ट है कि 74वें संविधान संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं के लिए एक नई प्रणाली की व्यवस्था की गई है। इस नई प्रणाली के अन्तर्गत नगरपालिकाओं को पहले की अपेक्षा बहुत अधिक दृढ़ और की भागीदारी को बेहतर बनाया गया है। शहरी स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है और पहले की तुलना में उन्हें अधिक शक्तियाँ, जिम्मेवारियाँ तथा वित्तीय साधन सौंपे गए हैं।
इन संस्थाओं में स्त्रियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया है और स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र को अधिक सशक्त बनाने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रकार इस संविधान संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया गया है।
प्रश्न 10.
नगर-निगम की संरचना, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें। अथवा . नगर निगम की संरचना और कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
नगर-निगम शहरी क्षेत्र में गठित स्थानीय शासन की इकाइयों में सर्वोच्च, सम्माननीय तथा स्वायत्त निकाय होता है। नगर पालिकाओं की अपेक्षा नगर-निगम को अधिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं और इन पर सरकारी नियन्त्रण भी कम होता है। केन्द्रीय शासित क्षेत्र में नगर-निगम स्थापित करने के लिए तथा संसद और राज्यों में नगर-निगम गठित करने के लिए राज्य विधानमण्डल द्वारा विशेष अधिनियम पारित करने पड़ते हैं।
भारत में सबसे पहले चेन्नई में नगर-निगम गठित किया गया था। हमारे देश में इस समय हैदराबाद, पटना, सूरत, शिमला, ग्वालियर, मुम्बई, आगरा, कोलकाता, दिल्ली, अमृतसर आदि बड़े-बड़े शहरों में नगर-निगम गठित किए गए हैं। प्रत्येक नगर-निगम के लिए एक विशेष अधिनियम पारित किया गया है। उदाहरण के लिए दिल्ली में, दिल्ली नगर-निगम अधिनियम, 1957, मुम्बई में मुम्बई नगर-निगम अधिनियम, 1888, पंजाब में पंजाब नगर-निगम अधिनियम, 1976, हरियाणा में फरीदाबाद में नगर-निगम का गठन पहले से ही किया हुआ है। इसके बाद गुड़गाँव को भी नगर-निगम बना दिया गया।
इस तरह हरियाणा में अम्बाला, हिसार, करनाल, पानीपत, पंचकूला, यमुनानगर, सोनीपत और रोहतक को मिलाकर दस नगर निगम स्थापित किए गए थे। इसी तरह जुलाई, 2015 को सोनीपत को हरियाणा का दसवाँ नगर निगम बनाया गया। यहाँ यह स्पष्ट है कि फरवरी, 2018 में हरियाणा मंत्रिमण्डल के द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार अम्बाला नगर निगम को भंग कर दिया गया था,
लेकिन 23 जुलाई, 2019 को कोर्ट केस में कोर्ट ने बीच का रास्ता अपनाते हुए अम्बाला सिटी को नगर निगम और अम्बाला कैंट को नगर परिषद का रूप दे दिया। इसके बाद हरियाणा सरकार ने 27 जुलाई, 2019 को अधिसूचना जारी करते हुए अम्बाला शहर को नगर-निगम एवं अम्बाला छावनी को नगर परिषद बना दिया गया। इस प्रकार वर्तमान में हरियाणा में 10 नगर निगम हैं।
हरियाणा में इस प्रकार का कानून हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 (Haryana Municipal Corporation Act, 1994) विधानमण्डल ने 31 मई, 1994 को पारित किया और इसके अनुसार फरीदाबाद में नगर-निगम गठित किया गया। राज्य सरकार अधिसूचना जारी करके इस अधिनियम में अन्य नगरीय क्षेत्रों को भी शामिल कर सकती है।
यह निगम एक सतत् उत्तराधिकार प्राप्त निकाय (Body of Perpetual Succession) है जिसको एक सामान्य मुहर (Common Seal), सम्पत्ति तथा स्वयं के नाम से दावा करने या अभियोग चलाने की शक्ति प्राप्त है। रचना (Composition) हरियाणा नगर निगम अधिनियम के अनुसार जिन शहरों की जनसंख्या 3 लाख से अधिक है वहाँ नगर निगम की स्थापना की जाती है। इसके अतिरिक्त 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई व्यवस्था के अनुसार राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा निम्नलिखित वर्गों के व्यक्तियों को नगर-निगम में प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था करता है
(क) तीन व्यक्ति, जिन्हें नगरीय प्रशासन के अनुभव का विशेष ज्ञान प्राप्त हो,
(ख) नगर-निगम के नगरीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा तथा विधानसभा के सदस्य,
(ग) राज्य सभा के सदस्य जिनका नगरीय क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकरण है। उपर्युक्त मनोनीत सदस्यों में से (क) वर्ग के सदस्यों को नगर-निगम की बैठकों में मताधिकार से तथा (ख) एवं (ग) वर्ग के सदस्यों को मेयर, वरिष्ठ उप-मेयर या उप-मेयर के चुनाव तथा हटाने की प्रक्रिया में मताधिकार से वंचित रखा गया है।
निगम का कार्यकाल (Duration of Corporation):
नगर-निगम का कार्यकाल, सिवाय भंग होने की अवस्था में, पाँच वर्ष होता है। यदि किसी कारणवश निगम को भंग कर दिया जाता है तो अगली चुनी गई नगर-निगम शेष बचे समय के लिए कार्य करेगी। निगम को भंग करने से पूर्व उसे अपने विचार व्यक्त करने का पूरा अवसर दिया जाता है। सदस्यों की
अयोग्यताएँ (Disqualifications of the Members):
74वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर हरियाणा विधानसभा द्वारा पारित हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 के अनुसार नगर-निगम का सदस्य बनने के लिए नगरीय क्षेत्र के वार्ड में पंजीकृत मतदाता होने के अतिरिक्त 25 वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। अधिनियम के अनुच्छेद 8 के अनुसार सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित कारणों को अयोग्य माना गया है
- राज्य विधानमण्डल के निर्वाचन के उद्देश्य से मानी गई अयोग्यता,
- विकृत चित,
- दिवालिया,
- विदेशी नागरिकता,
- इस अधिनियम की धारा 22 के अन्तर्गत परिभाषित भ्रष्ट विधि,
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 171-E या 171-F या इस अधिनियम की धारा 30 या 31 के अनुसार कोई अपराधिक मुकद्दमा,
- अनैतिक आचार के कारण दोष-सिद्धि या हिरासत,
- निगम के अन्तर्गत किसी भी लाभ के पद पर होना,
- सरकार के अन्तर्गत किसी भी लाभ के पद पर होना,
- निगम से लाइसेन्सशुदा, वास्तुविद् (Architect) ड्राफ्ट्स मैन, इंजीनियर, पैमाइश करने वाला (Surveyer), पलम्बर या नगर योजनाकार,
- निगम के किसी कार्य या संविदा से लाभ प्राप्तकर्ता,
- निगम के द्वारा संचालित किसी फर्म या व्यवसाय का हिस्सेदार,
- सरकार, निगम या स्थानीय सत्ता के अधीन किसी सेवा से पदच्युति,
- निगम को देय किसी फीस या जुर्माने को अदा करने में असफल होने पर,
- दो से अधिक जीवित बच्चों का माँ-बाप होने पर। यद्यपि यह शर्त उन माता-पिताओं पर नहीं लागू होती जिनके पास 31 मई, 1995 तक या इससे पहले दो जीवित बच्चे हो।
निगम में आरक्षित सीट (Reserved Seats of the Corporation):
74वें संशोधन के आधार पर हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 की धारा 11 के अनुसार निम्नलिखित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण किया गया है-
(1) नगरीय क्षेत्र की कुल जनसंख्या और अनुसूचित जातियों की जनसंख्या के मध्य अनुपात के अनुसार सीटें आरक्षित की जाती हैं। इनका कुल जनसंख्या तथा कुल सीटों में एक समान अनुपात होना चाहिए,
(2) उपर्युक्त सीटों में से एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएँगी,
(3) प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा भरी गई कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें (अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों समेत) महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी। इन सीटों का बँटवारा भिन्न-भिन्न वार्डों में लॉटरी के द्वारा किया जाएगा,
(4) दो सीटें पिछड़ी जातियों के लिए, जिन वार्डों में इन जातियों की अधिकतम संख्या है, आरक्षित की जाएंगी।
(5) मेयर, वरिष्ठ उप-मेयर तथा उप-मेयर के पदों का आरक्षण सामान्य वर्ग, अनुसूचित जातियों, पिछड़ी जातियों तथा महिलाओं के लिए क्रमवार (By Rotation) लॉटरी पद्धति के अनुसार किया जाएगा। स्थानीय शासन नगर-निगम के अधिकारीगण तथा संस्थाएँ-नगर-निगम में प्रायः निम्नलिखित अधिकारीगण तथा संस्थाएँ होती हैं
1. महापौर (Mayor):
नगर-निगम का अध्यक्ष महापौर (Mayor) कहलाता है। इसका चुनाव नगर-निगम के सदस्यों द्वारा किया जाता है। नगर-निगम के सदस्य एक ‘उप-महापौर’ (Deputy Mayor) का भी चुनाव करते हैं। आमतौर पर महापौर तथा उप-महापौर का चुनाव एक वर्ष के लिए किया जाता है, परन्तु कार्यकाल की समाप्ति पर उन्हें प्रायः दुबारा चुन लिया जाता है। महापौर नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है। अव्यवस्था उत्पन्न होने की स्थिति में वह सदन की बैठक को स्थगित कर सकता है। महापौर नगर का प्रथम नागरिक कहलाता है। नगर में आने वाले विशिष्ट अतिथियों का वह अभिनन्दन करता है।
2. निगम की सामान्य परिषद् (General Council of the Corporation):
निगम की सामान्य परिषद् में सभी सभासद तथा एल्डरमैन शामिल होते हैं। सामान्य परिषद् के सदस्यों की संख्या सभी नगर-निगमों के लिए एक-जैसी नहीं है। निगम आयुक्त को छोड़कर नगर-निगम के अन्य अधिकारियों की नियुक्ति सामान्य परिषद् द्वारा की जाती है।
दिल्ली नगर-निगम के आयुक्त की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती है, परन्तु राज्यों में निगम आयुक्त राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। सामान्य परिषद् निगम क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं पर विचार करती है तथा सामान्य नीति बनाती है, जिसे विभिन्न समितियों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है।
3. स्थायी समितियाँ (Standing Committees):
सामान्य परिषद् अपने कार्यों का संचालन स्थायी समितियों के द्वारा करती है। ये समितियाँ सामान्य परिषद् द्वारा निर्वाचित की जाती हैं। ये समितियाँ मुख्य रूप से करारोपण तथा वित्त (Taxation and Finance), शिक्षा, स्वास्थ्य, बजट तैयार करना, निर्माण कार्य, बिजली तथा यातायात आदि विषयों से सम्बन्धित होती हैं।
4. निगम आयुक्त (Municipal Commissioner):
निगम आयुक्त नगर-निगम का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी होता है। वह महापौर को प्रशासन सम्बन्धी विवरण देता रहता है। निगम के प्रशासन को चलाने का उत्तरदायित्व मुख्य प्रशासनिक अधिकारी पर होता है, जिसे कमीश्नर (आयुक्त) कहा जाता है। दिल्ली में वह केन्द्रीय सरकार द्वारा तथा राज्यों के निगमों में राज्य सरकार द्वारा पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है, परन्तु सरकार इस अवधि को घटा-बढ़ा सकती है।
निगम आयुक्त निगम के अन्य सभी अधिकारियों के ऊपर होता है। वह विभिन्न संस्थाओं के कर्त्तव्य निर्धारित करता है और उनके कार्यों की देखभाल करता है। वह कई नियुक्तियाँ भी करता है। उसका कर्त्तव्य है कि वह निगम को अपने कार्यों का विवरण देता रहे। नगर-निगम के सदस्य जो भी जानकारी प्राप्त करना चाहें, उसे निगम आयुक्त ही देता है।
निगम की बैठकें (Meetings of the Corporation)-निगम अपने कार्य का संचालन करने के लिए प्रति माह एक बैठक का आयोजन करता है। निगम की प्रथम बैठक मण्डल-आयुक्त द्वारा बुलाई जाती है जिसमें मेयर का चुनाव किया जाता है। ऐसी बैठक की अध्यक्षता मण्डल-आयुक्त द्वारा नियुक्त सदस्य के द्वारा की जाती है। यदि मेयर के उम्मीदवारों के मध्य बराबर-बराबर के मत पड़ते हैं तो अध्यक्ष अतिरिक्त मत के द्वारा निर्णय करता है।
इन बैठकों की अध्यक्षता (सिवाय मेयर, वरिष्ठ उप-मेयर या उप-मेयर के निर्वाचन सम्बन्धी बैठक) मेयर, उसकी अनुपस्थिति में उप-मेयर द्वारा की जाती है। प्रत्येक बैठक की सूचना बैठक आरम्भ होने से 5 दिन पूर्व भेजी जाती है। निगम का सचिव प्रत्येक बैठक की कार्रवाई का संक्षिप्त रिकार्ड एक रजिस्टर में दर्ज करता है और अगली बैठक में इसकी जानकारी देता है। वह बैठक के अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी करवाता है। कार्रवाई रिपोर्ट की सूचना प्रत्येक निगम के सदस्य को दी जाती है।
निगम का सचिव बैठक आरम्भ होने के तीन बाद बैठक में लिए गए निर्णय की रिपोर्ट सरकार को प्रेषित करता है और सरकार निगम सचिव से बैठक के सम्बन्ध में किसी कागजात की प्रति मंगवा सकती है। प्रत्येक बुलाई गई बैठक के लिए आवश्यक गणपूर्ति 1/3 निश्चित की गई है जिसके अभाव में बैठक स्थगित कर दी जाती है।
निगम के कार्य (Functions of Corporation)-देश में भिन्न-भिन्न नगर-निगमों को कई प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं। कई राज्यों में निगम को सामान्य कार्य करने पड़ते हैं और उनकी सूची अधिनियम में दी जाती है। परन्तु कई राज्यों में निगमों को दो प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं अनिवार्य और ऐच्छिक।हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 के अध्याय III की धाराओं 42, 43 और 44 के अनुसार निगम को निम्नलिखित कार्य सौंपे गए हैं
1. आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय सम्बन्धी कार्य (Functions related with Economic Development and Social Justice)-नगर-निगम आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय तथा संविधान की 12वीं अनुसूची में सम्मिलित 18 विषयों को लागू करने से सम्बन्धित योजनाओं और कार्यों का क्रियान्वयन करता है। इसमें निम्नलिखित कार्य आते हैं …
- नगरीय योजना,
- भूमि उपयोग का विनियमन और भवनों का निर्माण,
- आर्थिक और सामाजिक विकास योजना।
- सड़कें और पुल,
- घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए जल प्रदाय (Water Supply),
- लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई और कूड़ा-कर्कट प्रबन्ध,
- अग्निशमन सेवाएँ,
- नगरीय वानिकी, पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिक आयामों की अभिवृद्धि (Ecological Aspects),
- समाज के दुर्बल वर्गों, दिव्यांगों और मानसिक रोगियों का हित,
- गन्दी बस्ती सुधार,
- नगरीय निर्धनता उन्मूलन,
- नगरीय सुख-सुविधाओं; जैसे पार्क, उद्यान तथा खेलों के मैदानों की व्यवस्था,
- सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौन्दर्य के आयामों की वृद्धि,
- कब्रिस्तान, शवदाह और श्मशान,
- पशु तालाब तथा पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण,
- जन्म-मरण सांख्यिकी,
- सार्वजनिक सुख-सुविधाओं में वृद्धि; जैसे सड़कों पर प्रकाश तथा जन-सुविधाएँ,
- वध-शालाओं (Slaughters) और चर्मशोधन-शालाओं (Tanneries) का विनियमन।
2. आवश्यक कार्य (Obligatory Functions):
निगम के लिए यह आवश्यक होगा कि वह नीचे लिखे कार्यों को लागू करने के लिए, जोकि उसके कर्तव्यों का हिस्सा होंगे, हर सम्भव प्रयास करेगा
- शौचालयों तथा मूत्रालयों का निर्माण, रख-रखाव व सफाई,
- जल-आपूर्ति व्यवस्था का प्रबन्ध,
- कूड़ा-कर्कट, गन्दगी व वातावरण को दूषित करने वाले पदार्थों को हटाना,
- हानिकारक पौधों तथा कष्टदायक बाधाओं को हटाना,
- मृतकों का दाह-संस्कार करने के लिए स्थानों का नियमन,
- पशु तालाबों का रख-रखाव,
- हानिकारक बीमारियों की रोकथाम,
- नगरीय बाजारों का नियमन,
- घृणोत्पादक व्यवसायों (Offensive Traders) पर रोक,
- खतरनाक भवनों को हटाना,
- सार्वजनिक गलियों, पुलियों तथा उच्च मार्गों (Causeways) का निर्माण, रख-रखाव व सुधार,
- गलियों की सफाई व प्रकाश का प्रबन्ध,
- गलियों से बाधाएँ हटाना,
- घरों और गलियों में नम्बर लगाना,
- नगरीय कार्यालयों का रख-रखाव
- सार्वजनिक पार्को, उद्यानों तथा मनोरंजन के साधनों का प्रबन्ध,
- अग्नि-शामक दल व यन्त्र का प्रबन्ध व आग लगने की अवस्था में जानमाल की रक्षा करना,
- स्मारकों का रख-रखाव,
- निगम की सभी सम्पत्तियों का विकास करना।
- सड़क के किनारों पर लगे पेड़-पौधों की देखभाल करना,
- भवनों व भूमि का सर्वेक्षण,
- इस अधिनियम के अधीन सौंपा गया कोई भी अन्य कार्य।
3. ऐच्छिक कार्य (Discretionary Functions):
नगर-निगम उपलब्ध वित्तीय साधनों की पर्याप्तता के आधार पर निम्नलिखित कार्य करता है
- सांस्कृतिक, शारीरिक व सामान्य शिक्षा का प्रबन्ध,
- पुस्तकालयों, संग्रहालयों व चिड़ियाघरों की स्थापना करना,
- खेल-कूद व व्यायाम के लिए व्यायामशालाओं व अखाड़ों का निर्माण करना,
- विवाहों का पंजीकरण,
- जनगणना,
- अति विशिष्ट व्यक्तियों का स्वागत करना,
- जनता के लिए संगीत, मनोरंजन व सिनेमाघरों की व्यवस्था करना,
- प्रदर्शनियों व मेलों का प्रबन्ध करना,
- विश्राम-गृहों, वृद्ध-आश्रमों, बाल-भवनों, अनाथालयों तथा बहरों और गूगों के लिए आवासों का प्रबन्ध करना,
- निगम अधिकारियों व कर्मचारियों के लिए आवास स्थानों का प्रबन्ध करना,
- निगम कर्मचारियों का कल्याण,
- जन-स्वास्थ्य से सम्बन्धित पानी, स्वास्थ्य और औषधियों का परीक्षण करने के लिए प्रयोगशालाओं का प्रबन्ध करना,
- निराश्रितों और दिव्यांगों की सहायता करना,
- जन टीकाकरण,
- जनता के लिए तैरने और नहाने के लिए स्थानों का रख-रखाव करना,
- दुग्ध डेयरियों का प्रबन्ध करना,
- कुटीर उद्योगों तथा हस्तशिल्प कला-केन्द्रों का प्रबन्ध करना।
- गोदामों का प्रबन्ध करना,
- वाहनों तथा पशुओं के ठहरने के स्थानों का प्रबन्ध करना,
- नगर निवासियों के ठहरने के लिए आवास स्थलों का निर्माण करना,
- अस्पतालों, औषधालयों तथा प्रसूति एवं शिशु-कल्याण केन्द्रों की स्थापना करना,
- जन-सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा जन-कल्याण के लिए किसी भी प्रकार का कदम उठाना,
- निगम से स्वीकृत योजनाओं के अनुसार नगरीय क्षेत्रों का सुधार करना।
निगम निधि (Corporation Fund)-नगर-निगम भिन्न-भिन्न वित्तीय देनदारियों के लिए एक निगम निधि की स्थापना करेगा जिसमें निम्नवत सम्मिलित हैं
- निगम स्थापित करने से पूर्व सभी फंड,
- इस अधिनियम के अन्तर्गत सभी प्रकार के प्राप्त धन,
- निगम की ओर से की गई सभी सम्पत्तियों की आय का निपटारा,
- निगम की किसी भी प्रकार की सम्पत्तियों से प्राप्त किराया,
- सभी प्रकार के शुल्क और जुर्माने,
- निगम के द्वारा सरकार, किसी व्यक्ति या संस्था से प्राप्त धन,
- निगम के द्वारा जमा किए गए धन पर ब्याज या अन्य लाभ,
- निगम के द्वारा अन्य किसी भी स्रोत से प्राप्त धन।
उपर्युक्त सभी प्रकार की वित्तीय देनदारियों के लिए गठित निगम फंड को किसी राष्ट्रीय बैंक, सरकारी कोषागार या सरकार निगम आयुक्त द्वारा रखा जाएगा। किसी भी प्रकार के पैसे का लेन-देन तब तक नहीं किया जाएगा, जब तक कि लेखा अधिकारी (Account Officer) तथा निगम आयुक्त (Commissioner) हस्ताक्षर न कर दें। निगम की आय के साधन (Sources of Income of Corporation) : निगम की आय के साधन निम्नलिखित हैं
1. निगम द्वारा लगाए गए कर (Taxes imposed by the Corporation):
निगम भिन्न-भिन्न प्रकार के करों को लगाने का अधिकार रखता है, परन्तु कुछ कर सिर्फ सरकार की स्वीकृति से ही लगाए जा सकते हैं। निगम जिन करों को सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना लगा सकता है, उनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं
- भवनों व भूमि पर कर,
- सरकार द्वारा निर्धारित दर के अनुसार चुंगीकर,
- सम्पत्तियों के बेचने (Sale), परिवर्तन करने (Exchange) रेहन या बन्धक (Mortgage) या पट्टे (Lease) पर देने के बदले में प्राप्त शुल्क। इसके अतिरिक्त निगम सरकार की स्वीकृति से निम्नलिखित कर लगा सकता है
(1) व्यवसाय, व्यापार, रोजगार और अन्य धन्धों पर कर,
(2) वाहन-कर (सिवाय मोटर-वाहन तथा पशु),
(3) शहरी भूमि की कीमत बढ़ने पर विकास-कर (Development Tax),
(4) तमाशा कर (Show Tax),
(5) ऊर्जा का उपभोग करने पर (5 पैसे प्रति यूनिट से कम) ऊर्जा-कर,
(6) हरियाणा नगर पालिका अधिनियम के अन्तर्गत लगाया गया अन्य कोई भी कर।
2. निगम द्वारा ली जाने वाली फीसें (Fees Charged by the Corporation) राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति से निगम स्थापित विधि के अनुसार निम्नलिखित फीसों को वसूल कर सकता है
- समाचार-पत्रों के सिवाय अन्य विज्ञापनों पर शुल्क,
- भवन के लिए आवेदन पत्रों पर शुल्क,
- कुछ क्षेत्रों में स्वच्छता सुविधाओं को प्रदान करने और रख-रखाव पर विकास शुल्क,
- प्रकाश शुल्क,
- गन्दगी दूर हटाने पर शुल्क,
- भवन योजनाओं के अन्तर्गत आन्तरिक सेवाओं पर शुल्क,
- निगम द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के लिए उचित समझा गया अन्य कोई शुल्क।
3. करों और फीसों की वसूली (Recovery of Taxes and Fees):
निगम सभी प्रकार के करों व फीसों को वसूली करने के लिए विधि या प्रक्रिया का निर्णय करता है। वह इन करों और फीसों को निम्नलिखित तरीके से भी वसूल कर सकता है
- भू-राजस्व की बकाया राशि,
- दोषी की चल-सम्पत्ति को बेचना या उसकी कुड़की (Distrairt) करना,
- दोषी की अचल सम्पत्ति को बेचना या उसकी कुड़की करना,
- चुंगी या पथ-कर के मामले में दोषी की किसी वस्तु या वाहन को कब्जे में लेना,
- भूमि और भवन-कर के मामले में सम्पत्ति की कुड़की करना,
- अभियोग करना।
4. निगम द्वारा उधार लेना (Borrowing by Corporation)-निगम एक प्रस्ताव पारित कर ऋण पत्र (Debenture) या किसी अचल सम्पत्ति अथवा सभी या किसी वसूल किए जाने वाले कर या फीस की जमानत पर किसी लोक संस्था से उधार ले सकता है। निगम जिन उद्देश्यों के लिए धन उधार ले सकता है, उनमें निम्नलिखित आते हैं
- किसी प्रकार की जमीन का अधिग्रहण करने के लिए,
- किसी भवन को ऊँचा (Eracting) उठाने के लिए,
- किसी ऐसे स्थायी कार्य को आरम्भ करने के लिए जिसकी कई वर्षों तक चलने की सम्भावना हो,
- सरकार के किसी ऋण को अदा करने के लिए,
- पहले लिए गए किसी ऋण की अदायगी करने के लिए,
- इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी अन्य वैधानिक उद्देश्य के लिए।
निगम उपर्युक्त कार्यों को पूरा करने के लिए सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई भी ऋण उधार नहीं ले सकता। इसके अतिरिक्त ऋण की सीमा, ब्याज की दर, ऋण का भुगतान करने की विधि, समय तथा अन्य शर्तों के निर्णयों में भी सरकार की स्वीकृति ली जाती है।
यद्यपि उधार लिए गए धन की अदायगी 60 वर्षों से कम समय में करनी पड़ती है। निगम ऋण पत्रों की जमानत पर उधार लिए गए धन की अदायगी करने के लिए ऋण परिषोध कोष (Sinking Fund) की स्थापना कर सकता है।
5. सरकारी अनुदान (Govt. Grants):
सरकार समय-समय पर निगमों की आर्थिक सहायता करने के लिए सरकारी अनुदान देती है। यह निगमों की आय का महत्त्वपूर्ण साधन है। निगम के द्वारा बजट तैयार करना (Preparation of the Budget by the Corporation)-निगम आय और व्यय का अनुमान लगाने के लिए प्रत्येक वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह से पहले बजट तैयार करवाता है।
इस प्रकार तैयार किया गया बजट फरवरी के अन्तिम सप्ताह से पहले-पहले सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। सरकार यदि उचित समझती है तो कुछ संशोधनों सहित या बिना संशोधन के 31 मार्च से पहले यह बजट निगम के पास वापिस भेज देती है।
निगम के लेखों की तैयारी व उनका परीक्षण (Preparation and Audit of Corporation Accounts)-निगम के लेखों को रखने और उनकी परीक्षा करने का उत्तरदायित्व एक अधिकारी का होता है, जिसे स्थानीय कोष लेखा अधिकारी (Examiner Local Fund Accounts) कहते हैं। वह निगम के लेखों की रिपोर्ट निगम-परिषद् के समकक्ष प्रस्तुत करता है
और निगम की प्राप्तियों व खर्चों का संक्षिप्त विवरण (Abstract of Receipts and Expenditure) तैयार करवाता है। वह निगम के वित्तीय लेन-देनों में पालन किए गए नियमों की देख-रेख करता है। वह किसी प्रकार की वित्तीय अनियमितता व गबन की सूचना आयुक्त को और उसके माध्यम से सरकार को देता है।
प्रश्न 11.
नगरपरिषद् की रचना, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
नगर-परिषद् शहरी स्थानीय स्वशासन की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। 74वें संवैधानिक संशोधन एक्ट के पास होने से पहले इसे नगरपालिका (Municipal Committee) के नाम से पुकारा जाता था। परन्तु इस एक्ट द्वारा इसे नगर-परिषद् (Municipal Council) का नाम दिया गया है। हरियाणा में प्रायः जिन नगरों की जनसंख्या 50 हजार तक होती है,
वहाँ नगरपालिका का गठन किया जाता है तथा जिन नगरों की जनसंख्या 50 हजार से 3 लाख के बीच में होती है, उनमें राज्य सरकार द्वारा नगर-परिषद् की स्थापना कर दी जाती है। वर्तमान में हरियाणा में 21 नगरपरिषद् एवं 57 नगरपालिकाएँ हैं। नगर की जनसंख्या, रोजगार की उपलब्धता, आय तथा आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार द्वारा
उस क्षेत्र में नगर-परिषद् की स्थापना की जाती है। ऊपर दिए गए तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए पंजाब में नगर-परिषदों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया है। इस समय पंजाब में 27 ‘ए’ श्रेणी की, 39 ‘बी’ श्रेणी की तथा 31 ‘सी’ श्रेणी की नगर-परिषदें हैं।
1. नगर-परिषद् की रचना (Composition of Municipal Council):
प्रत्येक नगर-परिषद् में सदस्यों की संख्या नगर की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। 11 नवंबर, 1994 को पंजाब सरकार द्वारा जारी की गई एक अधिसूचना के अनुसार यह संख्या 9 से कम तथा 49 से ऊपर नहीं होगी। नगर-परिषद् में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं-
1. सदस्यों का चुनाव-वे सदस्य, जिनकी संख्या समय-समय पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है, का चुनाव नगर के मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार प्रणाली के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। चुनाव के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले वार्डों (Wards) में बाँट दिया जाता है और प्रत्येक वार्ड (चुनाव-क्षेत्र) में से एक सदस्य चुना जाता है। नगरपरिषद् के सदस्यों को प्रायः नगर पार्षद् (Municipal Councillor) कहा जाता है।
2. सहायक सदस्य राज्य विधानसभा के वे सभी सदस्य, जिनके निर्वाचन-क्षेत्र उस नगरपरिषद् क्षेत्र में पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से आते हों, ऐसे सदस्य, नगरपरिषद् के सहायक सदस्य (Associate Members) होते हैं। उन्हें नगरपरिषद् की बैठकों में भाग लेने तथा बोलने का अधिकार तो होता है, परन्तु वे परिषद् में होने वाले मतदान में भाग नहीं ले सकते।
स्थानों का आरक्षण
(1) प्रत्येक नगरपरिषद् में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुसार स्थान सुरक्षित किए जाने का प्रावधान है। इन स्थानों में समय-समय पर परिवर्तन करने की व्यवस्था है,
(2) इन जातियों के लिए सुरक्षित किए गए स्थानों में से 1/3 स्थान इन जातियों से सम्बन्धित महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे,
(3) प्रत्येक नगरपरिषद् में 1/3 स्थान महिलाओं (जिनमें अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के स्थान भी शामिल होंगे) के लिए आरक्षित किए जाएँगे,
(4) प्रत्येक नगरपरिषद् में एक स्थान पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित करने की व्यवस्था है। योग्यताएँ संविधान के 74वें संशोधन के अनुसार नगरपरिषद् का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निश्चित की गई भारत का नागरिक हो,
(2) वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
(3) वह पागल, दिवालिया या अपराधी न हो,
(4) वह केन्द्रीय सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर कार्य न कर रहा हो,
(5) उसका नाम मतदाताओं की सूची में होना चाहिए,
(6) उसे नगरपरिषद् के चुनाव के लिए मताधिकार प्राप्त हो अथवा चुनाव के अयोग्य घोषित न किया गया हो।
कार्यकाल-74वें संविधान संशोधन द्वारा नगरपरिषद का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। यदि किसी नगरपरिषद को उसकी अवधि समाप्त होने से पूर्व भंग कर दिया जाता है, तो 6 महीने में नई नगरपरिषद् का चुनाव कराना अनिवार्य है। नव-निर्वाचित नगरपरिषद् शेष (बचे हुए) काल के लिए ही कार्य करेगी।
यदि भंग की गई नगरपरिषद् का शेष कार्यकाल 6 महीने से कम हो तो फिर नई नगरपरिषद् का चुनाव नहीं करवाया जाएगा। अध्यक्ष व उपाध्यक्ष नगरपरिषद् अपने निर्वाचित सदस्यों में से एक अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव करेगी। नगरपरिषदों में अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष पद अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों एवं महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाने की भी व्यवस्था है।
यदि किसी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के विरुद्ध नगरपरिषद् के सदस्य 2/3 बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पास कर देते हैं, तो उसे अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ेगा। बैठकें प्रत्येक नगरपरिषद् की एक मास में कम-से-कम एक बैठक होनी अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, यदि नगरपरिषद् की संख्या के आधे सदस्य लिखित रूप में विशेष अधिवेशन बुलाने की माँग करें, तो अध्यक्ष द्वारा 10 दिन के अन्दर ऐसी विशेष बैठक अवश्य बुलाई जाएगी।
नगरपरिषद की बैठक में सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं और किसी विषय पर समान मत पड़ने की स्थिति में अध्यक्ष को निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार होगा।
स्थायी कर्मचारी नगरपरिषद् का दैनिक कार्य चलाने के लिए एक कार्यकारी अधिकारी होता है। उसे मासिक वेतन मिलता है। उसकी नियुक्ति नगरपरिषद् ही करती है। कहीं-कहीं कार्यकारी अधिकारी और सचिव दोनों ही होते हैं। सचिव कार्यकारी अधिकारी के अधीन कार्य करता है। इसके अतिरिक्त नगरपरिषद् के अन्य स्थायी अधिकारी भी होते हैं; जैसे इंजीनियर, स्वास्थ्य अधिकारी आदि। नगरपरिषद् के कार्य नगरपरिषद् के कार्यों को हम निम्नलिखित दो भागों में बाँट सकते हैं
1. अनिवार्य कार्य-ये वे कार्य हैं जो हर नगरपरिषद् को करने पड़ते हैं। नगरपरिषद् द्वारा अनिवार्य रूप से किए जाने वाले कार्य निम्नलिखित हैं-
- नगर में सड़कों तथा गलियों का निर्माण करवाना और पुरानी सड़कों तथा गलियों की मुरम्मत करवाना,
- शहरों की सड़कों तथा गलियों में सफाई का प्रबन्ध करना,
- बिजली तथा पानी का प्रबन्ध करना,
- आग बुझाने के लिए ‘फायर ब्रिगेड’ (Fire Brigade) की व्यवस्था करना,
- नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा का उचित प्रबन्ध करना,
- नगर में बनने वाले नए मकानों के नक्शे पास करना। पुराने तथा खतरनाक मकानों को गिरवाना या मालिकों को निर्देश देकर उनकी मुरम्मत करवाना,
- नगर में जन्म और मृत्यु का रिकॉर्ड रखना।
2. ऐच्छिक कार्य-ये वे कार्य हैं, जो यदि साधन और सुविधा हो तो नगरपरिषदों को करने चाहिएँ। बहुत-सी नगरपरिषदें, जिनके आय के साधन अच्छे हैं, ये कार्य भी करती हैं। नगरपरिषद् द्वारा किए जाने वाले निम्नलिखित कार्य उसके ऐच्छिक कार्यों के क्षेत्र में आते हैं-
- पुस्तकालयों तथा वाचनालयों की स्थापना करना और उनका प्रबन्ध करना,
- कुएँ, तालाब, खेल के मैदान आदि बनवाना,
- स्थानीय बसों, रेलगाड़ियों आदि की व्यवस्था करना,
- मेलों तथा मण्डियों का प्रबन्ध करना,
- पार्क, उद्यान आदि बनवाना,
- श्मशान तथा कब्रिस्तान के लिए स्थान निश्चित करना तथा उनका प्रबन्ध करना,
- शुद्ध दूध की सप्लाई का प्रबन्ध करना,
- खतरनाक उद्योग-धन्धों पर प्रतिबन्ध लगाना,
- गन्दी तथा मिलावट वाली वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना,
- प्रसूति केन्द्र, बाल-कल्याण केन्द्र आदि खोलना और उनका प्रबन्ध करना,
- प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध करना,
- प्रदर्शनियों का आयोजन करना,
- यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला या सराय आदि का निर्माण करना।
आय के साधन-नगरपरिषद की आय के साधन निम्नलिखित हैं-
- नगर में बाहर से आने वाली वस्तुओं पर नगरपरिषद् चुंगी कर (Octroi Duty) लगाती है। यह नगरपरिषद् की आय का मुख्य साधन है,
- नगरपरिषद् अपने क्षेत्र के मकानों पर कर लगाती है,
- नगरपरिषद् कई वस्तुओं के रखने पर लाइसेंस फीस लेती है। ताँगे, रेहड़ी, ठेला, साइकिल, रिक्शा आदि रखने के लिए नगरपरिषद् से लाइसेंस लेना होता है। इस लाइसेंस फीस से भी नगरपरिषद् को काफी आय होती है,
- पानी तथा बिजली कर से भी नगरपरिषद्को काफी आय होती है,
- नगरपरिषद् द्वारा स्थापित स्कूलों तथा अस्पतालों से प्राप्त फीस से भी इसे आय होती है,
- नगरों में किसी विशेष स्थान पर जाने के लिए या किसी नदी या पुल का प्रयोग करने के लिए नगरपरिषद् टोल-टैक्स अथवा मार्ग-कर लगाती है,
- नगरपरिषद् सिनेमा, नाटक, दंगल आदि पर भी मनोरंजन कर लगा सकती है,
- पशुओं पर कर लगाने से भी इसकी आय होती है,
- नगरपरिषद् की अपनी जिससे होने वाली आय नगरपरिषद के पास ही रहती है. (1) नगरपरिषद अपने क्षेत्र में कई प्रकार के ठेके देती है। जैसे मुख्य स्थानों पर साइकिल स्टैण्ड का ठेका, कूड़ा-कर्कट, खाद आदि का ठेका। इससे हुई आय भी नगरपरिषद् की आय है,
- मण्डियों, मेलों आदि पर कर लगाने से भी इसकी आय होती है,
- नौकाओं, पुलों पर कर लगाने से भी आय प्राप्त होती है।
नगरपरिषद पर सरकार का नियन्त्रण-नगरपरिषद् को स्थानीय शासन चलाने में पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं होती। उसे राज्य सरकार के निर्देशन तथा नियन्त्रण में कार्य करना पड़ता है। कभी-कभी तो सरकार का हस्तक्षेप इतना अधिक हो जाता है कि नगरपरिषद् के सदस्य न कोई स्वतन्त्र निर्णय ले पाते हैं और न ही कोई ठोस काम कर पाते हैं। राज्य सरकार अग्रलिखित तरीकों से नगरपरिषदों पर नियन्त्रण करती है
(1) ज़िले का ज़िलाधीश सरकार का प्रतिनिधि होता है। वह नगरपरिषद् के काम की देख-रेख करता है। नगरपरिषद् द्वारा किए गए हर प्रस्ताव की सूचना ज़िलाधीश को दी जाती है। यदि जिलाधीश यह समझे कि वह प्रस्ताव जनहित के विरुद्ध है, या उसे नगरपरिषद् ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके पास किया है, तो वह (जिलाधीश) उस प्रस्ताव को निरस्त कर सकता है,
(2) अपना काम ठीक से न करने पर नगरपरिषद् को जिलाधीश से चेतावनी मिलती है। यदि फिर भी नगरपरिषद् ठीक प्रकार से कार्य नहीं करती तो ज़िलाधीश सरकार से उस नगरपरिषद् को भंग करने की सिफारिश कर सकता है,
(3) सरकार कभी भी नगरपरिषद् के हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल कर सकती है,
(4) नगरपरिषद् द्वारा अपनाए गए उप-नियम सरकार की स्वीकृति के बाद ही लागू हो सकते हैं,
(5) सरकार कभी भी नगरपरिषद् को भंग करके वहाँ प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर सकती है,
(6) नगरपरिषद् के सदस्यों की संख्या सरकार ही निश्चित करती है,
(7) सरकार नगरपरिषद् के सदस्यों या सभापति को दोषी ठहराकर उनकी अवधि समाप्त होने से पहले भी उन्हें पद से हटा सकती है,
(8) नगरपरिषद् को अपनी वार्षिक रिपोर्ट सरकार को भेजनी होती है,
(9) नगरपरिषद् के प्रमुख अधिकारियों को सरकार की स्वीकृति के बाद ही नियुक्त किया जाता है। सरकार की सिफारिश पर उन्हें पद से हटाया जा सकता है,
(10) नगरपरिषद् अपना बजट पास करके सरकार के पास भेजती है, सरकार उसमें परिवर्तन कर सकती है,
(11) सरकार नगरपरिषद् को धन से सहायता देती है। इस सहायता के द्वारा वह नगरपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है। वह कुछ शर्ते लगा सकती है कि सहायता तभी मिलेगी, जब नगरपरिषद् ऐसा करेगी अथवा ऐसा नहीं करेगी।
निष्कर्ष-नगरपरिषदों का लोकतन्त्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। नगरपरिषदें नगर के विकास और कल्याण के लिए वे सब काम करती हैं जो दूर बैठी केन्द्रीय या राज्य सरकारें नहीं कर सकतीं। परन्तु हम देखते हैं कि हमारे यहाँ नगरपरिषदों पर राज्य सरकारों का बहुत अधिक नियन्त्रण है। अधिकतर नगरपरिषदें धन की कमी और अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अपना कार्य ठीक तरह से नहीं कर पातीं।
स्वतन्त्र भारत में नए-नए नगर बस रहे हैं। पुराने नगरों की जनसंख्या और क्षेत्र बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में नगरपरिषदों को समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान करना है। राज्य सरकार को चाहिए कि वे नगरपरिषदों को राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप से स्वतन्त्र करे, राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप से उन्हें मुक्त रखे तथा उन्हें पर्याप्त धन की सहायता दे।
प्रश्न 12.
शहरी स्थानीय संस्थाओं की कार्य-विधि में कौन-से दोष (त्रुटियाँ) हैं? उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? अथवा शहरी स्थानीय संस्थाओं की कार्य-विधि के दोष बताते हुए इन्हें दूर करने के उपाय बताएँ।
उत्तर:
भारत में शहरी स्थानीय संस्थाओं को पूरी तरह से लागू कर दिया गया है। परन्तु ये संस्थाएँ उतनी सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर रही हैं जितनी कि इनसे अपेक्षा की गई है। स्थानीय संस्थाओं की कार्यविधि में अनेक दोष हैं, जो निम्नलिखित हैं
1. धन की कमी स्थानीय संस्थाओं के कार्य तो राष्ट्र-निर्माण को ही सौंपे जाते हैं, परन्तु इनकी आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं होती, जिससे ये अपना कार्य सन्तोषजनक ढंग से कर सकें। स्थानीय संस्थाओं के पास उचित मात्रा में धन नहीं होता। इनकी आय के साधन बहुत कम हैं, जिनसे इतनी आय नहीं हो पाती कि वे अपने सभी कार्यों को ठीक प्रकार से कर सकें। धन की कमी के कारण ये संस्थाएँ अपने कर्तव्यों का पालन ठीक तरह से नहीं कर पातीं।
2. दलबन्दी की भावना-यह बात सर्वमान्य है कि स्थानीय संस्थाओं में राजनीतिक दलों का कोई उचित स्थान नहीं होता है। स्थानीय संस्था का सम्बन्ध एक नगर या गाँव से होता है और इसके कार्य सफाई, पानी, शिक्षा, सड़कों आदि तक सीमित होते हैं। इसके कुछ ऐसे कार्य भी होते हैं जिनमें राजनीतिक मतभेद की भावना नहीं की जा सकती।
इसके अतिरिक्त राजनीतिक दल स्थानीय स्वशासन के सारे ढाँचे को दलबन्दी की भावना से दूषित कर देते हैं। उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी दल-पद्धति के आधार पर होते हैं।
3. लोगों की उदासीनता-आम व्यक्ति स्थानीय संस्थाओं के प्रति उदासीन रहते हैं। स्थानीय संस्थाओं के चुनावों में लोगों की रुचि बहत कम है। आम स्थानीय प्रशासन के बारे में भी उनका रवैया ऐसा ही होता है जैसे कि उनका उससे कोई वास्ता ही न हो। लोगों की उदासीनता कई अन्य दोषों का कारण बन जाती है।
4. अयोग्य व्यक्तियों का चुना जाना प्रायः यह देखा गया है कि स्थानीय संस्थाओं में योग्य व्यक्तियों की बजाय अयोग्य व्यक्ति ही अधिक चुने जाते हैं। गाँवों में अधिकतर नागरिक अशिक्षित होते हैं, जिससे वे अपने मत का उचित प्रयोग नहीं कर पाते। मतदान योग्यता के आधार पर नहीं होता। कुछ चालाक व्यक्ति नागरिकों को बेवकूफ बनाकर वोट ले लेते हैं और अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए शासन चलाते हैं। .
5. अयोग्य कर्मचारी स्थानीय संस्थाओं के कर्मचारी प्रायः अयोग्य और भ्रष्ट होते हैं। उन्हें अपने कार्य के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं होती। वे रिश्वत (Bribery) जैसे भ्रष्ट तरीकों का भी प्रयोग करते हैं।
6. निष्पक्षता का अभाव-स्थानीय संस्थाएँ निष्पक्षता से कार्य नहीं करतीं। इसका यह परिणाम निकलता है कि लोगों का इनमें विश्वास नहीं रहता। पंचायतों में तो इनका और भी बुरा परिणाम निकलता है क्योंकि पंचायतों को न्यायिक कार्य भी करने पड़ते हैं। इससे पंचायत के द्वारा किए गए निर्णय निष्पक्ष तथा ठीक नहीं होते हैं।
7. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकार का हस्तक्षेप स्थानीय संस्थाएँ इसलिए भी अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाती क्योंकि इनके कार्यों में केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारें अधिक हस्तक्षेप करती रहती हैं और वे स्वतन्त्रता-पूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार कोई कार्य कर ही नहीं सकतीं। ऐसी दशा में स्थानीय संस्थाएँ सरकार के अधीन हो जाती हैं और वह उद्देश्य, जिसकी प्राप्ति के लिए इनकी स्थापना होती है, पूरा नहीं हो पाता।
8. जातीयता और साम्प्रदायिकता-उत्तर प्रदेश में स्थानीय संस्थाएँ जातीय और साम्प्रदायिकता के आधार पर कार्य करती हैं। स्थानीय सरकार के दोषों को दूर करने के उपाय-निम्नलिखित उपायों के द्वारा स्थानीय स्वशासन के दोषों को दूर किया जा सकता है तथा उसे सफल बनाया जा सकता है
1. शिक्षा का प्रसार स्थानीय संस्थाओं की सफलता के लिए जनता का शिक्षित होना पहली आवश्यकता है। शिक्षित व्यक्ति ही अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन कर सकते हैं और अपने उत्तरदायित्व को समझ सकते हैं। शिक्षित होने के कारण वे अपने मत का ठीक प्रयोग करेंगे और योग्य व्यक्तियों को चुनेंगे। योग्य व्यक्ति चुने जाने के पश्चात् निष्पक्षता से काम करेंगे और दलबन्दी के झगड़ों में नहीं पड़ेंगे।
2. आर्थिक दशा में सुधार-सरकार को चाहिए कि स्थानीय संस्थाओं की आर्थिक दशा में सुधार करे। उन्हें ‘कर’ (Tax) लगाने के लिए और भी अधिकार होने चाहिएँ तथा सरकार की तरफ से धन की अधिक सहायता मिलनी चाहिए। सरकार उन्हें जो धन दे, उसके साथ अनुचित शर्ते न रखे और न ही उन पर अधिक नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करे।
उच्च नैतिक स्तर-स्थानीय स्वशासन की सफलता के लिए लोगों का उच्च नैतिक स्तर भी बड़ा आवश्यक है। यदि लोगों का चरित्र ऊँचा होगा तो वे जो भी कार्य करेंगे, जन-हित के लिए करेंगे और निजी स्वार्थ या अपने दल, जाति आदि के स्वार्थ के लिए नहीं करेंगे। ऐसे व्यक्ति ही स्थानीय संस्थाओं को निष्पक्ष बना सकते हैं।
4. आदर्श जनमत-स्थानीय स्वशासन की सफलता अथवा असफलता जनमत पर भी निर्भर करती है। कई बार लोगों के गलत प्रचार अथवा अफवाहों से नगर या ग्राम का वातावरण खराब हो जाता है, जिसका बुरा प्रभाव स्थानीय संस्थाओं पर भी पड़ता है। अतः स्थानीय स्वशासन की सफलता के लिए आदर्श जनमत का निर्माण करना आवश्यक है।
5. सक्रिय रुचि स्थानीय संस्थाओं की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नगर अथवा गाँव के नागरिक अपनी स्थानीय समस्याओं के हल के लिए सक्रिय रूप से भाग लें। यह आमतौर पर देखा जाता है कि नागरिक अपने व्यक्तिगत कार्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे स्थानीय समस्याओं को हल करने में कोई रुचि नहीं रखते। सक्रिय रुचि के बिना स्थानीय संस्थाओं में सुधार होना कठिन है।
6. स्वायत्तता-स्थानीय संस्थाओं को और भी अधिक अधिकार मिलने चाहिएँ तथा उनके कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप कम-से-कम होना चाहिए। सरकारी हस्तक्षेप के कारण इन संस्थाओं में कार्य करने का उत्साह नहीं रहता। सरकार इन संस्थ निगरानी रखे, इनको आवश्यक सहयोग दे और उनके कार्यों में समन्वय लाने का कार्य करे। भाव यह है कि सरकार । पथ-प्रदर्शक की भूमिका अभिनीत करे। सरकार को इस बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि कोई संस्था कुछ गलतियाँ करती है। कुछ गलतियों के बाद ही उसमें सुधार स्वयंमेव हो जाएगा।
7. कर्मचारियों में सुधार स्थानीय संस्थाओं में किए गए सुधार तब तक लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकते, जब तक कर्मचारियों को योग्यता के आधार पर नियुक्त नहीं किया जाएगा। कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने के लिए उचित व पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए और उनके वेतन भी सरकारी कर्मचारियों के समान होने चाहिएँ। इस सम्बन्ध में प्रान्तीयकरण (Provincialization) की नीति को अपनाना चाहिए।
निष्कर्ष-73वें तथा 74वें संवैधानिक संशोधनों द्वारा पंचायती राज तथा शहरी स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है और इन संस्थाओं के दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। आशा है कि अब इन संस्थाओं के कुशल संचालन से भारत में लोकतन्त्र की जड़ें और अधिक मजबूत होंगी।
वस्तु निष्ठ प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें
1. भारत में वर्तमान ग्रामीण स्थानीय शासन (पंचायती राज) व्यवस्था निम्नलिखित संवैधानिक संशोधन पर आधारित है
(A) 73वें
(B) 74वें
(C) 75वें
(D) 72वें
उत्तर:
(A) 73वें
2. निम्न स्थानीय शासन का महत्त्व है
(A) लोकतंत्र की पाठशाला
(B) प्रशासन में कुशलता
(C) धन का बजट
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
3. 73वें संवैधानिक संशोधन की विशेषता है
(A) दो-स्तरीय पंचायती राज
(B) तीन-स्तरीय पंचायती राज
(C) चार-स्तरीय पंचायती राज
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) तीन-स्तरीय पंचायती राज
4. ग्राम पंचायत की बैठकों की अध्यक्षता करता है
(A) सरपंच
(B) महापौर
(C) वरिष्ठ पंच
(D) डिप्टी कमिश्नर
उत्तर:
(A) सरपंच
5. पंचायती राज संस्थाओं (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद्) का निश्चित कार्यकाल निम्नलिखित है
(A) 3 वर्ष
(B) 4 वर्ष
(C) 5 वर्ष
(D) 6 वर्ष
उत्तर:
(C) 5 वर्ष
6. सरपंच का चुनाव किया जाता है
(A) पंचायत के सदस्यों द्वारा
(B) राज्य सरकार द्वारा
(C) प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं द्वारा
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं द्वारा
7. महिलाओं के लिए स्थानीय संस्थाओं में सदस्यों की निम्न मात्रा में स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं
(A) 1/2
(B) 1/5
(C) 1/3
(D) 1/4
उत्तर:
(A) 1/2
8. ग्राम पंचायत का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम आयु होनी चाहिए
(A) 18 वर्ष
(B) 21 वर्ष
(C) 25 वर्ष
(D) 20 वर्ष
उत्तर:
(B) 21 वर्ष
9. वर्तमान स्थिति में शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना निम्नलिखित संवैधानिक संशोधन के आधार पर की जाती है
(A) 73वें
(B) 74वें
(C) 75वें
(D) 76वें
उत्तर:
(B) 74वें
10. बड़े शहरों में स्थापित स्थानीय शासन की इकाई है
(A) ज़िला-परिषद्
(B) नगर-परिषद्
(C) नगर-निगम
(D) छावनी बोर्ड
उत्तर:
(C) नगर-निगम
11. प्रत्येक नगर-निगम में महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित होंगे
(A) 1/4
(B) 1/3
(C) 1/5
(D) 1/10
उत्तर:
(B) 1/3
12. नगर निगम का अध्यक्ष होता है
(A) अध्यक्ष
(B) गवर्नर
(C) मुख्यमंत्री
(D) महापौर
उत्तर:
(D) महापौर
13. नगर निगम का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम आयु होनी चाहिए
(A) 18 वर्ष
(B) 20 वर्ष
(C) 21 वर्ष
(D) 25 वर्ष
उत्तर:
(C) 21 वर्ष
14. महापौर का चुनाव किया जाता है
(A) मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से
(B) नगर निगम के सदस्यों द्वारा किसी भी व्यक्ति को
(C) नगर निगम के सदस्यों द्वारा अपने में से
(D) राज्य सरकार द्वारा
उत्तर:
(C) नगर निगम के सदस्यों द्वारा अपने में से
15. नगर-परिषद् की स्थापना की जाती है
(A) छोटे शहरों में
(B) बहुत बड़े शहरों में
(C) जिला स्तर पर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) छोटे शहरों में
16. निम्न नगर-परिषद्/नगर निगम की आय का साधन है
(A) विभिन्न करों से होने वाली आय
(B) सरकारी अनुदान
(C) गृह-कर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें
1. पंचायत समिति का गठन किस स्तर पर किया जाता है?
उत्तर:
पंचायत समिति का गठन ब्लॉक (Block) अथवा खण्ड स्तर पर किया जाता है।
2. पंचायत समिति की योजनाओं को लागू करने में सहायता करने वाले अधिकारी का नाम लिखें।
उत्तर:
खण्ड विकास अधिकारी (Block Development Officer)।
3. भारत में पहली पंचायत कब और कहाँ पर गठित की गई थी?
उत्तर:
2 अक्तूबर, 1959 को नागौर (राजस्थान) में।
4. ग्राम सभा की बैठकें कितनी बार होनी आवश्यक हैं?
उत्तर:
वर्ष में दो बार, प्रतिवर्ष 13 अप्रैल और 2 अक्तूबर को ग्राम सभा की बैठकें होनी आवश्यक हैं।
5. संविधान के कौन-से संशोधन के अनुसार नगरपालिकाओं की स्थिति को संवैधानिक दर्जा दिया गया है?
उत्तर:
74वें संशोधन में।
6. संविधान की 12वीं अनुसूची में नगरपालिकाओं के अधिकार क्षेत्र में कितने विषय रखे गए हैं?
उत्तर:
18 विषय।
7. ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को क्या कहते हैं?
उत्तर:
सरपंच।
8. नया पंचायती राज अधिनियम देश में कब लागू किया गया?
उत्तर:
सन् 1993 में।
9. ग्राम सभा का आषाढ़ी अधिवेशन कब बुलाया जाता है?
उत्तर:
13 अप्रैल को।
10. पंचायत समिति के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को निश्चित अवधि से पूर्व कैसे हटाया जा सकता है?
उत्तर:
2/3 बहुमत द्वारा।
11. पंचायती राज संस्थाओं की सफलता के मार्ग में कोई एक बाधा बताएँ।
उत्तर:
निरक्षरता।
12. बलवंत राय मेहता समिति ने देहातों के विकास के लिए किस प्रणाली को लागू करने का सुझाव दिया?
उत्तर:
पंचायती राज को लागू करने का सुझाव।
13. पंचायती राज संस्थाओं पर सरकार के नियंत्रण का कोई एक साधन लिखिए।
उत्तर:
प्रशासकीय नियंत्रण।
14. हरियाणा पंचायती राज अधिनियम राज्य विधानसभा द्वारा कब पारित किया गया?
उत्तर:
17 मार्च, 1994 को।
15. ग्राम सभा में विशेष बैठक या अधिवेशन हेतु कितने सदस्यों को अनुरोध करना पड़ता है?
उत्तर:
1/5 सदस्यों को।
16. भारत में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा कब दिया गया?
उत्तर:
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सन् 1992 में।
17. हरियाणा में कितने नगर निगम हैं?
उत्तर:
10
18. नगर निगम के अध्यक्ष को क्या कहते हैं?
उत्तर:
मेयर।
19. हरियाणा पंचायती राज अधिनियम कब पारित किया गया?
उत्तर:
सन् 1994 में।
20. जिला-परिषद् का गठन किस स्तर पर किया जाता है?
उत्तर:
ज़िला-स्तर पर।
रिक्त स्थान भरें
1. 73वां संवैधानिक संशोधन सन् ……………. में लागू हुआ।
उत्तर:
24 अप्रैल, 1993
2. ग्राम पंचायत एवं जिला परिषद के मध्य ……………. का गठन किया गया है।
उत्तर:
पंचायत समिति
3. हरियाणा में पंचायती राज अधिनियम …………… को लागू किया गया।
उत्तर:
22 अप्रैल, 1994
4. ग्राम पंचायत के सदस्य हेतु न्यूनतम आयु …………. वर्ष होनी चाहिए।
उत्तर:
21
5. ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को …………… कहते हैं।
उत्तर:
सरपंच
6. नगर निगम के सदस्य को ……………. कहते हैं।
उत्तर:
महापौर
7. नगर निगम के अध्यक्ष को ……………. कहते हैं।
उत्तर:
मेयर
8. हरियाणा में ……………. नगर निगम हैं।
उत्तर:
10
9. स्थानीय संस्थाओं पर ……………. सरकार का नियन्त्रण है।
उत्तर:
राज्य
10. नगरपालिका के सदस्य को ……………. कहा जाता है।
उत्तर:
नगर-पार्षद