Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका Important Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका
अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कार्यपालिका का क्या अर्थ है?
उत्तर:
कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करती है।
प्रश्न 2.
ऐसे दो राज्यों के नाम बताइए जिनमें इकहरी कार्यपालिका है।
उत्तर:
- भारत तथा
- संयुक्त राज्य अमेरिका में इकहरी कार्यपालिका है।
प्रश्न 3.
ऐसे दो राज्यों के नाम बताइए जिनमें बहुल कार्यपालिका है।
उत्तर:
- स्विट्ज़रलैंड तथा
- रूस में बहुल कार्यपालिका है।
प्रश्न 4.
कार्यपालिका के कोई दो प्रकार बताएँ।
उत्तर:
- एकल कार्यपालिका,
- बहुल कार्यपालिका।
प्रश्न 5.
एकल कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
यदि कार्यकारी शक्तियाँ किसी एक व्यक्ति को अर्पित की जाएँ, तो वह एकल कार्यपालिका होती है; जैसे भारत तथा अमेरिका में एकल कार्यपालिका है।
प्रश्न 6.
बहुल कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
यदि कार्यकारी शक्तियाँ कुछ व्यक्तियों के समूह अथवा समिति को प्रदान की जाएँ तो उसे बहुल कार्यपालिका कहा जाता है; जैसे स्विट्ज़रलैंड तथा रूस में बहुल कार्यपालिका है।
प्रश्न 7.
पैतृक कार्यपालिका किसे कहा जाता है? दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
पैतृक कार्यपालिका में राजा का पद पैतृक अथवा वंशज होता है; जैसे इंग्लैंड तथा जापान में पैतृक कार्यपालिका है।
प्रश्न 8.
मनोनीत कार्यपालिका किसे कहते हैं? कोई उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
जब राज्याध्यक्ष किसी उच्च राज्याध्यक्ष द्वारा मनोनीत किया जाए तो उसे मनोनीत कार्यपालिका कहा जाता है; जैसे भारत में राज्यों के राज्यपाल।
प्रश्न 9.
वास्तविक कार्यपालिका किसे कहते हैं? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
वास्तविक कार्यपालिका वह है जो वास्तविक रूप में कार्यपालिका की शक्तियों का प्रयोग करती है। भारत में प्रधानमंत्री तथा मंत्रिमंडल और अमेरिका में राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है।
प्रश्न 10.
नाममात्र की कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
जब संविधान द्वारा प्राप्त शक्तियों का प्रयोग स्वयं न करके उसके नाम पर अन्य व्यक्ति अथवा संस्था शक्तियों का प्रयोग करते हैं; जैसे भारत में राष्ट्रपति, इंग्लैण्ड में राजा अथवा रानी। उसे नाममात्र की कार्यपालिका कहा जाता है।
प्रश्न 11.
राजनीतिक कार्यपालिका किसे कहा जाता है?
उत्तर:
राजनीतिक कार्यपालिका ऐसी कार्यपालिका को कहा जाता है जो कुछ समय के लिए चुनाव अथवा अन्य साधन द्वारा नियुक्त की जाती है।
प्रश्न 12.
स्थाई कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
स्थाई कार्यपालिका कुछ शैक्षणिक अथवा तकनीकी योग्यता के आधार पर एक लंबी अवधि के लिए नियुक्त की जाती है। इसमें नौकरशाही तथा अन्य सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं।
प्रश्न 13.
भारत में संसदीय शासन प्रणाली के अपनाए जाने के दो कारण लिखें।
उत्तर:
- उत्तरदायित्व तथा स्थिरता,
- वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना।
प्रश्न 14.
भारत में संसदीय शासन प्रणाली की दो मुख्य विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
- विधानपालिका तथा कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध,
- व्यक्तिगत उत्तरदायित्व।
प्रश्न 15.
भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में कौन-से सदस्य होते हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति के निर्वाचक-मंडल में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य तथा राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं।
प्रश्न 16.
राष्ट्रपति पद की दो अयोग्यताएँ बताएँ।
उत्तर:
राष्ट्रपति पद पर ऐसा व्यक्ति आसीन नहीं हो सकता, जिसमें निम्नलिखित दो अयोग्यताएँ हों-
- वह दिवालिया या पागल घोषित किया जा चुका हो,
- वह सरकार के किसी लाभ के पद पर कार्यरत हो।
प्रश्न 17.
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की दो कमियाँ बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की निम्नलिखित दो कमियाँ हैं-
- यह प्रणाली अलोकतांत्रिक है क्योंकि इसमें जनता प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेती,
- यह प्रणाली बड़ी जटिल है।।
प्रश्न 18.
राष्ट्रपति का कार्यकाल कितना होता है? क्या उसको समय से पूर्व हटाया जा सकता है?
उत्तर:
राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष होता है और उसे संसद महाभियोग द्वारा समय से पूर्व हटा सकती है।
प्रश्न 19.
राष्ट्रपति को कौन और किस आधार पर हटा सकता है?
उत्तर:
राष्ट्रपति को संविधान की रक्षा न कर पाने के आरोप में संसद महाभियोग द्वारा हटा सकती है।
प्रश्न 20.
राष्ट्रपति का पारिश्रमिक तथा अवकाश प्राप्ति पर पेन्शन बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति को 5 लाख रुपए मासिक धनराशि तथा सेवानिवृत्त होने पर मूल वेतन का 50% पैंशन मिलती है।
प्रश्न 21.
क्या राष्ट्रपति को दोबारा चुना जा सकता है? क्या कोई दोबारा राष्ट्रपति चुना गया है?
उत्तर:
राष्ट्रपति को दोबारा चुना जा सकता है और अब तक केवल एक बार डॉ० राजेंद्र प्रसाद को दोबारा राष्ट्रपति चुना गया था।
प्रश्न 22.
राष्ट्रपति के दो विशेषाधिकार बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति के निम्नलिखित दो विशेषाधिकार हैं-
- राष्ट्रपति अपनी शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं है,
- राष्ट्रपति पर कार्यकाल के दौरान दीवानी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता है।
प्रश्न 23.
राष्ट्रपति की दो कार्यपालिका शक्तियाँ बताएँ।
उत्तर:
राष्ट्रपति की दो कार्यपालिका शक्तियाँ हैं-
- राष्ट्रपति प्रधानमंत्री व अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है,
- राष्ट्रपति तीनों सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है।
प्रश्न 24.
राष्ट्रपति की दो न्यायिक शक्तियाँ बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति की दो न्यायिक शक्तियाँ हैं-
- सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करना,
- संवैधानिक मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेना।
प्रश्न 25.
राष्ट्रपति की दो विधायी शक्तियाँ बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति के दो वैधानिक अधिकार या विधायी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
- संसद का अधिवेशन बुलाना.व सत्रावसान करना,
- विधेयकों को स्वीकृति देना।
प्रश्न 26.
राष्ट्रपति को कितने प्रकार की संकटकालीन शक्तियाँ प्राप्त हैं? उनमें से किसी एक शक्ति को लिखें।
उत्तर:
राष्ट्रपति को तीन प्रकार की संकटकालीन शक्तियाँ प्राप्त हैं। जब देश में वित्तीय संकट उत्पन्न हो जाए तो राष्ट्रपति वित्तीय संकट की उद्घोषणा कर सकता है।
प्रश्न 27.
राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपास्थिति कब लागू कर सकता है? अब तक कितनी बार ऐसी आपात स्थिति लागू की जा चुकी है?
उत्तर:
जब देश की सुरक्षा को युद्ध, बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से संकट उत्पन्न हो जाए तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अधीन, राष्ट्रीय आपात स्थिति की उद्घोषणा कर सकता है। ऐसी आपास्थिति अब तक तीन बार 1962, 1971 तथा 1975 में लागू की जा चुकी है।
प्रश्न 28.
राष्ट्रपति अध्यादेश कब जारी कर सकता है? अध्यादेश कितनी देर प्रभावी रह सकता है?
उत्तर:
जब संसद का अधिवेशन न चल रहा हो और देश में संकटकालीन परिस्थिति उत्पन्न हो जाए, तो राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर सकता है। अध्यादेश अधिक-से-अधिक 6 महीने तक प्रभावी रह सकता है।
प्रश्न 29.
उप-राष्ट्रपति को हटाने संबंधी प्रस्ताव किस सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है और उसे कैसे हटाया जा सकता है?
उत्तर:
उप-राष्ट्रपति को हटाने संबंधी प्रस्ताव केवल राज्य सभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है। जब संसद के दोनों सदन अलग-अलग सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पारित कर दें तो उप-राष्ट्रपति को उसी समय पद छोड़ना पड़ता है।
प्रश्न 30.
राष्ट्रपति राज्य सभा के कितने सदस्य मनोनीत कर सकता है ?
उत्तर:
राष्ट्रपति राज्य सभा में बारह (12) सदस्य मनोनीत कर सकता है।
प्रश्न 31.
उप-राष्ट्रपति के पद की दो योग्यताएँ बताइए।
उत्तर:
उप-राष्ट्रपति के पद की दो आवश्यक योग्यताएँ हैं
- वह भारत का नागरिक हो।
- वह कम-से-कम 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
प्रश्न 32.
राष्ट्रपति पद के लिए कितने सदस्य नाम प्रस्तावित करते हैं और कितने अनुमोदित करते हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए निर्वाचक-मंडल के कम-से-कम पचास (50) सदस्य नाम प्रस्तावित करते हैं और पचास (50) सदस्य ही अनुमोदित करते हैं।
प्रश्न 33.
उप-राष्ट्रपति को कितने प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं?
उत्तर:
उपराष्ट्रपति को दो प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं
- उप-राष्ट्रपति के रूप में,
- राज्य सभा के सभापति के रूप में।
प्रश्न 34.
उप-राष्ट्रपति के राज्य सभा अध्यक्ष के रूप में दो कार्य बताइए।
उत्तर:
- वह राज्य सभा के अधिवेशनों की अध्यक्षता करता है,
- वह राज्य सभा की कार्रवाई का संचालन करता है।
प्रश्न 35.
राष्ट्रपति राज्य में आपातस्थिति कब और संविधान के किस अनुच्छेद के अधीन लगा सकता है? ।
उत्तर:
राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन राज्य में आपास्थिति लागू कर सकता है, जब राज्यपाल की रिपोर्ट पर अथवा अन्य किसी सूत्र प्राप्त सूचना के आधार पर राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि राज्य में संवैधानिक तन्त्र असफल हो गया है।
प्रश्न 36.
मंत्रिमंडल के दो कार्य लिखें।
उत्तर:
- मंत्रिमंडल देश का प्रशासन चलाता है,
- मंत्रिमंडल देश की आर्थिक, गृह व विदेश-नीति इत्यादि तय करता है।
प्रश्न 37.
भारतीय मंत्रिमंडलीय प्रणाली की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
- राष्ट्रपति नाममात्र का संवैधानिक अध्यक्ष है। वास्तविक शक्तियाँ प्रधानमंत्री के हाथों में हैं,
- मंत्रिमंडल संसद के प्रति उत्तरदायी है।
प्रश्न 38.
प्रधानमन्त्री के मंत्रिमंडल के नेता के रूप में दो कार्य लिखें।
उत्तर:
- राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है,
- प्रधानमंत्री मंत्रियों के बीच विभागों का बँटवारा करता है।
प्रश्न 39.
राष्ट्रपति की दो वित्तीय शक्तियाँ लिखें।।
उत्तर:
- राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना संसद में कोई धन-विधेयक पेश नहीं किया जा सकता,
- राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति करता है।
प्रश्न 40.
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के दो दोष बताइए।
उत्तर:
- नागरिकों के मौलिक अधिकार स्थगित किए जा सकते हैं,
- संघात्मक ढाँचा एकात्मक में बदल जाता है।
प्रश्न 41.
प्रधानमन्त्री के कार्यकाल की अवधि बताइए।
उत्तर:
प्रधानमंत्री के कार्यकाल की अवधि निश्चित नहीं होती है। प्रधानमंत्री तब तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक उसे लोक सभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है।
प्रश्न 42.
भारत में वित्तीय आपात् स्थिति संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत लागू की जाती है? उसे अब तक कितनी बार लागू किया जा चुका है?
उत्तर:
संविधान के अनुच्छेद 360 के अन्तर्गत वित्तीय आपात स्थिति लागू की जाती है। भारत में अभी तक वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं की गई है।
प्रश्न 43.
उप-राष्ट्रपति को कितना वेतन मिलता है?
उत्तर:
उप-राष्ट्रपति को अपने उप-राष्ट्रपति पद के रूप में कोई वेतन नहीं मिलता। उन्हें केवल उप-सभापति के रूप में 4 लाख रुपए मासिक वेतन मिलता है।
प्रश्न 44.
राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने के लिए उसके नाम का प्रस्ताव कितने सदस्यों द्वारा प्रस्तावित, अनुमोदित होना आवश्यक है?
उत्तर:
राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित प्रत्याशी बनने के लिए उनके नाम का प्रस्ताव 50 सदस्यों द्वारा प्रस्तावित एवं 50 सदस्यों के द्वारा अनुमोदित होना चाहिए।
प्रश्न 45.
उप-राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने के लिए उसके नाम का प्रस्ताव कितने सदस्यों द्वारा प्रस्तावित एवं अनुमोदित होना चाहिए?
उत्तर:
उप-राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने के लिए उसके नाम का प्रस्ताव 20 सदस्यों द्वारा प्रस्तावित एवं 20 के द्वारा ही अनुमोदित होना चाहिए।
प्रश्न 46.
भारत में मन्त्रिमण्डल के दो लक्षण बताएँ।
उत्तर:
- राष्ट्रपति मंत्रिमंडल का सदस्य नहीं होता। वह उसकी बैठकों में भाग नहीं लेता,
- मंत्रिमंडल संसद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है।
प्रश्न 47.
मन्त्रियों की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री के परामर्श के अनुसार की जाती है।
प्रश्न 48.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति द्वारा प्रायः उसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है जिसे लोक सभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है।
प्रश्न 49.
प्रधानमन्त्री के कोई दो कार्य बताएँ।
उत्तर:
- वह मंत्रिमंडल की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है,
- वह राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होता है।
प्रश्न 50.
राज्यपाल बनने के लिए आवश्यक दो योग्यताएँ बताइए।
उत्तर:
- वह भारत का नागरिक हो,
- उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
प्रश्न 51.
सरकारिया आयोग द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में दी गई दो सिफारिशें लिखें।
उत्तर:
- राज्यपाल की नियुक्ति संबंधित राज्य सरकार के साथ सलाह-मशविरा करने के बाद ही की जाए,
- निकट भूतकाल में सक्रिय दलीय राजनीति से जुड़े व्यक्ति को राज्यपाल न बनाया जाए।
प्रश्न 52.
राज्यपाल की दो कार्यपालिका शक्तियाँ लिखें।
उत्तर:
- मुख्यमंत्री व मंत्रियों की नियुक्ति करना,
- मंत्रि-परिषद् की सलाह से राज्य में उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करना।
प्रश्न 53.
राज्यपाल की दो विधायी शक्तियाँ बताइए।
उत्तर:
- राज्यपाल विधानमंडल का अधिवेशन बुला सकता है और स्थगित भी कर सकता है,
- राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है।
प्रश्न 54.
राज्यपाल की दो न्यायिक शक्तियाँ बताइए।
उत्तर:
- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में सलाह देना,
- जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति करना।
प्रश्न 55.
राज्यपाल की दो न्यायिक उन्मक्तियाँ बताइए।
उत्तर:
- राज्यपाल पर उसके कार्यकाल के दौरान फौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता,
- राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय द्वारा उसे नज़रबंद करने की आज्ञा नहीं दी जा सकती।
प्रश्न 56.
राज्यपाल की दो स्व-विवेकी शक्तियाँ बताइए।
उत्तर:
- राज्यपाल अनुच्छेद 356 के अधीन राज्य में आपात स्थिति की सिफारिश कर सकता है,
- वह किसी भी राज्य विधेयक को राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेज सकता है।
प्रश्न 57.
राज्यपाल किन दो परिस्थितियों में विधान सभा को समय से पहले भंग कर सकता है?
उत्तर:
- जब ऐसा करने की सलाह मुख्यमंत्री दे,
- जब विधान सभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो और कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में न हो।
प्रश्न 58.
राज्य कार्यपालिका का नाममात्र व वास्तविक अध्यक्ष कौन है?
उत्तर:
राज्य कार्यपालिका का नाममात्र का अध्यक्ष राज्यपाल होता है और वास्तविक अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है।
प्रश्न 59.
राज्यपाल का कार्यकाल कितना निश्चित किया गया है? क्या उसे पहले भी पद से हटाया जा सकता है?
उत्तर:
राज्यपाल का कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है। राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल का कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी उसे पद से हटाया जा सकता है।
प्रश्न 60.
राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्यमंत्री के परामर्श के अनुसार की जाती है।
प्रश्न 61.
मुख्यमंत्री की नियुक्ति किसके द्वारा की जाती है?
उत्तर:
मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। राज्यपाल द्वारा उसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त किया जाता है जो राज्य विधान सभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है।
प्रश्न 62.
मुख्यमन्त्री का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
मुख्यमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं होता। वह उतने समय तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक उसे विधान सभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त रहता है।
प्रश्न 63.
राजनीतिक कार्यपालिका तथा स्थाई कार्यपालिका में दो अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
- राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर तथा स्थाई कार्यपालिका की नियुक्ति कर्मचारियों की योग्यता के आधार पर की जाती है,
- राजनीतिक कार्यपालिका नीतियाँ बनाती है, स्थाई कार्यपालिका उन्हें लागू करती है।
प्रश्न 64.
अच्छी प्रशासनिक सेवा के दो गुण बताएँ।
उत्तर:
- लोक-सेवक कर्त्तव्यनिष्ठ होने चाहिएँ,
- उन्हें जनता के हितों का ध्यान रखना चाहिएँ।
प्रश्न 65.
नौकरशाही से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
तकनीकी दृष्टि से कुशल कर्मचारियों का संगठन जो निष्पक्ष होकर राज्य का कार्य करता है, उसे नौकरशाही कहा जाता है।
प्रश्न 66.
नौकरशाही की दो विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
- नौकरशाही राजनीतिक रूप से तटस्थ होती है,
- वह नियमानुसार कार्य करती है।
प्रश्न 67.
नौकरशाही के कोई दो कार्य बताएँ।
उत्तर:
- मंत्रियों को परामर्श देना,
- सरकार की नीतियों को लागू करना।
प्रश्न 68.
वचनबद्ध नौकरशाही का क्या अर्थ है?
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ है कि नौकरशाही किसी विशेष राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बँधी रहती है और उस दल के निर्देशों के अनुसार ही कार्य करती है।
प्रश्न 69.
नौकरशाही के दो दोष बताइए।
उत्तर:
- लाल फीताशाही,
- जन-साधारण की माँगों की उपेक्षा।
प्रश्न 70.
वचनबद्ध नौकरशाही के पक्ष में कोई तर्क दीजिए।
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही में सरकार की नीतियों तथा कार्यक्रमों को दृढ़ता से लागू किया जा सकता है।
प्रश्न 71.
वचनबद्ध नौकरशाही के विपक्ष में (विरुद्ध) कोई तर्क दीजिए।
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही अपना कार्य निष्पक्ष रूप से नहीं कर सकती।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कार्यपालिका के कोई पाँच कार्य बताएँ।
उत्तर:
कार्यपालिका के मुख्य पाँच कार्य इस प्रकार हैं-
- कार्यपालिका का मुख्य कार्य कानूनों को लागू करना तथा देश में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना है,
- कार्यपालिका अनेक उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करती है,
- कार्यपालिका देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति का निर्माण करती है,
- कार्यपालिका सरकार का वार्षिक बजट तैयार करती है और उसे विधानमण्डल से पास करवाती है,
- कार्यपालिका अन्य देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करती है, वह अन्य देशों में जाने वाले राजदूतों की नियुक्ति करती है तथा अन्य देशों से आने वाले राजदूतों का स्वागत करती है। कार्यपालिका ही अन्य देशों के साथ सन्धियाँ एवं समझौते करती है।
प्रश्न 2.
एकल तथा बहुकार्यपालिका में भेद स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यदि संविधान द्वारा समस्त शक्तियाँ एक ही व्यक्ति (अधिकारी) में निहित होती हैं, तो उसे एकल कार्यपालिका कहते हैं। भारत तथा अमेरिका के राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका के उदाहरण हैं। इन दोनों देशों में कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में दी गई हैं। इसके दूसरी ओर जब कार्यपालिका शक्तियाँ एक व्यक्ति में निहित न होकर, कुछ व्यक्तियों अथवा किसी समिति में निहित होती हैं, तो उसे बहु-कार्यपालिका कहा जाता है। स्विट्ज़रलैण्ड की संघीय परिषद् (Federal Council), जिसमें 7 सदस्य हैं, इस प्रकार की कार्यपालिका का उदाहरण है।
प्रश्न 3.
कार्यपालिका के अध्यक्ष के प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुण तथा अवगुण बताइए।
उत्तर:
कार्यपालिका का अध्यक्ष प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा अर्थात् सीधा जनता द्वारा चुना जा सकता है। इसके गुण तथा अवगुण निम्नलिखित हैं
गुण-
- यह विधि अधिक लोकतान्त्रिक है,
- इससे जनता की सार्वजनिक मामलों में रुचि बढ़ती है,
- प्रत्यक्ष चुनाव में जनता उसी व्यक्ति को चुनती है जिसकी योग्यता तथा ईमानदारी पर उसे पूरा विश्वास होता है।
अवगुण-
- चुनाव क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत होने से जनता को उम्मीदवार के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती,
- इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
प्रश्न 4.
संसदीय कार्यपालिका की पाँच विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
संसदीय कार्यपालिका की पाँच विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) संसदीय सरकार में दो तरह की कार्यपालिका होती है। एक वास्तविक कार्यपालिका तथा दूसरी नाममात्र की कार्यपालिका। एक राज्याध्यक्ष तथा दूसरा सरकार का अध्यक्ष,
(2) संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। मन्त्रिमण्डल का व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोहरा उत्तरदायित्व होता है,
(3) संसदीय कार्यपालिका में विधानपालिका तथा कार्यपालिका में गहरा सम्बन्ध होता है। दोनों एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं,
(4) संसदीय कार्यपालिका में मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में राजनीतिक विचारों की एकरूपता तथा समानता होती है,
(5) संसदीय कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित नहीं होता। कार्यपालिका के सदस्य उतने समय तक अपने पद पर बने रहते हैं, जब तक उन्हें विधानमण्डल में बहमत का समर्थन प्राप्त रहता है। जब वे यह समर्थन खो बैठते हैं, तो उन्हें अपना त्यागपत्र देना पड़ता है।
प्रश्न 5.
कार्यपालिका के विधायी (कानून सम्बन्धी) कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यद्यपि कानून बनाना विधानमण्डल का कार्य है, परन्तु कार्यपालिका को भी कुछ कानून-सम्बन्धी अधिकार प्राप्त होते हैं। ये इस प्रकार हैं-
(1) जिन देशों में संसदीय सरकार की स्थापना की गई है, उन देशों में कार्यपालिका का अध्यक्ष ही संसद का अधिवेशन बुलाता है तथा उसे स्थगित करता है,
(2) कार्यपालिका के अध्यक्ष को संसद के निचले सदन को उसका निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी भंग करने का अधिकार होता है,
(3) कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं। वे विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं, विधेयकों को पेश करते हैं तथा उन्हें पास करवाते हैं,
(4) जिस समय विधानमण्डल का अधिवेशन न चल रहा हो, कार्यपालिका के अध्यक्ष को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने का अधिकार होता है,
(5) कई देशों में कार्यपालिका के अध्यक्ष को विधानमण्डल में कुछ सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त होता है। भारत का राष्ट्रपति राज्य सभा में 12 सदस्य मनोनीत करता है।
प्रश्न 6.
कार्यपालिका की शक्ति के विस्तार के कोई पाँच कारण बताएँ।
उत्तर:
कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं
1. दलीय पद्धति-आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्यों में सरकार दलीय-पद्धति के आधार पर चलाई जाती है, जिस राजनीतिक दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त हो जाता है, वह सरकार का गठन करता है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण संसद में कुछ भी पास करवाना आसान होता है।
2. निम्न सदन को भंग करने का अधिकार-संसदीय शासन-प्रणाली में कार्यपालिका के अध्यक्ष को संसद के निम्न सदन को भंग करने का अधिकार होता है। विधानमण्डल इस भय के कारण कार्यपालिका की नीतियों एवं कानूनों को स्वीकृति दे देती है।
3. जन-कल्याणकारी राज्य की धारणा-वर्तमान युग में राज्य को जन-कल्याणकारी संस्था समझा जाता है। इसका अर्थ यह है कि राज्य जनता की भलाई के लिए अनेक कार्य करता है, जिससे कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में बहुत वृद्धि हो गई है।
4. प्रदत्त व्यवस्थापन-काम की अधिकता, विशेष ज्ञान की कमी व समय की कमी के कारण विधानमण्डल के लिए प्रत्येक कानून को पूरे विस्तृत रूप में पास करना सम्भव नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप, विधानमण्डल कानून की रूपरेखा का निर्माण करके विस्तृत नियम तथा अधिनियम बनाने का कार्य कार्यपालिका पर छोड़ देती है।
इस सम्बन्ध में कार्यपालिका द्वारा बनाए गए नियम तथा अधिनियम भी उसी प्रकार से लागू होते हैं; जैसे संसद द्वारा पास किए गए कानून । इससे भी कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है। नियोजन आज का युग नियोजन का युग है। सभी देश अपने विकास के लिए योजनाएँ बनाते हैं। ये योजनाएँ तैयार करना, इन्हें लागू करना तथा इनका मूल्यांकन करना कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होता है। इससे कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार हुआ है।
प्रश्न 7.
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। यदि निर्वाचित मण्डल में कुछ स्थान रिक्त भी हों, तो भी राष्ट्रपति का चुनाव निश्चित तिथि पर होता है। संसद के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य तथा प्रत्येक राज्य के विधान सभा के सदस्य के मत का मूल्य अलग-अलग होता है। यह चुनाव एकल-संक्रमणीय मत-पद्धति के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा कराया जाता है। चुनाव जीतने के लिए एक उम्मीदवार को मतों की एक निश्चित संख्या, जिसे कोटा कहते हैं, प्राप्त करना होता है।
प्रश्न 8.
राष्ट्रपति पद के लिए कौन-सी योग्यताएँ अनिवार्य हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति पद के लिए आवश्यक योग्यताएँ इस प्रकार हैं-
- वह भारत का नागरिक हो,
- वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
- वह किसी सरकारी लाभ के पद पर न हो,
- वह लोक सभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो,
- उसके नाम का प्रस्ताव निर्वाचक मण्डल के 50 सदस्य करें तथा अन्य 50 ही अनुमोदन करें,
- वह 15,000 रुपए जमानत राशि के रूप में जमा कराए।
प्रश्न 9.
भारत के निर्वाचित राष्ट्रपतियों के नाम बताइए।
उत्तर:
भारत में अब तक निम्नलिखित निर्वाचित राष्ट्रपति हुए हैं
- डॉ० राजेन्द्र प्रसाद,
- डॉ० राधाकृष्णन,
- डॉ० जाकिर हुसैन,
- श्री वी०वी० गिरि,
- श्री फखरुद्दीन अली अहमद,
- श्री नीलम संजीवा रेड्डी,
- ज्ञानी जैल सिंह,
- श्री आर० वेंकटरमन,
- डॉ० शंकर दयाल शर्मा,
- श्री के०आर० नारायणन,
- डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम,
- श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल,
- श्री प्रणब मुखर्जी,
- श्री रामनाथ कोविंद।
प्रश्न 10.
राष्ट्रपति के वेतन तथा भत्ते लिखें।
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति को 5 लाख रुपए मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उसे रहने के लिए बिना किराए के निवास-स्थान (राष्ट्रपति भवन) तथा कई अन्य भत्ते भी मिलते हैं। सेवानिवृत्त होने पर उसे मूल वेतन का 50 प्रतिशत पेंशन भी मिलती है। उसे निजी कार्यालय के लिए भत्ता तथा निःशुल्क बिजली, पानी, कार तथा टेलीफोन आदि की सुविधाएँ भी उपलब्ध होती हैं। राष्ट्रपति के वेतन तथा भत्ते भारत की संचित निधि में से दिए जाते हैं, जिन्हें उसके कार्यकाल के दौरान घटाया नहीं जा सकता।
प्रश्न 11.
राष्ट्रपति को पद से हटाने का क्या तरीका है?
उत्तर:
राष्ट्रपति को संविधान की रक्षा न कर पाने के कारण महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है। इसके लिए सदन के 1/4 सदस्य हस्ताक्षर सहित नोटिस दें। नोटिस कम-से-कम 14 दिन पहले दिया जाना चाहिए। इसके बाद सदन महाभियोग प्रस्ताव पर विचार करेगा।
यदि सदन, सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देता है तो वह प्रस्ताव सदन द्वारा पारित समझा जाता है। इसके बाद प्रस्ताव दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। यदि दूसरा सदन भी सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देता है तो महाभियोग प्रस्ताव संसद द्वारा पारित माना जाएगा और राष्ट्रपति को अपने पद से हटना पड़ेगा।
प्रश्न 12.
राष्ट्रपति के निषेधाधिकार (Veto) का क्या अर्थ है?
उत्तर:
निषेधाधिकार (Veto Power) का अर्थ राष्ट्रपति के उस अधिकार से होता है, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दे जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति को अधिकार प्राप्त है। भारत के राष्ट्रपति को अमेरिकी राष्ट्रपति की भाँति निषेधाधिकार प्राप्त नहीं है। भारत का राष्ट्रपति हस्ताक्षर करने में देरी कर सकता है अथवा विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद में वापस भेज सकता है। यदि संसद विधेयक को उसी रूप में भी साधारण बहुमत से ही दोबारा पारित कर देती है तो राष्ट्रपति को स्वीकृति देनी ही पड़ती है।
प्रश्न 13.
राष्ट्रपति के पाँच कार्यपालिका अधिकार व कार्य बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति के पाँच कार्यपालिका अधिकार व कार्य इस प्रकार हैं-
- प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करना,
- प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रि-परिषद् के अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करना,
- प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों में विभागों का बँटवारा करना,
- प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन करना, मन्त्रियों का त्यागपत्र स्वीकार करना अथवा मन्त्रियों को पद से हटाना,
- राष्ट्रपति देश की सेनाओं (जल, थल व वायु सेना) का सर्वोच्च अधिकारी होता है। सेना में उच्च पदों पर नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं।
प्रश्न 14.
राष्ट्रपति की कोई पाँच विधायी शक्तियाँ लिखें।
उत्तर:
राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ इस प्रकार हैं-
- राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन बुलाने तथा उसे स्थगित करने का अधिकार है,
- राष्ट्रपति संसद के एक अथवा दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में भाषण दे सकता है,
- राष्ट्रपति लोक सभा को उसका निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले भंग कर सकता है,
- राष्ट्रपति को राज्य सभा में 12 सदस्य मनोनीत करने का अधिकार है,
- राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों द्वारा पास किए गए विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार है। वह ऐसे किसी विधेयक को वीटो (Veto) भी कर सकता है तथा उसे संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता है।
प्रश्न 15.
अध्यादेश का अर्थ समझाइए।
उत्तर:
जब संसद का अधिवेशन न चल रहा हो और देश में ऐसी परिस्थिति अथवा आवश्यकता उत्पन्न हो जाए कि जिसके लिए तुरन्त कानून की आवश्यकता हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर सकता है, जिसका प्रभाव कानून के समान होता है। अध्यादेश की अधिकतम अवधि 6 महीने तक हो सकती है, लेकिन यदि संसद अध्यादेश को मंजूरी दे दे तो अध्यादेश कानून बन जाता है। अध्यादेश संसद का अधिवेशन शुरू होने पर शीघ्र ही मंजूरी के लिए संसद के सामने रखा जाता है। यदि अध्यादेश संसद में न रखा जाए अथवा संसद अध्यादेश पर कोई कार्रवाई न करे तो अध्यादेश अधिवेशन शुरू होने की तारीख से 6 सप्ताह बाद अपने आप समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 16.
राष्ट्रपति किन परिस्थितियों में संकटकाल स्थिति की घोषणा कर सकता है? राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय संकटकाल की घोषणा अब तक कितनी बार की जा चकी है ?
उत्तर:
राष्ट्रपति निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में संकटकाल की घोषणा कर सकता है
(1) युद्ध, बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह या आन्तरिक अशान्ति अथवा उनमें से किसी के भय की स्थिति में (अनुच्छेद 352) इस प्रकार की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा अब तक तीन बार की जा चुकी है-
- सन् 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के कारण,
- सन् 1971 में भारत पर पाकिस्तान के आक्रमणों के कारण,
- सन् 1975 में आन्तरिक अशान्ति के कारण।
(2) किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र के विफल हो जाने की स्थिति में। ऐसी घोषणा राष्ट्रपति द्वारा भारत के विभिन्न राज्यों में अब तक 100 से अधिक बार की जा चुकी है। (अनुच्छेद-356)
(3) वित्तीय संकट (अनुच्छेद 360) के कारण। जब राष्ट्रपति यह अनुभव करे कि देश में वित्तीय स्थिति बहुत खराब हो गई है और देश की वित्तीय साख खतरे में है, तो वह वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है। इस प्रकार की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा अभी तक नहीं की गई है।
प्रश्न 17.
राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियाँ लिखें।
उत्तर:
राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियाँ निम्नलिखित हैं
1. बजट-संसद में बजट राष्ट्रपति के नाम पर ही पेश किया जाता है जिसमें संघ सरकार की आय-व्यय का ब्यौरा होता है।
2. धन विधेयक संसद में कोई भी धन विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना पेश नहीं किया जा सकता। यह काम राष्ट्रपति के नाम पर किसी मन्त्री के द्वारा किया जाता है।
3. आकस्मिक निधि-भारत की आकस्मिक निधि राष्ट्रपति के अधीन है और उसमें से धन खर्च करने का अधिकार राष्ट्रपति को है।
4. वित्त आयोग की नियुक्ति हर पाँच वर्ष के पश्चात् राष्ट्रपति को वित्त आयोग नियुक्त करने का अधिकार है जो वित्तीय मामलों पर अपनी सिफारिश देता है।
प्रश्न 18.
भारत के उप-राष्ट्रपति का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
भारत के उप-राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के सदस्य शामिल होते हैं। संसद के मनोनीत सदस्यों को भी उप-राष्ट्रपति के चुनाव में मतदान करने का अधिकार है, जबकि राष्ट्रपति के चुनाव में ऐसे सदस्यों को मतदान करने का अधिकार नहीं है। उसका चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा गुप्त मतदान की रीति से होता है।
प्रश्न 19.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कैसे होता है?
उत्तर:
राष्ट्रपति लोक सभा में बहुमत प्राप्त दल अथवा दलीय गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार राष्ट्रपति अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है तथा उनमें विभागों का बँटवारा करता है। संघीय मन्त्रिपरिषद् के निर्माण में राष्ट्रपति की भूमिका औपचारिक मात्र है। हाँ, यदि लोक सभा में किसी दल अथवा दलीय गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो राष्ट्रपति अपने स्वविवेक से किसी को भी प्रधानमन्त्री पद के दावेदार को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है और उसे. एक निश्चित अवधि में लोक सभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दे सकता है।
प्रश्न 20.
मन्त्रिपरिषद् में कितने प्रकार के मन्त्री होते हैं ? बताइए।
उत्तर:
मन्त्रि-परिषद् में निम्नलिखित प्रकार के मन्त्री होते हैं
1. कैबिनेट मन्त्री-ये मन्त्रि-परिषद् के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्त्री होते हैं। इनके पास शासन के महत्त्वपूर्ण विभाग होते हैं। ये मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते हैं और शासन की नीतियों को बनाते हैं।
2. राज्य मन्त्री-ये मन्त्रिमण्डल के सदस्य नहीं होते। आमतौर पर ये केबिनेट मन्त्री के सहायक होते हैं, लेकिन इन्हें विभागों का स्वतन्त्र रूप से कार्यभार सौंपा जा सकता है।
3. उप-मन्त्री-ये तीसरी श्रेणी के मन्त्री होते हैं। ये मन्त्रिमण्डल के सदस्य नहीं होते। इन्हें विभागों का स्वतन्त्र रूप से कार्यभार नहीं सौंपा जाता।
प्रश्न 21.
मन्त्रिमण्डल तथा मन्त्रिपरिषद् में क्या अन्तर है?
उत्तर:
प्रायः मन्त्रिमण्डल तथा मन्त्रि-परिषद् को एक ही समझा जाता है, परन्तु इन दोनों में अन्तर है। यह निम्नलिखित बातों से स्पष्ट है
(1) मन्त्रि-परिषद् को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है अर्थात् इसकी स्थापना संविधान द्वारा की गई है, परन्तु मन्त्रिमण्डल की रचना संवैधानिक सुविधा के लिए की जाती है,
(2) मन्त्रि-परिषद् में सभी प्रकार के मन्त्री मन्त्रिमण्डलीय मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उप-मन्त्री शामिल होते हैं। परन्तु मन्त्रिमण्डल में केवल पहली प्रकार के ही (मन्त्रिमण्डलीय) मन्त्री शामिल होते हैं। दूसरे शब्दों में परिषद् का एक भाग होता है। मन्त्रिमण्डल में प्रायः 15-20 तक मन्त्री होते हैं जबकि मन्त्रि-परिषद् में 50-60 कई ससे भी अधिक मन्त्री होते हैं,
(3) मन्त्रिमण्डल का प्रत्येक सदस्य मन्त्रि-परिषद् का सदस्य होता है, परन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण विभागों के अध्यक्ष ही मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते हैं।
प्रश्न 22.
भारतीय मन्त्रिमण्डल प्रणाली की पाँच विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारतीय मन्त्रिमण्डल प्रणाली की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- राष्ट्रपति नाममात्र का अध्यक्ष है,
- मन्त्री संसद के दोनों सदनों में से लिए जाते हैं,
- प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का नेतृत्व करता है,
- मन्त्रिमण्डल लोक सभा के प्रति प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी है,
- मन्त्रिमण्डल सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के आधार पर कार्य करता है।
प्रश्न 23.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् के पाँच कार्य संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
केन्द्रीय मन्त्रि-परिषद के कार्य इस प्रकार हैं–
- देश में कानून व्यवस्था तथा शान्ति व्यवस्था बनाए रखना मन्त्रि-परिषद् का उत्तरदायित्व है,
- देश की विदेश-नीति तय करना,
- राष्ट्रपति को विभिन्न विषयों पर सलाह देना,
- बजट तैयार करना,
- मन्त्रि-परिषद् कानून-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्रश्न 24.
मन्त्रिमण्डल के सामूहिक उत्तरदायित्व पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली होने के कारण मन्त्रिमण्डल का सामूहिक उत्तरदायित्व रहता है। इसका अर्थ यह है कि मन्त्री अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी हैं। मन्त्रिमण्डल में बहुमत द्वारा लिया गया निर्णय समस्त मन्त्रिमण्डल का निर्णय माना जाता है और संसद यदि किसी एक मन्त्री अथवा प्रधानमन्त्री के विरुद्ध भी अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो समस्त मन्त्रिमण्डल को अपना त्यागपत्र देना पड़ता है। सभी मन्त्री एक ही साथ तैरते हैं और एक ही साथ डूबते हैं।
प्रश्न 25.
‘मन्त्रियों के व्यक्तिगत उत्तरदायित्व’ पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
मन्त्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व के साथ-साथ उनका व्यक्तिगत उत्तरदायित्व भी होता है। प्रत्येक मन्त्री एक अथवा अधिक विभागों का अध्यक्ष होता है, जिनका प्रशासन चलाने के लिए वह व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है अथवा मन्त्रालय के शासन का संचालन सुचारु रूप से नहीं होता, तो उसके लिए उस विभाग का मन्त्री व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है। वह अपने विभाग के असैनिक अधिकारियों को उसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता। अपने विभाग के किसी गलत कार्य के लिए उसे त्यागपत्र भी देना पड़ सकता है। उदाहरणस्वरूप, श्री लाल बहादुर शास्त्री ने रेलवे मन्त्री के रूप में एक रेल दुर्घटना के लिए स्वयं को नैतिक रूप से उत्तरदायी ठहराते हुए अपना त्यागपत्र दे दिया था।
प्रश्न 26.
राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
संविधान के अनुसार मन्त्रिमण्डल की नियुक्ति राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए की जाती है। राष्ट्रपति ही प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है, प्रधानमन्त्री की सलाह से वह अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि मन्त्रिमण्डल या मन्त्रि-परिषद् के सदस्य तभी तक अपने पद पर रह सकते हैं जब तक राष्ट्रपति की इच्छा उन्हें उनके पद पर रखने की है।
वास्तव में राष्ट्रपति नाममात्र का अध्यक्ष है। वह राज्य का अध्यक्ष है, शासन का नहीं। परन्तु यह हमारे संविधान का सैद्धांतिक रूप है। व्यावहारिक परम्परा यह है कि राष्ट्रपति संसद में बहुसंख्यक दल के नेता को ही प्रधानमन्त्री पद सम्भालने के लिए कहता है। मन्त्रियों का चुनाव वास्तव में प्रधानमन्त्री ही करता है।
राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। उनकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री ही करता है। प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में ही की गृह-नीति, विदेश-नीति, वित्तीय-नीति आदि को निर्धारित करता है। प्रधानमन्त्री का यह कर्तव्य है कि वह मन्त्रिमण्डल द्वारा किए गए सब फैसलों की सूचना राष्ट्रपति को दे। राष्ट्रपति यदि चाहे तो किसी भी मन्त्रिमण्डल के फैसले को फिर से विचार करने के लिए वापस भेज सकता है। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल द्वारा दिए गए परामर्श को मानने के लिए बाध्य है।
प्रश्न 27.
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, परन्तु यह कार्य राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार नहीं करता। प्रधानमन्त्री के पद पर राष्ट्रपति द्वारा प्रायः उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है, जो लोक सभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है। यदि लोक सभा में किसी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत का समर्थन प्राप्त न हो तो राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है जो उसकी दृष्टि में स्थायी सरकार की स्थापना करने के योग्य हो।
प्रश्न 28.
किन परिस्थितियों में प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार कर सकता है?
उत्तर:
साधारणतः प्रधानमन्त्री के पद पर राष्ट्रपति द्वारा उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोक सभा में बहुसंख्यक दल का नेता हो। परन्तु निम्नलिखित परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कर सकता है
- जब लोक सभा में किसी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हो,
- जब लोक सभा का बहुसंख्यक दल अपने नेता का निश्चय न कर सके,
- जब कई दल मिलकर भी संयुक्त सरकार का निर्माण न कर सके।
इन परिस्थितियों में राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री के पद पर नियुक्त कर सकता है जो उसकी दृष्टि में स्थायी सरकार की स्थापना करने के योग्य होता है।
प्रश्न 29.
प्रधानमन्त्री के कोई पाँच कार्य बताएँ।।
उत्तर:
प्रधानमन्त्री के पाँच कार्य इस प्रकार हैं-
- प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रि-परिषद् का निर्माण करता है,
- वह विभिन्न मन्त्रियों के बीच विभागों का विभाजन करता है तथा उसमें अपनी इच्छानुसार किसी भी समय फेर-बदल कर सकता है,
- वह मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता करता हैं,
- वह शासन के विभिन्न विभागों में समन्वय बनाए रखता है,
- वह राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होता है।
निबंधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कार्यपालिका से क्या तात्पर्य है? इसके कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
कार्यपालिका सरकार का महत्त्वपूर्ण अंग है। यह राज्य की उन इच्छाओं को कार्यान्वित करती है, जिन्हें कानून का रूप दिया जाता है। प्रायः कार्यपालिका सरकार का प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला सबसे अधिक क्रियाशील अंग है। कार्यपालिका सरकार की वह शाखा है जो कानून द्वारा व्यक्त की गई लोगों की इच्छा को लागू करती है, इसलिए साधारण व्यक्ति इसे ही सम्पूर्ण सरकार मानता है। कार्यपालिका के दो रूप हैं-संकुचित तथा व्यापक।
संकुचित अर्थों में कार्यपालिका के अन्तर्गत राज्याध्यक्ष तथा मन्त्री ही आते हैं, परन्तु व्यापक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत राज्याध्यक्ष, मन्त्रिमण्डल सभी प्रशासनिक कर्मचारी सम्मिलित हैं। इस प्रकार राष्ट्रपति (सीमित राजतन्त्र में राजा) से लेकर एक सिपाही तक तथा एक चपरासी तक कार्यपालिका के सदस्य हैं। राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी का केवल कार्यपालिका के संकुचित अर्थ से ही सम्बन्ध है। कार्यपालिका का अर्थ अग्रलिखित परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है
1. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “कार्यपालिका शासन का वह अंग है जो विधियों के रूप में निर्मित जन इच्छा को क्रियान्वित करता है।”
2. सी०एच० हिडलन (C.H. Hidlon) के अनुसार, “कार्यपालिका से आशय शासन के उस प्राधिकारी से है जो विधियों को क्रियान्वित करता है, प्रशासित करता है या प्रभावी बनाता है।”
3. गार्नर (Garner) के मतानुसार, “व्यापक और सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका में वे सभी राज्य कर्मचारी और एजेन्सियाँ शामिल हैं जिनका सम्बन्ध राज्य की उन इच्छाओं को क्रियान्वित करने से है जिन्हें कानून के रूप में सुनिश्चित करके अभिव्यक्त किया जा चुका है।” उपरोक्त परिभाषाओं से कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
कार्यपालिका के कार्य (Functions of the Executive)-आधुनिक युग में राज्य और सरकार का स्वरूप बदल चुका है और इसने कल्याणकारी रूप धारण कर लिया है। इसके फलस्वरूप सरकार के एक प्रमुख अंग कार्यपालिका का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया है और कार्यक्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है। आधुनिक समय में कार्यपालिका को निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं
1. कूटनीतिक कार्य (Diplomatic Functions) कार्यपालिका को अन्य देशों से सम्बन्ध स्थापित करने पड़ते हैं। इस क्षेत्र में विदेशों में राजदूत तथा अन्य राजनीतिक प्रतिनिधि भेजना, विदेशों से आए राजदूत को अपने यहाँ मान्यता देना, अन्य राज्यों को मान्यता देना अथवा न देना, सन्धि तथा समझौते करना, युद्ध तथा शान्ति की घोषणा करना आदि कार्य शामिल हैं। यह ठीक है कि इन कार्यों पर विधानमण्डल का निरीक्षण तथा निर्देशन भी रहता है, लेकिन फिर भी राज्य के विदेशी सम्बन्धों में कार्यपालिका ही सबसे अधिक प्रभावशाली है।
2. प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions) कार्यपालिका का मुख्य कार्य विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करवाना तथा शासन चलाना है। इस कार्य के लिए अलग-अलग प्रशासनिक विभागों का गठन किया जाता है।
3. सैनिक कार्य (Military Functions) कार्यपालिका को देश की रक्षा के लिए सैनिक कार्य करने पड़ते हैं। बाहरी आक्रमण तथा आन्तरिक उपद्रवों से राज्य की रक्षा करने के लिए जल, थल, वायु तीनों प्रकार की सेनाएँ संगठित की जाती हैं। कार्यपालिका युद्ध काल में सेना का सफलतापूर्वक संचालन करती है। यद्यपि तीनों सेनाओं के सेनापति होते हैं, परन्तु राज्याध्यक्ष ही सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति होता है। वह ही युद्ध आरम्भ तथा समाप्त करने की घोषणा करता है। आन्तरिक विद्रोह दबाने के लिए भी वह सेना का प्रयोग कर सकता है।
4. न्यायिक कार्य (Judicial Functions) कार्यपालिका न्याय करने का अधिकार भी रखती है। न्यायालय द्वारा दण्डित व्यक्तियों को राज्याध्यक्ष क्षमा-दान दे सकता है, सजा को कम कर सकता है अथवा कुछ समय के लिए रुकवा सकता है। वह किसी अवसर पर आम माफी की घोषणा भी कर सकता है जिससे बड़ी संख्या में कैदियों की मुक्ति हो जाती है। कार्यपालिका न्यायालयों का संगठन करती है तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति भी करती है।
5. विधायनी कार्य (Legislative Functions) कार्यपालिका विधायनी क्षेत्र में भी अधिकार रखती है। वही विधानमण्डल के अधिवेशन बुलाती, स्थगित करती तथा निम्न सदन को भंग करके नए चुनाव करवाती है। यद्यपि कानून विधानमण्डल ही बनाता है, परन्तु अधिकांश विधेयक कार्यपालिका द्वारा ही पेश किए जाते हैं तथा उन्हें पास करवाने में भी मन्त्रियों का विशेष प्रभाव रहता है। कार्यपालिका अध्यक्ष की स्वीकृति दिए बिना कोई विधेयक कानून नहीं बनता। राज्याध्यक्ष अध्यादेश भी जारी कर सकता है। इस प्रकार कार्यपालिका कानून बनाने में भी सहायक सिद्ध होती है।
6. वित्तीय कार्य (Financial Functions) कार्यपालिका ही सरकार का बजट तैयार करती है तथा उसे संसद में पेश करके पास करवाती है। कानून के अनुसार कर, ऋण तथा माल गुजारी एकत्रित करती है। विभिन्न प्रशासनिक विभागों के खर्च के लिए धन की स्वीकृति विधान-मण्डल से पास करवाती है।
7. विविध कार्य (Miscellaneous Functions)-प्रो० गार्नर ने कार्यपालिका अध्यक्ष के कुछ विभिन्न कार्यों का उल्लेख भी किया है। कुछ देशों के राज्याध्यक्षों को व्यावसायिक उपाधियाँ प्रदान करने, विदेशियों को नागरिकता देने, अधिकारियों की विधवाओं तथा अनाथ बच्चों को पेन्शन तथा भत्ते दिलाने, प्राइवेट नियमों को कानूनी करार देने अथवा निरस्त करने तथा राज्य की सुरक्षा के लिए यथोचित कदम उठाने आदि के भी अधिकार प्राप्त हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त वर्णित कार्यों से स्पष्ट होता है कि कार्यपालिका को विभिन्न कार्य करने पड़ते हैं, परन्तु कार्यपालिका का मुख्य कार्य शासन का प्रबन्ध करना और कानूनों को लागू करना है। शासन का क लिए उसको और भी काम सौंपे जाते हैं। प्रत्येक देश में एक जैसी कार्यपालिका नहीं है, अतः कार्य भी एक जैसे नहीं हैं।
प्रश्न 2.
कार्यपालिका के विभिन्न रूपों का वर्णन करो।
उत्तर:
कार्यपालिका एक तरह की नहीं कई प्रकार की होती है। आज विश्व में सरकार एक तरह की नहीं है। अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह की सरकारें हैं। इसलिए कार्यपालिकाएँ भी एक नहीं, भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं जो निम्नलिखित हैं
1. नाममात्र की कार्यपालिका (Nominal Executive)-जब शासन का कार्य किसी व्यक्ति के नाम पर चलाया जाता है तथा वास्तविक शक्तियों का प्रयोग कोई और करता है तो उसे नाममात्र की कार्यपालिका कहा जाता है। इंग्लैण्ड की रानी और भारत का राष्ट्रपति नाममात्र के कार्यपालिका अध्यक्ष हैं। इनकी सभी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। अध्यक्ष का केवल नाम ही रहता है।
2. वास्तविक कार्यपालिका (Real Executive)-जब कोई व्यक्ति वास्तविक रूप से सभी कार्यपालिका की शक्तियों का प्रयोग करता है जो संविधान तथा कानून द्वारा उसको दी गई है तो उसे वास्तविक कार्यपालिका कहा जाता है। अमेरिका का राष्ट्रपति, भारत तथा इंग्लैण्ड के मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका हैं।
3. एकल कार्यपालिका (Single Executive)-जब शासन की सारी शक्तियों का प्रयोग एक ही व्यक्ति करता है तो उसे एकल कार्यपालिका कहा जाता है। अमेरिका, चिल्ली, मैक्सिको, पीरू, ब्राजील आदि देशों में एकल कार्यपालिका है। इन देशों के तियों को ही सम्पूर्ण शासन सत्ता प्राप्त है। इनके विधानमण्डल भी हैं, परन्तु मन्त्रिमण्डल के सदस्य राष्ट्रपति के निजी सचिवों के रूप में कार्य करते हैं।
4. बहुसंख्यक कार्यपालिका (Plural Executive) बहुसंख्यक कार्यपालिका में कार्यपालिका शक्तियाँ एक से अधिक व्यक्तियों में निहित होती हैं। रूस तथा स्विट्ज़रलैण्ड में बहुसंख्यक कार्यकारिणी परिषद् है।
5. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका (Presidential Executive) अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में एक निर्वाचित राष्ट्रपति प्रमख शासनाध्यक्ष होता है। सारे शासन के लिए वही उत्तरदायी होता है। वह अपनी सहायता के लिए सचिव अथवा मन्त्री नियुक्त करता है, परन्तु इन मन्त्रियों का विधानमण्डल से कोई सम्बन्ध नहीं होता तथा न ही वे विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका के देशों में अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है।
6. संसदीय कार्यपालिका (Parliamentary Executive) संसदीय कार्यपालिका उसे कहा जाता है जिसमें मुख्य कार्यपालिका अध्यक्ष नाममात्र की सत्ता रखता है तथा वास्तविक सत्ता का प्रयोग मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों – के लिए व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है। दोनों एक दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। भारत, इंग्लैण्ड, कनाडा, जापान आदि देशों में संसदीय कार्यपालिका की स्थापना की गई है।
7. वंशानुगत कार्यपालिका (Hereditary Executive)-जिस राज्य में राजतन्त्र स्थापित है, वहाँ वंशानुगत अथवा पैतृक कार्यपालिका होती है। एक राजा अथवा रानी के मरने के पश्चात् उसका बेटा अथवा बेटी गद्दी पर बैठती है तो समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ उसको प्राप्त होती हैं।
8. निर्वाचित कार्यपालिका (Elected Executive)-जिस राज्य में कार्यपालिका अध्यक्ष जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित अवधि के लिए निर्वाचित किया जाता है, उसे निर्वाचित कार्यपालिका कहा जाता है। भारत, अमेरिका आदि देशों में निर्वाचित कार्यपालिका है।
9. मनोनीत कार्यपालिका (Nominated Executive)-उपनिवेशों तथा संघ की इकाइयों में कार्यपालिका अध्यक्ष किसी उच्च सत्ता द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड के गवर्नर राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। भारतीय संघ में भी राज्यों के गवर्नर राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं।
10. राजनीतिक कार्यपालिका (Political Executive)-अस्थायी अथवा राजनीतिक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल के सदस्य हैं जो बहुमत तक अपने पदों पर बने रहते हैं। विधानमण्डल इन्हें पहले भी अपने पद से हटा सकते हैं। इनका पद अस्थायी होता है। इनकी नियुक्ति राजनीतिक दलों से होने के कारण इन्हें राजनीतिक कार्यपालिका भी कहा जाता है। इनका पद स्थायी नहीं होता, ये कभी भी स्वयं अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं अथवा इन्हें एक निश्चित अवधि से पहले भी हटाया जा सकता है, इसलिए इन्हें अस्थायी कार्यपालिका कहा जाता है।
11. स्थायी कार्यपालिका (Permanent Executive)-प्रशासन के अधिकारी तथा अन्य कर्मचारी स्थायी कार्यपालिका कहलाते हैं। इन्हें एक निश्चित आयु पर नौकरी दी जाती है और निश्चित आयु तक वे अपने पद पर बने रहते हैं। पद से निवृत्त होने पर उन्हें पेन्शन दी जाती है। सरकार के बदलने पर भी ये अपने पद पर बने रहते हैं।
12. तानाशाही कार्यपालिका (Dictatorial Executive) यदि कोई सैनिक अधिकारी सैनिक क्रान्ति के बल पर शासन सत्ता अपने नियन्त्रण में ले लें तो वह तानाशाह कहलाता है। आज भी बहुत-से देशों में किसी-न-किसी रूप में तानाशाही सरकारें हैं। तानाशाह का वंशानुगत अथवा संवैधानिक आधार नहीं होता। – निष्कर्ष (Conclusion)-इस प्रकार कार्यपालिका के विविध रूपों का अध्ययन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वर्तमान युग में सैद्धान्तिक तौर पर कार्यपालिका के रूपों को स्थायी रूप में निश्चित करना सरल नहीं है। प्रत्येक देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति भिन्न है, इसलिए सब देशों में एक-सी कार्यपालिका नहीं है। आज कार्यपालिका विशुद्ध रूप में नहीं है, वह अनेक रूपों का मिश्रण है।
प्रश्न 3.
कार्यपालिका की सत्ता के विस्तार के लिए उत्तरदायी मुख्य कारकों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सैद्धान्तिक दृष्टि से विधानपालिका सर्वोच्च है और कार्यपालिका उसके अधीन होती है। संसदीय शासन-प्रणाली में तो विधानमण्डल का कार्यपालिका पर पूरा नियन्त्रण होता है और विधानमण्डल को कार्यपालिका के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास करके उसे पद से हटाने का अधिकार होता है, परन्तु व्यवहार में आजकल कार्यपालिका की शक्तियों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
इंग्लैण्ड में तो संसद मन्त्रिमण्डल के हाथों का खिलौना मात्र बनकर रह गई है। रैम्जे म्यूर (Ramsay Muir) का कहना है कि इंग्लैण्ड में मन्त्रिमण्डल की शक्तियों का इतना विस्तार हो गया है कि वहाँ मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो गई है। कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं
1. दलीय पद्धति (Party System)-आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्यों में सरकार दलीय पद्धति के आधार पर चलाई जाती है। जिस राजनीतिक दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त हो जाता है, उसी दल की सरकार बनती है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती। उसके द्वारा संसद में कुछ भी पास करवाया जा सकता है।
2. निम्न सदन को भंग करने का अधिकार (Power of Dissolution of the Lower House)-संसदीय शासन-प्रणाली में कार्यपालिका के अध्यक्ष को संसद के निम्न सदन को भंग करने का अधिकार होता है। विधानमण्डल इस भय के कारण कार्यपालिका की नीतियों एवं काननों को स्वीकृति दे देती है।
3. जन-कल्याणकारी राज्य की धारणा (Concept of Welfare State)-वर्तमान युग में राज्य को जन-कल्याणकारी संस्था समझा जाता है। इसका अर्थ यह है कि राज्य जनता की भलाई के लिए अनेक कार्य करता है, जिससे कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में बहुत वृद्धि हो गई है।
4. प्रदत्त व्यवस्थापन (Delegated Legislation) काम की अधिकता, विशेष ज्ञान की कमी व समय की कमी के कारण विधानमण्डल के लिए प्रत्येक कानून को पूरे विस्तृत रूप में पास करना सम्भव नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप, विधानमण्डल कानून .. की रूपरेखा का निर्माण करके विस्तृत नियम तथा अधिनियम बनाने का कार्य कार्यपालिका पर छोड़ देती है। इस सम्बन्ध में कार्यपालिका द्वारा बनाए गए नियम तथा अधिनियम भी उसी प्रकार से लागू होते हैं जैसे संसद द्वारा पास किए गए कानून। इससे भी कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है।
5. नियोजन (Planning)-आज का युग नियोजन का युग है। सभी देश अपने विकास के लिए योजनाएँ बनाते हैं। ये योजनाएँ तैयार करना, इन्हें लागू करना तथा इनका मूल्यांकन करना कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होता है। इससे कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार हुआ है।
6. आधुनिक समस्याओं की जटिलता (Complicated Nature of Moderm Problems)- वर्तमान समय में राज्य को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जिसके लिए विशेष ज्ञान, योग्यता तथा अनुभव की आवश्यकता होती है। विधानमण्डल के सामान्य योग्यता के निर्वाचित सदस्य इन जटिल समस्याओं को समझने तथा उन्हें सुलझाने की योग्यता नहीं रखते। कार्यपालिका ही इन सभी समस्याओं को निपटाती है, जिससे उसके महत्व में काफी वृद्धि हुई है। उपरोक्त कारणों से कार्यपालिका की शक्तियों का विस्तार हुआ है।
प्रश्न 4.
भारत के राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
अथवा
अनुच्छेद 54 तथा 55 के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति के चुनाव की क्या प्रक्रिया बताई गई है? अब तक राष्ट्रपति पद के लिए कितनी बार चुनाव हुए हैं?
अथवा
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है?
उत्तर:
भारत में संघीय सरकार की सभी कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को प्रदान की गई हैं। अनुच्छेद 53 में कहा गया है कि केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी, जिसका प्रयोग वह सीधे या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के माध्यम से करेगा। संघ का सारा शासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है। वह राज्य का अध्यक्ष है, परन्तु वह नाममात्र का अध्यक्ष है और अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है। राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है।
योग्यताएँ (Qualifications)-राष्ट्रपति पद के लिए निश्चित की गई योग्यताएँ इस प्रकार हैं-
- वह भारत का नागरिक हो,
- वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
- वह संसद का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो,
- वह भारत सरकार, राज्य सरकार या इनके नियन्त्रण में किसी स्थानीय सरकार के अधीन किसी लाभकारी पद पर आसीन न हो। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, राज्यपाल, मन्त्री आदि के पद लाभकारी पद नहीं माने जाते,
- वह राष्ट्रपति चुने जाने के पश्चात् संसद या राज्य विधान-मण्डल के किसी सदन का सदस्य नहीं रह सकता,
- उसे नामांकन-पत्र के साथ 15000 रुपए की धनराशि सुरक्षा निधि के रूप में जमा करवानी पड़ती है,
- उसके नाम का प्रस्ताव 50 निर्वाचकों द्वारा किया जाना चाहिए और 50 निर्वाचकों द्वारा अनुमोदित होना चाहिए।
राष्ट्रपति का चुनाव (Election of the President)-संविधान की धारा 54 के अनुसार, “राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से एक निर्वाचक मण्डल द्वारा होगा जिसमें संसद के दोनों सदनों तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेंगे।” इस प्रकार संसद के दोनों सदनों तथा राज्य विधानसभाओं के मनोनीत (Nominated) सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार नहीं दिया गया है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि राज्यों में द्वितीय सदन विधानपरिषद् के सदस्यों को भी राष्ट्रपति चुनाव में भाग लेने का अधिकार नहीं है क्योंकि विधान परिषद् के साथ में दूसरा सदन सभी राज्यों में नहीं है।
संसद तथा राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति का चुनाव एक विशेष चुनाव पद्धति, जिसे संविधान द्वारा ‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत पद्धति’ (Proportional Representation and Single Transferable Vote System) का नाम दिया गया है, के अनुसार करेंगे। चुनाव गुप्त मतदान द्वारा होगा। इसके अतिरिक्त केन्द्र प्रशासित प्रदेशों, संघीय क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली एवं पाण्डिचेरी विधानसभा को सन् 1997 में कानून बनाकर भाग लेने का अधिकार दिया गया।
राष्ट्रपति को वस्तुतः राष्ट्र के प्रतिनिधि का रूप देने के लिए संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने वाले, राज्य विधानसभाओं के सदस्यों तथा संसद के सदस्यों के मतों में समानता हो और जहाँ तक हो सके सभी राज्यों के प्रतिनिधित्व में एकरूपता हो। राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों की संख्या समान न होने के कारण तथा विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या संसद के निर्वाचित सदस्यों की संख्या से बहुत अधिक होने के कारण राज्यों में एकरूपता और संघ तथा राज्यों में समानता के उद्देश्य की पूर्ति एक व्यक्ति को एक मत देने के सिद्धान्त द्वारा नहीं हो सकती, इसलिए इसके स्थान पर एक मतदाता को कई मत देने के सिद्धान्त को अपनाया गया है।
एक मतदाता के मतों की संख्या को जानने के लिए एक नई विधि की व्यवस्था की गई है। इस विधि के अनुसार किसी राज्य की विधानसभा का प्रत्येक सदस्य उतने मत दे सकता है जितने राज्य की जनसंख्या को विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग करके और भागफल को 1000 से भाग करके जो शेषफल आए। यदि भाग करने के पश्चात् शेषफल 500 से कम न हो तो मतों की संख्या में एक और मत की वृद्धि की जाती है। साधारणतः एक राज्य की विधानसभा के सदस्यों के मतों की संख्या इस प्रकार निश्चित की जाती है
संविधान के मसौदे में मुम्बई राज्य का हवाला देकर इस विधि (Formula) की व्याख्या की गई है, जिसके अनुसार उस समय मुम्बई राज्य की जनसंख्या 2,08,49,840 तथा विधानसभा के सदस्यों की संख्या 208 थी।
अधिकार है, क्योंकि शेष 239 पाँच सौ से कम हैं, इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक सदस्य 100 मत दे सकता है। संघ तथा राज्यों में समानता लाने के लिए संसद के सभी निर्वाचित सदस्यों को उतने ही मत देने का अधिकार प्राप्त होता है जितने मत सभी राज्य की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा दिए जाते हैं। इस प्रकार संसद का प्रत्येक निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में उतने मत डाल सकता है जितने कि राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के लिए नियत सम्पूर्ण मत संख्या को संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की सम्पूर्ण संख्या से भाग देने से आए।
यदि भाग देने पर शेष आधा या आधे से अधिक हो तो इसे एक मानकर प्रत्येक संसद सदस्य के मतों की संख्या में एक मत और जोड़ वधान के मसौदे में दिए गए उदाहरण के अनुसार यदि यह मान लिया जाए कि सभी विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतों की कुल संख्या 74,940 है तथा संसद के निर्वाचित सदस्यों की संख्या 750 है तो संसद के प्रत्येक सदस्य को \(\frac{74,940}{750}=99 \frac{23}{25}\) मत देने का अधिकार होगा, क्योंकि \(\frac{23}{25}\) आधे से अधिक है, इसलिए संसद का प्रत्येक सदस्य 100 मत दे सकता है।
राष्ट्रपति के चुनाव का प्रबन्ध चुनाव आयोग (Election Commission) द्वारा किया जाता है। विधानसभाओं के सदस्य अपने-अपने राज्य की राजधानी में मतदान करते हैं, जबकि संसद सदस्य नई दिल्ली में मतदान करते हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में एक विधायक के मत का मूल्य निम्न विधि से निकालते हैं
राष्ट्रपति चुनाव में एक सांसद के मत का मूल्य
राज्य के कुल निर्वाचित विधायकों के मतों का मूल्य ………………………………………..5,49,474
लोकसभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या …………………………………………543
राज्यसभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या ………………………………………… 233
कुल सांसदों की संख्या …………………………………………543+233=776
=708.085 यानी 776 सांसदों के कुल मतों का मूल्य =708 × 776 = 5,49,408
चौदहवें राष्ट्रपति चुनाव में भाग लेने वाले कुल मतदाताओं की संख्या =
कुल विधायक (4120)+ कुल सांसद (776)=4,896
सभी मतदाताओं के कुल मतों का मूल्य =549474+549408=10,98,882
मतदान तथा मतगणना की विधि (The System of Polling and Counting of Votes)-राष्ट्रपति का निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व चुनाव प्रणाली (Proportional Representation and Single Transferable Vote System) के आधार पर होता है। साधारणतः इस प्रणाली का प्रयोग एक व्यक्ति के चुनाव के लिए नहीं किया जाता। भारत में राष्ट्रपति के चुनाव के लिए इस प्रणाली को इसलिए अपनाया गया है कि निर्वाचित होने वाले व्यक्ति को वास्तविक बहसंख्या मत प्राप्त हों।
इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता अपनी पसन्द (Preference) जाहिर करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक मतदाता जितने राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार खड़े हों, उतनी पसन्दें जाहिर कर सकता है। व्यवहार में प्रत्येक मतदाता को मतदान करने के लिए एक-एक पर्ची दी जाती है और उस पर्ची पर सभी उम्मीदवारों के नाम लिखे होते हैं।
प्रत्येक मतदाता क्रमानुसार इन उम्मीदवारों के नामों के सामने नम्बर डालकर अपनी पसन्द प्रकट करता है और जो उम्मीदवार आवश्यक मत प्राप्त कर ले उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। इस प्रणाली में आवश्यक मतों की संख्या. इस प्रकार निश्चित की जाती है कि सबसे पहले अशुद्ध मतों को रद्द कर दिया जाता है और फिर शुद्ध मतों के आधार पर कोटा निश्चित किया जाता है जो निम्न प्रकार से है
इस प्रणाली की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। यदि यह मान लिया जाए कि कुल मतों की संख्या 10,000 है तथा राष्ट्रपति पद के लिए चार उम्मीदवार ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ तथा ‘घ’ हैं और उन्हें पहली पसन्द में इस प्रकार मत प्राप्त हुए हैं
क = 4,000
ख = 3,000
ग = 1,600
घ = 1,400
साधारणतः बहुमत प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर इनमें से ‘क’ को चुना जाना चाहिए था, परन्तु आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार ऐसा नहीं होता। इसके अनुसार यदि आवश्यक मतों की संख्या (Quota) को देखा जाए तो जीतने वाले उम्मीदवार के लिए \(\frac{10000}{1+1}+1=5001\) मतों को प्राप्त करना आवश्यक है। इस स्थिति में इनमें से किसी भी उम्मीदवार को सफल घोषित नहीं किया जा सकता।
इस दशा में सबसे कम मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को असफल समझकर चुनाव क्षेत्र से निकाल दिया जाता है तथा उसके मतों को मतदाताओं की दूसरी पसन्द के आधार पर दूसरे उम्मीदवारों को हस्तान्तरित कर दिया जाता है। वर्तमान स्थिति में ‘घ’ को पहली पसन्द में सबसे कम मत प्राप्त हुए हैं, इसलिए उसे निर्वाचन क्षेत्र से निकाल दिया जाएगा और उसके मतों को दूसरी पसन्द के आधार पर ‘क’, ‘ख’ तथा ‘ग’ में विभक्त कर दिया जाएगा। यदि ‘घ’ के 1400 मतदाताओं की दूसरी पसन्द इस प्रकार हो ‘क’ = 200, ‘ख’ = 800, ‘ग’ = 400 तो इन मतों को हस्तान्तरित करने के बाद तीनों उम्मीदवारों की स्थिति इस प्रकार होगी
क = 4000 + 200 = 4200
ख = 3000 + 800 = 3800
ग = 1600 + 400 = 2000
अभी भी किसी उम्मीदवार को आवश्यक संख्या में मत प्राप्त नहीं हुए। इस दशा में ‘ग’ को निर्वाचन क्षेत्र से निकाल दिया जाएगा और उसके 2000 मतों को तीसरे पसन्द के आधार पर ‘क’ तथा ‘ख’ में बाँट दिया जाएगा। यदि तीसरे पसन्द में ‘क’ को 700 तथा ‘ख’ को 1300 मत प्राप्त हों तो हस्तान्तरण करने के पश्चात् स्थिति इस प्रकार होगी
क = 4200 + 700 = 4900
ख = 3800 + 1300 = 5100
परिणामस्वरूप, क्योंकि ‘ख’ को आवश्यक संख्या से अधिक मत प्राप्त हो गए हैं, इसलिए उसे निर्वाचित घोषित किया जाएगा। इस विधि का विशेष लाभ यह है कि इससे अधिक-से-अधिक मतदाताओं की पसन्द का पता चलता है और कोई भी व्यक्ति संसद में बहुमत दल से सम्बन्धित न होने पर भी राष्ट्रपति चुना जा सकता है।
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि केवल पहली पसन्द में अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार ही नहीं चुना जा सकता, कोई दूसरा उम्मीदवार भी चुना जा सकता है; जैसे उपर्युक्त उदाहरण में पहली पसन्द में ‘क’ को सबसे अधिक मत मिले, परन्तु अन्त में ‘ख’ को चुना गया। इसके विपरीत यदि तीसरी पसन्द में ‘क’ को 801 मत प्राप्त होते और ‘ख’ को 1199 मत प्राप्त होते तो परिणाम ‘क’ के पक्ष में होता, क्योंकि इस दशा में ‘क’ को आवश्यक संख्या में मत प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार
क = 4200 + 801 = 5001
ख = 3800 + 1199 = 4999
इस प्रक्रिया को पहली बार अगस्त, 1969 में राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रपति के चुनाव के लिए अपनाया गया, क्योंकि इससे पहले चारों चुनावों में निर्णय पहली पसन्द के आधार पर ही होता रहा और निर्वाचित उम्मीदवारों को पहली पसन्द में आवश्यक संख्या में मत प्राप्त होते रहे, परन्तु सन् 1969 के चुनाव में पहली पसन्द के आधार पर किसी भी उम्मीदवार को आवश्यक मत प्राप्त न होने के कारण दूसरी पसन्द के आधार पर निर्णय किया गया जिसके अनुसार राष्ट्रपति श्री वी०वी० गिरि निर्वाचित हुए।
15वें राष्ट्रपति का चुनाव, (14वाँ कार्यकाल) जुलाई, 2017 (The 15th Presidential Election, (14th Tenure) July, 2017) भारत के 15वें राष्ट्रपति का चुनाव 17 जुलाई, 2017 को सम्पन्न हुआ। इस चुनाव में सतारूढ़ एन०डी०ए० प्रत्याशी श्री रामनाथ कोविंद तथा यू०पी०ए० समर्थित प्रत्याशी श्रीमती मीरा कुमार मुख्य प्रतिद्वन्द्वी थे। इस चुनाव में निर्वाचक मण्डल के कुल सदस्यों 4896 (सांसद 776 एवं विधायकों 4120) में से कुल 4851 (768 सांसद एवं 4083 विधायकों) सदस्यों ने अपने मत का प्रयोग किया, जिनके मतों का कुल मूल्य 10,90,300 था। इनमें से 77 मत पत्र जिनके मतों का मूल्य 20,942, था, अवैध घोषित किए गए।
इस प्रकार वैध मत पत्रों की संख्या 4774 रही. जिनका कुल मत मूल्य 10,69,358 था। इनमें से विजयी प्रत्याशी श्री रामनाथ कोविंद को 7,02,044 (65.65%) मत एवं श्रीमती मीरा कुमार को 3,67,314 (34.35%) मत प्राप्त हुए। इस प्रकार राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होने के लिए 50% से अधिक मत प्राप्त होने की आवश्यक शर्त को 20 जुलाई, 2017 को हुई मतगणना में पूर्ण करने के पश्चात श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति चुनाव में विजयी घोषित किया गया जिन्हें 25 जुलाई, 2017 को तात्कालिक मुख्य न्यायाधीश जे०एस० खेहर के द्वारा संसद के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित समारोह में उन्हें देश के सर्वोच्च पद की शपथ दिलाई।
भारत के नवनियुक्त राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद का जन्म 1 अक्टूबर, 1945 को उत्तर प्रदेश के कानपुर के निकट परौंख में हुआ था, जो राष्ट्रपति का कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व 16 अगस्त, 2015 से 20 जून, 2017 तक बिहार के राज्यपाल पद पर थे। चुनाव प्रक्रिया की आलोचना (Criticism of the Method of Election)-राष्ट्रपति के पद के लिए अपनाई गई चनाव-प्रणाली की निम्नलिखित बातों के आधार पर आलोचना की गई है-(1) राष्ट्रपति के चनाव के लिए अपनाई गई।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation) कहना गलत है। यह प्रणाली केवल वहीं अपनाई जा सकती है जहाँ निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या कम-से-कम तीन हो । डॉ० एम०पी० शर्मा के अनुसार इस प्रणाली को ‘विकल्पनात्मक मत प्रणाली’ (Alternative Vote System) कहना अधिक उचित है, (2) राष्ट्रपति की चुनाव-प्रणाली बहुत जटिल है। साधारण व्यक्ति इसे आसानी से नहीं समझ सकता।
यद्यपि राष्ट्रपति की चुनाव-प्रणाली में कई त्रुटियाँ हैं, परन्तु ये मुख्यतः सैद्धान्तिक हैं, व्यावहारिक नहीं। राष्ट्रपति के पद के लिए अभी तक हुए चुनावों में ये कठिनाइयाँ सामने नहीं आई हैं। राष्ट्रपति का कार्यकाल (Tenure of President)-भारत के राष्ट्रपति का चुनाव पाँच वर्ष के लिए होता है। यह समय उस शुरू होता है जिस दिन राष्ट्रपति अपना पद सम्भालता है। एक व्यक्ति कितनी ही बार इस पद के लिए चुना जा सकता है। राष्ट्रपति चाहे तो वह पाँच वर्ष से पहले भी अपने पद से त्याग-पत्र दे सकता है।
राष्ट्रपति पर महाभियोग (Impeachment of President)-राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष है, लेकिन संसद केवल उसे महाभियोग के द्वारा ही उसके पद से हटा सकती है, जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 61 में किया गया है। इस विधि के अंतर्गत संसद के दोनों सदनों में से जो सदन आरोप लगाना चाहता है, उसको 1/4 सदस्यों के हस्ताक्षरों सहित इस प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास 14 दिन पूर्व भेजना पड़ता है। जब सदन में महाभियोग विषय पर चर्चा चल रही होती है, तो राष्ट्रपति ऐसे समय पर स्वयं उपस्थित होकर या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा आरोपों का जवाब सदन में दे सकता है।
यदि वह सदन 2/3 बहुमत से यह प्रस्ताव पारित कर दे तो दूसरा सदन उन आरोपों की जाँच-पड़ताल करता है। यदि दूसरा सदन भी.2/3 बहुमत से उन आरोपों को सही मान ले, तो राष्ट्रपति को अपना पद रिक्त करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उप-राष्ट्रपति, राष्ट्रपति का कार्यभार संभालता है, लेकिन 6 महीने के अंदर-अंदर नए राष्ट्रपति का निर्वाचन अनिवार्य है।
वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances) वर्तमान में राष्ट्रपति का मासिक वेतन 5 लाख रुपए प्रतिमाह निश्चित किया गया तथा मूल वेतन का 50 प्रतिशत सेवानिवृत्ति पर पेंशन के रूप में प्राप्त होगा जो कि 1 जनवरी, 2016 से प्रभावी किया गया है। इसके अतिरिक्त उसे कई प्रकार के भत्ते तथा सुविधाएँ भी दी जाती हैं, जिन्हें समय-समय पर संसद निश्चित करती है। उसके निवास के लिए बिना किराए का सरकारी भवन दिया जाता है, जिसे ‘राष्ट्रपति भवन’ कहते हैं।
इसके अतिरिक्त उसे जीवन-पर्यन्त सरकार की ओर से चिकित्सा की सहायता दी जाती है। राष्ट्रपति का वेतन तथा भत्ते भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) में से दिए जाते हैं जिस पर संसद का मतदान नहीं होता। संसद राष्ट्रपति के वेतन तथा भत्तों में परिवर्तन कर सकती है, परन्तु इन्हें राष्ट्रपति के कार्यकाल में कम नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति अपनी इच्छा से ऐच्छिक वेतन समर्पण कानून, 1950 (Voluntary Surrender of Salaries Act, 1950) के अनुसार अपने वेतन का कुछ भाग त्याग सकता है जिस प्रकार डॉ० राजेन्द्र प्रसाद तथा डॉ० राधाकृष्णन केवल 2,500 तथा श्री नीलम संजीवा रेड्डी 3,000 रुपए मासिक वेतन के रूप में लेते थे। राष्ट्रपति के वेतन पर आयकर भी लगता है।
इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मई, 2000 में संसद द्वारा पारित विधेयक के अनुसार पूर्व राष्ट्रपति की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी को आजीवन पेन्शन और सरकारी मकान उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की गई है। इससे पूर्व ऐसा प्रावधान नहीं था। विधेयक के अनुसार, पूर्व राष्ट्रपति को मिलने वाली पेन्शन का आधा भाग उसकी पत्नी को आजीवन प्राप्त होगा।
राष्ट्रपति द्वारा शपथ (Oath by the President)-प्रत्येक राष्ट्रपति और प्रत्येक उस व्यक्ति को, जो राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा हो अथवा उसके कृत्यों का निर्वाह करता हो, अपना पद ग्रहण करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष निम्नलिखित रूप में शपथ लेनी पड़ती है। शपथ का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 60 में किया गया है।
“मैं (नाम) ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राष्ट्रपति पद का कार्यपालन (अथवा राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वाहन) करूँगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण तथा प्रतिरक्षण करूँगा और मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूँगा।”
प्रश्न 5.
भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों की विवेचना कीजिए। अथवा भारत के राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है और राष्ट्र का शासन उसी के नाम पर चलाया जाता है। राष्ट्रपति एक संवैधानिक अध्यक्ष है और अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ (Powers of the President)-राष्ट्रपति की शक्तियों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं
(क) शान्तिकालीन शक्तियाँ तथा
(ख) आपातकालीन शक्तियाँ।
(क) शान्तिकालीन शक्तियाँ (Powers in Peace Time)-राष्ट्रपति की शान्तिकालीन शक्तियाँ निम्नलिखित हैं
- कार्यकारी शक्तियाँ (Executive Powers) राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं
- राज्य का अध्यक्ष (Head of the State)-राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है और भारत का समस्त शासन उसके नाम पर चलता है। सभी कानून उसके नाम से लागू होते हैं।
(1) मन्त्रिमण्डल की नियुक्ति (Appointment of Council of Ministers):
राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। प्रधानमन्त्री की सलाह से राष्ट्रपति मन्त्रियों में विभागों का बँटवारा करता है और बाद में भी उनके विभाग बदल सकता है। राष्ट्रपति मन्त्रियों को प्रधानमन्त्री की सिफारिश पर पदच्युत भी कर सकता है। प्रधानमन्त्री केवल उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत का नेता हो।
(2) उच्च अधिकारियों की निय क्ति (Appointment of High Officers):
राष्ट्रपति को कुछ महत्त्वपूर्ण नियुक्तियाँ करने का अधिकार है जैसे कि राज्यपाल, उप-राज्यपाल, महालेखा परीक्षक, संघीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, भारत का मुख्य न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी (Advocate General), वित्त आयोग के सदस्य आदि, परन्तु ये नियुक्तियाँ भी राष्ट्रपति अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है।
(3) सैनिक शक्तियाँ (Military Powers):
राष्ट्रपति भारत की सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति (Supreme Commander of the Armed Forces):
है और सशस्त्र सेनाओं के तीनों भागों (Army, Navy and Air Force) के सेनाध्यक्षों की नियक्ति करता है तथा समस्त सेना उसी के अधीन मानी जाती है।
(4) विदेशी मामलों से सम्बन्धित शक्तियाँ (Powers Relating to Foreign Affairs):
राष्ट्रपति विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरे देशों में भेजे जाने वाले राजदूत राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और दूसरे देशों से आने वाले राजदूत राष्ट्रपति को ही अपने नियुक्ति-पत्र पेश करते हैं तथा वहीं उनको स्वीकृत करता है। राष्ट्रपति ही दूसरे देशों के साथ युद्ध तथा शान्ति की घोषणा करता है और सभी सन्धियाँ उसके नाम पर की जाती हैं।
(5) केन्द्र शासित प्रदेशों का प्रशासक (Administrator of Union Territories):
केन्द्र प्रशासित प्रदेशों; जैसे दिल्ली, पुद्दचेरी, अरुणाचल प्रदेश का प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर चलता है और उन प्रदेशों के उच्च अधिकारी राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
(6) राज्यों को निर्देश देना (To Issue Directions to the States):
राष्ट्रपति को राज्यपालों को निर्देश देने की शक्ति प्राप्त है। वह राज्य सरकार को संघीय कानूनों के पालन के लिए, उनके आपसी सम्बन्धों में समन्वय लाने के लिए तथा कुछ राज्यपालों को जन-जातियों के विकास के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सकता है और इनका पालन करते हुए राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है।
(7) राष्ट्रपति कुछ आयोगों वित्त आयोग, चुनाव आयोग, राज्य भाषा आयोग तथा पिछड़े वर्गों की दशा को सुधारने से सम्बन्धित आयोग आदि-की भी नियुक्ति करता है।
(8) राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह प्रधानमन्त्री से उसके मन्त्रिमण्डल द्वारा लिए गए निर्णयों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त कर सकता है। वह अपनी किसी बात को प्रधानमन्त्री द्वारा मन्त्रिमण्डल के पास पहुंचा सकता है।
2. विधायिनी शक्तियाँ (Legislative Powers)-राष्ट्रपति को कुछ विधायिनी शक्तियाँ भी प्राप्त हैं
(1) राष्ट्रपति संसद का एक अंग है (President is a part of the Parliament):
संघ की विधायिनी शक्तियाँ संसद को प्राप्त हैं और राष्ट्रपति उसका एक अभिन्न अंग है। अनुच्छेद 79 के अन्तर्गत यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति तथा लोकसभा व राज्यसभा नामक दोनों सदनों से मिलकर ही संसद बनती है।
(2) संसद का अधिवेशन बुलाना तथा स्थगित करना (To Summon and Prorogue the Session of Parliament):
राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों के अधिवेशन एक ही समय में या अलग-अलग समय में बुला सकता है। अधिवेशन को बढ़ा सकता है और उसे स्थगित भी कर सकता है। उसे 6 महीने के अन्दर संसद का दूसरा अधिवेशन भी अवश्य बुलाना पड़ता है। यह काम वह मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है।
(3) संसद को सम्बोधित करना (To Address the Parliament):
राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को इकट्ठा या अलग-अलग भी सम्बोधित कर सकता है। संसद का पहला और वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के अभिभाषण से ही आरम्भ होता है, जिसमें वह सरकार की नीति और आवश्यकताओं पर प्रकाश डालता है। राष्ट्रपति का भाषण सरकार ही तैयार करती है।
(4) ससद में कुछ सदस्यों को मनोनीत करना (Nomination of Some Members in the Parliament):
संसद में कुछ सदस्य मनोनीत करने का अधिकार है। इस अधिकार का प्रयोग वह मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है। वह राज्यसभा में 12 सदस्य ऐसे मनोनीत करता है, जिन्होंने विज्ञान, साहित्य, कला, समाज सेवा आदि के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की हो। राष्ट्रपति लोकसभा में भी एंग्लो-इण्डियन समुदाय के दो सदस्य मनोनीत कर सकता था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दिसम्बर, 2019 में पारित 104वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एंग्लो-इण्डियन जाति की मनोनयन प्रणाली को समाप्त करने का निर्णय किया गया।
(5) लोकसभा को भंग करना (Power to Dissolve the Lok Sabha):
राष्ट्रपति लोकसभा को इसकी अवधि पूरी होने से पहले भी भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है, परन्तु इस शक्ति का प्रयोग भी राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही करता है, अपनी इच्छा से नहीं। 1991 में चन्द्रशेखर सरकार के परामर्श पर तत्कालीन राष्ट्रपति आर० वेंकटरमन ने लोकसभा भंग की थी। इसी प्रकार तत्कालीन राष्ट्रपति श्री० के०आर० नारायणन ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के परामर्श पर । वर्ष 1999 में लोकसभा को भंग किया था।
(6) विधेयकों पर स्वीकृति (Assent on the Bills):
संसद द्वारा पास किया गया कोई भी विधेयक उस समय तक कानून नहीं बन सकता, जब तक उस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति न हो जाए। राष्ट्रपति चाहे तो उस पर अपनी स्वीकृति देने की बजाए उसे संसद के पास पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। संसद ऐसी स्थिति में उस विधेयक पर राष्ट्रपति की सिफारिशों के सम्बन्ध में पुनः विचार करती है और यदि संसद उस विधेयक को मूल रूप में ही दोबारा पास कर दे तो उस पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है।
महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत का राष्ट्रपति अमेरिकी राष्ट्रपति की भाँति विधेयक को अस्वीकार नहीं कर सकता। वह ज्यादा-से-ज्यादा स्वीकृति देने में देरी कर सकता है। राज्यों के राज्यपाल भी कुछ विशेष विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकते हैं। संविधान संशोधन विधेयक पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है।
(7) कुछ विधेयकों को संसद में पेश करने के लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति (Prior approval of the President for Introducing Certain Bills in Parliament):
संसद में कुछ विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना पेश नहीं किए जा लिए नए राज्यों को बनाने वर्तमान राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने, राज्यों के नाम बदलने वाले विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकति के बाद ही संसद में पेश किए जा सकते हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति श्री आर० वेंकटरमन ने सांसदों के पेन्शन सम्बन्धी विधेयक को इसीलिए स्वीकार करने से मना कर दिया था, क्योंकि उस पर उनकी पूर्व स्वीकृति नहीं ली गई थी।
(8) अध्यादेश जारी करना (To Issue Ordinances):
अनुच्छेद 123 के अन्तर्गत यह व्यवस्था है कि जब संसद का अधिवेशन न हो रहा हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर सकता है। ये अध्यादेश कानून की तरह ही लागू होते हैं, परन्तु संसद का अधिवेशन आरम्भ होते ही इन्हें संसद के सामने रखा जाना आवश्यक है। ये अध्यादेश संसद का अधिवेशन आरम्भ होने की तिथि से 6 सप्ताह तक लागू रह सकते हैं। संसद इसे पहले भी अस्वीकार कर सकती है। संसद के द्वारा स्वीकृत होने पर यह कानून का रूप ले लेता है।
3. वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers) राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियाँ निम्नलिखित हैं
(1) बजट (Budget)-संसद में बजट राष्ट्रपति के नाम पर ही पेश किया जाता है, जिसमें संघ सरकार की आय-व्यय का ब्यौर होता है।
(2) धन विधेयक (Money Bill)-संसद में कोई भी धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना पेश नहीं किया जा सकता।
(3) आकस्मिक निधि (Contingency Fund) भारत की आकस्मिक निधि राष्ट्रपति के अधीन है और उसमें से धन खर्च करने का अधिकार राष्ट्रपति को है।
(4) वित्त आयोग की नियुक्ति (Appointment of Finance Commission) हर पाँच वर्ष के पश्चात् राष्ट्रपति को वित्त आयोग नियुक्त करने का अधिकार है जो वित्तीय मामलों पर अपनी सिफारिशें देता है।
4. न्यायिक शक्तियाँ (Judicial Powers):
राष्ट्रपति को बहुत-सी न्यायिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं जिनमें से कुछ प्रमुख न्यायिक शक्तियाँ निम्नलिखित हैं
(1) (न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of Judges):
राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार है। वह इसका प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही करता है। .
(2) क्षमादान का अधिकार (Power of Pardon):
अनुच्छेद 72 के अधीन राष्ट्रपति किसी व्यक्ति को जिसे न्यायालय द्वारा दण्डित किया गया हो, क्षमादान दे सकता है। उसके दण्ड के स्वरूप को बदल सकता है, दण्ड को कुछ समय के लिए लागू होने से रोक सकता है।
(3) उच्चतम न्यायालय से सलाह लेना (To seek advice from the Supreme Court):
राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह किसी मामले पर उच्चतम न्यायालय की सलाह ले सकता है और उच्चतम न्यायालय को अपना परामर्श देना पड़ता है, परन्तु इसके अनुसार चलने के लिए वह बाध्य नहीं है।
4) विशेषाधिकार (Privileges):
राष्ट्रपति को कुछ न्यायिक विशेषाधिकार भी प्राप्त हैं जैसे कि राष्ट्रपति अपने अधिकार और शक्तियों के प्रयोग के सम्बन्ध में किसी भी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नहीं है। कोई न्यायालय उसके विरुद्ध उसके कार्यकाल में कोई फौजदारी कार्रवाई नहीं कर सकता और उसे बन्दी नहीं बनाया जा सकता। राष्ट्रपति के विरुद्ध दीवानी मुकद्दमा चलाने के लिए भी उसे कम-से-कम दो महीने की पूर्व सूचना दी जानी आवश्यक है। .
(ख) आपातकालीन शक्तियाँ (Emergency Powers)-संविधान के अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट का सामना करने के लिए राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल के लिखित परामर्श से राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाने पर राष्ट्रपति उस राज्य में आपातकाल लागू कर सकता है। अनुच्छेद 360 के अन्तर्गत राष्ट्रपति वित्तीय आपास्थिति की घोषणा मन्त्रिमण्डल के परामर्श से कर सकता है।
निष्कर्ष (Conclusion)-इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हैं, लेकिन संसदात्मक व्यवस्था होने के नाते राष्ट्रपति की इन शक्तियों का उपयोग प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिमण्डल करता है, लेकिन राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक होने के कारण विशेष गरिमा रखता है।
प्रश्न 6.
भारत के राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का वर्णन करो।
अथवा
राष्ट्रपति की आपात्कालीन शक्तियों का विवरण दीजिए।
अथवा
भारत के राष्ट्रपति की आपात्कालीन शक्तियों का आलोचनात्मक निरीक्षण कीजिए।
उत्तर:
संकटकालीन शक्तियाँ (Emergency Powers)-संकटकाल में प्रशासन संबंधी सारी शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में केन्द्रित हो जाती हैं। ये शक्तियाँ बहुत अधिक और व्यापक हैं। इन शक्तियों का प्रयोग भी अन्य शक्तियों की भांति वह प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह से करता है। संकट तीन प्रकार का माना गया है-
(क) युद्ध, बाह्य आक्रमण या देश में सशस्त्र विद्रोह से पैदा हुआ संकट,
(ख) किसी राज्य में सवैधानिक व्यवस्था के विफल होने से उत्पन्न संकट,
(ग) वित्तीय स्थिति के बिगड़ने से पैदा हुआ संकट।
बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह या आन्तरिक अशान्ति से उत्पन्न संकट (EmergencyArising Out of War, External Invasion, Armed Rebellion or Internal Disturbance) यदि राष्ट्रपति को इस बात का विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा आन्तरिक सशस्त्र विद्रोह के कारण खतरे में है तो वह संविधान के अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात्कालीन घोषणा कर सकता है।
सन् 1978 में पारित 44वें संशोधन के पश्चात् अनुच्छेद 352 में कहा गया है कि इस प्रकार की घोषणा मंत्रि-परिषद् द्वारा लिखित सिफारिश पर ही की जाएगी। राष्ट्रपति इस लिखित सिफारिश को दोबारा विचार करने के लिए मंत्रि-परिषद् के पास वापस भेज सकता है। अन्त में, मंत्रि-परिषद् की बात को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकार करना पड़ता है।
संसद का अनुमोदन (Approval of the Parliament)-राष्ट्रपति की इस उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों द्वारा 30 दिन के अन्दर स्वीकृति प्रदान कर दी जानी चाहिए। यदि लोकसभा का अधिवेशन नहीं हो रहा है तो राज्यसभा स्वीकृति प्रदान कर सकती है। जैसे ही लोकसभा का अधिवेशर आरम्भ होता है तो 30 दिन के अन्दर राष्ट्रपति की घोषणा को स्वीकृति प्रदान की जा सकती है। एक समय में यह घोषणा 6 महीने तक लागू हो सकती है। यदि संसद 6 महीने के पश्चात् स्वीकृति प्रदान नहीं करती तो यह घोषणा समाप्त हो जाएगी।
44वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था भी की गई है कि यदि लोकसभा के 1/10 सदस्य लिखित रूप में घोषणा को समाप्त करने का नोटिस देते हैं तो इस पर विचार करने के लिए 14 दिन के अन्दर लोकसभा का अधिवेशन बुलाया जाना अनिवार्य है और यदि इस अधिवेशन में लोकसभा के उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पारित कर दिया जाता है तो ऐसी उद्घोषणा की समाप्ति राष्ट्रपति द्वारा आदेश जारी करके कर दी जाती है।
उद्घोषणा का प्रभाव (Effects of the Proclamation)-राष्ट्रपति की इस आपात्कालीन घोषणा का निम्नलिखित प्रकार से बहुत व्यापक प्रभाव होता है-
(1) इस घोषणा से सम्पूर्ण देश का शासन राष्ट्रपति के हाथों में आ जाता है,
(2) राज्य-सूची में दिए गए विषयों पर संसद को कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है,
(3) संघ सरकार किसी भी राज्य को आदेश दे सकती है कि वह अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग किस प्रकार करे और राज्यपाल राष्ट्रपति की आज्ञानुसार कार्य करे,
(4) संविधान के 19वें अनुच्छेद द्वारा नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकार-विचार और भाषण की स्वतन्त्रता, शान्तिपूर्वक एकत्रित होने का अधिकार, संघ या समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता, देश में कहीं भी निवास का अधिकार, आने-जाने की स्वतन्त्रता का अधिकार तथा आजीविका चलाने या व्यापार के अधिकार आदि को स्थगित किया जा सकता है,
(5) राष्ट्रपति को अधिकार होगा कि वह किसी अन्य मौलिक अधिकार को अमल में लाने के लिए नागरिकों को न्यायालय में जाने से रोक सकता है,
(6) वह संघ तथा राज्यों के बीच राजस्व के बँटवारे में इच्छानुसार परिवर्तन कर सकता है,
(7) इन सबका परिणाम यह होता है कि राज्यों की आन्तरिक स्वायत्तता नष्ट हो जाती है और केन्द्रीय सरकार का राज्यों की सरकारों पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। देश में संघात्मक सरकार की जगह एकात्मक सरकार स्थापित हो जाती है।
युद्ध संबंधी आपात्कालीन घोषणा पहली बार चीन के आक्रमण के कारण 26 अक्तूबर, 1962 को राष्ट्रपति द्वारा लागू की गई थी। पाकिस्तान के सन् 1965 में आक्रमण के कारण यह घोषणा समाप्त नहीं की जा सकी। सन् 1967 के चुनाव के पश्चात् 10 जनवरी, 1968 को यह घोषणा समाप्त की गई। दिसम्बर, 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के कारण राष्ट्रपति को दोबारा राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी।
अभी बाह्य संकट की घोषणा समाप्त भी नहीं हुई थी कि जून, 1975 में आन्तरिक आपातकाल की घोषणा कर दी गई। सन् 1977 में लोकसभा के चुनावों में जनता पार्टी की सफलता के पश्चात दोनों तरह की आपात्कालीन स्थितियों को 21 मार्च, 1977 को समाप्त कर दिया गया।
(ख) राज्यों में संवैधानिक सरकार की विफलता (Failure of Constitutional Machinery in the States)-जब राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा दी गई सूचना से अथवा किसी और सूत्र से यह विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है अथवा नहीं चलाया जा सकता, तो राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार उस राज्य में संवैधानिक आपात स्थिति की घोषणा करके राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है।
संसद से स्वीकृति (Approval from Parliament)-राष्ट्रपति की इस घोषणा को संसद के दोनों सदनों द्वारा दो मास के अन्दर स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए अन्यथा दो मास के पश्चात् यह समाप्त हो जाएगी। 44वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि ऐसी घोषणा 6-6 मास करके एक वर्ष के लिए लागू की जा सकती है।
विशेष परिस्थितियों में 3 वर्ष तक इस घोषणा की अवधि को बढ़ाया जा सकता है। इसमें चुनाव आयोग द्वारा चुनाव न करा पाने की स्थिति भी शामिल है। पंजाब में इसी कारण से राष्ट्रपति शासन लगभग पाँच वर्ष तक चलता रहा जिसके लिए संविधान में सन् 1990 और 1991 में क्रमशः 67वाँ एवं 68वाँ संवैधानिक संशोधन करना पड़ा। अब तक भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों में लगभग 130 से भी अधिक बार सवैधानिक आपात् स्थिति के अन्तर्गत राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है।
घोषणा के प्रभाव (Effects of the Proclamation)
(1) राष्ट्रपति सम्बन्धित राज्य के प्रशासन को पूर्ण या आंशिक रूप से अपने हाथ में ले लेता है। राज्य का मंत्रिमंडल भंग हो जाता है और राज्य के प्रशासनिक कार्यों को वह राज्यपाल या अन्य किसी
(2) राज्य के विधानमंडल को भंग करके या स्थगित करके उसकी शक्तियाँ संसद को दे सकता है,
(3) इस उद्घोषणा से राज्य अथवा राज्यों की आन्तरिक स्वायत्तता समाप्त हो जाती है,
(4) राष्ट्रपति संसद को अथवा अन्य किसी अधिकारी को उस राज्य के सम्बन्ध में कानून बनाने की शक्ति सौंप सकता है।
(ग) वित्तीय आपात स्थिति (Financial Emergency) यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि देश की आर्थिक स्थिति अथवा साख को खतरा है तो संविधान के अनुच्छेद 360 के अन्तर्गत वह वित्तीय आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है। यह घोषणा भी दो महीने के लिए होती है और इस अवधि में संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। संसद की स्वीकृति मिल जाने पर यह घोषणा तब तक लागू रहेगी जब तक कि राष्ट्रपति इसे दूसरी घोषणा द्वारा समाप्त नहीं कर देता।
उद्घोषणा का प्रभाव (Effects of the Proclamation)
(1) वित्तीय आपात स्थिति की घोषणा के समय राष्ट्रपति राज्यों और संघ के सभी कर्मचारियों के, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी शामिल हैं, वेतन तथा भत्ते कम कर सकता है,
(2) राज्यों के धन-विधेयकों को अपनी स्वीकृति के लिए मंगवा सकता है,
(3) केन्द्र तथा राज्यों की साख को दोबारा स्थापित करने के लिए अन्य आवश्यक कदम उठा सकता है,
(4) राष्ट्रपति राज्यों के प्रति ऐसे कदम उठा सकता है जो उसकी दृष्टि में वित्तीय साख बनाए रखने के लिए आवश्यक हों। अभी तक भारत में वित्तीय आपात की घोषणा करने का अवसर नहीं आया है।
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का मूल्यांकन (Evaluation of the Emergency Powers of the President)- राष्ट्रपति की उपर्युक्त संकटकालीन शक्तियों को देखकर प्रायः यह विचार प्रकट किया जाता है कि इन शक्तियों के दुरुपयोग से देश में लोकतन्त्र समाप्त किया जा सकता है। इस विचारधारा का समर्थन करते हुए संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने संविधान के अनुच्छेदों की कड़ी आलोचना की थी।
के०टी० शाह (K.T. Shah) ने राष्ट्रपति के इन अधिकारों को संविधान में “सबसे अधिक प्रतिक्रियात्मक अध्याय का आखिरी एवं शानदार आभूषण कहा है।” इसी प्रकार श्री एच०वी० कामथ (Sh. H.V. Kamath) ने कहा है, “विश्व के लोकतांत्रिक देशों के किसी भी संविधान में इस संकटकालीन अध्याय के समान अन्य कहीं कोई अध्याय नहीं मिलता।”
इन शक्तियों की संविधान सभा में आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था, “मुझे डर है कि इस अकेले अध्याय से हम तानाशाही राज्य, पुलिस-राज्य अथवा एक ऐसे राज्य की स्थापना करने जा रहे हैं जो उन सब आदर्शों और सिद्धान्तों के विपरीत होगा जिन्हें हम पिछले कई वर्षों से समक्ष रखे हुए हैं, ऐसा राज्य जहाँ पर लाखों मासूम पुरुषों तथा स्त्रियों के अधिकार तथा स्वतन्त्रता पर निरन्तर आघात होगा; एक ऐसा राज्य जहाँ यदि शांति होगी तो यह शांति केवल श्मशान एवं मरुस्थल की शांति होगी।”
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की निम्नलिखित बातों के आधार पर आलोचना की गई है
1. मौलिक अधिकार अर्थहीन हो जाएंगे (Fundamental rights will become Meaningless):
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की सबसे बड़ी आलोचना यह है कि ये मौलिक अधिकारों को अर्थहीन बना देती हैं। इन शक्तियों के द्वारा राष्ट्रपति छेद 19 में वर्णित सातों स्वतन्त्रताओं और अनच्छेद 32 को भी निलंबित कर सकता है। राष्ट्रपति की इन शक्तियों को किसी न्यायालय में भी चुनौती नहीं दी जा सकती। अतः सत्तालोभी व्यक्ति इन शक्तियों का प्रयोग तानाशाह बनने के लिए कर सकता है।
2. राज्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता समाप्त हो जाएगी (The Financial Autonomy of the States will be Nullified):
संकटकालीन समय में राष्ट्रपति राज्य सरकारों को वित्तीय मामलों में विभिन्न प्रकार के आदेश दे सकता है, जिनसे राज्य की आर्थिक स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है। इसी सम्बन्ध में हृदयनाथ कुंजरू (H.N. Kunzru) ने कहा था, “इनसे राज्य की वित्तीय स्वतन्त्रताओं को बड़ा धक्का पहुंचेगा।”
3. राज्यों में विरोधी दलों की सरकार का दमन हो सकता है (Opposition Governments in States can be Suppressed):
विरोधी दलों को प्रारम्भ से ही यह लगता था कि सत्ताधारी दल के द्वारा राज्यों में विरोधी दल की सरकार को दबाने के लिए राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। वह राज्य सरकार को पदच्युत करने की धमकी देकर उसे डरा सकता है या उसे पदच्युत भी कर सकता है। राष्ट्रपति ने इस शक्ति के प्रयोग द्वारा 1969 ई० में केरल की साम्यवादी दल की सरकार को भंग किया था।
4. न्यायपालिका के अधिकारों को सीमित किए जाने की व्यवस्था खतरनाक है (Provision for limitation of Judicial Power is Dangerous):
राष्ट्रपति द्वारा की गई संकटकालीन घोषणा को राज्य के किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। अगर राष्ट्रीय हित में संकटकाल सम्बन्धी अनुच्छेदों को उचित मान भी लिया जाए तो भी न्यायपालिका के अधिकारों को कम किए जाने की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए थी।
संविधान के 38वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थीं कि अनुच्छेद 352 तथा 356 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा की गई। आपात्काल की घोषणाओं के औचित्य को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, लेकिन अब 44वें संशोधन के अन्तर्गत राष्ट्रपति द्वारा संकटकाल की घोषणा को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
5. संघीय विरोधी (Anti-Federal):
यह भी बड़े आश्चर्य का विषय है कि संकटकाल की घोषणा के समय संघीय ढाँचा . एकात्मक सरकार में बदल जाए और इकाइयों की सरकारें समाप्त कर दी जाएँ। इसी कारण संविधान सभा में टी०टी० कृष्णमाचारी (T.T.Krishnamachari) ने कहा था, “भारतीय संविधान साधारण काल में संघात्मक तथा युद्ध एवं अन्य संकटकालीन परिस्थितियों में एकात्मक रूप धारण कर लेता है।”
6. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए नकारात्मक सिद्धान्त (Negative Principle in respect of Independence of Judiciary):
वित्तीय संकटकाल की अवस्था में राष्ट्रपति न्यायाधीशों के वेतन को कम करके उनकी स्वतन्त्रता को हानि पहुँचा सकता है। उपर्युक्त आलोचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माता राष्ट्रीय सुरक्षा को नागरिकों की स्वतन्त्रताओं और अधिकारों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रपति को अधिक शक्तियाँ प्रदान की।
शक्तियों का औचित्य (Justification of Emergency Powers)-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियाँ बहुत अधिक विस्तृत एवं विशाल हैं, लेकिन इसके बावजूद भी इन शक्तियों को संविधान में स्थान देना अनिवार्य समझा गया है। इसके आधार अग्रलिखित हैं
1. ऐतिहासिक अनुभव (Historical Experience):
भारत का प्राचीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब कभी भी भारत की केन्द्र सरकार कमज़ोर पड़ गई, तभी हमें हानि उठानी पड़ी, इसलिए केन्द्र सरकार को शक्तिशाली बनाना आवश्यक है।
2. राष्ट्रीय सुरक्षा का भार केन्द्र सरकार पर है (National Security depends upon the Federal Government):
भारत में संघीय प्रणाली को अपनाया गया है, लेकिन देश में संघीय रूप का इतना महत्त्व नहीं है, जितना कि राष्ट्रीय सुरक्षा का है। देश की सुरक्षा के लिए व्यक्तिगत हित का त्याग कर देना चाहिए। डॉ० अम्बेडकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “केवल केन्द्र ही समस्त देश की एक समान भलाई के लिए कार्य कर सकता है। इसलिए केन्द्र को संकटकाल में राज्य सरकारों की शक्तियाँ ग्रहण करने का अधिकार देना कोई अन्याय नहीं है।”
3. महाभियोग (Impeachment):
यदि राष्ट्रपति एक निरंकुश तथा वास्तविक शासक बनने का प्रयास करेगा, तब संसद उसे महाभियोग का दोष लगाकर हटा भी सकती है।
4. राष्ट्रपति एक संवैधानिक मुखिया है (President a Constitutional Head):
भारत में इंग्लैण्ड की भाँति संसदीय प्रणाली अपनाई गई है तथा भारत का राष्ट्रपति एक संवैधानिक मुखिया है। राष्ट्रपति को प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही शासन के कार्य का संचालन करना होता है। व्यावहारिक (Practical) रूप में ऐसा कोई अवसर पैदा हो ही नहीं सकता, जब राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के बिना देश के शासन का संचालन कर सके।
5. संसद की स्वीकृति (Approval of the Parliament):
जब भारत के राष्ट्रपति के द्वारा संकटकालीन घोषणा की जाती है, तो उसके बाद निश्चित समय में संसद की स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य है। अगर संसद राष्ट्रपति की संकटकाल की घोषणा को स्वीकृति प्रदान न करे, तो संकटकाल की घोषणा उसी समय समाप्त हो जाती है। इसके अलावा संविधान के 44वें संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि लोकसभा एक प्रस्ताव पास करके किसी भी समय आपात्कालीन घोषणा को समाप्त कर सकती है।
6. मौलिक अधिकारों से देश की सुरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण (Security of the Country is more important than ntal Rights):
जब हमारे देश में संकटकाल की घोषणा लागू होती है, तब संविधान के 19वें अनुच्छेद द्वारा दी गई स्वतन्त्रताएँ भंग की जा सकती हैं, लेकिन मौलिक अधिकारों के स्थगन का यह अभिप्राय नहीं है कि संकटकाल की घोषणा से मौलिक अधिकार स्वयंमेव रद्द हो जाते हैं। विपत्ति के समय मौलिक अधिकारों की अपेक्षा देश की सुरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है।
7. वित्तीय संकटकालीन शक्तियों का होना आवश्यक है (Financial Powers are also very Essential):
संविधान में … वित्तीय संकट का प्रावधान करना भी उचित है। जब संविधान का निर्माण किया जा रहा था, उस समय भारत की आर्थिक स्थिति काफी खराब थी, तब हमारे संविधान बनाने वालों ने दूरदर्शिता का परिचय दिया।
क्या संकटकाल में राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है? (Can the President become a Dictator during Emergency?)-उपर्युक्त संकटकालीन शक्तियों के अध्ययन से यह मालूम पड़ता है कि भारतीय राष्ट्रपति संकटकाल में तानाशाह बन सकता है। वह सीज़र, जार या फ्यूरर का स्थान ले सकता है। संकटकालीन शक्तियों के उपबन्ध राष्ट्रपति को इतना शक्तिशाली बना देते हैं कि वह केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों को अपने अधीन कर लेता है। भारतीय राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा केवल वास्तविक संकट आने पर ही नहीं करता, बल्कि संकटकाल की आशंका मात्र पर भी ऐसा कर सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति का मात्र संतुष्ट होना ही काफी है और वह मन्त्रिमण्डल की सलाह भी नहीं लेता।
वह लोकसभा को भंग करके 6-8 महीने तक मनमाने ढंग से शासन कर सकता है। वह नागरिकों के अधिकारों व स्वतन्त्रताओं का हनन कर सकता है। कार्यपालिका व विधानपालिका क्षेत्र में उसकी शक्तियाँ असीमित हो जाती हैं। केन्द्र और राज्यों की वित्तीय व्यवस्था पर उसका नियंत्रण काफी मात्रा में बढ़ जाता है।
इस प्रकार आलोचकों ने भारतीय राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों की तुलना जर्मनी के वाईमर संविधान से की है जिसके आधार पर हिटलर तानाशाह बन गया था। कुछ लोगों का कहना यह है कि राष्ट्रपति केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से गुप्त मंत्रणा (Confidential Meeting) करके लम्बी अवधि तक संकटकालीन समय को जारी रख सकता है और हर बार लोकसभा को भंग करके तानाशाह बन सकता है। इस प्रकार यह ठीक है कि इन्हीं संकटकालीन शक्तियों के आधार पर ही यह आशंका व्यक्त की गई है कि वह एक तानाशाह बन सकता है।
यह आशंका उचित नहीं है, यह तो मात्र बॉल की खाल उतारने वाली बात है। भारत में संसदीय प्रणाली की व्यवस्था की गई है। कोई भी राष्ट्रपति तानाशाह बनने की सोचेगा ही नहीं। इस प्रकार की कल्पना करना ही गलत है कि राष्ट्रपति तानाशाह बनेगा। यही नहीं, कोई भी प्रधानमन्त्री या मन्त्रिमण्डल इन उपबन्धों के आधार पर राष्ट्रपति को तानाशाह बनने में सहायता नहीं करेगा। राष्ट्रपति बिना संसद की सहायता के एक दिन भी प्रशासन नहीं चला सकता।
निष्कर्ष (Conclusion)-अतः यह कहा जा सकता है कि संकटकालीन शक्तियों के बारे में जो सन्देह प्रकट किए गए हैं, वे निराधार हैं। यह बिल्कुल सत्य है कि भारत के राष्ट्रपति को जितनी संकटकालीन शक्तियाँ प्रदान की गई हैं उतनी किसी भी प्रजातान्त्रिक देश के अध्यक्ष को प्रदान नहीं की गई हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि इन शक्तियों से अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं का हनन होता है। इनसे प्रजातन्त्र की आधारशिला को धक्का पहुँचता है। इससे राज्यों की स्वतन्त्रता को भी आघात पहुँचता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि देश रहेगा तो सब-कुछ रहेगा। अधिकार और स्वतन्त्रता की तुलना में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। किसी भी कीमत पर राष्ट्रीय एकता और अस्तित्व को बनाए रखना है।
ध्यान रहे इन आपात्कालीन शक्तियों का होना जरूरी है, लेकिन उतना ही आवश्यक है इन शक्तियों पर अंकुश लगाना, इसलिए 44वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 352 पर अंकुश लगाया है और उसके दुरुपयोग की सम्भावना तो समाप्त हो गई है, परन्तु अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए कोई-न-कोई प्रबन्ध करना पड़ेगा।
अगर ऐसा न किया गया तो किसी भी दल की केन्द्रीय सरकार अपने राजनीतिक लोगों के लिए और विपक्षी दलों को आघात पहुँचाने के लिए सक्रिय हो सकती है। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकारिया आयोग ने सुझाव दिए हैं कि इस अनुच्छेद का कम-से-कम प्रयोग हो। राज्य सरकारों को पहले चेतावनी देनी चाहिए। राज्यपाल की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में रखी जानी चाहिए। वास्तविकता यह है कि यदि विरोधी दल अपनी भूमिका के प्रति सजग हैं और जनता में अपने राजनीतिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक हैं तो इन संकटकालीन उपबन्धों का गलत प्रयोग हो ही नहीं सकता।
प्रश्न 7.
भारत के राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान गणराज्यीय व्यवस्था स्थापित करता है, जिसमें राष्ट्रपति को व्यापक रूप से शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। उसे संविधान के रक्षक की भूमिका दी गई है, वह राज्य का अध्यक्ष है और समस्त कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ उसके अधीन हैं। संसद से अभिप्राय राष्ट्रपति सहित संसद है लेकिन भारतीय संविधान गणराज्य के साथ-साथ संसदात्मक व्यवस्था भी स्थापित करता है, जिसमें राज्याध्यक्ष तो नाममात्र का अध्यक्ष होता है, वास्तविक शक्तियाँ तो प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिमण्डल में पाई जाती हैं।
भारतीय राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति क्या है? यह प्रारम्भ से ही विवाद का विषय रहा है। संविधान सभा में इसके अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने आशा व्यक्त की थी कि भारतीय राष्ट्रपति संसदात्मक पद्धति वाले देशों की भाँति राज्याध्यक्ष की भूमिका निभाएगा। संविधान के अनुच्छेद 74 में कहा गया कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मन्त्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान प्रधानमन्त्री होगा, लेकिन
इसमें स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया था कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने 1959 में राष्ट्रपति के रूप में विधि-विशेषज्ञों से कहा था कि वे देखें कि क्या भारतीय संविधान में राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य है अथवा किन्हीं क्षेत्रों में स्व-विवेकी अधिकार भी रखता है?
इस विवाद को समाप्त करने तथा राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल के बीच सम्बन्धों को पूर्णतया विवाद रहित बनाने के उद्देश्य से 42वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा अनुच्छेद 74 में संशोधन किया गया जिसमें कहा गया कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल द्वारा दिए गए परामर्श के अनुसार कार्य करेगा, लेकिन जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 74 को ज्यों-का-त्यों रखते हुए राष्ट्रपति को अधिकार दिया कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल को दी गई सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है और राष्ट्रपति पुनर्विचार करने के बाद दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेगा।
इस प्रकार 42वें व 44वें संविधान संशोधनों के बाद आशा थी कि राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति के बारे में विवाद समाप्त हो जाएगा, लेकिन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह और प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी के मध्य रिश्तों ने इस विवाद को समाप्त नहीं होने दिया। सवैधानिक व व्यावहारिक राजनीति में अभी भी ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें राष्ट्रपति स्व-विवेक का प्रयोग कर सकता है अथवा अपने प्रभाव का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकता है। राष्ट्रपति के स्व-विवेकी अधिकार (Discreationary Powers of the President)-राष्ट्रपति के स्व-विवेकी अधिकार निम्नलिखित हैं
1. लोकसभा में अस्पष्टता की स्थिति में प्रधानमन्त्री की नियुक्ति (Appointment of the Prime Minister in case of Lack of a Majority of any Party in Lok Sabha):
जब लोकसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति अपने स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है, जैसे 1989 में जब किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था तो पहले सबसे बड़े दल के नेता होने के नाते राष्ट्रपति श्री वेंकटरमन ने श्री राजीव गाँधी को सरकार बनाने के लिए कहा। उनके मना करने पर वी०पी० सिंह को आमन्त्रित किया।
इसी प्रकार 1991 के चुनावों में भी श्री नरसिम्हा राव को सबसे बड़े दल का नेता होने के नाते ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया था लेकिन दोनों मामलों में राष्ट्रपति ने 30 दिन के भीतर लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने के लिए कहा था। 1984 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने श्री राजीव गाँधी को अपने स्व-विवेक के आधार पर ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया था। मार्च 1998 में हुए लोकसभा चुनावों के पश्चात् भी भूतपूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की नियुक्ति इसी प्रकार की गई।
2. लोकसभा को भंग करना (Dissolution of Lok Sabha):
सामान्यतया राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर लोकसभा को भंग करता है और इस मामले में राष्ट्रपति को कोई स्व-विवेकी अधिकार प्राप्त नहीं है, लेकिन जब ऐसा प्रधानमन्त्री लोकसभा भंग करने की सलाह देता है तो आवश्यक नहीं कि राष्ट्रपति उसकी सलाह को माने। हालांकि 1979 में चौधरी चरणसिंह तथा 1991 में चन्द्रशेखर की सलाह पर लोकसभा भंग तो की गई थी, लेकिन श्री नीलम संजीवा रेड्डी ने बाद में स्पष्ट कर दिया था कि उन्होंने चौधरी चरणसिंह की सलाह पर नहीं, बल्कि अपने स्व-विवेक का प्रयोग करते हुए ऐसा किया था।
इसी प्रकार से 1991 में राष्ट्रपति श्री आर० वेंकटरमन ने लोकसभा इसलिए भंग की थी, क्योंकि अन्य कोई दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था। 2014 में प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह के परामर्श पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा को भंग करके 16वीं लोकसभा के चुनाव घोषित किए थे।
3. विधेयक पर हस्ताक्षर करना अथवा पुनर्विचार करने के लिए वापस भेजना (To Assent the Bill or Return it for Re-consideration):
राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित किसी भी विधेयक को पुनर्विचार करने के लिए संसद के पास वापस भेज सकता है। इस मामले में राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 111 में यद्यपि राष्ट्रपति को वीटो शक्ति प्राप्त नहीं है, लेकिन संसद अथवा मन्त्रिमण्डल किसी विधेयक पर एक निश्चित समयावधि में हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते।
यह पूर्णतया राष्ट्रपति के स्व-विवेक पर निर्भर करता है कि वो कब विधेयक को स्वीकृति दे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह तथा आर० वेंकटरमन ने 1986 में पारित पोस्टल संशोधन विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। इस विवाद का अन्त तभी हुआ कि जब चन्द्रशेखर सरकार के समय संसद ने इस विधेयक को वापस ले लिया।
4. उच्चतम न्यायालय से सलाह माँगना (To Seek Advice from Supreme Court):
राष्ट्रपति संविधान के तहत कानून से सम्बन्धित किसी भी विषय पर परामर्श माँग सकता है। सामान्यतया राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही मामलों को उच्चतम न्यायालय के पास सलाह के लिए भेजता है, लेकिन अनेकों विधि-विशेषज्ञों का मानना है कि इस अधिकार का प्रयोग राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार कर सकता है और इस बारे में उसे मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
5. महान्यायाधिवक्ता से परामर्श (To Seek Advice FromAttroney General):
संविधान व कानून से सम्बन्धित किसी भी प्रश्न पर राष्ट्रपति महान्यायाधिवक्ता से सलाह माँग सकता है। इस बारे में राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल से सलाह करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे श्री आर० वेंकटरमन ने पोस्टल संशोधन विधेयक 1986 पर महान्यायाधिवक्ता से परामर्श करने के बाद ही हस्ताक्षर नहीं किए थे। इन स्व-विवेकी अधिकार क्षेत्रों के अतिरिक्त गणराज्य का अध्यक्ष व राष्ट्र का प्रथम नागरिक होने के नाते भी वह निम्नलिखित विशेषाधिकारों व अधिकारों का प्रयोग स्वतन्त्रतापूर्वक करता है
1. सलाह देना (To Advise):
राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री को विभिन्न मामलों पर सलाह देता है। सामान्यतया प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति की सलाह की अनदेखी नहीं करता है, क्योंकि राष्ट्रपति राजनीतिक दलबन्दी से ऊपर उठकर सलाह देता है।
2. प्रशासन पर नियन्त्रण (To Encourage):
राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिमण्डल को प्रोत्साहित करता है। जैसे नेहरू जी अक्सर श्री राधाकृष्णन से परामर्श करते थे। उनका मार्गदर्शन लेते थे। फलस्वरूप डॉ० राधाकृष्णन उन्हें (नेहरू जी को प्रोत्साहित किया करते थे।
3. चेतावनी देना (To Warm):
यदि प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति की सलाह की अनदेखी करता है तो राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री को चेतावनी दे सकता है और इसके गम्भीर परिणामों की ओर संकेत कर सकता है, जैसे ज्ञानी जैलसिंह ने राजीव गाँधी को चेतावनी देते हुए 1986 व 1987 में बाकायदा पत्र तक लिख डाले थे, लेकिन चेतावनी का यह अर्थ कदापि नहीं कि वह प्रधानमन्त्री को हटाने की धमकी दे सकता है।
यही नहीं, वह सरकार को भी उसके कार्यों के लिए चेतावनी दे सकता है। जैसे वर्ष 2000 के प्रारम्भ में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संविधान पर पुनः विचार (Review)करने के लिए एक आयोग का गठन करने की घोषणा की। तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के०आर० नारायणन ने संविधान की 50वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में बोलते हुए कहा कि सरकार को संविधान की आधारभूत बनावट (Basic Structure) में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना चाहिए।
4. सूचना पाने का अधिकार (To Get Information):
संविधान में प्रधानमन्त्री से अपेक्षा की गई है कि वह समय-समय पर राष्ट्रपति को प्रशासन के बारे में सूचित करता रहे। नेहरू जी 15 दिनों के पश्चात् राष्ट्रपति को सूचनाएँ देते और सलाह करते थे। इसलिए माना जाता है कि राष्ट्रपति को प्रधानमन्त्री व मन्त्रिमण्डल से सूचना पाने का अधिकार है, लेकिन ज्ञानी जैलसिंह के बार-बार कहने तथा लिखकर देने के बावजूद ठक्कर आयोग की रिपोर्ट राजीव गाँधी सरकार ने नहीं दिखाई थी।
इस प्रकार भारत का राष्ट्रपति संसदात्मक व्यवस्था होने के नाते तानाशाह बनने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि 44वें संविधान संशोधन के बाद तो वह आपात्कालीन अधिकारों का दुरुपयोग भी नहीं कर सकता है, लेकिन वह निश्चित रूप से ब्रिटेन के राजा से अधिक अच्छी स्थिति में है, क्योंकि वह गणराज्य का निर्वाचित अध्यक्ष है और संविधान के
अन्तर्गत उसे ‘संविधान का रक्षक’ (Defender of the Constitution) …. बनाया गया है जिस कारण उसे कुछ स्व-विवेकी अधिकार भी मिल गए हैं। राष्ट्रपति की स्थिति को नेहरू जी ने ठीक ही इन शब्दों में व्यक्त किया है, “हमने अपने राष्ट्रपति को कोई वास्तविक शक्ति नहीं दी, बल्कि उसके पद को बड़ा शक्तिशाली और
सम्मानजनक बनाया है।”
प्रश्न 8.
भारत के उप-राष्ट्रपति की चुनाव-पद्धति, शक्तियों व कार्यों का वर्णन करो। अथवा उप-राष्ट्रपति की शक्तियों व स्थिति की व्याख्या करें।
उत्तर:
संविधान के अनुच्छेद 63 के अन्तर्गत राष्ट्रपति की सहायता के लिए एक उप-राष्ट्रपति की व्यवस्था की गई है। उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा एक संयुक्त बैठक में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा किया जाता है।
राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति की चुनाव पद्धति में भिन्नता होने का कारण यह है कि मुख्य कार्यपालक होता है तथा उसके निर्वाचन के लिए संघीय संसद एवं राज्य विधानपालिकाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। इसके विपरीत उप-राष्ट्रपति साधारणतः केवल राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है और उसे राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उसके स्थान पर काम करने के बहुत कम अवसर प्राप्त होते हैं।
1. योग्यताएँ (Qualifications):
उप-राष्ट्रपति के पद पर चुने जाने वाले व्यक्ति के लिए की गई योग्यताएँ इस प्रकार हैं निश्चित की गई हैं
- वह भारत का नागरिक होना चाहिए,
- उसकी आयु कम-से-कम 35 वर्ष हो,
- उसके पास वे सभी योग्यताएँ हों जो राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं,
- वह केन्द्रीय अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर कार्य न कर रहा हो,
- उप-राष्ट्रपति संसद अथवा राज्य विधानसभा का सदस्य नहीं होना चाहिए।यदि वह इनमें से किसी का सदस्य है तो उप-राष्ट्रपति चुने जाने पर उसे इसकी सदस्यता से त्याग-पत्र देना पड़ता है,
- 5 जून, 1997 को राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए एक अध्यादेश के अनुसार उप-राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए जमानत की राशि 15,000 रुपए कर दी गई है,
- इसी अध्यादेश के द्वारा ही यह व्यवस्था की गई है कि उप-राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार का नाम संसद के 20 सदस्यों द्वारा प्रस्तावित तथा अन्य 20 सदस्यों द्वारा अनुमोदित होना चाहिए।
2. उप-राष्ट्रपति का चुनाव (Election of Vice-President):
देश के वर्तमान उपराष्ट्रपति का चुनाव 5 अगस्त, 2017 को संपन्न हुआ। इस चुनाव में सतारूढ़ एन०डी०ए० (NDA) के प्रत्याशी श्री वेंकैया नायडू एवं यू०पी०ए० (UPA) गठबन्धन के प्रत्याशी श्री गोपाल कृष्ण गाँधी के बीच मुख्य मुकाबला था।
इस चुनाव में निर्वाचक मण्डल के कुल सदस्यों की संख्या 790 थी जिनमें से 771 सदस्यों ने मतदान में भाग लिया। इनमें से 11 सदस्यों के मत अवैध घोषित हुए और शेष पड़े 760 मतों में से 516 मत एन०डी०ए० प्रत्याशी श्री वेंकैया नायडू को प्राप्त हुए तथा 244 मत यू०पी०ए० गठबन्धन के प्रत्याशी श्री गोपाल कृष्ण गाँधी को प्राप्त हुए। इस प्रकार इस चुनाव में विजयी प्रत्याशी श्री वेंकैया नायडू को 11 अगस्त, 2017 को राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई।
इस प्रकार श्री वेंकैया नायडू भारत के 15वें उपराष्ट्रपति तथा इस पद पर रहे व्यक्तियों की संख्या की दृष्टि से 13वें उपराष्ट्रपति बनें।
3. उप-राष्ट्रपति का कार्यकाल (Term of the Office of the Vice-President):
राष्ट्रपति की भांति उप-राष्ट्रपति का चुनाव भी 5 वर्ष के लिए होता है। यदि उप-राष्ट्रपति चाहे तो इस अवधि से पहले भी राष्ट्रपति को लिखकर अपने पद से त्याग-पत्र दे सकता है। उप-राष्ट्रपति को पद से हटाने के लिए राज्यसभा के उपस्थित सदस्यों के बहुमत से उसके हटाने का प्रस्ताव पास करना होता है और लोकसभा को उस प्रस्ताव का समर्थन करना होता है।
4. वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances):
फरवरी, 2018 में किए गए नवीन संशोधन के अनुसार उप-राष्ट्रपति को राज्य सभा के पदेन अध्यक्ष के रूप में 4 लाख रुपए प्रतिमाह प्राप्त होंगे और सेवानिवृत्ति पर उन्हें मूल वेतन का 50 प्रतिशत प्रतिमाह पेंशन के रूप में प्राप्त होंगे। इसके अतिरिक्त निःशुल्क सुसज्जित निवास-स्थान, मुफ्त डॉक्टरी सहायता, संसद सदस्य के समान निःशुल्क टेलीफोन कॉलें तथा निःशुल्क रेलवे एवं हवाई यात्राओं की सुविधा भी उप-राष्ट्रपति को प्रदान की गई है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीय उप-राष्ट्रपति को उप-राष्ट्रपति के नाते वेतन नहीं दिया जाता है, बल्कि राज्यसभा के सभापति के रूप में वेतन दिया जाता है। जब उप-राष्ट्रपति किसी कारणवश राष्ट्रपति के पद पर कार्य करता है, तब उसे राष्ट्रपति के पद से सम्बन्धित वेतन-भत्ते और अन्य सुविधाएँ मिलती हैं।
शपथ (Oath) राष्ट्रपति की भांति उप-राष्ट्रपति को भी अपना पद ग्रहण करते समय राष्ट्रपति अथवा उस द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारियों के सामने निम्नलिखित शपथ लेनी पड़ती है
“मै……….ईश्वर की शपथ लेता हूँ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा र गा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।”-(धारा 69) उप-राष्ट्रपति की शक्तियाँ तथा कार्य (Powers and Functions of the Vice-President)-संवैधानिक रूप में उप-राष्ट्रपति की शक्तियों का स्पष्ट विवेचन नहीं किया गया है, फिर भी इसका स्थान राष्ट्रपति के बाद दूसरे क्रम पर निर्धारित किया गया है। सामान्य रूप में उप-राष्ट्रपति के कार्य निम्नलिखित हो सकते हैं
1. राष्ट्रपति के रूप में (As a President):
उप-राष्ट्रपति के रूप में उसे कोई विशेष अधिकार नहीं दिए गए। हाँ, जब राष्ट्रपति का पद किसी कारणवश खाली हो जाए तो वह अस्थायी रूप से राष्ट्रपति के सभी कार्यों को सम्भालता है। जब तक नए राष्ट्रपति का निर्वाचन नहीं हो जाता। यदि मृत्यु अथवा त्याग-पत्र अथवा महाभियोग के कारण जब राष्ट्रपति का पद खाली होता है तो वह उस पद पर अधिक-से-अधिक छह मास तक रहता है। इस बीच नए राष्ट्रपति का चुनाव हो जाना आवश्यक होता है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब उप-राष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है तो उसे राष्ट्रपति की सभी शक्तियों, उन्मुक्तियों, उपबन्धियों, भत्तों और विशेष अधिकारों का अधिकार प्राप्त होगा। संसद का ‘प्रेसीडेन्ट सक्सेशन एक्ट, 1969’ यह व्यवस्था करता है कि यदि उप-राष्ट्रपति किसी कारणवश उपलब्ध नहीं है तो उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या उसके न रहने पर उसी न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश जो उस समय उपलब्ध हो, राष्ट्रपति के कार्यों को सम्पादित करेगा।
2. राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में (AsChairman of the Rajya Sabha):
भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। इस कारण वह राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। अध्यक्ष के नाते उसके निम्नलिखित कार्य इस प्रकार हैं-
- वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है,
- राज्यसभा में कानून व्यवस्था बनाए रखना उसकी जिम्मेदारी है, जो व्यक्ति सदन के अनुशासन को भंग करता है, उप-राष्ट्रपति उसे सदन से बाहर निकाल सकता है,
- वह सदस्यों को बोलने की आज्ञा देता है,
- उप-राष्ट्रपति को साधारणतः वोट देने का अधिकार नहीं है, लेकिन उसे निर्णायक मत (Casting Vote)का अधिकार है,
- वह किसी भी बिल पर मतदान करा सकता है तथा गिनती के बाद परिणाम घोषित करता है,
- जब बिल को राज्यसभा पास कर देती है, तब उप-राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर करता है,
- वह किसी भी सदस्य को असंसदीय भाषा का प्रयोग करने की मनाही कर सकता है।
3. सहयोगी कार्य (To provide co-operation to the President):
उप-राष्ट्रपति राष्ट्रपति के उन कार्यों को भी सम्पादित करता है जिनके बारे में राष्ट्रपति उप-राष्ट्रपति से सहयोग की अपेक्षा करता है। अतः इस आधार पर यह स्पष्ट होता है कि निःसन्देह उप-राष्ट्रपति की शक्तियाँ नगण्य मात्र हैं।
उप-राष्ट्रपति की स्थिति (Position of the Vice-President) संवैधानिक दृष्टि से उप-राष्ट्रपति को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं हैं, लेकिन मान-सम्मान की दृष्टि से उसका देश में दूसरा स्थान है। उसका पद गरिमा का पद है, अतः उप-राष्ट्रपति की स्थिति उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। उदाहरणस्वरूप, डॉ० राधाकृष्णन, डॉ० शंकरदयाल शर्मा तथा श्री के०आर० नारायणन ने सभी राजनीतिक दलों, राजनीतिक नेताओं तथा साधारण जनता से बहुत सम्मान प्राप्त किया है।
प्रश्न 9.
संघीय मन्त्रि-परिषद् की रचना तथा कार्यों का राष्ट्रपति तथा संसद के सन्दर्भ में विवेचन कीजिए। अथवा संघीय मन्त्रिपरिषद् की रचना, शक्तियों व कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु वह नाममात्र का अध्यक्ष है और इन शक्तियों का प्रयोग मन्त्रि-परिषद् की सलाह से करता है। संविधान के अनुच्छेद 74 में मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई है जो राष्ट्रपति को उसके कार्यों में सलाह तथा सहयोग देती है। संविधान के 42वें तथा 44वें संशोधन ने स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है। अधिक-से-अधिक वह मन्त्रिमण्डल को अपनी सलाह पर पुनः विचार करने के लिए कह सकता है।
मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Composition of Council of Ministers) सर्वप्रथम राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है। नए चुनाव के बाद लोकसभा में जिस दल को अथवा दलीय गठबन्धन को बहुमत प्राप्त होता है, उसके नेता को ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है। जब किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है, परन्तु उस समय भी ऐसे व्यक्ति को ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाना आवश्यक है जो बहुमत अपने पक्ष में कर सके। जैसे सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के लोकसभा के चुनाव में किसी दल को बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में राष्ट्रपति ने 24 राजनीतिक दलों के गठबन्धन द्वारा निर्वाचित नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया था और उसे अपना मन्त्रिमण्डल निर्माण करने को कहा था।
अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से करता है। वास्तव में प्रधानमन्त्री अन्य मन्त्रियों की सूची राष्ट्रपति को देता है और राष्ट्रपति उसी के अनुसार मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। वह इसमें अपनी इच्छा से कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। मन्त्री बनने के लिए यह योग्यता निश्चित है कि उसे 6 महीने के अन्दर-अन्दर संसद के किसी सदन का सदस्य बन जाना चाहिए नहीं तो वह अपने पद पर नहीं रह सकता। राष्ट्रपति मन्त्रियों में विभागों का बँटवारा प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही करता है।
मन्त्रियों की विभिन्न श्रेणियाँ (Categories of the Ministers) मंत्रिपरिषद् में विभिन्न स्तर के मंत्री होते हैं। पहले स्तर के मंत्रियों को कैबिनेट स्तर के मंत्री कहा जाता है। ये मंत्री किसी-न-किसी विभाग के अध्यक्ष होते हैं और इनकी संख्या प्रायः 20 से 30 तक होती है। 17वीं लोकसभा के चुनावों के बाद श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठित नई सरकार (30 मई, 2019) में 25 कैबिनेट मंत्री, 23 राज्य मंत्री तथा 11 स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्री शामिल किए गए।
दूसरे स्तर के मंत्री राज्यमंत्री (Minister of State) होते हैं। ये विशेष विभागों से संबंधित होते हैं। ये कैबिनेट स्तर के मंत्रियों को सहायता पहुँचाते हैं। इनके नीचे तीसरे स्तर के उप-मंत्री तथा संसदीय सचिव होते हैं। ये विभागीय मंत्रियों को प्रशासन और संसदीय कार्यों के संबंध में सहायता पहुँचाते हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ विभाग-रहित मंत्री (Ministers without Portfolio) भी होते हैं, जिनका काम प्रशासन चलाने में सहायता करना होता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जनवरी, 2004 में 91वें संविधान संशोधन अधिनियम के पारित होने के पश्चात् मंत्रिपरिषद् (संघ एवं राज्यों) के सदस्यों की अधिकतम संख्या निम्न सदन की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। 30 मई, 2019 में 25 कैबिनेट, 23 राज्य मन्त्री तथा 11 स्वतन्त्र प्रभार वाले राज्य मंत्री शामिल किए गए।
मन्त्रिपरिषद् का कार्यकाल (Term of Office)-मन्त्रि-परिषद् का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं है। संविधान में कहा गया है कि वे राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त अपने पद पर रहते हैं, परन्तु वास्तव में वे उस समय तक अपने पद पर बने रहते हैं जब तक लोकसभा का बहुमत उनके साथ है। यदि लोकसभा मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर दे तो मन्त्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है। जैसे 7 नवम्बर, 1990 को लोकसभा में वी०पी० सिंह मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित किया था।
प्रधानमन्त्री यदि त्यागपत्र दे दे तो समस्त मन्त्रि-परिषद् का त्यागपत्र माना जाता है जैसे मार्च, 1991 में श्री चन्द्रशेखर ने तथा 1997 में श्री इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमन्त्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। वर्ष, 1999 में भी लोकसभा ने प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के विरुद्ध अविश्वास का पत्र पास किया और प्रधानमन्त्री ने त्यागपत्र दे दिया। साथ ही मन्त्रिपरिषद् का कार्यकाल भी समाप्त हो गया। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर किसी भी मन्त्री को हटा सक का कार्यकाल अनिश्चित है।
मन्त्रिमण्डल की बैठकें (Meetings of the Cabinet)-मन्त्रिमण्डल की समय पर बैठकें होती हैं और इनकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति इनमें भाग नहीं लेता। मन्त्रि-परिषद् के कार्य तथा शक्तियाँ (Powers and Functions of the Council of Ministers)-मन्त्रि-परिषद को निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं
1. नीति-निर्धारण (Formation of National Policy) :
मन्त्रि-परिषद् का पहला कार्य राष्ट्र की नीति का निर्धारण करना है पर उसे देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं का समाधान करना और देश का विकास करना है।
2. प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over the Administration):
संघ की समस्त शक्तियों का प्रयोग मन्त्रि-परिषद् करती है और इस प्रकार वह प्रशासन पर नियन्त्रण रखती है। प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है जो मन्त्रिमण्डल के निर्णयों तथा राष्ट्रीय नीति के अनुसार उसका संचालन करता है तथा उसके सुचारु रूप से संचालन के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। सभी सरकारी कर्मचारी मन्त्रियों के अधीन कार्य करते हैं और कानूनों को लागू करते हैं।
3. विदेशों से सम्बन्ध स्थापित करना (To Maintain Foreign Relations):
मन्त्रिमण्डल ही अपनी विदेश नीति के अनुसार दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करता है, दूसरे देशों को भेजे जाने वाले राजदूतों का निर्णय करता है और दूसरे देशों से सन्धियाँ तथा समझौते करता है। युद्ध तथा शान्ति की घोषणा के बारे में निर्णय मन्त्रि-परिषद् द्वारा किया जाता है।
4. वैधानिक शक्तियाँ (Legislative Powers):
मन्त्रिमण्डल को वैधानिक शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। संसद में अधिकतर विधेयक मन्त्रि-परिषद् द्वारा पेश किए जाते हैं और उसके दल अथवा दलीय गठबन्धन का बहुमत होने के कारण उसकी इच्छा के अनुसार ही कानून बनते हैं। मन्त्रि-परिषद् की इच्छा के विरुद्ध कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता।
5. वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers):
मन्त्रिमण्डल को वित्तीय शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। बजट के बारे में सबसे पहले मन्त्रिमण्डल में निर्णय होता है और संसद में बजट तथा अन्य धन विधेयक मन्त्री ही पेश कर सकते हैं, साधारण सदस्य नहीं। का प्रस्ताव, पराने करों में कमी अथवा बढोतरी या उन्हें समाप्त करने के प्रस्ताव आदि के विधेयक मन्त्रि-परिषद निश्चित करती है और लोकसभा में उसका बहुमत होने के कारण वह पास हो जाता है। इस प्रकार वित्तीय विधेयक पर वास्तविक नियन्त्रण मन्त्रिमण्डल का है, संसद का नहीं।।
6. नियुक्तियाँ (Appointments):
देश में की जाने वाली बड़ी-बड़ी नियुक्तियों के बारे में सर्वप्रथम निर्णय मन्त्रिमण्डल में ही होता है। इन पदों में मुख्य हैं-राज्यपाल, न्यायाधीश, राजदूत, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, चुनाव आयुक्त, भारत का महाविधिवेत्ता, महालेखा परीक्षक तथा नियन्त्रक, विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष तथा सदस्य। ये सब नियुक्तियाँ राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही करता है।
7. लोकसभा को भंग करने की शक्ति (Power to Dissolve the Lok Sabha):
मन्त्रिमण्डल को यह अधिकार है कि वह लोकसभा की अवधि समाप्त होने से पहले भी उसे भंग करने की सलाह राष्ट्रपति को दे सकती है। यह अधिकार इतना प्रभावशाली होता है कि लोकसभा आसानी से मन्त्रिमण्डल का विरोध नहीं कर सकती है।
8. संकटकालीन स्थिति का निर्णय (Decision Regarding the Proclamation of Emergency):
राष्ट्रपति संकटकाल की उद्घोषणा मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही करता है। संकट की स्थिति पैदा हो चुकी है या होने की सम्भावना है, इसका निर्णय मन्त्रिमण्डल में ही होता है। इस प्रकार व्यवहार में राष्ट्रपति की आपात्कालीन शक्तियों का प्रयोग भी मन्त्रिमण्डल ही करता है।
9. उपाधियाँ देना (To Give Titles):
राष्ट्रपति नागरिकों तथा कर्मचारियों को विभिन्न उपाधियों-भारत रत्न, पद्म विभूषण, पदमश्री इत्यादि से विभूषित करता है। मन्त्रिपरिषद् की स्थिति (Position of Council of Ministers) संसदात्मक व्यवस्था में वास्तव में कार्यपालिका की समस्त शक्तियाँ मन्त्रि-परिषद् में ही निहित हैं। व्यावहारिक रूप में मन्त्रिपरिषद् की शक्तियों व कार्यों में वृद्धि हुई है, क्योंकि संसद के पास समय की कमी होती है।
संसद तो मुख्य रूप से नीतियों पर ही विचार करती है। कानून बनाने का उत्तरदायित्व व्यावहारिक रूप में मन्त्रि-परिषद् को ही प्रदान कर देती है। इसी प्रकार अधिकांश प्रस्ताव सरकारी प्रस्ताव होते हैं जिन्हें मन्त्री ही प्रस्तावित करते हैं। इन शक्तियों के अलावा आपास्थिति को लागू करवाने की शक्ति तथा लोकसभा भंग कराने की शक्ति मन्त्रि-परिषद् की स्थिति को मजबूत बना देती है।
लेकिन मन्त्रि-परिषद् भले ही कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, उस पर संसदीय नियन्त्रण सदैव बना रहता है। कोई भी मन्त्रिपरिषद् संसद की अनदेखी नहीं कर सकती विशेषकर लोकसभा की। यदि कोई मन्त्रि-परिषद् संसद की अवहेलना करती है तो उसके विरुद्ध लोकसभा अविश्वास पारित करके मन्त्रि-परिषद् को हटा सकती है। इसके अलावा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में मन्त्रि-परिषद् तानाशाह नहीं बन सकती, क्योंकि संसद के अतिरिक्त न्यायपालिका व जनता का दबाव भी रहता है जिसकी अनदेखी या उपेक्षा करना आत्महत्या के समान होता है।
प्रश्न 10.
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति, शक्तियों, कार्यों तथा स्थिति का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। अथवा भारत के प्रधानमन्त्री की भूमिका पर 150 शब्दों में एक नोट लिखें।
अथवा
“आधुनिक समय में भारत के प्रधानमन्त्री की शक्तियों में बढ़ोतरी हुई है।” इस कथन को ध्यान में रखकर भारत के प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ और स्थिति बताइए।
उत्तर:
राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है और वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रि-परिषद् है। प्रधानमन्त्री शासनाध्यक्ष है और संसदीय व्यवस्था में शासन की वास्तविक शक्तियाँ तथा अधिकार प्रधानमन्त्री के पास होते हैं, न कि राष्ट्रपति के पास। भारत में प्रधानमन्त्री के सम्बन्ध में संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति (Appointment of the Prime Minister) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है, “प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाएगी।”
इस प्रकार इस अनुच्छेद से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, लेकिन यह सच नहीं है, क्योंकि राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत दल के नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। जैसे 17वीं लोकसभा चुनाव, 2019 के बाद भाजपा नेतृत्व वाले एन.डी.ए. को 353 स्थानों में अकेले भाजपा को 303 वोटों के साथ
स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने पर बहुमत दल के निर्वाचित नेता श्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद द्वारा 30 मई, 2019 को प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाई गई। राष्ट्रपति अपने विवेक और सूझ-बूझ का उस स्थिति में प्रयोग करता है जब लोकसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता।
ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है जो केंद्र में स्थाई सरकार बना सके। राष्ट्रपति ने ऐसा सन 1989 में किया जब लोकसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं था। उस समय राष्ट्रीय मोर्चे के नेता श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था। फिर मई-जून, 1991 में लोकसभा चुनाव हुए उसमें भी किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो राष्ट्रपति ने सबसे बड़े दल के नेता श्री पामुलपति वेंकट नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।
सन् 1996 में संपन्न हुए 11वीं लोकसभा के चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। राष्ट्रपति ने पिछली परंपराओं के आधार पर लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त किया। साथ ही तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा वाजपेयी को 15 दिन के अंदर संसद में बहुमत सिद्ध करने को कहा। श्री वाजपेयी बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए और उन्होंने 13 दिन बाद अपना त्याग-पत्र दे दिया। इसके बाद 1 जून, 1996 । हर्दनहल्ली डोडागौड़ा देवेगौड़ा, जो संयुक्त मोर्चे के नेता बनें, उन्हें राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। श्री देवेगौड़ा ।
जून, 1996 को लोकसभा में बहुमत सिद्ध कर प्रधानमत्री के पद पर आसीन रहे, लेकिन कुछ समय पश्चात् बहुमत के 11 अप्रैल, 1997 को देवगौड़ा द्वारा त्याग-पत्र देने के बाद 21 अप्रैल, 1997 से श्री इंद्रकुमार गुजराल इस पद पर विराजमान रहे। इन्हें भी कुछ समय पश्चात् बहुमत के अभाव में अपना त्याग-पत्र देना पड़ा।
फरवरी-मार्च, 1998 में हुए 12वीं लोकसभा के चुनावों में भी किसी राजनीतिक दल अथवा गठबंधन को लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, चूंकि भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों को लोकसभा में अन्य दलों तथा गठबंधनों से अधिक स्थान प्राप्त थे, इसलिए राष्ट्रपति द्वारा भारतीय जनता पार्टी संसदीय दल के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार का गठन करने के लिए आमंत्रित किया गया।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अन्य सहयोगी दलों के सहयोग से केंद्र में मिली-जुली सरकार (Coalition Government) का गठन किया। सितंबर-अक्तूबर, 1999 में हुए 13वीं लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (N.D.A.) (जो 24 दलों से मिलकर बना था) को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। राजग ने श्री वाजपेयी जी को अपने गठबंधन का नेता चुना। राष्ट्रपति द्वारा श्री वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। श्री वाजपेयी ने 13 अक्तूबर, 1999 को शपथ ग्रहण की।
मई, 2004 में हुए 14वें लोकसभा चुनाव में फिर किसी भी राजनीतिक दल एवं गठबंधन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं मिला था लेकिन काँग्रेस गठबंधन सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आया। परिणामस्वरूप तत्कालिक राष्ट्रपति ऐ०पी०जे० अब्दुल कलाम ने गठबंधन दल के नेता डॉ० मनमोहन सिंह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था।
यही स्थिति मई, 2009 के चुनाव में रही। डॉ० मनमोहन सिंह को पुनः देश के प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। यद्यपि 16वीं लोकसभा चुनाव 2014 एवं 17वीं लोकसभा चुनाव, 2019 में क्रमशः 282 एवं 303 सीटों का स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने पर तात्कालिक राष्ट्रपति की ओर से श्री नरेन्द्र मोदी को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया गया और राष्ट्रपति द्वारा श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ दिलाई गई।
प्रधानमंत्री के लिए संसद का सदस्य होना अनिवार्य (To be a Member of Parliament is Essential for the Prime Minister)-संविधान के अनुच्छेद 75 (5) में यह व्यवस्था की गई है कि, “कोई गैर-सदस्य भी मंत्रिपरिषद् में शामिल किया जा सकता है, परंतु ऐसे सदस्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह 6 महीने में संसद के किसी भी सदन का सदस्य अवश्य बने।” इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्यों के लिए यह अनिवार्य है कि वह संसद के दोनों सदनों में से किसी एक सदन के सदस्य अवश्य हों।
21 जून, 1991 को जब काँग्रेस के नेता श्री पी०वी० नरसिम्हाराव को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था तो वे किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे लेकिन उन्होंने 6 महीने की शर्त के अंदर ही नवंबर, 1991 में नांदयाल लोकसभा क्षेत्र (आंध्रप्रदेश) से विजयी होकर संसद सदस्यता की शर्त को पूर्ण कर दिया। वैसे भारतीय संसदीय इतिहास में वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जो प्रधानमंत्री की नियुक्ति के समय संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं थे। 1 जून, 1996 को श्री एच०डी० देवगौड़ा को जब प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था, तब वे भी संसद के किसी सदन के नेता नहीं थे।
इन्होंने ने भी सदस्यता हेतु निश्चित अवधि के भीतर कर्नाटक राज्य विधानसभा में 20 सितंबर, 1996 को राज्यसभा की सदस्यता प्राप्त की। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में यह दूसरा अवसर था जब राज्यसभा का सदस्य प्रधानमंत्री पद पर विराजमान था। इससे पूर्व लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के पश्चात् 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो वे भी राज्यसभा की ही सदस्या थीं।
तीसरा अवसर तब आया जब 21 अप्रैल, 1997 को संयुक्त मोर्चा के नेता श्री इंद्रकुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बनें। श्री गुजराल भी उस समय राज्यसभा के सदस्य थे। भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में चौथा एवं पाँचवां इस प्रकार का अवसर तब आया जब क्रमशः 22 मई, 2004 एवं 22 मई, 2009 को डॉ. मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने। डॉ. मनमोहन सिंह भी प्रधानमंत्री की नियुक्ति के समय राज्य सभा के सदस्य थे। लेकिन 2014 एवं 2019 में प्रधानमंत्री बने श्री नरेन्द्र मोदी वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति संसद के दोनों सदनों में से किसी की भी सदस्यता वाले व्यक्ति की हो सकती है। यद्यपि सन् 1966 तक हमारे देश में लोकसभा के सदस्य को ही प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता रहा। कार्यकाल (Term) संविधान के अनुच्छेद 75 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है, “मंत्री राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यंत अपने पद पर बने रहेंगे।”
लेकिन व्यवहार में स्थिति बिल्कुल भिन्न है। प्रधानमंत्री 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है, उसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त है, वह अपने पद पर बना रहेगा। अभिप्राय यह है कि प्रधानमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं है। लोकसभा के अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा प्रधानमंत्री को हटाया जा सकता है।
10 जुलाई, 1979 को लोकसभा के विरोधी दल के नेता यशवन्त राव चहाण ने प्रधानमंत्री देसाई के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान होने से पूर्व ही प्रधानमंत्री देसाई ने 15 जुलाई, 1979 को त्याग-पत्र दे दिया, क्योंकि जनता पार्टी के अधिकतर सदस्यों ने जनता पार्टी को छोड़ दिया था। यह पहला अवसर था जब किसी प्रधानमंत्री को अविश्वास प्रस्ताव के कारण त्याग-पत्र देना पड़ा।
इसी प्रकार 13 अप्रैल, 1998 को राष्ट्रपति के०आर० नारायण ने प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सुश्री जयललिता द्वारा समर्थन वापस लिए जाने की स्थिति में लोकसभा का विश्वास प्राप्त करने के लिए कहा। श्री वाजपेयी की सरकार एक वोट से विश्वास मत प्रस्ताव में हार गई। अंततः प्रधानमंत्री को अपनी 13 माह पुरानी सरकार से त्याग-पत्र देना पड़ा। अतः स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं है।
प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ तथा कार्य (Powers and Functions of Prime Minister) इंग्लैंड के प्रधानमंत्री के बारे में, श्री ग्लैडस्टोन (Glaodstone) ने कहा था, “कहीं भी इतने छोटे पदार्थ की इतनी बड़ी छाया नहीं है।” इसी प्रकार से श्री ग्रीब्स ने कहा था, “उसकी शक्तियाँ एक तानाशाह जैसी दिखाई पड़ती हैं।” यदि इन दोनों उक्तियों को भारत के प्रधानमंत्री पर लागू किया जाए तो ये बिल्कुल ठीक बैठती हैं। भारत में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिसे इतनी व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हों। भारतीय प्रधानमंत्री की शक्तियों एवं कार्यों का विवरण निम्नलिखित है
1.मंत्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of Council of Ministers):
संघीय मंत्रिपरिषद् में राष्ट्रपति द्वारा सर्वप्रथम प्रधानमंत्री की नियुक्ति होने के बाद प्रधानमंत्री का सर्वप्रमुख कार्य मंत्रिपरिषद् का निर्माण करना है। संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार, “मंत्रिपरिषद् के मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है।”
इस अनुच्छेद के माध्यम से यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री अपने सहयोगी मंत्रियों की सूची तैयार करके राष्ट्रपति को सौंपता है और राष्ट्रपति प्रधानमंत्री द्वारा सुझाए गए व्यक्तियों को मंत्री के रूप में शपथ दिलाने का कार्य करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के द्वारा मंत्रियों की नियुक्ति एक औपचारिक कार्रवाई है क्योंकि राष्ट्रपति न तो अपनी इच्छानुसार किसी.व्यक्ति को मंत्री नियुक्त कर सकता है और न ही किसी मंत्री की नियुक्ति के संबंध में प्रधानमंत्री की सिफारिश को ठुकरा सकता है।
अतः यह निर्णय करना भी प्रधानमंत्री का कार्य है कि मंत्रिपरिषद् में किसे किस स्तर (कैबिनेट, राज्य एवं उपमंत्री) का मंत्री बनाना है। प्रायः प्रधानमंत्री का मंत्रिपरिषद् का गठन जितना आसान माना जाता है, व्यवहार में यह बहुत कठिन होता है क्योंकि मंत्रिपरिषद् के गठन के समय उन्हें अनेक बातों जैसे लोकप्रिय एवं प्रभावशाली जन कार्यपालिका नेता की ध्वनि, विषय विशेषज्ञ, प्रशासनिक दक्षता, अनुभवी नेता, विभिन्न क्षेत्रों एवं वर्गों को प्रतिनिधित्व आदि बातों का ध्यान रखना पड़ता है। जैसे 30 मई, 2019 को श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बने एन०डी०ए० के मंत्रिपरिषद् का ..46 सदस्यीय 25 कैबिनेट एवं 34 राज्य-मंत्री मंत्रिपरिषद् में उपर्युक्त बातों का ध्यान रखा गया।
2. विभागों का बँटवारा (Distribution of Portfolios):
न केवल प्रधानमंत्री मंत्रियों को नियुक्त करता है, अपितु वह उनमें विभागों का बँटवारा भी करता है। यह निर्णय वही करता है कि कौन-सा मंत्री किस विभाग का अध्यक्ष होगा तथा कौन-सा मंत्री कैबिनेट मंत्री होगा और कौन-सा मंत्री राज्य-मंत्री अथवा उप-मंत्री। विभाग बाँटने की शक्ति को प्रधानमंत्री की स्वेच्छाचारी शक्ति कहा जा सकता है। यह ठीक है कि उसे पार्टी के नेताओं को संतुष्ट रखना होता है तथा देश के प्रत्येक क्षेत्र को प्रतिनिधित्व देना… होता है, परंतु एक दृढ़ तथा लोकप्रिय नेता प्रधानमंत्री के रूप में अपनी इच्छानुसार मंत्रिपरिषद् को रूप दे सकता है।
3. लोकसभा का नेतृत्व करता है (Leader of the Lok Sabha):
इंग्लैंड की भाँति भारत का प्रधानमंत्री लोकसभा का नेतृत्व करता है। वह सदन में सरकार की नीति से संबंधित महत्त्वपूर्ण घोषणाएँ करता है और प्रश्नों का उत्तर देता है। वह लोकसभा में वाद-विवाद को आरंभ करता है तथा मंत्रियों की सदन में आलोचना से सुरक्षा करता है। वह अपने दल के सदस्यों को सचेतक (Whips) द्वारा आदेश तथा निर्देश भेजता है तथा उन पर निगरानी और नियंत्रण रखता है। सदन के वैधानिक कार्यों पर उसका विशेष प्रभाव होता है। वह स्पीकर के साथ मिलकर सदन का कार्य करता है तथा सदन में अनुशासन बनाए रखने के लिए स्पीकर की सहायता करता है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि प्रधानमंत्री लोकसभा का सदस्य न हो तो वह अपने दल के किसी अन्य व्यक्ति को लोकसभा का नेता नियुक्त करता है। जैसे 14वीं लोकसभा चुनाव के बाद नियुक्त प्रधानमंत्री 22 मई, 2004 एवं 15वीं लोकसभा चुनाव के बाद पुनः 22 मई, 2009 को नियुक्त प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने दल के अन्य सदस्य श्री प्रणब मुखर्जी को लोकसभा का नेता नियुक्त किया था, क्योंकि प्रधानमंत्री स्वयं लोकसभा के सदस्य नहीं थे, बल्कि राज्य सभा के सदस्य थे। श्री प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बन जाने पर गृहमन्त्री श्री सुशील कुमार शिंदे को लोकसभा का नेता नियुक्त किया गया था।
4. राष्ट्रपति तथा मंत्रिमंडल में कड़ी का काम करता है (Link between the President and the Cabinet):
प्रधानमंत्री राष्ट्रपति तथा मंत्रिमंडल के मध्य कड़ी का काम करता है। वह राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल के द्वारा किए गए निर्णय की सूचना देता है तथा राष्ट्रपति के विचार मंत्रिमंडल के समक्ष रखता है। राष्ट्रपति उसे किसी एक मंत्री द्वारा व्यक्तिगत रूप से किए गए निर्णयों पर मंत्रिमंडल का निर्णय लेने के लिए कह सकता है। वह राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होता है। यदि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के परामर्श से सहमत न हो तो भी उसे परामर्श मानना पड़ता है। .
5. विभिन्न विभागों में एक कड़ी (As a Link between Different Departments):
कैबिनेट का प्रधान होने के नाते वह एक अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। वह विभिन्न विभागों में उत्पन्न होने वाली आपसी समस्याओं, झगड़ों तथा मतभेदों को इस तरह सुलझाता है, जिससे प्रशासनिक कुशलता बनी रहे। कुशल प्रशासन के लिए यह आवश्यक है कि सरकार के विभिन्न विभागों में आपसी सहयोग तथा साधनों का समन्वय हो। ऐसे उद्देश्य के लिए प्रधानमंत्री विभिन्न विभागों में कड़ी की तरह कार्य करता है। वह अंतर्विभागीय मतभेदों को दूर करने के लिए मध्यस्थ तथा निर्णायक के रूप में भी कार्य करता है।
6. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार (Chief Advisor of the President):
प्रधानमंत्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है। राष्ट्रपति प्रत्येक मामले पर प्रधानमंत्री की सलाह लेता है और उसके द्वारा दी गई सलाह के अनुसार ही कार्य करता है। वह उसकी सलाह को मानने के लिए बाध्य है। राष्ट्रपति को प्रशासन के बारे में किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त करनी हो, तो वह किसी अन्य मंत्री से सीधा बात न करके प्रधानमंत्री से ही बात करता है तथा सूचना प्राप्त करता है।
7. दल का नेता (Leader of the Party):
प्रधानमंत्री अपने दल का नेता होता है। दल की नीतियों तथा कार्यक्रमों को तैयार करने में उसका मुख्य हाथ होता है। आम चुनाव के समय दल के उम्मीदवारों को खड़ा करना, उन्हें टिकटें देना तथा उन्हें चुनाव जीताने में वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उस समय वह समस्त देश का दौरा करके जनता से उसके दल के उम्मीदवारों के पक्ष में मत देने की अपील करता है।
8. सदन के नेता के रूप में (Leader of the House):
दल का नेता होने के साथ-साथ वह सदन का भी नेता होता है। प्रधानमंत्री ही संसद के अधिवेशन बुलाने की तिथि निश्चित करता है। लोकसभा की कार्रवाई चलाने का उत्तरदायित्व उस पर ही होता है। कौन-सा बिल कब प्रस्तुत किया जाएगा और कौन-सा बाद में, किस बिल पर कितना वाद-विवाद होगा, यदि विरोधी दल बिल पेश करना चाहता है तो उस पर वाद-विवाद कब होगा,
इन सब बातों का निर्णय स्पीकर प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता से सलाह करके है। प्रधानमंत्री ही सदन में महत्त्वपूर्ण नीतियों की घोषणा करता है। प्रधानमंत्री ही सरकार की नीतियों को सदन में पेश करता है। यदि विरोधी दल द्वारा इन नीतियों की आलोचना की जाती है, तो वह उन आलोचनाओं का उत्तर देता है। विशेषकर प्रधानमंत्री की महत्ता और भी बढ़ जाती है, जब वह अविश्वास के प्रस्ताव के नाजुक समय में अपने दल की रक्षा करता है।
9. प्रधानमंत्री राष्ट्र के नेता के रूप में (As the Leader of the Nation):
प्रधानमंत्री राष्ट्र का नेता है। सारा राष्ट्र प्रधानमंत्री की ओर अच्छे प्रशासन व पथ-प्रदर्शन के लिए निगाहें लगाए हुए होता है। साधारणतः चुनाव भी प्रधानमंत्री के नाम पर लडे जाते हैं; जैसे सन् 1980 में इंदिरा गांधी ने चुनाव जीता, ऐसे ही सन् 1989 में श्री वी०पी० सिंह ने जनता को विश्वास दिलाया था कि वह राष्ट्र को साफ-सुथरी सरकार देंगे। इसी प्रकार 13वीं लोकसभा चुनाव में यह नारा दिया गया है कि “अब की बारी अटल बिहारी” अर्थात् मतदाता दल को महत्त्व देते हैं, लेकिन साथ में इसके नेता को भी महत्त्व देते हैं।
इसी तरह 16वीं लोकसभा चुनाव, 2014 में भाजपा के नेता श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे के साथ मतदाताओं को आकर्षित किया तो पुनः 2019 के 17वीं लोकसभा चुनाव में ‘सबका साथ सबका विकास एवं सबका विश्वास’ के साथ पुनः एक बार फिर मोदी सरकार के नारे मा को मोदी जी के नेतृत्व में पुनः स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। अतः मतदाताओं ने मोदी जी को राष्ट्रीय नेतृत्व के रूप में पूर्णतः आस्था व्यक्त की। प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नेता के रूप में महत्त्व संकटकालीन समय में और भी बढ़ जाता है तथा सारा राष्ट्र देश के प्रधानमंत्री की ओर देखता है और जनता उसके विचारों को बड़े ध्यान से सुनती है।
10. लोकसभा को भंग कराने का अधिकार (Power to get Lok Sabha Dissolved):
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह कॉमंस सभा को भंग करवाकर देश में चुनाव करवा सकता है अर्थात उसे कॉमंस सभा को भंग करने का अधिकार प्राप्त है। इस मामले में उसे मंत्रिमंडल की सलाह लेने की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार का अधिकार भारत के प्रधानमंत्री को दिया गया है। वह राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है।
जैसा कि सन् 1977 में राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर लोकसभा को भंग किया था। राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह को मानना पड़ेगा, ऐसा प्रावधान संविधान के 42 संशोधन में किया गया था।
इसलिए वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने 17 अप्रैल, 1999 को लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव पास न करवा पाने के कारण उत्पन्न स्थिति में राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने की सलाह दे दी। परिणामस्वरूप 12वीं लोकसभा 26 अप्रैल, 1999 को राष्ट्रपति द्वारा भंग कर दी गई थी। इसी तरह के परामर्श द्वारा समय पूर्व अटल जी ने 13वीं लोकसभा को 6 फरवरी, 2004 को भंग करवा दिया गया था।
11. प्रधानमंत्री की आपातकालीन शक्तियाँ (Emergency Powers of the Prime Minister):
भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 352, 356, 360 के द्वारा भारत के राष्ट्रपति को तीन प्रकार की संकटकालीन शक्तियाँ दी गई हैं, लेकिन वास्तविक रूप में राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार ही करता है; जैसे अक्तूबर, 1962 में चीन के आक्रमण के समय, 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान के आक्रमण के समय तथा 26 जून, 1975 को आंतरिक व्यवस्था के खराब होने पर अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की सलाह से ही आपातकालीन स्थिति की घोषणा की थी।
इसी प्रकार अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्यों में राष्ट्रपति शासन भी प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार लगाया जाता है। 44वें संशोधन के अनुसार, राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अंतर्गत संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है, यदि मंत्रिमंडल संकटकाल की घोषणा करने की लिखित सलाह दे। अप्रैल, 1977 में कार्यवाहक राष्ट्रपति श्री बी०डी० जत्ती ने प्रधानमंत्री की सलाह पर नौ विधानसभाओं को भंग किया था।
प्रधानमन्त्री की स्थिति (Position of Prime Minister) संविधान तथा व्यवहार में प्राप्त शक्तियों व अधिकारों के आधार पर प्रधानमन्त्री देश का सर्वाधिक शक्तिशाली अधिकारी है जो राष्ट्र, संसद व जनता का नेता है जिसकी इच्छा, विचारधारा सर्वाधिक महत्व रखती है इसलिए संविधान सभा में डॉ० अम्बेडकर ने कहा भी था, “यदि हमारे देश में किसी अधिकारी की तुलना अमेरिकी राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह प्रधानमन्त्री की है न कि राष्ट्रपति की।”
इसी प्रकार से संविधान सभा में प्रधानमन्त्री की शक्तियों व अधिकारों को देखते हुए श्री के०टी० शाह ने डर व आशंका व्यक्त की थी, “यदि वह चाहे तो किसी भी समय देश का तानाशाह बन सकता है।” केन्टी० शाह का यह डर 1975-77 की आन्तरिक आपास्थिति ने सत्य भी सिद्ध कर दिया था, लेकिन इसे अपवाद ही कहा जा सकता है अन्यथा प्रधानमन्त्री के पास कितने भी अधिकार क्यों न हों, उसमें तानाशाह बनने की सम्भावना कम ही है, क्योंकि उसकी स्थिति अनेक बातों पर निर्भर करती है। उस पर अनेक निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं
1. दल में स्थिति (Position in Party):
प्रधानमन्त्री की स्थिति मुख्यतया इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी अपने दल में क्या स्थिति है? यदि उसका अपने दल पर नियन्त्रण है तो उसकी स्थिति बहुत मजबूत होती है जैसे नेहरू, इन्दिरा गाँधी तथा राजीव गाँधी की थी। यदि उसका अपने दल पर नियन्त्रण कम है तो उसकी स्थिति कमजोर होती है, जैसे मोरारजी देसाई, वी०पी० सिंह की थी।
उदाहरणार्थ जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी या राजीव गाँधी ने जिसे चाहा अपने मन्त्रिमण्डल में लिया और जब चाहा निकाल दिया। इसके विपरीत मोरारजी देसाई को अपने मन्त्रिमण्डल में वाजपेयी को विदेश मन्त्री, चरणसिंह को गृहमन्त्री के रूप में लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। कार्यपालिका
2. दल की संसद में स्थिति (Position of Party in Parliament):
प्रधानमन्त्री की स्थिति इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसके दल की संसद में क्या स्थिति है? यदि उसके दल को संसद में भारी भरकम बहुमत प्राप्त है तो उसकी स्थिति बहुत मजबूत हो जाती है जैसे नेहरू जी की थी या 1971 के बाद इन्दिरा गाँधी की हो गई थी और बाद में राजीव गाँधी की थी कि जब काँग्रेस को लोकसभा में दो तिहाई या उससे अधिक भी अधिक स्थान प्राप्त थे, लेकिन वी०पी० सिंह, चन्द्रशेखर की स्थिति कमजोर थी, क्योंकि इनके दलों को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत भी प्राप्त नहीं था और अन्य दलों पर निर्भर करते थे।
3. जनता में लोकप्रियता (Popularity in Public):
प्रधानमन्त्री की स्थिति इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह जनता में कितना लोकप्रिय है? यदि वह जनता में अति लोकप्रिय है तो उसकी स्थिति बहुत मजबूत होती है? जैसे नेहरू, इन्दिरा गाँधी अथवा राजीव गाँधी की थी। यदि वह जनता में बहुत लोकप्रिय नहीं है तो उसकी स्थिति कमजोर होती है, जैसे मोरारजी देसाई, चरणसिंह, वी०पी० सिंह या चन्द्रशेखर की थी।
4. व्यक्तित्व (Personality):
प्रधानमन्त्री का व्यक्तित्व भी उसकी स्थिति निर्धारित करता है। करिश्माई व्यक्तित्व वाले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी अपने व्यक्तित्व के कारण मज़बूत प्रधानमन्त्री सिद्ध हुए, जबकि मोरारजी देसाई, चरणसिंह, वी०पी० सिंह, चन्द्रशेखर का व्यक्तित्व करिश्माई नहीं था, अतः उनकी स्थिति कभी भी मज़बूत नहीं रही।
5. निष्कर्ष (Conclusion):
इस प्रकार प्रधानमन्त्री की स्थिति अनेक बातों पर निर्भर करती है और कोई भी प्रधानमन्त्री अब तानाशाह नहीं बन सकता है। 1977 में इन्दिरा गाँधी की करारी हार ने सिद्ध कर दिया था कि भारतीय जनमत जागरूक है और वह किसी भी करिश्माई व्यक्तित्व वाले व्यक्ति की तानाशाही को सहन करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस प्रकार प्रधानमन्त्री पर उसके दल, संसद व जनमत का दबाव रहता है। उसकी स्थिति ‘समकक्षों में प्रथम’ (First Among Equals) की है, तानाशाह की नहीं।
प्रश्न 11.
राष्ट्रपति के मन्त्रिपरिषद् तथा संसद के साथ सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान संसदात्मक व्यवस्था की स्थापना करता है। इस कारण राष्ट्रपति का मन्त्रि-परिषद् व संसद से प्रत्यक्ष एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है। राष्ट्रपति तथा मन्त्रिपरिषद् में सम्बन्ध (Relationship Between President and the Council of Ministers) राष्ट्रपति तथा मन्त्रि-परिषद् में निम्नलिखित प्रकार से सम्बन्ध पाए जाते हैं
1. राष्ट्रपति तथा मन्त्रिपरिषद् का गठन (President and Composition of Council of Ministers):
राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियक्ति करता है, लेकिन राष्ट्रपति का यह अधिकार औपचारिकता मात्र है, क्योंकि राष्ट्रपति को उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री बनाना पड़ता है जिसे लोकसभा का विश्वास अर्थात् बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, लेकिन जब किसी भी प्रधानमन्त्री पद के दावेदार को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो राष्ट्रपति अपने स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है,
जैसे 1979 में मोरारजी देसाई और चरणसिंह में से राष्ट्रपति ने चरणसिंह को प्रधानमन्त्री बनाया था और 1990 में चन्द्रशेखर को प्रधानमन्त्री बनाया था। अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से करता है। राष्ट्रपति को उन व्यक्तियों को भी प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार मन्त्री नियुक्त करना पड़ता है जिन्हें वो व्यक्तिगत रूप से भले ही नापसन्द करता हो। मन्त्रियों के विभागों का बंटवारा भी राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुरूप करता है।
2. राष्ट्रपति तथा मन्त्रि-परिषद् का विघटन (President and Dismissal of the Council of Ministers):
संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार, “मन्त्री अपने पद पर राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त रहते हैं” अर्थात् जब तक राष्ट्रपति चाहे तभी तक मन्त्री अपने पद पर रह सकते हैं, लेकिन संसदात्मक व्यवस्था होने के नाते राष्ट्रपति के इस अधिकार का प्रयोग वास्तव में प्रधानमन्त्री करता हैं, न कि राष्ट्रपति । व्यवहार में राष्ट्रपति उस प्रधानमन्त्री को उसके पद से नहीं हटा सकता जिसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त है।
इसी प्रकार से अपनी इच्छा से वह किसी मन्त्री को भी नहीं हटा सकता यदि उस मन्त्री को प्रधानमन्त्री का समर्थन प्राप्त है, लेकिन कभी-कभी ऐसी परिस्थिति भी उत्पन्न हो जाती है जबकि प्रधानमन्त्री को राष्ट्रपति की इच्छा को देखते हुए किसी मन्त्री से त्यागपत्र देने के लिए कहना पड़ता है, जैसे 1987 में प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी को राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की इच्छा को देखते हुए श्री के०के० तिवारी से मन्त्री पद त्यागने के लिए कहना पड़ा था।
3. राष्ट्रपति तथा मन्त्रि-परिषद् की सलाह (President and Advice of the Council of Ministers):
संविधान के अनुच्छेद 74 में कहा गया है कि राष्ट्रपति की सहायता एवं सलाह के लिए एक मन्त्रि-परिषद् होगी। संसदात्मक व्यवस्था होने के कारण राष्ट्रपति मन्त्रि-परिषद् द्वारा दी गई सलाह के अनुसार कार्य करता है। 42वें तथा 44वें संविधान संशोधनों के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राष्ट्रपति मन्त्रि-परिषद् को दी गई सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है और पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है।
4. प्रशासन के लिए राष्ट्रपति नहीं, मन्त्रिपरिषद् उत्तरदायी (The Council of Ministers, not the President is Responsible for Administration):
यद्यपि संविधान में समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित हैं, लेकिन देश के प्रशासन के लिए राष्ट्रपति उत्तरदायी नहीं है। देश के प्रशासन के लिए संसदात्मक व्यवस्था होने के नाते मन्त्रि-परिषद् उत्तरदायी है जिस कारण राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रि-परिषद् करती है।
5. राष्ट्रपति का मन्त्रि-परिषद् को सलाह देने, चेतावनी देने व उत्साहित करने का अधिकार (Presidential Right to Advice, Encourage and Warn the Council of Ministers):
राष्ट्रपति ब्रिटिश राज्य की भांति मन्त्रि-परिषद् को सलाह दे सकता है, उत्साहित कर सकता है और जो मन्त्रि-परिषद् उसकी सलाह की अनदेखी करे, उसे चेतावनी दे सकता है, लेकिन महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह मन्त्रिपरिषद् को भंग नहीं कर सकता।
6. राष्ट्रपति का सूचना पाने का अधिकार (Presidential Right to be Informed):
राष्ट्रपति प्रधानन्त्री से देश के शासन व प्रशासन से सम्बन्धित सूचनाएँ माँग सकता है। वास्तव में राष्ट्रपति का सूचना पाने का अधिकार ही ऐसा अधिकार है जो राष्ट्रपति को उसके कर्तव्यों का वहन करने में सक्षम बनाता है।
राष्ट्रपति तथा संसद में सम्बन्ध (Relationship between the President and the Parliament):
संसदात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रपति तथा संसद में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ की एक संसद होगी जो राष्ट्रपति तथा दोनों सदनों लोकसभा व राज्य सभा से मिलकर बनेगी।” इस प्रकार संसद से अभिप्राय राष्ट्रपति सहित संसद से है। यद्यपि राष्ट्रपति लोकसभा अथवा राज्यसभा का सदस्य नहीं हो सकता, लेकिन राष्ट्रपति का संसद से निम्नलिखित प्रकार से घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
1. राष्ट्रपति का निर्वाचन (Election of the President):
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मण्डल करता है जिसमें लोकसभा तथा राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं।
2. राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाना (Impeachment of the President):
राष्ट्रपति को संविधान की रक्षा न कर पाने के आरोप में महाभियोग द्वारा हटाने का एकमात्र अधिकार संसद को प्राप्त है।
3. संसद में सदस्यों को मनोनीत करना (Nomination of Members in the Parliament):
भारतीय संविधान राष्ट्रपति को राज्यसभा में ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार देता है जिनका समाज सेवा या साहित्य के किसी क्षेत्र में नाम हो। राष्ट्रपति लोकसभा में भी स्वेच्छा से दो एंग्लो-इण्डियन जाति के सदस्यों को मनोनीत कर सकता था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दिसम्बर, 2019 में पारित 104वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एंग्लो-इण्डियन जाति की मनोनयन प्रणाली को समाप्त करने का निर्णय किया गया।
4. संसद का सत्र बुलाना और सत्रावसान करना (To Call the Session and Adjournment Sine Die):
राष्ट्रपति ही संसद के सत्रों को समय-समय पर बुलाता है। वह संसद के अधिवेशनों का समय बढ़ा सकता है, स्थगित कर सकता है और सत्रावसान करता है। राष्ट्रपति ही संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाता है।
5. संसद को सम्बोधित करना (ToAddress the Parliament):
राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को अलग-अलग अथवा संयुक्त रूप से सम्बोधित कर सकता है। नई संसद का पहला तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के अभिभाषण से ही प्रारम्भ होता है।
6. सन्देश भेजना (To Send Message):
संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति संसद में किसी भी सदन को सन्देश भेज सकता है और सदन उस सन्देश पर शीघ्र ही विचार करता है।
7. अनेक आयोगों की रिपोर्ट संसद में पेश करना (To Put the Reports of the Various Commissions Before the Parliament):
राष्ट्रपति अनेक आयोगों जैसे वित्त आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश करता है। ये आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को . प्रस्तुत करते हैं और राष्ट्रपति इन रिपोर्टों को संसद में मन्त्रियों के द्वारा प्रस्तुत करता है।
8. राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति (Prior permission of the President):
कुछ विधेयक जैसे धन विधेयक, नए राज्यों को बनाने, वर्तमान राज्यों के नाम व सीमा में परिवर्तन सम्बन्धी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही संसद में प्रस्तावित किए जा सकते हैं।
9. विधेयकों पर स्वीकृति (Assent on the Bills):
संसद द्वारा पारित विधेयक स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजे जाते हैं। जब तक राष्ट्रपति हस्ताक्षर नहीं कर देता, तब तक विधेयक कानून का रूप नहीं ले पाता है।
10. अध्यादेश जारी करना (To Issue Ordinances):
जब संसद का अधिवेशन न चल रहा हो और किसी कानून की तुरन्त जरूरत हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करता है। यह अस्थायी प्रबन्ध है।
11. लोकसभा भंग करना (To Dissolve the Lok Sabha):
राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर लोकसभा को भंग भी कर सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति के मन्त्रिपरिषद् व संसद से घनिष्ठ सम्बन्ध होते हैं।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें
1. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में वास्तविक शक्तियाँ किसके पास हैं?
(A) राष्ट्रपति
(B) प्रधानमंत्री
(C) मंत्रिमंडल
(D) जनता
उत्तर:
(A) राष्ट्रपति
2. भारत में संसदीय शासन प्रणाली में निम्नलिखित दोष है
(A) संगठित विरोधी दल का अभाव
(B) संसद सदस्यों की निष्क्रिय भूमिका
(C) प्रधानमंत्री की प्रमुख स्थिति
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
3. भारत की समस्त सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है
(A) प्रधानमंत्री
(B) रक्षामंत्री
(C) राष्ट्रपति
(D) उप-राष्ट्रपति
उत्तर:
(C) राष्ट्रपति
4. निम्नलिखित में से किस राज्य में इकहरी (Singular) कार्यपालिका है?
(A) स्विट्जरलैंड
(B) रूस
(C) अमेरिका
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) अमेरिका
5. राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार का नाम कितने निर्वाचकों द्वारा प्रस्तावित होना आवश्यक है?
(A) 40
(B) 50
(C) 30
(D) 60
उत्तर:
(B) 50
6. राष्ट्रपति को उसके पद से हटाया जा सकता है?
(A) साधारण मुकद्दमे द्वारा
(B) महाभियोग द्वारा
(C) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा
(D) प्रधानमंत्री द्वारा
उत्तर:
(B) महाभियोग द्वारा
7. उप-राष्ट्रपति का चुनाव किया जाता है
(A) जनता द्वारा
(B) राष्ट्रपति द्वारा
(C) संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा
(D) राज्य विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा
उत्तर:
(C) संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा
8. भारत का राष्ट्रपति चुना जाता है
(A) निर्वाचक मंडल द्वारा
(B) संसद द्वारा
(C) जनता द्वारा
(D) सभी राज्य विधानसभाओं द्वारा
उत्तर:
(A) निर्वाचक मंडल द्वारा
9. भारत के वर्तमान राष्ट्रपति हैं
(A) श्री प्रणब मुखर्जी
(B) श्री रामनाथ कोविंद
(C) श्रीमती प्रतिभा पाटिल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) श्री रामनाथ कोविंद
10. राष्ट्रपति को पद की शपथ दिलाता है
(A) उप-राष्ट्रपति
(B) प्रधानमन्त्री
(C) संसद
(D) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
उत्तर:
(D) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
11. यदि राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति दोनों के पद रिक्त हों तो कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा
(A) दिल्ली उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(B) लोकसभा का अध्यक्ष
(C) भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
12. राष्ट्रपति के पास निम्नलिखित परिस्थिति में संकटकालीन घोषणा करने का अधिकार है
(A) विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र क्रान्ति के समय
(B) जब देश की वित्तीय साख को खतरा हो
(C) किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी के विफल होने
(D) उपर्युक्त सभी की स्थिति में
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
13. राष्ट्रपति का पद खाली होने पर कार्यवाहक राष्ट्रपति (Acting President) के रूप में कौन कार्य करता है?
(A) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(B) लोकसभा का अध्यक्ष
(C) उप-राष्ट्रपति
(D) प्रधानमन्त्री
उत्तर:
(C) उप-राष्ट्रपति
14. निम्नलिखित में से उप-राष्ट्रपति का कार्य है
(A) लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना
(B) राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना
(C) प्रधानमन्त्री को पद से हटाना
(D) संसद को भंग करना
उत्तर:
(B) राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना
15. भारत के उप-राष्ट्रपति के चुनाव हेतु न्यूनतम आयु होनी चाहिए.
(A) 32 वर्ष
(B) 35 वर्ष
(C) 25 वर्ष
(D) 18 वर्ष
उत्तर:
(B) 35 वर्ष
16. भारत का राष्ट्रपति अपना त्याग-पत्र निम्नलिखित में से किसे सौंपता है?
(A) लोकसभा अध्यक्ष
(B) भारत के मुख्य न्यायाधीश
(C) उप-राष्ट्रपति
(D) प्रधानमन्त्री
उत्तर:
(C) उप-राष्ट्रपति
17. वित्त आयोग की नियुक्ति की जाती है?
(A) प्रधानमंत्री द्वारा
(B) उप-राष्ट्रपति द्वारा
(C) राष्ट्रपति द्वारा
(D) मंत्रिपरिषद् द्वारा
उत्तर:
(C) राष्ट्रपति द्वारा
18. मंत्रि-परिषद् अपने कार्यों व कार्यकाल के लिए सामूहिक रूप से निम्नलिखित में से किस एक के प्रति उत्तरदायी है?
(A) राष्ट्रपति
(B) प्रधानमंत्री
(C) लोकसभा
(D) राज्यसभा
उत्तर:
(C) लोकसभा
19. निम्नलिखित संशोधन के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के सुझाव को पुनर्विचार के लिए भेज सकता है
(A) 45वें
(B) 43वें
(C) 42वें
(D) 44वें
उत्तर:
(D) 44वें
20. मंत्रिमंडल उत्तरदायी है
(A) संसद के प्रति
(B) प्रधानमंत्री के प्रति
(C) राष्ट्रपति के प्रति
(D) स्पीकर के प्रति
उत्तर:
(A) संसद के प्रति
21. भारत की संघीय मंत्रि-परिषद् में निम्नलिखित में से कौन शामिल होते हैं?
(A) राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति
(B) प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री
(C) राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री
22. संघीय मंत्रिमंडल का नेता है
(A) राष्ट्रपति
(B) प्रधानमंत्री
(C) उप-राष्ट्रपति
(D) लोकसभा अध्यक्ष
उत्तर:
(B) प्रधानमंत्री
23. प्रधानमंत्री को बहुमत का विश्वास प्राप्त होना चाहिए
(A) लोकसभा में
(B) राज्यसभा में
(C) राज्य विधान परिषद् में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) लोकसभा में
24. प्रधानमंत्री का कार्यकाल कितना है?
(A) 5 वर्ष
(B) 6 वर्ष
(C) 4 वर्ष
(D) लोकसभा के बहुमत के समर्थन पर निर्भर है
उत्तर:
(D) लोकसभा के बहुमत के समर्थन पर निर्भर है
25. वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री निम्नलिखित में से कौन हैं?
(A) श्री अमित शाह
(B) श्री राजनाथ सिंह
(C) श्री नरेन्द्र मोदी
(D) डॉ० मनमोहन सिंह
उत्तर:
(C) श्री नरेन्द्र मोदी
26. निम्नलिखित में से राज्य की कार्यपालिका का कौन अध्यक्ष होता है?
(A) राष्ट्रपति
(B) उप-राष्ट्रपति
(C) प्रधानमंत्री
(D) राज्यपाल
उत्तर:
(D) राज्यपाल
27. राज्य के राज्यपाल को मासिक वेतन मिलता है
(A) 80,000 रुपए
(B) 1,10,000 रुपए
(C) 1,25,000 रुपए
(D) 3,50,000 रुपए
उत्तर:
(D) 3,50,000 रुपए
28. वर्तमान में हरियाणा के राज्यपाल निम्नलिखित में से कौन हैं?
(A) श्री जगन्नाथ पहाड़िया
(B) श्री सत्यदेव नारायण आर्य
(C) श्री कप्तान सिंह सोलंकी
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) श्री सत्यदेव नारायण आर्य
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें
1. कार्यपालिका अध्यक्ष की नियुक्ति के कोई दो तरीके बताइए।
उत्तर:
- जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव,
- संसद अथवा निर्वाचन-मंडल द्वारा चुनाव।
2. 17वीं लोकसभा में विरोधी दल के नेता कौन हैं?
उत्तर:
कोई भी नहीं।
3. भारत में कौन-सी शासन प्रणाली अपनाई गई है?
उत्तर:
संसदीय शासन प्रणाली।
4. भारत के प्रथम व वर्तमान राष्ट्रपति का नाम लिखें।
उत्तर:
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद थे तथा वर्तमान राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद हैं।
5. भारत के उप-राष्ट्रपति का चुनाव कौन करता है?
उत्तर:
भारत के उप-राष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों द्वारा किया जाता है।
6. भारत के वर्तमान उप-राष्ट्रपति का नाम लिखें।
उत्तर:
भारत के वर्तमान उप-राष्ट्रपति श्री एम० बैंकेया नायडू हैं।
रिक्त स्थान भरें
1. संघीय कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष ……… है।
उत्तर:
प्रधानमन्त्री
2. संघीय कार्यपालिका का नाममात्र संवैधानिक अध्यक्ष ………… है।
उत्तर:
राष्ट्रपति
3. राज्य का संवैधानिक कार्यपालिका अध्यक्ष ………….. होता है।
उत्तर:
राज्यपाल
4. वर्तमान में हरियाणा के राज्यपाल …………… एवं मुख्यमंत्री ……………. है।
उत्तर:
श्री सत्यदेव नारायण आर्य एवं श्री मनोहर लाल खट्टर
5. वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति ………….. हैं।
उत्तर:
श्री रामनाथ कोविंद
6. वर्तमान में भारत के उप-राष्ट्रपति ………….. हैं।
उत्तर:
श्री वैंकेया नायडू
7. राष्ट्रपति का मासिक वेतन ………….. रुपए हैं।
उत्तर:
5 लाख
8. उप-राष्ट्रपति को मासिक वेतन के रूप में ……………. मिलता है।
उत्तर:
कोई वेतन नहीं
9. राज्यपाल का मासिक वेतन …………. रुपए है।
उत्तर:
3.50 लाख
10. राष्ट्रपति को ………….. के द्वारा शपथ दिलाई जाती है।
उत्तर:
मुख्य न्यायाधीश
11. राष्ट्रपति को अनुच्छेद ………… के अन्तर्गत राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की शक्ति प्राप्त है।
उत्तर:
352
12. राष्ट्रपति को भारत की ………. में से वेतन दिया जाता है।
उत्तर:
संचित निधि
13. उप-राष्ट्रपति ………… की कार्यवाही का संचालन करता है।
उत्तर:
राज्यसभा
14. केन्द्रीय मंत्री परिषद् अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से …………. के प्रति उत्तरदायी होती है।
उत्तर:
लोकसभा
15. राष्ट्रपति के चुनाव हेतु न्यूनतम आयु ………. होनी चाहिए।
उत्तर:
35 वर्ष
16. भारत में ………… शासन-प्रणाली अपनाई गई है।
उत्तर:
संसदीय