Class 11

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 विकास

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 विकास

HBSE 11th Class Political Science विकास Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आप ‘विकास’ से क्या समझते हैं? क्या ‘विकास’ की प्रचलित परिभाषा से समाज के सभी वर्गों को लाभ होता है?
उत्तर:
‘विकास’ से तात्पर्य लोगों की उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन से लिया जाता है । यद्यपि वर्तमान भौतिकवादी युग में ‘विकास’ शब्द का प्रयोग प्रायः आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और समाज के आधुनिकीकरण के संबंध में होता है। लेकिन ‘विकास’ की यह प्रचलित परिभाषा काफी संकीर्ण है। विकास को पहले से निर्धारित लक्ष्यों; जैसे बाँध, उद्योग, अस्पताल जैसी परियोजनाओं को पूरा करने से जोड़कर देखा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।

वास्तव में विकास का काम समाज के व्यापक नज़रिए से नहीं होता। इस प्रक्रिया में समाज के कुछ हिस्से लाभान्वित होते हैं जबकि शेष लोगों को भारी हानि उठानी पड़ती है। ऐसा माना जाता है कि विकास के अधिकांश लाभों को ताकतवर लोग हथिया लेते हैं और उसकी कीमत अति गरीबों और आबादी के असुरक्षित हिस्से को चुकानी पड़ती है।

प्रश्न 2.
जिस तरह का विकास अधिकतर देशों में अपनाया जा रहा है उससे पड़ने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
विकास का जो मॉडल अधिकतर देशों में अपनाया जा रहा है, उसके कारण समाज और पर्यावरण को भारी हानि होती है जो अग्रलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं
1.सामाजिक प्रभाव-विकास की प्रक्रिया में अन्य चीज़ों के अतिरिक्त बड़े बाँधों का निर्माण, औद्योगिक गतिविधियाँ और खनन कार्य शामिल हैं। जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ। विस्थापन के फलस्वरूप लोग अपनी आजीविका खो बैठे, जिससे उनका जीवन और भी दयनीय बन गया।

अगर ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परंपरागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होते हैं, तो वे समाज के हाशिए पर चले जाते हैं। बाद में वे शहरी और ग्रामीण गरीबों की विशाल आबादी में शामिल हो जाते हैं। लंबी अवधि में अर्जित परंपरागत कौशल नष्ट हो जाते हैं। संस्कृति का भी विनाश होता है, क्योंकि जब लोग नई जगह पर जाते हैं, तो वे अपनी पूरी सामुदायिक जीवन-पद्धति को भी समाप्त कर बैठते हैं।

2. पर्यावरणीय प्रभाव-विकास के कारण अनेक देशों में पर्यावरण को बहुत अधिक क्षति पहुँची है और इसके परिणामों को विस्थापित लोगों सहित पूरी आबादी महसूस करने लगी है। वनों को अंधाधुंध काटा जा रहा है जिसके कारण भूमंडलीय ताप बढ़ने लगा है। वायुमंडल में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की वजह से आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है जिससे बाढ़ का खतरा भी हमेशा बना रहता है।

वायु प्रदूषण एक अलग गंभीर समस्या है। इसके साथ-साथ संसाधनों के अविवेकशील उपयोग का वंचितों पर तात्कालिक और अधिक तीखा प्रभाव पड़ता है। जंगलों के नष्ट होने से उन्हें जलावन की लकड़ी, जड़ी-बूटी और आहार आदि मिलने में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। नदियों-तालाबों के सूखने और भूमिगत जलस्तर के गिरने के कारण पीने के पानी की समस्या भी दैनिक जीवन में उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 3.
विकास की प्रक्रिया ने किन नए अधिकारों के दावों को जन्म दिया है?
उत्तर:
विकास की प्रक्रिया ने जिन नए अधिकारों के दावों को जन्म दिया है, वे निम्नलिखित रूप में देखे जा सकते हैं

  • लोगों को यह अधिकार है कि उनके जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में उनसे परामर्श लिया जाए।
  • लोगों को आजीविका का अधिकार दिया गया है जिसका दावा वे सरकार से अपनी आजीविका के स्रोत पर खतरा पैदा होने पर कर सकते हैं।
  • आदिवासी और आदिम समुदाय नैसर्गिक संसाधनों के उपयोग के परंपरागत अधिकारों का दावा कर सकते हैं।

प्रश्न 4.
विकास के बारे में निर्णय सामान्य हित को बढ़ावा देने के लिए किए जाएँ, यह सुनिश्चित करने में अन्य प्रकार की सरकार की अपेक्षा लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्या लाभ हैं?
उत्तर:
यह सत्य है कि अन्य प्रकार की सरकारों की अपेक्षा लोकतांत्रिक सरकार विकास के बारे में जो भी निर्णय लेती है, वह निर्णय सामान्य हितों को अधिक बढावा देने वाला होता है। वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का काम जनसमूह के विभिन्न वर्गों की प्रतिस्पर्धात्मक माँगों को पूरा करने के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य की दावेदारियों के बीच संतुलन कायम करना होता है।

लोकतांत्रिक सरकार और अन्य प्रकार की सरकारें; जैसे तानाशाही के बीच यही अंतर है कि लोकतंत्र में संसाधनों को लेकर विरोध या बेहतर जीवन के बारे में विभिन्न विचारों के द्वंद्व का हल विचार-विमर्श और सभी अधिकारों के प्रति सम्मान के माध्यम से होता है, जबकि तानाशाही में ऐसे निर्णय जबरदस्ती ऊपर से थोपे जाते हैं।

इस प्रकार लोकतंत्र में बेहतर जीवन को प्राप्त करने में समाज का हर व्यक्ति भागीदार है और विकास की योजनाएँ बनाने और उनके कार्यान्वयन के तरीके ढूँढने में भी प्रत्येक व्यक्ति शामिल होता है। लोकतांत्रिक देशों में निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लोगों के अधिकार को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय निकायों में निर्णय लेने के अधिकार और संसाधन बढ़ाने की वकालत इसलिए की जाती है, क्योंकि इससे लोगों को अत्यधिक प्रभावित करने वाले मसलों पर लोगों से परामर्श लिया जाता है जिससे समुदाय को नुकसान पहुँचा सकने वाली परियोजनाओं को रद्द करना संभव हो पाता है। इसके अतिरिक्त योजना बनाने और नीतियों के निर्धारण में संलग्नता से लोगों के लिए अपनी जरूरतों के अनुसार संसाधनों के उपयोग की भी सम्भावना बनती है जो कि अन्य किसी भी प्रकार की सरकार में इन सब बातों की संभावनाएँ नहीं रहती हैं।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 विकास

प्रश्न 5.
विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जवाबदेह बनवाने में लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन कितने सफल रहे हैं?
उत्तर:
सामाजिक एवं पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जवाबदेही बनाने सम्बन्धी आंदोलन आंशिक रूप से ही सफल हो पाए हैं। इस संबंध में हम ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का उदाहरण ले सकते हैं। यह आंदोलन नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना के अंतर्गत बनने वाले बाँधों के निर्माण के खिलाफ विस्थापित लोगों द्वारा चलाया गया।

बड़े बाँधों के इन समर्थकों का दावा है कि इससे बिजली पैदा होगी, काफी बड़े इलाके में जमीन की सिंचाई में सहायता मिलेगी और सौराष्ट्र एवं कच्छ के रेगिस्तानी इलाके को पेयजल भी उपलब्ध होगा। ऐसे बाँधों के विरोधियों द्वारा इन दावों का खंडन किया गया। विरोधियों का तर्क है कि इस परियोजना के कारण लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा है और उनकी आजीविका उनसे छिन गई है।

इन विरोधियों का यह भी कहना है कि विशाल जंगली भूभाग के बाँध में डूब जाने से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ सकता है। विरोधियों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन का सरकार पर जबरदस्त दबाव पड़ा। अंततः बाँध की ऊँचाई सीमित करने में आंदोलनकारियों को कुछ हद तक सफलता मिली और विस्थापित लोगों के पुनर्वास की भी व्यवस्था की गई।

इस संदर्भ में एक अन्य उदाहरण ‘चिपको आंदोलन’ है जो भारत में हिमाचल के वन क्षेत्र को बचाने के लिए सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में शुरू हुआ था। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप वहाँ वनों की कटाई पर काफी हद तक रोक में लगाने में सफलता प्राप्त हुई। इस प्रकार ऐसे आंदोलनों के विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जवाबदेह बनाने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

विकास HBSE 11th Class Political Science Notes

→ परिवर्तन जीवन का आधार है। परिवर्तन व्यक्ति, स्थानीय, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय आधार पर होता रहता है। परिवर्तन का दूसरा नाम विकास भी हो सकता है। अतः विकास राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होता रहता है। किस देश में विकास हो चुका है या हो रहा है, यह अन्तर करना कठिन है।

→ फिर भी जिन देशों में विकास पूर्ण रूप धारण कर चुका है, उन देशों को विकसित देश कहा जाता है और जिन देशों में अभी विकास की प्रक्रिया चल रही है या जो देश अभी भी विकास के मार्ग पर अग्रसर हैं, उन देशों को विकासशील देश या उभरते हुए राष्ट्र (Emerging Countries) कहा जाता है।

→ विकासशील देशों को तृतीय विश्व के राष्ट्र (Third World Countries) भी कहा जाता था। प्रथम विश्व में अमेरिका तथा उसके गुट में सम्मिलित देश आते थे, जबकि द्वितीय विश्व में सोवियत संघ व उसके गुट में सम्मिलित देश आते थे।

→ तृतीय विश्व में शेष देश आते थे जो साम्राज्यवादी शक्तियों की दासता से मुक्ति प्राप्त करके अपनी दरिद्रता को दूर करने में प्रयत्नशील थे। सोवियत संघ के एक देश के रूप में समाप्त होने पर उसका गुट बिखर गया और अब विश्व केवल एक ध्रुवीय ही रह गया है।

→ वास्तविकता में, साम्राज्यवादी शक्तियों ने एशिया, अफ्रीका व लेटिन-अमेरिका के धनी देशों को लम्बे समय तक अपना दास बनाए रखा और इन देशों का आर्थिक शोषण किया। साम्राज्यवादी देशों ने दास-राष्ट्रों के माध्यम से अपना विकास कर डाला।

→ इस तरह धनी देश दरिद्र बन गए और दरिद्र देश धनी बन गए। परिणामस्वरूप ये देश अविकसित रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् इन देशो में भारी जागृति उत्पन्न हुई। यहाँ के लोगों ने स्वतन्त्र होने के लिए आन्दोलन चलाए।

→ बहुत-से देशों में आन्दोलन सफल रहे और उन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्त की। स्वतन्त्र राष्ट्रों में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों में विकास प्रारम्भ हुआ । इन क्षेत्रों में कहीं पर उन्हें सफलता मिली और कहीं पर उन्हें असफलता का मुँह देखना पड़ा।

→ इन स्वतन्त्र देशों ने अपने आर्थिक विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। उनके सामने विकास की प्रमुख समस्या जीवन की नितान्त आवश्यकताओं-रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति करना था। इस अध्याय में हम विकास एवं इससे सम्बन्धित विभिन्न मॉडलों का वर्णन करेंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 शांति

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 शांति Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 शांति

HBSE 11th Class Political Science शांति Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और क्या मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
उत्तर:
यह पूर्णतः सत्य है कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में परिवर्तन आवश्यक है। यदि संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन के संविधान में की गई टिप्पणी का उल्लेख करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि, “चूँकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।”

अतः काफी सीमा तक यूनिसेफ के संविधान की यह टिप्पणी उचित प्रतीत होती है। जब तक हम अपने दिमाग में शांति की बातें लाते रहेंगे और उसके अनुसार अपनी गतिविधियों को बनाएँ रखेंगे तो हमारे आस-पास भी शांति का ही वातावरण बना रहेगा। स्पष्ट है कि हिंसा सबसे पहले हमारे दिमाग में पनपती है और जैसे ही वह तीव्र रूप धारण कर लेती है तो वह युद्ध तक का भी रूप ले लेती है।

अत: आवश्यकता इस बात की है कि हम व्यवहार में जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त का पालन करें और ऐसा वातावरण बनाने में सक्रिय भूमिका निभाएँ जिसमें सभी शांतिपूर्ण ढंग से मिल-जुलकर रहें । यद्यपि मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना ही शांति की स्थापना के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमें न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना के लिए हिंसा के सभी रूपों को त्यागना होगा।

हमें शांति स्थापित करने के लिए युद्ध की स्थिति को बनने से बचना होगा और परमाण्विक प्रतिद्वंद्विता को खत्म करना शांति स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण सकारात्मक कदम हो सकता है। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती” बल्कि इसे बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयास करने होंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 शांति

प्रश्न 2.
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य करनी चाहिए। हालाँकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्त्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक राज्य स्वयं को पूर्णतः स्वतंत्र और सर्वोच्च इकाई के रूप में देखता है। इसलिए उसका यह कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा करे। यद्यपि कई बार वह अपने दायित्व को पूरा करने में असफल भी हो जाता है। आजकल हर राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया है।

यद्यपि राज्य से यह अपेक्षा होती है कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करे लेकिन व्यवहार में इन शक्तियों का प्रयोग वह अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए भी करने लगता है; जैसे राज्य कई बार अपने हितों की रक्षा करने के लिए दंगों को भड़काने का काम कर बैठता है।

प्रश्न 3.
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ। वास्तव में इन तीनों का उचित समन्वय शांति स्थापना का सशक्त रूप हो सकता है। यदि हम सभी नागरिकों को समस्त स्वतंत्रताएँ प्रदान करें जो एक सफल और गरिमामय जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं तो मुझे नहीं लगता कि व्यक्ति कभी हिंसा के बारे में विचार करेगा। इसके अतिरिक्त व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ समानता का होना भी आवश्यक है।

यद्यपि यह समानता केवल राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक भी होनी चाहिए अर्थात् सभी को समान रूप से मत डालने का अधिकार तो हो ही, उसके साथ-साथ वे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी समान होने चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में शोषण की समाप्ति हो एवं उन्हें अवसरों की समानता भी प्राप्त हो। अगर सभी को अपनी योग्यता के अनुसार काम मिलेगा तो सभी व्यस्त जीवन बिताएँगे और हिंसा के बारे में सोचने का उन्हें अवसर ही नहीं मिलेगा।

इसके अतिरिक्त न्याय का सम्बन्ध समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है। जिस समाज में न्यायिक व्यवस्था सशक्त है उस समाज में शांति स्वतः ही कायम रहती है। लोग संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि अगर किसी ने उनके साथ अन्याय किया तो उसे तुरन्त सजा मिलेगी। ऐसी स्थिति में गलत प्रवृत्ति के लोगों की संख्या न्यून होती है और जब ऐसे लोग न्यून संख्या में होते हैं तो हिंसा पनपने की कोई भी सम्भावना नहीं होती।

अतः आवश्यक है एक ऐसे समाज की स्थापना करनी चाहिए जहाँ स्वतंत्रता, समानता और न्याय का एक अच्छा समन्वय हो, जहाँ कोई किसी का बुरा न सोचे, कोई किसी के साथ गलत न करे, बल्कि सह-अस्तित्व के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए सभी आगे बढ़ने का कार्य करें।

प्रश्न 4.
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
हाँ, यह कथन पूरी तरह से सत्य है। हिंसा को किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता है और न ही इसके माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक प्रताडनाओं एवं नुकसानों से गुजरता है, वे उसके भीतर अनेक शिकायतों को जन्म देती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक कायम रहती हैं।

ऐसे समूह कभी-कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताजा दौर की शुरुआत कर सकते हैं। न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने और बातचीत द्वारा ही हल की जा सकती है। इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंसा एक बुराई है और शांति बनाए रखने के लिए इसकी आवश्यकता नहीं है।

शांति की प्राप्ति के तरीकों में विफलता के बाद ही हिंसा का उपयोग होना चाहिए और ऐसे में भी कोशिश यही होनी चाहिए कि इतनी सीमित हिंसा का प्रयोग हो जो विवादों के निपटारे में सहायक सिद्ध हो। अतः निष्कर्षतः जहाँ तक हो सके हिंसा से परहेज करना चाहिए, क्योंकि यही मानव हित में है।

प्रश्न 5.
विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है उनके बीच क्या अंतर है?
उत्तर:
विश्व में शांति स्थापना के लिए निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों को अपनाया गया है-

(1) शांति स्थापना का पहला दृष्टिकोण राष्ट्रों को केंद्रीय स्थान देता है। उनकी संप्रभुता का आदर करता है और उनके बीच प्रतिद्वंदिता को जीवंत सत्य मानता है। उसकी मुख्य चिंता प्रतिद्वंद्विता के उपयुक्त प्रबंधन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-संतुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। इसी दृष्टिकोण को अपनाते हुए 19वीं सदी में प्रमुख यूरोपीय देशों ने संभावित आक्रमण को रोकने तथा बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता-संघर्षों में गठबंधन बनाते हुए तालमेल स्थापित किया था,

(2) शांति स्थापना करने का दूसरा दृष्टिकोण राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वंद्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर होता है। यह विभिन्न देशों के मध्य विकासमान सामाजिक-आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है। आशा की जाती है कि आपसी सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय समझदारी में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे और शांति की संभावनाएँ अधिक बढ़ेंगी; जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप का आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ना शांति के दूसरे दृष्टिकोण का परिचायक कहा जा सकता है,

(3) शांति स्थापना करने का तीसरा दृष्टिकोण पहले दोनों दृष्टिकोणों से भिन्न है। क्योंकि यह दृष्टिकोण राष्ट्र पर आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था मानता है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था को मनोचित्र बनाता है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को शांति की विश्वसनीय गारंटी मानता है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच गतिविधियाँ बढ़ी हैं जिनके कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना हो रही है। इस प्रकार वैश्वीकरण की जारी प्रक्रिया में राष्ट्रों की प्रधानता और संप्रभुता घटने लगी है, जो विश्व शांति की ओर एक सकारात्मक कदम कहा जा सकता है।

शांति HBSE 11th Class Political Science Notes

→ जैसा कि सर्वविदित है कि शान्ति मानवता और विश्व की मौलिक एवं आधारभूत आवश्यकता है। आज समूचा अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश दंगे, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार एवं आतंकवादी गतिविधियों से ग्रस्त है।

→ इसलिए आज प्रत्येक सभ्य नागरिक शान्ति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद संघर्षमयी एवं अव्यवस्थित स्थिति से छुटकारा पाने के लिए बहुत आतुर है। अन्य शब्दों में कहें तो मानव विकास के लिए आज शान्ति स्थापना की निरन्तरं माँग की जा रही है।

→ यद्यपि यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अतीत में फ्रेडरिक नीत्शे जैसे जर्मन दार्शनिकों ने मानव सभ्यता की उन्नति एवं विकास के लिए शान्ति को बेकार बताया है और युद्ध को महिमामंडित करते हुए संघर्ष को ही सभ्यता के विकास के लिए उपयुक्त बताया है।

→ लेकिन दूसरी तरफ मानव जाति के समक्ष नरसंहार का ताण्डव करने वाले प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका एवं विश्व के अन्य भागों में होने वाले क्षेत्रीय युद्धों चीन-भारत, पाक-भारत, ईरान-इराक, इराक-अमेरिका आदि ने युद्ध या संघर्ष की जगह शान्ति को मानव सभ्यता एवं विश्व के विकास के लिए शान्ति के अस्तित्व को अपरिहार्य बना दिया।

→ इसके अतिरिक्त राष्ट्रों के बीच शस्त्रों की होड़ या प्रतिस्पर्धा एवं परमाणु शस्त्रों के विकास में निरन्तर वृद्धि ने समूची मानव जाति के समक्ष शान्ति की अवधारणा को वर्तमान की अपरिहार्यता के रूप में विकसित कर दिया है।

→  लेकिन वास्तविक शान्ति के दुःसाध्य बने रहने की स्थिति में यह शब्द अपने-आप में बहुत लोकप्रिय हो गया है। इसलिए प्रस्तुत अध्याय में हम शान्ति की – अवधारणा सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर पाठ्यक्रमानुसार वर्णन करेंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

HBSE 11th Class Political Science धर्मनिरपेक्षता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्न में से कौन-सी बातें धर्मनिरपेक्षता के विचार से संगत हैं? कारण सहित बताइए।
(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
(ख) किसी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता देना।
(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना।
(घ) विद्यालयों में अनिवार्य प्रार्थना होना।
(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति होना।
(च) सरकार द्वारा धार्मिक संस्थाओं की प्रबंधन समितियों की नियक्ति करना।
(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप।
उत्तर:
(क) यह विचार धर्मनिरपेक्षता के विचार से पूर्णत: संगत है। धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत किसी धार्मिक समूह को दूसरे धार्मिक समूह पर वर्चस्व स्थापित करने की अनुमति नहीं देता है, क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो धार्मिक समानता जैसे सिद्धांत का हनन हो सकता है।

(ङ) यह विचार भी धर्मनिरपेक्षता के विचार से संगत है, क्योंकि सभी अल्पसंख्यक समुदायों को अपने-अपने शैक्षणिक संस्थान बनाने की पूर्ण अनुमति होती है ताकि वे अपने धर्म का प्रचार-प्रसार अच्छी तरह से कर सकें।

(छ) यह विचार भी धर्मनिरपेक्षता के विचार के अनुकूल है, क्योंकि किसी भी मंदिर का दरवाज़ा सभी लोगों के लिए खुला होना चाहिए। मंदिर में दलितों के प्रवेश पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए। इससे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की अवहेलना होती है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 2.
धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी और भारतीय मॉडल की कुछ विशेषताओं का आपस में घालमेल हो गया है। उन्हें अलग करें और एक नई सूची बनाएँ।
उत्तर:

पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता भारतीय धर्मनिरपेक्षता
1. धर्म और राज्य का एक दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अटल नीति। 1. राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति।
2. विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना। 2. एक धर्म के विभिन्न पंथों के बीच समानता पर जोर देना।
3. अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देना। 3. समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना।
4. व्यक्ति और उसके अधिकारों को केंद्रीय महत्त्व दिया जाना। 4. व्यक्ति और धार्मिक समुदायों दोनों के अधिकारों का संरक्षण।

धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी एवं भारतीय मॉडल की विशेषताओं को क्रमशः निम्नलिखित सूचियों के माध्यम से अलग-अलग रूप में समझा जा सकता है-

पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता भारतीय धर्मनिरपेक्षता
1. धर्म और राज्य का एक दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अटल नीति। 1. राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति।
2. एक धर्म के विभिन्न पंथों के बीच समानता पर जोर देना। 2. विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना।
3. व्यक्ति और उसके अधिकारों को केंद्रीय महत्त्व दिया जाना। 3. अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देना।
4. समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना। 4. व्यक्ति और धार्मिक समुदायों दोनों के अधिकारों का संरक्षण।

प्रश्न 3.
धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? क्या इसकी बराबरी धार्मिक सहनशीलता से की जा सकती है?
उत्तर:
धर्म या धर्मनिरपेक्ष शब्द अंग्रेजी भाषा के सेक्युलर (Secular) शब्द का हिन्दी पर्याय है। सेक्युलर शब्द लेटिन भाषा के सरकुलम (Surculm) शब्द से बना है। लेटिन भाषा से उदित इस शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सांसारिक’ है, अर्थात् राजनीतिक गतिविधियों को केवल लौकिक क्षेत्र तक सीमित रखना है। सेक्युलर (Secular) शब्द के प्रथम प्रयोगकर्ता जॉर्ज जैकब हॉलीओक ने स्पष्ट किया है कि,

“धर्मनिरपेक्षता का अर्थ, इस विश्व या मानव जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण, जो धार्मिक या द्वैतवादी विचारों से बँधा हुआ न हो।” अतः धर्मनिरपेक्षता को सर्वप्रथम एवं सर्वप्रमुख रूप से ऐसा सिद्धान्त समझा जाना चाहिए जो अन्तर-धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। यद्यपि यह धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से केवल एक है। धर्मनिरपेक्षता का इतना ही महत्त्वपूर्ण दूसरा पहलू अन्तःधार्मिक वर्चस्व यानी धर्म के अन्दर छुपे वर्चस्व का विरोध करना है।

इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा नियामक सिद्धान्त है जी धर्मनिरपेक्ष समाज अर्थात् अन्तःधार्मिक तथा अन्तर-धार्मिक दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है। यदि इसी बात को सकारात्मक रूप से कहें तो यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है।

इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता की बराबरी धार्मिक सहनशीलता से नहीं की जा सकती है। यद्यपि सहिष्णुता धार्मिक वर्चस्व की विरोधी नहीं है क्योंकि यह भी हो सकता है सहिष्णुता में हर किसी को कुछ मौका मिल जाए, लेकिन ऐसी आजादी प्रायः सीमित होती है। इसके साथ-साथ सहिष्णुता उन लोगों को बर्दाश्त करने की क्षमता पैदा करती है, जिन्हें हम बिल्कुल पसन्द नहीं करते हैं। यह उस समाज के लिए तो ठीक है जो किसी बड़े गृहयुद्ध से उबर रहा हो मगर शांति के दौरान ठीक नहीं है जहाँ लोग समान मान-मर्यादा के लिए संघर्ष कर रहे हों।

प्रश्न 4.
क्या आप नीचे दिए गए कथनों से सहमत हैं? उनके समर्थन या विरोध के कारण भी दीजिए।
(क) धर्मनिरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है।
(ख) धर्मनिरपेक्षता किसी धार्मिक समुदाय के अंदर या विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच असमानता के खिलाफ है।
(ग) धर्मनिरपेक्षता के विचार का जन्म पश्चिमी तथा ईसाई समाज में हुआ है। यह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है।
उत्तर:
(क) इस कथन से हम असहमत हैं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति देती है। भारत का प्रत्येक व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है और उसे उसकी धार्मिक पहचान की पूर्ण स्वतंत्रता है।

(ख) हाँ, इस कथन से हम सहमत हैं कि धर्मनिरपेक्षता किसी धार्मिक समुदाय के अंदर या विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच किसी भी प्रकार की असमानता का विरोध करती है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत को अपनाता है जिसमें सभी धर्म बराबर हैं अर्थात् धर्मों के बीच असमानता का कोई स्थान नहीं है।

(ग) यह कथन गलत है क्योंकि वास्तव में पश्चिमी राज्य तब धर्मनिरपेक्ष बने, जब एक महत्त्वपूर्ण स्तर पर, उन्होंने ईसाइयत से संबंध विच्छेद कर लिया। पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता में ऐसी कोई ईसाइयत नहीं है। जहाँ इस कथन का सम्बन्ध है कि धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उपयुक्त नहीं है, यह सर्वथा गलत है क्योंकि भारत में विभिन्न धर्म के लोग निवास करते हैं। उन्हें अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है और राज्यसत्ता धर्म के प्रति निरपेक्षता भाव रखती है। अत: धर्मनिरपेक्षता के लिए उपयुक्त है।

प्रश्न 5.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का जोर धर्म और राज्य के अलगाव पर नहीं वरन् उससे अधिक किन्हीं बातों पर है। इस कथन को समझाइए।
उत्तर:
भारत में सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है क्योंकि भारतीय राज्य न तो धार्मिक हैं न अधार्मिक और न ही धर्मविरोधी, किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं तथा वृत्तियों से दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्थ है। इस प्रकार भारत अपनी धर्मनिरपेक्ष नीति के कारण अमेरिकी शैली में धर्म से विलग भी हो सकता है एवं आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ संबंध भी बना सकता है।

स्पष्ट है कि भारतीय राज्य धार्मिक अत्याचार का विरोध करने के लिए धर्म के साथ निषेधात्मक संबंध भी बना सकता है। जो भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक पर प्रतिबंध जैसी कानूनी कार्रवाइयों में दिखाई देती है।

इसके अतिरिक्त वह जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी अपना सकती है; जैसे भारतीय संविधान समस्त धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी स्वयं की शिक्षण संस्थाएँ खोलने तथा चलाने का अधिकार देता है, जिन्हें राज्यसत्ता की ओर से आर्थिक सहायता भी मिल सकती है। इस तरह शांति, स्वतंत्रता तथा समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए भारतीय राज्यसत्ता ये सारी रणनीतियाँ अपना सकती है।

इसके साथ-साथ भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अंतः धार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व पर भी एक साथ ध्यान केंद्रित किया। इसने हिंदुओं के अंदर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों तथा ईसाइयों के अंदर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किए जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता समस्त धर्मों में राज्यसत्ता के सैद्धांतिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है। ऐसा हस्तक्षेप हर धर्म के कुछ विशेष पहलुओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि धर्म के हर पहलू को वह एक जैसा सम्मान प्रदान करे । यह संगठित धर्मों के कुछ पहलुओं के प्रति एक जैसा सम्मान दर्शाने की स्वीकृति भी देता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 6.
‘सैद्धांतिक दूरी’ क्या है? उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
सैद्धांतिक दूरी का तात्पर्य है कि राज्य को किसी भी धर्म में सक्रिय हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए; जैसे भारत धार्मिक विषयों से सैद्धांतिक दूरी बनाए रखने में विश्वास करता है। दूसरे शब्दों में, वह धर्म से अलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर ही भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर एवं तीन तलाक जैसी कुप्रथा पर प्रतिबंध लगाया है।

भारतीय राज्य ने बाल-विवाह के उन्मूलन और अंतर्जातीय विवाह पर हिंदू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं। इसी तरह भारत में उभरे मन्दिर-मस्जिद विवाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए उचित कदम भी निर्णयानुसार उठाए गए हैं। अतः भारतीय धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में सैद्धांतिक दूरी बनाए रखने का अर्थ है-आवश्यकता पड़ने पर धार्मिक विषयों में आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप करना, ताकि पारस्परिक सौहार्द का वातावरण कायम किया जा सके।

धर्मनिरपेक्षता HBSE 11th Class Political Science Notes

→ एक ऐसा लोकतान्त्रिक देश जिसमें विभिन्न संस्कृतियों एवं समूहों के लोग रहते हों उनके बीच समानतायुक्त समाज की स्थापना में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को सबसे उपयुक्त माना गया है।

→ भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी एक मुखर एवं जीवन्त लोकतन्त्र की पृष्ठभूमि में पथ-निरपेक्ष भारत का स्वप्न देखा था। सन् 1946 में डॉ० राधाकृष्णन ने कहा था कि, “भारत के लोग हिन्दू हों या मुसलमान, राजा हो या किसान, इसी देश के नागरिक हैं।

→ यह मानना सम्भव नहीं है कि हमारी अलग-अलग पहचान है।” स्पष्ट है कि भारतीय संविधान निर्माता सामाजिक सौहार्द एवं राष्ट्रीय सद्भाव के लिए धर्मनिरपेक्षता को व्यावहारिकता का तकाजा मानते थे और इसीलिए स्वतन्त्र भारत के संविधान में हमने धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूल आधार माना, परन्तु समय के साथ-साथ धर्म-निरपेक्षता का दृष्टिकोण व्यवहार के स्तर पर दलीय जोड़-तोड़, राजनीतिक अवसरवादिता, तुष्टिकरण एवं साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से बुरी तरह ग्रस्त हो गई।

→ इसीलिए भारत में धर्मनिरपेक्षता की स्थिति को लेकर कुछ मामले काफी पेचीदा हैं।

→एक ओर तो आमतौर पर हर राजनेता इसकी शपथ लेता है, हर राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा करता है, दूसरी ओर तमाम किस्म की चिन्ताएँ और सन्देह धर्मनिरपेक्षता को घेरे रहते हैं।

→ पुरोहितों और धार्मिक राष्ट्रवादियों द्वारा ही नहीं, कुछ राजनीतिज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहाँ तक कि शिक्षाविदों द्वारा भी धर्मनिरपेक्षता का विरोध किया जाता है।

→ ऐसे में इस समस्त स्थिति पर चिन्तन करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि धर्मनिरपेक्षता या धर्म-निरपेक्षता क्या है? इसके पाश्चात्य एवं भारतीय मॉडल का स्वरूप क्या है ?

→ यह अवधारणा सामाजिक जीवन के किस क्षेत्र से सम्बन्धित है? आधुनिक समय में धर्म-निरपेक्ष राज्य की क्या आवश्यकता है? क्या धर्म-निरपेक्षता भारत के लिए उचित है?

→ भारतीय धर्म-निरपेक्षता के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं? इस अध्याय में हम इन विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करते हुए यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में धर्मनिरपेक्षता का क्या महत्त्व है एवं भारतीय धर्मनिरपेक्षता की क्या विशिष्टताएँ हैं?

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

HBSE 11th Class Political Science राष्ट्रवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राष्ट्र किस प्रकार से बाकी सामूहिक संबद्धताओं से अलग है?
उत्तर:
राष्ट्र और अन्य सामूहिक संबद्धताएँ पूर्णत: अलग-अलग हैं। अन्य सामूहिक संबद्धताओं के विपरीत राष्ट्र की अवधारणा को अधिक व्यापक सन्दर्भ में व्यक्त किया जाता है । इस कथन की पुष्टि निम्नलिखित विवरणों के द्वारा की जा सकती है

(1) राष्ट्र, मानव समाज में पाए जाने वाले अन्य समूहों या समुदायों से पूर्णत: अलग है। यह परिवार से भी अलग है, क्योंकि परिवार प्रत्यक्ष संबंधों पर आधारित होता है। जिसका प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी रखता है, जबकि दूसरी तरफ राष्ट्र का क्षेत्र व्यापक हैं। क्योंकि राष्ट्र एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न परिवारों, समुदायों, जातियों और धर्मानुयायियों आदि का समूह है।

इसकी अपनी सरकार और प्रभुसत्ता होती है और जो निर्णय लेने के लिए भी पूर्णत: स्वतंत्र होता है। इसमें रहने वाले लोगों के बीच साझा विश्वास और साझी ऐतिहासिक पहचान भी पाई जाती हैं।

(2) राष्ट्र एक तरह से जनजातीय, जातीय और अन्य सगोत्रीय समूहों से भी अलग है। इन समूहों में विवाह और वंश-परंपरा सदस्यों को आपस में जोड़ती हैं। इसलिए यदि हम सभी सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से नहीं भी जानते हैं तब भी आवश्यकता पड़ने पर हम उन सूत्रों को ढूँढ सकते हैं, जो हमें आपस में जोड़ते हैं। जबकि दूसरी तरफ राष्ट्र के सदस्य के रूप में हम अपने राष्ट्र के अधिकतर सदस्यों को सीधे तौर पर न कभी जान पाते हैं और न ही उनके साथ वंशानुगत नाता जोड़ पाते हैं। फिर भी राष्ट्रों का अपना अस्तित्व है। लोग उनमें रहते हैं और राष्ट्र के प्रति पूर्ण निष्ठाभाव रखते हैं।

(3) प्रायः यह माना जाता है कि राष्ट्रों का निर्माण ऐसे समूह द्वारा किया जाता है जो कुल, भाषा, धर्म तथा जातीयता जैसी कुछेक निश्चित पहचान का सहभागी होता है। लेकिन ऐसे निश्चित विशिष्ट गुण वास्तव में हैं ही नहीं जो सभी राष्ट्रों में समान रूप से मौजूद हों। कई राष्ट्रों की अपनी कोई सामान्य भाषा नहीं है। बहुत से राष्ट्रों में उनको जोड़ने वाला कोई सामान्य धर्म भी नहीं है। वास्तव में, राष्ट्र का निर्माण साझे विश्वास एवं हित, साझी ऐतिहासिक पहचान, विशेष भौगोलिक क्षेत्र, साझे राजनीतिक दर्शन और साझी राजनीतिक पहचान जैसे तत्त्वों से होता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आप क्या समझते हैं? किस प्रकार यह विचार राष्ट्र-राज्यों के निर्माण और उनको पिल रही चुनौती में परिणत होता है?
उत्तर:
आत्म-निर्णय का तात्पर्य एक राज्य में रहने वाले लोगों की जनसंख्या को उसके बाह्य व आन्तरिक पहलुओं पर स्वयं निर्णय लेने के अधिकार से लिया जाता है। प्रत्येक राष्ट्र में कई अलग-अलग समूह निवास करते हैं। इन समूहों में यह भिन्नता जाति, धर्म, नस्ल, भाषा और संस्कृति के आधार पर पाई जाती है।

यही समूह अन्य सामाजिक समूहों से अलग अपना राष्ट्र, अपना शासन व अपने-आप काम करने एवं अपना भविष्य निश्चित करने का अधिकार चाहते हैं, जो कि आत्मनिर्णय को अधिकार के रूप में जानते हैं। एक समूह की माँग दूसरे समूह से न होकर, दूसरे स्वतंत्र राष्ट्र से होती है। अपनी इस माँग में एक अलग इकाई अथवा एक अलग राज्य की माँग को मान्यता देने तथा उस मान्यता को स्वीकृति देने पर बल दिया जाता है।

इस प्रकार की माँगें एक निश्चित भू-भाग पर स्थायी रूप से बसे लोगों के द्वारा की जाती है, जिनकी अपनी कोई साझी नस्ल या संस्कृति भी होती है। कुछ माँगें स्वतंत्रता से जुड़ी हो सकती हैं तथा कुछ ऐसी माँगें भी हो सकती हैं जिनका संबंध संस्कृति की रक्षा से होता है। राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के विचार के अन्तर्गत यद्यपि कई राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात राज्यों की पुनर्व्यवस्था में एक संस्कृति एक राज्य के विचार को आजमाया गया।

वर्साय की संधि से बहुत-से छोटे और नए स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। लेकिन आत्म-निर्णय की सभी माँगों को संतुष्ट करना वास्तव में असंभव था। इसके अतिरिक्त एक संस्कृति-एक राज्य की माँगों को संतुष्ट करने से राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन भी आए। इससे सीमाओं के एक ओर से दूसरी ओर बहुत बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए।

परिणामस्वरूप उन लाखों लोगों के घर उजड़ गए और उन्हें उस जगह से बाहर धकेल दिया गया, जहाँ पीढ़ियों से उनका घर था। बहुत-से-लोग सांप्रदायिक दंगों के शिकार हुए। राज्यों की सीमाओं में आए बदलाव के कारण मानव जाति को भारी कीमत चुकानी पड़ी। इस प्रयास के बावजूद यह सुनिश्चित करना संभव नहीं हो सका कि नवगठित राज्यों में केवल एक ही नस्ल के लोग रहें।

वास्तव में अधिकतर राज्यों की सीमाओं के अंदर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ये छोटे-छोटे समुदाय राज्य के अंदर अल्पसंख्यक थे और हमेशा असुरक्षा की भावना से ग्रसित रहते थे।

प्रश्न 3.
हम देख चुके हैं कि राष्ट्रवाद लोगों को जोड़ भी सकता है और तोड़ भी सकता है। उन्हें मुक्त कर सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। उदाहरणों के साथ उत्तर दीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के विषय में उपर्युक्त कथन पूर्णतः सत्य है। इसकी सत्यता को हम निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं

(1) उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के द्वारा हुआ था। लातिनी अमेरिका में बड़ी संख्या में नए राज्य भी स्थापित किए गए थे। राज्य की सीमाओं के सुदृढीकरण के साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं। नए राष्ट्र के लोगों ने एक नई पहचान अर्जित की जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी।

(2) यद्यपि इसी राष्ट्रवाद ने बड़े-बड़े साम्राज्यों का पतन भी किया है। यूरोप में बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ऑस्ट्रेयाई-हंगेरियाई, रूसी साम्राज्य तथा इनके साथ एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश फ्रांसीसी डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था। भारत और अन्य पूर्व उपनिवेशों के औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र होने के संघर्ष भी राष्ट्रवादी संघर्ष ही मुख्य था।

प्रश्न 4.
वंश, भाषा, धर्म या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
उपर्युक्त कथन बिलकुल सत्य है। सामान्यतया ऐसा माना जाता है कि राष्ट्रों का निर्माण ऐसे समूह द्वारा किया जाता है जो वंश, भाषा, धर्म तथा जातीयता जैसे कुछेक निश्चित पहचान का सहभागी होता है। लेकिन ऐसे निश्चित विशिष्ट गुण वास्तव में हैं ही नहीं जो सभी राष्ट्रों में समान रूप से मौजूद हों; जैसे भारत में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न नस्लों या कुल के लोग यहाँ रहते हैं।

कनाडा में अंग्रेजों और फ्रांसीसी भाषा-भाषी लोग साथ रहते हैं। अमेरिका में भी इसी प्रकार की विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। वहाँ यूरोप के विभिन्न देशों के लोग रहते हैं। बहुत-से राष्ट्रों में उनको जोड़ने वाला कोई सामान्य धर्म भी नहीं है। इस प्रकार विभिन्न वंश, भाषा, धर्म या नस्ल के लोग एक राष्ट्र में रहते हैं लेकिन इनमें से कोई भी राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकते।

प्रश्न 5.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारकों पर सोदाहरण रोशनी डालिए।
उत्तर:
1. भौगोलिक एकता-राष्ट्रवाद को जन्म देने वाले तत्त्वों में भौगोलिक एकता एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो व्यक्ति-समूह काफी लम्बे समय तक एक निश्चित क्षेत्र पर, जिसके सभी भाग आपस में मिले हुए हैं, मिल-जुलकर रहते हैं, तो उनके जीवन में एक ऐसी एकता की उत्पत्ति हो जाती है जो राष्ट्रीयता का सार है। एक ही स्थान पर रहने वाले लोगों में आपस में एक-जैसे रीति-रिवाज़, समान रहन-सहन तथा खान-पान का विकास होता है जो कि राष्ट्रीयता के निर्माण में बहुत बड़ा सहयोग देता है।

उदाहरणस्वरूप, यहूदी लोगों को अरबों के आक्रमण के कारण फिलिस्तीन से भागना पड़ा और वे यूरोप के कई भागों में बिखरे रहे, परन्तु उन्होंने अपने हृदय से अपनी मातृ-भूमि को कभी नहीं निकाला और उसकी स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष जारी रखा। सन् 1948 में जब अंग्रेज़ो ने फिलिस्तीन खाली कर दिया तो ये लोग वहाँ आकर बस गए और यहूदी राज्य की स्थापना की।

2. समान इतिहास-समान इतिहास व्यक्तियों में राष्ट्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। लोगों की समान स्मृतियाँ, समान जय-पराजय, समान राष्ट्रीय अभिमान की भावनाएँ, समान राष्ट्रीय वीर, समान लोक गीत आदि उनमें राष्ट्रीयता की भावना को प्रबल बनाने में बहुत योग देते हैं। किसी देश की जनता का विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध किया गया सामूहिक संघर्ष उनमें राष्ट्रीयता की भावना भर देता है।

पं० जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, भगत सिंह जैसे वीरों ने भारत के इतिहास में शानदार कार्य किए जिन्हें कोई भी भारतीय भुला नहीं सकता, क्योंकि उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की भावना जागृत की। रैम्जे म्यूर (Ramsey Muir) ने सांझे इतिहास के तत्त्व के महत्त्व को बताते हुए लिखा है, “बहादुरी से प्राप्त की गई उपलब्धियाँ तथा बहादुरी से झेले गए कष्ट, दोनों ही राष्ट्रवाद की भावना के लिए ताकतवर भोजन हैं। भूत में उचित सम्मान, वर्तमान में पूर्ण विश्वास तथा भविष्य की आशा, ये सभी राष्ट्रीय भावनाओं को मजबूत बनाते हैं तथा उन्हें स्थि करते हैं।”

3. समान राजनीतिक आकांक्षाएँ-आजकल समान राजनीतिक आकांक्षाओं को राष्ट्रवाद के निर्माण के लिए समान धर्म तथा समान भाषा आदि से भी अधिक महत्त्व दिया जाता है। एक ही सरकार के अधीन रहने तथा एक ही प्रकार के कानूनों का पालन करने से लोगों में एकता की भावना पैदा हो जाती है। यह एकता उस समय और भी अधिक मजबूत हो जाती है जब वह किसी विदेशी सरकार के अधीन रहते हों, क्योंकि अधीनस्थ लोग अपनी स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए और अपने राष्ट्र का निर्माण करने के लिए आसानी से संगठित हो जाते हैं।

उदाहरणस्वरूप, भारत में राष्ट्रवाद की भावना उस समय मजबूत हुई जब इन्होंने मिलकर अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध अपना संघर्ष शुरू किया। एशिया तथा अफ्रीका के कुछ अधीनस्थ देशों में इसी तत्त्व ने राष्ट्रीयता की लहर फैलाई। इसी प्रकार भारतवर्ष पर 1962 ई० में किए गए चीनी आक्रमण ने भारतवासियों में राष्ट्रवाद की भावना को और दृढ़ कर दिया।

4. लोक इच्छा-राष्ट्रवाद के निर्माण में सहायता देने वाला एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व लोगों में ‘राष्ट्रवाद की इच्छा’ का होना है। डॉ० अम्बेडकर (Dr. Ambedkar) ने लोक-इच्छा को भारत में राष्ट्रवाद के विकास में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना है। लोगों में जब तक राष्ट्र बनाने की इच्छा प्रबल नहीं होती, तब तक किसी भी देश में राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं हो सकता।

प्रश्न 6.
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है। कैसे?
उत्तर:
लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत अलग-अलग सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक और साथियों की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक जीवनयापन कर सकते हैं। यह न केवल आत्म-निर्णय के नए दावों से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए वरन् मजबूत और एकताबद्ध राज्य बनाने के लिए समर्थ व्यवस्था है।

इससे राष्ट्र-राज्य अपने शासन में अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान को सम्मान देता है और उसके बदले में अपने सदस्यों की निष्ठा प्राप्त करने में भी सफल रहता है। वास्तव में, लोकतंत्र समावेशी होता है अर्थात् सबके अस्तित्व को महत्त्व देता है, सबकी आकांक्षाओं के साथ समान बर्ताव करता है। इसके विपरीत तानाशाही व्यवस्था में दमनकारी नीतियाँ अधिक प्रभावी होती हैं और समाज में रहने वाले लोगों में असुरक्षा की भावना बनी रहती है। अतः संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं का पतन हो जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 7.
आपकी राय में राष्ट्रवाद की सीमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
मेरे विचार या राय में राष्ट्रवाद की सीमाएँ निम्नलिखित हैं
(1) जिन राज्यों में धनी तथा निर्धन का अन्तर बहुत अधिक होगा तथा उनके हितों में विरोध होगा तो वहाँ के लोगों में राष्ट्रवाद की भावना का विकास नहीं होगा।

(2) धर्म की विभिन्नता भी राष्ट्रीय एकता को नष्ट करती है; जैसे भारत में धार्मिक विभिन्नता के कारण ही साम्प्रदायिक दंगे होते हैं।

(3) आधुनिक राज्यों में छोटे-छोटे समूह निजी स्वार्थों के कारण आत्म-निर्णय की माँग करते हैं। यदि इनकी माँगों को स्वीकार कर लिया जाए तो एक राज्य में अनेक राज्य स्थापित हो जाएँगे, जहाँ विकास नहीं बल्कि पतन की संभावनाएँ अधिक होती हैं।

(4) जातीय, भाषाई व क्षेत्रीय श्रेष्ठता की संकुचित भावना भी राष्ट्रवाद के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है।

(5) जिस राष्ट्र के नागरिक हमेशा व्यक्तिगत हितों की पूर्ति में लगे रहते हैं वहाँ पर राष्ट्रीय भावनाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं।

(6) राष्ट्रों में अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ मानने तथा दूसरों को तुच्छ मानने की भावना भी राष्ट्रवाद को सीमित करती है।

राष्ट्रवाद HBSE 11th Class Political Science Notes

→ आधुनिक युग की विचारधाराओं में राष्ट्रवाद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है जो व्यक्ति में देश-प्रेम तथा देश-भक्ति की भावना पैदा करती है।

→ यह वह शक्ति है जो विभिन्न राज्यों के विकास तथा प्रगति, पराधीन राज्यों की स्वतन्त्रता, विश्व शान्ति तथा युद्ध आदि समस्याओं का प्रमुख आधार है। इस भावना के आधार पर ही भिन्न-भिन्न राज्यों ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। गुलाम देशों ने स्वतन्त्रता प्राप्त की है तथा अन्य अधीनस्थ राज्यों को स्वतन्त्रता पाने का मार्ग दिखाया है।

→ एक राष्ट्र की मजबूती उस राष्ट्र में रहने वाले लोगों में पाई जाने वाली राष्ट्रवाद की भावना पर निर्भर करती है। इसी भावना के कारण ही मनुष्य अपना तन, मन तथा धन अपने राष्ट्र के लिए कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार राष्ट्रवाद एक विशाल अवधारणा है।

→ राष्ट्र, राष्ट्रीयता तथा राष्ट्रवाद एक ही अवधारणा के अलग-अलग रूप हैं। ये अवधारणाएँ उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि मानव का सामुदायिक तथा सामाजिक जीवन है। परन्तु राजनीतिक सन्दर्भ में ये अवधारणाएँ अपने सक्रिय रूपों में आधुनिक राजनीतिक परिवेशों में व्यक्त होती रही हैं।

→ वर्तमान समय के राजनीतिक समाज अथवा राज्य ‘राष्ट्रराज्य’ कहलाते हैं। इनके निर्माण का आधार राष्ट्र, राष्ट्रीयता तथा राष्ट्रवाद की धारणाएँ हैं।

→ यद्यपि हम इस बात को तो सर्वसम्मति से स्वीकार कर सकते हैं कि विश्व में राष्ट्रवाद आज भी एक प्रभावी शक्ति है, लेकिन राष्ट्र या राष्ट्रवाद जैसे शब्दों की परिभाषा के सम्बन्ध में किसी सहमति पर पहुँचना बहुत कठिन है।

→ वास्तव में राष्ट्र क्या है? लोग राष्ट्रों का निर्माण क्यों करते हैं और राष्ट्र क्या करने की तीव्र इच्छा जगाते हैं? लोग अपने राष्ट्र के लिए त्याग करने एवं प्राण तक न्यौछावर करने के लिए क्यों तैयार रहते हैं?

→ राष्ट्रत्व या देशभक्ति के दावे राज्यत्व या शासकीय शक्ति के दावों से क्यों और कैसे जुड़ जाते हैं? क्या राष्ट्रों को पृथक् रहने या राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार प्राप्त है? क्या पृथक्-राज्यत्व को स्वीकार किए बिना राष्ट्रवाद के दावे को पुष्ट किया जा सकता है?

→  इन विभिन्न के मुद्दों या विषयों के सम्बन्ध में हम इस अध्याय में विभिन्न अति लघु, लघु एवं निबन्धात्मक प्रश्नों के माध्यम से स्पष्ट करेंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

HBSE 11th Class Political Science नागरिकता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिकता में अधिकार और दायित्व दोनों शामिल हैं। समकालीन लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिक किन अधिकारों के उपभोग की अपेक्षा कर सकते हैं? नागरिकों के राज्य और अन्य नागरिकों के प्रति क्या दायित्व हैं?
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिक में अधिकार और दायित्व दोनों सम्मिलित हैं। समकालीन लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिक जिन अधिकारों के उपयोग की अपेक्षा कर सकते हैं, उन्हें निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं

  • अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार
  • अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म की पालना एवं अपनाने का अधिकार
  • शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार
  • समानता का अधिकार
  • आवास का अधिकार
  • अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने का अधिकार
  • न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करने का अधिकार
  • जीवकोपार्जन का अधिकार
  • मतदान देने का अधिकार
  • सूचना प्राप्त करने का अधिकार
  • घूमने-फिरने का अधिकार

यद्यपि आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अधिकारों की सूची में निरन्तर वृद्धि हो रही है। कुछ अधिकारों को मूल अधिकारों के रूप में मान्यता मिलती है और उन्हें प्राथमिकता दी जाती है। शेष अधिकारों को सरकार परिस्थितियों के अनुसार मान्यता प्रदान करती है। नागरिकों के राज्य तथा अन्य नागरिकों के प्रति दायित्व भी होते हैं जिन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्त कर सकते हैं—

(1) नागरिकों के रूप में हमारा कर्तव्य है कि राज्य द्वारा निर्मित कानूनों का पालन करें तथा देश और समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने में राज्य का पूरा सहयोग करें।

(2) हमें केवल अपने निजी हितों एवं आवश्यकताओं को ही नहीं सोचना चाहिए, बल्कि कुछ ऐसी चीजों की भी रक्षा करनी चाहिए, जो हम सबके लिए लाभप्रद हैं; जैसे वायु और जल प्रदूषण कम-से-कम करना, नए वृक्ष लगाकर और जंगलों की कटाई रोककर हरियाली बरकरार रखना ताकि पर्यावरण की रक्षा की जा सके।

(3) अन्य नागरिकों के प्रति भी हमारे कुछ दायित्व हैं। हमें अन्य लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं का सम्मान करना चाहिए तभी सभी को अधिकार प्राप्त होंगे।

(4) हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे देश की भावना आहत हो। हमारा हर कदम देशहित में बहुत सतर्कतापूर्ण और उचित स्वरूप का होना चाहिए।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 2.
सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए तो जा सकते हैं लेकिन हो सकता है कि वे इन अधिकारों का प्रयोग समानता से न कर सकें। इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
उपर्युक्त कथन पूर्णत: सही है। इस बात की पूरी संभावना है कि समान अधिकारों से युक्त नागरिक इन अधिकारों का प्रयोग आपस में समानता से नहीं करें। हमारे समाज में अमीर और गरीब दोनों वर्गों के लोग रहते हैं; जैसे मतदान करने एवं चुनाव लड़ने का अधिकार अमीर-गरीब सभी को संविधान के अनुसार समान रूप से दिया गया है, परन्तु क्या व्यवहार में गरीब व्यक्ति अमीर के समक्ष कभी चुनाव जीतने की हिम्मत जुटा सकता है?

इसी तरह क्या गरीब व्यक्ति अपने मताधिकार का प्रयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है? भारत में प्रायः चुनावों के समय हम प्रत्यक्ष रूप से यह सब देखते हैं। हाँ, यदि मताधिकार एवं चुनाव लड़ने के अधिकार का प्रयोग पूर्ण स्वतंत्रता, भयरहित एवं योग्यता के आधार पर किया जाए तो लोकतन्त्र वास्तव में अभिजन का नहीं, बल्कि आम जनता का शासन बन सकता है।

प्रश्न 3.
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हाल के वर्षों में किए गए किन्हीं दो संघर्षों पर टिप्पणी लिखिए। इन संघर्षों में किन अधिकारों की माँग की गई थी?
उत्तर:
वर्तमान नागरिकों को प्राप्त अधिकारों के पीछे आम जनता के द्वारा शक्तिशाली निरंकुश शासकों के विरुद्ध किए गए निरन्तर संघर्ष के परिणाम हैं। भारत में भी नागरिक अधिकारों के लिए अनेक संघर्ष एवं आन्दोलन हुए हैं जिनमें से दो प्रमुख आंदोलनों का उल्लेख संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार से है

1. महिला आन्दोलन महिला आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य अपनी जरूरतों की ओर ध्यान आकृष्ट कर जनमत में परिवर्तन करना तथा साथ ही समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नीतियों को प्रभावित करना है। आज हर क्षेत्र में वे काफी सक्रिय हैं। लेकिन आज भी वे शोषण से वंचित नहीं हैं। उन्हें पुरुषों जैसा दर्जा नहीं दिया गया है।

उनके साथ मजदूरी में भी असमानता बरती जाती है। और तो और, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व पुरुषों की अपेक्षा बहुत ही कम है। आज की जागरूक महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति काफी सतर्क हैं। वे सरकार में अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाने की माँग कर रही हैं।

2. दलित आंदोलन-भारत में दलितों का शोषण प्राचीन समय से ही होता आ रहा है। आज भी उनकी स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं को देश-समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण की माँग की। इसके लिए उन्होंने संघर्ष किया। ‘मंडल आयोग’ के प्रावधान के अंतर्गत उनका संघर्ष बढ़ा। दलित अपने लिए समान सामाजिक और आर्थिक अधिकार भी चाहते हैं। क्योंकि जब तक उन्हें ये अधिकार नहीं दिए जाएँगे तब तक उनके राजनीतिक अधिकार का कोई अर्थ नहीं है।

प्रश्न 4.
शरणार्थियों की समस्याएँ क्या हैं? वैश्विक नागरिकता की अवधारणा किस प्रकार उनकी सहायता कर सकती है?
उत्तर:
शरणार्थी उन लोगों को कहा जाता है जो यद्ध, उत्पीडन, अकाल या अन्य कारणों से विस्थापित होते हैं। अगर कोई देश उन्हें स्वीकार करने को राजी नहीं होता और वे घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन या शरणार्थी हो जाते हैं। जो प्रायः शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में पड़ोसी देश में रहने को मजबूर होते हैं।

यद्यपि वे कानूनी तौर पर काम नहीं कर सकते या अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते या संपत्ति अर्जित नहीं कर सकते। क्योंकि ऐसे लोगों को कोई राष्ट्र अधिकारों की गारंटी नहीं देता। ऐसी स्थिति में वे आमतौर पर असुरक्षित हालत में जीवनयापन करने को मजबूर होते हैं। वैश्विक नागरिकता की अवधारणा ऐसे शरणार्थियों के लिए सहायक हो सकती है।

जिस विश्व में हम रह रहे हैं, वह आपस में जुड़ा हुआ है। आज कोई भी देश दूर नहीं है। विश्व नागरिकता की अवधारणा अपनाकर राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का मुकाबला आसानी से किया जा सकता है जिसमें कई देशों की सरकारों और लोगों की संयुक्त कार्रवाई जरूरी होती है; जैसे इससे प्रवासी और राज्यहीन लोगों (शरणार्थी) की समस्या का सर्वमान्य समाधान पाना आसान हो सकता है या कम-से-कम उनके बुनियादी अधिकार और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है चाहे वे जिस किसी देश में रहते हों।

प्रश्न 5.
देश के अंदर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लोगों के आप्रवासन का आमतौर पर स्थानीय लोग विरोध करते हैं। प्रवासी लोग स्थानीय अर्थव्यवस्था में क्या योगदान दे सकते हैं?
उत्तर:
अधिक संख्या में रोजगार बाहर के लोगों के हाथ में जाने के खिलाफ अकसर स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हो जाती है। कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा को जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की माँग उठती है लेकिन इसके अतिरिक्त प्रवासी लोग अपने श्रम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान भी देते हैं।

अन्य देशों के बीच ये फेरीवाले, छोटे व्यापारी, सफाई कर्मचारी या घरेलू नौकर, नल ठीक करने वाले या मिस्त्री होते हैं । झोपड़पट्टियों में रहने लोग बेंत बुनाई या कपड़ा रंगाई-छपाई या सिलाई जैसे छोटे कारोबार चलाते हैं। अपने ऐसे कार्यों से प्रवासी लोग अपने जीवनयापन के साथ-साथ स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 6.
भारत जैसे समान नागरिकता देने वाले देशों में भी लोकतांत्रिक नागरिकता एक पूर्ण स्थापित तथ्य नहीं वरन एक परियोजना है। नागरिकता से जुड़े उन मुद्दों की चर्चा कीजिए जो आजकल भारत में उठाए जा रहे हैं?
उत्तर:
नागरिकता से जुड़े मुद्दे जो आजकल भारत में उठाए जा रहे हैं, वे निम्नलिखित हैं
(1) सभी नागरिकों को, चाहे वे अमीर या गरीब हों, कुछ बुनियादी अधिकार और न्यूनतम जीवन स्तर रोटी-कपड़ा और मकान आदि को गारंटी मिलनी ही चाहिए।

(2) झोपड़पट्टियों के निवासियों को सफाई, जलापूर्ति एवं बिजली जैसी सुविधाएं मुहैया होनी चाहिए, क्योंकि ये लोग अपने श्रम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

(3) शहरी गरीबों की स्थिति में सुधार लाने की दिशा में सरकार का साथ स्वयंसेवी संगठन दे रहे हैं। फलस्वरूप फुटपाथी दुकानदारों के हितों की रक्षा के लिए सन् 2004 में उन्हें मान्यता और नियमन प्रदान किया गया।

(4) बढ़ती आबादी, जमीन और संसाधनों की कमी के दबाव के कारण आदिवासी और वनवासी लोगों की जीवन-पद्धति और आजीविका संकट में है। इन लोगों के रहवास की सुरक्षा भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।

(5) भारत में लम्बे समय से पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं अफगानिस्तान के हिन्दू, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी आदि अल्पसंख्यक, शारीरिक एवं मानसिक शोषण के शिकार लोगों को नागरिकता एवं अधिकार प्रदान करने का मुद्दा भी समय-समय पर उठता रहा है जिसके दृष्टिगत सरकार द्वारा दिसम्बर, 2019 में संवैधानिक संशोधन कर ऐसे अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने एवं उन्हें जीवनयापन के लिए अन्यों के समान अधिकार प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया है जो भारत की धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप है।

नागरिकता HBSE 11th Class Political Science Notes

→ नागरिकता नागरिक की वह विशेषता है जो उसे उसके राज्य से सम्बन्धित करती है।

→ आदर्श नागरिकता आदर्श राज्य के लिए एक वरदान है। आदर्श नागरिकता स्नेह, सहयोग, त्याग तथा कर्त्तव्य पालन का दूसरा नाम है।

→ एक देश का विकास और उन्नति इस तथ्य पर निर्भर करती है कि उस देश के नागरिक किस सीमा तक बुद्धिमान्, चरित्रवान् और कर्त्तव्य-परायण हैं।

→ नागरिकता जहाँ राष्ट्र-प्रेम की भावना उत्पन्न करती है, वहाँ अन्तर्राष्ट्रवाद की भावना पर भी बल देती है।

→ एक आदर्श नागरिक अपने देश के लिए ही नहीं वरन् विश्व के लिए भी गौरव का पात्र है। प्रस्तुत अध्याय में हम नागरिक और नागरिकता से सम्बन्धित बातों का अध्ययन करेंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

HBSE 11th Class Political Science अधिकार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
अधिकार सामान्य जीवन का एक ऐसा वातावरण है, जिसके बिना कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का विकास कर ही नहीं सकता। अधिकार व्यक्ति के विकास और स्वतंत्रता का एक ऐसा दावा है जो कि व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए लाभदायक है, जिसे समाज मानता है और राज्य लागू करता है। अधिकार एक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध अपनी सुविधा की मांग है। यह समाज पर एक दावा है, परंतु इसे हम शक्ति नहीं कह सकते, जैसा कि ऑस्टिन ने कहा है कि शक्ति हमें प्रकृति से प्राप्त होती है, जिसमें देखने, सुनने और दौड़ने आदि की शक्तियां सम्मिलित हैं।

परंतु यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यक्ति की प्रत्येक मांग को हम ‘दावा’ (Claim) नहीं कह सकते, क्योंकि मांग उचित भी हो सकती है अथवा अनुचित भी, नैतिक भी हो सकती है और अनैतिक भी। एक व्यक्ति की दूसरे को मारने अथवा लूटने की मांग को हम दावा नहीं कह सकते, क्योंकि इस दावे से दूसरे को हानि हो सकती है और समाज ऐसे दावे को कभी स्वीकार नहीं कर सकता।

केवल वही ‘दावा’ ही अधिकार बन सकता है जिसे समाज की स्वीकृति प्राप्त हो, परंतु एक ‘दावे’ के अधिकार बनने के लिए केवल इतना ही काफी नहीं है, समाज द्वारा स्वीकार व्यक्ति का केवल वही ‘दावा’ अधिकार का रूप ले सकता है, जिसे राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हो जाए अर्थात राज्य उसे लागू करने के लिए स्वीकृति प्रदान कर दे। बोसांके (Bosanque) ने लिखा है कि

“अधिकार मनुष्य का वह दावा है जिसे समाज स्वीकार करता है तथा राज्य लागू करता है।” व्यक्ति की नैतिक मांगें ही अधिकार बन सकती हैं, अनैतिक मांगें नहीं। जीवित रहने, संपत्ति रखने, विचार प्रकट करने आदि की मांगें नैतिक हैं, परंतु चोरी करने, मारने या गाली-गलौच करने की मांग अनैतिक है। जिन मांगों से व्यक्ति तथा समाज दोनों का ही हित होता हो, वे ही अधिकार कहलाएंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 2.
किन आधारों पर यह अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं?
उत्तर:
अधिकार व्यापक होते हैं। वे किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं होते, वरन् समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं। अधिकारों को प्रदान करते समय किसी के साथ जाति, धर्म, वर्ण आदि का भेदभाव नहीं किया जा सकता; जैसे

(1) समाज में सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप में सम्मानित जीवन जीने का अधिकार है। अतः व्यक्तियों के जीवन को कानून द्वारा पूर्णतः सुरक्षा प्रदान की जाती है। इसी तरह

(2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसी वजह से अधिकारों की प्रकृति सार्वभौमिक मानी जाती है। इसके अतिरिक्त

(3) शिक्षा का अधिकार हमें उपयोगी कौशल प्रदान करता है और जीवन में सूझ-बूझ के साथ चयन करने में सक्षम बनाता है। व्यक्ति के कल्याण के लिए शिक्षा अनिवार्य है। यही कारण है कि शिक्षा के अधिकार को सार्वभौमिक अधिकार माना गया है।

प्रश्न 3.
संक्षेप में उन नए अधिकारों की चर्चा कीजिए, जो हमारे देश में सामने रखे जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आदिवासियों के अपने रहवास और जीने के तरीके को संरक्षित रखने तथा बच्चों के बँधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार जैसे नए अधिकारों को लिया जा सकता है।
उत्तर:
अब विविध समाजों में मानवाधिकारों के संदर्भ में नए-नए खतरे और चुनौतियाँ उभरने लगी हैं और इसी क्रम में उन मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती जा रही है जिनका लोगों ने परिस्थितियों के कारण दावा किया है; जैसे कुछ नए अधिकार निम्नलिखित हैं

(1) स्वच्छ हवा, शुद्ध जल और टिकाऊ विकास जैसे अधिकार की मांग या दावा आम बात हो गई है।
(2) महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए अधिकार की माँग भी आज प्रमुख दावों में सम्मिलित है।
(3) युद्ध या प्राकृतिक संकट के दौरान अनेक लोग, खासकर महिलाएँ, बच्चे या बीमार जिन बदलावों को झेलते हैं, उनके बारे में नई जागरूकता ने आजीविका के अधिकार, बच्चों के अधिकार और ऐसे अन्य अधिकारों की माँग उत्पन्न की है।
(4) महिला सशक्तिकरण के लिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की माँग भी निरन्तर बढ़ रही है।
(5) समाज के कमजोर/गरीब तबके के लोगों के लिए शौचालयों की व्यवस्था भी आज के समय में अपरिहार्य मांग बनती जा रही है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अंतर बताइये। हर प्रकार के अधिकार के उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
नागरिकों के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों के अर्थों के साथ उनके अन्तर को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है

1. राजनीतिक अधिकार राजनीतिक अधिकार से अभिप्राय उन अधिकारों से है जिनमें नागरिक को देश की शासन प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिलता है। राजनीतिक अधिकार व्यक्ति को एक निश्चित योग्यता के आधार पर प्राप्त होता है; जैसे, मत देने के लिए एक निश्चित आयु सीमा निर्धारित की गई है, उसी प्रकार लोकसभा एवं विधानसभा के सदस्य बनने के लिए एक निश्चित आयु सीमा निर्धारित की गई है।

राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं। नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ है-स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जाँच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार तथा प्रतिवाद करने और असहमति प्रकट करने का अधिकार । नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकार मिलकर किसी सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली के सफल संचालन के आधार बनते हैं।

2. आर्थिक अधिकार आर्थिक अधिकार उन सुविधाओं का नाम है जिनके कारण व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति को अच्छी बना सकता है। कुछ मुख्य आर्थिक अधिकार हैं-काम करने का अधिकार, उचित मजदूरी पाने का अधिकार, काम के निश्चित घंटों का अधिकार, अवकाश का अधिकार और आर्थिक सुरक्षा का अधिकार आदि।

आर्थिक अधिकार राजनीतिक अधिकार से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि एक मजदूर और भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष करने वालों के लिए अपने-आप में राजनीतिक अधिकार का कोई मूल्य नहीं है। अतः राजनीतिक अधिकारों के उपयोग हेतु आर्थिक समानता आवश्यक है।

3. सांस्कृतिक अधिकार- अब अधिकांश लोकतांत्रिक देशों की सरकारों ने राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ नागरिकों के सांस्कृतिक दावों को भी मान्यता प्रदान की है; जैसे अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा लिपि और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने के अधिकार को बेहतर जिंदगी जीने के लिए आवश्यक माना जा रहा है। हमारे भारतीय संविधान में भी हमने सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार को मूल अधिकार के रूप में प्रदान किया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 5.
अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अधिकार हमें केवल यहीं नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है बल्कि हमें वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। दूसरे शब्दों में, अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ या अंकुश भी लगाते हैं, जो अग्रलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं

(1) राज्य सत्ता केवल अपनी इच्छा से किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकती। अगर वह किसी को जेल में बंद करना चाहती है, तो उसे इस कार्रवाई को उचित ठहराना पड़ेगा। उसे किसी न्यायालय के समक्ष उस व्यक्ति की स्वतंत्रता के विपरीत बन्दी बनाने का कारण बताना होगा।
(2) किसी को गिरफ्तार करने से पहले गिरफ्तारी का वारंट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है।
(3) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष अपने आपको दोष मुक्त करने का पूर्ण अधिकार होगा। ऐसा वह स्वयं या वकील की सहायता से भी कर सकता है।

इस प्रकार हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता की मर्यादा का उल्लंघन किए बगैर काम करे। राज्य संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न सत्ता हो सकती है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किए जा सकते हैं लेकिन संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। अतः सत्तारूढ़ सरकार को जनता के कल्याण की दृष्टि से ही कार्य करना होता है, अन्यथा जनता राज्य सत्ता के विरुद्ध खड़ी हो सकती है।

अधिकार HBSE 11th Class Political Science Notes

→ अधिकार और कर्त्तव्य राजनीतिक विचारकों के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। जब से बुद्धिजीवी वर्ग ने संगठन समाज, राज्य, व्यक्ति तथा समाज के संबंधों का गंभीर अध्ययन करना आरंभ किया तब से व्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।

→ अधिकार को लेकर ही विश्व में कई क्रांतियां हुईं। अधिकार के प्रश्न पर अनेक वाद लिखे गए हैं। अधिकारों को लेकर ही प्रथम और द्वितीय महायुद्ध हुए। विश्व में अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का गठन भी अधिकारों की सुरक्षा के लिए ही किया गया है।

→ आधुनिक युग के प्रजातांत्रिक समय में अधिकारों की और भी अधिक महत्ता बढ़ गई है। राजनीतिक दल, सरकार, व्यक्ति और संस्थाओं के द्वारा अधिकारों की ही बात की जाती है।

→ प्रजातांत्रिक युग में प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति सजग हो चुका है और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न करता है। प्रस्तुत अध्याय में हम व्यक्ति के अधिकारों और कर्तव्यों का अध्ययन करेंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

HBSE 11th Class Political Science सामाजिक न्याय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला?
उत्तर:
एक समाज में हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का यह मतलब है कि वह व्यक्ति क्या पाने का अधिकारी है। उसे वह दे देना ही न्याय है। हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ बदला है। प्राचीन काल में गलत व्यक्ति का प्राप्य दंड और सही व्यक्ति का प्राप्य पुरस्कार था। लेकिन यह विचार है कि न्याय में हर व्यक्ति को उसका उचित शामिल है। जो आज भी न्याय की हमारी समझ का महत्त्वपूर्ण अंग बना हुआ है। इसीलिए न्याय की अवधारणाओं में आज यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति का प्राप्य क्या है?

जैसे भारतीय संविधान के अनुसार हर मनुष्य को गरिमा प्रदान की गई है। यदि संविधान के अनुसार सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक का प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान रूप से मूल अधिकार प्राप्त हो एवं अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हो तथा कानून द्वारा सभी की गरिमा एवं अधिकारों को सुरक्षित रखा जाए। अत: न्याय के लिए आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर महत्त्व प्रदान करें।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 2.
अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धांतों की संक्षेप में चर्चा करो। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
आधुनिक समाज में प्राय: यह आम सहमति है कि समाज में सभी लोगों को समान महत्त्व दिया जाए। यद्यपि यह निर्णय करना बहुत मुश्किल है कि हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाए। इस संबंध में निम्नलिखित तीन सिद्धांत दिए गए हैं

1.समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धांत-यह माना जाता है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी भी है। आधुनिक राज्यों में व्यक्तियों को जो महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं, उनमें जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार शामिल हैं जो नागरिक होने के नाते सभी को समान रूप से प्राप्त हैं एवं राज्य सभी के अधिकारों का समान रूप से संरक्षण भी करता है।

इसके अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत का अर्थ यह भी है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाए एवं उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए, न कि इस आधार पर कि वे किस समुदाय एवं वर्ग के सदस्य हैं; जैसे यदि स्कूल में पुरुष शिक्षक को महिला शिक्षक से अधिक वेतन मिलता है तो यह अनुचित एवं अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय का सिद्धांत-किसी विशेष स्थिति में हर व्यक्ति के साथ समान बरताव अन्याय हो सकता है; जैसे परीक्षा में शामिल होने वाले सभी विद्यार्थियों को बराबर अंक दे देना पूर्णतः गलत होगा। प्रत्येक विद्यार्थी को उसकी मेहनत, क्षमता और कार्यकौशल के आधार पर अंक मिलने चाहिए तभी उनके साथ न्याय होगा। दूसरे शब्दों में, लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और योग्यता के अनुपात में पुरस्कृत करना न्यायसंगत होता है। इसलिए, समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धांत का समानुपातिकता के सिद्धांत के साथ संतुलन बैठाना भी बहुत आवश्यक है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल रखने का सिद्धांत यह सिद्धांत सामाजिक न्याय को बढावा देने का एक साधन है। यह समान बरताव के सिद्धांत का विस्तार करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत में यह भी अंतर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भो में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाए; जैसे दिव्यांगता वाले लोगों को कुछ विशेष मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है।

संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान इसी सिद्धांत के अंतर्गत हुआ है। इस प्रकार न्याय के उपर्युक्त तीनों सिद्धांतों के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करने पर ही शासन द्वारा एक न्यायपरक समाज की स्थापना की जा सकती है।

प्रश्न 3.
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धांत सभी के साथ समान बरताव के सिद्धांत के विरुद्ध है?
उत्तर:
किसी समाज में लोगों की विशेष ज़रूरतों को ध्यान में रखने का सिद्धांत समान बरताव के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है, बल्कि यह सिद्धांत समान व्यवहार के सिद्धांत का विस्तार करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत में यह अंतर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भो में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव या व्यवहार किया जाए। जैसे यदि दिव्यांगता वाले लोगों को कुछ विशेष परिस्थितियों या मामलों में असमान और विशेष सहायता दी जाती है तो यह पूर्णत: न्यायसंगत कहा जाएगा।

प्रश्न 4.
निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है। रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में अज्ञानता के आवरण’ के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर:
जॉन रॉल्स एक उदारवादी चिन्तक थे। उन्होंने निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को उचित ठहराया है। वे तर्क देते हैं कि निष्पक्ष एवं न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह निर्णय लेना है। इसी संदर्भ में जॉन रॉल्स ने अज्ञानता के आवरण के विचार का उपयोग किया है। रॉल्स के अनुसार समाज में अपने संभावित स्थान और हैसियत के बारे में हर व्यक्ति पूरी तरह अनभिज्ञ होगा अर्थात् उसे अपने विषय में कोई जानकारी नहीं होगी।

अज्ञानता की हालत में हर व्यक्ति अपने हितों को ध्यान में रखकर फैसला करेगा कि उसके लिए क्या लाभप्रद होगा? इसलिए हर कोई सबसे बुरी स्थिति के मद्देनजर समाज की कल्पना करेगा। स्वयं के लिए सोच-विचारकर चलने वाले व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट रहेगा कि जो जन्म से सुविधा-संपन्न हैं, वे कुछ विशेष अवसरों का उपभोग करेंगे।

लेकिन यदि उनका जन्म वंचित समुदाय में होता है, तब वैसी स्थिति में रॉल्स का कहना है कि जब व्यक्ति खुद को इस स्थिति में रखकर सोचेगा तब वह अवश्य ही ऐसे समाज के बारे में सोचेगा जो कमजोर वर्ग के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सके। वह व्यक्ति अवश्य ही संगठन के ऐसे नियमों की सिफारिश करेगा जिससे यथार्थ में पिछड़े वर्ग को लाभ पहुँचे। व्यक्ति के इस प्रयास से दिखेगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ समाज के सभी उच्च एवं कमजोर वर्ग के लोगों को प्राप्त हो। ‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता है कि यह लोगों को विवेकशील बनाए रखती है।

उनमें अपने लिए सोचने और अपने हित में जो अच्छा हो, उसे चुनने की अपेक्षा रहती है। यद्यपि प्रासंगिक बात यह है कि जब वे ‘अज्ञानता के आवरण’ में रहकर चुनते हैं तो वे पाएँगे कि सबसे बुरी स्थिति में ही सोचना उनके लिए लाभकारी होगा। इस प्रकार, अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़ना उचित कानूनों तथा नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ के मद्देनजर चीजों को देखेंगे बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयत्न करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ सम्पूर्ण समाज के लिए लाभदायक एवं कल्याणकारी हों।

प्रश्न 5.
आम तौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं? इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर:
विभिन्न सरकारों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की गणना के लिए विभिन्न तरीके सुझाए हैं। लेकिन सामान्यतः इस पर सहमति है कि स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की बुनियादी मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों के महत्त्वपूर्ण हिस्से होंगे। यद्यपि किसी भी समाज में मनुष्यों की न्यूनतम बुनियादी जरूरतों को सुनिश्चित करने में सरकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो इस प्रकार हैं-

(1) किसी भी समाज के लिए बेरोजगारी एक सामाजिक अभिशाप है। जब तक सरकार इसका निवारण नहीं करती तब तक लोग अपनी बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने में असमर्थ होंगे। अतः सरकार का दायित्व है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और आवश्यकता के अनुसार काम दे।

(2) सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि जिन लोगों को रोजगार नहीं मिल सका, उन्हें बेरोजगारी भत्ता दे ताकि वे अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से कर सकें।

(3) सरकार शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विद्यालयों की स्थापना कराए और उनमें शिक्षकों की नियुक्ति करे ताकि उन इलाकों के सभी बच्चे शिक्षा ग्रहण कर सकें।

(4) सरकार किसानों की दशा सुधारने की दिशा में अहम् भूमिका निभा सकती है। वह गरीब और छोटे किसानों को सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध करा सकती है एवं फसल का उचित मूल्य निर्धारण कर सकती है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 6.
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्यवाई को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमंदों को निशुल्क सेवाएँ देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिए।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
उत्तर
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।

सामाजिक न्याय HBSE 11th Class Political Science Notes

→ न्याय की अवधारणा बहुत प्राचीन है। यह राजनीतिक सिद्धांत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसका संबंध व प्रभाव मनुष्य-जीवन के प्रत्येक पक्ष से है। इसलिए मनुष्य न्याय प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता आया है और कर रहा है।

→ यहाँ तक कि जब मनुष्य को समाज में न्याय प्राप्त नहीं होता तो वह भगवान से न्याय की मांग करता है। न्याय द्वारा ही व्यक्ति अत्याचार से छुटकारा पा सकता है।

→ न्याय ही अराजकता, कलह, अशांति, भ्रष्टाचार और शोषण की अवस्था को दूर करता है। सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए न्याय की आवश्यकता पड़ती है।

→ न्याय की भावना मानव-जीवन और सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला है। न्याय की भावना सामाजिक संबंधों और व्यक्तिगत स्वार्थ के बीच संतुलन पैदा करती है और सामाजिक व्यवस्था को नैतिक आधार प्रदान करके उसे सुदृढ़ करती है।

→ न्याय ही प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं का लाभ उठाने का वातावरण उत्पन्न करता है। न्याय के बिना किसी का जीवन और संपत्ति सुरक्षित नहीं रह सकते।

→ न्याय के बिना समाज और राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्याय-विहीन समाज में तो जंगल जैसा वातावरण ही मिल सकता है। प्रस्तुत अध्याय में हम न्याय के संबंध में चर्चा करेंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता

HBSE 11th Class Political Science समानता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
उत्तर:
कुछ लोगों का विचार है कि मनुष्य में स्वाभाविक असमानता है। स्वयं प्रकृति ने भी सबको समान नहीं बनाया है। कुछ लोग जन्म से ही तीव्र एवं बुद्धिमान् होते हैं, तो कुछ लोग मूर्ख एवं मन्दबुद्धि वाले। कोई शारीरिक दृष्टि से अधिक शक्तिशाली है, तो कोई दुर्बल है। सभी के खान-पान, रहन-सहन एवं स्वभाव में कुछ-न-कुछ असमानता है। अतः सभी व्यक्तियों को समान तुला पर तोलना ठीक नहीं है। अतएव यह कहना कि प्रत्येक मनुष्य समान है, उसी प्रकार गलत है, जैसे यह कहना कि पृथ्वी समतल है। इसके ठीक विपरीत कुछ लोगों का विचार है कि सभी लोग जन्म से ही समान हैं।

वे संसार में दिखाई देने वाली सभी असमानताओं को मानवकृत मानते हैं। प्राकृतिक समानता की अवधारणा को 1789 ई० को फ्रांस की मानव अधिकारों की घोषणा में माना गया है और 1776 ई० की अमेरिका की स्वतन्त्रता घोषणा में भी माना गया है। परन्तु ऐसा विचार गलत है, क्योंकि लोगों में काफी असमानताएँ हैं जो जन्म से ही होती हैं और उनको समाप्त करना भी असम्भव है।

दो भाई भी आपस में बराबर नहीं होते। सभी लोगों में शरीर और दिमाग से सम्बन्धित परस्पर असमानता है। वास्तव में जन्म से ही बच्चों में शारीरिक और मानसिक असमानता होती है जिसे दूर करना सम्भव नहीं है। इसलिए मेरे विचार से यह कहना गलत है कि प्रकृति मनुष्यों को जन्म से समानता प्रदान करती है। प्राकृतिक असमानता का समर्थन करते हुए जी०डी०एच० कोल (GD.H. Cole) ने कहा है, “व्यक्ति शारीरिक बल, पराक्रम, मानसिक योग्यता, सृजनात्मक प्रवृत्ति, समाज सेवा की भावना और सबसे अधिक कल्पना शक्ति में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।”

प्रश्न 2.
एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न ही वांछनीय एक समाज ज़्यादा से ज़्यादा बहुत अमीर और बहुत ग़रीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिए।
उत्तर:
इस तर्क से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि पूर्ण आर्थिक समानता लाना बिल्कुल भी संभव नहीं है। लेकिन हाँ, अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बहुत चौड़ी या गहरी नहीं होनी चाहिए। इसीलिए आज अधिकतर सरकारें लोगों को आजीविका कमाने एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समान अवसर उपलब्ध करवाने का प्रयास कर रही हैं। यद्यपि यहाँ यह भी स्पष्ट है कि समान अवसरों के बावजूद भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना छिपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर प्राप्त कर सकता है।

इसी उद्देश्य के अंतर्गत ही हमारी भारतीय सरकार ने भी वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल जैसी सुविधाएँ भी मुहैया करवाई हैं। वंचित समुदायों को अवसर की समानता देने के लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की सुविधा भी दी गई है। जैसे दिसम्बर, 2019 में दिए गए 104वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के मूल आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान को सन् 2030 तक बढ़ाया गया है। अतः ऐसे सब प्रयासों से बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता

प्रश्न 3.
नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठायें।
(क) सकारात्मक कार्रवाई – (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ख) अवसर की समानता – (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ग) समान अधिकार – (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए।
उत्तर:
(क) सकारात्मक कार्रवाई – (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ख) अवसर की समानता – (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए।
(ग) समान अधिकार – (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
किसानों की समस्या से संबंधित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमांत किसानों को बाजार से अपनी उपज का उचित मल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मल्य सनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमांत किसानों तक ही सीमित रहना चाहिए। क्या यह सलाह समानता के सिद्धांत से संभव है?
उत्तर:
रिपोर्ट में सरकार को जो सलाह दी गई है वह समानता के सिद्धांत के अनुसार संभव है क्योंकि रिपोर्ट में केवल लघु और सीमांत किसानों की ही चर्चा की गई है। अत: सलाह भी उन्हीं के हितों से संबंधित है। इसलिए यह सलाह समानता के सिद्धांत से संभव है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धांत का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पड़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाडा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खोली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।
उत्तर:
(क) इस कथन में सामाजिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि नाटक का पाठ पढ़ने का अवसर सबसे पहले मेधावी बच्चों को मिलना चाहिए।

(ख) इस कथन में राजनीतिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि इसमें कनाडा सरकार द्वारा अश्वेतों के साथ भेदभाव की नीति अपनाई गई है।

(ग) इस कथन में सामाजिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि इस तरह की समानता सभी नागरिकों के साथ एक-समान व्यवहार करने का दावा करती है।

(घ) इस कथन में भी सामाजिक समानता के सिद्धांत का ही उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि वन क्षेत्रों पर निश्चित आदिवासी समुदायों का ही नहीं बल्कि पूरे आदिवासी समुदायों का अधिकार होना चाहिए।

प्रश्न 6.
यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इनमें से कौन-से तर्क समानता के विचार से संगत हैं। कारण भी दीजिए।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे।
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मतभेद पैदा हो जाएंगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लंबे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।
उत्तर:
तर्क (क) समानता के विचार से संगत है, क्योंकि इसमें पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी मताधिकार देने की बात कही गई है।
तर्क (ख) भी समानता के विचार से संगत है, क्योंकि इसमें भी स्त्रियों को पुरुषों की तरह मताधिकार देने की बात कही गई है।
तर्क (ग) समानता के विचार से मेल नहीं खाता. क्योंकि इसमें महिलाओं को मताधिकार नहीं देने की बात कही गई है।
तर्क (घ) समानता के विचार से मेल खाता है, क्योंकि इसमें स्पष्ट किया गया है कि जिस दुनिया में हम रहते हैं वह स्त्रियों और पुरुषों की बराबर की संख्या से बनी है और इस आधार पर उन्हें मताधिकार अवश्य दिया जाना चाहिए।

समानता HBSE 11th Class Political Science Notes

→ समानता राजनीति विज्ञान का एक आधारभूत सिद्धांत है। समानता प्रजातंत्र का एक मुख्य स्तंभ है। समानता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए परम आवश्यक है।

→ प्रत्येक युग में मनुष्य ने समानता सामंतवाद और पूंजीवाद ने समानता के नारे को बुलंद किया है। समानता के महत्त्व को प्राचीनकाल से ही विचारकों ने स्वीकार किया है, किंतु यह एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा के रूप में केवल 18वीं शताब्दी में ही उभरकर आई।

→ अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम (1776 ई०) और फ्रांस की राज्य क्रांति (1789 ई०) में जेफरसन, जॉन लॉक, रूसो, वाल्टैयर एवं पेन जैसे विचारकों ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व (Liberty, Equality and Fraternity) का नारा दिया जिसने आगे चलकर स्वतंत्र राष्ट्रों के निर्माण में मदद की।

→ 1776 ई० में अमेरिका में यह घोषणा की गई, “हम लोग इस सत्य को स्वतः सिद्ध मानते हैं कि सभी व्यक्ति समान पैदा होते हैं।”

→ सन् 1789 में फ्रांस की सफल क्रांति के बाद फ्रांस की राष्ट्रीय सभा (National Assembly) ने मानवीय अधिकारों की अपनी घोषणा में समानता के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा था, “मनुष्य हमेशा स्वतंत्र और समान रूप में जन्म लेते हैं और अपने अधिकारों के विषय में समान ही रहते हैं।”

→ वर्तमान युग प्रजातंत्र और समाजवाद का युग है जिसका मूर्त रूप समानता के द्वारा ही संभव है। आज संपूर्ण विश्व समानता के सिद्धांत में आस्था प्रकट करता है तथा राजनीति विज्ञान की यह मुख्य धुरी बन गई है।

→ मानव-सभ्यता का विकास और प्रगति दोनों समानता के सिद्धांत पर आधारित हैं।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

HBSE 11th Class Political Science स्वतंत्रता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से क्या आशय है? क्या व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में कोई संबंध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता ‘अंग्रेजी भाषा’ के शब्द लिबर्टी (Liberty) का हिंदी रूपांतर है। अंग्रेज़ी भाषा के इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के लिबर (Liber) शब्द से हुई है। ‘लिबर’ शब्द का अर्थ ‘बंधनों का अभाव’ (Lack of Controls) या ‘बंधनों से मुक्ति ‘ (Free from controls) तथा प्रतिबंधों की अनुपस्थिति (Absence of Restraints) से होता है।

इस तरह शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्रता (Liberty)शब्द का अर्थ बंधनों का पूरी तरह न होना या बंधनों का पूरा अभाव ही कहा जाएगा। साधारण आदमी इस शब्द का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता से लेता है जो बिल्कुल प्रतिबंध-रहित हो, परंतु राजनीति-शास्त्र में प्रतिबंध-रहित स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता (Licence) है, स्वतंत्रता नहीं। इस शास्त्र में स्वतंत्रता का अर्थ उस हद तक स्वतंत्रता है, जिस हद तक वह दूसरों के रास्ते में रोड़ा नहीं बनती।

इसलिए स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाने पड़ते हैं, ताकि प्रत्येक व्यक्ति की समान स्वतंत्रता सुरक्षित रहे। इसी कारण से मैक्नी (Mckechnie) ने कहा है, “स्वतंत्रता सभी प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि युक्ति-रहित प्रतिबंधों के स्थान पर युक्ति-युक्त प्रतिबंधों को लगाना है।” इसकी पुष्टि करते हुए जे०एस०मिल (J.S. Mill) ने कहा है, “स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि हम अपने हित के अनुसार अपने ढंग से उस समय तक चल सकें जब तक कि हम दूसरों को उनके हिस्से से वंचित न करें और उनके प्रयत्नों को न रोकें।”

अतः राजनीति विज्ञान के आधुनिक विचारक स्वतंत्रता को केवल बंधनों का अभाव नहीं मानते, बल्कि उनके अनुसार स्वतंत्रता सामाजिक बंधनों में जकड़ा हुआ अधिकार है। स्वतंत्रता के अर्थ के साथ यहाँ यह भी स्पष्ट है कि व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में बहुत गहरा संबंध है क्योंकि व्यक्ति की स्वतंत्रता शत-प्रतिशत राष्ट्र की स्वतंत्रता पर निर्भर है। यदि कोई देश स्वतंत्र नहीं होगा तो फिर उस देश का व्यक्ति स्वतंत्रता का आनंद कैसे उठा सकेगा।

एक स्वतंत्र राष्ट्र ही अपने नागरिकों को स्वतंत्र वातावरण एवं परिस्थितियाँ दे सकता है, जिसमें वे अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। एक परतंत्र राष्ट्र में दूसरे का हस्तक्षेप होता है इसलिए वहाँ के नागरिक अपनी इच्छानुसार काम करने की स्थिति में नहीं होते। वास्तव में उन्हें वही करना होता है, जो उन्हें करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। ऐसे राष्ट्र में रहने वाले लोगों के लिए स्वतंत्र जीवन जीना केवल एक कल्पना या स्वपन जैसा होता है। इस प्रकार यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्र की स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं। अतः एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में क्या अंतर है?
उत्तर:
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में मुख्य अंतर निम्नलिखित प्रकार से हैं
(1) नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव है; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है, बल्कि उचित प्रतिबंधों को स्वीकार करना है।

(2) नकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा के अनुसार वह सरकार सबसे अच्छी है जो कम-से-कम शासन एवं हस्तक्षेप करती है; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण के अनुसार राज्य को नागरिकों के कल्याण के लिए सभी क्षेत्रों में कानून बनाकर हस्तक्षेप करने का अधिकार है।

(3) नकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य का व्यक्ति पर बहुत कम नियंत्रण होता है; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विकास के लिए हस्तक्षेप कर कानूनों का निर्माण कर सकती है।

(4) नकारात्मक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति के जीवन व संपत्ति के अधिकार असीमित हैं; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार राज्य व्यक्ति के संपत्ति के अधिकार को सीमित कर सकता है।

(5) नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार, कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करता है; जबकि सकारात्मक अवधारणा के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि करता है। कानून स्वतन्त्रता की पहली शर्त है।

प्रश्न 3.
सामाजिक प्रतिबंधों से क्या आशय है? क्या किसी भी प्रकार के प्रतिबंध स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर:
समाज में जब किसी समुदाय या जाति को वह सब करने की स्वतंत्रता नहीं होती जो शेष लोगों को होती है, तो ऐसी स्थिति में हम कहते हैं कि उस पर सामाजिक प्रतिबंध लगे हुए हैं। भारत के कई हिस्सों में आज भी कुछ जातियों या समुदायों का मंदिरों में प्रवेश करना वर्जित है। इस प्रकार के सामाजिक प्रतिबंधों से उन समुदायों की कानून द्वारा प्राप्त स्वतंत्रता अवरुद्ध हो जाती है और वे देश और समाज की मुख्यधारा में नहीं रह पाते।

यद्यपि समाज में व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए कुछ प्रतिबंधों की आवश्यकता होती है क्योंकि स्वतंत्रता की प्रकृति में ही प्रतिबंध हैं और ये प्रतिबंध इसलिए आवश्यक हैं, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर व सुविधाएं प्राप्त हो सकें और एक व्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता या सामाजिक हित में बाधक न बन सके।

स्वतंत्रता को वास्तविक रूप देने के लिए आवश्यक है कि उसे सीमित किया जाए। समाज में रहते हुए शांतिमय जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के व्यवहार पर कुछ नियंत्रण लगाए जाएं। नियंत्रणों से मर्यादित व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है और समाज की एक लाभदायक इकाई सिद्ध हो सकता है। अरस्तू (Aristotle) ने ठीक ही कहा है, “मनुष्य अपनी पूर्णता में सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है, लेकिन जब वह कानून व न्याय से पृथक् हो जाता है तब वह सबसे निकृष्ट प्राणी बन जाता है।” अतः स्वतंत्रता के लिए कुछ प्रतिबन्धों का होना आवश्यक है।

प्रश्न 4.
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर:
सकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा इस तथ्य का समर्थन करती है कि नागरिकों की स्वतंत्रताएं राज्य में ही सुरक्षित रहती हैं। राज्य ही नागरिकों की स्वतंत्रताओं की रक्षा की व्यवस्था करता है। इस प्रकार राज्य को अधिकार है कि सभी नागरिकों को स्वतंत्रताएं प्रदान करने के लिए आवश्यक और उचित कदम उठाए।

नकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थकों ने राज्य को एक आवश्यक बुराई मानकर जो आलोचना की है, वह गलत है। वर्तमान कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुसार सकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा को ही मान्यता दी जाती है। आलोचकों ने इस अवधारणा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक आधारों पर आलोचना की है, परंतु वह आलोचना

इसलिए स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि सरकार की दुर्बलताओं को दूर करने की शक्ति केवल सरकार में ही निहित है। जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को किसी भी तरह की हानि पहुँचाता है या उसकी स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता है तो पीड़ित व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है।

न्यायालय दोषी व्यक्ति को उचित दंड देकर पीड़ित व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। यह राज्य का दायित्व होता है कि वह अपने नागरिकों को वैसा वातावरण एवं व्यवस्था प्रदान करे, जिसके अंतर्गत वे एक-दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए अपना सर्वांगीण विकास कर सकें। ऐसी व्यवस्था तैयार करने के लिए राज्य द्वारा लोगों पर कुछ प्रतिबंध लगाए जाते हैं जिनका उद्देश्य उनकी भलाई करना है, बुराई नहीं।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबंध क्या होंगे? उदाहरण सहित बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) क के अनुसार देश के सभी नागरिकों को वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, जिसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति भाषण देने, लेखन कार्य करने, चलचित्र अथवा अन्य किसी स्रोतों के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त संविधान के 44वें संशोधन के द्वारा इसमें अनुच्छेद 364-A को जोड़ा गया है।

इस अनुच्छेद के माध्यम से समाचारपत्रों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे संसद अथवा विधानमंडल की कार्रवाई को प्रकाशित कर सकते हैं। यद्यपि संविधान द्वारा इस स्वतंत्रता पर भी कुछ प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था की गई है; जैसे देश की संप्रभुता राज्य की सरक्षा विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में, न्यायालय अवमानना आदि के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है, जोकि सर्वथा उचित है। वास्तव में उचित प्रतिबंधों के अधीन ही वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सम्भव है।

स्वतंत्रता HBSE 11th Class Political Science Notes

→ स्वतंत्रता शब्द की उत्पत्ति मानव जाति के साथ ही हुई है। स्वतंत्रता मानव जीवन के लिए ऑक्सीजन है। इसके अभाव में मनुष्य का जीवन कठिन है। जब भी मनुष्य की स्वतंत्रता पर आघात किया गया है, जनता ने क्रान्ति पैदा की है।

→ इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति (1688), अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम (1776), फ्रांस की राज्य क्रांति (1789) तथा भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

→ रूसो ने स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व (Liberty, Equality and Fraternity) का नारा दिया जो फ्रांसीसी-क्रांति का मुख्य आधार बना। भारत में तिलक ने कहा, “स्वराज मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है।”

→ विश्व का इतिहास स्वतंत्रता के प्रेम के बलिदान में बहे रक्त से रंजित है। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान तक मनुष्य ने सब कुछ न्योछावर करने में जरा-सा भी संकोच नहीं किया। स्वतंत्रता के लिए मंडेला ने अपने जीवन के 28 वर्ष जेल की कोठरियों के अंधेरे में बिताए।

→ उन्होंने अपने यौवन को स्वतंत्रता के आदर्श के लिए होम कर दिया। स्वतंत्रता के लिए मंडेला ने व्यक्तिगत रूप से बहुत ही भारी कीमत चुकाई । वास्तव में व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास तथा उसकी प्रसन्नता के लिए स्वतंत्रता आवश्यक है।

→ वही मनुष्य, मनुष्य है जो स्वतंत्र है, जिसने अपनी स्वतंत्रता खो दी, उसके जीवन का अंत हो जाता है। अतः स्वतंत्रता मनुष्य और राज्य दोनों के लिए आवश्यक है। इसलिए आज संपूर्ण संसार में स्वतंत्रता को सभ्य मानवीय जीवन की एक आवश्यक और अनिवार्य शर्त माना जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

HBSE 11th Class Political Science राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धांत के बारे में नीचे लिखे कौन-से कथन सही हैं और कौन-से गलत?
(क) राजनीतिक सिद्धांत उन विचारों पर चर्चा करते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ बनती हैं।
(ख) राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न धर्मों के अंतर्संबंधों की व्याख्या करते हैं।
(ग) ये समानता और स्वतंत्रता जैसी अवधारणाओं के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
(घ) ये राजनीतिक दलों के प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हैं।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

प्रश्न 2.
‘राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में उक्त कथन पूर्णतः सही है क्योंकि राजनीति वास्तव में उन सबसे बढ़कर है जो राजनेता करते हैं। आज वे राजनेता निजी, स्वार्थपूर्ण आवश्यकताओं एवं महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने के दुष्चक्र में लगे रहते हैं। इसलिए वे दल-बदल, झूठे वायदे एवं बढ़-चढ़कर काल्पनिक दावे करने से बिल्कुल भी नहीं हिचकते हैं। फलतः राजनेताओं पर घोटालों, हिंसा, भ्रष्टाचार इत्यादि में संलिप्तता के आरोप प्रायः लगते रहते हैं। ऐसी स्थिति के विपरीत राजनीति इन सबसे बढ़कर है। वास्तव में राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है।

यह सरकार के क्रियाकलापों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की संस्थाओं से भी संबंधित है। समाज में परिवार, जनजाति और आर्थिक एवं सामाजिक संस्थाएँ लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूर्ण करने में सहायता करने के लिए अस्तित्व में हैं। ऐसी संस्थाएँ हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को स्वीकार करने में सहायता करती हैं।

इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकारें कैसे बनती हैं एवं कैसे कार्य करती हैं? राजनीति में दर्शाने वाली अहम् बातें हैं। इस प्रकार मूलतः राजनीति सरकार के क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सरकारें जो भी काम करती हैं, वे लोगों के जीवन को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करते हुए उनके जीवन को खुशहाल बनाने के कार्य करती हैं। इस दृष्टि से राजनीति एक तरह की जनसेवा है। ऐसी जनसेवा का अभाव स्वार्थपूर्ण संकीर्ण दृष्टिकोण वाले राजनेताओं में देखने को नहीं मिलता।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 3.
लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना ज़रूरी है। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों की जागरूकता लोकतंत्र की सफलता हेतु प्रथम अनिवार्य शर्त है। जैसा कि हम जानते हैं कि समाज का एक जागरूक और सजग नागरिक ही लोकतंत्र के मूल तत्त्वों या सिद्धांतों; जैसे स्वतंत्रता, समानता, न्याय, धर्मनिरपेक्षता आदि के महत्त्व को समझता है और उन्हें अपने जीवन में उतारता है। अगर वह राज्य में अपने अधिकारों के लिए लड़ता है तो राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों की पालना के प्रति भी सजग रहता है।

ऐसे सजग नागरिक सरकार के कार्यों में रुचि लेते हैं। सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते हैं, तो सही नीतियों का समर्थन करते हैं। वे भ्रष्टाचार जैसी समस्या का समाधान भी ढूँढते हैं और जरूरत पड़ने पर अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से सरकार तक अपनी बात भी पहुँचाते हैं।

सजग नागरिकों की ऐसी स्थिति लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। इसके विपरीत सजग नागरिकों के अभाव में सरकार निरंकुश बन जाएगी। जिसके फलस्वरूप उन्हें न्याय, शोषण एवं अत्याचार झेलने को विवश होना पड़ता है। नागरिकों की ऐसी स्थिति लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक सिद्धांत का अध्ययन हमारे लिए किन रूपों में उपयोगी है? ऐसे चार तरीकों की पहचान करें जिनमें राजनीतिक सिद्धांत हमारे लिए उपयोगी हों।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के समक्ष आने वाली सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढना है। यह मनुष्य के सामने आई कठिनाइयों की व्याख्या करता है तथा सुझाव देता है ताकि मनुष्य अपना जीवन अच्छी प्रकार से व्यतीत कर सके। राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन की उपयोगिता को निम्नलिखित चार तरीकों से प्रकट किया जा सकता है

1. वास्तविकता को समझने का साधन राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।

वह अध्ययन तथ्यों तथा घटनाओं का विश्लेषण करके समाज में प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को उजागर करता है। वास्तविकता को जानने के पश्चात ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। अतः यह हमें शक की स्थिति से बाहर निकाल देता है।

2. समस्याओं के समाधान में सहायक राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

3. भविष्य की योजना संभव बनाता है-राजनीतिक सिद्धांत सामान्यीकरण (Generalization) पर आधारित है, अतः यह वैज्ञानिक होता है। इसी सामान्यीकरण के आधार पर वह राजनीति विज्ञान को तथा राजनीतिक व्यवहार को भी एक विज्ञान बनाने का प्रयास करता है। वह उसके लिए नए-नए क्षेत्र ढूंढता है और नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण करता है।

ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

4. राजनीतिक सिद्धांत की राजनीतिज्ञों, नागरिकों तथा प्रशासकों के लिए उपयोगिता-राजनीतिक सिद्धांत के द्वारा वास्तविक राजनीति के अनेक स्वरूपों का शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस कारण वे अपने सही निर्णय ले सकते हैं। डॉ० श्यामलाल वर्मा ने लिखा है, “उनका यह कहना केवल ढोंग या अहंकार है कि उन्हें राज सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है या उसके बिना ही अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं अथवा कर सकते हैं।

वास्तविक बात यह है कि ऐसा करते हुए भी वे किसी-न-किसी प्रकार के राज-सिद्धांत को काम में लेते हैं।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान के सम्पूर्ण ढांचे का भविष्य राजमीतिक सिद्धांत के निर्माण पर ही निर्भर करता है।

प्रश्न 5.
क्या एक अच्छा/प्रभावपूर्ण तर्क औरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है?
उत्तर:
यह सत्य है कि एक अच्छा/प्रभावपूर्ण तर्क अन्यों को आपकी बात सुनने के लिए न केवल आकर्षित करने की क्षमता रखता है बल्कि उन्हें बाध्य भी कर सकता है। अच्छा बोलना एक बहुत बड़ी कला है। यदि कोई अच्छा वक्ता होने के साथ-साथ किसी बात को प्रभावपूर्ण तर्क से सिद्ध करने की क्षमता रखता है तो लोग उसकी तरफ स्वतः ही सहज भाव से खिंचे चले आते हैं। इस तरह उनकी यह कला बहुत जल्दी बहुतों को अपना प्रशंसक बना लेती है।

प्रश्न 6.
क्या राजनीतिक सिद्धांत पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिए।
उत्तर:
हम राजनीतिक सिद्धांत में सामान्यीकरण के लिए कार्य एवं कारण के सम्बन्ध का सहारा लेते हैं। इसलिए प्राय: यह माना जाता है कि राजनीतिक सिद्धांत पढ़ना गणित पढ़ने जैसा ही है। यद्यपि हम सभी गणित पढ़ते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हममें से सभी गणितज्ञ या इंजीनियर बन जाते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि बुनियादी अंकगणित का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उपयोगी सिद्ध होता है।

हम सभी प्रायः दैनिक जीवन में किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए जोड़, घटाव, गुणा, भाग आदि करते हैं। ठीक इसी प्रकार हमें राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन की भी आवश्यकता है। लेकिन हमें यह भी समझना है कि इसका अध्ययन करने वाला हर एक व्यक्ति राजनीतिक विचारक या दार्शनिक नहीं बन सकता, न ही राजनेता बनता है।

फिर भी इसके अध्ययन की आवश्यकता है, क्योंकि तभी हमें दैनिक जीवन में शोषण से अपने आप को बचा सकेंगे, वास्तविक स्वतंत्रता का उपभोग कर सकेंगे, दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान कर सकेंगे। अधिकार एवं कर्त्तव्यपालन में सम्बन्ध समझ सकेंगे। अत: अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक सिद्धांत का अध्ययन समाज में सभी लोगों के दैनिक जीवन के लिए उसी तरह से उपयोगी है; जैसे गणित का प्रत्येक व्यक्ति के लिए दैनिक जीवन में महत्त्व है।

राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय HBSE 11th Class Political Science Notes

→ राजनीति शब्द का जन्म हजारों वर्ष पहले यूनान में हुआ। अरस्तू को आधुनिक राजनीति का जन्मदाता माना जाता है। यहाँ तक कि अरस्तू ने राजनीति को ही अपनी पुस्तक का अध्ययन-विषय बनाया।

→ अरस्तू के बाद भी उसका अनुकरण करते हुए कुछ अन्य लेखकों ने भी राजनीति शब्द का प्रयोग किया, किंतु उस समय इस शब्द का प्रयोग जिस विषय को दर्शाने के लिए होने लगा, वह अरस्तू के काल के विषय के क्षेत्र की दृष्टि से पर्याप्त रूप से भिन्न हो चुका था, अर्थात् राजनीतिक शब्द का प्रयोग राजनीति शास्त्र के लिए किया जाने लगा।

→ जिस अर्थ में राजनीति शब्द का प्रयोग अरस्तू के द्वारा किया गया है, उसमें इस शब्द का प्रयोग ठीक है, किंतु आजकल राजनीति शास्त्र शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाने लगा है, इसके कारण राजनीति शास्त्र को राजनीति का नाम नहीं दे सकते।

→ इसी संदर्भ में गिलक्राइस्ट महोदय ने कहा है कि आधुनिक प्रयोग के कारण राजनीति का एक नया अभिप्राय हो गया है। अतः विज्ञान के नाम के रूप में यह बेकार हो गया है।

→ जब हम किसी देश की राजनीति की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय वहाँ की सामयिक और राजनीतिक समस्याओं से होता है। जब हम यह कहते हैं कि अमुक व्यक्ति राजनीति में रुचि रखता है तो हमारा अभिप्राय यही होता है कि वह आयात-निर्यात कर, मजदूरों एवं मिल-मालिकों के संबंधों, व्यापार, शिक्षा, खाद्य आदि विषयों से संबंधित वर्तमान प्रश्नों में अभिरुचि रखता है।