Author name: Prasanna

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

HBSE 12th Class Sociology सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
सांस्कृतिक विविधता का क्या अर्थ है? भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश क्यों माना जाता है?
अथवा
सांस्कृतिक विविधता के दो कारकों (कारणों) की व्याख्या कीजिए।
अथवा
भारत में सांस्कृतिक विविधता की झलक का परिचय दें।
उत्तर:
शब्द विविधता में असमानताओं के स्थान पर अंतरों पर जोर दिया जाता है। जब हम यह कहते हैं कि हमारा देश भारत एक महान् सांस्कृतिक विविधताओं से भरपूर राष्ट्र है तो इसका अर्थ यह होता है कि यहाँ बहुत से सामाजिक समूह तथा समुदाय रहते हैं। इन समुदायों को सांस्कृतिक चिह्नों जैसे कि भाषा, धर्म, पंथ, प्रजाति या जाति के द्वारा परिभाषित किया जाता है।

भारत में कई प्रकार की जातियों व धर्मों के लोग रहते हैं जिस कारण उनकी भाषा, खान-पान, रहन-सहन, परंपराएं, रीति-रिवाज़ इत्यादि अलग-अलग हैं। हरेक समूह के विवाह के ढंग, जीवन प्रणाली इत्यादि भी अलग अलग हैं। प्रत्येक धर्म के धार्मिक ग्रंथ अलग-अलग हैं तथा उनको सभी अपने माथे से लगाते हैं। यहां नृत्य, वास्तुकला, चित्रकला, त्योहार, मेले इत्यादि अलग-अलग हैं। इस कारण ही भारत को अत्यंत विविधतापूर्ण देश माना जाता है।

प्रश्न 2.
सामुदायिक पहचान क्या होती है और वह कैसे बनती है?
उत्तर:
सामुदायिक पहचान जन्म तथा संबंधों पर आधारित होती है न कि किसी की अर्जित योग्यता अथवा उपलब्धि के आधार पर। यह इस बात का सूचक है कि ‘हम क्या हैं न कि हम क्या बन गए हैं। किस समुदाय में हमने जन्म लेना है यह हमारे हाथ में नहीं होता है। असल में यह हमारे वश में नहीं है कि हमारा जन्म किस परिवार, समुदाय या देश में होता है। इस प्रकार सामुदायिक पहचान प्रदत्त होती है अर्थात् यह जन्म के अनुसार निर्धारित होती है तथा संबंधित लोगों की पसंद या ना पसंद इसमें शामिल नहीं होती।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

प्रश्न 3.
राष्ट्र को परिभाषित करना क्यों कठिन है? आधुनिक समाज में राष्ट्र और राष्ट्र कैसे संबंधित हैं?
उत्तर:
आज के समय में राष्ट्र को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है तथा इसके संबंध में यही कहा जा सकता है कि राष्ट्र एक ऐसा समुदाय होता है जिसने अपना राज्य बना लिया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके विपरीत रूप भी अधिक मात्रा में सच हो गए हैं। जिस प्रकार आज भावी राष्ट्रीयताएँ अपना राज्य बनाने के प्रयास कर रही हैं वैसे ही मौजदा राज्य यह दावा कर रहे हैं कि वे एक राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

आप महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक वैधता के प्रमुख स्रोतों के रूप में लोकतंत्र तथा राष्ट्रवाद स्थापित हुए हैं। इसका अर्थ यह है कि आज एक राज्य के लिए राष्ट्र एक सबसे अधिक स्वीकृत आवश्यकता है। जबकि लोग राष्ट्र की वैधता के सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राज्यों को राष्ट्र की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी राष्ट्रों को राज्य की।

प्रश्न 4.
राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु क्यों होते हैं?
उत्तर:
सांस्कृतिक विविधता का अर्थ है देश में अलग-अलग धर्मों, समुदायों, प्रजातियों, संस्कृतियों, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों का मौजूद होना। परंतु सांस्कृतिक विविधता के कारण देश में बहुत-सी समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं जैसे कि जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, जातीय दंगे इत्यादि। इससे देश का माहौल काफ़ी खराब हो जाता है। इस कारण ही राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु होते हैं।

प्रश्न 5.
क्षेत्रवाद क्या होता है? आमतौर पर यह किन कारकों पर आधारित होता है?
अथवा
क्षेत्रवाद की कोई दो विशेषताएँ बताएँ।
अथवा
क्षेत्रवाद के कोई दो कारण बताइए।
अथवा
भारतीय समाज में संदर्भ में क्षेत्रवाद पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
जब कोई अपने क्षेत्र को प्यार करने लगे तथा दूसरे क्षेत्रों से नफरत करने लगे तो उसे क्षेत्रवाद कहते हैं। अपने क्षेत्र के लोगों को बढ़ावा देना भी क्षेत्रवाद का एक रूप है। इसमें दूसरे क्षेत्र के लोगों को विदेशी समझा जाता है। उदाहरण के लिए पंजाब में बिहारी को विदेशी समझा जाता है। इस प्रकार अपने ही क्षेत्र के हितों की माँग करने को क्षेत्रवाद कहते हैं। क्षेत्रवाद का संकल्प स्वतंत्रता के पश्चात् सामने आया। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने राज्यों को अंग्रेजों द्वारा स्थापित स्थिति के अनुसार बना कर रखा।

इससे देश के अलग-अलग भागों से भाषायी आधार पर अलग अलग राज्य बनाने की माँग उठने लगी। मद्रास राज्य में कई भाषाएं बोलने वाले लोग रहते थे जिस कारण उनमें काफ़ी समस्याएँ उत्पन्न होती थीं इसलिए ही भारत सरकार ने 1956 में राज्यों का भाषायी आधार पर पुनर्गठन किया तथा भाषा के आधार पर 19 राज्यों का गठन किया। इसके बाद भी भाषा के आधार पर अथवा क्षेत्र के आधार पर राज्यों का गठन किया गया। यहीं से क्षेत्रवाद की भावना उत्पन्न हुई।

क्षेत्रवाद के कारक-अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद असंतुलन क्षेत्रवाद का प्रमुख कारण है। किसी क्षेत्र को केंद्र की अधिक सहायता प्राप्त होती है तथा किसी को कम, किसी क्षेत्र के स्वयं के संसाधन अधिक हैं किसी में कम।। अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएं इत्यादि ऐसे कारण हैं जो क्षेत्रवाद को जन्म देते हैं। इस कारण राजनीतिक दल सामने आते हैं तथा वह क्षेत्रवाद की भावनाओं को भड़काते हैं जिससे क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार क्षेत्रीय असंतुलन के कारण क्षेत्रवाद उत्पन्न होता है।

प्रश्न 6.
आपकी राय में, राज्यों के भाषायी, पुनर्गठन ने भारत का हित या अहित किया है?
उत्तर:
1956 में भारत सरकार ने राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया था। इससे सरकार को प्रशासन चलाने में काफ़ी सुविधा हुई तथा उसने अलग-अलग क्षेत्रों की भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात भी मान ली थी। परंतु उसने इसके नकारात्मक प्रभाव के बारे में नहीं सोचा। राज्यों के भाषाई पुनर्गठन ने देश का अहित ही किया है। इससे क्षेत्रवाद की भावना उत्पन्न हुई। अलगाववाद की भावना को बल मिली, भाषा के आधार पर और राज्यों के गठन की मांग शुरू हुई। दक्षिण भारत के लोग तो आज भी हिंदी को अपनी भाषा नहीं मानते हैं। वह अपनी मातृ भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना ही पसंद करते हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

प्रश्न 7.
‘अल्पसंख्यक’ (वर्ग) क्या होता है? अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की क्यों ज़रूरत होती है?
अथवा
अल्पसंख्यकों को परिभाषित करें।
उत्तर:
किसी समाज में जब जनसंख्या में कुछ लोगों का कम प्रतिनिधित्व होता है उन्हें अल्पसंख्यक कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि कुल जनसंख्या में से कोई समूह जो धर्म, जाति या किसी और आधार पर कम संख्या में होते हैं वे अल्पसंख्यक होते हैं। भारत में मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, जैन धर्मों के लोग अल्पसंख्यक समूह हैं।

अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की ज़रूरत काफ़ी अधिक होती है क्योंकि वह कम संख्या में होते हैं। अगर उन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त न हो तो हो सकता है कि उन्हें बहुसंख्यक वर्ग द्वारा तंग किया जाए तथा उनका हरेक प्रकार से शोषण किया जाए। यह भी हो सकता है कि उनमें श्रीलंका की तरह जातीय संघर्ष उत्पन्न ह्ये जाए। इसलिए ही भारत में अल्पसंख्यकों को राज्य द्वारा हरेक प्रकार का संरक्षण दिया जाता है।

प्रश्न 8.
सांप्रदायवाद या सांप्रदायिकता क्या है?
अथवा
सांप्रदायिकता से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सांप्रदायवाद अथवा सांप्रदायिकता का अर्थ है धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद। उग्रवाद, अपने आप में एक ऐसी अभिवृत्ति है जो अपने समूह को ही वैध या श्रेष्ठ समूह मानती है और अन्य समूहों को निम्न, अवैध अथवा विरोधी समझती हैं। सरल शब्दों में सांप्रदायिकता एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म स प्रकार हम कह सकते हैं कि सांप्रदायिकता और कुछ नहीं बल्कि एक विचारधारा है जो जनता में एक धर्म के धार्मिक विचारों का प्रचार करने का प्रयास करता है तथा यह धार्मिक विचार और धार्मिक स विचारों से बिल्कुल ही विपरीत होते हैं। सांप्रदायिकता का मूल विचार है कि एक विशेष धर्म का और धर्मों की कीमत पर उत्थान। यह एक विचारधारा है जो यह कहती है कि एक धर्म के सदस्य एक समुदाय के सदस्य हैं तथा अलग-अलग धर्मों के सदस्य एक समुदाय का निर्माण नहीं करते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में वह विभिन्न भाव (अर्थ) कौन-से हैं जिनमें धर्म निरपेक्षता या धर्म निरपेक्षतावाद को समझा जाता है?
उत्तर:
भारतीय समाज 20 वीं शताब्दी से ही पवित्र समाज से एक धर्म-निरपेक्ष समाज में परिवर्तित हो रहा है। इस शताब्दी के अनेक विद्वानों ने यह देश महसूस किया कि धर्म-निरपेक्षता के आधार पर ही विभिन्न धर्मों का देश भारत संगठित रह पाया है। धर्म-निरपेक्षता के आधार पर राज्य के सभी धार्मिक समूहों एवं धार्मिक विश्वासों को एक समान माना जाता है।

निरपेक्षता का अर्थ समानता या तटस्थता से है। राज्य सभी धर्मों को समानता की नज़र से देखता है तथा किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। धर्म-निरपेक्षता ऐसी नीति या सिद्धांत है जिसके अंतर्गत लोगों को किसी विशेष धर्म को मानने या पालन के लिए बाध्य नहीं किया जाता है।

प्रश्न 10.
आज नागरिक समाज संगठनों की क्या प्रासंगिकता है?
उत्तर:
नागरिक समाज उस व्यापक कार्यक्षेत्र को कहते हैं जो परिवार के निजी क्षेत्र से दूर होता है, परंतु राज्य और बाज़ार दोनों के क्षेत्र से बाहर होता है। नागरिक समाज सार्वजनिक अधिकार का गैर-राजकीय तथा गैर बाजारी भाग होता है जिसमें अलग-अलग व्यक्ति संस्थाओं और संगठनों का निर्माण करने के लिए स्वेच्छा से परस्पर आ जुड़ते हैं।

यह सक्रिय नागरिकता का क्षेत्र है जहाँ व्यक्ति मिलकर सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करते हैं, राज्य को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं अथवा उसके समक्ष अपनी माँगें रखते हैं, अपने सामूहिक हितों को पूर्ण करने की कोशिश करते हैं या अलग-अलग कार्यों के लिए समर्थन चाहते हैं। इस क्षेत्र में नागरिकों के समूहों द्वारा बनाए गए स्वैच्छिक संघ, संगठन अथवा संस्थाएँ सम्मिलित होते हैं। इसमें राजनीतिक दल, जनसंचार की संस्थाएँ, मजदूर संघ, गैर-सरकारी संगठन, धार्मिक संगठन और अन्य प्रकार के सामूहिक तत्त्व सम्मिलित होते हैं।

नागरिक समाज में शामिल मुख्य कसौटियाँ यह हैं कि संगठन पर राज्य का नियंत्रण नहीं होना चाहिए तथा यह विशुद्ध रूप से मुनाफ़ा कमाने वाले तत्त्व न हों। उदाहरण के लिए दूरदर्शन नागरिक समाज का हिस्सा नहीं हैं जबकि निजी टी०वी० चैनल है। इसी प्रकार कार निर्माता कंपनी नागरिक समाज का अंग नहीं है, परंतु उसके मजदूरों के मज़दूर संघ इसका हिस्सा हैं। असल में यह कसौटियां बहुत सारे क्षेत्रों को स्पष्ट नहीं कर पाती हैं। जैसे एक समाचार पत्र को विशुद्ध रूप से एक वाणिज्यिक उद्यम के रूप में चलाया जा सकता है अथवा एक गैर-सरकारी संगठन को सरकारी खजाने में से मदद की जा सकती है।

सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हमारा देश भारत एक सांस्कृतिक विविधताओं से भरपूर देश है जहां पर समुदायों को सांस्कृतिक चिह्नों जैसे कि भाषा, धर्म, पंथ, प्रजाति या जाति द्वारा परिभाषित किया जाता है। इसी कारण ही देश में सांस्कृतिक विविधता कठोर चुनौतियां पेश करती है।

→ सामुदायिक पहचान जन्म तथा संबंध पर आधारित होती है न कि किसी अर्जित उपलब्धि पर। इसका अर्थ है कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति मुख्यतः उसके परिवार पर आधारित प्रदत्त होती है न कि उसके द्वारा अर्जित की होती है।

→ प्रत्येक व्यक्ति में अपने समुदाय के प्रति एक भावना अर्थात् सामुदायिक भावना होती है तथा यह सामुदायिक भावना सर्वव्यापक होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामुदायिक पहचान तथा सामुदायिक भावना के साथ गहरे रूप से जुड़ा हुआ होता है।

→ राष्ट्र एक प्रकार का बड़े स्तर का समुदाय होता है जो कई समुदायों से मिलकर बनता है। राष्ट्र के सदस्य एक ही राजनीतिक सामूहिकता का हिस्सा बनने की इच्छा रखते हैं। राजनीतिक एकता की यह इच्छा स्वयं को एक राज्य बनाने की आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त करती है।

→ राज्य एक ऐसा अमूर्त सत्य है जिसका अपना ही एक भौगोलिक क्षेत्र होता है, अपनी प्रभुसत्ता होती है, अपनी ही जनसंख्या होती है तथा प्रशासन चलाने के लिए सरकार होती है। इन चारों तत्त्वों में से किसी एक के न होने की स्थिति में राष्ट्र स्थापित नहीं हो पाएगा। इस प्रकार राष्ट्र तथा राज्य दो अलग-अलग संकल्प हैं।

→ भारत एक ऐसा राष्ट्र राज्य है जहां पर सांस्कृतिक विविधता मौजूद है। यहां 1632 अलग-अलग भाषाएं हैं, कई प्रकार के धर्म हैं, बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक लोग रहते हैं। अलग-अलग धर्मों के मौजूद होने के कारण भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया हुआ है।

→ भारत में क्षेत्रवाद भारत की भाषाओं, संस्कृतियों, जनजातियों तथा धर्मों की विविधता के कारण पाया जाता है। क्षेत्रवाद का अर्थ है अपने क्षेत्र के हितों के सामने अन्य क्षेत्रों को तुच्छ समझना तथा उन हितों को प्राप्त करने के लिए लड़ना।

→ हमारा देश भारत एक संघ है जिसमें एक संघीय सरकार तथा अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग सरकारें होती हैं। संविधान ने संघीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच शक्तियों तथा वित्तीय साधनों का साफ़ तौर पर बँटवारा किया हुआ है ताकि उनमें कोई समस्या उत्पन्न न हो सके।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

→ धर्म-निरपेक्षता का अर्थ है किसी विशेष धर्म को न मानकर सभी धर्मों को समान महत्त्व देना। अगर किसी विशेष धर्म को अधिक महत्त्व दिया जाएगा तो सांप्रदायिकता के बढ़ने का ख़तरा उत्पन्न हो जाता है।

→ हमारे देश में कई धर्मों के लोग रहते हैं। इनमें से कई तो बहुसंख्या में हैं तथा कई अल्पसंख्यक हैं। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए संविधान में प्रावधान रखे गए हैं तथा सभी को कानून की दृष्टि में समान माना गया है। अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति का प्रचार करने की आज्ञा भी दी गई है।

→ सांप्रदायिकता का अर्थ है धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद। उग्रवाद अपने आप में एक ऐसी अभिवृत्ति है जो अपने समूह को ही वैध या श्रेष्ठ समूह मानती है तथा अन्य समूहों को निम्न, अवैध या विरोधी समझती है। यह एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म से जुड़ी होती है।

→ सांप्रदायिकता की एक प्रमुख विशेषता उसका यह दावा है कि धार्मिक पहचान अन्य सभी की तुलना में उच्च होती है। चाहे व्यक्ति अमीर हो या निर्धन, किसी भी व्यवसाय, जाति या राजनीतिक विश्वास का हो, धर्म ही सब कुछ होता है, उसी के आधार पर उसकी पहचान है।

→ नागरिक समाज उस व्यापक कार्यक्षेत्र को कहते हैं जो पारिवारिक क्षेत्र से दूर होता है, परंतु राज्य और बाज़ार दोनों क्षेत्रों से बाहर होता है। ছাত্রাবলী

→ सांस्कृतिक विविधता-देश में अलग-अलग समूहों की संस्कृति में अंतर होना सांस्कृतिक विविधता है।

→ सांस्कृतिक समुदाय-वह समुदाय जो जाति, नृजातीय समूह, क्षेत्र अथवा धर्म जैसी सांस्कृतिक पहचानों पर आधारित होते हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

→ नागरिक समाज-वह व्यापक कार्यक्षेत्र जो परिवार के निजी क्षेत्र से परे होता है, परन्तु राज्य और बाजार दोनों क्षेत्र से बाहर होता है।

→ सांप्रदायिकता-धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद।

→ अल्पसंख्यक-वह समुदाय जो राष्ट्र में कम संख्या में होता है।

→ बहुसंख्यक-वह समुदाय जो राष्ट्र में अधिक संख्या में होता है।

→ संघवाद-वह प्रक्रिया जिसमें कई छोटे-छोटे राज्य इकट्ठे मिलकर एक बड़े संघ का निर्माण करते हैं।

→ राष्ट्र-एक प्रकार का बड़े स्तर का समुदाय जो कई समुदायों से मिलकर बना एक समुदाय है।

→ प्रदत्त पहचान-वह पहचान जो व्यक्ति को जन्म के अनुसार प्राप्त होती है।

→ अर्जित पहचान-वह पहचान जो व्यक्ति अपनी योग्यता तथा उपलब्धि के आधार पर प्राप्त करता है।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

HBSE 12th Class Sociology सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक विषमता व्यक्तियों की विषमताओं से कैसे भिन्न है?
अथवा
सामाजिक असमानता व्यक्तिगत असमानता से भिन्न होती है। व्याख्या कीजिए।
अथवा
सामाजिक विषमता सामाजिक क्यों है? विस्तृत चर्चा करें।
उत्तर:सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति को सामाजिक विषमता कहा जाता है। कुछ सामाजिक विषमताएँ व्यक्तियों के बीच स्वाभाविक भिन्नता को दर्शाती हैं जैसे कि उनकी योग्यता तथा प्रयासों में अंतर। कोई व्यक्ति असाधारण प्रतिभा का भी हो सकता है तथा कोई अधिक बुद्धिमान भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि उस व्यक्ति ने अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए अधिक परिश्रम किया हो। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक विषमता व्यक्तियों के बीच प्राकृतिक अंतरों के कारण नहीं बल्कि उस समाज द्वारा उत्पन्न होती है जिसमें वह रहते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण की कुछ विशेषताएं बतलाइए।
अथवा
सामाजिक स्तरीकरण की चार प्रमुख विशेषताएं बताइए।
अथवा
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएं बताइए।
उत्तर:

  • सामाजिक स्तरीकरण में समाज को अलग-अलग भागों अथवा स्तरों में विभाजित किया जाता है जिसमें समाज के व्यक्तियों का आपसी संबंध उच्चता निम्नता पर आधारित होता है।
  • सामाजिक स्तरीकरण में अलग-अलग वर्गों की असमान स्थिति होती है। किसी की सबसे उच्च, किसी की उससे कम तथा किसी की बहुत निम्न स्थिति होती है।
  • स्तरीकरण में अंतक्रियाएं विशेष स्तर तक ही सीमित होती हैं। हरेक व्यक्ति अपने स्तर के व्यक्ति से संबंध स्थापित करता है।
  • सामाजिक स्तरीकरण पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है। यह परिवार और सामाजिक संसाधनों के एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में उत्तराधिकार के रूप में घनिष्ठता से जुड़ा है।
  • सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास व विचारधारा द्वारा समर्थन मिलता है।

प्रश्न 3.
आप पूर्वाग्रह और अन्य किस्म की राय अपना विश्वास के बीच कैसे भेद करेंगे?
अथवा
पूर्वग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पूर्वाग्रह एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे के बारे में पूर्वकल्पित विचार अथवा व्यवहार होता है। पूर्वाग्रह शब्द के शाब्दिक अर्थ हैं पूर्व निर्णय अर्थात् किसी के बारे वह धारणा जो उसे जाने बिना तथा उसके तथ्यों को परखे बिना शुरू में ही स्थापित कर ली जाती है। एक पूर्वाग्रहित व्यक्ति के पूर्वकल्पित विचार तथ्यों के विपरीत सुनी सुनाई बातों पर ही आधारित होते हैं। चाहे इनके बारे में बाद में नई जानकारी प्राप्त हो जाती है, परंतु फिर भी यह बदलने से मना कर देते हैं।

पर्वाग्रह सकारात्मक भी होता है तथा नकारात्मक भी। वैसे मख्यता इस शब्द को नकारात्मक रूप से लिए गए पूर्वनिर्णयों के लिए ही प्रयोग किया जाता है परंतु इसे स्वीकारात्मक पूर्वनिर्णयों पर भी प्रयोग किया जाता है। जैसे कि कोई व्यक्ति अपने समूह के सदस्यों या जाति के पक्ष में पूर्वाग्रहित हो सकती है तथा उन्हें दूसरी जाति या समूह के सदस्य श्रेष्ठ मान सकता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

प्रश्न 4.
सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार क्या है?
अथवा
सामाजिक बहिष्कार सामाजिक क्यों है? विस्तृत चर्चा करें।
अथवा
सामाजिक अपवर्जन से आप क्या समझते हैं?
अथवा
सामाजिक बहिष्कार क्या है?
अथवा
सामाजिक अपवर्जन (बहिष्कार) क्या है?
उत्तर:
सामाजिक अपवर्जन अथवा बहिष्कार वह ढंग हैं जिनकी सहायता से एक व्यक्ति अथवा समूह को समाज में पूर्णतया घुलने मिलने से रोका जाता है तथा पृथक् रखा जाता है। बहिष्कार उन सभी कारकों की तरफ ध्यान दिलाता है जिनसे उस व्यक्ति या समूह को उन मौकों से वंचित किया जाता है जो और जनसंख्या के लिए खुले होते हैं। व्यक्ति को क्रियाशील तथा भरपूर जीवन जीने के लिए मूलभूत ज़रूरतों जैसे कि रोटी, कपड़ा तथा मकान के साथ-साथ अन्य ज़रूरी चीज़ों तथा सेवाओं जैसे कि बैंक, यातायात के साधन, शिक्षा इत्यादि की भी आवश्यकता होती है। सामाजिक भेदभाव अचानक नहीं बल्कि व्यवस्थित ढंग से होता है। यह समाज की संरचनात्मक विशेषताओं का नतीजा है।

परंतु एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक बहिष्कार हमेशा अनैच्छिक होता है अर्थात् बहिष्कार उन लोगों की इच्छा के विरुद्ध होता है जिनका बहिष्कार किया जा रहा हो। उदाहरण के लिए शहरों में हजारों बेघर लोग फुटपाथ या पुलों के नीचे सोते हैं, धनी व्यक्ति नहीं। इसका अर्थ यह नहीं है कि धनी व्यक्ति फुटपाथ का प्रयोग करने से बहिष्कृत हैं। अगर वह चाहें तो वह इनका प्रयोग कर सकते हैं, परंतु वह ऐसा नहीं करते । सामाजिक भेदभाव को कभी-कभी गलत तर्क से ठीक कहा जाता है कि बहिष्कृत समूह स्वयं समाज में शामिल होने के इच्छुक नहीं हैं। इस प्रकार का तर्क इच्छित चीज़ों के लिए बिल्कुल ही गलत है।

प्रश्न 5.
आज जाति और आर्थिक असमानता के बीच क्या संबंध है?
उत्तर:
प्राचीन समय में जाति और आर्थिक असमानता एक-दसरे से गहरे रूप से संबंधित थे। व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तथा आर्थिक स्थिति एक-दूसरे के अनुरूप होती थी। उच्च जातियों के लोगों की आर्थिक स्थिति प्रायः अच्छी होती थी जबकि निम्न जातियों के लोगों की आर्थिक स्थिति काफ़ी निम्न होती थी। परंतु आधुनिक समय अर्थातु 19वीं शताब्दी के बाद से जाति तथा व्यवसाय के संबंधों में काफ़ी परिवर्तन आए हैं।

आज के समय में जाति के व्यवसाय तथा धर्म संबंधी प्रतिबंध लागू नहीं होते। अब व्यवसाय अपनाना पहले की अपेक्षाकृत आसान हो गया है। अब व्यक्ति कोई भी व्यवसाय अपना सकता है। पिछले 100 वर्षों की तुलना में आज जाति तथा आर्थिक स्थिति का संबंध काफ़ी कमज़ोर हो गया है। आजकल में अमीर तथा निर्धन लोग हरेक जाति में मिल जाएंगे। परंतु मुख्य बात यह है कि जाति-वर्ग परस्पर संबंध वृहत स्तर पर अभी भी पूर्णतया कायम है। जाति व्यवस्था के कमजोर होने से सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति वाली जातियों के बीच अंतर कम हो गया है। परंतु अलग-अलग सामाजिक आर्थिक समूहों के बीच जातीय अंतर अभी भी मौजूद है।

प्रश्न 6.
अस्पृश्यता क्या है?
अथवा
अस्पृश्यता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय समाज में जाति प्रथा का काफ़ी महत्त्व था। उच्च तथा निम्न जातियों को अस्पश्यता की सहायता से अलग किया जाता था। अस्पृश्यता की धारणा यह थी कि निश्चित निम्न जातियों के लोगों के छूने अथवा परछाईं से उच्च जातियों के लोग अपवित्र हो जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि यदि उच्च जाति के लोग अछूत जाति के लोगों के नज़दीक भी आ जाएंगे अथवा उनकी छाया भी यदि उन पर पड़ गई तो वह अपवित्र हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में उन्हें दोबारा पवित्र होने के लिए या तो गंगाजल से नहाना पड़ेगा या विशेष धार्मिक कर्मकांड करने पड़ेंगे। 1955 के अस्पृश्यता अपराध कानून से इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया था।

प्रश्न 7.
जातीय विषमता को दूर करने के लिए अपनाई गई कुछ नीतियों का वर्णन करें।
उत्तर:
जातीय विषमता को दूर करने के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों ने कुछ नीतियां अपनाई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  • केंद्र सरकार ने कई प्रकार के कानून बनाए हैं जिनसे जातीय निर्योग्यताएं खत्म कर दी गई हैं। इससे जातीय अंतर कम हुआ है।
  • निम्न जातियों के लोगों को गांवों में भूमि वितरित की गई है ताकि वह अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठा सके।
  • निम्न जातियों के लोगों को कम ब्याज पर तथा आसान किश्तों पर अपना धंधा शुरू करने के लिए ऋण उपलब्ध करवाए जा रहे हैं।
  • उनकी बस्तियों में सुधार करने के लिए सरकारें विशेष प्रबंध कर रही हैं तथा उन्हें कई प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा रही हैं।
  • निम्न जातियों के लोगों को कृषि उत्पादन के लिए अच्छे बीज, उवर्रक तथा मशीनें उपलब्ध करवाई जा रही हैं।
  • सरकार ने 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम चलाए हैं जिसमें उन्हें रोज़गार दिलाने की तरफ विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

इन सब कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य जातीय विषमता को दूर करके निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाना है।

प्रश्न 8.
अन्य पिछड़े वर्ग, दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं?
उत्तर:
भारतीय समाज में या तो उच्च जातियों की उच्चता या फिर अनुसूचित जातियों के शोषण को महत्व दिया गया है। परंतु उच्च जातियों तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के अतिरिक्त भी भारतीय समाज में एक ऐसा बड़ा वर्ग रहा है जो सैंकड़ों वर्षों से उपेक्षित रहा है। अगड़ी जातियों, समुदायों से नीचे तथा अनुसूचित जातियों से ऊपर समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो विभिन्न कारणों से उपेक्षित रहा है तथा भारतीय समाज की विकास यात्रा में निरंतर पिछड़ता गया। इसी वर्ग को अन्य पिछड़ा वर्ग कहते हैं।

इसी प्रकार अन्य पिछड़ा वर्ग अनुसूचित जातियों से ऊपर भारतीय समाज में बहुसंख्यक ऐसा वर्ग है जो सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा भौगोलिक कारणों से कमजोर रह गया है। स्वतंत्रता के बाद इसके लिए अन्य पिछड़ा वर्ग शब्द का प्रयोग किया गया। यह हिंदुओं के दविजों तथा हरिजनों के बीच की जातियों का समूह है । इसके अतिरिक्त इसमें गैर-हिंदुओं, अनुसूचित जातियों व जनजातियों को छोड़कर अन्य निम्न वर्गों को शामिल किया जाता है।

सुभाष तथा बी०पी० गुप्ता द्वारा तैयार किए गए राजनीति कोष में अन्य पिछड़े वर्ग की परिभाषा दी गई है। उनके अनुसार, “अन्य पिछड़े हुए वर्ग का अर्थ समाज के उस वर्ग से है जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक निर्योग्यताओं के कारण समाज के अन्य वर्गों की तुलना में निम्न स्तर पर हों।’

1953 में काका कालेलकर आयोग गठित किया गया जिसने पिछड़ेपन की चार कसौटियों पर पिछड़ी जातियों की सूची तैयारी की। यह मानदंड थे-जातीय संस्तरण में निम्न स्थान, शिक्षा का अभाव, सरकारी नौकरियों में कम पार व उदयोगों में कम प्रतिनिधित्व। 1978 में मंडल आयोग गठित किया गया जिसने पिछडे वर्ग निर्धारण के लिए तीन मानदंडों का चयन किया था वह थे सामाजिक, शैक्षणिक तथा आरि में विभाजित किया तथा प्रत्येक मानदंड के लिए महत्त्व अलग-अलग दिया गया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

प्रश्न 9.
आज आदिवासियों से संबंधित बड़े मुद्दे कौन-से हैं?
उत्तर:
जनजातियां हमारे समाज, सभ्यता तथा संस्कृति से बहुत ही दूर रहती हैं जिस कारण यह कुछ समय पहले ही हमारे समाज के संपर्क में आई हैं। इसलिए ही हमारे समाज की अनुसूचित जातियों को जिन निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ा है, उन निर्योग्यताओं का सामना जनजातियों को नहीं करना पड़ा है। उनसे संबंधित बड़े मुद्दे अलग ही प्रकृति के हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) जनजातियों का शोषण-अंग्रेज़ों के शासन के समय कबायली लोग हमारे समाज के संपर्क में आना शुरू हुए। असल में कबायली लोग न तो किसी के मामले में हस्तक्षेप करते हैं तथा न ही किसी को अपने मामलों में हस्तक्षेप करने देते हैं। जब अंग्रेजों ने भारत में अपनी शासन व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए यहां डाक-तार की तारें बिछाने का कार्य शुरू किया तो उन्हें कबायली इलाकों में से अपनी तारें बिछानी पड़ी। इस बात का कबायली लोगों ने हिंसात्मक विरोध किया।

इससे नाराज़ होकर अंग्रेजों ने अपने ज़मींदारों, व्यापारियों तथा सूद पर पैसा देने वाले साहूकारों को कबायली लोगों को शोषित करने के लिए प्रेरित किया। साहूकारों तथा ज़मींदारों ने धीरे-धीरे इनका शोषण करना शुरू किया तथा इनका जम कर शोषण किया। इससे इन लोगों का जीवन स्तर इतना निम्न हो गया कि यह अच्छा जीने के काबिल ही न रहे। इस प्रकार इनमें यह निर्योग्यता आ गई।

(ii) निर्धनता-कबायली लोग हमारी सभ्यता से दूर पहाड़ों, जंगलों, घाटियों इत्यादि में रहते हैं। इन लोगों का समाज में कोई वर्ग नहीं पाया जाता है तथा यह बहुत ही साधारण जीवन जीते हैं। इनकी आवश्यकताएं काफ़ी सीमित हैं जिस कारण इन्हें अधिक चीजों की आवश्यकता नहीं होती है।

परंतु धीरे-धीरे यह हमारे समाज के संपर्क में आए जिस कारण इनकी आवश्यकताएं बढ़ती गईं। परंतु काफ़ी समय से कबायली लोगों का साहूकारों तथा जमींदारों से शोषण होता रहा है। इस शोषण के कारण यह निर्धन से और निर्धन हो गए। इस प्रकार निर्धनता के कारण उन्नति न कर पाए तथा पिछड़ते चले गए।

(iii) अलग-थलग करने की नीति-जब अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन का विस्तार करना शुरू किया तो उनके रास्ते में कबायली लोग आ गए। कबायली लोग न तो किसी के मामले में हस्तक्षेप करते हैं तथा न ही किसी को हस्तक्षेप करने की आज्ञा देते हैं। परंतु जब अंग्रेजों ने अपने शासन का विस्तार करना शुरू किया तो कबायली लोगों ने इसका हिंसात्मक विरोध किया। इस विरोध के कारण अंग्रेजों को अपने इलाकों में विस्तार का कार्य छोड़ना पड़ा।

इसके बाद अंग्रेज़ों ने इन लोगों को अलग-थलग करने की नीति को अपनाया। इसलिए उनके क्षेत्रों को अलग-थलग किया गया ताकि उनके हितों की रक्षा हो सके तथा उनके हिंसात्मक विरोध को भी रोका जा सके। इस प्रकार चाहे अंग्रेजों ने प्रशासनिक कारणों से उन्हें अलग-थलग करने की नीति अपनाई जिससे वह समाज में पिछड़ते ही चले गए तथा निर्धन से और निर्धन हो गए।

(iv) मध्यस्त रास्ता-स्वतंत्रता के बाद संविधान ने देश के सभी नागरिकों तथा समूहों की प्रगति करने का निर्देश सरकार को दिया। इसलिए भारत ने अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिए बीच का रास्ता अपनाया। इसके अनुसार उनके क्षेत्र में न केवल प्रगति के अवसर उत्पन्न किए गए बल्कि उनकी संस्कृति का ध्यान भी रखा गया।

इससे कबायली लोग धीरे-धीरे प्रगति करने लगे। चाहे इस नीति से वह प्रगति करने लगे, परंतु इसका उन्हें नुकसान भी हुआ। चाहे कुछ शिक्षा प्राप्त की गई, परंतु वह नौकरी लेने लायक न थी तथा साथ ही वह अपने परंपरागत कार्यों से भी दूर होते चले गए। इस प्रकार वह सामाजिक क्षेत्र में भी पिछड़ते चले गए।

प्रश्न 10.
नारी आंदोलन ने अपने इतिहास के दौरान कौन-कौन से मुद्दे उठाए हैं?
अथवा
महिलाओं की समानता के लिए संघर्षों पर अपने विचार दें।
अथवा
स्त्रियों की समानता और अधिकारों के लिए किए संघर्षों की जानकारी दीजिए।
अथवा स्त्रियों द्वारा समानता के लिए किए गए संघर्षों का वर्णन करें।
उत्तर:
वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी उच्च थी क्योंकि उस समय नारी को देवी समझा जाता था। परंतु समय के साथ-साथ अलग-अलग कालों अथवा युगों में उनकी स्थिति में काफ़ी गिरावट आई। मध्य काल को तो स्त्रियों के लिए काला यग कहा जाता है। चाहे मध्य काल में बहुत से संत महात्माओं ने उनकी सामाजिक स्थिति सधारने का प्रयास किया. परंतु वह अधिक सफल न हो पाए।

मध्य काल के अंत तथा आधुनिक काल की शुरुआत में समाज में महिलाओं से संबंधित बहुत सी बुराइयां व्याप्त थीं जैसे कि बहुविवाह, बाल विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा, पर्दा प्रथा इत्यादि। आधुनिक समाज सुधारकों ने इन बुराइयों के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा महिला आंदोलन को सुदृढ़ता प्रदान की।

कुछ सुधारकों अंग्रेजों की सहायता से कानून भी पास करवाए ताकि इन बुराइयों को खत्म किया जा सके। इसके बाद गाँधी जी ने महिलाओं को घरों से बाहर निकल कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था कि अगर महिलाएं घरों से बाहर निकल आईं तो उनकी निर्योग्यताओं का खात्मा हो जाएगा। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा पर भी काफ़ी बल दिया। इस कारण ही हजारों लाखों महिलाएं घरों से बाहर निकल आई।

स्वतंत्रता के पश्चात् महिलाओं के उत्थान से संबंधित कई प्रकार के कानून बनाए गए ताकि उन्हें शिक्षा, मातृत्व लाभ, जायदाद संबंधी अधिकार, अच्छा स्वास्थ्य तथा बुराइयों के विरुद्ध अधिकार प्रदान किया जा सके। समय समय पर महिला आंदोलन चले जिन्होंने समाज का ध्यान उनके कल्याण की तरफ खींचा। महिलाओं के शोषण, बलात्कार, छेड़छाड़, वैवाहिक हिंसा, गर्भपात, प्रतिकुल लिंग अनुपात, दहेज के कारण हत्या इत्यादि जैसे कई मुद्दे हैं जिन्हें आधुनिक समय में उठाया जा रहा है ताकि महिलाओं को इन सबसे मुक्ति दिलाई जा सके।

प्रश्न 11.
हम यह किस अर्थ में कह सकते हैं कि ‘असक्षमता जितनी शारीरिक है उतनी ही सामाजिक भी’?
अथवा
अक्षमता के लक्षण बताएं।
उत्तर:
असक्षमता शब्द के लिए मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त (Mentally challenged) दृष्टि बाधित (Visually impaired) और शारीरिक रूप से बाधित (Physically impaired), जैसे शब्दों का प्रयोग अब पुराने घिसे-पिटे नकारात्मक अर्थ बताने वाले शब्दों जैसे मंदबुद्धि, अपंग अथवा लंगड़ा-लूला इत्यादि के स्थान पर किया जाने लगा है। कोई भी विकलांग जैविक असक्षमता के कारण विकलांग नहीं बनता बल्कि उन्हें समाज द्वारा ऐसा बनाया जाता है।

असक्षमता के संबंध में एक सामाजिक विचारधारा भी है। असक्षमता तथा निर्धनता के बीच गहरा संबंध है। कुपोषण, कई बच्चे पैदा करने से कमजोर हुई माताओं की रोग प्रतिरक्षा के कम कार्यक्रम, भीड़-भाड़ भरे घरों में दुर्घटनाएँ इत्यादि सभी बातें इकट्ठे मिलकर निर्धन लोगों में असक्षमता के ऐसे हालात उत्पन्न कर देते हैं जो आसान हालातों में रहने वाले लोगों की तुलना में बहुत गंभीर होते हैं।

इसके अतिरिक्त असक्षमता, व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण परिवार के लिए अलगपन और आर्थिक दबाव को बढ़ाते हुए निर्धनता की स्थिति उत्पन्न करके उसे और गंभीर बना देती है। इस बात में कोई शक नहीं है कि निर्धन देशों में असक्षम लोग सबसे निर्धन होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि असक्षमता शारीरिक होने के साथ-साथ सामाजिक भी हैं।

सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हमारे देश भारत में सामाजिक विषमताओं एवं बहिष्कार के कई स्वरूप देखने को मिल जाएंगे जैसे कि जाति पर आधारित भेदभाव, आदिवासियों तक सुविधाओं का न पहुँच पाना, पिछड़े वर्गों से भेदभाव, स्त्रियों तथा निम्न वर्गों की निर्योग्यताएं तथा अंत में अन्यथा सक्षम व्यक्तियों का संघर्ष।

→ सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति को ही सामाजिक विषमता कहा जाता है। सामाजिक विषमता प्राकृतिक भिन्नता की वजह से नहीं बल्कि यह उस समाज द्वारा उत्पन्न होती है जिसमें हम रहते है।

→ सामाजिक बहिष्कार वह तौर तरीके हैं जिनके द्वारा किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूरी तरह घुलने मिलने से रोका जाता है या अलग रखा जाता है। प्राचीन समय में निम्न तथा अस्पृश्य जातियों के साथ ऐसा ही होता था।

→ जाति व्यवस्था सामाजिक बहिष्कार का ही एक रूप है जिसमें उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का बहिष्कार करके उन्हें समाज से अलग रखा जाता था। चाहे आजकल यह वैधानिक रूप से प्रतिबंधित है परंतु फिर भी दूरदराज के क्षेत्रों में ऐसा हो रहा है। अस्पृश्यता को छुआछूत भी कहा जाता है। अस्पृश्य जातियों का समाज में कोई स्थान नहीं था। उनके साथ स्पर्श करना पाप समझा जाता था। अस्पृश्यता के तीन आयाम हैं-बहिष्कार, अनादर तथा शोषण। इन लोगों का इतना अधिक शोषण हुआ था कि स्वतंत्रता के 67 वर्षों के बाद भी यह अच्छी तरह प्रगति नहीं कर पाए है।

→ जातियों की तरह जनजातियां भी पिछड़े हुए वर्ग का एक हिस्सा हैं जो सामाजिक प्रगति की दौड़ में काफी पीछे हैं। उन्हें भी बहुत-सी निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ा है।

→ निम्न जातियों तथा जनजातियों के प्रति भेदभाव खत्म करने के लिए राज्य तथा अन्य संगठनों द्वारा बहुत से कदम उठाए गए हैं। उनके शोषण, बहिष्कार को गैर-कानूनी घोषित किया गया है। उनकी स्थिति ऊपर उठाने के लिए संविधान में कई प्रावधान रखे गए हैं तथा उन्हें आरक्षण देकर उन्हें ऊँचा उठाने का प्रयास किया जा रहा है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

→ निम्न जातियों की तरह अन्य पिछड़े वर्ग भी भारतीय जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा हैं जिन्हें बहुत सी सामाजिक निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ा था। यह न तो उच्च जातियों में आते थे तथा न ही निम्न जातियों में। यह जातियां हिंदू धर्म तक ही सीमित नहीं थे बल्कि सभी प्रमुख भारतीय धर्मों में मौजूद थे।

→ इनके उत्थान के लिए कई कार्यक्रम बनाए गए। पहले काका कालेलकर आयोग बनाया गया फिर मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर उनके लिए आरक्षण लागू कर दिया गया ताकि यह भी सामाजिक सोपान में अपने आपको ऊँचा उठा सकें।

→ आदिवासी लोगों ने अपने आपको बचा कर रखने के लिए काफ़ी संघर्ष किया। पहले उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किए तथा स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया। सरकार ने भी उनके उत्थान के लिए कई कार्यक्रम चलाए, उन्हें आरक्षण दिया ताकि वह देश की मुख्य धारा में मिलकर अपनी स्थिति सुधार सकें।

→ इन सबके साथ देश का एक और बड़ा वर्ग है जो सदियों से शोषण का शिकार होता रहा है तथा वह है वैदिक काल में उनकी स्थिति बहत अच्छी थी परंत उसके बाद सभी कालों में उनकी स्थिति खराब होती चली गई। मध्य काल तो उनके लिए काला युग था। आधुनिक समय में उनकी स्थिति सुधारने के लिए बहत से समाज सधारकों ने प्रयास किए।

→ सरकार तथा समाज सुधारकों के प्रयासों के फलस्वरूप स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ है। उनसे जुड़ी कुप्रथाएँ खत्म हो रही हैं, उनकी शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है तथा उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो रही है। उन्हें अब पैर की जूती नहीं बल्कि जीवन साथी समझा जाता है। उन्हें हरेक प्रकार का वह अधिकार प्राप्त है जिससे कि अच्छा जीवन व्यतीत हो सके।

→ अन्यथा सक्षम लोग न केवल शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम होते हैं बल्कि समाज भी कुछ इस रीति से बना है कि वह उनकी ज़रूरतों को पूर्ण नहीं करता। उन्हें भारत में निर्योग्य, बाधित, अक्षम, अपंग, अंधा तथा बहरा भी कहा जाता है।

→ यहां एक बात उल्लेखनीय है कि उनकी स्थिति को सुधारने के प्रयास स्वयं विकलांगों की ओर से ही नहीं किए गए हैं, सरकार को भी अपनी ओर से कार्यवाही करनी पड़ी है। उन्हें शिक्षण संस्थाओं तथा सरकारी नौकरियों में कुछेक प्रतिशत आरक्षण भी दिया गया है ताकि वह किसी पर बोझ न बनकर अपने पैरों पर स्वयं खड़े हो सकें।

→ सामाजिक विषमता-सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति को सामाजिक विषमता कहा जाता है।

→ पूर्वाग्रह-एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार या व्यवहार।

→ सामाजिक बहिष्कार-वह तौर तरीके जिनके द्वारा किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूर्णतया घुलने मिलने से रोका जाता हो तथा पृथक् रखा जाता हो।

→ अस्पृश्यता-वह प्रक्रिया जिसके द्वारा समाज की कुछ निम्न जातियों को अछुत अथवा अस्पृश्य समझा जाता था।

→ हरिजन-अस्पृश्य जातियों को महात्मा गांधी द्वारा दिया गया नाम जिसका शाब्दिक अर्थ है परमात्मा के बच्चे।

→ आरक्षण-सार्वजनिक जीवन के विभिन्न पक्षों में विशेष जातियों के लिए कुछ स्थान या सीटें निर्धारित करना।

→ आदिवासी-वह पिछड़े हुए लोग जो हमारी सभ्यता से दूर जंगलों पहाड़ों में रहते हुए अविकसित जीवन व्यतीत करते तथा अपनी ही संस्कृति के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

HBSE 12th Class Sociology बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
अदृश्य हाथ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एडम स्मिथ आरंभिक राजनीतिक अर्थशास्त्री थे जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘द वेल्थ ऑफ नेशन्स’ में बाज़ार र्थव्यवस्था को समझाने का प्रयास किया जोकि उस समय अपनी आरंभिक अवस्था में थी। स्मिथ का कहना था कि जारी अर्थव्यवस्था व्यक्तियों के आदान-प्रदान अथवा लेन-देन का एक लंबा क्रम है जो अपनी क्रमबदधता के कारण स्वयं ही एक कार्यशील और स्थिर व्यवस्था स्थापित करती है। यह उस समय होता है जब करोड़ों के लेन देन में शामिल व्यक्तियों में से कोई भी व्यक्ति इसको स्थापित करने का इरादा नहीं रखता।

हरेक व्यक्ति अपने लाभ को बढ़ाने के बारे में सोचता है तथा इसके लिए वह जो भी कुछ करता है वह अपने आप ही समाज के हितों में होता है। इस तरह ऐसा लगता है कि कोई एक अदृश्य बल यहां कार्य करता है जो इन व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में परिवर्तित कर देता है। इस बल को ही एडम स्मिथ ने ‘अदृश्य हाथ’ का नाम दिया था।

प्रश्न 2.
बाज़ार एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण, आर्थिक दृष्टिकोण से किस तरह अलग है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बाज़ार सामाजिक संस्थाएं हैं जो विशेष सांस्कृतिक तरीकों द्वारा निर्मित हैं। जैसे कि बाजारों का नियंत्रण अथवा संगठन विशेष सामाजिक समूहों के द्वारा होता है तथा यह अन्य संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं तथा संरचनाओं से विशेष रूप से संबंधित होता है। परंतु आर्थिक दृष्टिकोण से बाज़ार में केवल आर्थिक क्रियाओं तथा संस्थाओं को भी शामिल किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि बाज़ार में केवल लेन-देन तथा सौदे ही होते हैं जोकि पैसे पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 3.
किस तरह से एक बाज़ार जैसे कि एक साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार, एक सामाजिक संस्था है?
अथवा
बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में स्पष्ट करें।
अथवा
‘बाज़ार एक सामाजिक संस्था है’ स्पष्ट करें।
उत्तर:
ग्रामीण तथा नगरीय भारत में साप्ताहिक बाज़ार अथवा हाट.एक आम नज़ारा होता है। पहाड़ी तथा जंगलाती इलाकों में (विशेषतया जहां आदिवासी रहते हैं) जहां लोग दूर-दूर रहते हैं, सड़कों तथा संचार की स्थिति काफी जर्जर होती है तथा अपेक्षाकृत अर्थव्यवस्था अविकसित होती है, वहां पर साप्ताहिक बाज़ार चीज़ों के लेन देन के साथ-साथ सामाजिक मेलजोल की प्रमुख संस्था बन जाता है। स्थानीय लोग अपने कृषि उत्पाद अथवा जंगलों से इकट्ठी की गई वस्तुएं व्यापारियों को बेचते हैं जिन्हें व्यापारी दोबारा कस्बों में ले जाकर बेचते हैं।

स्थानीय इस कमाए हुए पैसे से ज़रूरी चीजें जैसे कि नमक, कृषि के औजार तथा उपभोग की चीजें जैसे कि चू कि चूड़ियां और गहने खरीदते हैं। परंत अधिकतर लोगों के लिए इस बाज़ार में जाने का प्रमख कारण सामाजिक है। जहां वह अपने रिश्तेदारों से मिल सकता है, घर के जवान लड़के-लड़कियों का विवाह तय कर सकता है, गप्पें मार सकता है तथा कई अन्य कार्य कर सकता है। इस प्रकार साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार एक सामाजिक संस्था बन जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

प्रश्न 4.
व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी संपर्क कैसे योगदान कर सकते हैं?
उत्तर:
अगर हम प्राचीन भारतीय परिदृश्य को देखें तो हमें पता चलता है कि व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। व्यापार के कुछ विशेष क्षेत्र विशेष समुदायों द्वारा नियंत्रित होते हैं। व्यापार और खरीद-फरोख्त साधारणतया जाति तथा नातेदारी तंत्रों में ही होती है।

इसका कारण यह है कि व्यापारी अपने स्वयं के समुदायों के लोगों पर विश्वास औरों की अपेक्षा अधिक करते हैं। इसलिए वे बाहर के लोगों की अपेक्षा इन्हीं संपर्कों में व्यापार करते हैं। इससे व्यापार के कुछ क्षेत्रों पर एक जाति का एकाधिकार हो जाता है तथा वह अधिक से अधिक लाभ कमाते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों में भी मालिक के साथ बोर्ड ऑफ डायरैक्टर्ज़ में मालिक के नातेदार ही होते हैं जो उसकी व्यापार करने में तथा कंपनी चलाने में सहायता करते हैं।

प्रश्न 5.
उपनिवेशवाद के आने के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था किन अर्थों में बदली?
अथवा
उपनिवेशवाद के आने से भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या परिवर्तन आये हैं?
अथवा
भारतीय समाज पर उपनिवेशवाद के प्रभाव का वर्णन करें।
अथवा
उपनिवेश आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या परिवर्तन आये?
उत्तर:
भारत में उपनिवेशवाद के आते ही यहां की अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन हुए जिससे उत्पादन, व्यापार और कृषि में काफी विघटन हुआ। हम उदाहरण ले सकते हैं हस्तकरघा के कार्य के खत्म हो जाने की। ऐसा इस कारण हुआ कि उस समय इंग्लैंड के बने सस्ते कपड़े की बाज़ार में बाढ़ सी आ गई। चाहे भारत में उपनिवेशवाद के आने से पहले एक जटिल मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था मौजूद थी फिर भी इतिहासकार औपनिवेशिक काल को एक संधि काल के रूप में देखते हैं। इस समय दो मुख्य परिवर्तन आए तथा वे हैं :

(i) भारतीय अर्थव्यवस्था का पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ना-अंग्रेजी राज में भारतीय अर्थव्यवस्था संसार की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से गहरे रूप से जुड़ गई। अंग्रेजों से पहले भारत से बना बनाया सामान काफी अधिक निर्यात होता था। परंतु उपनिवेशवाद के भारत आने के पश्चात् भारत कच्चे माल तथा कृषि उत्पादों का स्रोत और उत्पादित माल का उपभोग करने का मुख्य केंद्र बन गया। इन दोनों कार्यों से इंग्लैंड के उद्योगों को लाभ होना शुरू हो गया।

उसी समय पर नए समूह (मुख्यतः यूरोपीय लोग) व्यापार तथा व्यवसाय करने लगे। वह या तो पहले से जमे हुए व्यापारियों के साथ अपना व्यापार शुरू करते थे या फिर कभी उन समुदायों को अपना व्यापार छोड़ने के बाध्य करते थे। परंतु पहले से ही मौजूद आर्थिक संस्थाओं को पूर्णतया नष्ट करने के स्थान पर भारत में बाज़ार अर्थव्यवस्था के विस्तार ने कुछ व्यापारिक समुदायों को नए मौके प्रदान किए। इन समुदायों ने बदले हुए आर्थिक हालातों के अनुसार अपने आपको ढाला तथा अपनी स्थिति में सुधार किया।

(ii) नए समुदायों का सामने आना-उपनिवेशवाद के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे समुदाय सामने आए जो मुख्यता व्यापार से ही संबंधित थे। उदाहरण के तौर पर मारवाड़ी जोकि सबसे जाना माना व्यापारिक समुदाय है तथा जो हरेक स्थान पर पाया जाता है। मारवाड़ी न केवल बिड़ला परिवार जैसे प्रसिद्ध औद्योगिक घरानों से हैं बल्कि यह तो छोटे-छोटे व्यापारी और दुकानदार भी हैं जो हरेक नगर में पाए जाते हैं। अंग्रेजों के समय उन्होंने नए शहरों, कलकत्ता में मिलने वाले नए अवसरों का लाभ उठाया और सफल व्यापारिक समुदाय बन गए।

यह देश के सभी भागों में बस गए। मारवाड़ी अपने गहन सामाजिक तंत्र के कारण सफल हुए जिसने उनकी बैंकिंग व्यवस्था के संचालन के लिए ज़रूरी विश्वास से भरपूर संबंधों को स्थापित किया। बहुत-से मारवाड़ी परिवारों के पास इतनी पंजी इकटठी हो गई कि वह ब्याज पर कर्ज देने लगे। इन बैंकों जैसी आर्थिक प्रवत्ति की सहायता से भारत के वाणिज्यिक विस्तार को भी सहायता प्राप्त हुई।

स्वतंत्रता से कुछ समय पहले तथा स्वतंत्रता के पश्चात् कुछ मारवाड़ी परिवारों ने आधुनिक उद्योग स्थापित किए जिस कारण आज के समय में उद्योगों में मारवाड़ियों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। अंग्रेजों के समय में नए व्यापारिक समूहों का सामने आना तथा छोटे प्रवासी व्यापारियों का बड़े उद्योगपतियों में बदल जाना आर्थिक प्रक्रियाओं में सामाजिक संदर्भ के महत्त्व को प्रदर्शित करता है।

प्रश्न 6.
उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पण्यीकरण उस समय होता है जब कोई चीज़ बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो तथा अब वह बेची खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह वस्तु बाजार में बिकने वाली बन गई है। उदाहरण के लिए कौशल तथा श्रम अब ऐसी चीजें बन गई हैं जिन्हें बाजार में खरीदा तथा बेचा जा सकता हैं। कार्ल मार्क्स तथा पूंजीवाद के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी है। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है, परंतु और भी उदाहरण समाज में मिल जाते हैं।

उदाहरण के लिए आजकल निर्धन लोगों द्वारा अपनी किडनी उन अमीर लोगों को बेचना जिन्हें किडनी बदलने की आवश्यकता है। बहुत से लोगों का कहना है कि मनुष्यों के अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। कुल समय पहले तक मनुष्यों को गुलामों के रूप में खरीदा तथा बेचा जाता था, परंतु आज के समय में मनुष्यों को वस्तु समझना अनैतिक समझा जाता है। परंतु आधुनिक समाज में यह विचार व्याप्त है कि मनुष्य का श्रम बिकाऊ है अर्थात पैसे के साथ कौशल या अन्य सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स का कहना था कि यह स्थिति केवल पूंजीवादी समाजों में पाई जाती है जहां पर पण्यीकरण की प्रक्रिया व्याप्त है।

उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए। – उत्तर:पण्यीकरण उस समय होता है जब कोई चीज़ बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो तथा अब वह बेची खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह वस्तु बाजार में बिकने वाली बन गई है। उदाहरण के लिए कौशल तथा श्रम अब ऐसी चीजें बन गई हैं जिन्हें बाजार में खरीदा तथा बेचा जा सकता हैं। कार्ल मार्क्स तथा पूंजीवाद के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी है। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है, परंतु और भी उदाहरण समाज में मिल जाते हैं।

उदाहरण के लिए आजकल निर्धन लोगों द्वारा अपनी किडनी उन अमीर लोगों को बेचना जिन्हें किडनी बदलने की आवश्यकता है। बहुत से लोगों का कहना है कि मनुष्यों के अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। कुल समय पहले तक मनुष्यों को गुलामों के रूप में खरीदा तथा बेचा जाता था, परंतु आज के समय में मनुष्यों को वस्तु समझना अनैतिक समझा जाता है। परंतु आधुनिक समाज में यह विचार व्याप्त है कि मनुष्य का श्रम बिकाऊ है अर्थात पैसे के साथ कौशल या अन्य सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स का कहना था कि यह स्थिति केवल पूंजीवादी समाजों में पाई जाती है जहां पर पण्यीकरण की प्रक्रिया व्याप्त है।

प्रश्न 7.
‘प्रतिष्ठा का प्रतीक’ क्या है?
उत्तर:
अपने रिश्तेदारों, नातेदारों अथवा जाति में ही व्यापार करना प्रतिष्ठा का प्रतीक है क्योंकि इससे अपनी जाति, नातेदारी में प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी होती है।

प्रश्न 8.
‘भूमंडलीकरण’ के तहत कौन-कौन सी प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं?
उत्तर:
भूमंडलीकरण के कई पहलू हैं, उनमें से विशेष हैं-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं, पूंजी, समाचार और लोगों का संचलन एवं साथ ही प्रौद्योगिकी (कंप्यूटर, दूरसंचार और परिवहन के क्षेत्र में) और अन्य आधारभूत सुविधाओं का विकास, जो इस संचलन को गति प्रदान करते हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

प्रश्न 9.
उदारीकरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
उदारीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें कई प्रकार की नीतियां सम्मिलित हैं जैसे कि सरकारी विभागों का निजीकरण, पूंजी, श्रम और व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए आयात शुल्क में कमी करना तथा विदेशी कंपनियों को देश में उद्योग स्थापित करने में सुविधाएं प्रदान करना।

प्रश्न 10.
आपकी राय में, क्या उदारीकरण के दूरगामी लाभ उसकी लागत की तुलना में अधिक हो जाएंगे? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
भारतीय अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण मुख्यतः उदारीकरण की नीति के कारण हुआ जोकि 1980 के दशक में शुरू हुई। उदारीकरण में कई प्रकार की नीतियां सम्मिलित हैं जैसे कि सरकारी विभागों का निजीकरण, पूंजी, श्रम तथा व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए सीमा शुल्क कम करना तथा विदेशी कंपनियों को देश में उद्योग स्थापित करने के लिए सुविधाएं देना।

इसमें आर्थिक नियंत्रण को सरकार द्वारा कम या खत्म करना, उदयोगों का निजीकरण तथा मज़दूरी और मूल्यों पर से सरकारी नियंत्रण खत्म करना भी शामिल है। जो लोग बाजारीकरण के समर्थक हैं उनका कहना है कि इससे समाज आर्थिक रूप से समृद्ध होगा क्योंकि निजी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं की अपेक्षा अधिक कुशल होती हैं।

उदारीकरण से कई परिवर्तन आए जिनसे आर्थिक संवृद्धि बढ़ी तथा साथ ही भारतीय बाजार विदेशी कंपनियों के लिए खुल गए। जैसे कि अब भारत में बहुत-सी विदेशी वस्तुएं मिलने लग गई हैं जो पहले नहीं मिलती थीं। यह माना जाता है कि विदेशी पूंजी के निवेश से आर्थिक विकास के साथ रोज़गार के अवसर भी बढ़ते हैं। सरकारी कंपनियों का निजीकरण करने से उनकी कुशलता बढ़ती है तथा सरकार पर दबाव कम होता है।

चाहे हमारे देश में उदारीकरण का प्रभाव मिश्रित ही रहा है परंतु फिर भी बहुत-से लोग यह मानते हैं कि उदारीकरण से हम अपनी अधिक चीजें खोकर कम चीजों को पाएंगे तथा इसका भारतीय परिवेश पर प्रतिकल असर हुआ है। उनका कहना है कि भारतीय योग किलोदेवर या पचना तकनीमा सो महणी सफल उत्पादन को वैश्विक बाज़ार से लाभ होगा परंतु कई क्षेत्रों कि आटोमोबाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और तेलीय अनाजों के उद्योग पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि हम विदेशी उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे।

अब भारतीय किसान अन्य देशों के किसानों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं क्योंकि अब कृषि उत्पादों का आयात होता है। पहले भारतीय किसान कृषि सहायता मूल्य (M.S.P.) तथा सबसिडी द्वारा विश्व बाजार से सुरक्षित थे। इस समर्थन मूल्य से किसानों की न्यूनतम आय सुनिश्चित होती है क्योंकि इस मूल्य पर सरकार किसानों से उनके उत्पाद खरीदने को तैयार होती है। सबसिडी देने से किसानों द्वारा प्रयोग की जाने वाली चीज़ों जैसे कि डीज़ल, उर्वरक इत्यादि का मूल्य सरकार कम कर देती है।

परंतु उदारवाद इस सरकारी सहायता के विरुद्ध है जिस कारण सबसिडी का समर्थन मूल्य या तो कम कर दिया गया या हटा लिया गया। इससे बहुत-से किसान अपनी रोजी-रोटी कमाने में भी असफल रहे हैं। इसके साथ ही छोटे उत्पादकों को विश्व स्तर के उत्पादकों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। इससे हो सकता है कि उनका बिल्कुल ही सफाया हो जाए। निजीकरण से सरकारी नौकरियां भी कम हो गई हैं तथा उनमें स्थिरता कम हो रही है। गैर-सरकारी असंगठित रोज़गार सामने आ रहे हैं। उदारीकरण कामगारों के लिए भी ठीक नहीं है क्योंकि उन्हें कम तनख्वाह तथा अस्थायी नौकरियां ही मिलेंगी।

प्रश्न 11.
बस्तर में एक आदिवासी गांव का बाज़ार।
धोराई एक आदिवासी बाज़ार वाले गांव का नाम है जोकि छत्तीसगढ़ के उत्तरी बस्तर जिले के भीतरी इलाके में बसा है… जब बाज़ार नहीं लगता, उन दिनों धोराई एक उँघता हुआ, पेड़ों के छपरों से छना हुआ, घरों का झुरमुट है जो पैर पसारे उन सड़कों से जा मिलता है जो बिना किसी नाप-माप के जंगल भर में फैली हुई है… धोराई का सामाजिक जीवन, यहां की दो प्राचीन चाय की दुकानों तक सीमित है, जिसके ग्राहक राज्य वन सेवा के निम्न श्रेणी के कर्मचारी हैं जो दुर्भाग्यवश इस दूरवर्ती और निरर्थक इलाके में कर्मवश फंसे पड़े हैं…

धोराई का गैर-बाज़ारी दिनों में या शक्रवार को छोडकर अस्तित्व शन्य के बराबर होता है. पर बाजार वाले दिन वो किसी और जगह में तबदील हो जाता है। टकों से रास्ता जाम हआ होता है…वन के सरकारी कर्मचारी अपनी इस्तरी की हई पोशाकों में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे होते हैं और वन सेवा के महत्त्वपूर्ण अधिकारी अपनी डयटी बजाकर वन विभाग के विश्राम गृहों के आँगनों से बाज़ार पर बराबर नज़र बनाए रखते हैं। वे आदिवासी श्रमिकों को उनके काम का भत्ता बांटते हैं…

जब अफ़सरात आराम घर में सभा लगाते हैं तो आदिवासियों की कतार चारों ओर से खिंचती चली जाती है, वो जंगल के समान अपने खेतों की उपज या फिर अपने हाथ से बनाया हुआ कुछ लेकर आते हैं। इनमें तरकारी बेचने वाले हिंदू एवं विशेषज्ञ शिल्पकार, कुम्हार, जुलाहे एवं लोहार सम्मिलित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि समृद्धि के साथ अस्त-व्यस्तता है, बाज़ार के साथ-साथ कोई धार्मिक उत्सव भी चल रहा है…लगता है जैसे सारा संसार, इंसान, भगवान् सब एक ही जगह बाज़ार में एकत्रित हो गए हैं। बाज़ार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है, लगभग 100 एकड़ के वर्गमूल में बसा हुआ है जिसके बीचों-बीच एक भव्य बरगद का पेड़ है।

बाजार की छोटी-छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी है और यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे से बन गए हैं, जिनमें से खरीदार संभलते हुए किसी तरह कम स्थापित दुकानदारों के कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थाई दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

स्रोत : गेल 1982 : 470-71
दिए गए उद्धरण को पढ़िए एवं नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
(1) यह लेखांश आप को आदिवासियों और राज्य (जिसका प्रतिनिधित्व वन विभाग के अधिकारियों द्वारा होता है) के बीच के संबंध के बारे में क्या बताता है? वन विभाग के अर्दली, आदिवासी जिलों में इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारी आदिवासी श्रमिकों को भत्ता क्यों दे रहे हैं?

(2) बाज़ार की रूपरेखा उसके संगठन और कार्य-व्यवस्था के बारे में क्या प्रकट करती है? किस प्रकार के लोगों की स्थाई दुकानें होंगी और ‘कम स्थापित’ दुकानदार कौन हैं, जो ज़मीन पर बैठते हैं?

(3) बाज़ार के मुख्य विक्रेता और खरीदार कौन हैं? बाज़ार में किस प्रकार की वस्तुएं होती हैं और इन विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को कौन लोग खरीदते व बेचते हैं? इससे आपको इस क्षेत्र की स्थानीय अर्थव्यवस्था और आदिवासियों के बड़े समाज और अर्थव्यवस्था से संबंध के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
(1) इस लेखांश से हमें राज्य तथा आदिवासियों के बीच के संबंध के बारे में पता चलता है कि आदिवासियों का जीवन राज्य कर्मचारियों के बिना पूर्ण नहीं है बल्कि अधूरा है क्योंकि वन के सरकारी कर्मचारी उनके बाज़ारों पर नज़र रखते हैं तथा उनकी सहायता करते हैं। वन विभाग के अर्दली आदिवासी जिलों में महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वह वनों की देख-रेख करते हैं तथा इस कारण कर्मचारियों के आदिवासियों से अच्छे संबंध बन गए हैं।

(2) धोराई एक आदिवासी साप्ताहिक बाज़ार वाला ग्राम है। बाज़ार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है जो लगभग 100 एकड़ वर्गमूल में बसा हुआ है। इसके बीचोंबीच एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है। बाज़ार की छोटी छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी हुई है तथा यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे बने हुए हैं जिनमें से खरीदार संभलते हुए, किसी प्रकार कम स्थापित दुकानदारों के कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थायी दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

(3) इस बाज़ार के मुख्य खरीदार तथा विक्रेता आदिवासी ही हैं। इस बाज़ार में वनों में मिलने वाली चीजें तथा शहर से आने वाली आवश्यकता की चीजें उपलब्ध होती हैं। आदिवासियों की स्थानीय अर्थव्यवस्था एक-दूसरे पर आश्रित होती है तथा इनका काफ़ी बड़ा समाज होता है।

प्रश्न 12.
तमिलनाडु के नाकरट्टारों में जाति आधारित व्यापार।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नाकारट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था अर्थशास्त्रियों के पश्चिमी स्वरूप के बैंकिंग व्यवस्था के प्रारूप से मिलती है…नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जोकि व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था।

आधनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था के विपरीत, नाकरटटारों में नेकनामी (प्रतिष्ठा) निर्णय, क्षमता और जमा पूंजी जैसे सिद्धांतों के अनुसार विनिमय होता था, न कि सरकार नियंत्रित केंद्रीय बैंक के नियमों के अंतर्गत और यही प्रतीक संपूर्ण जाति के प्रतिनिधि की तरह प्रत्येक एकल नाकरट्टर व्यक्ति के इस व्यवस्था में विश्वास को सुनिश्चित करते थे। दूसरे शब्दों में, नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी।

हर एक नाकरट्टार ने अपना जीवन विभिन्न प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में शामिल होने और उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया था। यह वह संस्थाएं थीं जो उनके समुदाय में पूंजी जमा करने और बांटने में जुटी हुई थीं।
स्रोत : रुडनर 1994 : 234
कास्ट एंड केपिटेलिज्म इन कॉलोनियल इंडिया (रुडनर 1994) से लिए गए लेखांश को पढ़ें और निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दें-
(1) लेखक के अनुसार, नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में क्या महत्त्वपूर्ण अंतर हैं?
(2) नाकरट्टाओं की बैंकिंग और व्यापारिक गतिविधियां अन्य सामाजिक संरचनाओं से किन विभिन्न तरीकों से जुड़ी हुई हैं।
(3) क्या आप आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत ऐसे उदाहरण सोच सकते हैं जहां आर्थिक गतिविधियां नाकरट्टाओं की ही तरह सामाजिक संरचना में घुली-मिली हों?
उत्तर:
(1) यह अंतर अग्रलिखित हैं:

  • नाकरट्टाओं में एक दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित संबंधों से जुड़ा होता है जबकि आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में ऐसा नहीं होता है।
  • नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित थी परंतु पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था पैसे पर आधारित है।
  • नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी परंतु पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था सरकार द्वारा नियंत्रित होती है।

(2) नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जोकि व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था। उनकी बैंकिंग व्यवस्था जाति पर आधारित व्यवस्था थी। हरेक नाकरट्टार ने अपने जीवन को अलग प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में सम्मिलित होने तथा उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया हुआ था।

(3) आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सहकारी संस्थाएं होती हैं जहां पर आर्थिक गतिविधियां नाकरट्टाओं की तरह ही सामाजिक संरचना में घुली-मिली होती हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

प्रश्न 13.
इस गद्यांश में दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
पण्यीकरण बड़ा शब्द है, जो सुनने में जटिल लगता है। पर जिन प्रक्रियाओं की तरफ़ वो इशारा करता है उनसे हम परिचित हैं और वे हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। एक साधारण उदाहरण है : बोतल का पानी।

शहर या कस्बे में, यहां तक कि अधिकांश गांवों में भी बोतल का पानी खरीदना अब संभव है, 2, 1 लीटर या उससे छोटे पैमाने में वो हर एक जगह बेची जाती है। अनेक कंपनियां हैं और अनेक ब्रांड के नाम हैं जिससे पानी की बोतलें पहचानी जाती हैं। पर यह एक नयी प्रघटना है जो दस-पंद्रह साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। मुमकिन है कि आप खुद उस समय को याद कर सकते हैं जब पानी की बोतलें नहीं बिका करती थीं। बड़ों से पूछो। माता-पिता के पीढ़ी के लोगों को अजीब लगा होगा और आप के दादा-दादी के जमाने में तो इसके बारे में बिरले लोगों ने सुना या सोचा होगा। ऐसा सोचना भी कि पेयजल के लिए कोई पैसा मांग सकता है, उनके लिए अविश्वसनीय होगा।

पर, आज यह हमारे लिए आम बात है, एक साधारण-सी बात, एक वस्तु जिसे हम खरोद (या बेच) सकते हैं। इसी को पण्यीकरण (commoditisation/commodification) कहते हैं, एक प्रक्रिया जिसके द्वारा कोई भी चीज़ जो बाज़ार में नहीं बिकती हो वह बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बन जाती है और बाजार अर्थव्यवस्था का एक भाग बन जाती है। क्या आप ऐसी चीजों के बारे में सोच सकते हैं जो हाल ही में बाजारों में शामिल हुई हों? याद रहे कि यह ज़रूरी नहीं कि कोई वस्तु ही एक पण्य हो, कोई सेवा भी पण्य हो सकती है।

ऐसी चीजों के बारे में भी सोचें जो आज पण्य भले न हों पर भविष्य में हो सकती हों। आप कारण भी सोचें कि ऐसा क्यों होगा। अंत में, इस बारे में भी सोचें कि पहले जमाने की कुछ चीजें अब बिकनी बंद क्यों हो गई हैं (मतलब जिनका पहले विनिमय में योगदान था पर अब नहीं है) क्यों और कब कोई कमॉडिटी, कमॉडिटी नहीं रह जातो?
उत्तर:
(i) आजकल के समय में बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जो हमारे बाजार में शामिल हई हैं जैसे कि बना हुआ पैक्ड खाना, बोतलों में पानी, विदेशी कारें, विदेशी इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान. इंटरनेट तथा उस पर मौजूद कई प्रकार की सेवाएं इत्यादि।

(ii) कई चीजें जो हो सकता है आने वाले समय में बाजार में मौजूद हों वे हैं- भगवान के दर्शन, इच्छा अनुसार रूप बदलना, अपनी इच्छा की संतान प्राप्ति इत्यादि।

(iii) बहुत-सी प्राचीन चीजें हमारे समाज में बिकनी बंद हो गई हैं जैसे कि कई प्रकार के आभूषण। हो सकता है कि उनकी समाज के लिए उपयोगिता ही खत्म हो गई हो जिस कारण यह आज बिकनी बंद हो गई हैं।

प्रश्न 14.
जब बाज़ार भी बिकता हो : पुष्कर पशु मेला
“कार्तिक का महीना आते ही…. ऊंटों के गाड़ीवान अपने रेगिस्तानी जहाजों को सजाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के वक्त पहुंचने के लिए समय से पुष्कर की लंबी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं…हर साल लगभग 2,00,000 लोग और 50,000 ऊँट और अन्य पशुओं का यहां जमावड़ा लगता है।

वो उन्माद देखते ही बनता है जब रंग, शोर और चहल-पहल से लोग घिरे होते हैं, संगीतवादक, रहस्यवादी, पर्यटक, व्यापारी, पशु और भक्त सब एक जगह इकट्ठा होते हैं। एक तरह से कहें तो यह ऊंटों को सँवारने का निर्वाण है-जिसमें मकई के बाल की तरह बाल संवारे हुए ऊंटों, पायलों की झनकार, कढ़ाई किए वस्त्रों और टम-टम पर सवार लोगों से आपकी अद्भुत भेंट हो सकती है।”

“ऊंटों के मेले के साथ ही धार्मिक प्रतिष्ठान भी एक जंगली-जादुई चरम पर होता है-अगरबत्तियों का घना धुआं, मंत्रों का शोर और मेले की रात में, हजारों भक्त नदी में डुबकी लगाकर अपने पाप धोते हैं और पवित्र पानी में टिमटिमाते दिए छोड़ते हैं।”

स्रोत : लोनली प्लानेट, भारत के लिए पर्यटन गाइड के ग्यारहवें संस्करण से। पीछे दिए लेखांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें:
(1) पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से इस जगह पर कौन सी नयी वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी और लोगों के दायरे का विकास हुताा है?
(2) आपके विचार में बड़ी संख्या में भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से मेले का रूप किस तरह बदल गया
(3) इस जगह का धार्मिक उन्माद किस तरह से इसकी बाज़ारी कीमत को बढ़ाता है? क्या हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्मक का एक बाज़ार है?
उत्तर:
(1) पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से यहां पर विदेशी वस्तुओं, सभी प्रकार की सुविधाओं, विदेशी पूंजी तथा विदेशी लोगों के आने से यहां के लोगों के दायरे का काफी विकास हुआ है।

(2) पहले इस मेले को एक क्षेत्रीय मेले के रूप में देखा जाता था परंतु भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से यह मेला क्षेत्रीय मेले से अंतर्राष्ट्रीय मेले का रूप धारण कर चुका है।

(3) यह कहा जाता है कि पुष्कर के सरोवर में स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। इस समय लाखों लोग यहां पर आते हैं। यहां पर धर्म से संबंधित खूब साहित्य बिकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्म का एक काफी बड़ा बाजार है।

बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में HBSE 12th Class Sociology Notes

→ दैनिक बोलचाल की भाषा में बाजार शब्द को विशेष वस्तु के बाजार के रूप में प्रयोग किया जाता है जैसे कि फलों का बाज़ार, सब्जी का बाजार अर्थात् हम इसे अर्थव्यवस्था से संबंधित करते हैं। परंतु यह एक सामाजिक संस्था भी है जिसका अध्ययन इस अध्याय में किया जाएगा।

→ समाजशास्त्रियों के अनुसार बाज़ार वह सामाजिक संस्थाएं हैं जो विशेष सांस्कृतिक तरीकों द्वारा निर्मित हैं। बाज़ारों का नियंत्रण तो विशेष सामाजिक वर्गों द्वारा होता है तथा इसका अन्य संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं और संरचनाओं से भी विशेष संबंध होता है।

→ विभिन्न सामाजिक समूह अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अपने बाजार निर्मित कर लेते हैं। जैसे कि जनजातीय क्षेत्रों में साप्ताहिक बाज़ार स्थापित किए गए थे। उपनिवेशिक दौर में तो जनजातीय श्रम का एक बाज़ार विकसित हो गया था।

→ बाजारों का एक सामाजिक संगठन भी होता है तथा समाज में पारंपरिक व्यापारिक समुदाय भी होते हैं। चाहे यह समुदाय वैश्य वर्ण से संबंधित होते हैं परंतु कई और समुदाय भी इनमें जुड़ गए हैं जैसे कि पारसी, सिंधी, बोहरा, जैन इत्यादि।

→ उपनिवेशवाद के कारण प्राचीन बाज़ार नष्ट हो गए तथा नए बाज़ार सामने आ गए। उपनिवेशवाद के कारण भारत कच्चे माल का उत्पादक तथा उत्पादित माल के उपयोग का साधन बन गया। इसका मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड को आर्थिक लाभ पहुंचाना था। स्वतंत्रता के बाद तो बाज़ार का स्वरूप ही बदल गया।

→ पूंजीवाद में उत्पादन बाजार के लिए किया जाता है ताकि अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। पूंजीपति धन का निवेश करके लाभ कमाता है। वह श्रमिकों को अधिक पैसा न देकर उनके श्रम से अतिरिक्त मूल्य निकाल लेता है।

→ भूमंडलीकरण का अर्थ है संसार के चारों कोनों में बाजारों का विस्तार और एकीकरण का बढ़ना। इस एकीकरण का अर्थ है कि संसार में किसी एक कोने में किसी बाज़ार में परिवर्तन होता है तो दूसरे कोनों में उसका अनुकूल-प्रतिकूल असर हो सकता है।

→ उदारवादिता में सरकारी दखल कम करना, सीमा शुल्क खत्म करना तथा अपने देश के बाज़ार को और देशों की कंपनियों के लिए खोलना है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है तथा उपभोक्ताओं का लाभ होता है।

→ भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण के कारण स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजारों का गठजोड़ हो रहा है जिससे स्थानीय क्षेत्र में संसार की हरेक वस्तु उपलब्ध हो रही है।

→ अदृश्य हाथ-वह अदृश्य बल जो व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में बदल देता है।

→ लेसे-फेयर-वह नीति जिसके अनुसार बाज़ार को अकेला छोड़ दिया जाए अथवा हस्तक्षेप न किया जाए।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

→ बाज़ार-वह स्थान जहां वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है या उन्हें खरीदा या बेचा जाता है।

→ जजमानी व्यवस्था-गाँवों में विभिन्न प्रकार की गैर-बाज़ारी विनिमय व्यवस्था अथवा सेवा के बदले चीज़ देने का प्रचलन।

→ खेतिहर-किसान अथवा कषि का कार्य करने वाले लोग।

→ पण्यीकरण-वस्तु को खरीद या बेच सकने की प्रक्रिया।

→ निजीकरण-सरकारी संस्थानों को प्राइवेट कंपनियों को बेच देने की प्रक्रिया।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

HBSE 12th Class Sociology सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति व्यवस्था में पृथक्करण (Separation) और अधिक्रम (Hierarchy) की क्या भूमिका है?
अथवा
जाति व्यवस्था में पृथककरण तथा अधिकार की भूमिका पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अगर हम ध्यान से जाति व्यवस्था को देखें तो हमें पता चलता है कि जाति व्यवस्था में पृथक्करण तथा अधिक्रम की बहुत बड़ी भूमिका है। इन दोनों के न होने की स्थिति में जाति व्यवस्था के मुख्य लक्षण ही खत्म हो जाएंगे।
इनका विवेचन इस प्रकार है-
1. पृथक्करण (Separation)-जाति व्यवस्था की यह विशेषता थी कि इसमें हरेक जाति दूसरी जाति से पूर्णतया पृथक् होती थी। पृथक् होने के कारण दो जातियों के एक-दूसरे में मिश्रित होने का खतरा नहीं रहता है। प्रत्येक जाति के कुछ नियम होते थे; जैसे कि खाने-पीने के, विवाह के, सामाजिक संबंध रखने के, व्यवसाय के इत्यादि तथा इनके कारण ही वह एक-दूसरे से पृथक् होती थी। चाहे यह सभी जातियां एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् होती थीं, परंतु इनका अस्तित्व संपूर्ण जाति-व्यवस्था के कारण ही संभव था। इससे अलग होने से इनका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता था।

2. अधिक्रम (Hierarchy)-जाति व्यवस्था की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता इसमें अधिक्रम का पाया जाना था। अधिक्रम का अर्थ है प्रत्येक वर्ग अथवा जाति का व्यवस्था में विशेष स्थान होता था
तथा एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का विशेष स्थान। प्रत्येक जाति के बीच कुछ अंतर होते थे तथा ये अंतर शुद्धता तथा अशुद्धता पर आधारित होते थे। उन जातियों को उच्च स्थान प्राप्त होता था जिन्हें शुद्ध माना जाता था तथा जिन जातियों को अशुद्ध समझा जाता था उन्हें निम्न स्थान प्राप्त होता था। मुख्यतः आजकल के समाजों में उन वर्गों को उच्च स्थान प्राप्त होता था जिनके पास सत्ता अथवा शक्ति होती थी।

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प्रश्न 2.
वे कौन-से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।
अथवा
जाति व्यवस्था की चार विशेषताएं बताइए।
अथवा
जाति व्यवस्था की कुछ विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
जाति व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक होता है जिनका वर्णन इस प्रकार है
(i) प्रत्येक व्यक्ति की जाति जन्म से ही निर्धारित हो जाती थी अर्थात् जिस जाति में व्यक्ति जन्म लेता है उसे उस जाति में ही तमाम आयु व्यतीत करनी पड़ती थी। वह योग्यता होते हुए भी अपनी जाति को परिवर्तित नहीं कर सकता था। हम न तो अपनी जाति को छोड़ सकते थे तथा न ही अन्य जाति को अपना सकते थे।

(ii) प्रत्येक जाति में विवाह के संबंध में नियम बनाये होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को पता होता है कि किस जाति से वैवाहिक संबंध स्थापित करने थे। जाति अंतर्वैवाहिक होती थी अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था।

(iii) जाति व्यवस्था में एक निश्चित अधिक्रम पाया जाता था। अर्थात् इसमें एक निश्चित सोपान होता है। प्रत्येक जाति का एक निश्चित स्थान होता था तथा इसके आधार पर प्रत्येक जाति की सामाजिक स्थिति उच्च अथवा निम्न होती थी।

(iv) जाति व्यवस्था में खाने-पीने के संबंध में प्रतिबंध होते हैं। प्रत्येक जाति के लिए यह निश्चित होता है कि किस जाति के साथ खाने-पीने के संबंध रखने हैं तथा किस के साथ नहीं रखने हैं।

(v) प्रत्येक जाति का अपना एक निश्चित व्यवसाय होता था तथा व्यक्ति का व्यवसाय उसके जन्म के अनुसार ही निश्चित हो जाता था। व्यक्ति को उस जाति का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था जिसमें उसने जन्म लिया था।

(vi) प्रत्येक जाति आगे बहुत-सी उपजातियों में विभाजित होती थी तथा प्रत्येक उपजाति के अपने ही नियम होते थे। प्रत्येक व्यक्ति इन नियमों को मानने को बाध्य होता था।

प्रश्न 3.
उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?
अथवा
उपनिवेशवाद व जाति में संबंध बताइए।
उत्तर:
भारत में उपनिवेशवाद के स्थापित होने से पहले तथा स्थापित होने के कुछ समय तक जाति व्यवस्था सुदृढ़ता से कार्य कर रही थी। परंतु उपनिवेशवाद के स्थापित होने के बाद औपनिवेशिक शासकों ने भारत में बहुत से परिवर्तन किए जिनका जाति व्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस प्रकार उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) पश्चिमी शिक्षा के कारण आए परिवर्तन-उपनिवेशवाद में भारत में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के बच्चों को समान रूप से शिक्षा दी जाती थी। पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के बाद सभी को एक-दूसरे के अधिकारों के बारे में पता चला जिससे जाति प्रथा का प्रभाव कम हो गया। स्त्रियों तथा निम्न जातियों के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए गए जिस कारण जाति प्रथा की इन्हें शिक्षा न देने की विशेषता खत्म हो गई तथा जाति प्रथा का प्रभाव कम हो गया।

(ii) सर्वेक्षण करवाना-औपनिवेशिक शासकों ने भारत में बहुत-से परिवर्तन तो किए तथा यह सभी परिवर्तन सोच समझकर लाए गए। शुरू में उन्होंने जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया ताकि शासन को कुशलतापूर्वक चलाया जा सके। इसलिए उन्होंने अलग-अलग जातियों तथा जनजातियों की प्रथाओं तथा तौर-तरीकों के बारे में गहन सर्वेक्षण किए तथा रिपोर्ट तैयार की गई। इनके आधार पर उन्होंने समाज में परिवर्तन लाने शुरू किए जिससे जाति व्यवस्था भी परिवर्तित होनी शुरू हो गई।

(iii) समाज सुधार-पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के बाद पढ़े-लिखे भारतीयों ने समाज-सुधार के कार्य शुरू किए तथा उनका मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा को समाज में से खत्म करना था। अंग्रेजों ने भी उनका साथ दिया। सभी समाज सुधारकों ने जाति-प्रथा के विरुद्ध कई प्रकार के प्रयास किए। निम्न जातियों के कल्याण के कार्य किए गए, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया गया, विधवा विवाह को तथा बाल विवाह खत्म करने को कानूनी मान्यता प्राप्त हुई। इससे जाति प्रथा की जटिलता कम होनी शुरू हो गई।

(iv) परंपरागत व्यवसायों का कम होना-उपनिवेशवाद के आने से भारत में नए सैंकड़ों प्रकार के व्यवसाय भी आए। उद्योग शुरू हुए, स्कूल, कॉलेज इत्यादि शुरू हुए, दफ्तर खुल गए जिससे लोगों ने अपनी पसंद तथा योग्यता के अनुसार कार्य करने शुरू किए। इससे परंपरागत व्यवसायों का समाप्त होना शुरू हुआ जिससे जाति व्यवस्था में परिवर्तन आना शुरू हो गया।

(v) निम्न जातियों का कल्याण-औपनिवेशिक काल के अंतिम दौर में निम्न जातियों के कल्याण के कार्य शुरू हुए। प्रशासन ने इनके कल्याण में विशेष रुचि ली। 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया गया जिसने राज्य द्वारा विशेष व्यवहार के लिए निर्धारित जातियों तथा जनजातियों की सूचियों या अनुसूचियों को वैध मान्यता प्रदान कर दी।

इससे अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियाँ जैसे शब्द अस्तित्व में आए। जातीय सोपान में निम्न स्थान पर रहने वाली जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया तथा उनके कल्याण के अनेकों कार्य किए गए। इस प्रकार उपनिवेशवाद से जाति व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। यदि हम यह कहें कि औपनिवेशिक काल में जाति व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन आए हैं तो गलत भी नहीं होगा।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 4.
किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई है?
अथवा
जाति व्यवस्था के समकालीन रूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में जाति व्यवस्था में आए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक परिवर्तन यह भी है कि अब नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य होती जा रही है। यह समूह, जो स्वतंत्रता के बाद की विकासात्मक नीतियों से सबसे अधिक लाभांवित हुए हैं, जातीय महत्ता को बहुत ही कम महत्त्व देते हैं। इसका कारण यह है कि जाति व्यवस्था का कार्य अच्छी तरह संपन्न हो चुका है। इन समूहों की जातीय परिस्थिति ने यह बात सुनिश्चित किया है कि इन समूहों के लिए विकास करने के लिए आवश्यक आर्थिक तथा शैक्षिक संसाधन उपलब्ध हों। उच्च जातियों के लोग सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों विशेषतया विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा प्रबंधन इत्यादि से व्यावसायिक शिक्षा लेने में सफल हुए।

उन्होंने राजकीय क्षेत्रों में स्वतंत्रता के पश्चात् नौकरियां की तथा लाभ उठाया। इनकी अग्रणी शैक्षिक स्थिति के कारण इन्हें किसी गंभीर प्रतिस्पर्धा का सामना करना नहीं पड़ा। उनकी दूसरी तथा तीसरी पीढ़ियों में जब उनकी स्थिति और सुदृढ़ हो गई तो इन समूहों को यह विश्वास हो गया कि उनकी प्रगति का जाति से कुछ भी लेना देना नहीं है।

उनकी अगली पीढ़ियों की आर्थिक तथा शैक्षिक पूँजी यह सुनिश्चित करने के लिए काफी थी कि उन्हें जीवन में सर्वोत्तम अवसर प्राप्त होते रहेंगे। इन समूहों के सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्त्व खत्म हो गया है। अगर है भी तो वह है धार्मिक रीति-रिवाज अथवा नातेदारी के.व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही सीमित है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई है।

प्रश्न 5.
भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
अथवा
भारत में जनजातियों के वर्गीकरण की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
अथवा
जनजातियों के अर्जित विशेषकों पर संक्षेप में प्रकाश डालिये।
अथवा
जनजातियों के स्थायी विशेषकों पर प्रकाश डालिये।
अथवा
जनजातीय समाज की स्थायी एवं अर्जित विशेषताएं बताइए।
अथवा
भाषायी दृष्टि से जनजातियों की कौन-कौन सी श्रेणियाँ हैं?
अथवा
जनजातीय समाज के अर्जित विशेषक क्या हैं?
उत्तर:
यदि हम ध्यान से देखें तो जनजातियों को स्थायी तथा अर्जित विशेषताओं के आधार पर विभाजित किया जाता है। इन दोनों आधारों का वर्णन इस प्रकार है-
1. स्थायी विशेषक-भारत में जनजातियाँ अलग-अलग क्षेत्रों में फैली हुई हैं, परंतु कुछ क्षेत्रों में यह काफ़ी अधिक हैं। 85% जनजातीय लोग मध्य भारत में रहते हैं जो पश्चिम में गुजरात और राजस्थान से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा तक फैला हुआ है। इनकी 11% जनसंख्या पूर्वोत्तर राज्यों में तथा 3% से कुछ अधिक शेष भारत में रहते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी जनसंख्या सबसे घनी हैं। असम को छोड़कर उनका घनत्व 30% से अधिक है, परंतु अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम तथा नागालैंड जैसे राज्यों में इनकी जनसंख्या 60% से लेकर 95% तक है। देश के शेष भागों में इनकी जनसंख्या बहुत ही कम है।

(a) भाषा के आधार पर विभाजन-भाषा के आधार पर इन्हें चार श्रेणियों में बाँटा गया है। इनमें से दो श्रेणियों अर्थात् भारतीय आर्य तथा द्रविड़ परिवार की भाषाएँ शेष भारतीय जनसंख्या द्वारा भी बोली जाती हैं। जनजातियों में से लगभग 1% लोग भारतीय आर्य परिवार की भाषाएँ तथा 3% लोग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। दो और भाषा समूह-आस्ट्रिक तथा तिब्बती-बर्मी, जनजातीय लोगों द्वारा बोले जाते हैं। इनमें से आस्ट्रिक परिवार की भाषाएँ पूर्णतया जनजातीय लोगों द्वारा तथा तिब्बती-बर्मी परिवार की भाषाएँ 80% से अधिक जनजातीय लोगों द्वारा ही प्रयुक्त होती हैं।

(b) शारीरिक प्रजातीय आधार-शारीरिक प्रजातीय दृष्टि से जनजातियों के लोगों को नीग्रिटो, आर्टेलॉयड, द्रविड़ तथा आर्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। भारत की जनसंख्या का शेष भाग भी आर्य तथा द्रविड़ श्रेणियों के अंतर्गत आता है।

(c) जनसंख्या के आधार पर-जनसंख्या के आधार पर जनजातियों में काफी विविधता पाई जाती है। सबसे बड़ी जनजाति की संख्या 70 लाख के लगभग है जबकि सबसे छोटी जनजाति के लोग 100 से भी कम हैं। गोंड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो तथा मुंजा जनजातियों की जनसंख्या 10 लाख से ऊपर है। यह लोग भारत की जनसंख्या का 8.2% अथवा 8.4 करोड़ लोग हैं।

(ii) अर्जित विशेषक-अर्जित विशेषताओं के आधार पर उन्हें अजीविका साधन तथा हिंदू समाज में उनके समावेश की सीमा अथवा दोनों के आधार पर विभाजित किया जा सकता है।

(a) आजीविका के आधार पर-आजीविका के आधार पर इन्हें मछुआ, खाद्य संग्राहक तथा शिकारी, भूमि कृषि करने वाले, कृषक और बागान तथा औद्योगिक कामगारों की श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। परंतु इनका सबसे प्रभावी वर्गीकरण इस बात पर आधारित है कि हिंदू समाज में किसी जनजाति को कहाँ तक शामिल किया गया है। मुख्यधारा के दृष्टिकोण से, जनजातियों को हिंदू समाज में मिली परिस्थिति की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। कुछेक को तो उच्च स्थान दिया जाता है, परंतु अधिकांश को मुख्यता निम्न स्थान ही दिया जाता है।

प्रश्न 6.
जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं, इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर:
कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि जनजातियों को ऐसे आदिम अथवा मौलिक समाज मानने का कोई आधार नहीं है कि यह सभ्यता से अछूते रहे हों। इनके स्थान पर उनका कहना था कि जनजातियों को वास्तव में ऐसी दवितीयक प्रघटना माना जाए जो पहले से मौजूद राज्यों तथा जनजातियों जैसे राज्येतर समहों के बीच शोषण करने वाले और उपनिवेशवादी संपर्क के कारण अस्तित्व में आया। इस प्रकार का संपर्क स्वयं ही एक जनजातिवादी विचारधारा को जन्म देता है-जनजातीय समूह नए संपर्क में आए अन्य लोगों से अपने आपको अलग दिखाने के लिए. स्वयं को जनजातीय के रूप में परिभाषित करने लगता है।

प्रश्न 7.
आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है उसके पीछे क्या कारण हैं?
अथवा
समकालीन जनजातीय पहचान की विवेचना कीजिए।
अथवा
जनजातीय पहचान आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आज के समय में जनजातीय पहचान को बनाए रखने का आग्रह लगातार बढ़ रहा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जनजातीय समाज के अंदर भी एक मध्य वर्ग का प्रादुर्भाव हो चला है। विशेष रूप से इस वर्ग के आगे आने के साथ ही परंपरा, संस्कृति, आजीविका यहाँ तक कि भूमि तथा संसाधनों पर नियंत्रण और आधुनिकता की परियोजनाओं के लाभों में हिस्से की मांगें भी जनजातियों में अपनी पहचान को बनाए रखने के आग्रह का अभिन्न अंग बन गई हैं। इसलिए अब जनजातियों में उनके मध्य वर्ग के कारण एक नई जागरूकता की लहर आ रही है। यह मध्य वर्ग स्वयं भी आधुनिक शिक्षा तथा आधुनिक व्यवसायों के कारण सामने आया है जिन्हें सरकार की आरक्षण रखने की नीतियों से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है।

प्रश्न 8.
परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
यदि हम ध्यान से देखें तो आधुनिक समाज में मुख्य दो प्रकार के परिवार पाए जाते हैं जो कि इस प्रकार हैं-
(i) एकाकी परिवार-परिवार का मूल रूप एकाकी परिवार है। एकाकी परिवार में पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। जब उनके बच्चों का विवाह हो जाता है तो वह अपना नया घर बसा लेते हैं। चाहे परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ जाती है, परंतु मौलिक रूप से परिवार एकाकी ही रहता है। इस परिवार में पति-पत्नी को समान परिस्थिति… तथा समान अधिकार प्राप्त होते हैं। कोई निर्णय लेने से पहले पत्नी तथा बच्चों की राय भी ली जाती है।

(ii) संयुक्त परिवार-चाहे आजकल के नगरीय परिवारों में परिवार का यह रूप बहत ही कम देखने को मिलता है, परंतु ग्रामीण परिवार आज भी संयुक्त परिवार ही होते हैं। इस प्रकार के परिवार में परिवार की कई पीढ़ियों के सदस्य एक ही छत के नीचे इकट्ठे रहते हैं तथा एक ही रसोई में बना हुआ भोजन खाते हैं। परिवार पर सबसे बड़े सदस्य का पूर्ण अधिकार होता है तथा वह ही परिवार की सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार रखता है।

प्रश्न 9.
सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर:
यह निश्चित है कि सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों से पारिवारिक संरचना में भारी परिवर्तन होता है। कभी-कभी तो यह परिवर्तन अचानक तथा कभी-कभी यह धीरे-धीरे होते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर अंग्रेजों के भारत में आने से शासन व्यवस्था में परिवर्तन आया, पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ, औद्योगिकीकरण का विकास हुआ जिससे विभिन्न प्रकार के पेशे सामने आए। लोगों ने कार्य की तलाश में ग्रामीण क्षे परिवारों को छोड़ दिया। वह शहरों में रहने लगे तथा उन्होंने एकाकी परिवार स्थापित कर लिए। इस प्रकार उपनिवेशवाद द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन आया तथा इससे पारिवारिक संरचना में भी परिवर्तन आया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 10.
मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarachy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
हमारे समाज में कई प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। आवास के आधार पर कुछ समाज पत्नी-स्थानिक तथा कुछ पति-स्थानिक होते हैं। पत्नी-स्थानिक परिवार में नवविवाहित जोड़ा लड़की के माता-पिता के साथ रहता है तथा पति-स्थानिक परिवार में लड़के के माता-पिता के साथ। उत्तराधिकार के नियम के अनुसार, मातृवंशीय समाज में बेटी को माँ से जायदाद प्राप्त होती है तथा पितृवंशीय समाज में पिता से पुत्र को। पितृतंत्रात्मक परिवार में सत्ता तथा प्रभुत्व पुरुष के पास होता है तथा मातृतंत्रात्मक परिवारों में स्त्रियों के पास सत्ता तथा प्रभुत्व होता है। चाहे पितृतंत्र के विपरीत मातृतंत्र एक आनुभाविक संकल्पना की जगह एक सैद्धांतिक कल्पना है।

माततंत्र का कोई मानवशास्त्रीय अथवा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है अर्थात ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ स्त्रियों का प्रभुत्व अधिक हो। चाहे मातृवंशीय समाज होते हैं जहाँ स्त्रियाँ अपनी माताओं से उत्तराधिकार के रूप में जायदाद प्राप्त करती हैं। परंतु उस पर उनका न तो अधिकार होता है तथा न ही सार्वजनिक क्षेत्र में उन्हें कोई निर्णय लेने का अधिकार होता है।

सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ कोई भी समाज संस्थाओं के बिना नहीं चल सकता है। इसलिए सभी समाजों ने अपने क्रिया-कलापों को ठीक ढंग से चलाने के लिए कुछेक संस्थाओं का निर्माण किया हुआ है। इन संस्थाओं को अलग-अलग हिस्सों में भी वर्गीकृत किया गया है जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक इत्यादि।

→ इस अध्याय में केवल सामाजिक संस्थाओं का ही वर्णन किया जाएगा। भारत में भी बहुत-सी सामाजिक संस्थाएं व्याप्त हैं। उनमें से जाति व्यवस्था, विवाह, परिवार, नातेदारी इत्यादि प्रमुख हैं। इस अध्याय में इन संस्थाओं का अध्ययन किया जाएगा।

→ जाति व्यवस्था अपने आप में भारतीय समाज की एक ऐसी संस्था है जिसकी उदाहरण संसार के किसी और देश में देखने को नहीं मिलती है। जाति व्यवस्था का प्रमुख आधार भेदभाव है। चाहे कई आधारों पर अन्य देशों में भी भेदभाव देखने को मिल जाता है, परंतु ऐसी सुदृढ़ संस्था कहीं और देखने को नहीं मिलती है जिसने संपूर्ण समाज तथा देश को बाँधकर रखा था।

→ जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था थी जिसने खान-पान, विवाह करने, सामाजिक संबंधों इत्यादि के संबंध में बहुत से नियम बनाए हुए थे। व्यक्ति के पास चाहे जितनी मर्जी योग्यता हो, वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता।

→ वैसे तो बहुत-से समाजशास्त्रियों ने इसकी परिभाषाएं दी हैं परंतु घुर्ये के अनुसार यह इतनी जटिल व्यवस्था है कि इसको परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए उन्होंने जाति व्यवस्था की छः परिभाषाएं दी हैं।

→ चाहे प्राचीन समय से लेकर 20वीं शताब्दी तक जाति प्रथा के पाँव मज़बूती से भारतीय समाज में बने रहे, परंतु अंग्रेजों के आने के पश्चात् तथा स्वतंत्रता के पश्चात् जाति प्रथा कमजोर पड़नी शुरू हो गई। विधानों, औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण, पश्चिमी शिक्षा जैसी प्रक्रियाओं ने जाति प्रथा को आज के समय में काफी कमजोर कर दिया है।

→ हमारे देश में एक ऐसा समुदाय भी है जो आधुनिक समाज तथा अवस्था से दूर जंगलों, पहाड़ों, घाटियों इत्यादि में आदिम अवस्था में रहता है। इसे जनजातीय समुदाय कहते हैं। इनकी अपनी ही संस्कृति तथा भाषा होती है तथा अपना ही समाज होता है जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहता है।

→ जनजाति को कबीला, आदिवासी, वनवासी, अनुसूचित जनजाति इत्यादि के नाम से भी जाना जाता है। यह माना जाता है कि भारत के असली निवासी तो यही हैं। जब आर्य लोग भारत में आए तो इन्हें जंगलों की तरफ़ खदेड़ दिया गया।

→ क्योंकि यह लोग आदिम अवस्था में रहते हैं इसलिए इनके उत्थान तथा कल्याण के लिए सरकार ने कई प्रकार के कल्याण कार्यक्रम चलाए हैं। यहाँ तक कि इन्हें शैक्षिक संस्थाओं तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया ताकि यह अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठा सकें। इनके नाम तो संविधान में भी दर्ज हैं।

→ परिवार हमारे समाज की सबसे मौलिक संस्थाओं में से एक है। संसार में कोई भी ऐसा समाज नहीं है, जहाँ पर परिवार मौजूद न हो। समाज में बहुत-सी संस्थाएं बनीं, विकसित हुईं तथा खत्म हो गईं, परंतु परिवार नाम की संस्था सदियों से समाज में चल रही है तथा यह चलती ही रहेगी।

→ परिवार उस समूह को कहते हैं जो यौन संबंधों पर आधारित होता है तथा जो इतना छोटा व स्थायी है कि उससे बच्चों की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण हो सके। जो हमदर्दी तथा प्यार व्यक्ति को परिवार में रहकर प्राप्त होता है वह और कहीं भी नहीं होता है।

→ परिवार व्यक्ति के लिए हरेक प्रकार के कार्य करता है। परिवार में बच्चे पैदा होते हैं, उनका पालन-पोषण होता है, उन्हें हरेक प्रकार की शिक्षा दी जाती है, उनका समाजीकरण किया जाता है, उन्हें प्रस्थिति प्रदान की जाती है, उन्हें नियंत्रण में रहना सिखाया जाता है इत्यादि। अगर ध्यान से देखा जाए तो परिवार ही ऐसी संस्था है जो व्यक्ति के लिए हरेक प्रकार का कार्य करती है।

→ हमारे समाज में कई प्रकार के परिवार कई आधारों पर पाए जाते हैं जैसे कि संख्या के आधार पर, रहने के स्थान के आधार पर, सत्ता के आधार पर। वैसे मुख्य रूप से हमारे समाज में एकाकी परिवार तथा संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। चाहे बहुत-सी प्रक्रियाओं के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, परंतु फिर भी एकाकी परिवार हमारे सामने आ रहे हैं। नातेदारी ऐसे संबंधियों के बीच संबंधों की व्यवस्था होती है जिनसे हमारा संबंध वंशावली के आधार पर होता है। वंशावली संबंध परिवार के द्वारा विकसित होते हैं। नातेदारी संसार के सभी समाजों में व्याप्त है। नातेदारी के लिए बंधुत्व, संगोत्रता तथा स्वजनता इत्यादि जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

→ नातेदारी मुख्य दो आधारों पर विकसित होती है। पहला है रक्त संबंधों के आधार पर अर्थात् इसमें केवल रक्त संबंधियों को ही शामिल किया जाता है जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताया-दादा, पौत्र इत्यादि। दूसरा आधार है विवाह का जिसमें केवल विवाह संबंधियों को शामिल किया जाता है जैसे कि सास-ससुर, जीजा, साला, ननद, बहनोई इत्यादि।

→ नातेदारी में तीन प्रकार के संबंध पाए जाते हैं-प्राथमिक, द्वितीय तथा तृतीय। प्राथमिक संबंधों में वे संबंध आते हैं जो सीधे तौर पर बनते हैं जैसे कि पिता, माता, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री इत्यादि। द्वितीय संबंध प्राथमिक संबंधों के आधार पर बनते हैं जैसे कि पिता का भाई, माता का भाई इत्यादि। तृतीय संबंधी द्वितीय संबंधियों के कारण बनते हैं जैसे कि पिता के भाई की पत्नी चाची। शब्दावली

→ जाति (Caste)-वह अंतर्वैवाहिक समूह जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा जिसने सामाजिक सहवास, खान-पान, पेशे इत्यादि से संबंधित सख्त नियम बना कर रखे हैं।

→ संस्कृतिकरण (Sanskritization)-वह प्रक्रिया जिसके द्वारा निम्न जातियों के लोग किसी उच्च जाति की धार्मिक क्रियाओं, घरेलू या सामाजिक पारिपाटियों को अपनाकर अपनी सामाजिक परिस्थिति को ऊँचा करने का प्रयत्न करते हैं।

→ प्रबल जाति (Dominent Caste) यह शब्द ऐसी जातियों के लिए प्रयोग किया जाता है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनसंख्या में काफ़ी बड़ी होती है अथवा वह उस क्षेत्र में अपने पैसे या शक्ति के आधार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करती हैं। इसके सदस्य कम भी हो सकते हैं।

→ जनजातीय (Tribal)-यह एक आधुनिक शब्द है जो उन समुदायों के लिए प्रयोग होता है जो बहुत प्राचीन हैं तथा उप-महाद्वीप के सबसे प्राचीन निवासी हैं। ये हमारी सभ्यता से दूर जंगलों, पहाड़ों पर रहते हैं तथा इनकी अपनी ही संस्कृति होती है।

→ आदिम (Prestine)-मौलिक अथवा विशुद्ध समाज जो सभ्यता से अछूते रहे हों।

→ मूल परिवार (Nuclear Family)-परिवार का वह रूप जिसमें केवल पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे ही रहते हैं।

→ संयुक्त परिवार (Joint Family)-परिवार का वह रूप जिसमें दो-तीन पीढ़ियों के सदस्य इकट्ठे एक ही छत के नीचे रहते हैं तथा एक ही रसोई में पका हुआ भोजन खाते हैं।

→ पति स्थानिक (Patrilocal)-परिवार का वह रूप जिसमें विवाह के पश्चात् पत्नी, पति अथवा उसके पिता के घर जाकर रहती है।

→ पत्नी स्थानिक (Matrilocal)-परिवार का वह रूप जिसमें विवाह के पश्चात् पति पत्नी के घर जाकर रहता है।

→ मातृवंशीय समाज (Matriarchal Society)-वह समाज जहाँ पर वंश का नाम माता के नाम से चलता है तथा जायदाद माँ से बेटी को मिलती है।

→ पितृवंशीय समाज (Patriarchal Society)-वह समाज जहाँ पर वंश का नाम पिता के नाम से चलता है तथा जायदाद पिता से पुत्र को मिलती है।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

HBSE 12th Class Sociology भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
जनसांख्यिकीय संक्रमण के सिद्धांत के बुनियादी तर्क को स्पष्ट कीजिए। संक्रमण अवधि जनसंख्या विस्फोट के साथ क्यों जुड़ी है?
अथवा
जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
जनसांख्यिकीय विषय में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत जनसांख्यिकीय संक्रमण का सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि जनसंख्या में वदधि आर्थिक विकास के सभी स्तरों के साथ जडी होती है तथा हरेक समाज विकास से संबंधित जनसंख्या वृद्धि के एक निश्चित स्वरूप के अनुसार चलता है। जनसंख्या वृद्धि के तीन मुख्य स्तर होते हैं। पहले स्तर में जनसंख्या वृद्धि कम होती है क्योंकि समाज कम विकसित तथा तकनीकी रूप से पिछड़ा होता है। वृद्धि दर के कम होने का कारण जन्म दर तथा मृत्यु दर काफ़ी ऊँची होने के कारण कम अंतर होता है। तीसरे चरण में भी विकसित समाजों में भी जनसंख्या वृद्धि दर कम होती है क्योंकि जन्म दर तथा मृत्यु दर दोनों ही कम होते हैं।

इसलिए उनमें अंतर भी काफी कम होता है। इन दोनों स्तरों के बीच एक तीसरी संक्रमणकालीन अवस्था होती है जब समाज पिछड़ी अवस्था से उस अवस्था में पहुँच जाता है जब जनसंख्या वृद्धि की दर काफ़ी अधिक होती है। संक्रमण अवधि जनसंख्या विस्फोट से इसलिए जुड़ी होती है क्योंकि मृत्यु दरों को रोग नियंत्रण, स्वास्थ्य सुविधाओं से तेज़ी से नीचे कर दिया जाता है। परंतु जन्म दर इतनी तेजी से कम नहीं होती तथा जिस कारण वृद्धि दर ऊँची हो जाती है। बहुत से देश जन्म दर घटाने को संघर्ष कर रहे हैं परंतु वह कम नहीं हो पा रही है।

प्रश्न 2.
माल्थस का यह विश्वास क्यों था कि अकाल और महामारी जैसी विनाशकारी घटनाएँ, जो बड़े पैमाने पर मृत्यु का कारण बनती हैं, अपरिहार्य हैं?
अथवा
माल्थस का जनसंख्या सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
जनसांख्यिकी के सबसे अधिक प्रसिद्ध सिद्धांतों में से एक सिद्धांत अंग्रेज़ राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस माल्थस के नाम से जुड़ा है। माल्थस का कहना था कि जनसंख्या उस दर की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ती है जिस दर पर मनुष्य के भरण पोषण के साधन बढ़ सकते हैं। इस कारण ही मनुष्य निर्धनता की स्थिति में रहने को बाध्य होता है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि की दर कृषि उत्पादन की वृद्धि दर से अधिक होती है। क्योंकि जनसंख्या वृद्धि दर कृषि उत्पादन की वृद्धि दर से अधिक होती है इसलिए समाज की समृद्धि को एक ढंग से बढ़ाया जा सकता है तथा वह है जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रण में रखा जाए।

या तो मनुष्य अपनी इच्छा से जनसंख्या को नियंत्रण में रख सकते हैं या फिर प्राकृतिक आपदाओं से। माल्थस का मानना था कि अकाल तथा महामारी जैसी विनाशकारी घटनाएं जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए अपरिहार्य होती हैं। इन्हें प्राकृतिक निरोध कहा जाता है क्योंकि यह ही बढ़ती जनसंख्या तथा खाद्य आपूर्ति के बीच बढ़ते असंतुलन को रोकने का प्राकृतिक उपाय है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

प्रश्न 3.
मृत्यु दर तथा जन्म दर का क्या अर्थ है? कारण स्पष्ट कीजिए कि जन्म दर में गिरावट अपेक्षाकृत धीमी गति से क्यों आती है जबकि मृत्यु दर बहुत तेज़ी से गिरती है।
अथवा
जन्म दर तथा मृत्यु दर से क्या अभिप्राय है? जब मृत्यु दर में कमी आती है तो जन्म दर में अपेक्षाकृत गिरावट क्यों हो जाती है?
अथवा
मृत्यु दर क्या है?
उत्तर:
जन्म दर-किसी विशेष क्षेत्र में एक वर्ष में प्रति एक हजार व्यक्तियों के पीछे जितने बच्चे जन्म लेते हैं, उसे जन्म दर कहते हैं। इसका अर्थ है कि किसी क्षेत्र में एक वर्ष में एक हजार व्यक्तियों के पीछे कितने बच्चों ने जन्म लिया है।

मृत्यु दर-किसी विशेष क्षेत्र में एक वर्ष में प्रति एक हजार व्यक्तियों के पीछे मरने वाले व्यक्तियों की संख्या को मृत्यु दर कहते हैं अर्थात् एक वर्ष में एक हजार व्यक्तियों के पीछे कितने व्यक्तियों की मृत्यु हुई।

यह सच है कि जन्म दर में गिरावट मृत्यु दर की तुलना में काफ़ी धीमी गति से आती है। इसका कारण यह है कि मृत्यु दर को तो स्वास्थ्य सुविधाओं की सहायता से तथा अकाल, बीमारियों जैसी आपदाओं पर काबू करके आसानी से कम किया जा सकता है परंतु जन्म दर को उतनी तेजी से कम नहीं किया जा सकता। जन्म दर अधिक प्रजनन क्षमता, धार्मिक विचारों, सामाजिक विचारों, निर्धनता, भाग्यवाद, शारीरिक रोगों से मुक्ति इत्यादि के कारण अधिक होती है तथा लोगों के विचारों को बदलना बेहद मुश्किल होता है। वे सोचते हैं कि बच्चे तो भगवान ने दिए हैं इसलिए वह ही पाल लेगा। इसलिए जन्म दर उतनी तेज़ी से कम नहीं होती जितनी तेज़ी से मृत्यु दर कम होती है।

प्रश्न 4.
भारत में कौन-से राज्य जनसंख्या संवृद्धि के प्रतिस्थापन स्तरों को प्राप्त कर चुके हैं अथवा प्राप्ति के बहुत नज़दीक हैं? कौन-से राज्यों में अब भी जनसंख्या संवृद्धि की दरें बहुत ऊँची हैं? आपकी राय में इन क्षेत्रीय अंतरों के क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर:
प्रतिस्थापन स्तर का अर्थ है हरेक जोड़े अर्थात् पति पत्नी द्वारा दो बच्चों को जन्म देना। जो राज्य प्रतिस्थापन स्तर को प्राप्त कर चुके हैं वे हैं तमिलनाडु, त्रिपुरा, गोवा, पंजाब, केरल, जम्मू कश्मीर, नागालैंड इत्यादि हैं। जिन राज्यों में जनसंख्या संवृद्धि की दरें अभी भी बहुत ऊँची हैं वे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान इत्यादि हैं। जो राज्य प्रतिस्थापन स्तरों को प्राप्त करने के नज़दीक हैं वे हैं : महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, कर्नाटक, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश इत्यादि।

प्रतिस्थापन स्तरों तथा जनसंख्या संवदधि की दरों में अंतरों के क्षेत्रीय कारण हो सकते हैं जो कि इस प्रकार हैं-
(i) अगर जनता साक्षर है तो उनकी सोच सकारात्मक होगी। परंतु अगर जनसंख्या अनपढ़ है तो उनकी सोच नकारात्मक होगी तथा उनमें अज्ञानता होगी। जो राज्य साक्षर हैं वहां संवृद्धि दर कम हैं तथा जहां अनपढ़ लोग अधिक हैं वहां संवृद्धि दर अधिक है।

(ii) हरेक राज्य की अपनी-अपनी रूढ़ियां तथा संस्कार होते हैं जो इस संवृद्धि दर तथा प्रतिस्थापन दर को प्रभावित करते हैं।

(iii) बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो अधिक बच्चे पैदा करने के समर्थक हैं तथा वह किसी विशेष राज्य में पाए जाते हैं। इस कारण भी अलग-अलग क्षेत्रों की दरों में अंतर होता है।

(iv) हरेक क्षेत्र की सामाजिक सांस्कृतिक संरचना तथा साक्षरता की दर अलग-अलग होती है तथा इसका भी संवृद्धि दर पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 5.
जनसंख्या की आयु संरचना का क्या अर्थ है? आर्थिक विकास और संवृद्धि के लिए उसकी क्या प्रासंगिकता है?
अथवा
जनसंख्या की आयु संरचना पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
जनसंख्या की आयु संरचना का अर्थ है कि कुल जनसंख्या के संदर्भ में विभिन्न आयु वर्गों में व्यक्तियों का अनुपात क्या है। इसमें तीन आयु वर्ग लिए जाते हैं तथा वे हैं-

  • 0-14 वर्ष
  • 1 5-59 वर्ष तथा
  • 60 वर्ष से ऊपर।

पहले वर्ग में बच्चे अर्थात् आश्रित वर्ग होते हैं। दूसरे वर्ग में युवाओं को कार्यशील वर्ग कहते हैं तथा तीसरे वर्ग अर्थात् बुर्जुगों को पराश्रितता जनसंख्या कहते हैं। आगे दी गई सारणी से यह स्पष्ट हो जाएगा-

वर्ष           आयु वर्गजोड़
0-14 वर्ष15-59 वर्ष60 वर्ष से अधिक
1961411006100
1971421005100
1981401006100
1991381007100
2001341007100
201129.71005.5100

इस सारणी से पता चलता है कि हमारे देश में कार्यशील वर्ग के लोग सबसे अधिक हैं। 1961-2001 तक के समय में यह अधिक ही रहे हैं। इसके बाद आश्रित वर्ग अर्थात् बच्चे आते हैं। चाहे इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। सबसे अंत में पराश्रितता वर्ग अर्थात बुजुर्ग लोग आते हैं। हमारे देश में जीवन प्रत्याशा 66 वर्ष के लगभग है जिस कारण इनकी संख्या कम है।

आर्थिक विकास तथा संवृद्धि में जनसंख्या की आयु संरचना की प्रासंगिकता (Importance of Age Structure in Economic Development and Growth) इसका वर्णन निम्नलिखित है-
(i) ऊपर दी गई सारणी से हमें पता चलता है कि 0-14 वर्ष की आयु वर्ग में 1961 के बाद से लगातार कमी हो रही है। इसका कारण है कि 1976 के बाद से राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को लागू किया गया तथा जनता को कम जनसंख्या के फायदों का पता चल गया है।

(ii) इस सारणी से हमें यह भी पता चलता है कि 60 वर्ष से अधिक आय के लोगों की संख्या बढ़ रही है। इससे हमें यह पता चलता है कि हमारे देश में जीवन प्रत्याशा लगातार बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि देश में प्रगति हो रही है तथा स्वास्थ्य सुविधाएं लगातार बढ़ रही हैं जिससे 60 वर्ष से अधिक लोग लंबा जीवन जी रहे हैं।

(iii) इस सारणी से हमें यह भी पता चलता है कि कार्यशील जनसंख्या अर्थात् युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। वे तरक्की करने में लगे हुए हैं जिससे देश की प्रगति हो रही है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

प्रश्न 6
स्त्री-पुरुष अनुपात का क्या अर्थ है? एक गिरते हुए स्त्री-पुरुष अनुपात के क्या निहितार्थ हैं? क्या आप यह महसूस करते हैं कि माता-पिता आज भी बेटियों की बजाए बेटों को अधिक पसंद करते हैं? आपकी राय में इस पसंद के क्या-क्या कारण हो सकते हैं?
अथवा
भारत में गिरते हुए स्त्री-पुरुष अनुपात के कारण दीजिए।
अथवा
स्त्री-पुरुष अनुपात में गिरावट आने के कारण बताइए।
उत्तर:
किसी विशेष क्षेत्र में एक हजार पुरुषों के पीछे मिलने वाली स्त्रियों की संख्या के अनुपात को स्त्री-पुरुष अनुपात कहते हैं। स्त्री-पुरुष अनुपात जनसंख्या में लिंग संतुलन का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो स्त्री-पुरुष अनुपात स्त्रियों के पक्ष में रहा है परंतु पिछली एक शताब्दी में भारत में यह गिरता चला जा रहा भी की शरुआत में यह कम होकर 1000 : 972 था परंता 21वीं शताब्दी की शरुआत में यह कम होकर 1000 : 933 हो गया है। यह गिरता अनुपात समाज के लिए काफ़ी चिंता का विषय बना हुआ है।

जी हाँ, यह सच है कि आज भी माता-पिता बेटियों के स्थान पर बेटों को अधिक पसंद करते हैं। आज भी भ्रूण हत्या होती है, बेटा प्राप्त करने के लिए बलि दी जाती है, तरह-तरह के प्रयास किए जाते हैं ताकि बेटा प्राप्त किया जा सके। यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस बात का निर्धनता से कम संबंध होता है बल्कि इसका अधिक संबंध तो सामाजिक सांस्कृतिक कारकों के साथ होता है। लड़की की अपेक्षा लड़के को पसंद करने के कई कारण हो सकते हैं जैसे कि-
(i) सबसे पहला कारण तो धर्म ही है। धर्म यह कहता है कि व्यक्ति को मृत्यु के बाद तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता जब तक कि उसकी चिता को उसका बेटा अग्नि न दे। इसके साथ ही धर्म में कुछ संस्कार ऐसे दिए गए हैं जिनमें बेटे की आवश्यकता है। इन सभी के कारण लोग लड़के को अधिक पसंद करते हैं।

(ii) अकसर लोग यह सोचते हैं कि अगर लड़का न हुआ तो उसके साथ ही उसके खानदान का नाम समाप्त हो जाएगा क्योंकि लड़की तो विवाह के बाद अपने पति के घर चली जाएगी। उसके खानदान को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी न होगा। इस प्रकार खानदान को आगे बढ़ाने की इच्छा लोगों को लड़का प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है।

(iii) कई लोग यह सोचते हैं कि अगर लड़की हुई तो उसे विवाह के समय बहुत सा दहेज देना पड़ेगा तथा विवाह के पश्चात् भी बहुत कुछ देना पड़ेगा। इसमें बहुत सा खर्चा होगा परंतु लड़के के साथ तो दहेज आएगा। इस प्रकार खर्चा बचाने के लिए अथवा निर्धनता के कारण भी लोग लड़की की अपेक्षा लड़के को पसंद करते हैं।

भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना HBSE 12th Class Sociology Notes

→ अगर हम जनसंख्या की दृष्टि से संसार में भारत की स्थिति देखें तो इसमें भारत का स्थान दूसरा है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 121 करोड़ के करीब लोग रहते हैं।

→ जनसंख्या के व्यवस्थित अध्ययन को जनसांख्यिकी कहते हैं। जनसांख्यिकी शब्द का अर्थ है लोगों का वर्णन। जनसांख्यिकी विषय के अंतर्गत जनसंख्या से संबंधित अनेक प्रवृत्तियों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जैसे जनसंख्या के आकार में परिवर्तन, जन्म, मृत्यु तथा प्रवसन के स्वरूप, तथा जनसंख्या की संरचना और गठन अर्थात् उसमें स्त्रियों, पुरुषों और विभिन्न आयु वर्ग के लोगों का क्या अनुपात है।

→ जनसांख्यिकी कई प्रकार की होती है, जैसे आकारिक जनसांख्यिकी जिसमें जनसंख्या के आकार अर्थात् मात्रा का अध्ययन किया जाता है तथा सामाजिक जनसांख्यिकी जिसमें जनसंख्या के सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक पक्षों पर विचार किया जाता है।

→ जनसांख्यिकी का अध्ययन समाजशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। समाजशास्त्र के उद्भव तथा एक अलग अकादमिक विषय के रूप में इसकी स्थापना का क्षेत्र काफ़ी हद तक जनसांख्यिकी को ही जाता है। वैसे भी जनसांख्यिकीय आँकड़े राज्य की नीतियों, विशेष रूप से आर्थिक विकास और सामान्य जन कल्याण संबंधी नीतियाँ बनाने और कार्यान्वित करने के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं।

→ जनसांख्यिकी के प्रसिद्ध सिद्धांतों में से एक सिद्धांत अंग्रेज़ राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रोबर्ट माल्थस ने दिया था। उनका सिद्धांत एक निराशावादी सिद्धांत था। उनके अनुसार समृद्धि को बढ़ाने का एक ढंग यह है कि जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रित किया जाए। उन्होंने दो प्रकार के ढंग दिए हैं जिनसे जनसंख्या को नियंत्रित किया जा सकता है। पहला है कृत्रिम निरोध जिन्हें व्यक्ति स्वयं पर नियंत्रण करके जनसंख्या कम कर सकता है।

→ दूसरा है प्राकृतिक निरोध अर्थात् अकालों तथा बीमारियों से जनसंख्या वृद्धि का रुकना। जनसांख्यिकीय विषय में एक अन्य उल्लेखनीय सिद्धांत है-जनसांख्यिकीय संक्रमण का सिद्धांत। इसका अर्थ यह है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास के समग्र स्तरों से जुड़ी होती है तथा प्रत्येक समाज विकास से संबंधित जनसंख्या वृद्धि के एक निश्चित स्वरूप का अनुसरण करता है।

→ जनसांख्यिकीय में बहुत सी संकल्पनाओं का प्रयोग किया जाता है जैसे कि प्राकृतिक वृद्धि दर, जनसंख्या वृद्धि दर, प्रजनन दर, जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, स्त्री पुरुष अनुपात, आयु संरचना, पराश्रितता अनुपात जनसंख्या इत्यादि। इन सभी का वर्णन आगे अध्याय में दिया गया है।

→ भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या वाला देश है। 2011 में इसकी आबादी 121 करोड़ के लगभग थी। भारत में जनसंख्या संवृद्धि दर हमेशा बहुत ऊँची नहीं रही है। अगर हम भारत सरकार द्वारा प्रकाशित चार्ट को देखें तो यह अधिकतम 2.22% रही है। इस चार्ट को देखने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि संवदधि दर कितनी है।

वर्षकुल जनसंख्या (लाखों में)औसत वार्षिक संवृद्धि दर
19513611.25
19614391.96
19715482.22
19816832.20
19918462.14
200110281.93
201112101.8

इस चार्ट को देखने से पता चलता है कि 1971 के बाद से यह लगातार कम हो रही है।

→ स्वतंत्रता से पहले हमारे देश में जन्म दर तथा मृत्यु दर में कोई अधिक अंतर नहीं था क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं थीं। अगर जन्म दर अधिक थी तो मृत्यु दर भी अधिक थी। इसलिए अधिक जनसंख्या नहीं बढ़ती थी। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात् स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ने से मृत्यु दर तो अप्रत्याशित रूप से कम हो गई परंतु जन्म दर इतनी अधिक कम न हुई। इसलिए दोनों में अंतर बढ़ता जा रहा है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

→ भारत की जनसंख्या बहुत जवान है अर्थात् अधिकांश भारतीय युवावस्था में हैं तथा यहां की आयु का औसत भी अधिकांश अन्य देशों की तुलना में कम है। निम्न सारणी देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा-

वर्ष                      आयु वर्गजोड़
0-14 वर्ष15-59 वर्ष60 वर्ष से अधिक
196141536100
197142535100
198140546100
199138567100
200134597100
201129.764.95.5100

→ इस प्रकार इस सारणी से यह स्पष्ट है कि भारत में 15-59 वर्ष की आयु में सबसे अधिक लोग होते हैं। उससे कम 0-14 वर्ष की आयु के लोग आते हैं तथा 60 वर्ष से अधिक लोग सबसे कम हैं। इसका कारण यह है कि भारत में आयु प्रत्याशा 63 वर्ष के करीब है।

→ स्त्री पुरुष अनुपात जनसंख्या में लैंगिक या लिंग संतुलन का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। स्त्री पुरुष अनुपात का अर्थ है कि किसी विशेष क्षेत्र में एक वर्ष में 1000 पुरुषों के पीछे कितनी स्त्रियां हैं। सन् 2011 में स्त्री पुरुष अनुपात 1000 : 940 था। स्त्रियों की कम होती संख्या का सबसे बड़ा कारण लोगों में लड़का प्राप्त करने की इच्छा है।

→ अगर जनता शिक्षित होगी तो उन्हें जनसंख्या के अधिक होने के दुष्परिणामों के बारे में पता होगा तथा वह जनसंख्या को कम रखने का प्रयास करेंगे। इसलिए जनसंख्या कम करने में शिक्षा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सापान बन सकती है।

→ मुख्यतः भारत एक ग्रामीण देश है जहां की लगभग 72% जनसंख्या अभी भी गांवों में रहती है। केवल 28% जनसंख्या ही शहरों में रहती है। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह लगभग 11% थी जोकि एक ही शताब्दी में लगभग ढाई गुना बढ़ गई है। नीचे दी गई सारणी से हमें इसका पता चल जाता है-

वर्षजनसंख्या(दस लाख में)कुल जनसंख्या का प्रतिशत
त्रामीणनगरीयग्रामीणनगरीय
19012132689.210.8
19112262689.710.3
19212232888.811.2
19312463388.012.0
19412754486.113.9
19512996282.717.3
19613607982.018.0
197143910980.119.9
198152415976.723.3
199162921874.325.7
200174328672.227.8
201183337768.8431.16

इस सारणी को देखकर पता चलता है कि स्वतंत्रता के पश्चात् नगरीय जनसंख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।

→ जनसंख्या संवृद्धि दर (Growth Rate of Population)-जन्म दर तथा मृत्यु दर के बीच का अंतर। जब यह अंतर शून्य होता है तब हम कह सकते हैं कि जनसंख्या स्थिर हो गई है।

→ प्रजनन दर (Fertility Rate)-बच्चे पैदा करने वाली प्रति 1000 स्त्रियों की इकाई के पीछे जीवित जन्मे बच्चों की संख्या।

→ शिश मत्य दर (Infant Mortality Rate)-यह उन बच्चों की मत्य की संख्या दर्शाती है जो जीवित पैदा हुए 1000 बच्चों में से एक वर्ष की आयु प्राप्त होने से पहले ही मौत के मुँह में चले जाते हैं।

→ स्त्री-परुष अनपात (Sex Ratio)-यह अनपात यह दर्शाता है कि किसी क्षेत्र विशेष में एक निश्चित अवधि के दौरान 1000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या क्या है।

→ जनसंख्या की आयु संरचना (Age Structure of Population)-कुल जनसंख्या के संदर्भ में विभिन्न आयु वर्गों में व्यक्तियों का अनुपात। आयु संरचना विकास के स्तरों और औसत आयु संभाविता के स्तरों में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार बदलती रहती है।

→ पराश्रितता अनुपात जनसंख्या (Dependency Ratio)-यह जनसंख्या के पराश्रित और कार्यशील हिस्सों को मापने का साधन है। पराश्रित वर्ग में बुजुर्ग लोग तथा छोटे बच्चे आते हैं। कार्यशील वर्ग में 15-64 वर्ष की आयु के लोग आते हैं।

→ जनसंख्या घनत्व (Population Density)-किसी विशेष क्षेत्र के प्रति वर्ग कि० मी० क्षेत्रफल में रहने वाले लोगों की संख्या।

→ जन्म दर (Birth Rate)-किसी विशेष क्षेत्र में प्रति 1000 जनसंख्या के पीछे जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या।

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→ मृत्यु दर (Death Rate)-किसी विशेष क्षेत्र में प्रति एक हज़ार व्यक्तियों के पीछे मरने वाले व्यक्तियों की संख्या।

→ जनसंख्या वृद्धि (Population Growth)-जनसंख्या का लगातार बढ़ना जनसंख्या वृद्धि होता है।

→ ग्रामीण समुदाय (Rural Society)-प्रकृति से निकटता वाला समुदाय जिसमें प्राथमिक संबंधों की बहुलता होती है, कम जनसंख्या, सामाजिक एकरूपता, गतिशीलता का अभाव तथा कृषि मुख्य व्यवसाय होता है।

→ नगरीय समुदाय (Urban Society)-वह समुदाय जो प्रकृति से दूर रहता है, जहां अधिक जनसंख्या, पेशों की भरमार, अधिक गतिशीलता, द्वितीय संबंध होते हैं तथा वहां 75% से अधिक लोग गैर-कृषि कार्यों में लगे होते हैं।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

HBSE 12th Class Sociology भारतीय समाज : एक परिचय Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की लगभग कितने प्रतिशत जनसंख्या आपकी या आपसे छोटी आयु के लोगों की है?
(A) 40%
(B) 50%
(C) 55%
(D) 60%
उत्तर:
40%

प्रश्न 2.
किस प्रक्रिया के द्वारा हमें बचपन से ही अपने आसपास के संसार को समझना सिखाया जाता है?
(A) संस्कृतिकरण
(B) समाजीकरण
(C) सांस्कृतिक मिश्रण
(D) आत्मवाचक।
उत्तर:
समाजीकरण।

प्रश्न 3.
भारत किस राष्ट्र का उपनिवेश था?
(A) अमेरिका
(B) फ्रांस
(C) इंग्लैंड
(D) जर्मनी।
उत्तर:
इंग्लैंड।

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प्रश्न 4.
अंग्रेज़ों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाना कब शुरू किया?
(A) 1660 के बाद
(B) 1700 के बाद
(C) 1650 के बाद
(D) 1760 के बाद।
उत्तर:
1760 के बाद।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक शासन ने पहली बार भारत को ………………. किया।
(A) एकीकृत
(B) विभाजित
(C) ब्रिटिश राज में शामिल
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
एकीकृत।

प्रश्न 6.
औपनिवेशिक शासन ने भारत को कौन-सी ताकतवर प्रक्रिया से अवगत करवाया?
(A) प्रशासकीय एकीकरण
(B) पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन
(C) आधुनिकीकरण
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किस प्रकार का एकीकरण भारत को भारी कीमत चुकाकर उपलब्ध हुआ?
(A) आर्थिक
(B) राजनीतिक
(C) प्रशासनिक
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 8.
उपनिवेशवाद ने ही अपने शत्रु …………………… को जन्म दिया।
(A) राष्ट्रवाद
(B) व्यक्तिवाद
(C) पाश्चात्यवाद
(D) पूँजीवाद।
उत्तर:
राष्ट्रवाद।

प्रश्न 9.
औपनिवेशवाद प्रभुत्व के सांझे अनुभवों ने समुदाय के विभिन्न भागों को …………………… करने में सहायता प्रदान की।
(A) विभाजित
(B) एकीकृत
(C) विकसित
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
एकीकृत।

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प्रश्न 10.
किस प्रक्रिया ने नए वर्गों व समुदायों को जन्म दिया?
(A) राष्ट्रवाद
(B) संस्कृतिकरण
(C) उपनिवेशवाद
(D) व्यक्तिवाद।
उत्तर:
उपनिवेशवाद।

प्रश्न 11.
किस वर्ग ने स्वतंत्रता प्राप्ति के अभियान में अगवाई की?
(A) ग्रामीण मध्य वर्ग
(B) नगरीय मध्य वर्ग
(C) ग्रामीण उच्च वर्ग
(D) नगरीय उच्च वर्ग।
उत्तर:
नगरीय मध्य वर्ग।

प्रश्न 12.
‘ब्रितानी उपनिवेशवाद’ निम्न में से किस व्यवस्था पर आधारित था?
(A) पूँजीवादी
(B) व्यावसायिकता
(C) व्यावहारिकता
(D) सभी।
उत्तर:
सभी।

प्रश्न 13.
भारत में राष्ट्रवादी भावना पनपने का कारण था?
(A) जातिवाद
(B) भाषावाद
(C) क्षेत्रवाद
(D) उपनिवेशवाद।
उत्तर:
उपनिवेशवाद।

प्रश्न 14.
इनमें से किस संरचना एवं व्यवस्था में उपनिवेशवाद ने नवीन परिवर्तन उत्पन्न किये?
(A) राजनीतिक
(B) आर्थिक
(C) सामाजिक
(D) सभी में।
उत्तर:
सभी में।

अति लघू उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में कितने प्रमुख धर्म पाए जाते हैं तथा यहाँ पाया जाने वाला प्रमुख धर्म कौन-सा है?
उत्तर:
भारत में सात प्रमुख धर्म पाए जाते हैं तथा यहाँ पर पाया जाने वाला प्रमुख धर्म हिंदू धर्म है।

प्रश्न 2.
भारत में कितनी प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं तथा यहाँ कितने प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिंदी है?
उत्तर:
भारत में 22 प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं तथा यहाँ पर 40% के लगभग लोगों की मातृभाषा हिंदी है।

प्रश्न 3.
भारत में कौन-से राज्यों का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक तथा सबसे कम है?
उत्तर:
पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व है तथा सबसे कम घनत्व अरुणाचल प्रदेश में है।

प्रश्न 4.
भारत में कितने प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों तथा नगरीय क्षेत्रों में रहती है?
उत्तर:
भारत में 68% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 32% जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में रहती है।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता प्राप्त है तथा हिंदी के बाद कौन-सी भाषा सबसे अधिक प्रयुक्त होती है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है तथा हिंदी के बाद सबसे अधिक प्रयक्त होने वाली भाषा बांग्ला है।

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प्रश्न 6.
भारत में सबसे कम प्रचलित धर्म कौन-सा है तथा किस राज्य में बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित है?
उत्तर:
भारत में सबसे कम प्रचलित धर्म पारसी धर्म है तथा महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित है।

प्रश्न 7.
भारत में प्रचलित चार वेदों के नाम बताएं।
उत्तर:
भारत में प्रचलित चार वेदों के नाम हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद।

प्रश्न 8.
भारत का सबसे प्राचीन वेद कौन-सा है?
उत्तर:
ऋग्वेद भारत का सबसे प्राचीन वेद है।

प्रश्न 9.
उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में कौन-से धाम हैं?
उत्तर:
बद्रीनाथ-केदारनाथ धाम उत्तर भारत में हैं तथा रामेश्वरम दक्षिणी भारत में है।

प्रश्न 10.
पूर्वी भारत तथा पश्चिमी भारत में कौन-से धाम हैं?
उत्तर:
जगन्नाथपुरी पूर्वी भारत का धाम है तथा द्वारिकापुरी पश्चिमी भारत का धाम है।

प्रश्न 11.
क्षेत्रवाद का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जब लोग अपने क्षेत्र को प्यार करते हैं तथा दूसरे क्षेत्रों से नफ़रत करते हैं तो उसे क्षेत्रवाद कहा जाता है।

प्रश्न 12.
भारत में पुरुषों तथा महिलाओं की साक्षरता दर कितनी है?
उत्तर:
भारत में पुरुषों की साक्षरता दर 75% है तथा महिलाओं की साक्षरता दर 54% है।

प्रश्न 13.
भारत में राष्ट्रीय एकता में कौन-सी रुकावटें हैं?
उत्तर:
जातिवाद, सांप्रदायिकता, आर्थिक असमानता इत्यादि ऐसे कारक हैं जो राष्ट्रीय एकता के रास्ते में रुकावटें हैं।

प्रश्न 14.
देश में राष्ट्रीय एकता को कैसे स्थापित किया जा सकता है?
उत्तर:
देश में धर्म से जुड़े संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर, सारे देश में शिक्षा का एक ही पाठ्यक्रम बनाकर तथा जातिवाद को खत्म करके देश में राष्ट्रीय एकता को स्थापित किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
मध्यकाल में पश्चिमी उपनिवेशवाद का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा। (उचित/अनुचित)
उत्तर:
अनुचित।

प्रश्न 16.
भारत में पूँजीवाद के कारण उपनिवेशवाद प्रबल हुआ। (सही/गलत)
उत्तर:
सही।

प्रश्न 17.
उपनिवेशवाद से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
उपनिवेशवाद क्या है?
उत्तर:
यह प्रक्रिया औद्योगिक क्रांति के पश्चात् शुरू हुई जब पश्चिमी देशों के पास अधिक पैसा तथा बेचने के लिए अत्यधिक माल उत्पन्न होना शुरू हुआ। पश्चिमी अथवा शक्तिशाली देशों के द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के देशों को जीतने की प्रक्रिया तथा जीते हुए देशों में अपना शासन स्थापित करने की प्रक्रिया को उपनिवेशवाद कहा जाता है।

प्रश्न 18.
कौन-कौन से देशों ने एशिया तथा अफ्रीका में अपने उपनिवेश स्थापित किए?
उत्तर:
उपनिवेशवाद का दौर 18वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक चला। इसमें मुख्य साम्राज्यवादी देश थे-इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी, इटली इत्यादि। बाद में इसमें रूस, अमेरिका, जापान जैसे देश भी शामिल हो गए।

प्रश्न 19.
भारत में राष्ट्रवाद कब उत्पन्न हुआ?
उत्तर:
भारत में अंग्रेजों ने अपना राज्य स्थापित किया तथा यहां पश्चिमी शिक्षा देनी शुरू की। इससे 19वीं सदी के मध्य के बाद धीरे-धीरे भारत में राष्ट्रवाद उत्पन्न होना शुरू हुआ।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

प्रश्न 20.
सांप्रदायिकता का अर्थ बताएं।
उत्तर:
सांप्रदायिकता और कुछ नहीं बल्कि एक विचारधारा है जो जनता में एक धर्म के धार्मिक विचारों का प्रचार करने का प्रयास करती है तथा यह धार्मिक विचार अन्य धार्मिक समूहों के धार्मिक विचारों के बिल्कुल ही विपरीत होते हैं।

प्रश्न 21.
जातीय का क्या अर्थ है?
उत्तर:
किसी देश, प्रजाति इत्यादि का ऐसा समूह जिसके सांस्कृतिक आदर्श समान हों। एक जातीय समूह के लोग यह विश्वास करते हैं कि वह सभी ही एक पूर्वज से संबंध रखते हैं तथा उनके शारीरिक लक्षण एक समान हैं। इस समूह के सदस्य एक-दूसरे के साथ कई लक्षणों से पहचाने जाते हैं जैसे कि भाषायी, संस्कृति, धार्मिक इत्यादि।

प्रश्न 22.
भारतीय समाज में कैसे परिवर्तन आए?
उत्तर:
उपनिवेशिक दौर में एक विशेष भारतीय चेतना ने जन्म लिया। अंग्रेज़ों ने पहली बार संपूर्ण भारत को एकीकृत किया तथा पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण की शक्तिशाली प्रक्रियाओं से भारत का परिचय कराया। इनसे भारतीय समाज में बहुत-से परिवर्तन आए।

प्रश्न 23.
भारत में राष्ट्रवाद कैसे उत्पन्न हुआ?
उत्तर:
अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकीकरण किया। उन्होंने यहां पश्चिमी शिक्षा का प्रसार किया। भारतीयों ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनी शुरू की तथा इससे उपनिवेशवाद के शत्रु राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में कौन-कौन सी विभिन्नताएं पाई जाती हैं?
उत्तर:
भारत की भौगोलिक विभिन्नता के कारण भारत में कई प्रकार की विभिन्नताएं पाई जाती हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
1. खाने-पीने की विभिन्नता-भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में खाने-पीने में बहुत विभिन्नता पाई जाती है। उत्तर भारत में लोग गेहूं का ज्यादा प्रयोग करते हैं। दक्षिण भारत तथा तटीय प्रदेशों में चावल का सेवन काफ़ी ज्यादा है। कई राज्यों में पानी की बहुतायत है तथा कहीं पानी की बहुत कमी है। कई प्रदेशों में सर्दी बहुत ज्यादा है इसलिए वहाँ गर्म कपड़े पहने जाते हैं तथा कई प्रदेश गर्म हैं या तटीय प्रदेशों में ऊनी वस्त्रों की ज़रूरत नहीं पड़ती। इस तरह खाने-पीने तथा कपड़े डालने में विभिन्नता है।

2. सामाजिक विभिन्नता-भारत के अलग-अलग राज्यों के समाजों में भी विभिन्नता पाई जाती है। हर क्षेत्र में बसने वाले लोगों के रीति-रिवाज, रहने के तरीके, धर्म, धर्म के संस्कार इत्यादि सभी कुछ अलग-अलग हैं। हर जगह अलग-अलग तरह से तथा अलग-अलग भगवानों की पूजा होती है। उनके धर्म अलग होने की वजह से रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं।

3. शारीरिक लक्षणों की विभिन्नता-भौगोलिक विभिन्नता के कारण से यहाँ के लोगों में विभिन्नता भी पाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों के लोग लंबे-चौड़े तथा रंग में साफ़ होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग नाटे पर चौड़े होते हैं तथा रंग भी सफेद होता है। दक्षिण भारतीय लोग भूमध्य रेखा के निकट रहते हैं इसलिए उनका रंग काला या सांवला होता है।

4. जनसंख्या में विभिन्नता-भौगोलिक विभिन्नता के कारण यहाँ के लोगों में विभिन्नता भी पाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों के लोग लंबे चौड़े तथा रंग में साफ होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग नाटे पर चौड़े होते हैं तथा रंग भी सफेद होता है। दक्षिण भारतीय लोग भूमध्य रेखा के निकट रहते हैं इसलिए उनका रंग काला या सांवला होता है।

प्रश्न 2.
भारत की सांस्कृतिक विविधता के बारे में बताएं।
उत्तर:
भारत में कई प्रकार की जातियां तथा धर्मों के लोग रहते हैं जिस कारण से उनकी भाषा, खान-पान, रहन सहन, परंपराएं, रीति-रिवाज इत्यादि अलग-अलग हैं। हर किसी के विवाह के तरीके, जीवन प्रणाली इत्यादि भी अलग अलग हैं। हर धर्म के धार्मिक ग्रंथ अलग-अलग हैं तथा उनको सभी अपने माथे से लगाते हैं। जिस प्रदेश में चले जाओ वहाँ का नृत्य अलग-अलग है। वास्तुकला, चित्रकला में भी विविधता देखने को मिल जाती है। हर किसी जाति या धर्म के अलग-अलग त्योहार, मेले इत्यादि हैं। सांस्कृतिक एकता में व्यापारियों, कथाकारों, कलाकारों इत्यादि का भी योगदान रहा है। इस तरह यह सभी सांस्कृतिक चीजें अलग-अलग होते हुए भी भारत में एकता बनाए रखती हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय समाज की रूप-रेखा के बारे में बताएं।
अथवा
भारतीय समाज की संरचना का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय समाज को निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है-
1. वर्गों का विभाजन-पुराने समय में भारतीय समाज जातियों में विभाजित था पर आजकल यह जाति के स्थान पर वर्गों में बँट गया है। व्यक्ति के वर्ग की स्थिति उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। शिक्षा, पैसे इत्यादि के कारण अलग-अलग वर्गों का निर्माण हो रहा है।

2. धर्म निरपेक्षता-पुराने समय में राजा महाराजाओं के समय में धर्म को काफ़ी महत्त्व प्राप्त था। राजा का जो धर्म होता था उसकी ही समाज में प्रधानता होती थी पर आजकल धर्म की जगह धर्म-निरपेक्षता ने ले ली है। व्यक्ति अन्य धर्मों को मानने वालों से नफ़रत नही करता बल्कि प्यार से रहता है। हर कोई किसी भी धर्म को मानने तथा उसके रीति-रिवाजों को मानने को स्वतंत्र है। समाज या राज्य का कोई धर्म नहीं है। भारतीय समाज में धर्म-निरपेक्षता देखी जा सकती है।

3. प्रजातंत्र-आज का भारतीय समाज प्रजातंत्र पर आधारित है। पुराने समय में समाज असमानता पर आधारित था परंतु आजकल समाज में समानता का बोल-बाला है। देश की व्यवस्था चुनावों तथा प्रजातंत्र पर आधारित है। इसमें प्रजातंत्र के मल्यों को बढ़ावा मिलता है। इसमें किसी से भेदभाव नहीं होता तथा किसी को उच्च या निम्न नहीं समझा जाता है।

प्रश्न 4.
आश्रम व्यवस्था के बारे में बताएं।
उत्तर:
हिंदू समाज की रीढ़ का नाम है-आश्रम व्यवस्था। आश्रम शब्द श्रम शब्द से बना है जिसका अर्थ है प्रयत्न करना। आश्रम का शाब्दिक अर्थ है जीवन यात्रा का पड़ाव। जीवन को चार भागों में बाँटा गया है। इसलिए व्यक्ति को एक पड़ाव खत्म करके दूसरे में जाने के लिए स्वयं को तैयार करना होता है। यह पड़ाव या आश्रम है। हमें चार आश्रम दिए गए हैं-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम-मनुष्य की औसत आयु 100 वर्ष मानी गई है तथा हर आश्रम 25 वर्ष का माना गया है। पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम के माने गए हैं। इसमें व्यक्ति ब्रह्म के अनुसार जीवन व्यतीत करता है। वह विद्यार्थी बन कर अपने गुरु के आश्रम में रह कर हर प्रकार की शिक्षा ग्रहण करता है तथा गुरु उसे अगले जीवन के लिए तैयार करता है।

2. गृहस्थ आश्रम-पहला आश्रम तथा विद्या खत्म करने के बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। यह 26-50 वर्ष तक चलता है। इसमें व्यक्ति विवाह करवाता है, संतान उत्पन्न करता है, अपना परिवार बनाता है. जीवन यापन करता है, पैसा कमाता है तथा दान देकर लोगों की सेवा करता है। इसमें व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता है।

3. वानप्रस्थ आश्रम-यह तीसरा आश्रम है जोकि 51-75 वर्ष तक चलता है। जब व्यक्ति इस उम्र में आ जाता है तो वह अपना सब कुछ अपने बच्चों को सौंपकर भगवान की भक्ति के लिए जंगलों में चला जाता है। इसमें व्यक्ति घर की चिंता छोड़कर मोक्ष प्राप्त करने में ध्यान लगाता है। जरूरत पड़ने पर वह अपने बच्चों को सलाह भी दे सकता है।

4. संन्यास आश्रम-75 साल से मृत्यु तक संन्यास आश्रम चलता है। इसमें व्यक्ति हर किसी चीज़ का त्याग कर देता है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवान की तरफ ध्यान लगा देता है। वह जंगलों में रहता है, कंद मूल खाता है तथा मोक्ष के लिए वहीं भक्ति करता रहता है तथा मृत्यु तक वहीं रहता है।

प्रश्न 5.
वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊंची स्थिति किस की थी?
उत्तर:
वर्ण व्यवस्था में चार प्रकार के वर्ण बताये गये हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं चौथा वर्ण। इन सभी में से सबसे ऊंची स्थिति या दर्जा ब्राह्मणों का माना गया था, बाकी तीनों वणों को ब्राह्मणों के बाद की स्थिति प्राप्त थी। सभी वर्गों से ऊपर की स्थिति के मुख्य कारण माने गये कि उस वर्ग ने समाज का धार्मिक क्षेत्र में एवं शिक्षा के क्षेत्र में मार्ग-दर्शन करना था। अर्थ यह है कि समाज को शिक्षा प्रदान करना था। इस प्रकार माना गया है कि ब्राह्मण वर्ण के व्यक्तियों को राज दरबारों में ‘राज गुरु’ का दर्जा प्राप्त होगा और राज्य प्रबंधन के विषय में राजा उनसे सलाह मशविरा करेगा एवं मार्गदर्शन लेगा। इस विषय में कोई भी व्यक्ति इस वर्ण के विरुद्ध नहीं बोल सकता था, परंतु इस बारे में राजा पुरोहित (राजगुरु) की आज्ञा मानने को बाध्य नहीं होता था। सामान्यतः उनकी राय को मान ही लिया जाता था।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

प्रश्न 6.
आश्रम व्यवस्था के सामाजिक महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
आश्रम व्यवस्था, व्यक्ति के जीवन का सर्वपक्षीय विकास है। इस व्यवस्था में व्यक्ति के जैविक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की ओर पूरा ध्यान दिया गया था। यह व्यवस्था मनुष्य को उसके सामाजिक कर्तव्यों के प्रति सचेत करती थी। व्यक्ति को उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने में भी सहायक होती थी। आश्रम व्यवस्था में अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों की ओर ज्यादा ध्यान दिलाती थी। इस कारण से समाज में ज्यादा संगठन सहयोग एवं संतुलन बनाये रखा जाता था। इस व्यवस्था में व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं का ध्यान भी रखा जाता था। भावार्थ कि आदमी का संपूर्ण विकास भी होता था। इस व्यवस्था के अनुसार वह अपनी सारी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को सही ढंग से निभा सकता था।

प्रश्न 7.
पुरुषार्थ के भिन्न-भिन्न आधार कौन-से हैं?
अथवा
पुरुषार्थ के मुख्य उद्देश्य क्या-क्या हैं?
उत्तर:
पुरुषार्थ का अर्थ है व्यक्ति का ‘मनोरथ’ या इच्छा। इस प्रकार मनुष्य की इच्छा सुखी जीवन जीने की होती है, पुरुषार्थ प्रणाली व्यक्ति की इन्हीं इच्छाओं, ‘आवश्यकता और ज़रूरतों को, जोकि मानवीय जीवन का आधार होती हैं पूरा करती है। मनुष्य की इन्हीं सारी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को पुरुषार्थ प्रणाली में ‘चार भागों’ में विभक्त कर दिया गया है और ये चारों भाग हैं ‘धर्म’, ‘अर्थ’, ‘काम’ और ‘मोक्ष’। इन सभी भागों में व्यक्ति अलग-अलग तरह के कार्य संपन्न करता है। धर्म का कार्य है व्यक्ति को नैतिक नियमों में रहना और सही आचरण करना। ‘अर्थ’ के संबंध में व्यक्ति धन को कमाता एवं खर्च करता है और अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करता है।

‘काम’ के पुरुषार्थ में वह अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करता है। विवाह इत्यादि करके संतान उत्पत्ति करके अपने वंश को आगे बढ़ाता है। इसी परंपरा में वह अंतिम पुरुषार्थ जोकि ‘मोक्ष’ माना गया है को ओर अग्रसर होता है जोकि मनुष्य का अंतिम उद्देश्य जाना जाता है। इस तरह से पुरुषार्थ मनुष्य के कर्तव्यों को निश्चित करता है एवं हर समय उसका मार्गदर्शन करता है।

प्रश्न 8.
संस्कार क्या होते हैं?
अथवा
संस्कार कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर:
संस्कार, शरीर की शुद्धि के लिए होते हैं, इस प्रकार व्यक्ति के जन्म से ही संस्कार शुरू हो जाते हैं। कई संस्कार तो जन्म से पहले ही हो जाते हैं और सारी जिंदगी चलते रहते हैं। हमारे गृह सूत्र के अनुसार 11 संस्कार हैं। ‘गोत्र’ धर्म अनुसार इनकी संख्या चालीस है। इस तरह मनु स्मृति में नौ संस्कारों के विषय में बताया गया है। इनमें से कुछ निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण संस्कार हैं-

  • गर्भाधान संस्कार
  • जाति धर्म संस्कार
  • नामकरण संस्कार
  • निष्करण संस्कार
  • मुंडन संस्कार
  • चूड़ाधर्म संस्कार
  • कर्ण वेध संस्कार
  • सवित्री संस्कार
  • समवर्तन संस्कार
  • विवाह संस्कार
  • अंतेष्ठि संस्कार।

प्रश्न 9.
वर्ण की उत्पत्ति का परंपरागत सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
परंपरागत पुरुष सिद्धांत-वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति की सबसे पहली चर्चा ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ में मिलती है, ऋग्वेद के गद्यांश में इस व्यवस्था का वर्णन है, इसी को ‘पुरुष-सूक्त’ कहा गया है। ‘पुरुष-सूक्त’ में सामाजिक व्यवस्था की तुलना एक पुरुष के साथ प्रतीक के रूप में की गई है, जोकि ‘सर्वव्यापी पुरुष’ या समूची मानव जाति का प्रतीक है। इस पुरुष को विश्व पुरुष, सर्वपुरुष या परम पिता परमात्मा भी कहा गया है। इस ‘विश्व पुरुष’ के अलग-अलग अंगों को अर्थात् शारीरिक अंगों को चारों वर्गों की उत्पत्ति की तरह दर्शाया गया है। इस ‘विश्व पुरुष’ के मुंह से ‘ब्राह्मणों’ की उत्पत्ति, बांहों से ‘क्षत्रियों की उत्पत्ति जांघों से ‘वैश्यों’ की उत्पत्ति एवं पैरों से ‘चौथे वर्ण’ की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है।

यह सभी प्रतीकात्मक है। इस व्यवस्था में ‘ब्राह्मण’ का कार्य मानव जाति को ज्ञान एवं उपदेश देना है जो मुंह के द्वारा ही संभव है। मनुष्य की बाहें (बाजू) शक्ति का प्रतीक हैं, इसलिए ‘क्षत्रिय’ का मुख्य कार्य समाज या देश की रक्षा करना है, वैश्यों के बारे में कहीं कुछ मतभेद मिलते हैं पर उनकी उत्पत्ति के बारे में जंघा से जो दर्शाया गया, जिससे यह प्रतीत होता है कि इस वर्ग का काम मुख्य रूप से भोजन उपलब्ध करवाना भावार्थ खेती इत्यादि या ‘व्यापार’ करना दर्शाया गया है।

इसी प्रकार चौथे वर्ण की उत्पत्ति को पैरों से माना गया है, जो यह पूरे शारीरिक ढांचे की सेवा करता है, इस तरह चौथे वर्ण का कार्य पूरे समाज की सेवा करना था। इस तरह इस ‘विश्व पुरुष’ के विभिन्न अंगों से वर्ण निकले हैं या पैदा हुए हैं। इस प्रकार जैसी उनकी उत्पत्ति हुई, उसी अनुसार उनको कार्य दिये गये हैं। इस तरह ये सभी अलग-अलग न होकर एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

प्रश्न 10.
वर्ण की उत्पत्ति का रंग का सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
वर्ण या रंग का सिद्धांत-वर्ण शब्द का अर्थ है रंग। महाभारत में भृगु ऋषि ने भारद्वाज मुनि को वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति का आधार आदमी की चमड़ी के रंग अनुसार बताया है। इस सिद्धांत के अनुसार सबसे पहले ‘ब्रह्मा’ से ‘ब्राह्मणों’ की उत्पत्ति हुई। इसके पश्चात् क्षत्रिय, वैश्य और चौथे वर्ण की। इस उत्पत्ति का मुख्य कारण मनुष्य की चमड़ी का रंग था। इस विचारधारा के अनुसार ‘ब्राह्मणों’ का रंग ‘सफ़ेद’, क्षत्रिय का ‘लाल’, वैश्यों का ‘पीला’ एवं चौथे वर्ण को ‘काला’ रंग प्राप्त हुआ।

भृगु ऋषि के अनुसार वर्ण का सिद्धांत सिर्फ रंग केवल चमड़ी के रंग के आधार पर न होकर बल्कि ‘कर्म’ एवं ‘गुणों’ पर आधारित है। उनके अनुसार जो लोग क्रोध करते हैं, कठोरता एवं वीरता दिखाते हैं वे ‘रजोगुण’ प्रधान होते हैं वहीं ‘क्षत्रिय’ कहलवाये। इसी प्रकार जिन लोगों ने खेतीबाड़ी एवं खरीद-फरोख्त में रुचि दिखाई वे पीत गुण (पित्तगुण) ‘वैश्य’ कहलवाये। जो लोग (प्राणी) लालची, लोभी और हिंसात्मक प्रवृत्ति के थे, वे लोग ‘सामगुण’ वाले कहलवाये गये। इस तरह रंग के आधार एवं कार्य-कलापों के लक्षणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था की नींव रखी गई।

प्रश्न 11.
वर्ण की उत्पत्ति के कर्म तथा धर्म का सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर:
कर्म एवं धर्म का सिद्धांत-मनु स्मृति में वर्ण धर्म के लिए अलग-अलग तरह का महत्त्व बताया गया है, इसमें कर्मों की महत्ता का वर्णन है। मनु के अनुसार शक्ति को अपने वर्ण द्वारा निर्धारित कार्य ही करने चाहिए। उसे अपने से उच्च या निम्न वर्गों वाला कार्य नहीं करना चाहिए। यह हो सकता है कुछ लोग अपने वर्ण अनुसार कार्य ठीक ढंग से न कर पायें, पर फिर भी उन्हें अपने वर्ण धर्म का पालन ज़रूर करना चाहिए। मनु स्मृति अनुसार किसी और वर्ण के कार्य को करने की अपेक्षा अपने वर्ण कार्य को आधा कर लेना ही अच्छा होता है।

इस सिद्धांत के अनुसार ‘वर्णों’ का प्रबंध, समाज की आवश्यकतानुसार होता है और यह था भी इसी प्रकार। इस सिद्धांत के अनुसार जो कार्य थे, वे थे-धार्मिक कार्यों की पूर्ति, समाज एवं राज्य का प्रबंध, आर्थिक कार्य और सेवा करने के कार्य। इन्हीं सभी कार्यों को करने हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं चौथे वर्ण से पूर्ति हुई। इस सिद्धांत अनुसार कर्म के साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। हिंदुओं की मान्यतानुसार पिछले जन्मों के कर्म वर्तमान जीवन को निर्धारित करते हैं। पिछले जन्म के कर्मों के आधार पर विभिन्न तरह के लोग अलग-अलग सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति करते हैं। इस तरह अपने अगले जन्म के निर्धारण के लिए व्यक्ति को वर्तमान में सही कार्य करने होंगे।

प्रश्न 12.
वर्ण की उत्पत्ति का गुणों का सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
गुणों का सिद्धांत-वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति के संबंध में ‘गुणों’ को आधार माना गया है। इस सिद्धांत के अनुसार, सभी इंसान जन्म के समय ‘निम्न’ होते हैं। ज्यों-ज्यों व्यक्ति गुणों को अपनाता जाता है त्यों-त्यों उसका समाज में वर्ण भी निश्चित होता जाता है। इस सिद्धांत अनुसार ज्यों-ज्यों व्यक्ति को संस्कार मिलते हैं और वह इन संस्कारों द्वारा, जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में प्रवेश करता है और भिन्न-भिन्न गुणों को धारण करता जाता है।

इस तरह जीवन के तरीके एवं गुणों के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता है। इसी के आधार पर ही वर्गों का वर्गीकरण होता है। इन्हीं ‘गुणों के सिद्धांत’ का वर्णन एवं व्याख्यान ‘गीता’ में भी किया गया है। इस सिद्धान्त को “त्रिगुण’ सिद्धांत भी कहा गया है। हिंदुओं की विचारधारा अनुसार मानवीय कार्यों में तीन प्रकार के गुणों को वर्णित किया गया है और वे गुण हैं-‘सतोगुण’, ‘रजोगुण’। ‘तमोगुण’ इस प्रकार ‘सतोगुण’ में सद्विचार, अच्छी सोच और सदाचार शामिल है।

‘रजोगुण’ में भोग-विलास, ऐश्वर्य का जीवन, अहंकार और बहादुरी का शुमार है। इन सभी गुणों में सभी से नीचे ‘तमोगुण’ आता है, जिसमें अशिष्टता, असभ्यता, अति भोग विलास इत्यादि को शामिल किया गया था। इस तरह ‘सतोगुण’ वाले व्यक्तियों को ब्राह्मणों की श्रेणी में रखा गया था। दूसरी श्रेणी में ‘रजोगुण’ वालों में क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ग को शामिल किया गया था।

अंत में ‘तमोगुण’ वाली प्रवृत्ति के व्यक्तियों को चौथे वर्ण का दर्जा दिया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे मौके मिलते हैं, जिसमें वह अपनी प्रतिभा का विकास कर सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार हर व्यक्ति को उसके स्वभाव (प्रकृति के अनुरूप) उसकी स्थिति एवं कार्य’ दिये जाते हैं, जोकि सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप ही होते हैं।

प्रश्न 13.
वर्ण की उत्पत्ति के द्विज तथा जन्म के सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर:
(i) द्विज सिद्धांत-भारद्वाज मुनि ने भृगु ऋषि के वर्ण सिद्धांत को मान्यता नहीं दी, फिर अपना ‘द्विज सिद्धांत’ पेश किया। इस अनुसार सबसे पहले ‘ब्राह्मण’ पैदा हुए, जिसे ‘द्विज’ का नाम दिया गया। द्विज लोग अपने कार्य-कलापों के आधार पर चार भिन्न-भिन्न श्रेणियों में बांटे गये, जिन्हें चार वर्ण कहा गया है। इन्हीं लोगों में से जो लोग ज्यादा ‘गुस्सैल’ एवं साहसी थे उन्हें क्षत्रिय कहा जाने लगा। इसी तरह जो व्यक्ति अपने ‘द्विज धर्म’ को छोड़कर खेतीबाड़ी एवं व्यापार करने लगे उन्हें ‘वैश्य’ की श्रेणी में माना गया और जो लोग अपना धर्म त्याग कर झूठ बोलने लग गये और अति भोगी-विलासी बन गये उन्हें ‘चौथा वर्ण’ कहा जाने लगा।

(ii) जन्म का सिदधांत-विदवान बी० के० चटोपाध्याय ने जन्म को वर्ण का कारण बताया है। इस संदर्भ में उन्होंने महाभारत की कई उदाहरणों का उल्लेख किया है। इस विषय में उन्होंने द्रोणाचार्य का वर्णन किया है जिसमें वह बताते हैं कि जन्म के आधार पर ही द्रोणाचार्य ‘क्षत्रिय’ जैसा कार्य करते हुए ब्राहमण कहलाये। इसी प्रकार पांडवों के स्वभाव में भारी अंतर होते हुए भी वे सभी क्षत्रिय कहलवाये। इसलिए यह स्पष्ट है कि परिवर्तनशील गुणों के आधार पर वर्ण को निर्धारित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 14.
व्यक्ति को जीवन में कौन-से ऋण उतारने पड़ते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति को जीवन में तीन ऋण उतारने पड़ते हैं तथा वह हैं देव ऋण, पितृ ऋण तथा ऋषि ऋण। देव ऋण उतारने के लिए व्यक्ति को देव यज्ञ करना पड़ता है तथा पवित्र अग्नि में भेंट देनी पड़ती है। यह ऋण व्यक्ति को इसलिए अदा करना पड़ता है ताकि उसको देवी-देवताओं से पानी, हवा, भूमि इत्यादि प्राकृतिक साधन प्राप्त होते हैं। पितृ का अर्थ है हमारे पूर्वज तथा बड़े बुजुर्ग। व्यक्ति अपने माता-पिता तथा पूर्वजों का ऋणि होता है क्योंकि वह उसे जन्म देकर बड़ा करते हैं।

इसलिए उसे यह ऋण उतारना पड़ता है। व्यक्ति ऋषियों का भी ऋणी होता है क्योंकि व्यक्ति को इनसे ही आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा उसे उनसे ही विद्या भी प्राप्त होती है। इसलिए व्यक्ति अपने गुरुओं का ऋणी होता है। इसलिए व्यक्ति को ब्रह्म यज्ञ करके, पढ़ाई करके तथा औरों को पढ़ाने के द्वारा गुरु के प्रति अपना ऋण चुकाना पड़ता है। इस प्रकार व्यक्ति को अपने जीवन में यह तीन ऋण उतारने पड़ते हैं।

प्रश्न 15.
वर्ण व्यवस्था का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारतीय हिंदू संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद का मिश्रण। इसके अनुसार परमात्मा को मिलना सबसे बड़ा सुख है, साथ-साथ में इस दुनिया के सुखों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसलिए इन दोनों तरह के सुखों के मिश्रण के लिए, हिंदू संस्कृति में एक व्यवस्था बनाई गई है जिसे ‘वर्ण-व्यवस्था’ कहते हैं। वर्ण प्रणाली एवं वर्ण व्यवस्था, हिंदू सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार होने के साथ-साथ हिंदू धर्म का एक अटूट अंग है।

इसलिए वर्ण के साथ संबंधित कर्तव्यों को ‘वर्ण धर्म’ कहा जाता है। वर्ण प्रणाली में व्यक्ति एवं समाज के बीच में जो संबंध है उन्हें क्रमानुसार पेश किया गया है, जिसकी सहायता से व्यक्ति सामाजिक संगठन को ठीक ढंग से चलाने में अपनी मदद देता है। वर्ण प्रणाली के द्वारा भारतीय समाज को चार अलग-अलग भागों में बांटा गया है ताकि सामाजिक कार्य ठीक ढंग से चल सकें।

निबंधात्मकपश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारत में एकता के कौन-कौन से तत्त्व थे?
उत्तर:
प्राचीन भारत में एकता के निम्नलिखित तत्त्व थे:
1. ग्रामीण समाज-प्राचीन भारत ग्रामीण समाज पर आधारित था। जीवन पद्धति ग्रामीण हुआ करती थी। लोगों का मुख्य कार्य कृषि हुआ करता था। काफ़ी ज़्यादा लोग कृषि या कृषि से संबंधित कार्यों में लगे रहते थे। जजमानी व्यवस्था प्रचलित थी। धोबी, लोहार इत्यादि लोग सेवा देने का काम करते थे। इनको सेवक कहते थे। बड़े-बड़े ज़मींदार सेवा के बदले पैसा या फसल में से हिस्सा दे देते थे। यह जजमानी व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। इस सबसे ग्रामीण समाज में एकता बनी रहती थी। नगरों में बनियों का ज्यादा महत्त्व था पर साथ ही साथ ब्राह्मणों इत्यादि का भी काफ़ी महत्त्व हुआ करता था। यह सभी एक-दूसरे से जुड़े हुआ करते थे जिससे समाज में एकता रहती थी।

2. संस्थाएं-समाज की कई संस्थाओं में गतिशीलता देखने को मिल जाती थी। परंपरागत सांस्कृतिक संस्थाओं में से नियुक्तियाँ होती थीं। शिक्षा के विद्यापीठ हुआ करते थे और बहुत-सी संस्थाएं हुआ करती थीं जो कि भारत में एकता का आधार हुआ करती थीं। ये संस्थाएं भारत में एकता का कारण बनती थीं।

3. भाषा-सभी भाषाओं की जननी ब्रह्म लिपि रहती है। हमारे सारे पुराने धार्मिक ग्रंथ जैसा कि वेद, पुराण इत्यादि सभी संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं। संस्कृत भाषा को पूरे भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इस को देववाणी भी कहते हैं क्योंकि यह कहा जाता है कि देवताओं की भी यही भाषा है।

4. आश्रम व्यवस्था-भारतीय समाज में एकता का सबसे बड़ा आधार हमारी संस्थाएं जैसे आश्रम व्यवस्था रही है। हमारे जीवन के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है जैसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। व्यक्ति को इन्हीं चार आश्रमों के अनुसार जीवन व्यतीत करना होता था तथा इनके नियम भी धार्मिक ग्रंथों में मिलते थे। यह आश्रम व्यवस्था पूरे भारत में प्रचलित थी क्योंकि हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष प्राप्त करना जिसके लिए सभी इसका पालन करते थे। इस तरह यह व्यवस्था भी प्राचीन भारत में एकता का आधार हुआ करती थी।

5. पुरुषार्थ-जीवन के चार प्रमुख लक्ष्य होते हैं जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं। यह हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। शुरू में सिर्फ ब्राह्मण हुआ करते थे। परंतु धीरे-धीरे और वर्ण जैसे क्षत्रिय, वैश्य तथा चतुर्थ वर्ण सभी का अंतिम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष प्राप्त करना होता था तथा सभी को इन पुरुषार्थों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना होता था। धर्म का योग अपनाते हुए, अर्थ कमाते हुए, समाज को बढ़ाते हुए मोक्ष को प्राप्त करना ही व्यक्ति का लक्ष्य है। सभी इन की पालना करते हैं। इस तरह यह भी एकता का एक तत्त्व था।

6. कर्मफल-कर्मफल का मतलब होता है काम। कर्म का भारतीय संस्कृति में काफ़ी महत्त्व है। व्यक्ति का अगला जन्म उसके पिछले जन्म में किए गए कर्मों पर निर्भर है। अगर अच्छे कर्म किए हैं तो जन्म अच्छी जगह पर होगा नहीं तो बुरी जगह पर। यह भी हो सकता है कि अच्छे कर्मों के कारण आपको जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाए। इसी को कर्म फल कहते हैं। यह भी प्राचीन भारतीय समाज में एकता का एक तत्त्व था।

7. तीर्थ स्थान-प्राचीन भारत में तीर्थ स्थान भी एकता का एक कारण हुआ करते थे। चाहे ब्राहमण हो या क्षत्रिय, या वैश्य सभी हिंदुओं के तीर्थ स्थान एक हुआ करते थे। सभी को एकता के सूत्र में बाँधने में तीर्थ स्थानों का काफ़ी महत्त्व हुआ करता था। मेलों, उत्सवों, पर्यों पर सभी इकट्ठे हुआ करते थे। तीर्थ स्थानों पर विभिन्न जातियों के लोग आया करते थे, संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ करता था। इस तरह वह एकता के सूत्र में बँध जाते थे। काशी, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, रामेश्वरम्, वाराणसी, प्रयाग तथा चारों धाम प्रमुख तीर्थ स्थान हुआ करते थे। इस तरह इन सभी कारणों को देख कर हम कह सकते हैं कि प्राचीन भारत में काफ़ी एकता हुआ करती थी तथा उस एकता के बहुत-से कारण हुआ करते थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया है।

प्रश्न 2.
प्राचीन भारतीय समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में बताओ।
उत्तर:
प्राचीन भारतीय समाज की निम्नलिखित सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएं थीं-
1. धर्म-हिंदू विचारधारा के अनुसार जीवन को संतुलित, संगठित तथा ठीक ढंग से चलाने के लिए कुछ नैतिक आदर्शों को बनाया गया है। ये सारे नैतिक आदर्श धर्म का रूप लेते हैं। इस तरह धर्म सिर्फ आत्मा या परमात्मा की ही व्याख्या नहीं करता बल्कि मनुष्य के संपूर्ण नैतिक जीवन की व्याख्या करता है। यह उन मानवीय संबंधों की भी व्याख्या करता है जो कि सामाजिक व्याख्या के आधार हैं। इस तरह धर्म एक अनुशासन है जो मनुष्य की आत्मा का विकास करके समाज को पूरा करता है तथा इस तरह धर्म प्राचीन भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

2. कर्मफल तथा पुनर्जन्म-पुराणों तथा धार्मिक ग्रंथों में लिखा गया है कि व्यक्ति को कर्म करने की आज़ादी है तथा इसी के अनुसार व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसको उसी के अनुसार फल भी भोगना पड़ेगा। उसके कर्मों के आधार पर ही उसे अलग-अलग योनियों में जन्म प्राप्त होगा। व्यक्ति के जीवन का परम उद्देश्य है जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति, जिस को मोक्ष कहते हैं। इसलिए व्यक्ति को उस प्रकार के कार्य करने चाहिए जोकि उसे मोक्ष प्राप्त करने में मदद करें। इससे समाज भी अनुशासन में रहता है।

3. परिवार-परिवार भी प्राचीन भारतीय समाज की एक प्रमुख विशेषता थी। प्राचीन भारत में संयुक्त परिवार, पितृ-सत्तात्मक, पितृस्थानी, पितृवंशी इत्यादि परिवार के प्रकार हुआ करते थे। परिवार में पिता की सत्ता चलती थी तथा उसे ही सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। परिवार में पुत्र का महत्त्व काफ़ी ज्यादा था क्योंकि धर्म के अनुसार कई संस्कारों तथा यज्ञों के लिए पुत्र ज़रूरी हुआ करता था। परिवार समाज की मौलिक इकाई माना जाता था तथा परिवार ही समाज का निर्माण करते थे।

4. विवाह-भारतीय समाज में चाहे प्राचीन हो या आधुनिक विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। एक विवाह के प्रकार को आदर्श विवाह माना गया है। विवाह को तोड़ा नहीं जा सकता था। किसी खास हालत में ही दूसरा विवाह करवाने की आज्ञा थी। विवाह के बाद ही परिवार बनता था इसलिए विवाह को गृहस्थ आश्रम की नींव माना जाता है। इस तरह प्राचीन भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता विवाह प्रथा हुआ करती थी।

5. राज्य-प्राचीन भारतीय समाज में राज्य एक महत्त्वपूर्ण विशेषता हुआ करती थी। राज्य का प्रबंध राजा करता था तथा राजा और प्रजा के संबंध बहुत अच्छे हुआ करते थे। राज्य का कार्यभार सेनापति, अधिकारी, मंत्रीगण संभाला करते थे यानि कि अधिकारों का बँटवारा था। इससे यह कह सकते हैं कि प्रजा की भी सुना जाती थी। चाहे राजा किसी की बात मानने को बाध्य नहीं होता था पर फिर भी उसे प्रजा के कल्याण के कार्य करने पड़ते थे।

6. स्त्रियों की स्थिति-प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। कोई भी यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सकता था। स्त्री को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त था। उसे अर्धांगिनी कहते थे। चाहे बाद के समय में स्त्रियों की स्थिति में काफ़ी गिरावट आ गई थी क्योंकि कई विद्वानों ने स्त्रियों के ऊपर पुरुषों के नियंत्रण पर जोर दिया है तथा कहा है कि स्त्री हमेशा पिता, पति तथा पुत्र के नियंत्रण में रहनी चाहिए। प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति फिर भी ठीक थी पर समय के साथ-साथ इनमें गिरावट आ गई थी।

7. शिक्षा-प्राचीन समय में शिक्षा को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। पहले तीन वर्गों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त था। शिक्षा गुरुकुल में ही मिलती थी। वेदों पुराणों का पाठ पढ़ाया जाता था। गुरु शिष्य के आचरण के नियम भी विकसित थे तथा शिक्षा लेने के नियम भी विकसित थे।

8. व्यक्ति और सामाजिक संस्थाएं-व्यक्ति तथा सामाजिक संस्थाएं प्राचीन समाज का महत्त्वपूर्ण आधार हुआ करती थीं। पुरुषार्थ, आश्रम व्यवस्था समाज का आधार हुआ करते थे। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष हुआ करते थे। व्यक्ति चौथे पुरुषार्थ यानि कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए पहले तीन पुरुषार्थों के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे। इसके साथ आश्रम व्यवस्था भी मौजूद थी।

जीवन को चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों में बाँटा गया था। व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति के लिए अपना जीवन इन चारों आश्रमों के अनुसार व्यतीत करते थे। यह सभी भारतीय समाज को एकता प्रदान करते थे। इसी के साथ कर्म की विचारधारा भी मौजूद थी कि व्यक्ति जिस प्रकार के कर्म करेगा उसी प्रकार से उसे योनि या मोक्ष प्राप्त होगा। मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य होता था तथा सभी उसको प्राप्त करने के प्रयास करते थे।

प्रश्न 3.
पश्चिमीकरण के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़े हैं? उनका वर्णन करो।
अथवा
पश्चिमीकरण अथवा पश्चिमी संस्कृति के कारण भारतीय समाज में क्या परिवर्तन आ रहे हैं? उनका वर्णन करो।
अथवा
भारत में पश्चिमीकरण के प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पश्चिमीकरण के भारतीय समाज पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े:
(i) परिवार पर प्रभाव-पश्चिमीकरण के कारण शिक्षित युवाओं तथा महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ गई। इस कारण लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संयुक्त परिवारों को छोड़ दिया तथा वह शहरों में केंद्रीय परिवार बसाने लगे। परिवार के सदस्यों के संबंधों के स्वरूप, अधिकारों तथा दायित्व में परिवर्तन हुआ।

(ii) विवाह पर प्रभाव-पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के अंतर्गत लोगों में विवाह के धार्मिक संस्कार के प्रति श्रद्धा कम हो गई तथा इसे एक समझौता समझा जाने लगा। प्रेम विवाह तथा तलाकों का प्रचलन बढ़ गया, अंतर्जातीय विवाह बढ़ने लग गए। एक विवाह को ही ठीक समझा जाने लगा। विवाह को धार्मिक संस्कार न मानकर एक समझौता समझा जाने लगा जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है।

(ii) नातेदारी पर प्रभाव-भारतीय समाज में नातेदारी की मनुष्य के जीवन में अहम् भूमिका रहती है। मगर पश्चिमीकरण के कारण व्यक्तिवाद, भौतिकवाद, गतिशीलता तथा समय धन है, आदि अवधारणाओं का भारतीय संस्कृति में तीव्र विकास हुआ। इससे ‘विवाह मूलक’ तथा ‘रक्त मूलक’ (Iffinal & Consaguineoun) दोनों प्रकार की नातेदारियों पर प्रभाव पड़ा। द्वितीयक एवं तृतीयक (Secondary & Tertiary) संबंध शिथिल पड़ने लगे। प्रेम विवाहों तथा कोर्ट विवाहों में विवाहमूलक नातेदारी कमज़ोर पड़ने लगी।

(iv) जाति प्रथा पर प्रभाव-सहस्रों वर्षों से भारतीय समाज की प्रमुख संस्था, जाति में पश्चिमीकरण के कारण अनेक परिवर्तन हुए। अंग्रेजों ने भारत में आने के बाद बड़े-बड़े उद्योग स्थापित किये और यातायात तथा संचार के साधनों जैसे-बस, रेल, रिक्शा, ट्राम इत्यादि का विकास व प्रसार किया। इसके साथ-साथ भारतीयों को डाक, तार, टेलीविज़न, अख़बारों, प्रैस, सड़कों व वायुयान आदि सविधाओं को परिचित कराया। बड़े-साथ उदयोगों की स्थापना की गई। इनके कारण विभिन्न जातियों के लोग एक स्थान पर उद्योग में कार्य करने लग पड़े।

एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए आधुनिक यातायात के साधनों का प्रयोग होने लगा। इससे उच्चता व निम्नता की भावना में भी कमी आने लगी। एक जाति के सदस्य दूसरी जाति के व्यवसाय को अपनाने लग पड़े।

(v) अस्पृश्यता-अस्पृश्यता भारतीय जाति व्यवस्था का अभिन्न अंग रही है मगर समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व पर आधारित पश्चिमी मूल्यों ने जातीय भेदभाव को कम किया। जाति तथा धर्म पर भेदभाव किये बिना सभी के लिये शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश की अनुमति, सभी के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था, समान योग्यता प्राप्त व्यक्तियों के लिये समान नौकरियों पर नियुक्ति आदि कारकों से अस्पृश्यता में कमी आई। अंग्रेजों ने औद्योगीकरण व नगरीकरण को बढ़ावा दिया। विभिन्न जातियों के लोग रेस्टोरेंट, क्लबों में एक साथ खाने-पीने एवं बैठने लग पड़े। अतः पश्चिमीकरण के कारण भारत में अस्पृश्यता में कमी आई।

(vi) स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन -अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय भारत में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न थी। सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल-विवाह का प्रचलन था तथा विधवा पुनर्विवाह पर रोक होने के कारण महिलाओं की स्थिति काफ़ी दयनीय थी। अंग्रेज़ों ने सती प्रथा को अवैध घोषित किया तथा विधवा विवाह को पुनः अनुमति दी। पश्चिमी शिक्षा के प्रसार व प्रचार के माध्यम से बूंघट प्रथा में कमी आई।

पश्चिमीकृत महिलाओं ने पैंट-कमीज़ पहननी आरंभ की। लाखों महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना आई और उन्होंने केवल घर को संभालने की पारंपरिक भूमिका को त्यागकर पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर दफ्तरों में विभिन्न पदों पर नौकरी करनी आरंभ कर दी। इस तरह स्त्रियां अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने में सफ़ल हुईं।

(vii) नव प्रशासनिक व्यवस्था का विकास–अंग्रेजी शासनकाल में भारत में आधुनिक नौकरशाही का विकास किया गया। असंख्य नये प्रशासनिक पदों का सृजन किया गया। भारतीय असैनिक सेवाएं (Indian Civil Services) प्रारंभ की जिनके माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं द्वारा उच्च अधिकारियों का चयन किया जाने लगा। नौकरशाही की बड़ी संरचना का निर्माण किया।

(viii) आर्थिक संस्थाओं का विकास-ब्रिटेन के भारत में शासनकाल के दौरान अनेक आर्थिक संस्थाओं का विकास हुआ। बैंकों की स्थापना की गई। श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण का विकास हुआ। देश में पूंजीवाद का बीजारोपण हुआ। कृषि एवं औद्योगिक श्रमिकों की समस्याएं बढ़ीं। वर्ग संघर्षों में बढ़ावा हुआ। हड़ताल, घेराव, तोड़-फोड़ तथा तालाबंदी होने लगी। आर्थिक संस्थाओं के विकास ने आज़ादी सेर आज़ादी के बाद देश में अर्थव्यवस्था को नया मोड़ दिया।

प्रश्न 4.
उपनिवेशवाद का क्या अर्थ है? औपनिवेशिक काल में भारत में किस प्रकार राष्ट्रवाद का उदय हुआ?
अथवा
भारत में राष्ट्रवाद के विकास के दो कारण लिखिए।
अथवा
उपनिवेशवाद ने अपने शत्रु राष्ट्रवाद को जन्म दिया। इस कथन की पुष्टि करें।
अथवा
‘उपनिवेशवाद की समझ’ के संदर्भ में विस्तृत चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उपनिवेशवाद की प्रक्रिया औद्योगिक क्रांति के पश्चात् शुरू हुई जब पश्चिमी देशों के पास अधिक पैसा तथा बेचने के लिए अत्यधिक माल उत्पन्न होना शुरू हुआ होगा। पश्चिमी अथवा शक्तिशाली देशों के द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के देशों को जीतने की प्रक्रिया तथा जीते हुए देशों में अपना शासन स्थापित करने की प्रक्रिया को उपनिवेशवाद कहा जाता है। उपनिवेशवाद का दौर 18वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक चला। इसमें मुख्य साम्राज्यवादी देश थे इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी तथा इटली इत्यादि। बाद में इसमें रूस, अमेरिका तथा जापान जैसे देश भी शामिल हो गए।

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण :-भारत में राष्ट्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे:
(i) देश का राजनीतिक एकीकरण-ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने सभी भारतीय राज्यों को इकट्ठा करके देश का राजनीतिक एकीकरण कर दिया। इससे देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई तथा देश को एक ही प्रशासन तथा कानून प्राप्त हुए। लोगों में उपनिवेशवाद विरोधी भावनाओं के आने से एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण का उदय हुआ।

(ii) जनता का आर्थिक शोषण-ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश राज्य की सरकारों ने भारत के आर्थिक शोषण की नीति अपनाई। भारत की आर्थिक संपदा ब्रिटेन को जाने लगी तथा देश का आर्थिक विकास रुक गया। इसका परिणाम बेरोज़गारी, निर्धनता तथा सूखे के रूप में सामने आया। किसानों के ऊपर नयी भूमि व्यवस्थाएं लाद दी गईं। इस प्रकार की आर्थिक दुर्दशा से जनता में रोष उत्पन्न हो गया तथा उन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध करना शुरू कर दिया।

(iii) पश्चिमी शिक्षा तथा विचार-भारत की ब्रिटिश विजय से भारतीयों को यूरोपियन लोगों में संपर्क आने का मौका प्राप्त हुआ। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में राष्ट्रवादी आंदोलन चल रहे थे। भारतीयों ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनी शुरू की तथा पश्चिमी पुस्तकें पढ़नी शुरू की। समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के पश्चिमी विचारों का भारतीयों पर भी प्रभाव पड़ा। इससे भारतीयों को उपनिवेशवाद के परिणामों तथा भारत के शोषण का पता चला। इससे भारत के लोगों में जागृति उत्पन्न हो गयी।

(iv) प्रैस का योगदान-जनता को जागृत करने में प्रैस का बहुत बड़ा योगदान होता है। भारतीय तथा ब्रिटिश प्रैस ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न की। बहुत से समाचारपत्र छपने शुरू हो गए जिन्होंने जनता को उपनिवेशवाद के विरुद्ध जागृत किया।

(v) सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का योगदान-सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारतीयों में चेतना जागृत की। राजा राम मोहनराय, देवेंद्र नाथ, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर इत्यादि ने देश में राष्ट्रवाद जगाने में बड़ी भूमिका अदा की, जिस कारण जनता धीरे-धीरे जागृत हो गयी।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि देश में उपनिवेशवाद के विरोध में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न करने में बहुत से कारणों का योगदान था।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

प्रश्न 5.
पुरुषार्थों के आधारों के महत्त्व का वर्णन करो।
उत्तर:
हिंदू धर्म शास्त्रों में जीवन के चार उद्देश्य दिए गए हैं तथा इन चार उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चार मुख्य पुरुषार्थ भी दिए गए हैं। इन पुरुषार्थों के आधारों का महत्त्व इस प्रकार है
1. धर्म का महत्त्व-धर्म का हमारे सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्व है क्योंकि धर्म व्यक्ति की अलग-अलग इच्छाओं, ज़रूरतों, कर्तव्यों तथा अधिकारों में संबंध स्थापित करता है। यह इन सभी को व्यवस्थित तथा नियमित भी करता है। जब व्यक्ति तथा समाज अपने कर्तव्यों की धर्म के अनुसार पालना करते हैं तो समाज में शांति तथा व्यवस्था स्थापित हो जाती है तथा वह उन्नति की तरफ कदम बढ़ाता है।

धार्मिक शास्त्रों में लिखा गया है कि अगर व्यक्ति अर्थ तथा काम की पूर्ति धर्म के अनुसार करे तो ही वह ठीक है तथा अगर वह इन की पूर्ति धर्म के अनुसार न करे तो समाज में नफ़रत, द्वेष इत्यादि बढ़ जाते हैं। यह कहा जाता है कि धर्म ही सच है। इसके अलावा सब कुछ झूठ है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन धर्म के बिना संभव ही नहीं है। धर्म प्रत्येक व्यक्ति का तथा और सभी पुरुषार्थों का मार्ग दर्शन करता है। इस तरह धर्म का हमारे लिए बहुत महत्त्व है।

2. अर्थ का महत्त्व-मनष्य की आर्थिक ज़रूरतों की पर्ति अर्थ दवारा होती है। धर्म से संबंधित सभी कार्य अर्थ की मदद से ही पूर्ण होते हैं। व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार की इच्छा अर्थ तथा धन द्वारा ही पूर्ण होती है। व्यक्ति को अपने जीवन में पाँच यज्ञ पूर्ण करने ज़रूरी होते हैं तथा यह अर्थ की मदद से ही हो सकते हैं। व्यक्ति अपने धर्म की पालना भी अर्थ की मदद से ही कर सकता है। पुरुषार्थ व्यवस्था में अर्थ को काफ़ी महत्त्व दिया गया है ताकि वह उचित तरीके से धन इकट्ठा करे तथा अपनी ज़रूरतें पूर्ण करे। व्यक्ति को अपने जीवन में कई ऋणों से मुक्त होना पड़ता है तथा यह अर्थ की मदद से ही हो सकते हैं। इस तरह अर्थ का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है।

3. काम का महत्त्व-अगर समाज तथा संसार की निरंतरता को कायम रखना है तो यह काम की मदद से ही संभव है। व्यक्ति को काम से ही मानसिक तथा शारीरिक सुख प्राप्त होते हैं। इस सुख को प्राप्त करने के बाद ही वह अंतिम उद्देश्य अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने की तरफ बढ़ता है। काम से ही स्त्री तथा पुरुष का मिलन होता है तथा संतान उत्पन्न होती है।

काम से ही व्यक्ति में बहुत-सी इच्छाएं जागृत होती हैं जिससे मनुष्य समाज में रहते हुए अलग-अलग कार्य करता है तथा समाज का विकास करता है। धर्म तथा अर्थ के लिए काम बहुत ही आवश्यक है। काम की सहायता से व्यक्ति अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ धार्मिक ऋणों से मुक्त होता है तथा काम की मदद से पैदा इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए धन कमाता है। इस तरह काम भी हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।

4. मोक्ष का महत्त्व-चार पुरुषार्थों में से अंतिम पुरुषार्थ है मोक्ष। हिंदू शास्त्रों में सभी कार्य मोक्ष को ही ध्यान में रखकर निश्चित किए गए हैं। मोक्ष की इच्छा ही व्यक्ति को बिना किसी चिंता तथा दुःख के अपने कार्य सुचारु रूप के लिए प्रेरित करती है। प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम उद्देश्य होता है मोक्ष प्राप्त करना तथा इसलिए ही वह अपना कार्य सुचारु रूप से करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि प्रत्येक पुरुषार्थ के आधारों का अपना-अपना महत्त्व है तथा व्यक्ति अंतिम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए पहले तीन पुरुषार्थों के अनुसार कार्य करता है।

 भारतीय समाज : एक परिचय HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हम सभी समाज में रहते हैं तथा हमें समाज के बारे में कुछ न कुछ अवश्य ही पता होता है। इस प्रकार समाजशास्त्र भी एक ऐसा विषय है जिसे कोई भी शून्य से शुरू नहीं करता। समाजशास्त्र में हम समाज का अध्ययन करते हैं तथा हमें समाज के बारे में कुछ न कुछ अवश्य ही पता होता है।

→ हमें और विषयों का ज्ञान तो विद्यालय, कॉलेज इत्यादि में जाकर प्राप्त होता है परंतु समाज के बारे में हमारा ज्ञान बिना किसी औपचारिक शिक्षा प्राप्त किए ही बढ़ जाता है। इसका कारण यह है कि हम समाज में रहते हैं, पलते हैं तथा इसमें ही बड़े होते हैं। हमारा इसके बारे में ज्ञान अपने आप ही बढ़ता रहता है।

→ इस पाठ्य-पुस्तक का उद्देश्य भारतीय समाज से विद्यार्थियों का परिचय कराना है परंतु इसका परिचय सहज बोध से नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से करवाना है। यहां पर उन सामाजिक प्रक्रियाओं की तरफ संकेत किया जाएगा जिन्होंने भारतीय समाज को एक आकार दिया है।

→ अगर हम ध्यान से भारतीय समाज का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि उपनिवेशिक दौर में एक विशेष भारतीय चेतना उत्पन्न हुई। अंग्रेजों के शासन अथवा उपनिवेशिक शासन ने न केवल संपूर्ण भारत को एकीकृत किया बल्कि पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन तथा आधुनिकीकरण जैसी शक्तिशाली प्रक्रियाओं से भारत को परिचित कराया। उस प्रकार के परिवर्तन भारतीय समाज में लाए गए जो पलटे नहीं जा सकते थे। इससे समाज भी वैसा हो गया जैसा पहले कभी भी नहीं था।

→ औपनिवेशिक शासन में भारत का आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकीकरण हुआ परंतु इसकी भारी कीमत चुकाई गई। उपनिवेशिक शासन द्वारा भारत का शोषण किया गया तथा यहां प्रभुत्व स्थापित किया गया। इसके घाव के निशान अभी भी भारतीय समाज में मौजूद हैं। एक सच यह भी है कि उपनिवेशवाद से ही राष्ट्रवाद की उत्पत्ति हुई।

→ ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रिटिश उपनिवेशवाद में भारतीय राष्ट्रवाद को एक आकार प्राप्त हुआ। उपनिवेशवाद के गलत प्रभावों ने हमारे समुदाय के अलग-अलग भागों के एकीकृत करने में सहायता की। पश्चिमी शिक्षा के कारण मध्य वर्ग उभर कर सामने आया जिसने उपनिवेशवाद को उसकी अपनी ही मान्यताओं के आधार पर चुनौती दी।

→ यह एक जाना-पहचाना सत्य है कि उपनिवेशवाद तथा पश्चिमी शिक्षा ने परंपराओं को दोबारा खोजने के कार्य (Rediscovery) को प्रोत्साहित किया। इस खोज के कारण ही कई प्रकार की सांस्कृतिक तथा सामयिक गतिविधियों का विकास हुआ। इससे राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तरों पर समुदाय के नए उत्पन्न रूपों को सुदृढ़ता प्राप्त हुई।

→ उपनिवेशवाद के कारण भारत में बहुत-से नए वर्ग तथा समुदाय उत्पन्न हुए जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नगरों में विकसित हुआ मध्य वर्ग राष्ट्रवाद का प्रमुख वाहक था जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के कार्य को नेतृत्व प्रदान किया। उपनिवेशिक हस्तक्षेपों के कारण हमारे धार्मिक तथा जातीय समुदायों को एक निश्चित रूप प्राप्त हुआ। इन्होंने भी बाद के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समकालीन भारतीय समाज का भावी इतिहास जिन जटिल प्रक्रियाओं द्वारा विकसित हुआ तथा इसका अध्ययन ही हमारा उद्देश्य है।

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HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
1990 के बाद भारतीय राजनीति में उभरती प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1990 के बाद भारतीय राजनीति में उभरने वाली प्रमुख प्रवृत्तियां इस प्रकार हैं:

1. दलीय प्रणाली का बदला हुआ स्वरूप (Changing Nature of Party System):
भारत में दलीय प्रणाली के स्वरूप में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। नवम्बर 1989, मई-जून 1991, अप्रैल-मई 1996 और फरवरी मार्च 1998 के लोकसभा के चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ जिस कारण चारों बार अल्पमत की सरकार बनी जिन्हें अपने अस्तित्व के लिए विभिन्न दलों पर निर्भर रहना पड़ा। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल या गठबन्धन को बहुमत नहीं मिला।

कांग्रेस ने अन्य दलों के समर्थन से ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन’ के नाम से सरकार बनाई। 2014 एवं 2019 में हुए 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के चुनावों में यद्यपि भाजपा ने अकेले ही (282 सीटें एवं 303 सीटें) लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया, परन्तु भाजपा ने दोनों ही बार श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठबन्धन सरकार (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन) का ही निर्माण किया। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में दलीय प्रणाली के स्वरूप में परिवर्तन आया है।

2. शक्तिशाली विरोधी दल का उदय (Rise of Powerful Opposition Party):
1977 ई० के आम चुनावों के बाद केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और कांग्रेस को केवल 153 सीटें प्राप्त हुईं। कांग्रेस की इस हार से केन्द्र में पहली बार संगठित विरोधी दल का उदय हुआ।

3. राजनीति में जातिवाद की भूमिका (Role of Casteism in Politics):
भारतीय राजनीति में जातिवाद एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है। चुनावों के समय उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर किया जाता है। नेताओं का उत्थान व पतन जाति के समर्थन पर ही निर्भर करता है।

4. बहु-दलीय प्रणाली के साथ-साथ साम्प्रदायिक दलों का अस्तित्व (Existence of Communal parties with Multy Party System):
भारत में साम्प्रदायिक दल भी पाए जाते हैं यद्यपि धर्म-निरपेक्ष राज्य में साम्प्रदायिक दलों का भविष्य उज्ज्वल नहीं है तथा उनके प्रचार और गतिविधियों से देश का राजनीतिक वातावरण दूषित हो जाता है।

5. सरकार के निर्माण में स्वतन्त्र सदस्यों की भूमिका (Role of Independent Members to make Govt.):
भारत में बहु-दलीय व्यवस्था होने के साथ-साथ संसद् तथा राज्य विधानसभाओं में स्वतन्त्र सदस्यों की संख्या बहुत पाई जाती है। स्वतन्त्र सदस्य स्वस्थ प्रजातन्त्र के हित में नहीं है। दल-बदल के लिए स्वतन्त्र सदस्य काफ़ी हद तक ज़िम्मेवार हैं। स्वतन्त्र सदस्य जब चाहे किसी दल के साथ मिल सकते हैं और जब चाहे बाहर आकर फिर स्वतन्त्र हो जाते हैं। लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि स्वतन्त्र उम्मीदवारों को कोई विशेष सफलता नहीं मिलनी चाहिए।

6. चुनावों में हिंसा का प्रयोग (Use of Violence in Elections):
भारत के चुनावों में कुछ राजनीतिक दल अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हिंसक साधनों का प्रयोग करते हैं।

7. भारतीय राजनीति का अपराधीकरण होना (Criminalisation of Indian Politics):
स्वतन्त्रता के बाद भारतीय राजनीति में धीरे-धीरे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का समावेश होता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 200 के लगभग विधायक आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। इतनी बड़ी संख्या में अपराधियों का विधानसभा में पहुंचना भारत जैसे लोकतन्त्र के लिए हानिकारक है।

8. असैद्धान्तिक चुनावी गठजोड़ (Non-Principle Alliances of Political Parties):
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक मुख्य प्रवृत्ति असैद्धान्तिक चुनावी गठजोड़ का होना है। प्राय: सभी राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति के लिए सिद्धान्तहीन समझौते करने के लिए तत्पर रहते हैं। अप्रैल-मई, 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनावों में प्रायः सभी दलों ने सिद्धान्तहीन समझौते किए।

9. प्रादेशिक दलों की भूमिका (Role of Regional Parties):
भारतीय राजनीति में अन्य प्रवृत्ति उभर कर आई है और वह है केन्द्रीय राजनीति में प्रादेशिक दलों की भूमिका। अप्रैल-मई, 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों ने कई क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठजोड़ किया। यह प्रादेशिक दल लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को भड़का कर राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं।

10. राष्ट्रीय समस्याओं की जगह क्षेत्रीय समस्याओं पर बल (More importance to Regional Problem than National Problem):
भारतीय राजनीति की एक अन्य प्रवृत्ति यह है कि चुनाव प्रचार अभियान में प्रायः राष्ट्रीय विषयों को पीछे छोड़कर क्षेत्रीय समस्याओं पर बल दिया जाने लगा।

11. राजनीति में भ्रष्टाचार (Corruption in Politics):
भारत की राजनीति में भ्रष्टाचार ने अपना स्थान बना लिया है। प्राय: सभी राजनीतिक दल चुनावों के अवसर पर एक-दूसरे के ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं। राजनीतिज्ञ चुनाव जीतने के लिए प्रायः भ्रष्ट साधनों का उपयोग करते हैं। मन्त्री पद पर आसीन उम्मीदवार अपने पद और शासन की मशीनरी का अनुचित प्रयोग करते हैं।

12. कांग्रेस के आधिपत्य की समाप्ति (End of Congress Party Dominance):
भारत में लम्बे समय तक विशेषकर 1977 तक कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व रहा, परन्तु वर्तमान समय में कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व समाप्त हो चुका है और उसकी जगह अन्य दलों ने ले ली है।

प्रश्न 2.
जनता दल के उदय एवं विभाजन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
भारतीय राजनीति में वर्ष 1988 का एक विशेष महत्त्व है क्योंकि इस वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर एक नए राजनीतिक दल ‘जनता दल’ का निर्माण किया गया है। जिस प्रकार 1978 में कांग्रेस की एकता स्थिर न रहने के कारण दल दो भागों में विभाजित हो गया था, उसी प्रकार 1987 में एक बार फिर कांग्रेस (आई) के कई प्रमुख नेताओं ने इस दल से त्याग-पत्र दे दिया।

इन नेताओं में भूतपूर्व वित्त मन्त्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, श्री रामधन, श्री अरुण नेहरू, श्री आरिफ मोहम्मद खां जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। कांग्रेस (आई) से पृथक् होकर 2 अक्तूबर, 1987 को श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ‘जन मोर्चा’ के गठन की घोषणा की। इसका मुख्य उद्देश्य देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचे में लोकतान्त्रिक तथा क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के उद्देश्य से देश व्यापी आन्दोलन छेड़ना था।

इसके साथ ही भारत में काफ़ी लम्बे समय से विपक्षी दल एक ऐसे नये राजनीतिक दल का निर्माण करने का प्रयास कर रहे थे जो कांग्रेस (आई) का सशक्त विकल्प बन सके। ये विपक्षी दल इस दिशा के प्रति निरन्तर प्रयास करते रहे। अन्त में 26 जुलाई, 1988 को चार विपक्षी दलों जनता पार्टी, लोकदल, कांग्रेस (स) और जन मोर्चा के विलय की औपचारिक घोषणा कर दी गई और एक नये राजनीतिक दल को स्थापित किया गया।

इस नये दल का नाम समाजवादी जनता दल रखा गया। इस दल के गठन की घोषणा करने में हरियाणा के मुख्यमन्त्री श्री देवी लाल की प्रमुख भूमिका रही। इसके उपरान्त राजनीति में पिछले महीनों की कशमकश के बाद 11 अक्तूबर, 1988 को बंगलौर में ‘जनता दल’ के गठन की विधिवत् घोषणा कर दी गई।श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को उस नये दल का प्रधान मनोनीत किया गया। इस नये दल का भारतीय राजनीति-नए बदलाव चुनाव चिह्न ‘चक्र के बीच हलधर’ होगा तथा दल का झण्डा हरे रंग का होगा जिस पर चुनाव चिह्न सफ़ेद रंग में ऊपर से अंकित होगा।

जनता दल का विभाजन-23 अक्तूबर, 1990 को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। भतपूर्व प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह ने त्याग-पत्र देने के स्थान पर लोकसभा में अपना बहमत सिद्ध करने का निर्णय किया। 7 नवम्बर, 1990 को लोकसभा का अधिवेशन बुलाया गया। जनता दल के असन्तुष्ट सांसदों ने नेतृत्व परिवर्तन की मांग की। 5 नवम्बर, 1990 को प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह से इस्तीफा देने की मांग करने वाले जनता दल के असन्तुष्ट सांसदों ने जनता दल संसदीय पार्टी की बैठक का बहिष्कार कर चौधरी देवी लाल के निवास स्थान पर बैठक की और श्री चन्द्रशेखर को अपना नेता चुना।

दूसरी ओर संसदीय पार्टी की नियमित बैठक में एक प्रस्ताव पारित कर श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को वर्तमान स्थिति से निपटने के लिए उचित कदम उठाने के लिए अधिकृत किया गया।श्री चन्द्रशेखर सहित जनता दल के तीस असन्तुष्ट सांसदों को पार्टी से निकाल दिया गया। इस प्रकार 5 नवम्बर, 1990 को जनता दल का विधिवत् विभाजन हो गया। फरवरी, 1992 में जनता दल का पुनः विभाजन हो गया, जबकि अजीत सिंह गुट जनता दल से अलग हो गया। 28 जुलाई, 1993 को जनता दल में तीसरा विभाजन हुआ जब जनता दल (अ) के सात सांसदों ने कांग्रेस (इ) के पक्ष में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान किया और अगस्त, 1993 में सभी सांसद् कांग्रेस (इ) में शामिल हो गए।

28 जून, 1994 को जनता दल में चौथा विभाजन हुआ। जनता दल के 14 सदस्य जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में जनता दल से पृथक् हो गए और उन्होंने जनता दल (ज) का गठन किया। 20 अक्तूबर, 1994 को जनता दल (ज) ने अपने दल का नाम समता पार्टी रख लिया और 23 नवम्बर, 1994 को चुनाव आयोग ने समता पार्टी को राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्रदान की।

परन्तु 24 मार्च, 1999 को चुनाव आयोग ने इसकी राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता समाप्त करते हुए इसे राज्य स्तर के दल के रूप में मान्यता प्रदान की। 21 जुलाई, 1999 को जनता दल का सातवीं बार विभाजन हुआ। इस दिन जनता दल के नेता शरद यादव वाले गुट (राम विलास पासवान, जे० एच० पटेल आदि) के साथ समता पार्टी व लोक शक्ति का विलय हो गया।

इस नए दल का नाम जनता दल (यूनाइटेड ) रखा गया। दूसरी ओर जनता दल के दूसरे गुट ने जिसमें मधु दण्डवते, एस० आर० बोम्मई, सी० एम० इब्राहिम आदि सम्मिलित थे, एच० डी० देवेगौड़ा के नेतृत्व में जनता दल (सैक्यूलर) के नाम से अलग दल बना लिया। 30 सितम्बर, 2000 को चुनाव आयोग ने जनता दल (सैक्यूलर) एवं जनता दल (यूनाइटिड) दोनों की राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता रद्द कर दी।

चुनाव आयोग ने जनता दल के चुनाव चिह्न ‘चक्र’ को जब्त करके जनता दल (सैक्यूलर) को ‘ट्रैक्टर चलाता किसान’ एवं जनता दल (यूनाइटिड) को ‘तीर’ चुनाव चिह्न प्रदान किया। 28 नवम्बर, 2000 को जनता दल का आठवां विभाजन हुआ। इस दिन जनता दल के नेता राम विलास पासवान अपने समर्थकों के साथ जनता दल से अलग हो गए और उन्होंने ‘जनशक्ति’ नाम से एक नई पार्टी बना ली।

प्रश्न 3.
भारतीय जनता पार्टी के उदय पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
यद्यपि जुलाई, 1979 में जनता पार्टी का विभाजन दोहरी सदस्यता के प्रश्न पर हुआ था, परन्तु विभाजन के बाद भी दोहरी सदस्यता का विवाद समाप्त नहीं हुआ। 19 मार्च, 1980 को जनता पाटी के केन्द्र संसदीय बोडे ने बहुमत से फैसला किया कि जनता पार्टी का कोई भी अधिकारी, विधायक और संसद सदस्य राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की रोजमर्रा की गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सकता। बोर्ड की बैठक में श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लाल कृष्ण अडवानी और श्री नाना जी देशमुख ने बोर्ड के इस निर्णय का विरोध किया और इस सम्बन्ध में तैयार किए गए प्रस्ताव में अपना विमत दर्ज कराया।

बाद में अलग से एक वक्तव्य जारी कर इन नेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि भू० पू० जनसंघ घटक अभी पार्टी को भले ही न छोड़े पर वह अपने संख्या बल के आधार पर पार्टी के नेतृत्व को जल्दी ही चुनौती देगा। इस वक्तव्य में जनसंघ घटक ने साफ-साफ कहा कि संसदीय बोर्ड और राष्ट्रीय कार्यकारिणी का गठन चुनाव से नहीं हुआ। वे तदर्थ हैं और इनका तथा उनके सभी पदाधिकारियों का शीघ्र चुनाव होना चाहिए, परन्तु पार्टी के अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर ने पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाने की मांग को रद्द करते हुए घोषणा की कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी को ऐसे मामलों में फैसला लेने का अन्तिम अधिकार है।

4 अप्रैल को जनता पार्टी का एक और विभाजन प्रायः निश्चित हो गया, जब पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने अपने संसदीय बोर्ड के प्रस्ताव का अनुमोदन कर पार्टी के विधायकों और पदाधिकारियों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों में भाग लेने पर रोक लगा दी। अनुमोदन प्रस्ताव के पक्ष में 17 सदस्यों ने और विरोध में 14 सदस्यों ने मत दिए। श्री अडवानी के शब्दों में, “जनता पार्टी की कार्यसमिति में पहली बार मतदान हुआ और वह भी किसी एक गुट को पार्टी से निकालने के लिए।”

5 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व जनसंघ के सदस्यों ने नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन किया और एक नई पार्टी बनाने का निश्चय किया। सम्मेलन की अध्यक्षता श्रीमती विजयराजे सिंधिया ने की। 6 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व विदेश मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन किया गया। यद्यपि जनता पार्टी का विभाजन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ, जनसंघ के सम्बन्धों पर हुआ था फिर भी जनसंघ को पुनर्जीवित नहीं किया गया, क्योंकि श्री वाजपेयी के शब्दों में हमारे साथ पिछले तीन वर्ष का अनुभव है, व्यापक सम्पर्क है जिन्हें हम अपने आन्दोलन का भाग बनाएंगे और इसलिए भी कि वे लोग हमारे साथ आएं जो कभी जनसंघ में नहीं थे या जिनका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से कोई नाता ही नहीं था।

इस गुट को कुछ ऐसे लोगों को भी अपने पक्ष में करने में सहायता मिली जिनका सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या जनसंघ से नहीं था। भूतपूर्व आवास मन्त्री सिकन्दर बख्त और भूतपूर्व विधि मन्त्री शान्ति भूषण तथा संसद् सदस्य राम जेठमलानी इनमें प्रमुख थे। इस सम्मेलन में लगभग चार हजार प्रतिनिधि शामिल हुए और दो दिन का यह समारोह एक राजनीतिक दल के वार्षिक अधिवेशन की तरह ही संचालित किया गया। भारतीय जनता पार्टी का प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन 27 दिसम्बर, 1980 को मुम्बई में हआ। इस सम्मेलन में 55 हज़ार प्रतिनिधियों ने भाग लिया। 6 हजार से भी अधिक स्त्रियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया जो अपने आप में स्वतन्त्रता के बाद किसी राजनीतिक दल के लिए एक कीर्तिमान ही है।

पार्टी की सदस्यता (Membership of Party):
पार्टी के संविधान की धारा 7 के अनुसार कोई भी भारतीय नागरिक जो 18 वर्ष या इससे अधिक आयु का हो और जो संविधान की धारा 2 को स्वीकार करता हो, सदस्यता के फार्म (Annextured) में लिखित घोषणा करने पर एवं वर्णित शुल्क देने पर पार्टी का सदस्य बन सकता है, किन्तु शर्त यह है कि वह व्यक्ति किसी भी अन्य राजनीतिक दल का सदस्य नहीं होना चाहिए।

साधारणतया व्यक्ति अपने स्थायी निवास अथवा उस जगह पर जहां पर यह कार्य करता हो, दल का सदस्य बन सकता है। नवम्बर, 2019 में भारतीय जनता पार्टी की सदस्य संख्या 18 करोड़ से अधिक थी। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री अमित शाह के अनुसार सदस्यता के विषय में भारतीय जनता पार्टी विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। जबकि जनसंघ की सदस्य संख्या कभी भी 12 लाख के ऊपर नहीं गई थी।

भारतीय जनता पार्टी का सामाजिक आधार (Social Base of Bharatiya Janata Party):
भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रवादी दल है। नि:संदेह इस पार्टी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्यों का प्रभुत्व है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस पार्टी का सामाजिक आधार केवल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तक ही सीमित है। आरम्भ में इस पार्टी को अल्पसंख्यकों का समर्थन न होने के बराबर प्राप्त था क्योंकि यह पार्टी अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीति की विरोधी थी। मुसलमान और ईसाइयों का इसका समर्थन बहुत कम प्राप्त है। पर हरिजनों और जनजातियों तथा कबीलों में इस पार्टी की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ रही है।

मई, 1982 में होने वाले उप-चुनावों में और 1987 में हरियाणा विधानसभा के चुनाव में इसने सुरक्षित स्थान जीत कर यह प्रमाणित कर दिया कि अनुसूचित जातियों और पिछड़े लोगों में भी इसका प्रभाव है। सरकारी कर्मचारी और शिक्षित वर्ग भारतीय जनता पार्टी के महान् समर्थक हैं। श्रमिकों में इसका समर्थन बढ़ता जा रहा है। भारतीय मजदूर संघ, जिसकी सदस्यता 20 लाख से अधिक है, भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हैं। मध्य वर्ग के व्यापारी इसके समर्थक हैं।

ध्येय तथा उद्देश्य (Aims and Objects):
पार्टी संविधान की धारा 2 में कहा गया है-‘पार्टी राष्ट्रीय समन्वय, लोकतन्त्र, सकारात्मक धर्म-निरपेक्ष, गांधीवादी, समाजवाद और मूल्यों पर आधारित राजनीति के लिए कृत-संकल्प है। पार्टी आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है।”

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 4.
भारत में क्षेत्रीय दलों का महत्त्व क्यों बढ़ता जा रहा है ?
अथवा
गठबन्धन राजनीति में क्षेत्रीय दलों की बढ़ती भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर:
क्षेत्रीय दल का अर्थ-आमतौर पर राज्य दलों (State Parties) को ही क्षेत्रीय राजनीतिक दल कहा जाता है। किसी राजनीतिक दल को चुनाव आयोग द्वारा राज्य-दल (State Party) के रूप में मान्यता दी जाती है।। चनाव आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता देने का आधार-इसके लिए अध्याय 8 का लघु उत्तरीय प्रश्न नं० 9 देंखे। राजनीतिक व्यवस्था में क्षेत्रीय दलों का योगदान-भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का महत्त्व दिन-प्रतिदिन अधिक बढ़ रहा है। वर्तमान समय में चुनाव आयोग ने 8 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में तथा 53 राजनीतिक दलों को राज्य स्तरीय दल के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

पंजीकृत दलों को चुनाव आयोग की मान्यता तो प्राप्त नहीं होती लेकिन उन्हें चुनाव में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की बढ़ रही महत्ता का अनुमान इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि 19 मार्च, 1998 को श्री अटल बिह के नेतत्वाधीन जिस भारतीय जनता पार्टी ने केन्द्र में सरकार स्थापित की थी उस सरकार में 18 राजनीतिक दल सम्मिलित थे, जिनमें से मात्र दो राजनीतिक दल ही राष्ट्रीय स्तर के थे। इसके अतिरिक्त सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनावों से पहले और बाद में भी क्षेत्रीय दलों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही। इन चुनावों से पहले लगभग सभी राष्ट्रीय दलों ने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबन्धन किया और उन्हें सत्ता में भागीदार बनाने का वायदा किया।

भारतीय जनता पार्टी ने 24 दलों के साथ मिलकर एक महान् गठबन्धन (Grand Alliance) बनाया जिसे राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन का नाम दिया गया। लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने के बाद इस गठबन्धन के अधिकांश सदस्यों को सरकार में भी सम्मिलित किया गया। 2004 के 14वीं लोकसभा चुनावों में भी किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला। जिसके कारण कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (United Progressive Alliance-U.P.A.) का निर्माण किया गया, जिसमें कई क्षेत्रीय दलों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2009 के लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भी कांग्रेस ने केन्द्र में सरकार बनाने के लिए कई क्षेत्रीय दलों का समर्थन लिया।

2014 एवं 2019 में भी भारतीय जनता पार्टी द्वारा 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने के बावजूद भी गठबन्धन सरकार का निर्माण किया गया। केन्द्र में सरकार स्थापित करने के अलावा अनेकों राज्यों में भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने सरकारें बनाई हैं। समय-समय पर पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस, असम में असम गण परिषद्, आन्ध्र प्रदेश में तेलुगू देशम, तमिलनाडु में डी० एम० के० और कई अन्य राज्यों में अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की सरकारें बनी हैं।

क्षेत्रीय राजनीतिक दल भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का अटूट अंग बन गए हैं। आने वाले समय में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में इन दलों की भूमिका और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बनेगी और यह दल राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करते रहेंगे। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की महत्ता के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक दल क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से चुनाव गठबन्धन करने के लिए विवश हैं।

प्रश्न 5.
भारत में मिली-जुली या गठबन्धन सरकारों की राजनीति की व्याख्या करें।
अथवा
भारत में गठबन्धन की राजनीति का क्या अर्थ है ? गठबन्धन सरकार के मुख्य लक्षण बताइये।
अथवा
गठबन्धन सरकार से आप क्या समझते हैं ? इसके मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू किया गया। जिसके तहत भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली की व्यवस्था की गई है। सन् 1952 से लेकर वर्तमान समय तक भारत में 17 आम चुनाव हो चुके हैं। भारत में मिली-जुली सरकारों के निर्माण का इतिहास भी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ ही जुड़ा है। भारत में मिली-जुली सरकारों की राजनीति के अध्ययन से पूर्व हमें मिली-जुली सरकार के अर्थ से परिचित होना ज़रूरी है।

भारत में मिली-जुली सरकारों के लिए कई शब्दों का प्रयोग होता है, जिनमें मुख्य हैं ‘जनता सरकार’, ‘राष्ट्रीय मोर्चा सरकार’, ‘संयुक्त मोर्चा सरकार’, राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन, संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन तथा ‘मिली-जुली सरकार’ ली-जुली सरकार का साधारण अर्थ है कई दलों द्वारा मिलकर सरकार का निर्माण करना। चुनावों से पूर्व या चुनावों के बाद कई दल मिलकर अपना साझा कार्यक्रम तैयार करते हैं।

उसके आधार पर वे मिलकर चुनाव लड़ते हैं अथवा अपनी सरकार बनाते हैं। मिली-जुली सरकार का निर्माण प्राय: उस स्थिति में किया जाता है, जब प्रायः किसी एक दल को चुनावों के बाद स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हुआ हो। तब दो या दो से अधिक दल मिलकर संयुक्त सरकार का निर्माण करते हैं। ऐसी सरकार में प्राय: सभी राजनीतिक दल अपने दलों के संकीर्ण व विशेष हितों को त्याग कर एक निश्चित कार्यक्रम पर अपनी सहमति प्रकट करते हैं। इन मिली-जुली सरकारों की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है

1. समझौतावादी कार्यक्रम-मिले-जुले मन्त्रिमण्डलों की पहली विशेषता यह है कि उनका राजनीतिक कार्यक्रम समझौतावादी होता है। सरकार निर्माण के कुछ दिन बाद ही मन्त्रिमण्डल के घटक दलों के शीर्षस्थ नेता मिलकर मिली जुली सरकार के लिए राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रम तैयार करते हैं, इसके सम्बन्ध में वह समझौता करते हैं, जिसमें कि प्रत्येक दल की बातों को व कार्यक्रम को ध्यान में रखा जाता है। अतः मिले-जुले मन्त्रिमण्डलों की पहली प्रवृत्ति अथवा विशेषता समझौतावादी है।

2. सर्वसम्मत नेता-मिली-जुली सरकार के निर्माण से पूर्व सभी दल मिलकर अपने नेता का चुनाव करते हैं। नेता का चुनाव प्रायः सर्वसम्मत ढंग से किया जाता है। यद्यपि मिली-जुली सरकार का एक सर्वसम्मत नेता होता है, फिर भी घटक दलों के नेता व उनके अस्तित्व को दृष्टि विगत नहीं किया जाता। इसके कारण सरकार में एकता बनी रहती है।

3. सर्वसम्मत निर्णय-मिली-जुली सरकार में शामिल घटक दल किसी भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय समस्या का हल सर्वसम्मति से करते हैं। कोई भी राजनीतिक समस्या पैदा होने पर घटक दलों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है, जिससे उक्त समस्या पर घटक दलों की राय जानी जाती है। प्रत्येक दल द्वारा दिए गए सुझावों को विशेष महत्त्व दिया जाता है ताकि कोई दल यह महसूस न करे कि उसके अस्तित्व को अनदेखा कर दिया गया है।

4. मिल-जुल कर कार्य करना-मिली-जुली सरकार में शामिल सभी घटक दल मिल-जुलकर कार्य करते हैं। प्रत्येक दल को कोई न कोई महत्त्वपूर्ण विभाग अवश्य सौंपा जाता है। इस विभाग की कुशलता आदि उस दल के ऊपर निर्भर करती है। एक दल द्वारा किया गया गलत कार्य सभी दलों द्वारा किया गया गलत कार्य समझा जाएगा। इसीलिए सभी दल मिल-जुल कर कार्य करते हैं।

भारत में मिली-जुली सरकारों की राजनीति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. स्वतन्त्रता से पूर्व मिली-जुली सरकार (Coalition Government before Independence):
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में मिली-जली सरकार के निर्माण का इतिहास स्वतन्त्रता प्राप्ति के पर्व से आरम्भ होता है। भारत के लिए नया संविधान बनाने के लिए कैबिनेट मिशन के द्वारा एक अन्तरिम सरकार का गठन किया गया। इस सरकार में भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों कांग्रेस, मुस्लिम लीग, अकाली दल आदि को शामिल किया गया।

2. मिली-जुली सरकार 1952 से 1967 (Coalition Government from 1952 to 1967):
भारत में पहले संसदीय चुनाव सन् 1952 में हुए। इन चुनावों के समय चुनाव आयोग ने 14 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल के रूप में मान्यता दी। इन चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ, क्योंकि उस समय कोई राजनीतिक दल कांग्रेस के समान स्तर का नहीं था, फिर भी पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने अपने मन्त्रिमण्डल में भारतीय राजनीति-नए बदलाव डॉ० बी० आर० अम्बेदकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गोपाल स्वामी आयंगर जैसे गैर-कांग्रेसी सदस्य भी सम्मिलित किए। श्री लाल बहादुर शास्त्री व श्रीमती इन्दिरा गांधी के शासन काल में सभी मन्त्री कांग्रेस से ही लिए गए थे।

3. मिली-जुली सरकार की राजनीति 1967 से 1977 तक (Coalition Government Politics from 1967 to 1977):
चौथे आम चुनावों के पश्चात् यद्यपि कांग्रेस को केन्द्र में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ, परन्तु कई राज्यों में मिली-जुली सरकारें बनीं। सन् 1969 में कांग्रेस में विभाजन के पश्चात् इन्दिरा गांधी की सरकार को साम्यवादी दल के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ा। सन् 1967 के चुनाव के पश्चात् बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में मिली-जुली सरकारों के बनने और गिरने का सिलसिला आरम्भ हो गया, परन्तु केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार बनी।

4. केन्द्र में पहली मिली-जुली सरकार (First Coalition Government in the Centre in 1977):
केन्द्र में पहली मिली-जुली सरकार का निर्माण। मार्च, 1977 में लोकसभा चुनाव हुए और इन चुनावों में कांग्रेस की ऐतिहासिक हार हुई। जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों को 300 स्थान प्राप्त हुए। केन्द्र में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् गैर-कांग्रेसी सरकार की स्थापना हुई। केन्द्र में यह मिली-जुली सरकार का पहला प्रयोग था। जनता पार्टी की सरकार में कांग्रेस संगठन, भारतीय लोकदल, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, विद्रोही कांग्रेस, अकाली दल, द्रमुक आदि दल शामिल हुए।

5. राष्ट्रीय मोर्चा सरकार 1989 (National Front Government 1989):
1989 के चुनावों के पश्चात् केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा की मिली-जुली सरकार बनी। राष्ट्रीय मोर्चा और जनता दल ने मिलकर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में राष्ट्रीय मोर्चे के सबसे महत्त्वपूर्ण घटक जनता दल को 141 स्थान प्राप्त हुए, परन्तु कांग्रेस (स), तेलुगू देशम तथा डी० एम० के० को कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। विश्वनाथ प्रताप सिंह को राष्ट्रीय मोर्चा संसदीय दल का नेता चुना गया और उन्होंने केन्द्र में दूसरी मिली-जुली सरकार का निर्माण किया।

भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों ने राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन 23 अक्तबर, 1990 को भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपना समर्थन वापस लेने व जनता दल में विभाजन के कारण राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त नहीं हो सका और 7 नवम्बर, 1990 को प्रधानमन्त्री. वी० पी० सिंह ने अपने पद से त्याग–पत्र दे दिया। मई-जून, 1991 को लोकसभा के मध्यावधि चुनावों में यद्यपि किसी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु कांग्रेस को लोकसभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुए और कांग्रेस ने अपनी अल्पमत सरकार बनाई और 1996 तक कांग्रेस सत्ता में रही।।

6. संयुक्त मोर्चा सरकार 1996 (United Front Government 1996):
चुनाव आयोग ने कुछ राज्य स्तरीय क्षेत्रीय दलों को भी मान्यता प्रदान की। अप्रैल-मई, 1996 के चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ जिसके कारण मिली-जुली सरकार बनाने की सम्भावनाएं बहुत बढ़ गईं। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसे 161 स्थान प्राप्त हुए। दूसरे नम्बर पर कांग्रेस रही, जिसको 140 स्थान प्राप्त हुए। कांग्रेस को इतने कम स्थान पहले कभी भी किसी भी लोकसभा चुनाव में प्राप्त नहीं हुए। जनता दल को 45, मार्क्सवादी पार्टी को 32, भारतीय साम्यवादी दल को 12, समता पार्टी को 8, कांग्रेस (ति०’) को 4 और जनता पार्टी को कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई।

इन चुनावों में क्षेत्रीय दलों को भारी सफलता प्राप्त हुई जिनमें डी० एम० के० को 17, तमिल मनीला कांग्रेस को 20, तेलुगू देशम पार्टी को 16, समाजवादी पार्टी को 16, अकाली दल को 8, शिवसेना को 15, असम गण परिषद् को 5, हरियाणा विकास पार्टी को 3, मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस को 2 और बहुजन समाज पार्टी को 11 स्थान प्राप्त हुए, जिसके कारण सरकार के निर्माण में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ गई। राष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा ने 16 मई, 1996 को लोकसभा में सबसे बड़े दल भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया।

16 मई, 1996 को भारतीय जनता पार्टी ने अपने सहयोगी दलों सम दल, शिव सेना और हरियाणा विकास पार्टी के सहयोग से मिली-जुली सरकार का गठन किया, परन्तु इससे पहले 10 मई, 1996 को 10 राजनीतिक दलों जनता दल, भारतीय साम्यवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी), अखिल भारतीय इन्दिरा कांग्रेस (तिवारी), डी० एम० के०, तमिल मनीला कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, मध्य प्रदेश कांग्रेस, मस्लि लीग, जनता पार्टी ने मिलकर संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया।

19 मई, 1996 को इस मोर्चे में असम गण परिषद् और तेलुगू देशम पार्टी भी शामिल हो गईं। इस तरह 12 दलों के सहयोग से मिलकर संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया गया और श्री हरदन हल्ली डोडेगौड़ा देवेगौड़ा को संयुक्त मोर्चे का नेता चुना गया। इस मोर्चे को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बाहर से बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा कर दी। परन्तु इससे पूर्व केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किया जा चुका था, राष्ट्रपति ने 31 मई, 1996 तक भाजपा को लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया, परन्तु प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मई, 1996 को ही अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया, क्योंकि उन्हें आभास हो गया था कि बहुमत उनके साथ नहीं है।

29 मई को राष्ट्रपति ने संयुक्त मोर्चा के नेता एच० डी० देवेगौड़ा को 1 जून, 1996 को अपनी सरकार बनाने का निमन्त्रण दिया। जून, 1996 को एच० डी० देवेगौड़ा ने 13 दलों द्वारा गठित संयुक्त मोर्चे से मिली-जुली सरकार का निर्माण किया। जनतान्त्रिक गठबन्धन सरकार 1999, 2014 एवं 2019 (National Democratic Alliance Government 1999, 2014 and 2019)-सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन को बहुमत प्राप्त हो गया। 24 राजनीतिक दलों के सहयोग से मिलकर बने राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के 70 सदस्यीय मन्त्रिमण्डल ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 13 अक्तूबर, 1999 को शपथ ग्रहण की।

इस सरकार में अधिकतर क्षेत्रीय दल सम्मिलित हैं। इन चुनावों ने भारतीय राजनीति में मिली-जुली सरकारों के युग का मार्ग और प्रशस्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन ने क्रमश: 335 एवं 355 सीटें जीतीं, तथा दोनों बार श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार का निर्माण किया। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार-2004 एवं 2009 (United Progressive Alliance Government -2004 and 2009)- अप्रैल-मई, 2004 में 14वीं तथा अप्रैल-मई, 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनाव हुए।

इन चुनावों में भी किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अत: दोनों बार कई दलों ने मिलकर कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (United Progressive Alliance-UPA) का निर्माण किया तथा डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई। उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि गठबन्धन सरकारों को अपने अस्तित्व के लिए विभिन्न दलों के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ा। इसके कारण ही त्रिशंकु संसद् (Hung Parliament) का जन्म हुआ।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 6.
भारत में गठबन्धन सरकार की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में गठबन्धन सरकार की उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. कांग्रेस के आधिपत्य की समाप्ति-1989 के बाद कांग्रेस के आधिपत्य वाली स्थिति पहले जैसी नहीं रही। इसके विरुद्ध अनेक राजनीतिक दल आ गए जिससे गठबन्धनवादी सरकारों का दौर शुरू हुआ।

2. क्षेत्रीय दलों में वृद्धि-क्षेत्रीय दलों की बढ़ती संख्या के कारण किसी भी एक राष्ट्रीय दल को लोकसभा या विधानसभा में बहुमत मिलना कठिन हो गया है। इससे राजनीतिक दल आपस में गठबन्धन बनाने लगे हैं।

3. दल-बदल-भारत में दल-बदल विरोधी कानून होने के बावजूद भी दल-बदल की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग पाई है। दल-बदल के कारण सरकारों का अनेक बार पतन हुआ और जो नई सरकारें बनीं वे भी गठबन्धन करके बनीं।

4. क्षेत्रीय हितों की उपेक्षा–प्राय: केन्द्र में बनी राष्ट्रीय दलों की सरकारों ने क्षेत्रीय हितों की उपेक्षा की है। इससे क्षेत्रीय स्तर के दलों ने मुद्दों पर आधारित राजनीति के अनुसार गठबन्धनकारी दौर की शुरुआत की।

5. राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा-वर्तमान समय में प्रत्येक नेता मन्त्री पद प्राप्त करना चाहता है, इसलिए वह किसी तरह का समझौता करने के लिए तैयार रहता है।

6. लोगों का राष्ट्रीय दलों पर अविश्वास-गठबन्धन सरकारों के बनने का एक कारण यह है कि लोगों का राष्ट्रीय दलों पर विश्वास कम होता जा रहा है तथा वे क्षेत्रीय दलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

प्रश्न 7.
गठबन्धन सरकार के विभिन्न रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
गठबन्धन सरकार के कई रूप हो सकते हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. समान रूप से प्रभावशाली दो विरोधी गठबन्धन-इस प्रकार का गठबन्धन उस समय अस्तित्व में आता है, जब एक राज्य या प्रान्त में दो समान रूप से प्रभावशाली विरोधी गठबन्धन हो तथा उस राज्य या प्रान्त में अन्य छोटे-छोटे दल भी पाए जाते हों । इस प्रकार की स्थिति में दोनों बड़े विरोधी दल अन्य छोटे-छोटे दलों से समझौता करके अधिक-से-अधिक सीटें जीतकर सत्ता में आना चाहते हैं। इस प्रकार की स्थिति द्वि-दलीय व्यवस्था के रूप में कार्य करती है।

2. एक दल की प्रधानता वाला गठबन्धन-गठबन्धन सरकार का एक रूप दल की प्रधानता वाला गठबन्धन है। इस प्रकार के गठबन्धन के सभी छोटे-छोटे दल एक बड़े दल के साथ मिलकर गठबन्धन का निर्माण करते हैं। छोटे-छोटे दल यद्यपि महत्त्वपूर्ण होते हैं, परन्तु वे सरकार को पूर्ण रूप से प्रभावित नहीं कर पाते। इस प्रकार के गठबन्धन में से यदि एक-दो छोटे दल बाहर भी हो जाएं तो भी सरकार के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

3. राष्ट्रीय सरकार-गठबन्धन सरकार का एक रूप राष्ट्रीय सरकार का भी है। राजनीतिक दल संसद में अपने अपने आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सरकार का गठन करते हैं। इस प्रकार की सरकार का निर्माण किसी राष्ट्रीय संकट या चुनावों से पूर्व किया जाता है।

4. नकारात्मक आधार पर निर्मित गठबन्धन सरकार- इस प्रकार का गठबन्धन प्रायः चुनावों के बाद ही बनता है, तथा सरकार बनाई जाती है। इस प्रकार का गठबन्धन ऐसे दलों का गठबन्धन होता है, जो किसी दूसरे विरोधी दल या गठबन्धन को सरकार बनाने से रोकना चाहते हों। ऐसे गठबन्धन अवसरवादिता के उदाहरण माने जाते हैं।

प्रश्न 8.
2004 के 14वें लोकसभा चुनावों एवं संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
2004 में हुए लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election held in 2004) अप्रैल-मई, 2004 में 14वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए। ये चुनाव पाँच चरणों में कराये गए थे, और इसमें 66 करोड़ मतदाताओं में से 58 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया गया। 14वीं लोकसभा चुनाव पूर्णतः इलेक्ट्रॉनिक चुनाव मशीन द्वारा करवाए गये थे। इस चुनाव में दलीय स्थिति इस प्रकार रहीं

राजनीतिक दलसीटें जीतीं
कांग्रेस गठबन्धन219
कांग्रेस145
डी० एम० के०16
एन० सी० पी०9
टी० आर० एस०5
पी० एम० के०6
एम० डी० एम० के०4
आर० जे० डी०23
जे० एम० एम०5
एल० जे० एन० एस० पी०3
जे० के० पी० डी० पी०1
एम० यू० एल1
आर० पी० भाई०1
(ए) राजग186
भाजपा138
एस० एच० एस०12
टी० डी० पी०5
अकाली दल8
जनता दल (यू)7
ए० आई० टी० सी०2
बी० जे० डी०11
एम० एन० एफ०1
आई० एफ० डी० पी०1
एन० पी० एफ०1
अन्य136
सी॰ पी० आई० (एम)43
सी० पी० आई०10
एस० पी०36
जनता दल (एस०)4
ए० आई० एफ० बी०3
ए० आई० एम० आई० एम०1
बी० एन० पी०1
के० ई० सी०1
इनैलो4
बी० एस० पी०18
आर० एल० डी०3
जे० के० एन०2
एस० जे० पी० (आर०)1
आर० एस० पी०3
ऐ० जी० पी०2
एन० एल० पी०1
एस० डी० एफ०1
एल० टी० एस० पी०1
एस० एच० एस०12

दलीय स्थिति के अध्ययन से पता चलता है कि मतदाताओं ने किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत प्रदान नहीं किया।

संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण (Formation of United Progressive Alliance)-2004 के लोकसभा के चुनावों में जब किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तब भाजपा गठबन्धन एवं कांग्रेस गठबन्धन ने सरकार बनाने के प्रयास तेज़ कर दिये। अन्ततः अधिकांश गैर कांग्रेस एवं गैर भाजपा गठबन्धन दलों ने कांग्रेस गठबन्धन को समर्थन देने का निर्णय किया जिससे कांग्रेस गठबन्धन के लिए सरकार बनाने का रास्ता साफ़ हो गया।

कांग्रेस एवं सहयोगी दलों ने अपने गठबन्धन को संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (United Progressive Alliance-UPA) का नाम दिया। यद्यपि दलीय स्थिति देखने के पश्चात् हम यह कह सकते हैं कि कांग्रेस एवं भाजपा की सीटों में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं था, परन्तु अन्य दलों ने कांग्रेस को समर्थन देकर संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार बनाने में मदद की। गठबन्धन के नेता के रूप में श्रीमती सोनिया का प्रधानमन्त्री बनना लगभग तय लग रहा था, परन्तु भाजपा एवं कुछ अन्य वर्गों के विरोध के कारण श्रीमती सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमन्त्री बनने भारतीय राजनीति-नए बदलाव से इन्कार कर दिया।

अत: गठबन्धन में कांग्रेस के नेता डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाने पर सहमति बनी, परिणामस्वरूप 22 मई, 2004 को डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली। इस प्रकार लगभग 20 दलों की गठबन्धन सरकार अस्तित्व में आई। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार को वामपंथियों ने बाहर से समर्थन देने का निर्णय किया। कांग्रेस के पश्चात् वामपंथी दलों ने सर्वाधिक 63 सीटें जीतीं।

अतः गठबन्धन सरकार पर वामपंथी दलों का विशेष प्रभाव है तथा डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार कोई भी नीतिगत निर्णय लेने से पहले वामपंथी दलों से विचार-विमर्श अवश्य करती है। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन लगभग 20 दलों का एक गठबन्धन है। अत: गठबन्धन ने सभी सहयोगी दलों को खुश करने का प्रयास किया। गठबन्धन ने सर्वप्रथम अपना न्यूनतम सांझा कार्यक्रम (Common Minimum Programme) बनाया, जिसमें सभी दलों की विशेष नीतियों को शामिल किया। मन्त्रिपरिषद् के निर्माण में भी सहयोगी दलों को स्थान दिया गया।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 9.
2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों एवं संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन पर एक नोट लिखें। (Write a note on 15th Lok Sabha Elections and United Progressive Alliance.)
उत्तर:
2009 में हुए लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election held in 2009)
अप्रैल-मई, 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए, ये चुनाव पांच चरणों में कराये गए थे। इसमें 71 करोड़ 40 लाख मतदाताओं में से लगभग 60 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया था। 15वीं लोकसभा के चुनाव भी पूर्ण रूप से इलैक्ट्रोनिक चुनाव मशीन से करवाए गए थे। इस चुनाव में दलीय स्थिति इस प्रकार रही

राजनीतिक दलसीटें जीतीं
1. कांग्रेस206
2. भाजपा116
3. सपा23
4. बसपा21
5. जद (यू)20
6. टी०एम०सी०19
7. डी०एम०के०18
8. माकपा16
9. बीजद14
10. शिवसेना11
11. एन० सी० पी०9
12. अन्ना द्रमुक9
13. टी० डी० पी०6
14. रालोद5
15. अकाली दल4
16. राजद4
17. भाकपा4
18. नेशनल कान्फ्रेंस3
19. जद (एस)3
20. अन्य23
21. निर्दलीय9

दलीय स्थिति के अध्ययन से पता चलता है कि मतदाताओं ने किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत प्रदान नहीं किया।

संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन द्वारा सरकार का निर्माण (Formation of Govt. by U.P.A.) यद्यपि 2009 के चुनाव में भी किसी एक दल या गठबन्धन को पूर्व बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील . गठबन्धन को 2004 के चुनावों के मुकाबले में अधिक सीटें मिली थीं। स्वयं कांग्रेस को 1991 के पश्चात् 200 से अधिक सीटें प्राप्त हुई थीं। अतः सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति ने डॉ. मनमोहन को आमन्त्रित किया। डॉ. मनमोहन सिंह ने राष्ट्रपति को अपने समर्थन में 322 सांसदों की सूची सौंपी, जिसमें यू० पी० ए० के दलों के अतिरिक्त राजद, बसपा सपा तथा जनता दल (एस) का भी समर्थन शामिल था।

परिणामस्वरूप 22 मई, 2009 को डॉ. मनमोहन सिंह ने पुनः भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली। उल्लेखनीय बात यह है कि 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यू०पी०ए० की सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वामपंथी दल इस सरकार में शामिल नहीं हुए।

प्रश्न 10.
सन 2014 में हए 16वीं लोकसभा के चनावों एवं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन पर एक नोट लिखो।
उत्तर:
भारत में 16वीं लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई 2014 में 9 चरणों में करवाए गए। इन चुनावों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं

  • इन चुनावों में अब तक सबसे अधिक 66.38% मतदान हुआ।
  • इन चुनावों में 60 लाख मतदाताओं ने नोटा (None of the Above-Nota) बटन दबाया।
  • इन चुनावों में मतदाताओं की संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी, जिसमें से लगभग 55 करोड मतदाताओं ने मतदान दिया।
  • इन चुनावों में अधिकतम खर्च सीमा 70 लाख थी।
  • इन चुनावों में 1687 राजनीतिक दलों ने भाग लिया, जिसमें 6 राष्ट्रीय एवं 54 क्षेत्रीय राजनीतिक दल शामिल थे।
  • इन चुनावों में अब तक सर्वाधिक 61 महिलाएं चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची। इन चुनावों के चुनाव परिणाम इस प्रकार रहे

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उपरोक्त चुनाव परिणामों से स्पष्ट है, कि भाजपा ने जहां 282 सीटें जीतीं वहीं इसके गठबन्धन को भाजपा सहित 334 सीटें प्राप्त हुईं। अत: भाजपा एवं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को 26 मई, 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। श्री नरेन्द्र मोदी ने 26 मई, 2014 को ही अपनी मंत्रिपरिषद् का भी निर्माण किया, जिसमें कुल 45 मंत्री शामिल थे, इसमें 23 कैबिनेट मंत्री, 10 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री तथा 12 राज्यमंत्री शामिल थे। श्री नरेन्द्र मोदी ने 5 जुलाई, 2016 को अपनी मंत्रिपरिषद् का विस्तार एवं पुनर्गठन किया। इस प्रकार मंत्रिपरिषद् की कुल संख्या 75 हो गई। इसमें 26 कैबिनेट मंत्री, 13 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री तथा 36 राज्यमंत्री शामिल थे।

प्रश्न 11.
सन् 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनावों एवं राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन पर एक नोट लिखो।
उत्तर:
भारत में 17वीं लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई, 2019 में 7 तरणों में करवाए गए थे। इन चुनावों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं

  • इन चुनावों में 67.11 मतदान हुआ।
  • इन चुनानों में मतदाताओं की गिनती 90 करोड़ थी।
  • इन चुनावों में 2200 से अधिक राजनीतिक दलों ने भाग लिया, जिसमें 7 राष्ट्रीय एवं 59 क्षेत्रीय दल शामिल थे।
  • इन चुनावों में अब तक सर्वाधिक 78 महिलाएं चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची।
  • इन चुनावों के लिए पूरे भारत में कुल 10 लाख मतदाता केन्द्र बनाए गये थे।
  • इन चुनावों से सभी मतदाता केन्द्रों पर ई० वी० एम० मशीनों के साथ-साथ वी० वी० पी० ए० टी० (V.V.P.A.T. Voter Verifiable Paper Anchit Irail) का भी प्रयोग किया गया।
  • इन चुनावों में लगभग 99.3% मतदाताओं के पास पहचान पत्र थे।

इन चुनावों के चुनाव परिणाम इस प्रकार रहे

Result Status
Status Known for 542 out of 542 Constituencies
PartyWon
Aam Aadmi Party1
AJSU Party1
All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam1
All India Majlis-E-Ittehadul Muslimeen2
All India Trinamool Congress22
All India United Democratic Front1
Bahujan Samaj Party10
Bharatiya Janata Party303
Biju Janata Dal12
Communist Party of India2
Communist Party of India (Marxist)3
Dravida Munnetra Kazhagam23
Indian National Congress52
Indian Union Muslim League3
Jammu \& Kashmir National Conference3
Janata Dal (Secular)1
Janata Dal (United)16
Jharkhand Mukti Morcha1
Kerala Congress (M)1
Lok Jan Shakti Party6
Mizo-National Front1
Naga Peoples Front1
National People’s Party1
Nationalist Congress Party5
Nationalist Democratic Progressive Party1
Revolutionary Socialist Party1
Samajwadi Party5
Shiromani Akali Dal2
Shivsena18
Sikkim Krantikari Morcha1
Telangana Rashtra Samithi9
Telugu Desam3
Yuvajana Sramika Rythu Congress Party22
Other8
Total542

प्रश्न 12.
भारत में गठबन्धन की राजनीति का क्या अर्थ है ? गठबन्धन सरकार का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा ?
अथवा
भारतीय राजनीति पर गठबन्धन सरकार के पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में गठबन्धन राजनीति का अर्थ- इसके लिए प्रश्न नं० 5 देखें। गठबन्धन सरकार का भारतीय राजनीति पर प्रभाव

1. अस्थाई सरकार:
गठबन्धन सरकारों के कारण भारत में अस्थिरता बढ़ी है क्योंकि विभिन्न दल अपने स्वार्थी हितों की खातिर मिलकर सरकार बनाते हैं। अतः यह पता नहीं होता कि कब वह सरकार से अलग हो जाएं।

2. नीतियों में निरन्तरता का अभाव:
गठबन्धन सरकार द्वारा बनाई जाने वाली नीतियों में निरन्तरता नहीं होती है। मिली-जुली सरकार कभी भी दीर्घकालीन एवं प्रभावशाली नीतियां नहीं बना पाती।

3. राष्ट्रीय एकता को खतरा:
गठबन्धन सरकार में शामिल दल केवल अपने हितों की पूर्ति में ही लगे रहते हैं। उन्हें देश की रक्षा की कोई चिन्ता नहीं होती।

4. प्रधानमन्त्री की कमज़ोर स्थिति:
गठबन्धन सरकार में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमजोर होती है, जिसके कारण वह देश को अच्छा नेतृत्व नहीं दे पाता।

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प्रश्न 13.
“1989 के चुनावों के बाद गठबन्धन की राजनीति का युग आरम्भ हुआ, जिसमें राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठ-जोड़ नहीं करते।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीति का वर्तमान दौर गठबन्धन राजनीति का दौर है। वर्तमान समय कोई भी राजनीतिक दल अपने दम पर सरकार नहीं बना सकता। अत: वह अन्य दलों से गठबन्धन करता है। इस गठबन्धन का कोई वैचारिक या नैतिक आधार नहीं होता, बल्कि सत्ता प्राप्ति होता है। इस प्रकार के गठबन्धन की शुरुआत 1989 के पश्चात् शुरू हुई। 1989 के चुनाव के अवसर पर जनता दल ने मार्क्सवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबन्धन किया।

1991, 1996, 1998, 1999, 2004 2009 तथा 2014 के लोकसभा के चुनावों के अवसर पर लगभग सभी दलों ने अवसरवादी समझौते किए। 1996 में तमिलनाडु विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए द्रमुक और तमिल मनीला कांग्रेस (T.M.C.) के बीच सीटों का समझौता हुआ। कांग्रेस (इ) ने अन्ना द्रमुक के साथ समझौता किया।

नवम्बर, 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के अवसर पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में समझौता हुआ। 1 जून, 1995 को यह समझौता टूट गया और बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी से अपना समर्थन वापस ले लिया। मई, 1996 में 13 दलों ने मिलकर संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया। इन 13 दलों के इकट्ठे होने का एक ही उद्देश्य था, सत्ता पर कब्ज़ा करना।

मार्च, 1998 में भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों ने केन्द्र में सरकार का निर्माण किया। इस सरकार में अनेक ऐसे दल शामिल थे जिसकी नीतियां परस्पर विरोधी थीं। 15 मई, 1999 को भारतीय जनता पार्टी सहित 24 राजनीतिक दलों ने मिलकर राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन नाम से एक महान गठबन्धन बनाया। इस गठबन्धन का उद्देश्य केन्द्र में सत्ता प्राप्त करना था। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में हुए लोकसभा के चुनावों में इस गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और इसने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई।

इस प्रकार यह गठबन्धन अपने उद्देश्य में सफल रहा। 2004 के 14वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर भारतीय जनता पार्टी ने जहां अनेक घोटालों में संलिप्त जयललिता से चुनावी समझौता किया, वहीं काग्रेस ने अपने कट्टर विरोधी डी० एम० के० के साथ चुनाव समझौता किया। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं, अप्रैल-मई 2014 में हुए 16वीं एवं अप्रैल-मई 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में भी लगभग सभी राजनीतिक दलों ने सिद्धान्तहीन समझौते किए थे। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने जो गठजोड़ किए उनका आधार विचारधारा नहीं बल्कि सत्ता प्राप्ति था।

प्रश्न 14.
साम्प्रदायिकता का क्या अर्थ है ? साम्प्रदायिकता के प्रभावों को दूर करने के उपायों का वर्णन करें।
अथवा
भारत में साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के लिए मुख्य उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता का अर्थ:
साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। ए० एच० मेरियम (A.H. Merriam) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की अ की ओर संकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”

डॉ० इ० स्मिथ (Dr. E. Smith) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता को आमतौर पर किसी धार्मिक ग्रुप के सीमित स्वार्थी, विभाजकता और आक्रमणशील दृष्टिकोण से जोड़ा जाता है।”

के० पी० करुणाकरण (K.P. Karunakarn) के अनुसार, “भारत में साम्प्रदायिकता का अर्थ वह विचारधारा है जो किसी विशेष धार्मिक समुदाय या किसी विशेष जाति के सदस्यों के हितों के विकास का समर्थन करती है।” साम्प्रदायिकता के प्रभाव को कम करने के उपाय शक्षा द्वारा साम्प्रदायिकता को दर करने का सबसे अच्छा साधन शिक्षा का प्रसार है। जैसे-जैसे शिक्षित की संख्या बढ़ती जाएगी, धर्म का प्रभाव भी कम हो जाएगा और साम्प्रदायिकता की बीमारी भी दूर हो जाएगी।

2. प्रचार के द्वारा समाचार:
पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न के द्वारा साम्प्रदायिकता के विरुद्ध प्रचार करके भ्रातृ की भावना उत्पन्न की जा सकती है।

3. नागरिक अपना दायित्व पूरा करें:”
नागरिकों को अपने दायित्व के प्रति सचेत होना चाहिए और शान्ति स्थापना में प्रशासन की मदद करनी चाहिए। प्रशासन दंगों को दबा सकता है, नागरिकों की मदद के लिए गश्त की व्यवस्था भी कर सकता है, लेकिन सन्देह का वातावरण खत्म करना नागरिकों का दायित्व है।

4. साम्प्रदायिक दलों का अन्त करके:
सरकार को सभी ऐसे दलों को समाप्त कर देना चाहिए जो साम्प्रदायिकता पर आधारित हों। चुनाव आयोग को साम्प्रदायिक पार्टियों को मान्यता नहीं देनी चाहिए।

5. धर्म और राजनीति को अलग करके:
साम्प्रदायिकता को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय यह है कि राजनीति को धर्म से अलग रखा जाए।

6. सामाजिक और आर्थिक विकास:
साम्प्रदायिक तत्व लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन का पूरा फायदा उठाते हैं। अतः ज़रूरत इस बात की है कि जहां-जहां कट्टरपंथी ताकतों का बोलबाला है वहां की गरीब बस्तियों के निवासियों की आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के हल के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं।

7. आपसी विवाह के द्वारा:
अन्तर्जातीय विवाह करके साम्प्रदायिकता को समाप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
भारत में बढ़ती हुई म्प्रदायिक प्रवृत्तियों के भारतीय राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारतीय राजनीति पर साम्प्रदायिकता के पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित प्रकार से भारतीय राज्य व्यवस्था को प्रभावित किया है
1. साम्प्रदायिकता और राजनीतिक दल:
भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ है।

2. साम्प्रदायिकता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन:
चुनाव में धर्म की भावना महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय धर्म भी अन्य आधारों में से एक महत्त्वपूर्ण आधार होता है। प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चुनाव करते समय धर्म को महत्त्व देते हैं और जिस चुनाव क्षेत्र में जिस धर्म के अधिक मतदाता होते हैं प्रायः उसी धर्म का उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र में खड़ा किया जाता है। प्रायः सभी राजनीतिक दल चुनावों में वोट पाने के लिए धार्मिक तत्त्वों के साथ समझौता करते हैं।

3. धर्म तथा मतदान व्यवहार (Religion and Voting Behaviour):
चुनाव के समय मतदाता भी धर्म से प्रभावित हो कर अपने मत का प्रयोग करते हैं। प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय के लोग अपनी संख्या के आधार पर अपना महत्त्व समझने लगे हैं। प्रायः यह देखा गया है कि मुस्लिम मतदाता और सिक्ख मतदाता अधिकतर अपने धर्म से सम्बन्धित उम्मीदवार को वोट डालते हैं। मई-जून, 1991 में दसवीं लोकसभा के चुनावों के अवसर पर राम भक्तों ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया।

4. दबाव समूह तथा धर्म (Pressure Groups and Religion):
भारतीय राज्य-व्यवस्था में धर्म प्रधान दबाव समूह भी महत्त्वपूर्ण बनते जा रहे हैं। धर्म प्रधान दबाव समूह समय-समय पर शासन की नीतियों को प्रभावित करते रहते हैं। वे अपने सदस्यों के हितों की पूर्ति के लिए नीति निर्माताओं को प्रभावित कर अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। अनेक धर्म प्रधान संगठन राजनीतिक मामलों में विशेष रुचि लेते हैं और अपनी मांगों को स्वीकार करवाने के लिए राजनीतिक दलों से सौदेबाजी करते हैं।

5. धर्म के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग (Demand for States Re-organisation on the basis of Religion):
भारत में कई बार अप्रत्यक्ष रूप से धर्म के आधार पर पृथक् राज्यों की मांग की गई है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबा की मांग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम थी।

6. धर्म के आधार पर अस्थिरता (Unstability on the basis of Religion):
राजनीति को धार्मिक आधार देकर राष्ट्र में अस्थिरता की स्थिति पैदा करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। धर्म के नाम पर राजनीतिक संघर्ष होते रहते हैं।

प्रश्न 16.
भारत में साम्प्रदायिकता की उत्पत्ति और विकास के कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में साम्प्रदायिकता की उत्पत्ति और विकास के निम्नलिखित कारण हैं

1. सांप्रदायिक दल-साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में साम्प्रदायिक दलों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। भारत में अनेक साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं।

2. राजनीति और धर्म-साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि राजनीति में धर्म घुसा हुआ है। धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है। पंजाब के धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है जोकि पिछले कई वर्षों से चिंता का विषय बना हुआ है।

3. सरकार की उदासीनता-हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संघीय और राज्यों की सरकारों ने दृढ़ता से इस समस्या को हल करने का प्रयास नहीं किया है। कभी भी इस समस्या की विवेचना गंभीरता से नहीं की गई।

4. साम्प्रदायिकता शिक्षा-कई प्राइवेट स्कूलों तथा कॉलेजों में धर्म-शिक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है।

5. पारिवारिक वातावरण-कई घरों में साम्प्रदायिकता की बातें होती रहती हैं जिनका बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और बड़े होकर वे भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं।

6. विभिन्न धार्मिक स्थानों का एक स्थान पर होना-कई बार विभिन्न धार्मिक स्थानों का साथ-साथ होना या एक ही स्थान पर मंदिर, मस्जिद का होना साम्प्रदायिकता का कारण बन जाता है। एक स्थान पर पहले एक धार्मिक स्थान होने और बाद में विभिन्न धर्म के धार्मिक स्थान बन जाने से भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है। राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है।

प्रश्न 17.
गठबन्धन सरकार की सफलता हेतु मुख्य सुझावों का वर्णन करें।
उत्तर:
गठबन्धन सरकार की सफलता हेतु निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  • गठबन्धन सरकार का एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम होना चाहिए।
  • गठबन्धन सरकार का एक सर्वसम्मत नेता होना चाहिए।
  • गठबन्धन सरकार में सभी निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाने चाहिए।
  • गठबन्धन सरकार में परस्पर समन्वय बनाकर कार्य करना चाहिए।
  • गठबन्धन सरकार के माध्यम से राजनीतिक अस्थिरता के प्रयास नहीं करने चाहिए।
  • गठबन्धन में शामिल क्षेत्रीय दलों को उचित सम्मान देना चाहिए।
  • गठबन्धन में शामिल क्षेत्रीय दलों को प्रधानमन्त्री पर अनावश्यक दबाव नहीं बनाना चाहिए।
  • गठबन्धन सरकार दल-बदल का मंच नहीं बननी चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
1990 के दशक में सहभागी उमड़ के कोई चार पक्ष लिखें।
उत्तर:
1. लोगों की सहभागिता में वृद्धि-1990 के दशक में लोगों की राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि हुई। पिछले दशकों की अपेक्षा इस दशक में लोगों के राजनीतिक ज्ञान, रुचि एवं गतिविधियों में वृद्धि हुई।

2. विभिन्न दलों की सत्ता में भागीदारी-1989 से सत्ता कई दलों में विभाजित रही। इस दौरान जनता दल, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, डी० एम० के०, अन्ना डी० एम० के०, तेलुगू देशम, नेशनल कान्फ्रेंस, शिरोमणि अकाली दल, इनैलो, शिवसेना, बीजू जनता दल, तृणमूल पार्टी तथा असम गण परिषद जैसे दलों ने भी केन्द्र स्तर पर सत्ता में भागीदारी की।

3. क्षेत्रीय दलों का प्रभाव- भारतीय राजनीति में लोकतान्त्रिक उमड़ का एक पक्ष यह रहा है कि 1990 के दशक में क्षेत्रीय दलों ने भारतीय राजनीति को प्रभावित किया।

4. दलित एवं पिछड़े वर्गों का उभरना-भारतीय राजनीति में लोकतान्त्रिक उमड़ का एक पक्ष अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों की राजनीति का उभरना है।

प्रश्न 2.
जनता दल का निर्माण किन कारणों से हुआ? इसके मुख्य घटकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
1988 में एक नए राजनीतिक दल, जनता दल की स्थापना की गई। 1987 में, कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं ने पार्टी का त्याग करके ‘जन मोर्चा’ का निर्माण किया। इसके साथ ही अनेक नेता एक ऐसे नये राजनीतिक दल का निर्माण करने का प्रयास कर रहे थे, जो कांग्रेस का विकल्प बन सके। 26 जुलाई, 1988 को चार विपक्षी दलों जनता पार्टी, लोकदल, कांग्रेस (स) और जन मोर्चा के विलय से एक नये राजनीतिक दल की स्थापना की गई। इस नये दल का नाम समाजवादी जनता दल रखा गया। 11 अक्तूबर, 1988 को बैंगलोर में समाजवादी जनता दल का नाम बदलकर जनता दल कर दिया गया। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता दल का प्रधान मनोनीत किया गया।

प्रश्न 3.
जनता दल का कार्यक्रम एवं नीतियां लिखें।
उत्तर:

  • जनता दल का लोकतन्त्र में दृढ़ विश्वास है और उत्तरदायी प्रशासनिक व्यवस्था को अपनाने के पक्ष में है।
  • जनता दल ने भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए सात सूत्रीय कार्यक्रम अपनाने की बात कही है।
  • पार्टी राजनीति में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल की नियुक्ति के पक्ष में है।
  • पार्टी पंचायती राज संस्थाओं को अधिक-से-अधिक स्वायत्तता देने के पक्ष में है।

प्रश्न 4.
भारतीय जनता पार्टी का उदय किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी का उदय (जन्म) 1980 में जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता के मुद्दे को लेकर असहमति के कारण हुआ। 19 मार्च, 1980 को जनता पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड ने बहुमत से फैसला किया कि जनता पार्टी का कोई भी अधिकारी, विधायक और सांसद् राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दैनिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकता। परन्तु बोर्ड की बैठक में श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लाल कृष्ण आडवाणी तथा श्री नाना जी देशमुख ने बोर्ड के इस निर्णय का विरोध किया।

4 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी का एक और विभाजन प्रायः निश्चित हो गया, जब पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने अपने संसदीय बोर्ड के प्रस्ताव का अनुमोदन कर पार्टी के विधायकों, सांसदों और पदाधिकारियों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों में भाग लेने पर रोक लगा दी। 5 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व जनसंघ के सदस्यों ने नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन किया और एक नई पार्टी बनाने का निश्चय किया। 6 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व विदेश मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन किया गया।

प्रश्न 5.
भारत में गठबन्धन सरकार के उदय के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:
1. कांग्रेस के आधिपत्य की समाप्ति-1989 के बाद कांग्रेस के आधिपत्य वाली स्थिति पहले जैसी नहीं रही। इसके विरुद्ध अनेक राजनीतिक दल आ गए जिससे गठबन्धनवादी सरकारों का दौर शुरू हुआ।

2. क्षेत्रीय दलों में वृद्धि-क्षेत्रीय दलों की बढ़ती संख्या के कारण किसी भी एक राष्ट्रीय दल को लोकसभा या विधानसभा में बहुमत मिलना कठिन हो गया है। इससे राजनीतिक दल आपस में गठबन्धन बनाने लगे हैं।

3. दल-बदल-भारत में दल-बदल विरोधी कानून होने के बावजूद भी दल-बदल की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग पाई है। दल-बदल के कारण सरकारों का अनेक बार पतन हुआ और जो नई सरकारें बनीं वे भी गठबन्धन करके बनीं।

4. क्षेत्रीय हितों की उपेक्षा-प्रायः केन्द्र में बनी राष्ट्रीय दलों की सरकारों ने क्षेत्रीय हितों की उपेक्षा की है। इससे क्षेत्रीय स्तर के दलों ने मुद्दों पर आधारित राजनीति के अनुसार गठबन्धनकारी दौर की शुरुआत की।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 6.
भारत द्वारा नई आर्थिक नीति अपनाने के कोई चार कारण बताइए।
उत्तर:
भारत द्वारा निम्नलिखित कारणों से नई आर्थिक नीति अपनाई गई

  • भारत में सन् 1980 तक आर्थिक सुधार की प्रक्रिया बहुत धीमी थी, इस प्रक्रिया को बढ़ाना अवश्यक था।
  • भारत का सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P.) इस दौरान केवल 36% की दर से बढ़ रहा था। इसे बढ़ाने के लिए नई आर्थिक नीति की आवश्यकता थी।
  • भारत में निर्यात की मात्रा कम थी, जबकि आयात की मात्रा अधिक थी, अत: निर्यात की मात्रा बढ़ाने के लिए नई आर्थिक नीति की आवश्यकता थी।
  • भारत पर लगातार बढ़ रहे विदेशी कर्जे को कम करने के लिए भी नई आर्थिक नीति की आवश्यकता थी।

प्रश्न 7.
राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के उदय का वर्णन करें।
उत्तर:
26 अप्रैल, 1999 को मात्र 13 माह पुरानी लोकसभा को राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर भंग कर दिया। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनाव करवाए गए। परन्तु इन चुनावों से पहले मई, 1999 में 24 राजनीतिक दलों ने मिलकर राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन-राजग (National Democratic Alliance—NDA) के नाम से एक महान् गठबन्धन बनाया।

इस गठबन्धन में अधिकतर वे दल ही सम्मिलित थे, जो बारहवीं लोकसभा में भाजपा गठबन्धन सरकार में सम्मिलित थे। राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता भी अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री के रूप में पेश किया। इस गठबन्धन ने उन राजनीतिक दलों, जिन्होंने राष्ट्रीय हित से ऊपर राजनीतिक निषेधवाद, संकीर्ण निजी हितों और सत्ता के लालच को अपना स्वार्थ बनाया है, पर आरोप लगाया कि उन्होंने 1999 के चुनाव अनावश्यक रूप से राष्ट्र पर थोप दिये हैं।

राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में 297 सीटों पर विजय प्राप्त की तथा श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई। परन्तु 2004 के 14वीं एवं 2009 के 15वीं लोकसभा के चुनावों में इस गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा। परंतु 2014 एवं 2019 के लोकसभा चुनाव जीतकर इस गठबन्धन ने श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार का निर्माण किया।

प्रश्न 8.
संयक्त प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किस प्रकार हआ ?
उत्तर:
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (United Progressive Alliance-UPA) का निर्माण 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् हुआ। अप्रैल-मई, 2004 के 14वीं लोकसभा के चुनावों में भी किसी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अधिकांश गैर भाजपा गठबन्धन तथा गैर कांग्रेस गठबन्धन दलों जैसे भारतीय साम्यवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी), जनता दल (एस०) तथा लोकजन शक्ति पार्टी ने कांग्रेस गठबन्धन को अपना समर्थन दिया।

परिणामस्वरूप 22 मई, 2004 को गठबन्धन के नेता डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाई गई। 27 मई, 2004 को कांग्रेस गठबन्धन को विधिवत् रूप से संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन का नाम दिया गया तथा इस गठबन्धन ने अपना एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी जारी किया। भारतीय साम्यवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी) ने इस गठबन्धन को बाहर से समर्थन देने का निर्णय किया।

प्रारम्भिक तौर पर गठबन्धन के नेता के रूप में श्रीमती सोनिया गाँधी का प्रधानमन्त्री बनना लगभग तय माना जा रहा था, परन्तु भाजपा एवं कुछ अन्य वर्गों के विरोध के. कारण श्रीमती सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमन्त्री बनने से इन्कार कर दिया। अतः गठबन्धन में कांग्रेस के नेता डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाने पर सहमति बनी। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् पुनः इस गठबन्धन की सरकार बनी तथा डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री बने। 2014 एवं 2019 के लोकसभा चुनावों में इस गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 9.
साम्प्रदायिकता से आपका क्या तात्पर्य है ? संक्षेप में लिखें।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म जाति के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। . एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्रों के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है। ए० एच० मेरियम के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की अभिवृत्ति की ओर संकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफ़ादारी रखना है।” के० पी० करुणाकरण के अनुसार, “भारत में साम्प्रदायिकता का अर्थ वह विचारधारा है जो किसी विशेष धार्मिक समुदाय या जाति के सदस्यों के हितों का विकास का समर्थन करती है।”

प्रश्न 10.
भारतीय राजनीति पर साम्प्रदायिकता के कोई चार प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है-

(1) भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।

(2) चुनावों में साम्प्रदायिकता की भावना महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्राय: सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चुनाव करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं और जिस चुनाव क्षेत्र में जिस समुदाय के अधिक मतदाता होते हैं प्राय: सभी राजनीतिक दल चुनावों में वोट डालने के लिए साम्प्रदायिक तत्त्वों के साथ समझौता करते हैं।

(3) राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं।

(4) धर्म के नाम पर राजनीतिक संघर्ष और साम्प्रदायिक झगड़े होते रहते हैं।

प्रश्न 11.
भारत में नई आर्थिक नीति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
भारत की ‘नई आर्थिक नीति’ की कोई चार मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारत में नई आर्थिक नीति की घोषणा सन् 1991 में की गई थी, जिसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं
1. परमिट राज की समाप्ति-1991 की नई आर्थिक के अन्तर्गत परमिट राज की समाप्ति करके भारतीय बाजारों को मुक्त एवं उदारवादी व्यवस्था में परिवर्तित किया गया।

2. राजकोषीय नीति-1991 की आर्थिक नीति की घोषणा के अन्तर्गत राजकोषीय नीति की भी घोषणा की गई, सार्वजनिक खर्चे को नियन्त्रित करके राजस्व को बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया। इस नीति में केन्द्र एवं राज्य सरकार पर सब्सिडी को धीरे-धीरे कम करके राजकोषीय अनुशासन को लागू करने की बात की गई।

3. विदेशी खाते सम्बन्धी नीति-1991 की आर्थिक नीति के अन्तर्गत विदेशी खाते के घाटे को कम करने के लिए विशेष प्रावधान किए गए।

4. कीमत नीति-1991 की आर्थिक नीति के अन्तर्गत सब्सिडी को धीरे-धीरे कम करके कई वस्तुओं जैसे पेट्रोलियम पदार्थों, खादों, रेलवे तथा बसों के किरायों तथा चीनी के दामों में वृद्धि की गई। इसके साथ-साथ सभी क्षेत्रों में कीमत नीतियों को लोचशील बनाने का प्रयास किया गया।

प्रश्न 12.
भारत में साम्प्रदायिकता के कोई चार कारण लिखें।
अथवा
भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के कोई चार कारण बताइए।
उत्तर:
1. साम्प्रदायिक दल-साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में साम्प्रदायिक दलों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। भारत में अनेक साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं।

2. राजनीति और धर्म–साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि राजनीति में धर्म घुसा हुआ है। धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है। पंजाब के धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है जोकि पिछले कई वर्षों से चिन्ता का विषय बना हुआ है।

3. सरकार की उदासीनता-हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संघीय और राज्यों की सरकारों ने दृढ़ता से इस समस्या को हल करने का प्रयास नहीं किया है। कभी भी इस समस्या की विवेचना गम्भीरता से नहीं की गई।

4. साम्प्रदायिक शिक्षा-कई प्राइवेट स्कूलों तथा कॉलेजों में धर्म-शिक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है।

प्रश्न 13.
भारत में साम्प्रदायिकता को रोकने के कोई चार उपाय लिखें।
उत्तर:

  • साम्प्रदायिकता को रोकने का सबसे अच्छा साधन शिक्षा का प्रसार है।
  • साम्प्रदायिक दलों को समाप्त कर देना चाहिए।
  • धर्म एवं राजनीति को अलग-अलग रखना चाहिए।
  • सरकार को अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए और उनमें सुरक्षा की भावना पैदा करनी चाहिए।

प्रश्न 14.
गठबन्धन सरकार के भारतीय राजनीति पर पड़ने वाले कोई चार प्रभावों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • गठबन्धन सरकार के कारण भारतीय राजनीति में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई है।
  • गठबन्धन सरकारों में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमजोर हई है।
  • गठबन्धन सरकार में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा है।
  • गठबन्धन सरकारों के कारण दल-बदल को बढ़ावा मिला है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 15.
गठबन्धन सरकार के कोई चार मुख्य लक्षण बताइए।
उत्तर:
1. समझौतावादी कार्यक्रम-गठबन्धन सरकार का पहला लक्षण यह है, कि उनका राजनीतिक कार्यक्रम समझौतावादी होता है। गठबन्धन सरकार का कार्यक्रम बनाते प्रत्येक दल की बातों व कार्यक्रम का ध्यान रखा जाता है।

2. सर्वसम्मत नेता-गठबन्धन सरकार में सभी दल मिलकर अपने नेता का चुनाव करते हैं। नेता का चुनाव प्रायः सर्वसम्मत ढंग से किया जाता है।

3. सर्वसम्मत निर्णय-गठबन्धन सरकार में शामिल घटक दल किसी भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय समस्या का हल सर्वसम्मति से करते हैं।

4. मिल-जुल कर कार्य करना-गठबन्धन सरकार में शामिल सभी घटक दल मिल-जुलकर कार्य करते हैं।

प्रश्न 16.
गठबन्धन राजनीति से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
गठबन्धन सरकार का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
गठबन्धन की राजनीति का साधारण अर्थ है कई दलों द्वारा मिलकर सरकार का निर्माण करना। चुनावों से पूर्व या चुनावों के बाद कई दल मिलकर अपना साझा कार्यक्रम तैयार करते हैं। उसके आधार पर वे मिलकर चुनाव लड़ते हैं अथवा अपनी सरकार बनाते हैं । गठबन्धन सरकार का निर्णय प्रायः उस स्थिति में किया जाता है, जब प्राय: किसी एक दल को चुनावों के बाद स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हुआ हो। तब दो या दो से अधिक दल मिलकर संयुक्त सरकार का निर्माण करते हैं। ऐसी सरकार में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने दलों के संकीर्ण व विशेष हितों को त्याग कर एक निश्चित कार्यक्रम पर अपनी सहमति प्रकट करते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1990 के दशक में सहभागी उमड़ के कोई दो पक्ष लिखें।
उत्तर:
(1) 1990 के दशक में लोगों की राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि हुई। पिछले दशकों की अपेक्षा इस दशक में लोगों के राजनीतिक ज्ञान, रुचि एवं गतिविधियों में वृद्धि हुई है।

(2) 1990 के दशक में जनता दल, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, डी० एम० के०, अन्ना डी० एम० के०, तेलुगू देशम, नेशनल कान्फ्रेंस, शिरोमणि अकाली दल, इनैलो, शिवसेना, बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस तथा असम गण परिषद् जैसे दलों ने भी केन्द्र स्तर पर सत्ता में भागीदारी की।

प्रश्न 2.
जनता दल के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
1980 के दशक के अन्त में अनेक नेता एक ऐसे नये राजनीतिक दल का निर्माण करने का प्रयास कर रहे थे, जो कांग्रेस का विकल्प बन सके। 26 जुलाई, 1988 में चार विपक्षी दलों जनता पार्टी, लोकदल, कांग्रेस (स) और जन मोर्चा के विलय से एक नये राजनीतिक दल की स्थापना की गई। इस नये राजनीतिक दल का नाम समाजवादी जनता दल रखा गया। 11 अक्तूबर, 1988 को बंगलौर में समाजवादी जनता दल का नाम बदल कर जनता दल कर दिया तथा श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता दल का प्रधान मनोनीत किया।

प्रश्न 3.
भारतीय जनता पार्टी का जन्म किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी का जन्म 1980 में जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता के मुद्दे को लेकर असहमति के कारण हुआ। 19 मार्च, 1980 को जनता पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड ने बहुमत से फैसला किया कि जनता पार्टी का कोई भी अधिकारी, विधायक और सांसद् राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दैनिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकता।

परन्तु बोर्ड की बैठक में श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लाल कृष्ण आडवाणी तथा श्री नाना जी देशमुख ने इस निर्णय का विरोध किया। 5 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व जनसंघ के सदस्यों ने नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन किया, और एक नई पार्टी बनाने का निश्चय किया। 6 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व विदेशमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन किया गया।

प्रश्न 4.
भारत में गठबन्धनवादी सरकारों के निर्माण के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:
(1) 1989 के बाद राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के आधिपत्य की पूर्ण रूप से समाप्ति हो गई। कांग्रेस के विरुद्ध अनेक राजनीतिक दल आ गए हैं, जिससे गठबन्धनवादी सरकारों का दौर शुरू हुआ।

(2) क्षेत्रीय दलों की बढ़ती संख्या के कारण किसी भी एक राष्ट्रीय दल को लोकसभा या विधानसभा में बहुमत मिलना कठिन हो गया है, इससे राजनीतिक दल आपस में गठबन्धन बनाने लगे हैं।

प्रश्न 5.
राजीव गांधी सरकार ने दल-बदल विरोधी अधिनियम कब पास किया ?
उत्तर:
राजीव गांधी सरकार ने दल-बदल विरोधी अधिनियम सन् 1985 में लागू किया।

प्रश्न 6.
संयुक्त मोर्चे के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
संयुक्त मोर्चे का निर्माण 11 मई, 1996 को किया गया। इस मोर्चे में गैर भाजपा एवं गैर कांग्रेसी दल शामिल हुए, जिनमें जनता दल, भारतीय साम्यवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी), तिवारी कांग्रेस, डी० एम० के०, तमिल मनीला कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा जनता पार्टी प्रमुख थे। 1996 में भाजपा गठबन्धन सरकार गिरने के बाद संयुक्त मोर्चे ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार का निर्माण किया था।

प्रश्न 7.
राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन-राजग (National Democratic Alliance-NDA) का निर्माण मई, 1999 में भारतीय जनता पार्टी एवं इसके सहयोगी दलों ने किया। इस गठबन्धन में अधिकतर वे दल ही सम्मिलित थे, जो बारहवीं लोकसभा में भाजपा गठबन्धन सरकार में सम्मिलित थे। राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री के रूप में पेश किया।

इस गठबन्धन ने 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में 297 सीटों पर विजय प्राप्त की, तथा श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई। परन्तु, 2004 के 14वीं एवं 2009 के 15वीं लोकसभा के चुनावों में इस गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा। जबकि 2014 एवं 2019 के चुनावों में इस गठबन्धन को ऐतिहासिक जीत प्राप्त हुई।

प्रश्न 8.
साम्प्रदायिकता का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
साम्प्रदायिकता से अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना, एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्र के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है। ए० एच० मेरियम (A.H. Merriam) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की अभिवृत्ति की ओर संकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”

प्रश्न 9.
केन्द्र में इस समय किस राजनीतिक दल की सरकार है ?
उत्तर:
केन्द्र में इस समय भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार है, और इस गठबन्धन सरकार के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी हैं।

प्रश्न 10.
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन पर नोट लिखें।
उत्तर:
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (United Progressive Alliance-UPA) का निर्माण मई, 2004 में कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दलों ने किया। इस गठबन्धन का अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को बनाया गया तथा कांग्रेस के नेताडॉ० मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाने का निर्णय लिया, जिन्होंने 22 मई, 2004 को अपनी सरकार बनाई। इस गठबन्धन ने अपना एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी जारी किया, जिसमें सभी सहयोगी दलों की मुख्य नीतियों को शामिल किया। मई, 2009 में भी डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में इस गठबन्धन की सरकार बनी। परंतु 2014 एवं 2019 के चुनावों में इस गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 11.
अप्रैल-मई 2019 में हुए 17वीं लोक सभा के चुनावों में किस गठबन्धन को सफलता प्राप्त हुई ?
उत्तर:
अप्रैल-मई 2019 में हुए 17वीं लोक सभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन को सफलता प्राप्त हुई। इस गठबन्धन को 355 सीटें प्राप्त हुईं तथा इसने श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार का निर्माण किया।

प्रश्न 12.
शाहबानो केस क्या था ?
उत्तर:
शाहबानो केस (1985) एक 62 वर्षीया तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो से सम्बन्धित था। उसने अपने भूतपूर्व पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने के लिए अदालत में याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया। परन्तु कुछ मुस्लिम नेताओं ने इसे ‘पर्सनल ला’ में हस्तक्षेप माना। अतः सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला कानन (तलाक से सम्बन्धित अधिकारों) पास किया। इस कानन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त कर दिया गया।

प्रश्न 13.
त्रिशंकु संसद् से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
त्रिशंकु संसद् का अर्थ यह है कि चुनावों के बाद किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलना। तब दो या दो से अधिक दल मिलकर सरकार का निर्माण करते हैं।

प्रश्न 14.
1990 के पश्चात् भारतीय राजनीति में उभार के दो कारण लिखिए।
उत्तर:

  • राजनीतिक जागरूकता-1990 के पश्चात् भारतीय राजनीति में उभार का एक प्रमुख कारण लोगों में राजनीतिक जागरूकता का आना था।
  • क्षेत्रीय दलों का उदय-1990 के पश्चात् भारतीय राजनीति में उभार का एक अन्य प्रमुख कारण क्षेत्रीय दलों का उदय था।

प्रश्न 15.
‘गठबन्धन’ का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर:
गठबन्धन की राजनीति का साधारण अर्थ है कई दलों द्वारा मिलकर सरकार का निर्माण करना। चुनावों से पूर्व या चुनावों के बाद कई दल मिलकर अपना साझा कार्यक्रम तैयार करते हैं। उसके आधार पर वे मिलकर चुनाव लड़ते हैं अथवा अपनी सरकार बनाते हैं। गठबन्धन सरकार का निर्णय प्रायः उस स्थिति में किया जाता है, जब प्रायः किसी एक दल को चुनावों के बाद स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हुआ हो। तब दो या दो ये अधिक दल मिलकर संयुक्त सरकार का निर्माण करते हैं।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 16.
‘गठबन्धन सरकार’ की कोई दो विशेषतायें लिखिए।
उत्तर:

  • गठबन्धन सरकार का राजनीतिक कार्यक्रम समझौतावादी होता है।
  • गठबन्धन सरकार में सभी दल मिलकर अपने नेता का चुनाव करते हैं।

प्रश्न 17.
भारत में साम्प्रदायिकता को रोकने के लिए कोई दो सुझाव दीजिये।
उत्तर:

  • भारत में साम्प्रदायिकता को रोकने के लिए शिक्षा का प्रसार करना।
  • साम्प्रदायिक दलों पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. 1990 के दशक में लोकतान्त्रिक उमड़ का क्या कारण है ?
(A) अत्यधिक क्षेत्रीय दलों की उत्पत्ति
(B) राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का बढ़ता महत्त्व
(C) लोगों में राजनीतिक जागरूकता
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

2. जनता दल की स्थापना कब हुई ?
(A) 1989
(B) 1992
(C) 1993
(D) 1995
उत्तर:
(A) 1989

3. 1989 के चुनावों के पश्चात् केन्द्र में जनता दल ने किसके नेतृत्व में सरकार बनाई ?
(A) एस० आर० बोम्मई
(B) चौ० देवी लाल
(C) श्री वी० पी० सिंह
(D) श्री चन्द्रशेखर।
उत्तर:
(C) श्री वी० पी० सिंह।

4. भारतीय जनता पार्टी की स्थापना कब हुई ?
(A) 1977
(B) 1980
(C) 1982
(D) 1984
उत्तर:
(B) 1980

5. संयुक्त मोर्चा की स्थापना किस वर्ष में हुई ?
(A) 1996
(B) 1998
(C) 1999
(D) 2000
उत्तर:
(A) 1996

6. 1996 में किस दल की सरकार केवल 13 दिन तक चली ?
(A) कांग्रेस
(B) भारतीय जनता पार्टी
(C) संयुक्त मोर्चा
(D) जनता दल।
उत्तर:
(B) भारतीय जनता पार्टी।

7. भारत में नई आर्थिक नीति कब अपनाई गई ?
(A) 1989 में
(B) 1985 में
(C) 1950 में
(D) 1991 में।
उत्तर:
(D) 1991 में।

8. बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं
(A) मायावती
(B) कांशीराम
(C) (A) और (B) दोनों
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) मायावती।

9. राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (N.D.A.) का गठन कब हुआ?
(A) सन् 1977 में
(B) सन् 1991 में
(C) सन् 1998 में
(D) सन् 1999 में।
उत्तर:
(D) 1999 में।

10. भारत में कौन-सी दलीय प्रणाली पाई जाती है?
(A) एक दलीय प्रणाली
(B) द्विदलीय प्रणाली
(C) बहु दलीय प्रणाली
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(C) बहुदलीय प्रणाली।

11. संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (UPA) का गठन कब हुआ?
(A) सन् 1998 में
(B) सन् 1999 में
(C) सन् 2004 में
(D) सन् 2009 में।
उत्तर:
(C) सन् 2004 में।

12. 2019 के 17वें लोकसभा चुनावों में किस गठबन्धन की सरकार बनी ?
(A) संयुक्त मोर्चा की
(B) राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की
(C) संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की
(D) साम्यवादी दलों के गठबन्धन की।
उत्तर:
(B) राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की।

13.
2014 के 16वीं लोकसभा के चुनावों में किस गठबन्धन की सरकार बनी?
(A) संयुक्त मोर्चा की
(B) राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की
(C) संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की
(D) वाम पंथी गठबन्धन की।
उत्तर:
(B) राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की।

14. किस वित्त मन्त्री ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की ?
(A) जसवंत सिंह
(B) डॉ. मनमोहन सिंह
(C) मुरली मनोहर जोशी
(D) डॉ० प्रणव मुखर्जी।
उत्तर:
(B) डॉ. मनमोहन सिंह।

15. बाबरी मस्जिद का विध्वंस कब हुआ?
(A) 6 दिसम्बर, 1992 को
(B) 11 दिसम्बर, 1992 को
(C) 13 दिसम्बर, 1992 को
(D) 25 नवम्बर, 1990 को।
उत्तर:
(A) 6 दिसम्बर, 1992 को।

16. गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे कब हुए ?
(A) 1990
(B) 2000
(C) 1996
(D) 2002
उत्तर:
(D) 2002

17. गुजरात में साम्प्रदायिक दंगों का मुख्य कारण था
(A) आरक्षण विवाद
(B) गोधरा काण्ड
(C) 1984 के दिल्ली के दंगे
(D) मण्डल आयोग।
उत्तर:
(B) गोधरा काण्ड।

18. सन् 2004 के संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (यू० पी० ए०) सरकार में अधिकतम मंत्री किस दल के थे?
(A) भारतीय जनता पार्टी
(B) कांग्रेस पार्टी
(C) कम्युनिस्ट पार्टी
(D) समाजवादी पार्टी।
उत्तर:
(B) कांग्रेस पार्टी।

19. सन् 2014 में लोकसभा का कौन-सा चुनाव हुआ था ?
(A) चौदहवां चुनाव
(B) पंद्रहवां चुनाव
(C) सोलहवां चुनाव
(D) सत्रहवां चुनाव।
उत्तर:
(C) सोलहवां चुनाव।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

20. केन्द्र में गठबन्धन सरकारों का दौर कब शुरू हुआ था ?
(A) 1989 में
(B) 2009 में
(C) 1996 में
(D) 2004 में।
उत्तर:
(A) 1989 में।

21. जनमोर्चा का गठन किया गया :
(A) 2 अक्टूबर, 1980
(B) 2 अक्टूबर, 1986
(C) 2 अक्टूबर, 1987
(D) 2 अक्टूबर, 1992
उत्तर:
(C) 2 अक्टूबर 1987

22. किसने जनमोर्चा का गठन किया था ?
(A) सोनिया गांधी
(B) नरसिम्हा राव
(C) लाल कृष्ण आडवाणी
(D) वी० पी० सिंह।
उत्तर:
(D) वी० पी० सिंह।

23. जनता दल का प्रथम अध्यक्ष किसे नियुक्त किया गया था ?
(A) वी० पी० सिंह
(B) लाल कृष्ण आडवाणी
(C) डॉ. मनमोहन सिंह
(D) अटल बिहारी वाजपेयी।
उत्तर:
(A) वी० पी० सिंह।

24. भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार से समर्थन कब वापिस लिया था ?
(A) 23 अक्टूबर, 1990
(B) 23 अक्टूबर, 1991
(C) 23 अक्टूबर, 1992
(D) 23 अक्टूबर, 1993
उत्तर:
(A) 23 अक्टूबर, 1990

25. वी० पी० सिंह के पश्चात् देश का प्रधानमन्त्री कौन बना था ?
(A) राजीव गांधी
(B) श्रीमती सोनिया गांधी
(C) चन्द्रशेखर
(D) नरसिम्हा राव।
उत्तर:
(C) चन्द्रशेखर।

26. भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान अध्यक्ष कौन है ?
(A) अटल बिहारी वाजपेयी
(B) जे० पी० नड्डा
(C) लाल कृष्ण आडवाणी
(D) सुषमा स्वराज।
उत्तर:
(B) जे० पी० नड्डा।

27. भारत में कितने मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं ?
(A) 5
(B) 6
(C) 7
(D) 8
उत्तर:
(D) 8

28. भारत में मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय दल हैं
(A) 40
(B) 42
(C) 43
(D) 53
उत्तर:
(D) 53

29. 2019 के 17वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को कितनी सीटें मिली ?
(A) 209
(B) 52
(C) 226
(D) 216
उत्तर:
(B) 52

30. 2019 के 17वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को कितनी सीटें मिली ?
(A) 303
(B) 86
(C) 181
(D) 216
उत्तर:
(A) 303

निम्न रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

(1) भारत में ……………. के दशक से लोकतान्त्रिक उमड़ एवं गठबन्धनवादी राजनीति में वृद्धि हुई।
उत्तर:
1990

(2) श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या …………… में की गई।
उत्तर:
1984

(3) 1988 में ………….. का गठन हुआ।
उत्तर:
जनता दल

(4) राजग सरकार का गठन …………. में हुआ।
उत्तर:
1999

(5) संप्रग (UPA) सरकार का गठन ………….. में हुआ।
उत्तर:
2004

(6) 1989 में ………… प्रधानमन्त्री बने।
उत्तर:
वी० पी० सिंह

(7) बाबरी मस्जिद का विध्वंस 6 दिसम्बर, ……… को हुआ।
उत्तर:
1992

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
वर्तमान समय में कांग्रेस का चुनाव चिह्न क्या है ?
उत्तर:
वर्तमान समय में कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ है ।

प्रश्न 2.
जनता दल का गठन कब किया गया ?
उत्तर:
जनता दल का गठन 1988 में किया गया।

प्रश्न 3.
‘मण्डल आयोग’ की सिफ़ारिशों को किस प्रधानमन्त्री द्वारा लागू किया गया ?
उत्तर:
श्री० वी० पी० सिंह द्वारा।

प्रश्न 4.
इस समय केन्द्र में किसकी सरकार कार्यरत है ?
उत्तर:
इस समय केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार कार्यरत है।

प्रश्न 5.
भारतीय जनता पार्टी की स्थापना कब हुई ?
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी की स्थापना सन् 1980 में हुई।

प्रश्न 6.
संयुक्त मोर्चा की स्थापना किस वर्ष हुई ?
उत्तर:
संयुक्त मोर्चा की स्थापना 1996 में हुई।

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प्रश्न 7.
1996 में किस दल की सरकार केवल 13 दिन तक चली ?
उत्तर:
1996 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार केवल 13 दिन तक चली।

प्रश्न 8.
राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की स्थापना कब की गई ?
उत्तर:
राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की स्थापना सन् 1999 में की गई।

प्रश्न 9.
2019 के 17वें लोकसभा चुनावों में किस गठबन्धन की सरकार बनी ?
उत्तर:
राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की।

प्रश्न 10.
वर्तमान में ‘बहुजन समाज पार्टी’ का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन है ?
उत्तर:
कुमारी मायावती।

प्रश्न 11.
वर्तमान में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (U.P.A.) का अध्यक्ष कौन है ?
उत्तर:
वर्तमान में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (U.P.A.) की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी है।

प्रश्न 12.
‘बहुजन समाज पार्टी’ का चुनाव चिह्न क्या है ? .
उत्तर:
बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न ‘हाथी’ है।

प्रश्न 13.
आजकल भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन हैं ?
उत्तर:
जे० पी० नड्डा।

प्रश्न 14.
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (U.P.A.) का गठन कब हुआ था ?
उत्तर:
सन् 2004 में।

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HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद से आप क्या समझते हैं ? क्षेत्रवाद के विकास के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
क्षेत्रवाद का अर्थ (Meaning of Regionalism):
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीति में जो नए प्रश्न उभरे हैं, उनमें क्षेत्रवाद (Regionalism) का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी देश के उस छोटे-से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। प्रो० डी० सी० गुप्ता (D.C. Gupta) के अनुसार, “क्षेत्रवाद का अर्थ देश की अपेक्षा किसी विशेष क्षेत्र से प्यार है।” – फ्रॉसटर (Froster) के मतानुसार क्षेत्रवाद से अभिप्राय एक देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक आदि से अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक है।”

प्रो० एस० आर० माहेश्वरी (S.R. Maheshwari) के अनुसार, “क्षेत्रवाद के किसी खास क्षेत्र के पारस्परिक समानता और एकरूपता के अलावा बाकी देश से अलग विभिन्नता की भावना का होना ज़रूरी है।” भारत की राजनीति को क्षेत्रवाद और क्षेत्रीय आन्दोलनों ने बहुत अधिक क्षेत्रीय आकांक्षाएँ प्रभावित किया है और यह भारत के लिए एक जटिल समस्या बन रही है और आज भी विद्यमान है।

आज यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कौन है तो वह भारतीय कहने के स्थान पर बंगाली, बिहारी, पंजाबी, हरियाणवी आदि कहना पसन्द करेगा। यद्यपि संविधान के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को भारत की ही नागरिकता दी गई है तथापि लोगों में क्षेत्रीयता व प्रान्तीयता की भावनाएं इतनी पाई जाती हैं कि वे अपने क्षेत्र या प्रान्त के लिए राष्ट्रीय हित को बलिदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। 1950 से लेकर आज तक क्षेत्रवाद की समस्या भारत सरकार को घेरे हए है और विभिन्न क्षेत्रों में आन्दोलन चलते रहते हैं।

क्षेत्रवाद के विकास के कारण (Reasons for development of Regionalism) क्षेत्रवाद भावना की उत्पत्ति एक कारण से न होकर अनेक कारणों से होती है, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं

1. भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राज्यों का पुनर्गठन किया गया तब राज्य की पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया बल्कि उनको पुनर्गठन का आधार बनाया गया है। इसी कारण एक राज्य के रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पाई। प्रायः भाषा और संस्कृति क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहयोग देते हैं।

2. ऐतिहासिक कारण:
क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में इतिहास का दोहरा सहयोग रहा है-सकारात्मक सकारात्मक योगदान के अन्तर्गत शिव सेना का उदाहरण दिया जा सकता है और नकारात्मक के अन्तर्गत द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का कहना है कि प्राचीनकाल से ही उत्तरी राज्य दक्षिणी राज्यों पर शासन करते आए हैं।

3. भाषा:”
भारत में सदैव ही अनेक भाषाएं बोलने वालों ने कई बार अलग राज्य के निर्माण के लिए व्यापक आन्दोलन किए हैं। भारत सरकार ने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन करके ऐसी समस्या उत्पन्न कर दी है जिसका अन्तिम समाधान निकालना बड़ा कठिन होता है।

4. जाति:
जाति ने भी क्षेत्रवाद की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही, वहां पर क्षेत्रवाद का उग्र रूप देखने को मिलता है। यही कारण है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में क्षेत्रवाद का उग्र स्वरूप देखने को मिलता है।

5. धार्मिक कारण:
धर्म भी कई बार क्षेत्रवाद की भावनाओं को बढ़ाने में सहायता करता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबे की मांग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम थी।

6. आर्थिक कारण:
क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में आर्थिक कारण महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत में जो थोड़ा बहुत आर्थिक विकास हुआ है उसमें बहुत असमानता रही है। कुछ प्रदेशों का अधिक विकास हुआ है और कुछ क्षेत्रों का विकास बहुत कम हुआ है। इसका कारण यह रहा है कि जिन व्यक्तियों के हाथों में सत्ता रही है उन्होंने अपने क्षेत्रों के विकास की ओर ही अधिक ध्यान दिया। अत: पिछड़े क्षेत्रों में यह भावना उभरी कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते। इसलिए इन क्षेत्रों के लोगों में क्षेत्रवाद की भावना उभरी और इन्होंने अलग राज्यों की मांग की।

7. राजनीतिक कारण:
क्षेत्रवाद की भावनाओं को भड़काने में राजनीतिज्ञों का भी हाथ रहा है। कई राजनीतिज्ञ यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र को अलग राज्य बना दिया जाएगा तो इससे उनको राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी अर्थात् उनके हाथ भी सत्ता लग जाएगा।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 2.
पंजाब समस्या पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
पंजाब उत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। इस राज्य की अधिकांश जनसंख्या सिक्ख समुदाय से सम्बन्धित है। 1966 में पंजाब राज्य का विभाजन करके हरियाणा नाम का एक नया राज्य बना दिया गया। पंजाब में अकाली दल महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय राजनीतिक दल है। अकाली दल ने जनसंघ के साथ मिलकर 1967 एवं 1977 में पंजाब में अपनी सरकार बनाई। अकाली दल एवं कांग्रेस में सदैव मतभेद रहे हैं। 1980 में जब अकाली चुनाव हार गए तो उन्होंने केन्द्र में कांग्रेस के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। उस समय अकाली दल की मांग थी कि

  • चण्डीगढ़ को पंजाब की राजधानी बनाया जाए।
  • दूसरे राज्यों के पंजाबी भाषी क्षेत्र को पंजाब में मिलाया जाए।
  • पंजाब का औद्योगिक विकास किया जाए।
  • भाखड़ा नंगल योजना पंजाब के नियन्त्रणाधीन हो।
  • देश के सभी गुरुद्वारे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के प्रबन्ध में हों।

पंजाब में धीरे-धीरे अशांति बढ़ने लगी थी। अतः केन्द्र की श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने ‘आपरेशन ब्लू स्टार’ के अन्तर्गत पंजाब में कार्यवाही की। इसके विरोध में 31 अक्तूबर, 1984 को श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या कर दी गई। जिससे दिल्ली में सिक्ख विरोधी दंगे शुरू हो गए। एक अनुमान के अनुसार इन दंगों में लगभग 2000 सिख पुरुष, स्त्री एवं बच्चे मारे गए। इस तरह पंजाब समस्या एवं सिक्ख विरोधी दंगों के कारण देश की एकता एवं अखण्डता के लिए खतरा पैदा हो गया।

इसीलिए प्रधानमन्त्री श्री राजीव ने पंजाब में शान्ति बनाये रखने के लिए अकाली नेताओं से समझौता किया। जिसे पंजाब समझौते के नाम से भी जाना जाता है। पंजाब समझौता-जन, 1985 में पंजाब के राज्यपाल अर्जन सिंह ने अकाली नेताओं से पंजाब समस्या पर प्रारम्भिक बातचीत शुरू कर दी। 24 जुलाई, 1985 की शाम भारतीय इतिहास की एक विशिष्ट शाम थी क्योंकि इस दिन बड़े लम्बे समय से चली आ रही पंजाब समस्या को हल किया गया।

प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और अकाली नेताओं लौंगोवाल, सुरजीत सिंह बरनाला तथा बलवन्त सिंह) में समझौता हुआ। पंजाब समझौते का सभी राजनीतिक दलों और पंजाब की आम जनता ने स्वागत किया। 26 जुलाई, 1985 को अकाली दल ने आनन्दपुर में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और सन्त हरचन्द सिंह लौंगोवाल के बीच हुए समझौते को अपनी स्वीकृति दे दी।

20 अगस्त, 1985 को संगरूर से 4 किलोमीटर दूर शरंपुर गांव के एक गुरद्वारे में राजनीतिक भाषण के बाद सन्त लौंगोवाल हो रही अरदास में माथा टेकने के लिए नीचे झुके ही थे कि धड़ाधड़ गोलियां चलीं। सन्त लौंगोवाल को तीन गोलियां लगीं और संगरूर अस्पताल में उनका देहान्त हो गया। सन्त लौंगोवाल की हत्या का गहरा आघात न केवल अकाली दल को लगा बल्कि समस्त भारत शोक में डूब गया।

25 अगस्त को सुरजीत सिंह बरनाला को अकाली दल का कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया। – प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी और अकाली दल के अध्यक्ष श्री हरचन्द सिंह लौंगोवाल के बीच हुए समझौते का विवरण इस प्रकार है

1. मारे गए निरपराध व्यक्तियों के लिए मुआवज़ा:
एक सितम्बर, 1982 के बाद हुई किसी कार्यवाही या आन्दोलन में मारे गए लोगों को अनुगृह राशि के भुगतान के साथ सम्पत्ति की क्षति के लिए मुआवज़ा दिया जाएगा।

2. सेना में भर्ती:
देश के सभी नागरिकों को सेना में भर्ती का अधिकार होगा और चयन के लिए केवल योग्यता ही आधार रहेगा।

3. नवम्बर दंगों की जांच:
दिल्ली में नवम्बर में हुए दंगों की जांच कर रहे रंगनाथ मिश्र आयोग का कार्यक्षेत्र बढ़ाकर उसमें बोकारो और कानपुर में हुए उपद्रवों की जांच को भी शामिल किया जाएगा।

4. सेना से निकाले हुए व्यक्तियों का पुनर्वास:
सेना से निकाले हुए व्यक्तियों को पुनर्वास और उन्हें लाभकारी रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएंगे।

5. अखिल भारतीय गुरुद्वारा कानून:
भारत सरकार अखिल भारतीय गुरुद्वारा कानून बनाने पर सहमत हो गई। इसके लिए शिरोमणि अकाली दल और अन्य सम्बन्धियों के साथ सलाह-मश्वरा और संवैधानिक ज़रूरतें पूरी करने के बाद विधेयक लागू किया जाएगा।

6. लम्बित मकद्दमों का फैसला:
सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानन को पंजाब में लाग करने वाली अधिसचना वापस ली जाएगी। वर्तमान विशेष न्यायालय केवल विमान अपहरण तथा शासन के खिलाफ युद्ध के मामले सुनेगी। शेष मामले सामान्य न्यायालयों को सौंप दिए जाएंगे और यदि आवश्यक हुआ तो इसके बारे में कानून बनाया जाएगा।

7. सीमा विवाद:
चण्डीगढ़ का राजधानी परियोजना क्षेत्र और सुखना ताल पंजाब को दिए जाएंगे। केन्द्र शासित प्रदेश के अन्य पंजाबी क्षेत्र पंजाब को तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा को दिए जाएंगे।

प्रश्न 3.
भारतीय सरकार किस प्रकार लोकतान्त्रिक बातचीत का रास्ता अपनाते हुए कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में प्रयत्नशील रही है ? व्याख्या कीजिए।
अथवा
कश्मीर समस्या पर एक विस्तृत नोट लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता से पूर्व कश्मीर भारत के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित एक देशी रियासत थी। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ और पाकिस्तान की भी स्थापना हुई। पाकिस्तान ने पश्चिमी सीमा प्रान्त के कबाइली लोगों को प्रेरणा और सहायता देकर 22 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत से सहायता मांगी और कश्मीर को भारत में शामिल करने की प्रार्थना की।

भारत में कश्मीर का विधिवत् विलय हो गया, परन्तु पाकिस्तान का आक्रमण जारी रहा और पाकिस्तान ने कुछ क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और अब भी उस क्षेत्र पर जिसे ‘आज़ाद कश्मीर’ कहा जाता है, पाकिस्तान का कब्जा है। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया। भारत सरकार ने कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र को सौंप दिया और 1 जनवरी, 1949 को कश्मीर का युद्ध विराम हो गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर की समस्या को हल करने का प्रयास किया पर यह समस्या अब भी है।

इसका कारण यह है कि भारत सरकार कश्मीर को भारत का अंग मानती है जबकि पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह करवा कर यह निर्णय करना चाहता है कि कश्मीर भारत में मिलना चाहता है या पाकिस्तान के साथ। परन्तु पाकिस्तान की मांग गलत और अन्यायपूर्ण है, इसलिए इसे माना नहीं जा सकता। भारत ने सदैव ही कश्मीर समस्या को हल करने का प्रयास किया है, परन्तु पाकिस्तान के अड़ियल रवैये के कारण इसमें सफलता नहीं मिली।

शिमला समझौता:
1972 में हुए शिमला समझौते के अन्तर्गत कश्मीर समस्या को बातचीत द्वारा हल करने की बात कही गई है, भारत ने इस दिशा में लगातार प्रयास भी किया है, परन्तु पाकिस्तान की और से कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिले।

1. लाहौर घोषणा:
जनवरी, 1999 में भारतीय प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए तथा जम्मू-कश्मीर समस्या को हल करने की पहल की।

2. आगरा शिखर वार्ता:
जम्मू-कश्मीर सहित अन्य समस्याओं पर बातचीत के लिए भारत ने पाकिस्तान के शासक जनरल परवेज मुशरफ को भारत आने का निमन्त्रण दिया तथा आगरा में दोनों देशों में शिखर वार्ता हुई। परन्तु पाकिस्तान के कारण यह बातचीत सफल न हो सकी।

महत्त्वपूर्ण नोट:
भारत सरकार ने 5-6 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर ने सम्बन्धित धारा 370 को समाप्त कर दिया तथा स्पष्ट किया, कि अब केवल पाकिस्तान के गैर-कानूनी कब्जे वाले (पी० ओ० के०-P.O.K.) पर ही बातचीत होगी।

प्रश्न 4.
उत्तर-पूर्वी राज्यों की चुनौतियों एवं उसकी अनुक्रियाओं पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
भारत का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र सात राज्यों (असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नागालैण्ड, मिज़ोरम एवं त्रिपुरा) से मिलकर बनता है। इन सात राज्यों को सात बहनें भी कहकर बुला लिया जाता है। ये सातों राज्य भारत के अन्य राज्यों की तरह अधिक उन्नति नहीं कर पाए हैं। इसी कारण यहां पर आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन पाया जाता है जिसके कारण यहां पर विदेशी ताकतों के समर्थन पर कुछ अलगाववादी तत्त्व अशान्ति फैलाते रहते हैं।

इन राज्यों की अधिकतर जातियां पिछड़ी हुई हैं। संचार साधनों की कमी है, भाषा की विभिन्नता, यातायात के साधनों की कमी तथा अधिकांशतः बेरोज़गारी पाई जाती है, जिसके कारण यहां के स्थानीय निवास अलगाववादी गुटों के बहकावे में आ जाते हैं। इन सभी राज्यों में अपने अलग-अलग राजनीतिक दल हैं, जो सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हैं, इन क्षेत्रीय दलों का वर्णन इस प्रकार है

1. नागालैण्ड (Nagaland):
नागालैण्ड उत्तर-पूर्व का एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। इसकी जनसंख्या लगभग 20 लाख है। इसकी राजधानी कोहिमा है। नागालैण्ड में अनेक जातियां एवं कबीले पाए जाते हैं। इसमें यूनाइटिड डेमोक्रेटिक फ्रण्ट, नागा नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी तथा नागा नेशनल सोशलिस्ट काऊंसिल जैसे राजनीतिक दल पाए जाते हैं। अन्तिम दल अलगाववादियों से सम्बन्धित है।

2. मणिपुर (Manipur):
मणिपुर की जनसंख्या लगभग 27 लाख है। इसकी राजधानी इम्फाल है तथा यहां की मुख्य भाषा मणिपुरी है तथा इसमें कुल 9 ज़िले हैं। मणिपुर 1972 में राज्य बना। इसमें मणिपुर हिल यूनियन, कूकी नेशनल एसेम्बली तथा मणिपुर जनमुक्ति सेना जैसे क्षेत्रीय दल पाए हैं। अन्तिम दल अलगाववादी दल है।

3. मेघालय (Meghalaya):
मेघालय भी उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। इस राज्य की राजधानी शिलांग है। यहां की जनसंख्या लगभग 29 लाख है तथा यहां की मुख्य भाषा खासी, गारो तथा अंग्रेज़ी है। मेघालय के कुछ क्षेत्रीय दल आल पार्टी हिल लीडर्स कान्फ्रेंस तथा हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी हैं।

4. त्रिपुरा (Tripura):
त्रिपुरा राज्य की राजधानी अगरतला है। यहां की जनसंख्या लगभग 36 लाख है। यहां की मुख्य भाषाएं बंगला और काकबरक है। त्रिपुरा में चार ज़िले हैं। त्रिपुरा को 1972 में राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। यहां पर कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं। इनमें त्रिपुरा उपजाति युवा समिति तथा त्रिपुरा जनमुक्ति संगठन सेवा प्रमुख हैं।

5. मिज़ोरम (Mizoram):
मिज़ोरम राज्य की राजधानी आइजोल है। इसकी जनसंख्या लगभग 10 लाख है तथा मिज़ो और अंग्रेज़ी यहां की मुख्य भाषाएं हैं। मिज़ोरम को 1987 में भारत का 23वां राज्य बनाया गया। मिज़ोरम के मुख्य क्षेत्रीय दल पीपुल्स कान्फ्रेंस तथा मिज़ो यूनियन पार्टी। मिज़ोरम में एक अलगाववादी संगठन मिजो नेशनल फ्रंट भी है, जो हिंसक कार्यवाहियों में संलग्न रहता है।

6. असम (Assam):
भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के राज्यों में सबसे बड़ा राज्य असम है। यहां की जनसंख्या लगभग 3 करोड़ है। यहां की मुख्य भाषा असमिया है तथा यहां की राजधानी दिसपुर है। असम में उल्फा नामक एक उग्रवादी एवं अलगाववादी संगठन पाया जाता है। असम का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल असम गण परिषद् है।

प्रश्न 5.
‘असम आन्दोलन सांस्कृतिक गौरव और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था।’ इस कथन का औचित्य निर्धारित कीजिए।
उत्तर:
भारत का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र सात राज्यों (असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नागालैण्ड, मिज़ोरम एवं त्रिपुरा) से मिलकर बनता है। इन सात राज्यों को सात बहनें भी कहकर बुला लिया जाता है। ये सातों राज्य भारत के अन्य राज्यों की तरह अधिक उन्नति नहीं कर पाए हैं। इसी कारण यहां पर आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन पाया जाता है जिसके कारण यहां पर विदेशी ताकतों के समर्थन पर कुछ अलगाववादी तत्त्व अशान्ति फैलाते रहते हैं। इन राज्यों की अधिकतर जातियां पिछड़ती हुई हैं।

संचार साधनों की कमी है, भाषा की विभिन्नता, यातायात के साधनों की कमी तथा अधिकांशतः बेरोज़गारी पाई जाती है, जिसके कारण यहां के स्थानीय निवासी अलगाववादी गुटों के बहकावे में आ जाते हैं। इन सभी राज्यों में अपने अलग-अलग राजनीतिक दल हैं, जो सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हैं। असम पूर्वोत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। असम राज्य में शामिल अलग-अलग धर्मों एवं भाषायी समुदायों ने सांस्कृतिक अभियान और आर्थिक पिछड़ेपन के कारण असम से अलग होने की मांग की।

इसे ही असम आन्दोलन कहा जाता है। आज़ादी के समय में मणिपुर एवं त्रिपुरा को छोड़कर शेष क्षेत्र असम कहलाता था। गैर-असमी लोगों को यह लगा कि असम सरकार हम पर असमिया भाषा थोपने का प्रयास कर रही है, तो इन लोगों ने असम सरकार के इस प्रयास का विरोध किया। इसके साथ-साथ गैर-असमी लोग यह सोचने को मजबूर हो गये कि आर्थिक तौर पर पिछड़ने का एक मुख्य कारण उनका गैर-असमी होना है।

अत: इन गैर-असमी लोगों ने असम से अलग होने की मांग उठाई। जिसके परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार ने धीरे-धीरे असम को बांटकर मेघालय, मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश नामक नये राज्य बनाये।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद क्या है ?
उत्तर:
क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी देश के छोटे-से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीति में जो नए प्रश्न उभरे हैं, उनमें क्षेत्रवाद का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। भारत की राजनीति को क्षेत्रवाद ने बहुत प्रभावित किया है। यह भारत के लिए एक जटिल समस्या बन रही है और आज भी विद्यमान है। आज यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कौन है तो वह भारतीय कहने के स्थान पर बंगाली, बिहारी, पंजाबी, हरियाणवी आदि कहना पसन्द करेगा।

प्रश्न 2.
क्षेत्रीयवाद की प्रकृति के कोई चार दुष्परिणाम लिखें।
अथवा
भारतीय राजनीति पर क्षेत्रवाद’ के कोई चार प्रभाव लिखो।
अथवा
क्षेत्रीय राजनीति के कोई चार दुष्परिणाम बताइये।
उत्तर:
(1) क्षेत्रवाद के आधार पर राज्य केन्द्रीय सरकार से सौदेबाज़ी करते हैं। यह सौदेबाज़ी न केवल आर्थिक विकास के लिए होती है, बल्कि कई बार कई महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए भी होती है।

(2) क्षेत्रवाद ने कुछ हद तक भारतीय राजनीति में हिंसक विधियों को उभारा है। कुछ राजनीतिक दल इसे अपनी लोकप्रियता का साधन बना लेते हैं। ..

(3) चुनावों के समय भी क्षेत्रवाद का सहारा लिया जाता है। क्षेत्रीयता के आधार पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़का कर वोट प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है।

(4) मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। मन्त्रिमण्डल में प्रायः सभी मुख्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को लिया जाता है।

प्रश्न 3.
भारत में क्षेत्रवाद की उत्पत्ति के कोई चार कारण लिखिए।
अथवा
भारत में क्षेत्रवाद’ के कोई चार कारण लिखो।
अथवा
भारतीय क्षेत्रीयवाद के कोई चार कारण बताइये।
उत्तर:
(1) क्षेत्रवाद की उत्पत्ति का महत्त्वपूर्ण कारण भाषा का विवाद है। क्षेत्रीयवाद की समस्या स्पष्ट रूप से भाषा से सम्बन्धित है। भाषा के आधार पर अलग राज्य के निर्माण के लिए आन्दोलन होते रहते हैं।

(2) जाति ने क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही है, वहीं पर क्षेत्रीयवाद का उग्र रूप देखने को मिलता है।

(3) क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में आर्थिक कारणों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अविकसित क्षेत्रों ने अलग राज्य की स्थापना के लिए आन्दोलन किए। पिछड़े क्षेत्रों में यह भावना उभरी कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते।

(4) धर्म भी कई क्षेत्रवाद की भावनाओं को बढ़ाने में सहायता करता है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 4.
क्षेत्रीय असन्तुलन क्या है ?
उत्तर:
भारत में संघीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई है। भारत में 28 राज्य और 8 संघीय क्षेत्र हैं। क्षेत्रीय असन्तुलन का अर्थ यह है कि भारत के विभिन्न राज्यों तथा क्षेत्रों का विकास एक जैसा नहीं है। कुछ राज्यों का आर्थिक विकास बहुत अधिक हुआ है और वहां के लोगों का जीवन स्तर भी ऊंचा है जबकि कुछ राज्यों का विकास बहुत कम हुआ है तथा वहां के लोगों का जीवन स्तर भी बहुत निम्न स्तर का है।

भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विकास स्तर और लोगों के जीवन स्तर में पाए जाने वाले अन्तर को क्षेत्रीय असन्तुलन का नाम दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, केरल आदि राज्य अत्यधिक विकसित हैं। जबकि बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश आदि अति पिछड़े हुए क्षेत्र हैं।

प्रश्न 5.
क्षेत्रीय असन्तुलन भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव डाल रहा है ?
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन भारतीय लोकतन्त्र पर मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रभाव डाल रहा है

(1) पिछड़े क्षेत्रों के लोगों में असन्तुष्टता की भावना बड़ी तेजी से बढ़ रही है और ऐसे क्षेत्रों के लोगों का यह सोचना है कि उनके पिछड़ेपन के लिए सरकार जिम्मेवार है काफ़ी हद तक उचित प्रतीत होता है।

(2) क्षेत्रीय असन्तुलन से लोगों में क्षेत्रवाद की भावना उत्पन्न हो रही है। क्षेत्रवाद ने पृथक्कतावाद की भावना को जन्म दिया है।

(3) क्षेत्रीय असन्तुलन ने अनेक क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया है और ये दल राष्ट्र की अपेक्षा अपने क्षेत्र के हित को अधिक महत्त्व देते हैं।

(4) क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण कई क्षेत्रों में आतंकवाद का उदय हुआ है। आतंकवाद ने हमारे लोकतन्त्र को बुरी तरह से प्रभावित किया है।

प्रश्न 6.
भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन के कोई चार कारण बताओ।
उत्तर:
(1) भौगोलिक विषमताओं ने क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा किया है। परिस्थितियों के कारण भारत में एक ओर राजस्थान जैसा मरुस्थल है जो कम उपजाऊ है, तो दूसरी ओर पंजाब जैसे उपजाऊ क्षेत्र हैं।

(2) भाषा की विभिन्नता ने क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा किया है।

(3) ब्रिटिश सरकार ने कुछ क्षेत्रों का विकास किया और कुछ का नहीं किया, जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा हुआ। अंग्रेज़ों ने कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई का अधिक विकास किया। इन क्षेत्रों के लोगों का जीवन स्तर अन्य क्षेत्रों से कहीं अधिक ऊंचा है।

(4) क्षेत्रीय असन्तुलन का एक महत्त्वपूर्ण कारण नेताओं की भूमिका है। जिस क्षेत्र का वह नेता है, अपने क्षेत्र के विकास की ओर अधिक ध्यान देता है जिससे अन्य क्षेत्र अविकसित रह जाते हैं।

प्रश्न 7.
क्षेत्रवाद को समाप्त करने के कोई चार सुझाव दीजिए।
अथवा
भारत में क्षेत्रीयवाद की बढ़ती प्रवृत्ति को समाप्त करने के कोई चार सुझाव दीजिए।
अथवा
भारत में क्षेत्रीयवाद को समाप्त करने के लिए कोई चार सुझाव दीजिए।
उत्तर:
(1) पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रयास किए जाएं। पिछड़े क्षेत्रों में विशेषकर बिजली, यातायात व संचार के साधनों का विकास किया जाए।

(2) क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने वाले दलों पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

(3) जो प्रशासनिक अधिकारी आदिवासी क्षेत्रों में नियुक्त किए जाएं उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाए और उन्हीं को नियुक्त किया जाए जो इन क्षेत्रों के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान भी रखते हों।

(4) केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सभी क्षेत्रों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए।

प्रश्न 8.
‘क्षेत्रीय असन्तुलन भारत में क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण हैं।’ व्याख्या करो।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन से अभिप्राय विभिन्न क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता दरों, स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता, औद्योगीकरण का स्तर आदि के आधार पर अन्तर पाया जाना है। भारत में विभिन्न राज्यों के बीच व्यापक पैमाने पर असन्तुलन पाया जाता है। क्षेत्रीय भिन्नताओं एवं असन्तुलन के कारण क्षेत्रीय भेदभाव को बढावा मिलता है।

भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण क्षेत्रवादी भावनाओं को बल मिला है। इसके कारण कई क्षेत्रों ने पृथक राज्य की मांग की है। बिहार और पश्चिमी बंगाल में झारखण्ड, उत्तर प्रदेश में उत्तराँचल (उत्तराखंड) और मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ राज्यों की मांग क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण ही की गई थी। क्षेत्रीय असन्तुलन ने क्षेत्रवादी हिंसा, आन्दोलनों व तोड़-फोड़ को बढ़ावा दिया है। अनेक क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण ही बने हैं जो अब क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। क्षेत्रीय असन्तुलन ने अन्तर्राज्यीय विवादों को बढ़ावा दिया है जिससे क्षेत्रवादी भावनाएं और भी उग्र हो गई हैं।

प्रश्न 9.
क्षेत्रीय दल किसे कहते हैं ?
उत्तर:
चुनाव आयोग उस राजनीतिक दल को राज्य अथवा क्षेत्रीय स्तर के दल के रूप में मान्यता देता है जिसने लोकसभा अथवा विधानसभा के चुनावों में कुल पड़े वैध मतों का 6 प्रतिशत मत प्राप्त किया हो और विधानसभा में कम-से-कम 2 सीटें जीती हों, अथवा राज्य विधानसभा में कुल सीटों की कम-से-कम तीन प्रतिशत सीटें या कम से-कम तीन सीटें (इनमें से जो भी अधिक हो) प्राप्त की हों। जिस राजनीतिक दल ने लोकसभा के किसी आम चुनाव में या लोकसभा की प्रत्येक 25 सीटों पर एक जीत या इससे किसी अन्य आबंटित हिस्से में इसी अनुपात में जीत हासिल की हो।

इसके विकल्प के तौर पर सम्बन्धित राज्य में पार्टी द्वारा खड़े किये गए उम्मीदवारों को सभी संसदीय क्षेत्रों में मतदान का कम से कम 6 प्रतिशत मत प्राप्त होना चाहिए। इसके अलावा इसी आम चुनाव में पार्टी को राज्य में कम-से-कम एक लोकसभा सीट पर जीत भी हासिल होनी चाहिए। राज्य स्तरीय दल को क्षेत्रीय दल भी कहा जाता है और क्षेत्रीय दल का अस्तित्व राज्य के बाहर भी हो सकता है। चुनाव आयोग ने 53 राज्य स्तरीय दलों को मान्यता प्रदान की हई है।

प्रश्न 10.
क्षेत्रीय पार्टियों की उत्पत्ति के भारत में कारण बताएं।
उत्तर:
भारत में राष्ट्रीय दलों के साथ अनेक क्षेत्रीय दल भी पाए जाते हैं। चुनाव आयोग ने 53 दलों को राज्य स्तर के दलों के रूप में मान्यता दी हुई है। क्षेत्रीय दलों की उत्पत्ति के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

1. भौगोलिक कारण:
भारत एक विशाल देश है। इसकी भौगोलिक बनावट में विभिन्नताएं पाई जाती हैं। मिज़ो हिल्स पीपुल्स युनियन तथा सिक्किम संग्राम परिषद जैसे दलों के लिए भौगोलिक कारण ही उत्तरदायी हैं।

2. जातिवाद:
भारत में विभिन्न जातियों के लोग रहते हैं। भारत में अनेक क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का निर्माण जाति के आधार पर हआ है। उदाहरण के लिए तमिलनाड़ में डी० एम० के० तथा अन्ना० डी० एम० के० ब्राह्मण विरोधी या गैर-ब्राह्मण के दल हैं।

3. धर्म:
धर्म भी क्षेत्रीय दलों के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण कारण है।

4. आर्थिक पिछड़ापन:
भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली आर्थिक असमानताओं ने असंतुष्ट लोगों को क्षेत्रीय दलों में संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया है।

प्रश्न 11.
शिरोमणि अकाली दल की कोई चार नीतियां लिखिए।
उत्तर:

  • शिरोमणि अकाली दल ने आनन्दपुर साहिब के प्रस्ताव को राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाला बताया है और इस प्रस्ताव में वर्णित सच्चे संघवाद को लागू करने की बात की है।
  • चण्डीगढ़ और हरियाणा की सीमा के साथ लगते पंजाबी भाषी क्षेत्रों को पंजाब में मिलाने की मांग की गई है।
  • शिरोमणि अकाली दल ने सतलुज-यमुना लिंक नहर परियोजना को रद्द करने की बात कही है।
  • पंजाब में हर हालत में शान्ति बनाई रखी जाएगी।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 12.
अखिल भारतीय अन्नाद्रमुक दल की कोई चार नीतियां लिखिए।
उत्तर:

  • अन्ना डी० एम० के० श्री सी० एन० अन्नादुराय के सिद्धान्तों में पूरा विश्वास रखती है।
  • पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में तमिलनाडु में ईमानदार और कुशल प्रशासन स्थापित करने का वायदा किया है।
  • यह दल लोकतन्त्र में विश्वास रखता है। इस दल का विश्वास है कि सरकार की शक्तियों का स्रोत जनता है और सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण जनमत को ध्यान में रखकर करना चाहिए।
  • यह दल समाजवाद का समर्थन करता है। इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य लोकतन्त्रीय समाजवाद की स्थापना करना है।

प्रश्न 13.
नेशनल कान्फ्रेंस पार्टी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
नेशनल कान्फ्रैंस जम्मू-कश्मीर का एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल है। इस दल के वर्तमान अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला हैं। नेशनल कान्फ्रैंस राज्य स्वायत्तता के पक्ष में है। नेशनल कान्फ्रैंस ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को स्थायी माना है, जिसे बदला नहीं जा सकता। परन्तु नेशनल कान्फ्रैंस अनुच्छेद 370 को रखने के पक्ष में है और इसमें किसी प्रकार का संशोधन करने के पक्ष में नहीं है।

पार्टी जम्मू-कश्मीर की एकता व अखण्डता को बनाए रखने के पक्ष में है। पार्टी धर्म-निरपेक्षता में विश्वास रखती है और राज्य में से कट्टरपंथियों को समाप्त करने के पक्ष में है। पार्टी राज्य में सभी समुदायों में साम्प्रदायिक सद्भावना बनाए रखने के लिए वचनबद्ध है। पार्टी देश की सुरक्षा, एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए सभी तरह के प्रयास करने के लिए तैयार है।

पार्टी केन्द्र से टकराव की नीति अनुसरण करने के पक्ष में नहीं है और राज्य के विकास के लिए केन्द्र में हर तरह की सहायता चाहती है। आजकल जम्मू-कश्मीर की सरकार पृथक्कतावादी तत्त्वों को कुचलने में लगी हुई है।

प्रश्न 14.
1984 के सिक्ख विरोधी दंगों का संक्षिप्त रूप में विवेचन करें।
अथवा
इन्दिरा गांधी की हत्या तथा सिक्ख विरोधी दंगों पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
सन् 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों का प्रमुख कारण प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या करना था। इस हत्या के विरोध में दिल्ली एवं इसके आस-पास के क्षेत्रों में सिक्ख विरोधी दंगे आरम्भ हो गए। सिक्खों पर जानलेवा हमले किये गये, कई सिक्खों के बाल काट दिये गए तथा कई सिक्खों पर तेजाब फेंके गए। सिक्ख विरोधी हिंसा का यह दौर कई दिनों तक जारी रहा। इस हिंसा में लगभग 2000 सिक्ख मारे गए।

प्रश्न 15.
राजीव लोंगोवाल समझौते की मुख्य बातों का वर्णन करें।
अथवा
‘पंजाब समझौते’ पर एक नोट लिखिए।
अथवा
1985 के पंजाब-समझौते के ‘मुख्य प्रावधान’ क्या थे ?
उत्तर:
राजीव-लोंगोवाल समझौता 24 जुलाई, 1985 को हुआ था, जिसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं

1. मारे गए निरपराध व्यक्तियों के लिए मुआवज़ा:
एक सितम्बर, 1982 के बाद हुई किसी कार्यवाही का आन्दोलन में मारे गए लोगों को अनुग्रह राशि के भुगतान के साथ सम्पत्ति की क्षति के लिए मुआवज़ा दिया जायेगा।

2. सेना में भर्ती:
देश के सभी नागरिकों को सेना में भर्ती का अधिकार होगा और चयन के लिए केवल योग्यता ही आधार रहेगा।

3. नवम्बर दंगों की जांच:
दिल्ली में नवम्बर में हुए दंगों की जांच कर रहे रंगनाथ मिश्र आयोग का कार्यक्षेत्र बढाकर उसमें बोकारो और कानपुर में हए उपद्रवों की जांच को भी शामिल किया जायेगा।

4. सेना से निकाले हए व्यक्तियों का पनर्वास:
सेना से निकाले हए व्यक्तियों को पुनर्वास और उन्हें लाभकारी रोज़गार दिलाने के प्रयास किये जायेंगे।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्षेत्रीयवाद से क्या अभिप्राय है?
अथवा
क्षेत्रीयवाद के अर्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर:
क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो औद्योगिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। क्षेत्रवाद केन्द्रीयकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय इकाइयों को अधिक शक्ति व स्वायत्तता प्रदान करने के पक्ष में है।

प्रश्न 2.
‘क्षेत्रवाद’ के उदय के कोई दो कारण लिखें।
अथवा
क्षेत्रीयवाद के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
1. क्षेत्रवाद का एक महत्त्वपूर्ण कारण भाषावाद है। भारत में सदैव ही अनेक भाषाएं बोलने वालों ने कई बार अलग राज्य के निर्माण के लिए व्यापक आन्दोलन किए हैं।

2. जातिवाद-जातिवाद ने भी क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही है, वहां पर क्षेत्रवाद का उग्र रूप देखने को मिलता है।

प्रश्न 3.
क्षेत्रीयवाद को समाप्त करने के कोई दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:

  • पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रयास किये जाएं।
  • क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा देने वाले दलों पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

प्रश्न 4.
अलगाववाद के अर्थ की व्याख्या करें।
उत्तर:
अलगाववाद से अभिप्राय एक राज्य से कुछ क्षेत्र को अलग करके स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की मांग है। अर्थात् सम्पूर्ण इकाई से अलग अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखने की मांग अलगाववाद है। अलगाववाद का उदय तब होता है जब क्षेत्रवाद की भावना उग्र रूप धारण कर लेती है। उदाहरण के लिए भारत में मिज़ो आन्दोलन, नागालैण्ड आन्दोलन इत्यादि आन्दोलन भारतीय संघ से अलग होने के लिए चलाए गए। यह पृथक्कतावाद के उदाहरण हैं।

प्रश्न 5.
भारत में अलगाववाद आन्दोलन के दो उदाहरण लिखो।
उत्तर:
भारत में कई बार क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग होने के लिए किए जाते रहे हैं, जिनमें कुछ मुख्य निम्नलिखित हैं

  • 1960 में डी०एम०के० तथा अन्य तमिल दलों ने तमिलनाडु को भारत से अलग करवाने का आन्दोलन किया।
  • असम के मिज़ो हिल के लिए जिले के लोगों ने भारत से अलग होने की मांग की और इस मांग को पूरा करवाने के लिए उन्होंने मिज़ो नेशनल फ्रंट की स्थापना की।

प्रश्न 6.
अलगाववाद के दो कारण लिखें।
उत्तर:
1. राजनीतिक कारण:
अलगाववाद की भावनाओं को भड़काने में राजनीतिज्ञों का भी हाथ रहा है। कई राजनीतिज्ञ यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र को अलग राज्य बना दिया जाएगा तो इससे उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी।

2. आर्थिक पिछड़ापन:
अलगाववाद की उत्पत्ति में आर्थिक पिछड़ापन महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। कुछ प्रदेशों का भारत में अधिक विकास हुआ है और कुछ क्षेत्रों का विकास बहुत कम हुआ है। अतः पिछड़े क्षेत्रों में यह भावना उभरती है कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते। इसलिए इन क्षेत्रों में अलग राज्य की मांग को लेकर अलगाववाद उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7.
भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के विकास के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय दलों की उत्पत्ति के मुख्य कारण अग्रलिखित हैं

1. भौगोलिक कारण-भारत एक विशाल देश है। इसकी भौगोलिक बनावट में विभिन्नताएं पाई जाती हैं। मिज़ो हिल्स पीपुल्स यूनियन तथा सिक्किम संग्राम परिषद् जैसे दलों के लिए भौगोलिक कारण ही उत्तरदायी हैं।

2. जातिवाद-भारत में विभिन्न जातियों के लोग रहते हैं। भारत में अनेक क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का निर्माण जाति के आधार पर हुआ है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में डी० एम० के० तथा अन्ना० डी० एम० के० ब्राह्मण विरोधी या गैर-ब्राह्मण के दल हैं।

3. धर्म-धर्म भी क्षेत्रीय दलों के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण कारण है।

4. आर्थिक पिछड़ापन-भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली आर्थिक असमानताओं ने असंतुष्ट लोगों को क्षेत्रीय दलों में संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया है।

प्रश्न 8.
भारत में दलगत व्यवस्था की कोई दो चनौतियां लिखिए।
उत्तर:

      • भारत में दलों के अन्दर संगठनात्मक चुनाव समय पर नहीं होते।
  • भारत में दलगत अनुशासनहीनता पाई जाती है।

प्रश्न 9.
प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या कब और किनके द्वारा की गई ?
उत्तर:
प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या 31 अक्तूबर, 1984 को उनके अंगरक्षकों द्वारा ही की गई।

प्रश्न 10.
भारत में उभरती क्षेत्रीय आकांक्षाओं से हमें क्या सीख मिलती है ?
उत्तर:

  • क्षेत्रीय आकांक्षाएं लोकतान्त्रिक राजनीति का अभिन्न अंग है।
  • क्षेत्रीय आकांक्षाओं का हल लोकतान्त्रिक संवाद से निकालना चाहिए।

प्रश्न 11.
धारा 370 किससे सम्बन्धित थी ?
उत्तर:
धारा 370 जम्मू-कश्मीर से सम्बन्धित थी। इस धारा के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष दर्जा प्रदान किया गया था। जम्मू-कश्मीर का अपना संविधान था तथा अपना झण्डा था। भारतीय संविधान के सभी प्रावधान इस पर लागू नहीं होते। परन्तु 5-6 अगस्त, 2019 को धारा 370 को समाप्त कर दिया।

प्रश्न 12.
किन्हीं दो क्षेत्रीय दलों के नाम एवं उनके राज्य लिखिए।
अथवा
किन्हीं दो क्षेत्रीय दलों के नाम तथा उनसे सम्बन्धित राज्यों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • नेशनल कान्फ्रेंस-यह दल जम्मू-कश्मीर राज्य में सक्रिय है।
  • डी० एम० के०-यह दल तमिलनाडु में सक्रिय है।

प्रश्न 13.
आस (AASU) का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
आसू (AASU) का पूरा नाम ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन (All Asam Student Union) है।

प्रश्न 14.
1980 में अकाली दल की क्या मांगें थीं ?
उत्तर:

  • चण्डीगढ़ को पंजाब की राजधानी बनाया जाए।
  • दूसरे राज्यों के पंजाबी भाषी क्षेत्रों को पंजाब में मिलाया जाए।
  • पंजाब का औद्योगिक विकास किया जाए।
  • भाखड़ा-नंगल योजना पंजाब के नियन्त्रणाधीन हो।
  • देश के सभी गुरुद्वारे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के प्रबन्ध में हों।

प्रश्न 15.
राजीव-लौंगोवाल समझौता कब हुआ ? इसका मुख्य उद्देश्य क्या था ?
अथवा
पंजाब समझौता कब हुआ? इसका क्या उद्देश्य था?
उत्तर:
राजीव-लौंगोवाल समझौता 24 जुलाई, 1985 को हुआ। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य पंजाब में शान्ति स्थापित करना था।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 16.
‘नक्सलवादी आन्दोलन’ क्या है ?
उत्तर:
सन् 1964 में साम्यवादी दल में फूट पड़ गई। दोनों दलों के संसदीय राजनीति में व्यस्त होने के कारण इन दलों के सक्रिय व संघर्षशील कार्यकर्ता दलों से अलग होकर जन कार्य करने लगे। सन् 1967 में बंगाल में साम्यवादी दल की सरकार बनी। इसी समय दार्जिलिंग में नक्सलवादी नामक स्थान पर किसानों ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि पश्चिमी बंगाल की सरकार ने इसे दबा दिया। परंतु इस आंदोलन की प्रतिक्रिया पंजाब, उत्तर प्रदेश और कश्मीर में भी हुई। इससे नक्सलवादी आन्दोलन का विरोध किया गया जिसके परिणामस्वरूप मई, 1967 में भारी हिंसक घटनाएं हुईं। यह आन्दोलन तेज़ी से राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया।

प्रश्न 17.
श्रीमती इन्दिरा गांधी की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गांधी की मृत्यु 31 अक्तूबर, 1984 को हुई।

प्रश्न 18.
किस स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बनाने के खिलाफ आन्दोलन चला?
उत्तर:
तमिलनाडु में हिन्दी को राजभाषा बनाने के खिलाफ आन्दोलन चला।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. क्षेत्रवाद के उदय के मुख्य कारण हैं
(A) भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण
(B) ऐतिहासिक कारण
(C) भाषावाद
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

2. निम्न में से कौन-सा क्षेत्रीय दल है ?
(A) डी० एम० के०
(B) अकाली दल
(C) तेलुगू देशम
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

3. डी० एम० के० पार्टी की स्थापना कब हुई ?
(A) 1956
(B) 1949
(C) 1955
(D) 1947
उत्तर:
(B) 1949

4. अन्ना डी० एम० के० पार्टी की स्थापना हुई
(A) 1972
(B) 1975
(C) 1967
(D) 1952
उत्तर:
(A) 1972

5. तेलगू देशम पार्टी की स्थापना कब हुई ?
(A) 1956
(B) 1977
(C) 1982
(D) 1961
उत्तर:
(C) 1982

6. शिरोमणि अकाली दल निम्नलिखित में से किस राज्य का प्रमुख क्षेत्रीय दल है ?
(A) जम्मू-कश्मीर
(B) पंजाब
(C) दिल्ली
(D) हरियाणा
उत्तर:
(B) पंजाब।

7. मास्टर तारा सिंह एवं सन्त फतेह सिंह इत्यादि ने किस वर्ष ‘पंजाबी सूबा’ की मांग के लिए आन्दोलन शुरू किया ?
(A) 1960
(B) 1965
(C) 1971
(D) 1963
उत्तर:
(A) 1960

8. शिरोमणि अकाली दल तथा जनसंघ ने किस वर्ष पंजाब में गठबन्धन सरकार का निर्माण किया ?
(A) 1967
(B) 1975
(C) 1952
(D) 1957
उत्तर:
(A) 1967

9. पंजाब समझौता कब हुआ ?
(A) 1971
(B) 1985
(C) 1988
(D) 2002
उत्तर:
(B) 1985

10. नेशनल कान्फ्रेंस सक्रिय क्षेत्रीय दल है
(A) हरियाणा में
(B) महाराष्ट्र में
(C) जम्मू-कश्मीर में
(D) लद्दाख में।
उत्तर:
(C) जम्मू-कश्मीर में।

11. निम्न में से कौन-सा राज्य उत्तर-पूर्वी क्षेत्र से सम्बन्धित है ?
(A) नागालैण्ड
(B) असम
(C) मणिपुर
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

12. असम गण परिषद् किस राज्य से सम्बन्धित है ?
(A) असम
(B) केरल
(C) त्रिपुरा
(D) मिजोराम।
उत्तर:
(A) असम।

13. श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या कब हुई ?
(A) 1 जनवरी, 1986
(B) 30 जून, 1984
(C) 31 अक्तूबर, 1984
(D) 1 अगस्त, 1984
उत्तर:
(C) 31 अक्तूबर, 1984

14. भारत में राज्यों का पुनर्गठन किया गया है
(A) राजनीतिक आधार पर
(B) भाषाई आधार पर
(C) आर्थिक आधार पर
(D) धार्मिक आधार पर।
उत्तर:
(B) भाषाई आधार पर।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

15. भारत में कौन-सा भाषाई फार्मूला लागू किया गया है ?
(A) तीन-भाषाई फार्मूला
(B) दो-भाषाई फार्मूला
(C) एक-भाषाई फार्मूला
(D) चार-भाषाई फार्मूला।
उत्तर:
(A) तीन-भाषाई फार्मूला।

16. जम्मू एवं कश्मीर’ को भारतीय संविधान की किस धारा के द्वारा विशेष संवैधानिक दर्जा दिया गया था ?
(A) धारा 360
(B) धारा 365
(C) धारा 370
(D) धारा 3721
उत्तर:
(C) धारा 370

17. धारा 370 को कब समाप्त किया गया ?
(A) 5-6 अगस्त, 2019
(B) 5-6 अगस्त, 2018
(C) 5-6 अगस्त, 2017
(D) 5-6 अगस्त, 2016
उत्तर:
(A) 5-6 अगस्त, 2019

18. “Caste in Indian Politics” पुस्तक लिखी
(A) रजनी कोठारी ने
(B) पं० जवाहर लाल नेहरू
(C) मोरिस जोंस ने
(D) एंड्रे पेटीली (Andre Peteille) ने।
उत्तर:
(A) रजनी कोठारी ने।

19. निम्नलिखित में से कौन-सी भाषा भारत की सरकारी भाषा है ?
(A) इंग्लिश
(B) हिन्दी
(C) उर्दू
(D) संस्कृत।
उत्तर:
(B) हिन्दी।

20. भारतीय संघ के राज्यों की सरकारी भाषा निश्चित की जाती है
(A) संसद् द्वारा
(B) मन्त्रिमण्डल द्वारा
(C) मुख्यमन्त्री द्वारा
(D) राज्य विधानमण्डल द्वारा।
उत्तर:
(D) राज्य विधानमण्डल द्वारा।

21. भारतीय संविधान द्वारा कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है ?
(A) 18
(B) 25
(C) 17
(D) 22
उत्तर:
(D) 22

22. कौन-सा राज्य हिन्दी से अंग्रेजी को अधिक अधिमान देता है ?
(A) उत्तर प्रदेश
(B) मध्य प्रदेश
(C) तमिलनाडु
(D) बिहार।
उत्तर:
(C) तमिलनाडु।

23. डी० एम० के० एवं आल इंडिया अन्ना डी० एम० के० निम्नलिखित में से किस राज्य के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल हैं ?
(A) आन्ध्र प्रदेश
(B) बिहार
(C) मध्य प्रदेश
(D) तमिलनाडु।
उत्तर:
(D) तमिलनाडु।

24. “भारत में नए संविधान का निर्माण करते समय सबसे प्रमुख कठिनाइयों में से एक भाषायी प्रदेशों की मांग को संतुष्ट करना तथा इसी प्रकार की दूसरी मांग को संतुष्ट करना होगा।” यह किसका कथन
(A) मोरिस जोन्स
(B) रजनी कोठारी
(C) बी० एन० राव
(D) श्री निवासन।
उत्तर:
(C) बी० एन० राव।

25. ‘मिजो नेशनल फ्रंट’ नामक पार्टी के संस्थापक निम्नलिखित में से कौन थे ?
(A) लालडेंगा
(B) बेअन्त सिंह
(C) पी० के० महन्त
(D) ममता बनर्जी।
उत्तर:
(A) लालडेंगा।

26. 1984 में ‘आपरेशन ब्लू-स्टार’ किस राज्य में चलाया गया ?
(A) बिहार
(B) पंजाब
(C) हरियाणा
(D) उड़ीसा।
उत्तर:
(B) पंजाब।

27. “भारत तो एक है, किंतु वे लोग कहां हैं, जिन्हें भारतीय कहा जा सके।” यह किसका कथन है ?
(A) पं० जवाहर लाल नेहरू
(B) श्री लाल बहादुर शास्त्री
(C) डॉ. राजेंद्र प्रसाद
(D) जय प्रकाश नारायण।
उत्तर:
(A) पं० जवाहर लाल नेहरू।

28. भारत में किस दशक को स्वायतत्ता की मांग के दशक के रूप में देखा जाता है ?
(A) 2000
(B) 1970
(C) 1980
(D) 1990
उत्तर:
(C) 1980

29. द्रविड़ आन्दोलन की बागडोर किसके हाथ में थी ?
(A) रामाराव
(B) करुणानिधि
(C) जयललिता
(D) ई० वी० रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’।
उत्तर:

30. डी० एम० के० ने किस भाषा का विरोध किया ?
(A) पंजाबी
(B) अंग्रेज़ी
(C) हिन्दी
(D) तमिल।
उत्तर:
(C) हिन्दी।

31. नेशनल कान्फ्रेंस के किस नेता ने सन् 1974 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के साथ समझौता किया ?
(A) शेख अब्दुल्ला
(B) फारुख अब्दुल्ला
(C) कर्ण सिंह
(D) उमर अब्दुल्ला।
उत्तर:
(A) शेख अब्दुल्ला।

निम्न रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

(1) 1947 से पहले जम्मू-कश्मीर का शासक ……….. था।
उत्तर:
हरि सिंह

(2) नेशनल कांफ्रेंस ने ………….. के नेतृत्व में जन-आन्दोलन चलाया।
उत्तर:
शेख अब्दुल्ला

(3) ई० वी० रामास्वामी नायकर ………… के नाम से प्रसिद्ध थे।
उत्तर:
पेरियर

(4) ………… से जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी राजनीति ने सर उठाया।
उत्तर:
1989

(5)……….. के दशक को स्वायत्तता की मांग के दशक के रूप में देखा जा सकता है।
उत्तर:
1980

(6) 1966 में पंजाब और …………. के नाम के राज्य बनाए गए।
उत्तर:
हरियाणा

(7) धारा 370…………. राज्य से सम्बन्धित थी।
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर

(8)…………. दक्षिण भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन माना जाता है।
उत्तर:
द्रविड़ आन्दोलन

(9) 1984 में हरिमंदिर साहिब में हुई सैनिक कार्यवाही को ……….. के नाम से जाना जाता है।
उत्तर:
आप्रेशन बलू स्टार

(10) अक्तूबर, 1984 में प्रधानमन्त्री ………….. की हत्या की गई।
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गांधी

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
भारत में कौन-सा भाषाई फार्मूला लागू किया गया है ?
उत्तर:
भारत में त्रि-भाषाई फार्मूला लागू किया गया है।

प्रश्न 2.
नेशनल कांफ्रैंस कहां पर सक्रिय क्षेत्रीय दल है ?
उत्तर:
नेशनल कांफ्रैंस जम्मू-कश्मीर में सक्रिय क्षेत्रीय दल है।

प्रश्न 3.
बोडो आन्दोलन किस राज्य में चलाया गया ?
उत्तर:
बोडो आन्दोलन असम में चलाया गया।

प्रश्न 4.
5 जून, 1984 को ऑपरेशन ब्लूस्टार किस राज्य में चलाया गया था ?
उत्तर:
पंजाब में।

प्रश्न 5.
जम्मू कश्मीर को किस धारा के द्वारा विशेष संवैधानिक दर्जा दिया गया था ?
उत्तर:
संविधान की धारा 370 के द्वारा।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 6.
तेलुगू देशम पार्टी किस राज्य का क्षेत्रीय दल है?
उत्तर:
आन्ध्र प्रदेश का।

प्रश्न 7.
धारा 370 किससे सम्बन्धित थी?
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर से।

प्रश्न 8.
राजीव-लोगोंवाल समझौता कब हुआ?
उत्तर:
24 जुलाई, 1985 को।

प्रश्न 9.
1947 से पहले जम्मू-कश्मीर का शासक कौन था?
उत्तर:
1947 से पहले जम्मू-कश्मीर का शासक हरि सिंह था।

प्रश्न 10.
5 जून, 1984 को ऑपरेशन ब्लू स्टार किस राज्य में चलाया गया था?
उत्तर:
पंजाब में।

प्रश्न 11.
तमिलनाडु में कौन-से क्षेत्रीय दल की सरकार है ?
उत्तर:
तमिलनाडु में अन्नाद्रुमुक की सरकार है।

प्रश्न 12.
‘आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव’ कब पास किया गया ?
उत्तर:
सन् 1973 में।

प्रश्न 13.
‘मिजो नेशनल फ्रंट’ नामक पार्टी के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर:
‘मिजो नेशनल फ्रंट’ नामक पार्टी की स्थापना लाल डेंगा ने की थी।

प्रश्न 14.
डी० एम० के० तथा ए० आई० डी० एम० के० किस राज्य के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल हैं ?
उत्तर:
तमिलनाडु।

प्रश्न 15.
भाषा के आधार पर पंजाब राज्य का पुनर्गठन कब हुआ ?
उत्तर:
सन् 1966 में।

प्रश्न 16.
उत्तराखण्ड, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ राज्यों का गठन कब हुआ ?
उत्तर:
सन् 2000 में।

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HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जन आन्दोलन का क्या अर्थ है ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
जन आन्दोलन का अर्थ-जो आन्दोलन लोगों की किसी समस्या या जनहित को लेकर चलाए जाते हैं, उन्हें जन आन्दोलन कहते हैं। ऐसे आन्दोलन के साथ अधिक से अधिक लोग जुड़े हुए होते हैं। एक आन्दोलन के साथ जितने अधिक लोग जुड़ते जायेंगे वह आंदोलन और अधिक लोकप्रिय होता जायेगा। उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ श्री अन्ना हजारे द्वारा चलाया गया आन्दोलन एक जन आन्दोलन ही था।

विशेषताएं:
(1) जन आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।

(2) जन आन्दोलन सामाजिक समूहों के लिए अपनी बात उचित ढंग से रखने के बेहतर मंच बनकर उभरे हैं।

(3) इन आंदोलनों ने जनता के क्रोध एवं तनाव को एक सार्थक दिशा देकर लोकतंत्र को मजबूत किया।

(4) इन आंदोलनों ने भारतीय लोकतंत्र के जनाधार को बढ़ाया है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में चलाए गए किसान आन्दोलनों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद किसान आन्दोलन (Peasant Movements after Independence) स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने निश्चय किया कि उसे कृषकों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए, फिर भी कृषकों ने कई आन्दोलन किए, जिनका वर्णन निम्नलिखित है

1.तिभागा आन्दोलन (Tibhaga Movement):
तिभागा आन्दोलन 1946-47 में बंगाल में आरम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों एवं बटाईदारों का संयुक्त प्रयास था। इस आन्दोलन का मुख्य कारण सन् 1943 में बंगाल में पड़ा भीषण अकाल था। इस आन्दोलन के कारण कई गांवों में किसान सभा का शासन स्थापित हो गया। परन्तु औद्योगिक मजदूर वर्ग और मझोले किसानों के समर्थन के बिना यह शीघ्र ही समाप्त हो गया।

2. तेलंगाना आन्दोलन (Telangana Movement):
तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन था। इस आन्दोलन में किसानों ने मांग की कि उनके सभी ऋण माफ कर दिए जाएं, परन्तु ज़मींदारों ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। क्रान्तिकारी किसानों ने पांच हजार गुरिल्ला सैनिक तैयार किए और ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। गुरिल्ला सैनिकों ने ज़मींदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें भगा दिया, परन्तु भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

3. नक्सलवाड़ी आन्दोलन (Naxalbari Movement):
सन् 1964 में साम्यवादी दल में फूट पड़ गई। दोनों दलों के संसदीय राजनीति में व्यस्त होने के कारण इन दलों के सक्रिय व संघर्षशील कार्यकर्ता दलों से अलग होकर जन कार्य करने लगे। सन् 1967 में बंगाल में साम्यवादी दल की सरकार बनी। इसी समय दार्जिलिंग में नक्सलवाड़ी नामक स्थान पर किसानों ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि पश्चिमी बंगाल की सरकार ने इसे दबा दिया।

परन्तु इस आन्दोलन की प्रतिक्रिया पंजाब, उत्तर प्रदेश और कश्मीर में भी हुई। इससे नक्सलवाड़ी आन्दोलन का विरोध किया गया, जिसके परिणामस्वरूप मई, 1967 में भारी हिंसक घटनाएं हुईं। यह आन्दोलन तेज़ी से राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया। केन्द्र सरकार का ध्यान इस तरफ आकर्षित हुआ क्योंकि सन् 1948 के बाद यह किसानों का मुख्य हिंसक विद्रोह था और ऐसे समय में हुआ था जब पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों की सरकार सत्तारूढ़ थी।

4. आधुनिक आन्दोलन (Modern Movement):
अपने हितों की रक्षा के लिए किसान समय-समय पर आन्दोलन करते रहे हैं। पिछले कई वर्षों से कपास के दामों में कमी होने के कारण कपास उत्पादक राज्यों, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब आदि के किसानों में असंतोष भर गया। मार्च, 1987 में गुजरात के किसानों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए विधान सभा का घेराव करने की योजना बनाई। सरकार ने गुजरात विधानसभा (गांधीनगर) की किलेबन्दी कर दी। पुलिस ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किए और किसानों ने पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध ग्रामबंद की अपील की, जिसके कारण गुजरात के अनेक शहरों में दूध और सब्जी की समस्या कई दिनों तक रही।

मनों का मल्यांकन (Evaluation of Peasant Movements):स्वतन्त्रता प्राप्ति के वर्षों के बाद भी किसानों की समस्याएं वैसी ही बनी हुई हैं जैसी कि ब्रिटिश काल में थीं। इससे जाहिर होता है कि स्वतन्त्रता से पूर्व और स्वतन्त्रता के बाद किए गए सभी किसान आन्दोलन असफल रहे हैं। अपनी सफलता के कारण ये आन्दोलन किसानों को न्याय न दिला सके। यद्यपि किसानों की स्थिति और भूमि सुधार की दिशा में सरकार ने काफ़ी यत्न किए हैं, परन्तु वह ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही सिद्ध हुए हैं। इन किसान आन्दोलनों की असफलता के महत्त्वपूर्ण कारण हैं, किसान आन्दोलन के अच्छे संगठन की कमी, किसानों में अज्ञानता, अन्धविश्वास, आसन्न स्थिति, क्रान्तिकारी तथा उद्देश्यपूर्ण विचारधारा की कमी और योग्य नेतृत्व का अभाव।

राजनीतिक दल और किसान आन्दोलन (Peasant Movements and Political Parties):भारत के सभी प्रमुख दलों का किसानों के प्रति व्यवहार स्वार्थपूर्ण रहा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस पार्टी ने किसानों के हितों की रक्षा, भूमिहीन किसानों और बन्धुओं मजदूरों की सुरक्षा और उन्नति की गारन्टी दी थी। परन्तु यह अपने उद्देश्य में असफल रही है।

ज़मींदार और समृद्ध किसान कांग्रेस दल के लिए ‘वोट बैंक’ का काम करते हैं और उसे ग़रीब वर्ग का समर्थन दिलवाते हैं। परन्तु कांग्रेस की नीतियों से विमुख होकर किसान वर्ग वामपंथी दलों की तरफ झुका है। वामपंथी दलों ने किसानों के हितों की रक्षा के लिए कई आन्दोलन चलाए हैं और उनका सफल नेतृत्व भी किया है।

वामपंथी दलों ने पश्चिमी बंगाल, केरल, त्रिपुरा, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि के किसानों को संगठित करके किसानों की मांगों को पूरा करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। किसानों के हितों के सम्बन्ध में जो कुछ भी आज उपलब्ध हुआ है, वह वामपंथी दलों के सक्रिय सहयोग के कारण हुआ है। किसानों में संगठन की कमी के कारण उनकी आर्थिक स्थिति पिछड़ी हुई है।

किसान वर्ग में राजनीतिक चेतना न होने के कारण उन पर धर्म और जाति का विशेष प्रभाव रहा है। राजनीतिज्ञ किसानों की जातीय और धार्मिक भावनाओं को भड़का कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। किसानों की राजनीति में अधिक सक्रिय न होने के कारण भारतीय राजनीति पिछड़ी हुई है, जिसके कारण सवर्ण हिन्दुओं और हरिजनों तथा आदिवासियों के बीच जाति संघर्ष पैदा हुआ है।

बिहार, उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में सवर्ण हिन्दुओं ने और खेतिहर हरिजनों ने अपनी जातीय सेनाएं तैयार कर रखी हैं, जो कि खूनी संघर्ष करती हैं। आज धनी किसान अधिक साधन उत्पन्न और समृद्ध हो रहे हैं। यह वर्ग ही किसान आन्दोलन का नेतृत्व करते हैं तथा राजनीतिक दल चाहे वह सत्तारूढ़ दल हो अथवा विपक्षी दल, किसान रैलिय आयोजन करके अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए और किसानों के मत अपने पक्ष में बटोरने के लिए करते रहते हैं।

आज किसान आन्दोलन की आड़ में क्षेत्रीय और अल्पसंख्यक नेतृत्व भी उभरने लगा है। इसके अतिरिक्त उत्तर और दक्षिण भारत में चलाए जाने वाले किसान आन्दोलनों में एक बड़ा भारी अन्तर पाया जाता है। वह अन्तर है उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत के किसान आन्दोलन में पिछड़ी जातियों का प्रमुख हाथ रहा है और वह उन में बढ़-चढ़ कर भाग लेती रही हैं। राजनीतिक दल इस तरह के आन्दोलन कर्ताओं को प्रोत्साहित करते रहे हैं कि किसानों को संगठित होकर विशाल रैलियों व आन्दोलनों के माध्यम से सरकार पर किसानों की मांगों को मनवाने के लिए दबाव डालना चाहिए।

इसी कारण से स्वतन्त्रता के बाद किसानों के कई दबाव समूह उभरकर सामने आए हैं। । आज चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, उसमें उद्योगपतियों की एक सशक्त लॉबी सक्रिय है। इनके माध्यम से यह उद्योगपति किसान आन्दोलन को गुमराह करने की कोशिश करते हैं।

इनका प्रयास रहता है कि किसान आन्दोलन का नेतृत्व किसी तरह राजनीतिक दलों के हाथों में आ जाए ताकि वे अपने हितों की पूर्ति कर सकें। वास्तव में आज जो भी आन्दोलन देश में सक्रिय है, चाहे वह किसान आन्दोलन हो या छात्र आन्दोलन और चाहे अन्य आन्दोलन, उनमें राजनीतिज्ञ किसी-न-किसी रूप में ज़रूर संलिप्त होते हैं। ये सभी आन्दोलन अपने ही ढंग की राजनीति को उभार रहे हैं।

भारत सरकार द्वारा समय-समय पर निश्चित की गई योजनाओं और नीतियों से देश के लगभग एक चौथाई किसानों को ही लाभ मिला है और तथाकथित हरित क्रान्ति के नाम पर किसानों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ी है। हरित क्रान्ति से यद्यपि देश का उत्पादन बढ़ा है, परन्तु यह एक सीमित क्षेत्र तक ही पनप सकी है। सिंचाई के साधनों की उपलब्धता न होने के कारण देश के किसानों को प्राकृतिक साधनों, वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है। दो या तीन वर्ष बाद किसानों को बाढ़ अथवा सूखे का सामना करना पड़ता है।

अतः किसानों को चाहिए कि वे संगठित होकर यह मा “एक निश्चित अवधि में देश के प्रत्येक खेत में पानी का इन्तज़ाम होना चाहिए। सिंचाई सरकारी होगी।” किसानों को अपने आन्दोलनों का नेतृत्व स्वयं करना चाहिए क्योंकि राजनीतिक दलों का उद्देश्य लोगों को मूर्ख बना कर सत्ता प्राप्त करना रहा है। किसानों को उन लोगों और पाखण्डी राजनीतिज्ञों से बचना चाहिए, जोकि अपने-आपको किसानों का मसीहा कहलाते हैं, जोकि स्वयं तो वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं और उनके किसान भाई अपनी मौलिक आवश्यकताओं को भी तरसते हैं। उन्हें ऐसे लोगों से भी बचना होगा, जिनका एक पैर गांव में तथा दूसरा पांव शहर में रहता है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 3.
महिला आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
प्राचीन काल से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है और आज भी काफ़ी हद तक समाज में और सार्वजनिक जीवन में पुरुषों का ही अधिक महत्त्व है। स्त्रियों को दासी मान कर पांव की जूती के समान दर्जा दिया जाता रहा था। जन आन्दोलन का उनका कार्य क्षेत्र घर की चारदीवारी रहा था और उनको पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। स्त्रियों का मुख्य कर्त्तव्य पुरुषों की सेवा करना, बच्चे पैदा करना, बच्चों का पालन करना तथा पति को परमेश्वर मान कर जीवन यापन करना रहा है। स्त्रियों के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है और आज भी संसार के अधिकांश देशों में स्त्रियों की स्थिति विशेष अच्छी नहीं है केवल पिछड़े देशों में ही नहीं, बल्कि संसार के अन्य देशों में भी स्त्रियों की स्थिति शोचनीय है।

यद्यपि संसार के कई देशों में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं, किन्तु व्यवहार में स्त्रियों को समानाधिकार प्राप्त नहीं हैं। राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों का महत्त्व और भी कम है। निःसन्देह भारत, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि देशों में स्त्रियों को मताधिकार और चुने जाने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु व्यवहार में इन देशों में भी स्त्रियां राजनीति में अधिक सक्रिय नहीं हैं।

निर्णय निर्माण में तो स्त्रियां बहुत ही कम भागीदार हैं। स्त्रियों में राजनीतिक चेतना आने के बावजूद भी रूढ़िवादी पुरुष प्रधान समाज के कारण प्रगतिशील परिवर्तन नहीं हो रहे हैं। अत: आज भी स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। यद्यपि आज भी स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं है, परन्तु स्त्रियों में मानसिक परिवर्तन अवश्य आया है।

स्त्रियों के अन्दर व्यक्तित्व की भावना जाग उठी है और वे अपने हितों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील हैं। संसार के अनेक विकसित देशों में स्त्रियों ने पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने के लिए आन्दोलन चलाए हैं और उन्हें काफ़ी सफलता भी प्राप्त हुई हैं। अनेक पुरुष संगठनों ने भी स्त्रियों के इन आन्दोलनों का समर्थन किया है। आज स्त्रियां अपने हितों एवं अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होकर संघर्ष के मार्ग पर चल पड़ी हैं और स्त्रियों के इस आन्दोलन को ही स्त्रीवाद कहा जाता है। Feminism शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द Female से बना है, जिसका अर्थ है स्त्री या स्त्रियों सम्बन्धी। स्त्रीवाद स्त्रियों के हितों की रक्षा से सम्बन्धित आन्दोलन है।

1. ऑक्सफोर्ड शब्दकोष (Oxford Dictionary) के अनुसार, “स्त्रीवाद स्त्रियों के दावों की मान्यता, उनकी सफलताओं तथा उनके अधिकारों का समर्थन करता है।”

2. रैनडो हाऊस शब्दकोष (Randow House Dictionary) के अनुसार, “स्त्रीवाद पुरुषों के समान स्त्रियों के सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों के समर्थन का सिद्धान्त है। स्त्रीवाद स्त्रियों के अधिकारों की प्राप्ति के लिए संगठित आन्दोलन है।” विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि स्त्रीवाद (Feminism) एक ऐसा आन्दोलन है. जो स्त्रियों की समस्याओं का आलोचनात्मक मल्यांकन करता है तथा स्त्रियों को समान अधिकार दिलवाने के लिए प्रयत्नशील है।

स्त्रीवाद स्त्रियों को उन्नति के लिए अधिक सुविधाएं व अवसर दिलाने के लिए प्रयत्नशील है। केवल स्त्रियां ही नहीं बल्कि अनेक पुरुष भी इन आन्दोलनों में सक्रिय भाग ले रहे हैं और इन आन्दोलनों का समर्थन कर रहे हैं।

3. जॉन चारवेट (John Charvet) के अनुसार, “स्त्रीवाद का मूल विचार यह है कि मौलिक महत्त्व की दृष्टि से पुरुषों और स्त्रियों में कोई भेद नहीं है। इस स्तर पर समाज में पुरुष प्राणी या स्त्री प्राणी नहीं बल्कि वे केवल मानव प्राणी या व्यक्ति है। व्यक्तियों का स्वभाव और महत्त्व उनके लिंग भेद से स्वतन्त्र है।” महिला आन्दोलन की उत्पत्ति व विकास (Origin and Development of Women Movement) स्त्रियों की समानता की धारणा का इतिहास बहुत पुराना है।

भारतीय वैदिक काल में स्त्री को सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से अनेक अधिकार प्राप्त थे। कोई भी धार्मिक व सामाजिक अनुष्ठान व यज्ञ स्त्री बिना अधूरा माना जाता था। उसे कुल लक्ष्मी व देवी आदि उपनामों से पुकारा जाता था वेदों में तो यहां तक लिखा है कि जहां-जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का निवास होता है। उत्तर वैदिक काल में नारी के स्थान व सम्मान में कमी आनी शुरू हो गई।

उसे धीरे-धीरे वर चुनने व शिक्षा प्राप्ति के अधिकारों से वंचित कर दिया गया। महात्मा बुद्ध ने तो अपने शिष्य आनन्द के बार-बार अनुरोध करने पर स्त्रियों को भिक्षुणियां बनने की अनुमति दी थी। राजपूतों और तुर्कों के काल में स्त्रियां, चारदीवारी में बन्द हो गईं और पर्दा व कन्यावध जैसी सामाजिक कुरीतियों द्वारा इनका शोषण किया जाता रहा है।

15वीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी ने स्त्रियों की समानता और स्त्रियों की श्रेष्ठता का प्रचार किया। भक्ति आन्दोलन और सुधार आन्दोलनों ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक यत्न किए। 18वीं शताब्दी में अनेक विद्वानों ने पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर किए गए अत्याचारों की कड़ी आलोचना की। बोरन डी हुलबैक (Boron D Holbach) ने स्त्रियों को शिक्षा न दिया जाने का विरोध किया और इस बात पर जोर दिया कि समाज की उन्नति के लिए स्त्रियों को शिक्षा देना अति ज़रूरी है।

अनेक फ्रांसीसी विद्वानों ने स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा देने का समर्थन किया। मेरी उलम्पी डी गोज़ज (Marie Olympe D. Goages) ने 1791 ई० में “स्त्रियों के अधिकारों की घोषणा” (Declaration of Women) प्रकाशित की और इस बात की मांग की कि, “जब हमें स्त्रियों को फांसी के फंदे पर लटकने का अधिकार है तो हमें न्यायालयों की कुर्सी पर भी बैठने का अधिकार है।”

1792 ई० में एक अंग्रेज़ स्त्री मेरी वुलस्टोनकराफट (Mary Wollstonecraft) ने स्त्रियों के अधिकारों का समर्थन व रक्षा (A Vindication of the Rights of Women) नामक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में मेरी वुलस्टोनकराफट ने इस बात पर जोर दिया है कि स्त्रियों के शरीर का प्रयोग किया जाता है, किन्तु उनके दिमाग को जंग लगने दिया जाता है। मेरी ने स्त्रियों को शिक्षा दिए जाने पर बल दिया और यह भी कहा कि अनेक स्त्रियां ब्रिटिश संसद् की सदस्या बनने के योग्य हैं।

परन्तु इन विद्वानों के विचारों के बावजूद स्त्रियों की दशा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ और न ही 17वीं शताब्दी के अन्त तक कोई विशेष संगठन शुरू हुआ। शैले (Shelley), फलोरेंस नाइटिंगेल (Florence Nightingale), एलिजाबेथ गैसकल (Elizabeth Gaskall), राबर्ट ओवन (Robert Oven) और एलिजाबेथ फराई (Elizabeth Fry) आदि ने अस्पतालों, कारखानों तथा अन्य स्थानों पर काम कर रही स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए प्रयत्न किए।

1820 ई० में अमेरिका में United Tailoresses Society of New York और Lady Shoe Bender of Cynu Massachusetts नामक संगठनों की स्थापना की गई, परन्तु इन संगठनों को कोई विशेष सफलता न मिली क्योंकि इन संगठनों को पुरुषों का समर्थन प्राप्त नहीं था। अमेरिका में 1824 ई० में स्त्रियों ने पहली बार हड़ताल की। इस हड़ताल का पुरुषों ने भी काफ़ी सीमा तक समर्थन किया।

1848 ई० में एलिजाबेथ केडी स्टेनटन (Elizabeth Cady Stanton) तथा लुकरीसियन मट (Lucretin Matt) द्वारा बुलाई कन्वेंशन में की गई घोषणा अमेरिकन स्त्रियों के अधिकारों के लिए चलाए गए आन्दोलनों से महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इस घोषणा में स्पष्ट कहा गया था कि मानव जाति का इतिहास पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर किए गए अत्याचारों का इतिहास है। अमेरिका के गृह युद्ध (1861-65) ने स्त्रियों को कुछ अधिकार दिलवाने में बहुत सहायता की। स्त्रियों के लिए एक कॉलेज खोला गया और उन्हें सरकारी नौकरियां देने की भी व्यवस्था की गईं। 19वीं शताब्दी के अन्त में स्त्रियों को अनेक अधिकार दिए गए।

स्त्रियों को मताधिकार की प्राप्ति (Attainment of right to vote by women)-जे० एस० मिल (J. S. Mill) स्त्री मताधिकार का भारी समर्थक था। उसके विचारानुसार मताधिकार देने में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। स्त्रियों को मताधिकार न देना उसे बहुत अन्यायपूर्ण लगता था। मिल स्त्रियों को वही समर्थन देना चाहता था, जो पुरुषों को प्राप्त था। उस का कहना है कि, “स्त्री और पुरुषं में कोई अन्तर है भी तो पुरुष की अपेक्षा मत देने के अधिकार की आवश्यकता नारी को अधिक है क्योंकि शारीरिक दृष्टि से पुरुष की तुलना में निर्बल होने के कारण उसे रक्षा के लिए कानून और समाज पर निर्भर रहना पड़ता है।”

अमेरिका में 1920 ई० में तथा इंग्लैण्ड में 1928 ई० में स्त्रियों को मताधिकार दिया गया। फ्रांस में द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् स्त्रियों को मताधिकार दिया गया। भारतीय संविधान के अन्तर्गत स्त्रियों को पुरुषों समान अधिकार दिए गए हैं। संविधान में यह स्पष्ट लिखा गया है कि लिंग के आधार पर किसी प्रकार का स्त्रियों के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। अमेरिका में 1964 ई० में “नागरिक अधिकार अधिनियम” (Civil Rights Act) के अन्तर्गत नौकरियों में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इंग्लैण्ड में 1967 ई० में अमेरिका में 1975 ई० में गर्भपात के अधिकार को कानूनी मान्यता दी गई।

1960 ई० के पश्चात् स्त्रियों को स्वतन्त्रता दिलवाने के लिए अनेक संगठनों की स्थापना की गई है और अनेक आन्दोलन चलाए गए हैं। 1963 ई० में बैट्टी फ्राईडन (Betty Friden) ने “The Ferminine Mystique” नामक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक में स्त्रीवाद आन्दोलन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् स्त्रियों में राजनीतिक जागृति का काफ़ी विकास हुआ है। भारत जैसे देश में आज अनेक महिला संगठन स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं। इन संगठनों में मुख्य संगठन इस प्रकार है-All India Women Conference, National Council of Women in India, Bharatiya Grameen Mahila Sangh, National Federation of Indian Women आदि।

यूरोप के अनेक देशों में, विशेषकर अमेरिका में स्त्रियों के अधिकारों के लिए चलाए गए आन्दोलन उग्र रूप धारण कर चुके हैं। स्त्रीवाद के उग्र रूप की समर्थक स्त्रियां केवल समान अधिकारों की बात करती है बल्कि पुरुषों की आवश्यकता का भी खण्डन करती है। इसलिए अमेरिका में हमें एक स्त्री का दूसरी स्त्री के साथ विवाह का उदाहरण मिलता है। परन्तु स्त्रीवाद का यह रूप समाज एवं मानव के हित में नहीं है क्योंकि समाज को बनाए रखने के लिए स्त्री पुरुष सम्बन्ध होना आवश्यक है।

प्रश्न 4.
महिला सशक्तिकरण हेतु संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख करें।
उत्तर:
महिला सशक्तिकरण और विकास के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया जाए। प्राय: सभी राजनीतिक दल, महिला संघ व सामाजिक संगठन निरन्तर इस बात पर बल देते रहे हैं कि जब तक स्थानीय संस्थाओं, विधानमण्डलों और संसद् में महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। 73वें और 74वें संशोधन द्वारा ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए कुल निर्वाचित पदों का एक तिहाई भाग आरक्षित किया गया है।

इससे महिला सशक्तिकरण आन्दोलन को बल मिला। संसद् और राज्य विधानमण्डलों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित रखने के लिए कई बार प्रयास किए जा चुके हैं, लेकिन इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। विभिन्न राजनीतिक दल अपनी रैलियों, घोषणा-पत्रों, सार्वजनिक स्थानों आदि पर तो महिलाओं के लिए संसद् व राज्य विधान सभाओं में एक-तिहाई स्थान दिलाने का जोर-शोर से प्रचार करते हैं, लेकिन जब संसद् में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया जाता है तो उसे पास नहीं होने दिया जाता।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय महिला आयोग के प्रमुख कार्यों का सविस्तार वर्णन करें।
उत्तर:
भारत में महिलाओं की रक्षा तथा उनकी स्थिति में सुधार के लिए राष्ट्रीय महिला आपेक्षा महिला आयोग निम्नलिखित कार्य करता है

1. महिलाओं का सर्वांगीण विकास-राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के सर्वांगीण विकास पर विशेष बल देता है, तथा इससे सम्बन्धित कई प्रकार के कार्य करता है।

2. महिलाओं से सम्बन्धित कानूनों की समीक्षा करना-राष्ट्रीय महिला आयोग सरकार द्वारा समय-समय पर महिला कल्याण के लिए जो कानून बनाए जाते हैं, उनकी समीक्षा करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उससे संशोधन हेतु सुझाव भी देता है।

3. महिलाओं से सम्बन्धित कानूनी सुरक्षा उपायों की समीक्षा करना-राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं से सम्बन्धित कानूनी सुरक्षा उपायों की समीक्षा एवं जांच-पड़ताल करता है तथा इन कानूनों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए समय-समय पर सरकार को परामर्श भी देता है।

4. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना-राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है। यदि कोई व्यक्ति या अधिकारी इन अधिकारों की अवहेलना करता है, तो राष्ट्रीय महिला आयोग इस घटना को सम्बन्धित अधिकारी के समक्ष उठाता है।

5. लिंग भेदभाव को समाप्त करना-राष्ट्रीय महिला आयोग समाज में से लिंग भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करता है। यह आयोग महिलाओं से सम्बन्धित समस्याओं से सम्बन्धित खोज करके, उसको समाप्त करने का सुझाव देता है।

6. महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक विकास-वर्तमान में भी समाज में महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। अतः राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अनेक कार्य करता है।

7. घरेलू हिंसा से बचाव-राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।

8. वार्षिक प्रतिवेदन देना-राष्ट्रीय महिला आयोग प्रति वर्ष महिलाओं की स्थिति से सम्बन्धित प्रतिवेदन केन्द्रीय सरकार को देता है तथा आवश्यकता पड़ने पर किसी राज्य सरकार को भी प्रतिवेदन दे सकता है। ..

9. महिलाओं से सम्बन्धित सुधार गृहों तथा जेलों का निरीक्षण करना-राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं से सम्बन्धित सुधार गृहों तथा जेलों आदि का समय-समय पर निरीक्षण करता है उनमें सुधार के लिए सिफारिशें प्रस्तुत करता है।

10. महिलाओं के कल्याण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया कोई कार्य करना-राष्ट्रीय महिला आयोग कोई ऐसा कार्य करता है, जो महिलाओं के कल्याण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा उसे सौंपा जाए। .

11. राष्ट्रीय महिला आयोग अपने समक्ष किसी भी व्यक्ति को बुलाने एवं उसकी उपस्थिति विश्वसनीय बनाने की शक्ति प्राप्त है ।

12. शपथ पत्रों की जांच करना-राष्ट्रीय महिला आयोग को शपथ पत्रों की जांच करने की शक्ति प्राप्त है।

13. न्यायालय से महिलाओं से सम्बन्धित रिकार्ड प्राप्त करना-राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं से सम्बन्धित कोई रिकार्ड किसी न्यायलय या कार्यालय से प्राप्त कर सकता है।

14. सबूतों एवं प्रलेखों की जांच-राष्ट्रीय महिला आयोग को सबूतों एवं प्रलेखों की जांचे के आदेश देने का अधिकार प्राप्त है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 6.
पर्यावरण एवं विकास से प्रभावित लोगों के आन्दोलनों का वर्णन करें।
उत्तर:
विकासशील देश निरन्तर विकास के लिए प्रयत्न करते रहते हैं और अल्पविकसित राष्ट्र भी अपने अस्तित्व . के लिए तथा अपने-अपने देश की आवश्यकताओं के लिए हमेशा संघर्षरत रहते हैं। विकास के इन प्रयत्नों के फलस्वरूप विश्व के पर्यावरण पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। सभ्यता के प्रारम्भिक युग में मानव की आवश्यकताएं अत्यधिक सीमित थीं और मानव जनसंख्या भी कम थी। आवश्यकताओं के सीमित होने व जनसंख्या के कम होने के कारण प्रकृति के चक्कर (Cycle of Nature) पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता था, क्योंकि मनुष्य प्रकृति के अपार भण्डार से जो कुछ व्यय करता था, वह वापिस प्रकृति में, बिना क्षति पहुंचाए किसी-न-किसी रूप में, विलीन हो जाता था।

किन्तु जहां एक ओर जनसंख्या का निरन्तर विस्तार हो रहा है, वहां दूसरी ओर सभ्यता और प्रौद्योगिकी के विकास के कारण मानव उपभोग का स्तर ऊंचा होता जा रहा है, जिसके कारण विश्व के सभी राष्ट्रों-विकसित, विकासशील एवं अल्पविकसित द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतना अधिक बढ़ गया है कि प्राकृतिक साधनों की कमी होनी शुरू हो गई है और पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याएं पैदा हो गई हैं।
पर्यावरण क्षरण एवं विकास के कारण विश्व के अधिकांश लोग नकारात्मक ढंग से प्रभावित हुए हैं।

इसका प्रभाव भारत जैसे विकासशील देश में भी बहुत पड़ा है। इसी कारण विश्व के साथ-साथ भारत में भी पर्यावरण क्षरण एवं विकास के विरुद्ध समय-समय पर आन्दोलन होते रहे हैं। भारत में पर्यावरण से सम्बन्धित सर्वप्रथम आन्दोलन को चिपको आन्दोलन के रूप में जाना जाता है। चिपको आन्दोलन 1972 में हिमालय क्षेत्र में उत्पन्न हुआ। चिपको आन्दोलन का अर्थ है-पेड़ से चिपक जाना अर्थात् पेड़ को आलिंगन बद्ध कर लेना। चिपको आन्दोलन की शुरुआत उस समय हुई जब एक ठेकेदार ने गांव के समीप पड़ने वाले जंगल के पेड़ों को काटने का फैसला किया।

लेकिन गांव वालों ने इसका विरोध किया। परन्तु जब एक दिन गांव के सभी पुरुष गांव से बाहर गए हुए थे, तब ठेकेदार ने पेड़ों को काटने के लिए अपने कर्मचारियों को भेजा। इसकी जानकारी जब गांव की महिलाओं को मिली, तब वे एकत्र होकर जंगल पहुंच गईं तथा पेड़ों से चिपक गईं। इस कारण ठेकेदार के कर्मचारी पेड़ों को काट न सके। इस घटना की जानकारी पूरे देश में समाचार माध्यमों के द्वारा फैल गई। पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित इस आन्दोलन को ? प्राप्त है। चिपको आन्दोलन के बाद भारत में नर्मदा बचाओ आन्दोलन बांध विरोधी आन्दोलन, उद्योगों एवं कारखानों को शहर से बाहर स्थापित करने की योजना, ताजमहल को बचाने की योजना, बसों एवं आटो रिक्शा में सी० एन० जी० के प्रयोग जन आन्दोलन का उदय की योजना शुरू की गई।

इन योजनाओं में लोगों के साथ-साथ भारत की न्यायपालिका ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नर्मदा बचाओ आन्दोलन में लोगों की भागीदारी इतनी अधिक थी, कि विश्व बैंक ने भी इस योजना से अपने आपको अलग कर लिया। इसके साथ-साथ भारत में टिहरी बांध परियोजना नर्मदा घाटी परियोजना तथा शांत घाटी परियोजना से सम्बन्धित भी पर्यावरणीय आन्दोलन चलाए। टिहरी बांध परियोजना के विरुद्ध चलने वाला आन्दोलन भारत का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला आन्दोलन माना जाता है। टिहरी बांध परियोजना का विरोध करने के लिए लोगों ने स्वतन्त्रता सेनानी वीरेन्द्र दत्त सखलानी के नेतृत्व में टिहरी बांध परियोजना विरोधी संघर्ष समिति का निर्माण किया।

टिहरी बांध से टिहरी शहर के पानी में डूब जाने का खतरा था। आगे चलकर इस योजना से समाज सेवी सुन्दर लाल बहुगुणा भी जुड़ गए तथा टिहरी बांध परियोजना का विरोध करने के लिए उन्होंने आमरण अनशन भी किया तथा प्रधानमन्त्री द्वारा इस योजना की समीक्षा के आश्वासन पर ही उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ा था। शांत घाटी परियोजना केरल में शुरू की गई थी। इस परियोजना का विरोध करने के लिए ‘केरल शास्त्र साहित्य परिशट्’ की स्थापना की गई इस सभा का मुख्य तर्क यह था कि यदि यह परियोजना पूरी होती है, तो इससे जंगली जीवों को बहुत हानि पहुंचेगी। इसी कारण इस परियोजना को बन्द ही कर दिया गया।

पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन नर्मदा बचाओ आन्दोलन को माना जाता है। यद्यपि यह आन्दोलन 1970 के दशक में ही शुरू हो गया था, परन्तु इसमें तेजी 1980 के दशक में आई। इस आन्दोलन को चलाने वालों में मेधा पाटकर, बाबा आमटे तथा सुन्दर लाल बहुगुणा शामिल हैं। इनके प्रयासों से समाज के अन्य वर्गों से भी इन्हें समर्थन मिला।

आन्दोलन के समर्थकों की मांग है कि बांध परियोजना के पूर्ण होने पर कई लाख लोग बेघर हो जाएंगे, अतः सरकार इनके पुनर्वास की पूर्ण व्यवस्था करे। परन्तु सम्बन्धित अधिकारियों द्वारा लोगों के पुनर्वास को अधिक गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा था। इसी कारण इस आन्दोलन के साथ समाज के अन्य वर्गों के लोग भी जुड़ गए तथा यह आन्दोलन और तेज़ हो गया तथा जो देश इस परियोजना में धन लगा रहे थे, वो पीछे हट गए।

यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि भारत में पर्यावरण से सम्बन्धित, नर्मदा बचाओ आन्दोलन, जैसे कई और आन्दोलन भी सफलतापूर्वक चले हैं, परन्तु कुछ ऐसे आन्दोलन भी रहे हैं जो सफलता प्राप्त नहीं कर पाए। जैसे 1985 में भोपाल में ‘यूनियन कारबाइड गैस’ दुर्घटना द्वारा लगभग 3000 लोग मारे गए। इस घटना के विरुद्ध भी एक सफल आन्दोलन चलाया जा सकता था, क्योंकि इसमें तात्कालिक तौर पर ही 3000 लोग मारे जा चुके थे। क्योंकि इस दुर्घटना के लिए एक विदेशी कम्पनी यनियन कारबाइड कार्पोरेशन उत्तरदायी थी, अत: उसके विरुद्ध न तो भारतीय सरकार और न ही स्थानीय लोग ही उचित कार्यवाही कर पाए।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है, कि भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् लोगों में पर्यावरण से सम्बन्धित जागरुकता बढ़ी तथा भारतीय लोगों ने पर्यावरण को खराब करने वाली परियोजनाओं के विरुद्ध सफल आन्दोलन चलाए।

प्रश्न 7.
भारत में महिलाओं के उत्थान के लिए उठाए गए मुख्य कदम बताएं।
उत्तर:
भारत में महिलाओं के उत्थान के लिए निम्नलिखित कदम उठाए गए हैं

(1) महिलाओं के उत्थान के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956, स्त्रियों एवं लड़कियों का अनैतिक व्यापार निषेध कानून, 1956 तथा दहेज विरोधी कानून, 1960 कानून बनाया गया।

(2) सन् 1972 में कामकाजी महिलाओं के लिए आवास गृह योजना आरम्भ की गई।

(3) भारत में महिलाओं एवं लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 1958 में एक परिषद् की स्थापना की गई जिसे लड़कियों तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए राष्ट्रीय परिषद् कहा जाता है।

(4) 1987 में विशेष तौर पर ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं के लिए प्रशिक्षण एवं रोजगार हेतु कार्यक्रम शुरू किया गया।

(5) 1982 में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए शिक्षात्मक कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया।

(6) सन् 1977 में संकट ग्रस्त स्त्रियों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं रोज़गार तथा आवासीय व्यवस्था का प्रावधान किया गया।

(7) सन् 1992 में 73वें एवं 74वें संशोधनों द्वारा ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए कुल निर्वाचित पदों का एक तिहाई भाग आरक्षित किया गया।

(8) 20 अगस्त, 1995 में को इन्दिरा महिला योजना आरम्भ की गई ।

(9) सन् 1992 में राष्ट्रपति महिला आयोग का गठन किया गया।

(10) सन् 2001 में महिला सशक्तिकरण नीति का निर्माण किया गया।

(11) सन् 2005 में घरेलू महिला हिंसा विरोधी कानून लागू किया गया।

प्रश्न 8.
आरक्षण की नीति का भारतीय राजनीति पर प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीति पर आरक्षण की नीति का निम्नलिखित ढंग से प्रभाव पड़ा है :-

  • आरक्षण की नीति ने दलितों का सर्वांगीण विकास हुआ है।
  • आरक्षण की नीति ने दलितों में वर्गीय चेतना का विकास किया है।
  • जाति आधारित राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का निर्माण हुआ है।
  • आरक्षण की नीति के कारण दलितों में विशिष्ट वर्ग का विकास हुआ है।
  • आरक्षण की नीति के कारण समाज में सामाजिक तनाव बढ़ा है।
  • आरक्षण की नीति के कारण दलितों को एक वोट बैंक के रूप में देखा जाने लगा है।
  • आरक्षण की नीति ने मतदान व्यवहार को भी प्रभावित किया है।
  • आरक्षण की नीति के कारण अन्य कई जातियों ने भी आरक्षण की मांग करनी आरम्भ कर दी है।
  • आरक्षण की नीति के कारण बहुत तेजी से राजनीति का जातीयकरण हुआ है।
  • आरक्षण की नीति ने गठबंधन की नीति को बढ़ावा दिया है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 9.
मण्डल आयोग के गठन एवं उसकी सिफ़ारिशों का वर्णन करें।
उत्तर:
काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ी जाति आयोग-संविधान के अनुच्छेद 340 के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई लेकिन पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। इसलिए पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए भारत सरकार ने 1953 में गांधीवादी विचारक काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ी जाति आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने 30 मार्च, 1955 को राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

इस आयोग ने पिछड़ी जातियों के रूप में 2399 जातियों की पहचान की। इस आयोग ने सभी स्त्रियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की सिफारिश की

(1) आयोग ने प्रथम श्रेणी की सरकारी नौकरियों में 25 प्रतिशत, दूसरी श्रेणी में 33 प्रतिशत, तीसरी तथा चौथी श्रेणी में 40 प्रतिशत आरक्षण की भी सिफारिश की। आयोग ने सभी तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं में 70 प्रतिशत स्थान आरक्षित रखने की भी मांग की लेकिन इन सिफ़ारिशों के सम्बन्ध में आयोग के सारे सदस्य एक मत नहीं थे।

आयोग के सात में से तीन सदस्यों ने तो यह भी नहीं माना कि जातीयता पिछड़ेपन का कारण है। स्वयं आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने सरकार को लिखे अपने प्रशस्ति-पत्र में अपनी सिफ़ारिशों के परिणाम पर सन्देह प्रकट किया था। इसलिए 1956 में संसद् में एक रिपोर्ट के साथ अपने स्मृति-पत्र में आयोग द्वारा निर्णय एकमत के अभाव के आधार इसे अस्वीकार कर दिया और 1961 में राज्यों को सूचित किया गया कि उन्हें अपने स्तर पर ‘समुचित आधार’ खोजने की स्वतन्त्रता है। इस सम्बन्ध में यह उचित होगा कि यदि राज्य

आर्थिक मापदण्ड को व्यवहार में लाएं। इसका परिणाम यह निकला कि पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का विषय उलझता. चला गया। राज्यों ने अपने स्तर पर पिछड़ेपन के आधार ढूंढने के प्रयास किए। इससे न केवल भेदभाव बढ़े बल्कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था राजनीति का शिकार हो गई। प्रान्तीय स्तर पर अनेक हिंसक आरक्षण समर्थक तथा आरक्षण विरोधी आन्दोलन हुए।

तमिलनाडु में 50 प्रतिशत, कर्नाटक में 48 प्रतिशत, केरल में 30 प्रतिशत कोटा निर्धारित किया गया जबकि पंजाब में केवल 5 प्रतिशत और राजस्थान, दिल्ली एवं उड़ीसा में यह व्यवस्था बिल्कुल भी नहीं है जन आन्दोलन का उदय जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि विभिन्न व्यवस्थाओं से राज्य स्तर पर अनेक विवादों एवं हिंसक कार्यवाहियों का जन्म हुआ।

मण्डल आयोग की स्थापना-काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों के भेदभाव को दूर करने के लिए मोरारजी देसाई की प्रधानता में जनता पार्टी की सरकार ने बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में 20 सितम्बर, 1978 को दूसरे पिछड़ी जाति आयोग का गठन किया। इस आयोग में अध्यक्ष के अतिरिक्त पांच अन्य सदस्य रखे गए। इस आयोग का उद्देश्य सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान करके उनके उत्थान के लिए दिशा निर्धारित करना था। इस आयोग ने 31 दिसम्बर, 1980 को राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में कालेलकर रिपोर्ट की तरह तथ्यों के अभाव को स्वीकार किया गया, फिर भी आयोग की कार्यविधि में सुधार कहा जा सकता है जो कि काफ़ी खोजबीन पर आधारित थी।

मण्डल आयोग की सिफ़ारिशें-आयोग ने कुल 3743 पिछड़ी जातियों को वर्गीकृत किया जिसमें हिन्दुओं के साथ-साथ अन्य धर्मों को भी शामिल किया गया। आयोग के अनुसार देश भर में इनकी संख्या 52 प्रतिशत है। मण्डल आयोग की मुख्य सिफ़ारिश यह है कि पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश में 27 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।

आयोग ने इस सिफ़ारिश के पक्ष में यह तर्क दिया कि यदि 22.5 प्रतिशत जनसंख्या वाले हरिजनों एवं जन-जातियों के लिए उतनी ही आरक्षण की व्यवस्था हो सकती है तो 52 प्रतिशत पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत क्यों नहीं किया जा सकता। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जाति को पिछड़ेपन का आधार मानते हुए सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के लिए 11 मापदण्ड प्रस्तुत किए जिनको मुख्य रूप से तीन शीर्षकों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया

  • सामाजिक
  • शैक्षणिक
  • आर्थिक। इन. 11 मापदण्डों का वर्णन इस प्रकार हैं

1. सामाजिक मापदण्ड (Social Standard):
ऐसी जातियां या वर्ग जिनको सामाजिक तौर पर निम्न जातियों या वर्गों द्वारा पिछड़ा हुआ.माना जाता है।

(2) ऐसी जातियां या वर्ग जो मुख्य तौर पर शारीरिक श्रम पर निर्भर हैं।

(3) ऐसी जातियां या वर्ग जिनमें राज्य के औसत से 25 प्रतिशत से अधिक महिलाएं तथा 10 प्रतिशत से ज्यादा पुरुष ग्रामीण क्षेत्र में तथा कम-से-कम 10 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एवं 5 प्रतिशत से अधिक पुरुष शहरी क्षेत्र में 17 साल की आयु से पहले ही वैवाहिक पाए जाते हैं।

(4) ऐसी जातियां या वर्ग जहां कार्यों में महिलाओं की भागीदारी राज्य के औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक है।

2. शैक्षणिक मापदण्ड (Educational Standard):
(1) ऐसी जातियां या वर्ग जहां 5 से 15 साल की आयु वर्ग में कभी स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या राज्य के अनुपात से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक है।

(2) ऐसी जातियां या वर्ग जहाँ स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या राज्य के औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक है।

(3) ऐसी जातियां या वर्ग जिनमें 10वीं पास लोगों की संख्या राज्य के औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत कम है।

3. आर्थिक मापदण्ड (Economic Standard):

  • ऐसी जातियां या वर्ग जिनकी पारिवारिक सम्पत्ति का मूल्य राज्य के औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत कम है।
  • ऐसी जातियां या वर्ग जिनमें कच्चे घरों में रहने वाले परिवारों की संख्या राज्य के औसत से 25 प्रतिशत से अधिक है।
  • ऐसी जातियां या वर्ग जहां 50 प्रतिशत से अधिक परिवारों के लिए पीने के पानी का स्रोत आधा किलोमीटर से दूर है।
  • ऐसी जातियां या वर्ग जिनमें उपभोक्ता ग्रहण (Consumption Loan) लेने वाले परिवारों की संख्या राज्य के औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक है।

मण्डल आयोग ने उपरोक्त मापदण्डों के आधार पर 1931 के जनगणना आंकड़ों से वर्ग समुदाय सम्बन्धी आंकड़े प्राप्त किए तथा उनको पांच प्रमुख शीर्षकों के अधीन इस प्रकार बांटा है
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इस प्रकार मण्डल आयोग ने कुल जनसंख्या के 52 प्रतिशत भाग को पिछड़े वर्ग के रूप में माना। इसमें हिन्दू तथा गैर-हिन्दू दोनों समुदायों के पिछड़े वर्गों को शामिल किया गया है। आयोग ने यह भी माना है कि धर्म परिवर्तन के बाद यह समह जाति रूढिवादिता तथा पिछडेपन से स्वतन्त्र नहीं हो सके हैं। आयोग ने इनके लिए जाति आधार की अपेक्षा अग्रलिखित आधारों का प्रयोग किया है

(A) धर्म परिवर्तन करने वाले सभी अछूत जातियां तथा
(B) कुछ हिन्दू जातियों को व्यावसायिकता के आधार पर भी पिछड़े वर्गों में शामिल किया। इन जातियों में बार्बर, धोबी, गुज्जर, लुहार आदि वर्णन योग्य हैं। आयोग ने सभी महिलाओं को भी पिछड़े वर्गों में रखा।

27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश:
मण्डल आयोग का यह मानना है कि पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने से दलितों की स्थिति में परिवर्तन आएगा। इसलिए आयोग ने पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग करते हुए संविधान की धारा 15 (4), 16 (4) तथा सर्वोच्च न्यायालय के उन सब निर्णयों का पालन किया है जिसके अनुसार देश में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं किया जा सकता। इसलिए आयोग ने पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत
आरक्षण की निम्नलिखित योजना प्रस्तुत की

  • अन्य पिछड़े वर्गों के उन सदस्यों को जो खुली प्रतियोगिता द्वारा नियुक्त किए गए हैं, 27 प्रतिशत आरक्षण के अन्तर्गत न माने जाएं।
  • आरक्षण की यही व्यवस्था पदोन्नति के लिए सभी स्तरों पर लागू मानी जाएगी।
  • आरक्षित पद यदि रिक्त है तो उसे तीन वर्ष तक आरक्षित रखा जाए। इसके बाद इसे गैर-आरक्षित कर दिया जाए।
  • अनुसूचित जातियों एवं जन-जातियों की तरह पिछड़े वर्ग के उम्मीदवार को भी सीधी भर्ती के मामले में आय सीमा में छूट दी जाए।

मण्डल आयोग ने सिफारिश की थी कि पिछड़े वर्गों से सम्बन्धित 27 प्रतिशत आरक्षण की यह व्यवस्था सभी सार्वजनिक उद्यमों, सरकारी सहायता प्राप्त निजी उद्यमों, विश्वविद्यालयों तथा उनसे सम्बन्धित कॉलेजों में लागू की जानी चाहिए। आयोग ने यह स्पष्ट किया है कि जिन राज्यों में 27 प्रतिशत से अधिक की व्यवस्था लागू की जा चुकी है उसे वैसा ही रखा जाए अर्थात् अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण कम-से-कम था।

आयोग का यह भी मानना था कि शिक्षा के माध्यम से पिछड़े वर्गों की सामाजिक दशा में सुधार किया जा सकता है। इसलिए इन वर्गों के विद्यालयों के लिए व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के लिए तकनीकी एवं व्यावसायिक संस्थाओं में प्रशिक्षण की अधिक सुविधा होनी चाहिए।

पिछड़े वर्गों की सहायता के लिए आयोग ने वित्तीय संस्थाओं तथा सहकारी संस्थाओं की भी सिफ़ारिश की। इन वर्गों में औद्योगिक उद्यमों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकारों को भी अपने स्तर पर वित्तीय तथा तकनीकी संस्थाओं की स्थापना का सुझाव दिया। आयोग ने केन्द्र तथा राज्य सरकारों को वर्तमान भूमि सम्बन्धों को बदलने के लिए भूमि सुधार कानूनों के निर्माण तथा उसे लागू करने के लिए कहा।

आयोग ने यह भी सिफ़ारिश की कि आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने के लिए एक पिछड़ा वर्ग विकास निगम (Backward Class Development Corporation) का निर्माण किया जाए। मण्डल आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की इस सिफ़ारिश से लोगों के दिलों में धड़कन बढ़ जाएगी, पर क्या इसी एक तथ्य के कारण एक बड़े सामाजिक हित के कार्य को रोक दिया जाए ?

प्रश्न 10.
ताड़ी विरोधी आन्दोलन क्या था ? इस आन्दोलन का आरम्भ क्यों हुआ?
उत्तर:
ताड़ी विरोधी आन्दोलन शराब माफिया के विरुद्ध चलाया गया एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन था। इस आन्दोलन का आरम्भ 1990 के दशक में आध्र-प्रदेश में हुआ। ताड़ी सामान्यतः देसी शराब को कहते हैं। इस प्रकार की शराब का निर्माण घरों में ही हो जाता है। ताड़ी के विरोध में आन्ध्र प्रदेश की महिलाओं ने आन्दोलन चलाया। उन्होंने इसके निर्माण एवं वितरण पर रोक लगाने की मांग की। इस आन्दोलन के प्रारम्भ होने के निम्नलिखित कारण थे

  • ताड़ी पीने के कारण लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो रही थी।
  • ताड़ी पीने के कारण लोगों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति खराब हो रही थी, जिसका प्रभाव प्रतिदिन के कार्यों एवं खेती बाड़ी पर पड़ रहा था।
  • ताड़ी पीने के कारण पुरुष कोई कार्य नहीं करते थे, जिससे सारा कार्य महिलाओं को करना पड़ता था।
  • ताड़ी बनाने वाले लोगों को ताड़ी पीने के लिए प्रोत्साहित करते थे, और प्रायः कृषि भूमि कर्ज में चली जाती है।
  • ताड़ी के नशे में पुरुष घरों में महिलाओं एवं बच्चों से मारपीट करते थे। (6) ताड़ी के कारण घरों एवं गांवों में तनाव रहने लगा था।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 11.
जन अथवा सामाजिक आन्दोलन भारतीय लोकतन्त्र को कैसे सुदृढ़ बनाते हैं ? इनकी क्या सीमाएं हैं ?
उत्तर:
जन अथवा सामाजिक आन्दोलन भारतीय लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाते हैं। जन आन्दोलन अथवा सामाजिक आन्दोलन का अर्थ केवल सामूहिक कार्यवाही ही नहीं होता, बल्कि आन्दोलन का एक काम सम्बन्धित लोगों को अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना भी है। भारत में चलने वाले विभिन्न सामाजिक आन्दोलनों ने लोगों को इस सम्बन्ध में जागरूक बनाया है, तथा लोकतन्त्र को मज़बत किया है।

भारत में समय-समय ताड़ी विरोधी आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन तथा सरदार सरोवर परियोजना से सम्बन्धित आन्दोलन चलते रहते हैं। इन आन्दोलनों ने कहीं-कहीं भारतीय लोकतन्त्र को मज़बूत ही किया है। इन सभी आन्दोलनों का उद्देश्य भारतीय दलीय राजनीति की समस्या को दूर करना था।

सामाजिक आन्दोलन ने उन वर्गों के सामाजिक-आर्थिक हितों को उजागर किया, जोकि समकालीन राजनीतिक द्वारा नहीं उभारे जा रहे थे। इस प्रकार सामाजिक आन्दोलनों ने समाज के गहरे तनाव और जनता के क्रोध को एक सकारात्मक दिशा देकर भारतीय लोकतन्त्र को सुदृढ़ किया है। इसके साथ-साथ सक्रिय राजनीति भागेदारी के नये-नये रूपों के प्रयोगों ने भी भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।

ये आन्दोलन जनसाधारण की उचित मांगों को उभार कर सरकार के सामने रखते हैं तथा इस प्रकार जनता के एक बड़े भाग को अपने साथ जोड़ने में सफल रहते हैं। अत: जिस आन्दोलन में इतनी बड़ी संख्या में लोग भाग लेते हैं, उसको समाज की स्वीकृति भी प्राप्त होती है तथा इससे देश में लोकतन्त्र को मजबूती भी मिलती है।

प्रश्न 12.
दलित पैंथर्स की गतिविधियों एवं सफलताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
दलित पैंथर्स की स्थापना सन 1972 में महाराष्ट्र में हई। दलित पैंथर्स दलित यवाओं का एक संगठन था। दलित पँथर्स नामक संगठन में ज्यादातर शहर की मलिन बस्तियों में रहने वाले युवा शामिल थे। दलित पैंथर्स के निम्नलिखित उद्देश्य थे–

  • जाति आधारित असमानता को समाप्त करना इस संगठन का मुख्य उद्देश्य था।
  • आरक्षण के कानूनों को लागू करना।
  • सामाजिक न्याय की स्थापना करना।
  • छुआछूत को पूरी तरह समाप्त करना।

गतिविधियां एवं सफलताएं-महाराष्ट्र के अलग-अलग क्षेत्रों में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की मुख्य गतिविधि थी। इस संगठन के बार-बार मांग करने पर 1989 में एक कानून बनाया गया, जिसके अन्तर्गत दलित पर अत्याचार करने पर कठोर सजा का प्रावधान किया गया।

इस संगठन का व्यापक विचारात्मक एजेण्डा जाति प्रथा को समाप्त करना तथा भूमिहीन, गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मज़दूर और दलित सहित सभी वंचित वर्गों का एक संगठन बनाना था। इस दौरान अनेक आत्मकथाएं एवं साहित्यिक रचनाएं लिखी गईं। दलितों के दबे-कुचले जीवन के अनुभव इन रचनाओं में अंकित थे। इस रचनाओं से मराठी भाषा के साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकप्रिय आन्दोलन का क्या अर्थ है ? दल आधारित एवं गैर-दल आधारित आन्दोलन की व्याख्या करें।
उत्तर:
लोकप्रिय आन्दोलन का अर्थ यह है कि एक आन्दोलन के साथ अधिक-से-अधिक लोगों को जुड़ना। एक आन्दोलन के साथ जितने अधिक लोग जुड़ते जायेंगे, वह आन्दोलन उतना ही अधिक लोकप्रिय होता जायेगा। जो आन्दोलन किसी संगठित दल द्वारा चलाया जाए, उसे दल आधारित आन्दोलन कहा जाता है तथा जो आन्दोलन बिना किसी दल के द्वारा चलाया जाए, उसे गैर-दल आधारित आन्दोलन कहा जाता है। गुजरात आन्दोलन एवं बिहार आन्दोलन दल आधारित आन्दोलन माने जाते हैं तथा चिपको आन्दोलन एवं नर्मदा बचाओ गैर-दल आधारित आन्दोलन माने जातें हैं।

प्रश्न 2.
किन्हीं चार किसान आन्दोलनों का वर्णन करें।
उत्तर:
1. तिभागा आन्दोलन-तिभागा आन्दोलन 1946-47 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों एवं बंटाईदारों का संयुक्त प्रयास था। इस आन्दोलन का मुख्य कारण भीषण अकाल था।

2. तेलंगाना आन्दोलन-तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन था। क्रान्तिकारी किसानों ने पांच हज़ार गुरिल्ला सैनिक तैयार किए और ज़मीदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

3. नक्सलबाड़ी आन्दोलन-नक्सलबाड़ी आन्दोलन 1967 में साम्यवादी सरकार के समय शुरू हुआ। धीरे-धीरे यह आन्दोलन पंजाब, उत्तर-प्रदेश तथा काश्मीर में भी फैल गया।

4. आधुनिक आन्दोलन-1980 के दशक में महाराष्ट्र, गुजरात तथा पंजाब के किसानों ने कपास के दामों को कम किए जाने के विरोध में आन्दोलन किया। 1987 में किसानों द्वारा गुजरात विधानसभा का घेराव किये जाने के कारण पुलिस ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किए।

प्रश्न 3.
महिला कल्याण के लिए संसद् द्वारा पारित किन्हीं दो अधिनियमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में महिलाओं की स्थिति सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से अत्यन्त पिछड़ी हुई है। महिलाओं के कल्याण के लिए स्वतन्त्रता से पूर्व भी समाज सुधारकों तथा राष्ट्रीय नेताओं ने अनेक सराहनीय प्रयास किए। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज तथा अनेक सामाजिक आन्दोलनों द्वारा महिलाओं के प्रति अन्याय का विषय प्रमुखता से उठाया गया।

19वीं शताब्दी में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम (1829), विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856), सिविल मैरिज अधिनियम (1872) आदि अनेक कदम उठाए गए। स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक कानून बनाए गए जिनमें तीन कानूनों का वर्णन इस प्रकार हैं-

  • हिन्दू विवाह अधिनियम (1955),
  • हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम (1956),
  • दहेज निषेध अधिनियम (1961),
  • गर्भपात अधिनियम (1971), बाल-विवाह पर रोक (संशोधन अधिनियम) 1978,
  • दहेज निषेध (संशोधन) अधिनियम (1984) आदि।

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय महिला आयोग पर नोट लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए की गई है। इस आयोग में एक अध्यक्ष और 5 अन्य सदस्य होते हैं। अध्यक्ष की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है। वर्तमान समय में श्रीमती गिरिजा व्यास राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष हैं। अन्य सदस्यों की नियुक्ति ऐसे व्यक्तियों में से की जाती है, जो कानून के जानकार हों तथा प्रशासनिक योग्यता रखते हों, तथा महिलाओं के कल्याण के इच्छुक हों। आयोग का एक सचिव होता है, जिसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार करती है। आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों का कार्यकाल 3 साल से अधिक नहीं हो सकता। केन्द्र सरकार किसी सदस्य को समय से पहले भी हटा सकती है।

प्रश्न 5.
भारत में महिलाओं की सक्षमता के लक्ष्य को पूरा करने में राष्ट्रीय महिला आयोग की भूमिका बताइए।
उत्तर:
भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए 1990 में संसद् ने एक कानून बनाया जो कि 31 जनवरी, 1992 को अस्तित्व में आया। इस कानून के तहत महिला राष्ट्रीय आयोग (National Woman Commission) की स्थापना की गई। महिला राष्ट्रीय आयोग को बहुत अधिक और व्यापक कार्य दिये गए हैं। महिला राष्ट्रीय आयोग वे सभी कार्य करता है, जो महिलाओं की उन्नति एवं अधिकार से जुड़े हुए हैं।

यह आयोग महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संसद् को कानून बनाने के लिए उस पर दबाव डालती है। संसद् द्वारा पास किये गए ऐसे कानूनों की आयोग समीक्षा करता है, जो महिलाओं के अधिकारों से सम्बन्धित हैं। यह आयोग महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की जांच करता है, तथा दोषी को दण्ड दिलवाने की सिफारिश करता है। इसके साथ-साथ यह आयोग महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहता है।

प्रश्न 6.
‘ताड़ी विरोधी आन्दोलन’ के कोई चार प्रभाव बताइए।
उत्तर:

  • ताड़ी विरोधी आन्दोलन के कारण महिलाओं में काफ़ी जागरूकता फैली।
  • महिलाएं अब घरेलू हिंसा के मुद्दे पर खुलकर बोलने लगीं।
  • इस आन्दोलन के कारण दहेज प्रथा, कार्य स्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के मामले मुख्य मुद्दे बन गए।
  • आन्दोलन के कारण लैंगिक समानता के सिद्धान्त पर आधारित व्यक्तिगत एवं सम्पत्ति कानूनों की मांग की जाने लगी।

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प्रश्न 7.
महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
“यत्र नार्यास्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता” अर्थात् जहां नारी की उपासना होती है वहां देवताओं का निवास होता है। नारी के विषय में इसी प्रकार की अनेक गर्वोक्तियां अनादि काल से सुनाई पड़ रही हैं। परन्तु वास्तव में समाज में नारी की स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। प्रत्येक समाज का स्वरूप इस प्रकार का बना हुआ है कि इसमें पुरुष की प्रधानता बनी रहे।

ऐसी स्थिति में स्त्री के विषय में कहा जाता है कि वह दोहरी दासता की शिकार है। एक दासता पुरातन रूढ़ियों व परम्पराओं की ओर दूसरी पुरुष की। जैसे ही नारी के कदम घर की दहलीज़ से बाहर निकलते हैं, सामाजिक बाधाएं उस पर हावी हो जाती हैं। विशेषतः मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा को स्वीकार किया गया है।

कट्टरपन्थी यह तय करते हैं कि विशेष समुदाय के लोग क्या पहनें और क्या खाएं तथा कैसे अपने उत्सव मनाएं। मुसलमानों में स्त्रियों को पर्दा करने अथवा बुर्का ओढ़ने के नियमों को कट्टरता से पालन करना पड़ता है। ऐसा न करने पर उन्हें कठोर दण्ड का भागीदार बनाना पड़ता है। भेदभाव के कारण स्त्रियों को समुचित शिक्षा व्यवस्था भी नहीं दिलाई जाती जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियां निरक्षर रह जाती हैं।

विशेष रूप से विकासशील राज्यों में महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या अशिक्षा है। 1991 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार संसार की 33.6 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर थीं। 1991 में की गई जनगणना के आंकड़े भी दर्शाते हैं कि भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की निरक्षरता दर अधिक है। अशिक्षा के कारण स्त्रियां न तो अपने अधिकारों को समझ पाती हैं और न ही उनकी रक्षा कर सकती हैं। इसलिए वे अनवरत शोषण की शिकार बनी रहती हैं।

प्रश्न 8.
भारत में किसान आन्दोलन’ की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  • किसान आन्दोलन के कारण भारत में किसानों की स्थिति अच्छी एवं मज़बूत हुई।
  • किसान आन्दोलन पूर्ण रूप से संगठित नहीं थे।
  • बड़े-बड़े जमीदारों ने अपने आप को किसान नेता के रूप में स्थापित करके अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति की।
  • किसान आन्दोलन में स्थायित्व का अभाव पाया जाता है।

प्रश्न 9.
महिला सशक्तिकरण हेतु भारतीय संविधान में दिए गए विभिन्न अनुच्छेदों में से किन्हीं चार अनुच्छेदों का वर्णन करें।
अथवा
भारत में महिला सशक्तिकरण हेतु संवैधानिक प्रावधान का उल्लेख करें।
उत्तर:
(1) संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत महिलाओं को भी सभी नागरिकों सहित कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण प्राप्त है।

(2) अनुच्छेद 15 के अनुसार भेदभाव की मनाही की गई है। इसका अभिप्राय है कि राज्य महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत ही यह व्यवस्था की गई है कि राज्य महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए विशेष कदम उठा सकता है।

(3) अनुच्छेद 39 (क) के अनुसार राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों।

(4) अनुच्छेद 39 (घ) के अनुसार स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।

प्रश्न 10.
‘चिपको आन्दोलन’ करने वालों की मुख्य मांगें क्या थी ?
उत्तर:

  • जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्ति को न दिया जाए।
  • स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होना चाहिए।
  • सरकार लघु उद्योगों के लिए कम कीमत पर सामग्री उपलब्ध कराए।
  • सरकार मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की व्यवस्था करे।

प्रश्न 11.
टिहरी बांध परियोजना के विरोध में चलाए गए आन्दोलनों पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
टिहरी बांध परियोजना के विरुद्ध चलने वाला आन्दोलन भारत का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला आन्दोलन माना जाता है। टिहरी बांध परियोजना का विरोध करने के लिए लोगों ने स्वतन्त्रता सेनानी वीरेन्द्र दत्त सखलानी के नेतृत्व में ‘टिहरी बांध परियोजना विरोधी संघर्ष समिति’ का निर्माण किया। टिहरी बांध से टिहरी शहर के पानी में डूबने का खतरा था। समाज सेवी सुन्दर लाल बहुगुणा ने इस परियोजना का विरोध करने के लिए आमरण अनशन किया तथा प्रधानमन्त्री द्वारा इस योजना की समीक्षा के आश्वासन पर ही उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ा था।

प्रश्न 12.
मण्डल आयोग के बारे में क्या जानते हैं ? इसकी किन्हीं दो सिफ़ारिशों को लिखिए।
उत्तर:
1 जनवरी, 1979 को जनता पार्टी की सरकार ने मण्डल आयोग का गठन किया। इस आयोग के चार सदस्य थे और बिहार के भूतपूर्व मुख्यमन्त्री बी० पी० मण्डल इसके अध्यक्ष थे। इस आयोग का कार्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप वर्गों की पहचान करना तथा उनके विकास के लिए सुझाव देना था। मण्डल कमीशन ने 13 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की। मण्डल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 3743 पिछड़ी जातियों की पहचान की। मण्डल आयोग की मुख्य सिफ़ारिशें निम्नलिखित हैं

  • सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए।
  • अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) के कल्याण के लिए बनाए गए कार्यक्रम के लिए धन केन्द्रीय सरकार को देना चाहिए।
  • भूमि सुधार शीघ्र किए जाएं ताकि छोटे किसानों को अमीर किसानों पर निर्भर न रहना पड़े।
  • अन्य पिछड़े वर्गों को लघु उद्योग लगाने के लिए सहायता दी जाए तथा उन्हें प्रोत्साहित किया जाए।
  • अन्य पिछड़े वर्गों के लिए विशेष शिक्षा योजनाएं लागू की जाएं।

प्रश्न 13.
आरक्षण नीति के पक्ष में कोई चार तर्क दें।
उत्तर:
1. आर्थिक उन्नति में सहायक-आरक्षण की नीति का समर्थन करने वालों का मत है कि इससे समाज के ग़रीब वर्गों के लिए वर्षों से रुके हुए व्यवसाय के अवसर खुलेंगे, जिससे उनकी आर्थिक उन्नति होगी।

2. सामाजिक सम्मान में वृद्धि-आरक्षण की नीति के फलस्वरूप कमजोर वर्ग के लोग सार्वजनिक सेवा के किसी भी उच्च पद को प्राप्त करने में सफल हो सकेंगे, जिससे उनके सामाजिक सम्मान में वृद्धि होगी।

3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि-कमजोर वर्गों के शिक्षित लोग अब अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति पहले से अधिक जागरूक हैं। यह सब साक्षरता की व्यवस्था लागू करने के परिणामस्वरूप ही सम्भव हो पाया है।

4. राजनीतिक भागीदारी में वृद्धि-आरक्षण की नीति के कारण समाज के उच्च वर्गों के साथ-साथ निम्न वर्गों को भी शासन प्रणाली और राजनीतिक व्यवस्था में अपनी भागीदारी निभाने का अवसर मिलता है।

प्रश्न 14.
आरक्षण के विरोध में कोई चार तर्क दें।
उत्तर:
1. जातिवाद को बढ़ावा-आरक्षण आर्थिक आधार पर न होकर जातिगत आधार पर तय किया गया है। इसलिए इस व्यवस्था का लाभ उठाने के लिए जातिवाद को बहुत अधिक बढ़ावा मिला है।

2. आरक्षण का लाभ सभी लोगों को नहीं मिला-आरक्षण का लाभ अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के सभी लोगों को नहीं मिल पाया है। इसका लाभ इन जातियों के एक छोटे से वर्ग ने उठाया है।

3. निर्भरता को बढ़ावा-आरक्षण के कारण अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों की आत्म निर्भरता में कमी हई है। ये जातियां स्वेच्छा से अपनी उन्नति करने की अपेक्षा आरक्षण को सीढी बनाकर ऊपर उठना चाहते हैं। ये जातियां आरक्षण के बिना अपना विकास सम्भव नहीं मानती हैं।

4. समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। परन्तु आरक्षण की व्यवस्था इस समानता के विरुद्ध है।

प्रश्न 15.
दलित पैंथर्स कौन थे ? उनका उद्देश्य क्या था ?
अथवा
दलित पैंथर्स ने कौन-से मुद्दे उठाए ?
उत्तर:
दलित पैंथर्स दलित युवाओं का एक संगठन था। दलित पैंथर्स नामक संगठन में ज्यादातर शहर की मलिन बस्तियों में रहने वाले युवा शामिल थे। दलित पैंथर्स के निम्नलिखित उद्देश्य थे

  • जाति आधारित असमानता को समाप्त करना इस संगठन का मुख्य उद्देश्य था।
  • आरक्षण के कानूनों को लागू करना।
  • सामाजिक न्याय की स्थापना करना।
  • छुआछूत को पूरी तरह समाप्त करना।

प्रश्न 16.
चिपको आन्दोलन के विभिन्न पहलू बताइए।
उत्तर:
चिपको आन्दोलन के निम्नलिखित पहलू सामने आए

(1) चिपको आन्दोलन का एकदम नया पहलू यह था कि इसमें महिलाओं ने सक्रिय भागेदारी की।

(2) महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी आवाज़ उठाई।

(3) आन्दोलन के कारण सरकार ने अगले 15 सालों के लिए हिमालयी क्षेत्र में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी, ताकि बनाच्छादन फिर से ठीक स्थिति में लाया जा सके।

(4) चिपको आन्दोलन सत्तर के दशक और उसके बाद के वर्षों में देश के विभिन्न भागों में शुरू हुए कई जन आन्दोलनों का प्रतीक बन गया।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 17.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन क्या था ? इसके विरुद्ध क्या आलोचना की गई है ?
उत्तर:
नर्मदा बांध परियोजना के विरुद्ध नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया। पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन नर्मदा बचाओ आन्दोलन को माना जाता है। इस आन्दोलन को चलाने में मेधा पाटकर, बाबा आमटे तथा सुन्दर लाल बहुगुणा शामिल हैं। आन्दोलन के समर्थकों की मांग है कि बांध परियोजना के पूर्ण होने पर कई लाख लोग बेघर हो जाएंगे, अतः सरकार इनके पुनर्वास की पूर्ण व्यवस्था करे।

परन्तु नर्मदा बचाओ आन्दोलन को सफलता के साथ-साथ कुछ आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा है। आलोचकों के अनुसार आन्दोलन का नकारात्मक रुख विकास प्रक्रिया, पानी की उपलब्धता तथा आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रहा है। इसी कारण यह आन्दोलन मुख्य विपक्षी दलों के बीच अपना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाया है।

प्रश्न 18.
‘सूचना के अधिकार’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सूचना का अर्थ यह है, कि नागरिकों को ज्ञात होना चाहिए कि सरकार उनके कल्याण के लिए क्या-क्या योजनाएं बना रही हैं। किस योजना पर कितना धन एवं क्यों खर्च कर रही है। इस प्रकार की जानकारी जब हम सरकार से प्राप्त करते हैं, तो उसे सूचना कहते हैं। सन् 2005 में पारित सूचना के अधिकार के कानून में यह प्रावधान किया गया है, कि कोई भी नागरिक सलाह, विचार, ई-मेल, अभिलेख, दस्तावेज़, प्रेस विज्ञापन तथा मीडिया द्वारा प्रसारित आंकड़ों से ऐसी प्रत्येक सूचना सरलता से प्राप्त कर सकते हैं, जिस तक कि किसी सार्वजनिक अधिकारी की कानूनी पहुंच हो। सूचना प्राप्त करने के लिए आवेदनकत्तो को 10 रु. के मामूली शुल्क के साथ दस्तावेजों की प्रतिलिपि अथवा सी० डी० जन सूचना अधिकारी को देनी होगी।

प्रश्न 19.
जन आन्दोलन की कोई चार विशेषताएं लिखिए।
अथवा
जन आन्दोलनों की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  • जन आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।
  • जन आन्दोलन सामाजिक समूहों के लिए अपनी बात उचित ढंग से रखने के बेहतर मंच बन कर उभरे।
  • इन आन्दोलनों ने जनता के क्रोध एवं तनाव को एक सार्थक दिशा देकर लोकतन्त्र को मज़बूत किया।
  • इन आन्दोलनों ने भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।

प्रश्न 20.
सूचना के अधिकार की चार विशेषताएं लिखो।
उत्तर:

  • वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना-सूचना के अधिकार से वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना होती है।
  • भ्रष्टाचार की समाप्ति सूचना के अधिकार से प्रशासन में से भ्रष्टाचार की समाप्ति होती है।
  • कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी-सूचना के अधिकार से लोगों को कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी मिलती है।
  • कार्यकुशलता में वृद्धि–सूचना के अधिकार से कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

प्रश्न 21.
राष्ट्रीय महिला आयोग के कोई चार कार्य लिखें।
अथवा
राष्ट्रीय महिला आयोग के कोई चार कार्य लिखिए।
उत्तर:

  • राष्ट्रीय महिला आयोग संसद् द्वारा पास किए गए उन कानूनों की समीक्षा करता है जो महिलाओं के अधिकारों से सम्बन्धित है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की जांच करता है तथा दोषी को दण्ड दिलवाने की सिफ़ारिश करता है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहता है।
  • महिलाओं से सम्बन्धित किसी भी मामले के बारे में और विशेष करके जिन कठिनाइयों में महिलाएं काम करती हैं, उनके बारे में सरकार को नियतकालीन रिपोर्ट देना।

प्रश्न 22.
भारतीय किसान यूनियन की मुख्य माँगें क्या थी ?
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन की मुख्य माँगें निम्नलिखित थीं

  • भारतीय किसान यूनियन ने गन्ने और गेहूँ के सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोत्तरी की मांग की।
  • कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्जीय आवाजाही पर लगी पाबंदियों को हटाने की मांग की।
  • समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करने की मांग।
  • किसानों के बकाया कर्ज माफ करने तथा किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की मांग।

प्रश्न 23.
महिला सशक्तिकरण वर्ष 2001 की मुख्य घोषणाएं बताएं।
उत्तर:

  • महिलाओं को आर्थिक पक्ष से सुदृढ़ बनाने के लिए राष्ट्रीय महिला कोष गठित किया जाएगा।
  • महिलाओं को आत्म-निर्भर बनाने के लिए ‘स्वशक्ति योजना’ लागू की जाएगी।
  • आपदाग्रस्त महिलाओं के पुनर्वास के लिए ‘स्वधार योजना’ चलाई जाएगी।
  • महिलाओं को संसद एवं राज्य की विधानसभाओं में 33% स्थान आरक्षित करने के प्रयत्न किये जायेंगे।

प्रश्न 24.
महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता के कारण बताइये।
उत्तर:

  • महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त न होना।
  • महिलाओं की आर्थिक स्थिति निम्न स्तर की होना एवं इसके लिए पुरुषों पर निर्भर होना।
  • सामाजिक स्तर पर महिलाओं का कमजोर होना।
  • महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्राप्त न होना।

आत लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
कृषक आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
जो आन्दोलन कृषकों के हितों की पूर्ति के लिए चलाए जाते हैं, उन्हें कृषक आन्दोलन कहते हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश है, अत: यहां पर किसानों से सम्बन्धित दबाव समूहों द्वारा किसानों को अपने हितों की पूर्ति के लिए जागरूक करके आन्दोलन करते रहते हैं। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में तिभागा आन्दोलन, तेलंगाना आन्दोलन, नक्सलवादी आन्दोलन चलाए गए।

प्रश्न 2.
किन्हीं दो किसान आन्दोलनों के नाम लिखें।
उत्तर:
1.तिभागा आन्दोलन-तिभागा आन्दोलन 1946-1947 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों एवं बंटाईदारों का संयुक्त प्रयास था। इस आन्दोलन का मुख्य कारण भीषण अकाल था।

2. तेलंगाना आन्दोलन तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी आन्दोलन था। क्रान्तिकारी किसानों ने पांच हज़ार गुरिल्ला सैनिक तैयार किए और ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

प्रश्न 3.
महिला सशक्तिकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
महिला सशक्तिकरण से अभिप्राय महिलाओं को अपने व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसर उपलब्ध करवाना है, ताकि वे समाज में पुरुषों के समान सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण विश्वास के साथ कार्य कर सके। महिला सशक्तिकरण के लिए यह अनिवार्य है कि महिलाओं को उनकी वर्तमान उपेक्षित स्थिति से मुक्ति दिलाई जाए। उन्हें आर्थिक क्षेत्र में आत्म-निर्भर बनाया जाए। सामाजिक और राजनीतिक जीवन में उन्हें आगे बढ़ने के अवसर दिए जाएं। इन सबसे अधिक महिलाओं को भी इंसान समझा जाए और उन्हें समाज में अपनी भमिका निभाने का मौका दिया जाए।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत महिलाओं के कल्याण के बारे में क्या व्यवस्थाएं की गई हैं ?
उत्तर:
मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत महिलाओं के कल्याण के बारे में निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई हैं

  • संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत महिलाओं को भी सभी नागरिकों सहित कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण प्राप्त है।
  • अनुच्छेद 15 के अनुसार भेदभाव की मनाही की गई है। इसका अभिप्राय है कि राज्य महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता।
  • अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत ही यह व्यवस्था की गई है कि राज्य महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए विशेष कदम उठा सकता है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 5.
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में महिलाओं के कल्याण सम्बन्धी क्या व्यवस्थाएं की गई हैं ?
उत्तर:
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में महिलाओं के कल्याण के विषय में निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई हैं

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों (अनुच्छेद 39)
  • स्त्रियों और पुरुषों के समान काम के लिए समान वेतन मिले। (अनुच्छेद 39)

प्रश्न 6.
महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति, 2001 के दो मुख्य उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति, 2001 के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं

  • न्याय प्रणाली को बेहतर बनाकर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले भेदभाव की मनाही।
  • सकारात्मक आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों द्वारा ऐसा वातावरण बनाना जिसमें महिलाएं अपनी पूर्ण क्षमता की पहचान कर सकें और उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सके।

प्रश्न 7.
राष्ट्रीय महिला आयोग के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  • राष्ट्रीय महिला आयोग संसद् द्वारा पास किए गए उन कानूनों की समीक्षा करता है जो महिलाओं के अधिकारों से सम्बन्धित है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की जांच करता है तथा दोषी को दण्ड दिलवाने की सिफ़ारिश करता है।

प्रश्न 8.
आप महिला सशक्तिकरण के लिए कौन-कौन से सुझाव देंगे ?
उत्तर:
(1) महिलाओं के लिए उचित शिक्षा व्यवस्था की जाए ताकि उनका मानसिक विकास हो सके। इससे उनका दृष्टिकोण व्यापक होगा और वे अपने अधिकारों के प्रति सजग होंगी।

(2) महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव किया जाना चाहिए। महिलाएं भी पुरुषों के समान क्षमतावान और सूझबूझ रखती हैं। महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए अवसर प्रदान किए जाने चाहिएं।

प्रश्न 9.
टिहरी बांध परियोजना के विरुद्ध-चलाए गए आन्दोलन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
टिहरी बांध परियोजना के विरुद्ध चलने वाला आन्दोलन भारत का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला | माना जाता है। टिहरी बांध परियोजना का विरोध करने के लिए लोगों ने स्वतन्त्रता सेनानी वीरेन्द्र दत्त सखलानी में टिहरी बांध परियोजना विरोधी संघर्ष समिति’ का निर्माण किया। टिहरी बांध से टिहरी शहर के पानी में का खतरा था। समाजसेवी सुन्दर लाल बहुगुणा ने इस परियोजना का विरोध करने के लिए आमरण अनशन किया तथा प्रधानमन्त्री द्वारा इस योजना की समीक्षा के आश्वासन पर ही उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ा था।

प्रश्न 10
चिपको आन्दोलन पर एक नोट लिखें।
अथवा
चिपको आन्दोलन का आरम्भ कब और किस राज्य से हआ ?
उत्तर:
चिपको आन्दोलन 1972 में हिमालय क्षेत्र में उत्पन्न हुआ। चिपको आन्दोलन का अर्थ है-पेड़ से चिपक जाना अर्थात् पेड़ को आलिंगनबद्ध कर लेना। जब एक ठेकेदार ने गांव के समीप जंगल में अपने कर्मचारियों को पेड़ काटने के लिए भेजा तो गांव की महिलाएं आकर पेड़ों से चिपक गई। जिसके कारण कर्मचारी पेड़ कहीं काट सके। पर्यावरण संरक्षण वे सम्बन्धित इस आन्दोलन का भारत में विशेष स्थान है।

प्रश्न 11.
‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
नर्मदा बांध परियोजना के विरुद्ध नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया। पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन नर्मदा बचाओ आन्दोलन को माना जाता है। इस आन्दोलन को चलाने में मेधा पाटकर, बाबा आमटे तथा सुन्दर लाल बहुगुणा शामिल हैं। आन्दोलन के समर्थकों की मांग है कि बांध परियोजना के पूर्ण होने पर कई लाख लोग बेघर हो जाएंगे, अतः सरकार इनके पुनर्वास की पूर्ण व्यवस्था करें।

प्रश्न 12.
मण्डल आयोग के बारे में आप क्या जानते हैं ?
अथवा
मण्डल आयोग ने राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट कब पेश की थी?
उत्तर:
मण्डल आयोग की स्थापना जनता पार्टी की सरकार ने 1979 में की थी। इस आयोग का कार्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों की पहचान करना तथा उनके विकास के लिए सुझाव देना था। मण्डल आयोग ने 13 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की। मण्डल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 3743 पिछड़ी जातियों की पहचान की।

प्रश्न 13.
‘मण्डल कमीशन’ की किन्हीं दो सिफ़ारिशों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  • सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 27% आरक्षण होना चाहिए।
  • अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए बनाए गए कार्यक्रमों के लिए धन केन्द्र सरकार को देना चाहिए।

प्रश्न 14.
‘अन्य पिछड़े वर्ग का सम्पन्न तबका’ (Creamy Layer) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सम्पन्न तबका पिछड़े वर्गों में वह वर्ग है जो सामाजिक आर्थिक व शैक्षणिक दृष्टि से काफ़ी सम्पन्न है और जो राजनीतिक कारणों से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का लाभ उठा रहा है। इस शब्द का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय ने 1992 में एक निर्णय में किया था जिसमें कहा गया कि यह वर्ग यदि सामाजिक आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न है तो उसे पिछड़ा वर्ग से अलग किया जाए क्योंकि इसे पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 15.
मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों को कब लागू किया गया और किस प्रकार सरकार ने लागू किया ?
उत्तर:
मण्डल आयोग की सिफारिशों को राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने 8 अगस्त, 1990 को लागू करने के लिए आदेश जारी किया।

प्रश्न 16.
एन० एफ० एफ० का पूरा नाम लिखिए। मछुआरों के जीवन के लिए एक बड़ा संकट कैसा आ खड़ा हुआ है ?
उत्तर:
एन० एफ० एफ० का पूरा नाम नेशनल फिशवर्कर्स फोरम है। केन्द्र सरकार की एक नीति के अन्तर्गत व्यावसायिक जहाजों को गहरे समुद्र में मछली मारने की इजाजत दी गई थी, जिसमें मछुआरों के जीवन के लिए एक बड़ा संकट खड़ा हो गया।

प्रश्न 17.
जन आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
जन आन्दोलन से अभिप्राय आन्दोलन के साथ अधिक लोगों का जुड़ना ताकि वे अपने सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकें। जन आन्दोलन के साथ जितने अधिक लोग जुड़ते जाएंगे, वह आन्दोलन उतना ही अधिक लोकप्रिय होता जाएगा। जन आन्दोलन भारतीय लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाते हैं। जन आन्दोलन का अर्थ केवल सामूहिक कार्यवाही ही नहीं होता, बल्कि आन्दोलन का एक काम सम्बन्धित लोगों को अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक भी बनाता है। भारत में चलने वाले विभिन्न सामाजिक आन्दोलनों ने लोगों को इस सम्बन्ध में जागरूक बनाया है, तथा लोकतन्त्र को मज़बूत किया है।

प्रश्न 18.
‘चिपको आन्दोलन’ का मुख्य उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
‘चिपको आन्दोलन’ का मुख्य उद्देश्य वृक्षों (वनों) की रक्षा करना था।

प्रश्न 19.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित किन्हीं दो आन्दोलनों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • चिपको आन्दोलन।
  • नर्मदा बचाओ आन्दोलन।

प्रश्न 20.
हरियाणा में शराबबन्दी कब लागू हुई थी ?
उत्तर:
हरियाणा में शराबबन्दी सन् 1996 में लागू हुई थी।

प्रश्न 21.
किस स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बनाने के खिलाफ आन्दोलन चला ?
उत्तर:
हिन्दी को राजभाषा बनाने के खिलाफ तमिलनाडु में आन्दोलन चलाया गया।

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प्रश्न 22.
महाराष्ट्र में दलितों के हितों की रक्षा के लिये कौन-सा संगठन बना ?
उत्तर:
महाराष्ट्र में दलितों के हितों की रक्षा के लिये दलित पैन्थर्स नाम का संगठन बना।

प्रश्न 23.
किन्हीं दो किसान आन्दोलनों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • तिभागा आन्दोलन,
  • तेलगांना आन्दोलन।

प्रश्न 24.
‘सूचना के अधिकार’ का आन्दोलन कब शुरू हुआ तथा इसका नेतृत्व किसने किया ?
उत्तर:
‘सूचना के अधिकार’ का आन्दोलन सन् 1990 में शुरू हुआ तथा प्रारम्भ में इसका नेतृत्व मजदूर किसान शक्ति संगठन ने किया।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. निम्न में से कौन-सा किसान आन्दोलन माना जाता है ?
(A) तिभागा आन्दोलन
(B) तेलंगाना आन्दोलन
(C) नक्सलवादी आन्दोलन
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

2. अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना कब की गई ?
(A) 1920
(B) 1924
(C) 1936
(D) 1930
उत्तर:
(C) 1936

3. वर्तमान में लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए कितने स्थानों का आरक्षण किया गया है ?
(A) 69
(B) 84
(C) 40
(D) 89
उत्तर:
(B) 84

4. महिला आन्दोलन किससे सम्बन्धित है ?
(A) पुरुषों से
(B) महिलाओं से
(C) बच्चों से
(D) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(B) महिलाओं से।

5. निम्न में से कौन-सा पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित आन्दोलन माना जाता है ?
(A) चिपको आन्दोलन
(B) नर्मदा बचाओ आन्दोलन
(C) टिहरी बांध परियोजना के विरुद्ध आन्दोलन
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

6. निम्न में से कौन पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित है ?
(A) सुन्दर लाल बहुगुणा
(B) मेधा पाटकर
(C) बाबा आमटे
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

7. मण्डल आयोग में कितने सदस्य थे ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर:
(C) चार।

8. भारतीय संविधान का कौन-सा अनुच्छेद महिलाओं के कल्याण से सम्बन्धित है ?
(A) अनुच्छेद 39
(B) अनुच्छेद 10
(C) अनुच्छेद 30
(D) अनुच्छेद 54
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 39

9. राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग का गठन कब किया गया ?
(A) सन् 1993 में
(B) सन् 1992 में
(C) सन् 1991 में
(D) सन् 1990 में।
उत्तर:
(A) सन् 1993 में।

10. आन्ध्र प्रदेश में चलाए गए शराब (ताड़ी) विरोधी आन्दोलन का सम्बन्ध था
(A) पेड़ काटने से
(B) छुआछूत पर पाबन्दी लगाने से
(C) शराब की बिक्री पर पाबन्दी लगाने से
(D) गऊ सुरक्षा से।
उत्तर:
(C) शराब की बिक्री पर पाबन्दी लगाने से।

11. 2019 में हुए 17वीं लोकसभा के चुनावों में कितनी महिलाएं निर्वाचित हुई थीं ?
(A) 73
(B) 80
(C) 78
(D) 71
उत्तर:
(C) 78

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12. भारत में प्रतिवर्ष कब महिला दिवस मनाया जाता है ?
(A) 1 जनवरी
(B) 26 जनवरी
(C) 20 फरवरी
(D) 8 मार्च।
उत्तर:
(D) 8 मार्च।

13. भारत में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की स्थापना निम्न में से किस वर्ष में हुई ?
(A) 1990 में
(B) 1991 में
(C) 1992 में
(D) 1995 में।
उत्तर:
(C) 1992 में।

14. मेधा पाटेकर निम्नलिखित आन्दोलन से सम्बन्धित है ?
(A) किसान आन्दोलन
(B) महिला आन्दोलन
(C) चिपको आन्दोलन
(D) नर्मदा बचाओ आन्दोलन।
उत्तर:
(D) नर्मदा बचाओ आन्दोलन

15. किसान आन्दोलन के मुख्य नेता थे।
(A) वी० पी० सिंह
(B) महेन्द्र सिंह टिकैत
(C) रामकृष्ण हेगड़े
(D) राजीव गांधी।
उत्तर:
(B) महेन्द्र सिंह टिकैत।

16. चिपको आन्दोलन का क्या उद्देश्य था ?
(A) वनों की रक्षा करना
(B) शिक्षा को बढ़ावा देना
(C) खेलों को बढ़ावा देना
(D) मनोरंजन को बढ़ावा देना।
उत्तर:
(A) वनों की रक्षा करना।

17. दहेज निषेध अधिनियम पास किया गया
(A) 1950
(B) 1958
(C) 1961
(D) 1977
उत्तर:
(C) 1961

18. घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा सम्बन्धी अधिनियम किस वर्ष पारित हुआ ?
(A) 2002
(B) 2003
(C) 2005
(D) 2017
उत्तर:
(C) 2005

19. किस वर्ष को महिला सशक्तिकरण वर्ष का नाम दिया गया ?
(A) 2001
(B) 1990
(C) 2003
(D) 2005
उत्तर:
(A) 2001

20. जन-आन्दोलन लोकतन्त्र को
(A) कमज़ोर करते हैं
(B) समाप्त करते हैं
(C) मजबूत करते हैं
(D) प्रभावित नहीं करते।
उत्तर:
(C) मज़बूत करते हैं।

21. मण्डल आयोग की सिफारिशों को किस वर्ष में लागू किया गया था?
(A) 1971 में
(B) 1977 में
(C) 1990 में
(D) 1991 में।
उत्तर:
(C) 1990 में।

22. ‘चिपको आन्दोलन’ का उद्देश्य था
(A) आर्थिक शोषण से रक्षा
(B) महिलाओं से रक्षा
(C) वनों की रक्षा
(D) दलितों की रक्षा।
उत्तर:
(C) वनों की रक्षा।

23. महाराष्ट्र में दलितों के हितों की रक्षा के लिए कौन-सा संगठन बनाया गया ?
(A) दलित पँथर्स
(B) मंडल आयोग
(C) पिछड़ा वर्ग आयोग
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) दलित पैंथर्स।

24. दलित पैन्थर्स संगठन की कब स्थापना की गई ?
(A) 1980
(B) 1976
(C) 1972
(D) 1975
उत्तर:
(C) 1972

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25. ताड़ी विरोधी आन्दोलन किस राज्य में शुरू किया गया ?
(A) बिहार
(B) आन्ध्र प्रदेश
(C) गुजरात
(D) केरल।
उत्तर:
(B) आन्ध्र प्रदेश।

26. चिपको आन्दोलन किस राज्य से सम्बन्धित है ?
(A) उत्तराखण्ड
(B) हरियाणा
(C) उड़ीसा
(D) केरल।
उत्तर:
(A) उत्तराखण्ड।

निम्न रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

(1) चिपको आन्दोलन का सम्बन्ध ………. प्रदेश से है।
उत्तर:
उत्तराखण्ड

(2) भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् ……….. का प्रतिमान अपनाया।
उत्तर:
नियोजित विकास

(3) ……… मराठी के एक प्रसिद्ध कवि हैं।
उत्तर:
नामदेव दसाल

(4) डॉ० अम्बेदकर ……….. के नेता माने जाते हैं।
उत्तर:
दलितों

(5) महेन्द्र सिंह टिकैत ………. के अध्यक्ष थे।
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन

(6) मछुआरों के राष्ट्रीय संगठन का नाम …………. है।
उत्तर:
नेशनल फिशवर्कर्स फोरम

(7) वर्तमान में लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए …….. स्थानों का आरक्षण किया गया है।
उत्तर:
84

(8) 1989 में प्रधानमन्त्री ………….. ने मण्डल आयोग रिपोर्ट को लाग किया।
उत्तर:
वी० पी० सिंह

(9) 73वें एवं 74वें संशोधन द्वारा स्थानीय निकायों में ……….. को आरक्षण प्रदान किया गया है ?
उत्तर:
महिलाओं

(10) मेघा पाटेकर …….. आन्दोलन से सम्बन्धित हैं।
उत्तर:
पर्यावरण

(11) 1972 में महाराष्ट्र में दलित हितों की रक्षा के लिए …………… नामक संगठन बनाया गया।
उत्तर:
दलित पैन्थर्स

(12) ‘चिपको आन्दोलन’ का उद्देश्य ……. करना था।
उत्तर:
वृक्षों (वनों) की रक्षा

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
मण्डल आयोग के अध्यक्ष कौन थे ?
उत्तर:
मण्डल आयोग के अध्यक्ष बी० पी० मण्डल थे।

प्रश्न 2.
ताड़ी विरोधी आन्दोलन किस राज्य में शुरू हुआ था ?
उत्तर:
ताड़ी विरोधी आन्दोलन आंध्र प्रदेश में शुरू हुआ था।

प्रश्न 3.
मेघा पाटेकर किस आन्दोलन से सम्बन्धित हैं ?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन से।

प्रश्न 4.
महिलाओं की घरेलू हिंसा से सुरक्षा कानून कब पास हुआ ?
उत्तर:
सन् 2005 में।

प्रश्न 5.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित किसी एक आन्दोलन का नाम बताइये।
उत्तर:
चिपको आन्दोलन।

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प्रश्न 6.
‘चिपको आन्दोलन’ किस राज्य से सम्बन्धित है ?
उत्तर:
उत्तराखण्ड से।

प्रश्न 7.
किस प्रधानमन्त्री ने ‘मंडल आयोग’ की सिफ़ारिशों को लागू किया ?
उत्तर:
मंडल आयोग की सिफारिशों को वी० पी० सिंह ने लागू किया।

प्रश्न 8.
आन्ध्र-प्रदेश में सन् 1990 में महिलाओं द्वारा कौन कौन-सा आन्दोलन प्रारम्भ किया गया ?
उत्तर:
ताड़ी विरोधी आन्दोलन।

प्रश्न 9.
सूचना का अधिकार सम्बन्धी कानून किस वर्ष पारित हुआ ?
उत्तर:
सूचना का अधिकार सम्बन्धी कानून. सन् 2005 में पारित हुआ।

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HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वचनबद्ध नौकरशाही से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
भारत में वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ स्पष्ट करें। इस अवधारणा के विकास एवं समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:
वचनबद्ध अथवा प्रतिबद्ध नौकरशाही का अर्थ यह है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बन्धी हुई रहती है और उस दल के निर्देशों से ही कार्य करती है। वचनबद्ध अथवा प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती, बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आंखें मूंद कर लागू करना होता है। साम्यवादी देशों में जैसे कि चीन में वचनबद्ध नौकरशाही पाई जाती है।

सितम्बर, 1991 तक सोवियत संघ में वचनबद्ध नौकरशाही पाई जाती रही है। चीन में एक ही राजनीतिक दल (साम्यवादी दल) है और वहां पर नौकरशाही साम्यवादी दल के सिद्धान्तों एवं लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। नौकरशाही का परम कर्त्तव्य साम्यवादी दल के लक्ष्यों को पूरा करने में सहयोग देना है।

भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही की बात कही जाती है, परन्तु नौकरशाही किसी दल के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध न होकर संविधान के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध है। लोकतन्त्र में वचनबद्ध नौकरशाही सफल नहीं हो सकती क्योंकि चुनाव के पश्चात् कोई भी दल सत्ता में आ सकता है। इसलिए प्राय: सभी लोकतान्त्रिक देशों में नौकरशाही की तटस्थता पर बल दिया जाता है ताकि नौकरशाही स्वतन्त्र और निष्पक्ष होकर कार्य कर सके।

संविधान में लोक सेवाओं की स्वतन्त्रता, निष्पक्षता एवं तटस्थता को बनाए रखने के लिए व्यापक रूप से व्यवस्था की गई है। अखिल भारतीय सेवाएं तथा केन्द्रीय सेवाओं की नियुक्ति राज्य सेवा आयोग द्वारा की जाती है और राज्य सेवाओं की नियुक्ति राज्य सेवा आयोग द्वारा की जाती है। लोक सेवा आयोग (Public Service Commission) की निष्पक्षता और स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में काफ़ी उपाय किए गए हैं। संघ या संयुक्त लोक सेवा

आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। लोक सेवा आयोग के सदस्य निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किए जाते हैं और उन्हें निश्चित अवधि से पूर्व राष्ट्रपति तभी हटा सकता है जब उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार का कोई गम्भीर अभियोग हो और इस विषय में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वारा भली प्रकार जांच करके यह निष्कर्ष न निकाल लिया हो कि अभियोग ठीक है।

लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता के अतिरिक्त लोक सेवाओं की स्वतन्त्रता तथा निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए भी कई प्रकार के उपाय किए गए हैं। लोक सेवाओं के सदस्यों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती है और योग्यता की जांच लिखित परीक्षा एवं इण्टरव्यू के आधार पर की जाती है। लोक सेवक एक स्थायी कर्मचारी होता है और रिटायर होने की आयु तक अपने पद पर रहता है।

संविधान के अनुसार किसी लोक सेवक को तब तक पद से हटाया या अवनत नहीं किया जा सकता, जब तक उसको दोष-पत्र (Charge Sheet) न दिया जाए और उसको अपनी रक्षा के लिए उसका उत्तर देने के लिए अवसर न दिया जाए। लोक सेवक राजनीतिक तौर पर तटस्थ होता है,

वह केवल अपने मत का प्रयोग कर सकता है। संविधान के अनुसार कानून द्वारा लोक सेवाओं, सेवाओं की शर्तों और नियुक्ति को नियमित करने की शक्ति विधानमण्डलों को है। लोक सेवक की सेवा की अवधि के उसके वेतन एवं भत्तों को उसके हितों के विरुद्ध परिवर्तित नहीं किया जा सकता और न ही उसे उसका छोटा अधिकारी दण्ड दे सकता है। लोक सेवक अपनी जिम्मेवारियों को तटस्थता से निभाते हैं और केवल संविधान के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध होते हैं।

परन्तु 1969 में वचनबद्ध नौकरशाही (Committed Bureaucracy) का प्रश्न काफ़ी महत्त्वपूर्ण बन गया, विशेषकर उस समय जब तत्कालीन स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने सार्वजनिक भाषणों में प्रशासनिक मशीनरी को देश की प्रगति में बाधा कह कर, उसकी आलोचना शुरू की। वचनबद्ध नौकरशाही का प्रश्न उस समय उत्पन्न हुआ जब कार्यकारिणी और न्यायालयों में झगड़ा उत्पन्न हुआ और अन्त में कांग्रेस पार्टी का विभाजन भी हुआ। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने नई नीति अपनाते हुए प्रत्येक समस्या को जनता के सामने प्रस्तुत करके अन्तिम निर्णय लेने की नीति अपनाई। स्वर्गीय इन्दिरा गांधी ने अपने विरोधियों पर चारों ओर से हमला किया और इसमें नौकरशाही की भी आलोचना की और इस बात पर बल दिया कि नौकरशाही वचनबद्ध होनी चाहिए।

यह विचार कि नौकरशाही ‘वचनबद्ध की भावना’ से ओत-प्रोत नहीं होनी चाहिए शीघ्र ही स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी के चेलों में लोकप्रिय हो गया। तत्कालीन कांग्रेस के अन्तरिम अध्यक्ष (Interim President) श्री जगजीवन राम ने पार्टी के बम्बई अधिवेशन में जो दिसम्बर, 1969 में हुआ, वचनबद्ध नौकरशाही के विचार को औपचारिक रूप दिया जब उन्होंने इस सिद्धान्त का अपने अध्यक्षीय भाषण में जोरदार समर्थन किया।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने नौकरशाही पर रूढ़िवादी होने का आरोप लगाना शुरू कर दिया और इस बात पर बल देना शुरू कर दिया कि नौकरशाही को जनता की इच्छाओं और राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति के अनुसार बदलना होगा। नियुक्ति की नीति इस प्रकार होनी चाहिए कि लोक सेवक सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो ताकि लोकतन्त्र, धर्म-निरपेक्षवाद तथा समाजवाद जैसे आदर्शों की पूर्ति की जा सके।
तत्कालीन स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी और उनके शिष्यों ने वचनबद्ध ‘नौकरशाही’ का समर्थन तो किया, रष्ट नहीं था कि वे ‘वचनबद्ध’ का क्या अर्थ लेते हैं।

उन्होंने जानबझ कर साम्यवादी देशों की वचनबद्ध नौकरशाही की प्रणाली का उल्लेख नहीं किया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के वचनबद्ध नौकरशाही के बारे में जो कुछ कहा उससे ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे वे ऐसी नौकरशाही चाहते हैं जो राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध हो। इसीलिए अशोक मेहता ने कहा था कि, “लोकतन्त्र में यह समझना आसान नहीं है कि ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का क्या अर्थ है। लोकतन्त्र प्रणाली में सरकारें बदलती हैं, उनके राजनीतिक उद्देश्यों में परिवर्तन आते रहते हैं, इसलिए यह समझना कठिन होता है कि नौकरशाही किन विचारों के लिए वचनबद्ध हो।”

‘वचनबद्ध नौकरशाही’ पर कांग्रेस के नेताओं के ज़ोर देने से उन लोगों में सन्देह उत्पन्न हो गया, जिन्होंने साम्यवादी देशों में ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का अध्ययन किया हुआ था। अतः वे यह समझने लगे कि ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का सिद्धान्त बड़ा खतरनाक है क्योंकि यह देश को सर्वसत्तावाद (Totalitarianism) की ओर ले जाएगा।

इस बात का भय था कि लोकतन्त्रात्मक सरकार के साथ यह सिद्धान्त मेल नहीं खाता और जब एक स्थान पर दूसरा दल सत्ता में आएगा तो अराजकता उत्पन्न हो जाएगी। ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का सिद्धान्त सर्वसत्तावाद राज्य में ही पनप सकता है। सी० राजगोपालाचार्य (C. Rajagopalachari) जैसे राजनीतिज्ञों ने वचनबद्ध नौकरशाही’ (Committed Bureaucracy) पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह सिद्धान्त देश को बर्बाद कर देगा।

‘हिन्दुस्तान टाइम्ज़’ (The Hindustan Times) के सम्पादक ने 3 दिसम्बर, 1969 को उस समय के राजनीतिक वातावरण के सन्दर्भ में लिखा था, “यदि सेवकों को श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार और नीतियों के प्रति, उड़ीसा है तो उनको दिल्ली में जनसंघ प्रशासन के प्रति, पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु के प्रति, उड़ीसा में स्वतन्त्र पार्टी के प्रशासन के प्रति, मद्रास में डी० एम० के० के प्रति, पंजाब में अकाली प्रशासन के प्रति आदि वचनबद्ध होना पड़ेगा।”

इसमें सन्देह नहीं है कि ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का विचार भारत के लिए बहुत खतरनाक है। इस सिद्धान्त का सम्बन्ध लोकतन्त्रात्मक प्रणाली से न होकर उस शासन प्रणाली से है जिसमें एक ही दल हो जैसे कि साम्यवादी देशों में। इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि नौकरशाही सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा के प्रति शपथबद्ध है। इसलिए यह सिद्धान्त उसी देश में लागू हो सकता है जहां पर एक ही विचारधारा निष्ठुरता से शासन कर रही हो।

लोकतन्त्रात्मक राज्यों में इस सिद्धान्त को नहीं अपनाया जा सकता क्योंकि लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में अनेक राजनीतिक दल होते हैं और दल सत्ता में आते-जाते रहते हैं। अत: नौकरशाही का परम कर्त्तव्य यह होता है कि वे तटस्थता से कुशलतापूर्वक अपने कार्यों को करें। उनका राजनीति एवं किसी दल की विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं होता। लोक सेवाओं की सेवाओं के नियमों के प्रति निष्ठा एवं श्रद्धा को ‘वचनबद्ध’ के विचार से नहीं मिलाया जाना चाहिए।

नौकरशाही की निष्पक्षता का मूल्यांकन (Critical Appraisal of Uncommitted Bureaucracy)
1971 के लोकसभा के चुनाव में स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और चुनाव के साथ ही वचनबद्ध नौकरशाही का खतरनाक सिद्धान्त समाप्त हो गया क्योंकि कांग्रेस को इतना अधिक बहुमत प्राप्त हुआ था कि अब लोकतन्त्रात्मक साधनों द्वारा अपने प्रगतिशील कार्यक्रम और सुधारों को लागू कर सकती थी। नौकरशाही की निष्पक्षता एवं स्वतन्त्रता को बनाए रखने में संघ लोक सेवा आयोग ने महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है।

संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य बटुक सिंह ने लोक सेवा आयोग को भारतीय लोकतन्त्र का मज़बूत स्तम्भ कहा है। संविधान की धाराएं संघ लोक सेवा आयोग को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से पूर्ण स्वतन्त्रता की गारण्टी देती हैं। परन्तु व्यावहारिक रूप में सरकार ने संविधान की धाराओं को इस प्रकार लागू किया है कि लोक सेवा की स्वतन्त्रता सीमित हो गई है और नौकरशाही की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता से वर्तमान सरकार ने खेलने की कोशिश की है तथा इसके लिए कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं

(1) संघ लोक सेवा आयोग अधिनियम 1958 के अनुसार सरकार के लिए कई प्रकार के अधिकारियों की नियुक्ति के लिए तदर्थ (Adhoc) नियुक्तियों के लिए और उन नियुक्तियों के लिए जहां पर नियुक्ति शीघ्र करना अनिवार्य है तथा उन नियुक्तियों का लोक सेवा आयोग में उल्लेख करने से अनावश्यक देरी होगी, संघ लोक सेवा आयोग को सलाह लेना अनिवार्य नहीं है।

यद्यपि हम उन कारणों से सरकार के साथ सहमत हैं जिनके कारण यह अधिनियम पास किया गया, परन्तु इस अधिनियम के गलत प्रयोग की सम्भावना भी बहुत अधिक है। इस अधिनियम के द्वारा सरकार बड़ी आसानी से लोक सेवा आयोग के क्षेत्राधिकार को सीमित कर सकती है। जिन अधिकारियों की नियुक्ति सरकार की इच्छा पर की गई है, वे स्वतन्त्र और निष्पक्ष नहीं हो सकते।

(2) नौकरशाही के वास्तविक रोल से स्पष्ट होता है कि कई अधिकारी सत्ता पार्टी के नेताओं की सहायता इसलिए करते हैं ताकि इनके कुछ लाभ उठा सकें। चुनाव के दिनों में नौकरशाही की सत्ता पार्टी की सहायता देखने लायक होती है और अधिकारी यह सहायता इसलिए करते हैं ताकि उनसे बाद में पदोन्नति, एवं अच्छी नौकरी प्राप्त कर सकें। प्रो० भाम्बरी (Bhambri) ने ठीक ही कहा है कि “भारतीय नौकरशाही कांग्रेस के शासन में कांग्रेस के साथ सांठ गांठ करके कांग्रेस के हित अथवा नेताओं के व्यक्तिगत हित के लिए काम करती है ताकि उनसे लाभ उठा सके।”

(3) भारतीय नौकरशाही की एक सर्वगत विशेषता भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार होने के कारण-वेतन कम होना, पदोन्नति के कम अवसर तथा कर्मचारियों में ईमानदारी का न होना इत्यादि है। कई बार तो भ्रष्टाचार के षड्यन्त्रों में बड़े-बड़े अधिकारी भी शामिल होते हैं और उन्हें कई बार राजनीतिज्ञों का सहयोग भी प्राप्त होता है।

(4) भ्रष्टाचार की तरह भारतीय नौकरशाही की एक विशेषता यह भी है कि यह जी-हजूरियों से भरी पड़ी है। नौजवान कर्मचारी शीघ्र ही समझ जाता है कि स्वतन्त्रता और स्पष्टवादिता से काम नहीं चलेगा और वह शीघ्र ही अपने बड़े अधिकारी की जी-हजूरी करनी शुरू कर देता है।

यह आम देखने में आया है कि जी-हजूरी करने वाले कर्मचारी शीघ्र पदोन्नति तथा अन्य लाभ प्राप्त कर लेते हैं जबकि ईमानदार और परिश्रमी कर्मचारी जी-हजूरी न करने के कारण कई वर्ष पदोन्नति प्राप्त नहीं कर पाते। गेरवाला (Gerwala) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि “अधिक कर्मचारी अपने बड़े अधिकारियों को चापलूसी द्वारा प्रसन्न करने में लगे रहते हैं, जिससे प्रशासन की कुशलता की क्षति होती है।”

निष्कर्ष (Conclusion)-इसमें सन्देह नहीं है कि भारतीय नौकरशाही में कई दोष पाए जाते हैं, परन्तु इसके बावजूद भारतीय नौकरशाही को ‘वचनबद्ध’ नहीं कहा जा सकता। भारतीय नौकरशाही स्वतन्त्र एवं लाल-फीताशाही (Red tapism), भ्रष्टाचार आशाभंग (Frustrations) इत्यादि बुराइयां शासन की देन हैं।

यद्यपि आलोचकों ने राज्य सेवा आयोग को ‘Packed house’ कहा है, तथापि संघ लोक सेवा आयोग को ऐसा नहीं कहा जा सकता। संघ लोक सेवा आयोग को भारतीय लोकतन्त्र के स्तम्भों में से एक स्तम्भ माना जाता है और संघ लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता पर ही नौकरशाही की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता काफ़ी सीमा तक निर्भर करती है।

प्रश्न 2.
वचनबद्ध न्यायपालिका से क्या तात्पर्य है ? वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए सरकार द्वारा प्रयोग किए गए उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1973 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों श्री जे० एम० शैलट, श्री के० एस० हेगड़े तथा श्री ए० एन० ग्रोवर की उपेक्षा करके श्री ए० एन० राय को नियुक्त किया। इस नियुक्ति से उस समय एक राजनीतिक एवं न्यायिक विवाद पैदा हो गया। श्री ए० एन० राय की नियुक्ति के विरोध में तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया। इससे यह प्रश्न उठने लगा कि क्या न्यायपालिका सरकार के प्रति वचनबद्ध होनी चाहिए या स्वतन्त्र ।

स्वतन्त्र न्यायपालिका की धारणा एवं भारतीय न्यायपालिका (Concept of Independent Judiciary and Indian Judiciary)-स्वतन्त्र न्यायपालिका से निम्नलिखित अर्थ लिया जाता है

  • न्यायपालिका का सरकार के अन्य विभागों से स्वतन्त्र होना।
  • न्यायपालिका द्वारा किये जाने वाले निर्णयों पर कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का प्रभाव नहीं होना चाहिए।
  • न्यायाधीश स्वतन्त्र हों, ताकि वे बिना किसी भय एवं पक्ष के निर्णय कर सकें।

भारत में सैद्धान्तिक तौर पर स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की व्यवस्था की गई। न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाए रखने के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं

  • न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
  • न्यायाधीशों की योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है।
  • न्यायाधीश एक निश्चित आयु पर सेवानिवृत्त होते हैं।
  • न्यायाधीशों के पद की सुरक्षा की गई है, उन्हें केवल महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है।
  • न्यायाधीशों को उचित वेतन एवं भत्ते दिए जाते हैं।
  • सेवानिवृत्त होने के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश किसी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते।

वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा का उदय (Origin of the Idea of Committed Judiciary)-1973 में स्वामी केशवानन्द भारती एवं अन्य ने 24वें तथा 25वें संवैधानिक संशोधनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। ये संशोधन संसद् को सभी अधिकारों में हस्तक्षेप करने से शामिल थे, जिसमें समुदाय बनाना तथा धर्म की स्वतन्त्रता भी शामिल थी। स्वामी केशवानन्द भारती मुकद्दमे की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की एक 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने की।

13 में से 9 न्यायाधीशों (श्री एस० एम० सीकरी, जे० एम० रौलट, के० एस० हेगड़े, ए० एन० ग्रोवर, बी० जगमोहन रेडी, डी० जी० पालेकर, एच० आर० खन्ना, ए० के० मुखर्जी तथा वाई० वी० चन्द्रचड) ने यह निर्णय । मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। चार अन्य न्यायाधीशों (श्री ए० एन० राय, के० के० मैथ्यू, एम० एच० बेग तथा एस० एन० द्विवेदी) ने इस निर्णय पर हस्ताक्षर नहीं किए।

केशवानन्द भारती के मुकद्दमे में सरकार एवं न्यायपालिका में मतभेद बढ़ गए, क्योंकि 1973 में सरकार का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गांधी कर रही थीं, अतः यह विवाद श्रीमती गांधी एवं न्यायालय के बीच हुआ, जिसमें जीत न्यायालय की हुई, क्योंकि न्यायालय ने संसद् की संविधान में संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया। इसी कारण श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को आगे बढ़ाया। 1975 में आपात्काल के समय वचनबद्ध न्यायपालिका का सिद्धान्त कार्यपालिका का सिद्धान्त बन गया।

वचनबद्ध न्यायपालिका के मा सरकार द्वारा प्रयोग किए गए उपाय (Tactics used by Govt. to make Committed Judiciary) तत्कालीन श्रीमती गांधी की सरकार ने न्यायपालिका को वचनबद्ध बनाने के लिए अग्रलिखित उपाय किए

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी (Supersession of Judges):
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की तथा उन न्यायाधीशों को पदोन्नत किया जो सरकार के प्रति वफादार थे। उदाहरण के लिए श्रीमती गांधी ने श्री जे० एम० शैलट, के० एस० हेगड़े तथा ए० एन० ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री ए० एन० राय को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया। अतः तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पदों से त्याग-पत्र दे दिया। 1977 में पुनः श्री एच० आर० खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री एम० एच० बेग को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया गया।

2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण (Transfer of Judges):
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा भी लिया। उन्होंने 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा तथा पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के० बी० एन० सिंह को मद्रास उच्च न्यायालय स्थानान्तरित करवाया।

3. रिक्त पदों को भरने से मना करना (Refusal to fill Vacancies):
सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से भी मना कर दिया या अपनी असमर्थता व्यक्त की।

4. कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश का प्रावधान (Provision of Acting Chief Justice):
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक प्रावधान को भी वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए प्रयोग किया गया।

5. अन्य पदों पर नियुक्तियां (Appointments on other Posts):
सरकार ने सेवा निवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे अथवा सरकार की नीतियों के अनुसार चलते थे।

6. अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of Temporary Judges):
वचनबद्ध न्यायपालिका का एक अन्य उपाय अस्थाई न्यायाधीशों की नियुक्ति करना था। सरकार अस्थाई तौर पर नियुक्ति करके न्यायाधीश की कार्यप्रणाली एवं व्यवहार का अध्ययन करती थी, कि वह सरकार के पक्ष में कार्य कर रहा है या विपक्ष में।

7. कम वेतन (Meagre Salaries):
न्यायाधीशों को अन्य विभागों के मुकाबले कम वेतन मिलता था।

8. न्यायपालिका की आलोचना (Criticism of Judiciary):
न्यायाधीशों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों की प्रायः अधिकारियों द्वारा आलोचना की जाती थी जबकि ऐसा करना संविधान के विरुद्ध था।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि भारत में एक समय ऐसा आया जब वचनबद्ध न्यायपालिका को बढ़ावा मिलने लगा था, परन्तु वास्तविकता यह है कि न्यायपालिका सभी प्रकार के बन्धनों से स्वतन्त्र होनी चाहिए तभी न्यायपालिका संविधान की रक्षा कर सकेगी तथा लोगों के अधिकारों की रक्षा कर सकेगी।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 3.
बिहार आन्दोलन एवं गुजरात के नव-निर्माण आन्दोलन ने भारतीय लोकतन्त्र को किस प्रकार प्रभावित किया ? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन (Navnirman Movement in Gujarat):
गुजरात में 1970 के दशक में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। 1960 के दशक में गुजरात के प्रमुख शहर अहमदाबाद में बहुत विकास कार्य हुए। इसी शहर से 1974 में गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई। अहमदाबाद के एल० डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबा गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

इस एक घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन उन लोगों के विरुद्ध था, जो हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के समर्थक थे। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनभाई पटेल को त्याग पत्र देना पड़ा। प्रायः यह कहा जाता है कि 1975 में श्रीमती गांधी ने जो आपात्काल की घोषणा की थी, उसका एक प्रमुख कारण गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन भी था।

नवनिर्माण आन्दोलन धीरे-धीरे सम्पूर्ण गुजरात में फैल गया तथा अनेक लोग इस आन्दोलन से जुड़ गए। कांग्रेस पार्टी ने नवनिर्माण आन्दोलन के विरुद्ध एक चुनावी रणनीति तैयार की, जिसे क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी तथा मुस्लिम मिलन का नाम दिया गया। 1980 के गुजरात विधानसभा चुनावों में इस योजना को सफलता भी मिली। परन्तु इससे उच्च जातियों को पहली बार यह अनुभव हुआ कि शक्ति उच्च वर्गों से निकल कर मध्यवर्ग की ओर जा रही है।

2. बिहार आन्दोलन (Bihar Movement):
बिहार आन्दोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में चलाया गया था। बिहार आन्दोलन शासन में भ्रष्टाचारी एवं अयोग्य कर्मचारियों के विरुद्ध चलाया गया था। इस आन्दोलन को पूर्ण या व्यापक क्रान्ति (Total Revolution) भी कहा जाता है। जयप्रकाश नारायण ने 1975 में बिहार के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि बिहार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज एवं व्यक्ति के सभी पक्षों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना है। यह उद्देश्य ऐसा नहीं है, जिसे एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त कर लिया जाए, बल्कि अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक लम्बे समय तक बिहार आन्दोलन को जारी रखना होगा।

बिहार आन्दोलन में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को भी हल करने का प्रयास किया गया। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विषय में बोलते हुए जय प्रकाश नारायण ने कहा कि ये जातियां आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी हुई हैं। उच्च जाति के लोगों द्वारा अब भी इन जातियों का शोषण किया जा रहा है।

कई बार तथाकथित उच्च जाति के लोग इन जातियों के लोगों को जिन्दा जला भी देते हैं। अत: इस समस्या के समाधान के लिए हल खोजना आवश्यक है। बिहार आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को इन अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विकास के लिए कार्य करना होगा। जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के चार पक्षों का वर्णन किया-प्रथम संघर्ष, द्वितीय निर्माण, तृतीय प्रचार तथा चतुर्थ संगठन।

जयप्रकाश नारायण ने तात्कालिक परिस्थितियों में निर्माण कार्य पर अधिक बल दिया। उनके अनुसार बिहार आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को समाज में से सामाजिक कुरीतियों (जातिवाद, छुआछूत, साम्प्रदायिकता तथा दहेज प्रथा) को दूर करना होगा। थामस वेबर का कहना है कि, जयप्रकाश नारायण दलविहीन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी इच्छा वास्तविक लोकतन्त्र के अन्तर्गत एक ऐसे समाज की स्थापना की थी, जिसमें असमानता न हो तथा सभी लोगों को अपने विकास के लिए समान अवसर प्राप्त हों।

जहां गुजरात में गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन चल रहा था, वहीं बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार आन्दोलन चल रहा था। इन दोनों आन्दोलनों ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार को भी चुनौतियां पेश की तथा श्रीमती गांधी ने इन आन्दोलनों के दबाव में आकर आपात्काल की घोषणा की।

प्रश्न 4.
1975 में की गई आपात्कालीन घोषणा के कारणों की विस्तृत व्याख्या करें।
उत्तर:
1970 का दशक भारतीय राजनीति के लिए सर्वाधिक परिवर्तनशील एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह दशक कांग्रेस पार्टी विशेषकर प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के लिए विशेष महत्त्व रखता है। जहां इस दशक के शुरुआत में (1971) पाकिस्तान को युद्ध में हराकर श्रीमती गांधी पूरे देश में लोकप्रिय हो गईं, वहीं 1975 तक आते-आते भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी बदल गईं कि श्रीमती गांधी को देश में आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। जो श्रीमती गांधी 1971 में देश में सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थीं, उन्हें अपनी रक्षा के लिए 25 जून, 1975 को आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी।

इतना ही नहीं 1977 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी एवं स्वयं श्रीमती गांधी को पराजय का सामना भी करना पड़ा। जून, 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी को निम्नलिखित कारणों से आपात्कालीन घोषणा करनी पड़ी

1.1971 के युद्ध में हुआ अत्यधिक खर्च (Enormous Expenditure of 1971 War):
1975 में लागू की गई आपात्काल की घोषणा का एक प्रमुख कारण 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। इसके अतिरिक्त पूर्वी पाकिस्तान से आए करोड़ों शरणार्थियों का भार भी भारत पर पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई। श्रीमती गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा धन के अभाव के कारण पूरी तरह सफल नहीं हो पाया, जिससे लोगों में असन्तोष फैला।

2. अधिक एवं अच्छी फसल का पैदा न होना (No Production of Enough and good crops):
1972 1973 में भारत में फसल भी अच्छी नहीं हुई। दूसरे शब्दों में सरकार को कृषि क्षेत्र में भी असफलता मिल रही थी, जिससे भारत का आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा था।

3. तेल संकट (Oil Crises):
1973 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल संकट पैदा हो गया। 1973 में ओपेक देशों (OPEC-Organisation of Pertroleum Exporting Countries) ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात मनवाने के लिए तेल का उत्पादन कम कर दिया। इसे तेल कूटनीति (Oil Diplomacy) के नाम से भी जाना जाता है। इस तेल संकट के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ गईं। तेल की कीमतें बढ़ने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी उसका प्रभाव देखा जाने लगा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति और खराब हो गई।

4. औद्योगिक उत्पाद में कमी (Decreasing Industrial Production):
भारत में प्रशिक्षित एवं कुशल वैज्ञानिकों, इंजीनियरों तथा कर्मचारियों के होने के बावजूद भी भारत के औद्योगिक उत्पाद में निरन्तर कमी हो रही थी, जिससे कर्मचारियों में असन्तोष बढ़ रहा था।

5. रेलवे की हड़ताल (Railway Strike):
1975 में की गई आपात्कालीन घोषणा का एक कारण रेलवे कर्मचारियों द्वारा की गई हड़ताल भी थी जिससे यातायात व्यवस्था बिल्कुल खराब हो गई।

6. गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन (Gujarat Navnirman Movement):
अहमदाबाद के एल० डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इस एक घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनभाई पटेल को त्याग-पत्र देना पड़ा। 1975 में श्रीमती गांधी ने जो आपात्काल की घोषणा की थी, उसका एक प्रमुख कारण गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन भी था।

7. बिहार आन्दोलन (Bihar Movement):
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में चलाया गया बिहार आन्दोलन भी 1975 में आपात्काल की घोषणा का एक प्रमुख कारण था, क्योंकि इस आन्दोलन के कारण जयप्रकाश नारायण ने लोगों को श्रीमती इन्दिरा गांधी के विरुद्ध एकजुट कर दिया था। बिहार आन्दोलन ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार को चुनौतियां पेश की तथा श्रीमती गांधी ने इन आन्दोलनों के दबाव में आपात्काल की घोषणा की। .

8. श्रीमती गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करना (Mrs. Gandhi’s Election Declare illegal) :
श्रीमती गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल की घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था। श्रीमती गांधी को छ: वर्ष तक संसद् की सदस्यता न ग्रहण करने की सज़ा दी गई। परन्तु अदालत ने श्रीमती गांधी को अपील का एक मौका देते हुए अपने निर्णय को स्थगित रखा।

अदालत ने साथ ही यह भी कहा कि श्रीमती गांधी अपना प्रधानमन्त्री का कार्यकाल पूरा कर सकती हैं, परन्तु इस दौरान वह न तो संसद् में भाषण दे सकती हैं, न ही किसी विषय में मतदान कर सकती हैं और न ही वेतन प्राप्त कर सकती हैं। इस प्रकार के निर्णय से श्रीमती गांधी के लिए परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल हो गईं, क्योंकि विरोधी दलों ने इस आधार पर उनसे त्याग-पत्र की मांग की तथा श्रीमती गांधी के विरुद्ध एकजुट होकर आन्दोलन करने लगे। इन परिस्थितियों पर काबू पाने के लिए श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपात्काल की घोषणा की।

प्रश्न 5.
सन् 1975 में घोषित आपात्काल के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1975 में श्रीमती गांधी के लिए राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी खराब हो गईं कि उन्हें 25 जून, 1975 को भारत में पहली बार आन्तरिक सुरक्षा के आधार पर आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। इससे पहले जब भी आपात्काल की घोषणा की गई, वह युद्ध के समय की गई थी। राष्ट्रपति फखरूदीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई।

आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात तथा तमिलनाडु की विधानसभाओं को भंग कर दिया। आन्तरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act-MISA) के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

संजय गांधी ने देश की जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबन्दी कार्यक्रम चलाया। दिल्ली की आबादी को कम करने का प्रयास किया तथा गन्दी बस्तियों को हटाया। इस दौरान प्रैस की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगा दी गई। लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में श्रीमती गांधी ने आपात्काल की घोषणा समाप्त कर दी तथा नये चुनाव करवाये। इन चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, यहां तक कि श्रीमती गांधी स्वयं भी चुनाव हार गई।

आपात्काल के संवैधानिक एवं उत्तर संवैधानिक पक्ष (Constitutional and Extra Constitutional dimensions of Emergency)-आपात्काल के दौरान कुछ संवैधानिक एवं उत्तर संवैधानिक पक्ष भी सामने आए। श्रीमती गांधी ने संविधान में 39वां संवैधानिक संशोधन किया। इस संशोधन द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा स्पीकर के चुनाव से सम्बन्धित मुकद्दमों की सुनवाई की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति समाप्त कर दी गई। इसके स्थान पर सरकार ने यह घोषणा की कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा स्पीकर के चुनाव से सम्बन्धित मुकद्दमों की सुनवाई एक आयोग करेगा।

39वें संशोधन की उपधारा 4 के अन्तर्गत उपरोक्त पदों से सम्बन्धित चुनावों को न्यायालय में चुनौती देने की शक्ति को समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन को पास करने का मुख्य उद्देश्य श्रीमती गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय से राहत दिलाना था। 39वें संवैधानिक संशोधन को संसद् एवं राष्ट्रपति ने केवल चार दिनों में अपनी-अपनी स्वीकृति दे दी। श्रीमती गांधी के निर्वाचन सम्बन्धी सुनवाई के समय महान्यायवादी ने 39वें संशोधन के आधार पर इस मुकद्दमे को खारिज करने की बात की।

परन्तु राज नारायण (श्रीमती गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति) के वकील ने 39वें संशोधन को संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताया। क्योंकि यह संशोधन स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध है। परन्तु उच्च न्यायालय की पीठ के पांच में से चार न्यायाधीशों ने 39वें संशोधन को वैध ठहराया तथा इस संशोधन के आधार पर श्रीमती गांधी के निर्वाचन को पूर्ण रूप से वैध ठहराया।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री ए० एन० राय ने बड़े विचित्र ढंग से यह विचार व्यक्त किया कि ‘प्रजातन्त्र’ संविधान का मूल ढांचा है, परन्तु स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष चुनाव नहीं। इस प्रकार श्रीमती गांधी के निर्वाचन को वैध ठहराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक बड़ी कवायद की गई। इसे ही प्रतिबद्ध न्यायपालिका के रूप में जाना जाता है।

आपात्काल के विरोध का दमन (Resistance of Emergency):
श्रीमती गांधी की सरकार ने आपात्काल का विरोध कर रहे लोगों का कठोरतापूर्वक दमन किया। आपात्काल की घोषणा के कुछ घण्टों के अन्दर ही प्रमुख विरोधी नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। विरोधी नेताओं एवं लोगों के विरुद्ध मीसा कानून के तहत कार्यवाही की गई।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि आपात्काल की घोषणा करके श्रीमती गांधी ने राजनीतिक एवं न्यायिक व्यवस्था को अपनी इच्छानुसार चलाना चाहा। परन्तु यह घटना आगे चलकर (1977 के चुनावों में) श्रीमती गांधी एवं कांग्रेस पार्टी के लिए हानिकारक साबित हुई।

प्रश्न 6.
देश में 1975 ई० में घोषित आपात्काल से हमें क्या सबक मिले ? वर्णन करें।
उत्तर:
श्रीमती गांधी के लिए राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी खराब हो गईं कि उन्हें 25 जून, 1975 को आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई। आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात एवं तमिलनाडु विधानसभाओं को भंग कर दिया।

मीसा (MISA) कानून के अंतर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी। आपात्कालीन परिस्थितियों में श्रीमती गांधी का छोटा बेटा संजय गांधी उनके लिए सबसे अधिक मददगार बना हुआ था। संजय गांधी ने जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबंदी कार्यक्रम चलाया। प्रैस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। परन्तु मार्च, 1977 में श्रीमती गांधी ने आपात्काल की घोषणा समाप्त करके नये चुनाव करवाये। इन चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। यहां तक कि श्रीमती गांधी स्वयं भी चुनाव हार गईं। आपात्काल से जो सबक हमें मिलें उनका वर्णन इस प्रकार है

  • नौकरशाही एवं न्यायपालिका को सदैव स्वतन्त्र रखना चाहिए ताकि लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की . जा सके।
  • सरकार को सदैव संविधान के अनुसार शासन करना चाहिए।
  • सरकार को सदैव जनता एवं विरोधी दल का सम्मान करना चाहिए।
  • आपात्काल में एक सबक यह मिला कि भारत में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत मज़बूत हैं तथा उसे आसानी से समाप्त नहीं किया जा सकता।
  • आपातकाल के पश्चात् भारत में कुछ संवैधानिक उलझनों को ठीक किया गया, जैसे-अन्दरूनी आपात्काल केवल सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है, इसके लिए भी आवश्यक है कि मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित सलाह दे।
  • आपातकाल के पश्चात् नागरिक अधिकारों के कई संगठन अस्तित्व में आए।

प्रश्न 7.
1977 में जनता पार्टी की स्थापना का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जनता पार्टी की स्थापना का वही महत्त्व है जो स्वतन्त्रता के पूर्व कांग्रेस पार्टी की स्थापना का था। यदि कांग्रेस पार्टी ने भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाया और उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान की तो जनता पार्टी ने कांग्रेस सरकार विशेषकर, श्रीमती इन्दिरा गांधी, संजय गांधी व बंसी लाल की तानाशाही से जनता को राहत दिलाई। 1 मई, 1977 का दिवस स्वतन्त्र भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। भविष्य के इतिहासकार 1 मई, 1977 को उसी दृष्टि से देखेंगे जिस प्रकार कल के इतिहासकार 1885 सन् को देखते हैं।

यद्यपि 1 मई, 1977 को जनता पार्टी का विधिवत् जन्म हुआ, परन्तु व्यवहार में जनता पार्टी की स्थापना जनवरी, 1977 में हो गई थी। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की जनवरी, 1977 में चुनाव की घोषणा करने के पश्चात् जेलों में बन्द राजनीतिक नेताओं को धीरे-धीरे रिहा किया गया। कांग्रेस संगठन, जनसंघ, भारतीय लोकदल तथा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं और विद्रोही कांग्रेस नेताओं ने यह अनुभव किया कि प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की तानाशाही से छुटकारा पाने के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण अति आवश्यक है।

श्री जयप्रकाश नारायण 1974 से ही इन दलों को एक दल बनाने का आग्रह कर रहे थे, अतः श्री जयप्रकाश नारायण के प्रयासों के फलस्वरूप संगठन कांग्रेस जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर जनवरी, 1977 में जनता पार्टी की स्थापना करके भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया। विद्रोही कांग्रेस सदस्य चन्द्रशेखर, मोहन धारिया और रामधन आदि भी जनता पार्टी में शामिल हुए। जनता पार्टी ने श्री मोरारजी देसाई को पार्टी का अध्यक्ष और चौधरी चरण सिंह को उपाध्यक्ष चुना।

एक राष्ट्रीय समिति (National Committee) की स्थापना की, जिसमें 27 सदस्य थे। चार महासचिव-श्री लाल कृष्ण अडवानी, श्री सुरेन्द्र मोहन, रामधन और सिकन्दर बख्त नियुक्त किये गए। राष्ट्रीय समिति ने 31 जनवरी को चुनाव में भाग लेने की विधिवत् घोषणा की। मार्च के चुनाव घोषणा-पत्र में कहा गया कि जनता पार्टी कुछ महज़ पुरानी पार्टियों का गठबन्धन नहीं है वरन् यह एक नई और राष्ट्रीय पार्टी है जिसे संगठन कांग्रेस, भारतीय लोकदल, जनसंघ तथा समाजवादी दल और स्वतन्त्र कांग्रेस-जनों ने सफल बनाने का व्रत लिया है और यह घोषणा-पत्र इस संघबद्ध संकल्प का पुष्टि-प्रमाण है।

लोकसभा के चुनाव के समय जनता पार्टी के नेताओं ने कहा था कि समय के अभाव के कारण जनता पार्टी के चारों घटकों का विधिवत् विलय नहीं किया जा सका। उन्होंने जनता से वायदा किया था कि चुनाव के पश्चात् शीघ्र ही चारों दल विधिवत् रूप से जनता पार्टी में सम्मिलित हो जाएंगे। इन नेताओं ने अपने इस वायदे को शीघ्र ही पूरा किया, जबकि 1 मई, 1977 को हर्ष और उल्लास के वातावरण में जनता पार्टी का विधिवत् उदय हुआ।

जब संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी के पिछले अध्यक्षों ने नए दल में अपनी-अपनी पार्टी के विलय की घोषणा की और प्रतिनिधियों के विशाल समूह में पार्टी ने स्थापना का प्रस्ताव सर्व-सम्मति से स्वीकार किया। प्रगति मैदान के भव्य ‘हॉल ऑफ नेशन्स’ में जनता पार्टी की स्थापना का सम्मेलन हुआ।

चारों दलों के अध्यक्षों ने अपने-अपने ढंग से और संक्षेप में घोषणा की कि उनकी पार्टियों ने अपने अस्तित्व समाप्त कर जनाकांक्षाओं की क्रान्तिकारी की प्रतीक जनता पार्टी में विलीन होने का विधिवत् निश्चय किया है। अपने-अपने दलों को विसर्जित करके उन्हें जनता पार्टी में शामिल करने के निर्णयों की घोषणा भारतीय लोकदल की ओर से चौधरी चरण सिंह ने, संगठन कांग्रेस की तरफ से श्री अशोक मेहता ने, सोशलिस्ट पार्टी की ओर से श्री जार्ज फर्नांडीज़ ने और जनसंघ की ओर से श्री लालकृष्ण अडवानी ने की।

श्री चन्द्रशेखर-“मैं यहां आपका स्वागत और अभिनन्दन करता हूं। अब समाज बदलने का एक बड़ा काम आपको और हमें मिलकर करना है।” कांग्रेस फॉर डैमोक्रेसी के अध्यक्ष श्री जगजीवन राम ने गगनभेदी नारों के बीच अपनी पार्टी के जनता पार्टी में विलय की घोषणा की। दल के महासचिव श्री नाना जी देशमुख ने सम्मेलन का संयोजन किया और जनता पार्टी को “पंच प्रवाही का पावन संगम” बताया।

प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने, जो दल के अध्यक्ष थे, नया दल जनता को समर्पित करने का प्रस्ताव किया, जिसमें कहा गया कि जनता पार्टी का प्रादुर्भाव भारतीय जनता के द्वारा अपनी खोई हुई स्वाधीनता को प्राप्त करने और लोकतन्त्र के राजपथ पर अपनी खण्डित जनता के द्वारा पुनः आरम्भ करने के संकल्प से हुआ था, प्रचण्ड जन समर्थन और उत्साहपूर्ण तथा प्रबल जन-स्वीकृति का ही परिणाम था कि विगत चुनावों में जनता पार्टी को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हो सकी। अब वह अपने कोटि-कोटि समर्थकों और शुभचिन्तकों को अपने परिवार में सम्मिलित होने का निमन्त्रण देती है ताकि वह जन-संकल्प की पूर्ति का उपयोगी एवं जीवन्त उपकरण बन सकें।

जन-सहयोग का आह्वान करते हुए प्रस्ताव में कहा गया : जनता पार्टी जनता की समस्त आशा-आकांक्षाओं की अमूल्य धरोहर लेकर चल रही है। जनता पार्टी और सरकार को जितना अधिक सक्रिय सहयोग जनता की ओर से प्राप्त होगा, उतनी ही अधिक मात्रा में वे इन आशाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। जनता की गहरी सूझ-बूझ और उसके सहयोग के बिना पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना तथा इस प्राचीन देश का पुनर्जीवन, जिसमें स्वतन्त्रता, समता और बंधुता के आदर्श फलीभूत हो सकें, सम्भव नहीं है।

प्रस्ताव में सभी निष्ठावान और समर्पित देशवासियों को दल में आने के लिए आमन्त्रित किया गया ताकि वे इसमें शामिल होकर इसे हमारे “राष्ट्र के भाग्य के निर्माण का विशिष्ट उपकरण बनाने में सहायक हों।”. 2 अप्रैल, 1977 को जनता पार्टी की संसदीय दल की कार्यकारिणी ने अपनी पहली बैठक में दल के संविधान पर विचार किया और इसे तैयार करने के लिए एक आठ-सदस्यीय समिति की स्थापना की और पार्टी का संविधान तैयार किया गया।

उद्देश्य (Aims)-जनता पार्टी के संविधान की धारा 2 में पार्टी के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है, जिसमें लिखा हुआ है-“स्वाधीनता संग्राम के दौरान जिन उदात्त निष्ठाओं ने हमारा मार्ग प्रशस्त किया था और जो विरासत में हमें गांधी जी के आदर्शों के रूप में मिलीं, उनसे प्रेरणा लेकर जनता पार्टी एक लोकतान्त्रिक, धर्म-निरपेक्ष और समाजवादी राष्ट्र के निर्माण के लिए कृत-संकल्प है। वह ऐसी राज्य-व्यवस्था में विश्वास करती है जिसमें आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण निश्चित रूप में हो। वह शान्तिमय तथा लोकतान्त्रिक तरीकों से विरोध प्रकट करने के अधिकार को मानती है, जिनमें सत्याग्रह और अहिंसक विरोध शामिल है।”

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 8.
1977 के आम चुनावों में जनता पार्टी की जीत के क्या कारण थे ?
अथवा
सन् 1977 ई० में हुए छठी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हार के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
1977 के छठे आम चुनाव कई कारणों से भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। इन चनावों में पहली बार केन्द्र में कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा तथा उसका भारतीय राजनीति पर एकाधिकार पूरी तरह समाप्त हो गया। इन चुनावों में मतदाताओं ने जनता पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलवाई। 1977 के लोकसभा चुनावों की दलीय स्थिति इस प्रकार है

राजनीतिक दलसीटें जीवीं
1. जनता पार्टी272
2. कांग्रेस फार डेमोक्रेसी22
3. कांग्रेस153
4. सी०पी०आई०7
5. सी०पी०एम०22
6. ए०डी०एम०के०18
7. डी०एम०के०1
8. अकाली दल9
9. अन्य37

1977 के चुनावों में जनता पार्टी की जीत एवं कांग्रेस पार्टी की हार के निम्नलिखित कारण थे

1. आपात्काल की घोषणा (Declaration of Emergency):
1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार का सबसे बड़ा एवं तात्कालिक कारण श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा थी। इस घोषणा के विरोध में सभी राजनीतिक दल एक जुट हो गए तथा जनता पार्टी का निर्माण किया तथा 1977 के चुनावों में इस पार्टी को
आपात्काल के कारण जीत प्राप्त हुई।

2. आपात्काल के दौरान अत्याचार (Excesses during Emergency):
श्रीमती गांधी ने न केवल आपात्काल ही लाग किया बल्कि लोगों पर कई प्रकार के अत्याचार भी किये गए। लोगों की स्वतन्त्रताओं को निलम्बित कर दिया गया। कोई भी व्यक्ति या दल सत्ताधारी पार्टी एवं आपातकाल के विरुद्ध नहीं बोल सकता था। इस कारण लोगों में कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध असन्तोष पैदा हुआ तथा उन्होंने कांग्रेस पार्टी को हराकर जनता पार्टी को जितवाया।

3. संजय गांधी की (Role of Sanjay Gandhi):
आपात्काल के समय उत्तर संवैधानिक तत्त्व (Extra Constitutional Element) के रूप में संजय गांधी का उभरना था। संजय गांधी सभी प्रकार की शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे, परन्तु वे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। आपातकाल के समय संजय गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका के प्रति भी लोगों में असन्तोष था।

4. मीसा कानून (Implemention of MISA):
आपात्काल के दौरान श्रीमती गांधी ने मीसा कानून (MISA) लागू किया, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए तथा मुकद्दमा चलाए जेल में डाला जा सकता था। इस कानून के कारण किसी भी व्यक्ति का जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति सुरक्षित नहीं थी।

5. धन (Constitutional Amendments) :
आपातकाल के समय जब सभी महत्त्वपूर्ण विरोधी नेता जेलों में बन्द थे, तब सरकार ने संविधान में 39वां एवं 42वां संशोधन पास करके न्यायपालिका की शक्तियों को घटाकर कार्यपालिका की शक्तियों को बढ़ा दिया। इस प्रकार के संशोधन संविधान की मूल भावना के विरुद्ध थे।

6. संजय गांधी को महत्त्वपूर्ण नेता के रूप में प्रस्तुत करना (Elevation of Sanjay Gandhi as a great Leader) आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को महत्त्वपूर्ण नेता के रूप में प्रस्तुत किया तथा कांग्रेसी नेताओं को अधिक महत्त्व नहीं दिया।

7. युवा कांग्रेस का अनावश्यक महत्त्व (Unwanted Importance of Youth Congress) :
आपात्काल के समय कांग्रेस के अनुभवी नेताओं की अपेक्षा युवा कांग्रेस को अधिक महत्त्व दिया गया। आपात्काल के समय युवा कांग्रेस द्वारा निभाई गई भूमिका से न केवल पुराने कांग्रेसी नेता ही नाराज़ थे, बल्कि जन साधारण लोगों में भी इसके प्रति नाराज़गी थी।

8. जगजीवन राम का त्याग-पत्र (Resignation of Jagjivan Ram):
आपात्काल के समय जगजीवन राम जैसे श्रीमती गांधी के वफादार नेता भी उनके साथ नहीं रहे तथा कांग्रेस एवं सरकार से त्याग-पत्र दे दिया। इससे लोगों को यह अनुभव हुआ कि शासन के ऊपरी स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

9. अनिवार्य नसबंदी (Compulsory Sterilization):
आपात्काल के समय संजय गांधी द्वारा चलाया गया नसबंदी कार्यक्रम भी कांग्रेस की हार का एक प्रमुख कारण बना। यद्यपि भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था का संकट ल जनसंख्या वृद्धि को रोकने के उपाय करने आवश्यक थे, परन्तु इसके लिए अनिवार्य नसबंदी कार्यक्रम की आवश्यकता नहीं थी। इसके अन्तर्गत लोगों को जबरदस्ती अस्पताल भेजकर उनकी नसबंदी कर दी जाती थी। इस कारण कई लोगों की मृत्यु भी हो गई।

10. कीमतों का बढ़ना (Rising Prices):
श्रीमती गांधी की सरकार सभी प्रकार के उपाय करके भी कीमतों की वृद्धि को नहीं रोक पा रही थी तथा 1971 के चुनावों में उनके द्वारा दिया गया ‘गरीबी हटाओ’ का नारा भी दम तोड़ता नज़र आ रहा था।

11. कर्मचारियों की खराब दशा (Pitiable Condition of the Employees):
कीमतों के बढ़ने से सरकारी कर्मचारियों की दशा खराब होने लगी, क्योंकि उनका वेतन निश्चित था तथा उस वेतन से वे बढ़ती हुई महंगाई में अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पा रहे थे।

12. बोनस की समाप्ति (Abolition of Bonus):
कांग्रेस पार्टी ने सार्वजनिक क्षेत्रों के कर्मचारियों के बोनस को भी समाप्त कर दिया, जिससे कर्मचारी वर्ग भी कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध हो गया।

13. प्रेस पर प्रतिबन्ध (Censorship on Press):
आपात्काल के समय श्रीमती गांधी ने प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कोई भी समाचार-पत्र या पत्रिका सरकार एवं कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध नहीं लिख सकती थी। समाचार-पत्र एवं पत्रिका में प्रकाशित होने वाली खबरों को पहले सरकार द्वारा पास किया जाता था। इस तरह के प्रतिबन्ध से भी लोगों में असन्तोष था।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपरोक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार एवं जनता पार्टी की जीत के कई कारण थे, परन्तु उस समय महत्त्वपूर्ण कारण आपात्काल की घोषणा थी, जिसके कारण अधिकांश मतदाता कांग्रेस के विरुद्ध हो गये।

प्रश्न 9.
1977 के लोकसभा चुनावों के किन्हीं तीन निष्कर्षों का वर्णन करें।
उत्तर:
1977 के छठे आम चुनाव कई कारणों से भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। इन चुनावों में पहली बार केन्द्र में कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा तथा उसका भारतीय राजनीति पर एकाधिकार पूरी तरह समाप्त हो गया। 1977 के लोकसभा चुनावों के तीन निष्कर्ष निम्नलिखित रहे

1. कांग्रेस के एकाधिकार की समाप्ति:
1977 के चुनावों का सबसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह रहा कि पिछले तीन दशकों से कांग्रेस पार्टी का चला आ रहा प्रभुत्व समाप्त हो गया।

2. केन्द्र में प्रथम गठबंधन सरकार का निर्माण:
1977 के चुनावों के पश्चात् केन्द्र में पहली बार गठबंधन सरकार का निर्माण हआ। विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी के झण्डे के नीचे गठबंधन सरकार का निर्माण किया। जनता पार्टी को मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में भारी सफलता प्राप्त हुई। 542 सीटों में से जनता पार्टी को 272 सीटें और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी को 28 सीटें प्राप्त हुईं।

चूंकि 1 मई, 1977 को कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी जनता पार्टी में विलय हो गई, इसलिए जनता पार्टी की लोकसभा में संख्या 300 हो गई। याद रहे, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने जनता पार्टी के झंडे और चुनाव चिन्ह पर ही चुनाव लड़ा था। इस प्रकार जनता पार्टी ने कांग्रेस को करारी हार दी, अत: जनता पार्टी की सरकार बनी। यह प्रथम अवसर था जब केंद्र में गैर-कांग्रेस सरकार की स्थापना हुई थी।

3. नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ:
1977 के चुनावों के पश्चात् कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों के संघ का निर्माण किया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था, संवैधानिक संगठनों को उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। इस संगठन के कार्यकर्ता मानवाधिकारों के हनन की जाँच करके उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की शरण भी लेते थे।

प्रश्न 10.
नागरिक स्वतन्त्रताओं के संगठनों के उदय का वर्णन करें।
उत्तर:
1975 में सरकार द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा ने भारतीय लोगों में कई सन्देह पैदा कर दिये। लोगों में स्वतन्त्र भारत में पहली बार यह सन्देह पैदा हुआ कि जिस लोकतन्त्र को वे अपने अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी मानते थे, उसी लोकतन्त्र का सहारा लेकर सरकार ने आपात्काल की घोषणा कर दी तथा लोगों के सभी प्रकार के अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। आपात्काल के समय लोगों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया, प्रैस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, न्यायपालिका की शक्ति को सीमित कर दिया गया तथा जो लोग आपात्काल का विरोध करते थे, उन्हें जेलों में डाल दिया जाता था।

आपात्काल के समय निरोधक नज़रबन्दी का भी बहुत प्रयोग किया गया। इससे पता चलता है कि जो धाराएं लोगों के जीवन की सुरक्षा की गारंटी हैं, उनमें भी कुछ कमियां मौजूद हैं। अतः आपात्काल की समाप्ति के पश्चात् यद्यपि लोकतन्त्र की स्थापना हुई, परन्तु उसमें नागरिक समाज की सीमा में वृद्धि कर दी गई। आपात्काल से पहले लोगों ने नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की आवश्यकता अनुभव नहीं की, परन्तु आपात्काल के समय एवं इसके पश्चात् लोगों को इसकी कमी अनुभव होने लगी। अतः आपात्काल एवं इसके पश्चात् नागरिक स्वतन्त्रता संगठनों के उदय एवं प्रसार में कुछ प्रगति हुई जिसका वर्णन इस प्रकार है

1. नागरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का उदय (Rise of Civil Liberties Movements):
आपात्काल की घोषणा से कुछ समय पहले सरकार ने न्यायपालिका, वैज्ञानिक संस्थाओं के विकास एवं सामाजिक आर्थिक उन्नति के लिए कुछ पद्धतियों का वर्णन किया, जिसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा दिया गया 20 सूत्रीय कार्यक्रम एवं संजय गांधी द्वारा दिया गया 4 सूत्रीय कार्यक्रम शामिल है। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य ग़रीबी हटाने के लक्ष्य को प्राप्त करना था, जिसमें कि देश का सामाजिक एवं आर्थिक विकास हो सके। परन्तु साथ ही इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वचनबद्ध नौकरशाही एवं वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा की मांग की गई। सरकार ने यह आशा प्रकट की कि सभी लोग इसमें अपना सहयोग दें।

2. गांधीवादी दृष्टिकोण (Gandhian Approach):
गांधीवादी दृष्टिकोण जयप्रकाश नारायण से सम्बन्धित था। जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के समय दल विहीन लोकतन्त्र तथा पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन को भी इसमें शामिल किया। जयप्रकाश नारायण ने इसके लिए गुजरात एवं बिहार के युवा छात्रों को शामिल किया तथा एक नवनिर्माण समिति का गठन किया।

इस समित्ति का उद्देश्य सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को समाप्त करना था। इन सभी कारणों से भारत में नागरिक स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा का आन्दोलन शुरू हुआ तथा इससे नागरिक स्वतन्त्रता के लिए लोगों का संगठन एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ नाम के दो संगठन सामने आए।

3. नक्सलवादी दृष्टिकोण (Naxalite’s Approach):
नक्सलवादी पद्धति बंगाल, केरल एवं आन्ध्र प्रदेश में सक्रिय थी। नक्सलवाद वामदलों से अलग हुआ गुट था, क्योंकि इनका वामदलों से मोह भंग हो गया था। इन्होंने लोगों की स्वतन्त्रता एवं मांगों को पूरा करने के लिए हिंसा का सहारा लिया, परन्तु सरकारों ने इस प्रकार के आन्दोलन को समाप्त करने के लिए बल प्रयोग का सहारा लिया।

4. नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ (People’s Union for Civil Liberties and Democratic Rights):
नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्तबर. 1976 में हआ। संगठन ने न केवल आपातकाल में ही बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा। क्योंकि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में भी प्रायः मानवाधिकारों का हनन होता रहता है।

कई युवाओं को नक्सलवादी कहकर मार दिया जाता है, जबकि वे नक्सलवादी नहीं होते। 1980 में नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया, तथा इस संगठन का प्रचार-प्रसार पूरे देश में किया गया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था। यह संगठन संवैधानिक संगठनों को भी उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। यह संगठन मानवाधिकारों के हनन की जांच करके, उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार-विमर्श करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की शरण भी लेते थे।

नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की समस्याएं (Problems of the Organisation of Civil Liberties) नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों के संघ को अपने कार्यों एवं लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कई प्रकार की समस्याओं . का भी सामना करना पड़ता है, जिनका वर्णन इस प्रकार है लोकतान्त्रिक व्यवस्था का संकट

  • प्रायः इस प्रकार की संस्थाओं को राष्ट्र विरोधी कहकर इनकी आलोचना की जाती है।
  • नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की गतिविधियां आतंकवादियों से भी प्रभावित रही हैं।
  • नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की सफलता से कुछ ऐसे असामाजिक तत्त्व भी इसमें शामिल हो गए हैं, जो इन संगठनों की विश्वसनीयता को अपनी गतिविधियों से कम कर रहे हैं।
  • कुछ तथाकथित ऐसे समाज सुधारक भी इन संगठनों से जुड़ गए हैं, जिनके लिए यह केवल एक व्यवसाय

प्रश्न 11.
जिन सरकारों को लोकतन्त्र विरोधी माना जाता है, मतदाता उन्हें भारी दण्ड देते हैं। 1975-1977 की आपातकालीन स्थिति के सन्दर्भ में इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
1975 में श्रीमती गांधी के लिए राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी खराब हो गईं कि उन्हें 25 जून, 1975 को भारत में पहली बार आन्तरिक सुरक्षा के आधार पर आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। इससे पहले जब भी आपात्काल की घोषणा की गई, वह युद्ध के समय की गई थी। राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई।

आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात तथा तमिलनाडु की विधानसभाओं को भंग कर दिया। आन्तरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act-MISA) के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

इस दौरान प्रेस की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगा दी गई। लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में श्रीमती गांधी ने आपात्काल की घोषणा समाप्त कर दी तथा नये चुनाव करवाये। इन चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, यहां तक कि श्रीमती गांधी स्वयं भी चुनाव हार गईं। भारतीय मतदाताओं ने आपातकाल के दौरान की गई गलतियों के लिए कांग्रेस सरकार को दण्डित किया। नोट-आपात्काल में कांग्रेस द्वारा की गई गलतियों के लिए प्रश्न नं० 8 देखें।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 12.
“सरकार अगर अस्थिर हो और इसके भीतर झगड़े हों तो मतदाता ऐसी सरकार को कड़ा दण्ड देते हैं।” जनता पार्टी के शासन के सन्दर्भ में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जनता पार्टी की स्थापना का वही महत्त्व है जो स्वतन्त्रता के पूर्व कांग्रेस पार्टी की स्थापना का था। यदि कांग्रेस पार्टी ने भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाया और उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान की तो जनता पार्टी ने कांग्रेस सरकार विशेषकर श्रीमती इन्दिरा गांधी, संजय गांधी व बंसी लाल की तानाशाही से जनता को राहत दिलाई। 1 मई, 1977 का दिवस स्वतन्त्र भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाएगा।

भविष्य के इतिहासकार 1 मई, 1977 को उसी दृष्टि से देखेंगे जिस प्रकार कल के इतिहासकार 1855 सन् को देखते हैं। यद्यपि 1 मई, 1977 को जनता पार्टी का विधिवत् जन्म हुआ, परन्तु व्यवहार में जनता पार्टी की स्थापना जनवरी, 1977 में हो गई थी। 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को भारी एवं ऐतिहासिक चुनावी सफलता मिली तथा मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।

परन्तु यह सरकार सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाई, जिसके कई कारण थे। इस पार्टी के घटक दलों में तालमेल का अभाव था। प्रत्येक नेता बड़े पद की इच्छा रखे हुए था जिसके कारण इनमें लगातार खींचातान चलती रही। जनता पार्टी के पास एक ठोस कार्यक्रम, नीति एवं दिशा का अभाव था। यह पार्टी कांग्रेस की नीतियों में कोई मूलभूत बदलाव नहीं ला सकी।

धीरे-धीरे जनता पार्टी में आन्तरिक कलह बढ़ती गई, परिणामस्वरूप मोरारजी देसाई की सरकार ने 18 माह बाद ही अपना बहुमत खो दिया। इसके पश्चात् चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमन्त्री बने, परन्तु वे भी अधिक समय तक सत्ता नहीं सम्भाल सके। परिणामस्वरूप 1980 के चुनावों में जनता ने जनता पार्टी को हराकर पुनः श्रीमती इन्दिरा को जिता दिया तथा जनता पार्टी को इसकी अस्थिरता एवं आन्तरिक झगड़े की सज़ा दी।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘वचनबद्ध नौकरशाही’ क्या है ?
अथवा
बचनबद्ध नौकरशाही से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
वचनबद्ध अथवा प्रतिबद्ध (Committed) नौकरशाही का अर्थ यह है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बंधी हुई रहती है और उस दल के निर्देशन में ही कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आंखें मूंद कर लागू करना होता है। लोकतान्त्रिक देशों में नौकरशाही प्रतिबद्ध नहीं होती।

इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड आदि देशों में नौकरशाही प्रतिबद्ध नहीं है, परन्तु साम्यवादी देशों में जैसे कि चीन में वचनबद्ध नौकरशाही पाई जाती है। चीन में एक ही राजनीतिक दल (साम्यवादी दल) है और वहां पर नौकरशाही साम्यवादी दल के सिद्धान्तों एवं लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। नौकरशाही का परम कर्त्तव्य साम्यवादी दल के लक्ष्यों को पूरा करने में सहयोग देना है।

भारत में भी प्रतिबद्ध नौकरशाही की बात कही जाती है, परन्तु भारत में नौकरशाही किसी दल के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध न होकर संविधान के प्रति वचनबद्ध है। कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो, नौकरशाही का कार्य राजनीतिक कार्यपालिका की नीतियों को नियम के अनुसार लागू करना है।

प्रश्न 2.
वचनबद्ध न्यायपालिका से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
वचनबद्ध न्यायपालिका से अभिप्राय ऐसी न्यायपालिका से है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफ़ादार हो तथा सरकार के निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही चले। 1973 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों श्री जे०एम० शैलट, श्री के०एस० हेगड़े तथा श्री ए०एन० ग्रोवर की उपेक्षा करके श्री ए०एन० राय को नियुक्त किया। इस नियुक्ति से उस समय एक राजनीतिक एवं न्यायिक विवाद पैदा हो गया। श्री ए०एन० राय की नियुक्ति के विरोध में तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पद से त्याग दिया। इससे यह प्रश्न उठने लगा कि क्या न्यायपालिका सरकार के प्रति वचनबद्ध होनी चाहिए या स्वतन्त्र। प्रश्न 3. भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा का उदय कैसे हुआ ?
उत्तर:
1973 में स्वामी केशवानन्द भारती एवं अन्य ने 24वें तथा 25वें संवैधानिक संशोधनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। ये संशोधन संसद् को सभी अधिकारों में हस्तक्षेप से सम्बन्धित थे, जिसमें समुदाय बनाना तथा धर्म की स्वतन्त्रता भी शामिल थी। स्वामी केशवानन्द भारती मुकद्दमे की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की एक 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने की। 13 में से 9 न्यायाधीशों ने यह निर्णय दिया कि संसद् मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।

इस निर्णय से सरकार एवं न्यायपालिका में मतभेद बढ़ गए, क्योंकि 1973 में सरकार का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गांधी कर रही थीं, अत: यह विवाद श्रीमती गांधी एवं न्यायालय के बीच हुआ, जिसमें जीत न्यायालय की हुई, क्योंकि न्यायालय ने संसद् की संविधान में संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया। इसी कारण श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को आगे बढ़ाया। 1975 में आपात्काल के समय वचनबद्ध न्यायपालिका का सिद्धान्त कार्यपालिका का सिद्धान्त बन गया।

प्रश्न 4.
‘वचनबद्ध’ न्यायपालिका के लिए इन्दिरा गांधी सरकार द्वारा किन उपायों का प्रयोग किया गया था ?
उत्तर:
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की। श्रीमती गांधी ने श्री ए०एन० राय को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी करके सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था।

2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा भी लिया। उन्होंने 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा।

3. रिक्त पदों को भरने से मना करना-सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से भी मना कर दिया।

4. अन्य पदों पर नियुक्तियां-सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे।

प्रश्न 5.
गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन कब आरम्भ हुआ ?
अथवा
गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर:
गुजरात में 1970 के दशक में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। अहमदाबाद के एल० डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नवनिर्माण का रूप धारण कर लिया। इस एक घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन उन लोगों के विरुद्ध था, जो हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के समर्थक थे। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनबाई पटेल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

नवनिर्माण आन्दोलन धीरे-धीरे सम्पूर्ण गुजरात में फैल गया तथा अनेक लोग इस आन्दोलन से जुड़ गए। कांग्रेस पार्टी ने नवनिर्माण आन्दोलन के विरुद्ध एक चुनावी रणनीति तैयार की, जिसे क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी तथा मुस्लिम मिलन (Kshatriya-Harijan-Adivasi-Muslim Combine-KHAM) का नाम दिया। 1980 के गुजरात विधानसभा चुनावों में इस योजना को सफलता मिली, परन्तु इससे उच्च जातियों को पहली बार यह अनुभव हुआ कि शक्ति उच्च वर्गों से निकलकर मध्यम वर्ग की ओर जा रही है।

प्रश्न 6.
‘बिहार आन्दोलन’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
अथवा
‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
बिहार आन्दोलन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में चलाया गया था। बिहार आन्दोलन शासन में भ्रष्टाचारी एवं अयोग्य कर्मचारियों के विरुद्ध चलाया गया था। इस आन्दोलन को पूर्ण या व्यापक क्रान्ति (Total Revolution) भी कहा जाता है। जय प्रकाश नारायण ने 1975 में बिहार के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि बिहार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज एवं व्यक्ति के सभी पक्षों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना है।

यह उद्देश्य ऐसा नहीं है, जिसे एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त कर लिया जाए, बल्कि अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक लम्बे समय तक बिहार आन्दोलन जारी रखना होगा। बिहार आन्दोलन में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को भी हल करने का प्रयास किया गया। जय प्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के चार पक्षों का वर्णन किया-प्रथम संघर्ष, द्वितीय निर्माण, तृतीय प्रचार तथा चतुर्थ संगठन। जय प्रकाश नारायण ने तात्कालिक परिस्थितियों में निर्माण कार्य पर अधिक जोर दिया।

प्रश्न 7.
आपात्काल के मुख्य चार कारण लिखो।
अथवा
1975 में आपात्काल की घोषणा के कोई चार कारण लिखिये।
अथवा
श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में की गई आपातस्थिति की घोषणा के कोई तीन कारण लिखिए।
उत्तर:
1. 1971 के युद्ध में अत्यधिक खर्च-1975 में लागू की गई आपात्काल की घोषणा का एक प्रमुख कारण 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई।

2. अधिक एवं अच्छी फसल का पैदा न होना-1972-73 में भारत में फसल भी अच्छी नहीं हुई। दूसरे शब्दों में सरकार को कृषि क्षेत्र में असफलता मिल रही थी।

3. गुजरात एवं बिहार आन्दोलन-आपात्काल की घोषणा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन तथा बिहार आन्दोलन था। इन दोनों आन्दोलनों ने श्रीमती गांधी को भयभीत कर दिया।

4. श्रीमती गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करना-श्रीमती गांधी द्वारा 1975 में आपात्काल की घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था।

प्रश्न 8.
आपातकाल के दौरान आम जनता व शासन पर नियन्त्रण के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए ?
उत्तर:
(1) आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात एवं तमिलनाडु विधानसभाओं को भंग कर दिया।

(2) मीसा (MISA) कानून के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

(3) सरकार ने जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबंदी कार्यक्रम चलाया।

(4) प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

प्रश्न 9.
1977 के चुनाव तथा जनता पार्टी के गठन का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की जनवरी, 1977 में चुनाव की घोषणा करने के पश्चात् जेलों में बन्द राजनीतिक नेताओं को धीरे-धीरे रिहा किया गया। कांग्रेस संगठन, जनसंघ, भारतीय लोकदल तथा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं और विद्रोही कांग्रेस नेताओं ने यह अनुभव किया कि प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की तानाशाही से छुटकारा पाने के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण अति आवश्यक है।

श्री जयप्रकाश नारायण 1974 से ही इन दलों को एक दल बनाने का आग्रह कर रहे थे, अत: श्री जयप्रकाश नारायण के प्रयासों के फलस्वरूप संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर जनवरी, 1977 में जनता पार्टी की स्थापना करके भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया। विद्रोही कांग्रेस सदस्य चन्द्रशेखर, मोहन धारिया और रामधन आदि भी जनता पार्टी में शामिल हुए। 1977 के चुनावों में जनता पार्टी ने 542 सीटों में से 300 सीटें जीतीं। इस प्रकार जनता पार्टी ने कांग्रेस को करारी हार दी।

प्रश्न 10.
सन् 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की विजय के कोई चार उत्तरदायी कारण लिखिए।
अथवा
1977 में हुए छठी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हार के कोई चार कारण बताएं।
उत्तर:
1. आपात्काल घोषणा-1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार एवं जनता पार्टी की जीत का स बड़ा एवं तात्कालिक कारण श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा थी। इस घोषणा के कारण अगले चुनावों में लोगों ने जनता पार्टी को वोट दिए।

2. संजय गांधी की भूमिका- आपात्काल के समय उत्तर-संवैधानिक तत्त्व के रूप में संजय गांधी का उभरना था। आपात्काल के समय संजय गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका के प्रति लोगों में असन्तोष था।

3. मीसा कानून-आपात्काल के दौरान श्रीमती गांधी ने मीसा कानून लागू किया, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए तथा मुकद्दमा चलाए जेल में डाल दिया जाता था। इस कानून के कारण किसी भी व्यक्ति का जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति सुरक्षित नहीं थी।

4. संवैधानिक संशोधन- आपात्काल के समय सरकार ने संविधान में 39वां एवं 42वां संशोधन करके न्यायपालिका की शक्तियों को घटाकर कार्यपालिका की शक्तियों को बढ़ा दिया। इस प्रकार के संशोधन संविधान की मूल भावना के विरुद्ध थे।

प्रश्न 11.
नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्तूबर, 1976 में हुआ। इस संगठन ने न केवल आपात्काल में ही बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा। क्योंकि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में भी प्राय: मानवाधिकारों का हनन होता रहता है। उदाहरण के लिए कई युवाओं को नक्सलवादी कहकर मार दिया जाता है, जबकि वे नक्सलवादी नहीं होते हैं।

1980 में नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया तथा इस संगठन का प्रचार-प्रसार पूरे देश में किया गया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था, संवैधानिक संगठनों को उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। इस संगठन के कार्यकर्ता मानवाधिकारों के हनन की जांच करके उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की शरण भी लेते थे।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 12.
आपात्काल से हमें मिलने वाली किन्हीं चार शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • आपातकाल की पहली शिक्षा तो यह है कि भारत से लोकतंत्र को समाप्त कर पाना बहुत कठिन है।
  • आपात्काल के समय आपातकाल से सम्बन्धित कुछ प्रावधानों में उलझाव सामने आए जिसे बाद में ठीक कर लिया गया।
  • आपात्काल से प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ।
  • नौकरशाही तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र रखना चाहिए, ताकि लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सके।

प्रश्न 13.
1975 में आपात्काल की घोषणा के कोई चार परिणाम लिखिए।
उत्तर:
(1) आपात्काल का विरोध करने के लिए लगभग सभी विरोधी दल एकत्र हो गए तथा लोगों को आपातकाल के विरुद्ध आन्दोलन करने के लिए प्रेरित करने लगे। इन दलों ने आपस में मिलकर जनता पार्टी नाम के एक दल का भी निर्माण किया।

(2) आपातकाल के दौरान ही नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्तूबर, 1976 में हुआ। इस संगठन ने न केवल आपात्काल में ही बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा।

(3) आपात्काल के समय 42वां संवैधानिक संशोधन पास हुआ। (4) आपात्काल की घोषणा के कारण 1977 के चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
‘वचनबद्ध नौकरशाही’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
वचनबद्ध नौकरशाही से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ यह है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बन्धी हुई रहती है और उस दल के निर्देशों से ही कार्य करती है। वचनबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती, बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आंखें मूंद कर लागू करना होता है।

प्रश्न 2.
‘वचनबद्ध न्यायपालिका’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
वचनबद्ध न्यायपालिका से अभिप्रायः ऐसी न्यायपालिका से है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफ़ादार हो तथा उसके निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही चले। 1973 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा करके श्री ए०एन० राय को नियुक्त किया, जिससे वचनबद्ध न्यायपालिका से सम्बन्धित विवाद पैदा हो गया।

प्रश्न 3.
वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए सरकार द्वारा प्रयोग किये गए किन्हीं दो उपायों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी की।
  • सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफ़ादार थे।

प्रश्न 4.
भारतीय न्यायपालिका को स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष बनाये रखने के लिए संविधान में क्या उपाय किये गए हैं ?
उत्तर:

  • न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
  • न्यायाधीशों की योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है।
  • न्यायाधीश एक निश्चित आयु पर सेवानिवृत्त होते हैं।
  • न्यायाधीशों को केवल महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है।

प्रश्न 5.
गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
गुजरात में 1970 के दशक में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। अहमदाबाद के एल०डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया। गुजरात नव-निर्माण आन्दोलन उन लोगों के विरुद्ध था, जो हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के समर्थक थे। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमन भाई पटेल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

प्रश्न 6.
आपात्काल से पूर्व बिहार आन्दोलन कब और किसके नेतृत्व में चलाया गया ?
अथवा
1974 में बिहार आन्दोलन को किस नाम से पुकारा जाता है और उसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर:
बिहार आन्दोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में चलाया गया था। जयप्रकाश नारायण ने इसे पूर्ण या व्यापक क्रान्ति भी कहा है। जयप्रकाश नारायण ने 1975 में बिहार के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि बिहार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज एवं व्यक्ति के सभी पक्षों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना है। यह उद्देश्य ऐसा नहीं है, जिसे एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त कर लिया जाए, बल्कि अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक लम्बे समय तक बिहार आन्दोलन जारी रखना होगा।

प्रश्न 7.
जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के कितने पक्षों का वर्णन किया और तात्कालिक परिस्थितियों में किस पक्ष पर अधिक जोर देने के लिए कहा ?
उत्तर:
जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के चार पक्षों-प्रथम संघर्ष, द्वितीय निर्माण, तृतीय प्रचार एवं चतुर्थ संगठन का वर्णन किया तथा तात्कालिक परिस्थितियों में निर्माण कार्य पर अधिक बल दिया।

प्रश्न 8.
1975 में की गई आपात्काल घोषणा के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:
(1) 1975 में लागू की गई आपात्काल की घोषणा का एक मुख्य कारण 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई।

(2) श्रीमती गांधी द्वारा 1975 में आपात्काल की घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था।

प्रश्न 9.
1977 के आम चुनावों में जनता पार्टी की जीत के कोई दो कारण बताएं।
अथवा
1977 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:
(1) 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार एवं जनता पार्टी की जीत का सबसे बड़ा एवं तात्कालिक कारण श्रीमती गांधी द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा थी।

(2) आपात्काल के समय उत्तर-संवैधानिक तत्त्व के रूप में संजय गांधी का उभरना था। आपात्काल के समय संजय गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका के प्रति लोगों में असन्तोष था।

प्रश्न 10.
आपात्काल से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
श्रीमती गांधी ने 25 जून, 1975 को भारत में पहली बार आन्तरिक सुरक्षा के आधार पर आपात्काल की घोषणा की। इससे पहले जब भी आपात्काल की घोषणा की गई, वह युद्ध के समय की गई थी। राष्ट्रपति फखरूदीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई।

आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया उन्होंने गुजरात तथा तमिलनाडु की विधानसभाओं को भंग कर दिया। आन्तरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act MISA) के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

प्रश्न 11.
‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
1980 में नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था, संवैधानिक संगठनों को उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। इस संगठन के कार्यकर्ता मानवाधिकारों के हनन की जांच करके उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की भी शरण लेते थे।

प्रश्न 12.
नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की किन्हीं दो समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:

  • प्रायः नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों को राष्ट्र विरोधी कहकर इनकी आलोचना की जाती है।
  • कुछ तथाकथित ऐसे समाज सुधारक भी इन संगठनों से जुड़ गए हैं, जिनके लिए यह केवल एक व्यवसाय है।

प्रश्न 13.
प्रेस सेंसरशिप किसे कहा जाता है ?
उत्तर:
प्रेस सेंसरशिप का अर्थ है कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कुछ भी छापने या दिखाने से पहले उसकी स्वीकृति सरकार से लेनी होती है। सरकार ही इस बात का निर्णय करती है कि क्या दिखाया या छापना चाहिए और क्या नहीं। सन् 1975-1977 में आपात्काल के दौरान सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना ज़रूरी है।

प्रश्न 14.
आपात्काल के दौरान पुलिस एवं नौकरशाहों की स्थिति कैसी थी ?
उत्तर:
आपात्काल के दौरान पुलिस एवं नौकरशाही सरकार के साथ रही। पुलिस ने मनमाने ढंग से लोगों को गिरफ्तार करके सरकार की सहायता की एवं नौकरशाही सरकार के प्रति वचनबद्ध बनी रही।

प्रश्न 15.
चारू मजूमदार का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
चारू मजूमदार एक क्रान्तिकारी समाजवादी नेता थे। उनका जन्म 1918 में हुआ। चारू मजूमदार ने तिभागा आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इन्होंने भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की स्थापना की। वे किसान विद्रोह के माओवादी धारा में विश्वास रखते थे। 1972 में पुलिस हिरासत में उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 16.
लोकनायक जय प्रकाश नारायण का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म 1902 में हुआ। वे मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे। उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सा लिया। स्वतन्त्रता के बाद नेहरू डल में शामिल होने से मना किया। वे बिहार आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। 1979 में उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 17.
मोरारजी देसाई के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
मोरारजी देसाई 1977 से 1979 तक देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री थे। उनका जन्म 1896 में हुआ। वे स्वतन्त्रता सेनानी तथा गांधीवादी नेता थे। वे बांबे प्रांत के मुख्यमन्त्री भी रहे हैं। 1969 में कांग्रेस के पश्चात् वे कांग्रेस (ओ) में शामिल हुए। 1995 में उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 18.
चौ० चरण सिंह का जीवन परिचय लिखें।
उत्तर:
चौ० चरण सिंह 1979 में भारत के दूसरे गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री बने। वे एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे ग्रामीण एवं कृषि विकास के समर्थक थे। 1967 में उन्होंने भारतीय क्रान्ति दल की स्थापना की। वे उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमन्त्री बने। 1987 में उनका निधन हो गया।

प्रश्न 19.
जगजीवन राम के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
जगजीवन राम का जन्म 1908 में हुआ। वे बिहार के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता एवं स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे संविधान सभा के सदस्य थे। 1977-1979 के बीच वे देश के उप-प्रधानमन्त्री रहे। उन्होंने स्वतन्त्रता के बाद नेहरू मन्त्रिमण्डल में श्रम मन्त्री का कार्यभार सम्भाला। उनका निधन 1986 में हो गया।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 20.
जनता पार्टी के गठन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
जनता पार्टी का गठन आपात्काल के पश्चात् 1 मई, 1977 को विधिवत रूप से हुआ। इस पार्टी में अधिकांश वे दल एवं नेता शामिल थे, जिन्होंने आपात्काल का विरोध किया था जैसे कांग्रेस संगठन, जनसंघ, भारतीय लोकदल तथा सोशलिस्ट पार्टी इत्यादि। जय प्रकाश नारायण ने इस पार्टी के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मोरारजी देसाई को पार्टी का अध्यक्ष एवं चौ० चरण सिंह को पार्टी का उपाध्यक्ष चुना गया था।

प्रश्न 21.
इन्दिरा गांधी की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर:
इन्दिरा गांधी की मृत्यु 31 अक्तूबर, 1984 को हुई।

प्रश्न 22.
इंदिरा गांधी के ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ में शामिल किन्हीं चार विषयों का नाम लिखें।
उत्तर:

  • भूमि सुधार।
  • भू-पुनर्वितरण।
  • खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार।
  • प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी।

प्रश्न 23.
‘नक्सलवादी आन्दोलन’ क्या है ?
उत्तर:
सन् 1964 में साम्यवादी दल में फूट पड़ गई। दोनों दलों के संसदीय राजनीति में व्यस्त होने के कारण इन दलों के सक्रिय व संघर्षशील कार्यकर्ता दलों से अलग होकर जन कार्य करने लगे । सन् 1967 में बंगाल में साम्यवादी दल की सरकार बनी। इसी समय दार्जिलिंग में नक्सलवाड़ी नामक स्थान पर किसानों ने विद्रोह कर दिया।

यद्यपि पश्चिमी बंगाल की सरकार ने इसे दबा दिया। परन्तु इस आन्दोलन की प्रतिक्रिया पंजाब, उत्तर प्रदेश और कश्मीर में भी हुई। इससे नक्सलवाड़ी आन्दोलन का विरोध किया गया। जिसके परिणामस्वरूप मई, 1967 में भारी हिंसक घटनाएं हुईं। यह आन्दोलन तेज़ी से राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया।

प्रश्न 24.
डॉ० राम मनोहर लोहिया कौन थे ?
उत्तर:
डॉ० राम मनोहर लोहिया भारत के एक महान् समाजवादी चिंतक थे। उनका जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर-प्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था। सन् 1952 में उन्होंने प्रजा समाजवादी दल का निर्माण किया। सन् 1967 के चौथे आम चुनावों के परिणामों को उन्होंने ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का युग बनाया।

प्रश्न 25.
आपात्काल ने जनसंचार के साधनों पर क्या प्रभाव डाला ?
उत्तर:
आपात्काल ने जनसंचार के साधनों पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव डाला। मीडिया को नियन्त्रित करने के लिए प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न 

1. किस भारतीय नेता ने वचनबद्ध नौकरशाही एवं वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को जन्म दिया ?
(A) पं० जवाहर लाल नेहरू
(B) सरदार पटेल
(C) श्रीमती इन्दिरा गांधी
(D) मोरारजी देसाई।
उत्तर:
(C) श्रीमती इन्दिरा गांधी।

2. 1973 में किस न्यायाधीश को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी करके भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया ?
(A) जे० एम० शैलट
(B) के० एस० हेगड़े
(C) एन० एन० ग्रोवर
(D) ए० एन० राय।
उत्तर:
(D) ए० एन० राय।

3. केशवानन्द भारती मुकद्दमे का निर्णय कब हुआ ?
(A) 1973
(B) 1971
(C) 1977
(D) 1976
उत्तर:
(A) 1973

4. किस मुकद्दमे में संविधान के मूलभूत ढांचे की धारणा का जन्म हुआ ?
(A) केशवानन्द भारती मुकद्दमा
(B) मिनर्वा मिल्स मुकद्दमा
(C) अयोध्या विवाद
(D) गोलकनाथ मुकद्दमा।
उत्तर:
(A) केशवानन्द भारती मुकद्दमा।

5. निम्नलिखित में से किस राज्य में नव-निर्माण’आन्दोलन चला’ था?
(A) पंजाब
(B) बिहार
(C) हरियाणा
(D) गुजरात।
उत्तर:
(D) गुजरात।

6. आपात्काल की समाप्ति के बाद देश में छठी लोकसभा के चुनाव कब हुए?
(A) जनवरी 1977 में
(B) मार्च 1977 में
(C) जनवरी 1978 में
(D) मार्च 1978 में।
उत्तर:
(B) मार्च 1977 में।

7. भारत में चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है
(A) राष्ट्रपति को
(B) संसद् को
(C) मुख्य न्यायाधीश को
(D) चुनाव आयोग को।
उत्तर:
(D) चुनाव आयोग को।

8. आपात्काल की घोषणा के समय भारत का प्रधानमंत्री कौन था?
(A) चौ० चरण सिंह
(B) श्री राजीव गांधी
(C) श्रीमती इंदिरा गांधी
(D) श्री मोरार जी देसाई।
उत्तर:
(C) श्रीमती इंदिरा गांधी।

9. जनता पार्टी की सरकार द्वारा आपात्काल की ज्यादतियों की जाँच हेतु ‘शाह आयोग’ की नियुक्ति कब की गई थी?
(A) मई 1976 में
(B) मई 1977 में
(C) मई 1978 में
(D) जून 1979 में।
उत्तर:
(B) मई 1977 में।

10. 1980 में हुए 7वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को कितने लोकसभा स्थानों पर विजय मिली ?
(A) 350
(B) 353
(C) 363
(D) 373
उत्तर:
(B) 353

11. देश में प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री निम्नलिखित में से कौन बना?
(A) श्री जगजीवन राम
(B) चौधरी चरण सिंह
(C) श्री मोरार जी देसाई
(D) श्री अटल बिहारी बाजपेयी।
उत्तर:
(C) श्री मोरार जी देसाई।

12. बिहार आन्दोलन को किसने चलाया ?
(A) जयप्रकाश नारायण
(B) लालू प्रसाद यादव
(C) मोरारजी देसाई
(D) अटल बिहारी बाजपेयी।
उत्तर:
(A) जयप्रकाश नारायण।

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13. आपात्काल की घोषणा कब की गई ?
(A) 25 जून, 1975
(B) 30 जून, 1975
(C) 13 अगस्त, 1975
(D) 1 नवम्बर, 1975
उत्तर:
(A) 25 जून, 1975

14. जनता पार्टी की स्थापना हुई
(A) 1976
(B) 1975
(C) 1977
(D) 1978
उत्तर:
(C) 1977

15. 1977 के आम चुनावों में किस पार्टी की विजय हुई ?
(A) कांग्रेस पार्टी
(B) जनता पार्टी
(C) भारतीय जनता पार्टी
(D) कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी।
उत्तर:
(B) जनता पार्टी।

16. 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को कितनी सीटें मिलीं ?
(A) 272
(B) 172
(C) 310
(D) 292
उत्तर:
(A) 272

17. 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं ?
(A) 53
(B) 153
(C) 253
(D) 309
उत्तर:
(B) 153

18. 1977 में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित किस संगठन का निर्माण हुआ ?
(A) नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ
(B) आपात्कालीन विरोधी संगठन
(C) तानाशाही विरोधी संगठन
(D) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ।

19. शाह आयोग की स्थापना किस सरकार ने की थी ?
(A) जनता पार्टी की सरकार
(B) कांग्रेस सरकार ने
(C) भारतीय जनता पार्टी की सरकार
(D) जनता दल की सरकार
उत्तर:
(A) जनता पार्टी की सरकार।

20. जनता पार्टी की सरकार द्वारा आपात्काल की ज्यादतियों की जांच हेतु शाह आयोग की नियुक्ति कब की गई ?
(A) मई 1977 में
(B) मई 1978 में
(C) मार्च 1976 में
(D) मार्च 1979 में।
उत्तर:
(A) मई 1977 में।

21. शाह आयोग के अनुसार निवारक नज़रबंदी कानून के अन्तर्गत लगभग कितने लोगों को गिरफ्तार किया गया ?
(A) 111000
(B) 90000
(C) 70000
(D) 85000
उत्तर:
(A) 111000

22. 1980 के लोकसभा के चुनाव में किस पार्टी को अधिकतम सीटें प्राप्त हुईं थीं ?
(A) कांग्रेस पार्टी
(B) जनता पार्टी
(C) साम्यवादी दल
(D) भारतीय जनता पार्टी।
उत्तर:
(A) कांग्रेस पार्टी।

23. 1980 के लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कितने सीटें मिलीं ?
(A) 153
(B) 253
(C) 353
(D) 410
उत्तर:
(C) 353

24. जनता पार्टी के पतन का कारण था ?
(A) गुटबाज़ी
(B) कल्याणकारी नीति
(C) शिक्षा नीति
(D) कर नीति।
उत्तर:
(A) गुटबाजी।

25. श्री मोरार जी देसाई कब प्रधानमन्त्री बने थे ?
(A) 1975
(B) 1976
(C) 1977
(D) 1964
उत्तर:
(C) 1977

26. चौ० चरण सिंह कब भारत के प्रधानमन्त्री बने थे ?
(A) 1980
(B) 1977
(C) 1967
(D) 1979
उत्तर:
(D) 1979

27. भारत में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान किस नेता ने किया था ?
(A) श्री मोरार जी देसाई
(B) श्री जय प्रकाश नारायण
(C) चौधरी चरण सिंह
(D) श्री बिनोवा भावे।
उत्तर:
(B) श्री जय प्रकाश नारायण।

28. 1947 में रेलवे कर्मचारियों की देशव्यापी हड़ताल का नेतृत्व किस नेता ने किया?
(A) श्री जय प्रकाश नारायण
(B) श्री जार्ज फर्नाडिंस
(C) श्री मोरार जी देसाई
(D) चौधरी चरण सिंह।
उत्तर:
(B) श्री जार्ज फर्नाडिंस।

29. भारत का प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री निम्नलिखित में से कौन था ?
(A) श्री जगजीवन राम
(B) श्री चौधरी चरण सिंह
(C) श्री मोरारजी देसाई
(D) श्री वी० पी० सिंह।
उत्तर:
(C) श्री मोरारजी देसाई।

30. ‘इन्दिरा इज इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’ का नारा निम्नलिखित में से किसने दिया था ?
(A) डी० के० बरूआ
(B) इन्दिरा गांधी
(C) संजय गांधी
(D) राजीव गांधी।
उत्तर:
(A) डी० के० बरूआ।

31. आपातकाल के दौरान हुए किस संवैधानिक संशोधन को ‘लघु संविधान’ तक कहा गया है ?
(A) 38वां संशोधन
(B) 39वां संशोधन
(C) 40वां संशोधन
(D) 42वां संशोधन।
उत्तर:
(C) 40वां संशोधन।

32. भारत में सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान निम्नलिखित में से किस नेता ने किया था?
(A) श्री मोरार जी देसाई
(B) चौधरी चरण सिंह
(C) श्री चारु मजूमदार
(D) श्री जय प्रकाश नारायण।
उत्तर:
(D) श्री जय प्रकाश नारायण।

निम्न रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

(1) ……………. भारतीय नेता ने वचनबद्ध नौकरशाही एवं वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को जन्म दिया।
उत्तर:
श्रीमती इंदिरा गांधी

(2) 1977 में …………. भारत के प्रधानमन्त्री बने।
उत्तर:
श्री मोरार जी देसाई

(3) 26 जून, 1975 को देश में ……………… की घोषणा की गई।
उत्तर:
आपातकाल

(4) जून 1975 को देश में आपात्काल की घोषणा प्रधानमंत्री ………… ने की।
उत्तर:
श्रीमती इंदिरा गांधी

(5) बिहार आन्दोलन के प्रमुख नेता …………… थे।
उत्तर:
जय प्रकाश नारायण

(6) 1975 में जय प्रकाश नारायण ने जनता के …………. का नेतृत्व किया।
उत्तर:
संसद् मार्च

(7) 1974 में देश में …………….. हड़ताल हुई।
उत्तर:
रेल

(8) सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मौलिक ढांचे की व्यवस्था ……….. के मुकद्दमे में दी।
उत्तर:
केशवानन्द भारती

(9) 1975 में आन्तरिक आपात्काल संविधान के अनुच्छेद ………… के अन्तर्गत लगाया गया।
उत्तर:
352

(10) 42वें संशोधन द्वारा लोकसभा का कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर ………. कर दिया गया।
उत्तर:
6 साल

(11) शाह आयोग का गठन ………….. में किया गया।
उत्तर:
मई

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
भारत में सम्पूर्ण क्रान्ति का आह्वान किस नेता ने किया?
उत्तर:
श्री जय प्रकाश नारायण ने।

प्रश्न 2.
किस संवैधानिक संशोधन द्वारा लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई थी ?
उत्तर:
42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न 3.
भारत में प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री कौन बना ?
उत्तर:
श्री मोरारजी देसाई।

प्रश्न 4.
भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही एवं प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ रूपी धारणा को किसने जन्म दिया?
उत्तर:
श्रीमती इंदिरा गांधी ने।

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प्रश्न 5.
1974 में छात्र आन्दोलन ने किस राज्य में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया?
उत्तर:
गुजरात में।

प्रश्न 6.
चौधरी चरण सिंह कब भारत के प्रधानमन्त्री रहे ?
उत्तर:
चौधरी चरण सिंह जुलाई 1979 से जनवरी 1980 के बीच भारत के प्रधानमन्त्री रहे।

प्रश्न 7.
1977 के चनाव के बाद भारत का प्रधानमन्त्री कौन बना ?
उत्तर:
1977 के चुनाव के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने।

प्रश्न 8.
प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई कितने समय तक प्रधानमन्त्री रहे ?
उत्तर:
मोरारजी देसाई 1977 से 1979 तक प्रधानमन्त्री रहे।

प्रश्न 9.
1977 का चुनाव विपक्ष ने किस नारे पर लड़ा ?
उत्तर:
विपक्ष ने ‘लोकतन्त्र बचाओ’ के नारे पर चुनाव लड़ा।

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