HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वचनबद्ध नौकरशाही से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
भारत में वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ स्पष्ट करें। इस अवधारणा के विकास एवं समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:
वचनबद्ध अथवा प्रतिबद्ध नौकरशाही का अर्थ यह है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बन्धी हुई रहती है और उस दल के निर्देशों से ही कार्य करती है। वचनबद्ध अथवा प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती, बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आंखें मूंद कर लागू करना होता है। साम्यवादी देशों में जैसे कि चीन में वचनबद्ध नौकरशाही पाई जाती है।

सितम्बर, 1991 तक सोवियत संघ में वचनबद्ध नौकरशाही पाई जाती रही है। चीन में एक ही राजनीतिक दल (साम्यवादी दल) है और वहां पर नौकरशाही साम्यवादी दल के सिद्धान्तों एवं लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। नौकरशाही का परम कर्त्तव्य साम्यवादी दल के लक्ष्यों को पूरा करने में सहयोग देना है।

भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही की बात कही जाती है, परन्तु नौकरशाही किसी दल के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध न होकर संविधान के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध है। लोकतन्त्र में वचनबद्ध नौकरशाही सफल नहीं हो सकती क्योंकि चुनाव के पश्चात् कोई भी दल सत्ता में आ सकता है। इसलिए प्राय: सभी लोकतान्त्रिक देशों में नौकरशाही की तटस्थता पर बल दिया जाता है ताकि नौकरशाही स्वतन्त्र और निष्पक्ष होकर कार्य कर सके।

संविधान में लोक सेवाओं की स्वतन्त्रता, निष्पक्षता एवं तटस्थता को बनाए रखने के लिए व्यापक रूप से व्यवस्था की गई है। अखिल भारतीय सेवाएं तथा केन्द्रीय सेवाओं की नियुक्ति राज्य सेवा आयोग द्वारा की जाती है और राज्य सेवाओं की नियुक्ति राज्य सेवा आयोग द्वारा की जाती है। लोक सेवा आयोग (Public Service Commission) की निष्पक्षता और स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में काफ़ी उपाय किए गए हैं। संघ या संयुक्त लोक सेवा

आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। लोक सेवा आयोग के सदस्य निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किए जाते हैं और उन्हें निश्चित अवधि से पूर्व राष्ट्रपति तभी हटा सकता है जब उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार का कोई गम्भीर अभियोग हो और इस विषय में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वारा भली प्रकार जांच करके यह निष्कर्ष न निकाल लिया हो कि अभियोग ठीक है।

लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता के अतिरिक्त लोक सेवाओं की स्वतन्त्रता तथा निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए भी कई प्रकार के उपाय किए गए हैं। लोक सेवाओं के सदस्यों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती है और योग्यता की जांच लिखित परीक्षा एवं इण्टरव्यू के आधार पर की जाती है। लोक सेवक एक स्थायी कर्मचारी होता है और रिटायर होने की आयु तक अपने पद पर रहता है।

संविधान के अनुसार किसी लोक सेवक को तब तक पद से हटाया या अवनत नहीं किया जा सकता, जब तक उसको दोष-पत्र (Charge Sheet) न दिया जाए और उसको अपनी रक्षा के लिए उसका उत्तर देने के लिए अवसर न दिया जाए। लोक सेवक राजनीतिक तौर पर तटस्थ होता है,

वह केवल अपने मत का प्रयोग कर सकता है। संविधान के अनुसार कानून द्वारा लोक सेवाओं, सेवाओं की शर्तों और नियुक्ति को नियमित करने की शक्ति विधानमण्डलों को है। लोक सेवक की सेवा की अवधि के उसके वेतन एवं भत्तों को उसके हितों के विरुद्ध परिवर्तित नहीं किया जा सकता और न ही उसे उसका छोटा अधिकारी दण्ड दे सकता है। लोक सेवक अपनी जिम्मेवारियों को तटस्थता से निभाते हैं और केवल संविधान के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध होते हैं।

परन्तु 1969 में वचनबद्ध नौकरशाही (Committed Bureaucracy) का प्रश्न काफ़ी महत्त्वपूर्ण बन गया, विशेषकर उस समय जब तत्कालीन स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने सार्वजनिक भाषणों में प्रशासनिक मशीनरी को देश की प्रगति में बाधा कह कर, उसकी आलोचना शुरू की। वचनबद्ध नौकरशाही का प्रश्न उस समय उत्पन्न हुआ जब कार्यकारिणी और न्यायालयों में झगड़ा उत्पन्न हुआ और अन्त में कांग्रेस पार्टी का विभाजन भी हुआ। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने नई नीति अपनाते हुए प्रत्येक समस्या को जनता के सामने प्रस्तुत करके अन्तिम निर्णय लेने की नीति अपनाई। स्वर्गीय इन्दिरा गांधी ने अपने विरोधियों पर चारों ओर से हमला किया और इसमें नौकरशाही की भी आलोचना की और इस बात पर बल दिया कि नौकरशाही वचनबद्ध होनी चाहिए।

यह विचार कि नौकरशाही ‘वचनबद्ध की भावना’ से ओत-प्रोत नहीं होनी चाहिए शीघ्र ही स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी के चेलों में लोकप्रिय हो गया। तत्कालीन कांग्रेस के अन्तरिम अध्यक्ष (Interim President) श्री जगजीवन राम ने पार्टी के बम्बई अधिवेशन में जो दिसम्बर, 1969 में हुआ, वचनबद्ध नौकरशाही के विचार को औपचारिक रूप दिया जब उन्होंने इस सिद्धान्त का अपने अध्यक्षीय भाषण में जोरदार समर्थन किया।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने नौकरशाही पर रूढ़िवादी होने का आरोप लगाना शुरू कर दिया और इस बात पर बल देना शुरू कर दिया कि नौकरशाही को जनता की इच्छाओं और राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति के अनुसार बदलना होगा। नियुक्ति की नीति इस प्रकार होनी चाहिए कि लोक सेवक सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो ताकि लोकतन्त्र, धर्म-निरपेक्षवाद तथा समाजवाद जैसे आदर्शों की पूर्ति की जा सके।
तत्कालीन स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी और उनके शिष्यों ने वचनबद्ध ‘नौकरशाही’ का समर्थन तो किया, रष्ट नहीं था कि वे ‘वचनबद्ध’ का क्या अर्थ लेते हैं।

उन्होंने जानबझ कर साम्यवादी देशों की वचनबद्ध नौकरशाही की प्रणाली का उल्लेख नहीं किया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के वचनबद्ध नौकरशाही के बारे में जो कुछ कहा उससे ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे वे ऐसी नौकरशाही चाहते हैं जो राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध हो। इसीलिए अशोक मेहता ने कहा था कि, “लोकतन्त्र में यह समझना आसान नहीं है कि ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का क्या अर्थ है। लोकतन्त्र प्रणाली में सरकारें बदलती हैं, उनके राजनीतिक उद्देश्यों में परिवर्तन आते रहते हैं, इसलिए यह समझना कठिन होता है कि नौकरशाही किन विचारों के लिए वचनबद्ध हो।”

‘वचनबद्ध नौकरशाही’ पर कांग्रेस के नेताओं के ज़ोर देने से उन लोगों में सन्देह उत्पन्न हो गया, जिन्होंने साम्यवादी देशों में ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का अध्ययन किया हुआ था। अतः वे यह समझने लगे कि ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का सिद्धान्त बड़ा खतरनाक है क्योंकि यह देश को सर्वसत्तावाद (Totalitarianism) की ओर ले जाएगा।

इस बात का भय था कि लोकतन्त्रात्मक सरकार के साथ यह सिद्धान्त मेल नहीं खाता और जब एक स्थान पर दूसरा दल सत्ता में आएगा तो अराजकता उत्पन्न हो जाएगी। ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का सिद्धान्त सर्वसत्तावाद राज्य में ही पनप सकता है। सी० राजगोपालाचार्य (C. Rajagopalachari) जैसे राजनीतिज्ञों ने वचनबद्ध नौकरशाही’ (Committed Bureaucracy) पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह सिद्धान्त देश को बर्बाद कर देगा।

‘हिन्दुस्तान टाइम्ज़’ (The Hindustan Times) के सम्पादक ने 3 दिसम्बर, 1969 को उस समय के राजनीतिक वातावरण के सन्दर्भ में लिखा था, “यदि सेवकों को श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार और नीतियों के प्रति, उड़ीसा है तो उनको दिल्ली में जनसंघ प्रशासन के प्रति, पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु के प्रति, उड़ीसा में स्वतन्त्र पार्टी के प्रशासन के प्रति, मद्रास में डी० एम० के० के प्रति, पंजाब में अकाली प्रशासन के प्रति आदि वचनबद्ध होना पड़ेगा।”

इसमें सन्देह नहीं है कि ‘वचनबद्ध नौकरशाही’ का विचार भारत के लिए बहुत खतरनाक है। इस सिद्धान्त का सम्बन्ध लोकतन्त्रात्मक प्रणाली से न होकर उस शासन प्रणाली से है जिसमें एक ही दल हो जैसे कि साम्यवादी देशों में। इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि नौकरशाही सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा के प्रति शपथबद्ध है। इसलिए यह सिद्धान्त उसी देश में लागू हो सकता है जहां पर एक ही विचारधारा निष्ठुरता से शासन कर रही हो।

लोकतन्त्रात्मक राज्यों में इस सिद्धान्त को नहीं अपनाया जा सकता क्योंकि लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में अनेक राजनीतिक दल होते हैं और दल सत्ता में आते-जाते रहते हैं। अत: नौकरशाही का परम कर्त्तव्य यह होता है कि वे तटस्थता से कुशलतापूर्वक अपने कार्यों को करें। उनका राजनीति एवं किसी दल की विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं होता। लोक सेवाओं की सेवाओं के नियमों के प्रति निष्ठा एवं श्रद्धा को ‘वचनबद्ध’ के विचार से नहीं मिलाया जाना चाहिए।

नौकरशाही की निष्पक्षता का मूल्यांकन (Critical Appraisal of Uncommitted Bureaucracy)
1971 के लोकसभा के चुनाव में स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और चुनाव के साथ ही वचनबद्ध नौकरशाही का खतरनाक सिद्धान्त समाप्त हो गया क्योंकि कांग्रेस को इतना अधिक बहुमत प्राप्त हुआ था कि अब लोकतन्त्रात्मक साधनों द्वारा अपने प्रगतिशील कार्यक्रम और सुधारों को लागू कर सकती थी। नौकरशाही की निष्पक्षता एवं स्वतन्त्रता को बनाए रखने में संघ लोक सेवा आयोग ने महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है।

संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य बटुक सिंह ने लोक सेवा आयोग को भारतीय लोकतन्त्र का मज़बूत स्तम्भ कहा है। संविधान की धाराएं संघ लोक सेवा आयोग को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से पूर्ण स्वतन्त्रता की गारण्टी देती हैं। परन्तु व्यावहारिक रूप में सरकार ने संविधान की धाराओं को इस प्रकार लागू किया है कि लोक सेवा की स्वतन्त्रता सीमित हो गई है और नौकरशाही की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता से वर्तमान सरकार ने खेलने की कोशिश की है तथा इसके लिए कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं

(1) संघ लोक सेवा आयोग अधिनियम 1958 के अनुसार सरकार के लिए कई प्रकार के अधिकारियों की नियुक्ति के लिए तदर्थ (Adhoc) नियुक्तियों के लिए और उन नियुक्तियों के लिए जहां पर नियुक्ति शीघ्र करना अनिवार्य है तथा उन नियुक्तियों का लोक सेवा आयोग में उल्लेख करने से अनावश्यक देरी होगी, संघ लोक सेवा आयोग को सलाह लेना अनिवार्य नहीं है।

यद्यपि हम उन कारणों से सरकार के साथ सहमत हैं जिनके कारण यह अधिनियम पास किया गया, परन्तु इस अधिनियम के गलत प्रयोग की सम्भावना भी बहुत अधिक है। इस अधिनियम के द्वारा सरकार बड़ी आसानी से लोक सेवा आयोग के क्षेत्राधिकार को सीमित कर सकती है। जिन अधिकारियों की नियुक्ति सरकार की इच्छा पर की गई है, वे स्वतन्त्र और निष्पक्ष नहीं हो सकते।

(2) नौकरशाही के वास्तविक रोल से स्पष्ट होता है कि कई अधिकारी सत्ता पार्टी के नेताओं की सहायता इसलिए करते हैं ताकि इनके कुछ लाभ उठा सकें। चुनाव के दिनों में नौकरशाही की सत्ता पार्टी की सहायता देखने लायक होती है और अधिकारी यह सहायता इसलिए करते हैं ताकि उनसे बाद में पदोन्नति, एवं अच्छी नौकरी प्राप्त कर सकें। प्रो० भाम्बरी (Bhambri) ने ठीक ही कहा है कि “भारतीय नौकरशाही कांग्रेस के शासन में कांग्रेस के साथ सांठ गांठ करके कांग्रेस के हित अथवा नेताओं के व्यक्तिगत हित के लिए काम करती है ताकि उनसे लाभ उठा सके।”

(3) भारतीय नौकरशाही की एक सर्वगत विशेषता भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार होने के कारण-वेतन कम होना, पदोन्नति के कम अवसर तथा कर्मचारियों में ईमानदारी का न होना इत्यादि है। कई बार तो भ्रष्टाचार के षड्यन्त्रों में बड़े-बड़े अधिकारी भी शामिल होते हैं और उन्हें कई बार राजनीतिज्ञों का सहयोग भी प्राप्त होता है।

(4) भ्रष्टाचार की तरह भारतीय नौकरशाही की एक विशेषता यह भी है कि यह जी-हजूरियों से भरी पड़ी है। नौजवान कर्मचारी शीघ्र ही समझ जाता है कि स्वतन्त्रता और स्पष्टवादिता से काम नहीं चलेगा और वह शीघ्र ही अपने बड़े अधिकारी की जी-हजूरी करनी शुरू कर देता है।

यह आम देखने में आया है कि जी-हजूरी करने वाले कर्मचारी शीघ्र पदोन्नति तथा अन्य लाभ प्राप्त कर लेते हैं जबकि ईमानदार और परिश्रमी कर्मचारी जी-हजूरी न करने के कारण कई वर्ष पदोन्नति प्राप्त नहीं कर पाते। गेरवाला (Gerwala) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि “अधिक कर्मचारी अपने बड़े अधिकारियों को चापलूसी द्वारा प्रसन्न करने में लगे रहते हैं, जिससे प्रशासन की कुशलता की क्षति होती है।”

निष्कर्ष (Conclusion)-इसमें सन्देह नहीं है कि भारतीय नौकरशाही में कई दोष पाए जाते हैं, परन्तु इसके बावजूद भारतीय नौकरशाही को ‘वचनबद्ध’ नहीं कहा जा सकता। भारतीय नौकरशाही स्वतन्त्र एवं लाल-फीताशाही (Red tapism), भ्रष्टाचार आशाभंग (Frustrations) इत्यादि बुराइयां शासन की देन हैं।

यद्यपि आलोचकों ने राज्य सेवा आयोग को ‘Packed house’ कहा है, तथापि संघ लोक सेवा आयोग को ऐसा नहीं कहा जा सकता। संघ लोक सेवा आयोग को भारतीय लोकतन्त्र के स्तम्भों में से एक स्तम्भ माना जाता है और संघ लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता पर ही नौकरशाही की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता काफ़ी सीमा तक निर्भर करती है।

प्रश्न 2.
वचनबद्ध न्यायपालिका से क्या तात्पर्य है ? वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए सरकार द्वारा प्रयोग किए गए उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1973 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों श्री जे० एम० शैलट, श्री के० एस० हेगड़े तथा श्री ए० एन० ग्रोवर की उपेक्षा करके श्री ए० एन० राय को नियुक्त किया। इस नियुक्ति से उस समय एक राजनीतिक एवं न्यायिक विवाद पैदा हो गया। श्री ए० एन० राय की नियुक्ति के विरोध में तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया। इससे यह प्रश्न उठने लगा कि क्या न्यायपालिका सरकार के प्रति वचनबद्ध होनी चाहिए या स्वतन्त्र ।

स्वतन्त्र न्यायपालिका की धारणा एवं भारतीय न्यायपालिका (Concept of Independent Judiciary and Indian Judiciary)-स्वतन्त्र न्यायपालिका से निम्नलिखित अर्थ लिया जाता है

  • न्यायपालिका का सरकार के अन्य विभागों से स्वतन्त्र होना।
  • न्यायपालिका द्वारा किये जाने वाले निर्णयों पर कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का प्रभाव नहीं होना चाहिए।
  • न्यायाधीश स्वतन्त्र हों, ताकि वे बिना किसी भय एवं पक्ष के निर्णय कर सकें।

भारत में सैद्धान्तिक तौर पर स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की व्यवस्था की गई। न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाए रखने के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं

  • न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
  • न्यायाधीशों की योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है।
  • न्यायाधीश एक निश्चित आयु पर सेवानिवृत्त होते हैं।
  • न्यायाधीशों के पद की सुरक्षा की गई है, उन्हें केवल महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है।
  • न्यायाधीशों को उचित वेतन एवं भत्ते दिए जाते हैं।
  • सेवानिवृत्त होने के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश किसी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते।

वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा का उदय (Origin of the Idea of Committed Judiciary)-1973 में स्वामी केशवानन्द भारती एवं अन्य ने 24वें तथा 25वें संवैधानिक संशोधनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। ये संशोधन संसद् को सभी अधिकारों में हस्तक्षेप करने से शामिल थे, जिसमें समुदाय बनाना तथा धर्म की स्वतन्त्रता भी शामिल थी। स्वामी केशवानन्द भारती मुकद्दमे की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की एक 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने की।

13 में से 9 न्यायाधीशों (श्री एस० एम० सीकरी, जे० एम० रौलट, के० एस० हेगड़े, ए० एन० ग्रोवर, बी० जगमोहन रेडी, डी० जी० पालेकर, एच० आर० खन्ना, ए० के० मुखर्जी तथा वाई० वी० चन्द्रचड) ने यह निर्णय । मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। चार अन्य न्यायाधीशों (श्री ए० एन० राय, के० के० मैथ्यू, एम० एच० बेग तथा एस० एन० द्विवेदी) ने इस निर्णय पर हस्ताक्षर नहीं किए।

केशवानन्द भारती के मुकद्दमे में सरकार एवं न्यायपालिका में मतभेद बढ़ गए, क्योंकि 1973 में सरकार का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गांधी कर रही थीं, अतः यह विवाद श्रीमती गांधी एवं न्यायालय के बीच हुआ, जिसमें जीत न्यायालय की हुई, क्योंकि न्यायालय ने संसद् की संविधान में संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया। इसी कारण श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को आगे बढ़ाया। 1975 में आपात्काल के समय वचनबद्ध न्यायपालिका का सिद्धान्त कार्यपालिका का सिद्धान्त बन गया।

वचनबद्ध न्यायपालिका के मा सरकार द्वारा प्रयोग किए गए उपाय (Tactics used by Govt. to make Committed Judiciary) तत्कालीन श्रीमती गांधी की सरकार ने न्यायपालिका को वचनबद्ध बनाने के लिए अग्रलिखित उपाय किए

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी (Supersession of Judges):
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की तथा उन न्यायाधीशों को पदोन्नत किया जो सरकार के प्रति वफादार थे। उदाहरण के लिए श्रीमती गांधी ने श्री जे० एम० शैलट, के० एस० हेगड़े तथा ए० एन० ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री ए० एन० राय को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया। अतः तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पदों से त्याग-पत्र दे दिया। 1977 में पुनः श्री एच० आर० खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री एम० एच० बेग को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया गया।

2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण (Transfer of Judges):
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा भी लिया। उन्होंने 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा तथा पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के० बी० एन० सिंह को मद्रास उच्च न्यायालय स्थानान्तरित करवाया।

3. रिक्त पदों को भरने से मना करना (Refusal to fill Vacancies):
सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से भी मना कर दिया या अपनी असमर्थता व्यक्त की।

4. कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश का प्रावधान (Provision of Acting Chief Justice):
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक प्रावधान को भी वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए प्रयोग किया गया।

5. अन्य पदों पर नियुक्तियां (Appointments on other Posts):
सरकार ने सेवा निवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे अथवा सरकार की नीतियों के अनुसार चलते थे।

6. अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of Temporary Judges):
वचनबद्ध न्यायपालिका का एक अन्य उपाय अस्थाई न्यायाधीशों की नियुक्ति करना था। सरकार अस्थाई तौर पर नियुक्ति करके न्यायाधीश की कार्यप्रणाली एवं व्यवहार का अध्ययन करती थी, कि वह सरकार के पक्ष में कार्य कर रहा है या विपक्ष में।

7. कम वेतन (Meagre Salaries):
न्यायाधीशों को अन्य विभागों के मुकाबले कम वेतन मिलता था।

8. न्यायपालिका की आलोचना (Criticism of Judiciary):
न्यायाधीशों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों की प्रायः अधिकारियों द्वारा आलोचना की जाती थी जबकि ऐसा करना संविधान के विरुद्ध था।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि भारत में एक समय ऐसा आया जब वचनबद्ध न्यायपालिका को बढ़ावा मिलने लगा था, परन्तु वास्तविकता यह है कि न्यायपालिका सभी प्रकार के बन्धनों से स्वतन्त्र होनी चाहिए तभी न्यायपालिका संविधान की रक्षा कर सकेगी तथा लोगों के अधिकारों की रक्षा कर सकेगी।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 3.
बिहार आन्दोलन एवं गुजरात के नव-निर्माण आन्दोलन ने भारतीय लोकतन्त्र को किस प्रकार प्रभावित किया ? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन (Navnirman Movement in Gujarat):
गुजरात में 1970 के दशक में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। 1960 के दशक में गुजरात के प्रमुख शहर अहमदाबाद में बहुत विकास कार्य हुए। इसी शहर से 1974 में गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई। अहमदाबाद के एल० डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबा गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

इस एक घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन उन लोगों के विरुद्ध था, जो हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के समर्थक थे। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनभाई पटेल को त्याग पत्र देना पड़ा। प्रायः यह कहा जाता है कि 1975 में श्रीमती गांधी ने जो आपात्काल की घोषणा की थी, उसका एक प्रमुख कारण गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन भी था।

नवनिर्माण आन्दोलन धीरे-धीरे सम्पूर्ण गुजरात में फैल गया तथा अनेक लोग इस आन्दोलन से जुड़ गए। कांग्रेस पार्टी ने नवनिर्माण आन्दोलन के विरुद्ध एक चुनावी रणनीति तैयार की, जिसे क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी तथा मुस्लिम मिलन का नाम दिया गया। 1980 के गुजरात विधानसभा चुनावों में इस योजना को सफलता भी मिली। परन्तु इससे उच्च जातियों को पहली बार यह अनुभव हुआ कि शक्ति उच्च वर्गों से निकल कर मध्यवर्ग की ओर जा रही है।

2. बिहार आन्दोलन (Bihar Movement):
बिहार आन्दोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में चलाया गया था। बिहार आन्दोलन शासन में भ्रष्टाचारी एवं अयोग्य कर्मचारियों के विरुद्ध चलाया गया था। इस आन्दोलन को पूर्ण या व्यापक क्रान्ति (Total Revolution) भी कहा जाता है। जयप्रकाश नारायण ने 1975 में बिहार के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि बिहार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज एवं व्यक्ति के सभी पक्षों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना है। यह उद्देश्य ऐसा नहीं है, जिसे एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त कर लिया जाए, बल्कि अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक लम्बे समय तक बिहार आन्दोलन को जारी रखना होगा।

बिहार आन्दोलन में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को भी हल करने का प्रयास किया गया। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विषय में बोलते हुए जय प्रकाश नारायण ने कहा कि ये जातियां आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी हुई हैं। उच्च जाति के लोगों द्वारा अब भी इन जातियों का शोषण किया जा रहा है।

कई बार तथाकथित उच्च जाति के लोग इन जातियों के लोगों को जिन्दा जला भी देते हैं। अत: इस समस्या के समाधान के लिए हल खोजना आवश्यक है। बिहार आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को इन अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विकास के लिए कार्य करना होगा। जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के चार पक्षों का वर्णन किया-प्रथम संघर्ष, द्वितीय निर्माण, तृतीय प्रचार तथा चतुर्थ संगठन।

जयप्रकाश नारायण ने तात्कालिक परिस्थितियों में निर्माण कार्य पर अधिक बल दिया। उनके अनुसार बिहार आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को समाज में से सामाजिक कुरीतियों (जातिवाद, छुआछूत, साम्प्रदायिकता तथा दहेज प्रथा) को दूर करना होगा। थामस वेबर का कहना है कि, जयप्रकाश नारायण दलविहीन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी इच्छा वास्तविक लोकतन्त्र के अन्तर्गत एक ऐसे समाज की स्थापना की थी, जिसमें असमानता न हो तथा सभी लोगों को अपने विकास के लिए समान अवसर प्राप्त हों।

जहां गुजरात में गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन चल रहा था, वहीं बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार आन्दोलन चल रहा था। इन दोनों आन्दोलनों ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार को भी चुनौतियां पेश की तथा श्रीमती गांधी ने इन आन्दोलनों के दबाव में आकर आपात्काल की घोषणा की।

प्रश्न 4.
1975 में की गई आपात्कालीन घोषणा के कारणों की विस्तृत व्याख्या करें।
उत्तर:
1970 का दशक भारतीय राजनीति के लिए सर्वाधिक परिवर्तनशील एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह दशक कांग्रेस पार्टी विशेषकर प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के लिए विशेष महत्त्व रखता है। जहां इस दशक के शुरुआत में (1971) पाकिस्तान को युद्ध में हराकर श्रीमती गांधी पूरे देश में लोकप्रिय हो गईं, वहीं 1975 तक आते-आते भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी बदल गईं कि श्रीमती गांधी को देश में आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। जो श्रीमती गांधी 1971 में देश में सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थीं, उन्हें अपनी रक्षा के लिए 25 जून, 1975 को आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी।

इतना ही नहीं 1977 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी एवं स्वयं श्रीमती गांधी को पराजय का सामना भी करना पड़ा। जून, 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी को निम्नलिखित कारणों से आपात्कालीन घोषणा करनी पड़ी

1.1971 के युद्ध में हुआ अत्यधिक खर्च (Enormous Expenditure of 1971 War):
1975 में लागू की गई आपात्काल की घोषणा का एक प्रमुख कारण 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। इसके अतिरिक्त पूर्वी पाकिस्तान से आए करोड़ों शरणार्थियों का भार भी भारत पर पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई। श्रीमती गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा धन के अभाव के कारण पूरी तरह सफल नहीं हो पाया, जिससे लोगों में असन्तोष फैला।

2. अधिक एवं अच्छी फसल का पैदा न होना (No Production of Enough and good crops):
1972 1973 में भारत में फसल भी अच्छी नहीं हुई। दूसरे शब्दों में सरकार को कृषि क्षेत्र में भी असफलता मिल रही थी, जिससे भारत का आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा था।

3. तेल संकट (Oil Crises):
1973 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल संकट पैदा हो गया। 1973 में ओपेक देशों (OPEC-Organisation of Pertroleum Exporting Countries) ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात मनवाने के लिए तेल का उत्पादन कम कर दिया। इसे तेल कूटनीति (Oil Diplomacy) के नाम से भी जाना जाता है। इस तेल संकट के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ गईं। तेल की कीमतें बढ़ने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी उसका प्रभाव देखा जाने लगा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति और खराब हो गई।

4. औद्योगिक उत्पाद में कमी (Decreasing Industrial Production):
भारत में प्रशिक्षित एवं कुशल वैज्ञानिकों, इंजीनियरों तथा कर्मचारियों के होने के बावजूद भी भारत के औद्योगिक उत्पाद में निरन्तर कमी हो रही थी, जिससे कर्मचारियों में असन्तोष बढ़ रहा था।

5. रेलवे की हड़ताल (Railway Strike):
1975 में की गई आपात्कालीन घोषणा का एक कारण रेलवे कर्मचारियों द्वारा की गई हड़ताल भी थी जिससे यातायात व्यवस्था बिल्कुल खराब हो गई।

6. गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन (Gujarat Navnirman Movement):
अहमदाबाद के एल० डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इस एक घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनभाई पटेल को त्याग-पत्र देना पड़ा। 1975 में श्रीमती गांधी ने जो आपात्काल की घोषणा की थी, उसका एक प्रमुख कारण गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन भी था।

7. बिहार आन्दोलन (Bihar Movement):
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में चलाया गया बिहार आन्दोलन भी 1975 में आपात्काल की घोषणा का एक प्रमुख कारण था, क्योंकि इस आन्दोलन के कारण जयप्रकाश नारायण ने लोगों को श्रीमती इन्दिरा गांधी के विरुद्ध एकजुट कर दिया था। बिहार आन्दोलन ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार को चुनौतियां पेश की तथा श्रीमती गांधी ने इन आन्दोलनों के दबाव में आपात्काल की घोषणा की। .

8. श्रीमती गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करना (Mrs. Gandhi’s Election Declare illegal) :
श्रीमती गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल की घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था। श्रीमती गांधी को छ: वर्ष तक संसद् की सदस्यता न ग्रहण करने की सज़ा दी गई। परन्तु अदालत ने श्रीमती गांधी को अपील का एक मौका देते हुए अपने निर्णय को स्थगित रखा।

अदालत ने साथ ही यह भी कहा कि श्रीमती गांधी अपना प्रधानमन्त्री का कार्यकाल पूरा कर सकती हैं, परन्तु इस दौरान वह न तो संसद् में भाषण दे सकती हैं, न ही किसी विषय में मतदान कर सकती हैं और न ही वेतन प्राप्त कर सकती हैं। इस प्रकार के निर्णय से श्रीमती गांधी के लिए परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल हो गईं, क्योंकि विरोधी दलों ने इस आधार पर उनसे त्याग-पत्र की मांग की तथा श्रीमती गांधी के विरुद्ध एकजुट होकर आन्दोलन करने लगे। इन परिस्थितियों पर काबू पाने के लिए श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपात्काल की घोषणा की।

प्रश्न 5.
सन् 1975 में घोषित आपात्काल के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1975 में श्रीमती गांधी के लिए राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी खराब हो गईं कि उन्हें 25 जून, 1975 को भारत में पहली बार आन्तरिक सुरक्षा के आधार पर आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। इससे पहले जब भी आपात्काल की घोषणा की गई, वह युद्ध के समय की गई थी। राष्ट्रपति फखरूदीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई।

आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात तथा तमिलनाडु की विधानसभाओं को भंग कर दिया। आन्तरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act-MISA) के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

संजय गांधी ने देश की जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबन्दी कार्यक्रम चलाया। दिल्ली की आबादी को कम करने का प्रयास किया तथा गन्दी बस्तियों को हटाया। इस दौरान प्रैस की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगा दी गई। लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में श्रीमती गांधी ने आपात्काल की घोषणा समाप्त कर दी तथा नये चुनाव करवाये। इन चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, यहां तक कि श्रीमती गांधी स्वयं भी चुनाव हार गई।

आपात्काल के संवैधानिक एवं उत्तर संवैधानिक पक्ष (Constitutional and Extra Constitutional dimensions of Emergency)-आपात्काल के दौरान कुछ संवैधानिक एवं उत्तर संवैधानिक पक्ष भी सामने आए। श्रीमती गांधी ने संविधान में 39वां संवैधानिक संशोधन किया। इस संशोधन द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा स्पीकर के चुनाव से सम्बन्धित मुकद्दमों की सुनवाई की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति समाप्त कर दी गई। इसके स्थान पर सरकार ने यह घोषणा की कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा स्पीकर के चुनाव से सम्बन्धित मुकद्दमों की सुनवाई एक आयोग करेगा।

39वें संशोधन की उपधारा 4 के अन्तर्गत उपरोक्त पदों से सम्बन्धित चुनावों को न्यायालय में चुनौती देने की शक्ति को समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन को पास करने का मुख्य उद्देश्य श्रीमती गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय से राहत दिलाना था। 39वें संवैधानिक संशोधन को संसद् एवं राष्ट्रपति ने केवल चार दिनों में अपनी-अपनी स्वीकृति दे दी। श्रीमती गांधी के निर्वाचन सम्बन्धी सुनवाई के समय महान्यायवादी ने 39वें संशोधन के आधार पर इस मुकद्दमे को खारिज करने की बात की।

परन्तु राज नारायण (श्रीमती गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति) के वकील ने 39वें संशोधन को संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताया। क्योंकि यह संशोधन स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध है। परन्तु उच्च न्यायालय की पीठ के पांच में से चार न्यायाधीशों ने 39वें संशोधन को वैध ठहराया तथा इस संशोधन के आधार पर श्रीमती गांधी के निर्वाचन को पूर्ण रूप से वैध ठहराया।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री ए० एन० राय ने बड़े विचित्र ढंग से यह विचार व्यक्त किया कि ‘प्रजातन्त्र’ संविधान का मूल ढांचा है, परन्तु स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष चुनाव नहीं। इस प्रकार श्रीमती गांधी के निर्वाचन को वैध ठहराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक बड़ी कवायद की गई। इसे ही प्रतिबद्ध न्यायपालिका के रूप में जाना जाता है।

आपात्काल के विरोध का दमन (Resistance of Emergency):
श्रीमती गांधी की सरकार ने आपात्काल का विरोध कर रहे लोगों का कठोरतापूर्वक दमन किया। आपात्काल की घोषणा के कुछ घण्टों के अन्दर ही प्रमुख विरोधी नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। विरोधी नेताओं एवं लोगों के विरुद्ध मीसा कानून के तहत कार्यवाही की गई।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि आपात्काल की घोषणा करके श्रीमती गांधी ने राजनीतिक एवं न्यायिक व्यवस्था को अपनी इच्छानुसार चलाना चाहा। परन्तु यह घटना आगे चलकर (1977 के चुनावों में) श्रीमती गांधी एवं कांग्रेस पार्टी के लिए हानिकारक साबित हुई।

प्रश्न 6.
देश में 1975 ई० में घोषित आपात्काल से हमें क्या सबक मिले ? वर्णन करें।
उत्तर:
श्रीमती गांधी के लिए राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी खराब हो गईं कि उन्हें 25 जून, 1975 को आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई। आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात एवं तमिलनाडु विधानसभाओं को भंग कर दिया।

मीसा (MISA) कानून के अंतर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी। आपात्कालीन परिस्थितियों में श्रीमती गांधी का छोटा बेटा संजय गांधी उनके लिए सबसे अधिक मददगार बना हुआ था। संजय गांधी ने जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबंदी कार्यक्रम चलाया। प्रैस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। परन्तु मार्च, 1977 में श्रीमती गांधी ने आपात्काल की घोषणा समाप्त करके नये चुनाव करवाये। इन चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। यहां तक कि श्रीमती गांधी स्वयं भी चुनाव हार गईं। आपात्काल से जो सबक हमें मिलें उनका वर्णन इस प्रकार है

  • नौकरशाही एवं न्यायपालिका को सदैव स्वतन्त्र रखना चाहिए ताकि लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की . जा सके।
  • सरकार को सदैव संविधान के अनुसार शासन करना चाहिए।
  • सरकार को सदैव जनता एवं विरोधी दल का सम्मान करना चाहिए।
  • आपात्काल में एक सबक यह मिला कि भारत में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत मज़बूत हैं तथा उसे आसानी से समाप्त नहीं किया जा सकता।
  • आपातकाल के पश्चात् भारत में कुछ संवैधानिक उलझनों को ठीक किया गया, जैसे-अन्दरूनी आपात्काल केवल सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है, इसके लिए भी आवश्यक है कि मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित सलाह दे।
  • आपातकाल के पश्चात् नागरिक अधिकारों के कई संगठन अस्तित्व में आए।

प्रश्न 7.
1977 में जनता पार्टी की स्थापना का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जनता पार्टी की स्थापना का वही महत्त्व है जो स्वतन्त्रता के पूर्व कांग्रेस पार्टी की स्थापना का था। यदि कांग्रेस पार्टी ने भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाया और उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान की तो जनता पार्टी ने कांग्रेस सरकार विशेषकर, श्रीमती इन्दिरा गांधी, संजय गांधी व बंसी लाल की तानाशाही से जनता को राहत दिलाई। 1 मई, 1977 का दिवस स्वतन्त्र भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। भविष्य के इतिहासकार 1 मई, 1977 को उसी दृष्टि से देखेंगे जिस प्रकार कल के इतिहासकार 1885 सन् को देखते हैं।

यद्यपि 1 मई, 1977 को जनता पार्टी का विधिवत् जन्म हुआ, परन्तु व्यवहार में जनता पार्टी की स्थापना जनवरी, 1977 में हो गई थी। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की जनवरी, 1977 में चुनाव की घोषणा करने के पश्चात् जेलों में बन्द राजनीतिक नेताओं को धीरे-धीरे रिहा किया गया। कांग्रेस संगठन, जनसंघ, भारतीय लोकदल तथा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं और विद्रोही कांग्रेस नेताओं ने यह अनुभव किया कि प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की तानाशाही से छुटकारा पाने के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण अति आवश्यक है।

श्री जयप्रकाश नारायण 1974 से ही इन दलों को एक दल बनाने का आग्रह कर रहे थे, अतः श्री जयप्रकाश नारायण के प्रयासों के फलस्वरूप संगठन कांग्रेस जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर जनवरी, 1977 में जनता पार्टी की स्थापना करके भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया। विद्रोही कांग्रेस सदस्य चन्द्रशेखर, मोहन धारिया और रामधन आदि भी जनता पार्टी में शामिल हुए। जनता पार्टी ने श्री मोरारजी देसाई को पार्टी का अध्यक्ष और चौधरी चरण सिंह को उपाध्यक्ष चुना।

एक राष्ट्रीय समिति (National Committee) की स्थापना की, जिसमें 27 सदस्य थे। चार महासचिव-श्री लाल कृष्ण अडवानी, श्री सुरेन्द्र मोहन, रामधन और सिकन्दर बख्त नियुक्त किये गए। राष्ट्रीय समिति ने 31 जनवरी को चुनाव में भाग लेने की विधिवत् घोषणा की। मार्च के चुनाव घोषणा-पत्र में कहा गया कि जनता पार्टी कुछ महज़ पुरानी पार्टियों का गठबन्धन नहीं है वरन् यह एक नई और राष्ट्रीय पार्टी है जिसे संगठन कांग्रेस, भारतीय लोकदल, जनसंघ तथा समाजवादी दल और स्वतन्त्र कांग्रेस-जनों ने सफल बनाने का व्रत लिया है और यह घोषणा-पत्र इस संघबद्ध संकल्प का पुष्टि-प्रमाण है।

लोकसभा के चुनाव के समय जनता पार्टी के नेताओं ने कहा था कि समय के अभाव के कारण जनता पार्टी के चारों घटकों का विधिवत् विलय नहीं किया जा सका। उन्होंने जनता से वायदा किया था कि चुनाव के पश्चात् शीघ्र ही चारों दल विधिवत् रूप से जनता पार्टी में सम्मिलित हो जाएंगे। इन नेताओं ने अपने इस वायदे को शीघ्र ही पूरा किया, जबकि 1 मई, 1977 को हर्ष और उल्लास के वातावरण में जनता पार्टी का विधिवत् उदय हुआ।

जब संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी के पिछले अध्यक्षों ने नए दल में अपनी-अपनी पार्टी के विलय की घोषणा की और प्रतिनिधियों के विशाल समूह में पार्टी ने स्थापना का प्रस्ताव सर्व-सम्मति से स्वीकार किया। प्रगति मैदान के भव्य ‘हॉल ऑफ नेशन्स’ में जनता पार्टी की स्थापना का सम्मेलन हुआ।

चारों दलों के अध्यक्षों ने अपने-अपने ढंग से और संक्षेप में घोषणा की कि उनकी पार्टियों ने अपने अस्तित्व समाप्त कर जनाकांक्षाओं की क्रान्तिकारी की प्रतीक जनता पार्टी में विलीन होने का विधिवत् निश्चय किया है। अपने-अपने दलों को विसर्जित करके उन्हें जनता पार्टी में शामिल करने के निर्णयों की घोषणा भारतीय लोकदल की ओर से चौधरी चरण सिंह ने, संगठन कांग्रेस की तरफ से श्री अशोक मेहता ने, सोशलिस्ट पार्टी की ओर से श्री जार्ज फर्नांडीज़ ने और जनसंघ की ओर से श्री लालकृष्ण अडवानी ने की।

श्री चन्द्रशेखर-“मैं यहां आपका स्वागत और अभिनन्दन करता हूं। अब समाज बदलने का एक बड़ा काम आपको और हमें मिलकर करना है।” कांग्रेस फॉर डैमोक्रेसी के अध्यक्ष श्री जगजीवन राम ने गगनभेदी नारों के बीच अपनी पार्टी के जनता पार्टी में विलय की घोषणा की। दल के महासचिव श्री नाना जी देशमुख ने सम्मेलन का संयोजन किया और जनता पार्टी को “पंच प्रवाही का पावन संगम” बताया।

प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने, जो दल के अध्यक्ष थे, नया दल जनता को समर्पित करने का प्रस्ताव किया, जिसमें कहा गया कि जनता पार्टी का प्रादुर्भाव भारतीय जनता के द्वारा अपनी खोई हुई स्वाधीनता को प्राप्त करने और लोकतन्त्र के राजपथ पर अपनी खण्डित जनता के द्वारा पुनः आरम्भ करने के संकल्प से हुआ था, प्रचण्ड जन समर्थन और उत्साहपूर्ण तथा प्रबल जन-स्वीकृति का ही परिणाम था कि विगत चुनावों में जनता पार्टी को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हो सकी। अब वह अपने कोटि-कोटि समर्थकों और शुभचिन्तकों को अपने परिवार में सम्मिलित होने का निमन्त्रण देती है ताकि वह जन-संकल्प की पूर्ति का उपयोगी एवं जीवन्त उपकरण बन सकें।

जन-सहयोग का आह्वान करते हुए प्रस्ताव में कहा गया : जनता पार्टी जनता की समस्त आशा-आकांक्षाओं की अमूल्य धरोहर लेकर चल रही है। जनता पार्टी और सरकार को जितना अधिक सक्रिय सहयोग जनता की ओर से प्राप्त होगा, उतनी ही अधिक मात्रा में वे इन आशाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। जनता की गहरी सूझ-बूझ और उसके सहयोग के बिना पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना तथा इस प्राचीन देश का पुनर्जीवन, जिसमें स्वतन्त्रता, समता और बंधुता के आदर्श फलीभूत हो सकें, सम्भव नहीं है।

प्रस्ताव में सभी निष्ठावान और समर्पित देशवासियों को दल में आने के लिए आमन्त्रित किया गया ताकि वे इसमें शामिल होकर इसे हमारे “राष्ट्र के भाग्य के निर्माण का विशिष्ट उपकरण बनाने में सहायक हों।”. 2 अप्रैल, 1977 को जनता पार्टी की संसदीय दल की कार्यकारिणी ने अपनी पहली बैठक में दल के संविधान पर विचार किया और इसे तैयार करने के लिए एक आठ-सदस्यीय समिति की स्थापना की और पार्टी का संविधान तैयार किया गया।

उद्देश्य (Aims)-जनता पार्टी के संविधान की धारा 2 में पार्टी के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है, जिसमें लिखा हुआ है-“स्वाधीनता संग्राम के दौरान जिन उदात्त निष्ठाओं ने हमारा मार्ग प्रशस्त किया था और जो विरासत में हमें गांधी जी के आदर्शों के रूप में मिलीं, उनसे प्रेरणा लेकर जनता पार्टी एक लोकतान्त्रिक, धर्म-निरपेक्ष और समाजवादी राष्ट्र के निर्माण के लिए कृत-संकल्प है। वह ऐसी राज्य-व्यवस्था में विश्वास करती है जिसमें आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण निश्चित रूप में हो। वह शान्तिमय तथा लोकतान्त्रिक तरीकों से विरोध प्रकट करने के अधिकार को मानती है, जिनमें सत्याग्रह और अहिंसक विरोध शामिल है।”

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 8.
1977 के आम चुनावों में जनता पार्टी की जीत के क्या कारण थे ?
अथवा
सन् 1977 ई० में हुए छठी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हार के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
1977 के छठे आम चुनाव कई कारणों से भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। इन चनावों में पहली बार केन्द्र में कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा तथा उसका भारतीय राजनीति पर एकाधिकार पूरी तरह समाप्त हो गया। इन चुनावों में मतदाताओं ने जनता पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलवाई। 1977 के लोकसभा चुनावों की दलीय स्थिति इस प्रकार है

राजनीतिक दल सीटें जीवीं
1. जनता पार्टी 272
2. कांग्रेस फार डेमोक्रेसी 22
3. कांग्रेस 153
4. सी०पी०आई० 7
5. सी०पी०एम० 22
6. ए०डी०एम०के० 18
7. डी०एम०के० 1
8. अकाली दल 9
9. अन्य 37

1977 के चुनावों में जनता पार्टी की जीत एवं कांग्रेस पार्टी की हार के निम्नलिखित कारण थे

1. आपात्काल की घोषणा (Declaration of Emergency):
1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार का सबसे बड़ा एवं तात्कालिक कारण श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा थी। इस घोषणा के विरोध में सभी राजनीतिक दल एक जुट हो गए तथा जनता पार्टी का निर्माण किया तथा 1977 के चुनावों में इस पार्टी को
आपात्काल के कारण जीत प्राप्त हुई।

2. आपात्काल के दौरान अत्याचार (Excesses during Emergency):
श्रीमती गांधी ने न केवल आपात्काल ही लाग किया बल्कि लोगों पर कई प्रकार के अत्याचार भी किये गए। लोगों की स्वतन्त्रताओं को निलम्बित कर दिया गया। कोई भी व्यक्ति या दल सत्ताधारी पार्टी एवं आपातकाल के विरुद्ध नहीं बोल सकता था। इस कारण लोगों में कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध असन्तोष पैदा हुआ तथा उन्होंने कांग्रेस पार्टी को हराकर जनता पार्टी को जितवाया।

3. संजय गांधी की (Role of Sanjay Gandhi):
आपात्काल के समय उत्तर संवैधानिक तत्त्व (Extra Constitutional Element) के रूप में संजय गांधी का उभरना था। संजय गांधी सभी प्रकार की शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे, परन्तु वे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। आपातकाल के समय संजय गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका के प्रति भी लोगों में असन्तोष था।

4. मीसा कानून (Implemention of MISA):
आपात्काल के दौरान श्रीमती गांधी ने मीसा कानून (MISA) लागू किया, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए तथा मुकद्दमा चलाए जेल में डाला जा सकता था। इस कानून के कारण किसी भी व्यक्ति का जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति सुरक्षित नहीं थी।

5. धन (Constitutional Amendments) :
आपातकाल के समय जब सभी महत्त्वपूर्ण विरोधी नेता जेलों में बन्द थे, तब सरकार ने संविधान में 39वां एवं 42वां संशोधन पास करके न्यायपालिका की शक्तियों को घटाकर कार्यपालिका की शक्तियों को बढ़ा दिया। इस प्रकार के संशोधन संविधान की मूल भावना के विरुद्ध थे।

6. संजय गांधी को महत्त्वपूर्ण नेता के रूप में प्रस्तुत करना (Elevation of Sanjay Gandhi as a great Leader) आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को महत्त्वपूर्ण नेता के रूप में प्रस्तुत किया तथा कांग्रेसी नेताओं को अधिक महत्त्व नहीं दिया।

7. युवा कांग्रेस का अनावश्यक महत्त्व (Unwanted Importance of Youth Congress) :
आपात्काल के समय कांग्रेस के अनुभवी नेताओं की अपेक्षा युवा कांग्रेस को अधिक महत्त्व दिया गया। आपात्काल के समय युवा कांग्रेस द्वारा निभाई गई भूमिका से न केवल पुराने कांग्रेसी नेता ही नाराज़ थे, बल्कि जन साधारण लोगों में भी इसके प्रति नाराज़गी थी।

8. जगजीवन राम का त्याग-पत्र (Resignation of Jagjivan Ram):
आपात्काल के समय जगजीवन राम जैसे श्रीमती गांधी के वफादार नेता भी उनके साथ नहीं रहे तथा कांग्रेस एवं सरकार से त्याग-पत्र दे दिया। इससे लोगों को यह अनुभव हुआ कि शासन के ऊपरी स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

9. अनिवार्य नसबंदी (Compulsory Sterilization):
आपात्काल के समय संजय गांधी द्वारा चलाया गया नसबंदी कार्यक्रम भी कांग्रेस की हार का एक प्रमुख कारण बना। यद्यपि भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था का संकट ल जनसंख्या वृद्धि को रोकने के उपाय करने आवश्यक थे, परन्तु इसके लिए अनिवार्य नसबंदी कार्यक्रम की आवश्यकता नहीं थी। इसके अन्तर्गत लोगों को जबरदस्ती अस्पताल भेजकर उनकी नसबंदी कर दी जाती थी। इस कारण कई लोगों की मृत्यु भी हो गई।

10. कीमतों का बढ़ना (Rising Prices):
श्रीमती गांधी की सरकार सभी प्रकार के उपाय करके भी कीमतों की वृद्धि को नहीं रोक पा रही थी तथा 1971 के चुनावों में उनके द्वारा दिया गया ‘गरीबी हटाओ’ का नारा भी दम तोड़ता नज़र आ रहा था।

11. कर्मचारियों की खराब दशा (Pitiable Condition of the Employees):
कीमतों के बढ़ने से सरकारी कर्मचारियों की दशा खराब होने लगी, क्योंकि उनका वेतन निश्चित था तथा उस वेतन से वे बढ़ती हुई महंगाई में अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पा रहे थे।

12. बोनस की समाप्ति (Abolition of Bonus):
कांग्रेस पार्टी ने सार्वजनिक क्षेत्रों के कर्मचारियों के बोनस को भी समाप्त कर दिया, जिससे कर्मचारी वर्ग भी कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध हो गया।

13. प्रेस पर प्रतिबन्ध (Censorship on Press):
आपात्काल के समय श्रीमती गांधी ने प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कोई भी समाचार-पत्र या पत्रिका सरकार एवं कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध नहीं लिख सकती थी। समाचार-पत्र एवं पत्रिका में प्रकाशित होने वाली खबरों को पहले सरकार द्वारा पास किया जाता था। इस तरह के प्रतिबन्ध से भी लोगों में असन्तोष था।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपरोक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार एवं जनता पार्टी की जीत के कई कारण थे, परन्तु उस समय महत्त्वपूर्ण कारण आपात्काल की घोषणा थी, जिसके कारण अधिकांश मतदाता कांग्रेस के विरुद्ध हो गये।

प्रश्न 9.
1977 के लोकसभा चुनावों के किन्हीं तीन निष्कर्षों का वर्णन करें।
उत्तर:
1977 के छठे आम चुनाव कई कारणों से भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। इन चुनावों में पहली बार केन्द्र में कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा तथा उसका भारतीय राजनीति पर एकाधिकार पूरी तरह समाप्त हो गया। 1977 के लोकसभा चुनावों के तीन निष्कर्ष निम्नलिखित रहे

1. कांग्रेस के एकाधिकार की समाप्ति:
1977 के चुनावों का सबसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह रहा कि पिछले तीन दशकों से कांग्रेस पार्टी का चला आ रहा प्रभुत्व समाप्त हो गया।

2. केन्द्र में प्रथम गठबंधन सरकार का निर्माण:
1977 के चुनावों के पश्चात् केन्द्र में पहली बार गठबंधन सरकार का निर्माण हआ। विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी के झण्डे के नीचे गठबंधन सरकार का निर्माण किया। जनता पार्टी को मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में भारी सफलता प्राप्त हुई। 542 सीटों में से जनता पार्टी को 272 सीटें और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी को 28 सीटें प्राप्त हुईं।

चूंकि 1 मई, 1977 को कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी जनता पार्टी में विलय हो गई, इसलिए जनता पार्टी की लोकसभा में संख्या 300 हो गई। याद रहे, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने जनता पार्टी के झंडे और चुनाव चिन्ह पर ही चुनाव लड़ा था। इस प्रकार जनता पार्टी ने कांग्रेस को करारी हार दी, अत: जनता पार्टी की सरकार बनी। यह प्रथम अवसर था जब केंद्र में गैर-कांग्रेस सरकार की स्थापना हुई थी।

3. नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ:
1977 के चुनावों के पश्चात् कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों के संघ का निर्माण किया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था, संवैधानिक संगठनों को उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। इस संगठन के कार्यकर्ता मानवाधिकारों के हनन की जाँच करके उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की शरण भी लेते थे।

प्रश्न 10.
नागरिक स्वतन्त्रताओं के संगठनों के उदय का वर्णन करें।
उत्तर:
1975 में सरकार द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा ने भारतीय लोगों में कई सन्देह पैदा कर दिये। लोगों में स्वतन्त्र भारत में पहली बार यह सन्देह पैदा हुआ कि जिस लोकतन्त्र को वे अपने अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी मानते थे, उसी लोकतन्त्र का सहारा लेकर सरकार ने आपात्काल की घोषणा कर दी तथा लोगों के सभी प्रकार के अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। आपात्काल के समय लोगों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया, प्रैस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, न्यायपालिका की शक्ति को सीमित कर दिया गया तथा जो लोग आपात्काल का विरोध करते थे, उन्हें जेलों में डाल दिया जाता था।

आपात्काल के समय निरोधक नज़रबन्दी का भी बहुत प्रयोग किया गया। इससे पता चलता है कि जो धाराएं लोगों के जीवन की सुरक्षा की गारंटी हैं, उनमें भी कुछ कमियां मौजूद हैं। अतः आपात्काल की समाप्ति के पश्चात् यद्यपि लोकतन्त्र की स्थापना हुई, परन्तु उसमें नागरिक समाज की सीमा में वृद्धि कर दी गई। आपात्काल से पहले लोगों ने नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की आवश्यकता अनुभव नहीं की, परन्तु आपात्काल के समय एवं इसके पश्चात् लोगों को इसकी कमी अनुभव होने लगी। अतः आपात्काल एवं इसके पश्चात् नागरिक स्वतन्त्रता संगठनों के उदय एवं प्रसार में कुछ प्रगति हुई जिसका वर्णन इस प्रकार है

1. नागरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का उदय (Rise of Civil Liberties Movements):
आपात्काल की घोषणा से कुछ समय पहले सरकार ने न्यायपालिका, वैज्ञानिक संस्थाओं के विकास एवं सामाजिक आर्थिक उन्नति के लिए कुछ पद्धतियों का वर्णन किया, जिसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा दिया गया 20 सूत्रीय कार्यक्रम एवं संजय गांधी द्वारा दिया गया 4 सूत्रीय कार्यक्रम शामिल है। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य ग़रीबी हटाने के लक्ष्य को प्राप्त करना था, जिसमें कि देश का सामाजिक एवं आर्थिक विकास हो सके। परन्तु साथ ही इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वचनबद्ध नौकरशाही एवं वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा की मांग की गई। सरकार ने यह आशा प्रकट की कि सभी लोग इसमें अपना सहयोग दें।

2. गांधीवादी दृष्टिकोण (Gandhian Approach):
गांधीवादी दृष्टिकोण जयप्रकाश नारायण से सम्बन्धित था। जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के समय दल विहीन लोकतन्त्र तथा पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन को भी इसमें शामिल किया। जयप्रकाश नारायण ने इसके लिए गुजरात एवं बिहार के युवा छात्रों को शामिल किया तथा एक नवनिर्माण समिति का गठन किया।

इस समित्ति का उद्देश्य सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को समाप्त करना था। इन सभी कारणों से भारत में नागरिक स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा का आन्दोलन शुरू हुआ तथा इससे नागरिक स्वतन्त्रता के लिए लोगों का संगठन एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ नाम के दो संगठन सामने आए।

3. नक्सलवादी दृष्टिकोण (Naxalite’s Approach):
नक्सलवादी पद्धति बंगाल, केरल एवं आन्ध्र प्रदेश में सक्रिय थी। नक्सलवाद वामदलों से अलग हुआ गुट था, क्योंकि इनका वामदलों से मोह भंग हो गया था। इन्होंने लोगों की स्वतन्त्रता एवं मांगों को पूरा करने के लिए हिंसा का सहारा लिया, परन्तु सरकारों ने इस प्रकार के आन्दोलन को समाप्त करने के लिए बल प्रयोग का सहारा लिया।

4. नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ (People’s Union for Civil Liberties and Democratic Rights):
नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्तबर. 1976 में हआ। संगठन ने न केवल आपातकाल में ही बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा। क्योंकि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में भी प्रायः मानवाधिकारों का हनन होता रहता है।

कई युवाओं को नक्सलवादी कहकर मार दिया जाता है, जबकि वे नक्सलवादी नहीं होते। 1980 में नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया, तथा इस संगठन का प्रचार-प्रसार पूरे देश में किया गया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था। यह संगठन संवैधानिक संगठनों को भी उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। यह संगठन मानवाधिकारों के हनन की जांच करके, उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार-विमर्श करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की शरण भी लेते थे।

नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की समस्याएं (Problems of the Organisation of Civil Liberties) नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों के संघ को अपने कार्यों एवं लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कई प्रकार की समस्याओं . का भी सामना करना पड़ता है, जिनका वर्णन इस प्रकार है लोकतान्त्रिक व्यवस्था का संकट

  • प्रायः इस प्रकार की संस्थाओं को राष्ट्र विरोधी कहकर इनकी आलोचना की जाती है।
  • नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की गतिविधियां आतंकवादियों से भी प्रभावित रही हैं।
  • नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की सफलता से कुछ ऐसे असामाजिक तत्त्व भी इसमें शामिल हो गए हैं, जो इन संगठनों की विश्वसनीयता को अपनी गतिविधियों से कम कर रहे हैं।
  • कुछ तथाकथित ऐसे समाज सुधारक भी इन संगठनों से जुड़ गए हैं, जिनके लिए यह केवल एक व्यवसाय

प्रश्न 11.
जिन सरकारों को लोकतन्त्र विरोधी माना जाता है, मतदाता उन्हें भारी दण्ड देते हैं। 1975-1977 की आपातकालीन स्थिति के सन्दर्भ में इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
1975 में श्रीमती गांधी के लिए राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी खराब हो गईं कि उन्हें 25 जून, 1975 को भारत में पहली बार आन्तरिक सुरक्षा के आधार पर आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। इससे पहले जब भी आपात्काल की घोषणा की गई, वह युद्ध के समय की गई थी। राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई।

आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात तथा तमिलनाडु की विधानसभाओं को भंग कर दिया। आन्तरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act-MISA) के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

इस दौरान प्रेस की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगा दी गई। लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में श्रीमती गांधी ने आपात्काल की घोषणा समाप्त कर दी तथा नये चुनाव करवाये। इन चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, यहां तक कि श्रीमती गांधी स्वयं भी चुनाव हार गईं। भारतीय मतदाताओं ने आपातकाल के दौरान की गई गलतियों के लिए कांग्रेस सरकार को दण्डित किया। नोट-आपात्काल में कांग्रेस द्वारा की गई गलतियों के लिए प्रश्न नं० 8 देखें।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 12.
“सरकार अगर अस्थिर हो और इसके भीतर झगड़े हों तो मतदाता ऐसी सरकार को कड़ा दण्ड देते हैं।” जनता पार्टी के शासन के सन्दर्भ में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जनता पार्टी की स्थापना का वही महत्त्व है जो स्वतन्त्रता के पूर्व कांग्रेस पार्टी की स्थापना का था। यदि कांग्रेस पार्टी ने भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाया और उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान की तो जनता पार्टी ने कांग्रेस सरकार विशेषकर श्रीमती इन्दिरा गांधी, संजय गांधी व बंसी लाल की तानाशाही से जनता को राहत दिलाई। 1 मई, 1977 का दिवस स्वतन्त्र भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाएगा।

भविष्य के इतिहासकार 1 मई, 1977 को उसी दृष्टि से देखेंगे जिस प्रकार कल के इतिहासकार 1855 सन् को देखते हैं। यद्यपि 1 मई, 1977 को जनता पार्टी का विधिवत् जन्म हुआ, परन्तु व्यवहार में जनता पार्टी की स्थापना जनवरी, 1977 में हो गई थी। 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को भारी एवं ऐतिहासिक चुनावी सफलता मिली तथा मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।

परन्तु यह सरकार सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाई, जिसके कई कारण थे। इस पार्टी के घटक दलों में तालमेल का अभाव था। प्रत्येक नेता बड़े पद की इच्छा रखे हुए था जिसके कारण इनमें लगातार खींचातान चलती रही। जनता पार्टी के पास एक ठोस कार्यक्रम, नीति एवं दिशा का अभाव था। यह पार्टी कांग्रेस की नीतियों में कोई मूलभूत बदलाव नहीं ला सकी।

धीरे-धीरे जनता पार्टी में आन्तरिक कलह बढ़ती गई, परिणामस्वरूप मोरारजी देसाई की सरकार ने 18 माह बाद ही अपना बहुमत खो दिया। इसके पश्चात् चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमन्त्री बने, परन्तु वे भी अधिक समय तक सत्ता नहीं सम्भाल सके। परिणामस्वरूप 1980 के चुनावों में जनता ने जनता पार्टी को हराकर पुनः श्रीमती इन्दिरा को जिता दिया तथा जनता पार्टी को इसकी अस्थिरता एवं आन्तरिक झगड़े की सज़ा दी।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘वचनबद्ध नौकरशाही’ क्या है ?
अथवा
बचनबद्ध नौकरशाही से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
वचनबद्ध अथवा प्रतिबद्ध (Committed) नौकरशाही का अर्थ यह है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बंधी हुई रहती है और उस दल के निर्देशन में ही कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आंखें मूंद कर लागू करना होता है। लोकतान्त्रिक देशों में नौकरशाही प्रतिबद्ध नहीं होती।

इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड आदि देशों में नौकरशाही प्रतिबद्ध नहीं है, परन्तु साम्यवादी देशों में जैसे कि चीन में वचनबद्ध नौकरशाही पाई जाती है। चीन में एक ही राजनीतिक दल (साम्यवादी दल) है और वहां पर नौकरशाही साम्यवादी दल के सिद्धान्तों एवं लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। नौकरशाही का परम कर्त्तव्य साम्यवादी दल के लक्ष्यों को पूरा करने में सहयोग देना है।

भारत में भी प्रतिबद्ध नौकरशाही की बात कही जाती है, परन्तु भारत में नौकरशाही किसी दल के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध न होकर संविधान के प्रति वचनबद्ध है। कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो, नौकरशाही का कार्य राजनीतिक कार्यपालिका की नीतियों को नियम के अनुसार लागू करना है।

प्रश्न 2.
वचनबद्ध न्यायपालिका से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
वचनबद्ध न्यायपालिका से अभिप्राय ऐसी न्यायपालिका से है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफ़ादार हो तथा सरकार के निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही चले। 1973 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों श्री जे०एम० शैलट, श्री के०एस० हेगड़े तथा श्री ए०एन० ग्रोवर की उपेक्षा करके श्री ए०एन० राय को नियुक्त किया। इस नियुक्ति से उस समय एक राजनीतिक एवं न्यायिक विवाद पैदा हो गया। श्री ए०एन० राय की नियुक्ति के विरोध में तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पद से त्याग दिया। इससे यह प्रश्न उठने लगा कि क्या न्यायपालिका सरकार के प्रति वचनबद्ध होनी चाहिए या स्वतन्त्र। प्रश्न 3. भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा का उदय कैसे हुआ ?
उत्तर:
1973 में स्वामी केशवानन्द भारती एवं अन्य ने 24वें तथा 25वें संवैधानिक संशोधनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। ये संशोधन संसद् को सभी अधिकारों में हस्तक्षेप से सम्बन्धित थे, जिसमें समुदाय बनाना तथा धर्म की स्वतन्त्रता भी शामिल थी। स्वामी केशवानन्द भारती मुकद्दमे की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की एक 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने की। 13 में से 9 न्यायाधीशों ने यह निर्णय दिया कि संसद् मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।

इस निर्णय से सरकार एवं न्यायपालिका में मतभेद बढ़ गए, क्योंकि 1973 में सरकार का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गांधी कर रही थीं, अत: यह विवाद श्रीमती गांधी एवं न्यायालय के बीच हुआ, जिसमें जीत न्यायालय की हुई, क्योंकि न्यायालय ने संसद् की संविधान में संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया। इसी कारण श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को आगे बढ़ाया। 1975 में आपात्काल के समय वचनबद्ध न्यायपालिका का सिद्धान्त कार्यपालिका का सिद्धान्त बन गया।

प्रश्न 4.
‘वचनबद्ध’ न्यायपालिका के लिए इन्दिरा गांधी सरकार द्वारा किन उपायों का प्रयोग किया गया था ?
उत्तर:
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की। श्रीमती गांधी ने श्री ए०एन० राय को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी करके सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था।

2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा भी लिया। उन्होंने 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा।

3. रिक्त पदों को भरने से मना करना-सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से भी मना कर दिया।

4. अन्य पदों पर नियुक्तियां-सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे।

प्रश्न 5.
गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन कब आरम्भ हुआ ?
अथवा
गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर:
गुजरात में 1970 के दशक में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। अहमदाबाद के एल० डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नवनिर्माण का रूप धारण कर लिया। इस एक घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन उन लोगों के विरुद्ध था, जो हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के समर्थक थे। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनबाई पटेल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

नवनिर्माण आन्दोलन धीरे-धीरे सम्पूर्ण गुजरात में फैल गया तथा अनेक लोग इस आन्दोलन से जुड़ गए। कांग्रेस पार्टी ने नवनिर्माण आन्दोलन के विरुद्ध एक चुनावी रणनीति तैयार की, जिसे क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी तथा मुस्लिम मिलन (Kshatriya-Harijan-Adivasi-Muslim Combine-KHAM) का नाम दिया। 1980 के गुजरात विधानसभा चुनावों में इस योजना को सफलता मिली, परन्तु इससे उच्च जातियों को पहली बार यह अनुभव हुआ कि शक्ति उच्च वर्गों से निकलकर मध्यम वर्ग की ओर जा रही है।

प्रश्न 6.
‘बिहार आन्दोलन’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
अथवा
‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
बिहार आन्दोलन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में चलाया गया था। बिहार आन्दोलन शासन में भ्रष्टाचारी एवं अयोग्य कर्मचारियों के विरुद्ध चलाया गया था। इस आन्दोलन को पूर्ण या व्यापक क्रान्ति (Total Revolution) भी कहा जाता है। जय प्रकाश नारायण ने 1975 में बिहार के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि बिहार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज एवं व्यक्ति के सभी पक्षों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना है।

यह उद्देश्य ऐसा नहीं है, जिसे एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त कर लिया जाए, बल्कि अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक लम्बे समय तक बिहार आन्दोलन जारी रखना होगा। बिहार आन्दोलन में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को भी हल करने का प्रयास किया गया। जय प्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के चार पक्षों का वर्णन किया-प्रथम संघर्ष, द्वितीय निर्माण, तृतीय प्रचार तथा चतुर्थ संगठन। जय प्रकाश नारायण ने तात्कालिक परिस्थितियों में निर्माण कार्य पर अधिक जोर दिया।

प्रश्न 7.
आपात्काल के मुख्य चार कारण लिखो।
अथवा
1975 में आपात्काल की घोषणा के कोई चार कारण लिखिये।
अथवा
श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में की गई आपातस्थिति की घोषणा के कोई तीन कारण लिखिए।
उत्तर:
1. 1971 के युद्ध में अत्यधिक खर्च-1975 में लागू की गई आपात्काल की घोषणा का एक प्रमुख कारण 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई।

2. अधिक एवं अच्छी फसल का पैदा न होना-1972-73 में भारत में फसल भी अच्छी नहीं हुई। दूसरे शब्दों में सरकार को कृषि क्षेत्र में असफलता मिल रही थी।

3. गुजरात एवं बिहार आन्दोलन-आपात्काल की घोषणा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन तथा बिहार आन्दोलन था। इन दोनों आन्दोलनों ने श्रीमती गांधी को भयभीत कर दिया।

4. श्रीमती गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करना-श्रीमती गांधी द्वारा 1975 में आपात्काल की घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था।

प्रश्न 8.
आपातकाल के दौरान आम जनता व शासन पर नियन्त्रण के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए ?
उत्तर:
(1) आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात एवं तमिलनाडु विधानसभाओं को भंग कर दिया।

(2) मीसा (MISA) कानून के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

(3) सरकार ने जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबंदी कार्यक्रम चलाया।

(4) प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

प्रश्न 9.
1977 के चुनाव तथा जनता पार्टी के गठन का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की जनवरी, 1977 में चुनाव की घोषणा करने के पश्चात् जेलों में बन्द राजनीतिक नेताओं को धीरे-धीरे रिहा किया गया। कांग्रेस संगठन, जनसंघ, भारतीय लोकदल तथा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं और विद्रोही कांग्रेस नेताओं ने यह अनुभव किया कि प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की तानाशाही से छुटकारा पाने के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण अति आवश्यक है।

श्री जयप्रकाश नारायण 1974 से ही इन दलों को एक दल बनाने का आग्रह कर रहे थे, अत: श्री जयप्रकाश नारायण के प्रयासों के फलस्वरूप संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर जनवरी, 1977 में जनता पार्टी की स्थापना करके भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया। विद्रोही कांग्रेस सदस्य चन्द्रशेखर, मोहन धारिया और रामधन आदि भी जनता पार्टी में शामिल हुए। 1977 के चुनावों में जनता पार्टी ने 542 सीटों में से 300 सीटें जीतीं। इस प्रकार जनता पार्टी ने कांग्रेस को करारी हार दी।

प्रश्न 10.
सन् 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की विजय के कोई चार उत्तरदायी कारण लिखिए।
अथवा
1977 में हुए छठी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हार के कोई चार कारण बताएं।
उत्तर:
1. आपात्काल घोषणा-1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार एवं जनता पार्टी की जीत का स बड़ा एवं तात्कालिक कारण श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा थी। इस घोषणा के कारण अगले चुनावों में लोगों ने जनता पार्टी को वोट दिए।

2. संजय गांधी की भूमिका- आपात्काल के समय उत्तर-संवैधानिक तत्त्व के रूप में संजय गांधी का उभरना था। आपात्काल के समय संजय गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका के प्रति लोगों में असन्तोष था।

3. मीसा कानून-आपात्काल के दौरान श्रीमती गांधी ने मीसा कानून लागू किया, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए तथा मुकद्दमा चलाए जेल में डाल दिया जाता था। इस कानून के कारण किसी भी व्यक्ति का जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति सुरक्षित नहीं थी।

4. संवैधानिक संशोधन- आपात्काल के समय सरकार ने संविधान में 39वां एवं 42वां संशोधन करके न्यायपालिका की शक्तियों को घटाकर कार्यपालिका की शक्तियों को बढ़ा दिया। इस प्रकार के संशोधन संविधान की मूल भावना के विरुद्ध थे।

प्रश्न 11.
नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्तूबर, 1976 में हुआ। इस संगठन ने न केवल आपात्काल में ही बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा। क्योंकि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में भी प्राय: मानवाधिकारों का हनन होता रहता है। उदाहरण के लिए कई युवाओं को नक्सलवादी कहकर मार दिया जाता है, जबकि वे नक्सलवादी नहीं होते हैं।

1980 में नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया तथा इस संगठन का प्रचार-प्रसार पूरे देश में किया गया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था, संवैधानिक संगठनों को उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। इस संगठन के कार्यकर्ता मानवाधिकारों के हनन की जांच करके उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की शरण भी लेते थे।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 12.
आपात्काल से हमें मिलने वाली किन्हीं चार शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • आपातकाल की पहली शिक्षा तो यह है कि भारत से लोकतंत्र को समाप्त कर पाना बहुत कठिन है।
  • आपात्काल के समय आपातकाल से सम्बन्धित कुछ प्रावधानों में उलझाव सामने आए जिसे बाद में ठीक कर लिया गया।
  • आपात्काल से प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ।
  • नौकरशाही तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र रखना चाहिए, ताकि लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सके।

प्रश्न 13.
1975 में आपात्काल की घोषणा के कोई चार परिणाम लिखिए।
उत्तर:
(1) आपात्काल का विरोध करने के लिए लगभग सभी विरोधी दल एकत्र हो गए तथा लोगों को आपातकाल के विरुद्ध आन्दोलन करने के लिए प्रेरित करने लगे। इन दलों ने आपस में मिलकर जनता पार्टी नाम के एक दल का भी निर्माण किया।

(2) आपातकाल के दौरान ही नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्तूबर, 1976 में हुआ। इस संगठन ने न केवल आपात्काल में ही बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा।

(3) आपात्काल के समय 42वां संवैधानिक संशोधन पास हुआ। (4) आपात्काल की घोषणा के कारण 1977 के चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
‘वचनबद्ध नौकरशाही’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
वचनबद्ध नौकरशाही से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ यह है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बन्धी हुई रहती है और उस दल के निर्देशों से ही कार्य करती है। वचनबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती, बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आंखें मूंद कर लागू करना होता है।

प्रश्न 2.
‘वचनबद्ध न्यायपालिका’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
वचनबद्ध न्यायपालिका से अभिप्रायः ऐसी न्यायपालिका से है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफ़ादार हो तथा उसके निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही चले। 1973 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा करके श्री ए०एन० राय को नियुक्त किया, जिससे वचनबद्ध न्यायपालिका से सम्बन्धित विवाद पैदा हो गया।

प्रश्न 3.
वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए सरकार द्वारा प्रयोग किये गए किन्हीं दो उपायों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी की।
  • सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफ़ादार थे।

प्रश्न 4.
भारतीय न्यायपालिका को स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष बनाये रखने के लिए संविधान में क्या उपाय किये गए हैं ?
उत्तर:

  • न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
  • न्यायाधीशों की योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है।
  • न्यायाधीश एक निश्चित आयु पर सेवानिवृत्त होते हैं।
  • न्यायाधीशों को केवल महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है।

प्रश्न 5.
गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
गुजरात में 1970 के दशक में नवनिर्माण आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। अहमदाबाद के एल०डी० इन्जीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20% की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया। गुजरात नव-निर्माण आन्दोलन उन लोगों के विरुद्ध था, जो हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के समर्थक थे। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमन भाई पटेल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

प्रश्न 6.
आपात्काल से पूर्व बिहार आन्दोलन कब और किसके नेतृत्व में चलाया गया ?
अथवा
1974 में बिहार आन्दोलन को किस नाम से पुकारा जाता है और उसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर:
बिहार आन्दोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में चलाया गया था। जयप्रकाश नारायण ने इसे पूर्ण या व्यापक क्रान्ति भी कहा है। जयप्रकाश नारायण ने 1975 में बिहार के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि बिहार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज एवं व्यक्ति के सभी पक्षों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना है। यह उद्देश्य ऐसा नहीं है, जिसे एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त कर लिया जाए, बल्कि अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें एक लम्बे समय तक बिहार आन्दोलन जारी रखना होगा।

प्रश्न 7.
जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के कितने पक्षों का वर्णन किया और तात्कालिक परिस्थितियों में किस पक्ष पर अधिक जोर देने के लिए कहा ?
उत्तर:
जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन के चार पक्षों-प्रथम संघर्ष, द्वितीय निर्माण, तृतीय प्रचार एवं चतुर्थ संगठन का वर्णन किया तथा तात्कालिक परिस्थितियों में निर्माण कार्य पर अधिक बल दिया।

प्रश्न 8.
1975 में की गई आपात्काल घोषणा के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:
(1) 1975 में लागू की गई आपात्काल की घोषणा का एक मुख्य कारण 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई।

(2) श्रीमती गांधी द्वारा 1975 में आपात्काल की घोषणा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था।

प्रश्न 9.
1977 के आम चुनावों में जनता पार्टी की जीत के कोई दो कारण बताएं।
अथवा
1977 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:
(1) 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार एवं जनता पार्टी की जीत का सबसे बड़ा एवं तात्कालिक कारण श्रीमती गांधी द्वारा की गई आपात्काल की घोषणा थी।

(2) आपात्काल के समय उत्तर-संवैधानिक तत्त्व के रूप में संजय गांधी का उभरना था। आपात्काल के समय संजय गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका के प्रति लोगों में असन्तोष था।

प्रश्न 10.
आपात्काल से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
श्रीमती गांधी ने 25 जून, 1975 को भारत में पहली बार आन्तरिक सुरक्षा के आधार पर आपात्काल की घोषणा की। इससे पहले जब भी आपात्काल की घोषणा की गई, वह युद्ध के समय की गई थी। राष्ट्रपति फखरूदीन अली अहमद एवं संसद् पर श्रीमती गांधी का प्रभाव होने के कारण आपात्काल की घोषणा की स्वीकृति में भी कोई बाधा नहीं आई।

आपात्काल की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों को जेलों में डालना शुरू कर दिया उन्होंने गुजरात तथा तमिलनाडु की विधानसभाओं को भंग कर दिया। आन्तरिक सुरक्षा कानून (Maintenance of Internal Security Act MISA) के अन्तर्गत लोगों को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में ले लिया जाता था तथा इस कानून के अन्तर्गत न्यायपालिका को भी कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी।

प्रश्न 11.
‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
1980 में नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतन्त्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया। यह संगठन नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनमत तैयार करवाता था, संवैधानिक संगठनों को उचित ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करता था। इस संगठन के कार्यकर्ता मानवाधिकारों के हनन की जांच करके उसका प्रकाशन करवाते थे तथा सार्वजनिक गोष्ठियों में उस पर विचार करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की भी शरण लेते थे।

प्रश्न 12.
नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों की किन्हीं दो समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:

  • प्रायः नागरिक स्वतन्त्रता के संगठनों को राष्ट्र विरोधी कहकर इनकी आलोचना की जाती है।
  • कुछ तथाकथित ऐसे समाज सुधारक भी इन संगठनों से जुड़ गए हैं, जिनके लिए यह केवल एक व्यवसाय है।

प्रश्न 13.
प्रेस सेंसरशिप किसे कहा जाता है ?
उत्तर:
प्रेस सेंसरशिप का अर्थ है कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कुछ भी छापने या दिखाने से पहले उसकी स्वीकृति सरकार से लेनी होती है। सरकार ही इस बात का निर्णय करती है कि क्या दिखाया या छापना चाहिए और क्या नहीं। सन् 1975-1977 में आपात्काल के दौरान सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना ज़रूरी है।

प्रश्न 14.
आपात्काल के दौरान पुलिस एवं नौकरशाहों की स्थिति कैसी थी ?
उत्तर:
आपात्काल के दौरान पुलिस एवं नौकरशाही सरकार के साथ रही। पुलिस ने मनमाने ढंग से लोगों को गिरफ्तार करके सरकार की सहायता की एवं नौकरशाही सरकार के प्रति वचनबद्ध बनी रही।

प्रश्न 15.
चारू मजूमदार का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
चारू मजूमदार एक क्रान्तिकारी समाजवादी नेता थे। उनका जन्म 1918 में हुआ। चारू मजूमदार ने तिभागा आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इन्होंने भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की स्थापना की। वे किसान विद्रोह के माओवादी धारा में विश्वास रखते थे। 1972 में पुलिस हिरासत में उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 16.
लोकनायक जय प्रकाश नारायण का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म 1902 में हुआ। वे मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे। उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सा लिया। स्वतन्त्रता के बाद नेहरू डल में शामिल होने से मना किया। वे बिहार आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। 1979 में उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 17.
मोरारजी देसाई के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
मोरारजी देसाई 1977 से 1979 तक देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री थे। उनका जन्म 1896 में हुआ। वे स्वतन्त्रता सेनानी तथा गांधीवादी नेता थे। वे बांबे प्रांत के मुख्यमन्त्री भी रहे हैं। 1969 में कांग्रेस के पश्चात् वे कांग्रेस (ओ) में शामिल हुए। 1995 में उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 18.
चौ० चरण सिंह का जीवन परिचय लिखें।
उत्तर:
चौ० चरण सिंह 1979 में भारत के दूसरे गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री बने। वे एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे ग्रामीण एवं कृषि विकास के समर्थक थे। 1967 में उन्होंने भारतीय क्रान्ति दल की स्थापना की। वे उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमन्त्री बने। 1987 में उनका निधन हो गया।

प्रश्न 19.
जगजीवन राम के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
जगजीवन राम का जन्म 1908 में हुआ। वे बिहार के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता एवं स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे संविधान सभा के सदस्य थे। 1977-1979 के बीच वे देश के उप-प्रधानमन्त्री रहे। उन्होंने स्वतन्त्रता के बाद नेहरू मन्त्रिमण्डल में श्रम मन्त्री का कार्यभार सम्भाला। उनका निधन 1986 में हो गया।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 20.
जनता पार्टी के गठन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
जनता पार्टी का गठन आपात्काल के पश्चात् 1 मई, 1977 को विधिवत रूप से हुआ। इस पार्टी में अधिकांश वे दल एवं नेता शामिल थे, जिन्होंने आपात्काल का विरोध किया था जैसे कांग्रेस संगठन, जनसंघ, भारतीय लोकदल तथा सोशलिस्ट पार्टी इत्यादि। जय प्रकाश नारायण ने इस पार्टी के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मोरारजी देसाई को पार्टी का अध्यक्ष एवं चौ० चरण सिंह को पार्टी का उपाध्यक्ष चुना गया था।

प्रश्न 21.
इन्दिरा गांधी की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर:
इन्दिरा गांधी की मृत्यु 31 अक्तूबर, 1984 को हुई।

प्रश्न 22.
इंदिरा गांधी के ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ में शामिल किन्हीं चार विषयों का नाम लिखें।
उत्तर:

  • भूमि सुधार।
  • भू-पुनर्वितरण।
  • खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार।
  • प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी।

प्रश्न 23.
‘नक्सलवादी आन्दोलन’ क्या है ?
उत्तर:
सन् 1964 में साम्यवादी दल में फूट पड़ गई। दोनों दलों के संसदीय राजनीति में व्यस्त होने के कारण इन दलों के सक्रिय व संघर्षशील कार्यकर्ता दलों से अलग होकर जन कार्य करने लगे । सन् 1967 में बंगाल में साम्यवादी दल की सरकार बनी। इसी समय दार्जिलिंग में नक्सलवाड़ी नामक स्थान पर किसानों ने विद्रोह कर दिया।

यद्यपि पश्चिमी बंगाल की सरकार ने इसे दबा दिया। परन्तु इस आन्दोलन की प्रतिक्रिया पंजाब, उत्तर प्रदेश और कश्मीर में भी हुई। इससे नक्सलवाड़ी आन्दोलन का विरोध किया गया। जिसके परिणामस्वरूप मई, 1967 में भारी हिंसक घटनाएं हुईं। यह आन्दोलन तेज़ी से राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया।

प्रश्न 24.
डॉ० राम मनोहर लोहिया कौन थे ?
उत्तर:
डॉ० राम मनोहर लोहिया भारत के एक महान् समाजवादी चिंतक थे। उनका जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर-प्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था। सन् 1952 में उन्होंने प्रजा समाजवादी दल का निर्माण किया। सन् 1967 के चौथे आम चुनावों के परिणामों को उन्होंने ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का युग बनाया।

प्रश्न 25.
आपात्काल ने जनसंचार के साधनों पर क्या प्रभाव डाला ?
उत्तर:
आपात्काल ने जनसंचार के साधनों पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव डाला। मीडिया को नियन्त्रित करने के लिए प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न 

1. किस भारतीय नेता ने वचनबद्ध नौकरशाही एवं वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को जन्म दिया ?
(A) पं० जवाहर लाल नेहरू
(B) सरदार पटेल
(C) श्रीमती इन्दिरा गांधी
(D) मोरारजी देसाई।
उत्तर:
(C) श्रीमती इन्दिरा गांधी।

2. 1973 में किस न्यायाधीश को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी करके भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया ?
(A) जे० एम० शैलट
(B) के० एस० हेगड़े
(C) एन० एन० ग्रोवर
(D) ए० एन० राय।
उत्तर:
(D) ए० एन० राय।

3. केशवानन्द भारती मुकद्दमे का निर्णय कब हुआ ?
(A) 1973
(B) 1971
(C) 1977
(D) 1976
उत्तर:
(A) 1973

4. किस मुकद्दमे में संविधान के मूलभूत ढांचे की धारणा का जन्म हुआ ?
(A) केशवानन्द भारती मुकद्दमा
(B) मिनर्वा मिल्स मुकद्दमा
(C) अयोध्या विवाद
(D) गोलकनाथ मुकद्दमा।
उत्तर:
(A) केशवानन्द भारती मुकद्दमा।

5. निम्नलिखित में से किस राज्य में नव-निर्माण’आन्दोलन चला’ था?
(A) पंजाब
(B) बिहार
(C) हरियाणा
(D) गुजरात।
उत्तर:
(D) गुजरात।

6. आपात्काल की समाप्ति के बाद देश में छठी लोकसभा के चुनाव कब हुए?
(A) जनवरी 1977 में
(B) मार्च 1977 में
(C) जनवरी 1978 में
(D) मार्च 1978 में।
उत्तर:
(B) मार्च 1977 में।

7. भारत में चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है
(A) राष्ट्रपति को
(B) संसद् को
(C) मुख्य न्यायाधीश को
(D) चुनाव आयोग को।
उत्तर:
(D) चुनाव आयोग को।

8. आपात्काल की घोषणा के समय भारत का प्रधानमंत्री कौन था?
(A) चौ० चरण सिंह
(B) श्री राजीव गांधी
(C) श्रीमती इंदिरा गांधी
(D) श्री मोरार जी देसाई।
उत्तर:
(C) श्रीमती इंदिरा गांधी।

9. जनता पार्टी की सरकार द्वारा आपात्काल की ज्यादतियों की जाँच हेतु ‘शाह आयोग’ की नियुक्ति कब की गई थी?
(A) मई 1976 में
(B) मई 1977 में
(C) मई 1978 में
(D) जून 1979 में।
उत्तर:
(B) मई 1977 में।

10. 1980 में हुए 7वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को कितने लोकसभा स्थानों पर विजय मिली ?
(A) 350
(B) 353
(C) 363
(D) 373
उत्तर:
(B) 353

11. देश में प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री निम्नलिखित में से कौन बना?
(A) श्री जगजीवन राम
(B) चौधरी चरण सिंह
(C) श्री मोरार जी देसाई
(D) श्री अटल बिहारी बाजपेयी।
उत्तर:
(C) श्री मोरार जी देसाई।

12. बिहार आन्दोलन को किसने चलाया ?
(A) जयप्रकाश नारायण
(B) लालू प्रसाद यादव
(C) मोरारजी देसाई
(D) अटल बिहारी बाजपेयी।
उत्तर:
(A) जयप्रकाश नारायण।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

13. आपात्काल की घोषणा कब की गई ?
(A) 25 जून, 1975
(B) 30 जून, 1975
(C) 13 अगस्त, 1975
(D) 1 नवम्बर, 1975
उत्तर:
(A) 25 जून, 1975

14. जनता पार्टी की स्थापना हुई
(A) 1976
(B) 1975
(C) 1977
(D) 1978
उत्तर:
(C) 1977

15. 1977 के आम चुनावों में किस पार्टी की विजय हुई ?
(A) कांग्रेस पार्टी
(B) जनता पार्टी
(C) भारतीय जनता पार्टी
(D) कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी।
उत्तर:
(B) जनता पार्टी।

16. 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को कितनी सीटें मिलीं ?
(A) 272
(B) 172
(C) 310
(D) 292
उत्तर:
(A) 272

17. 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं ?
(A) 53
(B) 153
(C) 253
(D) 309
उत्तर:
(B) 153

18. 1977 में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित किस संगठन का निर्माण हुआ ?
(A) नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ
(B) आपात्कालीन विरोधी संगठन
(C) तानाशाही विरोधी संगठन
(D) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) नागरिक स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लोगों का संघ।

19. शाह आयोग की स्थापना किस सरकार ने की थी ?
(A) जनता पार्टी की सरकार
(B) कांग्रेस सरकार ने
(C) भारतीय जनता पार्टी की सरकार
(D) जनता दल की सरकार
उत्तर:
(A) जनता पार्टी की सरकार।

20. जनता पार्टी की सरकार द्वारा आपात्काल की ज्यादतियों की जांच हेतु शाह आयोग की नियुक्ति कब की गई ?
(A) मई 1977 में
(B) मई 1978 में
(C) मार्च 1976 में
(D) मार्च 1979 में।
उत्तर:
(A) मई 1977 में।

21. शाह आयोग के अनुसार निवारक नज़रबंदी कानून के अन्तर्गत लगभग कितने लोगों को गिरफ्तार किया गया ?
(A) 111000
(B) 90000
(C) 70000
(D) 85000
उत्तर:
(A) 111000

22. 1980 के लोकसभा के चुनाव में किस पार्टी को अधिकतम सीटें प्राप्त हुईं थीं ?
(A) कांग्रेस पार्टी
(B) जनता पार्टी
(C) साम्यवादी दल
(D) भारतीय जनता पार्टी।
उत्तर:
(A) कांग्रेस पार्टी।

23. 1980 के लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कितने सीटें मिलीं ?
(A) 153
(B) 253
(C) 353
(D) 410
उत्तर:
(C) 353

24. जनता पार्टी के पतन का कारण था ?
(A) गुटबाज़ी
(B) कल्याणकारी नीति
(C) शिक्षा नीति
(D) कर नीति।
उत्तर:
(A) गुटबाजी।

25. श्री मोरार जी देसाई कब प्रधानमन्त्री बने थे ?
(A) 1975
(B) 1976
(C) 1977
(D) 1964
उत्तर:
(C) 1977

26. चौ० चरण सिंह कब भारत के प्रधानमन्त्री बने थे ?
(A) 1980
(B) 1977
(C) 1967
(D) 1979
उत्तर:
(D) 1979

27. भारत में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान किस नेता ने किया था ?
(A) श्री मोरार जी देसाई
(B) श्री जय प्रकाश नारायण
(C) चौधरी चरण सिंह
(D) श्री बिनोवा भावे।
उत्तर:
(B) श्री जय प्रकाश नारायण।

28. 1947 में रेलवे कर्मचारियों की देशव्यापी हड़ताल का नेतृत्व किस नेता ने किया?
(A) श्री जय प्रकाश नारायण
(B) श्री जार्ज फर्नाडिंस
(C) श्री मोरार जी देसाई
(D) चौधरी चरण सिंह।
उत्तर:
(B) श्री जार्ज फर्नाडिंस।

29. भारत का प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री निम्नलिखित में से कौन था ?
(A) श्री जगजीवन राम
(B) श्री चौधरी चरण सिंह
(C) श्री मोरारजी देसाई
(D) श्री वी० पी० सिंह।
उत्तर:
(C) श्री मोरारजी देसाई।

30. ‘इन्दिरा इज इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’ का नारा निम्नलिखित में से किसने दिया था ?
(A) डी० के० बरूआ
(B) इन्दिरा गांधी
(C) संजय गांधी
(D) राजीव गांधी।
उत्तर:
(A) डी० के० बरूआ।

31. आपातकाल के दौरान हुए किस संवैधानिक संशोधन को ‘लघु संविधान’ तक कहा गया है ?
(A) 38वां संशोधन
(B) 39वां संशोधन
(C) 40वां संशोधन
(D) 42वां संशोधन।
उत्तर:
(C) 40वां संशोधन।

32. भारत में सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान निम्नलिखित में से किस नेता ने किया था?
(A) श्री मोरार जी देसाई
(B) चौधरी चरण सिंह
(C) श्री चारु मजूमदार
(D) श्री जय प्रकाश नारायण।
उत्तर:
(D) श्री जय प्रकाश नारायण।

निम्न रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

(1) ……………. भारतीय नेता ने वचनबद्ध नौकरशाही एवं वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को जन्म दिया।
उत्तर:
श्रीमती इंदिरा गांधी

(2) 1977 में …………. भारत के प्रधानमन्त्री बने।
उत्तर:
श्री मोरार जी देसाई

(3) 26 जून, 1975 को देश में ……………… की घोषणा की गई।
उत्तर:
आपातकाल

(4) जून 1975 को देश में आपात्काल की घोषणा प्रधानमंत्री ………… ने की।
उत्तर:
श्रीमती इंदिरा गांधी

(5) बिहार आन्दोलन के प्रमुख नेता …………… थे।
उत्तर:
जय प्रकाश नारायण

(6) 1975 में जय प्रकाश नारायण ने जनता के …………. का नेतृत्व किया।
उत्तर:
संसद् मार्च

(7) 1974 में देश में …………….. हड़ताल हुई।
उत्तर:
रेल

(8) सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मौलिक ढांचे की व्यवस्था ……….. के मुकद्दमे में दी।
उत्तर:
केशवानन्द भारती

(9) 1975 में आन्तरिक आपात्काल संविधान के अनुच्छेद ………… के अन्तर्गत लगाया गया।
उत्तर:
352

(10) 42वें संशोधन द्वारा लोकसभा का कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर ………. कर दिया गया।
उत्तर:
6 साल

(11) शाह आयोग का गठन ………….. में किया गया।
उत्तर:
मई

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
भारत में सम्पूर्ण क्रान्ति का आह्वान किस नेता ने किया?
उत्तर:
श्री जय प्रकाश नारायण ने।

प्रश्न 2.
किस संवैधानिक संशोधन द्वारा लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई थी ?
उत्तर:
42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न 3.
भारत में प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री कौन बना ?
उत्तर:
श्री मोरारजी देसाई।

प्रश्न 4.
भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही एवं प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ रूपी धारणा को किसने जन्म दिया?
उत्तर:
श्रीमती इंदिरा गांधी ने।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 5.
1974 में छात्र आन्दोलन ने किस राज्य में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया?
उत्तर:
गुजरात में।

प्रश्न 6.
चौधरी चरण सिंह कब भारत के प्रधानमन्त्री रहे ?
उत्तर:
चौधरी चरण सिंह जुलाई 1979 से जनवरी 1980 के बीच भारत के प्रधानमन्त्री रहे।

प्रश्न 7.
1977 के चनाव के बाद भारत का प्रधानमन्त्री कौन बना ?
उत्तर:
1977 के चुनाव के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने।

प्रश्न 8.
प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई कितने समय तक प्रधानमन्त्री रहे ?
उत्तर:
मोरारजी देसाई 1977 से 1979 तक प्रधानमन्त्री रहे।

प्रश्न 9.
1977 का चुनाव विपक्ष ने किस नारे पर लड़ा ?
उत्तर:
विपक्ष ने ‘लोकतन्त्र बचाओ’ के नारे पर चुनाव लड़ा।

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