Author name: Prasanna

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. ‘भगवद्गीता’ किस धार्मिक पुस्तक का अंग है?
(A) रामायण
(B) ऋग्वेद
(C) महाभारत
(D) मनुस्मृति
उत्तर:
(C) महाभारत

2. रामायण और महाभारत का संस्कृत भाषा में रचनाकाल
(A) लगभग 1000 ई० पू० से 600 ई० पू०
(B) लगभग 600 ई० पू० से 100 ई० पू०
(C) लगभग 500 ई० पू० से 400 ई० पू०
(D) लगभग 200 ई० पू० से 200 ई०
उत्तर:
(C) लगभग 500 ई० पू० से 400 ई० पू०

3. महाभारत का युद्ध किस स्थान पर हुआ था?
(A) इंद्रप्रस्थ
(B) कुरुक्षेत्र
(C) वैशाली
(D) राजगृह
उत्तर:
(B) कुरुक्षेत्र

4. वेदों की संख्या थी
(A) चार
(B) तीन
(C) दो
(D) आठ
उत्तर:
(A) चार

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

5. रुद्रदामन किस वंश का था?
(A) कण्व
(B) सातवाहन
(C) मौर्य
(D) शक
उत्तर:
(D) शक

6. प्राचीनतम ग्रन्थों के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्तव्य होता था
(A) ब्राह्मणों की सेवा
(B) वैश्यों की सेवा
(C) क्षत्रियों की सेवा
(D) तीन उच्च वर्गों की सेवा
उत्तर:
(D) तीन उच्च वर्गों की सेवा

7. पांडवों की सहपत्नी थी
(A) प्रभावती
(B) सीता
(C) गौतमी
(D) द्रौपदी
उत्तर:
(D) द्रौपदी

8. बहुपति प्रथा प्रचलित थी
(A) कौरवों में
(B) पांडवों में
(C) सातवाहनों में
(D) शकों में
उत्तर:
(B) पांडवों में

9. ‘मनुस्मृति’ का संकलन कब हुआ था ?
(A) 200 ई० पूर्व – 200 ई० में
(B) 200 ई० पूर्व – 50 ई० में
(C) 100 ई० पूर्व – 100 ई० में
(D) 200 ई०- 300 ई० में
उत्तर:
(A) 200 ई० पूर्व – 200 ई० में

10. एकलव्य की कथा निम्नलिखित में से कौन-से ग्रंथ में मिलती है?
(A) महाभारत
(B) रामायण
(C) मनुस्मृति
(D) जातक कथा
उत्तर:
(A) महाभारत

11. पाणिनि द्वारा लिखित ग्रन्थ का नाम बताएँ
(A) रामायण
(B) महाभारत
(C) अष्टाध्यायी
(D) महावंश
उत्तर:
(C) अष्टाध्यायी

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

12. निम्नलिखित में से किस अभिलेख में रेशम बुनकरों की एक श्रेणी द्वारा (437-38 ई० में) सूर्य मंदिर निर्माण का उल्लेख मिलता है?
(A) मंदसौर अभिलेख
(B) गढ़वा अभिलेख
(C) समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) मंदसौर अभिलेख

13. हस्तिनापुर गाँव कहाँ स्थित है?
(A) उत्तर:प्रदेश में
(B) मध्यप्रदेश में
(C) बिहार में
(D) बंगाल में
उत्तर:
(A) उत्तर:प्रदेश में

14. महाभारत के लेखक का नाम
(A) महर्षि वेदव्यास
(B) महर्षि वाल्मीकि
(C) महर्षि तुलसीदास
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) महर्षि वेदव्यास

15. गौतमी-पुत्र-सिरी-सातकणि किस वंश का था?
(A) शक
(B) सातवाहन
(C) मौर्य
(D) कण्व
उत्तर:
(B) सातवाहन

16. ‘अष्टाध्यायी’ का लेखक है
(A) मनु
(B) चरक
(C) पाणिनि
(D) शूद्रक
उत्तर:
(C) पाणिनि

17. मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का अधिकार किसको दिया जाता था?
(A) ज्येष्ठ पुत्र को
(B) सबसे बड़ी पुत्री को
(C) सबसे छोटे पुत्र को
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) ज्येष्ठ पुत्र को

18. ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक का लेखक था
(A) मनु
(B) पाणिनि
(C) शूद्रक
(D) एकलव्य
उत्तर:
(C) शूद्रक

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
गोत्र बहिर्विवाह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गोत्र से बाहर विवाह करने को गोत्र बहिर्विवाह कहा गया है।

प्रश्न 2. अंतर्विवाह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
एक ही गोत्र, कुल या जाति में विवाह-संबंध को अंतर्विवाह कहा गया है।

प्रश्न 3.
बहुपत्नी प्रथा क्या होती है?
उत्तर:
एक ही पुरुष द्वारा एक से अधिक पत्नियाँ रखना, बहुपत्नी प्रथा कहलाती है।

प्रश्न 4.
एकलव्य की कथा कौन-से ग्रंथ में मिलती है?
उत्तर:
एकलव्य की कथा ‘महाभारत’ में मिलती है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 5.
संस्कृत अभिलेखों व ग्रंथों में व्यापारियों के लिए क्या शब्द प्रयुक्त किया गया है?
उत्तर:
संस्कृत अभिलेखों व ग्रंथों में व्यापारियों के लिए वणिक शब्द प्रयुक्त किया गया है।

प्रश्न 6.
विवाह-संस्कार में वर-वधू द्वारा हाथ पकड़ने की प्रथा को क्या कहा गया?
उत्तर:
विवाह-संस्कार में वर-वधू द्वारा हाथ पकड़ने की प्रथा को पाणिग्रहण कहा गया।

प्रश्न 7.
वर-वधू द्वारा अग्नि के समक्ष सात फेरे लेने को क्या संज्ञा दी गई?
उत्तर:
वर-वधू द्वारा अग्नि के समक्ष सात फेरे लेने को सप्तपदी कहा गया।

प्रश्न 8.
वर्ण-व्यवस्था में असंस्कृतभाषी लोगों को क्या कहकर पुकारा गया?
उत्तर:
वर्ण-व्यवस्था में असंस्कृतभाषी लोगों को म्लेच्छ या असभ्य कहकर पुकारा गया।

प्रश्न 9.
वर्ण-व्यवस्था में चाण्डाल किसे कहा गया?
उत्तर:
शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चाण्डाल कहा गया।

प्रश्न 10.
पितृवंशिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
पितृवंशिकता से अभिप्राय वह वंश-परंपरा है जो पिता से पुत्र, फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि से चलती है। इसमें पैतृक संपत्ति पुत्रों में विभाजित होती है।

प्रश्न 11.
वर्ण-व्यवस्था वाले समाज में चाण्डाल एवं अपवित्र समझे गए लोगों को कौन-सा स्थान प्राप्त था?
उत्तर:
इनको सबसे निम्न कोटि में रखा गया था।

प्रश्न 12.
मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का बँटवारा किस प्रकार बताया गया है?
उत्तर:
मनुस्मृति के अनुसार, माता-पिता की मृत्यु के बाद पैतृक जायदाद का सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना. चाहिए, किंतु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था।

प्रश्न 13.
मनुस्मृति के अनुसार पैतृक संपत्ति में स्त्रियों के क्या अधिकार थे?
उत्तर:
मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 14.
मनुस्मृति के अनुसार स्त्रीधन क्या था?
उत्तर:
विवाह के समय मिले उपहार तथा पति द्वारा दिए गए उपहार स्त्रीधन था, जिस पर स्त्रियों का स्वामित्व माना। जाता था।

प्रश्न 15.
मातृवंशिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
मातृवंशिकता से अभिप्राय वह वंश-परंपरा है, जो माँ से जुड़ी होती है। ऐसी परंपराओं के उदाहरण अति प्राचीन काल में ही मिलते हैं।

प्रश्न 16.
ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्त्तव्य क्या था?
उत्तर:
ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्त्तव्य तीन उच्च वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) की सेवा थी।

प्रश्न 17.
मनुस्मृति (संस्कृत में) की रचना का काल कौन-सा है?
उत्तर:
मनुस्मृति की रचना लगभग 200 ई० पू० से लेकर 200 ई० के बीच की गई।

प्रश्न 18.
पाणिनि की अष्टाध्यायी (संस्कृत व्याकरण) कब लिखी गई?
उत्तर:
लगभग 500 ई०पू० में पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी लिखी गई।

प्रश्न 19.
प्रारंभिक अभिलेख किस भाषा में खुदे हुए हैं?
उत्तर:
प्राकृत भाषा में।

प्रश्न 20.
महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का अंग्रेज़ी अनुवाद किसने और कब शुरू किया?
उत्तर:
जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन (J.A.B. Van Buitenen) ने महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का अंग्रेजी अनुवाद सन् 1973 में शुरू किया।

प्रश्न 21.
महाभारत की मूल कथा के रचयिता किसे माना जाता है?
उत्तर:
महाभारत की मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था।

प्रश्न 22.
हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश के कौन-से जिले में है?
उत्तर:
हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में स्थित एक गाँव है।

प्रश्न 23.
‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाटक का लेखक कौन है?
उत्तर:
शूद्रक ने ‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाटक की रचना की।

प्रश्न 24.
‘मृच्छकटिकम्’ का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
‘मृच्छकटिकम्’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मिट्टी की गाड़ी’।

प्रश्न 25.
सातवीं शताब्दी में कौन-सा बौद्ध-यात्री चीन से भारत आया?
उत्तर:
ह्यूनसांग नामक चीनी-यात्री राजा हर्षवर्धन के काल में भारत आया।

प्रश्न 26.
‘कुन्ती ओ निषादी’ की लेखिका का नाम बताएँ।
उत्तर:
‘कुन्ती ओ निषादी’ की लेखिका (बांग्ला लेखिका) महाश्वेता देवी हैं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 27.
यायावर (घुमन्तु) पशुपालक कबीलों के लोगों को ब्राह्मण ग्रंथों में क्या कहा गया है?
उत्तर:
ब्राह्मण ग्रंथों में ऐसे लोगों को, जिन्हें संस्कृत का ज्ञान नहीं था, म्लेच्छ कहा गया।

प्रश्न 28.
वेदों की भाषा क्या थी?
उत्तर:
संस्कृत।

प्रश्न 29.
महाभारत में कुल कितने पर्व व अध्याय हैं?
उत्तर:
महाभारत में कुल 18 पर्व एवं 1948 अध्याय हैं।

प्रश्न 30.
सुदर्शन सरोवर का जीर्णोद्धार किसने करवाया?
उत्तर:
सुदर्शन सरोवर का जीर्णोद्धार शक शासक रूद्रदामन ने करवाया था।

प्रश्न 31.
महाभारत की प्राप्त पांडुलिपियों को कितने भागों में बाँटा गया है?
उत्तर:
महाभारत की पांडुलिपियों को दो भागों, उत्तरी व दक्षिणी भागों में बाँटा गया है।

प्रश्न 32.
विशिष्ट परिस्थितियों में किस स्त्री ने सत्ता का उपभोग किया?
उत्तर:
विशिष्ट परिस्थितियों में प्रभावति गुप्त ने सत्ता का उपभोग किया।

प्रश्न 33.
भारतीय विद्वान् एस०एन० बैनर्जी ने महाभारत पर कौन-सी पुस्तक लिखी?
उत्तर:
एस०एन० बैनर्जी ने महाभारत पर ‘Parties, Politics and the Political ideas of Mahabharata’ नामक पुस्तक लिखी।

प्रश्न 34.
श्रीमद्भगवद् गीता में कितने श्लोक हैं?
उत्तर:
श्रीमद्भगवद् गीता में लगभग 700 श्लोक हैं।

प्रश्न 35.
धर्मशास्त्र (आश्वलायन) में विवाह के कितने प्रकार बताए गए हैं?
उत्तर:
आश्वलायन में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं।

प्रश्न 36.
रामायण व महाभारत महाकाव्यों की मुख्य कथा का संबंध किससे है?
उत्तर:
रामायण व महाभारत महाकाव्यों की मुख्य कथा का संबंध परिवार में पितृवंशिकता के आदर्श को मजबूत करने से है।

प्रश्न 37.
विवाह संस्कार में ‘पाणिग्रहण’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
वर द्वारा वधू का हाथ पकड़ने की प्रथा को ‘पाणिग्रहण’ संस्कार कहा गया।

प्रश्न 38.
धर्मशास्त्रों में किन ग्रंथों को शामिल किया गया है?
उत्तर:
धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और टीकाएँ तीन तरह के ग्रंथों को धर्मशास्त्रों में शामिल किया गया है।

प्रश्न 39.
धर्मशास्त्र का संकलन काल क्या है?
उत्तर:
धर्मशास्त्रों का संकलन काल 500 ई०पू० से 600 ई० के बीच का है।

प्रश्न 40.
आश्वलायन गृहसूत्र के अनुसार ब्रह्म विवाह किसे माना गया?
उत्तर:
ऐसा विवाह जिसमें वेदों को जानने वाले शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र व आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या को पिता द्वारा दान दिया जाता था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 41.
पैशाच विवाह किसे माना गया?
उत्तर:
ऐसा विवाह जिसमें सोई हुई, घबराई हुई कन्या के साथ बलात्कार या धोखा देकर विवाह किया जाता था।

प्रश्न 42. ‘फा-शियन’ किस देश का रहने वाला था?
उत्तर:
‘फा-शियन’ चीन का रहने वाला था।

प्रश्न 43.
श्रीमद्भगवद् गीता की शिक्षा का सार क्या है?
उत्तर:
श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार वर्ण व जाति के अनुरूप जिसका जो कर्त्तव्य निर्धारित हुआ है, उसे उस कर्त्तव्य को बिना किसी प्रतिफल की कामना से करना चाहिए।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध परंपरा में सामाजिक अनुबंध से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
बौद्ध परंपरा में ‘सामाजिक अनुबंध’ के अनुसार राजपद दैवीय या पैतृक नहीं था, बल्कि एक सामाजिक समझौते का परिणाम था। ऐसे किसी भी उपयुक्त व्यक्ति को राजा चुना जा सकता था जो न्यायप्रिय हो तथा शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए क्षमता रखता हो।

प्रश्न 2.
फाहियान (Fa-xian) ने चाण्डालों की स्थिति के बारे में क्या बताया है?
उत्तर:
फाहियान एक चीनी यात्री था जो ईसा की पाँचवीं सदी के शुरू में भारत आया। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में बताया है कि चाण्डाल शहर और गाँव से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। जब कभी वे नगर या गाँव में आते थे तो उन्हें अपने आने की सूचना किसी वस्तु से आवाज़ करके देनी पड़ती थी।

प्रश्न 3.
लगभग 600 ई०पू० से 600 ई० की अवधि के मध्य भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति में आए बदलावों के प्रभावों का उल्लेख करें।
उत्तर:
लगभग 600 ई०पू० से 600 ई० के बीच आर्थिक व राजनीतिक जीवन में कई तरह के परिवर्तन हुए, जिनका तत्कालीन समाज पर भी अपना प्रभाव पड़ा। उदाहरण के लिए वन क्षेत्रों में कृषि विस्तार से वहाँ रहने वाले लोगों की जीवन-शैली में परिवर्तन आया। बहुत-से कारीगर समूहों का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक भेदभावों को अधिक प्रखर बनाया।

प्रश्न 4.
कौरव और पांडव कौन थे? उनके बंधुत्व संबंधों में क्या परिवर्तन हुआ?
उत्तर:
कौरव व पांडव बांधव जन (Cousins) थे अर्थात् वे चचेरे भाइयों के समूह थे। यह परिवार कुरु राजवंश का था। महाभारत से पता चलता है कि चचेरे भाइयों में संपत्ति व सत्ता को लेकर युद्ध हुआ। स्पष्ट है कि दोनों समूहों में बंधुत्व के संबंधों में राजसत्ता को लेकर बड़ा भारी परिवर्तन हो गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पदों की संक्षिप्त व्याख्या करें (क) बहिर्विवाह, (ख) अंतर्विवाह, (ग) बहुपति प्रथा, (घ) बहुपत्नी प्रथा।
उत्तर:
(क) बहिर्विवाह-बहिर्विवाह से अभिप्राय था, गोत्र से बाहर विवाह करना। (ख) अंतर्विवाह-अंतर्विवाह से अभिप्राय था, वर्ण अथवा जाति के अंदर ही विवाह करना। (ग) बहुपति प्रथा-इस प्रथा में एक स्त्री के एक से अधिक पति होने की प्रथा है। (घ) बहुपत्नी प्रथा-बहुपत्नी प्रथा से अर्थ है एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ होने की परिपाटी।

प्रश्न 6.
कौरवों और पांडवों में बंधुत्व मामले का अंततः समाधान कैसे हुआ? इसका क्या परिणाम निकला?
उत्तर:
कौरवों और पांडवों में बंधुत्व का मसला अंततः एक युद्ध के द्वारा तय हुआ। यह युद्ध महाभारत का युद्ध कहलाया। इसमें पांडवों की विजय हुई। युद्ध के बाद ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर को शासक बनाया गया। इस प्रकार पितृवंशिकता के आदर्श को सुदृढ़ किया गया।

प्रश्न 7.
महाभारत के रचनाकाल के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
महाभारत की रचना लगभग 1000 वर्षों में हुई। शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक थे और यह ‘जयस’ यानी विजय संबंधी ग्रंथ कहलाया था। कालान्तर में यह 24000 श्लोकों के साथ ‘भारत’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। अंततः यह महाभारत कहलाया और अब इसमें एक लाख श्लोक हैं।

प्रश्न 8.
बौद्ध ग्रंथों में सामाजिक गतिशीलता के उदाहरण लिखें।
उत्तर:
बौद्ध ग्रंथों में कई स्थानों पर क्षत्रियों या वैश्यों द्वारा दर्जी, कुम्हार, टोकरी बनाने वाले शिल्पी, माली और रसोइए का पेशा अपनाए जाने के उदाहरण मिलते हैं। इस सामाजिक गतिशीलता से उनकी प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती थी।

प्रश्न 9.
एकलव्य कथा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
एकलव्य कथा के माध्यम से निषादों (जंगल में रहने वाली जनजाति) को धर्म का संदेश दिया जा रहा था। धर्म से अभिप्राय था, अपने-अपने वर्ण कर्त्तव्य का पालन। किसी और जाति/वर्ण के काम को मत अपनाओ। ऐसा करना धर्म विरोधी कार्य होगा।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 10.
एकलव्य कौन था?
उत्तर:
एकलव्य एक निषाद जनजाति का युवक था जो गुरु द्रोणाचार्य से धनुष चलाने की विद्या सीखना चाहता था। गुरु द्रोण केवल क्षत्रियों (विशेषतः कुरु राजवंश) को ही यह विद्या दे रहे थे, इसलिए उन्होंने एक वनवासी निषाद को यह शिक्षा देने से मना कर दिया, लेकिन एकलव्य ने मन से द्रोण को अपना गुरु मानकर प्रतिदिन अभ्यास किया और निपुण धनुर्धर बन गया। उसने कुत्ते के भौंकने की आवाज पर उस कुत्ते के मुँह को बाणों से भर दिया जिसे देखकर अर्जुन और आचार्य द्रोण दोनों को आश्चर्य हुआ। द्रोणाचार्य ने जब एकलव्य से उसके गुरु का नाम पूछा तो उसने स्वयं को उन्हीं का शिष्य बताया। इस बात का पता चलने पर द्रोण ने गुरु-दक्षिणा के रूप में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा माँगा। एकलव्य ने अपना अंगूठा देकर अपना कर्त्तव्यपालन किया, परंतु वह पहले जैसा धनुर्धर नहीं रहा।

प्रश्न 11.
‘भारतीय समाज में लिंग भेदभाव था।’ इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राचीन भारतीय समाज में भी लिंग के आधार पर लड़कियों के प्रति भेदभाव विद्यमान था। ‘ऋग्वेद’ में पुत्र कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषतः इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई है। पैतृक पारिवारिक संपत्ति में भी भेदभाव का आभास मिलता है। पैतृक संपत्ति का वारिस पुत्र ही था। लड़की की इसमें हिस्सेदारी नहीं स्वीकारी गई।

प्रश्न 12.
मनुस्मृति के अनुसार पुरुष के धन अर्जन के साधन कौन-से थे?
उत्तर:
औरत के अधिकार में मात्र उपहार से प्राप्त धन ही शामिल था परंतु पुरुष, मनु के अनुसार, सात तरीकों से धन अर्जित कर सकता था। ये तरीके थे- उत्तराधिकार, खोज, खरीद, विजित करके, निवेश करके, कार्य द्वारा तथा सज्जन मित्रों से उपहारस्वरूप भेंट स्वीकार करके।

प्रश्न 13.
कुलीन परिवारों में स्त्री की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
कुलीन परिवारों में स्त्रियों के लिए भौतिक सुविधाएं तो अधिक थीं, परंतु स्वतंत्रता कम थी। उन पर पुरुष का नियंत्रण अपेक्षाकृत अधिक था, यहाँ तक कि उसे ‘वस्तु-सम’ ही समझा जाता था।

प्रश्न 14.
किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को दानशीलता कैसे प्रभावित करती थी?
उत्तर:
दानशीलता धनी व्यक्ति के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम रही है। समाज में कंजूस व्यक्ति का सम्मान नहीं था। चारण/कवि दानी व्यक्तियों की प्रतिष्ठा में गीत-काव्य रचते थे। इससे धनी दानदाता की जय-जयकार होती थी।

प्रश्न 15.
विवाह संस्कार में ‘मधुपर्क’ किसे कहा गया?
उत्तर:
वर-वधू की चुनाव की प्रक्रिया के बाद वधू का पिता वर को बारात सहित आमंत्रित करता और उसका सम्मान करता था जिसे ‘मधुपर्क’ कहा गया।

प्रश्न 16.
धर्म-ग्रंथों में विवाह के कितने प्रकार बताए गए हैं?
उत्तर:
धर्म-ग्रंथों में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं-(i) ब्रह्म विवाह, (ii) प्रजापत्य विवाह, (ii) आर्ष विवाह, (iv) दैव विवाह, (v) असुर विवाह, (vi) गांधर्व विवाह, (vii) राक्षस विवाह, (viii) पैशाच विवाह ।

प्रश्न 17.
‘गोत्र’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
‘गोत्र’ से अभिप्राय है एक ही पूर्वज की संतान या उत्तराधिकारियों का समूह । ऐसा समूह रक्त संबंधों पर आधारित माना जाता है। इसके सदस्य स्वयं को एक ही पूर्वज की संतान स्वीकारते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में ऐसे समूहों के सदस्यों में विवाह संबंधों के वर्जित होने के प्रमाण मिलते हैं।

प्रश्न 18.
महाभारत की विषय-वस्तु को इतिहासकार कैसे बाँटते हैं?
उत्तर:
महाभारत की विषय-वस्तु को इतिहासकार मुख्यतः दो भागों में बाँटते हैं। पहला आख्यान, जिसके अंतर्गत कहानियों का संग्रह है। दूसरा उपदेशात्मक, जिसके अंतर्गत सामाजिक व्यवहार के मानदंड आते हैं।

प्रश्न 19.
स्त्रीधन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनु के अनुसार स्त्रीधन में शामिल था-(i) कन्यादान के समय मिला धन; (ii) माता-पिता व भाई से मिले उपहार; (ii) विदाई के समय मिली भेंट; (iv) विवाह के बाद पति से मिलने वाले उपहार; और (v) विभिन्न अवसरों पर मिलने वाली भेंट अर्थात् उपहार।

प्रश्न 20.
‘वर्ण’ शब्द के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
‘वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वरी’ धातु से हुई बताई गई है, जिसका अर्थ है वरण (चयन) करना। यानी व्यवसाय का चयन करना। कुछ विद्वान ‘वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति का संबंध ‘रंग’ से भी जोड़ते हैं। उनके अनुसार वर्ण (रंग) का प्रयोग गौण वर्ण के आर्यों को श्याम वर्णीय अनार्यों से अलग करने के संदर्भ में आया।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 21.
वैदिक कालीन ‘यज्ञ परम्परा’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
‘यज्ञ’ एक वैदिक कर्मकांड है जिसमें अग्नि के हवन कुंड के समक्ष बैठकर मंत्रोच्चारण के साथ किसी निश्चित उद्देश्य . की प्राप्ति के लिए हवन कुंड में आहुतियाँ डाली जाती हैं।

प्रश्न 22.
‘आश्रम प्रणाली’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
उत्तर वैदिक काल में व्यक्ति की आयु 100 वर्ष मानकर उसे निम्नलिखित चार भागों (आश्रमों) में बाँटा गया है

  • ब्रह्मचर्य आश्रम पहले 25 वर्ष की आयु तक।
  • गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु तक।
  • वानप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्ष की आयु तक।
  • संन्यास आश्रम 75 से 100 वर्ष की आयु तक।

प्रश्न 23.
महाभारत का रचनाकार किसे माना जाता है?
उत्तर:
महाभारत का रचनाकार महर्षि वेदव्यास को माना जाता है। जनश्रुतियों के अनुसार मुनि वेदव्यास ने यह ग्रंथ श्रीगणेश जी से लिखवाया था।

प्रश्न 24.
ऋग्वेद के ‘दसवें मंडल’ के ‘पुरुषसूक्त’ में दिए वर्ण विभाजन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
‘पुरुषसूक्त’ के एक मंत्र में कहा गया है कि देवताओं ने आदि पुरुष के चार भाग किए। ब्राह्मण उसका मुख, राजन्य बाहु और जंघा वैश्य थे तथा शूद्र उसके पाँव से उत्पन्न हुए।

प्रश्न 25.
जाति-व्यवस्था की दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
जाति-व्यवस्था की. दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • किसी जाति में सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक ही सीमित थी, जिन्होंने उसी जाति में जन्म लिया हो।
  • एक जाति के सदस्यों का विवाह उसी जाति में अनिवार्य था।

प्रश्न 26.
मौर्य काल में श्रेणियों की स्थिति पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।
उत्तर:
मौर्य काल में श्रेणियाँ सरकार के नियंत्रण में काम करती थीं। इन्हें सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। लगभग प्रत्येक श्रेणी पर एक सरकारी अधिकारी होता था, जिसे श्रेणी का अध्यक्ष कहा जाता था। श्रेणी में शिल्पकारों के प्रधान को ज्येष्ठक कहा जाता था।

प्रश्न 27.
भारत में परिवार व्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • परिवार के सदस्यों का वैवाहिक या रक्त-संबंधों का होना अनिवार्य है।
  • परिवार के सदस्य प्रायः पारिवारिक परंपरा और रीति-रिवाज़ों में बँधे होते हैं। वे धार्मिक अनुष्ठानों (यज्ञ, पूजा, अर्चना आदि) को मिलकर संपादित करते हैं।

प्रश्न 28.
मातृवंशीय परंपरा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
मातवंशीय परिवारों में वंश परंपरा माँग से जुड़ी होती है। परिवार में लड़की का महत्त्व अधिक होता है।

प्रश्न 29.
भारत में विवाह संस्था का मूल उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
विवाह संस्था का मूल उद्देश्य विवाह-संबंधों में स्थायित्व कायम करना और पितृवंश को आगे बढ़ाना था। साथ ही भारत में जातीय-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में भी इस संस्था की मुख्य भूमिका रही है।

प्रश्न 30.
गांधारी द्वारा अपने सबसे बड़े पुत्र दुर्योधन को दिए गए परामर्श का उल्लेख करें। इसका क्या परिणाम निकला?
उत्तर:
गांधारी कौरवों की माँ थी। वह अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को युद्ध न करने का परामर्श देती है और युद्ध न करने की विनती भी करती है। उसने कहा, “शांति की संधि करके तुम अपने पिता, मेरा और अपने शुभइच्छकों का सम्मान करोगे…….. विवेकी पुरुष जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है वही अपने राज्य की रखवाली करता है। लालच और क्रोध आदमी को लाभ से दूर खदेड़ ले जाते हैं। इन दोनों शत्रुओं को पराजित कर राजा समस्त पृथ्वी को जीत सकता है …………. युद्ध में कुछ भी शुभ नहीं होता, न धर्म और न अर्थ की प्राप्ति होती है, और न ही प्रसन्नता की; युद्ध के अंत में सफलता मिले यह भी जरूरी नहीं …………… अपने मन को युद्ध में लिप्त मत करो।” स्पष्ट है कि अपनी माँ की इस सलाह को दुर्योधन ने नहीं माना, फलतः युद्ध हुआ और कौरव परिवार का समूल नाश हो गया।

प्रश्न 31.
‘परिवार’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संगठनों में परिवार समाज की एक महत्त्वपूर्ण मूल इकाई है। संस्कृत ग्रंथों में इसके लिए ‘कल’ शब्द का प्रयोग किया गया है। सामान्यतया रक्त संबंधों पर आधारित परिवार को एक स्वाभाविक सामाजिक इकाई मान लिया जाता है, जो कि ठीक नहीं होता क्योंकि रक्त संबंधों की परिधि में कौन-कौन से सगे-संबंधी शामिल हैं, इस बात से परिवार की परिभाषा भिन्न हो जाती है। आज भी हम देखते हैं कि कुछ लोग चचेरे या मौसेरे भाई-बहनों को रक्त-संबंधों में शामिल करते हैं जबकि कुछ अन्य उन्हें शामिल नहीं करते।

प्रश्न 32.
रामायण महाकाव्य के दो प्रमुख नैतिक तत्त्व कौन-से हैं?
उत्तर:
रामायण महाकाव्य के दो नैतिक तत्त्व हैं

  • भलाई की बुराई पर विजय। कथा में राम भलाई के और रावण बुराई के प्रतीक हैं।
  • परिवार रूपी संस्था का आदर्श।

इसमें किसी भी परिस्थिति में पुत्र को पिता की आज्ञा तथा छोटे भाई को बड़े भाई की आज्ञा का पालन करना और स्त्री को पति के प्रति निष्ठावान होना है।

प्रश्न 33.
प्राचीन भारत में पितृवंशिक आदर्श के अपवाद किन स्थितियों में मिलते हैं?
उत्तर:
पितृवंशिक आदर्श को लेकर यदा-कदा अपवाद भी मिलते हैं। पुत्र के न होने पर कई बार तो एक भाई दूसरे का धेकारी हो जाता था तो कभी चचेरे भाई भी राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेते थे। कई बार कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं। प्रभावती गुप्त का शासिका बनने का उदाहरण मिलता है।

प्रश्न 34.
उत्तर भारत में नगरीकरण के विकास का धर्मशास्त्रों से क्या संबंध है?
उत्तर:
उत्तर भारत में 600 ई०पू० से 600 ई० के मध्य नगरों का विकास हुआ। नए नगर हस्तशिल्प उत्पादन व व्यापार के केंद्र थे। इस कारण से यह नगर दूर एवं निकट से आने वाले व्यापारी व अन्य अनेक लोगों के मिलन-स्थल बन गए। फलतः इनमें वस्तुओं के क्रय-विक्रय व उत्पादन के साथ-साथ लोगों में परस्पर विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया भी चली। इससे परंपरागत विचारों एवं विश्वासों पर कई तरह के सवाल उठे। इस कारण से समाज में उथल-पुथल मची। पारिवारिक बंधन कमजोर होने लगे। वर्ण-संकर विवाह (जाति से बाहर दूसरी जाति में) होने लगे तथा प्रेम-विवाह (गांधर्व विवाह) होने लगे। समाज में बढ़ रही इस उथल-पुथल को रोकने के लिए धर्मशास्त्र रचे गए, जिनमें सामाजिक परंपराओं को बनाए रखने पर जोर दिया गया।

प्रश्न 35.
मनुस्मृति में चाण्डालों के क्या कर्त्तव्य बताए गए हैं?
उत्तर:
मनुस्मृति में चाण्डालों के ‘कर्तव्यों’ (Duties) पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिन कामों को घृणित माना गया उन्हें करना मनुस्मृति में चाण्डालों के लिए ‘कर्त्तव्य’ बताया गया; जैसे कि वधिक कार्य, चर्म कार्य, मृत पशु उठाना, सफाई, श्मशान कर्म इत्यादि। उनके लिए नियम था कि वे मृतकों के वस्त्र, लोहे के आभूषण व बर्तनों का प्रयोग करें। रात के समय नगर व गाँवों में उनका प्रवेश वर्जित था। नगर व गाँव में उनका निवास भी वर्जित था।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मशास्त्र में कितने प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है? इनमें से चार उत्तम विवाह कौन-से थे?
उत्तर:
आश्वलायन नामक ग्रंथ में प्राचीन भारत में आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

  • ब्रह्म विवाह में वेदों को जानने वाले शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या को पिता द्वारा दान दिया जाता था।
  • दैव विवाह में यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान अपनी कन्या का दान करता था।
  • आर्ष विवाह में लड़की का पिता वर पक्ष से गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर अपनी कन्या का विवाह करता था।
  • प्रजापत्य विवाह में लड़की का पिता यह आदेश देता था तुम दोनों (वर-वधू) एक साथ रहकर आजीवन धर्म का आचरण करो। इसके बाद कन्यादान करता था।
  • असुर विवाह में वर कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता था।
  • गांधर्व विवाह एक प्रकार से युवक-युवती में पारस्परिक प्रेम के आधार पर हुआ विवाह था।
  • राक्षस विवाह में कन्या को जबरन उठाकर विवाह किया जाता था अर्थात् उसे जीतकर अपने अधिकारों में लाया जाता था।
  • पैशाच विवाह में सोई हुई, प्रमत्त, घबराई हुई कन्या के साथ बलात्कार कर या धोखा देकर विवाह किया जाता था।

विवाह के इन आठ प्रकारों में से पहले चार विवाहों-ब्रह्म, प्रजापत्य, आर्ष व दैव को उत्तम माना गया। इन्हें धर्मानुकूल और आदर्श बताया गया है क्योंकि यह ब्राह्मणीय नियमों के अनुकूल थे। जबकि असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को अच्छा नहीं माना गया परंतु ये प्रचलन में थे। यह इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणीय नियमों से बाहर विवाह प्रथाएँ अस्तित्व में थीं।

प्रश्न 2.
ब्राह्मणीय पद्धति ‘गोत्र’ के बारे में आप क्या जानते हैं? क्या यह सर्वत्र समान रूप से लागू थी?
उत्तर:
लगभग 1000 ई०पू० के आस-पास से एक ब्राह्मणीय पद्धति अस्तित्व में आई जिसके अनुसार लोगों की पहचान गोत्रों से भी होने लगी। विशेष रूप से यह ब्राह्मणों में पहले प्रचलन में आई। गोत्र का नामकरण किसी वैदिक ऋषि के नाम से होता था। उस गोत्र के सदस्य उस ऋषि के वंशज समझे जाते थे। गोत्र व्यवस्था की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं

  • विवाह के पश्चात् महिला को पिता के गोत्र का नहीं, अपितु पति के गोत्र का माना जाता था।
  • एक ही गोत्र के सदस्य परस्पर विवाह संबंध नहीं कर सकते थे।

उपर्युक्त इन दोनों नियमों का अनुसरण भी अन्य ब्राह्मणीय नियमों की तरह, सभी लोगों द्वारा हर स्थान पर नहीं होता था। व्यवहार में यहाँ भी भिन्नता थी। उदाहरण के लिए यदि हम अभिलेखों से सातवाहन नरेशों के नामों का अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। इन शासकों की रानियों के नामों से यह प्रतीत होता है कि उनके नाम गौतम और वशिष्ठ गोत्रों से जुड़े थे जो उनके पिता के गोत्र थे। विवाह के बाद भी उन्होंने संभवतः अपने पिता का गोत्र नाम ही कायम रखा। जैसे कि राजा गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि, राजा वसिथि-पुत सिरी-पुलुमायि। संभवतः इन्होंने अपने पति का गोत्र नहीं अपनाया जैसा कि ब्राह्मणीय व्यवस्था में अपेक्षित था। इन नामों के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थीं अर्थात बहिर्विवाह पद्धति की बजाय एक अन्य विवाह पद्धति यहाँ प्रचलन में थी। .

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 3.
धर्मशास्त्रों ने ‘जाति व्यवस्था’ को किस प्रकार स्थायित्व प्रदान किया? स्पष्ट करें।
उत्तर:
धर्मशास्त्रों ने वर्ण और जाति-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में विशेष भूमिका निभाई, उसे ‘उचित’ सामाजिक कर्तव्य बताया। उसे व्यवहार में लाने के लिए सामाजिक नियम बनाए। साथ ही उपदेशात्मक शैली में लोक-कथाओं की रचना की। संक्षेप में, धर्मशास्त्रों ने मुख्यतः निम्नलिखित उपायों का अनुसरण किया

1. दैवीय उत्पत्ति-इस सिद्धांत से जन-सामान्य को यह विश्वास दिलाया गया कि जातियों की उत्पत्ति का कारण ईश्वर है। ब्राह्मण ग्रंथों में पुरुष सूक्त को बार-बार दोहराया गया ताकि लोग अपनी-अपनी जातियों में अपना कर्त्तव्य बिना किसी विरोध के निभाते रहें।

2. आत्मा, कर्म व पुनर्जन्म का सिद्धांत-उपनिषद ग्रंथों में आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ। इसने जाति-व्यवस्था के लिए एक धार्मिक औचित्य प्रस्तुत किया। किसी विशेष जाति (ऊँची या नीची) में जन्म को पूर्व जन्म के कर्मों का फल बताया गया।

3. राजा का कर्त्तव्य-शास्त्रों में वर्ण-व्यवस्था की रक्षा करना राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य बताया गया। साथ ही इस व्यवस्था की आचार-संहिता दी और शासकों को अपने-अपने राज्य में इसका अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। मनुस्मृति में विभिन्न वर्गों के संबंध में न्याय व दंड-विधान मिलता है।

4. उपदेशात्मक उपाय-वर्णाश्रम धर्म को विभिन्न कथा-गाथाओं के माध्यम से भी व्यवहार में बनाए रखने का प्रयास किया गया। साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। गुरु द्रोण व एकलव्य की कथा इस संदर्भ में उल्लेखनीय है।

प्रश्न 4.
‘जाति व्यवस्था’ की कोई पाँच सामान्य विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
‘जाति व्यवस्था’ की निम्नलिखित सामान्य विशेषताएँ हैं …

1. पैतृक व्यवसाय-जाति की पहचान व्यवसाय से हुई। ये व्यवसाय वंशानुगत थे अर्थात् ये पिता से पुत्र तक पहुँचते रहते थे। इसीलिए जाति को आनुवंशिकता (Hereditary) पर आधारित एक वर्ग (Class) बताया गया है।

2. सदस्यता-किसी जाति में सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक ही सीमित थी, जिन्होंने उसी जाति में जन्म लिया। किसी एक जाति से दूसरी जाति में सदस्यता संभव नहीं थी।

3. सजातीय विवाह-एक जाति के सदस्यों का विवाह उसी जाति में अनिवार्य था। जाति से बाहर विवाह पर रोक थी। यद्यपि अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों का उल्लेख मिलता है, परंतु इन्हें अच्छा नहीं समझा जाता था। ऐसे विवाहों से अनेक वर्णसंकर जातियों का भी वर्णन ग्रंथों में आया है।

4. श्रेणीबद्धता-जाति-व्यवस्था श्रेणीबद्ध (सोपानात्मक) संगठन है अर्थात् यह सीढ़ीनुमा है, जिसमें ऊपर से नीचे की ओर प्रत्येक जाति का स्थान निर्धारित होता है।

5. पवित्रता व अपवित्रता की धारणा-जाति-व्यवस्था में पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा निहित थी। निचले स्तर की जातियों को अपवित्र माना गया। चर्म कर्म, मरे पशुओं को उठाना तथा साफ़-सफाई करने वाली जातियों को अपवित्र माना गया। यहाँ तक कि उन्हें अछूत कहा गया। उनके स्पर्श और दर्शन-मात्र से अपवित्र होने की बात कही गई।

प्रश्न 5.
क्या जाति व्यवस्था वाले भारतीय समाज में किसी तरह की सामाजिक गतिशीलता थी? यदि थी, तो उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर:
वर्ग अथवा जाति-व्यवस्था पूर्णतयाः एक जड़-व्यवस्था नहीं रही। इसमें आवश्यकतानुसार कुछ गतिशीलता भी रही है। उदाहरण के लिए, शुरू में वैश्य पशुचारक और किसान थे और शूद्र सेवक थे। धीरे-धीरे उन्नति करके वैश्य व्यापारी व जमींदार हो गए और शूद्र कृषक बन गए, परंतु इस पर भी उन्हें वर्ण-व्यवस्था में द्विज का दर्जा नहीं मिला। विचाराधीन काल के अंत तक आते-आते उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण जैसे ग्रंथों को सुनने का अधिकार मिला। उनकी स्थिति में कुछ सुधार आया। – बौद्ध ग्रंथों में सामाजिक गतिशीलता के उदाहरण-बौद्ध-ग्रंथों में कई स्थानों पर क्षत्रियों व वैश्यों द्वारा दर्जी, कुम्हार, टोकरी बनाने वाले शिल्पी, माली और रसोइए आदि का पेशा अपनाए जाने का उल्लेख मिलता है। इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती थी।

श्रेणी व्यवस्था व सामाजिक गतिशीलता-श्रेणी-व्यवस्था सामाजिक गतिशीलता का एक अन्य उल्लेखनीय उदाहरण है। सामान्य व्यवसाय करने वाली जातियाँ स्वयं को कई बार अपनी ज़रूरतों के अनुरूप श्रेणियों में संगठित कर लेती थीं। ये श्रेणियाँ शिल्पकारों को समाज में प्रतिष्ठा का स्थान प्रदान करती थीं। लगभग पाँचवीं सदी के मंदसौर (मध्य प्रदेश) अभिलेख से रेशम बुनकरों की एक श्रेणी का उल्लेख मिलता है। इस श्रेणी के बुनकर पहले मूलतः गुजरात के लता (Lata) नाम स्थान के रहने वाले थे फिर वे मंदसौर चले आए। इतिहास के इस तथ्य से यह पता चलता है कि श्रेणी जैसे व्यावसायिक संगठन अधिक लाभ की इच्छा से स्थानांतरण भी करते थे अर्थात् इस दृष्टि से भी उनमें गतिशीलता थी।

प्रश्न 6.
वर्ण व्यवस्था का वनवासियों से संपर्क की प्रक्रिया पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
वर्ण व जाति की विचारधारा का प्रभाव भारत में बड़े स्तर पर पड़ा। फिर भी ऐसे बहुत-से वनवासी कबीले थे जो इसके प्रभाव से वंचित थे। संस्कृत ग्रंथों में ऐसे लोगों का उल्लेख प्रायः विचित्र, असभ्य और यहाँ तक कि पशुवत् जैसे विशेषणों के साथ किया गया। मुख्यतः ये ऐसे समुदाय थे जो इसके प्रभाव से वंचित थे। वे पशुपालन और खेतीबाड़ी के व्यवसाय से नहीं जुड़े थे। इनका जीवन मुख्यतः शिकार और कंद-मूल पर निर्भर था। उदाहरण के लिए निषाद इसी वर्ग के अंतर्गत आते थे। एकलव्य संभवतः इसी समुदाय से संबंधित था। इन कबीलों के लोगों की जीवन-शैली भी अलग थी। उनकी भाषा भिन्न थी। ग्रामीण और शहरी लोग प्रायः इन्हें शंका की दृष्टि से देखते थे।

इन लोगों का यदा-कदा ‘सभ्य समाज के लोगों से भी संपर्क होता था। महाभारत व रामायण की कुछ कथाओं से विद्वान ऐसा निष्कर्ष निकालते हैं कि कई बार वर्ण-व्यवस्था के दायरे में आने वाले लोगों तथा जंगल में रहने वाली जनजातियों के मध्य विचारों का आदान-प्रदान होता था। उदाहरण के लिए महाभारत के आदिपर्वन में हिडिंबा और भीम गाथा से यही निष्कर्ष निकाला जाता है।

प्रश्न 7.
प्राचीन भारत में स्त्री के संपत्ति संबंधी अधिकार पर चर्चा करते हुए उसकी स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
प्राचीन भारत में रचे गए अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते। समाज पुरुष प्रधान था। इसमें लैंगिक आधार पर भेदभाव था। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई।

मनुस्मृति में पिता की मृत्यु के बाद पैतृक संपत्ति में सभी पुत्रों का समान अधिकार स्वीकारा गया है। लेकिन पुत्री को पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं दिया है। यहाँ तक कि पुत्र के अभाव व कोई उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में भी यह अधिकार पुत्री को नहीं दिया गया है। मनु ने तो ऐसी संपत्ति को धार्मिक संस्थाओं को देने की बात कही है। सामान्यतया इन शास्त्रकारों ने पति की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति में विधवा के अधिकार को भी नहीं माना है।

केवल मात्र स्त्रीधन यानी उपहार के रूप में मिलने वाले धन पर स्त्री के अधिकार को स्वीकृति दी गई है। राजपरिवारों तथा अन्य कुलीन परिवारों में औरतों के पास सुविधाओं की कमी नहीं थी, परंतु इस पर भी पुरुष की तुलना में उनकी स्थिति गौण ही रहती थी, क्योंकि सामान्य रूप से धन अर्जन के साधनों (औज़ार, भूमि, पशु, खान, जंगल इत्यादि) पर त्रण पुरुषों का ही रहता था। विद्वानों का मानना है कि जनसाधारण में स्त्रियों की स्थिति’ (Status) कुलीन परिवारों की महिलाओं की तुलना में अच्छी थी, क्योंकि साधारण परिवारों की औरतें अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ मिलकर खेत-खलिहानों में काम करती थीं। उन पर ‘पुरुष-नियंत्रण’ अपेक्षाकृत कम था। वे अधिक स्वतंत्र थीं।

प्रश्न 8.
भारत में दानशीलता और सामाजिक प्रतिष्ठा के बीच क्या संबंध रहा है? तमिल साहित्य से कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करें।
उत्तर:
भारत में दान देने की परंपरा रही है। धनी व्यक्तियों के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने का यह एक महत्त्वपूर्ण माध्यम रही है। समाज में कंजूस व्यक्ति का सम्मान नहीं था। उसके पास धन होने के बावजूद भी लोग उसे महत्त्व नहीं देते थे, बल्कि उनसे घृणा करते थे। दानशील व्यक्ति की प्रशंसा की जाती थी। यह काम मुख्यतः उनके चारण एवं कवि करते थे। दानशील व्यक्तियों की प्रतिष्ठा में गीत-काव्य रचे गए। प्राचीन तमिल साहित्य में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन तमिलकम् क्षेत्र में (लगभग 2000 वर्ष पहले) अनेक सरदारियाँ (Chiefdoms) थीं। इनके सरदारों ने चारणों एवं कवियों को आश्रय दिया और उन्होंने अपने आश्रयदाताओं का खूब बखान किया।

कुछ गीत/कविताएँ इनमें से संगम साहित्य में शामिल हुईं जो प्राचीन दक्षिण भारत के सामाजिक व आर्थिक संबंधों को समझने के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हैं। दानशीलता पर रचे गए प्राचीन चारण साहित्य से दो बातें स्पष्ट होती हैं-पहली, समाज में व्यापक विषमता उत्पन्न हो चुकी थी। कुछ लोग काफी धनी थे तो कुछ भुखमरी से ग्रस्त थे। दूसरी बात यह स्पष्ट होती है कि समृद्ध लोग निर्धन लोगों की कुछ सहायता करते थे। लोगों की कुछ भूख मिटती थी तो धनवान को जय-जयकार मिलती थी।

प्रश्न 9.
एक साहित्यिक स्रोत के तौर पर इतिहासकार महाभारत को कैसे पढ़ते हैं?
उत्तर:
इतिहासकार साहित्यिक स्रोतों का उपयोग बड़ी सावधानी से करते हैं। वे इस बात का ध्यान करते हैं कि अमुक ग्रंथ का लेखक कौन है, उसका सामाजिक दृष्टिकोण क्या है, क्योंकि इनका लेखक भी अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकता है। वे ग्रंथ की भाषा पर भी विचार करते हैं। इतिहासकारों को महाभारत जैसे विशाल और जटिल ग्रंथ के सामाजिक इतिहास के पुनर्निर्माण में इस्तेमाल करते हुए इन सभी बातों को ध्यान में रखना पड़ता है। दो तथ्य उल्लेखनीय हैं
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 Img 2

  • भाषा-महाभारत मूलतः संस्कृत में लिखा गया है, परंतु इसकी संस्कृत वेदों और प्रशस्तियों की भाँति जटिल नहीं है। यह उनकी अपेक्षा काफी सरल है।
  • विषय-वस्तु-महाभारत की विषय-वस्तु को इतिहासकार सामान्यतः दो भागों में बाँटते हैं-आख्यान तथा उपदेशात्मक। आख्यान के अंतर्गत कहानियों का संग्रह रखा गया है। जबकि उपदेशात्मक के अंतर्गत सामाजिक आचार-विचार के मानदंड आते हैं। महाभारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपदेशात्मक अंश भगवद्गीता है। इसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महाभारत की ऐतिहासिकता के संदर्भ में ‘हस्तिनापुर की खोज’ पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
संस्कृत साहित्य परंपरा में महाभारत को ‘इतिहास’ (ऐसा ही हुआ) माना गया है। अतः विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता के पहलुओं पर विचार किया है, यहाँ तक कि उत्खनन के माध्यम से भी साक्ष्यों की तलाश की। आओ ‘हस्तिनापुर की खोज’ पर विचार करें-

सदृश्यता के आधार पर महाभारत में वर्णित जिन स्थानों की पहचान की जाती है उनमें ‘हस्तिनापुर’ नामक आधुनिक उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित ग्राम भी है। दावा यह किया जाता है कि यह वही स्थान है जहाँ कभी कुरु राज्य की राजधानी होती थी। ऐसा मानने वालों का यह भी तर्क है कि नाम का तो संयोग संभव है लेकिन इसका कुरु राज्य क्षेत्र में पड़ना मात्र संयोग नहीं हो सकता।

‘हस्तिनापुर’ की ऐतिहासिकता की जाँच के लिए (1951-52) प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता बी.बी. लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य शुरू किया गया। उन्हें यहाँ आबादी के बसावट के पाँच स्तर मिले। जिनमें दूसरा और तीसरा स्तर विचाराधीन विषय पर महत्त्वपूर्ण है। दूसरे स्तर का काल निर्धारण 12वीं से 7वीं शताब्दी ई०पू० के बीच किया गया है। यह लगभग वही अवधि है जिसमें कभी ‘सूत रचनाकारों’ ने महाभारत की मूल गाथा रची थी। इस दूसरे ‘स्तर’ पर तैयार अपनी रिपोर्ट में प्रो० बी.बी. लाल लिखते हैं, “जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ वहाँ से घरों की कोई निश्चित परियोजना नहीं मिलती किंतु मिट्टी की बनी दीवारें और कच्ची मिट्टी की ईंटें अवश्य मिलती हैं। सरकंडे की छाप वाले पलस्तर की खोज इस बात की ओर संकेत करती है कि कुछ घरों की दीवारें सरकंडे की बनी थीं जिन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया जाता था।” तीसरे स्तर, जिसका काल छठी से तीसरी शताब्दी ई०पू० माना गया, के विषय में बी.बी. लाल निष्कर्ष निकालते हैं, “इस स्तर के घर कच्ची ईंटों तथा पक्की ईंटों से बने हुए थे। गंदे पानी की निकासी के लिए शोषक-घट (Soakage Jar) तथा ईंटों के नालों का प्रयोग किया जाता था। वलय-कूपों (Ring-Wells) का उपयोग कुओं (पीने के पानी के लिए) और मल की निकासी वाले गों, दोनों ही रूपों में किया जाता था।”
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 Img 3

बी.बी. लाल के इन दोनों निष्कर्षों को यदि हम ध्यान से पढ़ें तो पाते हैं कि 7वीं शताब्दी ई०पू० तक तो इस स्थान पर पक्की ईंटों का प्रयोग ही नहीं था। ऐसे में जिस भव्य नगर का वर्णन साहित्य में मिलता है, उसकी संभावना पुरातात्विक साक्ष्यों में दिखाई नहीं पड़ती। या तो यह वर्णन कवियों की कल्पना मात्र था या फिर यह मूल गाथा के साथ बाद के काल (ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद) में जोड़ा गया जब इस क्षेत्र में नगरीय विकास हुआ।

प्रश्न 2.
महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का परिचय देते हुए इसकी दो मुख्य विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
शुरू में महाभारत की गाथा मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में चलती रही। कालांतर में इसे ब्राह्मण विद्वानों ने लिखित रूप दिया। वर्तमान में महाभारत के संपूर्ण आदिपर्वन् की कुल 235 हस्तलिपियाँ हैं। इनमें 107 देवनागरी और 26 कन्नड़ लिपि में हैं। शेष कश्मीरी, मैथिली (नेपाल से) बांग्ला, तेलुगु व मलयालम आदि में हैं। इन हस्तलिपियों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं और कोई भी दो हस्तलिपियाँ एक जैसी नहीं हैं। इसीलिए इस ग्रंथ के एक समालोचनात्मक संस्करण की जरूरत पड़ी।

संस्कृत साहित्य में समालोचनात्मक कार्य मूलकथा के निकट पहुँचने का प्रयास होता है। महाभारत के मूल पाठ (शुद्ध रूप) को स्थापित करने का कार्य साधारण नहीं था। यह एक भारी चुनौती थी। इस चुनौती को सन् 1919 में संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान वी.एस. सुकथांकर ने स्वीकार किया। एकत्रित ग्रंथों का वर्गीकरण किया गया और फिर संपूर्ण उपलब्ध साक्ष्यों का अध्ययन करके 13000 पृष्ठों का एक समालोचनात्मक संस्करण तैयार किया गया। इन्हें 19 खंडों में प्रकाशित किया। इसे पूरा होने में 47 वर्ष लगे। इस परियोजना से महाभारत की निम्नलिखित दो विशेषताएँ उभरकर सामने आईं

  • समानता-संस्कृत के मूल पाठों (ग्रंथों) के बहुत से अंशों में समानता थी।
  • क्षेत्रीय प्रभेद-समानता के साथ इन पांडुलिपियों में काफी अंतर भी हैं। वस्तुतः यह ग्रंथ जैसे-जैसे भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसारित हुआ तो धीरे-धीरे इसमें क्षेत्रीय लोक परंपराओं और विश्वासों का समावेश होता गया।

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Read More »

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. कुरु जनपद की राजधानी का क्या नाम था?
(A) वैशाली
(B) इन्द्रप्रस्थ
(C) श्रावस्ती
(D) राजगृह
उत्तर:(B) इन्द्रप्रस्थ

2. बिम्बिसार किस जनपद का सुप्रसिद्ध शासक था?
(A) मगध
(B) कौशल
(C) काशी
(D) अंग
उत्तर:
(A) मगध

3. अंग जनपद की राजधानी थी
(A) चम्पा
(B) वाराणसी
(C) कुशीनगर
(D) वैशाली
उत्तर:
(A) चम्पा

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

4. प्रद्योत किस जनपद का शासक था?
(A) कौशल
(B) अवन्ति
(C) अंग
(D) वत्स
उत्तर:
(B) अवन्ति

5. कौटिल्य कहाँ के रहने वाले थे?
(A) मिथिला के
(B) पावा के
(C) रामग्राम के
(D) कपिलवस्तु के
उत्तर:
(C) रामग्राम के

6. निम्नलिखित में से कौन नंद वंश का संस्थापक था?
(A) महापद्मनन्द
(B) घनानन्द
(C) केशवानन्द
(D) महेश्वरानन्द
उत्तर:
(A) महापद्मनन्द

7. साम्राज्य के रूप में मगध का उत्थान आरम्भ हुआ
(A) बिम्बिसार के शासन काल से
(B) अजातशत्रु के शासन काल से
(C) शिशुनाग के शासन काल से
(D) महापद्मनन्द के शासन काल से
उत्तर:
(A) बिम्बिसार के शासन काल से

8. चन्द्रगुप्त मौर्य की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विजय थी
(A) मगध विजय
(B) पंजाब की विजय
(C) पश्चिमी भारत की विजय
(D) दक्षिणी भारत की विजय
उत्तर:
(A) मगध विजय

9. मौर्य साम्राज्य का संस्थापक था
(A) अशोक
(B) बिन्दुसार
(C) चन्द्रगुप्त मौर्य
(D) बिम्बिसार
उत्तर:
(C) चन्द्रगुप्त मौर्य

10. मौर्य साम्राज्य की राजधानी थी
(A) स्वर्णगिरि
(B) तक्षशिला
(C) पाटलिपुत्र
(D) उज्जैन
उत्तर:
(C) पाटलिपुत्र

11. अशोक के समय का सबसे प्रसिद्ध स्तूप है
(A) रूपनाथ का
(B) सारनाथ का
(C) सांची का
(D) प्रयाग का
उत्तर:
(C) सांची का

12. अशोक ने धम्म प्रचार के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किए, जिन्हें कहा जाता था
(A) अमात्य
(B) सन्निधाता
(C) युक्त
(D) धम्ममहामात्र
उत्तर:
(D) धम्ममहामात्र

13. श्रीनगर और ललितापाटन नामक नगरों की स्थापना की
(A) चन्द्रगुप्त मौर्य ने
(B) अशोक ने
(C) कनिष्क ने
(D) बिन्दुसार ने
उत्तर:
(B) अशोक ने

14. अशोक के समय तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन हुआ
(A) वैशाली में
(B) पाटलिपुत्र में
(C) तक्षशिला में
(D) राजगृह में
उत्तर:
(B) पाटलिपुत्र में

15. अशोक के द्वारा कलिंग का युद्ध लड़ा गया
(A) 269 ई०पू० में
(B) 273 ई०पू० में
(C) 261 ई०पू० में
(D) 251 ई०पू० में
उत्तर:
(C) 261 ई०पू० में

16. मैगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा
(A) 300 ई०पू० से 295 ई०पू० तक
(B) 305 ई०प० से 298 ई०पू० तक
(C) 302 ई०पू० से 298 ई०पू० तक
(D) 302 ई०पू० से 297 ई०पू० तक
उत्तर:
(C) 302 ई०पू० से 298 ई०पू० तक

17. कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की रचना की
(A) हिन्दी भाषा में
(B) पाली भाषा में
(C) संस्कृत भाषा में
(D) प्राकृत भाषा में
उत्तर:
(C) संस्कृत भाषा में

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

18. मौर्य-शासनकाल में गोचरन (चरागाह) भूमि की व्यवस्था करने वाला कहलाता था
(A) लवणाध्यक्ष
(B) गोडाध्यक्ष
(C) सूत्राध्यक्ष
(D) विवीताध्यक्ष
उत्तर:
(D) विवीताध्यक्ष

19. बिन्दुसार के दरबार में आने वाला ग्रीक राजदूत था
(A) एरियन
(B) मीनाण्डर
(C) डायमेकस
(D) सेल्यूकस
उत्तर:
(C) डायमेकस

20. कौटिल्य के अनुसार, मौर्यकाल में स्त्री गुप्तचरों में हुआ करती थी
(A) शिल्पकारिका
(B) भिक्षुणी
(C) वेश्या
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

21. मौर्य साम्राज्य मुख्य रूप से विभक्त था
(A) आठ प्रान्तों में
(B) चार प्रान्तों में
(C) दो प्रान्तों में
(D) पाँच प्रान्तों में
उत्तर:
(D) पाँच प्रान्तों में

22. मौर्यकालीन शासन-व्यवस्था की सर्वाधिक छोटी इकाई थी
(A) प्रान्त
(B) नगर
(C) मुक्ति
(D) ग्राम
उत्तर:
(D) ग्राम

23. उड़ीसा का वह स्थान जहाँ से अशोक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं
(A) कलिंग
(B) जौगड़
(C) कटक
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) जौगड़

24. अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताया है
(A) विल्हण ने
(B) कल्हण ने
(C) रविकीर्ति ने
(D) हरिषेण ने
उत्तर:
(B) कल्हण ने

25. अशोक का तेरहवां शिलालेख, जिसमें कलिंग विजय का वर्णन है, प्राप्त हुआ है
(A) धौली से
(B) मानसेहरा से
(C) जौगढ़ से
(D) गिरनार से
उत्तर:
(A) धौली से

26. पाषाण स्तम्भ का ऊपरी भाग जो राष्ट्रीय चिहन के रूप में लिया गया है वह है
(A) सारनाथ का
(B) प्रयाग का
(C) कौशाम्बी का
(D) इलाहाबाद का
उत्तर:
(A) सारनाथ का

27. सातवाहनों की राजभाषा थी
(A) संस्कृत
(B) पाली
(C) तमिल
(D) प्राकृत
उत्तर:
(D) प्राकृत

28. गौतमी पुत्र शातकर्णि ने उपाधि धारण की
(A) स्वामी
(B) महाराज
(C) राजराज
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

29. सातवाहन काल में नगरों में जलपूर्ति का प्रबन्ध करने वाले अधिकारी को कहा जाता था
(A) पनिपहारक
(B) पनिहारक
(C) पनिहार
(D) पनिहारा
उत्तर:
(A) पनिपहारक

30. श्रेणी धर्म क्या था?
(A) निगम सभा
(B) धर्म सभा
(C) व्यापारिक निगम
(D) राजसभा
उत्तर:
(C) व्यापारिक निगम

31. सातवाहन काल में व्यावसायिक संघ की अलग-अलग श्रेणी के प्रधान को कहा जाता था
(A) श्रेष्ठिन
(B) श्रेष्ठ
(C) श्रेणिक
(D) श्रोता
उत्तर:
(A) श्रेष्ठिन

32. कुषाण काल में कला का प्रमुख केन्द्र था
(A) मथुरा
(B) तक्षशिला
(C) वाराणसी
(D) पेशावर
उत्तर:
(A) मथुरा

33. कुषाणों को भारत की किस शक्ति ने हराया?
(A) चोलों ने
(B) राष्ट्रकूटों ने
(C) गुप्तशासकों ने
(D) आन्ध्रशासकों ने
उत्तर:
(C) गुप्तशासकों ने

34. ‘पुरुषपुर’ किस शासक की राजधानी थी?
(A) अशोक की
(B) हर्ष की
(C) समुद्रगुप्त की
(D) कनिष्क की
उत्तर:
(D) कनिष्क की

35. ‘चरक संहिता’ में वर्णन है
(A) रामायण का
(B) महाभारत का
(C) चित्रकला का
(D) भारतीय जड़ी-बूटियों का
उत्तर:
(D) भारतीय जड़ी-बूटियों का

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

36. भारतीय व यूनानी कला का मिश्रण थी
(A) गुप्त कला
(B) मथुरा कला
(C) गन्धार कला
(D) अमरावती कला
उत्तर:
(C) गन्धार कला

37. ‘संगम’ किस भाषा का शब्द है?
(A) हिन्दी
(B) संस्कृत
(C) तमिल
(D) कन्नड़
उत्तर:
(B) संस्कृत

38. ‘संगम’ शब्द का अर्थ है
(A) सभा
(B) समिति
(C) राजा
(D) प्रजा
उत्तर:
(A) सभा

39. तमिल संगम थी
(A) तमिल सेना
(B) नदी
(C) कवियों की सभा
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) कवियों की सभा

40. प्रथम संगम कहाँ हुआ था?
(A) मदुरा
(B) कपातपुरम्
(C) कांची
(D) चेन्नई
उत्तर:
(A) मदुरा

41. तोलकाप्पियम किस संगम का ग्रन्थ है?
(A) प्रथम
(B) द्वितीय
(C) तृतीय
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) द्वितीय

42. संक्षिप्त वेद कहा जाता है
(A) तोलकाप्पियम
(B) पत्थुप्पात्तु
(C) तिरुकुराल
(D) शिलप्पादिकारम्
उत्तर:
(C) तिरुकुराल

43. वनिगर कहते थे
(A) कृषक को
(B) सैनिक को
(C) व्यापारी को
(D) ब्राह्मण को
उत्तर:
(C) व्यापारी को

44. ‘मा’ व ‘वेलि’ कहते थे
(A) भूमि की माप
(B) पैदल व हस्ति सेना
(C) नृत्य व नृत्यांगना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) पैदल व हस्ति सेना

45. ‘एनाडि’ की उपाधि किसे दी जाती थी?
(A) राजा को
(B) योद्धाओं को
(C) मन्त्रियों को
(D) किसानों को
उत्तर:
(B) योद्धाओं को

46. संगमकाल में ‘अवनम्’ कहते थे
(A) नगर में बाजार को
(B) यवनों के निवास स्थान को
(C) राजदरबार को
(D) सेना को
उत्तर:
(A) नगर में बाजार को

47. संगमकाल में भारत से निर्यात होने वाली प्रमुख वस्तुएँ थीं
(A) रूई व रेशम
(B) मसाले
(C) हाथी दाँत
(D) हथियार
उत्तर:
(B) मसाले

48. समुद्रगुप्त का महाकवि था
(A) हरिषेण
(B) वीरसेन
(C) रुद्रसेन
(D) वागसेन
उत्तर:
(A) हरिषेण

49. गुप्त संवत् आरम्भ हुआ
(A) 320 ई० से
(B) 320 ई०पू० से
(C) 240 ई० से
(D) 335 ई० से
उत्तर:
(A) 320 ई० से

50. चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी था
(A) स्कन्दगुप्त
(B) कुमारगुप्त
(C) समुद्रगुप्त
(D) चन्द्रगुप्त द्वितीय
उत्तर:
(C) समुद्रगुप्त

51. ‘गरुड़’ की उपाधि किस गुप्त सम्राट ने धारण की?
(A) चन्द्रगुप्त प्रथम
(B) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(C) समुद्रगुप्त
(D) स्कन्दगुप्त
उत्तर:
(C) समुद्रगुप्त

52. शकारी की उपाधि धारण की
(A) समुद्रगुप्त
(B) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(C) चन्द्रगुप्त प्रथम
(D) कुमारगुप्त
उत्तर:
(B) चन्द्रगुप्त द्वितीय

53. इलाहाबाद स्तम्भ लेख का लेखक था?
(A) नागसेन
(B) हरिषेण
(C) कालिदास
(D) विशाखदत्त
उत्तर:
(B) हरिषेण

54. महरौली लौह-स्तम्भ सम्बन्धित है
(A) समुद्रगुप्त से
(B) समगुप्त से
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय से
(D) कुमारगुप्त से
उत्तर:
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय से

55. गुप्तकाल की मूर्तिकला का सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है
(A) सूर्य की मूर्ति
(B) सारनाथ की बुद्ध-मूर्ति
(C) विष्णु की मूर्ति
(D) मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति
उत्तर:
(B) सारनाथ की बुद्ध-मूर्ति

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

56. पंचतन्त्र का लेखक था
(A) विष्णु शर्मा
(B) शूद्रक
(C) कालिदास
(D) भारवि
उत्तर:
(A) विष्णु शर्मा

57. शकों को पराजित करने वाला गुप्त सम्राट् था
(A) समुद्रगुप्त
(B) चन्द्रगुप्त प्रथम
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(D) रामगुप्त
उत्तर:
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय

58. गुप्तकाल में कला, विद्या एवं व्यापार का प्रमुख केन्द्र था
(A) इन्द्रप्रस्थ
(B) थानेसर
(C) उज्जैन
(D) थार
उत्तर:
(C) उज्जैन

59. ‘मुद्राराक्षस’ किस प्रकार का नाटक है?
(A) जासूसी
(B) ऐतिहासिक
(C) रोमांचक
(D) हास्यप्रद
उत्तर:
(B) ऐतिहासिक

60. गुप्त वंश के पतन का निम्नलिखित कारण था
(A) सैनिक दुर्बलता
(B) हूणों के आक्रमण
(C) स्कन्दगुप्त के अयोग्य उत्तराधिकारी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

61. महाजनपदों के शासक किसानों से उनकी उपज का लगभग 1/6 हिस्सा कर के रूप में लेने लगे थे। यह कर कहा जाता था
(A) भू-राजस्व
(B) बलि
(C) भाग
(D) हिस्सा
उत्तर:
(C) भाग

62. अशोक के प्राप्त अभिलेखों की संख्या है
(A) 44
(B) 77
(C) 75
(D) 66
उत्तर:
(A) 44

63. उत्तर पश्चिमी भारत में लगवाए अभिलेखों में अशोक ने किस लिपि का प्रयोग किया?
(A) खरोष्ठी
(B) ब्राह्मी
(C) आरमाईक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) खरोष्ठी

64. सोलह महाजनपदों का उदय हुआ
(A) ऋग्वैदिक युग में
(B) गुप्त युग में
(C) मौर्य युग में
(D) बुद्ध युग में
उत्तर:
(D) बुद्ध युग में

65. अशोक की कलिंग विजय का उल्लेख किस अभिलेख में मिलता है?
(A) 10वें अभिलेख में
(B) 12वें अभिलेख में
(C) 13वें अभिलेख में
(D) 11वें अभिलेख में
उत्तर:
(C) 13वें अभिलेख में

66. “प्रजा की भलाई में ही उसकी (राजा की) भलाई है।” यह कहा
(A) अशोक ने
(B) कौटिल्य ने
(C) मैगस्थनीज ने
(D) मनु ने
उत्तर:
(B) कौटिल्य ने

67. मैगस्थनीज किस शासक के दरबार में मेहमान बनकर रहा?
(A) सिकन्दर के
(B) चन्द्रगुप्त मौर्य के
(C) कुमारगुप्त के
(D) समुद्रगुप्त के
उत्तर:
(B) चन्द्रगुप्त मौर्य के

68. महाजनपदों की संख्या थी
(A) 20
(B) 18
(C) 26
(D) 16
उत्तर:
(D) 16

69. ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफलता पाई
(A) कनिंघम ने
(B) जेम्स प्रिंसेप ने
(C) जॉन मार्शल ने
(D) व्हीलर ने
उत्तर:
(B) जेम्स प्रिंसेप ने

70. ‘प्रियदस्सी’ की उपाधि धारण की
(A) चंद्रगुप्त में
(B) बिंदुसार ने
(C) अशोक ने
(D) अजातशत्रु ने
उत्तर:
(C) अशोक ने

71. सिक्कों का अध्ययन कहलाता है
(A) पुरातत्व
(B) मुद्राशास्त्र
(C) धर्मशास्त्र
(D) अर्थशास्त्र
उत्तर:
(B) मुद्राशास्त्र

72. प्रिंसेप अशोक के अभिलेखों की ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफल हुआ
(A) 1828 ई० में
(B) 1938 ई० में
(C) 1838 ई० में
(D) 1848 ई० में
उत्तर:
(C) 1838 ई० में

73. सोने की खानों के लिए महत्त्वपूर्ण था
(A) सुवर्णगिरि
(B) उज्जयिनी
(C) तोसाली
(D) तक्षशिला
उत्तर:
(A) सुवर्णगिरी

74. प्रभावती किस गुप्त शासक की पुत्री थी?
(A) चंद्रगुप्त प्रथम
(B) समुद्रगुप्त
(C) चंद्रगुप्त द्वितीय
(D) स्कंदगुप्त
उत्तर:
(C) चंद्रगुप्त द्वितीय

75. छठी सदी ई०पू० से कृषि उपज बढ़ाने का तरीका था
(A) सिंचाई को बढ़ावा
(B) धान का रोपण
(C) लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

76. धम्म का संदेश देने वाला था
(A) अशोक
(B) चाणक्य
(C) बिंदुसार
(D) चंद्रगुप्त मौर्य
उत्तर:
(A) अशोक

77. शिल्पकारों और व्यापारियों के संघ को कहा जाता था
(A) समूह
(B) श्रेणी
(C) गण
(D) समिति
उत्तर:
(B) श्रेणी

78. धम्म महामात्र नामक विशेष अधिकारी नियुक्त करने वाला था
(A) समुद्रगुप्त
(B) चंद्रगुप्त मौर्य
(C) अशोक
(D) चंद्रगुप्त द्वितीय
उत्तर:
(C) अशोक

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वप्रथम सिक्कों का चलन कब आरंभ हुआ?
उत्तर:
सर्वप्रथम सिक्कों का चलन पाँचवीं सदी ई०पू० के लगभग से आरंभ हुआ।

प्रश्न 2.
जनपद शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जनपद शब्द का अर्थ है जहाँ लोगों ने अपना पाँव रखा अर्थात् जहाँ बस गए।

प्रश्न 3.
गंगा व सोन नदियों के संगम पर ‘पाटलिपुत्र’ नामक नगर की स्थापना किसने की?
उत्तर:
पाटलिपुत्र नगर की स्थापना बिम्बिसार ने की।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 4.
अभिलेखों के अध्ययन को क्या कहते हैं?
उत्तर:
अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेख शास्त्र कहते हैं।

प्रश्न 5.
पंचमार्क सिक्कों का आकार कैसा था?
उत्तर:
पंचमार्क सिक्कों का आकार आयताकार या वृत्ताकार होता था।

प्रश्न 6.
जातक क्या है?
उत्तर:
जातक महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ हैं।

प्रश्न 7.
जातकों की संख्या कितनी है?
उत्तर:
जातकों की संख्या 549 है।

प्रश्न 8.
‘पेरिप्लस’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
पेरिप्लस का अर्थ है-समुद्री यात्रा।

प्रश्न 9.
पतिवेदक कौन थे?
उत्तर:
पतिवेदक अशोक के काल में रिपोर्टर थे।

प्रश्न 10.
‘इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन एपिग्राफिकल ग्लोसरी’ नामक पुस्तक किसकी रचना है?
उत्तर:
‘इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन एपिग्राफिकल ग्लोसरी’ डी०सी० सरकार की रचना है।

प्रश्न 11.
बंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन कब हुआ?
उत्तर:
बंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन 1784 ई० में हुआ।

प्रश्न 12.
‘देवानापिय’ किस राजा की उपाधि थी?
उत्तर:
‘देवानांपिय’ राजा अशोक की उपाधि थी।

प्रश्न 13.
ओलीगार्की या समूह शासन किसे कहते हैं?
उत्तर:
ओलीगार्की या समूह शासन उसे कहते हैं जहाँ सत्ता पुरुषों के एक समूह के हाथ में हो।

प्रश्न 14.
राजगाह का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
राजगाह का शाब्दिक अर्थ है ‘राजाओं का घर’।

प्रश्न 15.
सुवर्णगिरि (सोने का पहाड़) कहाँ थी?
उत्तर:
सुवर्णगिरि कर्नाटक में थी।

प्रश्न 16.
महाजनपदों की संख्या कितनी थी?
उत्तर:
महाजनपदों की संख्या 16 थी।

प्रश्न 17.
भारत में सबसे अधिक अभिलेख किस शासक के हैं?
उत्तर:
भारत में सबसे अधिक अभिलेख अशोक के हैं।

प्रश्न 18.
छठी से चौथी सदी ई०पू० में कौन-सा महाजनपद सबसे शक्तिशाली बन गया?
उत्तर:
छठी से चौथी सदी ई०पू० में मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली बन गया।

प्रश्न 19. अपनी सोने की खानों के कारण कौन-सा स्थान उपयोगी था?
उत्तर:
अपनी सोने की खानों के कारण सुवर्णगिरि उपयोगी था।

प्रश्न 20.
अशोक ने धम्म प्रचार के कौन-से विशेष अधिकारी नियुक्त किए?
उत्तर:
अशोक ने धम्म प्रचार के लिए ‘धम्म महामात्र’ नामक विशेष अधिकारी नियुक्त किए।

प्रश्न 21.
भारत के सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रंथ का नाम बताएँ।
उत्तर:
भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ है।।

प्रश्न 22.
भारत में आधुनिक भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल कौन-सी लिपि है?
उत्तर:
आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल ब्राह्मी लिपि है।

प्रश्न 23.
‘लिच्छिवी दौहित्र’ कौन था?
उत्तर:
‘लिच्छिवी दौहित्र’ समुद्रगुप्त था।

प्रश्न 24.
गुप्तकालीन धातुकला का उत्कृष्ट नमूना कौन-सा है?
उत्तर:
गुप्तकालीन धातुकला का उत्कृष्ट नमूना महरौली का लौह स्तम्भ है।

प्रश्न 25.
गुप्त काल की राजभाषा क्या थी?
उत्तर:
गुप्त काल की राजभाषा संस्कृत थी।

प्रश्न 26.
गुप्तकाल का महान् खगोलज्ञ व गणितज्ञ कौन था?
उत्तर:
गुप्तकाल का महान खगोलज्ञ व गणितज्ञ आर्यभट्ट था।

प्रश्न 27.
छठी शताब्दी ई० पूर्व में कितने महाजनपद थे? किन्हीं चार के नाम बताएँ।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पूर्व में कुल 16 महाजनपद थे। इनमें से मगध, काशी, कौशल तथा कुरू को मुख्य चार के रूप में बता सकते हैं।

प्रश्न 28.
तक्षशिला किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
तक्षशिला गांधार जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 29.
बिम्बिसार तथा अजातशत्रु किस महाजनपद के दो प्रसिद्ध शासक थे?
उत्तर:
बिम्बिसार तथा अजातशत्रु मगध जनपद के प्रसिद्ध शासक थे।

प्रश्न 30.
छठी शताब्दी ई०पू० में राजगृह किस महाजनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पू० राजगृह मगध महाजनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 31.
मगध के किस शासक ने अवन्ति महाजनपद को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया?
उत्तर:
शिशुनाग ने अवन्ति को मगध में सम्मिलित किया।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 32.
घनानंद किस वंश का अन्तिम शासक था?
उत्तर:
घनानंद मगध के नंद वंश का अन्तिम शासक था।

प्रश्न 33.
मत्स्य जनपद की राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर:
मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर थी।

प्रश्न 34.
उज्जैन किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
उज्जैन अवन्ति जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 35.
श्रावस्ती किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
श्रावस्ती कौशल जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 36.
वह कौशल राजा, जिसने काशी को जीता था, का नाम क्या था?
उत्तर:
महाकौशल ने काशी को जीता था।

प्रश्न 37.
इन्द्रप्रस्थ किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
इन्द्रप्रस्थ कुरू जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 38.
वज्जि जनपद की राजधानी क्या थी?
उत्तर:
वज्जि जनपद की राजधानी वैशाली थी।

प्रश्न 39.
चन्द्रगुप्त मौर्य ने किस यूनानी शासक को हराया?
उत्तर:
चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस निकेटर नामक यूनानी शासक को हराया।

प्रश्न 40.
मैगस्थनीज़ कौन था?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी शासक सेल्यूकस का राजदूत था।

प्रश्न 41.
अशोक के समय के दो प्रसिद्ध स्तूप कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
सांची तथा भारहुत के स्तूप अशोक के समय के प्रसिद्ध स्तूप हैं।

प्रश्न 42.
इण्डिका का लेखक कौन था?
उत्तर:
इण्डिका का लेखक मैगस्थनीज़ था।

प्रश्न 43.
मैगस्थनीज़ किसके शासन काल में भारत आया?
उत्तर:
मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में भारत आया।

प्रश्न 44.
कौटिल्य कौन था?
उत्तर:
कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमन्त्री था।

प्रश्न 45.
कौटिल्य (चाणक्य) ने राजनीति से सम्बन्धित कौन-सी पुस्तक की रचना की ?
उत्तर:
कौटिल्य (चाणक्य) ने राजनीति से सम्बन्धित ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की।

प्रश्न 46.
अशोक ने किस नयी नैतिक विचारधारा का प्रचार किया?
उत्तर:
अशोक ने धम्म नामक विचारधारा का प्रचार किया।

प्रश्न 47.
धम्म के प्रचार के लिए अशोक ने कौन-से विशेष अधिकारी नियुक्त किए?
उत्तर:
धम्म के प्रचार के लिए अशोक ने धम्म महामात्र अधिकारी नियुक्त किए।

प्रश्न 48.
अशोक ने किन दो नए नगरों की स्थापना की?
उत्तर:
अशोक ने श्रीनगर तथा ललितापाटन नामक दो नगरों की स्थापना की।

प्रश्न 49.
कलिंग का युद्ध कब हुआ?
उत्तर:
कलिंग का युद्ध 261 ई०पू० में हुआ।

प्रश्न 50.
वर्तमान भारत के राष्ट्रीय चिह्न कहाँ से लिए गए हैं?
उत्तर:
वर्तमान भारत के राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ के अशोक स्तम्भ से लिए गए हैं।

प्रश्न 51.
अशोक के अभिलेख कौन-सी दो लिपियों में मिले हैं?
उत्तर:
अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि में मिले हैं।

प्रश्न 52.
हरिषेण कौन था ?
उत्तर:
हरिषेण गुप्त शासक समुद्रगुप्त (335-375 ई०) के दरबार में सेनापति और साथ ही लेखक और कवि था। वह ‘प्रयाग प्रशस्ति’ का लेखक है। इसमें उसने अपने शासक समुद्रगुप्त को ‘परमात्मा तुल्य’ कहते हुए बखान किया है।

प्रश्न 53.
चन्द्रगुप्त मौर्य को ‘एण्ड्रोकोट्स’ किस लेखक ने कहा है?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य को ‘एण्ड्रोकोट्स’ प्लूटार्क ने कहा है।

प्रश्न 54.
सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् अशोक ने कौन-सी उपाधि धारण की?
उत्तर:
सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् अशोक ने ‘देवानामप्रिय’ की उपाधि धारण की।

प्रश्न 55.
सारनाथ स्तम्भ के शिरोभाग में सिंह के बीच में एक चक्र है, यह चक्र किसका सूचक है?
उत्तर:
यह चक्र धर्म का सूचक है।

प्रश्न 56.
कारखानों तथा खानों के मन्त्री को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
कारखानों तथा खानों के मन्त्री को कर्मान्तिक कहा जाता था।

प्रश्न 57.
मौर्यशासन काल में कृषि विभाग के अध्यक्ष को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
मौर्यशासन काल में कृषि विभाग के अध्यक्ष को सीताध्यक्ष कहा जाता था।

प्रश्न 58.
अर्थशास्त्र की रचना किस भाषा में हुई?
उत्तर:
अर्थशास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई।

प्रश्न 59.
मौर्य-शासनकाल में राजकीय कोष का प्रमुख कौन होता था?
उत्तर:
मौर्य-शासनकाल में राजकीय कोष का प्रमुख सन्निधाता होता था।

प्रश्न 60.
मीनाण्डर का शासनकाल क्या था?
उत्तर:
मीनाण्डर का शासनकाल 165-145 ई०पू० था।

प्रश्न 61.
मीनाण्डर की राजधानी का नाम बताएँ।
उत्तर:
मीनाण्डर की राजधानी का नाम शाकल (श्यालकोट) था।

प्रश्न 62.
मीनाण्डर का किस बौद्ध भिक्षु के साथ वाद-विवाद हुआ?
उत्तर:
मीनाण्डर का नागसेन (नागार्जुन) बौद्ध-भिक्षु के साथ वाद-विवाद हुआ।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 63.
पहली बार सोने के सिक्के किसने जारी किए?
उत्तर:
पहली बार सोने के सिक्के हिन्द-यूनानी शासकों ने जारी किए।

प्रश्न 64.
विक्रम संवत् का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर:
विक्रम संवत् का प्रारम्भ 58 ई०पू० से माना जाता था।

प्रश्न 65.
शकों का सबसे शक्तिशाली राजा कौन-था?
उत्तर:
शकों का सबसे शक्तिशाली राजा रुद्रदामा (रुद्रदमन) था।

प्रश्न 66.
सुदर्शन झील की मरम्मत किस शक राजा ने करवाई?
उत्तर:
सुदर्शन झील की मरम्मत रूद्रदमन प्रथम ने करवाई।

प्रश्न 67.
शक संवत् का प्रारम्भ कब से माना जाता है?
उत्तर:
शक संवत् का प्रारम्भ 78 ई० से माना जाता है।

प्रश्न 68.
कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था?
उत्तर:
कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था।

प्रश्न 69.
कनिष्क की राजधानी का नाम बताएँ।
उत्तर:
कनिष्क की राजधानी का नाम पुरुषपुर (पेशावर) था।

प्रश्न 70.
मगध-विजय अभियान में कनिष्क को मिलने वाला बौद्ध विद्वान कौन था?
उत्तर:
मगध-विजय अभियान में कनिष्क को मिलने वाला बौद्ध विद्वान् अश्वघोष था।

प्रश्न 71.
कनिष्क द्वारा बसाए गए नगर का नाम बताएँ।
उत्तर:
कनिष्क द्वारा बसाए गए नगर का नाम कनिष्कपुर था।

प्रश्न 72.
कनिष्क की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय कौन-सी थी?
उत्तर:
कनिष्क की सबसे महत्वपूर्ण विजय चीन क्षेत्र की विजय थी।

प्रश्न 73.
कनिष्क द्वारा धारण की गई उपाधि का नाम बताएँ।
उत्तर:
कनिष्क द्वारा धारण की गई उपाधि का नाम देवपुत्र था।

प्रश्न 74.
तमिल संगम से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
तमिल कवियों की सभा या सम्मेलन तमिल संगम होता है।

प्रश्न 75.
टूटे हुए सिर वाली कनिष्क की मूर्ति किस कला का नमूना है?
उत्तर:
टूटे हुए सिर वाली कनिष्क की मूर्ति मथुरा कला का नमूना है।

प्रश्न 76.
‘बुद्ध चरित’ का लेखक कौन था?
उत्तर:
‘बुद्ध चरित’ का लेखक अश्वघोष था।

प्रश्न 77.
सबसे प्रसिद्ध भारतीय-यूनानी शासक कौन था?
उत्तर:
सबसे प्रसिद्ध भारतीय-यूनानी शासक मीनाण्डर था।

प्रश्न 78.
कुषाणकाल में कौन-सी नई मूर्तिकला का आरम्भ हुआ?
उत्तर:
कुषाणकाल में गान्धार कला की मूर्तिकला का आरंभ हुआ।

प्रश्न 79.
शक संवत् किस शासक ने चलाया?
उत्तर:
शक संवत् कनिष्क ने चलाया।

प्रश्न 80. शक कहाँ के मूल निवासी थे?
उत्तर:
शक मध्य एशिया के मूल निवासी थे।

प्रश्न 81.
सातवाहन राज्य में स्थानीय सामंतों को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
सातवाहन राज्य में स्थानीय सामंतों को महाभोज कहा जाता था।

प्रश्न 82.
भूमि दान-पत्रों को रखने वाले अधिकारी को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
भूमि दान-पत्रों को रखने वाले अधिकारी को पत्तिक पालक कहा जाता था।

प्रश्न 83.
व्याकरण विषय की तोलकाप्पियम पुस्तक किस भाषा में लिखी गई है?
उत्तर:
व्याकरण विषय की तोलकाप्पियम पुस्तक तमिल भाषा में लिखी गई है।

प्रश्न 84.
संगम साहित्य किस भाषा में लिखा गया है?
उत्तर:
संगम साहित्य तमिल भाषा में लिखा गया है।

प्रश्न 85.
‘बाइबिल ऑफ तमिल’ कौन-सी पुस्तक को कहा जाता है?
उत्तर:
‘बाइबिल ऑफ तमिल’ ‘तिरूक्कुराल’ पुस्तक को कहा जाता है।

प्रश्न 86.
तमिल कविता की आँडिसी कौन-सी पुस्तक है?
उत्तर:
तमिल कविता की आँडिसी मणिमेरवलॅम् पुस्तक है।

प्रश्न 87.
कौन-सी पुस्तक ‘बुक ऑफ मैरिज’ है?
उत्तर:
जीवक चिंतामणि ‘बुक ऑफ मैरिज’ है।

प्रश्न 88.
चोल शासकों में सबसे प्रतापी शासक का नाम बताइए।
उत्तर:
चोल शासकों में सबसे प्रतापी शासक का नाम कारिकाल था।

प्रश्न 89.
पुहार की स्थापना किसने की?
उत्तर:
पुहार की स्थापना राजा कारिकाल ने की।

प्रश्न 90.
चेर राज्य की राजधानी का नाम बताएँ।
उत्तर:
चेर राज्य की राजधानी का नाम वज्जि था।

प्रश्न 91.
चेर राज्य के सबसे महान राजा का नाम तथा राज्य का प्रतीक चिहन बताइए।
उत्तर:
महान् राजा शेनगुटुन लाल चेर तथा राज्य का प्रतीक चिह्न धनुष था।

प्रश्न 92.
पाड्य राज्य की राजधानी का क्या नाम था?
उत्तर:
पांड्य राज्य की राजधानी का नाम मदुरा था।

प्रश्न 93.
रोम से प्रमुख व्यापार कौन-से युग में होता था?
उत्तर:
रोम से प्रमुख व्यापार संगम युग में होता था।

प्रश्न 94.
तिरुक्कुरल के लेखक कौन थे?
उत्तर:
तिरुक्कुरल के लेखक तिरुवल्लुवर थे।

प्रश्न 95.
गुप्त वंश का संस्थापक किसे माना जाता है?
उत्तर:
गुप्त वंश का संस्थापक श्री गुप्त को माना जाता है।

प्रश्न 96.
चन्द्रगुप्त प्रथम का शासनकाल बताएँ।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त प्रथम का शासनकाल 320 ई० से 335 ई० तक था।

प्रश्न 97.
गुप्त संवत् का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर:
गुप्त संवत् का प्रारम्भ 320 ई० पू० से हुआ।

प्रश्न 98.
गुप्त संवत् किसने चलाया?
उत्तर:
गुप्त संवत् चन्द्रगुप्त प्रथम ने चलाया।

प्रश्न 99.
लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ किस गुप्त सम्राट ने विवाह किया था?
उत्तर:
लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ चन्द्रगुप्त प्रथम ने विवाह किया था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 100.
चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपना उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त को नियुक्त किया।

प्रश्न 101.
समुद्रगुप्त गद्दी पर कब बैठा?
उत्तर:
समुद्रगुप्त गद्दी पर 335 ई० में बैठा।

प्रश्न 102.
दक्षिण विजय अभियान में समुद्रगुप्त ने कितने राजाओं के संगठन को पराजित किया?
उत्तर:
दक्षिण विजय अभियान में समुद्रगुप्त ने 12 राजाओं के संघ को पराजित किया।

प्रश्न 103.
किस गुप्त शासक ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी।

प्रश्न 104.
भारतीय नेपोलियन किसे कहा गया?
उत्तर:
भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त को कहा गया।

प्रश्न 105.
इलाहाबाद स्तम्भ लेख का लेखक कौन था?
उत्तर:
इलाहाबाद स्तम्भ लेख का लेखक हरिषेण था।

प्रश्न 106.
अर्थशास्त्र पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
कौटिल्य।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुरालेख शास्त्र तथा पुरा लिपिशास्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर:
अभिलेख मोहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों (भूमि अनुदान पत्र) इत्यादि पर मिलते हैं। ये ईंटों या मूर्तियों पर भी मिलते हैं। इनके अध्ययन को पुरालेख शास्त्र (Ephigraphy) कहा जाता है। अभिलेखों तथा अन्य पुराने दस्तावेजों की तिथियों के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र (Palaeography) कहा जाता है।

प्रश्न 2.
600 ई०पू० में भारतीय उपमहाद्वीप पर विकसित हुए शहरों और कस्बों की सूची बनाइए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग छठी शताब्दी ई०पू० में विभिन्न क्षेत्रों में कई नगरों का उदय हुआ। ये नगर हड़प्पा सभ्यता के काफी समय बाद हड़प्पा क्षेत्रों से उत्तर:पूर्व में मुख्यतः गंगा-यमुना की घाटी में पैदा हुए। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थीं। प्रमुख नगरों व कस्बों की सूची इस प्रकार से है-(1) पाटलिपुत्र, (2) उज्जयिनी, (3) कौशाम्बी, (4) अयोध्या, (5) श्रावस्ती, (6) काशी, (7) तक्षशिला अस्सपुर, (8) वैशाली, (9) कुशीनगर, (10) कपिलवस्तु, (11) साकेत, (12) मारूकच्छ (भड़ौच), (13) सोपारा, (14) तक्षशिला।

प्रश्न 3.
भूमि अनुदान पत्रों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भूमि अनुदान पत्र अभिलेखों में ही सम्मिलित किए जाते हैं। इन दान पत्रों में राजाओं, राज्याधिकारियों, रानियों, शिल्पियों, व्यापारियों इत्यादि द्वारा दिए गए धर्मार्थ धन, मवेशी, भूमि आदि का उल्लेख मिलता है। राजाओं और सामंतों द्वारा दिए गए भूमि अनुदान पत्र का विशेष महत्त्व है क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की व्यवस्था और प्रशासन से संबंधित जानकारी मिलती है। ईस्वी की आरंभिक शती से ऐसे अनुदान पत्र मिलने लगते हैं। अधिकांशतः ये ताम्रपत्रों पर खुदे हुए हैं। भूमि अनुदानकर्ता इन्हें दान प्राप्तकर्ता को प्रमाण के रूप में देते थे। सामान्यतः इन अनुदान पत्रों में भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों और अधिकारियों को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का विवरण उपलब्ध है।

प्रश्न 4.
अभिलेखों के साक्ष्य की सीमाएँ स्पष्ट करें।
उत्तर:
इतिहास की पुनर्रचना में अभिलेख विश्वस्त स्रोत माने जाते हैं। परंतु इनकी अपनी सीमाएँ भी होती हैं

(1) कभी-कभी अभिलेखों के कुछ भाग नष्ट हो जाते हैं इससे अक्षर लोप हो जाते हैं। जिस कारण शब्दों वाक्यों का अर्थ समझ पाना कठिन हो जाता है।
राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

(2) एक सीमा यह भी रहती है कि अभिलेखों में उनके उत्कीर्ण करवाने वाले के विचारों को बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त किया जाता है। अतः तत्कालीन सामान्य विचारों से इनका संबंध नहीं होता। फलतः कई बार ये जन-सामान्य के विचारों और कार्यकलापों पर प्रकाश नहीं डाल पाते।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 Img 1

प्रश्न 5.
पंचमार्क सिक्कों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
विनिमय के साधन के रूप में सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ। सबसे पहले छठी शती ई०पू० में चाँदी और ताँबे के आयताकार या वृत्ताकार टुकड़े बनाए गए। इन टुकड़ों पर ठप्पा मारकर अनेक प्रकार के चिह्न जैसे कि सूर्य, वृक्ष, मानव, खरगोश, बिच्छु, साँप आदि खोदे हुए थे। इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहते हैं। इस प्रकार के पंचमार्क सिक्के भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं।

प्रश्न 6.
‘प्रयाग प्रशस्ति’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
प्रयाग प्रशस्ति का संबंध गुप्त शासक समुद्रगुप्त से है। इसका लेखक समुद्रगुप्त का राजकवि हरिषेण था। यह अभिलेख 33 लाइनों में संस्कृत भाषा में है। इससे हमें समुद्रगुप्त के चरित्र (गुणों) तथा सफलताओं की जानकारी मिलती है। समुद्रगुप्त के गुणों का बखान करते हुए प्रयाग प्रशस्ति में लिखा है-“धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभकार्यों से संपन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को खत्म कर दिया है।” समुद्रगुप्त की तुलना परमात्मा से भी की गई है। “वे परमात्मा पुरुष हैं …….वे करुणा से भरे हुए हैं… वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति हैं।”

प्रश्न 7.
कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मौर्यकालीन रचना है। इसके लेखक चाणक्य या विष्णुगुप्त या कौटिल्य हैं। कौटिल्य प्राचीन भारत का एक प्रमुख कूटनीतिज्ञ व नीतिकार था। वह मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का शिक्षक व प्रधानमन्त्री था। पुस्तक के नाम से ऐसा आभास होता है कि इसकी विषय-सामग्री अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित है, परन्तु इसमें शासन-सम्बन्धी विश्लेषण मुख्य है। इसमें शासक, उसकी सलाहकार परिषद्, जनता व शासक सम्बन्ध, न्याय व्यवस्था, शासन चलाने की प्रणाली, युद्ध नीति, विदेशी विशेषकर पड़ोसियों से सम्बन्धों के बारे में बताया है। यह रचना 15 खण्डों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड में लेखक ने तत्कालीन राजनीति, शासन-प्रबन्ध, भारत की स्थिति, समाज व संस्कृति को विस्तृत ढंग से बताया है।

प्रश्न 8.
अशोक के अभिलेखों के ऐतिहासिक महत्त्व पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अशोक के अभिलेखों से हमें महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य विस्तार, उसकी शासन-व्यवस्था, धम्म प्रणाली तथा उसके द्वारा बौद्ध धर्म को फैलाने के लिए किए गए प्रयासों के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। ये अभिलेख अशोक के चरित्र, उसकी पड़ोसियों के प्रति नीति तथा मौर्य कला पर भी प्रकाश डालते हैं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 9.
अग्रहार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अग्रहार से हमारा अभिप्राय उस भूमि से है जो अनुदान पत्रों के माध्यम से ब्राह्मणों को दी जाती थी। इस भूमि में ब्राह्मणों को सभी प्रकार के करों से मुक्त रखा गया था। दूसरी ओर इस भूमि से जो आय होती थी वह ब्राह्मणों द्वारा धर्म एवं शिक्षा सम्बन्धी कार्यों पर खर्च की जाती थी।

प्रश्न 10.
गुप्तकाल में किए गए भूमि अनुदानों की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारत में भूमि अनुदान की प्रणाली प्रथम शताब्दी ई० से प्रारंभ हो गई थी। उत्तरी भारत में भूमि अनुदान के उदाहरण गुप्तकाल में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। गुप्तकाल की भूमि अनुदान के संबंध में निम्नलिखित दो विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं

  • भूमि अनुदान मुख्य तौर पर ब्राह्मणों को एवं धार्मिक संस्थाओं को दिया जाता था।
  • दान देते समय दान प्राप्त करने वालों को उनके कर्तव्यों के बारे में स्पष्ट निर्देश दिए जाते थे।

प्रश्न 11.
गुप्तकालीन सिक्कों के बारे में जानकारी दीजिए। अथवा सोने के सिक्के के बारे में एक संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
प्राचीन काल में सोने के कुछ सर्वाधिक सुंदर सिक्के गुप्त शासकों ने चलाए। अनेक सिक्कों पर विष्णु और गरुड़ के चित्र अंकित हैं। चन्द्रगुप्त प्रथम ने सबसे पहले सोने के सिक्के जारी किए। इन सिक्कों में एक ओर चंद्रगुप्त और कुमार देवी की आकृति और दूसरी ओर एक देवी की आकृति तथा नीचे लिच्छवयः शब्द उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त की वीणा बजाते हुए मुद्रा तथा ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकित मुद्रा इस संबंध में विशेष उल्लेखनीय हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय के चाँदी के सिक्कों से पता चलता है कि उसने शकों को हराया। गुप्तकालीन सिक्कों का वजन कुषाण शासकों के सिक्कों के समान है। परंतु कुछ विद्वानों का विश्लेषण है कि कुषाण सिक्कों में स्वर्ण धातु की मात्रा अधिक थी।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 Img 2

प्रश्न 12.
बाद के गुप्त शासकों के काल में सोने के सिक्कों की कमी आने लगी थी। इतिहासकार इसका क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
भारत में छठी शताब्दी ई० से सोने के सिक्कों के संचय कम मिले हैं। स्कंदगुप्त के राज्य काल (467 ई०) के अन्त में सोने के सिक्कों में सोने की मात्रा कम होने लगी थी। कुछ इतिहासकारों ने यह मत व्यक्त किया है कि इस कमी का मुख्य कारण पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद लंबी दूरी के व्यापार में कमी आना था। इससे भारत की संपन्नता प्रभावित हुई तथा इससे भारत में नगरों का पतन होने लगा। परंतु कुछ अन्य इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका तर्क है कि इस काल में नये नगरों तथा व्यापार के नेटवर्क का उदय हो रहा था। उनका मत है कि यह ठीक है कि सिक्के कम मिलने लगे हैं परंतु अभिलेखों और ग्रंथों में सिक्कों का उल्लेख है तो क्या इसका अर्थ यह लिया जाए कि सिक्के प्रचलन में अधिक थे तथा इनका संग्रहण न हुआ हो।

प्रश्न 13.
अशोक के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि पढ़ने में कौन सफल रहा?
उत्तर:
अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। यह आधुनिक भारतीय लिपियों की उद्गम लिपि भी है। ब्राह्मी लिपि को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने 1838 में पढ़ने (De cipher) में सफलता पाई। प्रिंसेप ने पाया कि अधिकांश अभिलेखों एवं सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ राजा का उल्लेख है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम अशोक भी लिखा था।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 Img 3
भारतीय इतिहासकार भारतीय शासकों की वंशावलियों की रचना के लिए विभिन्न अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग करने लगे थे। फलतः बीसवीं सदी के आरंभ तक भारत के राजनीतिक इतिहास की एक सामान्य रूपरेखा तैयार कर ली गई। इसके बाद इतिहासकार राजनीतिक परिवर्तन के संदर्भो को समझने का प्रयास करने लगे।

प्रश्न 14.
धम्म महामात्र कौन थे?
उत्तर:
अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की, इन्हें धम्म महामात्र कहा जाता था। अशोक ने धम्म नीति से अपने साम्राज्य में शांति-व्यवस्था तथा एकता बनाने का प्रयास किया। उसने लोगों में सार्वभौमिक धर्म के नियमों का प्रचार-प्रसार किया। अशोक के अनुसार, धर्म के प्रसार का लक्ष्य, लोगों के इहलोक तथा परलोक को सुधारना था। अशोक ने प्रचार करवाया कि धम्म के पालन से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म महामात्रों को व्यापक अधिकार दिए गए थे। उन्हें समाज के सभी वर्गों के कल्याण और सुख के लिए कार्य करना था।

प्रश्न 15.
‘कनिष्क ‘ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
कनिष्क को इतिहास में एक महान शासक के रूप में जाना जाता है। वह कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। कनिष्क ने 78 ई० (लगभग) में राजगद्दी ग्रहण की। उसकी राजधानी पुरुषपुर थी। उसने अपने शासनकाल में पंजाब, कश्मीर, उज्जैन, मथुरा, मगध आदि क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। कनिष्क की चीन विजय को सबसे महानतम विजय कहा जाता है। उसने चीन के शासक को युद्ध में पराजित करके काफी बड़े क्षेत्र को अपने राज्य में शामिल किया था। कनिष्क एक धार्मिक प्रवृत्ति का बुद्धिमान शासक था। वह मूल रूप से सूर्य की पूजा किया करता था। कनिष्क ने बाद में बौद्ध धर्म अपनाया तथा उसका अनुसरण किया।

बौद्ध धर्म की नवीन शाखा ‘महायान’ के प्रचार-प्रसार में कनिष्क का महत्त्वपूर्ण योगदान था। उसने बौद्ध धर्म से संबंधित कई स्तूपों तथा मठों का निर्माण करवाया। उसने देश-विदेश में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए प्रचारक नियुक्त किए। बौद्ध धर्म की चौथी सभा का आयोजन कनिष्क द्वारा ही करवाया गया था। इस सभा में शामिल भिक्षुओं ने अपने विचारों तथा अनुभव के आधार पर बौद्ध धर्म में चल रहे मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया। कनिष्क बौद्ध भिक्षुओं की धन से भी सहायता करता था ताकि बौद्ध धर्म का प्रचार निर्बाध गति से चलता रहे।

प्रश्न 16.
अशोक के धर्म के कोई दो सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
(i) सहिष्णुता यह अशोक के धम्म का प्रमुख सिद्धांत है। इसका आधार ‘वाणी पर नियन्त्रण’ है। मनुष्य को अवसर के महत्त्व को देखकर बात करनी चाहिए। अपने स्वयं के धर्म की भी अत्यधिक प्रशंसा तथा दूसरों के प्रति मौन रहने से भी तनाव ही बढ़ता है। मनुष्य को दूसरे आदमी के सम्प्रदाय का आदर भी करना चाहिए।

(ii) अहिंसा-धम्म का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त अहिंसा था। इसके मुख्यतः दो पहलू थे-पहला इसके अन्तर्गत पशु-पक्षियों के वध पर रोक लगाई गई। अहिंसा का दूसरा पहलू हिंसात्मक युद्धों (भेरिघोष) को त्यागकर धम्म विजय (धम्मघोष) अपनाना था। वृहद् शिलालेख XIII में उसने कलिंग युद्ध के दौरान हुई विनाशलीला का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।

प्रश्न 17.
छठी शताब्दी ई०पू० में नगरों में शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों (Guilds) के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पू० में गंगा-यमुना की घाटी में नगरों का उदय एवं विकास होने लगा। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। इन नगरों में राजा, सेना, राज्याधिकारियों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में शिल्पकार और व्यापारी भी रहते थे।

इन शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों या संघों का भी उल्लेख मिलता है। प्रत्येक श्रेणी का एक अध्यक्ष होता था। इन श्रेणियों में विभिन्न व्यवसायों से जुड़े कारीगर सम्मिलित होते थे। प्रमुख शिल्पकार श्रेणियाँ थीं-धातुकार (लुहार, स्वर्णकार, ताँबा, कांसा व पीतल का काम करने वाले), बढ़ई, राजगीर, जुलाहे, कुम्हार रंगसाज, बुनकर, कसाई, मछुआरे इत्यादि। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती थीं, उन्हें ऋण प्रदान करती थीं और उनका धन संचय करती थीं। श्रेणियाँ कच्चा माल खरीदती थीं और तैयार माल बाजार में बेचती थीं। ये माल तैयार करने के नियमों का निर्धारण करती थीं। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के आपसी विवादों को सुलझाती थीं। कई बार ये सिक्के भी जारी करती थीं। ये श्रेणियाँ शिक्षण संस्थाओं या धार्मिक संस्थाओं को दान भी देती थीं। सांची स्तूप पर उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि इसके कलात्मक दरवाजों में से एक दरवाजा हाथी दांत का काम करने वाले शिल्पियों के संघ ने बनवाया था।

प्रश्न 18.
पाटलिपुत्र के उत्कर्ष व पतन के बारे में आप क्या जानते हैं? .
उत्तर:
यह अत्यंत उत्सुकता का विषय है कि पाटलिपुत्र का उत्कर्ष व पतन कैसे हुआ। पहले यह एक छोटा-सा गाँव था जो पाटलि के नाम से जाना जाता था। 5वीं सदी ई०पू० में मगध के शासकों ने यहाँ पर राजधानी बदली तथा इसका नाम पाटलिपुत्र कर दिया। चौथी सदी ई०पू० में यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी रहा। इस काल में यह एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक था। बाद में इसका पराभव होने लगा। जब 7वीं सदी ई० में चीनी यात्री ह्यूनसांग ने इस स्थल का दौरा किया तो उसने यहाँ पर नगर के भग्नावशेष को देखा। उसने लिखा कि यहाँ पर बहुत कम लोग रह रहे थे। वर्तमान में यह नगर पटना के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 19.
मैगस्थनीज़ और उसकी पुस्तक इंडिका के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मैगस्थनीज़ को फारस और बेबीलोन के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में राजदूत बनाकर भेजा गया था। वह पाटलिपुत्र में 302 ई० पूर्व से 298 ई०पूर्व तक रहा। इसने भारत के सम्बन्ध में इंडिका नामक पुस्तक लिखी जो मौर्यकालीन भारत के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विदेशी वृत्तांत है। इसमें उसने तत्कालीन भारत की प्राकृतिक स्थिति, मिट्टी, जलवायु, पशु-पौधे व शासन-प्रणाली तथा सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था का विषद वर्णन किया है। यद्यपि इस ग्रंथ में मैगस्थनीज़ ने कुछ बातें सुनी-सुनाई और अविश्वसनीय लिखी हैं, फिर भी ए०एल०बाशम का यह कथन उपयुक्त लगता है, “चाहे मैगस्थनीज़ का लेख उतना पूर्ण एवं यथार्थ नहीं जितना कि हम चाहते हैं, फिर भी इसका महत्त्व है क्योंकि यह एक विदेशी यात्री का भारत के बारे में प्रामाणिक एवं सम्बद्ध वृत्तांत है।” परन्तु दुर्भाग्यवश उसकी मूलकृति (इंडिका) उपलब्ध नहीं है। इसकी जानकारी हमें परवर्ती यूनानी लेखकों (स्ट्रेबो, डियोडोरस, प्लीनी ज्येष्ठ, एरियन, प्लूटार्क आदि) द्वारा अपनी पुस्तकों में दिए गए उद्धरणों से ही मिलती है।

प्रश्न 20.
प्राचीन काल में राजाओं द्वारा भूमि अनुदान क्यों किया जाता था?
उत्तर:
भारत में पहली सदी ई० से शासकों द्वारा भूमि अनुदान देने के प्रमाण मिलने शुरू हो जाते हैं। ये अनुदान धार्मिक संस्था, ब्राह्मणों, भिक्षुओं आदि को दिए जाते थे। इतिहासकारों का मानना है कि भूमि अनुदान अनेक कारणों से दिए गए जो निम्नलिखित अनुसार थे

  • कुछ का मानना है कि शासक अपने धर्म व संस्कृति का प्रसार कर राज्य का विस्तार तथा स्थायित्व चाहते थे।
  • शासक कृषि क्षेत्र का विस्तार करना चाहते थे।
  • इन भूमि अनुदानों से शासक स्थानीय प्रभावशाली और शक्तिशाली वर्ग का समर्थन प्राप्त करना चाहते थे।
  • एक अन्य विचार यह भी है कि शासक अपने आपको समाज के अन्य लोगों से श्रेष्ठ और उच्च मानवीय गुणों वाला दिखाना चाहते थे।

प्रश्न 21.
मौर्यकाल में सैन्य प्रबंध से जडी दूसरी उपसमिति का क्या कार्य था?
उत्तर:
यह उपसमिति यातायात और खानपान की व्यवस्था देखती थी। इसके लिए उसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते थे

  • सेना के हथियार ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था करना।
  • सैनिकों के लिए भोजन तथा पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था करना।
  • सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।

प्रश्न 22.
राष्ट्रवादी इतिहासकारों के लिए अशोक प्रेरणा का स्रोत क्यों था?
उत्तर:
उपनिवेशिक काल में भारत में राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इतिहास लिखते हुए अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना। उनके सकों की तुलना में काफी शक्तिशाली और परिश्रमी था। उसके राज्य का आदर्श उच्च था। वह उन शासकों की अपेक्षा बहुत ही विनीत था, जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ लगाते थे। अशोक के इन्हीं गुणों के कारण उसे राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्रेरणा का स्रोत माना।

प्रश्न 23.
‘मौर्य साम्राज्य का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि बताया गया है’ इसे स्पष्ट करते हुए तीन तर्क दीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्य को अत्यधिक महत्त्व दिया है, परंतु कुछ इतिहासकारों ने इसको नकारा है। उन्होंने इसके लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं

  • मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्ष ही चला जो कोई बड़ा काल नहीं है।
  • मौर्य साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के सारे भागों पर फैला हुआ नहीं था।
  • साम्राज्य की सीमा में भी सभी भागों पर एक-सा नियंत्रण नहीं था।

प्रश्न 24.
भारतीय उपमहाद्वीप में छठी सदी ई०पू० में उदय होने वाले नगरों की कोई तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप पर छठी सदी ई०पू० में अनेक नगरों का उदय हुआ। इन नगरों की विशेषताएँ निम्नलिखित थीं

  • इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे।
  • प्रायः ये सभी नगर स्थल या नदी मार्गों पर बसे थे।
  • मथुरा जैसे नगर सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र थे।

प्रश्न 25.
सरदार कौन होते थे? इनके क्या कार्य थे?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद अनेक क्षेत्रों में शक्तिशाली सरदारों का उदय हुआ। इनका पद पैतृक भी हो सकता था और नहीं भी। ये सरदार विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करते थे। युद्ध के समय ये सेना का नेतृत्व करते थे। साथ ही विवादों को सलझाने में भी मध्यस्थ का काम करते थे। ये सरदार अपने अधीनस्थ लोगों से भेंट प्राप्त करते थे और उसका कछ भाग अपने समर्थकों में बाँटते थे।

प्रश्न 26.
‘छठी शताब्दी ई०पू० में उपमहाद्वीप में पनपे सभी नगर संचार मार्गों पर बसे हुए थे। उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यह बात सही है कि इस काल में पनपे नगर संचार मार्गों पर बसे हुए थे। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित अनुसार है

  • पाटलिपुत्र जैसे नगर नदी मार्ग के किनारे बसे थे।
  • उज्जैन जैसे कुछ नगर भू-तल मार्गों पर बसे थे।
  • पुहार जैसे नगर समुद्रतट पर समुद्री मार्ग पर स्थित थे।

प्रश्न 27.
प्रभावती कौन थी?
उत्तर:
प्रभावती गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त II (375-415 ई०) की पुत्री थी। उसका विवाह वाकाटक शासक से हुआ। प्रभावती के बारे में विशेष बात यह है कि उसने भूमि अनुदान दिया था जो किसी महिला द्वारा भूमिदान का विरला उदाहरण है।

प्रश्न 28.
‘पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी’ नामक पुस्तक किस बात पर प्रकाश डालती है?
उत्तर:
पेरिप्लस’ एक यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है समुद्री रास्ता और ‘एरीथ्रियन’ शब्द का यूनानी में अर्थ है ‘लाल सागर’। इसका लेखक कोई यूनानी है। इस रचना में 80-115 ई० के मध्य रोम को निर्यात होने वाली व्यापारिक मदों का विवरण दिया गया है। इन मदों में भारत से निर्यात होने वाली वस्तुएँ थीं काली मिर्च, दाल-चीनी जैसे गर्म मसाले। इसके बदले में भारत में बहुमूल्य वस्तुएँ (पुखराज, मूंगे, हीरे, सोना आदि) आयात की जाती थीं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 29.
अशोक द्वारा धारण की गई दो उपाधियाँ कौन-सी थीं? उनका अर्थ भी बताइए।
उत्तर:
अशोक द्वारा धारण की गई दो उपाधियाँ निम्नलिखित थीं

  • देवानांपिय,
  • पियदस्सी। ‘देवानांपिय’ का अर्थ है-देवताओं का प्रिय तथा ‘प्रियदस्सी’ का अर्थ है-‘देखने में सुंदर’।

प्रश्न 30.
‘शिल्पादिकारम’ के विवरण से पता चलता है कि पांड्य सरदारों को लोग उपहार देते थे। स्पष्ट कीजिए कि लोग उपहार क्यों देते थे तथा ये सरदार उनका उपयोग किसलिए करते होंगे?
उत्तर:
शिल्पादिकारम् में विवरण मिलता है कि लोगों ने पांड्य सरदार को उपहार में अनेक वस्तुएँ (जैसे हाथीदाँत, शहद, चंदन, हल्दी, इलायची, काली मिर्च, बड़े नारियल, आम, फल, जानवरों व पक्षियों के बच्चे) दीं। लोगों का मानना था कि वे राजा के शासन में रह रहे थे। ये उपहार राजा का सम्मान करने के लिए दिए गए। सरदार इन उपहारों का उपयोग स्वयं करते होंगे अथवा इन्हें अपने समर्थकों के बीच बँटवा देते होंगे।

प्रश्न 31.
600 ई०पू० के बाद नद्री घाटियों और समुद्रतट पर विकसित हुए शहरों और कस्बों की सूची बनाइए। इन शहरों को हम भारत के शहरीकरण की अवस्था क्यों कहते हैं?
उत्तर:
इस काल में विकसित हुए नदी घाटियों तथा समुद्र तटीय नगरों के नाम निम्नलिखित प्रकार से हैं

  • नदी घाटियों में विकसित नए शहर थे-राजगृह, राजगीर, पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, सारनाथ, वाराणसी, मथुरा, कन्नौज, तक्षशिला, सुवर्णगिरि, नालंदा आदि।
  • समुद्रतट पर विकसित हुए शहर थे-चंपा, पुहार, मालाबार, कोदूमनाल, भृगुकच्छ आदि।

हड़प्पा सभ्यता से जुड़े शहरों के पतन के बाद लगभग 1500 वर्षों तक भारत में नगरों का उल्लेख नहीं मिलता है। 1500 वर्षों के बाद नए नगर उत्तरी भारत व अन्य क्षेत्रों में विकसित हुए तो इन नगरों को इतिहासकारों ने भारत में शहरीकरण की दूसरी अवस्था का नाम दिया है।

प्रश्न 32.
मौर्योत्तर काल में कौन-कौन से प्रमुख शिल्प थे?
उत्तर:
मौर्योत्तर काल में वस्त्र बनाने, रेशम बुनने, अस्त्रों एवं विलासिता का निर्माण, लोहारों, धातु शिल्पियों, सुनार, रंगरेज (कपड़ा रंगना), दंत शिल्प, मूर्तिकार गंधियों इत्यादि के प्रमुख कार्य थे।

प्रश्न 33.
रेशम मार्ग किसे कहते हैं? भारत इससे कैसे जुड़ा था?
उत्तर:
चीन से रेशम रोमन साम्राज्य को भेजा जाता था। जिस मार्ग से रेशम चीन से रोमन साम्राज्य जाता था, वह मार्ग रेशम मार्ग (Silk Route) के नाम से जाना जाता था। यह मार्ग चीन से शुरु होकर मध्य एशिया से अफगानिस्तान और ईरान होता हुआ रोम साम्राज्य में पहुँचता था। ईरान से पार्थियन साम्राज्य की स्थापना होने से इस मार्ग में बाधा आई। तब यह रेशम मध्य एशिया से अफगानिस्तान और फिर भारत आकर पश्चिम बंदरगाहों से रोमन साम्राज्य को जाने लगा।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अशोक के प्रमुख अभिलेखों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
देश में सबसे पुराने अभिलेख ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख-स्तंभ लेख हैं। प्रमुख नगर या व्यापार मार्गों पर स्थित ये अभिलेख सारे भारतवर्ष में पाए गए हैं। अफगानिस्तान में ये अरामेइक और यूनानी लिपि में हैं। पाकिस्तान में खरोष्ठी लिपि में तथा शेष भारत में ब्राह्मी लिपि में हैं। अशोक के ये अभिलेख सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों या शासनादेश की श्रेणी में आते हैं। अशोक के प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं

1. चौदह वृहद् शिलालेख-बड़े-बड़े शिलाखंडों पर उत्कीर्ण शिलालेख दिए गए स्थानों पर मिले हैं-मानसेहरा (पाकिस्तान), कलसी (देहरादून, उत्तराखंड), गिरनार (गुजरात), शाहबाजगढ़ी (पाकिस्तान), सोपारा (महाराष्ट्र), धौली और जौगड़ (ओडिशा), मास्की और एरगुड़ि (आन्ध्र प्रदेश)।।

2. लघु शिलालेख-ये शिलालेख प्राप्त हुए हैं-रूपनाथ (जबलपुर, मध्यप्रदेश), गुजरो (दतिया, आंध्र प्रदेश)। इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका प्रारंभ देवनाम् प्रियस अशोक राजस् शब्दों से हुआ है। सहसराम (शाहबाद, बिहार), मास्की (आन्ध्र प्रदेश), ब्रह्मगिरि (कर्नाटक), सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि के पश्चिम में), अरहौरा (मिर्जापुर), दिल्ली, भाव-बैराट (राजस्थान)।

3. स्तम्भ लेख-ये छह स्थानों पर हैं-दिल्ली-टोपरा, दिल्ली-मेरठ, प्रयाग, रामपुरवा, लौरिया नंदनगढ़ व लौरिया अरराज। इनमें से प्रयाग स्तंभ लेख काफी महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें अशोक द्वारा संघ के नियम पालन के लिए भिक्षु-भिक्षुणियों को निर्देश हैं। इसी स्तंभ पर एक और लेख भी मिला है जिसमें अशोक की रानी कारूवारी के द्वारा बौद्ध संघ को दान का उल्लेख है। इसलिए इसको रानी अभिलेख (Queen Edict) भी कहा जाता है। इन अभिलेखों के अतिरिक्त बैराट, सारनाथ, सांची, कौशाम्बी में लघु स्तंभ लेख, धौली व जौगड़ में कलिंग शिलालेख भी प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 2.
अभिलेखों से ऐतिहासिक साक्ष्य किस प्रकार प्राप्त किए जाते हैं? अशोक के अभिलेखों से उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
इतिहासकार और अभिलेखशास्त्री अभिलेखों से किस प्रकार साक्ष्य प्राप्त करते हैं तथा उन साक्ष्यों की सत्यता को स्थापित करने में उन्हें क्या-क्या समस्याएँ आती हैं? यह इतिहास पुनर्निर्माण की प्रक्रिया की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। अशोक के अभिलेखों में साक्ष्य प्राप्त करने व उससे जुड़ी समस्याओं के अध्ययन से इसको समझा जा सकता है। अशोक के अधिकांश शिलालेखों पर उसका नाम नहीं लिखा है। इन अभिलेखों मैं केवल देवानांपिय (देवताओं का प्रिय) और पियदस्सी (प्रियदर्शी) का उल्लेख है। कुछ अभिलेखों में अशोक का नाम था तथा बौद्ध ग्रंथों में अशो गया था। अभिलेख शास्त्रियों ने शैली, भाषा और पुरालिपि विज्ञान के आधार पर परीक्षण कर निष्कर्ष निकाला कि ये अशोक की ही उपाधियाँ थीं तथा यह एक ही शासक था।

अशोक यह दावा करता है कि उससे पूर्व किसी शासक के द्वारा अपने राज्य में प्रतिवेदन (Reports) प्राप्त करने की व्यवस्था नहीं थी। क्या यह दावा ठीक है? क्या यह सत्य है कि उसके पूर्व के राजनीतिक इतिहास में यह व्यवस्था नहीं थी। अभिलेखों के परीक्षण से पता लगता है कि यह बात बढ़ा-चढ़ा कर कही गई है। अशोक के अभिलेखों में कोष्ठकों (Words Within brackets) में शब्द लिखे गए हैं। अभिलेखशास्त्री कभी-कभार इनके साथ कुछ शब्द जोड़कर इनका अर्थ निकालने का प्रयास करते हैं। परंतु साथ ही यह भी ध्यान में रखते हैं कि कहीं मौलिक अर्थ में परिवर्तन न आ जाए।

अशोक ने अपने अधिकांश अभिलेखों को किसी नगर या व्यापारिक मार्गों के समीप लगवाया। इसका क्या अर्थ निकाला जाए ? क्या सभी गुजरने वाले रुककर इन्हें पढ़ते थे। जबकि अधिकतर लोग अशिक्षित होंगे। क्या सारे उपमहाद्वीप पर प्राकृत भाषाओं को समझा जाता था? क्या सम्राट की आज्ञाओं का सभी लोग पालन करते थे। इन साक्ष्यों के आधार पर प्रश्नों के उत्तर जान पाना आसान नहीं है।

अशोक के अभिलेखों में एक अन्य समस्या उभरती है। अशोक अपने 13वें शिलालेख में कलिंग की विजय तथा उससे होने वाली वेदना का विवरण देता है। इससे युद्ध के प्रति उसके व्यवहार में परिवर्तन आया। उसने धम्म विजय का मार्ग अपनाया। परंतु यह स्थिति जटिल हो जाती है जब हम लेख के ऊपरी अर्थ को छोड़कर आगे बढ़ते हैं। दूसरा, उड़ीसा (ओडिशा) से प्राप्त हुए अभिलेखों में अशोक की वेदना का उल्लेख नहीं है। क्या इसका अर्थ यह है कि ये अभिलेख उस क्षेत्र में नहीं हैं जो जीता गया था या इसका अर्थ यह लिया जाए कि उस क्षेत्र में स्थिति अत्यधिक कष्टप्रद थी। अतः शासक उस मुद्दे को बता ही नहीं पाया।

प्रश्न 3.
मुद्राशास्त्र क्या है?
उत्तर:
सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहा जाता है। मुद्राशास्त्र में सिक्कों की बनावट, लिखावट, दृष्यांक आदि का अध्ययन किया जाता है। साथ ही उनमें प्रयोग की गई धातु तथा उनकी प्राप्ति के स्थान का भी विश्लेषण किया जाता है। पुरातात्विक सामग्री में सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शासकों की राज्य सीमा, राज्यकाल, आर्थिक स्थिति तथा धार्मिक विश्वासों के संबंध में सिक्के महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। इनसे सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व की जानकारी भी प्राप्त होती है। मुद्रा प्रणाली का आरंभ मानव की आर्थिक प्रगति का प्रतीक है। मुद्राशास्त्रियों ने इनका अध्ययन कर प्रमुख राजवंशों के सिक्कों की सूचियाँ तैयार की हैं।

भारत में सबसे पहले छठी सदी ई०पू० में चाँदी व ताँबे के आहत सिक्के प्रयोग में आए। पूरे महाद्वीप में खुदाई के दौरान सिक्के मिले हैं। मौर्य काल में सिक्के जारी किए गए। हिंदू-यूनानी शासकों ने सिक्कों पर प्रतियाँ और नाम लिखवाया। कुषाण शासकों ने सोने के सिक्के जारी किए। दक्षिण भारत में भी शासकों ने सिक्के जारी किए। वहाँ से रोमन सिक्के भी मिले हैं। बड़े पैमाने पर गुप्त शासकों के सोने के सिक्के मिले हैं। ये सिक्के काफी भव्य हैं। भारत के अनेक संग्रहालयों (कोलकाता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई आदि) में ये सिक्के सुरक्षित हैं।

प्रश्न 4.
हिन्द-यूनानी व कुषाण सिक्कों की जानकारी दें।
उत्तर:
यूनानी प्रभाव के अन्तर्गत हिन्द-यूनानी शासकों ने मौर्योत्तर काल (लगभग दूसरी सदी ई०पू०) में पहली बार इतने बड़े सिक्के जारी किए जिन पर शासक का नाम तथा चित्र बने थे। इन सिक्कों से यह स्पष्ट था कि ये सिक्के किन-किन राजाओं के हैं। मिनांडर के सिक्के बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। मौर्योत्तर काल में कुषाण शासक व्यापार और वाणिज्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 Img 4
उनका साम्राज्य मध्य एशिया से मध्य भारत तक फैला हुआ था। मध्य एशिया के व्यापार मार्गों पर इनका नियंत्रण था। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने पहली बार नियमित रूप से सोने के सिक्के चलाए। कुषाणों के चाँदी के सिक्के नहीं मिलते। संभवतः यूनानियों और शकों के चाँदी के सिक्के कुषाण साम्राज्य में बिना रोक-टोक चलते थे।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 Img 5
कुषाणों के सिक्कों तथा समकालीन रोमन सिक्कों के वजन में समानता पाई गई है। रोमन और पार्थियन सिक्के उत्तरी और मध्य भारत में अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। अधिकांश रोमन सिक्के सोने और चाँदी के हैं।

प्रश्न 5.
महाजनपदों की आय के स्रोतों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी (Capital) थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी। राज्य को किलेबंद शहर, सेना और नौकरशाही के लिए आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती थी। धन के अभाव में राज्य की व्यवस्था का सच पाना कठिन था। तत्कालीन धर्मशास्त्रों में इस संबंध में अनेक उल्लेख पाए गए हैं। इस काल में रचित इन धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है। इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर तथा अधिकार (Tribute) प्राप्त करे। किन्तु हमें इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि राजा वनवासी और पशुचारी समुदायों से भी धन वसूलते थे या नहीं। हाँ पड़ोसी राज्य पर हमला कर धन लूटना या प्राप्त करना वैध (Legitimate) उपाय बताया गया। धीरे-धीरे इनमें से कई राज्यों ने स्थायी सेना और नौकरशाही तंत्र का गठन कर लिया था परंतु कुछ राज्य अभी भी अस्थायी थे।

प्रश्न 6.
मौर्य साम्राज्य के महत्त्व पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्त्व है। मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास का पहला ऐतिहासिक साम्राज्य था जो लगभग 150 वर्षों (321 ई०पू० से 185 ई०पू०) तक अस्तित्व में रहा। इस काल की राजनीतिक और भौतिक-सांस्कृतिक उपलब्धियों को लेकर इतिहासकारों के विचारों को निम्नलिखित दो प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

(1) 19वीं सदी में भारत के इतिहासकारों ने जब अपने प्रारंभिक इतिहास का पुनर्निर्माण शुरू किया तो उन्होंने मौर्य साम्राज्य के उदय को महत्त्वपूर्ण सीमा रेखा (land mark) स्वीकारा। 19वीं तथा 20वीं सदी के राष्ट्रवादी इतिहासकार यह संभावना देखकर भाव-विभोर हो उठे कि प्रारंभिक भारत में एक इतने महत्त्वपूर्ण साम्राज्य का जन्म हुआ था। पुरातात्विक प्रमाणों से भी साम्राज्य की पाषाण मूर्तियों का पता लगा कि वे मूर्तियाँ कला के अद्भुत नमूने थीं। इस काल में शिल्पकला का चरम विकास हुआ। इस काल अशोक के पाषाण स्तंभों में सारनाथ का स्तम्भ सर्वाधिक सुंदर नमूना है।

इसमें परस्पर पीठ सटाए बैठे चार शेरों की आकृतियाँ हैं। शीर्ष के नीचे गोलाई पर हाथी, बैल, सिंह व घोड़े की दौड़ती हुई आकृतियाँ हैं। इनके बीच-बीच में चार धर्म-चक्र उत्कीर्ण किए हुए हैं जो बौद्ध धर्म के धर्म-चक्र प्रवर्तन के प्रतीक रूप हैं। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र ने इस सारनाथ स्तंभ के शीर्ष को राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न स्वीकार किया है। इतिहासकारों को यह जानकर भी सुखानुभूति हुई कि अशोक के अभिलेखों के संदेश दूसरे शासकों के आदेशों के बिल्कुल भिन्न थे। ये अभिलेख उन्हें बताते थे कि अशोक बहुत ही शक्तिशाली तथा मेहनती सम्राट था जो विनम्रता से (बिना बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किए) जनता को पुत्रवत मानकर उनके नैतिक उत्थान में लगा रहा। इस प्रकार इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन इतिहासकारों ने अशोक को प्रेरणादायक व्यक्तित्व स्वीकारा तथा मौर्य साम्राज्य को अत्यधिक महत्त्व दिया।

(2) स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के भारतीय इतिहासकार मौर्य साम्राज्य के प्रति राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से थोड़ा अलग मत रखते हैं। वे राष्ट्रवादी इतिहासकारों की महिमामण्डन करने वाली शैली से सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि मौर्य साम्राज्य दीर्घकाल तक जीवित नहीं रहा। यह उपमहाद्वीप के इतिहास में लगभग 150 वर्षों तक रहा जो कोई लंबा काल नहीं है। इसके अतिरिक्त इस साम्राज्य में उपमहाद्वीप के संपूर्ण क्षेत्र शामिल नहीं थे। यहाँ तक कि मौर्य साम्राज्य की सीमाओं के भीतर भी साम्राज्य के सारे हिस्सों . पर केंद्रीय सत्ता का पूर्ण नियंत्रण नहीं था। फलतः दूसरी सदी ई०पू० में भारत के अनेक भागों में नए-नए राजवंश तथा राज्य अस्तित्व में आने लगे थे।

प्रश्न 7.
पाटलिपुत्र के प्रशासन पर मैगस्थनीज़ के विवरण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मैगस्थनीज़ ने पाटलिपुत्र के प्रशासन का काफी विस्तृत विवरण दिया है। नगर प्रशासन चलाने के लिए अलग से अधिकारी वर्ग होता था। नगर का सर्वोच्च अधिकारी नागरक अथवा नगराध्यक्ष कहलाता था। नगर में आधुनिक मजिस्ट्रेट का कार्य नगर व्यवहारक महामत करता था। उसके अनुसार नगर का प्रशासन 30 सदस्यों की एक परिषद् करती थी, जो 6 उपसमितियों में विभाजित थी। प्रत्येक समिति में 5-5 सदस्य थे।

1. पहली समिति-यह शिल्प उद्योगों का निरीक्षण करती थी एवं शिल्पकारों के अधिकारों की रक्षा भी करती थी।

2. दसरी समिति-यह विदेशी अतिथियों का सत्कार. उनके आवास का प्रबंध तथा उनकी गतिविधियों पर नजर रखने का क करती थी। उनकी चिकित्सा का प्रबंध भी करती थी।

3. तीसरी समिति-यह जनगणना तथा कर निर्धारण के लिए, जन्म-मृत्यु का ब्यौरा रखती थी।

4. चौथी समिति-यह व्यापार की देखभाल करती थी। इसका मुख्य काम तौल के बट्टों तथा माप के पैमानों का निरीक्षण तथा सार्वजनिक बिक्री का आयोजन यानी बाजार लगवाना था।

5. पाँचवीं समिति-यह कारखानों और घरों में बनाई गई वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी। विशेषतः यह ध्यान रखती थी कि व्यापारी नई और पुरानी वस्तुओं को मिलाकर न बेचें। ऐसा करने पर दण्ड की व्यवस्था थी।

6. छठी समिति-इसका कार्य बिक्री कर वसूलना था। जो वस्तु जिस कीमत पर बेची जाती थी, उसका दसवां भाग बिक्री कर के रूप में दुकानदार से वसूला जाता था। यह कर न देने पर मृत्युदण्ड की व्यवस्था थी।

प्रश्न 8.
भूमि अनुदान के फलस्वरूप ग्रामों में उभरे नए संभ्रांत वर्ग कौन-से थे?
उत्तर:
भारत में प्रथम सदी ई० से भूमि अनुदान दिए जाने के प्रमाण मिलने लगते हैं। राजा या बड़े व्यक्तियों द्वारा धार्मिक महत्त्व की संस्था या व्यक्तियों को भूमि अनुदान के साथ-साथ प्रमाण के रूप में दिए गए पत्र को भूमि अनुदान पत्र कहा जाता था। इनमें से कुछ अनुदान पत्र पाषाण पर खुदे हुए हैं तथापि अधिकांश अनुदान पत्र हमें ताम्रपत्रों पर उपलब्ध होते हैं। प्रारंभ में ऐसे भूमि अनुदान पत्र मुख्य रूप से ब्राह्मणों या धार्मिक संस्थाओं; जैसे मंदिर, मठ, विहार आदि को दिए गए। बाद में राजकीय अधिकारियों तथा सेना के अधिकारियों की भी भूमि अनुदान प्रथा शुरू हुई। प्रारंभ में ये अनुदान पत्र संस्कृत भाषा में प्राप्त होते थे बाद में स्थानीय भाषाओं; जैसे तमिल, तेलुगू आदि में भी मिलने लगे। विभिन्न शासकों द्वारा अनुदान पत्र (Land Grants by Different Rulers) मौर्यकाल में कौटिल्य ने लिखा है कि राजा ब्राह्मणों, राज्याधिकारियों, राजकुमारों, रानियों, सेना की टुकड़ी रखने के बदले जमींदारों को भूमि अनुदान कर सकता है।

सातवाहन शासक वासिष्ठी पुत्र पुलाभावी ने गुफा में रहने वाले भिक्षुओं को गाँव अनुदान किया तथा अनुदान पत्र प्रदान किया। साथ ही इस अनुदान पत्र में यह आदेश था कि राजकीय कर्मचारी या पुलिस इस गाँव में प्रवेश न करे। परंतु राजा ऐसे अनुदान को रद्द भी कर सकता था। गौतमी पुत्र सातकर्णी ने भी भूमि अनुदान की। नासिक अभिलेख में भी ऐसा उल्लेख मिलता है कि अनुदान में दिए गए गाँव में कोई सरकारी अधिकारी प्रवेश नहीं करेगा तथा कोई भिक्षुओं को नहीं छुएगा।

गुप्तकाल में अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सम्राटों ने धार्मिक कार्यों या परोपकार के लिए अनेक गाँव अनुदान में दिए। सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त द्वारा दिए अनुदान पत्र का विवरण हमें प्राप्त होता है। प्रभावती ने अभिलेख में ग्राम कुटुंबिनों (गृहस्थ और कृषक), ब्राह्मणों और दंगुन गाँव के अन्य निवासियों को स्पष्ट आदेश दिया। उस समय गाँवों में अनेक वस्तुओं का उत्पादन होता था। ग्रामों में अन्न उत्पादन के अलावा घास, जानवरों की खाल व कोयला प्राप्त होता था। मदिरा, नमक, खनिज पदार्थ, फल-फूल, दूध आदि भी गाँवों के उत्पादों में मुख्य थे। सरकार इन सबको प्राप्त करने का अधिकार अग्रहार ग्रामों (अनुदानित ग्रामों) में अनुदान प्राप्तकर्ता को दे देती थी।

भूमि अनुदान से स्पष्ट है कि गाँवों में भूमि अनुदान प्राप्त नया वर्ग उभर रहा था। अनुदान पत्र में उल्लेख होता था कि किस व्यक्ति को अनुदान दिया गया है तथा उसे क्या-क्या अधिकार प्राप्त होंगे। गाँवों के लोगों को नए प्रधान (अनुदान प्राप्तकत्ता) के आदेशों के पालन की हिदायत होती थी। गाँव के लोगों को सरकार को दिए जाने वाले कर और अन्य भेंटें अब अनुदान प्राप्तकर्ता को देनी होती थीं। ये ब्राह्मण अपनी इच्छा से गाँवों के लोगों से करों की वसूली भी करते थे। अतः स्पष्ट है प्राप्तकर्ताओं का विशिष्ट वर्ग उभरकर आ रहा था।

प्रश्न 9.
क्षेत्रीय राज्य या महाजनपदों के उदय के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ क्या थी? 16 महाजनपदों के नाम बताइए।
उत्तर:
छठी सदी ई.पू. के काल को प्रारंभिक भारतीय इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस काल में भारत में व्यापक आर्थिक परिवर्तनों का दौर शुरु हुआ जिसने प्रारंभिक क्षेत्रीय राज्यों या 16 महाजनपदों के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृषि के क्षेत्र का विस्तार हुआ। कृषि उत्पादन के तरीकों में परिवर्तन आया। इसमें धान की रोपण. विधि मुख्य थी जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई। कृषि में लोहे का प्रयोग बढ़ा। साथ-ही-साथ नगरों की स्थापना हुई। नगरों में शिल्पसंघों (श्रेणी प्रणाली) और व्यापारी वर्ग का उदय हुआ। मुद्रा का प्रसार हुआ। व्यापार व वाणिज्य का प्रसार हुआ। इन आर्थिक परिवर्तनों ने महाजनपदों के उदय की पृष्ठभूमि तैयार की।

अब राजा अपने सैन्य और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए किसानों से उपज का हिस्सा एकत्र कर सकते थे अर्थात् राज्य की आय बढ़ी। इसका यह अर्थ है कि राजा की शक्ति बढ़ी। अब राजा बढ़ी हई आय तथा लोहे के शस्त्रों से जनपद का विस्तार कर सकता था। वस्तुतः यह काल प्रारंभिक राज्यों के उदय का काल था। अब क्षेत्रीय भावनाएँ प्रबल हुईं। लोगों का जो लगाव जन या कबीले से था, वह पहले अपने गाँव-घर से हुआ और बाद में अपने जनपद (अर्थात् जहाँ पर जन ने अपना पाँव रखा बस गया।) से हुआ। धीरे-धीरे यह जनपद ही अपना क्षेत्र विस्तार करके महाजनपदों में बदल गए।

छठी सदी ई० पू० में उदय हुए बौद्ध तथा जैन मत के ग्रंथों में हमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथ अंग्रतर निकाय में हमें राज्यों के नामों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है(i) अंग, (ii) मगध, (ii) काशी, (iv) कोशल, (v) वज्जि, (vi) मल्ल, (vii) चेदि (चेटी), (viii) वत्स, (ix) कुरू, (x) पांचाल, (xi) मत्स्य, (xii) शूरसेन, (xiii) अश्मक, (xiv) अवन्ति, (v) गांधार, (xvi) कंबोज।

प्रश्न 10.
मगध जनपद की शक्ति के उत्कर्ष में सहायक कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पू० से चौथी शताब्दी ई०पू० के मध्य में 16 महाजनपदों में से मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली होकर उभरा। आधुनिक इतिहासकारों द्वारा मगध की शक्ति के उत्कर्ष के संबंध में विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की जाती हैं। संक्षेप में मगध के उत्कर्ष के कारणों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. मगध की भौगोलिक अवस्था मगध के उत्थान में वहाँ की भौगोलिक स्थिति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी दोनों राजधानियाँ राजगृह व पाटलिपुत्र, सामरिक दृष्टिकोण से पूरी तरह सुरक्षित थीं। राजगृह चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ था। इन पहाड़ियों की चारदीवारी को तोड़कर शत्रु का इसमें प्रवेश कठिन था। इसी तरह से पाटलिपुत्र भी सुरक्षित थी। इसके चारों ओर की नदियों गंगा, गंडक व सोन ने इसे जलदुर्ग बना दिया था।

2. मगध की आर्थिक दशा-जहाँ मगध की भौगोलिक स्थिति ने उसे आक्रमणकारियों से सुरक्षित बनाया, वहीं इसने वहाँ की आर्थिक स्थिति को भी सम्पन्न किया, जिसके बल पर मगध का उत्थान हुआ। मगध की उपयुक्त जलवायु ने उसे उपजाऊ बनाया। यहाँ पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती थी जिससे भूमि में उत्पादन अधिक होता था। इसके अतिरिक्त उत्पादन ने उद्योग-धंधों व वाणिज्य का विकास किया। इस विकास के कारण नगरों का उत्थान हुआ। कृषि, व्यापार व उद्योग के उन्नत होने से राज्य की आय बढ़ी। इस आर्थिक सम्पन्नता ने मगध शासकों को अधिक स्थायी सेना रखने की स्थिति में ला दिया, जिससे वे साम्राज्यवादी नीति को अपना सकें।

3. लोहे के विशाल भण्डार-मगध के साम्राज्य विस्तार में लोहे की खानों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी। लोहे की अच्छी खानों (आधुनिक झारखंड) से उन्हें पर्याप्त मात्रा में लोहा प्राप्त हुआ। इस लोहे से उन्नत किस्म के शस्त्र बनाए जा सकें तथा खेती का विस्तार हो सका। अपने उत्तम शस्त्रों के प्रयोग से मगध अपने शत्रुओं को सरलता से पराजित कर पाया।

4. मगध की सैन्य व्यवस्था मगध के शासकों ने सैन्य व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। मगध के शासकों ने अपनी सेना में हाथियों को शामिल किया। मगध के साम्राज्य में बहुत से जंगल थे, जहाँ हाथी पाए जाते थे। दलदली भूमि पर घोड़े की तुलना में हाथी की उपयोगिता अधिक कारगर थी। दुर्गों को भेदने का काम भी केवल हाथी ही कर सकते थे।

5. मगध के शासकों की भूमिका-मगध के उत्थान में उसके शासकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण थी। मगध में एक के बाद अनेक शक्तिशाली शासक हुए। ये शासक महत्त्वाकांक्षी, योग्य व साहसी थे जिन्होंने अपने सैन्य कार्यों व कूटनीति के आधार पर अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया। इस साम्राज्य की नींव बिम्बिसार द्वारा डाली गई। अजातशत्रु जैसे शासकों ने इसका प्रभाव आस-पास के क्षेत्रों में बनाया। उदय भद्र, शिशुनाग व महापद्मनन्द जैसे शासकों ने इसका खुलकर साम्राज्य विस्तार किया।

प्रश्न 11.
अशोक का धम्म क्या था? इसके कोई पाँच सिद्धांत लिखिए।
उत्तर:
1. अर्थ-अशोक ने प्रजा में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना पैदा करने का प्रयास किया। सामूहिक रूप से उसकी इसी नीति को धम्म कहा गया है। धम्म का अर्थ स्पष्ट करने के लिए एक स्तंभ लेख में अशोक स्वयं प्रश्न करता है कि ‘कियं चु धम्मे’ (अर्थात् धम्म क्या है) फिर उत्तर देता है, ‘अपासिनवे, बहुकथाने, दया, दान सोचये’ अर्थात् पाप-रहित होना (अपासिनवे), बहुत-से कल्याणकारी कार्य करना (बहुकथाने), प्राणियों पर दया करना, दान देना, सत्यता और शुद्ध कर्म ही धम्म है।

2. सिद्धांत-
1. सहिष्णुता-यह अशोक के धम्म का प्रमुख सिद्धांत है। इसका आधार ‘वाणी पर नियन्त्रण’ है। मनुष्य को अवसर के महत्त्व को देखकर बात करनी चाहिए। अपने स्वयं के धर्म की भी अत्यधिक प्रशंसा तथा दूसरों के प्रति मौन रहने से भी तनाव ही बढ़ता है। मनुष्य को दूसरे आदमी के सम्प्रदाय का आदर भी करना चाहिए। ऐसा करने से उसके अपने धर्म का प्रभाव कम नहीं होगा, बल्कि बढ़ेगा। इसी से सहनशीलता की भावना पैदा होगी। वह कहता है कि सर्वत्र सभी धर्म वाले एक-साथ निवास करें।

2. अहिंसा-धम्म का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त अहिंसा था। इसके मुख्यतः दो पहलू थे-पहला इसके अन्तर्गत पशु-पक्षियों के वध पर रोक लगाई गई। सम्राट ने राजमहल में भी भोजन के लिए प्रतिदिन दो मोर तथा एक मृग के अतिरिक्त अन्य पशु-पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दी थी। अहिंसा का दूसरा पहलू हिंसात्मक युद्धों (भेरिघोष) को त्यागकर धम्म विजय (धम्मघोष) अपनाना था। वृहद् शिलालेख XIII में उसने कलिंग युद्ध के दौरान हुई विनाशलीला का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। वह अपने उत्तराधिकारियों (पुत्र अथवा प्रपौत्र) को भी युद्ध न लड़ने की सलाह देता है।

3. आत्मनिरीक्षण-अशोक ने आत्मनिरीक्षण के सिद्धान्त पर बल दिया है। इसके अनुसार मनुष्य को अच्छाइयों के साथ-साथ स्वयं की कमजोरियों अथवा कुप्रवृत्तियों (आसिनवों) का ज्ञान होना चाहिए। उग्रता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष तथा निष्ठुरता जैसी इन बुराइयों का पता आत्म-परीक्षण से ही लग सकता है, जिसमें वह निरन्तर प्रयास करके धीरे-धीरे मुक्त हो सकता है और पाप-रहित जीवन व्यतीत कर सकता है।

4. बड़ों का आदर-अशोक के धम्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने से बड़ों का आदर (अपरिचित) करना चाहिए। बच्चों को माता और पिता की आज्ञा माननी चाहिए। उनकी भावनाओं का आदर करना चाहिए। इसी प्रकार शिष्यों को अपने गुरुजनों का आदर करना चाहिए तथा सभी को ब्राह्मणों व ऋषियों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए।

5. छोटों के प्रति प्रेम भाव-धम्म का एक अन्य मुख्य सिद्धान्त यह था कि बड़ों को छोटों के साथ और स्वामी को सेवकों के साथ दया व प्रेमपूर्ण का व्यवहार (सम्प्रतिपति) करना चाहिए। उसने दासों, सेवकों तथा आश्रितों के प्रति विशेष तौर पर अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 12.
क्या सारे मौर्य साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में एकरूप प्रशासन प्रणाली विद्यमान थी?
उत्तर:
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या मौर्य साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में एकरूप प्रशासन प्रणाली विद्यमान थी। आर्थिक आवश्यकताओं ने संभवतः मौर्य साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में एक-जैसी प्रशासनिक व्यवस्था पैदा कर दी। अशोक के अभिलेख साम्राज्य के सभी भागों में फैले हुए थे। इनमें एक-जैसे सन्देश उत्कीर्ण थे। क्या इसका अर्थ यह लिया जाए कि इतने विशाल साम्राज्य में एक रूप प्रशासन व्यवस्था पनप गई थी। आवागमन व संचार के साधनों के विकसित अवस्था में होने पर भी क्या साम्राज्य के सभी भागों पर पूर्ण तथा एक रूप नियंत्रण था। वर्तमान में अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि साम्राज्य की विशालता और इसमें शामिल प्रदेशों की विविधताओं को देखते हुए यह एकरूपता संभव प्रतीत नहीं होती। उदाहरण के लिए साम्राज्य में अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र, उत्तरी मैदान, उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र व दक्षिण में कर्नाटक जैसे दूरवर्ती क्षेत्र थे।

ऐसी स्थिति में इतिहासकार रोमिला थापर के शब्दों में, स्थानीय स्तरों पर साम्राज्य के सभी भागों में एकरूप प्रशासन होना अनिवार्य नहीं है। संभवतः सर्वाधिक प्रबल प्रशासनिक नियंत्रण पाटलिपुत्र (साम्राज्य की राजधानी) तथा उसके निकटवर्ती प्रांतीय केंद्रों पर ही रहा होगा। इन प्रांतीय केंद्रों का भी बड़ी सूझबूझ से चुनाव किया गया होगा। उदाहरण के लिए उज्जैन एवं तक्षशिला लम्बी दूरी के व्यापार मार्गों पर स्थित थे। इसी प्रकार दक्षिणी प्रांत की राजधानी सुवर्णगिरी (सोने की पहाड़ी) कर्नाटक में सोने की खदानों की दृष्टि से. महत्त्वपूर्ण थी। नियंत्रण तथा प्रशासन में एकरूपता की दृष्टि से साम्राज्य क्षेत्रों को तीन भागों में बाँटकर देखा जाता है साम्राज्य का नाभिकीय (केंद्रीय) क्षेत्र-यह केंद्रीय प्रदेश था। इसमें मगध क्षेत्र, यानि मुख्यतः गंगा घाटी और उसके आस-पास के इलाकों से लेकर विंध्य पर्वत के उत्तर तक भू-भाग शामिल था। साम्राज्य के इस भाग में प्रशासन पूर्ण रूप से लगभग वैसा ही था जैसा कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ और मैगस्थनीज़ ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में बताया है।

(i) विजित समृद्ध क्षेत्र-यह मगध क्षेत्र से बाहर मौर्य शासकों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र था। इसमें मुख्यतः उत्तर:पश्चिमी तथा कलिंग का भू-भाग शामिल था। संसाधनों (उपजाऊ भूमि) की दृष्टि से यह समृद्ध भू-भाग था। ऐसे क्षेत्रों में प्रशासन का प्रबंध राजा का प्रतिनिधि (Governor) यानि कुमार करता था। यहाँ प्रशासन मोटे रूप में केंद्रीय क्षेत्र के प्रशासन से मिलता-जुलता था, परन्तु पूरी तरह से समरूप (Identical) नहीं था।

(1) सीमांत राज्य क्षेत्र-ऐसे क्षेत्रों को प्राचीन साहित्य में प्रयन्त कहा गया है। इस क्षेत्र में मौर्य साम्राज्य का व्यवहार में प्रत्यक्ष नियंत्रण भूमि से उस गलियारे तक सीमित था जहाँ से महत्त्वपूर्ण मार्ग गुजरते थे या कीमती कच्ची धातुओं के भंडार थे। इसका उदाहरण दक्कन प्रायद्वीप है। यहाँ मौर्यों का प्रत्यक्ष नियंत्रण कर्नाटक क्षेत्र में कोलार की सोने की खानों वाले क्षेत्र में था या फिर दक्षिण की ओर जाने वाले पूर्वी और पश्चिमी तटीय मार्गों पर था। स्पष्ट है कि साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में समरूप प्रशासन प्रणाली नहीं थी।

प्रश्न 13.
मौर्य साम्राज्य के पतन के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है। यह भारत का पहला शक्तिशाली साम्राज्य था जिसने देश के एक बड़े भाग पर लगभग 150 वर्षों तक शासन किया। परन्तु धीरे-धीरे मौर्य साम्राज्य की नींव कमजोर पड़ने लगी तथा उसका पतन हो गया। मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है

1. विशाल साम्राज्य– सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में मौर्य साम्राज्य का बहुत अधिक विस्तार किया। इस विशालकाय साम्राज्य की प्रशासन-व्यवस्था संभालना प्रत्येक शासक के बस की बात नहीं थी। परिणामस्वरूप अशोक की मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य नियंत्रण से बाहर हो गया।

2. अयोग्य तथा निर्बल प्रशासक मौर्य साम्राज्य के नवीन शासक अपने पूर्वजों की भांति योग्य तथा शक्तिशाली नहीं थे। ये सभी शासक विस्तृत मौर्य साम्राज्य पर पकड़ बनाए न रख सके। साथ ही उनमें कुशल प्रशासन का गुण नहीं था। परिणामस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा।

3. बाहरी हमले-विदेशी हमलावर मानो मौर्य साम्राज्य के कमजोर होने की राह देख रहे थे। उन्होंने अवसर का लाभ उठाया और मौर्य सीमाओं पर हमले करने शुरू कर दिए। इन हमलों में मौर्य साम्राज्य की प्रशासन-व्यवस्था को भारी ठेस पहुँचाई।

4. खराब आर्थिक स्थिति मौर्य साम्राज्य जो पूर्व में धन-संपदा से परिपूर्ण एक साम्राज्य था धीरे-धीरे धन के अभाव से ग्रस्त हो गया। सम्राट अशोक ने हृदय परिवर्तन के पश्चात हृदय खोलकर दान-दक्षिणा दी तथा कई भव्य निर्माण कार्य करवाए। इसका सीधा असर राजकोष पर पड़ा। खराब आर्थिक स्थिति में प्रशासनिक कार्यों का संचालन असंभव हो गया था।

प्रश्न 14.
सुदूर दक्षिण के तीन राज्यों (चेर, चोल व पांड्य) की संक्षिप्त जानकारी दें।।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण तथा सुदूर दक्षिण में कई. नए राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों को सरदारियों (Chiefdoms) के नाम से भी जाना जाता है। राज्य के मुखिया को सरदार या राजा कहा जाता था। सुदूर दक्षिण में इस काल में तीन राज्यों का उदय हुआ। यह क्षेत्र तमिलकम् (इसमें आधुनिक तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश व केरल के भाग शामिल थे) कहलाता था। तीन राज्यों के नाम हैं-चोल, चेर और पाण्ड्य दक्षिण के ये राज्य संपन्न थे तथा लंबे समय तक अस्तित्व में रहे।

1. चेर-उदियन जेरल पहला प्रमुख शासक था। इसका पुत्र नेदुनजेरल आदन प्रतापी शासक था। उसने अनेक युद्धों में भाग लिया तथा अपना अधिकतर जीवन युद्ध शिविरों में बिताया। कहते हैं कि उसने सात राजाओं को हराकर ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की। उसे इमयवरम्बन (Imayavarmban) (हिमालय तक सीमा वाला) भी कहा जाता है। शेनगुटुवन (धर्मपरायण कुटूवन) एक वीर और सबसे महान शासक बताया गया है। उसके पास एक शक्तिशाली बेड़ा था। यह लाल चेर के नाम से भी प्रसिद्ध था। वह संगम कवि परणार का समकालीन था। परणार ने उसके उत्तर भारतीय विजय अभियान का वर्णन किया है। शेनगुटुवन का सौतेला भाई तथा उसका उत्तराधिकारी पेरुंजेरल आदन था। पेरूंजेरल चोल शासक कारिकल का समकालीन था।

2. चोल-दक्षिण के प्राचीनतम शासक राजवंशों में से चोल प्रमुख हैं। चोल राज्य तोण्डेमण्डलम् या चोल मण्डलम् के नाम से जाने जाते हैं। इसकी राजधानी तिरुचिरापल्ली जिले में उरैयूर थी। बाद में इसकी राजधानी पुहार बनी। पुहार को कावेरी पत्तनम् के नाम से भी जाना जाता है। कारिकाल-प्रारम्भिक चोल शासकों में कारिकाल सबसे प्रसिद्ध है। कारिकाल का अर्थ ‘जले हुए पैर वाला व्यक्ति’ होता है। किंवदन्ती है कि बचपन में ही उसका अपहरण करके उसके शत्रुओं ने उसे बन्दी बना लिया था और बाद में कारागार में आग लगा दी थी। कहते हैं कि जब कारिकाल आग से निकलकर भाग रहा था तो उसका पैर झुलस गया। इस कारण उसे कारिकाल के नाम से जाना गया। उसके नाम के सम्बन्ध में अन्य व्याख्या कलिका काल (Death to Kali) अथवा शत्रु के हाथियों का काल (Death of Enemy Elephant) भी दी जाती है। कारिकाल के बाद गृहयुद्ध के कारण इसका पतन हो गया।

3. पाण्ड्य पाण्ड्य भी दक्षिण भारत के इतिहास में प्राचीनतम शासक राजवंशों में से एक थे। उनकी राजधानी मदुराई में तमिल कवियों तथा तमिल भाट कवियों की बड़ी सभाओं (संगमों) का आयोजन हुआ था। प्रथम पाण्ड्य शासक नेडियोन था। इसके बाद पाण्ड्य शासक पल्लशालई मुदृकडुमी था। इसे प्रथम ऐतिहासिक शासक माना जाता है।

पाण्ड्य शासकों में सबसे महान शासक नेइंजेलियन था। इसकी उपाधि से ज्ञात होता है कि इसने किसी आर्य (उत्तर भारत) सेना को पराजित किया। वह तलैयालंगानम् (Talaiyalanganam) के युद्ध को जीतने के कारण बहुत प्रसिद्ध हुआ। नेडुंजेलियन ने दो पड़ोसी शासकों और पाँच छोटे सरदारों के गुट का सफलतापूर्वक सामना किया। ये शत्रु उसकी राज्य सीमा में घुस आए थे। इन्हें उसने वापस खदेड़ दिया तथा तलैयालंगानम् (तंजौर जिले में तिरवालूर से आठ मील दूरी पर) नामक स्थान पर उन्हें हरा दिया। इन पराजित शासकों में चेर राजा शेय को बन्दी बनाकर पाण्डेय राज्य के कारागार में डाल दिया गया। इस विजय से उसका राज्य सुरक्षित हो गया तथा तमिल क्षेत्र के राज्यों पर उसका नियन्त्रण स्थापित हो गया।

प्रश्न 15.
प्रमुख गुप्त शासकों पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर:
चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य का उदय और विकास महत्त्वपूर्ण परिघटना है। प्रारंभ में गुप्त शासक कुषाणों के सामन्त थे और धीरे-धीरे उन्होंने अपनी सत्ता बढ़ाकर कुषाणों के स्थान पर बिहार-उत्तरप्रदेश में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इस वंश के प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं

1. चंद्रगुप्त प्रथम (319-334 ई०)-चंद्रगुप्त प्रथम इस वंश का पहला प्रसिद्ध राजा हुआ। उससे लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह कर अपने आप को शक्तिशाली बताया। उसने गुप्त संवत् चलाया तथा ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।

2. समुद्रगुप्त (335-375 ई०) चंद्रगुप्त का उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त था। प्रयाग प्रशस्ति में उसका गुणगान किया गया है। हरिषेण इस प्रशस्ति का लेखक, कवि और सेनापति था। समुद्रगुप्त के गुणों का बखान करते हुए प्रयाग प्रशस्ति में लिखा है-“धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभ कार्यों से संपन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को खत्म कर दिया है।” समुद्रगुप्त की तुलना परमात्मा से भी की गई है। “वे परमात्मा पुरुष हैं ……..वे करुणा से भरे हुए हैं… वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति हैं।” समुद्रगुप्त ने गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया। उसने गंगा-यमुना दोआब के राजाओं को हराकर प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया। उसने 9 गणराज्यों को हराया। दक्षिण के 12 शासकों को हराकर अपने अधीन बनाया। विंध्य क्षेत्र के अटाविक राज्यों को अपने वश में किया। सीमावर्ती शासक भी उसकी अधीनता मानते थे।

3. चंद्रगुप्त द्वितीय (380-414 ई०) चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँचा। उसने वाकाटकों से अपनी कन्या प्रभावती का विवाह किया जो बाद में पति की मृत्यु पर वहाँ की वास्तविक शासिका बनी। भूमिदान संबंधी उसके अभिलेख बतलाते हैं कि उसने अपने पिता के हित में काम किया। चंद्रगुप्त ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर अधिकार कायम कर लिया था। उसने शकों को पराजित किया तथा ‘शकारी’ की उपाधि धारण की। उसने उज्जैन को दूसरी राजधानी बनाया। दिल्ली में कुतुबमीनार के समीप (एक लौह स्तंभ पर खुदे हुए अभिलेख में चंद्र नामक किसी शासक की कीर्ति का वर्णन किया गया है। इस चंद्र को बंदगुप्त माना जाता है। उसने “विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमार गुप्त तथा स्कंदगुप्त गुप्त वंश के अन्य प्रमुख शासक रहे।

प्रश्न 16.
अध्ययनकाल में व्यापार से संबंधी जानकारी दीजिए।
उत्तर:
छठी सदी ई०पू० से भारत में नगरों का विकास होने लगा था। ये नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। साथ ही यहाँ पर शिल्प उत्पाद भी प्रमुख थे। यह भी उल्लेखनीय है कि ये नगर व्यापार मार्गों पर बसे हुए थे। मौर्यकाल, मौर्योत्तर काल और दक्षिण के राज्यों में इस काल में व्यापार तथा वाणिज्य का विकास देखा जा सकता है। संक्षेप में इसकी जानकारी निम्नलिखित प्रकार से है

1. व्यापार मार्ग-छठी शताब्दी ई०पू० से भारतीय उपमहाद्वीप पर भूतल और नदीय व्यापार मागों का विकास होने लगा था। एक-दूसरे को आड़े-तिरछे काटते ये व्यापार मार्ग उपमहाद्वीप के बाहर तक जाते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण मार्ग पाटलिपुत्र से तक्षशिला तक जाता था। पूर्व में यह पाटलिपुत्र को ताम्रलिप्ति बंदरगाह से जोड़ता था। दूसरा मार्ग कौशाम्बी से पश्चिम समुद्र तट पर भरुक (भरूच) बंदरगाह तक जाता था। एक दक्षिण-पूर्वी मार्ग पाटलिपुत्र से गोदावरी तट पर प्रतिष्ठान तक जाता था। एक अन्य मार्ग वैशाली से कपिलवस्तु होकर पेशावर तक जाता था। आगे यह स्थल मार्ग पश्चिमी एशिया के क्षेत्रों से होकर भूमध्य सागर तक जाता था। एक मार्ग तक्षशिला से काबुल तथा आगे बैक्ट्रिया से कैस्पियन सागर व काला सागर तक जाता था। इसी प्रकार एक मार्ग कंधार से ईरान तथा ईरान से पूर्वी भूमध्य सागर तक जाता था।

समुद्र तटीय मार्ग भी व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण थे। एक मार्ग भरूच बंदरगाह से सोपारा होते हुए पश्चिमी तट के साथ-साथ श्रीलंका तक जाता था। इसी प्रकार एक मार्ग ताम्रलिप्ति से पूर्वी तट के साथ-साथ जलमार्ग से श्रीलंका पहुँचता था। इस प्रकार समुद्र के माध्यम से व्यापारी दूर देशों तक व्यापार करते थे। उदाहरण के लिए अरब सागर से पूर्वी उत्तरी अफ्रीका तथा पश्चिमी एशिया के देशों से व्यापार होता था। पूर्व की तरफ बंगाल की खाड़ी से व्यापारी दक्षिणी पूर्वी एशिया और चीन से व्यापार करते थे।

2. व्यापार के साधन-यह जानना उपयोगी है कि उन दिनों में व्यापार किन साधनों से होता था। कुछ लोग पैदल सफर करते हुए अपना सामान बेचते थे। बड़े व्यापारी बैलगाड़ियों तथा लदू जानवरों के कारवाँ के साथ यात्रा करते थे। समुद्री नाविकों (Sea barers) का भी उल्लेख मिलता है। समुद्री व्यापार संकटों से भरा होता था परंतु इससे अत्यधिक लाभ प्राप्त होता था। सफल व्यापारियों को तमिल में मासात्तुवन (Masattuvan) कहते थे। प्राकृत में इनके लिए सेट्ठी तथा स्थावाह (Satthavas) शब्द का प्रयोग हुआ है।

3. व्यापारिक वस्तुएँ-तमिल व संस्कृत साहित्य तथा विदेशी वृत्तांतों से जानकारी मिलती है कि भारत में अनेक प्रकार का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाता था। इन वस्तुओं में प्रमुख थीं-नमक, अनाज, वस्त्र, लोहे का सामान, कीमती पत्थर, लकड़ी, औषधीय पौधे इत्यादि। भारत का विदेशी व्यापार रोमन साम्राज्य तक फैला हुआ था। रोमन साम्राज्य में भारतीय मसालों (विशेषतः काली मिच), वस्त्रों और औषधियों की काफी माँग रहती थी। इसके अलावा भारत से इलायची, चावल, मसूर, कपास, फल, नील, मोती इत्यादि भी निर्यात वस्तुओं में शामिल थे। रोम निवासी भारत से रेशम भी मंगवाते थे जो भारतीय व्यापारी चीन से यहाँ लाते थे।

रोम से भारत को बढ़िया किस्म की शराब, चीनी के बर्तनों और सोने-चांदी के सिक्कों का आयात होता था। पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी का लेखक उस काल में (लगभग पहली शताब्दी ई० में) भारत से लालसागर के पार विदेशों में जाने वाली वस्तुओं की सूची देता है। पेरिप्लस ने लिखा है कि भारत से काली मिर्च, दालचीनी, पुखराज, सुरमा, मूंगे, कच्चे शीशे, तांबे, टिन और सीसे का आयात किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत से आने वाला सामान है-मोती, हाथीदाँत, रेशमीवस्त्र, पारदर्शी पत्थर, हीरे, काले नग, कछुए की खोपड़ी आदि।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संगम साहित्य पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
पांड्य राजाओं के संरक्षण में कवियों और भाटों ने तीन-चार सौ वर्षों में विद्या केंद्रों में एकत्र होकर संगम साहित्य का सजन किया। ऐसी साहित्य सभा को संगम कहते थे। इसलिए सारा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विशाल संगम साहित्य में से आज जो रचनाएँ उपलब्ध हैं उनकी संख्या 2289 है। इनमें से कुछ कविताएँ अत्यन्त छोटी (मात्र पाँच पक्तियों की) हैं और कुछ बहुत लम्बी हैं। ये कविताएँ 473 कवियों द्वारा रचित हैं जिनमें कुछ कवयित्रियाँ भी हैं। कविताओं के अतिरिक्त तमिल व्याकरण तथा महाकाव्य भी उपलब्ध है। वर्तमान में उपलब्ध संगम साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

1. पत्थुप्पात्तु-पत्थुप्पात्तु बहुत लम्बे दस काव्यों का संग्रह है। नक्कीकर कृत इस काव्य में मुरूगन नामक युद्ध के एक देवता की स्तुति की गई है। इसी कवि ने एक काव्य में एक राजा का युद्ध भूमि में वीरतापूर्वक युद्ध तथा महलों में रह रही रानी की विरह वेदना का हृदयस्पर्शी वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। इसमें चोल राज्य की राजधानी पुहार का विस्तार से वर्णन है

2. एतुत्थोकई-इन कविताओं के आठ संग्रह हैं। हर एक संग्रह में 70 से 500 कविताएँ हैं। इन कविताओं की विषय-वस्तु प्यार और निजी व आन्तरिक मनोभाव हैं या राजाओं और वीरों के कृत्यों का बखान है। कई कविताओं में नगरों (मदुरा शहर) और नदियों के सौंदर्य आदि का भी वर्णन है।

3. पदिनेन कीलकनक्कु इसमें 18 धर्मोपदेशों का संग्रह है। इनमें सबसे प्रसिद्ध तिरुवल्लुवर की रचना ‘कुराल’ या ‘तिरुकुराल’ है। इसमें दस-दस कविताओं के 113 वर्ग-भाग हैं। कराल धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं कामसूत्र तीनों का संगम है। लेकिन ज्ञान और नैतिक मूल्यों की जानकारी के लिए इसका सबसे अधिक महत्त्व है। इसलिए इस पुस्तक को तमिल वेद या संक्षिप्त वेद भी कहा जाता है।

4. शिल्पादिकारम्-शिल्पादिकारम् एक महाकाव्य है। इसका लेखक चोल नरेश कारिकल का पौत्र इंलगोवन था, परन्तु वास्तविक रचनाकार के सम्बन्ध में विवाद है। यह महाकाव्य बहुत यथार्थवादी है। इसमें पुहार या कावेरीपत्तनम् के धनी व्यापारी के पुत्र कोवलन और उसकी अभागी पत्नी कन्नगी का बहुत दुखद और मार्मिक चित्रण है। कन्नगी एक पतिव्रता नारी थी। उसका पति कोवलन एक माधवी नामक वेश्या के चक्कर में अपना धन गंवा बैठता है। वह गरीब के रूप में पुहार से मदुरा चला जाता है। वहाँ पर मदुरा की रानी के हार की चोरी के आरोप में पाण्ड्य राजा शेनगुटुंवि द्वारा उसको प्राणदण्ड दिया जाता है। कन्नगी द्वारा अपने पति को निर्दोष सिद्ध करने पर राजा को पश्चात्ताप हुआ तथा इस आघात से सिंहासन पर ही उसकी मृत्यु हो गई। आज भी कन्नगी की दक्षिण में पूजा प्रचलित है। यह अनेक धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं से परिपूर्ण है।

5. मणिमेखलम-यह भी महाकाव्य है। इसका लेखक मदुराई के कवि सतनार या शातन को बताया जाता है। लेखक बौद्ध धर्म का एक अनुयायी लगता है। इसकी नायिका मणिमेखलम् (शिल्पादिकारम् के नायक कोवलन की पुत्री) है। वह अपने प्रेमी की मृत्यु का समाचार सुनकर बौद्ध भिक्षुणी हो जाती है। इस ग्रन्थ का अन्य उद्देश्य बौद्ध धर्म के उत्थान को दर्शाना है।

6. जीवक चिन्तामणि-यह भी महाकाव्य है। उत्तर संगम साहित्य से जुड़े इस ग्रन्थ का नायक जीवक है। वह अपने पिता के हत्यारे से बदला लेता है और पिता का खोया हुआ राज्य वापस प्राप्त करता है। नायक को युवा अवस्था में ही वैराग्य हो जाता है। अतः वह राज्य छोड़कर जैन मुनि बन जाता है। जीवक चिन्तामणि दक्षिण में जैन मत पर भी प्रकाश डालता है।

7. तोलकाप्पियम-वीर काव्य ग्रन्थों तथा महाकाव्यों के अलावा संगम साहित्य के अन्तर्गत तमिल व्याकरण का ग्रन्थ तोलकाप्पियम भी आता है। इसकी रचना अगस्त्य के शिष्य तोलकाप्पियार तथा 11 अन्य विद्वानों (जो सभी अगस्त्य के ही शिष्य थे) द्वारा की गई है। यह ग्रन्थ तमिल व्याकरण, साहित्य परम्परा तथा समाजशास्त्र की एक रचना है। इसे तमिल साहित्य की सभी साहित्यिक परम्पराओं का स्रोत भी स्वीकार किया जाता है।

प्रश्न 2.
चन्द्रगुप्त की प्रमुख विजयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त की सैनिक कार्रवाइयों का ठीक-ठीक स्पष्ट ब्यौरा किसी भी ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। जो सूचनाएँ मिलती हैं वे यत्र-तत्र कुछ ग्रंथों में बिखरी हुई मिलती हैं। यूनानी लेखकों ने अपने विवरण में चन्द्रगुप्त की पंजाब (उत्तर:पश्चिम) की विजय का ही वर्णन किया है, जबकि अधिकांश भारतीय स्रोतों में मगध-विजय का पता चलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य की प्रमुख विजय निम्नलिखित प्रकार से हैं

1. मगध-विजय-321 ई० पू० में 25 वर्ष की आयु में चन्द्रगुप्त मौर्य मगध राज सिंहासन पर बैठा। यह कैसे सम्भव हुआ अपने-आप में बड़ा दिलचस्प है, क्योंकि मगध जैसे शक्तिशाली राज्य से लड़ने के लिए सेना कहाँ से आई? मगध उस समय उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य था। लेकिन मगध का राजा अत्याचारी और लालची होने के कारण प्रजा-जनों में अलोकप्रिय था। करों के भार से दबे हुए थे। इन परिस्थितियों में चन्द्रगुप्त और चाणक्य के लिए जन-समर्थन जुटाने और सेना संगठित करने में आसानी हुई। इन्होंने मगध साम्राज्य के सीमावर्ती हिमालय के पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाली जातियों में से सेना संगठित की। यह लगभग वही समय था जब सिकन्दर (326 ई० पू०) उत्तर:पश्चिम की ओर से पंजाब में जन कबीलों को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा था।

ऐसी परिस्थिति में विदेशी आक्रमणकारियों के भय के कारण घनानंद जैसे अलोकप्रिय शासक के विरुद्ध कबीलों में सेना भर्ती करना और भी आसान हो गया था। जैसे भी सेना संगठित की हो, इतना निश्चित है कि चन्द्रगुप्त की सेना नंदशासक के मुकाबले बहुत कम थी। ऐसी स्थिति में चाणक्य की कूटनीति कारगर साबित हुई। उन्होंने नंद राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ छेड़छाड़ से अपना अभियान शुरु किया और धीरे-धीरे राज्य के केन्द्र की ओर बढ़ते गए। नंद नरेश उनकी गतिविधियों की गम्भीरता नहीं भाँप पाया और उन्होंने अन्ततः उसे सिंहासन से उखाड़ फेंका।

2. पंजाब विजय-मगध-विजय के तुरन्त पश्चात् चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पंजाब विजय अभियान शुरु किया, क्योंकि इस क्षेत्र में विस्तार के लिए परिस्थितियाँ पूर्णतः अनुकूल थीं। ये परिस्थितियाँ सिकन्दर के आक्रमण से बनी थीं। सिकन्दर के उत्तर:पश्चिम (पंजाब क्षेत्र) पर किए गए आक्रमण (326 ई०पू०) का तात्कालिक और अप्रत्याशित परिणाम यह हुआ था कि इसने सारे भारत पर मौर्यों की विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। इस आक्रमण से पंजाब के गणराज्य कमज़ोर हो गए थे और 323 ई०पू० में सिकन्दर की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उसके सेनापतियों में साम्राज्य विभाजन के लिए युद्ध छिड़ गया था। इससे पंजाब क्षेत्र में यूनानियों की शक्ति भी दर्बल पड़ गई थी। इस परिस्थिति में चन्द्रगुप्त बड़ी आसानी से सिंधु नदी तक का क्षे सफल हो गया था।

3. पश्चिमी और मध्य भारत पर विजय पंजाब विजय के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपना ध्यान पश्चिम और मध्य भारत की ओर केन्द्रित किया। इन विजय अभियानों की भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है, परन्तु रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख (दूसरी शताब्दी ई० के मध्य का) से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने काठियावाड़ (सौराष्ट्र) को अपने राज्य में मिला लिया था। इस शिलालेख में चन्द्रगुप्त के राजदूत पुष्यगुप्त का उल्लेख है, जिसने सुदर्शन नामक झील बनवाई थी। साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि नर्मदा नदी के उत्तर में मालवा प्रदेश पर भी चन्द्रगुप्त ने अधिकार कर लिया था।

4. सेल्यूकस निकेटर से युद्ध-सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़कर पश्चिम एशिया में बेबीलोन से लेकर ईरान और बैक्ट्रिया तक अपना प्रभुत्व जमा लिया था। 305 ई०पू० में वह सिंधु नदी को पार करके पंजाब और सिंध पर पुनः यूनानी प्रभुत्व स्थापित करने के लिए आगे बढ़ा। परन्तु इस बार परिस्थितियाँ बिल्कुल अलग थीं। अब सामना परस्पर विभक्त छोटे-छोटे राज्यों से नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली साम्राज्य से था। 303 ई०पू० में लम्बे युद्ध के बाद इस युद्ध में चन्द्रगुप्त की विजय हुई। इसके बाद दोनों के बीच एक मैत्रीपूर्ण सन्धि हो गई जिसके अनुसार चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी दिए। बदले में सेल्यूकस ने अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिंधु नदी का पश्चिमी क्षेत्र चन्द्रगुप्त को दे दिया।

इसके अतिरिक्त दोनों शासकों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित हुए। समझा जाता है कि सेल्यूकस की एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से हुआ था। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। इससे मौर्य साम्राज्य की उत्तर:पश्चिमी सीमा सुरक्षित हो गई थी। दोनों शासकों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे। इसका प्रमाण दोनों के बीच उपहारों और राजनयिकों का आदान-प्रदान है। सेल्यूकस का राजदूत मैगस्थनीज़ कई वर्षों तक चन्द्रगुप्त के दरबार पाटलिपुत्र में रहा था। स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर:पश्चिम सीमा से पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था। पश्चिम में गुजरात का क्षेत्र उसके अधिकार में था।

प्रश्न 3.
संगम युगीन सुदूर दक्षिण के राज्यों में व्यापार व वाणिज्य के विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संगम युग में सुदूर दक्षिण व्यापार और वाणिज्य का अप्रत्याशित रूप से विकास हुआ। राज्यों को इस अन्तर्देशीय तथा विदेशी व्यापार से बड़ी मात्रा में आय प्राप्त होती थी। कृषि उत्पादन में वृद्धि, मौर्य साम्राज्य के विस्तार से दक्षिण के साथ व्यापार सम्पर्कों में वृद्धि, भारतीय वस्तुओं की रोमन विश्व में माँग बढ़ना, शहरों का उदय तथा उनमें विशेषज्ञ दस्तकारों का होना आदि इस काल में व्यापार और वाणिज्य के विकास के प्रमुख कारण बताए जा सकते हैं। दक्षिण में संगम युग में व्यापार और वाणिज्य के सन्दर्भ में निम्नलिखित पहलुओं को ध्यान में रखा जा सकता है

1. प्रमुख शहरी केन्द्र व्यापार और वाणिज्य के केन्द्र के रूप में इस काल में शहरों का उदय हुआ। इनमें से कुछ नगर जो आन्तरिक भागों में थे, वे स्थानीय और अन्तर्देशीय व्यापार और वाणिज्य के केन्द्र थे। ऐसे केन्द्रों में उरैयूर, काँची (कांचीपुरम) और मदुराई मुख्य थे। यहाँ पर बाजार अवनम् के नाम से जाने जाते थे, जहाँ लेन-देन होता था। ये राजनीतिक गतिविधियों के केन्द्र भी थे। दूसरे प्रकार के नगरों को पत्तिनम् (बन्दरगाह) कहते थे जो कि दक्षिण के शासकों के संरक्षण में काफी सक्रिय थे। इन पत्तिनमों में पूर्वी तट पर पुहार अथवा कावेरीपत्तिनम् (चोलों का), अरिकमड कोरकाई (पाण्ड्यों का) प्रमुख थे। पश्चिम तट पर मुजरिस, टिनडिस, नेलयंदा प्रसिद्ध व्यापार के केन्द्र थे। यहाँ जहाजरानी, बन्दरगाह निर्माण हुआ तथा गोदाम बने। विदेशी व्यापारी भी बड़ी संख्या में रहने लगे।

2. वाणिज्य संगठन-आन्तरिक क्षेत्रों में नमक का व्यापार करने वाले उमाना समुदाय की जानकारी मिलती है जो ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े-बड़े कारवां (उमानवुथ) में जाते थे। नमक के अलावा अनाज (कुलावानेकन), चीनी (पानीटा वनिकन), कपड़े (अरूवैवानिकय), स्वर्ण (पोन वनिकन) आदि के व्यापारी भी थे। सुदूर दक्षिण में तिरूवेल्सारी में व्यापारियों के संगठन के प्रमाण मिलते हैं।

3. वस्तु विनिमय तथा सिक्के स्थानीय व्यापार का आधार वस्तु विनिमय था। संगम साहित्य में हमें पशु, जड़ी-बूटी, मछली के तेल, ताड़ी, गन्ना आदि सामानों की अदला-बदली का उल्लेख मिलता है। विदेशी व्यापार में भी वस्तु विनिमय का चलन होगा। परन्तु रोम से सोने तथा चाँदी के माध्यम से व्यापार के प्रमाण मिलते हैं। कुछ मुद्राशास्त्रियों का मानना है कि संगम काल में आहत सिक्के तथा रोमन सिक्के व्यापार में प्रयोग में लाए जाते थे।

4. स्थानीय तथा अन्तर्देशीय व्यापार-कृषक, चरवाहे, मछुआरे और जनजातीय लोग अपने सामान का लेन-देन करते होंगे। उदाहरण के लिए नमक, मछली, धान, दुग्ध, जड़ें, मृगमांस, शहद, ताड़ी आदि का स्थानीय बाजार में लेन-देन होता था। नमक के बदले में धान, धान के बदले में दुग्ध, दही, घी, मछली तथा शराब के लिए शहद दिया जाता था। मृगमांस और ताड़ी के बदले चावल, पपड़िया और गन्ना दिया जाता था।

मौर्यकाल में उत्तर और दक्षिण में व्यापार सम्पर्क बढ़े। मौर्यों ने दक्षिण से सोना तथा अन्य संसाधन प्राप्त करने के तरीके अपनाए थे। कौटिल्य के अनुसार, दक्षिण राज्य क्षेत्रों में शंख, हीरे, जवाहरात और सोना बड़ी मात्रा में था। दक्षिण में खनिज पदार्थों तथा मूल्यवान धातुओं का व्यापार होता था। उत्तर के व्यापारी बड़ी मात्रा में चाँदी के आहत सिक्के लाते थे। कलिंग से दक्षिण के राज्यों में महीन रेशम का आयात किया जाता था। उरैयूर, कांची, मदुराई इस अन्तर्देशीय व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे।

5. विदेशी या समुद्रीय व्यापार-तमिल क्षेत्र के शासकों की आय का एक मुख्य स्रोत विदेशी व्यापार था। इस समद्रीय व्यापार से तटीय बन्दरगाह नगरों में रहने वाले व्यापारी समुदाय बहुत सम्पन्न हो गए थे। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में मसाले (काली मिर्च, इलायची), औषधीय जड़ी-बूटियाँ, मूल्यवान रत्न (बेरिल, गोमेद, कर्निलियन, जेस्फर) मोती, हाथी दाँत का सामान, कीमती इमारती लकड़ी (तेन्दु, सागौन, चन्दन और बांस आदि), रंगीन सूती वस्त्र, मलमल, नील आदि मुख्य थे। विदेशी लोग भारत में घोड़े लाते थे। इसके अलावा धातुएँ (ताँबा, सीसा), तैयार माल में बढ़िया शराब, आभूषण, सोने, चाँदी के सिक्के तथा मिट्टी के बर्तन भी लाते थे। इस काल में भारत का रोम के साथ व्यापार बढ़ा। प्रारम्भ में, यह व्यापार अरब व्यापारियों के माध्यम से होता था। बाद में हिप्पालुस नामक नाविक द्वारा मॉनसूनी हवाओं की खोज के बाद रोमन व्यापारी भारत से सीधा व्यापार करने लगे।

पुहार या कावेरीपत्तिनम् एक सर्वदेशीय महानगर था जहाँ पर अलग-अलग भाषा बोलने वाले देशी और विदेशी व्यापारी एक साथ रहते थे। पुहार में बड़े-बड़े विदेशी जहाज सोना और सामान भरकर लाते थे तथा यहाँ से सामान ले जाते थे। मदुराई के तट पर सलियर एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थी जहाँ अकसर बड़े-बड़े जहाज आते थे। पश्चिमी तट के बन्दरगाहों में मुजरिस सबसे प्रसिद्ध था। पुसा नुरू की एक कविता में धान के बदले में मछलियाँ, काली मिर्च की गाँठों और समुद्र तट पर खड़े बड़े-बड़े जहाजों से कई प्रकार के माल को छोटी नौकाओं में लादने का वर्णन है। इसी तट पर बन्दर आयातित मोतियों एवं कोडुमानम दुर्लभ सामान के आयात के लिए प्रसिद्ध था।

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Read More »

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. मोहनजोदड़ो की खोज कब की गई?
(A) 1910 ई० में
(B) 1922 ई० में
(C) 1932 ई० में
(D) 1947 ई० में
उत्तर:
(B) 1922. ई० में

2. सार्वजनिक स्नानागार के भवन की बाहर की दीवार कितने फुट मोटी है?
(A) 8
(B) 4
(C) 12
(D) 3
उत्तर:
(A) 8

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

3. मोहनजोदड़ो किस नदी के तट पर स्थित है?
(A) चिनाब
(B) सिन्धु
(C) रावी
(D) सतलुज
उत्तर:
(B) सिन्धु

4. हड़प्पावासी किस धातु से अनभिज्ञ थे?
(A) ताँबा
(B) कांस्य
(C) लोहा
(D) पत्थर
उत्तर:
(C) लोहा

5. मोहनजोदड़ो कराची से लगभग कितने मील दूर है?
(A) 300 मील
(B) 500 मील
(C) 150 मील
(D) 225 मील
उत्तर:
(A) 300 मील

6. किस ई० में पुरातत्व विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने घोषणा की कि एक नई सभ्यता का पता चला है?
(A) 1912 ई० में
(B) 1900 ई० में
(C) 1924 ई० में
(D) 1928 ई० में
उत्तर:
(C) 1924 ई० में

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

7. “सिंधुवासियों की सामाजिक प्रणाली मिस्र तथा बेबीलोन के लोगों की सामाजिक प्रणाली से कहीं श्रेष्ठ थी।” ये किसके शब्द हैं?
(A) एन०एन० घोष
(B) आर०पी० त्रिपाठी
(C) एस०आर० शर्मा
(D) वी०ए० स्मिथ
उत्तर:
(C) एस०आर० शर्मा

8. “5000 वर्ष पुराने आभूषण ऐसे दिखाई देते हैं, जैसे किसी जौहरी की दुकान से अभी लाए गए हो।” ये शब्द किसके हैं?
(A) सर जॉन मार्शल
(B) ए०पी० मदान
(C) हेमचन्द्र राय
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) सर जॉन मार्शल

9. “मोहरें ही सिंधुवासियों के एकमात्र लेख हैं जिनसे उनकी लिखाई के बारे में कुछ पता चल सकता है।” यह विचार किसने प्रस्तुत किया?
(A) डॉ० मैके
(B) आर०के० मुकर्जी
(C) एन०एन० घोष
(D) ए०एल० बाशम
उत्तर:
(A) डॉ० मैके

10. हड़प्पा संस्कृति के लोग निम्नलिखित पशु से अनभिज्ञ थे
(A) सूअर
(B) कुत्ता
(C) गाय
(D) घोड़ा
उत्तर:
(D) घोड़ा

11. निम्नलिखित भवन हड़प्पा संस्कृति से सम्बन्धित नहीं था
(A) अन्नागार
(B) पिरामिड
(C) स्नानागार
(D) विशाल गोदाम
उत्तर:
(B) पिरामिड

12. हड़प्पावासी कैसे वस्त्र पहनते थे?
(A) पशुओं की खाल के
(B) वृक्षों की छाल के
(C) सूती तथा ऊनी
(D) कागज के
उत्तर:
(C) सूती तथा ऊनी

13. हड़प्पा की खोज की थी
(A) दयाराम साहनी ने
(B) आर०डी० बैनर्जी ने
(C) सर जॉन मार्शल ने
(D) आर०एस० बिष्ट ने
उत्तर:
(A) दयाराम साहनी ने

14. हड़प्पा संस्कृति के लोग पूजा करते थे
(A) विष्णु की
(B) इन्द्र की
(C) वरुण की
(D) मातृदेवी की
उत्तर:
(D) मातृदेवी की

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

15. हड़प्पा सभ्यता किस सभ्यता के समकालीन नहीं थी?
(A) रोमन सभ्यता
(B) मेसोपोटामिया की सभ्यता
(C) नील घाटी की सभ्यता
(D) दजला फरात की सभ्यता
उत्तर:
(A) रोमन सभ्यता

16. हड़प्पा संस्कृति के लोग जहाज निर्माण कला में निपुण थे, इसका पता चलता है
(A) मिट्टी के बर्तनों से
(B) खुदाई से प्राप्त
(C) मोहरों पर जहाज के चित्रों से
(D) गोदामों में प्राप्त अवशेषों के सामान से
उत्तर:
(C) मोहरों पर जहाज के चित्रों से

17. मोहनजोदड़ो की खोज की
(A) सर जॉन मार्शल
(B) आर०डी० बैनर्जी
(C) दयाराम साहनी
(D) सूरजभान
उत्तर:
(B) आर०डी० बैनर्जी

18. बनावली स्थित है
(A) पंजाब में
(B) हरियाणा में
(C) उत्तरप्रदेश में
(D) राजस्थान में
उत्तर:
(B) हरियाणा में

19. हड़प्पा सभ्यता के किस स्थान से डकयार्ड के अवशेष मिले हैं?
(A) लोथल
(B) हड़प्पा
(C) मोहनजोदड़ो
(D) धौलावीरा
उत्तर:
(A) लोथल

20. हड़प्पन मुद्राओं पर रूपायन (चित्र) है
(A) बैल
(B) हाथी
(C) गैंडा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

21. प्रारम्भिक हड़प्पा की प्रमुख बस्ती है
(A) मेहरगढ़
(B) दंबसादात
(C) अमरी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

22. हड़प्पा सभ्यता का अन्य नाम है
(A) आर्यों की सभ्यता
(B) मिस्र की सभ्यता
(C) उत्तर वैदिक सभ्यता
(D) सिन्धु घाटी की सभ्यता
उत्तर:
(D) सिन्धु घाटी की सभ्यता

23. हड़प्पा संस्कृति के लोग किस अनाज से अनभिज्ञ थे?
(A) दाल
(B) जौ
(C) गेहूँ
(D) चावल
उत्तर:
(A) दाल

24. आर.एस. बिष्ट ने हड़प्पा सभ्यता से संबंधी धौलावीरा स्थल खोजा
(A) 1946 में
(B) 1971 में
(C) 1981 में
(D) 1990 में
उत्तर:
(D) 1990 में

25. धौलावीरा स्थित है
(A) गुजरात में
(B) सिन्ध में
(C) राजस्थान में
(D) महाराष्ट्र में
उत्तर:
(A) गुजरात में

26. चन्हुदड़ो की सर्वप्रथम खोज किसने की?
(A) एच० जी० मजूमदार ने
(B) एन० जी० मजूमदार ने
(C) आर० सी० मजूमदार ने
(D) आर० जी० मजूमदार ने
उत्तर:
(B) एन०जी० मजूमदार ने

27. आर.ई.एम. व्हीलर द्वारा हड़प्पा में खुदाई शुरू की गई
(A) 1941 ई० में
(B) 1931 ई० में
(C) 1946 ई० में
(D) 1951 ई० में
उत्तर:
(C) 1946 ई० में

28. कालीबंगन में बी. बी. लाल तथा बी. के. थापर ने खुदाई कार्य शुरू किया
(A) 1940 ई० में
(B) 1950 ई० में
(C) 1960 ई० में
(D) 1970 ई० में
उत्तर:
(C) 1960 ई० में

29. हड़प्पा किस नदी के तट पर है?
(A) सिंधु
(B) रावी
(C) सरस्वती
(D) झेलम
उत्तर:
(B) रावी

30. हड़प्पा काल में खेतों को हल से जोतने के प्रमाण मिले हैं
(A) मोहनजोदड़ो से
(B) हड़प्पा से
(C) कालीबंगन से
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) कालीबंगन से

31. जलाशय के साक्ष्य मिले हैं
(A) मोहनजोदड़ो से
(B) धौलावीरा से
(C) कालीबंगन से
(D) शोर्तुघई से
उत्तर:
(B) धौलावीरा से

32. भारतीय पुरातत्व का जनक कहा जाता है
(A) कनिंघम को
(B) सर जॉन मार्शल को
(C) व्हीलर को
(D) किसी को नहीं
उत्तर:
(A) कनिंघम को

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

33. हड़प्पा सभ्यता के शिल्प कार्य थे
(A) मनके बनाना
(B) औजार बनाना
(C) ईंटों का निर्माण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

34. कांसे की नर्तकी की मूर्ति कहाँ से प्राप्त हुई है?
(A) हड़प्पा से
(B) मोहनजोदड़ो से
(C) चन्हुदड़ो से
(D) राखीगढ़ी से
उत्तर:
(B) मोहनजोदड़ो से

35. हड़प्पावासी ताँबा आयात करते थे
(A) खेतड़ी से
(B) कोलार से
(C) ओमान से
(D) शोर्तुघई से
उत्तर:
(A) खेतड़ी से

36. पुरातत्वविदों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा नगर था
(A) हड़प्पा
(B) मोहनजोदड़ो
(C) कालीबंगन
(D) लोथल
उत्तर:
(B) मोहनजोदड़ो

37. हड़प्पा की बस्तियों में पाई गई मोहरों में से अधिकांश बनी थीं
(A) लोहे की
(B) चाँदी की
(C) फिरोजा पत्थर की
(D) सेलखड़ी की
उत्तर:
(D) सेलखड़ी की

38. विशाल स्नानागार स्थित था
(A) हड़प्पा में
(B) लोथल में
(C) मोहनजोदड़ो में
(D) बनावली में
उत्तर:
(C) मोहनजोदड़ो में

39. हड़प्पा संस्कृति के पतन का क्या कारण था?
(A) बाढ़
(B) सूखा
(C) जलवायु परिवर्तन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

40. मोहनजोदड़ो स्थित ‘प्रथम सड़क’ का माप है
(A) 20 मीटर
(B) 15 मीटर
(C) 10.5 मीटर
(D) 5 मीटर
उत्तर:
(C) 10.5 मीटर

41. हड़प्पा संस्कृति के लोग किस धातु से परिचित नहीं थे?
(A) सोना
(B) ताँबा
(C) लोहा
(D) चाँदी
उत्तर:
(C) लोहा

42. हड़प्पा लिपि लिखी जाती थी
(A) ऊपर से नीचे
(B) बायें से दायें
(C) नीचे से ऊपर
(D) दायें से बायें
उत्तर:
(D) दायें से बायें

43. हड़प्पाई लोग पूजा करते थे
(A) मातृदेवी की
(B) वृक्षों की
(C) पशुओं की
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

44. हड़प्पा सभ्यता में दफनाए गए शवों की दिशा है
(A) उत्तर:दक्षिण
(B) पूर्व-पश्चिम
(C) उत्तर:पूर्व
(D) दक्षिण-पश्चिम
उत्तर:
(A) उत्तर:दक्षिण

45. हड़प्पा सभ्यता का कौन-सा स्थल हरियाणा में है?
(A) बनावली
(B) राखीगढ़ी
(C) (A) व (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) (A) व (B) दोनों

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता का ज्ञान पहली बार कब हुआ?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता का ज्ञान पहली बार 1921 ई० में हुआ।

प्रश्न 2.
हड़प्पा सभ्यता की जानकारी का मुख्य साधन क्या है?
उत्तर:
हडप्पा सभ्यता की जानकारी का मुख्य साधन खदाई से प्राप्त अवशेष है।

प्रश्न 3.
सिन्धु घाटी सभ्यता के किन्हीं चार बड़े शहरों के नाम बताइए।
उत्तर:
सिन्धु घाटी सभ्यता के चार बड़े शहर हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो तथा कालीबंगन थे।

प्रश्न 4.
आधुनिक हरियाणा में सिन्धु सभ्यता के दो केन्द्रों के नाम बताइए।
उत्तर:
आधुनिक हरियाणा में सिन्धु सभ्यता के दो केन्द्र बनावली तथा राखीगढ़ी हैं।

प्रश्न 5.
हड़प्पा सभ्यता के लोग किस पशु की पूजा करते थे?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोग कुबड़े बैल की पूजा करते थे।

प्रश्न 6.
हड़प्पा संस्कृति के समय की लिपि बताइए।
उत्तर:
हड़प्पा संस्कृति के समय की लिपि चित्रमय है।

प्रश्न 7.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय के दो आभूषणों के नाम बताइए।
उत्तर:
सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय के दो आभूषण अंगूठी तथा हार थे।

प्रश्न 8.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग किन वृक्षों की पूजा करते थे?
उत्तर:
सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग नीम तथा पीपल की पूजा करते थे।

प्रश्न 9.
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा नगरों से गन्दे पानी को बाहर निकालने की क्या व्यवस्था थी?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा नगरों से गन्दे पानी को बाहर निकालने के लिए पक्की नालियों की व्यवस्था थी।।

प्रश्न 10.
हड़प्पा सभ्यता की किसी समकालीन सभ्यता का नाम बताइए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता की समकालीन सभ्यता का नाम मेसोपोटामिया था।

प्रश्न 11.
हड़प्पा सभ्यता के लोग किस पशु से अनभिज्ञ माने जाते हैं?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोग घोड़े से अनभिज्ञ माने जाते हैं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 12.
सिन्धु सभ्यता के लोग किस धातु से परिचित नहीं थे?
उत्तर:
सिन्धु सभ्यता के लोग लोहे से परिचित नहीं थे।

प्रश्न 13.
प्रसिद्ध कांस्य नर्तकी कहाँ से प्राप्त हुई?
उत्तर:
प्रसिद्ध कांस्य नर्तकी मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई।

प्रश्न 14.
हड़प्पा सभ्यता के लोगों का मुख्य भोजन बताइए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोगों का मुख्य भोजन गेहूँ तथा चावल था।

प्रश्न 15.
आजकल मोहनजोदड़ो व हड़प्पा किस देश में हैं?
उत्तर:
आजकल मोहनजोदड़ो व हड़प्पा पाकिस्तान में हैं।

प्रश्न 16.
सिन्धु घाटी के लोग ‘सोना’ कहाँ से प्राप्त करते थे ?
उत्तर:
सिन्धु घाटी के लोग ‘सोना’ कर्नाटक से प्राप्त करते थे।

प्रश्न 17.
मोहनजोदड़ो की खोज किस व्यक्ति द्वारा हुई?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो की खोज आर०डी० बैनर्जी द्वारा हुई।

प्रश्न 18.
हड़प्पा की खोज किसने की?
उत्तर:
हड़प्पा की खोज सर दयाराम साहनी ने की।

प्रश्न 19.
सिन्धु घाटी की सभ्यता की दो सार्वजनिक इमारतों के नाम बताइए।
उत्तर:
सिन्धु घाटी की सभ्यता की दो सार्वजनिक इमारतों के नाम धान्यागार तथा स्नानागार थे।

प्रश्न 20.
हड़प्पा संस्कृति के दो देवताओं के नाम बताइए।।
उत्तर:
हड़प्पा संस्कृति के दो देवताओं के नाम पशपति शिव तथा मातदेवी थे।

प्रश्न 21.
विशाल स्नानागार के भवन की बाहर की दीवार कितने फुट मोटी है?
उत्तर:
विशाल स्नानागार के भवन की बाहर की दीवार 8 फुट मोटी है।

प्रश्न 22.
स्नानागार का भवन बाहर से कितने फुट लम्बा है?
उत्तर:
स्नानागार का भवन बाहर से 180 फुट लम्बा है।

प्रश्न 23.
र्नानागार का भवन बाहर से कितने फुट चौड़ा है?
उत्तर:
स्नानागार का भवन बाहर से 108 फुट चौड़ा है।

प्रश्न 24.
मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ मृतकों का टीला (मोयाँ-दा-दड़ा) है।

प्रश्न 25.
किस स्थान से खुदाई में एक गोदी के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं?
उत्तर:
लोथल से गोदी के भग्नावशेष मिले हैं।

प्रश्न 26.
गुजरात में हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल कौन-से हैं?
उत्तर:
लोथल, रंगपुर, सुरकोतदा, धौलावीरा आदि गुजरात में प्रमुख पुरास्थल हैं।

प्रश्न 27.
यह कैसे ज्ञात हुआ है कि हड़प्पाई लोगों का दिलमुन तथा मेसोपोटामिया से व्यापारिक संबंध था?
उत्तर:
दिलमुन व मेसोपोटामिया से प्राप्त हड़प्पाई मोहरों से पता चला कि इन क्षेत्रों से हड़प्पाई लोगों का व्यापारिक संबंध था।

प्रश्न 28.
हड़प्पाई लोग किन पशुओं को पालते थे?
उत्तर:
हड़प्पाई लोग बैल, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, सूअर, हाथी, ऊँट, कुत्ता आदि पशुओं को पालते थे।

प्रश्न 29.
हड़प्पा सभ्यता में कौन-सी मूर्तियाँ बहुतायत में मिली हैं?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता में मृण्मयी मूर्तियाँ बहुतायत में मिली हैं।

प्रश्न 30.
हड़प्पाई लोग उपमहाद्वीप के किस स्थान से ताँबा प्राप्त करते थे?
उत्तर:
हड़प्पाई लोग खेतड़ी (राजस्थान) से ताँबा प्राप्त करते थे।

प्रश्न 31.
हड़प्पा सभ्यता के लोग सिंचाई के लिए किन साधनों का प्रयोग करते थे?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोग सिंचाई के लिए कुओं, नहरों व जलाशयों का प्रयोग करते थे।

प्रश्न 32.
वैदूर्यमणि किस स्थान से अधिक मात्रा में मिलती थी?
उत्तर:
वैदूर्यमणि शोर्तुघई (अफगानिस्तान) में अधिक मात्रा में पाई जाती थी।

प्रश्न 33.
हड़प्पाई नगरों से मेसोपोटामिया को क्या निर्यात किया जाता था?
उत्तर:
ताँबा, हाथी दाँत, वैदूर्यमणि आदि।

प्रश्न 34.
हड़प्पा सभ्यता में मुख्य कृषि फसलें क्या थीं?
उत्तर:
गेहूँ, जौ, चावल, मटर, कपास आदि मुख्य कृषि फसलें थीं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 35.
हड़प्पा कहाँ स्थित है?
उत्तर:
हड़प्पा पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) के मोंटगुमरी जिले में रावी के बाएँ तट पर स्थित है।

प्रश्न 36.
हड़प्पा सभ्यता में सर्वाधिक चित्र व मूर्तियाँ किसकी मिली हैं?
उत्तर:
सर्वाधिक चित्र व मूर्तियाँ कूबड़दार बैल की मिली हैं।

प्रश्न 37.
कालीबंगन कहाँ स्थित है?
उत्तर:
कालीबंगन राजस्थान में स्थित है।

प्रश्न 38.
मोहनजोदड़ो कहाँ स्थित था?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो सिंध के लरकाना जिले में सिन्धु नदी के तट पर स्थित था।

प्रश्न 39.
हड़प्पा लिपि में कुल कितने चित्राक्षर थे?
उत्तर:
हड़प्पा लिपि में लगभग 250 से 400 तक चित्राक्षर थे।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रारम्भ में हड़प्पा सभ्यता को ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ का नाम क्यों दिया गया?
उत्तर:
हड़प्पा की खोज के बाद अब तक इस सभ्यता से जुड़ी लगभग 2800 बस्तियों की खोज की जा चुकी है। इन बस्तियों की विशेषताएँ हड़प्पा से मिलती हैं। विद्वानों (सर जॉन मार्शल) ने इस सभ्यता को “सिंधु घाटी की सभ्यता” का नाम दिया क्योंकि शुरू में बहुत-सी बस्तियाँ सिंधु घाटी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थीं। ।

प्रश्न 2.
वर्तमान में पुरातत्वविद् इसे ‘हड़प्पा सभ्यता’ संज्ञा देना उपयुक्त क्यों मानते हैं?
उत्तर:
बाद में इस सभ्यता से जुड़े अनेक स्थानों की खोज हुई जो राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा तथा गुजरात में स्थित थे। अतः इस सभ्यता को केवल सिंधु घाटी की सभ्यता कहना सार्थक नहीं लगा। वर्तमान में पुरातत्ववेत्ता इसे “हड़प्पा की सभ्यता” कहना पसंद करते हैं। यह नामकरण इसलिए उचित है कि इस संस्कृति से संबंधित सर्वप्रथम खुदाई हड़प्पा में हुई थी।

प्रश्न 3.
हड़प्पा सभ्यता की तीन अवस्थाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता की तीन अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं

  • आरंभिक हड़प्पा काल 3500-2600 ई.पू.,
  • विकसित हड़प्पा काल 2600-1900 ई.पू.,
  • उत्तर हड़प्पा काल 1900-1300 ई.पू.।

प्रश्न 4.
मोहनजोदड़ो का क्या अर्थ है? इसकी खोज कब हुई?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो से अभिप्राय है मृतकों का टीला। सिंधी भाषा में इसे ‘मोयां-दा-दड़ा’ कहते हैं। इसकी खोज 1922 में राखालदास बनर्जी ने की।

प्रश्न 5.
हड़प्पा सभ्यता के लोगों के पालतू पशुओं के नाम बताइए।
उत्तर:
सभ्यता से प्राप्त शिल्प तथ्यों तथा पुरा-प्राणिविज्ञानियों (Archaeo-zoologists) के अध्ययनों से ज्ञात हुआ हैं कि हड़प्पन भेड़, बकरी, बैल, भैंस, सुअर आदि जानवरों का पालन करने लगे थे। कूबड़ वाला सांड उन्हें विशेष प्रिय था। गधे और ऊँट का पालन बोझा ढोने के लिए करते थे।

प्रश्न 6.
‘हड़प्पा के लोग एकांतता (Privacy) पर बहुत ध्यान देते थे।’ इस पर अपने विचार प्रकट करें।
उत्तर:
ऐसा भी प्रतीत होता है कि घरों के निर्माण में एकान्तता (Privacy) का ध्यान रखा जाता था। भूमि स्तर (Ground level) पर दीवार में कोई भी खिड़की नहीं होती थी। इसी प्रकार मुख्य प्रवेश द्वार से घर के अन्दर या आंगन में नहीं झांका/देखा जा सकता था।

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता की जानकारी का सबसे प्रमुख स्रोत कौन-सा है?
उत्तर:
यहाँ से प्राप्त हुई सामग्री में सबसे महत्त्वपूर्ण हड़प्पन मुद्राएँ (Seals) हैं। ये एक विशेष पाषाण (Steatite) से बनी हैं तथा इन पर पशुओं (बैल, सांड, हाथी, गैण्डा) के मुद्रांकन (Sealing) हैं। इन पर लिपि के संकेत भी गोदे हुए हैं जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। ये मुद्राएँ सभी स्थलों पर बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त शहरों, दस्तकारी केन्द्रों, दुर्ग स्थानों आदि से अनेक महत्त्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए हैं।

प्रश्न 8.
धौलावीरा कहाँ पर है? इसकी दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
धौलावीरा गुजरात में स्थित है। इस नगर की खोज 1967-68 में जे.पी. जोशी द्वारा की गई। यह भारत में हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा नगर पाया गया है। यह नगर विशेष रूप से मनके बनाने के लिए प्रसिद्ध था।

प्रश्न 9.
हड़प्पा सभ्यता की सड़कों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के नगर सड़कों के लिए प्रसिद्ध हैं। सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो में निचले नगर में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है। अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। गलियाँ एवं गलियारे 1.2 मीटर (4 फुट) या उससे अधिक चौड़े थे। घरों के बनाने से पहले ही सड़कों व गलियों के लिए स्थान छोड़ दिया जाता था। उल्लेखनीय है कि मोहनजोदड़ो के अपने लम्बे जीवनकाल में इन सड़कों पर अतिक्रमण (encroachments) या निर्माण कार्य दिखाई नहीं देता।

प्रश्न 10.
सी. ई. तथा बी.सी.ई. का अर्थ लिखें।
उत्तर:
सी.ई. (CE.)-कॉमन एरा (Common Era) आजकल ए.डी. के बजाए सी.ई. का प्रयोग किया जाने लगा है।
बी.सी.ई. (BCE)-बिफोर कॉमन एरा (Before Common Era) आजकल बी.सी. (ई.पू.) के स्थान पर बी.सी ई. का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 11.
हड़प्पा सभ्यता के कोई दो विशेष पहचान बिंदुओं के नाम लिखें।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के दो विशेष पहचान बिंदुओं के नाम निम्नलिखित हैं

  • नगर योजना व चबूतरों पर बने दुर्गों में विशेष भवन तथा समकोण पर काटती सीधी सड़कें, गलियाँ व उत्तम निकासी व्यवस्था।
  • चाक से बने पक्के, भारी व मोटी परत वाले मृदभाण्ड (Pottery)। उन पर काले रंग से पीपल के पत्तों, काटते सर्किल व मोर इत्यादि का रूपांकन (Motifs)।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 12.
हड़प्पा सभ्यता से जुड़े किन्हीं तीन उत्पादन केंद्रों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
बालाकोट (बलूचिस्तान में समुद्रतट के समीप) व चन्हुदड़ो (सिंध में) सीपीशिल्प और चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध थे।

  • लोथल (गुजरात) और चन्हुदड़ो में लाल पत्थर (Carmelian) और गोमेद के मनके बनाए जाते थे।
  • चन्हुदड़ो में वैदूर्यमणि के कुछ अधबने मनके मिले हैं जिससे अनुमान लगाया जाता है कि यहाँ पर दूर-दराज से बहुमूल्य पत्थर आयात किया जाता था तथा उन पर काम करके उन्हें बेचा जाता था।

प्रश्न 13.
हड़प्पा सभ्यता की खोज कब हुई? वर्तमान में इसका विस्तार क्षेत्र क्या है?
उत्तर:
पंजाब में रावी नदी के किनारे पर स्थित हड़प्पा पहला नगर था जिसकी 1921 में खुदाई हुई। इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान से लेकर उत्तर:पूर्व में मेरठ तक का था। यह सारा क्षेत्र त्रिभुज के आधार का था। इसका पूरा क्षेत्रफल लगभग 1,299,600 वर्ग किलोमीटर आंका जाता है। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता का विस्तार इसकी समकालीन मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से काफी बड़ा था।

प्रश्न 14.
हड़प्पा सभ्यता के किन्हीं चार प्रमुख नगरों के नाम बताइए।
उत्तर:
हड़प्पा व मोहनजोदड़ो इस सभ्यता के मुख्य नगर हैं जहाँ से नाना प्रकार के शिल्प तथ्य (Artefact) प्राप्त हुए। यह दोनों नगर अब पाकिस्तान में पड़ते हैं। दोनों के बीच 483 किलोमीटर की दूरी है। सिन्ध क्षेत्र में चन्हुदड़ो नगर प्रकाश में आया . है। यह मोहनजोदड़ो से 130 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। एक अन्य नगर गुजरात लोथल, (कठियावाड़) है। इस स्थल पर बंदरगाह के अवशेष भी पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त धौलावीरा (गुजरात के कच्छ क्षेत्र में) उत्तरी राजस्थान में कालीबंगन (काले रंग की चूड़ियाँ), हरियाणा में बनावली व राखीगढ़ी, बलूचिस्तान में सुत्कागेंडोर व सुरकोतदा, रंगपुर (गुजरात) आदि इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं।

प्रश्न 15.
हड़प्पा सभ्यता के विनाश के कोई दो कारण लिखें।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के विनाश के दो कारण निम्नलिखित हैं

1. आर्यों के आक्रमण (Aryan’s Invasions)-व्हीलर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इसके पक्ष में वे आक्रमण के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। प्रथम, हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में सड़कों पर मानव कंकाल पड़े मिले हैं। एक कमरे में 13 स्त्री-पुरुषों . तथा बच्चों के कंकाल मिले हैं। मोहनजोदड़ो के अन्तिम चरण में सड़कों पर तथा घरों में मनुष्यों के कत्लेआम के प्रमाण मिले हैं। एक सँकरी गली को जॉन मार्शल ने डैडमैन लेन का नाम दिया है। ये कंकाल इस बात का संकेत करते हैं कि बाहरी आक्रमणकारियों ‘ (आय) ने हमला किया।

2. बाढ़ और भूकम्प (Flood and Earthquake)-कुछ विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता के पतन का कारण बाढ़ बताया है। मोहनजोदड़ो में मकानों और सड़कों पर गाद (कीचड़युक्त मिट्टी) भरी पड़ी थी। बाढ़ का पानी उतर जाने पर यहाँ के निवासियों ने पहले के मकानों के मलबे पर फिर से मकान और सड़कें बना लीं। बाढ़ आने का सिलसिला कई बार घटा। खुदाई से पता चला है कि 70 फुट गहराई तक मकान बने हुए थे। बार-बार आने वाली बाढ़ों से नगरवासी गरीब हो गए तथा तंग आकर बस्तियों को छोड़कर चले गए।

प्रश्न 16.
दुर्ग क्षेत्र से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो को हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा शहरी केंद्र माना जाता है। इस सभ्यता की नगर-योजना, गृह निर्माण, मुद्रा, मोहरों आदि की अधिकांश जानकारी मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है। यह नगर दो भागों में बँटा था। एक भाग में ईंटों से बनाए ऊँचे चबूतरे पर स्थित बस्ती है। इसके चारों ओर ईंटों से बना परकोटा (किला) था, जिसे ‘नगर दुर्ग’ (Citadel) कहा जाता है। ‘नगर दुर्ग’ का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था। इसमें पकाई ईंटों से बने अनेक बड़े भवन पाए गए हैं। दुर्ग क्षेत्र में शासक वर्ग के लोग रहते थे। .

प्रश्न 17.
हड़प्पा लिपि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
हड़प्पा की मोहरों पर चित्रों के माध्यम से लिखावट है। विद्वानों का मानना है कि इन चित्रों के रूपांकनों (Motifs) के द्वारा अर्थ समझाया गया था। इन चित्रों से अनपढ़ भी संकेत से अर्थ समझ जाते होंगे। अधिकांश अभिलेख छोटे हैं। सबसे लम्बे अभिलेख में लगभग 26 चिहन हैं। यह लिपि संभवतः वर्णात्मक (Alphabetical) नहीं थी। इसमें बहुत-से चिह्न ही प्रयोग में होते थे जिनकी संख्या 375 तथा 400 के बीच बताई गई है। ऐसा लगता है कि यह लिपि दाईं-से-बाईं ओर लिखी जाती थी।

प्रश्न 18.
हड़प्पा काल में यातायात के दो साधन क्या थे?
उत्तर:
पकाई मिट्टी से बनी बैलगाड़ियों के खिलौने इस बात का संकेत हैं कि बैलगाड़ियों का प्रयोग सामान का आयात करने के लिए होता था। सिन्धु व सहायक नदियों का भी मार्गों के रूप में प्रयोग होता था। समुद्र तटीय मार्गों का इस्तेमाल भी माल लाने के लिए किया जाता था। संभवतः इसके लिए नावों का प्रयोग होता था।

प्रश्न 19.
सर जॉन मार्शल कौन था? उसकी पुस्तक का नाम लिखें।
उत्तर:
सर जॉन मार्शल भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के महानिदेशक थे। उन्होंने हड़प्पा की खुदाई में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हड़प्पा सभ्यता की खोज की योजना मार्शल द्वारा ही की गई। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम है ‘मोहनजोदड़ो एंड द इंडस सिविलाईजेशन’।

प्रश्न 20.
आर.ई.एम. व्हीलर कौन थे? उनकी पुस्तक का नाम लिखें।
उत्तर:
आर.ई.एम. व्हीलर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के महानिदेशक थे। उन्होंने यह पद-भार 1944 में सम्भाला। हड़प्पा सभ्यता के खुदाई में व्हीलर ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम है-‘माई आर्कियोलॉजिकल मिशन टू इंडिया एंड पाकिस्तान’।

प्रश्न 21.
कनिंघम कौन थे?
उत्तर:
कनिंघम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पहले महानिदेशक थे। उनकी रुचि छठी सदी ईसा पूर्व से चौथी सदी ईसा पूर्व तथा इसके बाद के प्राचीन इतिहास के पुरातत्व में थी। उन्होंने बौद्धधर्म से संबंधित चीनी यात्रियों के वृत्तांतों का प्रारंभिक बस्तियों की पहचान करने में प्रयोग किया। सर्वेक्षण के कार्य में शिल्प तथ्य एकत्र किए। उनका रिकॉर्ड रखा तथा अभिलेखों का अनुवाद भी किया।

प्रश्न 22.
हड़प्पा लोगों द्वारा शव के अंतिम संस्कार के दो तरीके बताइए। अथवा हड़प्पाकालीन शवाधानों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर:
हड़प्पा लोगों द्वारा शव के अंतिम संस्कार के दो तरीके इस प्रकार हैं

  • हड़प्पा में भी मृतकों के अन्तिम संस्कार का सबसे ज़्यादा प्रचलित तरीका दफनाना ही था। शव सामान्य रूप से उत्तर:दक्षिण दिशा में रखकर दफनाते थे। कब्रों में कई प्रकार के आभूषण तथा अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं।
  • कालीबंगन में कब्रों में कंकाल नहीं हैं। वहाँ छोटे-छोटे वृत्ताकार गड्ढों में राखदानियाँ तथा मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं। लोथल में कब्रों में साथ-साथ दफनाए गए महिला और पुरुष मुर्दो के कंकालों के जोड़े मिले हैं।

प्रश्न 23.
भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर उन तीन क्षेत्रों के नाम लिखें जिनसे हड़प्पन व्यापार होता था।
उत्तर:
1. मगान (Magan)-ओमान की खाड़ी पर स्थित रसाल जनैज (Rasal-Junayz) भी व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थी। सुमेर के लोग ओमान को मगान (Magan) के नाम से जानते थे। मगान में हड़प्पा सभ्यता से जुड़ी वस्तुएँ; जैसे मिट्टी का मर्तबान, बर्तन, इन्द्रगोप के मनके, हाथी-दांत व धातु के कला तथ्य मिले हैं।

2. दिलमुन (Dilmun)-फारस की खाड़ी में भी हड़प्पाई जहाज पहुँचते थे। दिलमुन (Dilmun) तथा पास के तटों पर जहाज जाते थे। दिलमुन से हड़प्पा के कलातथ्य तथा लोथल से दिलमुन की मोहरें प्राप्त हुई हैं।

3. मेसोपोटामिया (Mesopotamain)-वस्तुतः दिलमुन (बहरीन के द्वीपों से बना) मेसोपोटामिया का प्रवेश द्वार था। मेसोपोटामिया के लोग सिंधु बेसिन (Indus Basin) को मेलुहा (Meluhha) के नाम से जानते थे (कुछ विद्वानों के मतानुसार मेलुहा सिंधु क्षेत्र का बिगड़ा हुआ नाम है)। मेसोपोटामिया के लेखों (Texts) में मेलुहा से व्यापारिक संपर्क का उल्लेख है।

प्रश्न 24.
सिन्धु घाटी की सभ्यता की लिपि की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
सिन्धु घाटी की सभ्यता की लिपि की कोई दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • सिन्धु घाटी की मोहरों पर चित्रों के माध्यम से लिखावट है। इन चित्रों से अनपढ़ भी संकेत से अर्थ समझ लेते होंगे।
  • यह लिपि संभवत: वर्णात्मक नहीं थी। इसमें लगभग 375 से 400 चिह्नों का प्रयोग होता होगा। यह लिपि दाईं से बाईं ओर. लिखी जाती थी।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 25.
हड़प्पा सभ्यता का सबसे पहले खोजा गया स्थल कौन था? इसकी दुर्दशा का क्या कारण था?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता का सबसे पहले उत्खनन तथा खोजा गया स्थल हड़प्पा था। इसकी खुदाई 1921 में दयाराम साहनी ने की थी। इस स्थल की दुर्दशा का मुख्य कारण इस स्थल से ईंटों की चोरी था। ईंटें चुराने वालों ने इसे बुरी तरह से नष्ट कर दिया था। इससे यहाँ की बहुत-सी संरचनाएँ नष्ट हो गईं।

प्रश्न 26.
मोहनजोदड़ो के नियोजन पर प्रकाश डालने वाले कुछ साक्ष्य बताइए।
उत्तर:
मोहनजोदड़ो की वास्तुकला के कई लक्षण इस बात के साक्ष्य हैं कि यह एक नियोजित नगर था

  • नगर का दुर्ग क्षेत्र तथा निचले नगर में विभाजन,
  • समकोण काटती सड़क व गलियाँ,
  • उत्तम जल निकास प्रणाली,
  • समान आकार की ईंटों का प्रयोग,
  • विशाल भवनों का वास्तु,
  • घरों का निश्चित योजना से निर्माण।

प्रश्न 27.
फयॉन्स क्या था? इससे बने पात्र महंगे क्यों थे?
उत्तर:
फ़यॉन्स बालू (घिसी हुए रेत), रंग तथा किसी चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पकाकर बनाया गया एक प्रकार का पदार्थ था। इसके पात्र चमकदार होते थे। इससे बने छोटे पात्र कीमती इस कारण माने जाते थे कि इन्हें बनाना कठिन होता था।

प्रश्न 28.
नागेश्वर तथा बालाकोट कहाँ थे और क्यों प्रसिद्ध थे?
उत्तर:
नागेश्वर गुजरात तथा बालाकोट बलूचिस्तान में स्थित थे। ये दोनों बस्तियाँ समुद्र तट पर बसी हुई थी। ये दोनों स्थल शंख से वस्तुएँ बनाने के विशिष्ट केंद्र थे। इसका कारण यह था कि यह समुद्र तट पर थे तथा यहाँ पर शंख पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। शंख से चूड़ियाँ, पच्चीकारी की वस्तुएँ आदि बनाई जाती थीं।

प्रश्न 29.
मोहनजोदड़ों के घरों की कोई दो मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:मोहनजोदड़ों के घरों की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • मोहनजोदड़ों के ज्यादातर घरों में आंगन होता था और चारों तरफ कमरे बने होते थे।
  • मोहनजोदड़ों के लगभग सभी घरों में कमरे होते थे।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता के नामकरण पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
प्रारंभ में विद्वानों ने इस सभ्यता को “सिंधु घाटी की सभ्यता” का नाम दिया था क्योंकि शुरू में बहुत-सी बस्तियाँ सिंधु घाटी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थीं। परंतु बाद में इस सभ्यता से जुड़े अ राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा तथा गुजरात में स्थित थे। अतः इस सभ्यता को केवल सिंधु घाटी की सभ्यता कहना सार्थक नहीं लगा। वर्तमान में पुरातत्ववेत्ता इसे “हड़प्पा की सभ्यता” कहना पसंद करते हैं। यह नामकरण इसलिए उचित है कि इस संस्कृति से संबंधित सर्वप्रथम खुदाई हड़प्पा में हुई थी। अन्य स्थानों की खुदाई से भी सभ्यता के वही लक्षण प्राप्त हुए जो हड़प्पा से प्राप्त हुए थे। यह भी उल्लेखनीय है कि पुरातत्व-विज्ञान में यह परिपाटी है कि जब किसी प्राचीन सभ्यता या संस्कृति का वर्णन किया जाता है तो उस स्थान के आधुनिक प्रचलित नाम पर उस सभ्यता का नाम रखा जाता है, जहाँ से उसके अस्तित्व का पता चलता है। इसलिए हड़प्पा को आधार मानकर इसे ‘हड़प्पा सभ्यता’ नामकरण देना उपयुक्त है।

प्रश्न 2.
हड़प्पा सभ्यता की पुरातत्वविदों की जानकारी के स्रोतों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता की सारी जानकारी पुरातत्वविदों को इस सभ्यता से जुड़ी बस्तियों (नगरों) से प्राप्त विशेष शिल्प तथ्यों (Artefacts) से प्राप्त हुई है। उत्खनन से प्राप्त हुई सामग्री में सबसे महत्त्वपूर्ण हड़प्पन मुद्राएँ (Seals) हैं। ये एक विशेष पाषाण (Steatite) से बनी हैं तथा इन पर पशुओं (बैल, सांड, हाथी, गैण्डा) के मुद्रांकन हैं। इन पर लिपि के संकेत भी गोदे हुए हैं जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। ये मुद्राएँ सभी स्थलों पर बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त शहरों, दस्तकारी केन्द्रों दुर्ग स्थानों आदि से अनेक महत्त्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए हैं। कच्ची और पक्की ईंटों से बने घर और घरों में कुएँ मिले हैं।

ऊँचे तथा निचले स्थलों (दो भागों में) पर बसे नगर एवं नगरों में अन्नागार और बड़ी-बड़ी इमारतें हैं। मोटे तथा लाल मिट्टी के अलंकृत बर्तन (मृदभाण्ड) तथा मिट्टी की मुख्य मूर्तियाँ पाई गई हैं। तांबे तथा कांस्य के औजार, मूर्तियाँ तथा बर्तन हैं। पत्थर के बाट और कीमती पत्थरों के मनके हैं। समुद्री शैल तथा हाथी-दाँत के गहने भी हैं। इसके अतिरिक्त कांस्य, सोना तथा चाँदी के आभूषण भी मिले हैं। इस प्रकार पुरातत्वविदों की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं-मुद्राएँ, मुद्रांक, नगर दुर्ग, निचले नगर, नगरों की बसावट, मकान, विशाल इमारतें, ईंटें, मृदभाण्ड, तौल, बर्तन, औजार, मनके, गहने, मूर्तियाँ इत्यादि।

प्रश्न 3.
हड़प्पा के लोगों के जीविका निर्वाह के तरीकों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के आरंभिक चरण में जीविका निर्वाह के तरीके विकसित हो रहे थे। वे अनेक फसलें उगाने लगे थे। इनसे उन्हें खाद्यान्न प्राप्त होते थे। वे कई प्रकार के पेड़-पौधों से प्राप्त उत्पाद, जानवरों (मछली सहित) से भोजन प्राप्त करने में सफल थे। अनाज के जले दानों तथा बीजों की खोज से पुरातत्वविदों ने हड़प्पाई लोगों की आहार संबंधी आदतों के बारे में जानकारी प्राप्त की है। पुरावनस्पतिज्ञों के अनुसार हड़प्पाई लोग गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, तिल आदि अनाज के दानों से परिचित थे। बाजरे के दाने गुजरात से मिले। चावल के भी प्रमाण मिले हैं।

हड़प्पा स्थलों से भेड़, बकरी, भैंस, सूअर आदि की हड्डियाँ मिली हैं। पुरा-प्राणिविज्ञानियों के अनुसार ये सभी जानवर पालतू थे। संभवतः वे इनसे दूध तथा मांस प्राप्त करते थे। इसके अलावा जंगली सूअर (वराह), हिरणं तथा घड़ियाल की हड्डियाँ भी मिली हैं। मुर्गे की हड्डियों के प्रमाण भी हैं। कृषि उपज बढ़ाने के लिए खेतों को जोतते होंगे। हल के प्रमाण बनावली तथा जुते हुए खेत के प्रमाण कालीबंगन से मिले हैं। सिंचाई के प्रमाण मिले हैं। कुएँ, जलाशय, झीलों, नहरों से सिंचाई की जाती होगी। यद्यपि सिंचाई के कम ही प्रमाण मिले हैं।

प्रश्न 4.
मोहनजोदड़ो की सड़कों और गलियों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो की सड़कें व गलियाँ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार बनाई गई थीं। सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। सड़कें पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण दिशा में बिछी हुई थीं। इससे नगर कई भागों में बंट जाते थे। मोहनजोदड़ों में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है। इस ‘प्रथम सड़क’ पर एक साथ पहिए वाले सात वाहन गुजर सकते थे। अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। गलियाँ एवं गलियारे 1.2 मीटर (4 फुट) या । उससे अधिक चौड़े थे। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सड़कों, गलियों तथा नालियों की व्यवस्था लागू करने तथा निरंतर देखभाल के लिए नगरपालिका या नगर प्राधिकरण जैसी कोई प्रशासनिक व्यवस्था रही होगी। स्पष्ट है कि नगर में सड़कें व गलियाँ एक योजना के अनुसार बनाई गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते थे। अन्य सड़कें और गलियाँ मुख्य मार्ग को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर वर्गाकार/आयताकार खंडों में विभाजित होता था।

प्रश्न 5.
‘मोहनजोदड़ो एक नियोजित नगर था।’ इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
इस बात के पुख्ता पुरावशेष हैं कि मोहनजोदड़ो एक नियोजित शहरी केंद्र था इसको हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा शहरी केंद्र माना जाता है। इस सभ्यता की नगर-योजना, गृह निर्माण, मुद्रा, मोहरों आदि की अधिकांश जानकारी मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है। यह नगर दो भागों में बँटा था। एक भाग में इंटों से बनाए ऊँचे चबूतरे पर स्थित बस्ती है। इसके चारों ओर ईंटों से बना परकोटा (किला) था, जिसे ‘नगर दुर्ग’ (Citadel) कहा जाता है। ‘नगर दुर्ग’ का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था। इसमें पकाई ईंटों से बने अनेक बड़े भवन पाए गए हैं। दुर्ग क्षेत्र में शासक वर्ग के लोग रहते थे। निचले नगर के चारों ओर भी दीवार थी। इस क्षेत्र में भी कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था। ये चबूतरे भवनों की आधारशिला (Foundation) का काम करते थे।

दुर्ग क्षेत्र के निर्माण तथा निचले क्षेत्र में चबूतरों के निर्माण के लिए विशाल संख्या में श्रमिकों को लगाया गया होगा। इस नगर की यह भी विशेषता रही होगी कि पहले प्लेटफार्म या चबूतरों का निर्माण किया जाता होगा तथा बाद में इस तय सीमित क्षेत्र में निर्माण कार्य किया जाता होगा। इसका अभिप्राय यह हुआ कि पहले योजना बनाई जाती होगी तथा बाद में उसे योजनानुसार लागू किया जाता था। नगर की पूर्व योजना (Pre-planning) का पता ईंटों से भी लगता है। ये ईंटें पकाई हुई (पक्की) तथा धूप में सुखाई हुई होती थीं। इनका मानक (1:2:4) आकार था। इसी मानक आकार की ईंटें हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगरों में भी प्रयोग हुई हैं।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 1

मोहनजोदड़ो का नक्शा हुई हैं। मोहनजोदड़ो के एक नियोजित नगर होने का प्रमाण वहाँ पर सड़कों तथा नालियों की सुव्यवस्था का प्राप्त होना भी है। गृह स्थापत्य से भी स्पष्ट है कि पहले नक्शे बनाए जाते थे तथा बाद में घर का निर्माण किया जाता था।

प्रश्न 6.
हड़प्पा सभ्यता की निकास व्यवस्था (नालियों की व्यवस्था) के बारे में आप क्या जानते हैं? क्या यह नगर योजना की ओर संकेत करती है?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के शहरों की सबसे अनूठी विशिष्टताओं में से एक थी- ध्यानपूर्वक नियोजित जल निकास व्यवस्था (नालियों की व्यवस्था)। नियोजित और व्यापक नालियों की व्यवस्था हमें अन्य किसी भी समकालीन सभ्यता के नगरों में प्राप्त नहीं होती है। प्रत्येक घर में छोटी नालियाँ होती थीं जो घर के पानी को बाहर गली या सड़क के किनारे बनी नाली में पहुँचाती थीं। प्रमुख सड़कों एवं गलियों के साथ 1 से 2 फुट गहरी ईंटों तथा पत्थरों से ढकी नालियाँ होती थीं। मुख्य नालियों में कचरा छानने की व्यवस्था भी होती थी। नालियों में ऐसी व्यवस्था करने के लिए बड़े गड्ढे (शोषगत) होते थे, जो पत्थरों या ईंटों से ढके होते थे जिन्हें सफाई करने के लिए आसानी से हटाया और वापस रख दिया जाता था। मुख्य नालियाँ एक बड़े नाले के साथ जुड़ी होती थीं जो सारे गंदे पानी को नदी में बहा देती थीं। हड़प्पाकालीन नगरों की जल निकास प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए ए०एल० बाशम ने लिखा है, नालियों की अद्भुत व्यवस्था सिन्धु घाटी के लोगों की महान सफलताओं में से एक थी।

रोमन सभ्यता के अस्तित्व में आने तक किसी भी प्राचीन सभ्यता की नाली व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं थी।” जल निकासी की यह व्यवस्था केवल बड़े-बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थी वरन् छोटी बस्तियों में भी इसके प्रमाण मिले हैं। उदाहरण के लिए लोथल में भी पक्की ईंटों की नालियां हैं। नालियों के विषय में मैके ने लिखा है, “निश्चित रूप से यह अब तक खोजी गई सर्वथा संपूर्ण प्राचीन प्रणाली है। नालियों की व्यवस्था से यह स्पष्ट संकेत होता है कि नगर योजनापूर्वक बनाए जाते थे।”

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता के गृह स्थापत्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखि
उत्तर:
मोहनजोदड़ो से उपलब्ध आवासीय भवनों के नमूनों से सभ्यता के गृह स्थापत्य का अनुमान लगाया जाता है। घरों की बनावट में समानता पाई गई है। ज्यादातर घरों में आंगन (Courtyard) होता था और इसके चारों तरफ कमरे बने होते थे। ऐसा लगता है कि आंगन परिवार की गतिविधियों का केंद्र था। उदाहरण के लिए गर्म और शुष्क मौसम में आंगन में खाना पकाने व कातने जैसे कार्य किए जाते थे। ऐसा भी प्रतीत होता है कि घरों के निर्माण में एकान्तता (Privacy) का ध्यान रखा जाता था। भूमि स्तर (Ground level) पर दीवार में कोई भी खिड़की नहीं होती थी। इसी प्रकार मुख्य प्रवेश द्वार से घर के अन्दर या आंगन में नहीं झांका/देखा जा सकता था। बड़े घरों में कई-कई कमरे, रसोईघर, शौचालय एवं स्नानघर होते थे। कई मकान तो दो मंजिले थे तथा ऊपर पहुंचने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं। मोहनजोदड़ो में प्रायः सभी घरों में कुएँ होते थे।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 2

प्रश्न 8.
शवाधान के आधार पर सभ्यता में पाई गई चित्र : एक घर का स्थापत्य, मोहनजोदड़ो सामाजिक भिन्नता पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता में शवाधानों में पाए गए अवशेषों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस सभ्यता में सामाजिक तथा आर्थिक भिन्नताएँ मौजूद थीं। आपको जानकारी होगी कि मिस्र के विशाल पिरामिड वस्तुतः वहाँ के राजाओं की कबें हैं। इन कब्रों में राजाओं के मृत शरीर हैं तथा इनको सोने या अन्य धातुओं के ताबूत में रखा जाता था। उनके साथ बहुमूल्य सामग्री, वस्तुएँ और धन-संपत्ति भी रखी जाती थी। हड़प्पा की सभ्यता मिस्र की सभ्यता के समकालीन थी। हड़प्पा में भी मृतकों के अन्तिम संस्कार का सबसे ज़्यादा प्रचलित तरीका दफनाना ही था। शव सामान्य रूप से उत्तर:दक्षिण दिशा में रखकर दफनाते थे। कब्रों में कई प्रकार के आभूषण तथा अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं। जैसे कुछ कब्रों में ताँबे के दर्पण, सीप और सुरमे की सलाइयाँ पाई गई हैं। कुछ शवाधानों में बहुमूल्य आभूषण और अन्य सामान मिले हैं। कुछ कब्रों में बहुत ही सामान्य सामान मिला है। हड़प्पा की एक कब्र में ताबूत भी मिला है।

यहाँ पर एक कब्र में एक आदमी की खोपड़ी के पास से एक आभूषण मिला है जो शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (उपरत्न) के मनकों और सैकड़ों छोटे-छोटे मनकों से बनाया गया है। कालीबंगन में कब्रों में कंकाल नहीं हैं। वहाँ छोटे-छोटे वृत्ताकार गड्ढों में राखदानियाँ तथा मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं। शवाधानों की बनावट से भी विभेद प्रकट होता है। कुछ कळे सामान्य बनी हैं तो कुछ कब्रों में ईंटों की चिनाई की गई है। ऐसा लगता है कि चिनाई वाली कā उच्चाधिकारी वर्ग अथवा अमीर लोगों की हैं। सारांश में हम कह सकते हैं कि शवाधानों से प्राप्त सामग्री से हमें हड़प्पा के समाज की सन्तोषजनक जानकारी अवश्य प्राप्त हो जाती है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 9.
हड़प्पा सभ्यता के स्थलों से प्राप्त विलासिता की वस्तुओं के आधार पर सामाजिक विभेदन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के नगरों से प्राप्त कलातथ्यों (Artefacts) से भी सामाजिक विभेदन का अनुमान लगाया जाता है। इन कलातथ्यों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जाता है-पहले ऐसे अवशेष थे जो दैनिक उपयोग (Utility) के थे तथा दूसरे विलासिता . (Luxury) से जुड़े थे। दैनिक उपयोग के सामान में चक्कियाँ, बर्तन, सुइयाँ, झाँवा आदि को शामिल किया जा सकता है। इन्हें मिट्टी या पत्थर से आसानी से बनाया जा सकता था। सामान्य उपयोग की ये वस्तुएं हड़प्पा सभ्यता के सभी स्थलों से प्राप्त हुई हैं। दूसरा विलासिता की वस्तुओं में महँगी तथा दुर्लभ वस्तुएँ शामिल थीं। इनका निर्माण बाहर से प्राप्त सामग्री/पदार्थों से या जटिल तरीकों द्वारा किया जाता था। उदाहरण के लिए फ़यॉन्स (घिसी रेत या सिलिका/बालू रेत में रंग और गोंद मिलाकर पकाकर बनाए बर्तन) के छोटे बर्तन इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। ये फयॉन्स से बने छोटे-छोटे पात्र संभवतः सुगन्धित द्रवों को रखने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे।

हड़प्पा के कुछ पुरास्थलों से सोने के आभूषणों की निधियाँ (पात्रों में जमीन में दबाई हुई) भी मिली हैं। उल्लेखनीय है कि जहाँ दैनिक उपयोग का सामान हड़प्पा की सभी बस्तियों में मिला है, वहीं विलासिता का सामान मुख्यतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े नगरों में ही मिला है जो संभवतः राजधानियाँ भी थीं। उदाहरण के लिए कालीबंगन जैसी छोटी-छोटी बस्तियों से फ़यॉन्स (Faience) से बने कोई भी पात्र नहीं मिले हैं। इस सबका अभिप्राय है कि विलासिता से संबंधित या महँगा सामान अमीर वर्ग के लोगों के पास होता था तथा मुख्यतः बड़े नगर में ही होता था।

प्रश्न 10.
मोहरों व मुद्रांकनों पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
हल्की चमकदार सतह वाली सफेद रंग की आकर्षक मोहरें (Seals) हड़प्पा सभ्यता की अति महत्त्वपूर्ण कलातथ्य हैं। सेलखड़ी की वर्गाकार व आयताकार मुद्राएँ सभी स्थलों से मिली हैं। अकेले मोहनजोदड़ो में 1200 मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। इन पर लेख भी अंकित थे। कूबड़ वाला बैल, कूबड़ रहित बैल, सिंह, हाथी, गैंडे आदि पशु इन मुद्राओं पर चित्रित हैं। पशुपति वाली मुद्रा सबसे अधिक उल्लेखनीय है। इतने बड़े पैमाने पर मुद्रा तथा मुद्रांकनों की प्राप्ति इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि इन मोहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग लम्बी दूरी के साथ व्यापार संपर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए किया जाता था। सामान से भरे थैले के मुँह को रस्सी से बाँधकर या सिलकर उन पर गीली मिट्टी लगाई जाती थी। इसके बाद इस पर मुद्रांकन छापा जाता था जिसका संबंध सामान की सही व सुरक्षित पहुँच तथा भेजने वाले की पहचान से होता था।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 3

प्रश्न 11.
माप-तौल के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता की एक अन्य विशेषता माप और तौल व्यवस्था में समरूपता का पाया जाना था। दूर-दूर तक फैली बस्तियों में एक ही प्रकार के बाट-बट्टे पाए गए हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने तौल की इस प्रणाली से आपसी व्यापार और विनिमय को नियन्त्रित किया होगा। ये बाट (तौल) निम्न मूल्यांकों (Lower Denominations) में द्विचर (binary) प्रणाली के अनुसार हैं-1, 2, 4, 8, 16, 32……… से 12,800 तक। ऊपरी मूल्यांकों (Higher Denominations) में दशमलव प्रणाली का अनुसरण किया जाता था।

ये बाट चकमकी पत्थर, चूना पत्थर, सेलखड़ी आदि से बने होते थे। यह आकार में घनाकार या गोलाकार होते थे। छोटे बाट भी थे जिनका प्रयोग संभवतः आभूषण व मनके तोलने के लिए किया जाता था। धातु के पैमाने जैसे कला तथ्य भी पाए गए हैं। जिनकी लम्बाई 37.6 सेंटीमीटर की एक फुट की इकाई पर आधारित होती थी। ऐसे डंडे भी पाए गए हैं जिन पर माप के निशान लगे हुए हैं। इनमें एक डंडा कांसे का भी है।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 3

प्रश्न 12.
पुरातत्वविद् एक उत्पादन केंद्र की पहचान कैसे करते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
1. पहचान का तरीका-पुरातत्वविद् किसी उत्पादन केंद्र को पहचानने में कुछ चीजों का प्रमाण के रूप में सहारा लेते हैं। पत्थर के टुकड़ों, पूरे शंखों, सीपी के टुकड़ों, तांबा, अयस्क जैसे कच्चे माल, अपूर्ण वस्तुओं, छोड़े गए माल और कूड़ा-कर्कट आदि चीजों से उत्पादन केंद्रों की पहचान की जाती है। कारीगर वस्तुओं को बनाने के लिए पत्थर को काटते समय या शंख-सीपी को काटते हुए अनुपयोगी सामग्री छोड़ देते थे। कार्यस्थलों (Work Shops) से प्राप्त ऐसी सामग्री के ढेर होने पर अनुमान लगाया जाता है कि वह स्थल उत्पादन केंद्र रहा होगा।

2. प्रमुख उत्पादन केंद्र

  • बालाकोट (बलूचिस्तान में समुद्रतट के समीप) व चन्हुदड़ो (सिंध में) सीपीशिल्प और चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध थे।
  • लोथल (गुजरात) और चन्हुदड़ो में लाल पत्थर (Carnelian) और गोमेद के मनके बनाए जाते थे।
  • चन्हुदड़ो में वैदूर्यमणि के कुछ अधबने मनके मिले हैं जिससे अनुमान लगाया जाता है कि यहाँ पर दूर-दराज से बहुमूल्य पत्थर आयात किया जाता था तथा उन पर काम करके उन्हें बेचा जाता था।

प्रश्न 13.
हड़प्पाई लोगों द्वारा माल प्राप्ति की क्या नीतियाँ थीं?
उत्तर:
हड़प्पाई शिल्प उत्पादों के लिए अनेक प्रकार के कीमती व अर्द्ध कीमती पत्थरों, ताँबा, जस्ता, कांसा, सोना, चाँदी, टिन, लकड़ी, कपास आदि सामान की जरूरत पड़ती थी। इसके लिए उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप तथा इससे दूरस्थ क्षेत्रों से माल प्राप्त करना पड़ता था। इसके लिए निम्नलिखित नीतियाँ अपनाई जाती थीं

1. बस्तियों की स्थापना-सिन्ध, बलूचिस्तान के समुद्रतट, गुजरात, राजस्थान तथा अफ़गानिस्तान तक के क्षेत्र से कच्चा माल . प्राप्त करने के लिए उन्होंने बस्तियों का निर्माण किया हुआ था। इन क्षेत्रों में प्रमुख बस्तियां थीं-नागेश्वर (गुजरात), बालाकोट, शोर्तुघई (अफगानिस्तान), लोथल आदि। नागेश्वर और बालाकोट से शंख प्राप्त करते थे। शोर्तुघई (अफगानिस्तान) से कीमती लाजवर्द मणि (नीलम) आयात, करते थे। लोथल के संपर्कों से भड़ौच (गुजरात) में पाई जाने वाली इन्द्रगोपमणि (Carnelian) मँगवाई जाती थी। इसी प्रकार उत्तर गुजरात व दक्षिण राजस्थान क्षेत्र से सेलखड़ी का आयात करते थे। .

2. अभियानों से माल प्राप्ति-हड़प्पा सभ्यता के लोग उपमहाद्वीप के दूर-दराज क्षेत्रों तक अभियानों (Expeditions) का आयोजन कर कच्चा माल प्राप्त करने का तरीका भी अपनाते थे। इन अभियानों से वे. स्थानीय क्षेत्रों के लोगों से संपर्क स्थापित करते थे। इन स्थानीय लोगों से वे वस्तु विनिमय से कच्चा माल प्राप्त करते थे। ऐसे अभियान भेजकर राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र से तांबा तथा दक्षिण भारत में कर्नाटक क्षेत्र से सोना प्राप्त करते थे। उल्लेखनीय है कि इन क्षेत्रों से हड़प्पाई पुरा वस्तुओं तथा कला तथ्यों के साक्ष्य मिले हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने खेतड़ी क्षेत्र से मिलने वाले साक्ष्यों को गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है जिसके विशिष्ट मृदभांड हड़प्पा के मृदभांडों से भिन्न हैं।

3. दूरस्थ व्यापार-हड़प्पावासी समुद्री मार्गों से दूरस्थ प्रदेश से व्यापार का आयोजन करते थे। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि हड़प्पा के व्यापारी मगान, दिलमुन तथा मेसोपोटामिया से व्यापार कर ताँबा, सोना, चाँदी, कीमती लकड़ी आदि आयात करते थे।

प्रश्न 14.
हड़प्पाई ‘रहस्यमय लिपि’ पर टिप्पणी करें।
उत्तर:
हड़प्पा की मोहरों पर चित्रों के माध्यम से लिखावट है। मुद्राओं के अतिरिक्त ताम्र उपकरणों व पट्टिकाओं, मिट्टी की लघु पट्टिकाओं, कुल्हाड़ियों, मृदभांडों आभूषणों, अस्थि छड़ों और एक प्राचीन सूचनापट्ट पर भी हड़प्पा लिपि के कई नमूने प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि यह लिपि अभी तक पढ़ी न जा सकने के कारण रहस्य बनी हुई है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि हड़प्पा निवासी कौन-सी भाषा बोलते.थे और उन्होंने क्या लिखा। विद्वानों का मानना है कि इन चित्रों के रूपाकंनों (Motifs) के द्वारा अर्थ समझाया गया था। इन चित्रों से अनपढ़ भी संकेत से अर्थ समझ जाते होंगे।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 5
अधिकांश अभिलेख छोटे हैं। सबसे लम्बे अभिलेख में लगभग 26 चिहन हैं। यह लिपि संभवतः वर्णात्मक (Alphabetical) नहीं थी। इसमें बहुत-से चिह्न ही प्रयोग में होते थे जिनकी संख्या 375 तथा 400 के बीच बताई गई है। ऐसा लगता है कि यह लिपि दाईं-से-बाईं ओर लिखी जाती थी। ऐसा अनुमान इसलिए भी लगाया जाता है कि कुछ मोहरों पर दाईं तरफ चौड़ा अंतराल (Space) है और बाईं तरफ काफी कम अंतराल है।

प्रश्न 15.
हड़प्पा सभ्यता की खोज कैसे हुई?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के प्रकाश में आने की कहानी रोचक है। इस सभ्यता को खोज निकालने में अनेक व्यक्तियों का योगदान है। 1826 में चार्ल्स मेसेन हड़प्पा गाँव में आया तथा उसने यहाँ किसी प्राचीन स्थल के विद्यमान होने का सबसे पहले उल्लेख किया। इसी प्रकार 1834 में बर्नेस ने सिन्धु के किनारे किसी ध्वस्त किले के होने की बात की। 1853 तथा पुनः 1856 में कनिंघम (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक) ने हड़प्पा की यात्रा की तथा वहाँ टीले के नीचे किसी प्राचीन सभ्यता के दबे होने की सम्भावना जताई। कनिंघम ने उक्त स्थल की सीमित खुदाई भी करवाई तथा प्राप्त अवशेषों (मोहरों) एवं उत्खनन स्थल मानचित्र का प्रकाशन भी किया।

1886 में एम०एल० डेम्स एवं 1912 में पलीट ने भी हड़प्पाकालीन कुछ मुद्राओं के चित्र प्रकाशित किए। 1920 के प्रारम्भिक दशक में सिन्ध में जब रेलवे लाईन बिछाई जा रही थी तब खुदाई के दौरान अज्ञात सभ्यता के अवशेष प्रकाश में आए। 1921 में दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा और 1922 में राखाल दास बनर्जी द्वारा मोहनजोदड़ो में किए गए खुदाई कार्यों से इस सभ्यता का अस्तित्व निर्णायक रूप से सिद्ध हो गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने इस उत्खनन में रुचि ली तथा 1924 में लंदन से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्र में इस सभ्यता की खोज के बारे में घोषणा की। इससे पुरातत्वविदों में सनसनी फैल गई। इन उत्खननों से यह बात उभरकर आई कि यह एक विशिष्ट सभ्यता थी। जिसके अज्ञात निर्माताओं ने नगरों का निर्माण किया। यह सभ्यता मिस्र एवं मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के समकालीन थी।

प्रश्न 16.
खोज में कनिंघम के प्रयासों तथा उसकी उलझन पर नोट लिखें।
उत्तर:
कनिंघम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पहले महानिदेशक थे। 1853 तथा पुनः 1856 में कनिंघम ने हड़प्पा की यात्रा की तथा वहाँ टीले के नीचे किसी प्राचीन सभ्यता के दबे होने की संभावना जताई। उन्होंने वहाँ पर कुछ खुदाई भी करवाई। इसकी रिपोर्ट तथा एक मोहर का चित्र भी छापा। परंतु वे हड़प्पा के स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं आंक सके। उनकी रुचि छठी सदी ईसा पूर्व से चौथी सदी ईसा पूर्व तथा इसके बाद के प्राचीन इतिहास के पुरातत्व में थी। उन्होंने बौद्धधर्म से संबंधित चीनी यात्रियों के वृत्तांतों का प्रारंभिक बस्तियों की पहचान करने में प्रयोग किया। सर्वेक्षण के कार्य में शिल्प तथ्य एकत्र किए। उनका रिकॉर्ड रखा। कनिंघम ने उपलब्ध कलातथ्यों के सांस्कृतिक अर्थों को भी समझने का प्रयास किया।

परंतु हड़प्पा जैसे स्थल की इन चीनी वृत्तांतों में न तो विवरण था, न ही इन नगरों की ऐतिहासिकता की कोई जानकारी। अतः यह नगर ठीक प्रकार से उनकी खोजों के दायरे में नहीं समा पा रहे थे। वस्तुतः वे यहाँ से प्राप्त कला-तथ्यों की पुरातनता नगा पाए। उदाहरण के लिए एक अंग्रेज ने कनिंघम को हड़प्पा की एक मोहर दी। कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में इसका चित्र भी दिया परंतु वह इसे इसके समय-संदर्भ में रख पाने में असफल रहे। इसका कारण यह रहा होगा कि अन्य विद्वानों की भांति वह भी यह मानते थे कि भारत में पहली बार नगरों का अभ्युदय गंगा-घाटी में 6 वीं, 7वीं सदी ई०पू० से हुआ। अतः यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वे हड़प्पा के महत्त्व को नजरअंदाज कर गए।

प्रश्न 17.
हड़प्पा की खोज में सर जॉन मार्शल के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1921 में दयाराम साहनी ने हड़प्पा स्थल से अनेक मोहरें उत्खनन में प्राप्त की। ऐसा ही कार्य 1922 में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो में किया। दोनों स्थलों की मोहरों में समानता थी। इससे यह निष्कर्ष निकाल पुरातात्विक संस्कृति का हिस्सा है। इन खोजों के आधार पर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने 1924 ई० में (लन्दन में प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्र में) सारी दुनिया के समक्ष इस नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की। सारी दुनिया में इससे सनसनी फैल गई। इस बारे में एस.एन.राव ने ‘द स्टोरी ऑफ़ इंडियन आर्कियोलॉजी’ में लिखा, “मार्शल ने . भारत को जहाँ पाया था, उसे उससे तीन हजार वर्ष पीछे छोड़ा।” उल्लेखनीय है कि हड़प्पा जैसी मोहरें मेसोपोटामिया से भी मिली थीं। अब यह स्पष्ट हुआ कि यह एक नई सभ्यता थी जो मेसोपोटामिया के समकालीन थी।

सर जॉन मार्शल द्वारा हड़प्पा सभ्यता की घोषणा के साथ-साथ उन्होंने उत्खनन प्रणाली में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वे भारत में कार्य करने वाले पेशेवर पुरातत्वविद् थे। उनके पास यूनान व क्रिट में उत्खननों का अनुभव था। उन्हें आकर्षक खोजों में रुचि थी परंतु वे इन खोजों में दैनिक जीवन पद्धतियों को जानना चाहते थे। सर जॉन मार्शल ने उत्खनन की नई तकनीक को शुरू किया। उन्होंने पुरास्थल के स्तर विन्यास को पूरी तरह अनदेखा कर । पूरे टीले में समान परिमाण वाली नियमित क्षैतिज इकाइयों के साथ-साथ उत्खनन करने का प्रयास किया।

प्रश्न 18.
हड़प्पा सभ्यता से जुड़े उत्खनन में व्हीलर के योगदान को स्पष्ट करें।
उत्तर:
1944 ई० में व्हीलर महोदय भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (Archeological Survey and India) के महानिदेशक बने। उन्होंने पुरानी खुदाई तकनीक व उससे जुड़ी समस्या को ठीक करने का प्रयास किया। उनसे पहले सर जॉन मार्शल ने पुरा स्थल की स्तर विन्यास (Stratigraphy) पर ध्यान न देकर सारे टीले को समान आकार की क्षैतिज इकाइयों में उत्खनन करवाया। फलतः अलग-अलग स्तरों से संबंधित पुरावशेषों को एक इकाई विशेष में वर्गीकृत कर दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि इन खोजों के संदर्भ से जुड़ी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ सदैव के लिए खो गईं। उन्होंने एक समान क्षैतिजीय इकाइयों के आधार पर खुदाई की अपेक्षा स्तर विन्यास (Stratigraphy) का ध्यान रखना भी जरूरी माना। वे सेना में ब्रिगेडियर रह चुके थे। अतः उन्होंने पुरातत्व प्रणाली में एक सैन्य परिशुद्धता (Precision) का भी समावेश किया।

व्हीलर महोदय ने अत्यंत मेहनत व साहस की भावना से कार्य किया। वे सबह 5:30 बजे अपनी टीम के साथ कार्य पर लगते थे तथा गर्मी में सूर्य की तेज रोशनी में कुदालियों और चाकुओं के साथ कठिन परिश्रम करते रहते थे। उन्होंने इस प्रकार संस्मरण अपनी पुस्तक ‘माई आर्कियोलॉजिकल मिशन टू इंडिया एंड पाकिस्तान (1976)’ में दिए हैं।

प्रश्न 19.
शिल्प तथ्यों के वर्गीकरण के आधार स्पष्ट करें।
उत्तर:
पुरातत्वविद् भौतिक अवशेषों को प्राप्त कर, उनका विश्लेषण करते हैं। इससे इस सभ्यता के जीवन का पुनर्निर्माण करते हैं। ये भौतिक अवशेष या कला तथ्य मृदभाण्ड (बर्तन), औजार, गहने, घर का सामान आदि हैं। इसके अलावा कपड़ा, चमड़ा, लकड़ी का सामान जैसे जैविक पदार्थ हमारे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में गल (Decompose) गए हैं। जो बचे हैं वे हैं पाषाण, जली मिट्टी से बनी टेराकोटा की (मृण्य) मूर्तियाँ, धातु आदि।

शिल्प तथ्यों को खोज लेना पुरातत्व के कार्य में मात्र शुरुआत होती है। बाद में पुरातत्वविद् इन्हें विभिन्न आधार पर वर्गीकृत करते हैं। सामान्यतः निम्नलिखित आधारों पर इनका वर्गीकरण किया जाता है

(i) सामान्यतः वर्गीकरण सामग्री के आधार पर होता है; जैसे पत्थर, मिट्टी, धातु, हड्डी, हाथीदांत आदि।

(ii) वर्गीकरण का अन्य तरीका प्राप्त वस्तु के कार्य (Function) के आधार पर होता है; जैसे एक कला तथ्य औजार है या गहना या वह किसी अनुष्ठान के लिए प्रयोग का एक उपकरण है। यह वर्गीकरण सरल अनुष्ठान नहीं है।

(iii) कई बारं यह वर्गीकरण वर्तमान में चीजों के प्रयोग के आधार पर भी किया जाता है; जैसे मनके, चक्कियाँ, पत्थर के ब्लेड या पात्र आदि।

(iv) मिलने के स्थान के आधार पर भी पुराविद् इनका वर्गीकरण करते हैं। क्या वस्तु घर में मिली है या निकासी या अन्य स्थान पर।

(v) कभी-कभार पुरातत्वविद् परोक्ष तथ्यों का सहारा लेकर वर्गीकरण करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ हड़प्पा स्थलों पर कपड़ों के अंश मिले हैं। तथापि कपड़ा होने के प्रमाण के लिए दूसरे स्रोत जैसे मूर्तियों का सहारा लिया जाता है। किसी भी शिल्प तथ्य को समझने के लिए पुरातत्ववेत्ता को उसके संदर्भ की रूपरेखा विकसित करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए हड़प्पा की मोहरों को तब तक नहीं समझा जा सका जब तक उन्हें सही संदर्भ में नहीं रख पाए। वस्तुतः इन मोहरों को उनके सांस्कृतिक अनुक्रम (Cultural Sequence) एवं मेसोपोटामिया में हुई खोजों की तुलना के आधार पर ही सही अर्थों में समझा जा सका।

प्रश्न 20.
हड़प्पा सभ्यता के धर्म के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के लोगों के धार्मिक विश्वासों का पता लगाने के लिए पुरातत्वविदों व इतिहासकारों को उपलब्ध पुरावशेषों से निष्कर्ष निकालने पड़ते हैं। इस प्रकार के पुरावशेषों में विशेषतौर पर मोहरों और मृण्मूर्तियों का सहारा लिया जाता है। मिट्टी की बनी मूर्ति, जिसे मातृदेवी की मूर्ति बताया जाता है, उससे अनुमान लगाया जाता है कि यह भूमि की उर्वरता से जुड़ी है. तथा यह धरती देवी की मूर्ति है। एक पत्थर की मोहर पर पुरुष देवता को विशेष मुद्रा में बैठा दिखाया गया है तथा उसके आसपास कई जानवर हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यह पशुपति की मूर्ति है जो बाद में शिव के रूप में उभरकर आए। लिंग तथा योनि की पूजा के भी संकेत मिले हैं।

कुछ वृक्षों को पवित्र माना जाता था। कूबड़ सांडों की भी सम्भवतः पूजा की जाती थी। आज भी भारत में सांडों को पवित्र दृष्टि से देखा जाता है। हड़प्पावासी मृतकों को दफनाने के ऐसे प्रमाण कुछ नगरों (हड़प्पा) के समीप प्राप्त कब्रिस्तानों से लगाए जाते हैं जहाँ कब्रों में घर का सामान, गहने तथा शीशे आदि प्राप्त हुए हैं। परंतु मिस्र सभ्यता के समान कब्रों पर किसी प्रकार के बड़े ढाँचे (पिरामिड जैसे) देखने को नहीं मिलते हैं।

प्रश्न 21.
हड़प्पा सभ्यता का आविर्भाव (उदय) किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
यह प्रश्न.रोचक और महत्त्वपूर्ण है कि हड़प्पा सभ्यता के नगरों का आविर्भाव कैसे हुआ। मोर्टियर व्हीलर महोदय ने यह व्याख्या दी थी कि कुछ बाहर से आई जातियों द्वारा इस क्षेत्र को जीतकर नगरों की स्थापना की गई। परंतु बाद के अन्वेषणों के आधार पर विद्वानों ने इस व्याख्या को अस्वीकार कर दिया तथा अब यह आम धारणा बन गई है कि हड़प्पा के नगरों के स्थापित होने से पहले (प्राक हड़प्पा काल में) यहाँ पर कृषि समुदायों के विकास की एक दीर्घ प्रक्रिया रही है। इस प्रक्रिया को समझने के लिए अग्रलिखित प्राक बस्तियों के उदय को जानना जरूरी है

1. मेहरगढ़ (Mehargarh)-ऐसे समुदाय के विकास के प्रमाण मेहरगढ़ नामक स्थान से मिले हैं। यहाँ पर ईसा से पाँच हजार वर्ष पूर्व लोग गेहूँ तथा जौ की खेती करते थे एवं भेड़-बकरियाँ पालते थे। धीरे-धीरे इन्होंने सिंधु की बाढ़ पर नियंत्रण करना सीखा। इसके मैदानों का खेती के लिए उपयोग किया। इससे जनसंख्या में वृद्धि हुई। यह लोग पशु चराने के लिए दूर-दूर तक जाते थे। इससे परस्पर आदान-प्रदान बढ़ा तथा व्यापार शुरू हुआ। मेहरगढ़ के लोग कई प्रकार की मालाएँ बनाते थे। यहाँ से मोहरें भी मिली हैं। इसके अलावा यहाँ से डिजाइनदार मिट्टी के बर्तन, मिट्टी की मूर्तियाँ व तांबे तथा पत्थर की वस्तुएँ भी मिली हैं।

2. दंबसादात (Dambsadat)-मेहरगढ़ की भांति क्वेटाघाटी में दंबसादात से भी प्राक-हड़प्पन सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। इनमें चित्रधारी किए बर्तन, पक्की मिट्टी की मोहरें, ईंटें आदि मुख्य हैं।

3. रहमान ढेरी (Rahman Dheri) यहाँ से भी हड़प्पा सभ्यता की शुरुआत के प्रमाण मिलते हैं। यह स्थल सिंधु मैदान के पश्चिम भाग में है। यहाँ योजनाबद्ध बने मकान, सड़कें और गलियाँ मिली हैं। इसके चारों ओर ऊँची दीवार है। टूटे-फूटे बर्तनों की चित्रकला हड़प्पा लिपि की ओर संकेत करती है।

4. अमरी (Amri)-सिंधु मैदान के निचले भाग में अमरी (Amri) नामक स्थल से भी शिल्प तथ्य मिले हैं। यहाँ के लोगों ने अन्नागार बनाए। बर्तनों पर कूबड़ बैल की आकृति भी है। वे अपनी बस्ती की दुर्गबन्दी करने लगे थे। बाद में यही स्थल हड़प्पा सभ्यता के नगर के रूप में उभरा। कुछ अन्य स्थलों, जैसे कोटडीजी (Kot Diji), कालीबंगन (Kalibangn) से भी आरंभिक हड़प्पा काल के प्रमाण मिले हैं।

स्पष्ट है कि प्राक हड़प्पा काल में सिंधु क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न कृषक समुदायों में सांस्कृतिक परम्पराओं में समानता लगती है। इन छोटी-छोटी परंपराओं के मेल से एक बड़ी परंपरा प्रकट हुई। परंतु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये समुदाय कृषक व पशुचारी थे। कुछ शिल्पों में पारंगत थे। इनकी बस्तियाँ सामान्यतः छोटी थीं तथा कोई भी बड़ी इमारतें नहीं थीं। कुछ प्राक हड़प्पा बस्तियों का परित्याग भी हुआ तथा कुछ स्थलों पर जलाये जाने के भी प्रमाण मिले हैं। तथापि यह स्पष्ट लगता है कि हड़प्पा सभ्यता का आविर्भाव लोक संस्कृति के आधार पर हुआ।

प्रश्न 22.
‘परातत्वविदों को अतीत का पनर्निर्माण करते हए कला तथ्यों (Artefacts) की व्याख्या संबंधी समस्या का सामना करना पड़ता है। उदाहरण सहित इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
यह सत्य है कि पुरातत्वविदों को अतीत का पुनर्निर्माण करते हुए कला तथ्यों की व्याख्या संबंधी समस्या का सामना करना पड़ता है। विशेष तौर पर यह समस्या धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण में ज्यादा आती है। आरंभिक पुरातत्वविदों को लगता था कि कुछ वस्तुएँ, जो असामान्य और अपरिचित लगती थीं, संभवतः धार्मिक महत्त्व की होती थीं। कुछ कलातथ्य की धार्मिक व्याख्याओं के उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से हैं

(i) हड़प्पा से नारी की मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। ये आभूषणों (हार) से लदी हुई थीं। सिर पर विस्तृत प्रसाधन (मुकुट जैसा) धारण किया हुआ है। इन्हें मातृदेवी की संज्ञा दी गई। इसी प्रकार दुर्लभ पाषाण से बनी पुरुष की मूर्तियाँ, जिनमें उन्हें एक मानकीकृत मुद्रा में एक साथ घुटने पर रख बैठा हुआ दिखाया गया था, ‘पुरोहित राजा’ की भांति, धर्म से जोड़कर वर्गीकृत कर दिया गया।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 6
(ii) इसी प्रकार विशाल ढाँचों को भी धार्मिक आनुष्ठानिक महत्त्व का करार दे दिया गया। इसमें विशाल स्नानागार तथा कालीबंगन और लोथल से मिली वेदियाँ शामिल हैं।

(iii) इसी प्रकार कुछ मोहरों का विश्लेषण कर धार्मिक आस्थाओं व प्रथाओं का पुनर्निर्माण किया गया। इनमें से कुछ मोहरों की आनुष्ठानिक क्रियाओं के रूप में.व्याख्या की गई। दूसरी मोहरें (जिन पर पेड़ों के चित्र उत्कीर्ण किए हुए थे) को प्रकृति की पूजा का संकेत स्वीकार किया गया इसी प्रकार कुछ मोहरों की देवता और पूज्य पशुओं के रूप में व्याख्या दी है।

आद्य शिव-एक मोहर पर एक पुरुष देवता को योगी की मुद्रा में दिखाया गया है। इसके दाईं ओर हाथी तथा बाघ एवं बाईं ओर गैंडा तथा भैंसा हैं। पुरुष देवता के सिर पर दो सींग हैं। पुरातत्वविदों ने इस देवता को ‘आद्य शिव’ की संज्ञा दी है। इस ‘आद्य शिव’ वाली मोहर की ऋग्वेद में उल्लेखित रुद्रदेवता से सम तुलना की गई है।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 7
• एक श्रृंगी पशु-एक मोहर में एक शृंगी पशु उत्कीर्णित है। यह घोड़े जैसा पशु है, जिसके सिर के बीच में एक सींग निकला हुआ है। यह कल्पित तथा संश्लिष्ट लगता है। ऐसा बाद में हिन्दू धर्म के अन्य देवता (नरसिंह देवता) के बारे में कहा जा सकता है।

पुरातत्वविद् ज्ञात से अज्ञात की ओर अर्थात् वर्तमान के ज्ञान के आधार पर अतीत को पुनर्निर्मित करने का तरीका भी अपनाते हैं। हड़प्पा के धर्म की व्याख्या में बाद के काल की परंपराओं के समानांतरों (उसी प्रकार की मिलती-जुलती परंपराओं) का सहारा भी लिया जाता है। पात्रों आदि के संबंध में तो इस प्रकार का सहारा लेना ठीक लगता है परंतु धार्मिक पहचान बिंदुओं (Religion Symbols) को समझने में इस प्रकार का तरीका अपनाना अधिक कल्पनाशील (Speculative) हो जाता है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 23.
हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न केंद्रों से जो मोहरें प्राप्त हुई हैं, उनका क्या महत्त्व है?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों से व्यापक पैमाने पर मोहरें प्राप्त हुई हैं। यह इस सभ्यता की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ स्वीकार की गई हैं। अब तक लगभग 2000 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें से अधिकांश मोहरों पर लघु लेख के साथ-साथ जानवरों (कूबड़ सांड, एक सिंगी जानवर, बाघ, बकरी, हाथी आदि) की आकृतियाँ उकेरी हुई हैं। इन मोहरों का महत्त्व यह है कि इनसे हमें हड़प्पा सभ्यता के संबंध में अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। विशेषतौर पर यह हड़प्पा के लोगों के धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश डालती है। इनमें से कुछ मोहरों की आनुष्ठानिक क्रियाओं के रूप में व्याख्या की गई। दूसरी मोहरों (जिन पर पेड़ों के चित्र उत्कीर्ण किए हुए थे) को प्रकृति की पूजा का संकेत स्वीकार किया गया इस कुछ मोहरों की देवता और पूज्य पशुओं के रूप में व्याख्या दी है। एक मोहर पर एक पुरुष देवता को योगी की मुद्रा में दिखाया गया है। इसके दाईं ओर हाथी तथा बाघ एवं बाईं ओर गैंडा तथा भैंसा हैं। पुरुष देवता के सिर पर दो सींग हैं। पुरातत्वविदों ने इस देवता को ‘आद्य शिव’ की संज्ञा दी है। एक अन्य मोहर में एक श्रृंगी पश उत्कीर्णित है। यह घोड़े जैसा पश है, जिसके सिर के बीच में एक सींग निकला हुआ है। यह कल्पित तथा संश्लिष्ट लगता है।

ऐसा बाद में हिन्दू धर्म के अन्य देवता (नरसिंह देवता) के बारे में कहा जा सकता है। कला की दृष्टि से भी इनका महत्त्व बताया जाता है। मोहरों पर खुदे हुए सांड, हाथी, बारहसिंगा आदि के चित्र देखते ही बनते हैं। ये चित्र अपनी सुंदरता और वास्तविकता में अद्वितीय हैं। मोहरों का एक अन्य महत्त्व यह है कि इन पर अभिलेख खुदे हुए हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं। यह ठीक है कि अभी तक इन्हें पढ़ा नहीं जा सका है। भविष्य में यदि इन्हें पढ़ लिया जाता है तो इन मोहरों का महत्त्व और भी बढ़ जाएगा।

प्रश्न 24.
मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के अतिरिक्त हड़प्पा सभ्यता से जुड़े किन्हीं पाँच स्थलों का विवरण कीजिए।
उत्तर:
मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा इस सभ्यता के सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। सबसे पहले खुदाई भी इन्हीं नगरों की हुई है। हमारी अधिकतर जानकारी का आधार इन स्थानों से प्राप्त पुरावशेष ही हैं। इन स्थानों के अतिरिक्त इस सभ्यता से जुड़े अनेक स्थल प्रकाश में आए हैं। कुछ स्थलों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. चन्हुदडो-सिन्ध क्षेत्र में यह स्थान सिन्धु नदी के बाएँ तट पर स्थित है। इस स्थान पर दुर्ग नहीं था। यह एक शिल्प उत्पादन केन्द्र था। यहाँ मोहरें बनाई जाती थीं। यहाँ से मिट्टी की बनी गाड़ियाँ, काँसे का खिलौना, हड्डियों की वस्तुएँ, सीपी की चूड़ियाँ आदि प्राप्त हुए हैं। मोहनजोदड़ो की तरह यहाँ पर कई बार बाढ़ आने के चिहन हैं।

2. कालीबंगन-यह स्थान राजस्थान में गंगानगर जिले में है। यह सूखे घग्घर नदी के दक्षिणी तट पर था। यहाँ से प्राक हड़प्पा के प्रमाण मिले हैं। यहाँ पर खेत जोते जाने के प्रमाण हैं। यहाँ पर अग्निकुंड के अवशेष खोजे गए हैं। इसके अलावा यहाँ पर गोमेद तथा स्फटिक फलक, बर्तन तथा चूड़ियों के अवशेष मिले हैं।

3. लोथल-यह स्थल भोगवा तथा साबरमती नदी के मध्य घोलका तालुका (गुजरात) में खंभात खाड़ी से 12 किलोमीटर दूर के प्रमाण भी लोथल से मिले हैं। यहाँ पर एक अन्नागार भी मिला है। इसके अलावा सुमेरियन सभ्यता से संबंधित सोने के मनके, मनका कारखाना, कब्रिस्तान आदि भी यहाँ मिले हैं।

4. बनावली-हरियाणा में फतेहाबाद जिले में सरस्वती तट पर स्थित है। यहाँ पर पूर्व हड़प्पा तथा उत्तर हड़प्पा के अवशेष मिले हैं। यहाँ प्राप्त हुए कलातथ्यों में मिट्टी का हल, हल के टुकड़े, चक्के, ताँबे का मछली पकड़ने का काँटा, सोना परखने की कसौटी आदि प्रमुख हैं।

5. धौलावीरा-हड़प्पा सभ्यता से जुड़ा यह नवीनतम स्थल है, जहाँ हाल ही में खुदाई हुई है। यह इस सभ्यता का एक मात्र स्थल है जो तीन भागों में विभाजित है। यहाँ पर जलाशय के अवशेष मिले हैं। यहाँ पर मनके बनाने की कार्यशालाएँ थीं। यहाँ पर खेल का मैदान भी मिला है। इसके अलावा पत्थर की बनी नेवले की मूर्ति भी प्राप्त हुई है।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता के शिल्प उत्पादों पर लेख लिखें।
उत्तर:
हड़प्पा के लोगों ने शिल्प उत्पादों में महारत हासिल कर ली थी। मनके बनाना, सीपी उद्योग, धातु-कर्म (सोना-चांदी के आभूषण, ताँबा, कांस्य के बर्तन, खिलौने उपकरण आदि), तौल निर्माण, प्रस्तर उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाना, ईंटें बनाना, मद्रा निर्माण आदि हड़प्पा के लोगों के प्रमुख शिल्प उत्पाद थे। कई बस्तियाँ तो इन उत्पादों के लिए ही प्रसिद्ध थीं।

1. मनके बनाना-हड़प्पा सभ्यता के लोग गोमेद, फिरोजा, लाल पत्थर, स्फटिक (Crystal), क्वार्ट्ज (Quartz), सेलखड़ी (Steatite), जैसे बहुमूल्य एवं अर्द्ध-कीमती पत्थरों के अति सुन्दर मनके बनाते थे। मनके व उनकी मालाएं बनाने में ताँबा, कांस्य और सोना जैसी धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। शंख, फयॉन्स (faience), टेराकोटा या पक्की मिट्टी से भी मनके बनाए जाते थे। इन्हें अनेक आकारों चक्राकार, गोलाकार, बेलनाकार और खंडित इत्यादि में बनाया जाता था। कई पर चित्रकारी की जाती थी। रेखाचित्र उकेरे जाते थे। कुछ मनके अलग-अलग पत्थरों को जोड़कर बनाए जाते थे। पत्थर के ऊपर सोने के टोप वाले सुन्दर मनके भी पाये गए हैं।

2. धातुकर्म हड़प्पा सभ्यता के लोगों को अनेक धातुओं की जानकारी थी। वे इन धातुओं से विविध सामान बनाते थे। तांबे का प्रयोग सबसे ज्यादा किया गया है। इसके उपकरण उस्तरा, छैनी, चाकू, तीर व भाले का अग्रभाग, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के कांटे, आरी तलवार आदि बनाए जाते थे। तांबे में संखिया व टिन मिलाकर काँसा बनाया जाता था। ताँबे और काँसे के बर्तन भी बनाए जाते थे। कांस्य की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं। सोने के आभूषणों के संचय मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा से मिले हैं। सोना हल्के रंग का था। इसमें चाँदी की मिलावट काफी मात्रा में थी। भारत में चाँदी का सर्वप्रथम प्रयोग हड़प्पा काल में हुआ। चाँदी के आभूषण और बर्तन बनाए जाते थे। सर जॉन मार्शल लिखते हैं कि सोने-चांदी के आभूषणों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि यह पांच हजार वर्ष पूर्व की कला कृतियाँ नहीं, अपितु इन्हें अभी-अभी लन्दन स्थित जौहरी बाजार (बांडस्ट्रीट) से खरीदा गया है।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 8
3. पाषाण उद्योग-इस काल में पत्थर के उपकरण भी बनाए जाते थे। सुक्कूर में इसके प्रमाण मिले हैं। पत्थर के विशेष प्रकार के बरमें, खुरचनियाँ, काटने के उपकरण, दरांती, फलक आदि बनाए जाते थे। ये उपकरण खेती, मणिकारी, दस्तकारी, नक्काशी (लकड़ी, सीपी) छेद करने में प्रयोग किए जाते थे। पत्थर की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं। इसमें सेलखड़ी तथा चूना पत्थर का उपयोग होता था।

4. मिट्टी के बर्तन-हड़प्पा सभ्यता के सभी स्थलों से सादे और अलंकृत बर्तन प्राप्त हुए हैं। इन बर्तनों पर पहले लाल रंग का घोल चढ़ाया जाता था, फिर काले रंग के गाढ़े घोल से डिजाइन बनाए जाते थे। ये बर्तन चाक पर बनाए जाते थे तथा भट्ठियों में पकाए जाते थे। बर्तनों पर नदी तल की चिकनी मिट्टी का प्रयोग होता था। इस मिट्टी में बालू, अभ्रक या चूना के कण मिलाए जाते थे। बर्तनों पर वृक्ष व. पशु की आकृतियाँ बनी मिली हैं। विकसित हड़प्पा काल में उच्चकोटि के चमकदार मृदभाण्डों का उत्पादन होने लगा था। बर्तनों के अतिरिक्त मिट्टी की मूर्तियाँ, खिलौने, घरेलू सामान, चूड़ियाँ, छोटे मनके एवं पशुओं की छोटी मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 9

5. ईंटें बनाना तथा राजगिरी-हड़प्पा सभ्यता के नगरों में विशाल भवनों का निर्माण तथा बड़े पैमाने पर ईंटों का प्रयोग इस बात की तरफ संकेत करता है कि वहाँ पर ईंटों का निर्माण करने का अलग उद्योग रहा होगा। परकोटों तथा भवनों को बनाने वाले मिस्त्री का काम करने वाला समुदाय भी रहा होगा।

6. सीपी उद्योग-इस सभ्यता के समय सीपी के कई उत्पाद बनाए जाते थे। समुद्री शंख का प्रयोग चूड़ियाँ, मनके, जड़ाऊ वस्तुएँ एवं छोटी आकृतियाँ बनाने में किया जाता था। बालाकोट, लोथल एवं कुतांसी स्थलों से कच्चा माल प्राप्त किया जाता था। यहाँ पर स्थानीय कार्यशालाएँ थीं।

7. कताई और बुनाई-घरों में तकुए तथा तकलियाँ मिली हैं। इनका प्रयोग सूती ऊनी वस्त्रों की बुनाई में किया जाता था। तकलियों को मिट्टी, सीपी और ताँबे से बनाया हुआ था। यहाँ से कपड़े का कोई टुकड़ा नहीं मिला है। परंतु यह तथ्य सत्य है कि कपास का उत्पादन होता था तथा वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। कपड़ों की रंगाई भी की जाती थी।

प्रश्न 2.
हड़प्पा सभ्यता के अंतर्खेत्रीय व दूरस्थ प्रदेशों से व्यापार-वाणिज्य संबंधी संपर्कों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के नगरीकरण (Urbanisation) में व्यापार का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा होगा। हड़प्पाकालीन नगर हस्तशिल्प उद्योगों के केन्द्र थे। इन हस्तशिल्पों को कच्चा माल उपलब्ध करवाने तथा पक्के माल को विभिन्न नगरों में पहुँचाने में व्यापारी वर्ग की भूमिका थी। इस रूप में ये नगर व्यापारिक केन्द्र भी थे। ये नगर नदियों के किनारे, समुद्र तटों तथा अन्य व्यापार मार्गों पर बसे थे। अन्तर्खेत्रीय व्यापार तथा बाह्य व्यापार के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं। मोहरों पर अंकित चित्र, माप-तौल की समान प्रणाली, पत्थरों तथा धातुओं के उपकरण और औजारों का सभी क्षेत्रों में मिलना, मिट्टी की छोटी नावें, लोथल में गोदी (डॉकयाडी सभी उन्नत व्यापार के संकेत हैं।

1. अन्तक्षेत्रीय व्यापार-पत्थर व धातु के उपकरण, सीपियों का सामान, मोहरें, बाट, रसोई का सामान, कलात्मक वस्तुएं, कीमती मनके, अनाज व कपास आदि एक स्थान से दूसरे स्थान (शहरों तथा ग्राम्य बस्तियों में) पर भेजे जाते थे। वस्तु विनिमय पर आधारित इस व्यापार में व्यापारी वर्ग तथा खानाबदोश व्यापारी शामिल होते थे। रोहड़ी तथा सूक्कूर में चकमक पत्थर मिलता था। नदी मार्गों से यह प्रमुख नगरों में भेजा जाता था।

यहाँ पर इस पत्थर से औज़ार और हथियार बनाए जाते थे। बालाकोट और चन्हुदड़ो में सीपियों की चूड़ियाँ तथा अन्य सामान बनता था। यहाँ से सामान अन्य नगरों तथा बस्तियों में भेजा जाता था। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में बाट, मोहरें तथा ताँबे का सामान बनाया जाता था। ये वस्तुएं भी सारे क्षेत्र में बेची जाती थीं। औज़ारों और हथियारों के अलावा यहाँ पर रसोई के उपयोग की वस्तुएँ तथा विभिन्न कलात्मक वस्तुएँ भी बनती थीं। लोथल तथा सुरकोतदा से कपास हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि नगरों को भेजी जाती थी। अनाज का भी व्यापार होता था। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में बने गोदामों से यह संकेत मिलता है कि आन्तरिक भागों से अनाज को नदी मार्गों से यहाँ पर पहुँचाया जाता था।

2. दूरस्थ प्रदेशों से व्यापार-हड़प्पा सभ्यता के नगरों का एशियाई देशों से व्यापारिक संबंध था, इसके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। मेसोपोटामिया के सूसा, उए, निप्पुर, किश और उम्मा शहरों से दो दर्जन से अधिक हड़प्पा की मोहरें प्राप्त हुई हैं। फारस की खाड़ी में स्थित फैलका और बैहरेन नामक स्थानों से भी मोहरें मिली हैं। इसके अतिरिक्त हड़प्पाकालीन बाट, मृण्य मूर्तियाँ, कीमती पत्थर आदि अनेक प्रकार का सामान भी फारस की खाड़ी तथा मेसोपोटामिया से प्राप्त हुआ है। मेसोपोटामिया के सम्राट् सारगॉन (Sargon, 2350 B.C.) का यह दावा था कि दिलमुन (Dilmun), मगान (Magan) और मेलुहा (Meluhha) के जहाज उसकी राजधानी में लंगर डालते थे। विद्वान इन नामों (स्थानों) को हड़प्पा सभ्यता के नगरों से जोड़ते हैं। माना जाता है कि मगान तथा मकरान समुद्रतट एक ही था।

(i) निर्यात-हड़प्पाकालीन व्यापारी इन बाह्य देशों में अपने यहाँ उत्पादित पत्थरों के फलकों, मोहरों, मनकों, ताँबे का सामान, हाथी-दाँत व सीपी आदि का निर्यात करते थे। तेल असमार (Tel Asmar) में नक्काशी किए हुए लाल पत्थर के मनके पाए गए हैं। मेसोपोटामिया के नगर निप्पुर में मृण्य मूर्तियाँ मिली हैं। हड़प्पा जैसे बाट भी मिले हैं।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 10

तालिका

हड़्पांकाल में आयातित वस्ताएँ एवं क्षेत्र

आयात की जाने वाली वस्ताएँक्षेत्रआयात की जाने वाली वस्तुएँक्षेत्र
टिनईरान, मध्य एशिया, अफ़गानिस्तान ।चांदीईरान, अफगानिस्तान ।
स्वर्णअफ्गानिस्तान, दक्षिण भारत (कर्नाटक)।लाजवर्दमेसोपोटामिया, बदख्शां।
फिरोजाईरान।सीसाईरान, दक्षिण भारत, अफगानिस्तान ।
शिलाजीतहिमालय क्षेत्र ।शंख एवं कौड़ियाँदक्षिणी भारत।
नील रलबदख्शां-अफगानिस्तान।

(ii) आयात-हड़प्पा सभ्यता के व्यापारी बाहर के क्षेत्रों से कीमती धातुओं का आयात करते थे। चाँदी का आयात अफगानिस्तान या ईरान से किया जाता था। अफगानिस्तान एवं कर्नाटक से सोना लाया जाता था। ताँबे का आयात अरब देशों, पश्चिमी बलूचिस्तान तथा राजस्थान में खेतड़ी से किया जाता होगा। टिन ईरान, मध्य एशिया तथा अफगानिस्तान से मँगाया जाता था। सीसे को ईरान पूर्वी या दक्षिण भारत तथा अफगानिस्तान से लाया जाता होगा। फिरोजा मध्य एशिया या ईरान से मंगाया जाता था। नीलम अफगानिस्तान के बदख्शां से लाया जाता था। सेलखड़ी पत्थर बलूचिस्तान, अरावली एवं दक्षिण भारत से प्राप्त होता था। गोमेद, स्फटिक एवं इन्द्रगोप जैसे कीमती पत्थर भी बाहर से आयात किए जाते थे। अफगानिस्तान से कीमती पत्थर प्राप्त करने के लिए शोर्तुघई नामक स्थान पर हड़प्पा के व्यापारियों ने एक बस्ती बसा रखी थी। बाह्य व्यापार स्थल तथा समुद्री मार्ग दोनों से होता था। लोथल, सुरकोतदा तथा बालाकोट जैसे तटीय नगरों से बाहर देशों से समुद्री व्यापार होता होगा।

3. परिवहन के साधन- परिवहन के साधनों में नौकाएँ, मस्तूल वाले छोटे जहाज, बैलगाड़ियाँ तथा लद्रू जानवर प्रमुख थे। . हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से पाई गई मोहरों में जहाजों और नावों को चित्रित किया गया है। लोथल में पक्की मिट्टी से बने जहाज का नमूना पाया गया है जिसमें मस्तूल के लिए एक लकड़ी तथा मस्तूल लगाने के लिए छेद हैं। लोथल में बनी गोदी को जहाजीमाल घाट के रूप में पहचाना जाता है। अरब सागर के तट पर अन्य भी अनेक बन्दरगाह थे; जैसे रंगपुर, सोमनाथ तथा बालाकोट । नदियों में भी छोटी नौकाओं का प्रयोग अनाज लाने के लिए किया जाता होगा। बैलगाड़ी अंतर्देशीय यातायात का साधन थी। बस्तियों से मिट्टी के बने बैलगाड़ी के अनेक नमूने पाए गए हैं। हड़प्पा में एक कांसे की गाड़ी का नमूना पाया गया है जिसमें एक चालक बैठा है। छोटी गाड़ियों के नमूने भी मिले हैं। हाथी, बैल, ऊँटों का भी भार ढोने में प्रयोग होता था। ऐतिहासिक काल में खानाबदोश चरवाहे सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते थे। शायद हड़प्पावासी भी ऐसा करते होंगे। परन्तु उस समय नौ परिवहन ..

प्रश्न 3.
हड़प्पा सभ्यता के लोगों की जीविका निर्वाह प्रणाली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
परिपक्व हड़प्पा अवस्था में लोगों की आजीविका निर्वाह का मुख्य आधार कृषि प्रणाली थी। साथ ही वे मांस, मछली, फल, दूध भी प्राप्त करते थे। हड़प्पाई जीविका निर्वाह प्रणाली का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. कृषि-इस सभ्यता के लोगों के जीवन-निर्वाह या भरण पोषण का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी। सिंधु नदी बड़ी मात्रा में जलोढ़ मिट्टी बहाकर लाती तथा इसे बाढ़ वाले मैदानों में छोड़ देती थी। इन मैदानों में यहाँ के किसान अनेक फसलें उगाते थे। सभ्यता के विभिन्न स्थलों से गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, तिल, राई और मटर जैसे अनाज के दाने मिले हैं। गेहूँ की दो किस्में पैदा की जाती थीं। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन से गेहूँ और जौ प्राप्त हुए हैं। गुजरात में ज्वार और रागी का उत्पादन होता था। सौराष्ट्र में बालाकोट में बाजरा व ज्वार के प्रमाण मिले हैं। 1800 ई.पू. में लोथल में चावल उगाने के प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोग सम्भवतः दनिया में पहले थे जो कपास का उत्पादन करते थे।

2. कृषि तकनीक-खेती करने के तरीकों को समझना ज़्यादा कठिन है। क्या जोते हुए खेतों में बीजों को बिखेरा जाता था . या अन्य तरीके थे? उपलब्ध साक्ष्यों से कृषि तकनीक से संबंधित कुछ निष्कर्ष निकाले गए हैं। उदाहरण के लिए बनावली (हरियाणा) से मिट्टी के हल का नमूना मिला है। बहावलपुर से भी ऐसा नमूना मिला है। कालीबंगन (राजस्थान) में प्रारंभिक हड़प्पा काल के खेत को जोतने के प्रमाण मिले हैं। पक्की मिट्टी से बनाए वृषभ (बैल) के खिलौनों के साक्ष्य तथा मोहरों पर पशुओं के चित्रों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे बैलों का खेतों की जुताई के लिए प्रयोग करते थे।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 11

3. सिंचाई-क्या हड़प्पा के लोग फसलों को सींचते थे? यदि हाँ तो उनके सिंचाई के साधन क्या थे। संभवतः हड़प्पन लोगों ने भूमिगत जल का विश्व में पहले-पहल कुओं के द्वारा प्रयोग किया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि गाँवों में कच्चे कुएँ खोदे जाते थे। कारीगरों द्वारा निर्मित पक्के कुएँ भी मिले हैं। परंतु इन कुओं का प्रयोग खेतों की सिंचाई के लिए होता था, इसमें सन्देह है। नदियों, ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ झीलों तथा तालाबों के पानी का ढेकली (lever lift) के माध्यम से खेतों में सिंचाई करने की संभावना है। शोर्तुघई (अफगानिस्तान) में नहर के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। इससे अनुमान लगाया जाता है कि संभवतः सिंधु मैदानों में भी इसी प्रकार की नहरें खोदी गई होंगी। जलाशयों का निर्माण भी सिंचाई के उद्देश्य से किया जाता होगा। धौलावीरा (गुजरात) से ऐसे जलाशय का साक्ष्य मिला है।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 12
4. फसल काटने के औजार-पुरातत्ववेत्ताओं ने फसल काटने के औजारों की पहचान करने का भी प्रयास किया है। संभवतः लकड़ी के हत्थों में लगाए गए पत्थर के फलकों (Stone blades) का प्रयोग फसलों को काटने के लिए किया जाता था। धातु के औजार (तांबे की हँसिया) भी मिले हैं परंतु महंगी होने की वजह से इसका प्रयोग कम होता होगा।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 13

5. पशुपालन-सभ्यता से प्राप्त शिल्प तथ्यों तथा पुरा-प्राणिविज्ञानियों (Archaeo-zoologists) के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि हड़प्पन भेड़, बकरी, बैल, भैस, सुअर आदि जानवरों का पालन करने लगे थे। कूबड़ वाला सांड उन्हें विशेष प्रिय था। गधे और ऊँट का पालन बोझा ढोने के लिए करते थे। ऊँटों की हड्डियाँ बड़ी मात्रा में पाई गई है परंतु मोहरों पर उनके चित्र नहीं हैं। इसके अतिरिक्त भालू, हिरण, घड़ियाल जैसे पशुओं की हड्डियाँ भी मिली हैं। मछली व मुर्गे की हड्डियाँ भी प्राप्त हुई हैं। परंतु हमें यह जानकारी नहीं मिलती कि वे इनका स्वयं शिकार करते थे या इन्हें शिकारी समुदायों से प्राप्त करते थे।

प्रश्न 4.
हड़प्पा सभ्यता की राजसत्ता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा समाज में राजसत्ता के संबंध में विद्वान एक मत नहीं हैं। परन्तु हड़प्पा समाज के सभी पक्षों का अध्ययन करने पर इस बात के पत्ता संकेत मिलते हैं कि समाज से जड़े जटिल निर्णय लेने और उन्हें लागू करवाने के लिए कोई राजसत्ता और उससे जुड़ा अधिकारी वर्ग भी रहा होगा। उल्लेखनीय है कि सारे सभ्यता क्षेत्र (जम्मू से गुजरात तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश से बलूचिस्तान) में मानक ईंटें, मानक माप-तौल पाया गया है। विशेष मुद्रा/मुद्रांक, (मृदभांड) तथा उन पर रूपायन (Motifs) विद्यमान है। योजनाबद्ध नगर, नालियों की उत्तम व्यवस्था और व्यापक व्यापार है। यह सब तथ्य इस बात को सुझाते हैं कि कोई जिम्मेदार केंद्रीकृत राजसत्ता रही होगी। हमने यह भी पढ़ा है कि हड़प्पावासियों ने कच्चा माल प्राप्त करने, पक्का माल तैयार करने, व्यापार में सहायता के लिए विशेष स्थलों पर बस्तियों का निर्माण किया हुआ था। साथ ही नगरों में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य करवाने के लिए मानव संसाधनों को संचालित करने के लिए अधिकारी वर्ग अवश्य रहा होगा। कुल मिलाकर इस बारे में विद्वानों ने निम्नलिखित विचार प्रकट किए हैं

1. राजा और राजप्रासाद-पुरातत्वविदों ने पुरावशेषों से सत्ता के चिह्नों को पहचानने का प्रयास किया है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल भवन को ‘राजप्रासाद’ का नाम दिया जाता है। यद्यपि विशाल इमारत में अन्य कोई अद्भुत अवशेष नहीं मिले हैं। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त पत्थर की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसे ‘पुरोहित-राजा’ का नाम दिया जाता रहा है। व्हीलर महोदय ने तो इस आधार पर हड़प्पा की शासन प्रणाली को ‘धर्मतन्त्र’ नाम दिया है। पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा ऐसा निष्कर्ष इसलिए भी निकाला जाता है क्योंकि मेसोपोटामिया की सभ्यता हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थी। वहाँ राजा ही सर्वोच्च पुरोहित होते थे। लेकिन हड़प्पा के संबंध में इस निष्कर्ष पर पहुँच पाना कठिन है क्योंकि हड़प्पा से जुड़े रीति-रिवाजों को अभी तक पूरी तरह नहीं समझा जा सका है। दूसरा, यहाँ पर धार्मिक रीति-रिवाज निभाने वाले लोगों के पास राजसत्ता भी थी यह कह पाना भी कठिन है।

2. एक अन्य मत यह है कि हड़प्पा सभ्यता में कोई एक शासक नहीं था, वरन् कई शासक थे। जैसे मोहनजोदड़ो का अलग शासक था। हड़प्पा का अलग शासक था तथा अन्य नगरों के भी अलग-अलग राजा थे।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 14
3. कुछ विद्वानों का तो यह भी मानना है कि हड़प्पा समाज में कोई राजा ही नहीं था। सभी लोग बराबर की स्थिति में खुश थे। परंतु विलासिता से जुड़े कला तथ्यों व दुर्ग क्षेत्रों में भवनों से ऐसा मान लेना कठिन है।

4. अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि कला तथ्यों में समरूपता को देखते हुए यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि यहाँ एक राज्य व्यवस्था विद्यमान थी। शासक वर्ग ने क्षेत्र के संसाधनों पर नियन्त्रण रखने के लिए विशेष बस्तियाँ बसाईं। व्यापार को विनियमित किया। वस्तुतः यह विचार सबसे ठीक लगता है क्योंकि इतने विशाल क्षेत्र में फैले इतने बड़े समाज के समस्त लोगों द्वारा एक साथ जटिल राजनैतिक निर्णय ले पाना तथा उन्हें लागू करवा पाना आसान नहीं था।

प्रश्न 5.
हड़प्पा सभ्यता के अवसान/पतन के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
1800 B.C.E. के आसपास हड़प्पा नगरों का पतन होने लगा था। लोग नगरों को छोड़कर जाने लगे थे। हड़प्पाई नाप-तौल, मोहरें तथा लिपि गायब होने लगी। पक्की ईंटों के योजनाबद्ध घर बनने बंद हो गए। दस्तकारियाँ; जैसे मनकों तथा अन्य उद्योग समाप्त होने लगे थे। दूरस्थ व्यापार बंद होने लगे थे। वस्तुतः सभ्यता का अवसान शुरू हो चुका था। हड़प्पा सभ्यता के अंत के निम्नलिखित कारण बताए जा सकते हैं

1. बाढ़ और भूकम्प कुछ विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता के पतन का कारण बाढ़ बताया है। मोहनजोदड़ो में मकानों और सड़कों पर गाद (कीचड़युक्त मिट्टी) भरी पड़ी थी। बाढ़ का पानी उतर जाने पर यहाँ के निवासियों ने पहले के मकानों के मलबे पर फिर से मकान और सड़कें बना लीं। बाढ़ आने का सिलसिला कई बार घटा। खुदाई से पता चला है कि 70 फुट गहराई तक मकान बने हुए थे। बार-बार आने वाली बाढ़ों से नगरवासी गरीब हो गए तथा तंग आकर बस्तियों को छोड़कर चले गए।

आर०एल० रेइक्स ने 1965 में अपने लेख ‘The Mohanjodaro Floods’ में लिखा है कि हड़प्पा सभ्यता के ह्रास का कारण महाभयंकर बाढ़ थी। इस बाढ़ से 30 फुट तक पानी भर गया। इस बाढ़ से सिंधु नदी घाटी के नगर लम्बे समय तक डूबे रहे। रेइक्स ने यह बताया कि यह क्षेत्र अशांत भूकम्प क्षेत्र है। बाढ़ के साथ भूकम्प भी आया होगा। इस भूकम्प से नदी का मार्ग भी अवरुद्ध हो गया। इस महाभयंकर बाढ़ तथा भूकम्प ने नदियों का मार्ग रोक दिया, शहर जलमग्न हो गए, व्यापार और वाणिज्य गतिविधियाँ भंग हो गईं। इससे हड़प्पा सभ्यता नष्ट हो गई। परंतु यह व्याख्या सिंधु घाटी के बाहर की बस्तियों के ह्रास को स्पष्ट नहीं करती।।

2. सिंधु नदी का मार्ग बदलना-एच०टी० लैमब्रिक (H.T. Lambrick) का कहना है कि सिंधु नदी मार्ग में परिवर्तन मोहनजोद नगर के विनाश का कारण हो सकता है। यह नदी अपना मार्ग बदलती रहती थी। स्पष्ट है कि नदी नगर से 30 किलोमीटर दूर चली गई। पानी की कमी के कारण शहर और आस-पास के अनाज पैदा करने वाले गाँवों के लोग क्षेत्र छोड़कर पलायन कर गए। इससे मोहनजोदड़ो के लोगों का शहर छोड़ना तो समझाया जा सकता है, परंतु हड़प्पा सभ्यता के पूरी तरह हास को स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

3. क्षेत्र में बढ़ती शुष्कता और घग्घर नदी का सूख जाना- डी०पी० अग्रवाल और कुछ अन्य विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का ह्रास इस क्षेत्र में शुष्कता के बढ़ने के कारण और घग्घर नदी (हाकड़ा क्षेत्र) के सूख जाने के कारण हुआ। ऐसी स्थिति में हड़प्पा जैसे अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र पर सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा होगा। इससे कृषि की पैदावार पर प्रभाव पड़ा। पैदावार में कमी आई। परिणामस्वरूप नगरों की अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ा।

साथ ही यह भी व्याख्या दी जाती है कि धरती में हुए आन्तरिक परिवर्तनों के कारण इस क्षेत्र के नदी तरंगों (मार्गों) पर भी प्रभाव पड़ा। घग्घर एक शक्तिशाली नदी होती थी तथा पंजाब, राजस्थान, कच्छ रन से गुजरकर समुद्र में गिरती थी। सतलुज और यमुना इसकी सहायक नदियाँ थीं। विवर्तनिक विक्षोभ (पृथ्वी के धरातल के बहुत बड़े क्षेत्र का ऊपर उठ जाना) के कारण सतलुज सिंधु में मिल गई तथा यमुना मार्ग बदलकर गंगा में मिल गई। इससे घग्घर जलविहीन हो गई। इससे हाकड़ा क्षेत्र सूख गया जिससे इस क्षेत्र में बसे नगरों के लिए समस्याएँ पैदा हो गईं और ये नगर समाप्त हो गए।

4. आर्यों के आक्रमण-व्हीलर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इसके पक्ष में वे आक्रमण के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। प्रथम, हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में सड़कों पर मानव कंकाल पड़े मिले हैं। एक कमरे में 13 स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों के कंकाल मिले . हैं। मोहनजोदड़ो के अन्तिम चरण में सड़कों पर तथा घरों में मनुष्यों के कत्लेआम के प्रमाण मिले हैं। एक संकरी गली को जॉन लि ने डैडमैन लेन का नाम दिया है। दूसरा, ऋग्वेद में आर्यों के देवता इन्द्र को ‘पुरन्धर’ कहा जाता था अर्थात् ‘किले तोड़ने वाला’। तीसरा, ऋग्वेदकालीन आर्यों के आवास क्षेत्र में पंजाब एवं घग्घर क्षेत्र भी शामिल था तथा ऋग्वेद में एक स्थान पर ‘हरियूपिया’ नामक स्थान का उल्लेख है। व्हीलर ने कहा है कि यह स्थान हड़प्पा ही है और आर्यों ने यहाँ पर एक युद्ध लड़ा था। अतः हड़प्पा के शहरों को आर्यों ने ही आक्रमण करके नष्ट कर दिया। परंतु यह सिद्धान्त अब मान्य नहीं है। पहली बात तो यह है कि हड़प्पा सभ्यता के ह्रास का समय 1800 ई०पू० माना जाता है। आर्यों के आने का काल लगभग 1500 ई०पू० बताया जाता है।

5. पर्यावरण असन्तुलन तथा आर्थिक-राजनीतिक प्रणाली का ढहना-हाल ही में पुरातत्वविदों ने हड़प्पा सभ्यता के ह्रास को पारिस्थितिक (Ecological) कारणों में ढूँढना शुरु किया है। पुरातत्त्वविदों द्वारा दिए गए तर्कों की संक्षेप में जानकारी इस प्रकार है

(i) फेयर सर्विस ने हड़प्पा सभ्यता के नगरों की जनसंख्या तथा उसकी खाद्य आवश्यकता का हिसाब लगाया। उनका मानना है कि एक ओर तो जनसंख्या और पशु संख्या बढ़ रही थी, दूसरी ओर इसके दबाव से जंगल समाप्त होने लगे। इससे बाढ़ और सूखे जैसी समस्याएँ बढ़ीं। इसका अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ा। लोग इस क्षेत्र को छोड़कर जीविका के लिए अच्छे स्थानों पर चले गए।

(ii) बी०के० थापर और रफीक मुगल का विचार है कि घग्घर-हाकड़ा नदी प्रणाली के धीरे-धीरे सूखने या विलुप्त हो जाने से समस्याएँ बढ़ीं। वनों का विनाश होने लगा। पशुओं द्वारा अधिक चराई से जमीन का कटाव तथा क्षारीयता बढ़ी। साथ-ही-साथ जल संसाधनों का सीमा से अधिक प्रयोग हुआ। सरीन रत्नाकर का मानना है कि उत्थापक सिंचाई प्रणाली (Lift Irrigation) द्वारा जल का सीमाओं से अधिक उपयोग से जल-स्तर कम हो गया अर्थात् जिन अनुकूल परिस्थितियों और संसाधनों के कारण सभ्यता का उदय और विकास हुआ, उन्हीं के अभाव में सभ्यता का विनाश हो गया।

(iii) जंगलों की कटाई को भी हड़प्पा सभ्यता के विनाश का कारण बताया गया है। यह सभ्यता कांस्ययुगीन थी। ताँबे तथा काँसे के उत्पादन के लिए बड़ी मात्रा में लकड़ी का प्रयोग होता था। रत्नागर का कहना है कि लकड़ी के बड़े पैमाने पर प्रयोग के कारण वन नष्ट हो गए होंगे। वनों की कटाई का प्रकृति की छटा, वर्षा, जमीन की उत्पादकता पर प्रभाव पड़ा होगा। इससे पारिस्थितिक असन्तुलन (Ecological Imbalance) हो गया होगा। एम० केनोयर ने भी इसका समर्थन किया है तथा लिखा है, “हड़प्पाकालीन लोग पर्यावरण के प्रति सचेत नहीं थे। उन्होंने अन्य लोगों की भाँति घने वनों को बेपरवाही से कांटकर उनकी लकड़ी का प्रयोग कर लिया।” स्पष्ट है कि हड़प्पा सभ्यता का पतन अनेक कारणों की वजह से हुआ।

प्रश्न 6.
हड़प्पा सभ्यता के अनुसंधान की कहानी पर लेख लिखिए।
उत्तर:
हड़प्पा की खोज की कहानी काफी रोचक है कि आखिर हड़प्पा सभ्यता की खोज हुई कैसे? हड़प्पा के पतन के बाद – लोग धीरे-धीरे इन नगरों को भूल गए। फिर सैकड़ों वर्षों बाद इस क्षेत्र में लोग पुनः रहने लगे। बाढ़, मृदा क्षरण या भूमि जोतते हुए यहाँ से कला-तथ्य निकलने पर स्थानीय लोग यह समझ नहीं पाते थे कि इनका क्या करें। अन्ततः पुरातत्वविदों ने हड़प्पा सभ्यता को खोज निकाला। खोज की कहानी निम्नलिखित प्रकार से है

1. चार्ल्स मोसन तथा बर्नेस के कार्य-हड़प्पा सभ्यता को खोज निकालने में अनेक व्यक्तियों का योगदान है। 1826 ई० में चॉर्ल्स मोसन नामक एक अंग्रेज पश्चिमी पंजाब में हड़प्पा नामक गाँव में आया। उसने वहाँ बहुत पुरानी बस्ती के बुों और अद्भुत ऊँची-ऊँची दीवारों को देखा। उसने यह समझा कि यह शहर सिकन्दर महान् के समय का है। दूसरा, बर्नेस नामक व्यक्ति ने भी . 1834 में सिंधु क्षेत्र की यात्रा की। उसने भी सिंधु नदी के किनारे किसी ध्वस्त किले की बात कही।

2. कनिंघम के प्रयास, रिपोर्ट और उलझन-कनिंघम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पहले महानिदेशक थे। उनकी रूचि छठी सदी ईसा पूर्व से चौथी सदी ईसा पूर्व तथा इसके बाद के प्राचीन इतिहास के पुरातत्व में थी। उन्होंने बौद्धधर्म से संबंधित चीनी यात्रियों के वृत्तांतों का प्रारंभिक बस्तियों की पहचान करने में प्रयोग किया। सर्वेक्षण के कार्य में शिल्प तथ्य एकत्र किए। उनका रिकॉर्ड रखा तथा अभिलेखों का अनुवाद भी किया। कनिंघम ने उपलब्ध कला-तथ्यों के सांस्कृतिक अर्थों को भी समझने का प्रयास किया। परंतु हड़प्पा जैसे स्थल की इन चीनी वृत्तांतों में न तो विवरण था, न ही इन नगरों की ऐतिहासिकता की कोई जानकारी। अतः यह नगर ठीक प्रकार से उनकी खोजों के दायरे में नहीं समा पा रहे थे।
HBSE 12th Class History Important Questions chapter 1 Img 15
वस्तुतः वे यहाँ से प्राप्त कला-तथ्यों की पुरातनता का अनुमान नहीं लगा पाए। उदाहरण के लिए एक अंग्रेज ने कनिंघम को हड़प्पा की एक मोहर दी (चित्र देखें)। कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में इसका चित्र भी दिया परंतु वह इसे इसके समय-संदर्भ में रख पाने में असफल । रहे। इसका कारण यह रहा होगा कि अन्य विद्वानों की भांति वह भी यह मानते । थे कि भारत में पहली बार नगरों का अभ्युदय गंगा-घाटी में 6 वीं, 7वीं सदी ई०पू० से हुआ। अतः यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वे हड़प्पा के महत्त्व को नजरअंदाज कर गए।

3. नवीन सभ्यता की खोज-1921 में दयाराम साहनी ने हड़प्पा स्थल से । अनेक मोहरें उत्खनन में प्राप्त की। ऐसा ही कार्य 1922 में राखालदास बनर्जी चित्र : कनिंघम द्वारा दिया मोहर का चित्र ने मोहनजोदड़ो में किया। दोनों स्थलों की मोहरों में समानता थी। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह स्थल एक ही पुरातात्विक संस्कृति का हिस्सा है। इन खोजों के आधार पर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने 1924 ई० में (लन्दन में प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्र में) सारी दुनिया के समक्ष इस नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की। सारी दुनिया में इससे सनसनी फैल गई। इस बारे में एस.एन.राव ने ‘द स्टोरी ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी’ में लिखा, “मार्शल ने भारत को जहाँ पाया था, उसे उससे तीन हजार वर्ष पीछे छोड़ा।” उल्लेखनीय है कि हड़प्पा जैसी मोहरें मेसोपोटामिया से भी मिली थीं। अब यह स्पष्ट हुआ कि यह एक नई सभ्यता थी जो मेसोपोटामिया के समकालीन थी।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना व भवन निर्माण प्रणाली पर लेख लिखिए।
उत्तर:
नगरीय प्रणाली हड़प्पा की विकसित अवस्था (Mature Stage) से सम्बन्ध रखती है। इस नगरीकरण को विद्वानों ने नगरीय क्रान्ति की संज्ञा दी है। इसका विकास किसी शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के बिना नहीं हो सकता था। सड़कों की व्यवस्था, बड़े पैमाने पर जल निकास प्रणाली का विकास एवं उसकी देख-रेख, विशाल नगर, किले आदि सभी एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासन प्रणाली के मौजूद होने का संकेत देते हैं। हड़प्पा सभ्यता के नगरीकरण की दूसरी मुख्य बात यह थी कि इन नगरों में बड़े पैमाने पर दक्ष शिल्पकार थे। तीसरा इन नगरों के एशिया के सुदूर देशों के साथ व्यापार सम्पर्क थे। मेसोपोटामिया के साथ समुद्री व्यापार उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा था।

1. नगर योजना-हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी नगर योजना तथा सफाई व्यवस्था है। नगरों में सड़कें और गलियाँ एक योजना के अनुसार बनाई गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते थे। उनको काटती सड़कें और गलियाँ मुख्य मार्ग को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खण्डों में विभाजित हो जाते थे।

मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगन जैसे नगर दो भागों (पूर्वी तथा पश्चिमी) में बंटे थे। पूर्वी भाग में ईंटों से बनाए ऊँचे चबूतरे पर स्थित बस्ती के चारों ओर परकोटा (किला) होता था जिसे ‘नगर दुर्ग’ कहा जाता है। इसके पश्चिम की ओर के आवासीय क्षेत्र को निचला नगर कहा जाता है। नगर दुर्ग का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था। मोहनजोदड़ो के नगर दुर्ग में पकाई ईंटों से बने अनेक बड़े भवन पाए गए हैं, जैसे विशाल स्नानागार, प्रार्थना भवन, सभा भवन एवं अन्नागार। हड़प्पा में ‘नगर-दुर्ग’ के उत्तर में कारीगरों के मकान, उनके कार्य-स्थान (चबूतरे) और एक अन्नागार था। कालीबंगन की नगर योजना में दुर्ग क्षेत्र तथा निचले नगर दोनों के परकोटा (मोटी दीवार) था। सुरकोतदा की नगर-योजना कालीबंगन के समान थी। नगर दुर्ग तथा निचला नगर आपस में जुड़े हैं तथा दोनों के चारों ओर परकोटा है। धौलावीरा (कच्छ में) नगर तीन मुख्य भागों (नगर दुर्ग, मध्यम नगर तथा निचला नगर) में विभाजित था। हड़प्पा के नगरों में नगर दुर्ग में पुरोहित एवं शासक रहते थे तथा निचले नगर में व्यापारी, दस्तकार, शिल्पकार एवं अन्य लोग रहते थे।

2. नगर द्वार-जैसा कि ऊपर बताया गया है कि अधिकांश में विशेषकर दुर्ग-नगर के चारों ओर मोटी दीवार होती थी। इस परकोटे में स्थान-स्थान पर प्रवेश द्वार बने होते थे। धौलावीरा और सुरकोतदा में नगर प्रवेश द्वार काफी विशाल एवं सुन्दर थे, जबकि अन्य नगरों में प्रवेश द्वार साधारणं थे। कुछ नगर द्वारों के निकट सुरक्षाकर्मियों के कक्ष भी बने हुए थे जो साधारणतः बहुत छोटे होते थे। हड़प्पा सभ्यता के नगरों के चारों ओर दीवारों तथा नगर द्वारों के निर्माण का उद्देश्य शत्रुओं के आक्रमण से रक्षा, लुटेरों एवं पशुचोरों से सुरक्षा करना तथा बाढ़ों से नगरों की रक्षा करना रहा होगा।

3. सड़कें और गलियाँ-हड़प्पा कालीन नगर पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार बनाए जाते थे। सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। सड़कें पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण दिशा में बिछी हुई थीं। इससे नगर कई भागों में बंट जाते थे। मोहनजोदड़ो में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है। इस ‘प्रथम सड़क’ पर . एक साथ पहिए वाले सात वाहन गुजर सकते थे। अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। गलियाँ एवं गलियारे 1.2 मीटर (4 फुट) या उससे अधिक चौड़े थे। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सड़कों, गलियों और नालियों की व्यवस्था लागू करने तथा निरन्तर देखभाल के लिए नगरपालिका या नगर प्राधिकरण जैसी कोई प्रशासनिक व्यवस्था रही होगी।

4. नालियों की व्यवस्था व्यापक नालियों की व्यवस्था हड़प्पा सभ्यता की अद्वितीय विशेषता थी, जो हमें अन्य किसी भी समकालीन सभ्यता के नगरों में प्राप्त नहीं होती है। प्रत्येक घर में छोटी नालियाँ होती थीं जो घर के पानी को बाहर गली या सड़क के किनारे बनी नाली में पहुँचाती थीं। प्रमुख सड़कों एवं गलियों के साथ 1 से 2 फुट गहरी ईंटों तथा पत्थरों से ढकी नालियाँ होती थीं। मुख्य नालियों में कचरा छानने की व्यवस्था भी होती थी। नालियों में ऐसी व्यवस्था करने के लिए बड़े गड्ढे (शोषगत) होते थे, जो पत्थरों या ईंटों से ढके होते थे जिन्हे सफाई करने के लिए आसानी से हटाया और वापस रख दिया जाता था। मुख्य नालियाँ एक बड़े नाले के साथ जुड़ी होती थीं जो सारे गदे पानी को नदी में बहा देती थीं। हड़प्पाकालीन नगरों की जल निकास प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए ए०एल० बाशम ने लिखा है, नालियों की अद्भुत व्यवस्था सिन्धु घाटी के लोगों की महान सफलताओं में से एक थी। रोमन सभ्यता के अस्तित्व में आने तक किसी भी प्राचीन सभ्यता की नाली व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं थी।”

5. ईंटें-हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और अन्य प्रमुख नगरों में ईंटों का व्यापक पैमाने पर प्रयोग हुआ है। ये ईंटें कच्ची और पक्की दोनों प्रकार की थीं। मोहदजोदड़ो में चबूतरों पर धूप में सुखाई गई ईंटों का प्रयोग किया गया है। हड़प्पा में कच्ची ईंटों की पर्त पर पक्की ईंटों का इस्तेमाल हुआ है। कालीबंगन में पक्की ईंटों का प्रयोग कुओं, नालियों एवं स्नानगृहों के बनाने में किया गया है। इन ईंटों का मुख्य आकार 20%2″× 10/2″× 31/4″ होता था जो 1 : 2 : 4 अनुपात में है। नालियों को ढकने के लिए काफी बड़ी ईंटों का प्रयोग हुआ है।

6. भवन-हड़प्पा सभ्यता के नगरों के भवन निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं

  1. आवासीय मकान,
  2. विशाल भवन,
  3. सार्वजनिक स्नानागार,
  4. अन्नागार,
  5. जलाशय तथा डॉकयार्ड आदि।

1. आवासीय मकान-हड़प्पा तथा मोहदजोदड़ो स्थानों में नागरिक निचले नगर में भवन समूहों में रहते थे। ये मकान योजनापूर्वक बनाए जाते थे। प्रत्येक मकान के बीच एक खला आंगन तथा चारों तरफ छोटे-बड़े कमरे होते थे। बाढ से सरक्षा हेत मकान ऊँचे चबूतरे पर तथा गहरी नींव के होते थे। दीवारें मोटी एवं पक्की ईंटों तथा गारे की थीं। छतों में लकड़ी और ईंटों तथा फर्श में भी ईंटों का प्रयोग था। प्रकाश व हवा के लिए दरवाजे, खिड़कियाँ तथा रोशनदान बनाए जाते थे। दरवाजे खिड़कियाँ मुख्य सड़क की तरफ न खुलकर गली की तरफ खुलती थी। घर में रसोईघर, शौचालय एवं स्नानघर होते थे। बड़े घरों में कुआँ भी होता था। कई मकान तो दो मंजिलों के बने होते थे। मकानों में भी विविधता थी। गरीब लोगों के मकान छोटे थे। छोटी बैरकों में मजदूर तथा दास रहते थे। निचले शहर के मकानों में बड़ी संख्या में कर्मशालाएँ (कारखाने) (Workshops) भी थीं।

2. विशाल भवन-हड़प्पाकालीन नगरों के दुर्ग वाले भाग में विशाल भवन प्राप्त हुए हैं। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में ऐसे अनेक विशाल भवन मिले हैं जो शायद शासक वर्ग के लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाते होंगे।

3. सार्वजनिक स्नानागार-हड़प्पाकालीन सबसे प्रसिद्ध भवन मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार है। आयताकार में बना यह स्नानागार 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.45 मीटर गहरा है। इसके उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी हैं। ये सीढ़ियाँ स्नानागार के तल तक जाती हैं। यह स्नानागार पक्की ईंटों से बना है। इसे बनाने में चूने तथा तारकोल का प्रयोग किया गया था। इसके साथ ही कुआँ था जिससे इसे पानी से भरा जाता था। साफ करने के लिए इसकी पश्चिमी दीवार में तल पर नालियाँ बनी थीं। स्नानागार के चारों ओर मंडप एवं कक्ष बने हुए थे। विद्वानों का मानना है कि इस स्नानागार और भवन का धार्मिक समारोहों के लिए प्रयोग किया जाता था।

4. अन्नागार-हड़प्पा में 50 × 40 मीटर के आकार का एक भवन मिला है जिसके बीच में 7 मीटर चौड़ा गलियारा था। पुरातत्ववेत्ताओं ने इसे विशाल अन्नागार बताया है जो अनाज, कपास तथा व्यापारिक वस्तुओं के गोदाम के काम आता था।

5. जलाशय तथा डॉकयार्ड-धौलावीरा में एक विशाल जलाशय के अवशेष मिले हैं। यह जलाशय 80.4 मीटर लम्बा, 12 मीटर चौड़ा तथा 7.5 मीटर गहरा था। कच्छ क्षेत्र में पानी की कमी रहती थी अतः ऐसे जलाशय का प्रयोग जल संग्रहण के लिए किया जाता होगा। इसी प्रकार लोथल में अन्नागार तथा डॉकयार्ड (गोदी) मिला है। पक्की ईंटों से बना यह स्थल 214 मीटर लम्बा, 36 मीटर चौड़ा तथा 4.5 मीटर गहरा है। यह डॉकयार्ड एक जलमार्ग से पास की खाड़ी से जुड़ा है।

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

HBSE 12th Class History संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उद्देश्य प्रस्ताव में किन आदर्शों पर जोर दिया गया था?
उत्तर:
13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव रखा। इसमें उन आदर्शों को रेखांकित किया गया जो संविधान निर्माण में अपनाए जाने थे। इस उद्देश्य प्रस्ताव में अग्रलिखित आदर्शों पर बल दिया गया

(1) यह घोषणा की गई कि भारत एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता संपन्न गणराज्य होगा।

(2) संविधान में प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र भारत तथा उसके घटकों तथा सरकार के अंगों को समस्त शक्ति जनता से प्राप्त होगी।

(3) प्रस्ताव में कहा गया कि भारत के समस्त लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रतिष्ठा, अवसर तथा न्याय की समानता, विधि तथा सदाचार के अनुरूप विचार की अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, व्यवसाय, सहचर्य तथा काम की स्वतंत्रता की गारंटी होगी।

(4) समस्त अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जनजातियों तथा दलितों को पर्याप्त संरक्षण प्राप्त होंगे।

(5) भारतीय गणतंत्र के प्रदेश तथा उसकी अखंडता और इसकी भूमि, समुद्र तथा आकाश में सत्ता न्याय तथा सभ्य राष्ट्रों को कानूनों के अनुसार बनाई जाएगी।

प्रश्न 2.
विभिन्न समूह ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
उत्तर:
संविधान सभा की बहस में एक प्रमख महा यह था कि भावी संविधान में अल्पसंख्यकों को किस प्रकार के अधिकार होंगे। परंतु यह उल्लेखनीय है कि संविधान सभा में विभिन्न समूह ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित कर रहे थे।

(i) संविधान सभा के सदस्य बी० पोकर बहादुर ने मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक बताया तथा अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचिका प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। उन्होंने जोर दिया कि इस राजनीतिक प्रणाली में अल्पसंख्यकों को पूर्ण प्रतिनिधित्व दिया जाए।

(ii) समाजवादी विचारों के समर्थक व किसान आंदोलन के नेता एन०जी० रंगा ने ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की उक्त परिभाषा पर ही सवाल खड़ा किया। उन्होंने अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर के आधार पर करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा असली अल्पसंख्यक तो इस देश की दबी-कुचली और उत्पीडित जनता है जो अभी तक सामान्य नागरिक के अधिकारों का लाभ भी नहीं उठ पा रही है। रंगा ने कहा कि असली अल्पसंख्यक गरीब, उत्पीड़ित व आदिवासी हैं। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

(iii) आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक बताया। उन्होंने कहा कि यदि भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह है, जिसके साथ उचित बर्ताव नहीं किया गया है, तो वह मेर से अपमानित किया जा रहा है, उपेक्षित किया जा रहा है।

(iv) दलित समूहों के नेताओं ने दलितों को वास्तविक अल्पसंख्यक बताया। इन नेताओं में मद्रास के जे० नागफा, मध्य प्रांत के के०जे० खांडेलकर, मद्रास के वेला युधान मुख्य थे। खाडेलकर ने कहा “हमें हज़ारों वर्षों तक दबाया गया है।.. दबाया गया…इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति है।” इस प्रकार ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 3.
प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
उत्तर:
संविधान सभा में केंद्र व प्रांतों के अधिकारों के प्रश्न पर भी पर्याप्त बहस हुई। कुछ सदस्य केंद्र को शक्तिशाली बनाने के समर्थक थे। कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उन्होंने कहा कि “तमाम शक्तियाँ केंद्र को सौंप देने से वह मजबूत हो जाएगा”, यह हमारी गलतफहमी है। अधिक जिम्मेदारियों के होने पर केंद्र प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा। सन्तनम ने तर्क दिया कि शक्तियों का मौजूदा वितरण राज्यों को पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान राज्यों को खोखला कर देंगे और यदि पैसा नहीं होगा तो राज्य अपनी विकास योजनाएँ कैसे चलाएगा। – उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”।

प्रश्न 4.
महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?
उत्तर:
राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीस के दशक में यह स्वीकार लिया था कि हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी) को राष्ट्र की भाषा का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए। गाँधीजी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा बनाने के पक्ष में थे। उनका मानना था कि हरेक को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदुस्तानी भारतीय जनता के बड़े भाग की भाषा थी। यह विविध संस्कृतियों के मेल-मिलाप से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी। गाँधीजी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा भारत के विभिन्न समुदायों के बीच एक आदर्श संचार भाषा हो सकती है जो हिंदुओं और मुसलमानों को व उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इससे राष्ट्र निर्माण का कार्य भी आगे बढ़ेगा। 12 अक्तूबर, 1947 को गाँधीजी ने हरिजन सेवक में लिखा कि राष्ट्रीय भाषा की क्या विशेषताएँ होनी चाहिएँ : “यह हिंदुस्तानी न तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी होनी चाहिए और न ही फारसीनिष्ठ उर्दू। यह दोनों का सुंदर मिश्रण होना चाहिए।”

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 5.
वे कौन-सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप तय किया?
उत्तर:
भारतीय संविधान के स्वरूप निर्धारण में अनेक ऐतिहासिक ताकतों ने भूमिका निभाई। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. अंग्रेज़ी राज-भारत के संविधान पर औपनिवेशिक शासन के दौरान पास किए गए अधिनियम का व्यापक प्रभाव है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान में स्थापित शासन व्यवस्था पर 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव है।

2. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-संविधान में जिस प्रजातांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष व समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया गया उस पर राष्ट्रीय आंदोलन की गहरी छाप है। राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस में विभिन्न विचारधाराओं से संबंधित लोग सदस्य थे। उनका प्रभाव संविधान पर देखा जा सकता है।

3. कैबिनेट मिशन व संविधान सभा का चुनाव-संविधान सभा का स्वरूप केबिनेट मिशन ने तय किया। इसके अनुसार

  • इस सभा में कुल 389 सदस्य हों जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 93 देशी रियासतों के तथा 4 चीफ कमिश्नरियों के क्षेत्र में से हों।
  • यह निश्चित किया गया कि 10 लाख व्यक्तियों पर संविधान सभा में एक सदस्य होगा।
  • प्रांतों को उनकी जनसंख्या के आधार पर संविधान सभा में प्रतिनिधित्व दिया गया। प्रांतीय विधानसभा में प्रत्येक संप्रदाय को जितने प्रतिनिधि भेजने थे, उनका चुनाव संप्रदाय के आधार पर होगा।
  • निर्वाचन तीन संप्रदायों, मुसलमान, सिक्ख और अन्य (हिंदू व ईसाई आदि) पर आधारित होना था।
  • रियासतों को भी जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया। .

4. प्रमुख सदस्यों का प्रभाव-संविधान सभा और राजनीतिज्ञों के साथ-साथ प्रसिद्ध शिक्षाविद, न्यायाधीश, अधिवक्ता, लेखक, पत्रकार, पूँजीपति, श्रमिक नेता आदि सदस्य भी शामिल थे। संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी०आर० अंबेडकर, के०एम० मुन्शी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने मुख्य भूमिका निभाई। नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ रखा तथा साथ ही राष्ट्रीय ध्वज संबंधी प्रस्ताव रखा। पटेल ने अनेक रिपोर्टों के प्रारूप लिखने तथा अनेक परस्पर विरोधी विचारों के मध्य सहमति उत्पन्न करने में सराहनीय योगदान दिया। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया तथा चर्चा को रचनात्मक दिशा दी। सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ०बी०आर० अंबेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने उन्हें संविधान का पिता कहा है। के०एम० मुंशी और कृष्णास्वामी अय्यर प्रारूप समिति के सदस्य थे। इन दोनों ने संविधान के प्रारूप पर महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इन सदस्यों को दो प्रशासनिक अधिकारियों बी०एन०राव और एस०एन मुखर्जी ने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। न्यायाधीश बी०एन० राव भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार थे। उन्होंने अन्य देशों की राजनीतिक प्रणालियों का गहन अध्ययन कर अनेक चर्चा पत्र तैयार किए।

5. जनमत का प्रभाव-संविधान सभा में होने वाली चर्चाओं पर जनमत का पर्याप्त प्रभाव होता था। किसी भी प्रस्ताव पर संविधान सभा में बहस होती थी तो उस बहस में विभिन्न दलीलों को समाचार-पत्रों द्वारा छापा जाता था। साथ ही प्रेस में इन प्रस्तावों पर टीका-टिप्पणी, आलोचना व प्रत्यालोचना होती थी। इसके साथ-साथ संविधान सभा द्वारा जन-सामान्य के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे। संविधान सभा को सैकड़ों सुझाव प्राप्त हुए थे। इन सुझावों पर संविधान सभा में विचार किया जाता था। इन सुझावों में विभिन्न समुदायों और संगठनों द्वारा अपने हितों की रक्षा के सुझाव दिए गए थे। वस्तुतः संविधान सभा को वास्तविक शक्ति जनता से मिल रही थी। नेहरू जी ने संविधान सभा में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “आपको उस स्रोत को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए, जहाँ से इस सभा को शक्ति मिल रही है।…सरकारें कागजों से नहीं बनतीं। सरकार जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। हम यहाँ इसलिए जुटे हैं, क्योंकि हमारे पास जनता की ताकत है और हम उतनी दूर तक ही जाएँगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे फिर चाहे वे किसी भी समूह अथवा पार्टी से संबंधित क्यों न हों। इसलिए हमें भारतीय जनता के दिलों में स्थायी तौर पर बसी आकांक्षाओं एवं भावनाओं को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए और उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।”

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 6.
दलित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों के अधिकारों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला दलित जातियों के अधिकारों से जुड़ा था। समाज का यह एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसे सदियों से समाज के हाशिए पर रहना पड़ा था। समाज इनके श्रम और सेवाओं का प्रयोग तो करता संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत) था, परंतु उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। वे अछूत कहलाते थे। अंग्रेजों ने 1932 में दलित जातियों को भी ‘पृथक् निर्वाचिका’ का अधिकार प्रदान किया था, परंतु गाँधी जी ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि इससे वे शेष समाज से कट जाएँगे। अंततः गाँधी-अंबेडकर समझौता (पूना पैक्ट) हुआ जिसके तहत सामान्य सीटों में हरिजनों को आरक्षण दिया गया। अब संविधान निर्माण के समय भी यह मुद्दा उभरकर आया कि संविधान में दलितों के अधिकारों को किस तरह परिभाषित किया जाए। उन्हें अपने उत्थान के लिए किस तरह की सुरक्षा और अधिकार दिए जाएँ।

1. मद्रास के सदस्य जे० नागप्पा (J. Nagappa) ने कहा, “हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं, पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं।” उन्होंने दलितों में शिक्षा न होने तथा प्रशासन में भागीदारी न होने पर चिंता प्रकट की।

2. मध्य प्रांत के सदस्य श्री के०जे० खाडेलकर (K.J.Khandelkar) ने दलितों की स्थिति का मार्मिक शब्दों में बयान करते हुए कहा, “हमें हजारों वर्षों तक दबाया गया है।… दबाया गया…इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति है।”

3. मद्रास की दक्षायणी वेलायुधान ने दलितों पर थोपी गई सामाजिक अक्षमताओं को हटाने पर जोर दिया। उनके शब्दों में, “हमें सब प्रकार की सुरक्षाएँ नहीं चाहिएँ…। मैं यह नहीं मान सकती कि सात करोड़ हरिजनों को अल्पसंख्यक माना जा सकता है …। जो हम चाहते हैं वह यह है…हमारी सामाजिक अपंगताओं का फौरन खात्मा।” भारत विभाजन के बाद डॉ० अंबेडकर ने भी दलितों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की माँग छोड़ दी थी। अंततः संविधान सभा में दलितों के उत्थान के लिए निम्नलिखित सुझाव स्वीकार किए गए

  • अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए;
  • हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए; और
  • दलित जातियों को विधानमंडलों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए।

यद्यपि कुछ लोगों का मानना था कि इन प्रावधानों से स्थिति में सुधार नहीं आएगा। उन्होंने कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ समाज की सोच में बदलाव लाने पर बल दिया, तथापि लोकतांत्रिक जनता ने इन सवैधानिक प्रावधानों का स्वागत किया।

प्रश्न 7.
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केंद्र सरकार की ज़रूरत के बीच क्या संबंध देखा?
उत्तर:
13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा रखे गए संविधान के उद्देश्य प्रस्ताव’ में एक कमजोर केंद्र और ऐसी प्रांतीय इकाइयों की बात कही गई थी जिनके पास विस्तृत शक्तियाँ थीं। उद्देश्य प्रस्ताव कैबिनेट मिशन की सिफारिशों को ध्यान में रखकर तथा मुस्लिम लीग को खुश करने के लिए पास किया गया था। परंतु विभाजन के बाद स्थिति में बदलाव आ गया था। सभा के अधिकांश सदस्य उस समय की राजनीतिक परिस्थिति में एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे, तथापि राज्यों व केंद्र को शक्तियाँ दिए जाने के मामले में जोरदार बहस हुई।

1. शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में नेहरू के विचार-देश के विभाजन के बाद नेहरू जी, अब उन लोगों में से थे जो एक शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। उन्होंने संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर शक्तिशाली केंद्र की वकालत करते हुए लिखा-“अब जबकि विभाजन एक वास्तविकता बन चुका है…एक दुर्बल केंद्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी।” उन्होंने कहा कि कमजोर केन्द्र शान्ति स्थापना तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत में जोरदार आवाज़ उठाने में सक्षम नहीं होगा।

2. राज्यों के लिए अधिक अधिकारों की माँग : के० सन्तनम के विचार-संविधान सभा में कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”।

3. ‘मजबूत केंद्र की वकालत’-संविधान सभा में प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की माँग से तीखी प्रतिक्रिया उभरकर आयी। संविधान सभा के कुछ सदस्य उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों में एक मजबूत केंद्र सरकार की जरूरत को महसूस कर रहे थे तथा इसके पक्ष में अनेक निम्नलिखित तर्क दे रहे थे

(i) बी०आर० अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “वे एक शक्तिशाली और एकीकृत केंद्र; 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केंद्र बनाया था उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केंद्र” चाहते हैं।

(ii) कुछ अन्य सदस्यों ने हिंसा और देश के विभाजन का हवाला देते हुए शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता पर बल दिया ताकि सख्त हाथों से देश में हो रही सांप्रदायिक हिंसा रोक सके। गोपालस्वामी अय्यर ने भी बहस में भाग लेते हुए कहा कि केंद्र ज्यादा-से-ज्यादा मजबूत होना चाहिए।

(iii) संयुक्त प्रांत के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने भी शक्तिशाली केंद्र को आवश्यक बताया कि वह संपूर्ण देश के हित में योजना बना सके और उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को भली प्रकार जुटा सके।

(iv) औपनिवेशिक दौर के केंद्रवाद की भावना ने भी भारतीय नेताओं को प्रभावित किया था। साथ ही आजादी के बाद अफरा-तफरी पर अंकुश लगाने और देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए शक्तिशाली केंद्र और भी आवश्यक माना जाने लगा।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारत के संविधान में तत्कालीन परिस्थितियों के कारण संघ के घटक राज्यों के अधिकारों की तुलना में केंद्र में अधिकारों की ओर साफ झुकाव दिखाई दे रहा था। इसलिए सभा के अनेक सदस्य मजबूत केंद्र सरकार की आवश्यकता पर जोर दे रहे थे।

प्रश्न 8.
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
उत्तर:
संविधान सभा के समक्ष एक अन्य पेचीदा मामला राष्ट्र की भाषा को लेकर था। भारत में अनेक सांस्कृतिक परंपराएँ विद्यमान थीं। विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ प्रयोग में लाई जाती थीं। इस विशाल देश में सभी स्थानों पर एक भाषा का प्रचलन नहीं था। अतः संविधान सभा में राष्ट्र की भाषा का मुद्दा आया तो इस पर लंबी और आपस में तीखी बहसें हुईं।

1. हिंदी की पक्षधरता-संविधान सभा के कुछ सदस्य हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना चाहते थे। इन सदस्यों ने हिंदी के लिए जोरदार तरीके से पक्षधरता की। संयुक्त प्रांत के कांग्रेसी सदस्य आर०वी० धुलेकर ने संविधान निर्माण कार्य में हिंदी के प्रयोग पर बल दिया तथा यहाँ तक कह दिया कि “इस सभा में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा की सदस्यता के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिए।”

2. हिंदी के वर्चस्व का भय-गैर-हिंदी भाषी राज्यों के सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि हिंदी का वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तथा वे भारतीय संस्कृति के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाएँगी। मद्रास की सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने सभा को यह भी बताया कि दक्षिण में हिंदी का विरोध बहुत ज्यादा है। उन्होंने कहा कि “विरोधियों का यह मानना शायद सही है कि हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़ें खोदने का प्रयास है….।”

3. भाषा समिति की रिपोर्ट-संविधान सभा की भाषा समिति ने विषय की नाजुकता के मद्देनजर एक फार्मूला विकसित किया ताकि भाषा पर गतिरोध को तोड़ा जा सके। समिति ने सुझाव दिया था कि देवनागरी में लिखी हिंदी भाषा भारत की राजकीय भाषा (Official Language) होगी। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। इस बीच आगामी 15 वर्षों के लिए सरकारी कार्यों में अंग्रेज़ी का प्रयोग भी जारी रहेगा। साथ ही प्रत्येक प्रांत को अपने कार्यों के लिए एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

4. समायोजन की भावना पर बल-राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर सदस्यों में विवाद तीखा होता जा रहा था। इस पर अनेक सदस्यों ने इस मद्दे पर सभी सदस्यों में समायोजन की भावना विकसित करने पर बल दिया। बंबई के श्री शंकरराव देव (Shri Shankar Rao Dev) ने कहा कि कांग्रेस के एक सदस्य तथा गाँधी जी के अनुयायी होने के नाते वे हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर चुके हैं, परंतु उन्होंने चेताया कि यदि आप हिंदी के लिए दिल से समर्थन चाहते हैं तो आप ऐसा कुछ न करें जिससे संदेह पैदा हो और भय को बल मिले। इसी प्रकार के आपसी समायोजन व सम्मान की भावना की बात मद्रास के श्री टी०ए० रामलिंगम चेट्टियार (T.A. Ramalingam Chettiar) ने भी कही। उन्होंने आग्रह किया कि “जब हम साथ रहना चाहते हैं और एक एकीकृत राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं तो परस्पर समायोजन होना ही चाहिए और लोगों पर चीजें थोपने का सवाल नहीं उठना चाहिए।” इस समायोजन की भावना का सदस्यों ने स्वागत किया तथा भाषा समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर भाषा विवाद को निपटाने का मार्ग निकाला गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

मानचित्र कार्य

प्रश्न 9.
वर्तमान भारत के राजनीतिक मानचित्र पर यह दिखाइए कि प्रत्येक राज्य में कौन-कौन सी भाषाएँ बोली जाती हैं। इन राज्यों की राजभाषा को चिह्नित कीजिए। इस मानचित्र की तुलना 1950 के दशक के प्रारंभ के मानचित्र से की दोनों मानचित्रों में आप क्या अंतर पाते हैं? क्या इन अंतरों से आपको भाषा और राज्यों के आयोजन के संबंधों के बारे में कुछ पता चलता है।
उत्तर:
भारत के राज्य और उनमें बोली जाने वाली भाषाएँ व बोलियाँ

  1. असम-असमी, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला और बोडा।
  2. अरुणाचल प्रदेश-निसी, अदि, अंगमी।
  3. आंध्र प्रदेश (सीमांध्र)-तेलुगू, उर्दू, हिंदी।
  4. ओडिशा-उड़िया, तेलुगू, हिंदी।
  5. उत्तर प्रदेश-हिंदी, उर्दू, पंजाबी।
  6. कर्नाटक कन्नड़, तेलुगू, उर्दू।
  7. केरल-मलयालम, तमिल, तेलुगू।
  8. गुजरात-गुजराती, हिंदी, सिंधी।
  9. गोवा-कोंकणी, मराठी, कन्नड़।
  10. तमिलनाडु-तमिल, तेलुगू, कन्नड़।
  11. त्रिपुरा-बांग्ला, हिंदी, मणिपुरी।
  12. नगालैंड हो, ओ, कोन्याक।
  13. पंजाब-पंजाबी, हिंदी, उर्दू।
  14. पश्चिमी बंगाल-बांग्ला, हिंदी, संथाली।
  15. बिहार-हिंदी, उर्दू, संथाली।
  16. मणिपुर-मणिपुरी, भाड़ो, टंगकुट।
  17. मध्यप्रदेश-हिंदी, गोंडी, भीली।
  18. महाराष्ट्र-मराठी, उर्दू, हिंदी।
  19. मिजोरम–लुशाई, बांग्ला।
  20. मेघालय-खासी, गारो, बांग्ला।
  21. राजस्थान-हिंदी, भीली, उर्दू।
  22. सिक्किम-नेपाली, भोटिया, हिंदी।
  23. हरियाणा-हिंदी, पंजाबी, उर्दू, हरियाणवी।
  24. हिमाचल प्रदेश-हिंदी, पंजाबी, किन्नूरी।
  25. उत्तराखंड-हिंदी, पंजाबी, उर्दू।
  26. छत्तीसगढ़-हिंदी, भीली, गोंडी।
  27. झारखंड हिंदी, उर्दू, संथाली। 28. तेलंगाना-तेलुगू, उर्दू।

1950 के बाद भारतीय राज्यों का भाषा या अन्य आधार पर पुनर्गठन हुआ है। इन राज्यों के भाषायी चरित्र में भी महत्त्वपर्ण बदलाव आए हैं। हिंदी भाषी राज्यों में शहरी क्षेत्रों में अंग्रेजी का प्रभाव बढा है। उत्तरी भारत के राज्यों में पंजाबी भी कछ लोग समझने व बोलने लगे हैं। दक्षिण के राज्यों में स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी और हिंदी का प्रचार हुआ है।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 10.
हाल के वर्षों के किसी एक महत्त्वपूर्ण सवैधानिक परिवर्तन को चुनिए। पता लगाइए कि यह परिवर्तन क्यों हुआ, परिवर्तन के पीछे कौन-कौन से तर्क दिए गए और परिवर्तन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या थी? अगर संभव हो, तो संविधान सभा की चर्चाओं को देखने की कोशिश कीजिए। (http: // parliamentofindia.nic.in / Is / debates / debates.htm)। यह पता लगाइए कि मुद्दे पर उस वक्त कैसे चर्चा की गई। अपनी खोज पर संक्षिप्त रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
भारत की संसद, राज्य विधान सभाओं व स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम रहता है जबकि महिलाएँ हमारे समाज का आधा हिस्सा हैं। भारत के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए महिलाओं की राजनीतिक सत्ता व प्रक्रियाओं में भागीदारी आवश्यक है। इस हेतु 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं व नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद तथा राज्य विधानसभाओं में भी इस प्रकार के आरक्षण की माँग चल रही है। धीरे-धीरे यह माँग जोर पकड़ रही है परंतु सर्वसम्मति न बनने के कारण जब भी यह विधेयक संसद में लाया गया तो इसका कई राजनीतिक दलों ने अपने पक्ष रखते हुए विरोध किया है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका अथवा फ्रांस अथवा दक्षिणी अफ्रीका के संविधान से कीजिए। ऐसा करते हुए निम्नलिखित में से किन्हीं दो विषयों पर गौर कीजिए : धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकार और केंद्र एवं राज्यों के बीच संबंध । यह पता लगाइए कि इन संविधानों में अंतर और समानताएँ किस तरह से उनके क्षेत्रों के इतिहासों से जुड़ी हुई हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत HBSE 12th Class History Notes

→ संविधान-एक कानूनी दस्तावेज जिसके अनुसार किसी देश का शासन चलाया जाता है।

→ संविधान सभा-संविधान निर्माण के लिए बनाई गई सभा।

→ संविधान की प्रस्तावना प्रस्तावना अर्थात् संविधान का परिचय। इससे संविधान के संबंधे में मार्गदर्शन प्राप्त होता है।

→ प्रभुता संपन्न राज्य-एक ऐसा राज्य जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो तथा किसी बाहरी शक्ति के दबाव से मुक्त हो। भारत 26 जनवरी, 1950 को प्रभुता संपन्न राज्य बना। ।

→ उद्देश्य प्रस्ताव-13 दिसंबर, 1946 को पंडित नेहरू जी द्वारा संविधान सभा के समक्ष प्रस्ताव रखा गया, जिसमें संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।

→ धर्म-निरपेक्षता-राज्य द्वारा किसी धर्म को राज्य धर्म के रूप में स्वीकार न करना तथा न ही किसी धर्म का विरोध करना।

→ वयस्क मताधिकार-बिना किसी भेदभाव के वयस्क (18/21 वर्ष की आयु) स्त्री-पुरुषों को मतदान करने का अधिकार।

→ केंद्रीय संघवाद-प्रांतों की तुलना में केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान करना। भारत में केंद्रीय संघवाद की स्थापना की गई है। मौलिक अधिकार-संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन्हें राज्य सरकार नहीं छीन सकती। ये नागरिकों के सर्वांगीण विकास के लिए दिए गए हैं।

→ अल्पसंख्यक-किसी देश/राज्य/प्रांत/क्षेत्र विशेष में कम संख्या में रहने वाले लोगों का समूह।

→ संसदीय सरकार इसमें राज्य अध्यक्ष (राष्ट्रपति) में नाममात्र की शक्ति होती है। वास्तविक शक्ति सरकार के अध्यक्ष (प्रधानमंत्री) में होती है।

→ गणतंत्र दिवस-जिस दिन भारत का संविधान लागू हुआ वह गणतंत्र दिवस कहलाता है। यह 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। अतः भारत में 26 जनवरी का दिन गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

→ जन प्रभुता-जनता को प्रभुता का स्रोत स्वीकारना।

→ वित्तीय संघवाद-वह व्यवस्था जिसमें राजकोष का ज्यादातर हिस्सा केंद्र के पास हो।

संविधान निर्माण से तत्काल पहले के वर्ष भारत में बहुत ही उथल-पुथल भरे थे। जहाँ एक ओर यह समय लोगों की महान् आशाओं को पूरा करने का था, वहीं यह मोहभंग का समय भी था। भारत को स्वतंत्रता तो प्राप्त हो गई थी, परन्तु इसका विभाजन भी हो गया था जिससे भारत में भयावह समस्याएँ खड़ी हो गई थीं। संविधान सभा जब अपना कार्य कर रही थी तो उसके कार्य को इन समस्याओं ने भी प्रभावित किया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय भारत के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या देश के विभाजन से जुड़ी थी। इसी समस्या से भारत में अनेक विकराल समस्याएँ पैदा हुईं। जून योजना (विभाजन योजना) को स्वीकार करने के बाद अगस्त, 1947 में पंजाब में भयंकर दंगे शुरू हो गए। लूटपाट, आगजनी, जनसंहार, बलात्कार, औरतों को अगवा करना आदि जैसे भयावह दृश्य आम हो गए।

→ पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। ये सांप्रदायिक दंगे अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 तक चलते रहे। इस महाध्वंस में लगभग 10 लाख लोग मारे गए, 50,000 महिलाएँ अगवा कर ली गईं तथा लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए। विभाजन तथा उससे जुड़ी हिंसा के परिणामस्वरूप अपनी जड़ों से उखड़े हुए (Uprooted) लोगों की भयंकर समस्या उभरकर सामने आयी। जान-माल की सुरक्षा न होने के कारण 1 करोड़ 50 लाख हिंदुओं और सिक्खों को पाकिस्तान से तथा मुसलमानों को भारत से बेहद खराब हालात में देशांतरण करना पड़ा। उनका सब कुछ छिन गया था।

→ उनमें से अधिकतर लोगों को दंगों के कारण भयंकर दौर से गुजरना पड़ा था। अतः देश की सरकार के सम्मुख इतने बड़े समुदाय के लिए राहत और पुनर्वास की समस्या सबसे बड़ी थी। स्वतंत्र भारत की एकता को सबसे बड़ा खतरा भारतीय देशी रियासतों की स्थिति से उत्पन्न हुआ। इन रियासतों की संख्या लगभग 554 थी। स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) तक सरदार पटेल और वी०पी० मेनन मै जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों के शासकों को भारतीय संघ में विलय के लिए सहमत तथा बाध्य कर दिया था। 1946 में पहले प्रांतीय सभाओं के चुनाव हुए तथा जुलाई, 1946 के अंतिम सप्ताह में संविधान सभा का चुनाव किया गया। सभा के 389 सदस्यों में से 296 सदस्यों पर चुनाव होना था (210 सामान्य, 78 मुस्लिम व 4 सिक्ख) जिनमें से 292 सदस्यों का चुनाव हुआ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

→ इन 292 सदस्यों में से 212 कांग्रेस और उसके सहयोगी के सदस्य थे। लीग के 73 सदस्य चुने गए तथा 7 सदस्य अन्य दलों से। संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी०आर० अंबेडकर, के०एम० मुन्शी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने मुख्य भूमिका निभाई। 11 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा ने अपना स्थायी अध्यक्ष डॉ० राजेंद्र प्रसाद को चुना। 13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव रखा जिसको दृष्टि में रखकर भारतीय संविधान का निर्माण किया जाना था। संविधान सभा में ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत करते हुए अपने भाषण में नेहरू जी ने अतीत में झाँकते हुए अमेरिकी व फ्रांसीसी क्रांतियों और वहाँ के संविधान निर्माण का उल्लेख किया। उन्होंने इस अवसर पर सोवियत समाजवादी गणराज्य के जन्म को भी याद किया जो दुनिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

→ नेहरू ने भारतीय संविधान निर्माण के इतिहास को मुक्ति व स्वतंत्रता के एक लंबे ऐतिहासिक संघर्ष का हिस्सा बताया। नेहरू जी ने विश्वास व्यक्त किया कि “हम सिर्फ नकल करने वाले नहीं हैं।” संविधान सभा के सदस्य बी० पोकर बहादुर ने 27 अगस्त, 1947 को अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचिका प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। इस माँग पर प्रभावशाली भाषण देते हुए श्री बहादुर ने तर्क दिया कि “अल्पसंख्यक सब जगह होते हैं; हम उन्हें चाहकर भी नहीं हटा सकते। हमें आवश्यकता एक ऐसे राजनीतिक-ढांचे की है जिसमें अल्पसंख्यक भी अन्य समुदायों के साथ सद्भावना से जी सकें तथा समुदायों के बीच मतभेद कम-से-कम हो।” पृथक् निर्वाचन प्रणाली की उक्त माँग का संविधान सभा में जोरदार विरोध हुआ। हाल ही में देश के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों से इस माँग पर अधिकतर राष्ट्रवादी भड़क उठे।

→ सरदार पटेल ने इस माँग की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने कहा-“अंग्रेज़ तो चले गए, मगर जाते-जाते शरारत का बीज बो. गए। सरदार पटेल ने कहा कि पृथक निर्वाचिका “एक ऐसा विष है जो हमारे देश की पूरी राजनीति में समा चुका है।” गोविंद वल्लभ पंत ने इस माँग को न केवल राष्ट्र के लिए वरन् अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक बताया। संविधान सभा में लंबी बहस के बाद इस माँग को अस्वीकार कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि सभी मुसलमान सदस्य भी इस माँग का समर्थन नहीं कर रहे थे। समाजवादी विचारों के समर्थक व किसान आंदोलन के नेता एन०जी० रंगा ने जोर देकर कहा कि असली अल्पसंख्यक गरीब, उत्पीड़ित व आदिवासी हैं। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

→ जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने भी आदिवासियों की स्थिति को सुधारने तथा समाज के सभी समुदायों से आदिवासियों से मेलजोल की आवश्यकता पर बल दिया। नागरिकों के अधिकारों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला दलित जातियों के अधिकारों से जुड़ा था। समाज का यह एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसे सदियों से समाज के हाशिए पर रहना पड़ा था। अंततः संविधान सभा में दलितों के उत्थान के लिए निम्नलिखित सुझाव स्वीकार किए गए

(i) अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए;

(ii) हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए; और

(iii) दलित जातियों को विधानमण्डलों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए। संविधान सभा के अधिकांश सदस्य एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे तथापि राज्यों व केंद्र को शक्तियाँ दिए जाने के मामले में जोरदार बहस हुई। केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों और कार्य का विभाजन करने के लिए संविधान में सभी विषयों की तीन सचियाँ बनाई गई थीं-केंद्रीय सची, राज्य सची और समवर्ती सूची। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीस के दशक में यह स्वीकार लिया था कि हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी) को राष्ट्र की भाषा का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।

→ गाँधीजी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा बनाने के पक्ष में थे। संविधान सभा के कुछ सदस्य हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना चाहते थे। इन सदस्यों ने हिंदी के लिए जोरदार तरीके से पक्षधरता की। गैर-हिंदी भाषी राज्यों के सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि हिंदी का वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तथा वे भारतीय संस्कृति के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाएँगी। राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर सदस्यों में विवाद तीखा होता जा रहा था। इस पर अनेक सदस्यों ने इस मुद्दे पर सभी सदस्यों में समायोजन की भावना विकसित करने पर बल दिया।

→ 1950 को सभा के सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए। कुल 284 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए और अंततः भारत का सम्पूर्ण संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया। भारत में संविधान के द्वारा ‘स्वतंत्र सम्प्रभु गणतंत्र’ (Independent Sovereign Republic) की स्थापना की गई थी। इस नए गणतंत्र में सत्ता का स्रोत नागरिकों को होना था। इसको कार्यरूप देने के लिए संविधान निर्माताओं ने भारत में एकमश्त वयस्क मताधिकार प्रदान किया। भारतीय संविधान भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राज्य धर्म मानता है और न ही किसी विशेष धर्म को संरक्षण तथा समर्थन प्रदान करता है। परंतु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि राज्य नास्तिक है या धर्म-विरोधी है, अपितु वह धर्म के विषय में धर्म-निरपेक्ष है। धर्म-निरपेक्षता का अर्थ केवल धार्मिक सहनशीलता ही है।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
26 जुलाई, 1945ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आना
दिसम्बर, 1945 व जनवरी, 1946भारत में आम चुनाव
16 मई, 1946कैबिनेट मिशन योजना की घोषणा
16 जून, 1946मुस्लिम लींग द्वारा कैबिनेट मिशन योजना स्वीकारना
16 जून, 1946अन्तरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव
2 सितम्बर, 1946नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन
13 अक्तूबर, 1946लीग अन्तरिम सरकार में शामिल
9 दिसम्बर, 1946संविधान सभा की पहली बैठक
16 जुलाई, 1947अन्तरिम सरकार की आखिरी बैठक
11 अगस्त, 1947जिन्ना पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष बने
14 अगस्त, 1947पाकिस्तान की स्वतन्त्रता व कराची में जश्न
14-15 अगस्त, 1947 (मध्यरात्रि)भारत की स्वतन्त्रता
26 जनवरी, 1950भारतीय संविधान को अपनाया जाना

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 114 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

HBSE 12th Class History विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
1940 के प्रस्ताव के जरिए मुस्लिम लीग ने क्या माँग की?
उत्तर:
1937 के चुनावों में असफलता के बाद जिन्ना ने उग्र-साम्प्रदायिक राजनीति को अपना लिया था। 1940 में उन्होंने द्विराष्ट्रों का सिद्धांत मुस्लिम जनता के सामने रखा। इस सिद्धांत की दो मान्यताएँ थीं। पहली मान्यता के अनुसार “हिंदू और मुसलमान बिल्कुल दो समाज थे। धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों अलग-अलग थे. ……..इसलिए ये दोनों कौमें एक राष्ट्र नहीं बन सकती थीं।” दूसरी मान्यता यह थी कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। इसका अर्थ होगा इस्लाम के बहुमूल्य तत्त्व का पूर्ण विनाश और मुसलमानों के लिए स्थायी दासता। धीरे-धीरे पाकिस्तान की स्थापना की माँग ठोस रूप ले रही थी। 23 मार्च, 1940 को लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव ही ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है।

इसमें कहा गया कि भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में जरूरत के हिसाब से इलाकों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिंदुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन हिस्सों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है, उन्हें इकट्ठा करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए जिनमें शामिल इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी।

प्रश्न 2.
कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता था कि बँटवारा बहुत अचानक हुआ?
उत्तर:
कुछ लोगों का विचार है कि भारत का विभाजन एक बहुत ही अचानक लिया गया निर्णय है। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 1940 में लीग ने ‘लाहौर प्रस्ताव’ या ‘पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया था। इसमें अस्पष्ट शब्दों में एक मुस्लिम बहुल इलाके में स्वायत्त राज्य की स्थापना की माँग रखी गई थी। इस प्रस्ताव के रखने के बाद अगले सात वर्षों में ही विभाजन हो गया। यहाँ तक कि किसी को मालूम नहीं था कि पाकिस्तान के निर्माण का अर्थ क्या होगा, इससे भविष्य में लोगों की जिंदगी किस तरह तय होगी। यहाँ तक कि 1947 में घर-बार छोड़कर गए लोगों को भी लगता था कि वे शांति स्थापित होने पर वापस अपने घरों में लौट सकेंगे। नेताओं ने भी लोगों के भविष्य के बारे में न ही सोचा और न ही जनसंख्या की पारस्परिक अदला-बदली पर कोई विचार किया।

यहाँ तक कि स्वयं लीग ने भी एक संप्रभु राज्य की माँग ज्यादा स्पष्ट और जोरदार ढंग से नहीं उठाई थी। ऐसा लगता है कि माँग सौदेबाजी में एक पैंतरे के रूप में उठाई गई थी ताकि मुस्लिमों के लिए अधिक रियायतें ली जा सकें। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। इसकी समाप्ति के बाद सरकार को भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण की बातचीत करनी पड़ी, जिसमें अन्ततः भारत का विभाजन अचानक स्वीकार करना पड़ा। इससे लगता है कि भारत का विभाजन अचानक हुई घटना है।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
यह भी अनुमान लगाया जाता है कि विभाजन के कारण लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 के बीच सीमा पार करने पर विवश हुए। विश्व इतिहास में ऐसा कष्टदायक विस्थापन नहीं मिलता। विस्थापन का अर्थ था लोगों का अपने घरों से उजड़ जाना। पलक झपकते ही इन लोगों की संपत्ति, घर, दुकानें, खेत, रोजी-रोटी के साधन उनके हाथों से निकल गए। वे अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए। उनसे उनकी बचपन की यादें छीन ली गईं। लाखों लोगों के प्रियजन मारे गए या बिछुड़ गए। अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय संस्कृति से वंचित होकर शरणार्थी बने लोगों को तिनका-तिनका जोड़कर नए सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा।

यह मात्र सम्पत्ति और क्षेत्र का विभाजन नहीं था, बल्कि एक महाध्वंस था। 1947 में जो लोग सीमा पार से जिंदा बचकर आ रहे थे, वे विभाजन के फैसले को ‘सरकारी नज़रिए’ से नहीं देख रहे थे। उनके अनुभव भयानक थे और वे उसे ‘मार्शल लॉ’ ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे। वस्तुतः जनहिंसा, आगजनी, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार को देखते हए अनेक प्रत्यक्षदर्शियों और विद्वानों ने इसे ‘महाध्वंस’ (होलोकॉस्ट) कहा है। 1947 का हादसा इतना जघन्य था कि ‘विभाजन’ या ‘बँटवारा’ या, ‘तकसीम’ कह देने मात्र से इसके सारे पहलू प्रकट नहीं होते। मानवीय पीड़ा और दर्द का अहसास नहीं होता। महाध्वंस से सामूहिक नरसंहार की भयानकता और अन्य प्रभावों की भीषणता को कुछ हद तक समझा जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आम लोग विभाजन को एक ऐसी घटना समझते थे जिसमें उनका सब कुछ नष्ट हो गया था तथा उनके परिजन मर गए थे या बिछुड़ गए थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 4.
विभाजन के खिलाफ महात्मा गाँधी की दलील क्या थी?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने विभाजन का जोरदार विरोध किया था। उन्होंने विभाजन के खिलाफ यहाँ तक कह दिया था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। गाँधी जी को विश्वास था कि देश में सांप्रदायिक नफरत शीघ्र ही समाप्त हो जाएगी तथा पुनः

आपसी भाईचारा स्थापित हो जाएगा। लोग घृणा और हिंसा का मार्ग छोड़ देंगे तथा सभी आपस में मिलकर अपनी समस्याओं का हल खोज लेंगे। विभाजन के अवसर पर भड़की हिंसा को शांत करने के लिए वे 77 वर्ष की आयु में भी दंगाग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचे। उन्होंने सभी स्थानों पर हिंदुओं और मुसलमानों को शांति बनाए रखने और परस्पर स्नेह और एक-दूसरे की रक्षा करने की बात कही। उनका मानना था कि दोनों समुदाय सैकड़ों सालों से एक-साथ रहते आए हैं। 7 सितंबर, 1946 को उन्होंने प्रार्थना सभा में कहा था, “मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूँ जब हिंदू और मुसलमान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जले जा रहा हूँ कि उस दिन को जल्दी-से-जल्दी साकार करने के लिए क्या करूँ। लीग से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें……….। हिंदू और मुसलमान, दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं। उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं और एक ही जबान बोलते हैं।

26 सितंबर, 1946 को गाँधीजी ने इसी प्रकार की बात ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक में दोहराई। उन्होंने लिखा, “लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो माँग उठायी है, वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसको पापपूर्ण कृत्य कहने में कोई संकोच नहीं है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है, न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का। जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, किंतु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूँ।”

प्रश्न 5.
विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में ऐतिहासिक मोड़ की संज्ञा दी जाती है। इसके कारण देश दो सम्प्रभु राज्यों (भारत और पाकिस्तान) में बँट गया। विभाजन ने तात्कालिक रूप से करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित किया। साथ ही विभाजन की स्मृतियों और कहानियों ने रूढ़छवियों (Stereotypes) का निर्माण किया जो आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को प्रभावित कर रही हैं। यहाँ तक कि भारत में आतंकवाद जैसी समस्या की जड़ें भी कुछ हद तक विभाजन के परिणामों से जुड़ी हैं।

1. जनसंहार और विस्थापन (Massacre and Displace ment)-विभाजन सांप्रदायिक हिंसा, जनसंहार, आगजनी, लूटपाट, अराजकता, अपहरण, बलात्कार आदि का पर्याय बन गया था। ‘दंगाई भीड़ों’ ने दूसरे समुदाय के लोगों को निशाना बनाकर मारा। गाँव के गाँव जला दिए। ट्रेनों में सफर कर रहे लोगों पर हिंसक
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 14 Img 2
हमले हुए। ट्रेनें मौत का पिंजरा बन गईं। यद्यपि हिंसा में पाकिस्तान और हिंदुस्तान में मारे गए लोगों की ठीक-ठीक संख्या बता पाना असंभव है, तथापि अनुमान लगाया जाता है कि 2 लाख से 2.5 लाख गैर-मुस्लिम तथा इतने ही मुस्लिम विभाजन की हिंसा में मारे गए।

यह भी अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 के बीच सीमा पार करने पर विवश हुए। विश्व इतिहास में ऐसा कष्टदायक विस्थापन नहीं मिलता। विस्थापन का अर्थ था लोगों का अपने घरों से उजड़ जाना। लाखों लोगों के प्रियजन मारे गए या बिछुड़ गए। अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय संस्कृति से वंचित होकर शरणार्थी बने लोगों को तिनका-तिनका जोड़कर नए सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा।

2. महाध्वंस (Holocaust)-यह मात्र सम्पत्ति और क्षेत्र का विभाजन नहीं था, बल्कि एक महाध्वंस था। 1947 में जो लोग सीमा पार से जिंदा बचकर आ रहे थे, वे विभाजन के फैसले को ‘सरकारी नज़रिए’ से नहीं देख रहे थे। उनके अनुभव भयानक थे और वे उसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे। वस्तुतः जनहिंसा, आगजनी, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार को देखते हुए अनेक प्रत्यक्षदर्शियों और विद्वानों ने इसे ‘महाध्वंस’ कहा है।

3. रूढ़छवियों का निर्माण (Formation of Stereotypes)-बँटवारे की वजह से दोनों देशों में रूढ़छवियों का निर्माण हुआ। इन रूढछवियों ने लोगों की मानसिकता को गहरा प्रभावित किया है। इन छवियों का दुरुपयोग सांप्रदायिक ताकतों के द्वारा तक भी किया जा रहा है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
ब्रिटिश भारत का बँटवारा क्यों किया गया?
उत्तर:
ब्रिटिश भारत का बँटवारा निम्नलिखित कारणों से किया गया

1. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति (British Policy of Divide and Rule)-अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को भारत में सांप्रदायिकता के उदय व विकास और अन्ततः विभाजन के लिए जिम्मेदार माना गया है। अंग्रेज़ों ने हिंदुओं और मुसलमानों में घृणा पैदा करने को राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया। अंग्रेज़ों ने कांग्रेस को हिंदू आंदोलन बताया तथा सर सैयद अहमद के साथ मिलकर मुसलमानों को कांग्रेस के आंदोलन से दूर रखने का प्रयास किया। साथ ही उच्चवर्गीय मुसलमानों को अपना संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। 1906 में मुस्लिम लीग का निर्माण करवाया। इस नीति पर चलते हुए उन्होंने आगे बहुत से और कदम उठाए जो विभाजन का कारण बने।

2. सांप्रदायिक संगठनों की स्थापना (Formation of Communal Organisations)-20वीं सदी के प्रथम दशक के मध्य से साम्प्रदायिक संगठन बनने लगे। सरकार ने उन्हें प्रोत्साहन दिया। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। लीग का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक हितों की रक्षा करना तथा मुसलमानों में अंग्रेज़ सरकार के प्रति निष्ठा पैदा करना था। प्रारंभ के वर्षों में लीग ने पृथक् निर्वाचन प्रणाली की मांग की तथा बंगाल विभाजन का समर्थन किया।

इसी समय 1909 ई० में लाल चंद और बी० एन मुखर्जी के प्रयासों से पंजाब हिंदू महासभा की स्थापना हुई। इनका मूल मंत्र था कि ‘हिंदू पहले हैं और भारतीय बाद में।’ इन्होंने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिंदुओं के हितों को नजरअंदाज कर रही है और मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपना रही है। 1915 में अखिल भारतीय हिंदू सभा की स्थापना हुई जो हिंदू सांप्रदायिकता को संगठित रूप देने की दिशा में अगला कदम था।

3. सांप्रदायिक तनाव व कलह (Communal Tensions and Conflicts)-1922 में असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद सांप्रदायिक तनावों में वृद्धि हुई। इस समय में मुसलमानों की नाराजगी के प्रमुख कारण हिंदुओं द्वारा त्योहार (होली) पर ‘मस्जिद के सामने संगीत बजाना’, ‘गो रक्षा आंदोलन’ और आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन होते थे। हिंदू मुसलमानों के तबलीग (प्रचार) और तंजीम (संगठन) जैसे कार्यक्रमों के विस्तार से उत्तेजित होते थे। ये सांप्रदायिक तनाव इन समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ लामबंद करने का अवसर प्रदान करते थे जिससे आसानी से दंगे भड़क उठते थे।

4. ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव (‘Pakistan’ Resolution)-1937 के बाद जिन्ना की राजनीति पूरी तरह से उग्र-सांप्रदायिकता की राजनीति थी। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। 1940 में जिन्ना ने अपने ‘द्विराष्ट्रों के सिद्धांत’ को मुस्लिम जनता के समक्ष रखा। इस सिद्धांत की दो मान्यताएँ थीं। पहली मान्यता के अनुसार “हिंदू और मुसलमान बिल्कुल दो समाज थे। धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों अलग-अलग थे………इसलिए ये दोनों कौमें एक राष्ट्र नहीं बन सकती थीं।” दूसरी मान्यता यह थी कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। धीरे-धीरे पाकिस्तान की स्थापना की माँग ठोस रूप ले रही थी। 23 मार्च, 1940 को लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया।

5. वेवल योजना की विफलता (Failure of Wavell Plan)-1945 में वेवल योजना के तहत शिमला कांफ्रेंस हुई जिसमें वेवल ने मुख्य योजना ‘नयी कार्यकारी परिषद्’ के निर्माण को लेकर रखी। नयी कार्यकारिणी में वायसराय और मुख्य सेनापति को छोड़कर सभी सदस्य भारतीय होने थे तथा सभी समुदायों को संतुलित प्रतिनिधित्व दिया जाना था। हिंदू-मुस्लिम सदस्यों की संख्या बराबर होनी थी। परंतु नई परिषद् के निर्माण को लेकर भारतीय दलों में कोई सहमारे नहीं बन पाई। कांग्रेस ने लीग की असहमति को योजना की असफलता का मुख्य कारण बताया। इससे कांग्रेस व लीग में कटुता बढ़ी तथा योजना की असफलता से देश में निराशा फैली। इस घटना ने देश को विभाजन की ओर धकेला।

6. कैबिनेट मिशन की असफलता (Failure of the Cabinet Mission)-15 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत को जल्दी ही स्वतंत्रता देने की बात कही। अतः मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। इसका लक्ष्य भारत में एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तथा भावी संविधान के लिए रास्ता तैयार करना था। इस समय सबसे कठिन समस्या सांप्रदायिक समस्या बन गई थी। मुस्लिम लीग ने इसके लिए एकमात्र हल पाकिस्तान की माँग को बताया था, परंतु कैबिनेट मिशन ने पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर एक भारतीय संघ का प्रस्ताव रखा। लीग और कांग्रेस में इस पर प्रारंभ में सहमति बनी, परंतु अन्ततः दोनों ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। कैबिनेट मिशन योजना की अस्वीकृति दुर्भाग्यपूर्ण थी। यह भारत को एक बनाए रखने का अंतिम प्रयास था। इसकी अस्वीकृति और असफलता के बाद विभाजन लगभग अपरिहार्य हो गया था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता विभाजन को एक त्रासद परंतु अवश्यम्भावी परिणाम मान चुके थे। केवल महात्मा गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार ख़ान ही अंत तक विभाजन का विरोध करते रहे।

7. सीधी कार्रवाई तथा साम्प्रदायिक दंगे (Direct Action and Communal Riots)-कैबिनेट योजना की असफलता के बाद लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ घोषित किया तथा ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दिया। इसके साथ ही कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए जो 20 अगस्त तक चलते रहे। दंगे अन्य स्थानों पर भी भड़कने लग गए। पूर्वी बंगाल में नोआखली जिले में 10 अक्तूबर को दंगे शुरू हो गए। इन दंगों का असर अन्य स्थानों पर भी हुआ। पंजाब के अनेक नगरों और गाँवों में भी खतरनाक दंगे भड़क गए। साथ ही हजारों लोग विस्थापित हो गए। दंगों ने सारे देश को दहला दिया। कानून और व्यवस्था बिल्कुल चरमरा गई तथा देश में गृह-युद्ध की स्थिति पैदा होती जा रही थी।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 14 Img 3

8. माऊन्टबेटेन योजना तथा ब्रिटिश भारत का बँटवारा (Mountbatten plan and Division of British India)-भारत में सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल पा रहा था। देश में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। उधर 20 फरवरी, 1947 को एटली ने भारत की सत्ता 30 जून, 1948 तक भारतीयों को सौंपने की घोषणा की। साथ ही वेवल के स्थान पर माऊन्टबेटेन को भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा। माऊन्टबेटेन ने 3 जून, 1947 को भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की। इस योजना के अनुसार भारत और पाकिस्तान नाम के दो राज्यों को सत्ता का हस्तांतरण किया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 7.
बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे?
उत्तर:
विभाजन के समय सबसे अधिक पीड़ा महिलाओं को उठानी पड़ी। ‘दूसरे समुदाय’ के सम्मान को रौंदने एवं ठेस पहुँचाने के लिए महिलाओं को ही ‘सॉफ्ट टारगेट’ बनाया गया। उनके साथ बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार बेचा-खरीदा गया। उनसे जबरदस्ती विवाह किया गया और उन्हें ‘अजनबी’ व्यक्तियों के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा। महिलाएँ मूक एवं निरीह प्राणियों की तरह इन अत्याचारों से गुजरती रहीं। उन्हें गहरे सदमे झेलने पड़े।

इन सदमों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने बदली हुई स्थितियों में नए पारिवारिक बंधन स्थापित किए। किंतु जब भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने गुमशुदा औरतों की ‘बरामदगी’ की मुहिम चलाई तो महिलाओं को पुनः संकट का सामना करना पड़ा। इस बरामदगी की प्रक्रिया में मानवीय संबंधों की जटिलता के विषय पर किसी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं दिखाई गई। दोनों सरकारों के बीच समझौता हुआ था कि “जबरन धर्म परिवर्तन तथा बलपूर्वक विवाहों को मान्यता नहीं दी जाएगी। सरकारों द्वारा अपहरण की गई औरतों को ढूँढ़ने तथा बरामद करने का हर प्रयत्न किया जाएगा तथा उन्हें उनके परिवारों के सुपुर्द किया जाएगा।”

इस बरामदगी की पूरी प्रक्रिया में इन ‘प्रभावित औरतों’ से उनकी किसी प्रकार की राय नहीं ली गई। उन्हें अपनी जिंदगी के संबंध में फैसला लेने के अधिकार से वंचित किया गया। सरकार यह मानकर चल रही थी कि इन महिलाओं को बलपूर्वक बैठा लिया गया था। इसलिए उन्हें उनके नए परिवारों से छीनकर पुराने परिवारों के पास अथवा पुराने स्थान पर भेज दिया गया। एक अनुमान के अनुसार महिलाओं की बरामदगी के अभियान में कुल मिलाकर लगभग 30,000 औरतों को बरामद किया गया। इनमें से 8000 हिंदू व सिक्ख औरतों को पाकिस्तान से तथा 22,000 मुस्लिम औरतों को भारत से बरामद किया गया। यह अभियान 1954 तक जारी रहा।

  • ‘इज्जत’ की रक्षा के लिए औरतों की हत्या-बँटवारे के दौरान ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जब परिवार के पुरुषों ने ही परिवार की ‘इज्जत’ की रक्षा के नाम पर अपने परिवार की स्त्री सदस्यों को स्वयं ही मार दिया या आत्महत्या के लिए प्रेरित किया। इन पुरुषों को भय होता था कि शत्रु उनकी औरतों-माँ, बहन, बेटी को नापाक कर सकता था। इसलिए परिवार की मान-मर्यादा को बचाने के लिए खुद ही उनको मार डाला। उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक दि अदर साइड ऑफ साइलेंस (The Other Side of Silence) में रावलपिंडी जिले के थुआ खालसा नामक गाँव की एक इसी प्रकार की दर्दनाक घटना का विवरण दिया है। वे बताती हैं कि बँटवारे के समय सिक्खों के इस गाँव की 90 औरतों ने ‘दुश्मनों’ के हाथों में पड़ने की बजाय ‘अपनी इच्छा से’ एक कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी थी। इस गाँव के लोग इसे आत्महत्या नहीं शहादत मानते हैं और आज भी दिल्ली के एक गुरुद्वारे में हर वर्ष 13 मार्च को उनकी शहादत की याद में कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तथा इस घटना को मर्दो, औरतों व बच्चों को विस्तार से सुनाया जाता है। अंतः स्पष्ट है कि बँटवारे के समय औरतों के अनुभव पुरुषों से भिन्न थे। उन्हें असहनीय पीड़ा और संताप से गुजरना पड़ा।

प्रश्न 8.
बँटवारे के सवाल पर कांग्रेस की सोच कैसे बदली?
उत्तर:
कांग्रेस ने 1940 के दशक के प्रारंभ से ही पाकिस्तान के निर्माण या ब्रिटिश भारत के बँटवारे का विरोध किया था। परंतु सांप्रदायिक समस्या का हल न निकलने, सांप्रदायिक दंगे भड़कने तथा लीग की हठधर्मिता के चलते उसकी सोच में बदलाव आने लगा था। अंग्रेजों द्वारा 1946 के बाद भारत को जल्दी छोड़ने के फैसले से भी कांग्रेस के विचारों में बदलाव आया। कांग्रेस की सोच में बदलाव के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. कांग्रेस मंत्रिमण्डल व लीग से मतभेद (Conflicts in Congress Ministries and League)-1937 के चुनावों में सफलता के बाद कांग्रेस ने प्रांतों में सरकार बनाई परन्तु कुछ प्रांतों (विशेषतः यू०पी० व बिहार) में स्थिति यह थी कि कांग्रेस सत्ता पक्ष में तथा मुस्लिम लीग के सदस्य विपक्ष में थे। ये लीग के सदस्य प्रांतों में कांग्रेसी शासन के पूरे 27 महीनों के काल में कांग्रेस के खिलाफ जोरदार प्रचार करते रहे। आरोप लगाया गया कि काँग्रेसी शासन में मुसलमानों पर अत्याचार किए जा रहे हैं। फलतः लीग व कांग्रेस में दूरियाँ भी बढ़ीं। यहाँ तक कि जब 22 अक्तूबर, 1939 को कांग्रेस सरकारों ने त्यागपत्र दिया तो लीग ने मुक्ति दिवस (Day of Deliverance) मनाया।

2. ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव (‘Pakistan’ Resolution)-1937 के बाद जिन्ना की राजनीति पूरी तरह से उग्र-सांप्रदायिकता की राजनीति थी। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। उन्होंने दुष्प्रचार किया कि कांग्रेस का आला कमान दूसरे सभी समुदायों और संस्कृतियों को नष्ट करने तथा हिंदू राज्य कायम करने के लिए पूरी तरह दृढ़ प्रतिज्ञ है। उन्होंने मुस्लिम जनता को भयभीत करना शुरू किया कि स्वतंत्र भारत में मुस्लिम और इस्लाम दोनों के ही अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाएगा। 1940 में जिन्ना ने अपने ‘द्विराष्ट्रों के सिद्धांत’ को मुस्लिम जनता के समक्ष रखा। लीग का कहना था कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। इसका अर्थ होगा इस्लाम के बहुमूल्य तत्त्व का पूर्ण विनाश और मुसलमानों के लिए स्थायी दासता। 1940 में लीग ने लाहौर में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया। इससे स्थितियों में बदलाव आया।

3. वेवल योजना की विफलता (Failure of Wavell Plan)-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वायसराय वेवल ने अपनी कार्यकारिणी में भारतीयों को शामिल करने के लिए शिमला में सम्मेलन बुलाया। परंतु लीग की हठधर्मिता के कारण यह योजना असफल हो गई। लीग चाहती थी कि परिषद के सभी मुस्लिम सदस्य उसके द्वारा चुने जाएँ। इससे कांग्रेस व लीग में कटुता बढ़ी तथा निराशा फैली।

4. कैबिनेट मिशन की असफलता (Failure of the Cabinet Mission)-15 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत को जल्दी ही स्वतंत्रता देने की बात कही। अतः मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। इसका लक्ष्य भारत में एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तथा भावी संविधान के लिए रास्ता तैयार करना था। इस समय सबसे कठिन समस्या सांप्रदायिक समस्या बन गई थी। मुस्लिम लीग ने इसके लिए एकमात्र हल पाकिस्तान की माँग को बताया था, परंतु कैबिनेट मिशन ने पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर एक भारतीय संघ का प्रस्ताव रखा। इस योजना को कांग्रेस तथा लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया। यह विभाजन का एक संभावित विकल्प था। परन्तु बाद में मतभेद उभर गए तथा लीग ने इसे अस्वीकार कर दिया। कैबिनेट मिशन योजना की अस्वीकृति दुर्भाग्यपूर्ण थी। इसकी अस्वीकृति और असफलता के बाद विभाजन लगभग अपरिहार्य हो गया था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता विभाजन को एक त्रासद परंतु अवश्यम्भावी परिणाम मान चुके थे।

5. सीधी कार्रवाई तथा साम्प्रदायिक दंगे (Direct Action and Communal Riots)-कैबिनेट योजना की असफलता के बाद लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ घोषित किया तथा ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दिया। इसके साथ ही कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए जो 20 अगस्त तक चलते रहे। साथ ही हजारों लोग विस्थापित हो गए। दंगों ने सारे देश को दहला दिया। कानून और व्यवस्था बिल्कुल चरमरा गई तथा देश में गृह-युद्ध की स्थिति पैदा होती जा रही थी। इससे कांग्रेस की सोच में पूरी तरह बदलाव आ गया।

6. माऊन्टबेटेन योजना तथा पाकिस्तान का निर्माण (Mountbatten Plan and the Creation of Pakistan)-भारत में सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल पा रहा था। देश में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। अन्तरिम सरकार भी लीग की रोड़ा अटकाने की नीति के कारण काम नहीं कर पा रही थी। उधर 20 फरवरी, 1947 को एटली ने भारत की सत्ता 30 जून, 1948 तक भारतीयों को सौंपने की घोषणा की। साथ ही वेवल के स्थान पर माऊन्टबेटेन को भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा। माऊन्टबेटेन ने 3 जून, 1947 को भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की। इस योजना के अनुसार भारत और पाकिस्तान नाम के दो राज्यों को सत्ता का हस्तांतरण करने का फैसला हुआ। कांग्रेस अब तक लीग की नीतियों के कारण बँटवारे के पक्ष में हो चुकी थी। अतः उसने बँटवारे को स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 9.
मौखिक इतिहास के फायदे व नकसानों की पड़ताल कीजिए। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन के बारे में हमारी समझ को किस तरह विस्तार मिलता है?
उत्तर:
विभाजन को समझने के लिए हम मौखिक इतिहास का प्रयोग करते हैं। ये स्रोत हमें विभाजन के दौर में सामान्य लोगों के कष्टों और संताप को समझने में मदद करते हैं। लाखों लोगों ने विभाजन को पीडा और चनौती के दौर के रूप में देखा। उनके लिए यह मात्र सवैधानिक बँटवारा या मुस्लिम लीग और कांग्रेस की दलगत राजनीति का मामला नहीं था। उनके लिए यह एक ऐसी घटना थी जिसने उनकी जिंदगी को पूरी तरह से बदल दिया; बुरी तरह से झकझोर डाला था। हमें विभाजन को मात्र राजनीतिक घटना के रूप में ही नहीं समझना चाहिए वरन् इस रूप में भी देखना चाहिए कि जिन लोगों ने इस त्रासदी को भुगता वे इसके क्या अर्थ लगा रहे थे। इस घटना की उनकी स्मृतियाँ और अनुभव किस प्रकार के थे। उन स्मृतियों और अनुभवों की तह तक पहुँचकर ही हम विभाजन जैसी घटना के मानवीय आयामों (Human dimensions) को समझ सकते हैं और इसमें मौखिक इतिहास बहुत कारगर है।

1. मौखिक इतिहास के फायदे-मौखिक स्रोत के रूप में व्यक्तिगत स्मृतियों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि इनसे हमें लोगों के अनुभवों और स्मतियों को गहराई से समझने में सहायता मिलती है। इन स्मतियों के माध्यम से इतिहासकारों को विभाजन जैसी दर्दनाक घटना के दौरान लोगों को किन-किन शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को झेलना पड़ा, का बहुरंगी एवं सजीव वृत्तांत लिखने में सहायता मिलती है। यहाँ यह उल्लेख करना भी उपयुक्त है कि सरकारी दस्तावेज़ों में इस तरह की जानकारी नहीं मिलती। ये दस्तावेज नीतिगत और दलगत या विभिन्न सरकारी योजनाओं से संबंधित होते हैं। इन फाइलों व रिपोर्टों में बँटवारे से पहले की वार्ताओं, समझौतों या दंगों और विस्थापन के आँकड़ों, शरणार्थियों के पुनर्वास इत्यादि के बारे में काफी जानकारी मिलती है। परंतु इनसे देश के विभाजन से प्रभावित होने वाले लोगों के रोजाना के हालात, उनकी अंतीड़ा और कड़वे अनुभवों के बारे में विशेष पता नहीं लगता। यह तो मौखिक स्रोतों से ही जाना जा सकता है।

2. मौखिक इतिहास के नुकसान-बहुत-से इतिहासकार मौखिक इतिहास के बारे में शंकालु हैं। वे इसे यह कहकर खारिज़ करते हैं कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती। इन जानकारियों से जो क्रम (Choronology) उभरता है. : होता। मौखिक इतिहास के खिलाफ यह भी तर्क दिया जाता है कि निजी अनुभवों की विशिष्टता के सहारे सामान्य नतीजों पर पहुँचना कठिन होता है। मौखिक वृत्तांतों के छोटे-छोटे अनुभवों से पूरी तस्वीर सामने नहीं आती। कई इतिहासकारों को लगता है कि मौखिक वृत्तांत सतही मुद्दों (Surfacial Issues) से संबंध रखते हैं और यादों में बने रहे छोटे-छोटे अनुभव इतिहास की बड़ी प्रक्रियाओं (Larger Processes) का कारण ढूँढ़ने में असफल होते हैं।

3. विभाजन के बारे में हमारी समझ का विस्तार-मौखिक इतिहास से विभाजन के बारे में हमारी समझ का विस्तार संभव है। मौखिक स्रोतों से इतिहासकारों को जन इतिहास को उजागर करने में मदद मिलती है। वे गरीबों और कमजोरों (जन सामान्य, स्त्रियों, बच्चों, दलितों आदि) के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से बाहर निकाल पाते हैं। ऐसा करके वे इतिहास जैसे विषय की सीमाओं को और फैलाने का अवसर प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए मौखिक स्रोत से हमने अब्दल लतीफ की भावनाएँ, थुआ गाँव की औरतों की कहानी व सद्भावनापूर्ण प्रयासों की कहानियों को जाना। डॉ० खुशदेव सिंह के प्रति कराची में गए मुसलमान अप्रवासियों की मनोदशा को समझ पाए। शरणार्थियों के द्वारा किए गए संघर्ष को भी मौखिक स्रोतों से समझा जा सकता है। इस प्रकार इस स्रोत से इतिहास में समाज के ऊपर के लोगों से आगे जाकर सामान्य लोगों की पड़ताल करने में सफलता मिलती है। सामान्यतः आम लोगों के वजूद को नज़र-अंदाज कर दिया जाता है या इतिहास में चलते-चलते ज़िक्र कर दिया जाता है। संक्षेप में, ये स्रोत हमें जन इतिहास को समझने में मदद प्रदान करते हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
दक्षिणी एशिया के नक्शे पर कैबिनेट मिशन प्रस्तावों में उल्लिखित भाग क, ख और ग को चिह्नित कीजिए। यह नक्शा मौजूदा दक्षिण एशिया के राजनैतिक नक्शे से किस तरह अलग है?
उत्तर:
संकेत-1947 से पूर्व के अविभाजित भारत के मानचित्र पर कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को दर्शाइए।
क समूह-संयुक्त प्रांत, मध्यप्रांत, बंबई, मद्रास, बिहार व उड़ीसा (हिंदू बहुल प्रांत)।
ख समूह-पंजाब, सिंध व उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (पश्चिम के मुस्लिम बहुल प्रांत)।
ग समूह-असम व बंगाल (पूर्व के मुस्लिम बहुल प्रांत)!

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
यूगोस्लाविया के विभाजन को जन्म देने वाली नृजातीय हिंसा के बारे में पता लगाइए। उसमें आप जिन नतीजों पर पहुँचते हैं उनकी तुलना इस अध्याय में भारत विभाजन के बारे में बताई गई बातों से कीजिए।
उत्तर:
प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूगोस्लाविया राज्य का उदय हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यहाँ कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। इसका 1990 में अंत हुआ। 1992 तक आते-आते यह देश पाँच स्वतंत्र राज्यों में विभाजित हो गया। इस क्षेत्र में नृजातीय हिंसा भी हुई। पाँच राज्य थे-यूगोस्लाविया (सर्विया व मॉनटेनेग्रो को मिलाकर), क्रोशिया, मैकेडोनिया, स्लोवेनिया व बोस्निया-हर्जेगोविना। परंतु बोस्निया-हर्जेगोविना में हिंसा समाप्त नहीं हुई। यहाँ के तीन समुदायों (सर्व, क्रोर व मुसलमान) में आपस में लड़ाई चलती रही। इससे वहाँ की जनता को भारी कष्ट झेलने पड़े हैं। भारत विभाजन में हिंदू, सिक्ख और मुसलमान समुदाय आपस में लड़े। फलतः लाखों लोग मारे गए व करोड़ के करीब लोग उजड़ गए। (भारत विभाजन की हिंसा व विस्थापन पर विस्तार से लिखें।)

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 12.
पता लगाइए कि क्या आपके शहर, कस्बे, गाँव या आस-पास के किसी स्थान पर दूर से कोई समुदाय आकर बसा है (हो सकता है आपके इलाके में बँटवारे के समय आए लोग भी रहते हों)। ऐसे समुदायों के लोगों से बात कीजिए और अपने निष्कर्षों को एक रिपोर्ट में संकलित कीजिए। लोगों से पूछिए कि वे कहाँ से आए हैं, उन्हें अपनी जगह क्यों छोड़नी पड़ी और उससे पहले व बाद में उनके कैसे अनुभव रहे। यह भी पता लगाइए कि उनके आने से क्या बदलाव पैदा हुए।
उत्तर:
संकेत-आपके शहर/कस्बे/गाँव में पाकिस्तान से आकर बसे पंजाबी समुदाय या सिक्ख समुदाय के लोगों का पता लगाइए और उनसे एक प्रश्नावली बनाकर उसके उत्तर जानिए। प्रश्नावली प्रश्न में दिए गए सवालों को शामिल कीजिए। अन्य प्रश्न भी डालें; जैसे वे यहाँ कब आए, पहले कहाँ आए, क्या व्यवसाय शुरू किया, अब आर्थिक स्थिति क्या है? आदि।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

HBSE 12th Class History महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
महात्मा गाँधी ने खुद को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए क्या किया?
उत्तर:
गाँधी जी ने स्वयं को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए अनेक बातें अपने जीवन में अपनाईं-सर्वप्रथम सामान्य जन की दशा को जानने के लिए 1915 में (अफ्रीका से आगे के बाद) सारे देश का भ्रमण किया। उन्होंने भारत में अपना सार्वजनिक फरवरी, 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में दिया। इस भाषण से स्पष्ट होता है कि वे आम जनता से जुड़ना चाहते थे। समारोह में बोलते हुए उन्होंने भारत के गरीबों, किसानों, मजदूरों की ओर ध्यान न देने पर भारतीय धनी और विशिष्ट वर्ग को लताड़ा। उन्होंने समारोह में धनी और सजे-सँवरे भद्रजनों की उपस्थिति और गरीब भारतीयों की अनुपस्थिति को लेकर चिंता प्रकट की।

गाँधी जी ने कहा कि, “हमारे लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग संपूर्ण लाभ स्वयं या अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर, न जमींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।” इस प्रकार गाँधी जी ने इस अवसर पर भारत के किसानों और मजदूरों को याद किया। असहयोग आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक जन-आंदोलन बना दिया था। किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने इसमें भाग लेना शुरू कर दिया था। गाँधी जी उनके प्रिय नेता बन गए थे। गाँधी जी के प्रति आदर व्यक्त करते हुए लोग उन्हें अपना ‘महात्मा’ कहने लगे।

गाँधी जी ने अपनी जीवन-शैली में भी बदलाव किया। गाँधी जी आम लोगों की तरह वस्त्र पहनते थे वे उन्हीं की तरह रहते थे। वे जन-सामान्य की भाषा बोलते थे। गाँधी जी दूसरे नेताओं की तरह जनसमूह से अलग खड़े नहीं होते थे, बल्कि वे उनसे गहरी सहानुभूति रखते थे और उनसे घनिष्ठ संबंध भी बनाते थे। उल्लेखनीय है कि 1921 में दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान गाँधी जी ने अपना सिर मुंडवा लिया था और गरीबों के साथ अपना तादात्म्य (Identity) स्थापित करने के लिए सूती वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे। इस प्रकार उनके वस्त्रों से जनता के साथ उनका नाता झलकता था।

प्रश्न 2.
किसान महात्मा गाँधी जी को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ की जनसंख्या के अधिकांश लोग किसान थे। किसानों में असहयोग आंदोलन के बाद गाँधी जी, ‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराजा’ अथवा सामान्य ‘महात्मा जी’ जैसे नामों से लोकप्रिय हुए। किसान उन्हें अपने उद्धारक के रूप में देखते थे। किसानों का मानना था कि महात्मा गाँधी उन्हें लगान की कठोर दरों और अंग्रेज़ अधिकारियों के जुल्मों से बचा सकते हैं। वे उनके मान-सम्मान की रक्षा कर सकते हैं और उन्हें उनकी स्वायत्तता दिला सकते हैं। भारत की गरीब जनता विशेष तौर पर किसान गाँधी जी की सात्विक जीवन-शैली और उनके द्वारा अपनाई गई धोती तथा चरखा जैसी चीजों से अत्यधिक प्रभावित थे। गाँधी जी ने स्वयं एक व्यापारी और पेशे से वकील होने पर भी यह सादी जीवन-शैली अपनाई थी तथा नित्य चरखा कातने जैसे हाथ के काम के प्रति उनका लगाव था। उनमें गरीब श्रमिकों के प्रति गहरी सहानुभूति थी। वे उनके जीवन की दशा को बदलना चाहते थे।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि गरीब लोग भी गाँधी जी में आस्था व सहानुभूति रखते थे व दूसरे नेता गरीबों को कृपा की दृष्टि से देखते थे। गाँधी जी न केवल उनके जैसा दिखते थे, बल्कि वे गरीब किसानों, मजदूरों को अच्छी प्रकार से समझना चाहते थे तथा स्वयं को उनके जीवन के साथ जोड़कर उनका उत्थान करना चाहते थे। वस्तुतः किसानों में गाँधी जी की जनछवियों में यह मान्यता बन रही थी कि राजा ने उन्हें किसानों के कष्टों को दूर करने तथा उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए भेजा है और उनके पास इतनी शक्ति थी कि वे सभी अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकृत कर सकते थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

प्रश्न 3.
नमक कानून स्वतंत्रता संघर्ष का महत्त्वपूर्ण मुद्दा क्यों बन गया था?
उत्तर:
नमक हमारे राष्ट्र की संपदा थी जिस पर विदेशी सरकार ने शोषण करने के लिए एकाधिकार जमा लिया था। यह कानून द्वारा स्थापित एकाधिकार भारतीय जनता के लिए एक अभिशाप के समान था। जन-सामान्य तथा प्रत्येक भारतीय से जुड़े हुए इस कानून को गाँधी जी ने अंग्रेज़ शासन के विरोध प्रतीक के रूप में चुना। शीघ्र ही यह मुद्दा, नमक कानून, स्वतंत्रता संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया। . नमक कानून के चुनाव के निम्नलिखित कारण थे

1. यह कानून भारत में सर्वाधिक घृणित कानून था। इसके अनुसार हमारे देश में नमक के उत्पादन और बेचने पर राज्य का एकाधिकार था।

2. भारतीय विशेषतः जन-साधारण इस कानून को घृणा की नजर से देखते थे। प्रत्येक घर में नमक भोजन में अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाता था, परंतु सरकार ने लोगों के घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने पर प्रतिबंध लगा रखा था। इस कारण सभी को ऊँचे मूल्यों पर दुकानों से नमक खरीदना पड़ता था।

3. जहाँ एक ओर सरकार जनता को नमक उत्पादन से रोकती, वहीं नमक अनेक स्थानों पर बिना श्रम के प्राकृतिक रूप से तैयार होता था। उसे सरकार नष्ट कर देती थी। यह एक प्रकार से राष्ट्र की संपत्ति को नष्ट करना था। इस बात से गाँवों के लोग भी परिचित थे।

4. नमक उत्पादन पर राज्य का एकाधिकार लोगों को बहुमूल्य सुलभ ग्राम उद्योग से वंचित करना था।

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के लिए अखबार महत्त्वपूर्ण स्रोत क्यों हैं?
उत्तर:
19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के प्रारंभ तक भारत में अनेक भाषाओं में अखबार प्रकाशित होने लगे थे। इनमें से बहुत से समाचार-पत्र अब भी पुस्तकालयों व अभिलेखागारों में सुरक्षित हैं। इन अखबारों में राष्ट्रीय घटनाओं, राष्ट्रीय नेताओं के भाषणों, सरकार की नीतियों तथा जन-सामान्य की दशा पर टिप्पणियाँ और लेख प्रकाशित होते थे। इस रूप में ये अखबार राष्ट्रीय आंदोलन को समझने तथा इसका अध्ययन करने के लिए इतिहासकारों के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं

1. इनमें राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी सभी घटनाओं का विवरण मिल जाता है।

2. इन समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं (राष्ट्रीय, प्रांतीय, स्थानीय स्तर के) के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
3. इन अखबारों से राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति ब्रिटिश सरकार के रुख का भी पता लगता है।
4. ये अखबार महात्मा गाँधी की गतिविधियों पर नजर रखते थे तथा उनसे संबंधित समाचारों को विशेषतः जन-आंदोलनों से जुड़े समाचारों को प्रमुखता से छापते थे। इनसे गाँधी जी व उनके जन-आंदोलन के स्वरूप का पता चलता है।
5. जनता की राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी के अध्ययन के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। लेकिन इनके अध्ययन में भी सावधानी की जरूरत होती है। इसके लिए विशेषतः हमें दो बातों का ध्यान रखना चाहिए

समाचारों का संकलन एवं रिपोर्टिंग किसी अखबार के लिए, उसके संवाददाता करते हैं। इसलिए संवाददाता की भाषा, उसकी समझ व विचार से यह निर्धारित हुआ है कि उसे गाँधी जी की कौन-सी बात सबसे अहम् लगी, जिसे उसने अखबार में छपने के लिए भेजा होगा।

संकलित समाचारों को संपादक फिर काट-छाँट करके (यानी संपादित करके) प्रकाशित करता है। यहाँ संपादक की समझ और दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण था। उदाहरण के लिए गाँधी जी के विचारों से सहमति और मतभेद रखने वाले संपादकों ने गाँधी जी के भाषणों/वक्तव्यों को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया। किसी ने निंदा करते हुए छापा तो किसी ने प्रशंसा करते हुए सरकार समर्थक व सरकार विरोधी समाचार-पत्रों की रिपोर्टिंग एक-जैसी नहीं थी। लंदन से निकलने वाले समाचार-पत्रों के विवरण भारतीय राष्ट्रवादी समाचार-पत्रों के छपने वाले विवरणों से अलग हैं।

प्रश्न 5.
चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक क्यों चुना गया?
उत्तर:
चरखा जन-सामान्य से संबंधित था और स्वदेशी व आर्थिक प्रगति का प्रतीक था। अतः गाँधी जी ने इसे राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में चुना। गाँधी जी स्वयं प्रतिदिन अपना कुछ समय चरखा चलाने में व्यतीत करते थे। वे अन्य सहयोगियों को भी चरखा चलाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। वे आधुनिक युग के आलोचक थे, जिसमें मशीनों ने मानव को गुलाम बनाकर श्रम को हटा दिया था। गाँधी जी का मानना था कि चरखा गरीबों को पूरक आमदनी प्रदान कर सकता था तथा उन्हें स्वावलंबी बना सकता था। वे मशीनों के प्रति सनक के आलोचक थे।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 13 Img 1
वस्तुतः चरखा स्वदेशी तथा राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया। पारंपरिक भारतीय समाज में सूत कातने के काम को अच्छा नहीं समझा जाता था। गाँधी जी द्वारा सूत कातने के काम ने मानसिक श्रम एवं शारीरिक श्रम की खाई को कम करने में भी सहायता की। * निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध कैसे था?
उत्तर:
असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध था यह बात दो तरह से स्पष्ट होती है। प्रथम, अगर हम इसके कारणों पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट होता है कि यह औपनिवेशिक सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष था। दूसरा, आंदोलन के स्वरूप तथा जन-सामान्य की भागीदारी से भी यह स्पष्ट है कि आंदोलन लोगों के प्रतिरोध को भी अभिव्यक्त कर रहा था। आंदोलन के कारणों तथा जनभागीदारी का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

A. कारण :
1. प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव (Effects of the First World War)-प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। युद्धकाल में भारत का कर्ज 411 करोड़ से 781 करोड़ हो गया। अनाज महँगा हो गया। वस्तुओं के दाम बढ़ गए। अनाज व कपड़े में कमी आ गई। युद्ध के बाद सरकार ने सैनिकों व मजदूरों की छंटनी कर दी। साथ ही अकाल-प्लेग से लगभग 120-130 लाख लोग मारे गए। इन सब परिस्थितियों से जन-असंतोष पनपा।

2. रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act)-विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिए थे और किसी भी व्यक्ति को शक के आधार पर जेल में डाला जा सकता था। युद्ध के बाद भी सरकार ने रॉलेट एक्ट पास किया। भारतीयों ने इसका विरोध किया। इसे काला कानून (Black Act) करार दिया गया। साधारण लोगों के लिए इस एक्ट का अर्थ था, “कोई वकील नहीं, कोई दलील नहीं, कोई अपील नहीं।”
गाँधी जी ने देशभर में एक्ट के खिलाफ अभियान चलाने का निश्चय किया। एक्ट के विरोध में पहले 30 मार्च तथा बाद में 6 अप्रैल, 1919 को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया।

3. जलियाँवाला बाग हत्याकांड (Jallianwala Bagh Massacre)-गाँधी जी के सत्याग्रह शुरू करने पर पंजाब से भारी समर्थन मिला। 30 मार्च व 6 अप्रैल को अमृतसर में हड़ताल हुई। सरकार ने दमन का सहारा लिया। स्थानीय नेताओं-डॉ० सत्यपाल और डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया। लोग उत्तेजित हो गए। 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग में 20 हज़ार लोग एकत्रित हुए। इस पर जनरल डायर ने बिना चेतावनी के (रास्ता रोककर) गोली चलाने के आदेश दे दिए। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 379 लोग मारे गए। जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने सारे देश को स्तब्ध कर दिया।

4. खिलाफत आंदोलन–प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की का खलीफा हार गया तथा 1920 में उसके साथ अपमानजनक संधि की गई। भारतीय मुसलमानों में इससे असंतोष था। उन्होंने मुहम्मद अली और शौकत अली के नेतृत्व में अंग्रेज सरकार विरोधी और खलीफा के समर्थन में आंदोलन चलाया। गाँधी जी ने खिलाफ़त मुद्दे पर अपना सहयोग दिया। गाँधी जी हिंदू-मुस्लिम एकता को स्वराज की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे।

B. आंदोलन की प्रगति (Progress of Mass-Movement)-असहयोग आंदोलन ने शीघ्र ही जन-आंदोलन का रूप धारण कर लिया। आंदोलन शुरू करते हुए गाँधी जी ने स्वयं ‘केसरी-ए-हिंद’ की उपाधि तथा अन्य पदों का परित्याग कर दिया। टैगोर ने ‘नाइट हुड’ की उपाधि त्याग दी। अनेक अन्य लोगों ने भी अपनी उपाधियाँ और पदवियाँ त्याग दी। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालतों में जाना छोड़कर आंदोलन में भाग लिया।

सरकारी कोर्ट के स्थान पर राष्ट्रीय पंचायती अदालतों की स्थापना हुई। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान; जैसे काशी विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, अलीगढ़ विद्यापीठ, जामिया मिलिया आदि स्थापित हुईं। कई कस्बों और नगरों में मजदूरों ने हड़तालें कीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन् 1921 में 396 हड़तालें हुईं जिनमें 6 लाख मज़दूर शामिल हुए तथा 70 लाख कार्य दिवसों (Working Days) का नुकसान हुआ। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार काफी उत्साहवर्धक रहा। हिंदू-मुस्लिम एकता का व्यापक प्रदर्शन हुआ। चुनावों का बहिष्कार हुआ।

देहातों में आंदोलन फैलने लगा। आंध्र प्रदेश में जनजातियों ने वन कानून की अवहेलना कर दी। राजस्थान में किसानों और जनजातियों ने आंदोलन किया। अवध में किसानों ने कर नहीं चुकाया। आसाम-बंगाल रेलवे के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। पंजाब में गुरुद्वारा आंदोलन शुरू हुआ। यद्यपि नवंबर, 1921 में बंबई में प्रिंस ऑफ वेल्स के बहिष्कार के समय हिंसा हुई थी तथापि दिसंबर, 1921 में (आंदोलन में उत्साह को देखते हुए) गाँधी जी को अधिकार दिया गया कि वे सविनय अवज्ञा आंदोलन छेडे, परंतु फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा घटना के बाद आंदोलन स्थगित कर दिया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध करना था। इस प्रतिरोध में जन-सामान्य ने पहली बार व्यापक पैमाने पर भाग लिया।

प्रश्न 7.
गोलमेज सम्मेलन में हुई वार्ता से कोई नतीजा क्यों नहीं निकल पाया?
उत्तर:
1930 से 1932 की अवधि में ब्रिटिश सरकार ने भारत की समस्या पर बातचीत करने तथा नया एक्ट पास करने के लिए लंदन में तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए, परंतु इन सम्मेलनों में किसी मुद्दे पर आम राय नहीं बन पाई। फलतः इन सम्मेलनों में कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय न हो सका। तीनों सम्मेलनों की कार्रवाई का संक्षिप्त ब्यौरा अग्रलिखित प्रकार से है

1. प्रथम गोलमेज सम्मेलन इसका आयोजन 12 नवंबर, 1930 को हुआ। इसका उद्देश्य साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार-विमर्श करना था। इस समय काँग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया हुआ था। अतः उसने इसका बॉयकाट किया। इसके प्रमुख नेताओं को सरकार ने पहले ही जेलों में डाला हुआ था। सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई। फलतः यह सम्मेलन असफल रहा।

2. दूसरा गोलमेज सम्मेलन–प्रथम गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद सरकार ने काँग्रेस को अगले सम्मेलन में शामिल करने का प्रयास किया। फलतः गाँधी-इर्विन समझौता हुआ। काँग्रेस ने सम्मेलन में भाग लेने का फैसला किया।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 13 Img 2
काँग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए सितंबर, 1931 में लंदन पहुँचे। मुहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि के तौर पर सम्मेलन में शामिल हुए। सम्मेलन में गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी बताया, परंतु गाँधी जी के इस दावे को तीनों तरफ से चुनौती दी गई। मुस्लिम लीग ने दावा किया कि वह भारत में मुस्लिम हितों के लिए काम करने वाली एकमात्र पार्टी है। भारतीय राज्यों (Indian States) के शासकों का कहना था कि उनके क्षेत्रों पर काँग्रेस का कोई अधिकार नहीं है और न ही वह इन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। महान् विद्वान और विधिवेत्ता डॉ० बी०आर० अंबेडकर ने भी गाँधी जी के दावे को चुनौती देते हुए जोर देकर कहा कि काँग्रेस निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। डॉ० अम्बेडकर ने हरिजन वर्ग के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग रखी। गाँधी जी ने इस माँग का विरोध किया। सांप्रदायिक समस्या को लेकर सम्मेलन में एक राय नहीं बन पाई। इस कारण दूसरा गोलमेज सम्मेलन बिना किसी नतीजे पर पहुँचे ही समाप्त हो गया।

3. 17 नवंबर, 1932 को तीसरा सम्मेलन आयोजित किया गया। इसका इंग्लैंड के ही मज़दूर दल ने बहिष्कार किया। भारत में काँग्रेस ने पुनः आंदोलन छेड़ दिया था। अतः काँग्रेस ने भी इसका बहिष्कार किया। इसमें केवल 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इनमें से अधिकतर ब्रिटिश सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाले थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन सम्मेलनों की वार्ताओं से कोई महत्त्वपूर्ण नतीजा नहीं निकला। हाँ, ब्रिटिश सरकार ने स्वयं ही कुछ निर्णय लिए। सम्मेलनों पर श्वेत-पत्र छापा तथा 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया।

प्रश्न 8.
महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को किस तरह बदल डाला?
उत्तर:
भारतीय राजनीति में प्रवेश से पूर्व गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जातीय भेदभाव के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी थी। दक्षिण अफ्रीका के आंदोलनों में ही उन्होंने अपने सत्याग्रह के अनूठे राजनीतिक शस्त्र का सफल प्रयोग किया। दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष में यह भी जाना कि जन-सामान्य में संघर्ष तथा बलिदान की अदम्य क्षमता होती है। 1915 में भारत आने पर उन्होंने सारे भारत का दौरा किया। 1917-18 में उन्होंने स्थानीय आंदोलनों-चंपारन, अहमदाबाद व खेड़ा में सत्याग्रह का सफल परीक्षण किया। 1920 से काँग्रेस का नेतृत्व गाँधी जी के हाथों में आ गया। अपने नेतृत्व में गाँधी जी ने अपनी नीतियों, विचारों, कार्यक्रमों और जन-आंदोलनों द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को बहुत हद तक बदल दिया। अब इसे वास्तव में जन-आंदोलन का स्वरूप प्राप्त हुआ।

A. गाँधी जी का तरीका और विचार

1. सत्याग्रह (Satyagraha)-गाँधी जी के राजनीतिक विचारों और उनके दर्शन का केंद्र बिंदु सत्याग्रह है। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। यह विरोध करने का अहिंसात्मक मार्ग था। जन-आंदोलन के लिए इसके कई रूप हो सकते थे; जैसे हड़ताल, प्रार्थना सभा, उपवास, धरना, असहयोग, कानून की अवज्ञा (नागरिक अवज्ञा), पद-यात्रा आदि।

2. अहिंसा (Ahimsa)-सत्याग्रह दो प्रमुख सिद्धांतों पर टिका था- सत्य और अहिंसा। इसलिए गाँधी जी ने संघर्ष में सत्य के साथ-साथ अहिंसा और अहिंसात्मक तरीकों पर बल दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि सशस्त्र हमले का भी सत्याग्रह द्वारा विरोध किया जा सकता है।

3. लोक शक्ति में विश्वास (Faith in the Masses)-गाँधी जी की जन-शक्ति में अटूट श्रद्धा थी। उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन जन-आंदोलन बन गया। वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष ने गाँधी जी को जन-शक्ति में विश्वास करना सिखाया। उन्हें वहाँ पर गरीब मजदूरों का नेतृत्व करने का मौका मिला। वे उन लोगों की बलिदान करने की क्षमता व साहस को देखकर अचंभित हुए। यह अति महत्त्वपूर्ण बात थी कि उन्होंने गरीब और अनपढ़ लोगों को सत्याग्रह और अहिंसा का पाठ पढ़ाया और अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन चलाया।

4. साधन और साध्य की श्रेष्ठता में विश्वास (Faith in the Purity of Means and Objects)-गाँधी जी साधन और साध्य की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे। देश में स्वराज की स्थापना ही उनका लक्ष्य था और इस पवित्र लक्ष्य की प्राप्ति को वह सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर प्राप्त करना चाहते थे।

B. गाँधी जी और काँग्रेस का विस्तार (Gandhiji and Expansion of the Congress)-गाँधी जी ने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को सच्चे मायनों में जन आधार वाला संगठन बनाया। उन्होंने इसके लिए सावधानीपूर्वक काँग्रेस का पुनर्गठन किया। भारत के विभिन्न भागों में काँग्रेस की नई शाखाएँ खोली गईं। ग्राम स्तर की काँग्रेस कमेटियाँ भी बनाई गईं। राष्ट्रवादी संदेश को फैलाने के लिए मातृभाषा का प्रयोग करना तय किया गया। इसके साथ ही काँग्रेस की प्रांतीय समितियों का भाषायी क्षेत्रों के आधार पर पुनर्गठन किया गया। काँग्रेस का दिन-प्रतिदिन का कार्य देखने के लिए काँग्रेस कार्य समिति (CWC) का गठन किया गया।

B. रचनात्मक कार्य (Constructive Work)-जन-सामान्य को राष्ट्रीय आंदोलन में लाने में उनके रचनात्मक कार्य की अहम् भूमिका है। रचनात्मक कार्यों को मुख्यतः खादी व चरखा कातना, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, हिंदू-मुस्लिम एकता, हरिजन कल्याण, महिला उत्थान जैसे कार्यक्रमों के रूप में संगठित किया। फरवरी, 1924 में जेल से रिहा होने पर गाँधी जी ने अपना सारा ध्यान रचनात्मक कार्यों पर लगाया। उन्होंने खादी को बढ़ावा देने तथा छुआछूत को समाप्त करने पर ध्यान दिया। वे भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। वस्तुतः रचनात्मक कार्यक्रम उनकी व्यापक रणनीति का हिस्सा थे। सक्रिय आंदोलन के अभाव में कार्यकर्ताओं में उत्साह बनाए रखने तथा सत्याग्रह में समर्पण के भाव पैदा करने में ये कार्यक्रम अति महत्त्व के थे। इससे भविष्य के आंदोलन को बड़ी संख्या में सत्याग्रही मिले थे।

C. तीन बड़े जन-आंदोलन-गाँधी जी ने 1920 से 1945 के मध्य तीन बड़े आंदोलन अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ चलाए। इन आंदोलनों में भारतीय जनता के सभी वर्गों ने भाग लिया। इन जन-आंदोलनों ने ही राष्ट्रीय आंदोलन को सही मायने में राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। इन आंदोलनों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. असहयोग आंदोलन-अगस्त, 1920 में आंदोलन शुरू करते हुए गाँधी जी ने स्वयं ‘केसरी-ए हिंद’ की उपाधि तथा अन्य पदों का परित्याग कर दिया। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालतों में जाना छोड़कर आंदोलन में भाग लिया। इनमें प्रमुख थे सी०आर०दास, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, पटेल राजा जी, राजेन्द्र प्रसाद, आसफ अली आदि।

सरकारी कोर्ट के स्थान पर राष्ट्रीय पंचायती अदालतों की स्थापना हुई। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान जैसे काशी विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, अलीगढ़ विद्यापीठ, जामिया मिलिया आदि स्थापित हुए। कई कस्बों और नगरों में मजदूरों ने हड़तालें कीं। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार काफी उत्साहवर्धक रहा। हिंदू-मुस्लिम एकता का व्यापक प्रदर्शन हुआ। चुनावों का बहिष्कार हुआ। देहातों में आंदोलन फैलने लगा। आंध्र प्रदेश में जनजातियों ने वन कानून की अवहेलना कर दी। राजस्थान में किसानों और जनजातियों ने आंदोलन किया। अवध में किसानों ने कर नहीं चुकाया। आसाम-बंगाल रेलवे के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। पंजाब में गुरुद्वारा आंदोलन चला। नवंबर, 1921 में बंबई में प्रिंस ऑफ वेल्स का बहिष्कार हुआ, परंतु 1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद आंदोलन स्थगित कर दिया गया। इस आंदोलन ने 1857 के बाद पहली बार अंग्रेज़ी राज की नींव को हिलाया।

2. सविनय अवज्ञा आंदोलन-12 मार्च, 1930 को आंदोलन की शुरूआत गाँधी जी ने दांडी मार्च से की। उनके द्वारा नमक कानून तोड़ने के साथ ही यह आंदोलन सारे देश में फैल गया। राजगोपालाचारी ने त्रिचिनापल्ली से तंजौर तक यात्रा करके नमक सत्याग्रह किया। सरोजिनी नायडू ने 2000 सत्याग्रहियों के साथ धरासान में आंदोलन किया। मालाबार व सिलहट में भी ऐसे आंदोलन हुए। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने अनुयायी खुदाई खिदमतगार (Servant of God) के साथ आंदोलन की अगुवाई की। पेशावर में सत्याग्रहियों पर गढ़वाल सैनिकों ने गोली चलाने से मना कर दिया। मध्य प्रांत, कर्नाटक व महाराष्ट्र में लोगों ने ‘जंगल कानून’ का उल्लंघन किया। उत्तर प्रदेश में किसानों ने लगान देने से मना किया। शोलापुर में मजदूरों ने जोरदार हड़ताल की। वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया। विद्यार्थियों ने बड़ी संख्या में सरकारी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया। बड़े पैमाने पर विदेशी वस्त्रों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन आयोजित हुए। महिलाओं ने आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया।

सरकारी दमन इस आंदोलन के जवाब में सरकार ने दमन चक्र चलाया। नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया। गाँधी जी को भी हिरासत में ले लिया गया। 1930 ई० तक लगभग 90 हज़ार लोग जेलों में थे। काँग्रेस को गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया गया। अखबारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पुलिस द्वारा निहत्थे सत्याग्रहियों और औरतों पर लाठियाँ बरसाना, गोली चलाना तथा प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करना आम बात थी। 1931 में गाँधी-इर्विन समझौते के बाद आंदोलन स्थगित किया गया तथा गाँधी जी ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया परंतु इसका कोई नतीजा नहीं निकला। अतः आंदोलन पुनः शुरू किया गया। आंदोलन 1934 में स्थगित कर दिया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

3. भारत छोड़ो आंदोलन-दूसरे विश्वयुद्ध के मुद्दे पर सरकार व काँग्रेस में गतिरोध पैदा हो गया था। अंग्रेज़ सरकार युद्ध के बाद भी भारत को स्वतंत्रता नहीं देना चाहती थी। अंततः 8 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। उन्होंने ‘करो या मरो’ का नारा दिया। सरकार ने गाँधी जी व अन्य बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 9 अगस्त से 13 अगस्त तक सारे देश में प्रमुख नगरों; जैसे बंबई, अहमदाबाद, दिल्ली, पुणे, इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी, पटना आदि पर व्यापक उपद्रव हुए, हड़तालें हुईं एवं प्रदर्शन हुए। सरकारी प्रतीकों पर हमले हुए।

संचार साधनों, सेना और पुलिस के खिलाफ तोड़-फोड़ और विध्वंस किए गए। छात्रों ने शहरों से आकर कृषक विद्रोहों को नेतृत्व प्रदान किया। इस दौर में अनेक स्थानों पर अंग्रेजी राज समाप्त हो गया तथा उन स्थानों पर समानांतर राष्ट्रीय सरकारों की स्थापना हुई। इनमें तमलुक (मिदनापुर), तलचर (उड़ीसा), सतारा (महाराष्ट्र), बलिया (पूर्वी संयुक्त प्रांत) की राष्ट्रीय सरकारें प्रमुख थीं। इसके बाद भूमिगत आंदोलन चला। इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे–जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अचुत्य प्रवर्धन, अरुणा आसफ अली आदि। आंदोलन आतंकवादी गतिविधियों और छापामार संघर्षों से चलाया गया।

सरकारी दमन-आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने क्रूरता और जंगलीपन की सभी सीमाओं को तोड़ दिया। निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं। सेना ने हवाई जहाजों से गोलियाँ बरसाईं। मशीनगनों का प्रयोग किया गया। अनेक गाँवों को जलाकर राख कर दिया गया।

निष्कर्ष-स्पष्ट है कि गाँधी जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन विश्व का सबसे बड़ा आंदोलन बन गया। उन्होंने अहिंसात्मक तरीके से आंदोलन चलाया जो विश्व में अपने प्रकार का अनूठा आंदोलन था। उन्होंने अपने विचारों, कार्यक्रमों व आंदोलनों से राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को नई दिशा प्रदान की।

प्रश्न 9.
निजी पत्रों और आत्मकथाओं से किसी व्यक्ति के बारे में पता चलता है? ये स्रोत सरकारी ब्यौरों से किस तरह भिन्न होते हैं?
उत्तर:
1. निजी पत्र (Private Letterts)-निजी पत्र में व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार तथा दैनिक डायरी इत्यादि से महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसमें प्रायः वे बातें भी मिल जाती हैं जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं किया गया होता। निजी पत्रों में बहुत-सी अन्य बातों के अतिरिक्त लिखने वाले की पीड़ा, आक्रोश, बेचैनी और असंतोष, आशा और हताशा इत्यादि की झलक भी मिल जाती है। राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में निजी पत्राचार में ऐसे कितने ही उदाहरण मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए 1936 के वर्ष के कुछ पत्रों को ले सकते हैं जो राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू और गाँधी जी द्वारा लिखे गए।

इन पत्रों से स्पष्ट होता है कि काँग्रेस में रूढ़िवादियों और समाजवादियों के बीच एक खाई पैदा हो गई थी। नेहरू जी 1928 में यूरोप से लौटने के बाद से ही समाजवादी विचारों से प्रभावित थे। 1936 में काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद वे किसान-मजदूरों के समर्थन में तथा विश्व में पैदा हो रहे फासीवाद के खिलाफ जमकर बोले। नेहरू जी का यह व्यवहार रूढ़िवादियों के लिए असहनीय हो गया। यहाँ तक कि राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल सहित काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सात सदस्यों ने त्याग-पत्र की धमकी तक दे डाली थी। इसके बाद सरदार पटेल और नेहरू जी दोनों वर्धा में गाँधी जी से मिले। गाँधी जी ने अंततः बीच-बचाव करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन को पहले की तरह एक बार फिर बिखरने से बचा लिया।

निजी लेखन की सीमाएँ (Limits of Private Writing) –निजी लेखन की भी अपनी कुछ सीमाएँ होती हैं। यद्यपि यह व्यक्तिगत लेखन होता है लेकिन कई बार इसमें भी निजी और सार्वजनिक की सीमा खत्म हो जाती है। निजी पत्र या डायरी लिखते समय भी लोगों को यह अहसास रहता है कि संभवतः यह भी प्रकाशित हो सकते हैं। इसी अहसास से बहुत बार इन पत्रों की भाषा और विचारों की सीमाएँ तय होती हैं। उल्लेखनीय है कि गाँधी जी के पास जो पत्र आते थे उन्हें वह अपने हरिजन समाचार-पत्र में प्रकाशित करते रहते थे। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि नेहरू जी ने भी अपने पुराने पत्रों को पुस्तक के रूप में सार्वजनिक किया। अतः निजी लेखन का भी अध्ययन सावधानीपूर्वक करना चाहिए। उनके महत्त्व और सीमाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

2. आत्मकथाएँ (Autobiographies)-एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत है आत्मकथाएँ जिनमें मानवीय गतिविधियों का विविध विवरण मिलता है। वस्तुतः यह व्यक्ति के संपूर्ण जीवनकाल, जन्मस्थान, परिवार की पृष्ठभूमि, शिक्षा, वैचारिक प्रभाव, जीवन में कठिनाइयों का उतार-चढ़ाव, प्रमुख घटनाओं आदि से जुड़ी होती हैं। आत्मकथाओं में व्यक्ति की रुचियों और प्राथमिकताओं का भी पता लगता है। इससे व्यक्ति के बौद्धिक स्तर तथा जीवन में सत्यनिष्ठ होने का भी पता लगता है। गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा का नाम ही ‘सत्य के साथ मेरे अनुभव’ रखा।
लेकिन आत्मकथा के लेखन को भी आँख मूंद कर स्वीकार नहीं किया जा सकता। विशेषतः इन्हें पढ़ते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए

  1. आत्मकथाएँ प्रायः स्मृति के आधार पर लिखी जाती हैं। अतः इनसे पता चलता है कि लेखक को क्या याद रहा था या फिर उसने क्या याद रखा।
  2. आत्मकथा में प्रायः लेखक वह ही लिखता है जिससे वह स्वयं को दूसरों की नज़रों में दिखाना चाहता है।
  3. आत्मकथा वस्तुतः एक तरह से अपनी छवि गढ़ने (पिक्चर बनाने) के समान होती है। इसमें अकसर लोग अपनी कमियों को इच्छा या अनिच्छा से छुपाने का प्रयास करते हैं।
  4. आत्मकथा पढ़ते समय हमें उन बातों या चुप्पियों को ढूँढना चाहिए जिन्हें लेखक ने इच्छा या अनिच्छा से अभिव्यक्त नहीं किया होता।

3. सरकारी ब्यौरे से भिन्नता-निजी पत्र और आत्मकथाएँ इतिहास के स्रोत के रूप में सरकारी ब्यौरों से पूरी तरह से भिन्न हैं। सरकार राष्ट्रीय आंदोलन और इसके नेताओं पर कड़ी नजर रखती थी। पुलिस और सी०आई०डी० के द्वारा इन पर पाक्षिक रिपोर्ट तैयार की जाती थी। यह ब्यौरा गुप्त रखा जाता था। इन रिपोर्टों को तैयार करने वाले सरकार और स्वयं अपने पूर्वाग्रहों, नीतियों दृष्टिकोण आदि से प्रभावित होते थे। इसके विपरीत निजी पत्रों में दो व्यक्तियों के मध्य आपसी विचारों का आदान-प्रदान और निजी स्तर पर जुड़ी बातों का विवरण होता था। स्पष्ट है कि इन दोनों प्रकार के स्रोतों के विवरण की विशेषता तथा प्रकृति भिन्न होती है।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
दांडी मार्च के मार्ग का पता लगाइए। गुजरात के नक्शे पर इस यात्रा के मार्ग को चिह्नित कीजिए और उस पर पड़ने वाले मुख्य शहरों व गाँवों को चिह्नित कीजिए।
उत्तर:
संकेत-दांडी मार्च; साबरमती आश्रम अहमदाबाद से शुरू हुआ तथा बड़ोदरा, सूरत आदि से होता हुआ समुद्र तट पर स्थित दांडी पहुँचा।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
दो राष्ट्रवादी नेताओं की आत्मकथाएँ पढ़िए। देखिए कि उन दोनों में लेखकों ने अपने जीवन और समय को किस तरह अलग-अलग प्रस्तुत किया है और राष्ट्रीय आंदोलन की किस प्रकार व्याख्या की है। देखिए कि उनके विचारों में क्या भिन्नता है। अपने अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
संकेत-अपने प्राध्यापक से गाँधी जी व नेहरू जी की आत्मकथा के संबंध में जानकारी प्राप्त कर स्वयं रिपोर्ट लिखें।

प्रश्न 12.
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान घटी कोई एक घटना चुनिए। उसके विषय में तत्कालीन नेताओं द्वारा लिखे गए पत्रों और भाषणों को खोज कर पढ़िए। उनमें से कुछ अब प्रकाशित हो चुके हैं। आप जिन नेताओं को चुनते हैं उनमें से कुछ आपके इलाके के भी हो सकते हैं। उच्च स्तर पर राष्ट्रीय नेतृत्व की गतिविधियों को स्थानीय नेता किस तरह देखते थे इसके बारे में जानने की कोशिश कीजिए। अपने अध्ययन के आधार पर आंदोलन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
सविनय अवज्ञा आंदोलन की दांडी मार्च से जुड़ी घटना पर सरकार की गोपनीय रिपोर्ट से स्थानीय नेताओं के विचारों को जाना जा सकता है। कुछ रिपोर्टों के अंश प्रस्तुत हैं मार्च, 1930 के पहले पखवाड़े की रिपोर्ट के कुछ अंश पढ़ें-गुजरात-इस प्रांत की राजनीतिक परिस्थितियों पर किस हद तक और क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अभी अंदाजा लगाना मुश्किल है। रबी की फसल अच्छी हुई है इसलिए फिलहाल किसान फसलों की कटाई में व्यस्त हैं। विद्याथी आने वाली परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हैं।

मद्रास-गाँधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने से बाकी मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं। आम लोग उनकी यात्रा को नाटकीय और उनके कार्यक्रम को अव्यावहारिक मानते हैं क्योंकि हिंदू जनता उन्हें अगाध श्रद्धा की दृष्टि से देखती है, इसलिए गिरफ्तारी की संभावना, जिसके बारे में वे खुद बहुत उत्सुक हैं और उसके राजनीतिक प्रभावों के बारे में बहुत-सी गलतफहमियाँ हैं।

बंगाल-गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत विगत पखवाड़े की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना रही। श्री जे०एम० सेनगुप्ता ने अखिल बंगाल सविनय अवज्ञा परिषद् का गठन किया है। बंगाल प्रांतीय काँग्रेस कमेटी ने अखिल बंगाल अवज्ञा परिषद् बनाई है। इन परिषदों के गठन के अलावा बंगाल में सविनय अवज्ञा के प्रश्न पर और कोई सक्रिय कदम अभी नहीं उठाया गया है। जिलों से मिली रिपोर्टों से पता चलता है कि जो बैठकें आयोजित की गईं उनमें लोगों ने कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया और आम जनता पर कोई गहरा असर नहीं छोड़ा है। गौरतलब बात यह है कि इन बैठकों में महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

बंबई-केसरी प्रेस ने आक्रामक भाषा और हमेशा की तरह आग उगलने के अंदाज में लिखा है “अगर सरकार सत्याग्रह की ताकत परखना चाहती है तो उसे पता होना चाहिए कि सत्याग्रह की सक्रियता और निष्क्रियता, दोनों से सरकार को ही नुकसान पहुँचेगा। यदि सरकार गाँधी जी को गिरफ्तार करती है तो उसे राष्ट्र के कोप का भाजन बनना पड़ेगा और यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो सविनय अवज्ञा आंदोलन फैलता जाएगा। इसलिए हमारा मानना है कि अगर सरकार श्री गाँधी को दंडित करती है तो भी राष्ट्र की विजय होगी और अगर सरकार उन्हें अपने रास्ते पर चलने देती है तो राष्ट्र की और भी बड़ी विजय होगी।”

दूसरी ओर विविध वृत्त नामक मध्यमार्गी अखबार ने इस आंदोलन की व्यर्थता की ओर संकेत किया है और कहा है कि यह आंदोलन अपना घोषित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर पाया है लेकिन उसने सरकार को भी चेतावनी दी है कि दमन का रास्ता उसके उद्देश्य को कमजोर कर देगा। मार्च 1930 में दूसरे पखवाड़े की रिपोर्ट के कुछ अंश बंगाल-सबका ध्यान समुद्र तट तक गाँधी जी की यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के लिए उनकी तैयारी पर केंद्रित है।

चरमपंथी अखबार उनकी गतिविधियों और भाषणों के बारे में विस्तार से लिख रहे हैं और पूरे बंगाल में हो रही बैठकों तथा उनमें पारित होने वाले प्रस्तावों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है परंतु गाँधी जिस सविनय अवज्ञा की वकालत कर रहे हैं उसके प्रति विशेष उत्साह नहीं दिखाई देता…. । सामान्य रूप से लोग इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि गाँधी जी के साथ क्या किया जाता है और संभावना यही है कि अगर उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई की गई तो बंगाल के ज्वलनशील हालात में चिंगारी भड़क उठेगी। लेकिन फिलहाल ऐसी आग भड़कने के कोई गंभीर आसार दिखाई नहीं देते।

इन रिपोर्टों से विभिन्न क्षेत्रों में मार्च के बारे में जानकारी मिलती है परंतु इन्हें सावधानी से अध्ययन करना चाहिए। इनमें कई बार आशंकाएँ और गलत विचार भी दिए होते हैं। ये रिपोर्ट पूर्वाग्रह युक्त भी हैं। फिर भी इनमें उपयोगी जानकारी है।

महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे HBSE 12th Class History Notes

→ राष्ट्रपिता-भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने तथा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सर्वाधिक योगदान के कारण महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहा जाता है।

→ जातीय भेदभाव-दक्षिण अफ्रीका में रंग के आधार पर भारतीयों से नसली भेदभाव किया जाता था। उन पर अनेक प्रतिबंध थे। गाँधी जी ने वहाँ पर जातीय-भेद विरोधी आंदोलन चलाया।

→ सत्याग्रह इसका शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। अहिंसात्मक तरीके से विरोध करना। गाँधी जी के अनुसार सत्य पर अटल रहना ही सत्याग्रह है।

→ अहिंसा किसी भी प्रकार (मन, कर्म, वचन) से विरोधी को आहत न करना या हानि न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा वीर और निडर का शस्त्र है न कि कायर और दुर्बल का। सत्याग्रह का आधार सत्य और अहिंसा थे।

→ लोकशक्ति-सामान्य लोगों (किसानों, मज़दूरों, गरीब अनपढ़ लोगों) की असीम बलिदान करने की क्षमता में विश्वास होना। गाँधी जी की लोकशक्ति से अटूट श्रद्धा थी।

→ साधन और साध्य-साध्य वह है जिसे प्राप्त करना होता है; जैसे भारत की स्वतंत्रता साध्य थी। साधन अर्थात् वह तरीका जिसके द्वारा साध्य (object) को प्राप्त किया जाए। गाँधी जी साधन और साध्य दोनों की पवित्रता में विश्वास रखते थे।

→ उदारवादी काँग्रेस के प्रथम दौर (1885 से 1905) के आंदोलन और नेताओं को उदारवादी कहा जाता है। वे सवैधानिक और क्रमिक सुधारों की माँग तथा प्रार्थना की नीति/तरीके पर चल रहे थे।

→ उग्रराष्ट्रवादी-1905 के आस-पास काँग्रेस में उग्रराष्ट्रवादी आंदोलन और नेता प्रभावशाली होने लगे। वे स्वराज्य की माँग में विश्वास रखते थे तथा स्वदेशी और बॉयकाट को शस्त्र के रूप में अपनाना चाहते थे।

→ चंपारन सत्याग्रह-1917 में गाँधी जी द्वारा चंपारण (बिहार) में किसानों की मांगों को लेकर चलाया गया आंदोलन।

→ खेड़ा सत्याग्रह-1918 में गुजरात के खेड़ा जिले में किसानों से लगान वसूली के विरुद्ध गाँधी जी द्वारा चलाया गया सत्याग्रह। खेड़ा में किसानों की फसल बर्बाद हो गई थी, तब भी सरकार लगान की माँग कर रही थी।

→ रॉलेट विरोधी सत्याग्रह-1919 में रॉलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह सभा का गठन कर देशव्यापी अभियान गाँधी जी ने चलाया।

→ असहयोग आंदोलन-ब्रिटिश साम्राज्य की शैतानियत के खिलाफ अहिंसात्मक रूप से असहयोग आंदोलन अर्थात् सरकार से सहयोग न करना। गाँधी जी ने 1920 में असहयोग आंदोलन चलाया।

→ खिलाफत आंदोलन-1920 में अंग्रेज़ सरकार ने (इंग्लैंड की) तुर्की के खलीफा को अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया। इसके विरुद्ध भारतीय मुसलमानों में असंतोष था। मुहम्मद अली और शौकत अली ने अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध इस मुद्दे पर आंदोलन चलाया जो खिलाफत आंदोलन कहलाता है।

→ चौरी-चौरा की घटना-5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा (गोरखपुर) में लोगों की भीड़ ने एक थाने पर हमला कर आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए। इसके तत्काल बाद गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया।

→ चरखा-हाथ से सूत कातने का एक यंत्र। गाँधी जी प्रतिदिन कुछ समय चरखा कातते थे। चरखा स्वदेशी और राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था।

→ रचनात्मक कार्य-जनता की सेवा करने, जनता को जगाने तथा कार्यकत्ताओं में उत्साह पैदा करने के लिए गाँधी जी ने रचनात्मक कार्य चलाए। इसमें मुख्यतः खादी व चरखा कातना, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, हिंदू-मुस्लिम एकता, हरिजन कल्याण, महिला उत्थान जैसे कार्यक्रम शामिल थे।

→ साइमन कमीशन-1919 के अधिनियम की समीक्षा के लिए इंग्लैंड सरकार द्वारा 1928 में साइमन के नेतृत्व में साइमन कमीशन भेजा गया। कमीशन में सभी सदस्य श्वेत थे। भारत में इसका जोरदार विरोध हुआ। ‘Simon go back’ के नारे लगे थे।

→ दांडी यात्रा-नमक कानून तोड़ने के लिए 12 मार्च, 1930 से 5 अप्रैल, 1930 के मध्य साबरमती आश्रम से दांडी तक गाँधी जी द्वारा आयोजित यात्रा।

→ खुदाई खिदमतगार-उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा बनाया गया संगठन, जिसने गाँधी जी के अहिंसात्मक आंदोलनों में भाग लिया।

→ गाँधी-इर्विन समझौता-गाँधी-इर्विन समझौता या दिल्ली समझौता भारत के वायसराय इर्विन तथा गाँधी जी के मध्य 5 मार्च, 1931 को हुआ।

→ गोलमेज सम्मेलन-भारत की समस्या पर बातचीत करने तथा नया सुधार कानून पास करने के लिए लंदन में इंग्लैंड की सरकार ने 1930, 1931 व 1932 में तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए। गाँधी जी ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया।

→ प्रांतीय स्वायत्तता-1935 के एक्ट के अनुसार प्रांतों का शासन भारतीयों के हाथों में दे दिया गया। यह प्रांतीय स्वायत्तता’ के नाम से जाना जाता है।

→ पाकिस्तान प्रस्ताव-लीग द्वारा 1940 के लाहौर अधिवेशन में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पास किया गया, जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों की स्वतंत्र’ इकाई गठित करने के लिए कहा गया।

→ व्यक्तिगत सत्याग्रह-द्वितीय विश्वयुद्ध के मुद्दे पर सरकार के विरुद्ध काँग्रेस ने 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया।

→ भारत छोड़ो आंदोलन-क्रिप्स मिशन (1942) की असफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया तथा अंग्रेज़ों को तत्काल भारत छोड़कर चले जाने को कहा। अगस्त, 1942 में छेड़े गए इस आंदोलन को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है।

→ निजी लेखन-निजी लेखन में व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार तथा दैनिक डायरी इत्यादि शामिल होते हैं। इसमें प्रायः वे बातें भी मिल जाती हैं जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं किया गया होता।

→ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं में महात्मा गाँधी का शीर्ष स्थान है। भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने में उन्होंने सबसे अधिक योगदान दिया, इस कारण उन्हें “राष्ट्र-पिता’ माना गया है। राष्ट्र-निर्माण के इस कार्य में हम उन्हें इटली के गैरीबाल्डी, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के नेता जार्ज वाशिंगटन और वियतनाम के मुक्ति संघर्ष के नेता हो ची मिन्ह के समकक्ष रख सकते हैं।

→ महात्मा गाँधी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ जिले में स्थित पोरबंदर नामक स्थान पर 1869 ई० में हुआ। उनके पिता राजकोट रियासत के दीवान थे। 1888 ई० में कानून की पढ़ाई करने के लिए गाँधी जी इंग्लैंड गए। जल्दी ही वह गुजराती व्यापारी दादा अब्दुला (Dada Abudlla) के कानूनी प्रतिनिधि बनकर 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। यहाँ पर गाँधी को जातीय (नसली) भेदभाव का सामना करना पड़ा।

→ गोरे लोगों के हाथों अपमानित होने पर गाँधी जी ने अन्याय के विरुद्ध लड़ना तय किया। यद्यपि गाँधी जी वहाँ पर अपने कार्य के लिए एक वर्ष के लिए गए थे तथापि जातीय भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए उन्हें 20 वर्ष रुकना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के विरुद्ध भेदभाव वाले कानूनों के खिलाफ ‘सत्याग्रह’ चलाया। लंबे संघर्ष के दौरान गाँधी जी और उनके साथियों को अनेक बार जेल जाना पड़ा। अंततः आंदोलन से मजबूर होकर सरकार को गाँधी जी से वार्ता करनी पड़ी। सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर से अनेक प्रतिबंध समाप्त करने पड़े।

→ गाँधी के राजनीतिक विचारों और उनके दर्शन का केंद्र-बिंदु सत्याग्रह है। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। यह विरोध करने का अहिंसात्मक मार्ग था। गाँधी जी के अनुसार, “सत्य पर अटल रहना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रह असत्य को सत्य से और हिंसा को अहिंसा से जीतने का एक नैतिक शस्त्र है।” सत्याग्रह दो प्रमुख सिद्धांतों पर टिका था-सत्य और अहिंसा। इसलिए गाँधी जी ने संघर्ष में सत्य के साथ-साथ सत्य और अहिंसात्मक तरीकों पर बल दिया। गाँधी जी का जन-शक्ति संगठन में अटूट श्रद्धा थी। उनके नेतृत्व में यह राष्ट्रीय आंदोलन जन-आंदोलन बन गया। भारत में आने पर गोखले ने गाँधी जी को भारत की यात्रा करने की सलाह दी। गाँधी जी जहाँ भी जाते थे, उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ जुट जाती थी। भारत में गाँधी जी ने अपने ‘सत्याग्रह’ के तरीके का प्रथम अनुभव 1917 में चंपारन (बिहार) में किया। दूसरी बार सत्याग्रह का प्रयोग 1918 में अहमदाबाद (गुजरात) तथा उसी वर्ष तीसरी बार खेड़ा (गुजरात) में ‘सत्याग्रह’ आयोजित किया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

→ ये तीनों ही स्थानीय समस्याओं से जुड़े आंदोलन थे। प्रथम विश्वयुद्ध से पैदा हुई आर्थिक कठिनाइयों, रॉलेट एक्ट, खिलाफत आंदोलन तथा जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसे कारणों ने गाँधी जी को अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर सत्याग्रह चलाने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हें विश्वास हो गया था कि “ब्रिटिश साम्राज्य आज शैतानियत का प्रतीक है।” परिणामस्वरूप गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के रूप में देशव्यापी आंदोलन चलाया। असहयोग आंदोलन ने शीघ्र ही जन-आंदोलन का रूप धारण कर लिया। इस आंदोलन ने जन कार्रवाइयों के लिए रास्ता खोल दिया और यह ब्रिटिश भारत में अभूतपूर्व बात थी। इस आंदोलन से देशभर में उत्साह था। सभी वर्गों ने इसमें भाग लिया था। परंतु इसी बीच 5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा में एक हिंसक घटना घटी। इस घटना में 22 पुलिसकर्मी मारे गए। गाँधी जी को इस घटना से गहरा आघात लगा। उन्होंने तत्काल आंदोलन वापिस ले लिया। असहयोग आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक जन-आंदोलन बना दिया था। अब यह सारे देश के सभी भागों में तथा देश के सभी वर्गों व तबकों का आंदोलन बन चुका था। किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया था।

→ गाँधी जी उनके प्रिय नेता बन गए थे। गाँधी जी की जीवन-शैली से लोगों को लगता था कि वे उनके स्वाभाविक नेता हैं। गाँधी जी उन्हीं की तरह वस्त्र पहनते थे व उन्हीं की तरह रहते थे। वे जन-सामान्य की भाषा बोलते थे। गाँधी जी दूसरे नेताओं की तरह जनसमूह से अलग खड़े नहीं होते थे, बल्कि वे उनसे गहरी सहानुभूति रखते थे। गाँधी जी प्रतिदिन अपना कुछ समय चरखा चलाने में व्यतीत करते थे। वे अन्य सहयोगियों को भी चरखा चलाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। भारत एक कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ की जनसंख्या के अधिकांश लोग किसान थे। किसानों में असहयोग आंदोलन के बाद गाँधी जी, ‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराजा’ अथवा सामान्य ‘महात्मा जी’ जैसे नामों से लोकप्रिय हुए। किसानों में उनकी छवि एक उद्धारक के समान थी। गाँधी जी को जन-सामान्य के समीप ले जाने में उनके रचनात्मक कार्य की अहम् भूमिका है। रचनात्मक कार्यों को मुख्यतः खादी व चरखा कातना, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, हिंदू-मुस्लिम एकता, हरिजन कल्याण, महिला उत्थान; जैसे कार्यक्रमों के रूप में संगठित किया। साइमन कमीशन को इंग्लैंड
की सरकार ने भारत में 1919 के अधिनियम की कार्य-प्रणाली की समीक्षा करने के लिए भेजा था ताकि आगे सुधारों पर विचार किया जा सके, परंतु इस कमीशन के सभी सदस्य श्वेत थे।

→ भारत के सभी दलों ने इसका जोरदार विरोध किया। 1929 में दिसंबर के अंत में काँग्रेस ने अपना वार्षिक अधिवेशन लाहौर में किया। इसका अध्यक्ष युवा नेता जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया। काँग्रेस ने अपना लक्ष्य ‘पूर्ण स्वराज्य’ अथवा ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को घोषित किया। दांडी यात्रा तथा नमक कानून तोड़ने की योजना गाँधी जी ने बहुत सोच-विचार करके बनाई थी। इस योजना के अनुसार 12 मार्च, 1930 को प्रातः 6 बजकर 30 मिनट पर साबरमती आश्रम से गाँधी जी ने अपने 78 अनुयायियों के साथ 241 मील दूर दांडी नामक स्थान के लिए पद यात्रा शुरू की। 24 दिनों में यात्रा पूरी करके गाँधी जी व उनके सहयोगी 5 अप्रैल को दांडी पहुँचे व 6 अप्रैल को प्रातःकाल में गाँधी जी समुद्र तट पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने नमक एकत्र कर नमक कानून को भंग कर दिया और इस प्रकार 6 अप्रैल, 1930 को सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया। गाँधी जी द्वारा नमक कानून तोड़ने के साथ ही यह आंदोलन देश के सभी भागों में फैल गया। इस आंदोलन के जवाब में सरकार ने दमन चक्र चलाया। नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया। गाँधी जी को भी हिरासत में ले लिया गया। सर तेज बहादुर सञ्जु तथा डॉ० जयकर की मध्यस्थता से गाँधी जी और वायसराय इर्विन के बीच फरवरी-मार्च 1931 में लंबी बैठकें हुईं। अंत में दोनों में 5 मार्च, 1931 को एक समझौता हुआ जो ‘गाँधी-इर्विन’ समझौते के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

→ काँग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए सितंबर, 1931 में लंदन पहुँचे। साइमन कमीशन रिपोर्ट तथा गोलमेज सम्मेलनों के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी के लिए 1935 का अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के तहत प्रांतों में स्वायत्त शासन की स्थापना की गई थी। भारतीय दल 1935 के एक्ट से संतुष्ट नहीं थे तथापि उन्होंने इस एक्ट के तहत 1937 में प्रांतीय सभाओं के लिए चुनाव हुए तो इनमें भाग लिया। इन चुनावों में काँग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई। 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी असफलता हाथ लगी थी। वह संयुक्त प्रांत में सांझी सरकार भी नहीं बना पाई। अब उसे लग रहा था कि पृथक् निर्वाचिका से भी उसे सत्ता नहीं मिलने वाली है तो उसने उग्र रूप अपना लिया। इसके साथ ही मार्च, 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में लीग ने ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ को पारित किया, जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों की ‘स्वतंत्र’ इकाई गठित करने के लिए कहा गया। 1942 ई० में ब्रिटेन ने भारतीय नेताओं से बातचीत करने तथा भारतीय समस्या को हल करने के लिए क्रिप्स मिशन भारत भेजा। स्टैफर्ड क्रिप्स 22 मार्च, 1942 को भारत पहुँचे तथा अपने प्रस्ताव भारतीयों के समक्ष रखे। क्रिप्स प्रस्ताव अपर्याप्त और असंतोषजनक थे। इसमें सभी दलों को खुश करने का प्रयास किया गया, परंतु सभी भारतीय दलों ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।

→ क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। अगस्त, 1942 में छेड़े गए इस आंदोलन को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। 7 अगस्त, 1942 को बंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी (AICC) की बैठक शुरू हुई। इस बैठक में वर्धा में पास किए ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ का अनुमोदन कर दिया गया। साथ ही गाँधी जी को अहिंसक संघर्ष छोड़ने की मंजूरी दी। 8 अगस्त को भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने के बाद अपने भाषण में महात्मा गाँधी ने कहा, “आप लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति को अब से स्वयं को स्वतंत्र व्यक्ति समझना चाहिए तथा इस प्रकार का कार्य करना चाहिए कि मानो आप स्वतंत्र हो….. मैं स्वतंत्रता से कम किसी भी वस्तु से संतुष्ट नहीं होऊँगा। हम करेंगे या मरेंगे। हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएँगे या इस प्रयास में मर मिटेंगे।” भारत छोड़ो आंदोलन सही मायनों में एक जनांदोलन था। इसमें लाखों आम लोगों ने स्वयं की प्रेरणा से भाग लिया। इतिहासकार बिपिन चंद्र का मानना है कि, “भारत छोड़ो आंदोलन में आम जनता की हिस्सेदारी तथा समर्थन एक नई सीमा तक पहुँचा।”

→ 1945-47 के मध्य तेजी से वार्ताओं का दौर शुरू हुआ। गाँधी जी सत्ता की इन वार्ताओं से लगभग दूर रहे। उन्होंने आखिर तक विभाजन का विरोध किया। गाँधी जी 15 अगस्त को दिल्ली में उपस्थित नहीं थे। वे कलकत्ता में सांप्रदायिक सद्भाव को बहाल करने के दुष्कर कार्य में लगे हुए थे। उन्होंने 24 घंटे का उपवास रखा। वे अकेले ही स्थान-स्थान पर जाकर हिंदू-मुस्लिमों के आपसी वैर-भाव को समाप्त करने में लगे थे। गाँधी जी की धर्म में गहरी आस्था थी, किंतु साथ ही वे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत में भी दृढ़ आस्था रखते थे। नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 की शाम को दैनिक प्रार्थना के समय गाँधी जी पर गोली चलाकर उन्हें मौत की नींद सुला दिया। गाँधी जी एक धर्मांध के हाथों शहीद हो गए। गाँधी जी की शहादत से सारे देश में गहरे शोक की लहर दौड़ गई। उनकी शहादत पर भारत में ही नहीं, विश्वभर में उन्हें भाव-भीनी श्रद्धांजलि दी गई।

→ इतिहासकार समस्त स्रोतों का अध्ययन और विवेचन करते हुए गाँधी जी के राजनीतिक सफर और राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं। इतिहासकार के लिए यह भाषण बड़े महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं क्योंकि इनसे उनकी नीतियों, कार्यक्रमों तथा लोगों को संगठित करने के तरीकों की झलक मिलती है। निजी लेखन में व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार तथा दैनिक डायरी इत्यादि शामिल होते हैं। इसमें प्रायः वे बातें भी मिल जाती हैं जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं किया गया होता। आत्मकथाएँ एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। आत्मकथाओं में मानवीय गतिविधियों का विविध विवरण मिलता है। भारतीयों की राजनीतिक गतिविधियों के बारे में अंग्रेज़ सरकार कड़ी नज़र रखती थी। इन गतिविधियों के बारे में पुलिस व अन्य अधिकारी अपनी रिपोर्टों और पत्रों से सरकार को अवगत करवाते थे। इन दस्तावेजों को पढ़कर हम जान पाते हैं कि पुलिस व अधिकारियों की नजर में गाँधी जी और उसके सहयोगियों की गतिविधियाँ कैसी थीं। 20वीं सदी के दूसरे दशक के अंत में गाँधी जी राष्ट्रीय नेता बनकर उभरे। इस समय बड़ी संख्या में अंग्रेजी और हिंदी में समाचार-पत्र प्रकाशित हो रहे थे जिन्होंने गाँधी जी की गतिविधियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया। गाँधी जी को समझने के लिए ये महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
2 अक्तूबर, 1869 ई०गाँधी जी का जन्म।
1893 ई०गाँधी जी का दक्षिण अफ्रीका जाना।
जनवरी, 1915गाँधी जी का भारत आगमन।
1916 ई०प० मदन मोहन मालवीय द्वारा बनारस विश्वविद्यालय की स्थापना तथा गाँधी जी द्वारा समारोह में भाषण।
अप्रैल, 1917चंपारन सत्याग्रह का प्रारंभ ।
1918 ई०अहमदाबाद और खेड़ा (गुजरात में सत्याग्रह)
6 अप्रैल, 1919रॉलेट एक्ट पर अखिल भारतीय
13 अप्रैल, 1919जलियाँवाला बाग हत्याकांड।
1918 ई०खिलाफ़त कमेटी का गठन।
1 अगस्त, 1920गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया।
5 फरवरी, 1922चौरी-चौरा की घटना
12 फरवरी, 1922असहयोग आंदोलन का संगठन।
1928 ई०साइमन कमीशन का भारत आना।
31 दिसंबर, 1929लाहौर अधिवेशन में पूर्व स्वतंत्रता प्रस्ताव पास
26 जनवरी, 1930प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
12 मार्च, 1930गाँधी जी द्वारा दांडी यात्रा का प्रारंभ
6 अप्रैल, 1930गाँधी जी ने नमक कानून तोड़ा।
5 मार्च, 1931गाँधी-इर्विन पैक्ट हुआ।
1931 ई०दूसरा गोलमेज सम्मेलन तथा गाँधी का लंदन जाना।
1937 ई०प्रांतीय सभाओं के चुनाव
3. सितंबर, 1939वायसराय द्वारा भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में झोंकना
22 अक्तूबर, 1939काँग्रेस सरकारों का त्याग-पत्र देना।
22 दिसंबर, 1939लीग द्वारा ‘मुक्ति दिवस मनाना’।
मार्च, 1940लीग का पाकिस्तान प्रस्ताव।
8 अगस्त, 1940लिनलिथगों द्वारा ‘अगस्त प्रस्ताव’ रखना।
8 अगस्त, 1942भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया।
9 अगस्त, 1942भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ।
14 जून, 1945‘वेवल योजना’ प्रस्ताव प्रस्तुत।
16 अगस्त, 1946लीग द्वारा कार्रवाई दिवस मनाना।
15 अगस्त, 1947भारत का स्वतंत्र होना।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

HBSE 12th Class History औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्ड्स सँभालकर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक शहरों में प्रत्येक कार्यालय के अपने ‘रिकॉर्डस रूम’ थे जिनमें रिकॉर्डस को सुरक्षित रखा जाता था। इसके निम्नलिखित कारण थे

(1) भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतया आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। उसका लक्ष्य भारत के संसाधनों को निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे।

(2) आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था। कंपनी सरकार द्वारा वस्तुओं, संसाधनों व व्यापार की संभावनाओं संबंधी आकलन व ब्यौरे तैयार करवाए जाते थे। कंपनी कार्यालयों में आयात-निर्यात संबंधी विवरण रखे जाते थे।

(3) शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर उन्हें सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किया जाता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आंकड़े किस हद तक उपयोगी होते हैं?
उत्तर:
जनगणना के आँकड़े शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें लोगों के व्यवसायों की जानकारी तथा उनके लिंग, आयु व जाति संबंधी सूचनाएँ मिलती हैं। ये जानकारियाँ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने के लिए काफी उपयोगी हैं। ध्यान रहे कई बार आँकड़ों के इस भारी-भरकम भंडार से सटीकता का भ्रम हो सकता है। यह जानकारी बिल्कुल सटीक नहीं होती। इन आँकड़ों के पीछे भी संभावित पूर्वाग्रह हो सकते हैं। जैसे कि बहुत-से लोग अपने परिवार की महिलाओं की जानकारी छुपा लेते थे। ऐसे लोगों को किसी श्रेणी विशेष में रखना मुश्किल हो जाता था। वे दो तरह के काम करते थे। उदाहरण के लिए जो खेती भी करता हो और व्यापारी भी हो। ऐसे लोगों को सुविधानुसार ही किसी श्रेणी में रख लिया जाता था।

अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी शहरीकरण के रुझानों को समझने में पहले के शहरों की तुलना में ये आँकड़े अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उदाहरण के लिए 1900 से 1940 तक की जनगणनाओं से पता चलता है कि इस अवधि में कुल आबादी का 13 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शहरों में रहता था। स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा।

प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
‘व्हाइट’ और ‘ब्लैक’ टाउन शब्द नगर संरचना में नस्ली भेदभाव का प्रतीक थे। अंग्रेज़ गोरे लोग दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे, जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। दुर्ग के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखता है। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया। ‘व्हाइट टाउन’ प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केंद्र भी था।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर:
18वीं सदी से पहले ही बहुत-से भारतीय व्यापारी यूरोपीय कंपनियों के सहायक के तौर पर काम करते आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे दुभाषिए थे, यानि अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा जानते थे। वे अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। साथ में ये एजेंट या व्यापारी का काम भी करते थे। वे निर्यात होने वाली वस्तुओं के संग्रह में सहायक थे। इन सहायक व्यापारिक गतिविधियों में काम करते हुए कुछ भारतीय व्यापारियों ने काफी धन एकत्रित कर लिया था। 19वीं सदी के मध्य से तो

इन धनी व्यापारियों में से कुछ उद्यमी बनने लगे थे, अर्थात् उन्होंने उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बंबई के कावसजी नाना ने भारतीय पूँजी से पहली कपड़ा मिल लगाई, लेकिन इन उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से काफी बाधा पहुँची। यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पश्चिमी जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। यह विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करने लगा ताकि अपने स्वामी अंग्रेज़ों को प्रभावित कर सकें। यह अपने देशवासियों को भी अपनी हैसियत का परिचय करवाना चाहता था। इस उद्देश्य से इस वर्ग के लोगों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्त्व किस हद तक घुल-मिल गए थे? [2017, 2019 (Set-D)]
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास अंग्रेज़ शासकों की जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप किया गया था। ‘व्हाइट टाउन’ तो था ही गोरे लोगों के लिए। ‘ब्लैक टाउन’ में भारतीय रहते थे। शहर के इस भाग में बहुत-से लोग नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी के लिए आकर बसते रहे। इस प्रकार लंबे समय तक शहर में रहते रहे और ग्रामीण और शहरी तत्त्वों का मिश्रण होता रहा। उदाहरण के लिए

  1. ‘वेल्लार’ एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। कंपनी की नौकरियाँ पाने वालों में ये लोग अग्रणी रहे। इन्होंने मद्रास में नए अवसरों का काफी लाभ उठाया।
  2. तेलुगू कोमाटी समुदाय ने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे इन्होंने अनाज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया।
  3. पेरियार और वन्नियार समुदाय शहर में मजदूरी का कार्य करने लगे थे।

धीरे-धीरे ऐसे बहुत-से समुदायों की बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गईं। साथ ही बहुत-से गाँवों को मिलाने के कारण मद्रास शहर दूर-दूर तक फैल गया। आस-पास के गाँव नए उप-शहरों में बदल गए। इस प्रकार शहर फैलता चला गया और मद्रास एक अर्ध-ग्रामीण शहर जैसा हो गया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर:
18वीं सदी के शहर नए (New) थे। 16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना और सामाजिक जीवन भिन्न था। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे थे। नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ। 18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर उभर चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक के तौर पर काम करने वाले थे। अंग्रेज़ों ने अपने ‘कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन शहरों में स्थापित किए हुए थे।

इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शरू से ही दिखाई पडता है।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
नए शहर अंग्रेज़ शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि जो नए सार्वजनिक स्थान विकसित हुए वो मुख्यतया नए शासकों की जरूरत के अनुरूप थे। मुख्य नए सार्वजनिक स्थान व उनके उद्देश्य इस प्रकार हैं

  1. नदी और समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास हुआ। इनका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार करना था।
  2. ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए वाणिज्यिक कार्यालय और गोदाम बनाए।
  3. व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं में यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों का विकास हुआ। जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं।
  4. प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता में ‘राइटर्स बिल्डिंग’ इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।

पुस्तक के प्रश्न

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्स सँभालकर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक शहरों में प्रत्येक कार्यालय के अपने रिकॉर्डस रूम’ थे जिनमें रिकॉर्डस को सुरक्षित रखा जाता था। इसके निम्नलिखित कारण थे

(1) भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतया आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। उसका लक्ष्य भारत के संसाधनों को निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे।

(2) आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था। कंपनी सरकार द्वारा वस्तुओं, संसाधनों व व्यापार की संभावनाओं संबंधी आकलन व ब्यौरे तैयार करवाए जाते थे। कंपनी कार्यालयों में आयात-निर्यात संबंधी विवरण रखे जाते थे।

(3) शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर उन्हें सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किया जाता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आंकड़े किस हद तक उपयोगी होते हैं?
उत्तर:
जनगणना के आँकड़े शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें लोगों के व्यवसायों की जानकारी तथा उनके लिंग, आयु व जाति संबंधी सूचनाएँ मिलती हैं। ये जानकारियाँ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने के लिए काफी उपयोगी हैं। ध्यान रहे कई बार आँकड़ों के इस भारी-भरकम भंडार से सटीकता का भ्रम हो सकता है। यह जानकारी बिल्कुल सटीक नहीं होती। इन आँकड़ों के पीछे भी संभावित पूर्वाग्रह हो सकते हैं। जैसे कि बहुत-से लोग अपने परिवार की महिलाओं की जानकारी छुपा लेते थे। ऐसे लोगों को किसी श्रेणी विशेष में रखना मुश्किल हो जाता था। वे दो तरह के काम करते थे। उदाहरण के लिए जो खेती भी करता हो और व्यापारी भी हो। ऐसे लोगों को सुविधानुसार ही किसी श्रेणी में रख लिया जाता था।

अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी शहरीकरण के रुझानों को समझने में पहले के शहरों की तुलना में ये आँकड़े अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उदाहरण के लिए 1900 से 1940 तक की जनगणनाओं से पता चलता है कि इस अवधि में कुल आबादी का 13 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शहरों में रहता था। स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा।

प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
‘व्हाइट’ और ‘ब्लैक’ टाउन शब्द नगर संरचना में नस्ली भेदभाव का प्रतीक थे। अंग्रेज़ गोरे लोग दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे, जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। दुर्ग के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखता है। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया। ‘व्हाइट टाउन’ प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केंद्र भी था।

प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर:
18वीं सदी से पहले ही बहुत-से भारतीय व्यापारी यूरोपीय कंपनियों के सहायक के तौर पर काम करते आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे दुभाषिए थे, यानि अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा जानते थे। वे अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। साथ में ये एजेंट या व्यापारी का काम भी करते थे। वे निर्यात होने वाली वस्तुओं के संग्रह में सहायक थे। इन सहायक व्यापारिक गतिविधियों में काम करते हुए कुछ भारतीय व्यापारियों ने काफी धन एकत्रित कर लिया था। 19वीं सदी के मध्य से तो इन धनी व्यापारियों में से कुछ उद्यमी बनने लगे थे, अर्थात् उन्होंने उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बंबई के कावसजी नाना ने भारतीय पूँजी से पहली कपड़ा मिल लगाई, लेकिन इन उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से काफी बाधा पहुंची।

यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पश्चिमी जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। यह विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करने लगा ताकि अपने स्वामी अंग्रेजों को प्रभावित कर सकें। यह अपने देशवासियों को भी अपनी हैसियत का परिचय करवाना चाहता था। इस उद्देश्य से इस वर्ग के लोगों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्त्व किस हद तक घुल-मिल गए थे?
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास अंग्रेज़ शासकों की जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप किया गया था। ‘व्हाइट टाउन’ तो था ही गोरे लोगों के लिए। ‘ब्लैक टाउन’ में भारतीय रहते थे। शहर के इस भाग में बहुत-से लोग नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी के लिए आकर बसते रहे। इस प्रकार लंबे समय तक शहर में रहते रहे और ग्रामीण और शहरी तत्त्वों का मिश्रण होता रहा। उदाहरण के लिए
(1) ‘वेल्लार’ एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। कंपनी की नौकरियाँ पाने वालों में ये लोग अग्रणी रहे। इन्होंने मद्रास में नए अवसरों का काफी लाभ उठाया।

(2) तेलुगू कोमाटी समुदाय ने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे इन्होंने अनाज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया।

(3) पेरियार और वन्नियार समुदाय शहर में मजदूरी का कार्य करने लगे थे। धीरे-धीरे ऐसे बहुत-से समुदायों की बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गईं। साथ ही बहुत-से गाँवों को मिलाने के कारण मद्रास शहर दूर-दूर तक फैल गया। आस-पास के गाँव नए उप-शहरों में बदल गए। इस प्रकार शहर फैलता चला गया और मद्रास एक अर्ध-ग्रामीण शहर जैसा हो गया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर:
18वीं सदी के शहर नए (New) थे। 16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना और सामाजिक जीवन भिन्न था। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे थे।
नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ। 18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर उभर चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेजों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक के तौर पर काम करने वाले थे। अंग्रेज़ों ने अपने ‘कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन शहरों में स्थापित किए हुए थे।

इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखाई पड़ता है।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
नए शहर अंग्रेज़ शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि जो नए सार्वजनिक स्थान विकसित हुए वो मुख्यतया नए शासकों की जरूरत के अनुरूप थे।
मुख्य नए सार्वजनिक स्थान व उनके उद्देश्य इस प्रकार हैं

  • नदी और समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास हुआ। इनका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार करना था।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए वाणिज्यिक कार्यालय और गोदाम बनाए।
  • व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं में यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों का विकास हुआ। जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं।
  • प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता में ‘राइटर्स बिल्डिंग’ इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
  • पाश्चात्य शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी-शिक्षण संस्थान खोले गए। ईसाई लोगों के लिए एंग्लिकन चर्च बनाए गए।
  • रेलवे के विस्तार के साथ बड़े-बड़े रेलवे-जंक्शन बनाए गए।
  • 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बड़े शहरों में नगर निगम तथा अन्य शहरों में नगरपालिकाओं का गठन किया गया। इनका उद्देश्य शहर में सफाई, जल-आपूर्ति तथा चिकित्सा इत्यादि का प्रबंध करना था।

प्रश्न 8.
उन्नीसवीं सदी में नगर-नियोजन को प्रभावित करने वाली चिंताएँ कौन सी थीं?
उत्तर:
19वीं सदी के प्रारंभ से ही नगर-नियोजन की चिंता अंग्रेज़ प्रशासकों को सताने लगी थी। 1857 ई० के विद्रोह के बाद यह चिंता और भी गहरा गई। हैजा और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने से वे और भी चिंतित हो उठे थे। सबसे पहले इस ओर ध्यान लॉर्ड वेलेज्ली ने दिया। 1803 में उसका प्रशासकीय आदेश ‘जन-स्वास्थ्य’ व नगर नियोजन में एक प्रमुख विचार बन गया था। प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों उन्होंने नगर को व्यवस्थित करने पर जोर दिया? जबकि काफी समय तक उन्होंने शहर में भारतीयों की बस्तियों में सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। अंग्रेज़ अधिकारियों की नगर को नियोजित करने के पीछे निम्नलिखित चिंताएँ थीं

1. प्रशासकीय नियंत्रण उन्होंने यह महसूस किया कि शहरी जीवन के सभी आयामों पर नियंत्रण के लिए स्थायी व सार्वजनिक नियम बनाना जरूरी है। साथ ही सड़कों व इमारतों के निर्माण के लिए मानक नियमों का होना भी जरूरी है।

2. सुरक्षा-किलों के बाहर उन्होंने विशेषतौर पर खुला मैदान रखा ताकि आक्रमण होने की स्थिति में सीधी गोलीबारी की जा सके। कलकत्ता के किले के बाहर ऐसे मैदान आज भी मौजूद हैं।

3. सुरक्षित आश्रयस्थल-सन् 1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक शहरों के नियोजन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। आतंकित अधिकारी वर्ग ने भविष्य में विद्रोह की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए ‘देशियों’ यानी भारतीयों से अलग ‘सिविल लाइंस’ में रहने की नीति अपनाई।

4. स्वास्थ्य की चिंता–प्लेग व हैजा जैसी महामारियों के प्रसार के डर से नगर-नियोजन की जरूरत और भी महत्त्वपूर्ण होती गई। वे इस बात से परेशान हो उठे कि भीड़-भाड़ वाली भारतीय बस्तियों में गंदगी व दूषित पानी से बीमारियाँ फैल रही हैं। इस विचार से इन बस्तियों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ गया।

5. सत्ता की ताकत का प्रदर्शन-व्यवस्थित नगरों के माध्यम से अंग्रेज़ अपनी साम्राज्यवादी ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे। इसलिए विशेषतौर पर पहले उन्होंने कलकत्ता, बंबई और मद्रास को नियोजित राजधानियाँ बनाया। फिर दिल्ली को ‘नई दिल्ली’ के रूप में विकसित किया।

प्रश्न 9.
नए शहरों में सामाजिक संबंध किस हद तक बदल गए?
उत्तर:
नए शहरों का सामाजिक संबंध पहले के शहरों से बहुत कुछ अलग था। इसमें जिन्दगी की गति बहुत तेज़ थी। नए सामाजिक वर्ग व संबंध उभर चुके थे। मुख्य परिवर्तन इस प्रकार थे

(1) नए शहर मध्य वर्ग के केन्द्र बन चुके थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। यह वर्ग एक नया सामाजिक समूह था जिसके लिए पुरानी पहचान अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रही थी। इन नए शहरों में पुराने शहरों वाला परस्पर मिलने-जुलने का अहसास खत्म हो चुका था, लेकिन साथ ही मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे।

(2) नए शहरों में नए अर्थतंत्र के विकास से औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी। वे घरों में नौकरानी, फैक्टरी में मजदूर, शिक्षिका, रंग-कर्मी तथा फिल्मों में कार्य करती हुई दिखाई देने लगीं। उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को लंबे समय तक सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा गया, क्योंकि रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का समर्थन कर रहे थे। वे परिवर्तन के विरोधी थे।

(3) कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। ये लोग इन नए शहरों की तड़क-भड़क से आकर्षित होकर या रोजी-रोटी की तलाश में आए। शहर में इनकी नौकरी स्थायी नहीं थी। वेतन कम था और खर्चे ज्यादा थे। इसलिए इनके परिवार गाँवों में रहते थे।

इस प्रकार कामगार लोगों का जीवन गरीबी से पीड़ित था। वे गाँव की संस्कृति से वंचित हो गए थे। शहरों में इन्होंने भी एक हद तक ‘एक शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों का मज़ाक उड़ाते थे।

परियोजना कार्य

प्रश्न 10.
पता लगाइए कि आपके कस्बे या गाँव में स्थानीय प्रशासन कौन-सी सेवाएँ प्रदान करता है। क्या जलापूर्ति, आवास, यातायात और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि सेवाएँ भी उनके हिस्से में आती हैं? इन सेवाओं के लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की जाती है? नीतियाँ कैसे बनाई जाती हैं? क्या शहरी मज़दूरों या ग्रामीण इलाकों के खेतिहर मजदूरों के पास नीति-निर्धारण में हस्तक्षेप का अधिकार होता है? क्या उनसे राय ली जाती है? अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
संकेत

1. कस्बे, शहर और गाँव के प्रशासन को स्थानीय प्रशासन कहा जाता है।

2. स्थानीय प्रशासन, जलापूर्ति, आवास, यातायात, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि बहुत-सी सेवाओं के लिए उत्तरदायी होता है-अब आपने देखना है कि व्यवहार में स्थिति क्या है? क्या स्वच्छता, सड़क व जलापूर्ति संतोषजनक हैं, बहुत ही बेहतर है या फिर असंतोषजनक।

3. शहर व गाँव से निकलने वाले कचरे व कूड़ा-करकट के लिए क्या व्यवस्था की गई है? खुले में फैंका जाता है, दबाया जाता है, जलाया जाता है या फिर कोई ‘प्लाट’ लगाकर खाद व अन्य उपयोगी वस्तुओं में बदला जाता है। पता लगाएँ।

4. इन सभी सुविधाओं के लिए धन की व्यवस्था कहाँ से होती है, अर्थात् प्रत्यक्ष कर कितना लगाया जाता है और राज्य व केंद्रीय सरकार से कितना अनुदान प्राप्त होता है। क्या विश्व बैंक भी इसमें सहायता कर रहा है-पता लगाएँ। यदि कर रहा है तो क्यों?

5. स्थानीय गरीब लोगों (मजदूर, खेत, मजदूर इत्यादि) का नीति निर्धारण में योगदान इस बात से पता लगाएँ कि गाँव या कस्बे के निकाय के लिए चुनाव होता है या नहीं। दूसरा अधिकारी वर्ग उनकी बात सुनता है या नहीं।

6. उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए अपने प्राध्यापक के निर्देशन में रिपोर्ट तैयार करें।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 11.
अपने शहर या गाँव में पाँच तरह की इमारतों को चुनिए। प्रत्येक के बारे में पता लगाइए कि उन्हें कब बनाया गया, उनको बनाने का फैसला क्यों लिया गया, उनके लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की गई, उनके निर्माण का जिम्मा किसने उठाया और उनके निर्माण में कितना समय लगा। उन इमारतों के स्थापत्य या वास्तु शैली संबंधी आयामों का वर्णन करिए और औपनिवेशिक स्थापत्य से उनकी समानताओं या भिन्नताओं को चिह्नित कीजिए।
उत्तर:
हर शहर व गाँव में सार्वजनिक भवन होते हैं जैसे कि, स्कूल, महाविद्यालय, पंचायतघर, शहर में टाउन हाल, नगरपालिका, अस्पताल, लाइब्रेरी इत्यादि।

  1. इनको बनाने में पंचायत, नगर निगम/पालिका यानी स्थानीय निकायों की भूमिका की जांच करें। सामान्य लोगों की राय किस प्रकार ऐसे निर्णयों का हिस्सा बनती है?
  2. धन के लिए क्या स्थानीय कर लगाया गया या राज्य व केंद्र में ‘ग्रांट’ मिली।
  3. इनमें ‘वास्तुशैली’ अथवा स्थापत्य शैली कौन-सी अपनाई गई है। सत्ता की झलक किस रूप में मिलती है-देखें। कौन-सी संस्कृति झलकती है।
  4. औपनिवेशिक स्थापत्य से यदि तुलना करोगे तो आप पाओगे कि नए स्थापत्य में स्वतंत्र भारत की झलक है।
  5. इन सब पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अपने प्राध्यापक के निर्देशन में रिपोर्ट तैयार करें।

औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य HBSE 12th Class History Notes

→ शहरीकरण-शहर का भौतिक व सांस्कृतिक विकास अर्थात शहरी संस्थाओं (प्रशासनिक व शैक्षणिक) का विकास; मध्य वर्ग का विकास; भौतिक संरचना का विस्तार व विकास; नए शहरी तत्त्वों विशेषतः आधुनिक दृष्टिकोण का विकास।

→ कस्बा-मुगलकालीन भारत में एक छोटा ‘ग्रामीण शहर’ जो सामान्यतया किसी विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था।

→ गंज-मुगलकालीन कस्बों में एक स्थायी छोटे बाजार को गंज कहा जाता था।

→ पेठ व पुरम-पेठ एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ होता है बस्ती, जबकि पुरम शब्द गाँव के लिए प्रयोग किया जाता है।

→ बस्ती बस्ती (बंगला व हिंदी) का अर्थ मूल रूप में मोहल्ला अथवा बसावट हुआ करता था। परंतु अंग्रेज़ों ने इसका अर्थ संकुचित कर दिया तथा इसे गरीबों की कच्ची झोंपड़ियों के लिए प्रयोग करने लगे। 19वीं सदी में गंदी-झोंपड़ पट्टी को बस्ती कहा जाने लगा।

→ बंगलो (Bunglow)-अंग्रेज़ी भाषा का यह शब्द बंगाल के ‘बंगला’ शब्द से निकला है जो एक परंपरागत फँस की झोंपड़ी होती थी। अंग्रेज़ अधिकारियों ने अपने रहने के बड़े-बड़े घरों को बंगलों नाम देकर इसका अर्थ ही बदल दिया।

→ ढलवाँ छतें -ढलवाँ छतें (Pitched Roofs) स्लोपदार छतों को कहा गया। 20वीं सदी के शुरु से ही बंगलों में ढलवाँ छतों का चलन कम होने लगा था तथापि मकानों की सामान्य योजना में कोई बदलाव नहीं आया था।

→ सिविल लाइंस -पुराने शहर के साथ लगते खेत एवं चरागाह को साफ करके विकसित किए गए शहरी क्षेत्र को ‘सिविल लाइंस’ का नाम दिया गया। इनमें सुनियोजित तरीके से बड़े-बड़े बगीचे, बंगले, चर्च, सैनिक बैरकें और परेड मैदान आदि होते थे।

→ औद्योगिकीकरण यह शब्द औद्योगिक क्रांति की उस प्रक्रिया के लिए उपयोग में लाया गया है जिसमें विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हुए, जिनमें लोहा, स्टील, कोयला एवं वस्त्र आदि सभी उद्योगों का स्वरूप बदल गया। वाष्प ऊर्जा – औद्योगिक क्रांति का मुख्य आधार थी। यह सबसे पहले इंग्लैंड (लगभग 1750 से 1850 के बीच) में हुई।

→ भारत में औपनिवेशिकरण के फलस्वरूप शहरों और उनके चरित्र में परिवर्तन हुए। नए शहरों का उदय हुआ। इनमें पश्चिम तट पर बम्बई व पूर्वी तट पर मद्रास और कलकत्ता तीन प्रमुख बन्दरगाह नगर विकसित हुए। ये तीनों कभी मछुआरों और दस्तकारों के गाँव मात्र थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे 18वीं सदी के अंत तक भारत के सबसे बड़े शहर बन गए। यहाँ इन तीनों शहरों का गहन अध्ययन किया गया है। औपनिवेशिक और वाणिज्यिक संस्कृति का प्रभुत्व नगरों की बसावट और इनके स्थापत्य में स्पष्ट तौर पर दिखाई दिया। इस दौरान बनी इमारतों में कई तरह की स्थापत्य शैलियाँ अपनाई गईं। नगर नियोजन और स्थापत्य शैलियों का अध्ययन करके औपनिवेशिक शहरों को समझने का प्रयास किया गया है।

→औपनिवेशिक शहर मुगलकालीन शहरों से बहुत भिन्न थे। 16वीं-17वीं सदी के मुगलकालीन शहरों की श्रेणी में कस्बे सबसे छोटे थे। इन्हें ‘ग्रामीण शहर’ भी कहा जाता था। एक छोटे शहर के रूप में ही ये गाँव से अलग होते थे। मुगल काल में कस्बा सामान्यतया किसी स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था। इसमें एक छोटा स्थायी बाज़ार होता था, जिसे गंज कहते थे। यह बाजार विशिष्ट परिवारों एवं सेना के लिए कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध इत्यादि सामग्री उपलब्ध करवाता था। कस्बे की मुख्य विशेषता जनसंख्या नहीं थी बल्कि उसकी विशिष्ट आर्थिक व सांस्कृतिक गतिविधियाँ थीं। ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोगों का जीवन-निर्वाह मुख्यतः कृषि, पशुपालन और वनोत्पादों पर निर्भर था। ग्रामीणों की आवश्यकताओं के अनुरूप गाँवों में साधारण स्तर की दस्तकारी थी।

→ दूसरी ओर, शहरी लोगों के आजीविका के साधन अलग थे। उनकी जीवन-शैली गाँव से अलग थी। शहरों में मुख्य तौर पर शासक, प्रशासक तथा शिल्पकार व व्यापारी रहते थे। शहरी शिल्पकार किसी विशिष्ट कला में निपुण होते थे, क्योंकि वे प्रायः अपनी शिल्पकला से संपन्न और सत्ताधारी वर्गों की जरूरतों को पूरा करते थे। शहर में रहने वाले सभी लोगों के लिए खाद्यान्न सदैव गाँव से ही आता था। अन्य कृषि-उत्पाद व जरूरत के लिए वन-उत्पाद भी उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से ही प्राप्त होते थे। शहरों की एक अलग पहचान उनके भव्य भवन, स्थापत्य और उनकी किलेबंदी भी था।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 12 Img 1
18वीं सदी में भारत के बहुत-से पुराने शहरों का महत्त्व कम हो गया। साथ ही कई नए शहरों का भी उदय हुआ। राजनीतिक विकेंद्रीकरण के परिणामस्वरूप लखनऊ, हैदराबाद श्रीरंगापट्टम, पूना (आधुनिक पुणे), नागपुर, बड़ौदा और तंजौर (तंजावुर) जैसी क्षेत्रीय राजधानियों का महत्त्व बढ़ गया। अतः इस राजनीतिक विकेंद्रीकरण के कारण दिल्ली, लाहौर व आगरा इत्यादि मुगल सत्ता के प्रमुख नगर केंद्रों से व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार, साहित्यकार, कलाकार, इत्यादि काम और संरक्षण की तलाश में इन नए नगरों की ओर पलायन करने लगे।

→ यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने मुगल काल के दौरान ही भारत के विभिन्न स्थानों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। उदाहरण के लिए 1510 में पुर्तगालियों ने पणजी में, 1605 में डचों ने मछलीपट्नम में, 1639 में अंग्रेज़ों ने मद्रास में तथा 1673 में फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी (आजकल पुद्दचेरी) में शुरू में व्यापारिक कार्यालय (इन्हें कारखाने कहा जाता था) बनाए। इन ‘कारखानों’ के आस-पास धीरे-धीरे बस्तियों का आकार विस्तृत होने लगा। इस प्रकार शहर वाणिज्यवाद तथा पूँजीवाद परिभाषित होने लगे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक नियंत्रण स्थापित होने के उपरान्त इन शहरों का पतन शुरु हो गया। नई आर्थिक राजधानियों के रूप में मद्रास, कलकत्ता व बम्बई जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह शहरों का उदय तेजी से होने लगा। सन् 1800 के आस-पास तक यह जनसंख्या की दृष्टि से यह सबसे बड़े शहर बन गए। इसका कारण था कि ये औपनिवेशिक प्रशासन और सत्ता के केंद्र भी बन चुके थे। इनमें नए भवन नई स्थापत्य-कला के साथ स्थापित किए गए। बहुत-से नए संस्थानों का विकास हुआ। इस प्रकार ये शहर आजीविका की तलाश में आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गए।

→ सन् 1900 से लेकर 1940 तक भारत की कुल जनसंख्या के मात्र 13 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहते थे। औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा। यदि पूर्व-ब्रिटिशकाल से तुलना की जाए तो शहरों में आजीविका कमाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने की बजाय कम हुई। अंग्रेज़ों के राजनीतिक नियंत्रण के फलस्वरूप और आर्थिक नीतियों के चलते कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे नए शहरों का उदय तो हुआ, लेकिन ये ऐसे शहर नहीं बन पाए जिससे भारत की समूची अर्थव्यवस्था में शहरीकरण को लाभ मिले। वस्तुतः अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों व गतिविधियों के कारण उन शहरों
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 12 Img 2
का भी पतन हो गया जो अपने किसी विशिष्ट उत्पादों के लिए प्रसिद्ध थे। उदाहरण के लिए ढाका, मुर्शिदाबाद, सोनारगांव इत्यादि वस्त्र उत्पादक केंद्र बर्बाद होते गए।

रेलवे नेटवर्क के इस विस्तार से भारत में बहुत-से शहरों की कायापलट हुई। खाद्यान्न तथा कपास व जूट इत्यादि रेलवे स्टेशन आयातित वस्तुओं के वितरण तथा कच्चे माल के संग्रह केंद्र बन गए। इसके परिणामस्वरूप नदियों के किनारे बसे तथा पुराने मार्गों पर पड़ने वाले उन शहरों का महत्त्व कम होता गया जो पहले कच्चे माल के संग्रह केंद्र थे। रेलवे विस्तार के साथ रेलवे कॉलोनियाँ बसाई गईं। लोको (रलवे वर्कशॉप) स्थापित हुए। इन गतिविधियों से भी कई नए रेलवे शहर; जैसे कि बरेली, जमालपुर, वाल्टेयर आदि अस्तित्व में आए।

→ औपनिवेशिक शहर अपने नाम और स्थान से ही नए (New) नहीं थे, अपितु अपने स्वरूप से भी नए थे। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। ये आधुनिक औद्योगिक शहर नहीं बन पाए बल्कि औपनिवेशिक शहरों के तौर पर ही विकसित हुए। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते उपयोगी बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ। अंग्रेज़ों ने अपनी ‘व्यापारिक बस्तियों’ व ‘कारखानों’ की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे।

→ सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरु से ही परिलक्षित हुआ। इन शहरों में आधुनिक औद्योगिक विकास के अंकुर तो फूटने लगे, लेकिन यह विकास बहुत ही धीमा और सीमित रहा। इसका कारण पक्षपातपूर्ण संरक्षणवादी नीतियाँ थीं। इन नीतियों ने औद्योगिक विकास को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया। फैक्ट्री उत्पादन शहरी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बन सका। वास्तव में कलकत्ता, बम्बई व मद्रास जैसे विशाल शहर मैनचेस्टर या लंकाशायर ब्रिटिश औद्योगिक शहरों की तरह औद्योगिक नगर नहीं बन सके। ये औद्योगिक नगरों की अपेक्षा सेवा-क्षेत्र अधिक थे।

→ औपनिवेशिक वाणिज्यिक संस्कृति प्रतिबिम्बित हुई। राजनीतिक सत्ता और संरक्षण ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के हाथों में आने से नई शहरी संस्कृति उत्पन्न हुई। नए संस्थानों का उदय हुआ। नदी अथवा समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास होने लगा। व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं का उदय हुआ जैसे कि जहाज़रानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं तथा यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों की स्थापना हुई।

→ कंपनी के प्रमुख प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना अपने आप में ब्रिटिश प्रशासन में नौकरशाही के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक था। औपनिवेशिक शहरों में शासक वर्ग तथा संपन्न यूरोपियन व्यापारी वर्ग के निजी महलनुमा मकान बने। उनके लिए पृथक क्लब, रेसकोर्स तथा रंगमंच इत्यादि भी स्थापित किए गए। ये जहाँ विदेशी अभिजात वर्ग की रुचियों को अभिव्यक्त कर रहे थे वहीं इनसे भेदभाव और प्रभुत्व भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था।

→ एक नया भारतीय संभ्रांत वर्ग भी इन शहरों में उत्पन्न हो चुका था। यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पाश्चात्य जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। दूसरी ओर, इन शहरों में काफी बड़ी संख्या में कामगार एवं गरीब लोग रहते थे। यह खानसामा, पालकीवाहक, गाड़ीवान तथा चौकीदारों के रूप में संभ्रांत भारतीय एवं यूरोपीय लोगों को अपनी सेवाएँ उपलब्ध करवाते थे। इसके अतिरिक्त ये औद्योगिक मजदूरों के रूप में या फिर पोर्टर, निर्माण एवं गोदी मजदूरों के तौर पर कार्य करते थे। इन लोगों की स्थिति अच्छी नहीं थी। ये लोग शहर के विभिन्न भागों में घास-फूस की कच्ची झोंपड़ियों में रहते थे।

→ लम्बे समय तक उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य और सफाई जैसे मुद्दों की ओर अंग्रेजों ने कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने गोरी बस्तियों को ही साफ और सुंदर बनाने पर बल दिया था। लेकिन महामारियों के मंडराते खतरों से उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव आने लगा। हैजा, प्लेग, चेचक जैसी महामारियों में लाखों लोग मर रहे थे। इससे प्रशासकों को यह खतरा सताने लगा कि ये बीमारियाँ उनके क्षेत्रों में भी फैल सकती हैं। इसलिए उनके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाई के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी हो गए।

→ पर्वतीय शहर भी नए औपनिवेशिक विशेष शहरों के तौर पर विकसित हुए। शुरू में ये सैनिक छावनियाँ बनीं, फिर अधिकारियों के आवास-स्थल और अन्ततः पर्वतीय पर्यटन स्थलों के तौर पर विकसित हुए। इन शहरों में शिमला, माउंट आबू, दार्जीलिंग व नैनीताल इत्यादि थे।

धीरे-धीरे ये पर्वतीय शहर एक तरह से सेनिटोरियम (Sanitoriums) बन गए अर्थात् ऐसे स्थान बन गए जहाँ सैनिकों को आराम व चिकित्सा के लिए भेजा जाने लगा। पहाड़ी शहरों की जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक थी। पहाड़ों की मृदु और ठण्डी जलवायु अंग्रेज़ व यूरोपीय अधिकारियों को लुभाती थी। यही कारण था कि गर्मियों के दिनों में अंग्रेज़ अपनी राजधानी शिमला बनाते थे। इन्होंने अपने निजी और सार्वजनिक भवन यूरोपीय शैली में बनवाए। इन घरों में रहते हुए उन्हें यूरोप में अपनी निवास बस्तियों की अनुभूति होती थी। पर्वतीय शहरों पर अंग्रेज़ी-शिक्षण संस्थान तथा एंग्लिकन चर्च स्थापित किए गए। स्पष्ट है कि पर्वतीय शहरों में गोरे लोगों को पश्चिमी सांस्कृतिक जीवन जीने का अवसर मिला।

→ धीरे-धीरे इन पर्वतीय शहरों को रेलवे नेटवर्क से जोड़ दिया गया और महाराजा, नवाब, व्यापारी तथा अन्य मध्यवर्गीय लोग भी इन पर्वतीय शहरों पर पर्यटन के लिए जाने लगे। इन संभ्रांत लोगों को ऐसे स्थलों पर काफी संतोष की अनुभूति होती थी। पर्वतीय स्थल केवल पर्यटन की दृष्टि से ही अंग्रेज़ों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं थे, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण थे।

→ नए शहरों का सामाजिक जीवन पहले के शहरों से अलग था। ये मध्य वर्ग के केन्द्र थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। इन नए शहरों में मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे। ये स्थल मध्यवर्गीय लोगों के जीवन का हिस्सा बनने लगे। यह मध्य वर्ग अपनी नई पहचान और नई भूमिकाओं के साथ अस्तित्व में आया। नए शहरों में औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

→ परंतु सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता था। स्पष्ट है कि सामाजिक बदलाव सहज रूप से नहीं हो रहे थे। रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का पुरजोर समर्थन कर रहे थे। दूसरी ओर, कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। फिर भी इन लोगों ने अपनी ‘एक अलग जीवंत शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों पर प्रायः कटाक्ष और व्यंग्य करते हुए उनका मज़ाक उड़ाते थे।

→ विकसित होते मद्रास शहर में अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच पृथक्करण (Segregation) स्पष्ट दिखाई देता है। यह पृथक्करण शहर की बनावट और दोनों समुदायों की हैसियत (Position) में साफ-साफ झलकता है। फोर्ट सेंट जॉर्ज में अधिकतर यूरोपीय लोग रहते थे। इसीलिए यह क्षेत्र व्हाइट किले के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। भारतीयों को इस क्षेत्र में रहने की अनुमति नहीं थी। व्हाइट टाउन प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केन्द्र भी था। व्हाइट टाउन से बिल्कुल अलग ब्लैक टाउन बसाया गया। कलकत्ता-नगर नियोजन में ‘विकास’ सम्बन्धी विचारधारा झलक रही थी और साथ ही इसका अर्थ राज्य द्वारा लोगों के जीवन और शहरी क्षेत्र पर अपनी सत्ता को स्थापित करना था। इसमें फोर्ट विलियम का नया किला तथा सुरक्षा के लिए मैदान रखा गया। उल्लेखनीय है कि कलकत्ता कस्बे का विकास तीन गाँवों-(सुतानाती, कोलकाता व गोविन्दपुर) को मिलाकर हुआ था।

→ कलकत्ता की नगर योजना में लॉर्ड वेलेज़्ली ने उल्लेखनीय योगदान दिया। कलकत्ता अब ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी था। इस सन्दर्भ में, 1803 ई० का वेलेज़्ली का प्रशासकीय आदेश महत्त्वपूर्ण है। वेलेज़्ली के इस सरकारी आदेश के बाद ‘जन स्वास्थ्य’ नगर नियोजन में प्रमुख विचार बन गया। शहरों में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा और भविष्य की नगर-नियोजन की परियोजनाओं में ‘जन स्वास्थ्य’ का विशेष ध्यान रखा गया।

→ ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ ही अंग्रेज़ों का झुकाव इस ओर बढ़ता गया कि कलकत्ता, बम्बई और मद्रास को शानदार शाही राजधानियों के रूप में बनाया जाए। इन शहरों की भव्यता से ही साम्राज्यवादी ताकत सत्ता झलकती थी। नगर नियोजन में उन सभी खूबियों को प्रतिबिंबित होना था जिसका प्रतिनिधित्व होने का दावा अंग्रेज़ करते थे। ये मुख्य खूबियाँ थीं- तर्क-संगत क्रम व्यवस्था, (Rational Ordrain), सटीक क्रियान्वयन (Meticulous Execution) और पश्चिमी सौन्दर्यात्मक आदर्श (Western Aesthetic Ideas)। वस्तुतः साफ-सफाई नियोजन और सुन्दरता, औपनिवेशिक शहर के आवश्यक तत्त्व बन गए।

→ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे बड़े शहरों में न्यूक्लासिकल तथा नव-गॉथिक शैलियों में अंग्रेज़ों ने भवन बनवाए। ये पाश्चात्य स्थापत्य शैलियाँ थीं। फिर बहुत-से धनी भारतीयों ने इन पश्चिमी शैलियों को भारतीय शैलियों में मिलाकर मिश्रित स्थापत्य शैली का विकास किया। इसे इण्डोसारासेनिक शैली कहा गया है। उल्लेखनीय है कि इन स्थापत्य शैलियों के माध्यम से भी राजनीतिक और सांस्कृतिक टकरावों को समझा जा सकता है।

काल-रेखा

1500-1700 ई०पणजी में पुर्तगाली (1510); मछलीपट्टनम में डच (1605); मद्रास (1639), बंबई (1661) और कलकत्ता (1690) में अंग्रेज़ तथा पांडिचेरी (1673) में फ्रांसीसी ठिकानों की स्थापना।
1600-1623 ई०ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के सूरत, भड़ीच, अहमदाबाद, आगरा और मछलीपट्टनम में ‘कारखाने’ (कार्यालय व गोदाम) थे।
1622 ई०बंबई उस समय एक छोटा-सा द्वीप था। यह अनेक वर्षों तक पुर्तगालियों के अधिकार में रहा। 1622 ई० में ब्रिटेन के सम्राट चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के समय दहेज में दिया गया था।
1668 ई०बंबई (मुंबई) की किलाबंदी की गई।
1698 ई०अंग्रेज़ों द्वारा कलकत्ता (आधुनिक) की नींव रखी गई।
1772-1785 ईवारेन हेस्टिंग्स का शासनकाल।
1757 ई०प्लासी के युद्ध में अंग्रेज़ों की विजय।
1773 ई०कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना।
1798-1805 ई०लॉर्ड वेलेज़्ली का भारत में गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यकाल।
1803 ई०कलकत्ता नगर सुधार पर वेलेज़्ली का मिनट्स लिखना।
1817 ई०कलकत्ता नगर नियोजन के लिए लॉटरी कमेटी का गठन।
1818 ई०दक्कन पर अंग्रेज़ों की विजय व बम्बई को नए प्रांत की राजधानी।
1853 ई०पहली रेलवे लाइन, बम्बई से ठाणे।
1857 ई०बम्बई, कलकत्ता व मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना।
1870 का दशकनगर-पालिकाओं में निर्वाचित भारतीयों को शामिल करना।
1881 ई०मद्रास हॉर्बर के निर्माण का काम पूरा होना।
1896 ई०बम्बई के वाटसंस होटल में पहली बार फिल्म दिखाना।
1896 ई०प्लेग महामारी का फैलना।
1911 ईoकलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया जाना।
1911 ई०‘गेट वे ऑफ़ इण्डिया’ बनाया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

HBSE 12th Class History औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व सँभालने के लिए पुराने शासकों से क्या आग्रह किया ?
उत्तर:
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों (सैनिकों) ने नेतृत्व संभालने के लिए पुराने अपदस्थ शासकों से आग्रह किया कि वे विद्रोह को नेतृत्व प्रदान करें। क्योंकि वे जानते थे कि नेतृत्व व संगठन के बिना अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया जा सकता। यह बात सही है कि सिपाही जानते थे कि सफलता के लिए राजनीतिक नेतृत्व जरूरी है। इसीलिए सिपाही मेरठ में विद्रोह के तुरंत बाद दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने बहादुर शाह को अपना नेता बनाया। वह वृद्ध था। बादशाह तो नाममात्र का ही था। स्वाभाविक तौर पर वह विद्रोह की खबर से बेचैन और भयभीत हुआ। यद्यपि अंग्रेजों की नीतियों से वह त्रस्त तो था ही फिर भी विद्रोह के लिए तैयार वह तभी हुआ जब कुछ सैनिक शाही शिष्टाचार की अवहेलना करते हुए दरबार तक आ चुके थे। सिपाहियों से घिरे बादशाह के पास उनकी बात मानने के लिए और कोई चारा नहीं था। अन्य स्थानों पर भी पहले सिपाहियों ने विद्रोह किया और फिर नवाबों और राजाओं को नेतृत्व करने के लिए विवश किया।

प्रश्न 2.
उन साक्ष्यों के बारे में चर्चा कीजिए जिनसे पता चलता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और समन्वित ढंग से काम कर रहे थे?
उत्तर:
इस बात के कुछ प्रमाण मिलते हैं कि सिपाही विद्रोह को योजनाबद्ध एवं समन्वित तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। विभिन्न छावनियों में विद्रोही सिपाहियों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान था। ‘चर्बी वाले कारतूसों’ की बात सभी छावनियों में पहुँच गई थी। बहरमपुर से शुरू होकर बैरकपुर और फिर अंबाला और मेरठ में विद्रोह की चिंगारियाँ भड़कीं। इसका अर्थ है कि सूचनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच रही थीं। सिपाही बगावत के मनसूबे गढ़ रहे थे। इसका एक और उदाहरण यह है कि जब मई की शुरुआत में सातवीं अवध इर्रेग्युलर कैवेलरी (7th Awadh Irregular Cavalry) ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेंट्री को लिखा : “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेंट्री के आदेश की प्रतीक्षा है।”

सिपाहियों की बैठकों के भी कुछ सुराग मिलते हैं। हालांकि बैठक में वे कैसी योजनाएँ बनाते थे, उसके प्रमाण नहीं हैं। फिर भी कुछ अंदाजें लगाए जाते हैं कि इन सिपाहियों का दुःख-दर्द एक-जैसा था। अधिकांश उच्च-जाति के थे और उनकी जीवन-शैली भी मिलती-जुलती थी। स्वाभाविक है कि वे अपने भविष्य के बारे में ही निर्णय लेते होंगे। चार्ल्स बॉल (Charles Ball) उन शुरुआती इतिहासकारों में से है जिसने 1857 की घटना पर लिखा है। इसने भी उन सैन्य पंचायतों का उल्लेख किया है जो कानपुर सिपाही लाइन में रात को होती थी। जिनमें मिलिट्री पुलिस के कप्तान ‘कैप्टेन हियर्से’ की हत्या के लिए 41वीं नेटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सैनिकों ने उन भारतीय सिपाहियों पर दबाव डाला, जो उस कप्तान की सुरक्षा के लिए तैनात थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 3.
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद तक भूमिका थी? [2017 (Set-A, D)]
उत्तर:
1857 के घटनाक्रम के निर्धारण में धार्मिक विश्वासों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। विभिन्न तरीकों से सैनिकों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं। सामान्य लोग भी अंग्रेज़ी सरकार को संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि सरकार अंग्रेज़ी शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके भारत में ईसाइयत को बढ़ावा दे रही है। उनका संदेह गलत भी नहीं था क्योंकि अधिकारी वर्ग ईसाई पादरियों को धर्म प्रचार की छूट और प्रोत्साहन दे रहे थे। सैनिकों और स्कूलों में धर्म परिवर्तन के लिए प्रलोभन भी दिया जा रहा था। 1850 में बने उत्तराधिकार कानून से यह संदेह विश्वास में बदल गया। इसमें धर्म बदलने वाले को पैतृक सम्पत्ति प्राप्ति का अधिकार दिया गया था।

सैनिकों को विदेशों में जाकर लड़ने के लिए भी विवश किया जाता था, जिसे वे गलत मानते थे। इसमें वे अपना धर्म भ्रष्ट मानते थे। अन्ततः इन सभी परिस्थितियों के अन्तर्गत ‘चर्बी वाले कारतूस’ तथा कुछ अन्य अफवाहों, जैसे कि ‘आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट इत्यादि के चलते इस विद्रोह का घटनाक्रम निर्धारित हुआ। अफवाहें तभी विश्वासों में बदल रही थीं क्योंकि उनमें संदेह की अनुगूंज थी।

प्रश्न 4.
विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए क्या तरीके अपनाए गए?
उत्तर:
विद्रोहियों की सोच में सभी भारतीय सामाजिक समुदायों में एकता आवश्यक थी। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में निम्नलिखित बातों पर जोर दिया गया-

  1. जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया।
  2. अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का बखान भी किया गया।
  3. लाभ की दृष्टि से इस युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक-समान बताया।
  4. बादशाह बहादुर शाह की ओर से की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई देते हुए संघर्ष में शामिल होने की अपील की गई।
  5. विद्रोह के लिए समर्थन जुटाने के लिए तीन भाषाओं हिंदी, उर्दू और फारसी में अपीलें जारी की गईं।

प्रश्न 5.
अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए?
उत्तर:
विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित कदम उठाए
(1) गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग ने कम्पनी सरकार के समस्त ब्रिटिश साधनों को संगठित करके विद्रोह को कुचलने के लिए एक समुचित योजना बनाई।

(2) मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए।

(3) एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी।

(4) सबसे पहले दिल्ली पर पुनः अधिकार की रणनीति अपनाई गई। केनिंग जानता था कि दिल्ली के पतन से विद्रोहियों की कमर टूट जाएगी। साथ ही देशी शासकों और ज़मींदारों का समर्थन पाने के लिए उन्हें लालच दिया गया।

(5) हिंदू-मुसलमानों में सांप्रदायिक तनाव भड़काकर विद्रोह को कमजोर करने का प्रयास किया गया। लेकिन इसमें उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? किसान, ताल्लुकदार और ज़मींदार उसमें क्यों शामिल हुए?
उत्तर:
अवध में विद्रोह अपेक्षाकृत सबसे व्यापक था। इस प्रांत में आठ डिविजन थे उन सभी में विद्रोह हुआ। यहाँ किसान व दस्तकार से लेकर ताल्लुकदार और नवाबी परिवार के सदस्यों सहित सभी लोगों ने इसमें भाग लिया। हरेक गांव से लोग विद्रोह में शामिल हुए। यहाँ विदेशी शासन के विरुद्ध यह विद्रोह लोक-प्रतिरोध का रूप धारण कर चुका था। लोग फिरंगी राज के आने से अत्यधिक आहत थे। उन्हें लग रहा था कि उनकी दुनिया लुट गई है; वो सब कुछ बिखर गया है, जिन्हें वो प्यार करते थे। वस्तुतः इसमें विभिन्न प्रकार की पीड़ाओं (A chain of grievances) ने किसानों, सिपाहियों, ताल्लुकदारों और खजकुमारों को परस्पर जोड़ दिया था। संक्षेप में, विद्रोह की व्यापकता के निम्नलिखित कारण थे

1. अवध का विलय-अवध का विलय 1856 में विद्रोह फूटने से लगभग एक वर्ष पहले हुआ था। इसे ‘कुशासन’ का आरोप लगाते हुए ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया था। लेकिन अवधवासियों ने इसे न्यायसंगत नहीं माना। बल्कि वे इसे डलहौज़ी का विश्वासघात मान रहे थे। 1851 में ही लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध के बारे में कहा था कि “यह गिलास फल (cherry) एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” डलहौज़ी एक उग्र साम्राज्यवादी था। वस्तुतः उसकी दिलचस्पी अवध की उपजाऊ जमीन को हड़पने में भी थी। अतः कुशासन तो एक बहाना था। अवधवासी यह जानते थे कि अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह बहुत लोकप्रिय था। लोगों की नवाब व उसके परिवार से गहरी सहानुभूति थी। जब उसे कलकत्ता से निष्कासित किया गया तो बहुत-से लोग उनके पीछे विलाप करते हुए गए।

2. ताल्लुकदारों का अपमान-ताल्लुकदारों ने विद्रोह में बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनकी सत्ता व सम्मान को अंग्रेजी राज से जबरदस्त क्षति हुई थी। ताल्लुकदार अवध क्षेत्र में वैसे ही छोटे राजा थे जैसे बंगाल में ज़मींदार। वे छोटे महलनुमा घरों में रहते थे। अपनी-अपनी जागीर में सत्ता व जमीन पर उनका नियंत्रण था। 1856 में अवध का अधिग्रहण करते ही इन ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं और दुर्ग भी ध्वस्त कर दिए गए।

3. भूमि छीनने की नीति-आर्थिक दृष्टि से अवध के ताल्लुकदारों की हैसियत व सत्ता को क्षति भूमि छीनने की नीति से पहुँची। 1856 ई० में अधिग्रहण के तुरंत बाद एक मुश्त बंदोबस्त (Summary Settlement of 1856) नाम से भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई, जो इस मान्यता पर आधारित थी कि ताल्लुकदार जमीन के वास्तविक मालिक नहीं हैं। उन्होंने जमीन पर कब्जा धोखाधड़ी व शक्ति के बल पर किया हुआ है। इस मान्यता के आधार पर ज़मीनों की जाँच की गई। ताल्लुकदारों की जमीनें उनसे लेकर किसानों को दी जाने लगीं। पहले अवध के 67% गाँव ताल्लुकदारों के पास थे और इस ब्रिटिश नीति से यह संख्या घटकर मात्र 38% रह गई।

4. किसानों में असंतोष-विद्रोह में बहुत बड़ी संख्या में किसानों ने भाग लिया। इससे अंग्रेज़ अधिकारी काफी परेशान हुए थे, क्योंकि किसानों ने अंग्रेज़ों का साथ देने की बजाय अपने पूर्व मालिकों (ताल्लुकदारों) का साथ दिया। जबकि अंग्रेजों ने उन्हें ज़मीनें भी दी थीं। इसके कई कारण थे जैसे कि अंग्रेजी राज से एक संपूर्ण ग्रामीण समाज व्यवस्था भंग हो गई थी। यदि कभी ज़मींदार किसानों से बेगार या धन वसूलता था तो बुरे वक्त में वह उनकी सहायता भी करता था। ताल्लुकदारों की छवि दयालु अभिभावकों की थी। तीज-त्योहारों पर भी उन्हें कर्जा अथवा मदद मिल जाती थी, फसल खराब होने पर भी उनकी दया दृष्टि किसानों पर रहती थी। लेकिन अंग्रेज़ी राज की नई भू-राजस्व व्यवस्था में कोई लचीलापन नहीं था, न ही उसके निर्धारण में और न ही वसूली में। मुसीबत के समय यह नई सरकार कृषकों से कोई सहानुभूति की भावना नहीं रखती थी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवध में विद्रोह विभिन्न सामाजिक समूहों का एक सामूहिक कृत्य था। किसान, ज़मींदार व ताल्लुकदारों ने इसमें बड़े स्तर पर सिपाहियों का साथ दिया क्योंकि अंग्रेजों के खिलाफ इन सबका दुःख-दर्द एक हो गया था।

प्रश्न 7.
विद्रोही क्या चाहते थे? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में कितना फर्क था?
उत्तर:
विद्रोही नेताओं की घोषणाओं, सिपाहियों की कुछ अर्जियों तथा नेताओं के कुछ पत्रों से हमें विद्रोहियों की सोच के बारे में कुछ जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार है

(1) वे अंग्रेज़ी सत्ता को उत्पीड़क, निरंकुश और षड्यंत्रकारी मान रहे थे। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक समूहों को एकजुट होने का आह्वान किया। वे इस राज से सम्बन्धित प्रत्येक चीज को खारिज कर रहे थे।

(2) विद्रोहियों की घोषणाओं से ऐसा लगता है कि वे भारत के सभी सामाजिक समूहों में एकता चाहते थे। विशेष तौर पर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। लाभ की दृष्टि से युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक-समान बताया। बहादुरशाह जफ़र की घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई के साथ संघर्ष में भाग लेने की अपील की गई।

(3) वे वैकल्पिक सत्ता के रूप में अंग्रेज़ों का राज समाप्त करके 18वीं सदी से पहले की मुगलकालीन व्यवस्था की ओर ही वापिस लौटना चाहते थे।

विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में अंतर-उपरोक्त बातों से यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सभी विद्रोहियों की सोच बिल्कुल एक जैसी थी। वास्तव में अलग-अलग सामाजिक समूहों की दृष्टि में अंतर था, उदाहरण के लिए

(1) सैनिक चाहते थे कि उन्हें पर्याप्त वेतन, पदोन्नति तथा अन्य सुविधाएं यूरोपीय सिपाहियों की तरह ही प्राप्त हों। वे अपने आत्म-सम्मान व भावनाओं की भी रक्षा चाहते थे। वे अंग्रेजों की विदेशी सत्ता को खत्म करके अपने पुराने शासकों की सत्ता की पुनः स्थापना चाहते थे।

(2) अपदस्थ शासक विद्रोह के नेता थे। परन्तु इनमें से अधिकांश अपनी रजवाड़ा शाही को ही पुनः स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। इसलिए उन्होंने पुराने ढर्रे पर ही दरबार लगाए और दरबारी नियुक्तियाँ कीं।

(3) ताल्लुकदार अथवा ज़मींदार अपनी जमींदारियों और सामाजिक हैसियत के लिए संघर्ष में कूदे थे। वे अपनी जमीनों को पुनः प्राप्त करना चाहते थे जो अंग्रेज़ों ने उनसे छीनकर किसानों को दे दी थीं।

(4) किसान अंग्रेज़ों की भू-राजस्व व्यवस्था से परेशान था। इसमें कोई लचीलापन नहीं था। राजस्व का निर्धारण बहुत ऊँची दर पर किया जाता था और उसकी वसूली ‘डण्डे’ के साथ की जाती थी। फसल खराब होने पर भी सरकार की ओर से कोई दयाभाव नहीं था। इसी कारण वह साहकारी के चंगल में फँसता था। यही कारण था कि अंग्रेजी राज के साथ-साथ वह अन्य उत्पीडकों को भी खत्म करना चाहता था। उदाहरण के लिए उन्होंने कई स्थानों पर सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घरों में तोड़-फोड़ की।

उपरोक्त समूहों के अतिरिक्त दस्तकार भी अंग्रेज़ों की नीतियों से बर्बाद हुए। वे भी विद्रोहियों के साथ आ गए थे। बहुत-से रूढ़िवादी विचारों के लोग सामाजिक व धार्मिक कारणों से भी अंग्रेज़ी व्यवस्था को खत्म करना चाहते थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से क्या पता चलता है? इतिहासकार इन चित्रों का किस तरह विश्लेषण करते हैं?
उत्तर:
चित्र भी इतिहास लिखने के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। 1857 के विद्रोह से सम्बन्धित कुछ चित्र, पेंसिल से बने रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र (Etchings), पोस्टर, कार्टून इत्यादि उपलब्ध हैं। कुछ चित्रों और कार्टूनों के बाजार-प्रिंट भी मिलते हैं। किसी घटना की छवि बनाने में ऐसे चित्रों की विशेष भूमिका होती है। चित्र विचारों और भावनाओं के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को भी व्यक्त करते हैं। 1857 के चित्रों के विश्लेषण से पता चलता है कि जो चित्र इंग्लैण्ड में बने उन्होंने ब्रिटिश जनता में अलग छवि बनाई। इनसे वहाँ के लोग उत्तेजित हुए और उन्होंने विद्रोहियों को निर्दयतापूर्वक कुचल डालने की मांग की। दूसरी ओर भारत में छपने वाले चित्रों, संबंधित फिल्मों तथा कला व साहित्य के अन्य रूपों में उन्हीं विद्रोहियों की अलग छवि को जन्म दिया। इस छवि ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन को पोषित किया। इंग्लैण्ड और भारत में चित्रों से बनने वाली छवियों को हम निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं

A. अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए चित्र-इन चित्रों को देखकर विविध भावनाएँ और प्रतिक्रियाएँ पैदा होती हैं।

(1) टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा 1859 में बनाए गए चित्र ‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ में अंग्रेज़ नायकों (कैम्पबेल, औट्रम व हैवलॉक) की छवि उभरती है। इन नायकों ने लखनऊ में विद्रोहियों को खदेड़कर अंग्रेज़ों को सुरक्षित बचा लिया था।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 Img 3

(2) बहुत-से समकालीन चित्रों ने ब्रिटिश नागरिकों में प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा मिला। उदाहरण के लिए जोसेफ़ नोएल पेटन का चित्र ‘इन मेमोरियम’ (स्मृति में) को देखने से दर्शक के मन में बेचैनी और क्रोध की भावना सहज रूप से उभरती है। दूसरी ओर ‘मिस व्हीलर’ का तमंचा वाले चित्र से ‘सम्मान की रक्षा का संघर्ष’ नज़र आता है।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 Img 4
(3) दमन और प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा देने वाले बहुत-से चित्र मिलते हैं। 1857 के पन्च नामक पत्र में ‘जस्टिस’ नामक चित्र में एक गौरी महिला को बदले की भावना से तड़पते हुए दिखाया गया है। विद्रोहियों को तोप से उड़ाते हुए बहुत-से चित्र बनाए गए हैं। इन चित्रों को देखकर ब्रिटेन के आम नागरिक प्रतिशोध को उचित ठहराने लगे। केनिंग की ‘दयाभाव’ का मजाक उड़ाने लगे। ‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ ऐसा ही एक कार्टून है।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 Img 5
B. भारतीयों द्वारा बनाए गए चित्र-यदि हम भारत में 1857 में जुड़ी फिल्मों और चित्रों को देखते हैं तो हमारे मन में अलग प्रतिक्रिया होती है। रानी लक्ष्मीबाई का नाम लेते ही मन में वीरता, अन्याय और विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष की साकार प्रतिमा की छवि बनती है। ऐसी छवि बनाने में गीतों, कविताओं, फिल्मों एवं चित्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लक्ष्मीबाई के चित्र प्रायः घोड़े पर सवार हाथ में तलवार लिए वीरांगना के बनाए गए।

प्रश्न 9.
एक चित्र और एक लिखित पाठ को चुनकर किन्हीं दो स्रोतों की पड़ताल कीजिए और इस बारे में चर्चा कीजिए कि उनसे विजेताओं और पराजितों के दृष्टिकोण के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
हम पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्रों में से चित्र को लेते हैं। इस चित्र में विजेताओं का दृष्टिकोण झलकता है। इसमें विद्रोहियों को दानवों तथा अंग्रेज़ औरत को वीरांगना के रूप में दर्शाया गया है। चित्र का शीर्षक ‘मिस व्हीलर’ है। उसे कानपुर में हाथ में तमंचा लिए हुए अपनी इज्जत की रक्षा करती हुई दृढ़तापूर्वक खड़ी दिखाया गया है। अकेली औरत पर किस तरह से विद्रोही तलवारों और बंदूकों से आक्रमण कर रहे हैं; जैसे वे मानव नहीं दानव हों। चित्र में धरती पर बाइबल पड़ी है जो इस संघर्ष को ‘ईसाइयत की रक्षा के संघर्ष के रूप में व्यक्त करती है। यह चित्र उस हत्याकांड पर आधारित है जब विद्रोहियों ने नाना साहिब के न चाहते हुए भी अंग्रेज़ औरतों और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया था, लेकिन यह हत्याकांड तब हुआ जब विद्रोहियों ने बनारस में अंग्रेजों द्वारा किए गए हत्याकाण्डों का समाचार सुना। वे अपने प्रतिशोध को रोक नहीं पाए।

(अन्तिम भेंट में हनवंत सिंह ने उस अंग्रेज़ अफसर से कहा था, “साहिब, आपके मुल्क के लोग हमारे देश में आए और उन्होंने हमारे राजाओं को खदेड़ दिया। आप अधिकारियों को भेजकर जिले-जिले में जागीरों के स्वामित्व की जाँच करवाते हैं। एक ही झटके में आपने मेरे पूर्वजों की जमीन मुझसे छीन ली। मैं चुप रहा। फिर अचानक आपका बुरा समय प्रारंभ हो गया। यहाँ के लोग आपके विरुद्ध उठ खड़े हुए। तब आप मेरे पास आए, जिसे आपने बरबाद कर दिया था। मैंने आपकी जान बचाई है। किंतु, अब मैं अपने सिपाहियों को लेकर लखनऊ जा रहा हूँ ताकि आपको देश से खदेड़ सऊँ।” पाठयपस्तक में स्रोत नं0 4)

स्पष्ट है कि विजेताओं के दृष्टिकोण से बने चित्र में पराजितों के दृष्टिकोण के लिए कोई स्थान नहीं था।

अब हम Box में दिए गए स्रोत को लेंगे। यह एक लिखित रिपोर्ट का भाग है। इसमें ताल्लुकदारों यानी पराजितों के दृष्टिकोण का पता चलता है। विवरण में काला कांकर के राजा हनवंत सिंह की उस अंग्रेज़ अधिकारी से बातचीत के अंश हैं जो 1857 में जान बचाने के लिए हनवंत सिंह के पास शरण लेता है। हनवंत सिंह उसकी जान बचाता है और साथ ही अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए लखनऊ जाकर लड़ने का निश्चय भी दोहराता है। इस विवरण को पढ़कर हमारे मन में विद्रोहियों की छवि वह नहीं उभरती जो

‘मिस व्हीलर’ नामक चित्र में उभरती है। यहाँ ताल्लुकदार हनवंत सिंह एक विद्रोही नेता है जो एक ओर शरण में आए एक अंग्रेज़ की जान बचाता है तो दूसरी ओर अपने सिपाहियों को लेकर युद्ध क्षेत्र में उतरता है। यहाँ विद्रोही बर्बर, नृशंस और दानव नहीं हैं। वे एक ‘वीर इंसान’ हैं।

परियोजना कार्य

प्रश्न 10.
1857 के विद्रोही नेताओं में से किसी एक की जीवनी पढ़ें। देखिए कि उसे लिखने के लिए जीवनीकार ने किन स्रोतों का उपयोग किया है? क्या उनमें सरकारी रिपोर्टों, अखबारी खबरों, क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों, चित्रों और किसी अन्य चीज़ का इस्तेमाल किया गया है? क्या सभी स्रोत एक ही बात कहते हैं या उनके बीच फर्क दिखाई देते हैं? अपने निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी पुस्तकालय से या इंटरनेट पर विद्रोही नेताओं जैसे कि बहादुरशाह जफर, महारानी लक्ष्मीबाई, तांत्या तोपे, कुंवर सिंह, राव तुलाराम इत्यादि प्रमुख नेताओं की जीवनी पढ़ें। पढ़ते समय विद्यार्थी यह विवरण तैयार करें कि लेखक ने किन स्रोतों के आधार पर पुस्तक लिखी है। सरकारी रिपोर्टों का उपयोग कितना है, देशी भाषा, स्थानीय कोई भी भाषा या अंग्रेज़ी समाचार-पत्र, पत्रिकाओं से कितने और कैसे तथ्य लिए गए हैं। पेंटिंग, मूर्ति, कार्टून, गीत, रागनी इत्यादि का कितना प्रयोग है। लेखक किस दृष्टि से लिख रहा है। वह कितना निष्पक्ष है। इसमें यह भी नोट करें कि इन सम्बन्धित साक्ष्यों में आपस में कितना अंतर है। सारी सूचनाओं के आधार पर अपने प्राध्यापक के निर्देशन में एक रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 11.
1857 पर बनी कोई फिल्म देखिए और लिखिए कि उसमें विद्रोह को किस तरह दर्शाया गया है। उसमें अंग्रेज़ों, विद्रोहियों और अंग्रेज़ों के भारतीय वफादारों को किस तरह दिखाया गया है? फिल्म किसानों, नगरवासियों, आदिवासियों, जमीदारों और ताल्लकदारों के बारे में क्या कहती है? फिल्म किस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म देना चाहती है?
उत्तर:
1857 के विद्रोह पर कई फिल्में बनी हैं। परन्तु उनमें सर्वाधिक चर्चित ‘मंगल पांडे’ है जिसमें आमिर खान ने छाप छोड़ने वाली भूमिका निभाई है। इस फिल्म को देखा जा सकता है। इसमें भारतीय सिपाहियों की दिनचर्या, असंतोष, धर्म के प्रति उनमें संवेदनशीलता, जातीय सम्बन्धों की झलक, भारत के विभिन्न समूहों (किसान, आदिवासी, जमींदार, ताल्लुकदार) आदि की स्थिति इत्यादि को फिल्माया गया है। फिल्म देखकर मन पर क्या प्रतिक्रिया होती है। इस पर विचार करें। उदाहरण के लिए फिल्म में जिस प्रकार ‘चर्बी वाले कारतूस’ बनाते दिखाया गया है, इस पर विचार करें कि क्या यह ‘ऐतिहासिक सत्य है या कल्पनात्मक अभिव्यक्ति। यदि यह कल्पनात्मक अभिव्यक्ति है तो दर्शक पर क्या प्रभाव डालती है। फिर हम जान पाएँगे कि छवियाँ कैसे निर्मित होती हैं।

औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य HBSE 12th Class History Notes

→ फिरंगी-फिरंगी फारसी भाषा का शब्द है जो सम्भवतः फ्रैंक (जिससे फ्रांस नाम पड़ा है) से निकला है। हिंदी और उर्दू में पश्चिमी लोगों का मजाक उड़ाने के लिए कभी-कभी इसका प्रयोग अपमानजनक दृष्टि से भी किया जाता था।

→ रेजीडेंट-ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि को रेजीडेंट कहा जाता था। उसे ऐसे राज्यों में नियुक्त किया जाता था जो अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में नहीं था, लेकिन आश्रित राज्य होता था।

→ सहरी-रोजे (रमजान महीने के व्रत) के दिनों में सूरज निकलने से पहले का भोजन।

→ गवर्नर-जनरल-भारत में ब्रिटिश सरकार का मुख्य प्रशासक’ गवर्नर-जनरल कहलाता था।

→ वायसराय-1858 के बाद गवर्नर-जनरल को भारतीय रियासतों के लिए वायसराय कहा जाने लगा। वायसराय का अर्थ था ‘प्रतिनिधि’ यानी इंग्लैण्ड के ‘ताज’ का प्रतिनिधि।

→ बादशाह-मुगल शासक बादशाह कहलाते थे। इसका मौलिक शब्द है ‘पादशाह’ जिसका अर्थ है-‘शाहों का शाह’ पादशाह चगती तुर्की का शब्द है। फारसी में यह बादशाह बन गया।

→ बैरक-सैनिकों का सैनिक छावनी में निवास स्थान।

→ छावनी सेना का स्टेशन जिसमें बड़ी संख्या में सैनिक टुकड़ियाँ रहती थीं।

→ इस अध्याय में हम 1857 के जन-विद्रोह का अध्ययन करेंगे। सबसे अधिक गहन विद्रोह अवध क्षेत्र में हुआ। इसलिए इस क्षेत्र में हुए विद्रोह की गहन छान-बीन करेंगे। साथ ही इसके सामान्य कारणों को भी पढ़ेंगे। विद्रोही क्या सोचते थे और कैसे वे अपनी योजनाएँ बनाते थे; उनके नेता कैसे थे इत्यादि पहलुओं पर भी चर्चा करेंगे। दमन और फिर अंततः इस विद्रोह की छवियाँ (चित्रों, रेखाचित्रों व कार्टून इत्यादि के माध्यम से) कैसे निर्मित हुई, इस पर भी विचार करेंगे।

→ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में विद्रोह शुरू हुआ। सिपाहियों ने ‘चर्बी वाले कारतूसों’ का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। 85 भारतीय सिपाहियों को 8 से लेकर 10 वर्ष तक की कठोर सज़ा दी गई। उसी दिन दोपहर तक अन्य सैनिकों ने भी बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। शीघ्र ही यह समाचार मेरठ शहर और आस-पास के देहात में भी फैल गया और कुछ लोग भी सिपाहियों से आ मिले।

→ 11 मई को सूर्योदय से पूर्व ही मेरठ के लगभग दो हजार जाँबाज़ सिपाही दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। उन्होंने कर्नल रिप्ले सहित कई अंग्रेज़ों की हत्या कर दी। फिर सिपाही लालकिले पहुँचे। उन्होंने बहादुर शाह जफ़र से नेतृत्व के लिए अनुरोध किया। वह कहने मात्र के लिए ही बादशाह था। वास्तव में वह एक बूढ़ा, शक्तिहीन, अंग्रेजों का पेंशनर था। उसने संकोच और अनिच्छा के साथ सिपाहियों के आग्रह को स्वीकार कर लिया। उसने स्वयं को विद्रोह का नेता घोषित कर दिया। इससे सिपाहियों के विद्रोह को राजनीतिक वैधता मिल गई।

→ सैनिकों के विद्रोह को देखकर जनसामान्य भी कुछ भयरहित हो गए। लोग अंग्रेज़ी शासन के प्रति नफरत से भरे हुए थे। वे लाठी, दरांती, तलवार, भाला तथा देशी बंदूकों जैसे अपने परंपरागत हथियारों के साथ विद्रोह में कूद पड़े। इनमें किसान, कारीगर, दुकानदार व नौकरी पेशा तथा धर्माचार्य इत्यादि सभी लोग शामिल थे। आम लोगों के आक्रोश की अभिव्यक्ति स्थानीय शासकों के खिलाफ भी हुई। बरेली, कानपुर व लखनऊ जैसे बड़े शहरों में अमीरों व साहूकारों पर भी हमले हुए। लोगों ने इन्हें उत्पीड़क और अंग्रेज़ों का पिठू माना। इसके अतिरिक्त विद्रोह-क्षेत्रों में किसानों ने भू-राजस्व देने से मना कर दिया था। सिपाहियों का यह विद्रोह एक व्यापक ‘जन-विद्रोह’ बन गया। एक अनुमान के अनुसार, इसके दौरान अवध में डेढ़ लाख और बिहार में एक लाख नागरिक शहीद हुए थे।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 Img 1
यह एक व्यापक विद्रोह था। जून के पहले सप्ताह तक बरेली, लखनऊ, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, आगरा, मेरठ, बनारस जैसे बड़े-बड़े नगर स्वतंत्र हो चुके थे। यह गाँवों और कस्बों में फैल चुका था। हरियाणा व मध्य भारत में भी यह जबरदस्त विद्रोह था।

→ विभिन्न छावनियों के बीच विद्रोही सिपाहियों में भी तालमेल के कुछ सुराग मिलते हैं। इनके बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान था। ‘चर्बी वाले कारतूसों’ की बात सभी छावनियों में पहुंच गई थी। ‘धर्म की रक्षा’ को लेकर चिंता और आक्रोश भी सभी जगह था। सिपाही बगावत के मनसूबे गढ़ रहे थे। इसका एक और उदाहरण यह है कि जब मई की शुरूआत में सातवीं अवध इरेग्युलर कैवेलरी (7th Awadh Irregular Cavalry) ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेंट्री को लिखा : “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेंट्री के हुक्म का इंतजार कर

→ सिपाहियों की बैठकों के भी कुछ सुराग मिलते हैं। हालांकि बैठकों में वो कैसी योजनाएँ बनाते थे, उसके प्रमाण नहीं हैं। फिर भी कुछ अंदाजे लगाए जाते हैं कि इन सिपाहियों का दुःख-दर्द एक-जैसा था। अधिकांश उच्च-जाति से थे और उनकी जीवन-शैली भी मिलती-जुलती थी। स्वाभाविक है कि वे अपने भविष्य के बारे में ही निर्णय लेते होंगे। इनके नेता मुख्यतः अपदस्थ शासक और ज़मींदार थे। विभिन्न स्थानों पर इसके स्थानीय नेता भी उभर आए थे। इनमें से कुछ तो किसान नेता थे।

→ यह विद्रोह कुछ अफवाहों और भविष्यवाणियों से भड़का था। लेकिन अफवाहें तभी फैलती हैं जब उनमें लोगों के मन में गहरे बैठे भय और संदेह की अनुगूंज सुनाई देती है। इन अफ़वाहों में लोग विश्वास इसलिए कर रहे थे क्योंकि इनके पीछे बहुत-से ठोस कारण थे। ये कारण सैनिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक थे। लोग अंग्रेज़ों की नई व्यवस्था को भारतीय दमनकारी, परायी और हृदयहीन मान रहे थे। उनकी परंपरागत दुनिया उजड़ रही थी जिससे वे परेशान हुए। अतः इन बहुत-से कारणों के समायोजन से लोग विद्रोही बने।

→ अवध प्रांत में आठ डिविजन थे, उन सभी में विद्रोह हुआ। यहाँ किसान व दस्तकार से लेकर ताल्लुकदार और नवाबी परिवार के सदस्यों सहित सभी वर्गों के लोगों ने वीरतापूर्वक संघर्ष किया। हरेक गाँव से लोग विद्रोह में शामिल हुए। ताल्लुकदारों ने उन सभी गाँवों पर पुनः अपना अधिकार कर लिया जो अवध विलय से पहले उनके पास थे। किसान अपने परंपरागत मालिकों (ताल्लुकदारों) के साथ मिलकर लड़ाई में शामिल हुए। अवध की राजधानी लखनऊ विद्रोह का केंद्र-बिंदु बनी। फिरंगी राज के चिहनों को मिटा दिया गया। टेलीग्राफ लाइनों को तहस-नहस कर दिया गया। यहाँ घटनाओं का क्रम कुछ इस तरह चला। 4 जून, 1857 को विद्रोह प्रारंभ हुआ। विद्रोहियों ने ब्रिटिश रैजीडेंसी को घेर लिया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

1 जुलाई को अवध का चीफ कमीश्नर हैनरी लारेंस (Henery Lawrence) लड़ता हुआ मारा गया। 1858 के शुरू में विद्रोहियों की संख्या लखनऊ शहर में लगभग 2 लाख की थी। यहाँ संघर्ष सबसे लंबा चला। अन्य स्थानों की अपेक्षा विदेशी शासन के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध (Popular Resistance) अवध में अधिक था। अवध के विलय से एक भावनात्मक उथल-पुथल शुरू हो गई। एक अन्य अखबार ने लिखा : “देह (शरीर) से जान जा चुकी थी। शहर की काया बेजान थी….। कोई सड़क, कोई बाज़ार और कोई घर ऐसा न था जहाँ से जान-ए आलम से बिछुड़ने पर विलाप का शोर न गूंज रहा हो।” लोगों के दुःख और असंतोष की अभिव्यक्ति लोकगीतों में भी हुई।

→ संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवध में भारी विद्रोह देहात व शहरी लोगों, सिपाहियों तथा ताल्लुकदारों का एक सामूहिक कृत्य (Collective Act) था। बहुत-से सैनिक कारणों से तो सैनिक ग्रस्त थे ही वे अपने परिवार व गाँव के दुःख-दर्द से भी आहत थे।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 Img 2

→ विद्रोहियों की घोषणाओं में ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक समूहों को एकजुट होने का आह्वान किया गया। ब्रिटिश राज को एक विदेशी शासन के रूप में सर्वाधिक उत्पीड़क व शोषणकारी माना गया। इसलिए इससे संबंधित प्रत्येक चीज़ को पूर्ण तौर पर खारिज किया जा रहा था। अंग्रेजी सत्ता को उत्पीड़क एवं निरंकुश के साथ

→ साथ ही, धर्म, सम्मान व रोजगार के लिए लड़ने का आह्वान किया गया। इस लड़ाई को एक ‘व्यापक सार्वजनिक भलाई’ घोषित किया। विद्रोह के दौरान विद्रोहियों ने सूदखोरों के बही-खाते भी जला दिये थे और उनके घरों में तोड़-फोड़ व आगजनी की थी। शहरी संभ्रांत लोगों को जान बूझकर अपमानित भी किया। वे उन्हें अंग्रेज़ों के वफादार और उत्पीड़क मानते थे।

→ विद्रोही भारत के सभी सामाजिक समुदायों में एकता चाहते थे। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया। अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का उल्लेख भी किया गया। लाभ की दृष्टि से इस युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक समान बताया।

→ ध्यान रहे विद्रोह के चलते ब्रिटिश अधिकारियों ने हिंदू और मुसलमानों में धर्म के आधार पर फूट डलवाने का भरसक प्रयास किए थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उदाहरण के लिए बरेली में विद्रोह के नेता खानबहादुर के विरुद्ध हिंदू प्रजा को भड़काने के लिए अंग्रेज़ अधिकारी जेम्स औट्रम (James Outram) द्वारा दिया गया धन का लालच भी कोई काम नहीं आया था। अंततः हारकर उसे 50,000 रुपये वापस ख़जाने में जमा करवाने पड़े जो इस उद्देश्य के लिए निकाले गए थे।

→ विद्रोह का दमन करने के लिए मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए। एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी। साथ ही सबसे पहले दिल्ली पर पुनः अधिकार की रणनीति अपनाई गई। केनिंग जानता जन-विद्रोह और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान) था कि दिल्ली के पतन से विद्रोहियों की कमर टूट जाएगी। हिंदू-मुसलमानों में सांप्रदायिक तनाव भड़काकर विद्रोह को कमजोर करने का प्रयास भी किया गया। लेकिन इसमें उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।

→ इस अध्याय के अंतिम भाग में उन छवियों को समझने का प्रयास किया गया है जो अंग्रेज़ों व भारतीयों में निर्मित हुईं। इन छवियों में शामिल हैं-विद्रोह से संबंधित अनेक चित्र, पेंसिल निर्मित रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र (Etchings), पोस्टर, के उपलब्ध बाजार-प्रिंट इत्यादि। साथ में हम जान पाएंगे कि इतिहासकार ऐसे स्रोतों का कैसे उपयोग करते हैं।

समय-रेखा

1.1801 ई०वेलेजली द्वारा अवध में सहायक संधि लागू की गई
2.13 फरवरी, 1856अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय
3.10 मई, 1857मेरठ में सैनिकों द्वारा विद्रोह
4.11 मई, 1857विद्रोही सेना का मेरठ से दिल्ली पहुँचना
5.12 मई , 1857बहादुर शाह ज़फर द्वारा विद्रोहियों का नेतृत्व स्वीकार करना
6.30 मई, 1857लखनऊ में विद्रोह
7.4 जून, 1857अवध में सेना में विद्रोह
8.10 जून, 1857सतारा में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्रिदोह
9.30 जून, 1857चिनहाट के युद्ध में अंग्रेज़ों की हार
10.जुलाई, 1858युद्ध में शाह मल की मृत्यु
11.20 सितंबर, 1857ब्रिटिश सेना का विजयी होकर दिल्ली में प्रवेश
12.25 सितंबर, 1857ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियाँ हैवलॉक व ऑट्रम के नेतृत्व में लखनऊ पहुँचीं रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई
13.17 जून, 1858वेलेजली द्वारा अवध में सहायक संधि लागू की गई

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

HBSE 12th Class History उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
ग्रामीण बंगाल के बहुत-से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
उत्तर:
जोतदार बंगाल के गाँवों में संपन्न किसानों के समूह थे। गाँव के मुखिया भी इन्हीं में से होते थे। संक्षेप में इन जोतदारों की ताकत में वृद्धि होने के निम्नलिखित मुख्य कारण थे

1. ज़मीनों के वास्तविक मालिक-जोतदार गाँव में ज़मीनों के वास्तविक मालिक थे। कईयों के पास तो हजारों एकड़ भूमि थी। वे बटाइदारों से खेती करवाते थे। जो फसल का आधा भाग अपने पास और आधा जोतदार को दे देते थे। इससे जोतदारों की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती चली गई।

2. व्यापारी तथा साहूकार-जोतदार केवल भू-स्वामी ही नहीं थे। उनका स्थानीय व्यापार व साहूकारी पर भी नियंत्रण था। वे एक व्यापारी, साहूकार तथा भूमिपति के रूप में अपने क्षेत्र के प्रभावशाली लोग थे।

3. भू-राजस्व भुगतान में जान-बूझकर देरी-जोतदार जान-बूझकर गाँव में ऐसा माहौल तैयार करवाते थे कि ज़मींदार के अधिकारी (अमला) गाँव से लगान न एकत्रित कर पाए। यह विलंब ज़मींदार के लिए कुड़की लेकर आता था। इससे जोतदार को लाभ मिलता था।

4. ज़मीन की खरीद-ज़मींदार की ज्यों ही ज़मीन की नीलामी होती थी, उसे प्रायः जोतदार ही खरीदता था। इससे उनकी शक्ति में और वृद्धि होती जाती थी और ज़मींदारों की शक्ति का दुर्बल होना स्वाभाविक था।

प्रश्न 2.
जमींदार लोग अपनी ज़मींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखते थे? उत्तर:ज़मींदारों ने अपनी सत्ता और ज़मींदारी बचाने के लिए निम्नलिखित तिकड़मबाजी लगाई

1. बेनामी खरीददारी-ज़मींदारों ने अपनी ज़मींदारी को बचाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण हथकंडा बेनामी खरीददारी का अपनाया। इसमें प्रायः ज़मींदार के अपने ही आदमी नीलाम की गई संपत्तियों को महँगी बोली देकर खरीद लेते थे। फिर वे देय राशि सरकार को नहीं देते थे। सरकार को पुनः उस ज़मीन को नीलाम करना पड़ता था और इस बार भी ज़मींदार के दूसरे एजेंट वैसा ही करते और सरकार को फिर राशि जमा नहीं करवाते। यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती जब तक सरकार और बोली लगाने वाले दोनों हार न जाते। बोली लगाने वाले नीलामी के समय आना ही छोड़ जाते थे। अन्ततः सरकार को वह ज़मींदारी पुराने ज़मींदार को देनी पड़ती थी।

2. ज़मीन का कब्जा न देना-यदि बाहर के शहरी धनी लोग अधिक बोली देकर ज़मीन खरीदने में सफल हो जाते थे तो ऐसे लोगों को कई बार ज़मींदार के लठैत (लठियाल) ज़मीन में प्रवेश ही नहीं करने देते थे। कई बार ज़मींदार अपनी रैयत को नए ज़मींदार के विरुद्ध भडका देते थे। या फिर रैयत की पुराने जमींदार के साथ लगाव व सहानुभूति होती थी। इस कारण से वह नए जमींदार को ज़मीन में घुसने ही नहीं देती थी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 3.
पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शाई?
उत्तर:
बाहरी लोगों का आगमन पहाड़िया लोगों के लिए जीवन का संकट बन गया था। उनके पहाड़ व जंगलों पर कब्जा करके खेत बनाए जा रहे थे। पहाड़िया लोगों में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों के आक्रमणों में तेजी आती गई। अनाज व पशुओं की लूट के साथ इन्होंने अंग्रेजों की कोठियों, ज़मींदारों की कचहरियों तथा महाजनों के घर-बारों पर अपने मुखियाओं के नेतृत्व में संगठित हमले किए और लूटपाट की।

दूसरी ओर ब्रिटिश अधिकारियों ने दमन की क्रूर नीति अपनाई। उन्हें बेरहमी से मारा गया परंतु पहाड़िया लोग दुर्गम पहाड़ी गों में जाकर बाहरी लोगों (ज़मींदारों व जोतदारों) पर हमला करते रहे। ऐसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के सैन्य बलों के लिए भी इनसे निपटना आसान नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने शांति संधि के प्रयास शुरू किए। जिसमें उन्हें वार्षिक भत्ते की पेशकश की गई। बदले में उनसे यह आश्वासन चाहा कि वे शांति व्यवस्था बनाए रखेंगे। उल्लेखनीय है कि अधिकतर मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जिन कुछ मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था, उन्हें पहाड़िया लोगों ने पसंद नहीं किया।

प्रश्न 4.
संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?
अथवा
संथालों के विद्रोह के क्या कारण थे?
उत्तर:
संथालों के विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे
(1) उनकी ज़मीनें धीरे-धीरे उनके हाथों से निकलकर ज़मींदारों और साहूकारों के हाथों में जाने लगीं। साहूकार और ज़मींदार उनकी ज़मीनों के मालिक बनने लगे। महेशपुर और पाकुड़ के पड़ोसी राजाओं ने संथालों के गाँवों को आगे छोटे ज़मींदारों व साहूकारों को पट्टे पर दे दिया। वे मनमाना लगान वसूल करने लगे।

(2) इससे शोषण व उत्पीड़न का चक्र शुरू हुआ। लगान अदा न कर पाने की स्थिति में संथाल किसान साहूकारों से ऋण लेने के लिए विवश हुए। साहूकार ने 50 से 500 प्रतिशत तक सूद वसूल किया।

(3) किसान की दरिद्रता बढ़ने लगी। वे ज़मींदारों के अर्ध-दास व श्रमिक बनने लगे।

(4) सरकारी अधिकारी, पुलिस, थानेदार सभी महाजनों का पक्ष लेते थे। वे स्वयं भी संथालों से बेगार लेते थे। यहाँ तक कि संथाल कृषकों की स्त्रियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं थी। अतः दीकुओं (बाहरी लोगों) के विरुद्ध संथालों का विद्रोह फूट पड़ा।

प्रश्न 5.
दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?
उत्तर:
1870 ई० के आसपास दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति अत्यधिक क्रुद्ध थे। विद्रोह के दौरान उन्होंने उनके बही-खाते और कई जगह तो घरों को भी जला डाला था। वास्तव में अमेरिकी गृह युद्ध के बाद उनके लिए ऋण का स्रोत सूख गया था। उन्हें ऋण मिलना बंद हो गया था।

जब साहूकारों ने उधार देने से मना किया तो किसानों को बहुत गुस्सा आया। क्योंकि परंपरागत ग्रामीण व्यवस्था में न तो अधिक ब्याज लिया जाता था और न ही मुसीबत के समय उधार से मनाही की जाती थी। किसान विशेषतः इस बात पर अधिक नाराज़ थे कि साहूकार वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनके हालात पर रहम नहीं खा रहा है। सन् 1874 में साहूकारों ने भू-राजस्व चुकाने के लिए किसानों को उधार देने से स्पष्ट इंकार कर दिया था। वे सरकार के इस कानून को नहीं मान रहे थे कि चल-सम्पत्ति की नीलामी से यदि उधार की राशि पूरी न हो तभी साहूकार जमीन की नीलामी करवाएँ। अब उधार न मिलने से मामला और भी जटिल हो गया। किसान विद्रोही हो उठे।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी ज़मींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गईं?
उत्तर:
इस्तमरारी बंदोबस्त यानी ज़मींदारी प्रथा के कारण बहुत-से ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी गई थीं क्योंकि वे समय पर सरकार को देय राशि का भुगतान नहीं कर पाते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई थी। जिस दशक में यह बंदोबस्त लागू किया गया था, उसी दशक में मंदी का दौर चल रहा था। इसलिए रैयत (किसान) अपने लगान को चुकाने की स्थिति में ही नहीं था। दूसरी ओर, कंपनी सरकार ने ज़मींदारों की सैनिक व प्रशासनिक शक्तियों को कम कर दिया था। उनके सैनिक दस्ते भंग कर दिए थे। पुलिस और न्याय के अधिकार भी छीन लिए थे। अब वे किसानों से डंडे के बल पर लगान वसूल नहीं कर सकते थे। वे लगान न देने वाले किसानों के खिलाफ न्यायालय में तो जा सकते थे परंतु न्यायालयों में न्याय की प्रक्रिया काफी लंबी थी। उदाहरण के लिए बर्दवान जिले में ही 1798 में 30,000 से अधिक मुकद्दमें बाकीदारों के विरुद्ध लम्बित थे।

सरकार का राजस्व वसूली का रवैया बहुत ही कठोर था। इसके लिए सूर्यास्त विधि (Sunset Law) का अनुसरण किया गया था अर्थात् निश्चित तारीख को सूर्य छिपने तक देय राशि का भुगतान न करने वाले ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी जाती थीं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि संपन्न ग्रामीण वर्ग (जोतदार और धनी किसान) भी ज़मींदार की नीलामी से खुश होता था। वह सामान्य किसानों (रैयत) को ज़मींदार के विरुद्ध लगान न देने के लिए प्रोत्साहित भी करता था। कई बार तो फसल न होने पर और कई बार तो जान-बूझकर भी वह ज़मींदार को लगान नहीं देता था। उसे यह पता था कि ज़मींदार सैनिक कार्रवाई नहीं कर सकता और न्यायालय में मुकद्दमों का आसानी से निर्णय नहीं हो सकता। अतः यही वे परिस्थितियाँ थीं जिनमें इस्तमरारी प्रथा के चलते बहुत-सी ज़मींदारियाँ 18वीं सदी के अंतिम दशक में नीलाम कर दी गई थीं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 7.
पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस रूप में भिन्न थी?
उत्तर:
पहाड़िया और संथाल दो जनजातियाँ थीं। लेकिन दोनों की आजीविका के साधनों में अंतर था। संथाल पहाड़ियों की. अपेक्षा अग्रणी बाशिंदे थे।
दोनों जनजातियों की आजीविका के साधनों में अंतर को निम्नलिखित तरीके से स्पष्ट किया जा सकता है

पहाड़िया लोगों की आजीविकासंथालों की आजीविका
1. पहाड़िया लोगों की खेती कुदाल (Hoe) पर आधारित थी। ये राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहते थे। वे हल को हाथ लगाना पाप समझते थे।1. संथाल हल (Plough) की खेती यानी स्थायी कृषि सीख रहे थे। ये गंजुरिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले लोग थे।
2. पहाड़िया लोग झूम की खेती करते थे। वे झाड़ियों को काटकर व घास-फूँस को जलाकर एक छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा निकाल लेते थे। यह छोटा-सा खेत पर्याप्त उपजाऊ होता था। घास व झाड़ियों के जलने से बनी राख उसे और भी उपजाऊ बना देती थी। ये लोग साधारण कृषि औजार-कुदाल से ज़मीन को थोड़ा खुरचकर खेती करते थे। कुछ वर्षों तक उसमें खाने के लिए विभिन्न तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगाते और फिर कुछ वर्षों के लिए उसे खाली (परती) छोड़ देते, ताकि यह पुनः उर्वर हो जाए।2. यह अपेक्षाकृत स्थायी प्रवृत्ति के थे। ये परिश्रमी थे और इन्हें खेती की समझ थी। इसलिए जमींदार लोग इन्हें नई भूमि निकालने तथा खेती करने के लिए मजदूरी पर रखते थे।
3. कृषि के अतिरिक्त शिकार व जंगल के उत्पाद पहाड़िया लोगों की आजीविका के साधन थे। वे काठ कोयला बनाने के लिए जंगल से लकड़ियाँ एकत्र करते थे। खाने के लिए महुआ नामक पौधे के फूल एकत्र करते थे। जंगल से रेशम के कीड़े के कोया (Silkcocoons) एवं राल (Resin) एकत्रित करके बेचते थे।3. संथाल जंगल तोड़कर अपनी जमीनें निकालकर खेती करने लगे। वे पहाड़िया लोगों के क्षेत्रों में घुसे आ रहे थे। वे नए निकाले खेतों में तम्बाकू सरसों, कपास तथा चावल की खेती करते थे।
4. पहाड़िया लोग जंगलों को बर्बाद करके उस क्षेत्र में हल नहीं चलाना चाहते थे। वे बाजार के लिए खेती नहीं चाहते थे।4. ये जंगलों को तोड़कर खेती कसने में परहेज नहीं करते थे।

प्रश्न 8.

अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:
अमेरिका में गृहयुद्ध सन् 1861 से 1865 के बीच हुआ। इस गृहयुद्ध के दौरान भारत की रैयत को खूब लाभ मिला। कपास की कीमतों में अचानक उछाल आया क्योंकि इंग्लैंड के उद्योगों को अमेरिका से कपास मिलना बंद हो गया था। भारतीय कपास की माँग बढ़ने के कारण कपास उत्पादक रैयत को ऋण की भी समस्या नहीं रही। कपास सौदागरों ने बंबई दक्कन के जिलों में कपास उत्पादन का आँकलन किया। किसानों को अधिक कपास उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया। कपास निर्यातकों ने शहरी साहकारों को पेशगी राशियाँ दी ताकि वे ये राशियाँ ग्रामीण ऋणदाताओं को उपलब्ध करवा सकें और वे आगे किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें उधार दे सकें।

निर्यातक, साहूकार, व्यापारी तथा किसान सभी अपने-अपने मुनाफे के लिए कपास की पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयत्न करने लगे। ऋण की समस्या अब किसानों के लिए नहीं थी। साहूकार भी अपनी उधार राशि की वापसी के लिए आश्वस्त था।

दक्कन के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। किसानों को लंबी अवधि के ऋण प्राप्त हुए। कपास उगाई जाने वाली प्रत्येक एकड़ भूमि पर सौ रुपए तक की पेशगी राशि किसानों को दी गई। चार साल के अंदर ही कपास पैदा करने वाली ज़मीन दो गुणी हो गई। 1862 ई० तक स्थिति यह थी कि इंग्लैंड में आयात होने वाले कुल कपास आयात का 90% भाग भारत से जा रहा था। बंबई में दक्कन में कपास उत्पादक क्षेत्रों में इससे समृद्धि आई। यद्यपि इस समृद्धि का लाभ मुख्य तौर पर धनी किसानों को ही हुआ। गरीब किसान इस तेजी के दौर में भी साहूकार के कर्ज से निकल नहीं पाए। परंतु ज्यों ही गृहयुद्ध समाप्त हुआ। पुनः अमेरिका से कपास ब्रिटेन में आयात होने लगी। भारतीय रैयत का माल बिकना कम हो गया। साथ में उनका ऋण स्रोत भी सूख गया। इससे उनमें
आक्रोश बढ़ा।

प्रश्न 9.
किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के बारे में क्या समस्याएँ आती हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों को किसानों संबंधी इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के दौरान कई तरह की समस्याएँ आती हैं; जैसे कि ये स्रोत निष्पक्ष नहीं होते। राजस्व अभिलेख, विभिन्न दंगा आयोग की रिपोर्ट, सरकार द्वारा नियुक्त सर्वेक्षणकर्ताओं की रिपोर्ट, प्रशासनिक पत्राचार, अधिकारियों के निजी कागज-पत्र तथा उनकी डायरी वृत्तांत इत्यादि सभी दस्तावेज सरकारी स्रोत कहे
जाते हैं।

इन सरकारी स्रोतों के आधार पर किसानों संबंधी इतिहास लिखने में सबसे बड़ी समस्या होती है उन स्रोतों के ‘उद्देश्य एवं दृष्टिकोण’ की खोज-बीन करना। क्योंकि वे किसी-न-किसी रूप में सरकारी दृष्टिकोण एवं अभिप्राय के पक्षधर होते हैं। वे निष्पक्ष नहीं होते। उदाहरण के लिए ‘दक्कन दंगा आयोग’ नियुक्ति का उद्देश्य यह पता लगाना था कि सरकारी राजस्व की माँग का विद्रोह के साथ क्या संबंध था अर्थात् क्या किसान राजस्व की ऊँची दर के कारण विद्रोही हुए थे या फिर इसके अन्य कारण थे। जाँच-पड़ताल के बाद रिपोर्ट में आयोग ने स्पष्ट किया कि सरकारी माँग किसानों के आक्रोश का कारण बिल्कुल नहीं थी।

इसके लिए साहूकार तथा उनके हथकंडे ही उत्तरदायी थे। परन्तु साहूकार की शरण में किसान क्यों जाने के लिए विवश हुआ, यहाँ आयोग निष्पक्ष नहीं रहा। राजस्व की ऊँची दर और उसे वसूलने के तरीके, विशेषतः मंदी व प्राकृतिक आपदाएँ (अकालों आदि) ही किसान को साहूकार के चंगुल में फंसाती थीं। आयोग ने इन सब बातों को उत्तरदायी नहीं माना। अतः स्पष्ट है कि आयोग सरकार का पक्ष ले रहा था। औपनिवेशिक सरकार अपने दोष को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। ध्यान रहे सरकारी रिपोर्ट इतिहास-लेखन में बहुमूल्य स्रोत तो होते हैं, लेकिन उन्हें सदैव सावधानीपूर्वक पढ़ना चाहिए। साथ ही समाचार-पत्रों, गैर सरकारी वृत्तांतों, वैधिक अभिलेखों तथा यथासंभव मौखिक स्रोतों के साक्ष्यों से मिलान करना चाहिए।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
उपमहाद्वीप के बाह्यरेखा मानचित्र (खाके) में इस अध्याय में वर्णित क्षेत्रों को अंकित कीजिए। यह भी पता लगाइए कि क्या ऐसे भी कोई इलाके थे जहाँ इस्तमरारी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू थी। ऐसे इलाकों को मानचित्र में भी अंकित कीजिए।
उत्तर:
उपमहाद्वीप में कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ दोनों प्रणालियाँ लागू की गई थीं जैसे कि बंगाल (बिहार, उड़ीसा सहित), मद्रास . प्रेजीडेंसी, सूरत, बंबई प्रेजीडेंसी, मद्रास के कुछ इलाके, उत्तर पूर्वी भारत में पड़ने वाले पहाड़िया और संथाल लोगों के स्थान।

इस्तमरारी बंदोबस्त मुख्यतः बंगाल बिहार व उड़ीसा क्षेत्र में लागू किया गया था। यह ब्रिटिश भारत के लगभग 19% भाग पर लागू थी।

रैयतवाड़ी प्रणाली को सन् 1820 तक मद्रास, बंबई के कुछ भागों, बर्मा तथा बरार, आसाम व कुर्ग के कुछ क्षेत्रों में लागू किया गया। इसमें कुल मिलाकर ब्रिटिश भारत की कुल भूमि के 51 प्रतिशत हिस्से को शामिल किया गया।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
फ्रांसिस बुकानन ने पूर्वी भारत के अनेक जिलों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की थीं। उनमें से एक रिपोर्ट पढ़िए और इस अध्याय में चर्चित विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हुए उस रिपोर्ट में ग्रामीण समाज के बारे में उपलब्ध जानकारी को संकलित कीजिए। यह भी बताइए कि इतिहासकार लोग ऐसी रिपोर्टों का किस प्रकार उपयोग कर सकते हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अध्यापक के दिशा निर्देश में परियोजना रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 12.
आप जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहाँ के ग्रामीण समदाय के वद्धजनों से चर्चा कीजिए और उन खेतों में जाइए जिन्हें वे अब जोतते हैं। यह पता लगाइए कि वे क्या पैदा करते हैं, वे अपनी रोजी-रोटी कैसे कमाते हैं, उनके माता-पिता क्या करते थे, उनके बेटे-बेटियाँ अब क्या करती हैं और पिछले 75 सालों में उनके जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए हैं। अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी इसके लिए गाँव के सरपंच, नंबरदार तथा वृद्धजनों से सूचना प्राप्त करें। यथासंभव गाँव संबंधी रिकॉर्ड को देखें।
साक्षात्कारों और विभिन्न रिकॉर्डस के आधार पर अपने अध्यापक के निर्देशन में ‘प्रोजेक्ट रिपोर्ट’ बनाएँ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन HBSE 12th Class History Notes

→ उपनिवेशवाद-यह वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत किसी देश, राष्ट्र या संप्रदाय को अन्य राष्ट्र या समुदाय के लोगों द्वारा अधीन बनाकर विभिन्न क्षेत्रों (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक) को प्रभावित करने के लिए प्रेरित करती है।

→ साम्राज्यवाद-जब कोई एक राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र या उसके किसी भू-क्षेत्र पर राजनीतिक अधिकार स्थापित करके अपने हितों की पूर्ति करता है, तो उसे साम्राज्यवाद कहते हैं। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का परस्पर गहरा संबंध होता है।

→ औपनिवेशिक व्यवस्था-ऐसी व्यवस्था जिसका विकास उपनिवेशवाद की विचारधारा के तहत हुआ हो। उदाहरण के लिए भारत में अंग्रेजों की व्यवस्था औपनिवेशिक थी। अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए उन्होंने भारत में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन किए।

→ अभिलेखागार-उस स्थान को कहा जाता है जहाँ पुराने दस्तावेज, सरकारी रिपोर्ट, फाइलें, वैधिक निर्णय, अभियोग, याचिकाएँ, डायरियाँ, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ इत्यादि सुरक्षित रखे जाते हैं जिन्हें शोधकर्ता उपयोग करते हैं और अपने निष्कर्षों के साथ इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।

→ ताल्लकेदार-यह शब्द ज़मींदारों के लिए प्रयोग में आता है। लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जिसके साथ ताल्लुक (संबंध) हो। आगे चलकर ताल्लुक का अर्थ क्षेत्रीय इकाई हो गया था।

→ राजा-बंगाल में 18वीं सदी में ‘राजा’ शब्द का प्रयोग प्रायः शक्तिशाली ज़मींदारों के लिए किया जाता था। इनके पास अपने न्यायिक और सैनिक अधिकार होते थे। ये नवाब को अपना ज़मींदारी-राजस्व देते थे। वैसे काफी सीमा तक ये स्वायत्त थे।

→ ज़मींदार-बंगाल के ‘राजाओं’ तथा ‘ताल्लुकेदारों को इस्तमरारी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के तहत ‘जमींदारों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया। उन्हें सरकार को निर्धारित राजस्व निश्चित समय पर देना होता था। इस परिभाषा के अनुसार वे गाँव में भू-स्वामी नहीं थे, बल्कि भू-राजस्व समाहर्ता यानी संग्राहक मात्र थे।

→ जोतदार-उत्तरी बंगाल में जोतदार धनी किसानों को कहा जाता था। कुछ जोतदार तो हजारों एकड़ के मालिक थे। वे अपनी खेती बटाईदारों (बरगादारों या अधियारों) से करवाते थे।

→ रैयत-अंग्रेज़ों के विवरणों में रैयत’ शब्द का प्रयोग किसानों के लिए किया जाता था। गाँव का प्रत्येक छोटा या बड़ा रैयत ज़मींदार को लगान अदा करता था।

→ शिकमी रैयत-रैयत (किसान) कुछ ज़मीन तो स्वयं जोतते थे और कुछ आगे बटाईदारों को जोतने के लिए दे देते थे। ये बटाईदार किसान शिकमी रैयत कहलाते थे। ये रैयत को फसल का हिस्सा (लगान) देते थे।

→ अमला-ज़मींदार का वह अधिकारी जो गाँव में रैयत से लगान एकत्र करने आता था।

→ जमा-गाँव की भूमि का कुल लगान।

→ लठियाल-लाठीवाला। बंगाल में ज़मींदार के लठैतों को लठियाल कहा जाता था।

→ बेनामी-इसका शाब्दिक अर्थ है ‘गुमनाम’, किसी फर्जी व्यक्ति के नाम से किए जाने वाले सौदे। इसमें असली फायदा उठाने वाले व्यक्ति का नाम सामने नहीं आता।

→ हवलदार या गाँटीदार या मंडल-उत्तरी बंगाल में जोतदार गाँवों में मुखिया (मुकद्दम) बनकर उभरे, लेकिन अन्य भागों में ऐसे धनी प्रभावशाली मुखियाओं को हवलदार या गाँटीदार (Gantidars) या मंडल कहा जाता था।

→ महालदारी-भूमि बंदोबस्त, जिसमें महाल अथवा गाँव को इकाई मानकर राजस्व की माँग निर्धारित की गई। यह मुख्यतः उत्तर भारत में लागू किया गया।

→ साहूकार-यह ऐसा व्यक्ति होता था जो पैसा ब्याज पर उधार देता था और साथ ही व्यापार भी करता था।

→ किरायाजीवी-यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग में लाया गया जो अपनी सम्पत्ति की आय पर जीवनयापन करते हैं।

→ योमॅन कंपनी के शासनकाल के रिकॉर्ड में छोटे किसान को ‘योमॅन’ कहा गया।

→ ताम्रपट्टोत्कीर्णन या एक्वाटिंट-ऐसी तस्वीर होती है जो ताम्रपट्टी में अम्ल (Acid) की सहायता से चित्र के रूप में कटाई करके बनाई जाती है।

→ इस अध्याय का संबंध औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था के उन प्रभावों से है, जो भारत के गाँवों पर पड़े। उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज के कारण देहाती समाज की परंपरागत व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। कुछ लोग धनवान और कुछ गरीब हो गए। बहुत-से लोगों के हाथों से गुजर-बसर के साधन तक छिन गए। राजस्व की ऊँची दर निर्धारित करने से किसानों के जीवन पर काफी बुरा असर हुआ। वे साहूकारी के जाल में फँसते गए। अन्यायपूर्ण सरकारी कानूनों के प्रति किसानों की प्रतिक्रिया विद्रोहों के रूप में हुई। इस अध्याय में बंगाल तथा बंबई दक्कन के देहात में हुए परिवर्तनों को ही अध्ययन का आधार बनाया गया है।

→ सन् 1793 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में भू-राजस्व की एक नई प्रणाली अपनाई, जिसे ‘ज़मींदारी प्रथा’, ‘स्थायी बंदोबस्त’ अथवा ‘इस्तमरारी-प्रथा’ कहा गया। यह प्रणाली बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा बनारस व उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई थी। इस व्यवस्था से सरकार की आय निश्चित हो गई और प्रशासन व व्यापार दोनों को नियमित करने में लाभ हुआ। परन्तु यह बंगाल की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं कर सकी। कालांतर में यह प्रणाली कंपनी के लिए भी आर्थिक तौर पर घाटे की सिद्ध हुई। साथ ही इसमें रैयत को ज़मींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था। उनके हितों की पूरी तरह उपेक्षा की गई। शीघ्र ही कंपनी अधिकारियों को इसमें एक आर्थिक बुराई और भी नज़र आने लगी। इस व्यवस्था में समय-समय पर भूमिकर में वृद्धि का अधिकार सरकार के पास नहीं था।

→ प्रारंभ में स्थाई बंदोबस्त ज़मींदारों के लिए काफी हानिप्रद सिद्ध हुआ। बहुत-से ज़मींदार सरकार को निर्धारित भूमि-कर का भुगतान समय पर नहीं कर सके। परिणामस्वरूप उन्हें उनकी ज़मींदारी से वंचित कर दिया गया। समकालीन स्रोतों से ज्ञात होता है कि बर्दवान के राजा (शक्तिशाली ज़मींदार) की ज़मींदारी के अनेक महाल (भू-संपदाएँ) सार्वजनिक तौर पर नीलाम किए गए थे। ध्यान रहे ये ज़मींदार अपनी ज़मींदारियों को बचाने के लिए तरह-तरह की तिकड़मबाजी भी लगाते थे। इस व्यवस्था के चलते गाँवों के संपन्न किसान समूहों एवं जोतदारों को शक्तिशाली होने का अवसर मिला।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

→ बंगाल में जिस अवधि के परिवर्तनों पर हम विचार कर रहे हैं उसका एक प्रमुख समकालीन स्रोत 1813 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट है। यह पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से जानी गई। इसमें 1002 पृष्ठ थे जिनमें से 800 से अधिक पृष्ठों में परिशिष्ट लगाए गए थे। इन परिशिष्टों में भू-राजस्व से संबंधित आंकड़ों की तालिकाएँ, अधिकारियों की बंगाल व मद्रास में राजस्व व न्यायिक प्रशासन पर लिखी गई टिप्पणियाँ, जिला कलेक्टरों की अपने अधीन भू-राजस्व व्यवस्था पर रिपोर्ट तथा ज़मींदारों एवं रैयतों के आवेदन पत्रों को सम्मिलित किया गया था। ये साक्ष्य इतिहास लेखन के लिए बहुमूल्य हैं। लेकिन यह कोई निष्पक्ष रिपोर्ट नहीं कही जा सकती। इसका अध्ययन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। जो प्रवर समिति के सदस्य इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले थे उनका प्रमुख उद्देश्य कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करना था। राजस्व प्रशासन की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया।

→ इस अध्याय के एक भाग में ‘पहाड़िया’ और ‘संथालों’ के जीवन पर पड़े प्रभावों को बहुत ही गम्भीरता से वर्णित किया गया है। राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहने वाले पहाड़िया लोगों की खेती तो अभी कुदाल (Hoe) पर आधारित ही थी। जबकि गंजुरिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले संथाल हल (Plough) की खेती यानी स्थायी कृषि सीख रहे थे। अंग्रेजों ने अपने हितों के लिए पहाड़िया और संथालों के जीवन में हस्तक्षेप करके उनके परंपरागत जीवन को बदला दिया था। फिर पहाड़िया और संथालों की प्रतिक्रिया काफी तीखी हुई।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 10 Img 1

→ सन् 1855-56 में तो संथालों का आक्रोश एक ज़बरदस्त सशस्त्र विद्रोह के रूप में फूट पड़ा। जून को भगनीडीट गाँव में लगभग 400 आदिवासी गाँवों से करीब 6,000 आदिवासी प्रतिनिधियों की सभा हुई जिसमें एक स्वर से खले विद्रोह का आह्वान किया गया। विद्रोह के नेता सीदो, कान्ह, चाँद और भैरव थे। ये चारो भाई थे। सीदो (सिधू मांझी) ने स्वयं को देवीपुरुष बताया और संथालों के भगवान् ‘ठाकुर’ का अवतार घोषित किया। संथालों को विश्वास था कि भगवान् उनके साथ हैं। ये नेता हाथी, घोड़े और पालकी पर चलते थे।

गाँव-गाँव में ढोल, नगाड़ों के साथ जुलूस निकालकर विद्रोह का आह्वान किया गया। एक अनुमान के अनुसार लगभग 60,000 सशस्त्र संथाल संगठित हो गए थे। इन्होंने महाजनों, ज़मींदारों के घरों को जला दिया, जमकर लूटपाट की तथा उन बही-खातों को भी बर्बाद कर दिया जिनके कारण वे गुलाम हो गए थे। चूंकि अंग्रेज़ सरकार महाजनों और ज़मींदारों का पक्ष ले रही थी। अतः संथालों ने सरकारी कार्यालयों, पुलिस कर्मचारियों पर हमले किए। थानों में आग लगा दी। भागलपुर और राजमहल के बीच रेल, डाक और तार सेवा को तहस-नहस कर दिया।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 10 Img 2
→ विद्रोहियों को कुचलने के लिए सेना ने कत्लेआम मचा दिया। गाँव-के-गाँव जलाकर राख कर दिए। निःसंदेह संथालों ने वीरतापूर्वक अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला किया, परन्तु सीधे तीर-धनुष और छापामार युद्ध के सहारे तोपों और गोलियों के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके। लगभग 15,000 संथाल मारे गए। 1855 ई० में सीदो को पकड़कर मार डाला गया। 1856 ई० में कान्हू को भी पकड़ लिया गया।

→ 1875 का दक्कन विद्रोह-यह विद्रोह 12 मई, 1875 को महाराष्ट्र के एक बड़े गाँव सूपा (Supe) से शुरू हुआ। दो महीनों के अंदर यह पूना और अहमदनगर के दूसरे बहुत-से गाँवों में फैल गया। 100 कि०मी० पूर्व से पश्चिम तथा 65 कि०मी० उत्तर से दक्षिण के बीच लगभग 6500 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इसकी चपेट में आ गया। हर जगह गुजराती और मारवाड़ी महाजनों और साहूकारों पर आक्रमण हुए। उन्होंने साहूकारों से उनके ऋण-पत्र (debt bonds) और बही-खाते (Account books) छीन लिए और उन्हें जला दिया। जिन साहूकारों ने बही-खाते और ऋण-पत्र देने का विरोध किया, उन्हें मारा-पीटा गया। उनके घरों को भी जला दिया गया। इसके अलावा अनाज की दुकानें लूट ली गईं।

→ यह विद्रोह मात्र अनाज के लिए दंगा’ (Grain Riots) नहीं था। किसानों का निशाना साफ तौर पर ‘कानूनी दस्तावेज’ (Legal Documents) थे। इस विद्रोह के फैलने से ब्रिटिश अधिकारी भी घबराए। उन्होंने इस इलाके को सेना के हवाले करना पड़ा। 95 किसानों को गिरफ्तार करके दंडित किया गया। विद्रोह पर नियंत्रण के बाद भी स्थिति पर नज़र रखी गई। किसानों के इन विद्रोहों का संबंध देहाती अर्थव्यवस्था में उन परिवर्तनों से है जो ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों से आए। विशेषतः इन नीतियों के चलते साहकास और कृषकों के मध्य परंपसुगत संबंध समाप्त हो गए।

→ ऋण-प्राप्ति और उसकी वापसी दोनों ही दक्कन के किसानों के लिए एक जटिल प्रक्रिया थी। परंपरागत साहूकारी कारोबार में कानूनी दस्तावेजों का इतना झंझट नहीं था। जुबान अथवा वायदा ही पर्याप्त था। क्योंकि किसी सौदे के लिए परस्पर सामाजिक दबाव रहता था। ब्रिटिश अधिकारी वर्ग बिना विधिसम्मत अनुबंधों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जुबानी लेन-देन कानून के दायरे में कोई महत्त्व नहीं रखता था जबकि परंपरागत प्रणाली में गाँव की पंचायत महत्त्व देती थी।

→ कर्ज में डूबे किसान को जब और उधार की जरूरत पड़ती तो केवल एक ही तरीके से यह संभव हो पाता कि वह ज़मीन, गाड़ी, हल-बैल ऋण दाता को दे दे। फिर भी जीवन के लिए तो उसे कुछ-न-कुछ साधन चाहिए थे। अतः वह इन साधनों को साहूकार से किराए पर लेता था जो वास्तव में उसके अपने ही होते थे।

क्रम संख्याकालघटना का विवरण
1 .1757अंग्रेज़ों व सिराजुद्दौला के मध्य प्लासी की लड़ाई हुई।
2 .1764बक्सर की लड़ाई।
3 .1765इलाहाबाद की संधि हुई।
4 .1772वारेन हेस्टिग्स बंगाल का गवर्नर बनकर आया जिसे 1773 में गवर्नर जनरल बनाया गया।
5 .1773कंपनी की सैनिक व राजनीतिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया गया।
6 .1784रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए ‘पिट्स इंडिया एक्ट’ पास किया गया।
7 .1793स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी अथवा ज़मींदारी) लॉर्ड कार्नवालिस ने लागू किया।
8 .1780 का दशकसंथाल बंगाल में आए और ज़मींदारों के खेतों में काम करने लगे।
9 .1800 का दशकसंथाल जनजाति के लोग राजमहल की पहाड़ियों में आकर बसने लगे।
10 .1813‘पाँचवीं रिपोर्ट’ ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई।
11 .1818पहला भू-राजस्व बंदोबस्त, बंबई दक्कन में।
12 .1820 के दशककृषि उत्पादों के मूल्यों में गिरावट का प्रारंभ।
13 .1832-34
14 .1855-56बंबई दक्कन में भयंकर अकाल। आधी जनसंख्या समाप्त हो गई। संथालों का विद्रोह।
15 .1855संथाल नेता सीदो की हत्या की गई।
16 .1861-65अमेरिका गह यद्ध।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Read More »

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

HBSE 12th Class History राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
मुगल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुग़लकालीन भारत में मुद्रण कला का विकास नहीं हुआ था। इसलिए सभी इतिवृत्तों की रचना पांडुलिपियों (हस्तलिखित ग्रंथ) के रूप में हुई। पांडुलिपियों की रचना का मुख्य केन्द्र ‘शाही किताबखाना’ कहलाता था। फारसी भाषा में किताबखाना का आम अर्थ पुस्तकालय से लिया जाता है। मुगलकाल में किताबखाना पुस्तकालय से भिन्न था। किताबखाना सही अर्थों में लिपिघर था जहाँ बादशाह के आदेशानुसार लेखक व उनके सहयोगी सुबह से शाम तक पांडुलिपियों की रचना में व्यस्त रहते थे। इसी स्थान पर लिखी गई पांडुलिपियों को संग्रह करके रखा भी जाता था। किताबखाना काफी बड़ा तथा सुनियोजित स्थल था। वहाँ मात्र लेखक ही नहीं होते थे, बल्कि विविध प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्ति होते थे।

ये सभी किताबखाना के नेतृत्व में कार्य करते थे। पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया में सबसे पहले कागज व उसके पन्ने बनाने वाले कारीगर कार्य करते थे। इसी तरह स्याही बनाने वालों का वर्ग था। कागज व स्याही के तैयार होने पर लेखक लिखता था। फिर उन पृष्ठों पर चित्रकार लेखक की सलाह के अनुरूप चित्र बनाता था। लेखन व चित्र कार्य होने के बाद जिल्दसाज जिल्द चढ़ाता था। इस तरह पांडुलिपि एक. पूरी प्रक्रिया के तहत तैयार होती थी।

प्रश्न 2.
मुगल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?
उत्तर:
मुग़ल शासकों ने भारत में सत्ता स्थापित करने के बाद मध्य-एशिया, ईरान व प्राचीन भारतीय शासन-व्यवस्था को अपनाकर इस तरह की परम्पराएँ अपनाईं जिससे राज्य मजबूत हुआ। इसके साथ ही शासक की सत्ता भी जनता के मन में बैठी। इसके लिए दरबार के अग्रलिखित प्रतीकों को लिया गया है

1. राज सिंहासन-सम्राट का केंद्र बिंदु राज सिंहासन था जिसने संप्रभु के कार्यों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया था। इसे ऐसे आधार के रूप में स्वीकार किया जाता था जिस पर पृथ्वी टिकी हुई है।

2. अधिकारियों के बैठने के स्थान प्रत्येक अधिकारी (दरबारी) की हैसियत का पता उसके बैठने के स्थान से लगता था। जो दरबारी जितना सम्राट के निकट बैठता था उसे उतना ही सम्राट् के निकट समझा जाता था।

3. सम्मान प्रकट करने का तरीका-शासक को किये गये अभिवादन के तरीके से भी अभिवादनकर्ता की हैसियत का पता चलता था।

4. दिन की शुरुआत-बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था।

5. सार्वजनिक सभा (दीवान-ए-आम)-बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों को पूरा करने के लिए दीवान-ए-आम में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते थे।

6. खास उत्सवों के अवसर-अनके धार्मिक त्योहार; जैसे होली, ईद, शब-ए-बारात आदि त्योहारों का आयोजन खूब ठाट-बाट से किया जाता था।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 3.
मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में शाही परिवार की महिलाएँ मुख्य रूप से हरम में रहती थीं। हरम की सारी व्यवस्था का संचालन वे स्वयं करती थीं। हरम में सभी महिलाओं की स्थिति एक जैसी नहीं थी। इसके अतिरिक्त कई बार शाही परिवार की महिलाएँ भी राजनीति में सक्रिय रहती थीं। उदाहरण के लिए नूरजहाँ के राजनीति में आने के बाद हरम की स्थिति व पहचान दोनों बदल गईं। 1611 ई० से 1626 ई० तक जहाँगीर के शासन काल में नूरजहाँ ने प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लिया। वह झरोखे पर बैठती थी तथा सिक्कों पर उसका नाम आता था। ‘नूरजहाँ गुट’ सही अर्थों में जहाँगीर के शासन में सारे फैसले करता था। जहाँगीर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि मैंने बादशाहत नूरजहाँ को दे दी है, मुझे कुछ प्याले शराब तथा आधा सेर माँस के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए। शाहजहाँ के शासन काल में उसकी पुत्री जहाँआरा तथा रोशनआरा लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक फैसलों में शामिल होती थीं। वे उच्च पदों पर आसीन मनसबदारों की भाँति वार्षिक वेतन लेती थीं।

आर्थिक तौर पर सम्पन्न होने पर हरम की प्रमख महिलाओं ने इमारतों व बागों का निर्माण कार्य कराया। नरजहाँ ने आगरा में एतमादुद्दौला (अपने पिता) के मकबरे का निर्माण करवाया। शालीमार व निशात बागों को बनवाने में भी उसकी मुख्य भूमिका थी। इसी प्रकार दिल्ली में शाहजहाँनाबाद की कई कलात्मक योजनाओं में जहाँआरा की भूमिका थी। उसने शाहजहाँनाबाद में आँगन, बाग व चाँदनी चौक की रूप रेखा तैयार की। शाही परिवार की महिलाएँ प्रायः शिक्षित भी होती थीं। इसलिए साहित्य लेखन में भी अपनी भूमिका अदा करती थीं। गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा नामक पुस्तक लिखी। अतः स्पष्ट है कि शाही परिवार की महिलाएँ हरम व राजनीतिक मामलों में सक्रिय रहती थीं।

प्रश्न 4.
वे कौन-से मुद्दे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुगल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?
उत्तर:
मुग़ल जिस तरह आन्तरिक व्यवस्था पर ध्यान देते थे उसी तरह उनकी विदेश नीति भी काफी परिपक्व थी। शासक जिस तरह की उपाधियों या पदवियों को धारण करते थे उनका असर पड़ोसी राज्यों पर अवश्य होता था। जहाँगीर (विश्व पर कब्जा करने वाला), शाहजहाँ (विजय का शासक) तथा आलमगीर (विजय का स्वामी) द्वारा धारण की गई उपाधियाँ खास थीं। मुग़ल अविजित क्षेत्रों पर भी राजनीतिक नियंत्रण बनाने के लिए कदम उठाते रहते थे तथा एक बार विजित करने के उपरांत उस पर हमेशा के लिए अधिकार के लिए कार्य करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि मुगल अपने साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे, उनकी इस नीति के आधार पर ही उनके पड़ोसी देशों के साथ संबंधों का निर्धारण होता था।

इन रिश्तों में कूटनीतिक चाल व संघर्ष साथ-साथ चलता था। इस कड़ी में पड़ोसी राज्यों के साथ क्षेत्रीय हितों के तनाव व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। इसके साथ-साथ दूतों का आदान-प्रदान भी होता रहता था। उनकी विभिन्न देशों तथा धर्मों के प्रति नीति ने उनके प्रभाव को स्थापित किया। इनके निम्नलिखित मुख्य पक्ष थे

1. ईरानियों एवं तूरानियों से संबंध-मुग़ल बादशाहों के ईरान व मध्य एशिया के पड़ोसी देशों से राजनीतिक रिश्ते हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा पर निर्भर करते थे।

2. कंधार का किला-नगर-यह किला मुगलों तथा सफावियों के बीच झगड़े का मुख्य कारण था। आरंभ में यह किला नगर हुमायूँ के अधिकार में था। सन् 1595 में अकबर ने इस पर दोबारा कब्जा कर लिया। जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार स्वीकारने को कहा परंतु सफलता नहीं मिली। क्योंकि शाह ने 1621 ई० में इस पर कब्जा कर लिया। शाहजहाँ ने 1638 ई० में इसे फिर जीत लिया। 1649 ई० में सफावी शासकों ने इस पर फिर अधिकार कर लिया। अतः यह मुगलों व ईरान के बीच झगड़े की जड़ रहा।

3. ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थयात्रा और व्यापार-ऑटोमन राज्य के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह धर्म और व्यापार को मिलाने की कोशिश करते थे। वे बिक्री से अर्जित आय को धर्मस्थलों व फकीरों में दान में बाँट देते थे। औरंगजेब को अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया।

4. ईसाई धर्म-मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराना है। पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक सीधे समुद्र की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। इस प्रकार ईसाई धर्म भारत में आया। इन बातों से स्पष्ट है कि मुगल अपनी स्थिति के प्रति सचेत थे। इसलिए बाह्य शक्तियों पर अपना दबाव बनाने के लिए कार्य करते रहते थे।

प्रश्न 5.
मुग़ल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह से प्रांतों पर नियंत्रण रखता था ?
उत्तर:
मुगल साम्राज्य काफी विस्तृत था। एक जगह से उसकी व्यवस्था संचालित नहीं हो सकती थी। मुगलों ने इसे आगे विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया था। इन्हें प्रांत या सूबा कहा जाता था। इन इकाइयों में भी केन्द्रीय व्यवस्था की तरह हर स्तर (छोटे-बड़े) के अधिकारी व नौकरशाह होते थे। उनके संबंध शाही दरबार से निरंतर रहते थे।

प्रांतों का आकार एक-जैसा नहीं था लेकिन इनके नाम भौगोलिकता के अनुरूप थे। सूबे का मुखिया सबेदार होता था जिसकी नियुक्ति शासक द्वारा की जाती थी। वह उसी के प्रति जिम्मेदार होता था। सूबेदार की सहायता के लिए दीवान, बख्शी तथा सद्र के नाम से सहायक वजीर (मंत्री) होते थे। वे सूबेदार के सहयोगी अवश्य थे लेकिन इनकी नियुक्ति भी प्रत्यक्षतः शासक द्वारा की जाती थी। इस तरह सूबेदार स्वतंत्र होते हुए भी नियंत्रण में था। अकबर के काल में सूबों की संख्या 15, जहाँगीर के काल में 17, शाहजहाँ के काल में 22 तथा औरंगजेब के काल में 21 थी।

जैसे संपूर्ण राज्य सूबों में विभाजित था, उसी तरह सूबे सरकारों में विभाजित थे। सरकार में सबसे बड़ा अधिकारी फौजदार था। किसी सूबे में सरकारों की संख्या कितनी होगी यह निश्चित नहीं था। सरकार को आगे परगनों में विभाजित किया गया था। परगना का स्तर वर्तमान जिले का रहा होगा। परगना स्तर पर कानूनगो, चौधरी व काजी नामक अधिकारी थे। कानूनगो, राजस्व का रिकॉर्ड रखने वाला अधिकारी था जबकि चौधरी का मुख्य कार्य राजस्व संग्रह करना था। ये दोनों अधिकारी वंशानुगत थे। प्रशासन में सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसकी व्यवस्था ग्राम पंचायत देखती थी। मुग़लों का प्रांतीय शासन केंद्र से अलग-थलग नहीं था बल्कि तंत्र का एक हिस्सा था। विभिन्न प्रांतों व उसकी इकाइयों के अधिकारियों का तबादला प्रति वर्ष या दो वर्ष में किया जाता था। मगलों के प्रशासन की पकड गाँव तक थी। मगल अपने अधिकारियों को स देते थे। इस तरह प्रान्त के अनियन्त्रित होने की गुंजाइश नहीं थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
उदाहरण सहित मुग़ल इतिहासों के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।
अथवा
इतिवृत्त की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
इतिवृत्त (क्रॉनिकल्स) मुगलकालीन इतिहास की जानकारी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। सभी मुग़ल शासकों ने इतिवृत्तों के लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। इतिवृत्त के विभिन्न आयामों व पक्षों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है-

1. रचना के उद्देश्य-मुगलकाल में रचे गए इतिवृत्त बहुत सोची-समझी नीति का उद्देश्य थे। विभिन्न इतिहासकारों व विद्वानों ने इस बारे में अपने-अपने मतों की अभिव्यक्ति की है जिनमें से ये पक्ष उभरकर सामने आते हैं

  • इतिवृत्तों के माध्यम से मुगल शासक अपनी प्रजा के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि बनाना चाहते थे।
  • इतिवृत्तों के वृत्तांत के माध्यम से शासक उन लोगों को संदेश देना चाहते थे जिन्होंने राज्य का विरोध किया था तथा भविष्य में भी कर सकते थे। उन्हें यह बताना चाहते थे कि यह राज्य बहुत शक्तिशाली है तथा उनका विद्रोह कभी सफल नहीं होगा।
  • इतिवृत्तों के माध्यम से शासक अपने राज्य के विवरणों को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाना चाहते थे।

2. इतिवृत्तों की विषय-वस्तु-मुग़ल शासकों ने इतिवृत्त लेखन का कार्य दरबारियों को दिया। अधिकतर इतिवृत्त शासक की देख-रेख में लिखे जाते थे या उसे पढ़कर सुनाए जाते थे। कुछ शासकों ने आत्मकथा लेखन का कार्य स्वयं किया। इस माध्यम से ये शासक स्वयं को प्रबुद्ध वर्ग में स्थापित करना चाहते थे, साथ ही अन्य लेखकों का मार्गदर्शन भी करना चाहते थे। इन सभी पक्षों से यह स्पष्ट होता है कि इन इतिवृत्तों के केन्द्र में स्वयं शासक व उसका परिवार रहता था। इस कारण इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासक, शाही परिवार, दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध व प्रशासनिक संस्थाएँ रहीं। इन इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासकों के नाम अथवा उनके द्वारा धारण उपाधियों की पुष्टि भी करना था।

3. भाषा-मुग़ल दरबारी इतिहास फारसी भाषा में लिखे गये थे। क्योंकि मुगलों की मातृभाषा तुर्की थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और संस्मरण तुर्की में लिखे थे।

4. अनुवाद-बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद किया गया था। महाभारत और रामायण का अनुवाद भी फारसी भाषा में हुआ।

5. शिल्पकारों का योगदान-पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले लोग शामिल होते थे; जैसे चित्रकार, जिल्दसाज तथा आवरणों को अलंकृत करने वाले लोग।

6. मुगल काल के प्रमुख इतिवृत्त-मुगलकाल के प्रमुख इतिवृत्त यह है

बाबरनामा या तुक-ए-बाबरी लेखक बाबर, हुमायूँनामा लेखिका हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम, अकबरनामा-लेखक अबुल फज्ल, तुक-ए-जहाँगीरी लेखक जहाँगीर, शाहजहाँनामा लेखक मामुरी, बादशाहनामा (शाहजहाँ पर आधारित) लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी, आलमगीरनामा लेखक मुहम्मद काजिम । इन इतिवृत्तों के नामों से स्पष्ट होता है कि ये इतिवृत्त शासक-विशेष के साथ जुड़े हैं तथा या तो स्वयं का वृत्तांत हैं या दरबारी द्वारा अपने संरक्षण का विवरण है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 7.
इस अध्याय में दी गई दृश्य सामग्री किस हद तक अबल फज्ल द्वारा किए गए ‘तसवीर’ के वर्णन से मेल खाती है?
उत्तर:
अकबर के दरबारी लेखक अबुल फज़्ल ने चित्रकारी को ‘जादुई कला’ कहा है। वह कहता है कि चित्रकारी निर्जीव को सजीव की भाँति प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है। इसलिए वह तसवीर के वर्णन में चित्रकारों की प्रशंसा करता है। अबुल फज्ल ने अपने वृत्तांत में अकबर के विचारों को उद्धत किया है कि बादशाह कहते हैं, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे लगता है कि कलाकार के पास खुदा को समझने का बेजोड़ तरीका है। चूंकि कहीं-न-कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।”

इस्लाम सामान्य रूप से प्राकृतिक चित्रों की चित्रकारी का समर्थन नहीं करता। ऐसी धारणा है कि चित्रकारी एक सृजन है जबकि सृजन का अधिकार केवल खुदा के पास है। इसलिए कुरान और हदीस में मानव रूपों के चित्रण पर प्रतिबंध का वर्णन है। उसी वर्णन के अनुरूप उलेमा (धर्मशास्त्री) चित्रकारी को गैर-इस्लामी घोषित करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि कलाकार अपने इस कार्य से खुदा की रचना करने की शक्ति को अपने हाथ में लेने का प्रयास करता है। हमें मुगलकाल में शासकों तथा कट्टरपंथी धर्मशास्त्रियों के बीच निरंतर तनाव दिखाई देता है। उलेमा शासक की गतिविधियों को धर्म-विरोधी बताते हैं जबकि शासक इसे मानव भावों की अभिव्यक्ति तथा खुदा को समझने का मार्ग बताते हैं।

अबुल फज़्ल के वर्णन के आधार पर शासकों ने धर्म की कट्टरता को महत्त्व न देते हुए चित्रकला को महत्त्व दिया। इससे चित्रकला की व्याख्या ही बदल गई। जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि इस्लाम प्राकृतिक चीजों व रूपों के चित्रण की आज्ञा नहीं देता, इसके बाद भी मुगलकाल में चित्रकारी खूब फली-फूली। समय के साथ इस्लाम में विश्वास करने वाले विद्वानों व धर्मशास्त्रियों ने चित्रकारी के बारे में नई व्याख्याएँ की, जिसके कारण मोटे तौर पर धारणा में बदलाव आया। मात्र कुछ रूढ़िवादी चिन्तक ऐसे थे जो बाद तक भी विरोध करते रहे।

नए व्याख्याकारों ने राज्य की राजनीतिक आवश्यकता के अनुरूप इसे उचित बताया। इस व्याख्या के अनुसार स्पष्ट किया गया कि इससे शासक व जनता के बीच की दूरी में कमी आती है तथा राजा व प्रजा एक-दूसरे के भाव समझ पाते हैं। शासक केवल किसी एक धर्म विशेष का नहीं है। ईरान के मुस्लिम शासकों (सफावी) ने भी चित्रकारी को संरक्षण दिया। इसके लिए कार्यशालाएँ आयोजित कीं। इन सबका प्रभाव भी मुगल शासकों पर पड़ा। अतः चित्रकारी संबंधी नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें चित्रकारी को धर्म विरोधी घोषित न कर, सांस्कृतिक विकास का पहलू घोषित किया।

नई व्याख्याओं के चलते हुए मुगल दरबार चित्रकारों के लिए संरक्षण क्षेत्र बन गया। कुछ कलाकार; जैसे मीर सैय्यद अली, अब्दुस समद व विहजाद ईरान से भारत आए। अकबर के समय केसू, जसवन्त, बसावन जैसे हिन्दू कलाकार भी दरबार में पहुंचे। अकबर सप्ताह में एक दिन चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन करवाता था। उसी परंपरा को जहाँगीर ने आगे बढ़ाया। उसका काल चित्रकला की दृष्टि से स्वर्ण काल माना जाता था।

मुगल शासकों ने पांडुलिपि चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया। अकबर के काल में चित्रित होने वाली मुख्य पांडुलिपियों में बाबरनामा, हुमायूँनामा, अकबरनामा, हम्जनामा, रज्मनामा (महाभारत का अनुवाद), तारीख-ए-अल्फी व तैमूरनामा थीं। बाद के शासकों ने अपने इतिवृत्तों विशेषकर तुक-ए-जहाँगीरी व शाहजहाँनामा को चित्रित करवाया। इसके साथ ही उन्होंने पहले लिखे गए इतिवृत्तों की और पांडुलिपियों को तैयार करवाकर उन्हें चित्रित करवाया। ये पांडुलिपियाँ सैकड़ों की संख्या में किताबखाना में रखी गई थीं। मुग़ल शासकों द्वारा जिस तरह से पांडुलिपियों को चित्रित करवाया गया, उसकी नकल यूरोप के शासकों ने भी की। इस काल में चित्रित पुस्तकों को उपहार में देना एक प्रकार की परंपरा बन गई थी।

प्रश्न 8.
मुगल.अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके संबंध किस तरह बने?
उत्तर:
मुगलकाल के नौकरशाहों यानी अधिकारियों के समूह को अभिजात वर्ग का नाम दिया गया है। इस समूह में विभिन्न क्षेत्रों व धार्मिक समूहों के लोग थे। मुगल शासक इस बात का ध्यान रखते थे कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह संगठित होकर राज्य के लिए चुनौती बन जाए। यह नौकरशाहों का समूह उस गुलदस्ते जैसा था जिसमें अलग-अलग रंग तथा अलग-अलग किस्म के फूल हैं, लेकिन वे एक मुट्ठी में बंधकर शोभा प्रदान करने की स्थिति में हों। ये चाहे किसी धर्म या क्षेत्र से हों, इनकी खास बात यह थी कि ये शासक के प्रति वफादार थे।

अकबर के शासन काल के प्रारंभिक दौर में इस अभिजात वर्ग में तुरानी (मध्य-एशिया) तथा ईरानी मुख्य थे। 1560 ई० के। बाद अभिजात वर्ग में बदलाव आया। इसमें दो वर्ग और जुड़े। ये राजपूत तथा भारतीय मुसलमान थे। राजपूत परिवारों से सर्वप्रथम आमेर (अंबर) का राजा भारमल (बिहारीमल) था जिसने वैवाहिक राजनीतिक संबंधों द्वारा अकबर के अभिजात वर्ग में प्रवेश किया।

जहाँगीर के काल में अभिजात वर्ग की मौलिक संरचना वही बनी रही, परंतु अधिक ऊँचे पदों पर ईरानी पहुँचने में सफल रहे। इसका मुख्य कारण नूरजहाँ थी क्योंकि वह स्वयं ईरान से आई थी। उसके पिता ग्यास बेग, भाई आसफ खाँ इत्यादि बहुत ऊँचे पदों तक पहुँचे। उनके साथ संबंधों का फायदा उठाकर अन्य ईरानी भी आगे बढ़ गए। शाहजहाँ के काल में अभिजात वर्ग सन्तुलित था। उसमें भारतीय व विदेशी सभी शामिल थे। औरंगजेब के समय भी स्थिति लगभग इसी तरह की रही। सामान्यतः यह कहा जाता है कि उसने यह पद केवल सुन्नीओं के लिए रखे थे। परंतु आंकड़े बताते हैं कि उसके दरबार में राजपूत व मराठे काफी अच्छी संख्या में थे। सिंहासन ग्रहण करने के समय तथा मृत्यु तक संख्या में कमी नहीं आई बल्कि आंकड़े वृद्धि दर्ज कराते थे।

मुग़ल साम्राज्य सैन्य प्रधान राज्य था। इसलिए अभिजात वर्ग की सेना संबंधित गतिविधियों को बहुत महत्त्व दिया जाता था। अभिजात वर्ग के सदस्य सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करते थे साथ ही केन्द्र व प्रान्त स्तर पर अधिकारी के रूप में कार्य भी करते थे। वे अपनी टुकड़ी के सैनिक प्रमुख होते थे। उन्हें अपने सैनिकों व घुड़सवारों को भर्ती करना होता था। इन सैनिक व घुड़सवारों के लिए हथियार, रसद व प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी मनसबदार की होती थी। उसके घोड़ों की पीठ के दोनों ओर मुगलों का शाही निशान बना होता था। उसके मुखिया तथा घोड़े का नम्बर भी दर्ज होता था। शासक विभिन्न अवसरों पर नियमित रूप से इन अधिकारियों की सेना का निरीक्षण करता था। समय के साथ बदलाव के चलते हुए शासक व अभिजात वर्ग के बीच रिश्ते मुरीद व मुर्शीद जैसे बन गए थे। कुछ के साथ रिश्ते बहुत अधिक अपनेपन के भी थे।

मुगल दरबार में नौकरी पाना बेहद कठिन कार्य था। दूसरी ओर अभिजात व सामान्य वर्ग के लोग शाही सेवा को शक्ति, धन व उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा का एक साधन मानते थे। नौकरी में आने वाले व्यक्ति से आवेदन लिया जाता था, फिर मीरबख्शी की जाँच-पड़ताल के बाद उसे दरबार में प्रस्तुत होना होता था। मीरबख्शी के साथ-साथ दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) तथा सद्र-उस-सद्धर (जन कल्याण, न्याय व अनुदान का मंत्री) भी उस व्यक्ति को कागज तैयार करवाकर अपने-अपने कार्यालयों की मोहर लगाते थे। फिर वे शाही मोहर के लिए मीरबख्शी के द्वारा ले जाए जाते थे। ये तीनों मंत्री दरबार में दाएँ खड़े होते थे, बाईं ओर नियुक्ति व पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति खड़ा होता था। शासक उससे कुछ औपचारिक बात करके उसे दरबार के प्रति वफादार रहने की बात कहता था तथा संकेत करता था कि वह किस स्थान पर खड़ा हो। इस तरह उस व्यक्ति की नियुक्ति तथा पदोन्नति मानी जाती थी।

शासक द्वारा नौकरशाहों पर नियंत्रण के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। उनके अनुसार शासक सामान्य रूप से इनके प्रति कठोर व्यवहार रखता था। नियमित निरीक्षण में इन्हें किसी तरह की छूट नहीं थी। थोड़ा-सा भी शक होने या अनुशासन की उल्लंघना करने पर इन्हें दण्ड दिया जाता था। इनकी कभी भी कहीं भी बदली की जा सकती थी। कोई भी अधिकारी किसी भी कार्य को करने की मनाही नहीं कर सकता था। इन सबके अतिरिक्त यह कि इनका पद पैतृक नहीं होता था अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जीवन की शुरुआत करनी होती थी। किसी भी अभिजात वर्ग के व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति, उसकी सन्तान को नहीं दी जाती थी बल्कि यह स्वतः ही बादशाह या दरबार की सम्पत्ति बन जाती थी।

प्रश्न 9.
राजत्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्त्वों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
मुग़लों ने भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया। उन्होंने अपने शासन में कुछ सिद्धान्तों को महत्त्व दिया। ये सिद्धांत भारत की परंपरागत शासन-व्यवस्था से भी जुड़े तथा दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों से भी। इनके राजत्व के सिद्धांत में मध्य-एशियाई तत्त्व भी थे तो ईरान का प्रभाव भी साफ दिखाई देता है। इनके राजत्व के आदर्शों को विभिन्न इतिवृत्तों में विशेष जगह मिली है। कई स्थानों पर तो इतिवृत्त मुगल राजत्व सिद्धांत की स्पष्ट व्याख्या भी करते हैं। मुग़ल इतिवृत्तों में मुग़ल राज्य को आदर्श राज्य वर्णित किया है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ प्रस्तुत की हैं

1. मुगल राज्य : एक दैवीय राज्य-मुगलकाल के सभी इतिवृत्त इस बात की जानकारी देते हैं कि मुगल शासक राजत्व के दैवीय सिद्धान्त में विश्वास करते थे। उनका विश्वास था कि उन्हें शासन करने की शक्ति स्वयं ईश्वर ने प्रदान की है। ईश्वर की इस तरह की कृपा सभी व्यक्तियों पर नहीं होती, बल्कि व्यक्ति-विशेष पर ही होती है।
मुगल शासकों के दैवीय राजत्व के सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्व अबुल फज़्ल ने दिया। वह इसे फर-ए-इज़ादी (ईश्वर से प्राप्त) बताता है। वह इस विचार के लिए प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 में मृत्यु) से प्रभावित था। उसने इस तरह के विचार ईरान के शासकों के लिए प्रस्तुत किए थे।

2. सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत-मुग़ल इतिवृत्त साम्राज्य को हिन्दुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

मुगल शासक विशेषकर अकबर ने धर्म व राजनीति दोनों के संबंधों को समझने का प्रयास किया। उसने इनकी सीमा व महत्त्व को समझा। इस समझ के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरी तरह धर्म का त्याग संभव नहीं है लेकिन धर्म की कट्टरता को त्यागकर अवश्य चला जाए। उसने धर्म को राजनीति से भी थोड़ा दूर करने का प्रयास किया। इस कड़ी में उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर को समाप्त कर, यह सन्देश दिया कि गैर-इस्लामी प्रजा से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। उसने युद्ध में पराजित सैनिकों को दास बनाने पर रोक लगाई तथा जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन को गैर-कानूनी घोषित किया। अकबर ने अपने साम्राज्य में गौ-वध को देशद्रोह घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी।

3. सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता-मुग़ल शासकों ने न्याय को विशेष महत्त्व दिया। वे यह मानते थे कि न्याय व्यवस्था ही उनसे सही अर्थों में प्रजा के साथ संबंधों की व्याख्या है। अबुल फज्ल ने अकबर के प्रभुसत्ता के सिद्धांत को स्पष्ट किया है। उसके अनुसार बादशाह अपनी प्रजा के चार तत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान और विश्वास (दीन) की रक्षा करता है। इसके बदले में जनता से आशा करता है कि वह राजाज्ञा का पालन करे तथा अपनी आमदनी (संसाधनों) में से कुछ हिस्सा राज्य को दे। अबुल फज़्ल स्पष्ट करता है कि इस तरह का चिन्तन किसी न्यायपूर्ण संप्रभु का ही हो सकता है जिसे दैवीय मार्गदर्शन प्राप्त हो।

मुग़ल शासकों ने सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्याय को अपनाया तथा जनता में प्रचारित भी किया। इसके लिए विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को प्रयोग में लाया गया। इसमें सर्वाधिक कार्य चित्रकारों के माध्यम से करवाया गया। मुगल शासकों ने दरबार तथा सिंहासन के आस-पास विभिन्न स्थानों पर जो चित्रकारी करवाई उसमें वो शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय साथ-साथ बैठे दिखाई देते हैं। उनकी चित्रकारी जनता को यह सन्देश देने का साधन था कि इस राज्य में सबल या दुर्बल दोनों परस्पर मिलकर रह सकते हैं। इनमें भी कुछ चित्रों में शासक को शेर पर सवार दिखाया गया है जो इस बात का संदेश है कि उसके साम्राज्य में उनसे शक्तिशाली कोई नहीं था।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व मानचित्र के एक रेखाचित्र पर उन क्षेत्रों को अंकित कीजिए जिनसे मुगलों के राजनीतिक व सांस्कृतिक संबंध थे।
उत्तर:
इसके लिए विद्यार्थी विश्व के मानचित्र में वर्तमान अफगानिस्तान, ईरान, अरब क्षेत्र के देश, तुर्की, उजबेगिस्तान व मध्य एशिया के देशों को दिखाएँ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
किसी मुग़ल इतिवृत्त के विषय में और जानकारी ढूंढिए। इसके लेखक, भाषा, शैली और विषयवस्तु का वर्णन करते हुए एक वृत्तांत तैयार कीजिए। आपके द्वारा चयनित इतिहास की व्याख्या में प्रयुक्त कम-से-कम दो चित्रों का, बादशाह की शक्ति को इंगित करने वाले संकेतों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल के इतिवृत्त या वृत्तांत में से किसी एक का चयन करते हुए हम अकबरनामा को चुन सकते हैं तथा यह जानकारी ले सकते हैं।

  • वृत्तांत (इतिवृत्त का नाम)-अकबरनामा
  • लेखक – अबुल फल
  • शैली – दरबारी लेखन
  • भाषा – फारसी
  • विषय-वस्तु – अकबर के काल की घटनाओं का विवरण

इस बारे में विस्तृत जानकारी आप जे०बी०डी० पुस्तक में मुख्य इतिवृत्त के रूप में वर्णित अकबरनामा के संदर्भ में जानकारी से ले सकते हैं।

मौलिक रूप में इस पुस्तक में 150 से अधिक चित्र दिए गए हैं। इन चित्रों को पुस्तक की मूल प्रति, इंटरनेट तथा राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में रखी चित्रकारियों में देख सकते हैं। इन चित्रों में दरबार से संबंधित किन्हीं भी दो चित्रों को देख सकते हैं, इन चित्रों में आप पाएँगे कि शासक के बैठने की जगह अन्यों से ऊँची है तथा अन्य दरबारी भी एक निश्चित क्रम में बैठे हैं। इस तरह शासक के बैठने के स्थान पर आप प्रायः शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय के चित्र पाएंगे। इसका अर्थ स्पष्ट है कि शासक शक्तिशाली-से-शक्तिशाली व सामान्य-से-सामान्य दोनों का रक्षक है। शासक अपनी परंपरा व बादशाह की शक्ति को इन संकेतों से प्रदर्शित कर रहा है।

प्रश्न 12.
राज्यपद के आदर्शों, दरबारी रिवाजों और शाही सेवा में भर्ती की विधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए व समानताओं और विभिन्नताओं पर प्रकाश डालते हुए मुगल दरबार और प्रशासन की वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था से तुलना कर एक वृत्तांत तैयार कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में नौकरशाही शासन-व्यवस्था का केंद्र थी, परंतु इस नौकरशाही की शक्ति का स्रोत मुगल शासक थे। इसलिए वे नौकरशाहों को नियुक्त करते समय दरबारी प्रतिष्ठा, व्यक्ति की सामाजिक, धार्मिक हैसियत का ध्यान रखते थे। शासक के विचार तथा कार्य-प्रणाली पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था। शासक का अपने बड़े-से-बड़े तथा छोटे-से-छोटे अधिकारी के प्रति व्यवहार प्रायः कठोर होता था। इस काल में कार्य की विशेषज्ञता को महत्त्व नहीं दिया जाता था बल्कि सेवा में आया हुआ व्यक्ति सैनिक, असैनिक, दरबार संबंधी व राजस्व संबंधी सभी कार्य करने के लिए बाध्य होता था। उदाहरण के लिए अकबरनामा का लेखक अबुल फज्ल दरबारी लेखक था परंतु उसने 15 से अधिक सैन्य अभियानों में सेना का नेतृत्व किया। वह शासक का सलाहकार भी था। शासक ने उसे कई बार सेना निरीक्षण का कार्य भी दिया।

इसकी तुलना जब हम भारतीय शासन-व्यवस्था से करते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह व्यवस्था एक संविधान के तहत चलती है जिसको राष्ट्र द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इस संविधान व सरकार में शक्ति का स्रोत जनता है। वह हर तरह के परिवर्तन की शक्ति रखती है। शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए विशाल नौकरशाही, केंद्र तथा राज्य स्तर पर है। इनको एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा नियुक्त किया जाता है। इस बारे में यह ध्यान भी रखा जाता है कि व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ हो। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुगलकालीन शासन-व्यवस्था आज की शासन-व्यवस्था से काफी भिन्न थी।

राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार HBSE 12th Class History Notes

→ तैमूरी वंशज तैमूर के वंश से संबंध रखने वाले मुग़ल स्वयं को तैमूरी वंशज कहते थे।

→ बहु या यायावर-वह समुदाय जो एक स्थान पर न बसा हो बल्कि विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए जीवन जीता हो।

→ पादशाह या बादशाह-शाहों का शाह अर्थात् शासकों का शासक बाबर द्वारा यह उपाधि काबुल व कंधार जीतने के बाद ली गई थी।

→ न्याय की जंजीर-जहाँगीर द्वारा स्वयं को न्यायप्रिय घोषित करने के लिए आगरा के किले में सोने की जंजीर लगवाई जिसे कोई भी फरियादी खींच सकता था।

→ इतिवृत्त-मुगल शासकों के दरबार में दरबारियों द्वारा लिखे गए वृत्तांत।

→ चगताई तुर्की-बाबर की आत्मकथा की भाषा। मूलतः यह तुर्की थी लेकिन इस पर बाबर के कबीले के बोली चगताई का प्रभाव था।

→ हिंदवी-मुगलकाल में उत्तर-भारत में जन साधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा।

→ रज्मनामा मुगलकाल में महाभारत नामक पुस्तक का अनुवाद करके उसे रज्मनामा का नाम दिया गया।

→ शाही किताबखाना-मुग़ल शासकों के महल में स्थित वह जगह जहाँ पर पुस्तकें लिखी जाती थीं।

→ नस्तलिक-मुगलकाल में कागज पर कलम से लिखने की एक शैली।

→ फर-ए-इज़ादी ईश्वर से प्राप्त राज्य, अबुल फज्ल ने मुगलों के राज्य को फर-ए-इज़ादी का नाम दिया।

→ सुलह-ए-कुल-अकबर की सबके साथ मिलकर चलने की नीति सुलह-ए-कुल कहलाई। शाब्दिक अर्थ के रूप में इसे ‘पूर्ण शांति’ कहा जाता है।

→ जियारत-किसी सूफी फकीर की दरगाह पर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना के लिए जाना।

→ दीन-पनाह मुग़ल शासक हुमायूँ द्वारा दिल्ली में बनाया गया भवन।

→ बुलंद दरवाजा-अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में बनाई गई दरवाजा रूपी इमारत।

→ शाहजहाँबाद-मुग़ल शासक शाहजहाँ द्वारा दिल्ली में ही बसाया गया एक नया शहर जिसमें लाल किला, जामा मस्जिद व चाँदनी चौक शामिल थे।

→ जमींबोसी-अपने से बड़े के प्रति झुककर जमीन चूमकर अभिवादन की प्रा।।

→ चार तसलीम-चार बार झुककर अभिवादन करना।

→ झरोखा-मुग़ल शासकों की सूर्योदय के समय जनता को महल की विशेष जगह से दर्शन देने की प्रथा।

→ नौरोज-ईरानी परंपरा के अनुसार नववर्ष का उत्सव, इसे मुग़ल दरबार में उत्सव के रूप में मनाया जाता था।

→ हिजरी कैलेंडर-इस्लामी परम्परा के अनुरूप समय गणना बताने वाला कैलेंडर।

→ तख्त-ए-मुरस्सा-शाहजहाँ द्वारा बनाया गया हीरे-जवाहरातों से जड़ा सिंहासन । इसे सामान्यतः मयूर सिंहासन कहा जाता था।

→ नकीब-दरबार में किसी भी विशेष व्यक्ति या शासक के आने की घोषणा करने वाला व्यक्ति।

→ नजराना मगल शासक, शहजादे का राज परिवार के किसी सदस्य को भेंटस्वरूप दिया जाने वाला उपहार।

→ पादशाह बेगम-मुगल बादशाह की वह पत्नी जो शाही आवास की देख-रेख करती थी।

→ हरम-शाब्दिक अर्थ पवित्र यह वह स्थान था जहाँ मगल शासकों का परिवार रहता था।

मनसबदार-मुगलों की सेवा में सैनिक या असैनिक सेवा करने वाला उच्च पद का व्यक्ति।

→ सूबा मुगलकाल में प्रांत के लिए प्रयुक्त शब्द।

→ जेसुइट-ईसाई धर्म प्रचारकों के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द।

→ दीन-ए-इलाही-सभी धर्मों के बारे में सुनने के बाद अकबर द्वारा 1582 ई० में स्थापित नया मत।

15वीं तथा 16वीं शताब्दी में विश्व भर में अनेक युग प्रवर्तक घटनाएं घटीं। नए-नए राजवंशों की स्थापना हुई, यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance) तथा धर्म सुधार (Reformation) आंदोलन चले। उसी प्रकार भारत में भी दिल्ली सल्तनत का पतन हुआ तथा उसके खण्डहरों पर मुगल साम्राज्य का उदय हुआ। यह परिवर्तन भारतीय इतिहास में एक ऐसा परिवर्तन था जिसने न केवल देश के इतिहास की धारा को ही नया मोड़ दिया, अपितु एक नए क्षितिज एवं नव-प्रभात का भी सूत्रपात किया। यह एक महान् राजनीतिक परिवर्तन था। इस परिवर्तन का सूत्रधार तैमूर का वंशज बाबर था।।

→ मुगल वंश के संस्थापक बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को मध्य-एशिया के फरगाना (वर्तमान में उजबेगिस्तान) में हुआ। 1494 ई० में बाबर अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद फरगाना का शासक बना। उसने 1504 ई० में काबुल तथा 1507 ई० में कन्धार को जीता। 1519 से 1526 ई० तक उसने भारत पर पाँच आक्रमण किए तथा वह सभी में सफल रहा। 1526 ई० में उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अन्तिम सुल्तान इब्राहिम लोधी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी। उसने अपने राज्य को सुदृढ़ आधार दिया। 1530 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। .. बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ शासक बना। शेरशाह ने उसे 1540 ई० में बेलग्राम (कन्नौज) के युद्ध में पराजित कर दिया तथा उसे भारत से निर्वासित होना पड़ा। उसने 1555 ई० में शेरशाह के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर एक बार फिर दिल्ली व आगरा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1556 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर शासक बना। अकबर ने अपनी प्रारंभिक सफलताएँ अपने शिक्षक व संरक्षक बैहराम खाँ के नेतृत्व में पाईं। तत्पश्चात् उसने प्रत्येक क्षेत्र में साम्राज्य का विस्तार किया। उसने आन्तरिक दृष्टि से अपने राज्य का विस्तार कर इसे विशाल, सुदृढ़ तथा समृद्ध बनाया। उसने राजपूतों व स्थानीय प्रमुखों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर हटाकर गैर-इस्लामी जनता को यह एहसास करवाने का प्रयास किया कि वह उनका भी शासक है। इस तरह अकबर अपने राजनीतिक, प्रशासनिक व उदारवादी व्यवहार के कारण मुग़ल शासकों में महानतम स्थान प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से शासक बना। उसने अकबर की नीतियों को आगे बढ़ाया। उसने अपने जीवन का अधिकतर समय लाहौर में बिताया। 1611 ई० में उसने मेहरूनिसा (बाद में नूरजहाँ) से शादी की। नूरजहाँ शासन में इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसने शासन व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। 1627 ई० में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई।

→ जहाँगीर के बाद उसका पुत्र खुर्रम, शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। खुर्रम ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण किया। अपनी पत्नी मुमताज महल की मृत्यु के बाद उसने ताजमहल का निर्माण प्रारंभ करवाया। दक्षिण के बारे में उसने बीजापुर, गोलकुण्डा व अहमदनगर के सन्दर्भ में सन्तुलित नीति अपनाई। उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध था जो 1657-58 ई० में लड़ा गया। इसमें उसके तीन पुत्र दारा शिकोह, मुराद व शुजा मारे गए तथा औरंगज़ेब सफल रहा। उसने 1658 ई० में शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर जेल में डाल दिया।

→ 1658 ई० में अपने भाइयों को हराकर व पिता को बन्दी बनाकर औरंगज़ेब सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा। वह व्यक्तिगत जीवन में सादगी को पसन्द करता था, लेकिन धार्मिक दृष्टि से संकीर्ण था। प्रशासनिक व्यवस्था में उसने कोई बदलाव नहीं किया। उसके काल में मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई, जिससे सैन्य तंत्र भी कमजोर हुआ। इस तरह 1707 ई० में उसकी मृत्यु के समय मुगल साम्राज्य चारों ओर से संकटों से घिरा हुआ था।

→ 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल वंश में एक के बाद एक कमजोर शासक आए। इन शासकों के काल में शासन, दरबार व अभिजात वर्ग पर शासकों की पकड़ कमजोर हुई, जिसके कारण सत्ता का केन्द्र दिल्ली, आगरा व लाहौर न होकर विभिन्न क्षेत्रीय नगर हो गए। इन क्षेत्रीय नगरों में क्षेत्रीय सत्ता की स्थापना हुई। 1739 ई० में ईरान के शासक नादिरशाह ने मुग़ल शासक मुहम्मद शाह को बुरी तरह से पराजित कर दिल्ली में लूटमार की। इससे मुगल साम्राज्य का वैभव, सम्मान व पहचान मिट्टी में मिल गई।

→ 1857 ई० केजन-विद्रोह में एक बार फिर जन-विद्रोहियों ने मुग़ल राज्य व वंश के नाम का प्रयोग किया तथा अन्तिम मुगल शासक . बहादुरशाह जफर को इसका नेतृत्व दे दिया। अन्ततः वह हार गया तथा उसके पुत्रों व परिवार के अधिकतर सदस्यों का कत्ल कर दिया । गया। उसे बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद मुगल वंश समाप्त हो गया। मुग़ल शासकों ने शासन के लिए जिस तरह की व्यवस्था अपनाई, उसके द्वारा वे विशाल विजातीय जनता तथा बहु-सांस्कृतिक जीवन के बीच तालमेल बना सके। शासन-व्यवस्था की इस कड़ी में इस वंश के शासकों ने अपने वंश के इतिहास-लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। यह इतिहास-लेखन दरबारी संरक्षण में दरबारियों एवं विद्वानों के द्वारा लिखा गया। इन दरबारी लेखकों द्वारा जहाँ शासक की इच्छा व भावना का ध्यान रखा गया, वहीं उन्होंने इस महाद्वीप से संबंधित विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ भी उपलब्ध कराई हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

→ आधुनिक इतिहासकारों विशेषतः अंग्रेज़ी में लिखने वालों ने मुगलों की इस लेखन शैली को ‘क्रॉनिकल्स’ का नाम दिया है, जिसको अनुवादित रूप में इतिवृत्त या इतिहास कहा जा सकता है। ये इतिवृत्त (वृत्तांत) मुगलकाल की घटनाओं का कालानुक्रमिक विवरण प्रस्तुत करते हैं। इन इतिवृत्तों की सामग्री दरबारी लेखकों द्वारा कड़ी मेहनत से एकत्रित की गई। फिर इन्होंने इसे व्यवस्थित ढंग से वर्गीकृत किया। मुगलकालीन इतिहास-लेखन के लिए यह इतिवृत्त सबसे प्रमुख स्रोत है, क्योंकि इनमें तथ्यात्मक जानकारी प्रचुर मात्रा में है।

→ इन इतिवृत्तों में मुगल शासकों की विजयों, राजधानियों, दरबार, केंद्रीय व प्रांतीय शासन व विदेश नीति पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ-साथ मुगल शासकों की धार्मिक नीति तथा प्रजा के साथ व्यवहार का विस्तृत वर्णन भी है। निःसंदेह ये इतिवृत्त या वृत्तांत मुगलकालीन इतिहास के लेखन का महत्त्वपूर्ण आधार हैं।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
1483 ईoबाबर का फरगाना में जन्म
1494 ई०बाबर का फरगाना का शासक बनना
1497 ईoबाबर के हाथ से राज्य का निकलना व निर्वासन जीवन की शुरुआत
1504 ई०बाबर की काबुल विजय, सिकंदर लोधी द्वारा आगरा की स्थापना
1526 ईoपानीपत की पहली लड़ाई व बाबर की जीत
1530 ईoबाबर की मृत्यु तथा बाबरनामा की पाण्डुलिपि को संगृहीत करना।
1540 ई०हुमायूँ की शेरशाह के हाथों हार व भारत से बाहर जाना
1555 ईoहुमायूँ की पुनः भारत विजय
1556 ई०हुमायूँ की मृत्यु, पानीपत की दूसरी लड़ाई व अकबर का शासक बनना
1562 झoअकबर द्वारा किसी राजपूत परिवार से वैवाहिक संबंधों की शुरुआत
1563 ई०अकबर द्वारा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति
1564 ई०अकबर द्वारा जजिया कर को हटाना
1570-85 ई०अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में भवन निर्माण व उसे राजधानी बनाना
1587 ई०गुलबदन बेगम द्वारा हुमायूँनामा के लेखन की शुरुआत
1589 ई०बाबरनामा का तुर्की से फारसी में अनुवाद
1589-1602 ईoअबुल फण्ल द्वारा अकबरनामा का लेखन
1596-98 ई०अबुल फण्ल्ल द्वारा आइन-ए-अकबरी का लेखन
1605 ई०अकबर की मृत्यु व सलीम का जहाँगीर के नाम से शासक बनना
1611 ई०जहाँगीर की नूरजहाँ से शादी
1605-22 ई०जहाँगीर द्वारा आत्मकथा तुज़्क-ए-जहाँगीरी (जहाँगीरनामा) का लेखन
1627 ई०जहाँगीर की मृत्यु
1631 ई०मुमताज महल की मृत्यु
1639-47 ई०अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा बादशाहनामा के दो खण्डों का लेखन
1657-58 ई०शाहजहाँ के काल में उत्तराधिकार का युद्ध
1658 ई०औरंगज़ेब का शासक बनना
1668 ई०मुहम्मद काजिम द्वारा औरंगज़ेब के काल के पहले 10 वर्षों का इतिवृत्त आलमगीरनामा के नाम से संकलन
1669 ई०औरंगज़ेब के काल में जाटों का विद्रोह
1679 ई०औरंगज़ेब द्वारा जजिया कर फिर से लगाना औरंगज़ेब की मृत्यु
1707 ई०से संकलन

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Read More »