Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य
HBSE 12th Class History औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Questions and Answers
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
प्रश्न 1.
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व सँभालने के लिए पुराने शासकों से क्या आग्रह किया ?
उत्तर:
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों (सैनिकों) ने नेतृत्व संभालने के लिए पुराने अपदस्थ शासकों से आग्रह किया कि वे विद्रोह को नेतृत्व प्रदान करें। क्योंकि वे जानते थे कि नेतृत्व व संगठन के बिना अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया जा सकता। यह बात सही है कि सिपाही जानते थे कि सफलता के लिए राजनीतिक नेतृत्व जरूरी है। इसीलिए सिपाही मेरठ में विद्रोह के तुरंत बाद दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने बहादुर शाह को अपना नेता बनाया। वह वृद्ध था। बादशाह तो नाममात्र का ही था। स्वाभाविक तौर पर वह विद्रोह की खबर से बेचैन और भयभीत हुआ। यद्यपि अंग्रेजों की नीतियों से वह त्रस्त तो था ही फिर भी विद्रोह के लिए तैयार वह तभी हुआ जब कुछ सैनिक शाही शिष्टाचार की अवहेलना करते हुए दरबार तक आ चुके थे। सिपाहियों से घिरे बादशाह के पास उनकी बात मानने के लिए और कोई चारा नहीं था। अन्य स्थानों पर भी पहले सिपाहियों ने विद्रोह किया और फिर नवाबों और राजाओं को नेतृत्व करने के लिए विवश किया।
प्रश्न 2.
उन साक्ष्यों के बारे में चर्चा कीजिए जिनसे पता चलता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और समन्वित ढंग से काम कर रहे थे?
उत्तर:
इस बात के कुछ प्रमाण मिलते हैं कि सिपाही विद्रोह को योजनाबद्ध एवं समन्वित तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। विभिन्न छावनियों में विद्रोही सिपाहियों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान था। ‘चर्बी वाले कारतूसों’ की बात सभी छावनियों में पहुँच गई थी। बहरमपुर से शुरू होकर बैरकपुर और फिर अंबाला और मेरठ में विद्रोह की चिंगारियाँ भड़कीं। इसका अर्थ है कि सूचनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच रही थीं। सिपाही बगावत के मनसूबे गढ़ रहे थे। इसका एक और उदाहरण यह है कि जब मई की शुरुआत में सातवीं अवध इर्रेग्युलर कैवेलरी (7th Awadh Irregular Cavalry) ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेंट्री को लिखा : “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेंट्री के आदेश की प्रतीक्षा है।”
सिपाहियों की बैठकों के भी कुछ सुराग मिलते हैं। हालांकि बैठक में वे कैसी योजनाएँ बनाते थे, उसके प्रमाण नहीं हैं। फिर भी कुछ अंदाजें लगाए जाते हैं कि इन सिपाहियों का दुःख-दर्द एक-जैसा था। अधिकांश उच्च-जाति के थे और उनकी जीवन-शैली भी मिलती-जुलती थी। स्वाभाविक है कि वे अपने भविष्य के बारे में ही निर्णय लेते होंगे। चार्ल्स बॉल (Charles Ball) उन शुरुआती इतिहासकारों में से है जिसने 1857 की घटना पर लिखा है। इसने भी उन सैन्य पंचायतों का उल्लेख किया है जो कानपुर सिपाही लाइन में रात को होती थी। जिनमें मिलिट्री पुलिस के कप्तान ‘कैप्टेन हियर्से’ की हत्या के लिए 41वीं नेटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सैनिकों ने उन भारतीय सिपाहियों पर दबाव डाला, जो उस कप्तान की सुरक्षा के लिए तैनात थे।
प्रश्न 3.
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद तक भूमिका थी? [2017 (Set-A, D)]
उत्तर:
1857 के घटनाक्रम के निर्धारण में धार्मिक विश्वासों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। विभिन्न तरीकों से सैनिकों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं। सामान्य लोग भी अंग्रेज़ी सरकार को संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि सरकार अंग्रेज़ी शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके भारत में ईसाइयत को बढ़ावा दे रही है। उनका संदेह गलत भी नहीं था क्योंकि अधिकारी वर्ग ईसाई पादरियों को धर्म प्रचार की छूट और प्रोत्साहन दे रहे थे। सैनिकों और स्कूलों में धर्म परिवर्तन के लिए प्रलोभन भी दिया जा रहा था। 1850 में बने उत्तराधिकार कानून से यह संदेह विश्वास में बदल गया। इसमें धर्म बदलने वाले को पैतृक सम्पत्ति प्राप्ति का अधिकार दिया गया था।
सैनिकों को विदेशों में जाकर लड़ने के लिए भी विवश किया जाता था, जिसे वे गलत मानते थे। इसमें वे अपना धर्म भ्रष्ट मानते थे। अन्ततः इन सभी परिस्थितियों के अन्तर्गत ‘चर्बी वाले कारतूस’ तथा कुछ अन्य अफवाहों, जैसे कि ‘आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट इत्यादि के चलते इस विद्रोह का घटनाक्रम निर्धारित हुआ। अफवाहें तभी विश्वासों में बदल रही थीं क्योंकि उनमें संदेह की अनुगूंज थी।
प्रश्न 4.
विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए क्या तरीके अपनाए गए?
उत्तर:
विद्रोहियों की सोच में सभी भारतीय सामाजिक समुदायों में एकता आवश्यक थी। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में निम्नलिखित बातों पर जोर दिया गया-
- जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया।
- अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का बखान भी किया गया।
- लाभ की दृष्टि से इस युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक-समान बताया।
- बादशाह बहादुर शाह की ओर से की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई देते हुए संघर्ष में शामिल होने की अपील की गई।
- विद्रोह के लिए समर्थन जुटाने के लिए तीन भाषाओं हिंदी, उर्दू और फारसी में अपीलें जारी की गईं।
प्रश्न 5.
अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए?
उत्तर:
विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित कदम उठाए
(1) गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग ने कम्पनी सरकार के समस्त ब्रिटिश साधनों को संगठित करके विद्रोह को कुचलने के लिए एक समुचित योजना बनाई।
(2) मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए।
(3) एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी।
(4) सबसे पहले दिल्ली पर पुनः अधिकार की रणनीति अपनाई गई। केनिंग जानता था कि दिल्ली के पतन से विद्रोहियों की कमर टूट जाएगी। साथ ही देशी शासकों और ज़मींदारों का समर्थन पाने के लिए उन्हें लालच दिया गया।
(5) हिंदू-मुसलमानों में सांप्रदायिक तनाव भड़काकर विद्रोह को कमजोर करने का प्रयास किया गया। लेकिन इसमें उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)
प्रश्न 6.
अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? किसान, ताल्लुकदार और ज़मींदार उसमें क्यों शामिल हुए?
उत्तर:
अवध में विद्रोह अपेक्षाकृत सबसे व्यापक था। इस प्रांत में आठ डिविजन थे उन सभी में विद्रोह हुआ। यहाँ किसान व दस्तकार से लेकर ताल्लुकदार और नवाबी परिवार के सदस्यों सहित सभी लोगों ने इसमें भाग लिया। हरेक गांव से लोग विद्रोह में शामिल हुए। यहाँ विदेशी शासन के विरुद्ध यह विद्रोह लोक-प्रतिरोध का रूप धारण कर चुका था। लोग फिरंगी राज के आने से अत्यधिक आहत थे। उन्हें लग रहा था कि उनकी दुनिया लुट गई है; वो सब कुछ बिखर गया है, जिन्हें वो प्यार करते थे। वस्तुतः इसमें विभिन्न प्रकार की पीड़ाओं (A chain of grievances) ने किसानों, सिपाहियों, ताल्लुकदारों और खजकुमारों को परस्पर जोड़ दिया था। संक्षेप में, विद्रोह की व्यापकता के निम्नलिखित कारण थे
1. अवध का विलय-अवध का विलय 1856 में विद्रोह फूटने से लगभग एक वर्ष पहले हुआ था। इसे ‘कुशासन’ का आरोप लगाते हुए ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया था। लेकिन अवधवासियों ने इसे न्यायसंगत नहीं माना। बल्कि वे इसे डलहौज़ी का विश्वासघात मान रहे थे। 1851 में ही लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध के बारे में कहा था कि “यह गिलास फल (cherry) एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” डलहौज़ी एक उग्र साम्राज्यवादी था। वस्तुतः उसकी दिलचस्पी अवध की उपजाऊ जमीन को हड़पने में भी थी। अतः कुशासन तो एक बहाना था। अवधवासी यह जानते थे कि अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह बहुत लोकप्रिय था। लोगों की नवाब व उसके परिवार से गहरी सहानुभूति थी। जब उसे कलकत्ता से निष्कासित किया गया तो बहुत-से लोग उनके पीछे विलाप करते हुए गए।
2. ताल्लुकदारों का अपमान-ताल्लुकदारों ने विद्रोह में बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनकी सत्ता व सम्मान को अंग्रेजी राज से जबरदस्त क्षति हुई थी। ताल्लुकदार अवध क्षेत्र में वैसे ही छोटे राजा थे जैसे बंगाल में ज़मींदार। वे छोटे महलनुमा घरों में रहते थे। अपनी-अपनी जागीर में सत्ता व जमीन पर उनका नियंत्रण था। 1856 में अवध का अधिग्रहण करते ही इन ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं और दुर्ग भी ध्वस्त कर दिए गए।
3. भूमि छीनने की नीति-आर्थिक दृष्टि से अवध के ताल्लुकदारों की हैसियत व सत्ता को क्षति भूमि छीनने की नीति से पहुँची। 1856 ई० में अधिग्रहण के तुरंत बाद एक मुश्त बंदोबस्त (Summary Settlement of 1856) नाम से भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई, जो इस मान्यता पर आधारित थी कि ताल्लुकदार जमीन के वास्तविक मालिक नहीं हैं। उन्होंने जमीन पर कब्जा धोखाधड़ी व शक्ति के बल पर किया हुआ है। इस मान्यता के आधार पर ज़मीनों की जाँच की गई। ताल्लुकदारों की जमीनें उनसे लेकर किसानों को दी जाने लगीं। पहले अवध के 67% गाँव ताल्लुकदारों के पास थे और इस ब्रिटिश नीति से यह संख्या घटकर मात्र 38% रह गई।
4. किसानों में असंतोष-विद्रोह में बहुत बड़ी संख्या में किसानों ने भाग लिया। इससे अंग्रेज़ अधिकारी काफी परेशान हुए थे, क्योंकि किसानों ने अंग्रेज़ों का साथ देने की बजाय अपने पूर्व मालिकों (ताल्लुकदारों) का साथ दिया। जबकि अंग्रेजों ने उन्हें ज़मीनें भी दी थीं। इसके कई कारण थे जैसे कि अंग्रेजी राज से एक संपूर्ण ग्रामीण समाज व्यवस्था भंग हो गई थी। यदि कभी ज़मींदार किसानों से बेगार या धन वसूलता था तो बुरे वक्त में वह उनकी सहायता भी करता था। ताल्लुकदारों की छवि दयालु अभिभावकों की थी। तीज-त्योहारों पर भी उन्हें कर्जा अथवा मदद मिल जाती थी, फसल खराब होने पर भी उनकी दया दृष्टि किसानों पर रहती थी। लेकिन अंग्रेज़ी राज की नई भू-राजस्व व्यवस्था में कोई लचीलापन नहीं था, न ही उसके निर्धारण में और न ही वसूली में। मुसीबत के समय यह नई सरकार कृषकों से कोई सहानुभूति की भावना नहीं रखती थी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवध में विद्रोह विभिन्न सामाजिक समूहों का एक सामूहिक कृत्य था। किसान, ज़मींदार व ताल्लुकदारों ने इसमें बड़े स्तर पर सिपाहियों का साथ दिया क्योंकि अंग्रेजों के खिलाफ इन सबका दुःख-दर्द एक हो गया था।
प्रश्न 7.
विद्रोही क्या चाहते थे? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में कितना फर्क था?
उत्तर:
विद्रोही नेताओं की घोषणाओं, सिपाहियों की कुछ अर्जियों तथा नेताओं के कुछ पत्रों से हमें विद्रोहियों की सोच के बारे में कुछ जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार है
(1) वे अंग्रेज़ी सत्ता को उत्पीड़क, निरंकुश और षड्यंत्रकारी मान रहे थे। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक समूहों को एकजुट होने का आह्वान किया। वे इस राज से सम्बन्धित प्रत्येक चीज को खारिज कर रहे थे।
(2) विद्रोहियों की घोषणाओं से ऐसा लगता है कि वे भारत के सभी सामाजिक समूहों में एकता चाहते थे। विशेष तौर पर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। लाभ की दृष्टि से युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक-समान बताया। बहादुरशाह जफ़र की घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई के साथ संघर्ष में भाग लेने की अपील की गई।
(3) वे वैकल्पिक सत्ता के रूप में अंग्रेज़ों का राज समाप्त करके 18वीं सदी से पहले की मुगलकालीन व्यवस्था की ओर ही वापिस लौटना चाहते थे।
विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में अंतर-उपरोक्त बातों से यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सभी विद्रोहियों की सोच बिल्कुल एक जैसी थी। वास्तव में अलग-अलग सामाजिक समूहों की दृष्टि में अंतर था, उदाहरण के लिए
(1) सैनिक चाहते थे कि उन्हें पर्याप्त वेतन, पदोन्नति तथा अन्य सुविधाएं यूरोपीय सिपाहियों की तरह ही प्राप्त हों। वे अपने आत्म-सम्मान व भावनाओं की भी रक्षा चाहते थे। वे अंग्रेजों की विदेशी सत्ता को खत्म करके अपने पुराने शासकों की सत्ता की पुनः स्थापना चाहते थे।
(2) अपदस्थ शासक विद्रोह के नेता थे। परन्तु इनमें से अधिकांश अपनी रजवाड़ा शाही को ही पुनः स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। इसलिए उन्होंने पुराने ढर्रे पर ही दरबार लगाए और दरबारी नियुक्तियाँ कीं।
(3) ताल्लुकदार अथवा ज़मींदार अपनी जमींदारियों और सामाजिक हैसियत के लिए संघर्ष में कूदे थे। वे अपनी जमीनों को पुनः प्राप्त करना चाहते थे जो अंग्रेज़ों ने उनसे छीनकर किसानों को दे दी थीं।
(4) किसान अंग्रेज़ों की भू-राजस्व व्यवस्था से परेशान था। इसमें कोई लचीलापन नहीं था। राजस्व का निर्धारण बहुत ऊँची दर पर किया जाता था और उसकी वसूली ‘डण्डे’ के साथ की जाती थी। फसल खराब होने पर भी सरकार की ओर से कोई दयाभाव नहीं था। इसी कारण वह साहकारी के चंगल में फँसता था। यही कारण था कि अंग्रेजी राज के साथ-साथ वह अन्य उत्पीडकों को भी खत्म करना चाहता था। उदाहरण के लिए उन्होंने कई स्थानों पर सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घरों में तोड़-फोड़ की।
उपरोक्त समूहों के अतिरिक्त दस्तकार भी अंग्रेज़ों की नीतियों से बर्बाद हुए। वे भी विद्रोहियों के साथ आ गए थे। बहुत-से रूढ़िवादी विचारों के लोग सामाजिक व धार्मिक कारणों से भी अंग्रेज़ी व्यवस्था को खत्म करना चाहते थे।
प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से क्या पता चलता है? इतिहासकार इन चित्रों का किस तरह विश्लेषण करते हैं?
उत्तर:
चित्र भी इतिहास लिखने के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। 1857 के विद्रोह से सम्बन्धित कुछ चित्र, पेंसिल से बने रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र (Etchings), पोस्टर, कार्टून इत्यादि उपलब्ध हैं। कुछ चित्रों और कार्टूनों के बाजार-प्रिंट भी मिलते हैं। किसी घटना की छवि बनाने में ऐसे चित्रों की विशेष भूमिका होती है। चित्र विचारों और भावनाओं के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को भी व्यक्त करते हैं। 1857 के चित्रों के विश्लेषण से पता चलता है कि जो चित्र इंग्लैण्ड में बने उन्होंने ब्रिटिश जनता में अलग छवि बनाई। इनसे वहाँ के लोग उत्तेजित हुए और उन्होंने विद्रोहियों को निर्दयतापूर्वक कुचल डालने की मांग की। दूसरी ओर भारत में छपने वाले चित्रों, संबंधित फिल्मों तथा कला व साहित्य के अन्य रूपों में उन्हीं विद्रोहियों की अलग छवि को जन्म दिया। इस छवि ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन को पोषित किया। इंग्लैण्ड और भारत में चित्रों से बनने वाली छवियों को हम निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं
A. अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए चित्र-इन चित्रों को देखकर विविध भावनाएँ और प्रतिक्रियाएँ पैदा होती हैं।
(1) टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा 1859 में बनाए गए चित्र ‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ में अंग्रेज़ नायकों (कैम्पबेल, औट्रम व हैवलॉक) की छवि उभरती है। इन नायकों ने लखनऊ में विद्रोहियों को खदेड़कर अंग्रेज़ों को सुरक्षित बचा लिया था।
(2) बहुत-से समकालीन चित्रों ने ब्रिटिश नागरिकों में प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा मिला। उदाहरण के लिए जोसेफ़ नोएल पेटन का चित्र ‘इन मेमोरियम’ (स्मृति में) को देखने से दर्शक के मन में बेचैनी और क्रोध की भावना सहज रूप से उभरती है। दूसरी ओर ‘मिस व्हीलर’ का तमंचा वाले चित्र से ‘सम्मान की रक्षा का संघर्ष’ नज़र आता है।
(3) दमन और प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा देने वाले बहुत-से चित्र मिलते हैं। 1857 के पन्च नामक पत्र में ‘जस्टिस’ नामक चित्र में एक गौरी महिला को बदले की भावना से तड़पते हुए दिखाया गया है। विद्रोहियों को तोप से उड़ाते हुए बहुत-से चित्र बनाए गए हैं। इन चित्रों को देखकर ब्रिटेन के आम नागरिक प्रतिशोध को उचित ठहराने लगे। केनिंग की ‘दयाभाव’ का मजाक उड़ाने लगे। ‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ ऐसा ही एक कार्टून है।
B. भारतीयों द्वारा बनाए गए चित्र-यदि हम भारत में 1857 में जुड़ी फिल्मों और चित्रों को देखते हैं तो हमारे मन में अलग प्रतिक्रिया होती है। रानी लक्ष्मीबाई का नाम लेते ही मन में वीरता, अन्याय और विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष की साकार प्रतिमा की छवि बनती है। ऐसी छवि बनाने में गीतों, कविताओं, फिल्मों एवं चित्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लक्ष्मीबाई के चित्र प्रायः घोड़े पर सवार हाथ में तलवार लिए वीरांगना के बनाए गए।
प्रश्न 9.
एक चित्र और एक लिखित पाठ को चुनकर किन्हीं दो स्रोतों की पड़ताल कीजिए और इस बारे में चर्चा कीजिए कि उनसे विजेताओं और पराजितों के दृष्टिकोण के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
हम पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्रों में से चित्र को लेते हैं। इस चित्र में विजेताओं का दृष्टिकोण झलकता है। इसमें विद्रोहियों को दानवों तथा अंग्रेज़ औरत को वीरांगना के रूप में दर्शाया गया है। चित्र का शीर्षक ‘मिस व्हीलर’ है। उसे कानपुर में हाथ में तमंचा लिए हुए अपनी इज्जत की रक्षा करती हुई दृढ़तापूर्वक खड़ी दिखाया गया है। अकेली औरत पर किस तरह से विद्रोही तलवारों और बंदूकों से आक्रमण कर रहे हैं; जैसे वे मानव नहीं दानव हों। चित्र में धरती पर बाइबल पड़ी है जो इस संघर्ष को ‘ईसाइयत की रक्षा के संघर्ष के रूप में व्यक्त करती है। यह चित्र उस हत्याकांड पर आधारित है जब विद्रोहियों ने नाना साहिब के न चाहते हुए भी अंग्रेज़ औरतों और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया था, लेकिन यह हत्याकांड तब हुआ जब विद्रोहियों ने बनारस में अंग्रेजों द्वारा किए गए हत्याकाण्डों का समाचार सुना। वे अपने प्रतिशोध को रोक नहीं पाए।
(अन्तिम भेंट में हनवंत सिंह ने उस अंग्रेज़ अफसर से कहा था, “साहिब, आपके मुल्क के लोग हमारे देश में आए और उन्होंने हमारे राजाओं को खदेड़ दिया। आप अधिकारियों को भेजकर जिले-जिले में जागीरों के स्वामित्व की जाँच करवाते हैं। एक ही झटके में आपने मेरे पूर्वजों की जमीन मुझसे छीन ली। मैं चुप रहा। फिर अचानक आपका बुरा समय प्रारंभ हो गया। यहाँ के लोग आपके विरुद्ध उठ खड़े हुए। तब आप मेरे पास आए, जिसे आपने बरबाद कर दिया था। मैंने आपकी जान बचाई है। किंतु, अब मैं अपने सिपाहियों को लेकर लखनऊ जा रहा हूँ ताकि आपको देश से खदेड़ सऊँ।” पाठयपस्तक में स्रोत नं0 4)
स्पष्ट है कि विजेताओं के दृष्टिकोण से बने चित्र में पराजितों के दृष्टिकोण के लिए कोई स्थान नहीं था।
अब हम Box में दिए गए स्रोत को लेंगे। यह एक लिखित रिपोर्ट का भाग है। इसमें ताल्लुकदारों यानी पराजितों के दृष्टिकोण का पता चलता है। विवरण में काला कांकर के राजा हनवंत सिंह की उस अंग्रेज़ अधिकारी से बातचीत के अंश हैं जो 1857 में जान बचाने के लिए हनवंत सिंह के पास शरण लेता है। हनवंत सिंह उसकी जान बचाता है और साथ ही अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए लखनऊ जाकर लड़ने का निश्चय भी दोहराता है। इस विवरण को पढ़कर हमारे मन में विद्रोहियों की छवि वह नहीं उभरती जो
‘मिस व्हीलर’ नामक चित्र में उभरती है। यहाँ ताल्लुकदार हनवंत सिंह एक विद्रोही नेता है जो एक ओर शरण में आए एक अंग्रेज़ की जान बचाता है तो दूसरी ओर अपने सिपाहियों को लेकर युद्ध क्षेत्र में उतरता है। यहाँ विद्रोही बर्बर, नृशंस और दानव नहीं हैं। वे एक ‘वीर इंसान’ हैं।
परियोजना कार्य
प्रश्न 10.
1857 के विद्रोही नेताओं में से किसी एक की जीवनी पढ़ें। देखिए कि उसे लिखने के लिए जीवनीकार ने किन स्रोतों का उपयोग किया है? क्या उनमें सरकारी रिपोर्टों, अखबारी खबरों, क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों, चित्रों और किसी अन्य चीज़ का इस्तेमाल किया गया है? क्या सभी स्रोत एक ही बात कहते हैं या उनके बीच फर्क दिखाई देते हैं? अपने निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी पुस्तकालय से या इंटरनेट पर विद्रोही नेताओं जैसे कि बहादुरशाह जफर, महारानी लक्ष्मीबाई, तांत्या तोपे, कुंवर सिंह, राव तुलाराम इत्यादि प्रमुख नेताओं की जीवनी पढ़ें। पढ़ते समय विद्यार्थी यह विवरण तैयार करें कि लेखक ने किन स्रोतों के आधार पर पुस्तक लिखी है। सरकारी रिपोर्टों का उपयोग कितना है, देशी भाषा, स्थानीय कोई भी भाषा या अंग्रेज़ी समाचार-पत्र, पत्रिकाओं से कितने और कैसे तथ्य लिए गए हैं। पेंटिंग, मूर्ति, कार्टून, गीत, रागनी इत्यादि का कितना प्रयोग है। लेखक किस दृष्टि से लिख रहा है। वह कितना निष्पक्ष है। इसमें यह भी नोट करें कि इन सम्बन्धित साक्ष्यों में आपस में कितना अंतर है। सारी सूचनाओं के आधार पर अपने प्राध्यापक के निर्देशन में एक रिपोर्ट तैयार करें।
प्रश्न 11.
1857 पर बनी कोई फिल्म देखिए और लिखिए कि उसमें विद्रोह को किस तरह दर्शाया गया है। उसमें अंग्रेज़ों, विद्रोहियों और अंग्रेज़ों के भारतीय वफादारों को किस तरह दिखाया गया है? फिल्म किसानों, नगरवासियों, आदिवासियों, जमीदारों और ताल्लकदारों के बारे में क्या कहती है? फिल्म किस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म देना चाहती है?
उत्तर:
1857 के विद्रोह पर कई फिल्में बनी हैं। परन्तु उनमें सर्वाधिक चर्चित ‘मंगल पांडे’ है जिसमें आमिर खान ने छाप छोड़ने वाली भूमिका निभाई है। इस फिल्म को देखा जा सकता है। इसमें भारतीय सिपाहियों की दिनचर्या, असंतोष, धर्म के प्रति उनमें संवेदनशीलता, जातीय सम्बन्धों की झलक, भारत के विभिन्न समूहों (किसान, आदिवासी, जमींदार, ताल्लुकदार) आदि की स्थिति इत्यादि को फिल्माया गया है। फिल्म देखकर मन पर क्या प्रतिक्रिया होती है। इस पर विचार करें। उदाहरण के लिए फिल्म में जिस प्रकार ‘चर्बी वाले कारतूस’ बनाते दिखाया गया है, इस पर विचार करें कि क्या यह ‘ऐतिहासिक सत्य है या कल्पनात्मक अभिव्यक्ति। यदि यह कल्पनात्मक अभिव्यक्ति है तो दर्शक पर क्या प्रभाव डालती है। फिर हम जान पाएँगे कि छवियाँ कैसे निर्मित होती हैं।
औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य HBSE 12th Class History Notes
→ फिरंगी-फिरंगी फारसी भाषा का शब्द है जो सम्भवतः फ्रैंक (जिससे फ्रांस नाम पड़ा है) से निकला है। हिंदी और उर्दू में पश्चिमी लोगों का मजाक उड़ाने के लिए कभी-कभी इसका प्रयोग अपमानजनक दृष्टि से भी किया जाता था।
→ रेजीडेंट-ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि को रेजीडेंट कहा जाता था। उसे ऐसे राज्यों में नियुक्त किया जाता था जो अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में नहीं था, लेकिन आश्रित राज्य होता था।
→ सहरी-रोजे (रमजान महीने के व्रत) के दिनों में सूरज निकलने से पहले का भोजन।
→ गवर्नर-जनरल-भारत में ब्रिटिश सरकार का मुख्य प्रशासक’ गवर्नर-जनरल कहलाता था।
→ वायसराय-1858 के बाद गवर्नर-जनरल को भारतीय रियासतों के लिए वायसराय कहा जाने लगा। वायसराय का अर्थ था ‘प्रतिनिधि’ यानी इंग्लैण्ड के ‘ताज’ का प्रतिनिधि।
→ बादशाह-मुगल शासक बादशाह कहलाते थे। इसका मौलिक शब्द है ‘पादशाह’ जिसका अर्थ है-‘शाहों का शाह’ पादशाह चगती तुर्की का शब्द है। फारसी में यह बादशाह बन गया।
→ बैरक-सैनिकों का सैनिक छावनी में निवास स्थान।
→ छावनी सेना का स्टेशन जिसमें बड़ी संख्या में सैनिक टुकड़ियाँ रहती थीं।
→ इस अध्याय में हम 1857 के जन-विद्रोह का अध्ययन करेंगे। सबसे अधिक गहन विद्रोह अवध क्षेत्र में हुआ। इसलिए इस क्षेत्र में हुए विद्रोह की गहन छान-बीन करेंगे। साथ ही इसके सामान्य कारणों को भी पढ़ेंगे। विद्रोही क्या सोचते थे और कैसे वे अपनी योजनाएँ बनाते थे; उनके नेता कैसे थे इत्यादि पहलुओं पर भी चर्चा करेंगे। दमन और फिर अंततः इस विद्रोह की छवियाँ (चित्रों, रेखाचित्रों व कार्टून इत्यादि के माध्यम से) कैसे निर्मित हुई, इस पर भी विचार करेंगे।
→ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में विद्रोह शुरू हुआ। सिपाहियों ने ‘चर्बी वाले कारतूसों’ का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। 85 भारतीय सिपाहियों को 8 से लेकर 10 वर्ष तक की कठोर सज़ा दी गई। उसी दिन दोपहर तक अन्य सैनिकों ने भी बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। शीघ्र ही यह समाचार मेरठ शहर और आस-पास के देहात में भी फैल गया और कुछ लोग भी सिपाहियों से आ मिले।
→ 11 मई को सूर्योदय से पूर्व ही मेरठ के लगभग दो हजार जाँबाज़ सिपाही दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। उन्होंने कर्नल रिप्ले सहित कई अंग्रेज़ों की हत्या कर दी। फिर सिपाही लालकिले पहुँचे। उन्होंने बहादुर शाह जफ़र से नेतृत्व के लिए अनुरोध किया। वह कहने मात्र के लिए ही बादशाह था। वास्तव में वह एक बूढ़ा, शक्तिहीन, अंग्रेजों का पेंशनर था। उसने संकोच और अनिच्छा के साथ सिपाहियों के आग्रह को स्वीकार कर लिया। उसने स्वयं को विद्रोह का नेता घोषित कर दिया। इससे सिपाहियों के विद्रोह को राजनीतिक वैधता मिल गई।
→ सैनिकों के विद्रोह को देखकर जनसामान्य भी कुछ भयरहित हो गए। लोग अंग्रेज़ी शासन के प्रति नफरत से भरे हुए थे। वे लाठी, दरांती, तलवार, भाला तथा देशी बंदूकों जैसे अपने परंपरागत हथियारों के साथ विद्रोह में कूद पड़े। इनमें किसान, कारीगर, दुकानदार व नौकरी पेशा तथा धर्माचार्य इत्यादि सभी लोग शामिल थे। आम लोगों के आक्रोश की अभिव्यक्ति स्थानीय शासकों के खिलाफ भी हुई। बरेली, कानपुर व लखनऊ जैसे बड़े शहरों में अमीरों व साहूकारों पर भी हमले हुए। लोगों ने इन्हें उत्पीड़क और अंग्रेज़ों का पिठू माना। इसके अतिरिक्त विद्रोह-क्षेत्रों में किसानों ने भू-राजस्व देने से मना कर दिया था। सिपाहियों का यह विद्रोह एक व्यापक ‘जन-विद्रोह’ बन गया। एक अनुमान के अनुसार, इसके दौरान अवध में डेढ़ लाख और बिहार में एक लाख नागरिक शहीद हुए थे।
यह एक व्यापक विद्रोह था। जून के पहले सप्ताह तक बरेली, लखनऊ, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, आगरा, मेरठ, बनारस जैसे बड़े-बड़े नगर स्वतंत्र हो चुके थे। यह गाँवों और कस्बों में फैल चुका था। हरियाणा व मध्य भारत में भी यह जबरदस्त विद्रोह था।
→ विभिन्न छावनियों के बीच विद्रोही सिपाहियों में भी तालमेल के कुछ सुराग मिलते हैं। इनके बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान था। ‘चर्बी वाले कारतूसों’ की बात सभी छावनियों में पहुंच गई थी। ‘धर्म की रक्षा’ को लेकर चिंता और आक्रोश भी सभी जगह था। सिपाही बगावत के मनसूबे गढ़ रहे थे। इसका एक और उदाहरण यह है कि जब मई की शुरूआत में सातवीं अवध इरेग्युलर कैवेलरी (7th Awadh Irregular Cavalry) ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेंट्री को लिखा : “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेंट्री के हुक्म का इंतजार कर
→ सिपाहियों की बैठकों के भी कुछ सुराग मिलते हैं। हालांकि बैठकों में वो कैसी योजनाएँ बनाते थे, उसके प्रमाण नहीं हैं। फिर भी कुछ अंदाजे लगाए जाते हैं कि इन सिपाहियों का दुःख-दर्द एक-जैसा था। अधिकांश उच्च-जाति से थे और उनकी जीवन-शैली भी मिलती-जुलती थी। स्वाभाविक है कि वे अपने भविष्य के बारे में ही निर्णय लेते होंगे। इनके नेता मुख्यतः अपदस्थ शासक और ज़मींदार थे। विभिन्न स्थानों पर इसके स्थानीय नेता भी उभर आए थे। इनमें से कुछ तो किसान नेता थे।
→ यह विद्रोह कुछ अफवाहों और भविष्यवाणियों से भड़का था। लेकिन अफवाहें तभी फैलती हैं जब उनमें लोगों के मन में गहरे बैठे भय और संदेह की अनुगूंज सुनाई देती है। इन अफ़वाहों में लोग विश्वास इसलिए कर रहे थे क्योंकि इनके पीछे बहुत-से ठोस कारण थे। ये कारण सैनिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक थे। लोग अंग्रेज़ों की नई व्यवस्था को भारतीय दमनकारी, परायी और हृदयहीन मान रहे थे। उनकी परंपरागत दुनिया उजड़ रही थी जिससे वे परेशान हुए। अतः इन बहुत-से कारणों के समायोजन से लोग विद्रोही बने।
→ अवध प्रांत में आठ डिविजन थे, उन सभी में विद्रोह हुआ। यहाँ किसान व दस्तकार से लेकर ताल्लुकदार और नवाबी परिवार के सदस्यों सहित सभी वर्गों के लोगों ने वीरतापूर्वक संघर्ष किया। हरेक गाँव से लोग विद्रोह में शामिल हुए। ताल्लुकदारों ने उन सभी गाँवों पर पुनः अपना अधिकार कर लिया जो अवध विलय से पहले उनके पास थे। किसान अपने परंपरागत मालिकों (ताल्लुकदारों) के साथ मिलकर लड़ाई में शामिल हुए। अवध की राजधानी लखनऊ विद्रोह का केंद्र-बिंदु बनी। फिरंगी राज के चिहनों को मिटा दिया गया। टेलीग्राफ लाइनों को तहस-नहस कर दिया गया। यहाँ घटनाओं का क्रम कुछ इस तरह चला। 4 जून, 1857 को विद्रोह प्रारंभ हुआ। विद्रोहियों ने ब्रिटिश रैजीडेंसी को घेर लिया।
1 जुलाई को अवध का चीफ कमीश्नर हैनरी लारेंस (Henery Lawrence) लड़ता हुआ मारा गया। 1858 के शुरू में विद्रोहियों की संख्या लखनऊ शहर में लगभग 2 लाख की थी। यहाँ संघर्ष सबसे लंबा चला। अन्य स्थानों की अपेक्षा विदेशी शासन के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध (Popular Resistance) अवध में अधिक था। अवध के विलय से एक भावनात्मक उथल-पुथल शुरू हो गई। एक अन्य अखबार ने लिखा : “देह (शरीर) से जान जा चुकी थी। शहर की काया बेजान थी….। कोई सड़क, कोई बाज़ार और कोई घर ऐसा न था जहाँ से जान-ए आलम से बिछुड़ने पर विलाप का शोर न गूंज रहा हो।” लोगों के दुःख और असंतोष की अभिव्यक्ति लोकगीतों में भी हुई।
→ संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवध में भारी विद्रोह देहात व शहरी लोगों, सिपाहियों तथा ताल्लुकदारों का एक सामूहिक कृत्य (Collective Act) था। बहुत-से सैनिक कारणों से तो सैनिक ग्रस्त थे ही वे अपने परिवार व गाँव के दुःख-दर्द से भी आहत थे।
→ विद्रोहियों की घोषणाओं में ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक समूहों को एकजुट होने का आह्वान किया गया। ब्रिटिश राज को एक विदेशी शासन के रूप में सर्वाधिक उत्पीड़क व शोषणकारी माना गया। इसलिए इससे संबंधित प्रत्येक चीज़ को पूर्ण तौर पर खारिज किया जा रहा था। अंग्रेजी सत्ता को उत्पीड़क एवं निरंकुश के साथ
→ साथ ही, धर्म, सम्मान व रोजगार के लिए लड़ने का आह्वान किया गया। इस लड़ाई को एक ‘व्यापक सार्वजनिक भलाई’ घोषित किया। विद्रोह के दौरान विद्रोहियों ने सूदखोरों के बही-खाते भी जला दिये थे और उनके घरों में तोड़-फोड़ व आगजनी की थी। शहरी संभ्रांत लोगों को जान बूझकर अपमानित भी किया। वे उन्हें अंग्रेज़ों के वफादार और उत्पीड़क मानते थे।
→ विद्रोही भारत के सभी सामाजिक समुदायों में एकता चाहते थे। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया। अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का उल्लेख भी किया गया। लाभ की दृष्टि से इस युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक समान बताया।
→ ध्यान रहे विद्रोह के चलते ब्रिटिश अधिकारियों ने हिंदू और मुसलमानों में धर्म के आधार पर फूट डलवाने का भरसक प्रयास किए थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उदाहरण के लिए बरेली में विद्रोह के नेता खानबहादुर के विरुद्ध हिंदू प्रजा को भड़काने के लिए अंग्रेज़ अधिकारी जेम्स औट्रम (James Outram) द्वारा दिया गया धन का लालच भी कोई काम नहीं आया था। अंततः हारकर उसे 50,000 रुपये वापस ख़जाने में जमा करवाने पड़े जो इस उद्देश्य के लिए निकाले गए थे।
→ विद्रोह का दमन करने के लिए मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए। एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी। साथ ही सबसे पहले दिल्ली पर पुनः अधिकार की रणनीति अपनाई गई। केनिंग जानता जन-विद्रोह और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान) था कि दिल्ली के पतन से विद्रोहियों की कमर टूट जाएगी। हिंदू-मुसलमानों में सांप्रदायिक तनाव भड़काकर विद्रोह को कमजोर करने का प्रयास भी किया गया। लेकिन इसमें उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।
→ इस अध्याय के अंतिम भाग में उन छवियों को समझने का प्रयास किया गया है जो अंग्रेज़ों व भारतीयों में निर्मित हुईं। इन छवियों में शामिल हैं-विद्रोह से संबंधित अनेक चित्र, पेंसिल निर्मित रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र (Etchings), पोस्टर, के उपलब्ध बाजार-प्रिंट इत्यादि। साथ में हम जान पाएंगे कि इतिहासकार ऐसे स्रोतों का कैसे उपयोग करते हैं।
समय-रेखा
1. | 1801 ई० | वेलेजली द्वारा अवध में सहायक संधि लागू की गई |
2. | 13 फरवरी, 1856 | अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय |
3. | 10 मई, 1857 | मेरठ में सैनिकों द्वारा विद्रोह |
4. | 11 मई, 1857 | विद्रोही सेना का मेरठ से दिल्ली पहुँचना |
5. | 12 मई , 1857 | बहादुर शाह ज़फर द्वारा विद्रोहियों का नेतृत्व स्वीकार करना |
6. | 30 मई, 1857 | लखनऊ में विद्रोह |
7. | 4 जून, 1857 | अवध में सेना में विद्रोह |
8. | 10 जून, 1857 | सतारा में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्रिदोह |
9. | 30 जून, 1857 | चिनहाट के युद्ध में अंग्रेज़ों की हार |
10. | जुलाई, 1858 | युद्ध में शाह मल की मृत्यु |
11. | 20 सितंबर, 1857 | ब्रिटिश सेना का विजयी होकर दिल्ली में प्रवेश |
12. | 25 सितंबर, 1857 | ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियाँ हैवलॉक व ऑट्रम के नेतृत्व में लखनऊ पहुँचीं रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई |
13. | 17 जून, 1858 | वेलेजली द्वारा अवध में सहायक संधि लागू की गई |