Class 12

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन

HBSE 12th Class Sociology ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
दिए गए गद्यांश को पढ़े तथा प्रश्नों का उत्तर दें।
अयनबीद्या में मजदूरों की कठिन कार्य दशा, मालिकों की एक वर्ग के रूप में आर्थिक शक्ति तथा प्रबल जाति के रूप में अपरिमित शक्ति के संयुक्त प्रभाव का परिणाम थी। मालिकों की सामाजिक शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष, राज्य के विभिन्न अंगों का अपने हितों के पक्ष में हस्तक्षेप करवा सकने की क्षमता थी। इस प्रकार प्रबल तथा निम्न वर्ग के मध्य खाई को चौड़ा करने में राजनीतिक कारकों का निर्णयात्मक योगदान रहा है।
(i) मालिक राज्य की शक्ति को अपने हितों के लिए कैसे प्रयोग कर सके, इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
(ii) मज़दूरों की कार्य दशा कठिन क्यों थी?
उत्तर:
(i) मालिक राज्य की शक्ति को अपने हितों के लिए प्रयोग कर सकते थे क्योंकि उनकी सामाजिक शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह था कि वह राज्य के अलग-अलग अंगों को अपने हितों के पक्ष में हस्तक्षेप करवा सकने की क्षमता रखते थे।

(ii) मज़दूरों की कार्य दशा कठिन थी क्योंकि मालिकों के पास आर्थिक शक्ति थी तथा वह प्रबल जाति से संबंध रखते थे। इसलिए मालिक मजदूरों का शोषण करते थे तथा मजदूरों के पास इसको सहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।

प्रश्न 2.
भूमिहीन कृषि मजदूरों तथा प्रवसन करने वाले मजदूरों के हितों की रक्षा करने के लिए आपके अनुसार सरकार ने क्या उपाय किए हैं, अथवा क्या किए जाने चाहिए?
उत्तर:
स्वतंत्रता से पहले भूमिहीन कृषि मज़दूरों तथा प्रवसन करने वाले मजदूरों की दशा काफ़ी दयनीय थी। स्वतंत्रता के बाद सरकार ने इनकी स्थिति सुधारने तथा इनके हितों की रक्षा करने के लिए प्रयास करने शुरू किए। इसलिए सरकार ने कई प्रकार के भूमि सुधार कार्यक्रम शुरू किए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  • जिन ज़मीनों पर भूमिहीन किसान कृषि करते थे, उन्हें उस भूमि का स्वामित्व प्रदान किया गया तथा उन्हें ज़मीन का मालिक बना दिया गया।
  • ज़मींदारी प्रथा समाप्त कर दी गई तथा ज़मींदारों की अतिरिक्त भूमि जब्त करके उसे भूमिहीन किसानों तथा मज़दूरों में बांट दिया गया।
  • बिचौलियों तथा मध्यस्थों को समाप्त कर दिया गया।
  • भूमि की चकबंदी कर दी गई तथा हरेक किसान के लिए जोतने वाली भूमि की सीमा निर्धारित कर दी गई।
  • भूमि से संबंधित रिकार्डों को दुरुस्त किया गया तथा उन्हें ठीक ढंग से बनाकर रखा गया। इस प्रकार सरकार ने भूमिहीन कृषि मज़दूरों तथा प्रवास करने वाले मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए कई उपाय किए।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन

प्रश्न 3.
कृषि मजदूरों की स्थिति तथा उनकी सामाजिक-आर्थिक उध्वर्गामी गतिशीलता के अभाव के बीच सीधा संबंध है। इनमें से कुछ के नाम बताइए।
उत्तर:
निर्धनता, बेरोजगारी, ऋणग्रस्तता, प्रवास करना, भूमि का न होना, सरकारी नीतियों की जानकारी का अभाव, नई तकनीक का पता न होना इत्यादि ऐसे कारक हैं जो कषि मज़दरों की स्थिति तथा उनकी सामाजिक आर्थिक उर्ध्वगामी गतिशीलता के बीच रुकावटें हैं।

प्रश्न 4.
वे कौन-से कारक हैं जिन्होंने कुछ समूहों के नव धनाढ्य, उद्यमी तथा प्रबल वर्ग के रूप में परिवर्तन को संभव किया है? क्या आप अपने राज्य में इस परिवर्तन के उदाहरण के बारे में सोच सकते हैं?
उत्तर:
1960 के दशक में हरित क्रांति आयी जिसके बहुत से दूरगामी परिणाम सामने आए। हरित क्रांति से न केवल खाद्यान उत्पादन बढ़ा बल्कि इससे बहुत से परिवर्तन भी आए। हरित क्रांति के कारण भारत में ग्रामीण समाज में आर्थिक असमानता बढ़ गई। हरित क्रांति के कारण नई मशीनें, नई तकनीक, नए बीज, उवर्रक, सिंचाई के साधन, कीटनाशक दवाएं सामने आयी परंतु यह छोटे किसानों की पहुंच से बाहर थी।

अमीर किसानों ने तो इन सभी चीज़ों को अपना लिया परंतु छोटे और सीमांत किसान इन्हें न अपना सकें क्योंकि इनको अपनाने की उनमें क्षमता नहीं थी। इसलिए हरित क्रांति के कारण अमीर तथा छोटे किसानों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ गई। अमीर किसानों ने उन्नत तकनीक अपना कर अधिक लाभ कमाने का ढंग पता कर लिया जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता तथा अंसतोष बढ़ गया। इस कारण ही ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष शुरू हो गए।

इस असंतोष के कारण कृषि की नई व्यवस्था सामने आ रही है। हरित क्रांति के लाभ निर्धन किसानों, भूमिहीन कृषि मजदूरों इत्यादि को प्राप्त न हुए। इस प्रकार जब तक सभी को उस क्रांति का लाभ नहीं मिलेगा तब तक समाज के सभी वर्गों की आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति नहीं हो पाएगी। यह ठीक है कि हरित क्रांति के कारण देश में खाद्यान्न उत्पादन काफ़ी बढ़ गया परंतु यह उत्पादन देश के सभी क्षेत्रों में एक समान न बढ़ा।

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि जैसे प्रदेशों में तो खाद्यान्न उत्पादन काफ़ी बढ़ गया परंतु देश के और भागों में हरित क्रांति का प्रभाव कम ही पड़ा। इस कारण ही राज्यों की आर्थिक असमानता भी बढ़ गई। हरित क्रांति के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजीपूति किसानों का एक वर्ग सामने आया जो कृषि क्षेत्र में पैसा निवेश करके अधिक पैसा कमाने लगा। हरित क्रांति से लाभांवित हुए प्रदेशों में स्त्री पुरुष अनुपात में

प्रश्न 5.
हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में अक्सर ग्रामीण परिवेश में होती हैं। ग्रामीण भारत पर आधारित किसी फिल्म के बारे में सोचिए तथा उसमें दर्शाएं गए कृषक समाज और संस्कृति का वर्णन कीजिए। उसमें दिखाए गए दृश्य कितने वास्तविक है? क्या आपने हाल में ग्रामीण क्षेत्र पर आधारित कोई फिल्म देखी है? यदि नहीं तो आप इसकी व्याख्या किस प्रकार करेंगे?
उत्तर:
भारतीय सिनेमा की बहुत-सी फिल्मों में ग्रामीण भारत अर्थात् गांवों के दृश्य देखने को मिल जाते हैं। इन फिल्मों में ग्रामीण समाज की संस्कृति को ठीक ढंग से दिखाने का प्रयास किया जाता है। चाहे फिल्म निर्माता किसी गांव में शूटिंग न करके मुंबई के किसी स्टूडियो में ही गांव का सैट लगाकर उसे वास्तविक बनाने का प्रयास करते हैं। परंतु हम यह कह सकते हैं कि जो गाँव फिल्मों में दिखाया जाता है वह वास्तविक गाँव से तो भिन्न होता ही है।

पूरे भारत में गाँव अलग-अलग प्रकृति के हैं। कोई छोटे गाँव, कोई मध्यम प्रकार के तथा कई गाँव तो इतने बड़े हैं कि किसी छोटे-मोटे कस्बे का रूप ही ले लें। इन गांवों में सुविधाएं भी अलग प्रकार की ही मिलती हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश जैसे प्रदेशों में कृषि करने के ढंग अभी भी प्राचीन ही हैं। परंतु उत्तर भारत के प्रदेशों, पंजाब, हरियाणा इत्यादि में कृषि करने के आधुनिक सामान मिल जाते हैं।

इन गाँवों में साफ़-सफ़ाई का भी अधिक ध्यान रखा जाता है। इसके अतिरिक्त किसानों के जीवन जीने के ढंगों का भी अंतर होता है। हमने हाल ही में ग्रामीण परिवेश से संबंधित कई फिल्में देखी हैं जैसे कि अमिताभ बच्चन तथा धर्मेंद्र की शोले, आमिर खान की लगान इत्यादि। इन फिल्मों में ग्रामीण परिवेश को दिखाया गया है। इन फिल्मों में जो मुद्दे दिखाए गए हैं वह वास्तविक ग्रामीण समाज से बिल्कुल ही अलग हैं। इसलिए अगर फिल्मों में ग्रामीण परिवेश को दिखाना है तो उसका वास्तविक चित्रण ही दिखाना चाहिए न कि कृत्रिम चित्रण।

प्रश्न 6.
अपने पड़ोस में किसी निर्माण स्थल, ईंट के भट्टे या किसी अन्य स्थान पर जाएं जहाँ आपको प्रवासी मज़दूरों के मिलने की सम्भावना हो, पता लगाइए कि वे मज़दूर कहां से आए हैं? उनके गाँव से उनकी भर्ती किस प्रकार की गई, उनका मुकादम कौन है? अगर वे ग्रामीण क्षेत्र से हैं तो गाँवों में उनके जीवन के बारे में पता लगाइए तथा उन्हें काम ढूँढने के लिए प्रवासन करके बाहर क्यों जाना पड़ा?
उत्तर:
अगर हम अपने पड़ोस में किसी निर्माण स्थल, ईंट के भट्टे या किसी अन्य स्थान पर जाएं तो हमें हरेक स्थान पर प्रवासी मज़दूर मिल जाएंगे। इनसे बातचीत करके पता चलता है कि यह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे प्रदेशों से आए हैं जहां पर जीवन जीने के साधन इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। वहां पर मज़दूरी काफ़ी कम है इसलिए वह अपने प्रदेशों को छोड़कर हमारे प्रदेश में आए हैं ताकि अधिक धन कमा कर अपने परिवार का पालन-पोषण किया जा सके।

यह लोग स्वयं ही अपने मित्रों रिश्तेदारों के साथ हमारे प्रदेश में आए हैं। मुख्यतः यह लोग ग्रामीण क्षेत्रों से ही हैं तथा उनके गाँवों में जीवनयापन के लिए पैसा कमाना काफ़ी कठिन है। इसका सबसे पहला कारण यह है कि उनके पास कृषि करने योग्य भूमि या तो है ही नहीं, अगर है तो वह भी काफ़ी कम है। उससे गुजारा चलाना काफ़ी कठिन है। दूसरा इनके क्षेत्रों में मजदूरी करने के लिए बहुत अधिक लोग हैं जिस कारण मजदूरी काफ़ी कम है।

इन लोगों का खाना-पीना काफ़ी साधारण होता है। यह लोग तो नमक तथा प्याज़ के साथ रोटी खाकर भी गुजारा कर लेते हैं। कृषि करने के प्राचीन साधन हैं जिस कारण उत्पादन काफ़ी कम है। उन्हें काम ढूँढने के लिए प्रवासन करके बाहर जाना पड़ता है क्योंकि उनके यहाँ पर प्रति व्यक्ति आय इतनी कम है कि व्यक्ति का घर का गुजारा चलाना काफ़ी मुश्किल होता है।

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प्रश्न 7.
अपने स्थानीय फल विक्रेता के पास जाएँ और उससे पूछे कि वे फल जो वह बेचता है, कहाँ से आते हैं, और उनका मूल्य क्या है? पता लगाइए कि भारत के बाहर में फलों के आयात (जैसे कि ऑस्ट्रेलिया से सेब) के बाद स्थानीय उत्पाद के मूल्यों का क्या हुआ? क्या कोई ऐसा आयतित फल है जो भारतीय फलों से सस्ता है?
उत्तर:
अगर हम अपनी फलों की मार्कीट में जाएं तो हमें फलों की दुकानों पर कई प्रकार के फल मिल जाते हैं। इनमें से बहुत से ऐसे फल होते हैं जो मौसमी होते हैं अर्थात् उस विशेष मौसम में ही पाए जाते हैं। परंतु आजकल तो बहुत-से बेमौसमी फल भी मिल जाते हैं। अगर फल विक्रेता से पूछे तो उसका जवाब होता है कि यह फल बाहर का है अर्थात् यह आयातित फल है। उदाहरण के लिए सर्दियों में वैसे तो आम उपलब्ध नहीं होता परंतु फिर भी आम मौजूद होता है जोकि आयातित होता है।

इसी प्रकार बाज़ार में सेब, अंगूर, नाशपाती, कीवी फल, तरबूज़ इत्यादि ऐसे फल हैं जो आयात किए जाते हैं तथा हरेक मौसम में उपलब्ध होते हैं। वैसे तो इनका मूल्य स्थानीय फलों की तुलना में काफ़ी अधिक होता है परंतु जब मौसमी फल सस्ते हो जाते हैं तो इनके दामों में भी कमी आ जाती है। हमारे ख्याल में शायद कोई ऐसा आयातित फल नहीं है जो कि भारतीय फलों से सस्ता हो।

प्रश्न 8.
ग्रामीण भारत में पर्यावरण स्थिति के विषय में जानकारी एकत्र पर एक रिपोर्ट लिखें। उदाहरण के लिए विषय, कीटनाशक, घटता जल स्तर, तटीय क्षेत्रों में झींगें की खेती का प्रभाव, भूमि का लवणीकरण तथा नहरी सिंचित क्षेत्रों में पानी का जमाव, जैविक विविधता का ह्रास।
उत्तर:
ग्रामीण भारत में पर्यावरण की स्थिति काफ़ी चिंताजनक बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र संपूर्ण देश के लिए खाद्यान्न का उत्पादन करते हैं। इसके लिए वह नए बीजों, उन्नत उर्वरकों, कीटनाशकों इत्यादि का प्रयोग करते हैं ताकि अधिक-से-अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सके। परंतु इसका पर्यावरण पर काफ़ी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। कैमिकल उर्वरक, कीटनाशक इत्यादि खाद्यान्न को दूषित कर देते हैं। यूरिया के प्रयोग के बिना फ़सल नहीं होती परंतु यूरिया का व्यक्ति के शरीर पर ग़लत प्रभाव पड़ता है।

कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है जिससे न केवल भूमि की उत्पादन क्षमता कम होती है बल्कि इनका शरीर पर भी ग़लत प्रभाव पड़ता है। किसान अधिक पानी प्राप्त करने के लिए भूमिगत जल स्रोत का प्रयोग करते हैं जिससे भूमिगत जल स्तर दिन-प्रतिदिन नीचे जा रहा है। यह सब कुछ खरीदने के लिए किसानों को कर्जा उठाना पड़ता है।

एक किसान अगर एक बार कर्जे के चक्कर में पड़ गया तो उस चक्कर से वह तमाम आयु निकल नहीं सकता। आजकल तो कर्जे से डर कर किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। रोज़ अखबार में किसानों द्वारा आत्महत्या करने की ख़बरें पढ़ने को मिल जाती हैं कि जोकि एक चिंता का विषय है।

ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हमारा देश भारत मुख्यतः एक कृषि प्रधान देश है जहां पर 68% के जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है तथा 70% के लगभग जनसंख्या कृषि या उससे संबंधित कार्यों में लगी हुई है। इसलिए ही बहुत से भारतीयों के लिए भूमि उत्पादन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन तथा संपत्ति का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है।

→ हमारे देश में कृषि तथा संस्कृति का काफ़ी गहरा संबंध है। अलग-अलग क्षेत्रों में कृषि की संस्कृति तथा ढंग अलग-अलग पाए जाते हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों की संस्कृतियों को दर्शाते हैं। ग्रामीण भारत की सांस्कृतिक तथा सामाजिक संरचना दोनों ही कृषि से जुड़े हुए हैं।

→ हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल कृषि ही नहीं बल्कि उससे संबंधित कार्य भी साथ जुड़े हुए हैं जैसे कि कुम्हार, कृषक, जुलाहे, लोहार, सुनार इत्यादि। यह भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा है।

→ ग्रामीण भारत की कृषक संरचना कुछ अलग सी है। बहुत से लोगों के पास या तो कृषि योग्य भूमि है ही नहीं या फिर बहुत ही कम है। मध्य वर्ग के किसानों के पास थोड़ी बहुत भूमि तो होती है परंतु उससे उनका केवल गुज़ारा ही चलता है। अमीर या उच्च वर्गीय किसान अपनी अनंत ज़मीनों को किराए पर देकर स्वयं ऐश करते हैं। गांवों में प्रबल जाति काफ़ी महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली होती है।

→ औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने भूमि से अधिक-से-अधिक कर उगाहने के लिए कई प्रकार के प्रबंध चलाए जैसे कि ज़मींदारी प्रथा, रैय्यतवाड़ी प्रथा, महलवारी प्रथा। इन प्रबंधों के कारण किसानों का ज़मींदारों तथा विदेशी सरकार द्वारा इतना अधिक शोषण हुआ कि आज तक किसान उस कर्जे से उबर नहीं सके हैं।

→ भारत की स्वतंत्रता के बाद देश के नेताओं ने कृषि की उन्नति के लिए बहुत से महत्त्वपूर्ण सुधार किए। सभी भूमि प्रबंधों को खत्म कर दिया गया। पट्टेदारी का उन्मूलन कर दिया गया, मध्यस्थ खत्म कर दिए गए तथा भूमि की हदबंदी की गई। चाहे इन कानूनों में कुछ कमियां थी तथा बहुत से लोगों ने इन कमियों का फायदा भी उठाया परंतु फिर भी इन सुधारों से किसानों के जीवन में काफ़ी खुशहाली आई।

→ 1960-70 के दशक में देश को खाद्यानों के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाने के लिए हरित क्रांति का कार्यक्रम चलाया गया जिसमें कृषि को आधुनिक मशीनों, नए बीजों, उर्वरकों इत्यादि की सहायता से करवाना शुरू किया गया। इससे कृषि उत्पादकता बढ़ गई तथा बहुत से किसान खुशहाल हो गए। चाहे हरित क्रांति जहाँ-जहाँ आई वहां पर काफ़ी खुशहाली आई परंतु जहाँ पर हरित क्रांति न आ पाई वहां पर स्थिति जस की तस ही रही। कृषि के ढंग वहां पर अविकसित रहे तथा गाँव की संरचना वैसी ही बनी रही। छोटे किसानों का अमीर किसानों द्वारा शोषण जारी रहा।

→ देश में स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण समाज में बहुत से परिवर्तन आए। कृषि मजदूर बढ़ गए, अनाज का नगद भुगतान होने लगा, प्राचीन जजमानी संबंध बदलने लग गए, मुक्त दिहाड़ीदार मज़दूर सामने आए। किसान सीधे विश्व बाज़ार से जुड़ गए तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार द्वारा बहुत-सी सुविधाएं दी गईं। इस समय में ही मज़दूरों का संचार भी शुरू हुआ। पिछड़े हुए प्रदेशों के लोग कार्य की तलाश में उन क्षेत्रों की ओर जाने लगे जहाँ पर कृषि क्षेत्र में कार्य उपलब्ध था। लाखों की तादाद में मज़दूर एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ गए जिससे जनसंख्या संरचना में काफी दिक्कतें आईं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन

→ इस समय में ही भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण की प्रक्रियाएं शुरू हुईं जिनका प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों पर भी पड़ा। कृषि का भूमंडलीकरण शुरू हुआ जिससे संविदा खेती पद्धति सामने आई।

→ कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से एक तरफ तो बहुत से किसान खुशहाल हो गए परंतु दूसरी तरफ सूखे, अकाल तथा ऋण वापिस न कर पाने के कारण किसानों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में अनुभव किए जाने वाले महत्त्वपूर्ण संकट की तरफ संकेत करता है।

→ प्रबल जाति : ग्रामीण क्षेत्रों का समूह जो काफी शक्तिशाली होता है तथा आर्थिक और राजनीतिक रूप से वह स्थानीय लोगों पर प्रभुत्व बना कर रखता है।

→ बेगार : मुफ्त मज़दूरी करने की प्रथा से बेगार कहा जाता है।

→ रैय्यतवाड़ी व्यवस्था : कृषि के भूमि प्रबंध की वह व्यवस्था जिसमें कृषक स्वयं ही सरकार को टैक्स चुकाने के लिए ज़िम्मेदार होता था।

→ जीविका : व्यक्ति के जीवन जीने के लिए जरूरी कार्य या रोज़गार जिससे कि धन की प्राप्ति हो सके।

→ विभेदीकरण : हरित क्रांति की अंतिम परिणीत जिसमें अमीर और अमीर हो गए तथा कई निर्धन पूर्ववत रहे या अधिक निर्धन हो गए।

→ संविदा खेती : कृषि करने का वह ढंग जिसमें कंपनियाँ उगाई जाने वाली फसलों की पहचान करती हैं, बीज तथा अन्य वस्तुएँ निवेश के रूप में उपलब्ध करवाती हैं तथा साथ ही जानकारी और अक्सर कार्यकारी पूँजी भी देती हैं।

→ कृषि का भूमंडलीकरण : कृषि को विस्तृत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में शामिल किए जाने की प्रक्रिया।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ

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Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ

HBSE 12th Class Sociology भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
हित समूह प्रकार्यशील लोकतंत्र के अभिन्न अंग हैं। चर्चा कीजिए।
उत्तर:
दबाव समूह या हित समूह संगठित अथवा असंगठित समूह होते हैं जो सरकार की नीतियां प्रभावित करते या हित समूह है तथा अपने हितों को बढ़ावा देते हैं। यह विभिन्न स्तरों पर अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करते हैं। यह प्रकार्यशील लोकतंत्र का निम्नलिखित ढंग से अभिन्न अंग होते हैं-
(i) यह हित समह किसी विशेष मददे पर आंदोलन चलाते हैं ताकि जनता का समर्थन हासिल किया जा सके। दोनों ही संचार माध्यमों की सहायता लेते हैं ताकि जनता का ध्यान अधिक से अधिक अपनी ओर खींचा जा सके।

(ii) यह साधारणतया हड़तालें करवाते हैं, रोषमार्च निकालते हैं तथा सरकारी कार्यों में बाधा पहुँचाने का प्रयास करते हैं। यह हड़ताल की घोषणा करते हैं तथा धरने पर बैठते हैं ताकि अपनी आवाज़ उठा सकें। अधिकतर फैडरेशन तथा यूनियनें सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के लिए इन्हीं ढंगों का प्रयोग करते हैं।

(iii) साधारण तथा व्यापारी समूह लॉबी का निर्माण करते हैं जिसके कुछ आम हित होते हैं ताकि सरकार पर उसकी नीतियाँ बदलने के लिए दबाव बनाया जा सके।

(iv) यह समूह समाचार पत्रों को निकालते हैं तथा उन्हें अपने नियंत्रण में रखते हैं ताकि जनता में अपने हितों का प्रचार करके उन्हें अपने पक्ष में किया जा सके।

प्रश्न 2.
संविधान सभा की बहस के अंशों का अध्ययन कीजिए। हित समूहों को पहचानिए। समकालीन भारत में किस प्रकार के हित समूह हैं? वे कैसे कार्य करते हैं?
उत्तर:
संविधान सभा की बहस के अंश पाठ्य पुस्तक में दिए गए हैं। इसका अध्ययन करने के बाद हमें यह पता चलता है कि हमारे देश में कई प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, व्यपारिक हित समूह पाए जाते हैं। यह सभी हित समूह अपने सदस्यों के हितों की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं। यह अपने हितों की पूर्ति के लिए सरकार पर कई प्रकार से दबाव डालते हैं तथा अपनी मांगें मनवाते हैं। ट्रेड यूनियन, किसान संघ इसकी उदाहरणे हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ

प्रश्न 3.
विद्यालय में चुनाव लड़ने के समय अपने आदेशपत्र के साथ एक फड़ बनाइए। (यह पाँच लोगों के एक छोटे समूह में भी किया जा सकता है, जैसा पंचायत में होता है।)
उत्तर:
इस प्रश्न को विद्यार्थी स्वयं अपने अध्यापक की सहायता से करें।

प्रश्न 4.
क्या आपने बाल मजदूर और मज़दूर किसान संगठन के बारे में सुना है? यदि नहीं तो पता कीजिए और उनके बारे में 200 शब्दों में एक लेख कीजिए।
उत्तर:
(i) बाल मज़दूर-अगर किसी की आयु 14 वर्ष से कम है तथा वह मजदूरी करता है तो इसे बाल मजदूरी कहते हैं। हमारे देश में यह एक बहुत बड़ी समस्या है। चाहे हमारे देश में बाल मजदूरी कानूनन जुर्म है तथा इसके लिए सज़ा का भी प्रावधान है परंतु फिर भी यह समस्या कम होने की बजाए बढ़ रही है। इसका कारण है अत्यधिक निर्धनता तथा अधिक जनसंख्या।

निर्धन लोगों के पास बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं होता जिस कारण वह अपने बच्चों को छोटी आयु में ही कार्य करने को लगा देते हैं जिससे बाल अपराध बढ़ता है। इस समस्या को दूर करने के लिए निःशुल्क शिक्षा तथा मुफ्त किताबों का प्रबन्ध किया है, दोपहर के खाने का भी प्रबन्ध किया है ताकि बच्चे बाल मज़दूरी को छोड़ कर शिक्षा को अपनाएं तथा जीवन में प्रगति करें।

(ii) किसान संगठन-हमारा देश कषि प्रधान देश है जहाँ पर 70% के लगभग जनसंख्या कषि या उससे संबंधित कार्यों से जुड़ी हुई है। इस प्रकार के कृषि प्रधान देश में किसान संगठनों का होना लाज़मी है जो किसानों के हितों के लिए कार्य करते हैं। कृषि बहुल प्रदेशों जैसे कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश इत्यादि में तो इनकी स्थिति काफ़ी महत्त्वपूर्ण है।

यह प्रदेशों की राजनीति को काफ़ी हद तक प्रभावित करते हैं। यह संगठन किसानों की समस्याओं को सरकार के सामने लाते हैं, सरकार पर दबाव बनाते हैं ताकि किसानों की समस्याओं को दूर किया जा सके। यह किसान संगठन एक प्रकार से दबाव समूह अथवा हित समूहों की तरह ही कार्य करते हैं।

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प्रश्न 5.
ग्रामीणों की आवाज़ को सामने लाने में 73वाँ संविधान संशोधन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। चर्चा कीजिए।
उत्तर:
1992 में 73वां संवैधानिक संशोधन हुआ जिससे प्रारंभिक स्तर पद लोकतंत्र तथा विकेंद्रीकृत शासन का पता चलता है। इस संशोधन से पंयाचती राज संस्थाओं को संवैधानिक स्थिति प्राप्त हुई। अब स्थायी स्वशासन के सदस्यों का गाँवों तथा नगरों में हरेक 5 वर्षों बाद चुना जाना जरूरी हो गया। इसके साथ ही स्थानीय संसाधनों पर चुने हुए निकायों का नियंत्रण स्थापित हो गया। इसकी विशेषताएं हैं-
(i) ग्राम स्तर पर सबसे पहले ग्राम सभा स्थापित की गई जिसके सदस्य गाँव के सभी बालिग होते हैं। यही सभा स्थानीय सरकार का चुनाव करके उसे निश्चित उत्तरदायित्व सौंपती है। ग्राम सभा में गांव के विकास कार्यों की चर्चा होती है तथा यह गाँव के सदस्यों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनती है।

(ii) इस संशोधन से 20 लाख से अधिक जनसंख्या वाले हरेक राज्य में तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई।

(iii) अब हरेक पाँच वर्षों बाद इसके सदस्यों का चुनाव करना ज़रूरी हो गया।

(iv) इस संशोधन से इन संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33% स्थान तथा अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुसार स्थान आरक्षित रखे गए।

(v) इसने पूरे जिले के विकास को प्रारूप निर्मित करने के लिए जिला योजना समिति गठित की।

73वें तथा 74वें संवैधानिक संशोधन से ग्रामीण तथा नगरीय स्वःशासन की संस्थाओं में 33% स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रखे गए जिनमें से 17% सीटें अनूसूचित जातियों तथा जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इससे महिलाओं को स्थानीय स्तर पर पहली बार निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया गया। यह प्रावधान 1992-93 से सम्पूर्ण देश में लागू है।

प्रश्न 6.
एक निबंध लिखकर उदाहरण देते हुए उन तरीकों को बताइए जिनसे भारतीय संविधान ने साधारण जनता में दैनिक महत्त्वपूर्ण समस्याओं का अनुभव किया है?
अथवा
संविधान द्वारा भारतीय समाज में क्या-क्या परिवर्तन लाए गए?
अथवा
संविधान से भारतीय समाज में क्या-क्या परिवर्तन आए हैं? सविस्तार प्रतिपादित करें।
अथवा
भारतीय संविधान लोगों के दैनिक जीवन से जुड़ा है। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
(i) भारतीय संविधान ने अपने सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया है कि कानून के सामने सभी समान हैं। किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी आधार अर्थात् जन्म, जाति, प्रजाति, लिंग, रंग इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इससे निम्न जातियों की स्थिति उच्च जातियों के समान हो गई है।

(ii) भारतीय संविधान ने अपने नागरिकों को अच्छा जीवन जीने के लिए कुछ मौलिक अधिकार दिए हैं। ये सभी को बिना किसी भेदभाव के दिए गए हैं। इस प्रकार निम्न जातियों के लोग पहले की अपेक्षा अच्छा जीवन जी सकते हैं, जो कि भारतीय संविधान द्वारा दिया गया है।

(iii) हमारे संविधान ने देश को एक लोकतांत्रिक देश बनाया है। इसका अर्थ यह है कि यहां पर किसी प्रकार की तानाशाही का कोई स्थान नहीं है तथा जनता अपना शासक स्वयं चुनती है तथा सर्वोच्च अधिकार रखती है। इस प्रकार सत्ता जनता के हाथों में होती है तथा इससे जनता का रोज़ाना जीवन काफी हद तक प्रभावित हुआ है।

(iv) भारत एक ऐसा देश है जहां पर कई धर्मों के लोग रहते हैं। इन सभी धर्मों में धार्मिक हिंसा को टालना अति आवश्यक था। इसलिए ही हमारे संविधान ने देश को एक धर्म निष्पक्ष राज्य बनाया है अर्थात् राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सभी धर्मों को समान स्थिति प्रदान की गई है। इसने भी जनता के रोज़ाना जीवन को प्रभावित किया है।

भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ HBSE 12th Class Sociology Notes

→ दिवंगत अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि लोकतंत्र जनता की, जनता के लिए तथा जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार होती है। प्रत्यक्ष लोकतंत्र में सभी नागरिक बिना किसी चयनित या मनोनीत अधिकारी की मध्यस्थता के, सार्वजनिक निर्णयों में स्वयं भाग लेते हैं।

→ हमारे देश में सहभागी लोकतंत्र तथा शक्तियों के विकेंद्रीकरण की व्यवस्था की गई है। सहभागी लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें समूह या समुदाय के सभी सदस्य महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में भाग लेते हैं। विकेंद्रीकृत व्यवस्था में शक्तियों का ऊपर से नीचे तक बँटवारा किया गया है।

→ भारतीय संविधान को 1946 में संविधान सभा ने बनाना शुरू किया तथा इसे बनते-बनते लगभग तीन वर्ष लग गए। 26 जनवरी, 1950 को यह लागू भी हो गया। इसमें देश के सभी नागरिकों को समानता, मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य दिए गए हैं तथा भेदभाव का इसमें कोई स्थान नहीं रखा गया है।

→ संविधान में कुछ मूल उद्देश्य शामिल किए गए हैं जिन्हें भारतीय राजनीति में न्यायोचित माना जाता है। निर्धन तथा पिछड़े हुए लोगों को सक्षम बनाना, निर्धनता उन्मूलन, जातिवाद समाप्त करने तथा सभी के प्रति समानता का व्यवहार करने के लिए यह कुछ सकारात्मक चरण हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ

→ हमारे देश में पंचायती राज की व्यवस्था की गई है। इसका शाब्दिक अर्थ है पाँच व्यक्तियों का शासन। यह विचार विदेश से नहीं बल्कि देश में ही शक्तियों को बाँटने की इच्छा के कारण आया। परंपरागत पंचायतों को चुनी हुई पंचायतों में परिवर्तित करने का उद्देश्य था शक्तियों में सभी को भागीदार बनाकर उनके क्षेत्रों का विकास करना।

→ 1992 के 73वें संवैधानिक संशोधन से पंचायती राज्य संस्थाओं को संवैधानिक परिस्थति प्रदान की तथा अब स्थानीय स्वः शासन के सदस्य गाँवों तथा नगरों में प्रत्येक 5 वर्ष बाद चुने जाते हैं। इसके साथ ही स्थानीय संसाधनों पर चुने हुए निकायों का नियंत्रण होता है।

→ पंचायतों को अपने क्षेत्रों का विकास करने के लिए बहुत सी शक्तियाँ दी गई हैं और जैसे कि योजनाएं बनाना, जुर्माना या शुल्क लगाकर एकत्र करना, गाँवों के विकास के लिए पैसा सरकार से प्राप्त करना इत्यादि। इनके लिए तो सरकार ने कई कार्यक्रम भी चला रखे थे जैसे कि C.D.P., I.R.D.P., J.R.Y. NREGA, MNREGA इत्यादि।

→ चाहे संविधान ने सभी को समानता का अधिकार दिया है परंतु फिर भी लोकतंत्र और असमानता का गहरा संबंध है। बहुत से मामलों में गाँव के कुछ विशेष समूहों को न तो शामिल किया जाता है तथा न ही उन्हें बताया जाता है। अमीर लोग ग्राम सभा को नियंत्रित करते हैं तथा बहुसंख्यक उन्हें केवल देखते ही रह जाते है।

→ राजनीतिक दल एक ऐसा संगठन होता है जो सत्ता हथियाने तथा सत्ता का उपयोग कुछ विशिष्ट कार्यों को संपन्न करने के उद्देश्य से स्थापित करता है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल तथा उनके निर्णयों को प्रभावित करने वाले दबाव समूह काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं क्योंकि लोकतंत्र इन्हीं के कारण ही तो चलता है।

→ प्रत्यक्ष लोकतंत्र-लोकतंत्र का वह रूप जिसमें सभी नागरिक बिना किसी मनोनीत मध्यस्थ के सार्वजनिक निर्णयों में भाग लेते हैं।

→ सहभागी लोकतंत्र-एक ऐसी व्यवस्था जिसमें महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए समूदाय के सभी सदस्य एक साथ भाग लेते हैं।

→ विकेंद्रीकरण-वह प्रक्रिया जिसमें राज्य की शक्तियों को ऊपर से लेकर नीचे तक विभाजित किया जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ

→ संविधान-एक ऐसा दस्तावेज जिससे किसी राष्ट्र के सिद्धांतों का निर्माण होता है।

→ पंचायत-पाँच व्यक्तियों के शासन को पंचायत कहते हैं।

→ दबाव समूह-वह शक्तिशाली समूह जो सरकार से अपनी बात मनवाने के लिए किसी न किसी प्रकार से दबाव डालते हैं।

→ राजनीतिक दल-ऐसा संगठन जिसकी स्थापना सत्ता हथियाने और सत्ता का उपयोग कुछ विशिष्ट कार्यों को संपन्न करने के उद्देश्य से होती है।

→ निजीकरण-सरकारी उद्यमों को निजी व्यक्तियों या समूहों को बेचने की प्रक्रिया।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 सांस्कृतिक परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 सांस्कृतिक परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 सांस्कृतिक परिवर्तन

HBSE 12th Class Sociology सांस्कृतिक परिवर्तन Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृतिकरण पर एक आलोचनात्मक लेख लिखें।
अथवा
भारतीय समाज में संस्कृतिकरण की अवधारणा की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
संस्कृतिकरण एक प्रक्रिया है जिसमें निम्न जाति का व्यक्ति सांस्कृतिक रूप से प्रसिद्ध समूहों के रीति रिवाजों तथा नाम का अनुकरण करके अपनी स्थिति ऊँची करता है। जिनका अनुकरण किया जा रहा होता है वह आर्थिक रूप से बेहतर होते हैं। जब अनुकरण करने वाले व्यक्ति या समूह की आर्थिक स्थित अच्छी होने लग जाए तो उसे भी प्रतिष्ठित समूह का दर्जा प्राप्त हो जाता है।

आलोचना-
(i) सबसे पहले तो इसमें कहा जाता है कि इसमें सामाजिक गतिशीलता निम्न जाति का सामाजिक स्तरीकरण में उर्ध्वगामी परिवर्तन करती है, इस बात को काफ़ी बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया है। इस प्रक्रिया से केवल कुछ व्यक्तियों की स्थिति परिवर्तित होती है संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता है। इससे कुछ व्यक्ति तो असमानता वाली संरचना में अपनी स्थिति सुधार लेते हैं परंतु समाज में से भेदभाव तथा असमानता खत्म नहीं होते।

(ii) इस प्रक्रिया की आलोचना का दूसरा तथ्य यह है कि इस प्रक्रिया में उच्च जाति की जीवन शैली ऊँची तथा निम्न जाति की जीवन शैली निम्न होती है। इसलिए उच्च जाति के लोगों की जीवन शैली अपनाने की इच्छा को प्राकृतिक ही मान लिया जाता है जो सभी में होती है।

(iii) तीसरी आलोचना यह है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ऐसी व्यवस्था को ठीक मानती है जो असमानता तथा भेदभाव पर आधारित है। इससे यह संकेत मिलता है कि पवित्रता तथा अपवित्रता के पक्षों को ठीक मान लिया जाए तथा उच्च जातियों द्वारा निम्नजातियों के प्रति भेदभाव उनका विशेषाधिकार है। इस प्रकार के दृष्टिकोण वाले समाज में समानता की कल्पना तो की ही नहीं जा सकती है। इस प्रकार असमानता पर आधारित समाज लोकतंत्र विरोधी ही है।

(iv) चौथी आलोचना में कहा गया है कि इस प्रक्रिया से उच्च जातियों के रिवाजों, अनुष्ठानों तथा व्यवहार को स्वीकृति मिल जाती है तथा लड़कियों, महिलाओं की सामाजिक स्थिति निम्न हो जाती है। इस कारण ही कन्या मूल्य की जगह दहेज प्रथा तथा और समूहों के साथ जातिगत भेदभाव बढ़ गए है।

(V) इस प्रक्रिया के कारण निम्न जातियों की संस्कृति तथा समाज के मूलभूत पक्षों को भी पिछड़ा हुआ मान लिया जाता था। जैसे कि उन द्वारा किए जाने वाले कार्यों को निम्न, शर्मनाक माना जाता था तथा सभ्य नहीं माना जाता था। उनसे जुड़े सभी कार्यों जैसे कि शिल्प तकनीकी योग्यता, अलग-अलग दवाओं की जानकारी, पर्यावरण तथा कृषिका ज्ञान इत्यादि को औद्योगिक युग में उपयोगी नहीं माना जाता।

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प्रश्न 2.
पश्चिमीकरण का साधारणतः मतलब होता है पश्चिमी पोशाकों व जीवन शैली का अनुकरण। क्या पश्चिमीकरण के दूसरे पक्ष भी हैं? क्या पश्चिमीकरण का मतलब आधुनिकीकरण है? चर्चा करें।
उत्तर:
भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम० एन० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण का संकल्प दिया है। उनके अनुसार, “पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में भारतीय समाज तथा संस्कृति में लगभग 150 वर्षों के अंग्रेज़ी शासन के परिणाम स्वरूप आए परिवर्तन है जिसमें विभिन्न पहलू आते हैं …………….. जैसे कि प्रौद्योगिकी, संस्था, विचारधारा तथा मूल्य।”

पश्चिमीकरण के कई प्रकार रहे हैं। एक प्रकार के पश्चिमीकरण का अर्थ उस पाश्चात्य उप सांस्कृतिक प्रतिमान से है जिसे भारतीयों के उस छोटे से समूह ने अपनाया जो पहली बार पाश्चात्य संस्कृति के संपर्क में आए हैं। इसमें भारतीय लोगों की उपसंस्कृति भी शामिल थी। इन्होंने पश्चिमी प्रतिमान चिंतन के प्रकारों, स्वरूपों तथा जीवन शैली को अपनाने के साथ-साथ इनका समर्थन तथा विस्तार भी किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुछेक लोग ही थे जिन्होंने पश्चिमी जीवन शैली को अपनाया तथा पश्चिमी दृष्टिकोण से सोचना शुरू कर दिया। इसके अतिरिक्ति नए उपकरणों का प्रयोग, कपड़ों, खाने पीने की चीज़ों, आदतों तथा तौर तरीकों में भी परिवर्तन थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि संपूर्ण भारत के मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा पश्चिमी चीज़ों का प्रयोग करता है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि पश्चिमीकरण में किसी विशेष संस्कृति के बाहरी तत्त्वों की नकल करने की प्रवृत्ति होती है। परंतु यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रजातंत्र तथा सामाजिक समानता जैसे आधुनिक मूल्यों को भी मानते हों।

पश्चिमी संस्कृति का भारतीयों की जीवनशैली तथा चिंतन के अतिरिक्त भारतीय कला तथा साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा। बहुत से कलाकार जैसे कि रवि वर्मा, अविंद्रनाथ टैगोर, चंदूमेनन तथा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने औपनिवेशिक स्थितियों के साथ कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ कीं।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि विभिन्न स्तरों पर सांस्कृतिक परिवर्तन हआ तथा औपनिवेशिक काल में हमारा पश्चिम से संपर्क स्थापित हुआ। अगर हम कहें कि आज के समय में दो पीढ़ियों के विचारों में अंतर पाया जाता है तो यह पश्चिमीकरण का ही परिणाम है।पश्चिमीकरण के कारण हमारे जीवन के हरेक पक्ष में परिवर्तन आया।

पश्चिमीकरण का अर्थ आधुनिकीकरण नहीं है क्योंकि आधुनिकीकरण पूर्व में भी हो सकता है परंतु पश्चिमीकरण का अर्थ केवल पश्चिम के कारण आए परिवर्तनों से है।

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प्रश्न 3.
लघु निबंध लिखें

  • संस्कार और पंथनिरपेक्षीकरण
  • जाति और पंथीनिरपेक्षीकरण।

उत्तर:
(i) संस्कार और पंथनिरपेक्षीकरण-आजकल के आधुनिक समय में हम सामाजिक सांस्कृतिक व्यवहार को आमतौर पर परंपरा तथा आधुनिकता का मिश्रण कह देते हैं परंतु इसके अपने ही निर्धारित तत्त्व है। इस जटिल कार्य को आसान बनाने की आदत ठीक नहीं है।

असल में इससे यह भ्रांति भी पैदा हो जाती है कि भारत में एक ही प्रकार की परंपराएं पाई जाती है या थी। भारत में इन परंपराओं को दो प्रकार के गुणों से पहचाना जाता है-बाहुलता तथा तर्क-वितर्क की परंपरा। भारतीय परंपराओं तथा संस्कारों में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं तथा उन्हें बार-बार दोबारा परिभाषित किया जाता है। ऐसा 19वीं सदी के समाज सुधारकों ने किया तथा आज भी यह प्रक्रियाएं मौजूद है।

आधुनिक समाजों में पश्चिमीकरण का अर्थ ऐसी प्रक्रिया से ही जिससे धर्म का प्रभाव कम हो जाता है। आधुनिकीकरण में सभी विचारक यह कहते हैं किस आधुनिक समाज अधिक पंथनिरपेक्ष होते है । में धार्मिक विचारों का ह्रास हो जाता है, धार्मिक संस्कारों में कमी आ जाती है तथा भौतिकता का प्रभाव बढ़ जाता है। यह कहा जाता है कि आधुनिक समाज में धार्मिक संस्थानों तथा लोगों के बीच दूरी बढ़ रही है।

(ii) जाति और पंथनिरक्षीकरण-अगर ध्यान से देखा जाए तो जाति तथा पंथनिरपेक्षीकरण एक-दूसरे के विरोधी हैं। जाति प्रथा में धार्मिक विचारों को काफ़ी महत्त्व दिया जाता है। यह कहा जाता है कि धर्म तथा धार्मिक ग्रंथों ने ही व्यक्तियों के कार्यों तथा समूहों को बाँट दिया था जिस कारण जाति प्रथा अस्तित्व में आयी। जाति प्रथा में जो व्यक्ति धार्मिक कार्यों को करता था उसे समाज में सबसे उच्च स्थिति प्राप्त थी तथा निम्न जातियों को धार्मिक कार्यों से दूर रखा जाता था।

इस प्रकार अगर हम कहें कि जाति प्रथा के आधार ही धर्म तथा व्यवसाय थे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। परंतु पंथनिरपेक्षीकरण में धर्म को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है बल्कि धार्मिक संस्कारों में काफ़ी कमी आ जाती है। इसमें लोग धार्मिक कार्यों को समय देने की अपेक्षा अपने कार्य तथा पैसे कमाने को समय देना अधिक पसंद करते हैं।

सांस्कृतिक परिवर्तन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ पिछले अध्याय में हमने उपनिवेशवाद के बारे में पढ़ा। उपनिवेशवाद के शुरू होने के बाद से ही भारत में सांस्कृतिक परिवर्तन आने शुरू हो गए। विदेशियों की संस्कृति का हमारी संस्कृति पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि हमारे समाज का सामाजिक परिवर्तन तेज़ी से शुरू हो गया।

→ प्राचीन समय से ही भारतीय समाज में बहुत-सी कुरीतियां चली आ रही थीं जैसे कि सती प्रथा, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, जाति प्रथा, बहुविवाह, पर्दा प्रथा, उच्च शिक्षा की कमी, निम्न जातियों का शोषण इत्यादि। इन सबके विरुद्ध देश के अलग-अलग क्षेत्रों से आवाजें उठीं जिन्हें समाज सुधार आंदोलन का नाम दिया गया।

→ भारत में समाज सुधार आंदोलनों की 19वीं शताब्दी में शुरुआत राजा राम मोहन राय ने की जिन्हें ‘आधनिक भारत का पिता’ भी कहा जाता है। उन्हीं के प्रयासों से लार्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा को समझा तथा इस अमानवीय प्रथा को गैर-कानूनी करार दिया।

→ ज्योतिबा फूले जाति प्रथा के विरुद्ध थे तथा साथ ही साथ स्त्रियों के शोषण के भी विरुद्ध थे। इसलिए ही उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की तथा कई कन्या विद्यालय खोले।

→ सर सैय्यद अहमद खान मुसलमानों में सुधारों के काफ़ी बड़े पक्षधर थे। वह मुसलमानों में प्रचलित कई बुराइयों जैसे कि बहुविवाह, प्रर्दा प्रथा, स्त्रियों की निम्न स्थिति, अशिक्षा इत्यादि के विरोधी थे। इसलिए उन्होंने मुस्लिम समाज से इन बुराइयों को दूर करने के प्रयास किए। उन्होंने तो अलीगढ़ में एक कॉलेज भी स्थापित किया जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया।

→ इन सब के साथ ईश्वर चंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, विरेश लिंगम, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद इत्यादि ने भारतीय समाज में व्यापत बुराइयों की कड़ी आलोचना की तथा इनके विरुद्ध कार्य करने के लिए कई संगठन बनाए जैसे कि ब्रह्म समाज, आर्य समाज, सत्य शोधक समाज इत्यादि।

→ चाहे सभी समाज सुधारक देश के अलग-अलग हिस्सों से संबंधित थे तथा इन सभी ने अलग-अलग बुराइयों का विरोध किया परंतु इन सभी सुधारकों का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में व्यापत बुराइयों को दूर करना था।

→ अगर हमारे देश में सामाजिक परिवर्तन हुआ है तो इसमें सांस्कृतिकरण, आधुनिकीकरण, पंथनिरपेक्षीकरण अथवा धर्म निष्पक्षता तथा पश्चिमीकरण जैसी प्रक्रियाओं का काफ़ी बड़ा हाथ है। चाहे सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया भारतीय समाज में पहले से ही व्याप्त थी परंतु और प्रक्रियाएं अंग्रेजों के समय में सामने आयी तथा इन्होंने भारतीय समाज का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 सांस्कृतिक परिवर्तन

→ संस्कृतिकरण की प्रक्रिया जाति प्रथा से संबंधित है। जब निम्न जाति के लोग उच्च जाति के रहने सहने के ढंग, उठन बैठने के ढंग तथा उनका नाम अपानाकर अपने आपको उच्च जाति का कहना शुरू कर दें अथवा उच्च जाति की जीवन पद्धति, अनुष्ठान मूल्य, आदर्श, विचारधाराओं का अनुकरण करना शुरू कर दें तो इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहा जाता है। यह जाति प्रथा के कारण सामने आयी।

→ पश्चिमीकरण की प्रक्रिया पश्चिमी समाज के अनुकरण से संबंधित है। श्रीनिवास के अनुसार पश्चिमी समाज के साथ लगभग 150 सालों के संपर्क के बाद कई परिवर्तन हमारे सामने आए और जैसे कि प्रौद्योगिकी, संस्था, विचारधारा, मूल्य इत्यादि। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को ही पश्चिमीकरण कहा जाता है।

→ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के दौरान सामने आयी। इसके अनुसार यह विकास का वह ढंग है जो पश्चिमी यूरोप या उत्तरी अमेरिका ने अपनाया। इसके अनुसार व्यक्ति के विचार, व्यवहार के ढंग, जीवन के सभी पहलू बदल जाते हैं तथा व्यक्ति अपने आपको पूर्णतया आधुनिक महसूस करता है।

→ धर्म निष्पक्षता अथवा पंथनिरपेक्षीकरण का अर्थ ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें धर्म के प्रभाव में कमी आती है तथा आधुनिक विचार धार्मिक विचारों को दबा लेते हैं। व्यक्ति का दृष्टिकोण धार्मिक न होकर आधुनिक हो जाता है। वह धार्मिक संस्थाओं से दूर हो जाता है तथा उसके पास धार्मिक कार्यों के लिए समय ही नहीं होता।

→ सांस्कृतिकरण-वह प्रक्रिया जिसके अंतर्गत निम्न समूह उच्च समूहों के विचारों, आदर्शों, जीवन जीने के ढंगों का अनुकरण करके उनका नाम तक अपना लेते हैं।

→ धर्मनिरपेक्षीकरण अथवा पंथनिरपेक्षीकरण-सामाजिक परिवर्तन की वह प्रक्रिया जिसमें सार्वजनिक जीवन में धर्म का प्रभाव कम हो जाता है तथा आधुनिकता का प्रभाव बढ़ जाता है।

→ पश्चिमीकरण-वह प्रक्रिया जिसमें भारतीय समाज के सभी आदर्श विचार, संस्थाएं इत्यादि पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के अधीन आ गए।

→ आधुनिकीकरण-सामाजिक परिवर्तन की वह प्रक्रिया जिसमें प्राचीन पंरपराओं का त्याग करके नए तथा आधुनिक विचारों को ग्रहण किया जाता है।

→ सती प्रथा-वह प्रथा जिसमें विधवा स्त्री अपने पति की चिता के साथ जीवित ही जला दी जाती थी।

→ बहुविवाह-विवाह का वह प्रकार जिसमें एक पति की कई पत्नियां अथवा एक पत्नी के कई पति होते हैं।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 संरचनात्मक परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 संरचनात्मक परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 संरचनात्मक परिवर्तन

HBSE 12th Class Sociology संरचनात्मक परिवर्तन Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
उपनिवेशवाद का हमारे जीवन पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ा है? आप या तो किसी एक पक्ष जैसे संस्कृति या राजनीति में केंद्र में रखकर या सारे पक्षों को जोड़कर विश्लेषण कर सकते हैं।
उत्तर:
उपनिवेशवाद-एक स्तर पर, एक देश के द्वारा दूसरे देश पर राजनीतिक रूप से शासन करने को उपनिवेशवाद कहा जाता है। आधुनिक समय को पश्चिमी उपनिवेशवाद ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। भारत का इतिहास देखने से यह पता चलता है कि यहाँ काल तथा स्थान के अनुसार अलग-अलग प्रकार के समूहों का उन अलग-अलग क्षेत्रों पर शासन रहा है जो आज के आधुनिक भारत का निर्माण करते हैं। परंतु औपनिवेशिक शासन किसी और शासन तथा प्रणाली से अलग तथा ज्यादा प्रभावशाली रहा है। इसलिए जो भी परिवर्तन आए वह काफ़ी गहरे तथा भेदभाव से भरपूर थे।

संस्कृति तथा राजनीति पर प्रभाव-आधुनिक समय में भारत में मौजूद संसदीय, विधि तथा शिक्षा व्यवस्था ब्रिटिश प्रारूपों पर आधारित है। अगर हम सड़कों पर बाईं ओर चलते हैं तो यह भी ब्रिटिश अनुकरण हैं। हमें सड़कों के किनारे रेहड़ियों तथा गाड़ियों पर कटलेट तथा ब्रेड, ऑमलेट जैसी चीजें साधारणतया खाने को मिल जाती है। यहाँ तक कि एक प्रसिद्ध बिस्कुट बनाने वाली कंपनी का नाम भी ब्रिटेन से संबंधित है। बहुत से स्कूलों में ‘नेक-टाई ड्रैस का एक ज़रूरी हिस्सा है।

हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली चीजें कितनी अधिक पश्चिम से संबंधित है, हम सोच भी नहीं सकते। हम न केवल पश्चिम की प्रशंसा करते हैं बल्कि उसकी आलोचना भी करते हैं। हमें इस बात की कई उदाहरणे अपने रोज़ाना जीवन में देखने को मिल जाएंगी। इस सबसे पता चलता है कि आज भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद हमारे जीवन का एक जटिल अंग है।

यहाँ तक अंग्रेज़ी भाषा की उदाहरण ले सकते हैं जिसके बहुत अधिक तथा विरोधात्मक प्रभाव है। हम केवल अंग्रेज़ी भाषा को प्रयोग ही नहीं करते बल्कि कई भारतीयों ने अंग्रेजी भाषा में उत्तम साहित्यिक रचनाएं भी की हैं। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान की वजह से ही भारत को भूमंडलीकृत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफ़ी ऊँचा स्थान प्राप्त है।

परंतु इसके साथ ही हम भी नहीं भल सकते कि अंग्रेज़ी को आज भी विशेषाधिकारों का सचक माना जाता है। अगर किसी को अंग्रेजी भाषा नहीं आती हैं या कम आती है तो उसे रोज़गार प्राप्त करने में परेशानी होती है। परंतु कई वंचित समूहों के लिए अंग्रेज़ी भाषा की जानकारी एक वरदान साबित हुई है। यह बात निम्न जातियों के संदर्भ में बिल्कुल ही उपयुक्त है जो औपचारिक शिक्षा तथा अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करके अपनी सामाजिक स्थिति ऊंची कर रहे हैं।

प्रश्न 2.
औद्योगीकरण और नगरीकरण का परस्पर संबंध हैं, विचार करें।
उत्तर:
यह सच है कि औद्योगीकरण तथा नगरीकरण परस्पर संबंधित हैं। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से न केवल औद्योगीकरण बढ़ता है बल्कि नगरीकरण का भी विकास होता है। इस कारण तकनीक का विकास होता है तथा नए नए और बड़े उद्योग स्थापित हो जाते हैं। उद्योगों के इर्द-गिर्द नगर विकसित हो जाते हैं।

उद्योग लगने से गांव की जनसंख्या उनकी तरफ भागने लगती है ताकि उनमें रोजगार प्राप्त किया जा सके। इस प्रकार उद्योगों के इर्द-गिर्द पहले बस्तियां तथा फिर शहर बन जाते हैं। शहरों में हजारों पेशे पाए जाते हैं तथा बहुत-सी सुविधाएं भी। तथा यातायात के साधन भी इस प्रक्रिया के कारण विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार नगरों के विकसित होने तथा नगरीकरण की प्रक्रिया के बढ़ने में औद्योगीकरण का बहुत बड़ा हाथ होता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 संरचनात्मक परिवर्तन

प्रश्न 3.
किसी ऐसे शहर या नगर को चुनें जिससे आप भली-भाँति परिचित हैं। उस शहर/नगर के इतिहास, उसके उद्भव और विकास तथा समसामयिक स्थिति का विवरण दें।
उत्तर:
हम दिल्ली शहर से भली-भाँति परिचित हैं। वैसे तो दिल्ली को बसे सैंकड़ों वर्ष हो चुके हैं परंतु दिल्ली को महत्त्व प्राप्त हुआ दिल्ली के सुलतानों के समय जब उन्होंने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। उसके बाद तो जैसे दिल्ली पर अधिकार जमाने के लिए संघर्ष ही छिड़ गया। यह माना जाने लगा कि जिसका दिल्ली पर अधिकार है वह ही हिन्दुस्तान का राजा है।

इस कारण ही समय-समय पर दिल्ली पर अधिकार जमाने के लिए साजिशें होती रहीं। जिस किसी विदेशी मणकारी ने भारत पर आक्रमण किया उसने सबसे पहले दिल्ली को अपना निशाना बनाया। मुगल बादशाह बाबर ने भारत पर कई बार आक्रमण किया, परंतु अपने अंतिम आक्रमण में उसने दिल्ली पर अधिकार कर ही लिया। उसके बाद दिल्ली सत्ता का केंद्र बन गया। मुग़ल बादशाहों के समय सारे देश की सत्ता दिल्ली से ही चलती थी।

परंतु अंग्रेजों के आने के पश्चात् मुग़ल साम्राज्य का पतन होना शुरू हो गया। इस कारण ही दिल्ली का महत्त्व धीरे-धीरे कम होता चला गया। दिल्ली के स्थान पर कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई जैसे नए शहरों का महत्त्व बढ़ गया। 1857 के विद्रोह का मुख्य केंद्र दिल्ली था। विद्रोह खत्म होने के पश्चात् अंग्रेजों ने दिल्ली को खूब लूटा, हज़ारों लोगों को मारा तथा शहर को पूर्णतया ध्वस्त कर दिया। परंतु दिल्ली धीरे-धीरे फिर बस गया।

अंग्रेजी साम्राज्य कलकत्ता से चलता रहा। परंतु 20वीं शताब्दी की शुरूआत में अंग्रेजों ने कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया। उन्होंने पुरानी दिल्ली के साथ नई दिल्ली को भी विकसित किया। इंग्लैंड से वास्तुकार बुलाए गए ताकि नई दिल्ली को विकसित किया जा सके। उसके बाद तो दिल्ली का महत्त्व बढ़ने लग गया। उसके बाद से अब तक दिल्ली देश की राजधानी है।

समसामयिक स्थिति से दिल्ली का स्थान देश में सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि देश की राजधानी का देश में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यदि देश की राजधानी पर ही विदेशी आक्रमण तथा अधिकार हो जाए तो देश पर ही विदेशी अधिकार हो जाता है। इस प्रकार दिल्ली देश का सबसे महत्त्वपूर्ण शहर है। सम्पूर्ण देश की सत्ता दिल्ली से ही चलती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यदि हमारे देश में सबसे महत्त्वपूर्ण शहर है तो वह है दिल्ली।

प्रश्न 4.
आप एक छोटे कस्बे में या बहुत बड़े शहर या अर्धनगरीय स्थान या एक गाँव में रहते हैं-

  • जहाँ आप रहते हैं उस जगह का वर्णन करें।
  • वहाँ की विशेषताएं क्या है, आपको क्यों लगता है कि वह एक कस्बा है शहर नहीं, एक गाँव है कस्बा नहीं या शहर हैं गाँव नहीं?
  • जहाँ आप रहते हैं वहाँ क्या कोई कारखाना है?
  • क्या लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती है?
  • क्या व्यवसाय वहां निर्णायक रूप में प्रभावशाली है?
  • क्या वहाँ इमारतें हैं?
  • क्या वहाँ शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध हैं?
  • लोग कैसे रहते और व्यवहार करते हैं?
  • लोग किस तरह बात करते और कैसे कपड़े पहनते हैं?

उत्तर:
इस प्रश्न का उत्तर विद्यार्थी अपने अध्यापक की सहायता से तथा अपने इर्द-गिर्द के स्थानों की तरफ देख कर स्वयं ही दें।

संरचनात्मक परिवर्तन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ वर्तमान को समझने के लिए अतीत को जानना जरूरी होता है। भारत के आधुनिक रूप से समझने के लिए इसके इतिहास को समझने की आवश्यकता है। भारत की आधुनिक संस्थाएं तथा इसका नया रूप औपनिवेशिक शासन की देन है। उपनिवेशवाद के कारण भारत को आधुनिक विचारों का पता चला।

→ एक स्तर पर, एक देश के द्वारा दूसरे देश पर शासन को उपनिवेशवाद माना जाता है। भारत के इतिहास से यह पता चलता है कि यहाँ काल और स्थान के अनुसार विभिन्न प्रकार के समूहों का उन अलग-अलग क्षेत्रों पर शासन रहा जो आज के आधुनिक भारत का निर्माण करते हैं।

→ प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था लेन-देन पर आधारित थी परंतु ब्रितानी उपनिवेशवाद पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित था। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप किया जिससे ब्रितानी पूँजीवाद का विस्तार हुआ और उसे सुदृढ़ता मिली।

→ उपनिवेशवाद से भारत में बहुत से परिवर्तन आए जिनमें प्रशासन में मूलभूत बदलाव, यातायात तथा संचार के साधनों का विकास, पूँजीवाद का बढ़ना, संस्कृति में परिवर्तन इत्यादि प्रमुख थे। अंग्रेज़ों ने चाहे अपने लाभ के लिए भारत में उद्योग लगाने शुरू किए परंतु इसने अप्रत्यक्ष रूप से भारत का विकास करना शुरू कर दिया। भारत का औद्योगीकरण शुरू हुआ जिससे नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला तथा नये नगर विकसित होने शुरू हो गए। इससे पुराने शहरों का अस्तित्व कमज़ोर होता चला गया।

→ अंग्रेजों के जाने के पश्चात् स्वतंत्र भारत में तेजी से औद्योगीकरण शुरू हुआ। भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जिनका मुख्य उद्देश्य ही भारत का औद्योगीकरण करना था। भारत में भारी मशीनीकृत उद्योगों का विकास हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत में नगर भी तेजी से विकसित हुए। बड़े शहर और बड़े हो गए तथा छोटे-छोटे कस्बे शहरों में परिवर्तित हो गए। बड़े-बड़े गाँव शहरों में परिवर्तित हो गए। इससे भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज़ी से विकसित हुई।

→ अगर देखा जाए तो भारत में औद्योगीकरण तथा नगरीकरण का विकास ब्रिटिश शासन की ही देन है। अंग्रेजों ने अपने लाभ के लिए उद्योगों तथा नगरों का विकास करना शुरू किया जिससे भारतीयों ने भी उससे काफ़ी लाभ प्राप्त किया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 संरचनात्मक परिवर्तन

→ औद्योगिकरण से सामाजिक परिवर्तन काफी तेजी से होता है। स्वतंत्रता के बाद भारत में तेजी से औद्योगीकरण शुरू हुआ जिसमें सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों ने काफ़ी बड़ी भूमिका निभाई। आज उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण के समय में तो यह और तेज़ी से बढ़ रहे हैं। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण प्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से संबंधित हैं। जहां पर उद्योग विकसित होते हैं वहां पर उद्योगों के आस-पास नगर भी विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार इन दोनों के कारण सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन भी होने शुरू हो जाते हैं।

→ उपनिवेशवाद-एक स्तर पर, एक देश के द्वारा देश पर शासन को उपनिवेशवाद माना जाता है।

→ राष्ट्र राज्य-एक ऐसा राष्ट्र जिसमें लोगों को स्वतंत्रता तथा और सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त होते हैं तथा जिन्हें अपनी संप्रभुता प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होता है।

→ औद्योगिक क्षरण-पुराने बसे औद्योगिक क्षेत्रों में से उद्योगों का पतन।

→ औद्योगीकरण-देश में उद्योगों का अधिक-से-अधिक विकास होना।

→ नगरीकरण-छोटे नगरों का बड़े नगरों में परिवर्तन होना तथा गाँवों और कस्बों का छोटे नगरों में परिवर्तित होना।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

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Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

HBSE 12th Class Sociology परियोजना कार्य के लिए सुझाव Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निरीक्षण विधि की विशेषताएं बताएं।
(A) वैज्ञानिक सूक्षमता संभव है
(B) अपने आप निरीक्षण करना
(C) विश्वास योग्य
(D) a + b + c
उत्तर:
a + b + c

प्रश्न 2.
निरीक्षण के कितने प्रकार हैं?
(A) दो
(B) पाँच
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर:
पाँच।

प्रश्न 3.
सहभागी निरीक्षण में वैज्ञानिक किसका भाग बन जाता है?
(A) समूह का
(B) समाज का
(C) घर का
(D) देश का।
उत्तर:
समूह का।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

प्रश्न 4.
किस निरीक्षण में निरीक्षणकर्ता कई प्रकार से समूह का अंग बनता है?
(A) सहभागी
(B) असहभागी
(C) अर्ध-सहभागी
(D) अनियंत्रित।
उत्तर:
सहभागी।

प्रश्न 5.
किस निरीक्षण में वैज्ञानिक तटस्थ भाव से निरीक्षण करता है?
(A) सहभागी
(B) असहभागी
(C) अर्ध-सहभागी
(D) अनियंत्रित।
उत्तर:
असहभागी।

प्रश्न 6.
किस प्रकार के निरीक्षण में वैज्ञानिक समूह की कुछ गतिविधियों में भाग लेता है?
(A) सहभागी
(B) असहभागी
(C) अर्ध-सहभागी
(D) अनियंत्रित।
उत्तर:
अर्ध-सहभागी।

प्रश्न 7.
जब वैज्ञानिक स्वाभाविक रूप में तथा स्वाभाविक स्थान पर निरीक्षण करते हैं तो उसे क्या कहते हैं?
(A) अनियंत्रित निरीक्षण
(B) नियंत्रित निरीक्षण
(C) सहभागी निरीक्षण
(D) अर्ध-सहभागी निरीक्षण।
उत्तर:
अनियंत्रित निरीक्षण।

प्रश्न 8.
नियंत्रण कितने प्रकार का होता है?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर:
दो।

प्रश्न 9.
निरीक्षण विधि का गुण बताएं।
(A) विश्वासयोग्य
(B) आसान
(C) सर्वव्यापक
(D) a + b + c
उत्तर:
a + b + c

प्रश्न 10.
साक्षात्कार का क्या अर्थ है?
(A) घटना से संबंधित व्यक्ति से औपचारिक वार्तालाप
(B) व्यक्ति से मिलना
(C) a+b
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
घटना से संबंधित व्यक्ति से औपचारिक वार्तालाप।

प्रश्न 11.
यह शब्द किसके हैं, “साक्षात्कार एक ऐसी क्रमबद्ध विधि है जिसके द्वारा व्यक्ति करीब-करीब अपनी कल्पना की मदद से अपेक्षाकृत अपरिचित के जीवन में प्रवेश करता है।”
(A) गुड तथा हॉट
(B) बोगार्डस
(C) पी० वी० यंग
(D) मोज़र।
उत्तर:
पी० वी० यंग।।

प्रश्न 12.
साक्षात्कार के कितने प्रकार होते हैं?
(A) दो
(B) चार
(C) आठ
(D) पाँच।
उत्तर:
चार।

प्रश्न 13.
इनमें से साक्षात्कार विधि का गुण बताएं।
(A) ज्यादा समय
(B) ग़लत रिपोर्ट
(C) मनोवैज्ञानिक अध्ययन
(D) अच्छे साक्षात्कारों को न मिलना।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक अध्ययन।

प्रश्न 14.
Interview Guide किस प्रकार का प्रलेख है?
(A) मौखिक
(B) निबंधात्मक
(C) लघूत्तरात्मक
(D) लिखित।
उत्तर:
लिखित।

प्रश्न 15.
साक्षात्कार की तैयारी का सबसे पहला चरण क्या है?
(A) साक्षात्कार प्रदर्शिका का निर्माण
(B) समस्या का ज्ञान
(C) साक्षी का चुनाव
(D) पता नहीं।
उत्तर:
समस्या का ज्ञान।

प्रश्न 16.
साक्षात्कार की सीमा बताओ।
(A) उच्चकोटि की चतुरता न होना
(B) व्यक्तियों का झूठ बोलना
(C) साक्षी को साक्षात्कार के लिए राजी करना
(D) a + b + c
उत्तर:
a + b + c

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

प्रश्न 17.
साक्षात्कार विधि का गुण बताएं।
(A) सबसे लचीली विधि
(B) भावात्मक स्थितियों का अध्ययन
(C) अधिक उपयोगी
(D) a + b + c
उत्तर:
a + b + c

प्रश्न 18.
आँकड़ों तथा द्वितीयक स्त्रोत कौन-से हैं?
(A) सरकारी तथा गैर-सरकारी
(B) निजी तथा व्यक्तिगत
(C) सरकारी तथा अर्ध-सरकारी
(D) पता नहीं।
उत्तर:
सरकारी तथा गैर-सरकारी।

प्रश्न 19.
‘साक्षात्कार’ किस स्तर पर किया जाता है?
(A) व्यक्तिगत
(B) सार्वजनिक
(C) (A) व (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) व (B) दोनों।

प्रश्न 20.
परियोजना कार्य किस पर आधारित होता है?
(A) गुणात्मक तथ्य पर
(B) परिमाणात्मक तथ्य पर
(C) उपरोक्त दोनों पर
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
उपरोक्त दोनों पर।

प्रश्न 21.
शोध कार्य के लिए हम छात्रों से सीधे प्रश्न किस पद्धति के तहत पूछ सकते हैं?
(A) प्रेक्षण
(B) सर्वेक्षण
(C) साक्षात्कार
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
साक्षात्कार।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
परियोजना कार्य के लिए किस विधि का अनुसरण किया जाता है?
उत्तर:
परियोजना कार्य के लिए सामाजिक सर्वेक्षण विधि का अनुसरण किया जाता है।

प्रश्न 2.
परियोजना कार्य विधि के मुख्य समर्थक तथा जन्मदाता कौन हैं?
उत्तर:
परियोजना कार्य विधि के मुख्य समर्थक तथा जन्मदाता किलपैट्रिक (W.H. Kilpatric) को माना जाता है।

प्रश्न 3.
परियोजना कार्य का क्या अर्थ है?
अथवा
परियोजना कार्य क्या है?
अथवा
परियोजना का अर्थ बताएं।
उत्तर:
परियोजना कार्य एक नया अनुभव तथा ज्ञान प्राप्त करने का एक समस्यामूलक ढंग है तथा यह योजना की कार्य प्रणाली से संबंधित है।

प्रश्न 4.
परियोजना कार्य का मुख्य उद्देश्य क्या होता है?
उत्तर:
परियोजना कार्य का मुख्य उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना होता है।

प्रश्न 5.
परियोजना कार्य विधि में रिपोर्ट कौन तैयार करता है?
उत्तर:
परियोजना कार्य विधि में रिपोर्ट विद्यार्थी द्वारा लिखी जाती है।

प्रश्न 6.
परियोजना कार्य के कितने स्तर होते हैं?
उत्तर:
परियोजना कार्य के चार स्तर होते हैं।

प्रश्न 7.
परियोजना कार्य का पहला स्तर कौन-सा होता है?
उत्तर:
परियोजना कार्य का पहला स्तर परियोजना कार्य का आयोजन होता है।

प्रश्न 8.
परियोजना कार्य का अंतिम स्तर कौन-सा होता है?
उत्तर:
परियोजना कार्य का अंतिम स्तर तथ्यों का प्रदर्शन होता है तथा रिपोर्ट लिखना होता है।

प्रश्न 9.
नियोजन क्या होता है?
उत्तर:
जब व्यक्ति अपने किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करते समय अपने साधनों की व्यवस्था तैयार करता है तो उसे नियोजन कहते हैं।

प्रश्न 10.
नियोजन के कितने प्रकार हैं?
उत्तर:
नियोजन के दो प्रकार हैं-सामाजिक नियोजन तथा आर्थिक नियोजन।

प्रश्न 11.
अवलोकन पद्धति क्या है?
अथवा
प्रेक्षण का अर्थ बताएं।
अथवा
प्रेक्षण क्या है?
उत्तर:
जब हम किसी घटना को अपनी आँखों से देखते हैं तथा उसका विश्लेषण करते हैं तो उसे अवलोकन कहते हैं।

प्रश्न 12.
अपनी आँखों का प्रयोग करने वाली विधि को क्या कहते हैं?
उत्तर:
घटना का विश्लेषण करने के लिए अपनी आँखों का प्रयोग करने वाली विधि को अवलोकन अथवा प्रेक्षण कहते हैं।

प्रश्न 13.
सहभागी निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
जब अनुसंधानकर्ता समूह का सदस्य बनकर निरीक्षण करता है तो उसे सहभागी निरीक्षण कहते हैं।

प्रश्न 14.
अर्धसहभागी निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
जब निरीक्षणकर्ता समूह की कुछ क्रियाओं में भाग लेता है तथा बाकी का अनुसंधानकर्ता के तौर पर निरीक्षण करता है तो उसे अर्ध सहभागी निरीक्षण कहते हैं।

प्रश्न 15.
अनियंत्रित निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
जब अनुसंधानकर्ता स्वयं घटनास्थल पर जाकर घटना का उसके वास्तविक हालातों में निरीक्षण करता है तो उसे अनियंत्रित निरीक्षण कहते हैं। .

प्रश्न 16.
नियंत्रित निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
जब घटना को कृत्रिम रूप में दोबारा घटित करके या अपने आपको नियंत्रण में रखकर अवलोकन किया जाए तो उसे नियंत्रित निरीक्षण कहते हैं।

प्रश्न 17.
सामूहिक निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
जब एक ही सामाजिक घटना का अवलोकन एक से अधिक अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किया जाता है तथा अलग-अलग रिपोर्ट तैयार की जाती है तो उसे सामूहिक निरीक्षण कहते हैं।

प्रश्न 18.
सहभागी निरीक्षण का एक गुण बताओ।
अथवा
प्रेक्षण पद्धति का एक लाभ लिखिए।
उत्तर:
इस निरीक्षण में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले वर्ग के काफ़ी समीप आ जाता है जिससे ज्यादा सूक्ष्म अध्ययन का अवसर मिलता है।

प्रश्न 19.
सहभागी निरीक्षण का एक दोष बताओ।
उत्तर:
इसमें अनुसंधान को वैज्ञानिक के साथ-साथ समूह का सदस्य बनना पड़ता है जिससे दोनों में संतुलन रखना कठिन होता है।

प्रश्न 20.
असहभागी निरीक्षण का एक गुण बताओ।
उत्तर:
अनुसंधानकर्ता पूर्णतया वैज्ञानिक बनकर निरीक्षण करता है जिससे निरीक्षण में निष्पक्षता आ जाती है।

प्रश्न 21.
असहभागी निरीक्षण का एक दोष बताओ।
उत्तर:
पूर्णतया अलग होकर निरीक्षण करने से समूह की प्रत्येक चीज़ का निरीक्षण नहीं हो सकता जिससे सदस्यों – में बनावटीपन आ जाता है।

प्रश्न 22.
नियंत्रण कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
नियंत्रण दो प्रकार का होता है-घटना पर नियंत्रण तथा निरीक्षण कार्य पर नियंत्रण।

प्रश्न 23.
सबसे पहले सहभागी निरीक्षण शब्द का प्रयोग किसने किया था?
उत्तर:
सहभागी निरीक्षण शब्द का प्रयोग सबसे पहले Lindeman ने 1924 में अपनी पुस्तक Social Discovery में किया था चाहे विधि के रूप में इसका प्रयोग बहुत पहले ही हो चुका था।

प्रश्न 24.
निरीक्षण विधि की विशेषताएं बताओ।
उत्तर:

  1. निरीक्षण विधि एक ऐसी विधि है जिसमें व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों का प्रयोग करके सूचना इकट्ठी करता है।
  2. निरीक्षण विधि एक प्रत्यक्ष अध्ययन की विधि है जिसमें निरीक्षणकर्ता स्वयं ही अपनी आँखों का प्रयोग करके सूचना एकत्रित करता है।

प्रश्न 25.
सर्वेक्षण किसे कहते हैं?
अथवा
सर्वेक्षण पद्धति क्या है?
उत्तर:
सर्वेक्षण का अर्थ ऐसी अनुसंधान प्रणाली से है जिसमें अनुसंधानकर्ता घटनास्थल पर जाकर घटना का वैज्ञानिक निरीक्षण करता है तथा उस घटना के संबंध में खोज करता है।

प्रश्न 26.
सर्वेक्षण विधि का सबसे बड़ा लाभ क्या है?
अथवा
सर्वेक्षण पद्धति का एक लाभ लिखिए।
उत्तर:
इसमें अनुसंधानकर्ता घटना के प्रत्यक्ष संपर्क में रहता है जिससे निष्कर्षों में वैषयिकता (Objectivity) आ जाती है।

प्रश्न 27.
क्या सामाजिक सर्वेक्षण तथा सामाजिक अनुसंधान एक ही है?
उत्तर:
जी नहीं। यह दोनों एक नहीं है। सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक अनुसंधान की केवल एक विधि है।

प्रश्न 28.
सामाजिक सर्वेक्षण के कितने प्रकार होते हैं?
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण के चार प्रकार होते हैं।

प्रश्न 29.
सामाजिक सर्वेक्षण का क्या महत्त्व है?
अथवा
सर्वेक्षण प्रणाली का मुख्य लाभ बताइए।
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण से हमें व्यावहारिक सूचना प्राप्त हो जाती है तथा घटना का अच्छे ढंग से वर्णन हो जाता है।

प्रश्न 30.
सामाजिक सर्वेक्षण किस चीज़ पर जोर देता है?
उत्तर:
सा जिक सर्वेक्षण में विस्तृत अध्ययन पर बल दिया जाता है तथा समस्या के बारे में हरेक प्रकार की सूचना इकट्ठी की जाती है।

प्रश्न 31.
क्या एक अनुसंधानकर्ता सर्वेक्षण विधि का प्रयोग कर सकता है?
उत्तर:
जी नहीं, इस विधि में कई व्यक्तियों को मिल कर कार्य करना पड़ता है।

प्रश्न 32.
सामाजिक सर्वेक्षण में किन चीज़ों का अध्ययन हो सकता है?
उत्तर:
मोज़र के अनुसार सर्वेक्षण में सामाजिक घटनाओं, सामाजिक दशाओं, संबंधों अथवा व्यवहार इत्यादि का अध्ययन हो सकता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

प्रश्न 33.
मोज़र ने सामाजिक सर्वेक्षण के कितने विभाग दिए हैं?
उत्तर:
मोज़र ने सामाजिक सर्वेक्षणों के चार विभाग दिए हैं।

प्रश्न 34.
नियमित सर्वेक्षण क्या होते हैं?
उत्तर:
नियमित सर्वेक्षण वह सर्वेक्षण होते हैं जो लगातार तथा समय-समय पर होते रहते हैं।

प्रश्न 35.
विशिष्ट सर्वेक्षण क्या होते हैं?
उत्तर:
इस प्रकार के सर्वेक्षण समस्या प्रधान होते हैं जो किसी विशेष उपकल्पना के आधार पर होते हैं।

प्रश्न 36.
सर्वेक्षण का शाब्दिक अर्थ बताएं।
उत्तर:
शब्द सर्वेक्षण अंग्रेजी भाषा के शब्द Survey का हिंदी रूपांतर है। शब्द स्वयं Sur अथवा Sor तथा Veeir अथवा Veoir से मिलकर बना है। Sur का अर्थ है ऊपर तथा Veeir का अर्थ है देखना। इस तरह शब्द Survey का शाब्दिक अर्थ है किसी घटना को ऊपर से देखना अथवा बाहर से अवलोकन करना है।

प्रश्न 37.
सामान्य तथा विशिष्ट सर्वेक्षण क्या होते हैं?
उत्तर:
सामान्य सर्वेक्षण वह होते हैं जिसमें सर्वेक्षण का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता, बल्कि इसे किसी घटना के संबंध में सूचना इकट्ठी करने के लिए प्रयोग किया जाता है। विशिष्ट सर्वेक्षण किसी विशेष घटना का सर्वेक्षण ता है तथा घटना से संबंधित लोगों से संपर्क किया जाता है और निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

प्रश्न 38.
साक्षात्कार क्या है?
उत्तर:
साक्षात्कार में किसी घटना के प्रत्यक्षदर्शी से प्रभावपूर्ण तथा औपचारिक वार्तालाप और विचार-विमर्श होता है।

प्रश्न 39.
साक्षात्कार के कितने प्रकार होते हैं?
उत्तर:
साक्षात्कार में चार प्रकार होते हैं।

प्रश्न 40.
साक्षात्कार प्रदर्शिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
साक्षात्कार प्रदर्शिका एक डायरी होती है जिसकी सहायता से साक्षात्कार एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ता है तथा स्मरण शक्ति पर अधिक जोर नहीं देना पड़ता।

प्रश्न 41.
साक्षात्कार प्रदर्शिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
साक्षात्कार प्रदर्शिका एक लिखित प्रलेख होती है जिसमें साक्षात्कार की योजना का संक्षिप्त वर्णन होता है।

प्रश्न 42.
साक्षियों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
साक्षियों का चुनाव निर्देशन प्रणाली अथवा सैंपल प्रणाली की मदद से किया जाता है।

प्रश्न 43.
साक्षात्कार में सबसे पहला कार्य क्या होता है?
उत्तर:
साक्षात्कार का सबसे पहला कार्य साक्षी से संपर्क स्थापित करना होता है।

प्रश्न 44.
अन्वेषक प्रश्न क्या होते हैं?
उत्तर:
जब साक्षी अनजाने में या जान-बूझकर किसी महत्त्वपूर्ण पक्ष को छोड़ देता है तो उस पक्ष को याद दिलाने के लिए पूछे गए अन्वेषक प्रश्न होते हैं।

प्रश्न 45.
साक्षात्कार का निर्देशन कौन करता है?
उत्तर:
साक्षात्कार का निर्देशन साक्षात्कारकर्ता करता है।

प्रश्न 46.
साक्षात्कार विधि की एक सीमा बताओ।
उत्तर:
इस विधि में हमें साक्षी पर पूर्णतया निर्भर रहना पड़ता है तथा वह झूठ भी बोल सकता है।

प्रश्न 47.
साक्षात्कार विधि में साक्षात्कारकर्ता के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:
इस विधि में साक्षात्कारकर्ता के लिए चतुर होना बहुत आवश्यक है क्योंकि उसे अपने मतलब की जानकारी निकालना आना चाहिए।

प्रश्न 48.
फील्डवर्क क्या होता है?
उत्तर:
फील्डवर्क क्षेत्र में जाकर लोगों के बीच रहकर उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने की विधि है। इसमें अध्ययनकर्ता समूह के बीच जाकर रहता है, उस समूह का हिस्सा बनकर उनके बारे में जानकारी प्राप्त करता है तथा फिर अंत में निष्कर्ष निकालता है। इस प्रकार फील्डवर्क क्षेत्र में जाकर कार्य करने की एक विधि है।

प्रश्न 49.
मानव विज्ञान को सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने में सबसे बड़ा योगदान किसका था?
उत्तर:
मानव विज्ञान को सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने में सबसे बड़ा योगदान फील्डवर्क का था।

प्रश्न 50.
शुरू के मानवशास्त्री किस चीज़ के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करते थे?
उत्तर:
शुरू के मानवशास्त्री प्राचीन संस्कृतियों के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करते थे।

प्रश्न 51.
शुरू के मानवशास्त्री कहां से प्राचीन संस्कृतियों का ज्ञान इकट्ठा करते थे?
उत्तर:
शुरू के मानवशास्त्री लिखी हुई किताबों अथवा यात्रियों, मिशनरियों या साम्राज्यवादी प्रशासकों की लिखी रिपोर्टों से प्राचीन संस्कृतियों का ज्ञान इकट्ठा करते थे।

प्रश्न 52.
1920 के बाद किस चीज़ को सामाजिक मानवविज्ञान की ट्रेनिंग का अभिन्न अंग माना जाने लगा?
उत्तर:
1920 के बाद सहभागी निरीक्षण अथवा फील्डवर्क को सामाजिक मानव विज्ञान की ट्रेनिंग का अभिन्न अंग माना जाने लगा।

प्रश्न 53.
किसने फील्डवर्क को सामाजिक मानव विज्ञान में एक महत्त्वपूर्ण विधि के रूप में स्थापित किया?
उत्तर:
मैलिनोवस्की ने फील्डवर्क को सामाजिक मानव विज्ञान में एक महत्त्वपूर्ण विधि के रूप में स्थापित किया।

प्रश्न 54.
Geneology क्या होती है?
उत्तर:
Geneology उस समुदाय की जनसंख्या की संरचना के बारे में जानकारी होती है जिसका कि अध्ययन करना होता है।

प्रश्न 55.
मानवशास्त्री फील्डवर्क को कहाँ से शुरू करते हैं?
उत्तर:
मानवशास्त्री फील्डवर्क को समुदाय की जनसंख्या के बारे में जानकारी लेने से शुरू करते हैं।

प्रश्न 56.
समाजशास्त्री कहाँ पर जाकर फील्डवर्क कहते हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्री समुदाय में रहकर ही फील्डवर्क करते हैं।

प्रश्न 57.
मानवशास्त्री कहाँ पर जाकर फील्डवर्क करते हैं?
उत्तर:
मानवशास्त्री दूर जाकर कहीं जंगलों, पहाड़ों, दुर्गम क्षेत्रों में रह रहे कबीलों, आदिवासियों में जाकर फील्डवर्क करते हैं।

प्रश्न 58.
भारतीय समाजशास्त्रियों ने अधिकतर फील्डवर्क कहाँ किया है?
उत्तर:
अधिकतर भारतीय समाजशास्त्रियों ने गाँवों में जाकर, लोगों के बीच रहकर फील्डवर्क किया है तथा उनके बारे में जानकारी प्राप्त की है।

प्रश्न 59.
सर्वेक्षण में उत्तरदाता कौन होता है?
उत्तर:
जिस व्यक्ति का नाम सैंपल विधि से चुना जाता है वह उत्तरदाता होता है।

प्रश्न 60.
परियोजना कार्य में तथ्यों का संकलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
जब उत्तरदाता से सूचना एकत्र की जाती है तो इसे तथ्यों का संकलन कहा जाता है।

प्रश्न 61.
सर्वेक्षण कार्य को शीघ्रता से निपटाने के लिए आप क्या करेंगे?
उत्तर:
सर्वेक्षण कार्य को शीघ्रता से निपटाने के लिए या तो सैंपल को छोटा रखेंगे या फिर अधिक संख्या में लोगों को सूचना एकत्र करने के लिए लगाएंगे।

प्रश्न 62.
सर्वेक्षण क्षेत्र में जाकर किया जाता है। सत्य या असत्य।
उत्तर:
सर्वेक्षण क्षेत्र में जाकर किया जाता है-सत्य।

प्रश्न 63.
साक्षात्कार लेने वाले व्यक्ति को ………………… कहते हैं।
उत्तर:
साक्षात्कार लेने वाले व्यक्ति को साक्षात्कारकर्ता कहते हैं

प्रश्न 64.
परियोजना कार्य एक सैद्धांतिक कार्य है। सत्य या असत्य।
उत्तर:
परियोजना कार्य एक सैद्धांतिक काय है-सत्य।

प्रश्न 65.
वह व्यक्ति जो साक्षात्कार देता है, उसे ………………….. कहा जाता है।
उत्तर:
वह व्यक्ति जो साक्षात्कार देता है, उसे साक्षी कहते हैं।

प्रश्न 66.
साक्षात्कार पद्धति का एक लाभ लिखिए।
उत्तर:
इस पद्धति से प्रभावशाली डाटा एकत्र हो जाता है।

प्रश्न 67.
प्रेक्षण पद्धति का एक लाभ लिखिए।
उत्तर:
इससे अनुसंधानकर्ता स्वयं अपनी आँखों से घटना को देखकर आँकड़े एकत्रित करता है जिसमें गलती को गुंजाइश नहीं रहती।

प्रश्न 68.
साक्षात्कार विधि की एक कमज़ोरी बताइए।
उत्तर:
इसमें हमें सूचनादाता के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है जोकि झूठ भी बोल सकता है।

प्रश्न 69.
शोध विषय पर कार्य करने के लिए एक निर्धारित प्रश्न चुन लेने के बाद अगला कदम उपयुक्त पद्धति का चयन करना है। (सही/गलत)
उत्तर:
सही।

प्रश्न 70.
साक्षात्कार और सर्वेक्षण में एक भिन्नता लिखिए।
उत्तर:
साक्षात्कार एक व्यक्ति या कुछेक व्यक्तियों का होता है जबकि सर्वेक्षण में बहुत से लोगों की राय के बारे में पूछा जाता है।

प्रश्न 71.
सर्वेक्षण प्रणाली में हम काफ़ी बड़ी संख्या में लोगों के विचार जान सकते हैं। (सही/गलत)
उत्तर:
सही।

प्रश्न 72.
किस पद्धति में एक साथ ज्यादा लोगों को शामिल नहीं किया जा सकता?
उत्तर:
साक्षात्कार पद्धति में।

प्रश्न 73.
वह कौन-सी शोध पद्धति है, जिसके तहत हम किसी छात्र से सीधे प्रश्न पूछ सकते हैं?
उत्तर:
साक्षात्कार पद्धति।

प्रश्न 74.
वह कौन-सी प्रणाली है जिसमें 1000, 2000 या इससे भी अधिक संख्या में लोगों से प्रश्न पूछे जाते?
उत्तर:
सर्वेक्षण विधि।

प्रश्न 75.
परियोजना कार्य का एक गुण बताइए।
उत्तर:
इस विधि द्वारा निकाले गए परिणाम वास्तविक होते हैं।

प्रश्न 76.
वार्तालाप के द्वारा सूचनाएँ एकत्र करना क्या कहलाता है?
उत्तर:
साक्षात्कार।

प्रश्न 77.
बड़े पैमाने पर अध्ययन करने के लिए कौन-सी पदधति का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
सर्वेक्षण विधि।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रोजेक्ट कार्य विधि या परियोजना कार्य विधि के चार उद्देश्य बताओ।
उत्तर:

  1. विद्यार्थियों को उनके विकास करने में अवसर प्रदान करना।
  2. विद्यार्थियों को व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge) देना।
  3. विद्यार्थियों को समाज की समस्याओं तथा लोगों की मानसिकता के बारे में ज्ञान देना।
  4. विद्यार्थियों का समाज तथा उसके सदस्यों से संपर्क स्थापित करवाना।

प्रश्न 2.
परियोजना कार्य विधि के कितने तथा कौन-से चरण हैं?
उत्तर:

  1. परियोजना कार्य का आयोजन।
  2. तथ्यों अथवा सामग्री का संकलन।
  3. तथ्यों का विश्लेषण तथा निर्वाचन।
  4. तथ्यों का प्रदर्शन।

प्रश्न 3.
परियोजना कार्य विधि की रिपोर्ट तैयार करते समय कौन-सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:

  1. रिपोर्ट लिखने वाली भाषा सरल होनी चाहिए ताकि सभी को समझ आ सके।
  2. तथ्यों को तार्किक ढंग से पेश करना तथा विचारों की सरलता होनी चाहिए।
  3. तकनीकी शब्दों की स्पष्ट तथा सरल परिभाषा दी जानी चाहिए।
  4. तथ्यों को दोबारा नहीं लिखना चाहिए।
  5. आवश्यक शीर्षक, उपशीर्षक तथा आवश्यकता के अनुसार पाद टिप्पणियां भी देनी चाहिए।

प्रश्न 4.
परियोजना कार्य विधि के चार गुण बताओ।
अथवा
परियोजना कार्य के कोई दो गुण बताइए।
उत्तर:

  1. इससे विद्यार्थियों को आत्म विकास करने का अवसर प्राप्त होता है।
  2. सभी कार्यकर्ताओं या विद्यार्थियों को विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
  3. इससे कार्यकर्ताओं में सामाजिक भावना का विकास होता है।
  4. इससे कार्यकर्ताओं के सामाजिक संपर्क बढ़ते हैं।
  5. इस विधि द्वारा निकाले परिणाम वास्तविक होते हैं।

प्रश्न 5.
परियोजना कार्य के दोष बताओ।
अथवा
परियोजना कार्य के दो प्रमुख दोष बताइए।
उत्तर:

  1. इसमें ज्यादा धन की खपत होती है अर्थात् यह एक खर्चीली विधि है।
  2. हमें उचित परियोजना कार्य को ढूंढ़ने में कठिनाई होती है।
  3. इससे क्रमबद्ध अध्ययन नहीं हो सकता।
  4. इस विधि में समय बहुत ज्यादा लगता है।
  5. यह विधि स्कूलों की स्थिति के अनुसार नहीं होती।

प्रश्न 6.
निरीक्षण विधि क्या होती है?
उत्तर:
अनुसंधान के लिए वैसे तो कई विधियां प्रचलित हैं जैसे कि प्रश्नावली, साक्षात्कार इत्यादि परंतु निरीक्षण विधि सबसे प्रचलित विधि है। जब अनुसंधानकर्ता किसी सामाजिक घटना या समूह का स्वयं अपनी आँखों में अवलोकन करता है तथा संबंधित आंकड़े इकट्ठे करता है तो उस विधि को निरीक्षण विधि का नाम दिया जाता है। इसका अर्थ है कि अपनी आँखों से किए गए अवलोकन को निरीक्षण कहते हैं।

प्रश्न 7.
निरीक्षण कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
निरीक्षण दो प्रकार का होता है-

  1. सहभागी निरीक्षण
  2. असहभागी निरीक्षण
  3. अर्धसहभागी निरीक्षण।
  4. अनियंत्रित निरीक्षण
  5. नियंत्रित निरीक्षण।

प्रश्न 8.
सहभागी निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
सहभागी निरीक्षण में अनुसंधानकर्ता समूह में एक अजनबी की तरह न रहकर उसका एक अंग बनकर रहता है। यह ज़रूरी नहीं है कि वह समूह की सभी क्रियाओं में भाग ले, परंतु वह समूह में एक निरीक्षणकर्ता की हैसियत से नहीं रहता है। इस तरह वह समूह का सदस्य बन कर रहता है तथा समूह की संपूर्ण नहीं तो ज्यादातर क्रियाओं में भाग लेकर उनका निरीक्षण करता है तथा संबंधित आंकड़े इकट्ठे करता है। इससे ज्यादा सच्चे आंकड़े इकट्ठे करने में मदद मिलती है।

प्रश्न 9.
सहभागी निरीक्षण के गुण बताओ।
उत्तर:

  1. इस प्रकार के निरीक्षण में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले वर्ग के काफ़ी समीप आ जाता है। इस तरह उसे ज्यादा सूक्ष्म अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होता है।
  2. सहभागी निरीक्षण में निरीक्षणकर्ता को समूह में अलग-अलग व्यवहारों, आपसी संबंधों तथा रिवाजों को अच्छी तरह समझने की शक्ति प्राप्त होती है।
  3. जब लोगों को पता चलता है कि उनका निरीक्षण किया जा रहा है तो उनके व्यवहार में बनावटीपन आ जाता है जिससे सही सूचना प्राप्त नहीं होती है। समूह का सदस्य बन जाने से बनावटीपन खत्म हो जाता है तथा सच्ची सूचना प्राप्त होती है।

प्रश्न 10.
सहभागी निरीक्षण के दोष बताओ।
उत्तर:

  1. जब निरीक्षक का भावात्मक एकीकरण हो जाता है तो निरीक्षण की स्थूलता खत्म हो जाती है। वह अपने आपको समूह का सदस्य समझने लग जाता है जिससे उसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण खत्म हो जाता है।
  2. कई बार क्रियाओं के साथ नज़दीकी भी बाधक सिद्ध होती है। जब अनेक क्रियाओं से नज़दीकी परिचय हो जाता है तो हम उनमें से बहत को आम मानकर बिना निरीक्षण किए ही छोड़ देते हैं।
  3. कई बार लोग अपरिचित व्यक्ति के सामने या तो ज्यादा खुलकर व्यवहार करते हैं या फिर बिल्कुल ही नहीं करते हैं। इससे भी निरीक्षण में कठिनाई आ जाती है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

प्रश्न 11.
असहभागी निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
जब अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिक की भांति तटस्थ भाव से निरीक्षण करता है तो उसे असहभागी निरीक्षण कहते हैं। इस तरह के अनुसंधान में अनुसंधानकर्ता की स्थिति पूर्णतया निरीक्षक की होती है। वह समूह की क्रियाओं से अलग रह कर उनका निरीक्षण करता है। वह चाहे स्थान तथा व्यक्ति रूप से समूह में रहता है परंतु सामाजिक दृष्टि से उस समूह का अंग नहीं बन जाता तथा उससे अलग भी रहता है। वह स्वयं उनसे खेलने नहीं लग जाता बल्कि दूर रहकर निरीक्षण करता है तथा आंकड़े इकट्ठे करता है।

प्रश्न 12.
अर्धसहभागी निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
सामाजिक समूह के निरीक्षण में असहभागी निरीक्षण संभव नहीं है। ऐसी स्थिति की कल्पना काफ़ी कठिन होती है जब अनुसंधानकर्ता हर समय मौजूद रहता है परंतु समूह की क्रियाओं में भाग न लेता हो। साथ ही पूर्ण सहभागी निरीक्षण भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उचित नहीं होता। इसलिए विद्वानों ने एक बीच की स्थिति की कल्पना की है जिसमें अनुसंधानकर्ता कुछ साधारण कार्यों में ही भाग लेता है परंतु ज्यादातर वह तटस्थ भाव से समूह का अध्ययन करता है। इस तरह वह समूह का सदस्य भी बन जाता है तथा एक वैज्ञानिक भी रहता है। यदि उचित रीति पालन किया जाए तो इस प्रणाली में सहभागी तथा असहभागी दोनों ही प्रणालियों के लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

प्रश्न 13.
अनियंत्रित निरीक्षण क्या हो सकता है?
उत्तर:
जब हम किसी घटना को उसके स्वाभाविक रूप में और स्वाभाविक स्थान पर निरीक्षण करते हैं तो उसे अनियंत्रित निरीक्षण कहते हैं। इस प्रकार के निरीक्षण में घटना या निरीक्षणकर्ता पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता। यह निरीक्षण प्रणाली का शुरुआती रूप है। विज्ञान के आरंभिक काल में वैज्ञानिकों ने स्वाभाविक रूप से घटनाओं का निरीक्षण करके ही नतीजे निकाले। इस तरह जब घटना को स्वाभाविक स्थल पर निरीक्षण किया जाए तो अनियंत्रित निरीक्षण कहा जाता है।

प्रश्न 14.
नियंत्रित निरीक्षण क्या होता है?
उत्तर:
समाज विज्ञान में प्रगति के साथ अब इसकी विधियों में भी सुधार हो गया है। अब निरीक्षण नियंत्रित भी हो सकता है। नियंत्रण दो प्रकार का होता है-घटना पर नियंत्रण तथा निरीक्षण कार्य पर नियंत्रण। जब घटना कृत्रिम रूप से घटित की जाती है तथा उसका अध्ययन किया जाता है तो उसे घटना पर नियंत्रण कहते हैं। कई बार घटना कृत्रिम रूप से घटित नहीं हो सकती तो निरीक्षणकर्ता अपने आप पर नियंत्रण रखकर निरीक्षण कर सकता है ताकि निरीक्षण सही तरीके से हो सके। इसके लिए निरीक्षण की योजना बनाकर, यंत्रों का प्रयोग करके गलतियों को दूर किया जाता है।

प्रश्न 15.
अंतिम तथा आवृत्तिपूर्ण सर्वेक्षण क्या होते हैं?
उत्तर:
कुछ सर्वेक्षणों में बार-बार सूचना इकट्ठी नहीं करनी पड़ती। एक बार इकट्ठी की गई सूचना के आधार पर निष्कर्ष निकाल दिए जाते हैं तथा सर्वेक्षण खत्म हो जाते हैं। उसे अंतिम सर्वेक्षण कहते हैं। आवृत्तिपूर्ण सर्वेक्षण में सूचना बार-बार एकत्र की जाती है तथा उस बार-बार एकत्र की की गई सूचना के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। यह प्रायोगिक विधि में प्रयोग होते हैं।

प्रश्न 16.
सर्वेक्षण की प्रक्रिया के कितने भाग होते हैं?
उत्तर:
इसके 8 भाग होते हैं जो इस प्रकार हैं-

  • सर्वेक्षण का उद्देश्य
  • सूचना प्राप्त करने के स्रोत का निर्धारण करना
  • सर्वेक्षण के प्रकार, इकाइयों इत्यादि का निर्धारण करना
  • प्रश्नावली तथा अनुसूची का निर्माण करना
  • इकट्ठी की गई सामग्री का संपादन करना
  • इकट्ठी की गई सूचना का वर्गीकरण तथा सारणीकरण करना
  • सूचना का विश्लेषण करना
  • सूचना का निर्वाचन करना तथा अंतिम रिपोर्ट तैयार करना।

प्रश्न 17.
सर्वेक्षण विधि क्या होती है?
उत्तर:
सर्वेक्षण विधि को सामाजिक अनुसंधानों में एक विशेष विधि के तौर पर प्रयोग किया जाता है। सर्वेक्षण से अर्थ ऐसी अनुसंधान प्रणाली से है जिसमें अनुसंधानकर्ता घटना के घटनास्थल पर जाकर किसी विशेष घटना का वैज्ञानिक तरीके से निरीक्षण करता है तथा उस घटना के संबंध में खोज करता है। इस विधि में अनुसंधानकर्ता घटना के प्रत्यक्ष संपर्क में आता है तथा उसके निष्कर्षों में ज्यादा वैषयिकता रहती है।

प्रश्न 18.
सर्वेक्षण विधि की दो परिभाषाएं दें।
उत्तर:
मोज़र (Moser) के अनुसार, “समाजशास्त्री के लिए सर्वेक्षण क्षेत्र का अनुसंधान करने, अध्ययन के विषय से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से संबंधित आंकड़े एकत्र करने का ऐसा अति उपयोगी साधन है जिससे समस्या पर प्रकाश पड़ सके।” मोर्स (Morse) के अनुसार, “संक्षेप में सर्वेक्षण किसी प्रस्तुत सामाजिक परिस्थिति, समस्या अथवा जनसंख्या के विशिष्ट उद्देश्यों के लिए वैज्ञानिक तथा क्रमबद्ध रूप में की गई विवेचना की विधि मात्र है।”

प्रश्न 19.
सर्वेक्षण विधि के कौन-से उद्देश्य होते हैं?
उत्तर:

  • सर्वेक्षण विधि में व्यक्ति घटना के संपर्क में प्रत्यक्ष रूप से आता है जिससे उसे व्यावहारिक सूचना प्राप्त हो जाती है।
  • इस विधि के प्रयोग से समाज में बने पहले सिद्धांतों की परीक्षा भी हो जाती है।
  • इस विधि से पहले से बनाई हुई उपकल्पना की परीक्षा भी हो जाती है।
  • इस विधि की मद से सामाजिक घटना का वर्णन आसानी से हो जाता है क्योंकि अनुसंधानकर्ता घटना में प्रत्यक्ष संपर्क में आता है तथा घटना के बारे में संपूर्ण जानकारी प्राप्त करता है।

प्रश्न 20.
मोज़र ने सामाजिक सर्वेक्षणों के कितने विभाग दिए हैं?
उत्तर:
मोज़र ने सामाजिक सर्वेक्षणों के चार विभाग दिए हैं-

  • जनसंख्यात्मक विशेषताएं
  • सामाजिक पर्यावरण
  • सामाजिक क्रियाएं
  • विचार तथा प्रवृत्तियां।

प्रश्न 21.
सर्वेक्षण प्रणाली के गुण बताओ।
उत्तर:

  • सर्वेक्षण विधि में अनुसंधानकर्ता घटना के सीधे संपर्क में आ जाता है तथा उसे उस घटना से संबंधित सभी चीजों, व्यक्तियों का ज्ञान हो जाता है।
  • इस विधि में कोई व्यक्तिगत ग़लती आने की संभावना नहीं होती क्योंकि जो कुछ भी वह प्रत्यक्ष रूप से देखता है उसको ही नोट करता है तथा अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ता है।
  • सर्वेक्षण विधि वैज्ञानिक विधि के बहुत ज्यादा नज़दीक है क्योंकि इसमें उसे घटना को उसके स्वाभाविक स्थल पर जाकर निरीक्षण करना पड़ता है।

प्रश्न 22.
सर्वेक्षण विधि की सीमाएं बताओ।
उत्तर:

  • इसके लिए घटना का आंखों के सामने घटित होना आवश्यक है, परंतु आमतौर पर सामाजिक घटनाएं इस प्रकार का मौका नहीं देती हैं।
  • इसके द्वारा संपूर्ण समाज का निरीक्षण संभव नहीं है। हम समाज के सिर्फ एक भाग का ही अवलोकन कर सकते हैं।
  • सर्वेक्षण आमतौर पर असंबंधित तथा बिखरे हुए होते हैं। उनसे उस समय तक किसी सिद्धांत का निर्माण नहीं हो सकता जब तक उन्हें किसी निश्चित योजना के अनुसार न किया गया हो।

प्रश्न 23.
सामाजिक सर्वेक्षण तथा सामाजिक अनुसंधान में तीन अंतर बताओ।
उत्तर:

  • सामाजिक सर्वेक्षण विशेष व्यक्तियों, समस्याओं तथा हालातों से संबंधित होते हैं, अनुसंधान सामान्य तथा अमूर्त समस्याओं से संबंधित होते हैं।
  • सामाजिक सर्वेक्षणों का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन में सुधार करके उसे उन्नति के मार्ग पर चलाना होता है परंतु सामाजिक अनुसंधान का उद्देश्य मनुष्य के ज्ञान में बढ़ोत्तरी करना तथा अनुसंधान के तरीकों में सुधार करना होता है।
  • सामाजिक सर्वेक्षणों के निष्कर्षों से सामाजिक सुधार करने के तरीके पता किए जा सकते हैं, परंतु सामाजिक अनुसंधान से पुराने सिद्धांतों को सुधारा जाता है या नए सिद्धांतों का निर्माण होता है।

प्रश्न 24.
साक्षात्कार विधि क्या होती है?
उत्तर:
साक्षात्कार का अर्थ उन व्यक्तियों से है जो प्रभावपूर्ण तथा औपचारिक वार्तालाप एवं विचार-विमर्श करने से होता है जो किसी विशेष घटना से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होता है। यह वार्तालाप तथा विचार-विमर्श किसी विशेष उद्देश्य के लिए होता है। परंतु वह पूर्व नियोजित होता है तथा किसी निश्चित क्षेत्र तक ही सीमित होता है। विचार विमर्श एक अच्छे वातावरण में होता है। जिसमें साक्षी अपने दिल की बात खुलकर करता है।

प्रश्न 25.
साक्षात्कार के दो उद्देश्य बताएं।
उत्तर:

  • साक्षात्कार का पहला उद्देश्य संबंधित व्यक्ति से सूचना प्राप्त करना होता है जो किसी और साधन से प्राप्त न की जा सके। इसके लिए साक्षात्कारकर्ता एक विषय चुन लेता है तथा साक्षी उसके बारे में वर्णन करता है।
  • साक्षात्कार का दूसरा उद्देश्य इस बात का पता करना है कि कोई विशेष व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति में किस प्रकार का व्यवहार करता है। इसके लिए साक्षात्कार के समय साक्षी के हाव-भाव हार का भी ध्यान रखता है।

प्रश्न 26.
साक्षात्कार के कितने प्रकार होते हैं?
उत्तर:
साक्षात्कार के चार प्रकार होते हैं-

  • नियंत्रित साक्षात्कार
  • अनियंत्रित साक्षात्कार
  • केंद्रित साक्षात्कार
  • आवृत्तिपूर्ण साक्षात्कार।

प्रश्न 27.
नियंत्रित साक्षात्कार क्या होता है?
उत्तर:
इस प्रकार के साक्षात्कार में अनुसूची का प्रयोग किया जाता है। इसमें शुरू से लेकर अंत तक सभी क्रियाएं निश्चित होती हैं तथा साक्षात्कारकर्ता पूर्व नियोजित क्रम के अनुसार चलता है। अनुसूची में प्रश्न दिए होते हैं तथा साक्षात्कारकर्ता उनको पूछता है तथा जानकारी प्राप्त करता है। वह उत्तरों को नोट कर लेता है। इस प्रकार का साक्षात्कार आम तौर पर प्रश्न उत्तर के रूप में होता है। इसे निर्देशित या नियोजित साक्षात्कार भी कहा जाता है।

प्रश्न 28.
अनियंत्रित साक्षात्कार क्या होता है?
उत्तर:
इस प्रकार के साक्षात्कार में निश्चित प्रश्न नहीं होते बल्कि साक्षी को एक विषय दे दिया जाता है तथा उसे विषय के बारे में बोलने को कहा जाता है। साक्षी उस विषय के बारे में सभी घटनाओं प्रतिक्रियाओं को एक कहानी के रूप में वर्णन करता है। यह नियंत्रित नहीं होता बल्कि साक्षी खुल कर अपने दिल की बात करता है। यह एक स्वतंत्र वार्तालाप के रूप में होता है। साक्षात्कार अंत में उस घटना के बारे में कोई प्रश्न पूछ सकता है। इसको मुक्त स्वतंत्र या कहानी टाइप साक्षात्कार कहते हैं।

प्रश्न 29.
केंद्रित टाइप साक्षात्कार क्या होता है?
उत्तर:
इस प्रकार के साक्षात्कार को किसी फिल्म या रेडियो के प्रोग्राम के प्रभाव को जानने के लिए किया जाता है। इससे यह ज़रूरी है कि साक्षी अनुसंधान के विषय की निश्चित परिस्थिति से संबंध रख चुका हो। साक्षी उस घटना से संबंधित भावनाओं, विचारों इत्यादि आदि का वर्णन करता है। यह भी एक स्वतंत्र वर्णन के रूप में होता है तथा साक्षी घटना का वर्णन करने के लिए स्वतंत्र होता है। यह एक स्वतंत्र साक्षात्कार के समान होता है।

प्रश्न 30.
आवृत्तिपूर्ण साक्षात्कार क्या होता है?
उत्तर:
इस प्रकार के साक्षात्कार को उस समय प्रयोग किया जाता है जब किसी सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया द्वारा पड़ने वाले क्रमिक प्रभाव का अध्ययन करना होता है। इसके लिए सिर्फ एक बार ही साक्षात्कार करने से काम नहीं चलता बल्कि बार-बार साक्षात्कार लिया जाता है ताकि समय बीतने के साथ उस प्रक्रिया के पड़ने वाले प्रभाव को जाना जा सके। प्रभाव ज्यादा समय में पड़ता है इसलिए साक्षात्कार कुछ समय बाद फिर साक्षात्कार लिया जाता है। जैसे किसी गांव में सड़क बनाने के गांव पर क्या प्रभाव पड़े। इस तरह बार-बार साक्षात्कार लेने को आवृत्तिपूर्ण साक्षात्कार कहते हैं।

प्रश्न 31.
साक्षात्कार प्रदर्शिका क्या होती है?
उत्तर:
साक्षात्कार प्रदर्शिका एक लिखित प्रलेख होता है जिसमें साक्षात्कार की योजना का संक्षिप्त वर्णन होता है। इसमें साक्षात्कार की विधि, संबंधित विषय तथा विशेष परिस्थितियों के लिए ज़रूरी निर्देश दिए होते हैं। इसमें विभिन्न इकाइयों की परिभाषाएं तथा अर्थ भी दिए होते हैं ताकि इकाइयों को समझने में विभिन्नता न आए। इस तरह साक्षात्कार प्रदर्शिका में साक्षात्कार से संबंधित दिशा निर्देश तथा विषय से संबंधित ज्ञान होता है ताकि साक्षात्कार करते समय साक्षात्कारकर्ता कहीं भटक न जाए।

प्रश्न 32.
साक्षात्कार प्रदर्शिका का क्या महत्त्व है?
अथवा
साक्षात्कार का मुख्य लाभ बताइए।
उत्तर:

  1. साक्षात्कार प्रदर्शिका के होने से संबंधित समस्या के किसी पहलू के छूट जाने की संभावना नहीं होती जोकि वर्णन विधि में हो सकती है।
  2. इसकी मदद से साक्षात्कारकर्ता को अपने दिमाग पर जोर नहीं देना पड़ता क्योंकि सारा कुछ ही लिखा हुआ होता है। इसके न होने से कोई महत्त्वपूर्ण पहलू छूट भी सकता है।
  3. इसकी मदद से अलग-अलग लोगों द्वारा साक्षात्कार करने में एकरूपता रहती है तथा प्राप्त सूचना की तुलना की जा सकती है।

प्रश्न 33.
साक्षात्कार विधि के तीन गुण बताएं।
उत्तर:

  1. यह विधि उन घटनाओं का अध्ययन करने में भी सक्षम है जो प्रत्यक्ष अवलोकन के अयोग्य हैं तथा जिनके बारे में साक्षी के अलावा किसी और को पता नहीं है।
  2. यह विधि अमूर्त स्थितियों जैसे विचार, भावनाओं और प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए बहुत बढ़िया है क्योंकि सभी तथ्यों का प्रत्यक्ष अवलोकन नहीं हो सकता।
  3. इस विधि की मदद से भूतकाल में हुई घटनाओं तथा उनके प्रभावों का अध्ययन भी हो सकता है क्योंकि बहुत-सी घटनाएं ऐसी होती हैं जो दोबारा नहीं हो सकतीं।
  4. यह अनुसंधान की सबसे लचीली विधि है क्योंकि इसमें साक्षात्कारकर्ता अपनी मर्जी से विधि में हेर-फेर कर सकता है जिसका कोई नुकसान भी नहीं होता है।

प्रश्न 34.
साक्षात्कार विधि की तीन सीमाएं बताएं।
उत्तर:

  1. सबसे पहली सीमा इस विधि में यह होती है कि साक्षी को साक्षात्कार के लिए राजी करना बहुत मुश्किल होता है। अगर वह राज़ी न हुआ तो अनुसंधान ही नहीं हो पाएगा।
  2. इसमें साक्षात्कारकर्ता का चतुर होना बहुत ज़रूरी है ताकि अपने मतलब की जानकारी निकाली जा सके। अगर वह चतुर न हुआ तो वह साक्षी द्वारा बोले गए झूठ को पकड़ नहीं पाएगा तथा अनुसंधान में ग़लती पैदा हो जाएगी।
  3. यह विधि भावनाओं से काफी ज्यादा प्रभावित होती है क्योंकि इसमें बताया गया वर्णन प्रमाणित नहीं हो सकता तथा लोग अपनी मर्जी से घटना का वर्णन करते हैं। यह एक तरफा भी हो सकता है।
  4. इस प्रकार के वर्णन से वर्गीकरण तथा समीकरण में भी कठिनाई आती है।

प्रश्न 35.
सामाजिक मानवशास्त्री कहां से फील्ड फर्क की शुरुआत करते हैं?
अथवा
सहभागी प्रेक्षण के दौरान समाजशास्त्री और नृजातिविज्ञानी क्या कार्य करते हैं?
उत्तर:
मानवशास्त्री अथवा अध्ययनकर्ता फील्ड फर्क की शुरुआत करते हैं। उस समुदाय की जनसंख्या के बारे में जानने से जिसका कि वह अध्ययन करने जा रहे हैं। वह उस समुदाय में रहने वाले लोगों की एक लंबी चौड़ी लिस्ट बनाते हैं, उनके लिंग, उम्र, परिवार इत्यादि के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। फिर उनके घरों के बारे में भी जानकारी प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 36.
Geneology क्या होती है?
उत्तर:
Geneology एक विस्तृत परिवार के वृक्ष का चित्र होता है जिस में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारिवारिक रिश्तों की जानकारी होती है। इस तरह हम कह सकते हैं कि Geneology किसी विस्तृत परिवार का वृक्ष समान चित्र होता है जिससे हमें उस परिवार के रक्त संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें ∆ से मर्द को तथा O से स्त्री को दर्शाता जाता है। उदाहरण के तौर पर
HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव 1

प्रश्न 37.
Geneology का मानवशास्त्री के लिए क्या महत्त्व है?
उत्तर:
Geneology का मानवशास्त्री के लिए बहुत महत्त्व है। इसके चित्र से अध्ययनकर्ता को परिवार के बारे में, उसकी जनसंख्या के बारे में, परिवार में पाए जाने वाले रिश्तों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। अगर उसमें परिवार के सदस्यों की तस्वीरें हों तो उन सबके बारे में आसानी से जानकारी प्राप्त हो जाती है तथा उस परिवार के बारे में जानकारी प्राप्त करने में आसानी होती है।

प्रश्न 38.
जानकारी देने वाला या Informant या Principal Informant या Native Informant कौन होता है?
उत्तर:
Informant वह व्यक्ति होता है जो अध्ययनकर्ता को उस क्षेत्र, समुदाय के बारे में हरेक प्रकार की जानकारी देता है जिसका कि अध्ययन करना है। Informent मानव शास्त्री के अध्यापक के रूप में कार्य करता है तथा पूरे फील्डवर्क में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसे native informant भी कहते हैं तथा उसे समुद’ के बारे में प्रत्येक प्रकार की जानकारी होती है।

प्रश्न 39.
समाजशास्त्र तथा मानवशास्त्र में फील्डवर्क में क्या अंतर है?
उत्तर:

  1. समाजशास्त्र में अध्ययनकर्ता को अपना समूह छोड़कर नहीं जाना पड़ता बल्कि वह समूह में रहकर ही फील्डवर्क करता है परंतु मानवशास्त्री अपने समुदाय से दूर किसी दुर्गम क्षेत्र में जाकर फील्डवर्क करता है।
  2. समाजशास्त्री हरेक प्रकार के समुदाय में जाकर फील्डवर्क करता है परंतु मानवशास्त्री सिर्फ प्राचीन संस्कृतियों वाले समूहों में जाकर फील्डवर्क करता है।
  3. समाजशास्त्री को उन समुदायों में जाकर रहने की ज़रूरत नहीं होती बल्कि अध्ययन होने वाले समूहों के साथ अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की ज़रूरत होती है परंतु मानवशास्त्री को उन समुदायों में जाकर रहना पड़ता है।

प्रश्न 40.
समाजशास्त्र में फील्डवर्क में क्या मुश्किलें आती हैं?
उत्तर:

  1. समाजशास्त्री को अपने समुदाय में रह कर ही फील्डवर्क करना पड़ता है तथा उसके समुदाय के व्यक्ति पढ़े-लिखे होते हैं। उनमें से कुछ व्यक्ति उसके अनुसंधान कार्य ही रिपोर्ट पढ़ सकते हैं जिससे फील्डवर्क में बाधा आ सकती है।
  2. जब लोगों को पता चलेगा कि उनके बीच रह कर ही कोई उ का ही निरीक्षण कर रहा है तो उनके व्यवहार में बनावटीपन आ जाता है जिससे फील्डवर्क में मुस्किलें आ सकती हैं।
  3. जब व्यक्ति अपने ही समुदाय का निरीक्षण करता है तो लोगों को उसके कार्य के बारे में पता होता है। इस पता होने के कारण निरीक्षण में अभिनति आ सकती है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
परियोजना कार्य विधि अथवा प्रोजैक्ट कार्य से क्या अभिप्राय है? परिभाषाओं सहित स्पष्ट करो।
अथवा
परियोजना कार्य की कोई एक परिभाषा दीजिए।
अथवा
परियोजना कार्य का संक्षिप्त वर्णन करें।
अथवा
परियोजना कार्य क्या है?
अथवा
परियोजना कार्य की सविस्तार सहित व्याख्या कीजिए।
अथवा
परियोजना कार्य पर निबंध लिखिए।
उत्तर:
समाज शास्त्र में होने वाले अनुसंधानों में तथ्यों को इकट्ठा करने के लिए बहुत सारी विधियों का प्रयोग किया जाता है तथा उन तथ्यों के आधार पर कई निष्कर्ष निकाले जाते हैं। समाज शास्त्र की नज़र से इसलिए परियोजना कार्य की धारणा बहुत महत्त्वपूर्ण तथा विस्तृत है। इस परियोजना कार्य के अंतर्गत किसी भी सामाजिक समस्या की प्रकृति को जानने के लिए अध्ययनकर्ता स्वयं ही संबंधित क्षेत्र में जाता है तथा वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करके तथ्यों को एकत्र करता है।

तथ्यों को इकट्ठा करने के बाद तथ्यों का एक निश्चित क्रम में निरीक्षण, वर्गीकरण तथा परीक्षण किया जाता है ताकि निष्कर्ष निकाले जा सकें। इसके लिए सामाजिक सर्वेक्षण विधि के अनुसार कार्य किया जाता है जोकि सामाजिक विज्ञानों में अध्ययन करने की एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है। इस विधि में वैज्ञानिकता के आधार पर सामाजिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। परियोजना कार्य में हमें उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है। इसका आखिरी उद्देश्य भी उपयोगितावादी होता है।

किलपैट्रिक (W.H. Kilpatric) को इस विधि का जन्मदाता माना जाता है। परियोजना को योजना अथवा प्रोजैक्ट भी कहा जाता है जो कि वास्तविक सामाजिक परिवेश में नया ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त करने का एक ढंग है। इसका मुख्य लक्ष्य व्यावहारिक स्तर पर ज्ञान प्राप्त करना है। परियोजना कार्य, दो शब्दों ‘परियोजना’ तथा ‘कार्य’ से मिलकर बना है। ‘परियोजना’ का अर्थ है ‘योजना’ तथा कार्य का अर्थ है कार्य प्रणाली अथवा विधि है। इस तरह परियोजना कार्य का शाब्दिक अर्थ है योजना की कार्य प्रणाली। किलपैट्रिक (Kilpatric) के अनुसार, “परियोजना वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाता है।”

प्रो० स्टीवेन्सन (Prof. Stevanson) के अनुसार, “परियोजना एक समस्यामूलक कार्य है, जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्णता प्राप्त करना है।” बेलार्ड (Ballard) के अनुसार, “परियोजना वास्तविक जीवन का एक भाग है जिसका प्रयोग विद्यालय में किया जाता है।”

इस तरह इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि परियोजना कार्य ज्ञान प्राप्त करने का एक ढंग है जिससे व्यक्ति को व्यावहारिक ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है। इसमें अध्ययनकर्ता किसी सामाजिक समस्या को लेता है तथा उसका सर्वेक्षण करता है। इस सर्वेक्षण के बीच तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है तथा उन तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इसमें अंत में कार्यकर्ताओं द्वारा अध्ययनकर्ता के निर्देशन के अंदर रिपोर्ट तैयार की जाती है। इसम् विद्यार्थी अथवा अध्ययनकर्ता स्वयं ही क्षेत्र में जाकर तथ्य इकट्ठे करता है जिससे उसे सामाजिक परिवेश का ज्ञान तथा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है और समस्या के बारे में उसे संपूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 2.
परियोजना कार्य के कितने स्तर हैं? उनका विस्तार से वर्णन करो।
अथवा
परियोजना कार्य का आयोजन कैसे किया जाता है? व्याख्या करें।
अथवा
परियोजना कार्य का सविस्तार वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किसी भी कार्य को करने के लिए सबसे पहला कार्य होता है उस कार्य से संबंधित योज ।। नाना क्योंकि अगर हम बिना किसी योजना के कार्य करना शुरू कर देंगे तो हमें बहुत ज्यादा परिश्रम व्यर्थ ही करना पड़ेगा तथा समय भी ज्यादा लगेगा। योजना बनाने से समय, धन तथा परिश्रम की बचत होती है तथा कार्य भी जल्दी हो जाता है। परियोजना कार्य की संपूर्ण प्रक्रिया चार चरणों से होकर गुज़रती है जोकि निम्नलिखित हैं:

  • परियोजना कार्य का आयोजन (Planning of Project Work)
  • तथ्यों का संकलन (Collection of data or facts)
  • तथ्यों का विश्लेषण व निर्वाचन (Analysis and interpretation of facts)
  • तथ्यों का प्रदर्शन (Presentation of data)।

अब हम इनका वर्णन विस्तार से करेंगे :
1. परियोजना कार्य का आयोजन (Planning of Project Work)-परियोजना कार्य के आयोजन के कई स्तर होते हैं तथा उन स्तरों का वर्णन इस प्रकार है :
(i) समस्या का चुनाव (Selection the Problem)-किसी भी परियोजना को शुरू करने का सबसे पहला कार्य होता है समस्या का चुनाव करना। किस समस्या का अध्ययन करना है तथा किस समस्या के बारे में तथ्य इकट्ठे करने हैं। समस्या का चुनाव करने में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

  • ऐसी समस्या का चुनाव करना चाहिए जिसमें अध्ययनकर्ता की रुचि हो ताकि वह ज्यादा परिश्रम से काम कर सके।
  • अध्ययनकर्ता को उस समस्या तथा उससे संबंधित अन्य पक्षों का पहले से ही ज्ञान होना चाहिए ताकि परियोजना कार्य अच्छी तरह हो सके।
  • समस्या को चुनते समय उद्देश्य को भी ध्यान में रखना चाहिए।
  • विषय का चुनाव साधनों की सीमा के अंदर ही होना चाहिए।

(ii) लक्ष्य का निर्धारण (Determination of Objective)-आयोजन के दूसरे स्तर पर आता है लक्ष्य निर्धारण। जब लक्ष्य निर्धारित हो जाता है तो उसमें प्रयोग होने वाली पद्धतियों तकनीकों के बारे में सोचा जा सकता है। उद्देश्य या लक्ष्य को निर्धारित करने से Design of Survey आसानी से बनाया जा सकता है।

(iii) सर्वेक्षण का संगठन (Organization)-समस्या तथा लक्ष्य को निर्धारित करने के बाद उस कार्य के लिए उचित संगठन बनाए जाने की आवश्यकता होती है। संगठन के लिए एक सर्वेक्षण समिति को बनाया जाता है जिसमें सर्वेक्षण के निर्देशक, प्रमुख सर्वेक्षक इत्यादि होते हैं। इस संगठन बनाने से उद्देश्य प्राप्त करने में आसानी होती है तथा एकरूपता आती है।

(iv) अध्ययन क्षेत्र को परिसीमित करना (Delimitation of the field of study)-अगर अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन में वस्तुनिष्ठता (Objectivity) लाना चाहता है तो उसके लिए यह ज़रूरी है कि वह सभी तथ्यों को एकत्रित न करे बल्कि सिर्फ उन्हीं तथ्यों को एकत्रित करे जो उसके अध्ययन के लिए जरूरी हैं। यह जरूरी नहीं कि सभी तथ्य उसके अध्ययन से संबंधित हों। इसलिए उसको अपने अध्ययन क्षेत्र को परिसीमित करना चाहिए।

(v) प्रारंभिक तैयारियां (Preliminary Preparations)-अध्ययनकर्ता ने अध्ययन करने के लिए सर्वेक्षण के संबंध में कुछ प्रारंभिक तैयारियां भी रखी होती हैं जैसे सर्वेक्षण से संबंधित विषयों का ज्ञान प्राप्त करना, विशेषज्ञों से मिलना, अध्ययन में आने वाली मुश्किलों के बारे में सोचना, लोगों से अनौपचारिक बातचीत करना।

(vi) सैंपल का चुनाव (Selection of Sample)-अगर अध्ययन करने वाली इकाइयों के सैंपल का चुनाव सही या गलत है तो यह भी अध्ययन को प्रभावित कर सकता है। सैंपल का सही चुनाव अध्ययनकर्ता की बुद्धिमता पर निर्भर करता है। सर्वेक्षण की सफलता असफलता सैंपल के चुनाव पर निर्भर करती है क्योंकि सैंपल का चुनाव करने से सर्वेक्षण का क्षेत्र सीमित हो जाता है, धन, समय तथा परिश्रम की बचत होती है। अध्ययनकर्ता अपने समय को और चीजों पर केंद्रित कर सकता है।

(vii) बजट बनाना (Preparation of Budget)-अगला स्तर होता है बजट बनाने का जोकि सर्वेक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। अगर सर्वेक्षण को सुचारु रूप से चलाना है तो एक संतुलित बजट की ज़रूरत होती है। बजट को अपने सर्वेक्षण तथा साधनों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है नहीं तो सर्वेक्षण बीच में ही रुक जाता है।

(viii) समय सूची का बनाना (Preparation of Time Schedule)-सर्वेक्षण में समय का निर्धारण बहुत ज़रूरी है क्योंकि ज्यादा समय सर्वेक्षण की उपयोगिता को खराब कर सकता है। समय सूची सर्वेक्षण की प्रकृति सर्वेक्षण के उद्देश्य तथा सर्वेक्षण में लगे कार्यकर्ताओं की संख्या पर निर्भर करता है।

(ix) अध्ययन पद्धतियों का चुनाव (Selection of the Methods of Study)-परियोजना कार्य में अध्ययन पद्धतियां हमेशा समय, धन, सर्वेक्षण की प्रकृति, कार्यकर्ताओं को ध्यान में रख कर चुनी जाती हैं। अलग-अलग विषयों में अलग-अलग पद्धतियों को प्रयोग किया जाता है। एक ही सर्वेक्षण में दो पद्धतियां भी प्रयोग की जा सकती हैं, परंतु इनका चुनाव पहले से ही होना चाहिए।

(x) अध्ययन में यंत्रों का निर्माण (Preperation of study tools)-किसी भी सर्वेक्षण कार्य के सफल-असफल होने में उसमें प्रयोग होने वाले यंत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। प्रश्नावली, साक्षात्कार, अनुसूची, अवलोकन इत्यादि जैसे यंत्रों को सावधानी से तैयार करना चाहिए नहीं तो सर्वेक्षण असफल हो जाएगा। इसलिए सर्वेक्षण की सफलता के लिए यंत्रों का ही निर्माण होना जरूरी होता है।

(xi) कार्यकर्ताओं का चुनाव तथा प्रशिक्षण (Selection and training of field workers)-क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का चुनाव तथा प्रशिक्षण भी सर्वेक्षण को प्रभावित करता है। यंत्रों के निर्माण के साथ-साथ ईमानदार तथा निष्ठावान कार्यकर्ताओं का चुनाव करना चाहिए। उनको प्रशिक्षण भी देना चाहिए ताकि अध्ययन कार्य में एकरूपता तथा वैषयिकता लाई जा सके।

(xii) पूर्व परीक्षण तथा पूर्वगामी सर्वेक्षण (Pretesting and Pilot study)-यह भी सर्वेक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। पूर्व परीक्षण से हमें प्रयोग किए जाने वाले यंत्रों की उपयोगिता का पता चलता है। पूर्वगामी सर्वेक्षण से हमें सर्वेक्षण में आने वाली कठिनाइयों का पता चल जाता है। इस तरह पूर्व परीक्षण तथा पूर्वगामी सर्वेक्षण से अध्ययन की कमियों का पता चल जाता है तथा उन्हें समय रहते ही सुधारा जा सकता है।

(xiii) समुदाय को परियोजना कार्य के लिए तैयार करना (To prepare community for project)-सर्वेक्षण कार्य को शुरू करने से पहले समाचार-पत्रों, रेडियो, प्रचार के माध्यमों से लोगों को सर्वेक्षण के लिए तैयार करना तथा सर्वेक्षण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना बहुत ज़रूरी होता है ताकि लोग मानसिक रूप से सर्वेक्षण में सहयोग देने को तैयार हो सके।

2. तथ्यों का संकलन-तथ्यों का संकलन कार्य क्षेत्र में होता है तथा इसमें लोगों से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित करना पड़ता है ताकि उनसे प्रश्न पूछ कर तथ्य इकट्ठे किए जा सके। यह कार्य बहुत सावधानी भरा है तथा इसमें निम्नलिखित स्तरों से गुजरना पड़ता है

  • सबसे पहले सैंपल में आए सूचनादाताओं से संपर्क स्थापित करना पड़ता है।
  • फिर सूचनादाताओं से प्रश्न पूछ कर सूचना एकत्रित की जाती है।
  • परियोजना कार्य में लगे कार्यकर्ताओं की देख-रेख करना ताकि वह अपना कार्य-निष्ठा तथा ईमानदारी से कर सकें।

3. तथ्यों का विश्लेषण तथा निर्वचन (Analysis and Interpretation of Data)-तथ्यों को इकट्ठे करने के बाद का स्तर है उनका विश्लेषण तथा निर्वचन। इसके लिए तीन निम्नलिखित चरण हैं-
(i) तथ्यों को तोलना (Weighting of data)-हरेक सर्वेक्षण में कुछ कसौटियां रखी जाती हैं जिन पर इन तथ्यों को रखकर परखा जाता है तथा उनके सही या ग़लत होने का पता लगाया जाता है।

(ii) संपादन (Editing)-अगला स्तर है तथ्यों का संपादन करना। सबसे पहले यह देखा जाता है कि हरेक तरफ से सूचना आ गई है या नहीं इसके बाद उत्तरों की जांच की जाती है ताकि कोई उत्तर भरने से रह न गया हो। इसके साथ गैर ज़रूरी तथ्यों को हटा दिया जाता है तथा एक जैसे तथ्यों को कोड नंबर दे दिया जाता है। कोड के लिए कोई संख्या इत्यादि को रखा जाता है।

(iii) वर्गीकरण तथा सारणीयन (Classification and Tabulation)-जब तथ्यों का संपादन हो जाता है तो तथ्यों को समानता तथा भिन्नता के आधार पर उन्हें अलग-अलग समूहों तथा वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्गीकरण करने से तथ्य संक्षिप्त रूप में आ जाते हैं। तथ्यों के इस वर्गीकरण को अच्छी तरह समझने के लिए उन्हें तालिकाओं में लिखा दिया जाता है जिसे सारणीयन कहते हैं। परियोजना कार्य में वर्गीकरण तथा सारणीयन बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे हम बहुत ही जल्दी तथ्यों के बारे में पता कर सकते हैं।

4. तथ्यों का प्रदर्शन (Presentation of data)-तथ्यों को दो प्रकार से प्रदर्शित किया जाता है।
(i) चित्रमयी प्रदर्शन (Diagramatic representation)-तथ्यों को आसानी से प्रकट करने के लिए चित्रों का . प्रयोग किया जाता है तथा तथ्यों को चित्रों की सहायता से दर्शाया जाता है। चित्रों की मदद से कम समय में मुख्य बातों को दिखाया जा सकता है।

(ii) रिपोर्ट का निर्माण तथा प्रकाशन (Preperation and Publication of Report)-संपूर्ण अध्ययन प्रक्रिया के पूरा होने के बाद परियोजना कार्य का अंतिम चरण होता है संपूर्ण प्रक्रिया की रिपोर्ट तैयार करना तथा उसे प्रकाशित करना। रिपोर्ट तैयार करते समय सरल भाषा का प्रयोग करना चाहिए ताकि वह सभी के समझ आ सके।

तथ्यों को तार्किक ढंग से पेश करना चाहिए तथा विचारों को स्पष्ट करना चाहिए। तकनीकी शब्दों को स्पष्ट तथा परिभाषित करना चाहिए। तथ्यों को दोबारा भी नहीं लिखना चाहिए। आवश्यक शीर्षक तथा उपशीर्षक भी देने चाहिए। जहां ज़रूरत हो पाद टिप्पणियां भी देनी चाहिए। चित्र तथा तालिकाओं का भी प्रयोग करना चाहिए ताकि आँकड़े आसानी से समझ में आ सकें। इस के बाद रिपोर्ट को प्रकाशित किया जाता है तथा उसे पेश कर दिया जाता है।

इस तरह परियोजना कार्य की संपूर्ण प्रक्रिया कई स्तरों से होकर गुज़रती है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

प्रश्न 3.
परियोजना कार्य के गुणों तथा दोषों का वर्णन करो।
अथवा
परियोजना कार्य के लाभ व हानियाँ बताइए।
उत्तर:
परियोजना कार्य के गुण – (Merits of Project Work):
परियोजना कार्य के बहुत गुण होते हैं जिस कारण इसका समाज के अध्ययन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अनलिखित गुण हैं-
1. आत्म विकास का अवसर (Opportunity of Self Development)-परियोजना कार्य कार्यकर्ताओं तथा विद्यार्थियों में आत्म विकास करने का काफ़ी महत्त्वपूर्ण साधन है। इसमें विद्यार्थी स्वयं सोचते हैं, कार्य करते हैं तथा ज़रूरत पड़ने पर अध्ययनकर्ता से निर्देश लेते हैं। इस तरह परियोजना कार्य विद्यार्थियों में आत्म-विश्वास जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

2. सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling)-कोई भी परियोजना कार्य एक या दो व्यक्ति पूरा नहीं कर सकते हैं बल्कि यह बहुत सारे व्यक्तियों के सहयोग से पूर्ण होता है। इस तरह परियोजना कार्य से सामाजिक भावना विकसित होती है तथा व्यक्तियों में एक-दूसरे के साथ कार्य करने से सामुदायिक भावना भी विकसित होती है।

3. विकास के समान अवसर (Equal Opportunity of Development)-परियोजना कार्य करते समय सभी कार्यकर्ताओं को समान अवसर दिया जाता है। किसी के साथ किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता। इससे सभी को विकसित होने के समान अवसर प्राप्त होते हैं।

4. व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge)-परियोजना कार्य से सभी कार्यकर्ताओं को व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है। इसमें अलग-अलग समस्याओं को लेकर योजना बनाई जाती है तथा उनका अध्ययन किया जाता है। क्षेत्र में जाकर तथ्य इकट्ठे किए जाते हैं जिस के कारण हमें हरेक प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

5. मनोवैज्ञानिक संतुष्टि (Psychological Satisfaction)-इस कार्य को करने से व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक संतुष्टि प्राप्त होती है। इस में कार्य करने से व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है तथा डर नहीं लगता और ज्ञान को दबाव में नहीं बल्कि खुल कर ग्रहण किया जाता है।

परियोजना कार्य के दोष-(Demerits of Project Work):
1. अधिक खर्च (More Expensive)-परियोजना कार्य में योजना बनाई जाती है तथा उस योजना के अनुसार कार्य किया जाता है। इस को करने के लिए बहुत सारे कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है। ज्यादा कार्यकर्ताओं के होने के कारण उनके रहने, खाने-पीने, खर्चे के कारण बहुत ज्यादा खर्च हो जाता है तथा यह इसका एक बहुत बड़ा दोष है।

2. उचित परियोजना कार्य ढूंढ़ने की मुश्किल (Difficulty in finding right project work)-सबसे पहले सही समस्या अथवा परियोजना कार्य को ढूंढ़ने की आवश्यकता होती है जोकि काफी मुश्किल है। अगर सही परियोजना कार्य न मिल पाए तो अध्ययन के ज्यादा लाभ नहीं होते हैं।

3. क्रमबद्ध अध्ययन का न होना (Absence of seuqal study)-इस कार्य को करने के लिए कार्य से संबंधित समस्या का क्रमबद्ध अध्ययन भी ज़रूरी है जोकि इस में नहीं होता है। यह एक बहुत बड़ी कमी है।

प्रश्न 4.
निरीक्षण अथवा अवलोकन क्या होता है? इसकी परिभाषाओं तथा विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर:
सामाजिक अनुसंधान में सूचना इकट्ठी करने के लिए वैसे तो अनुसूची, प्रश्नावली और इंटरव्यू आदि विधियों का प्रयोग किया जाता है। पर ये सब सूचना संबंधित आदमी से प्रश्न पूछकर ली जाती है। अनुसूची द्वारा इंटरव्यू में उत्तर देने वाला अनुसूची में दिए हुए प्रश्नों के उत्तर अनुसंधानकर्ता को देता है, जो उन्हें नोट कर लेता है और प्रश्नावली में उन जवाबों को लिखकर आप ही भेज देता है।

विवरणात्मक इंटरव्यू में सूचनाओं का स्रोत संबंधित व्यक्ति होता है। अनुसंधानकर्ता को इस तरह दूसरों द्वारा दी सूचनाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। निरीक्षण विधि में अनुसंधानकर्ता आप घटना का निरीक्षण करता है। वह सूचना के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहता। इसलिए निरीक्षण विधि अथवा अवलोकन विधि और सब विधियों से ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती है।

परिभाषाएँ-(Definitions):
अवलोकन शब्द अंग्रेज़ी शब्द Observation का रूपांतर है। Observation का अर्थ है आपसी संबंध को जानने के लिए स्वाभाविक रूप में घटने वाली घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण। पी० वी० यंग ने इन्हें आंखों द्वारा एक उद्देश्यपूर्ण अध्ययन का नाम दिया है। पी० वी० यंग ने लिखा है कि “निरीक्षण आंखों द्वारा उद्देश्यपूर्ण अध्ययन है जिसकी सामूहिक व्यवहार और जटिल सामाजिक संस्थाओं के साथ ही एक समग्रता का निरीक्षण करने वाली अलग-अलग इकाइयों या सूक्ष्म अध्ययन करने वाली एक विधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।”।

(According to P.V. Young, “Observation is a deliberate study through the eye may be used as one of the methods for scrutinizing collective behaviour and complex social institutions as well as the separate units composing a totality.”’)

मोज़र (Moser) के अनुसार, “सही अर्थों में, निरीक्षण में कानों या ध्वनि के प्रयोग की जगह आंखों के प्रयोग के साथ है।”
(“In the strict sense, observation implies the use of the eyes rather than the ears and. the voice.”)
इस प्रकार निरीक्षण में निम्नलिखित परिणामों का सार है-
(1) इसमें घटना का ज्ञान आंखों द्वारा प्राप्त किया जाता है। चाहे हम कानों और वाक्य शक्ति का प्रयोग भी कर सकते हैं पर इनका प्रयोग उसकी जगह पर कम महत्त्वपूर्ण होता है।

(2) निरीक्षण हमेशा उद्देश्यपूर्ण और सूक्ष्म होता है। यही उसकी आम लोगों से भिन्नता होती है। हम सचेत अवस्था में बराबर, कुछ न कुछ देखते ही रहते हैं, पर उसे निरीक्षण नहीं कहा जा सकता। निरीक्षण एक विशेष उद्देश्य होता है, इसलिए यही ज्यादा सूक्ष्म और गहरा होता है।

नतीजा निकालने के लिए इसकी बहुत ज़रूरत होती है। सामाजिक घटनाएं तो सबके सामने घटित ही रहती है। एक व्यक्ति उसमें से सिद्धांत की खोज कर लेता है पर दूसरे को इसमें कोई विशेषता नहीं लगती। इस अंतर का कारण निरीक्षण की सूक्ष्मता और गहराई ही है। बिना उद्देश्य के अनुसंधानकर्ता भटकता रहता है और वह तथ्यों की गहराई तक नहीं पहुंच सकता।

दी गई परिभाषाओं के आधार पर हम संक्षेप में निरीक्षण विधि में निम्नलिखित विशेषताओं का जिक्र कर सकते हैं।

  • निरीक्षण सामाजिक अनुसंधान में घटना के बारे में पहले तथ्य इकट्ठे करने की प्रमुख विधि है।
  • इस विधि में अनुसंधानकर्ता को किसी तथ्य को इकट्ठे करने के लिए दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता बल्कि उसे अपनी इंद्रियों का प्रयोग करने का अवसर मिलता है जिसके साथ तथ्य अधिक विश्वसनीय होते हैं।
  • निरीक्षण विधि घटना के सूक्ष्म निरीक्षण का मौका देती है।
  • इस विधि द्वारा इकट्ठे किए हुए तथ्य किसी भी दूसरी विधि द्वारा इकट्ठे किए तथ्यों से अधिक विश्वसनीय होते हैं।
  • यह एक सामने दिखने वाली प्रणाली है जिनमें अनुसंधानकर्ता किसी दूसरे स्रोत पर आश्रित न रहकर आप ही घटना का सामने से ही निरीक्षण करके अध्ययन करता है।
  • इस विधि द्वारा वैज्ञानिक सूक्ष्मता संभव होती है।
  • यह विधि सबसे सरल है।
  • अनुसंधानकर्ता स्वयं ही घटना को अपनी आंखों से देखने के बाद तथ्य इकट्ठे करता है।
  • यह एक प्रचलित विधि है जिसका प्रयोग प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों में एक जैसा ही होता है।
  • यह प्रणाली सबसे सस्ती, स्पष्ट, सरल और वैज्ञानिक है।

प्रश्न 5.
सहभागी निरीक्षण अथवा सहभागी अवलोकन से आप क्या समझते हैं? संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर:
1. सहभागी निरीक्षण-सहभागी निरीक्षण का प्रयोग सबसे पहले Lindeman ने 1924 में अपनी पुस्तक Social Discovery में किया था। चाहे विधि के रूप में इसका प्रयोग बहुत पहले ही हो चुका था। उसने लिखा “सहभागी निरीक्षण इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी घटना का निरीक्षण तभी करीब-करीब शुद्ध हो सकता है जब वह बाहरी और अंदरूनी दृष्टिकोण से मिलकर बना हो।

इस प्रकार उस व्यक्ति का दृष्टिकोण जिसने घटना में भाग लिया और जिसकी इच्छाओं और स्वार्थ किसी-न-किसी रूप में जुड़े हुए हो, उस आदमी के दृष्टिकोण से निश्चित ही अलग होगा जो सहभागी न होकर सिर्फ देखने वाला या विवेचनकर्ता के रूप में रहा है।”

सहभागी निरीक्षण की परिभाषा देते हुए ‘मैज’ ने लिखा है “जब देखने वाले के दिल की धड़कनें समूह के दूसरे व्यक्तियों की धड़कनों के साथ मिल जाती हैं और वह किसी दूर की प्रयोगशाला से आए हुए तटस्थ प्रतिनिधि के समान नहीं रह जाता, तब यह समझना चाहिए कि उसने सहभागी देखने वाला कहलाने का अधिकार प्राप्त कर लिया है।

मैज ने इस प्रकार समूह के साथ निरीक्षणकर्ता के रागात्मक एकीकरण पर ही जोर दिया है। उसके निरीक्षणकर्ता को सहभागी तब ही कहेंगे जब वह निरीक्षण किए जाने वाले समूह में अपनापन, अनुभव करने लगे, उसका दृष्टिकोण समूह के दृष्टिकोण के साथ मिल जाए और उसकी भावनाएं समूह की भावनाओं के साथ मिलकर एक हो जाएं।

विद्वानों ने इस प्रकार के पूरे एकीकरण को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोषपूर्ण बताया है। उन्होंने सहभागी निरीक्षणकर्ता की और ज्यादा खुली परिभाषा दी है। गुड एंड हॉट के अनुसार “निरीक्षणकर्ता सहभागी कहलाने का हकदार उस समय हो जाता है जब वह समह के एक मैंबर/सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है।”

यहां मंजरी उस समूह से आती है जिसका निरीक्षण किया जाता है। देखने वाले के विचारों, भावनाओं और दृष्टिकोण में परिवर्तन ज़रूरी नहीं है। पी० वी० यंग ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं। उसके अनुसार भी सहभागी निरीक्षणकर्ता “अध्ययन किए जाने वाले समूह में रहता है या दूसरी तरह से उनके जीवन में भाग लेता है।”

अब यह परिणाम निकलता है कि सहभागी निरीक्षण के लिए ज़रूरी है कि अनुसंधानकर्ता समूह में एक अजनबी की तरह न रहकर उसका एक अंग बनकर रहे। यह कोई ज़रूरी नहीं है कि वह उनकी सभी क्रियाओं में भाग ले, पर निश्चित ही वह वहां निरीक्षणकर्ता की हैसियत से नहीं रहता। इसी प्रकार यह भी ज़रूरी नहीं कि वह समह के बीच बराबर साथ साथ रहा हो। वह समय-समय बारी-बारी उनके बीच रहा। पर उसका उस समूह के साथ बहुत करीब का क्रियात्मक संपर्क होना बहुत ज़रूरी है।

सहभागी निरीक्षण के साथ निरीक्षणकर्ता अनेक प्रकार से समूह का अंग बन सकता है। वह ऐसा कोई भी काम हाथ में ले सकता है। जिससे वह अध्ययन में किए जाने वाले समूह के बराबर संपर्क में रहे। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए पढ़ाई का काम। जिस प्रकार से समाज का अध्ययन करना है और जिस प्रकार का अध्ययन करना है, अनुसंधानकर्ता को उसी के अनुरूप पद भी लेना चाहिए। प्रयास इस बात का करना चाहिए कि उसे समूह की क्रियाओं को ज्यादा से ज्यादा करीब से देखने का मौका अथवा अवसर मिल सके।

प्रश्न 6.
सहभागी निरीक्षण के गुणों तथा दोषों का वर्णन करें।
उत्तर:
सहभागी निरीक्षण के गण-
(1) इस निरीक्षण में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले वर्ग के काफ़ी समीप आ जाता है। इस तरह उसे ज्यादा सूक्ष्म अध्ययन का अवसर मिलता है। किसी व्यक्ति के परिवार के जीवन का सब से बढ़िया और सच्चा परिचय उस व्यक्ति को होगा, जो उसके साथ या उसके घर में रहा हो।

(2) सहभागी निरीक्षण में निरीक्षणकर्ता को समूह के अलग व्यवहारों, आपसी संबंधों और रिवाजों का सच्चा समझने की शक्ति प्राप्त होती है। अधिकतर क्रियाएं सामाजिक संगठनों और हालातों से अच्छी तरह प्रभावित होती हैं। किसी समाज में कोई परंपरा क्यों प्रचलित है? इसका अनुभव कोई बाहर से देखकर नहीं कर सकता। इस तरह असहभागी निरीक्षण में घटना का केवल वर्णन होता है जबकि सहभागी अंदरूनी स्वरूप को समझने में सहायक होता है।

(3) सहभागी निरीक्षण स्वाभाविक हालात में संभव है। जब लोगों को पता लग जाता है कि उनका निरीक्षण किया जा रहा है तो उनके व्यवहार में अस्वाभाविकता आ जाती है और बनावटीपन भी। इस तरह निरीक्षणकर्ता द्वारा ईमानदारी और सावधानी बरतने पर भी उचित सूचना प्राप्त नहीं होती। इसलिए स्वाभाविक हालातों/परिस्थितियों में निरीक्षण के लिए सहभागी निरीक्षण ज़रूरी है।

(4) सहभागी निरीक्षण देखने वाले की नज़र को ज्यादा सूक्ष्म बना देता है जिससे वह जल्द ही उचित नतीजों को ग्रहण कर सके। निरीक्षण के लिए एक विशेष ज्ञान ज़रूरी है। इसके बिना कोई भी सूक्ष्म व्यवहारों का सही निरीक्षण नहीं कर सकता। एक इंजीनियर दो कारखानों में लगी मशीनों का तुलनात्मक अध्ययन जितनी आसानी सरलता से जल्दी ही कर लेता है उतना एक अपरिचित व्यक्ति नहीं।

यही बात सामाजिक समूह से संबंध में भी सत्य है। समूह में कुछ समय रहने के पश्चात् निरीक्षणकर्ता इसकी क्रियाओं और व्यवहारों से परिचित हो जाता है और उनमें मिलने वाली सूक्ष्म ग़लती या नकली धन भी उसका ध्यान खींच लेता है।

(5) सहभागी असहभागी निरीक्षण की जगह ज्यादा सुविधाजनक होता है। निरीक्षण की एक आवश्यक शर्त यह भी है कि संबंधित व्यक्ति या समूह अनुसंधानकर्ता को निरीक्षण करने का अवसर दे। सहभागी निरीक्षण में अनुसंधानकर्ता एक निरीक्षण के रूप में नहीं जाता। बाहरी रूप से उसका उद्देश्य सरा ही होता है। इस तरह संबंधित व्यक्ति या समूह से किसी विरोध की संभावना नहीं रहती।

सहभागी निरीक्षण के दोष-
(1) इसमें अनुसंधानकर्ता को दो पार्ट एक साथ अदा करने पड़ते हैं-वह एक वैज्ञानिक भी होता है और अध्ययन किए जाने वाले समाज का सदस्य भी। संतुलन कायम रखना बहुत कठिन होता है।

(2) जब निरीक्षक का भावात्मक एकीकरण हो जाता है तो निरीक्षण की स्थूलता खत्म हो जाती है। एक तटस्थ देखने वाले के स्थान पर वह अपने आप को एक वर्ग का अंग मानने लगता है। उसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण खत्म हो जाता है। इसमें बहुत सारी घटनाओं को इसी तरह देखने लगता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए एक प्रकार का Bias बहुत हानिकारक है।

(3) समाज की क्रियाओं में नज़दीकी के परिचय हमारे सूक्ष्म निरीक्षण में कभी-कभी बाधक भी सिद्ध होते हैं। जब समूह की अनेक क्रियाओं के साथ हमारा नज़दीकी परिचय हो जाता है तो हम उनमें से बहुत को इसी तरह ही मान लेते हैं। बहुत सारी घटनाओं को आम मानकर छोड़ देते हैं। समूह में एकदम अपरिचित होने से उसकी प्रत्येक क्रिया हमारे लिए नई और आदर्शक होती है। इसलिए निरीक्षण ज्यादा सूक्ष्म और खुला होता है।

(4) कभी-कभी यह भी देखा गया है कि लोग अपरिचित व्यक्ति के समक्ष ज्यादा खुलकर व्यवहार करते हैं क्योंकि उन्हें इसमें किसी भी प्रकार की सामाजिक प्रसिद्धि को हानि की संभावना नहीं होती पर जब कोई अपरिचित व्यक्ति निरीक्षक के रूप में साथ होता है तो उनके व्यवहार में बनावटीपन आ जाता है। इसी प्रकार सहभागी निरीक्षण उचित और सही सूचना प्राप्त करने में सहायता के स्थान पर मुस्किल अथवा कठिनाई उत्पन्न करता है।

(5) सहभागी अनुसंधानकर्ता आमतौर पर अपने आपको समाज से अलग अथवा पृथक नहीं रख सकता। कभी-कभी वह किसी विशेष समूह या दल में विशेष रुचि लेने लगता है या किसी वर्ग के साथ विशेष संपर्क बढ़ा लेता है। इस तरह निरीक्षक की वैज्ञानिकता समाप्त हो जाती है।

इसके अतिरिक्त यदि उसने समाज में कोई प्रसिद्ध स्थान प्राप्त कर लिया है तो उसे अनुसंधान से अधिक अपनी प्रसिद्धि का ध्यान अधिक रहता है। तो सकता है कि उस स्थान पर रहकर वह अपना प्रभाव लोगों के व्यवहारों और क्रियाओं पर डाल सकता है। इसके साथ भी अध्ययन में कठिनाई उत्पन्न होती है।

प्रश्न 7.
निरीक्षण विधि के गुणों तथा सीमाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
निरीक्षण विधि के गुण
(Merits of Observation)
(i) विश्वास योग्य-इस बात में कोई संदेह नहीं है कि निरीक्षण से प्राप्त सूचना और विधियों द्वारा प्राप्त सूचना से ज्यादा विश्वसनीय होते हैं। इसमें वैज्ञानिक उत्तरदाता पर आश्रित नहीं होता बल्कि वह सूचना खुद ही इकट्ठी करता है। अनुसूची तथा प्रश्नावली में वह उत्तरदाता पर आश्रित होता है परंतु इसमें वह सब कुछ अपने आप ही देखता है। यदि वैज्ञानिक चालाक है तो वह सही सूचना प्राप्त कर सकता है।

(ii) आसान-निरीक्षण विधि बहुत ही आसान है। साक्षात्कार, अनुसूची इत्यादि में उत्तरदाता से अपने मतलब की सूचना निकलवाने के लिए बहुत चतुरता की जरूरत होती है परंतु निरीक्षण में चतुरता की कोई जरूरत नहीं होती। हम सिर्फ चीजों को देखकर ही उनके बारे में अनुमान लगा सकते हैं।

(iii) सर्वव्यापक विधि-निरीक्षण विधि सर्वव्यापक तथा सर्वप्रचलित होती है। यह सभी विज्ञानों, देशों में समान रूप से उपयोगी होती है। प्रश्नावली, साक्षात्कार सिर्फ सामाजिक खोज में ही उपयोग होते हैं। परंतु निरीक्षण सभी विज्ञानों में उपयोग होती है।

(iv) सत्य की जांच करने की सुविधा-इस विधि से प्राप्त सूचना की दोबारा जांच भी हो सकती है। यदि निरीक्षणकर्ता से कोई ग़लती हो जाती है तो उस चीज़ का दोबारा निरीक्षण हो सकता है। हमें यह सुविधा साक्षात्कार, अनुसूची या प्रश्नावली में नहीं होती। उनमें उत्तरदाता झूठ बोल सकता है परंतु इसमें ऐसी कोई समस्या नहीं होती है।

निरीक्षण विधि की सीमाएं-(Limitations of Observation):
(i) निरीक्षणकर्ता का न होना-निरीक्षण विधि में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हो सकता है कि घटना के घटित होते समय निरीक्षक उस जगह पर ही हो। सामाजिक घटनाओं की प्रकृति अनिश्चित होती है तथा वह कभी भी घटित हो सकती है। यह ज़रूरी नहीं है कि व्यक्ति उस समय मौजूद ही हो। उसकी गैर-मौजूदगी के कारण निरीक्षण संभव नहीं है। उदाहरण के तौर पर, पति-पत्नी की लड़ाई।

(ii) घटनाएं निरीक्षण का मौका नहीं देतीं-यह समस्या भी निरीक्षण में हो सकती है। हो सकता है कि घटना के घटित होते समय उसका पता ही न चले या फिर संबंधित व्यक्ति निरीक्षण का अवसर ही न दें।

सामाजिक घटनाओं के निरीक्षण के लिए यह ज़रूरी है कि संबंधित व्यक्ति इसका अवसर दें परंतु काफ़ी हद तक ऐसा मुमकिन नहीं होता जैसे कि पति-पत्नी के आंतरिक संबंधों के निरीक्षण का मौका कोई भी नहीं देगा। इस प्रकार कई बार घटनाएं भी निरीक्षण का समय नहीं देती हैं।

(iii) निरीक्षण विधियों का असहयोग-काफ़ी सारे सामाजिक अनुसंधान भावनाओं, विचारों जैसे अमूर्त तथ्यों से संबंधित होते हैं। इन अमूर्त तथ्यों का निरीक्षण नहीं हो सकता। हमें इस बात का पता नहीं चल सकता कि कोई व्यक्ति क्या सोच रहा है या किसी चीज़ के बारे में उसके वास्तविक विचार क्या हैं? इसलिए व्यक्ति खुद ही निरीक्षण करने की बजाए संबंधित व्यक्ति से पूछकर ही चला जाता है।

प्रश्न 8.
सामाजिक सर्वेक्षण का क्या अर्थ है? परिभाषाओं सहित स्पष्ट करें।
उत्तर:
सामाजिक अनुसंधान की विधियों में सर्वेक्षण विधि बहुत महत्त्वपूर्ण है। सर्वेक्षण अंग्रेजी भाषा के शब्द Survey का हिंदी रूपांतर है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है किसी घटना को ऊपर से देखना, परंतु सामाजिक अनुसंधान में इसका एक विधि के रूप में बहुत ही विशिष्ट अर्थ है।

सर्वेक्षण का अर्थ एक ऐसी अनुसंधान की विधि से होता है जिसमें अनुसंधानकर्ता घटनास्थल पर जाकर घटना का वैज्ञानिक तरीके से निरीक्षण करता है तथा उस घटना के संबंध में खोज करता है। इस विधि में अनुसंधानकर्ता को अपनी कल्पना से कुछ नहीं करना पड़ता बल्कि वह घटना के साथ प्रत्यक्ष रूप में संपर्क में आता है तथा उसमें से अपने मतलब की चीज़ निकाल लेता है। इससे उसके निष्कर्षों में ज्यादा वैयक्तिता आती है तथा वह सच के बहुत करीब होते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)-
1. मोज़र (Moser) के अनसार. “समाजशास्त्री के लिए सर्वेक्षण क्षेत्र का अनसंधान करने. अध्ययन के विषय से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से संबंधित आंकड़े एकत्र करने का एक ऐसा अति उपयोगी साधन है जिससे समस्या पर प्रकाश पड़ सके।”

2. मोर्स (Morse) के अनुसार, “संक्षेप में सर्वेक्षण किसी प्रस्तुत सामाजिक परिस्थिति, समस्या अथवा जनसंख्या के विशिष्ट उद्देश्यों के लिए वैज्ञानिक तथा क्रमबद्ध रूप में की गई विवेचना की विधि मात्र है।”

3. बर्जेस (Burgess) के अनुसार, “एक सर्वेक्षण समुदाय की दशाओं एवं आवश्यकताओं का सामाजिक विकास की रचनात्मक योजना प्रस्तुत करने के उद्देश्य से किया गया वैज्ञानिक अध्ययन है।”

4. एब्रम्स (Abrams) के अनुसार, “सामाजिक सर्वेक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज के संगठन तथा क्रियाओं के सामाजिक पक्ष के संबंध में संख्यात्मक तथ्य संकलित किए जाते हैं।”

इस तरह इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक घटनाओं तथा सामाजिक समस्याओं से संबंधित होते हैं। इसमें किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में अनुसंधान के विषय से संबंधित घटनाओं का निरीक्षण किया जाता है तथा उस निरीक्षण से ही सूचना इकट्ठी की जाती है। फिर इस सूचना से निष्कर्ष निकाले जाते हैं। यह विधि वैज्ञानिक विधि के बहुत ज्यादा करीब होती है क्योंकि इस विधि में अभिनीत आने के मौके बहुत ही कम होते हैं। सामाजिक अनुसंधानों में यह विधि बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 9.
सामाजिक सर्वेक्षण विधि के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण विधि के बहुत से उद्देश्य हो सकते हैं, परंतु हम उन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित कर रहे हैं-
1. व्यावहारिक सूचना प्राप्त करना-ज्यादातर सर्वेक्षण लोगों को सूचना देने के लिए होते हैं चाहे वह लोग सरकारी हों या गैर-सरकारी। इस तरह का सर्वेक्षण कोई संस्था अपने या किसी और के लिए भी करवा सकती है। इस तरह के व्यावहारिक उपयोग से उस संस्था को अपना विकास करने में मदद मिलती है।

सर्वेक्षण का उपयोग अब आर्थिक तथा व्यापारिक क्षेत्र में भी काफ़ी हो रहा है। अब ऐसी संस्थाएं भी बन गई हैं जो दूसरों के लिए सर्वेक्षण का कार्य करती हैं। बहुत सारी व्यापारिक संस्थाएं अपने उत्पाद की बिक्री के संबंध में सर्वेक्षण करवाती हैं। उद्योगपति अपने माल के लिए तथा कार्यक्षमता की वृद्धि के लिए भी सर्वेक्षण करवाते हैं। इस तरह सर्वेक्षण की मदद से अब सिर्फ सिद्धांत ही नहीं बनते बल्कि उनका व्यावहारिक उपयोग भी हो रहा है। इस तरह सर्वेक्षण की मदद से व्यावहारिक सूचना प्राप्त हो जाती है।

2. उपकल्पना की जांच-बहुत-से सर्वेक्षणों का उद्देश्य अलग-अलग उपकल्पनाओं की जांच करना होता है। रोज़ाना जीवन की घटनाओं को देखकर हमारे मन में बहुत-सी उपकल्पनाएं पैदा हो सकती हैं। उन उपकल्पनाओं में सच की पहचान तभी हो सकती है जब वैज्ञानिक तरीके से तथ्यों को इकट्ठा किया जाए तथा उन तथ्यों की उचित विवेचना की जाए। इसलिए बहुत से सर्वेक्षण उपकल्पनाओं की जांच के लिए किए जाते हैं।

3. सामाजिक सिद्धांतों के सच की पहचान-हमारा समाज प्रगतिशील है जिस कारण वह लगातार बदलता रहता है। इसलिए आज से कुछ समय पहले बने सिदधांतों में बदलाव आना भी जरूरी होता है। उ ले सकते। इसलिए बदले हुए हालात के अनुसार सामाजिक सिद्धांतों तथा नियमों के सच की पहचान ज़रूरी होती है।

इसलिए पुराने सिद्धांतों के सच की पहचान इस विधि से हो जाती है। इसके साथ ही अनुसंधान की तकनीकें भी समय के साथ बदलती रहती है। पुराने सिद्धांतों की नई तकनीकों के आधार पर जांच करने की ज़रूरत होती है। बहुत से सर्वेक्षण पुराने सिद्धांतों में सच की पहचान के लिए भी होते हैं।

4. कार्य करण संबंध का पता करना-बहुत से सर्वेक्षण का उद्देश्य वर्णन की जगह घटना की व्याख्या करना होता है। समाज में होने वाली घटनाओं को देखकर व्यक्ति के मन में उन घटनाओं के कारणों को जानने की इच्छा पैदा होती है। इनको निगमन विधि से पहले से बने सिद्धांतों से पता किया जा सकता है या फिर आगमन विधि से सर्वेक्षण हाला pr का MBD SOCIOLOGY (XII HR.) करके पता किया जा सकता है। सर्वेक्षण से घटना से संबंधित अलग-अलग तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है तथा उनके आधार पर उन घटनाओं के कारणों की खोज की जाती है।

5. सामाजिक घटनाओं का वर्णन-सामाजिक सर्वेक्षणों का उद्देश्य वर्णनात्मक भी हो सकता है, जैसे सामाजिक संबंधों या व्यवहार का अध्ययन। कई बार सर्वेक्षण किसी विशेष उद्देश्य को लेकर सिर्फ सामाजिक घटना के वर्णन के लिए होता है। सरकारी सर्वेक्षण सिर्फ साधारण सूचना इकट्ठी करने के लिए किये जाते हैं। वह किसी विशेष उद्देश्य के लिए नहीं होते बल्कि अनुसंधानकर्ता को उचित सामग्री प्रदान करने तथा उसके कार्य को सरल बनाने के लिए होते हैं।

प्रश्न 10.
सामाजिक सर्वेक्षणों के कितने प्रकार होते हैं? उनका वर्णन करो।
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षणों को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग भागों में बांटा जा सकता है। उनमें से कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. सामान्य तथा विशेष सर्वेक्षण-जब सर्वेक्षण किसी विशेष उद्देश्य के लिए नहीं होते बल्कि घटना के संबंध में सूचना इकट्ठी करने के लिए होते हैं तो उन्हें सामान्य सर्वेक्षण कहा जाता है। यह किसी उपकल्पना के आधार पर नहीं होते बल्कि इनमें तो अनुसंधान के विषय तथा क्षेत्र को निर्धारित कर दिया जाता है। इस तरह के सर्वेक्षण सरकार द्वारा किए जाते हैं।

विशेष सर्वेक्षण में अनुसंधान किसी विशेष उपकल्पना के आधार पर होता है। इनमें किसी समूह या स्थान का सर्वेक्षण नहीं होता बल्कि किसी विशेष घटना का सर्वेक्षण होता है। इसे उन लोगों से संपर्क बनाया जाता है जो उस विशेष घटना से संबंधित हैं तथा निष्कर्ष निकालने में मदद दे सकते हैं। इस तरह सामान्य सर्वेक्षण किसी वर्ग या स्थान से जुड़ा हुआ होता है। वहीं पर विशेष सर्वेक्षण घटना या समस्या से जुड़ा हुआ होता है।

2. अंतिम तथा आवृत्तिपूर्ण सर्वेक्षण-कई सर्वेक्षण इस तरह से होते हैं जिनमें सूचना को दोबारा-दोबारा इकट्ठा करना नहीं पड़ता बल्कि एक बार ही सूचना इकट्ठी करने के बाद उसके आधार पर निष्कर्ष निकाल दिए जाते हैं तथा सर्वेक्षण खत्म हो जाता है। इन्हें अंतिम सर्वेक्षण कहा जाता है।

कछ सर्वेक्षण ऐसे होते हैं जिनमें सचना को बार-बार इकटठा करना पड़ता है। यह प्रायोगिक विधि के अंदर आते हैं। जिस वर्ग का निरीक्षण करना होता है, उसे कोई प्रेरक तत्त्व दे दिया जाता है तथा उस प्रभाव के अंतर्गत संबंधित आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं। इस तरह बार-बार कोई प्रेरक तत्त्व देकर उस तत्त्व के प्रभाव के अंतर्गत सूचना को एकत्र किया जाता है तथा अंत में निष्कर्ष निकाले जाते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण इस प्रकार के होते हैं।

3. नियमित तथा काम चलाऊ सर्वेक्षण-वह सर्वेक्षण जो नियमित रूप से तथा समय-समय पर बार-बार होते हैं उन्हें नियमित सर्वेक्षण कहते हैं। कामचलाऊ सर्वेक्षण वह होते हैं जो किसी विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक-आध बार होते हैं। आमतौर पर कामचलाऊ सर्वेक्षण नियमित सर्वेक्षण से पहले होता है जिस वजह से इसको अग्रगामी सर्वेक्षण भी कहा जाता है।

काम चलाऊ सर्वेक्षण का उद्देश्य नियमित सर्वेक्षण की योजना की जांच करना होता है। कामचलाऊ सर्वेक्षण को अनुसूची, प्रश्नावली इत्यादि का परीक्षण करने के लिए भी किया जाता है। इस कामचलाऊ सर्वेक्षण को उस समय भी प्रयोग किया जाता है जब किसी अनुसंधान के लिए पूर्व सूचना उपलब्ध न हो। इस तरह काम चलाऊ सर्वेक्षण को नियमित सर्वेक्षण के लिए प्रयोग किया जाता है।

4. संगणना सर्वेक्षण तथा सैंपल सर्वेक्षण-सर्वेक्षण को समग्र इकाइयों के संबंध में संगणना विधि दवारा किया जाता है। इसमें अगर किसी विशेष वर्ग के संबंध में खोज करनी है तो उस वर्ग के हरेक व्यक्ति से संपर्क स्थापित किया जाता है तथा उनसे सूचना एकत्र की जाती है। इस तरह के सर्वेक्षण को संगणना सर्वेक्षण कहा जाता है।

परंतु अगर वर्ग बड़ा हो तथा वर्ग के हरेक व्यक्ति से संपर्क स्थापित करना मुमकिन न हो तो उस वर्ग में से थोड़े से व्यक्तियों का एक सैंपल ले लिया जाता है तथा उनसे सूचना प्राप्त की जाती है। उस सूचना से निष्कर्ष निकाले जाते हैं तथा उन्हें संपूर्ण समूह पर लागू किया जाता है। इस तरह के सर्वेक्षण को सैंपल सर्वेक्षण कहा जाता है। सामाजिक सर्वेक्षणों में इस विधि का प्रयोग ज्यादा हो रहा है। इसका कारण यह है कि एक तो संपूर्ण समाज से संपर्क स्थापित करना कठिन होता है तथा संगणना में बहुत सारे धन तथा समय की ज़रूरत होती है। सैंपल विधि से निकले निष्कर्ष ज्यादातर ठीक होते हैं। अगर कोई अशुद्धि भी हो तो भी उसे पता किया जा सकता है।

प्रश्न 11.
सर्वेक्षण की प्रक्रिया का वर्णन करो।
उत्तर:
जिस तरह सामाजिक अनुसंधान की प्रक्रिया होती है, उस तरह सर्वेक्षण की प्रक्रिया भी होती है। सर्वेक्षण की प्रक्रिया के शुरू से लेकर अंत तक कई स्तर होते हैं। इन स्तरों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार हैं-

  • सर्वेक्षण का उद्देश्य तथा क्षेत्र
  • सूचना इकट्ठी करने के स्त्रोत का निर्धारण
  • सर्वेक्षण के प्रकार
  • प्रश्नावली या अनुसूची की रचना तथा सूचना का संकलन
  • इकट्ठी सूचना का संपादन
  • सूचना का वर्गीकरण तथा सारणीकरण
  • सूचना का विश्लेषण
  • सूचना का निर्वाचन तथा अंतिम रिपोर्ट तैयार करना।

इन सभी स्तरों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:
1. सर्वेक्षण का विषय या उद्देश्य-सबसे पहले सर्वेक्षण का विषय निर्धारित करना ज़रूरी होता है जिस पर सर्वेक्षण होता है। विषय सर्वेक्षण विधि के अनुसार होना चाहिए। अगर विषय इस विधि के अनुसार नहीं हैं तो सर्वेक्षण करने में काफ़ी कठिनाई आ सकती है।

2. स्रोत का निर्धारण-विषय के निर्धारण के पश्चात् अगला स्तर है सूचना इकट्ठी करने के स्रोत का निर्धारण। यह स्रोत प्रश्नावली, अनुसूची, साक्षात्कार, अवलोकन इत्यादि कुछ भी हो सकता है। अगर हम इस विधि का निर्धारण ही न कर पाएं तो सूचना एकत्रित कैसे होगी। इसलिए इस स्रोत का निर्धारण करना पहले से ही आवश्यक होता है।

3. सर्वेक्षण के प्रकार-तीसरा स्तर होता है सर्वेक्षण के प्रकार को निर्धारण करने का। असल में सर्वेक्षण के विषय से ही सर्वेक्षण के प्रकार का निर्धारण हो जाता है। यह सर्वेक्षण सामान्य है अथवा विशेष एक ही बार होगा या बार बार। यदि सर्वेक्षण में संगणना विधि का प्रयोग किया गया है तो बहुत समय तथा धन की आवश्यकता होती है।

अगर सैंपल विधि का प्रयोग किया जाएगा तो सैंपल किस प्रकार निकाला जाएगा। सामाजिक सर्वेक्षण लो है। इसलिए हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि विषय से संबंधित कौन लोग हैं वह कहां रहते हैं तथा उनको कैसे मिला जा सकता है।

4. प्रश्नावली अथवा अनुसूची की रचना-सर्वेक्षण के प्रकार को निर्धारित करने के पश्चात् यह ज़रूरी है कि अगर सर्वेक्षण में प्रश्नावली या अनुसूची विधि का प्रयोग हो रहा है तो उनका निर्माण किया जाए। प्रश्नावली या अनुसूची का निर्माण बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए। प्रश्नों को सावधानी से निर्मित किया जाना चाहिए क्योंकि अगर प्रश्न ठीक न हआ तो उत्तरदाता उत्तर देना बंद भी कर सकता है।

इसके बाद का स्तर होता है सचना एकत्रित करने का। अगर सूचना को साहित्य से एकत्रित करना है तो उसे भी देख लेना चाहिए। अगर सर्वेक्षण का क्षेत्र बड़ा है तो कार्यकर्ताओं को नियुक्त करना पड़ता है तथा कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण तथा देख-रेख का ध्यान भी रखना पड़ता है। सूचना एकत्र हो जाने के पश्चात् सारी सूचना को एक जगह पर इकट्ठा कर लेना चाहिए।

5. इकट्ठी सूचना का संपादन-सूचना इकट्ठी करने के पश्चात् अगला स्तर होता है एकत्रित सूचना के संपादन का। सबसे पहले प्राप्त सूचना का संपादन किया जाता है। गलत या भ्रमपूर्ण सूचना को बाहर निकाल दिया जाता है ताकि निष्कर्ष निकालते समय ग़लती न हो। सूचना के संपादन से हमारे सामने सही तथा संभव सचना अ जिससे निष्कर्ष निकालने आसान हो जाते हैं।

6. सूचना का वर्गीकरण तथा सारणीकरण-सूचना के संपादन के बाद सूचना का वर्गीकरण तथा सारणीकरण किया जाता है। प्राप्त सूचना को अलग-अलग वर्गों में रखा जाता है तथा उन वर्गों से सारणियां बनाई जाती हैं। वर्गीकरण तथा सारणीकरण करने से सूचना को समझने में आसानी हो जाती है तथा देखने वाला एक ही नज़र में निष्कर्ष निकाल लेता है।

7. सूचना का विश्लेषण-सूचना को वर्गों तथा सारणियों में डालने के पश्चात् उस सूचना का अलग-अलग कोणों से विश्लेषण किया जाता है। कई प्रकार की क्रियाओं से उसकी तुलना की जाती है तथा समन्वय की कोशिश की जाती है। उपलब्ध सिद्धांतों के आधार पर उस सूचना को तोला जाता है तथा उसके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

8. निर्वाचन तथा अंतिम रिपोर्ट तैयार करना-सर्वेक्षण का अंतिम स्तर होता है रिपोर्ट तैयार करना तथा ग्राफ, चित्रों से सूचना को प्रकट करना। सर्वेक्षण चाहे किसी संस्था के लिए किया गया हो या अनुसंधानकर्ता के लिए, खोज रिपोर्ट को लिखना बहुत जरूरी होता है। रिपोर्ट के साथ ग्राफ तथा चित्र भी होने ज़रूरी है ताकि सूचना का महत्त्व स्पष्ट हो जाए तथा एक सामान्य व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके।

इस तरह सर्वेक्षण प्रक्रिया इन ऊपर लिखे स्तरों से होकर गुज़रती है।

प्रश्न 12.
सर्वेक्षण प्रणाली के गुणों तथा सीमाओं का वर्णन करो।
अथवा
सर्वेक्षण पद्धति की कमजोरियों का वर्णन करें।
उत्तर:
सर्वेक्षण प्रणाली के गुण सर्वेक्षण प्रणाली के सामाजिक अनुसंधान की ओर विधियों की अपेक्षा कुछ गुण हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
1. इस विधि से अनुसंधान में किसी प्रकार की व्यक्तिगत अभिनीत नहीं आती हैं। असल में किसी भी व्यक्ति के विचार उसकी परंपराओं, संस्कारों, हालातों इत्यादि से प्रभावित होते हैं जिस कारण हम अनुसंधान में कई बार उन हालातों की कल्पना करते हैं जिन्हें सिर्फ हमारा दिमाग स्वीकार करता है।

हम उसके अलावा और किसी स्थिति के बारे में सोचते भी नहीं। अगर हमें अनुसंधान में वैषयिकता लानी है तथा अभिनीतियों को समाप्त करना है तो सर्वेक्षण विधि ही उपयुक्त है क्योंकि इसमें व्यक्ति को अपने विचारों को अनुसंधान में लाने का मौका ही नहीं देता।

2. इस विधि से अनुसंधानकर्ता सीधा अनुसंधान के विषय में संपर्क में आता है। अगर वह उत्तरदाता से सीधे संपर्क में नहीं आता है तो वह या पूर्व निर्मित सिद्धांतों से या अपने व्यक्तिगत अनुभवों से समस्या का समाधान निकालने की कोशिश करता है जो कि ग़लत है। सैद्धांतिक ज्ञान के आधार पर समाज की सही स्थिति का पता नहीं कर सकते हैं। सर्वेक्षण विधि से हरेक प्रकार के हालात तथा हरेक प्रकार के व्यक्ति तथा व्यवहार का पता चल जाता है। इस कारण ही सर्वेक्षण विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्ष अधिक विश्वास योग्य होते हैं।

3. सर्वेक्षण विधि वैज्ञानिक विधि के सबसे करीब होती है चाहे इसमें अनसंधानकर्ता का घटना पर नियंत्रण रखना संभव नहीं होता। उसे घटना का निरीक्षण घटनास्थल पर जाकर ही करना पड़ता है, परंतु फिर भी सैद्धांतिक ज्ञान की अपेक्षा इस आधार पर इकट्ठी की गई सूचना ज्यादा विश्वसनीय होती है। इस विधि में अनुसंधानकर्ता को अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं करना पड़ता बल्कि प्रत्यक्ष अवलोकन से आंकड़े इकट्ठे करने पड़ते हैं। इस तरह प्राप्त सूचना से निकाले गए निष्कर्ष सच्चे माने जाते हैं।

4. सामाजिक क्षेत्र में नए हालात पैदा होते रहते हैं जो कि हमें किसी भी सिद्धांत में नहीं मिलते। इन नए हालातों से समाज में भारी परिवर्तन आ जाता है तथा कई प्रकार उपलब्ध ज्ञान से हमें सही स्थितियों का पता नहीं चलता। उदाहरण के तौर पर भारत में 1947 से पहले तथा बाद के हालातों में काफ़ी अंतर था। इन हालातों में हमें समाज के सही हालातों का ज्ञान वैज्ञानिक अध्ययन से लोगों के बीच जाकर ही हो सकता है तथा उसके लिए सर्वेक्षण विधि सबसे उपयुक्त है।

सर्वेक्षण विधि की सीमाएं-चाहे सर्वेक्षण विधि के कुछ गुण हैं, परंतु इस विधि की कुछ सीमाएं भी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
1. इस विधि में सबसे जरूरी यह है कि घटना आंखों के सामने ही घटित हो, परंतु ज्यादातर सामाजिक घटनाओं में यह मुमकिन नहीं है। यह ज़रूरी नहीं है कि घटना के घटित होते समय अनुसंधानकर्ता वहां पर उपस्थित हों।

बहुत सारी घटनाएं व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से संबंधित होती हैं जोकि कोई और व्यक्ति कैसे देख सकता है। इन हालातों में हमें संबंधित व्यक्ति से पूछ कर ही काम चलाना पड़ता है जोकि विश्वसनीय नहीं हैं। कई बार लोग झूठ भी बोल देते हैं जिससे इस प्रणाली पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

2. इस विधि से संपूर्ण समाज का अध्ययन संभव नहीं है। इससे हम समाज के सिर्फ एक भाग का ही अवलोकन कर सकते हैं। जब हम किसी घटना का प्रत्यक्ष अवलोकन करते हैं तो इसे ही सत्य समझ बैठते हैं जबकि वह ग़लत भी हो सकता है। इससे ऐसे सिद्धांत बन सकते हैं जो समय की सीमा से दूर होते हैं। इससे प्राप्त सूचना अंशकालीन होती है दीर्घकालीन नहीं।

3. सर्वेक्षण विधि को हम पूरी तरह विश्वास योग्य नहीं मान सकते हैं। किसी भी चीज़ का अवलोकन करते समय हमारी नज़र हमारे विचारों, संस्कारों से प्रभावित होती है। हम घटना में सिर्फ वह चीज़ देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। हम उन चीज़ों को देखते भी नहीं, जो हमें पसंद नहीं हैं। आमतौर पर किसी घटना के अवलोकन से ही हम निष्कर्ष निकाल लेते हैं। हम औरों से सूचना प्राप्त करते हैं जिससे ग़लती की संभावना ज्यादा हो जाती है।

4. सर्वेक्षण विधि में सैंपल प्रणाली का आमतौर पर प्रयोग होता है। सैंपल प्रतिनिधित्वपूर्ण हैं या नहीं, इसके बारे ह नहीं सकते। यह हो सकता है कि सैंपल का चुनाव करते समय अनुसंधानकर्ता ने अपनी रुचि का भी ध्यान रखा है। इन हालातों में सैंपल से निकाले गए निष्कर्ष प्रतिनिधित्वपूर्ण नहीं हो सकते। यह निष्कर्ष हर समय लागू नहीं हो सकते। सैंपल में अभिनीत आने का भी खतरा होता है जो कि वैज्ञानिक विधि के लिए ठीक नहीं है।

5. सर्वेक्षण विधि में खर्चा बहुत होता है तथा समय भी बहुत अधिक लगता है। इस कारण से ही यह व्यक्तिगत अनुसंधानों में मुमकिन नहीं है। यह तो सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा ही प्रयोग होती है। इसलिए इसका प्रयोग बहुत ही सीमित है।

अंत में हम कह सकते हैं कि चाहे इस विधि में कुछ दोष हैं, परंतु फिर भी अगर इस विधि को सावधानी से प्रयोग किया जाए तो इससे बहुत ही विश्वसनीय निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

प्रश्न 13.
साक्षात्कार किसे कहते हैं? इसके उद्देश्यों तथा प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार सामाजिक अनुसंधान की एक महत्त्वपूर्ण रीति है। साक्षात्कार का अर्थ उन व्यक्तियों से है जो किसी विशेष घटना से संबंधित होते हैं। मिलन तथा उस घटना के संबंध में औपचारिक वार्तालाप होता है। वार्तालाप एक निश्चित क्षेत्र में मतलब उस घटना के साथ संबंधित होता है पर यह स्वतंत्र तता अच्छे वातावरण में होता है।

इसें साक्षी (उत्तरदाता) अपने दिल की बात कहता है। इसमें शोधकर्ता किसी घटना से संबंधित व्यक्ति के आमने सामने बैठकर बातचीत करता है तथा उससे प्रश्न पूछकर सूचना प्राप्त करता है। उस सूचना के आधार पर वह उस घटना या विषय के संबंध में निष्कर्ष बना लेता है।

पी०वी०यंग (P.V. Young) के अनुसार, “साक्षात्कार एक ऐसी क्रमबद्ध विधि है जिसके द्वारा व्यक्ति करीब करीब अपनी कल्पना की मदद से अपेक्षाकृत अपरिचित के जीवन में प्रवेश करता है।” ।

(“The interview may be regarded as a systematic method by which one person enters more or less, imaginatively into the inner life of another who is generally a comparative stranger to him.”‘)
गूड तथा हाट (Goode and Hatt) के अनुसार, “साक्षात्कार आधारभूत रूप में एक सामाजिक प्रक्रिया है।” (“Interview is fundamentally a process of social interaction.”)।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि साक्षात्कार सूचना इकट्ठी करने की एक क्रमबद्ध विधि है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी उद्देश्य को सामने रखकर आपस में बातचीत या संवाद करते हैं तथा सूचना एकत्र की जाती है। यह दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच वार्तालाप होता है तथा शोध से संबंधित सूचना एकत्रित की जाती है।

साक्षात्कार के उद्देश्य-(Aims of Interview): साक्षात्कार के आम तौर से दो उद्देश्य होते हैं-
1. घटना से संबंधित व्यक्ति से ऐसी सूचना प्राप्त करना जो सिर्फ उसे पता हो तथा किसी और साधन से उसे प्राप्त न किया जा सकता हो।
इस बात का पता करना कि किन्हीं विशेष हालातों में व्यक्ति किस प्रकार का शाब्दिक व्यवहार करता है।

2. पहले उद्देश्य के लिए शोधकर्ता कोई विषय चुन कर उत्तरदाता से उस विषय से संबंधित घटना या प्रक्रियाओं के बारे में पूछता है तथा सुनता है। शोधकर्ता उस को ध्यान से सुनता है तथा यह जानने की कोशिश करता है कि उसकी उपकल्पना सही है या ग़लत। दूसरे उद्देश्य के लिए शोधकर्ता उत्तरदाता की सूचना के साथ-साथ उसके चेहरे के हाव-भाव को ध्यान से देखता है। यहां शोधकर्ता समाजशास्त्री की जगह सामाजिक मनोवैज्ञानिक होता है तथा घटना की जगह उसकी भाषा शैली तथा हाव-भाव में होने वाले परिवर्तनों पर ध्यान रखता है।

यह दोनों उद्देश्य साथ-साथ चलते हैं। फ़र्क सिर्फ इतना होता है कि शोध की प्रकृति के अनुसार किसी उद्देश्य पर जोर देना पड़ता है। दूसरा उद्देश्य सूचना की सच्चाई पता करने के लिए होता है।

साक्षात्कार के प्रकार-(Types of Interview):
1. नियंत्रित साक्षात्कार (Structured Interview)-इसे नियोजित साक्षात्कार भी कहा जाता है। इसमें अनुसूची का प्रयोग होता है। सारी प्रक्रियाएं नियोजित होती हैं तथा शोधकर्ता नियोजन के अनुसार चलता है। साक्षात्कार प्रश्न उत्तर के रूप में होता है। उत्तरदाता प्रश्नों के उत्तर देता है तथा शोधकर्ता अनुसूची में भरता जाता है। प्रश्नों के उत्तर के अलावा कुछ भी न तो नोट किया जाता है तथा न ही उसका महत्त्व होता है।

2. अनियंत्रित साक्षात्कार (Unstructured Interview) इसे कहानी टाइप साक्षात्कार भी कहते हैं। इसमें निश्चित प्रश्न नहीं होते। शोधकर्ता सिर्फ विषय के बारे में बता देता है तथा उत्तरदाता उस विषय से संबंधित घटना या प्रतिक्रिया को एक कहानी की तरह बताता है। उसे अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता होती है तथा साक्षात्कारी पूरी तरह स्वतंत्र होता है। ज्यादा-से-ज्यादा घटना से संबंधित कोई प्रश्न पूछा जा सकता है।

3. केंद्रित साक्षात्कार (Focused Interview) इस प्रकार का साक्षात्कार रेडियो या फिल्म के प्रभाव को पता करने के लिए होता है। शोधकर्ता सिर्फ इस बात का ध्यान रखता है कि किसी घटना का किसी व्यक्ति प्रभाव पड़ा। उत्तरदाता अपने विचारों, मनोभावों को बताता है। इसके लिए Interview Guide की मदद भी ली जा सकती है। यह भी स्वतंत्र रूप में वर्णित किया जाता है।

4. आवृत्तिपूर्ण साक्षात्कार-इस प्रकार का साक्षात्कार किसी सामाजिक या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया द्वारा पड़ने वाले क्रमिक प्रभाव को जानने के लिए होता है। कई घटनाओं का प्रभाव ज्यादा देर रहता है। इसलिए इस को पता करने के लिए एक ही साक्षात्कार से काम नहीं चलता तो यह बार-बार किया जाता है।

इस प्रकार के साक्षात्कार में पैसा तथा समय काफ़ी खर्च होता है। इसलिए व्यक्तियों की संख्या कम होनी चाहिए।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 परियोजना कार्य के लिए सुझाव

प्रश्न 14.
साक्षात्कार की तैयारी की पूर्ण प्रक्रिया का संक्षिप्त वर्णन दें।
उत्तर:
अगर साक्षात्कार अच्छे तरीके से करना है तो उसके लिए कुछ तैयारी की ज़रूरत है जिसका वर्णन इस प्रकार है-
1. समस्या का ज्ञान-साक्षात्कार शुरू करने से पहले उत्तरदाता को साक्षात्कार करने के लिए राजी करना होता है। शोधकर्ता को उत्तरदाता की शंका निवारण के लिए कई प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है।

इसलिए सबसे पहले शोधकर्ता या कार्यकर्ताओं को समस्या तथा उसके अलग-अलग पहलुओं का पूरा ज्ञान होना ज़रूरी है। अगर समस्या का ठीक तरीके से पता न हो तो आम तौर पर लोग साक्षात्कार देने से इंकार कर देते हैं। इसलिए सबसे पहले शोधकर्ता को समस्या का सही ज्ञान होना जरूरी है ताकि वह शंकाओं का निवारण कर सके।

2. साक्षात्कार प्रदर्शिका का निर्माण (Making of Interview Guide) समस्या का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् दूसरा काम Interview guide को तैयार करना होता है। Interview Guide एक लिखित आलेख होता है जिसमें Interview की योजना का संक्षेप वर्णन होता है। इसमें अनुसूची या प्रश्नावली की भांति निश्चित प्रश्न नहीं होते पर Interview की साधारण विधि समस्या के विभिन्न पक्षों जिन पर सूचना प्राप्त करनी है व विशेष स्थिति नर्देश होती है।

समस्या से संबंधित भिन्न इकाइयों की सही परिभाषा व अर्थ भी दिया जाता है ताकि इकाइयों का अर्थ समझने में विभिन्नता न हो। सारांश यह है कि Interview Guide इस काम के लिए भेजी ज कि उनके क्रम में एकरूपता रहे। इसलिए Interview लेने वाले के वर्णन को नोट करने की विधि का उल्लेख भी Guide में होना चाहिए।

3. Interview लेने वालों का चुनाव (साक्षी)-समस्या के अध्ययन व Interview Guide के निर्माण के पश्चात् उन व्यक्तियों का चुनाव करना पड़ता है जिनसे Interview की जानी है। इसके लिए निर्देशन प्रणालियों में किसी एक को अपनाया जा सकता है। इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि चुने हुए व्यक्तियों को अनुसंधान के विषय से संबंधित होने से Interview के लिए उपलब्ध हो सकें। इसके लिए उनके पते का होना भी ज़रूरी है। इस प्रकार के Interview में समय अधिक लगता है। इसलिए चुने हुए व्यक्तियों की संख्या कम होनी चाहिए।

4. Interview देने वालों के संबंध में सूचना-यदि पैनल विधि का उपयोग नहीं किया गया तो Interview देने वाले नए हैं तो उनके संबंध में आरंभिक ज्ञान प्राप्त कर लेना अधिक उपयोगी है। इसके लिए साक्षियों में स्वभाव, मिलनसारता, रुचियां, पेशे फुर्सत के समय आदि का ठीक-ठीक पता कर लेना आमतौर से Interview के काम में बहुत सहायक होता है।

इसको जांच लेने से Interview लेने वाला सजग व सावधान रहता है व ऐसे हालात नहीं पैदा होने देता जिससे कि साक्षी नाराज़ हो जाए। इसके सिवा उससे उचित समय पर मिला जा सकता है। इस प्रकार के ज्ञान के अभाव में कभी-कभी Interview लेने वाला ऐसी भूल कर जाता है जिससे Interview समाप्त हो जाता है या ऐसी स्थिति का एक दम से सामना करना पड़ता है कि जिसके लिए वह बिल्कुल तैयार नहीं होता।

5. Interview के समय का पूर्व निर्धारण-आमतौर पर Interview के लिए पहले ही, समय व स्थान निश्चित कर लेना अधिक उपयोगी होता है। इससे एक तो साक्षी समझता है कि अनुसंधानकर्ता से उसके समय का महत्त्व पता है व उसके अहम को चोट नहीं लगती। इसके अलावा जब अनुसंधानकर्ता साक्षी के घर पहुंचता है तो वह एकदम अचानक नहीं पहंच जाता। साक्षी एक प्रकार से उसके इन्तज़ार में रहता है व उसके लिए उचित प्रबंध कर लेता है।

साथ ही साथ उसको संबंधित विषय पर सोचने का मौका मिल जाता है। एकदम पहुंचने से साक्षी कभी-कभी बिगड़ जाते हैं व Interview देने से मना कर सकता है या कम-से-कम दोबारा आने के लिए कह सकता है। इसके सिवा समय का पूर्व निर्धारण कर लेने से Interview लेने वाला सही समय पर पहुंचता है। एकदम ग़लत समय पर पहुंचने का भी कभी-कभी ग़लत प्रभाव पड़ता है व साक्षी हमेशा के लिए अनुसंधानकर्ता के संबंध में गलत धारणा बना लेता है जिसका प्रभाव Interview व सूचना पर भी पड़ता है।

यदि ऐसा न हो तो एक ही व्यक्ति के पास बार-बार जाने से बहुत समय बर्बाद होता है। एकदम बिना पूर्व सूचना के पहुंच जाने से यह भी हो सकता है कि साक्षी घर पर ही न हो या बहुत Busy होने पर Interview करने की मनोस्थिति में न हो। ऐसी दशा में वह अनुसंधानकर्ता को फिर आने के लिए कहेगा तो व्यर्थ ही इस प्रकार बहुत समय बर्बाद होगा। समय का पूर्व निर्धारण पत्र के द्वारा व टेलीफोन के द्वारा किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
साक्षात्कार विधि की सीमाओं का वर्णन करो।
उत्तर:
साक्षात्कार विधि की सीमाएं-(Limitations of Interview Method):
(1) इस प्रकार के Interview के संचालन के लिए उच्च कोटि की चतुरता या बुद्धि ज़रूरी है। Interview लेने वाले का व्यक्तिगत पूरा शक्तिशाली होना चाहिए ताकि वह सफलतापूर्वक साक्षी से सच कहला सके। जो काम करने वाले इस काम के लिए नियुक्त किए जाते हैं उनमें शायद ही यह गुण पाया जाता है। इसका फल यह होता है कि पूरी अविश्वासी विषय से संबंधित व झूठी सामग्री एकत्र हो जाती है।

(2) इस विधि में बहुत कुछ व्यक्ति प्रधानता होती है। साक्षी जो कुछ कहता है वह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसको सुनने वाला कौन है। इसलिए उसका वर्णन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ बदलता रहता है। इसके अलावा किसी घटना के लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से समझते व वर्णन करते हैं। इसके लिए एक ही घटना के भिन्न वर्णन हो सकते हैं।

(3) इस विधि द्वारा प्राप्त सामग्री का सच सदा शक होता है। उसमें ग़लती के अनेक कारण हो सकते हैं। Invalidity को दूर रखने के जो प्रतिबंध प्रयोग किए गए हैं वह अभी तक पूरी तरह प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुए हैं। अनुसूची द्वारा जो सूचना छोटे-छोटे प्रश्न उत्तरों के रूप में ली जाती है उसकी जगह वर्णात्मक कथन में ग़लती, झूठ आदि बातें कहने को अधिक उत्साह मिलता है। व्यक्ति की कल्पना को इससे ज्यादा बल प्राप्त होता है व अधिकतर अंश काल्पनिक ही होते हैं।

(4) इस विधि में Interview के लिए राजी करना भी एक समस्या है। अनुसूची में लिखित साधारण प्रश्न को उत्तर की संक्षेप में लोग भी दे देते हैं। पर खुल कर खुले दिल से अपने साथ बीती घटनाओं का सिलसिला व सही विवरण सुनाना बहुत कम लोग स्वीकार करते हैं। यह मुश्किल उस समय और भी बढ़ जाती है जब अनुसंधान का विषय साक्षी के व्यक्तिगत जीवन से संबंधित किसी भावात्मक घटना के बारे में होता है। जैसे प्रेम ववाह या तलाक संबंधी अनुसंधान।

(5) इस विधि में Interview लेने वाला पूरी तरह साक्षी की कृपा पर निर्भर रहता है। प्रत्यक्ष अवलोकन के अभाव में इस बात का निर्णय बहुत मुश्किल हो जाता है कि वर्णन में झूठ का अंश कितना है। साक्षी यदि ईमानदार है तो ही यह संभव है कि उसकी समझने की शक्ति (याददाशत) ठीक न हो, उसमें घटना की गहराई देखने से समझने की शक्ति न हो या घटना का ठीक-ठीक वर्णन न कर पाता हो।

(6) इस प्रकार के वर्णन भावनाओं की पूरी सीमा तक प्रभावित होते हैं। वह प्रमाणित नहीं होते व लोग मनमाने ढंग से वर्णन करते हैं। इसलिए सामग्री के वर्गीकरण व सारणी या सांख्यिकी विवेचन में मुश्किल होती है। आमतौर पर साक्षी व Interview लेने वाला ही अलग वातावरण व समाज दर्शन की कल्पना करते हैं व किसी विशेष सामाजिक घटना के संबंध में उनके विचार भिन्न हो सकते हैं यदि उनके विचार एक जैसे भी हो तो भी संभव हो सकता है कि जाने या अनजाने साक्षी अपने महत्त्वपूर्ण अनुभवों में कुछ को छोड़ देने पर इस तरह उसका वर्णन एक प्रकार से केवल एक तरफा, अपूर्ण व व्यर्थ का ही रह जाए।

प्रश्न 16.
साक्षात्कार विधि के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार विधि के गुण
(Merits of Interview Method)
(1) Interview विधि अनुसंधान की सबसे लचीली विधि है। यदि साक्षात्कारों के प्रश्न समझ में न आएं तो उन्हें और शब्दों में पूछा जा सकता है, प्रश्नों को दोबारा पूछा जा सकता है व उनके महत्त्व को समझा जा सकता है। इसके अलावा Interview लेने वाले को भी इस बात का मौका मिलता है कि वह दिए गए उत्तरों की जांच कर ले।

वह साक्षी के भाव, बोलने के ढंग से ही पता लगा लेता है कि साक्षी सच कह रहा है झूठ। यदि साक्षी कुछ विरोधी बातें कहता है तो यह इनकी जांच कर सकता है। कहने का मतलब यह है कि Interview द्वारा वर्णन को शुदधि करने का मौका मिलता है व सूचना अधिक विश्वास योग्य होती है।

(2) सामाजिक अनुसंधान में उपयोग की जाने वाली विधियों की तुलना में Interview विधि अधिक उपयोगी है। जैसे प्रश्नावली में हम केवल उन्हीं व्यक्तियों को अपने अध्ययन में चुने गए Sample की इकाई के रूप में शामिल करते हैं जोकि आमतौर पर शिक्षाप्रद हो और प्रश्नावली में दिए गए प्रश्नों को स्पष्ट रूप में समझता हो तो ही वह संतोषजनक उत्तर देगा पर Interview विधि में सभी वर्गों व स्तर के लोगों का अध्ययन कर प्रभावित तथ्य इकट्ठे कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यह विधि नीरस या बोर नहीं होती बल्कि Interview लेने वाले व देने वाले Interview के दौरान एक-दूसरे के लिए नियंत्रक व आपसी प्रेरणा के रूप में काम करते हैं।

(3) Interview विधि द्वारा हम उन घटनाओं का भी अध्ययन कर सकते हैं जो प्रत्यक्ष अवकोलन के अयोग्य हैं व जिनका पता साक्षी के अलावा किसी को नहीं है। अधिकतर सामाजिक घटनाएं विषय श्रेणी की होती हैं। इसलिए Interview ही सामाजिक अनुसंधान की सबसे बढ़िया विधि है।

(4) भावात्मक स्थितियों में जैसे, विचार, भावनाओं व प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए यह बढ़िया विधि है। सभी तथ्य प्रत्यक्ष अवलोकन के लिए ठीक नहीं होते। किसी घटना से किसी व्यक्ति की मानसिक दशा पर क्या प्रभाव पड़ा इसको वही व्यक्ति जान सकता है, जो उसके संपर्क में रहा हो। इसलिए Interview द्वारा हम इसका पता आसानी से लगा सकते हैं। इस दृष्टिकोण से यह पद्धति सबसे गहरी मानी जा सकती है।

(5) Interview द्वारा हम किसी सामाजिक घटना का अध्ययन उसकी ऐतिहासिक भावनात्मक पृष्ठभूमि से कर सकते हैं। इसकी सहायता के बिना उनका असली महत्त्व जानना मुश्किल होता है। हमारी अधिकतर क्रियाएं भावनाओं द्वारा प्रभावित होती हैं और परिस्थितियों व भावनाओं को जाने बिना हमारा किसी घटना का अध्ययन अधूरा रहेगा। वर्णात्मक Interview में इस प्रकार हमें किसी घटना का सारा सच्चा स्वरूप पता लग सकता है।

(6) Interview द्वारा प्राप्त सूचना पर यदि उचित नियंत्रण का उपयोग किया जाए तो वह पूरी सीमा तक सही पाया जाता है। असल में जिन विशेष परिस्थितियों के लिए उसका उपयोग किया जाता है उसके लिए यह एकमात्र संभव विधि है।

प्रश्न 17.
ब्रोनिस्लाव मैलिनोवस्की द्वारा फील्डवर्क के आविष्कार पर चर्चा करें।
उत्तर:
मैलिनोवस्की को फील्डवर्क का आविष्कार माना जाता है। चाहे उससे पहले भी फील्डवर्क के अलग-अलग प्रकार प्रयोग में लाए जा चुके थे परंतु मैलिनोवस्की को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उसने फील्डवर्क को एक विधि के रूप में मानवशास्त्र में स्थापित किया। 1914 में जब यूरोप में पहला विश्व युद्ध शुरू हो गया था तो मैलिनोवस्की उस समय ऑस्ट्रेलिया में था। उस समय ऑस्ट्रेलिया ब्रिटिश साम्राज्य का एक हिस्सा था तथा मैलिनोवस्की पोलैंड का नागरिक था।

क्योंकि पोलैंड को जर्मनी ने जीत लिया था इसलिए पोलैंड को ब्रिटेन द्वारा दुश्मन देश घोषित कर दिया गया था। मैलिनोवस्की उसकी पोलिश नागरिकता के कारण दुश्मन समझा गया। मैलिनोवस्की लंडन ऑफ इकोनोमिक्स का एक प्रसिद्ध प्रोफैसर जिस वजह से उसके ब्रिटिश तथा ऑस्ट्रेलियाई अधिकारियों से अच्छे संबंध थे। परंतु क्योंकि तकनीकी रूप से वह शत्रु था इसलिए या तो उसे नज़रबंद करना चाहिए था या फिर किसी विशेष जगह तक ही उसे सीमित कर देना चाहिए था।

मैलिनोवस्की ऑस्ट्रेलिया में कई जगह घूमता रहा। अंत में वह अपनी मानवी शास्त्रीय खोज के लिए South Pacific के द्वीपों पर जाना चाहता था। इसलिए उसने उच्च अधिकारियों से इस बारे में बात की कि उसे Tribriand के द्वीपों पर जाने की इजाजत दी जाए जोकि ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थे। सरकार ने न सिर्फ इस बात की इजाजत दी बल्कि उसको वहां जाने तथा कार्य करने के लिए पैसा भी दिया। उसने उन द्वीपों पर डेढ़ साल बिताया।

वह वहां के गांवों में टैंटों में रहा, वहां की भाषा सीखी तथा उनकी संस्कृति को जानने के लिए उनके साथ नज़दीकी से अंतर्किया की। उसके अपने निरीक्षण का एक विस्तृत तथा सावधानी भरा रिकार्ड रखा तथा उसमें एक रोज़ाना डायरी भी रखी। उसने बाद में Trobriand संस्कृति पर कुछ किताबें भी लिखी, जोकि उसकी रोजाना की डायरियों तथा फील्ड नोट पर आधारित थी। बाद में यह किताबें काफ़ी मशहूर हो गईं तथा आज भी उन्हें काफ़ी महत्त्वपूर्ण समझा जाता है।

Trobriand के अनुभव से पहले ही मैलिनोवस्की को एक पक्का विश्वास हो गया था कि मानवशास्त्र का भविष्य स्थानीय संस्कृति तथा मानवीशास्त्रीय के बीच सीधे संबंध में छुपा हुआ है। उसको पता चल गया था कि यह विषय उस समय तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक कि मानवशास्त्रीय अपने आपको सीधे निरीक्षण से नहीं जोड़ लेता अध्ययन किए जाने वाले समह की भाषा को नहीं सीख लेता।

यह निरीक्षण इस दृष्टि से हो कि मानवशास्त्री उस समूह के बीच रहे, उनके जीवन का अवलोकन करे ताकि उसका उद्देश्य हल हो सके। उसको स्थानीय भाषा सीखनी चाहिए ताकि किसी मध्यस्थ की ज़रूरत न पड़े तथा वह उनके जीवन को सही दृष्टि से देख सके।

उसकी Trobriand की यात्रा तथा अध्ययन ने मानवशास्त्र में फील्डवर्क की ज़रूरत को बल दिया तथा इसके बाद मानवशास्त्र में फील्डवर्क होना शुरू हो गया। इस तरह फील्डवर्क की मदद से मानवशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करने में बहुत सहायता मिली।

प्रश्न 18.
भारतीय समाजशास्त्र में फील्डवर्क की महत्ता के बारे में चर्चा करें।
उत्तर:
भारतीय समाजशास्त्र में गांवों के अध्ययन के लिए फील्डवर्क को एक विधि के रूप में प्रयोग किया गया। 1950 के दशक में समाजशास्त्रियों तथा मानवशास्त्रियों, देसी तथा विदेशी, दोनों ने ग्रामीण जीवन का अध्ययन करना शुरू किया। गांव ने कबाईली समुदाय के जैसा कार्य किया। गांव को भी एक बंधा हुआ समुदाय माना गया जोकि इतना छोटा होता है कि एक व्यक्ति द्वारा अकेले भी अध्ययन हो सकता है।

एक व्यक्ति ग्रामीण जीवन के प्रत्येक पक्ष का आसानी से अध्ययन कर सकता है। इसके साथ ही भारतीय पढ़े-लिखे वर्ग में यह महसूस किया गया कि मानवशास्त्र साम्राज्यवाद की नीतियों के अनुसार चलता है। इसलिए गांवों को अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र ही ठीक है।

भारत में ग्रामीण क्षेत्रों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इससे अभी-अभी स्वतंत्र हुए भारत को काफ़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती थी। सरकार भी ग्रामीण भारत को विकसित करने की पक्षधर थी। देश का राष्ट्रीय आंदोलन तथा गांधी जी भी ग्रामीण क्षेत्रों को ऊपर उठाने के कार्यक्रम चलाने के पक्षधर थे। इसके साथ पढ़े-लिखे तथा शहरों में रहने वाले लोग भी ग्रामीण जीवन को ऊंचा उठाने के पक्षधर थे। क्योंकि उनके परिवार के कुछ सदस्य अभी भी गांवों में रहते थे तथा उनके गांवों से ऐतिहासिक Links थे।

इसके अलावा भारत की बहुत ज्यादा जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती थी। इन सभी कारणों के कारण गांवों का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया तथा भारतीय समाजशास्त्र का एक अभिन्न अंग बन गया। इन सब के साथ फील्डवर्क ग्रामीण जीवन को समझने के लिए एक अच्छी विधि थी। इसलिए फील्डवर्क की समाजशास्त्र में महत्ता काफ़ी बढ़ गई। वैसे फील्डवर्क की समाजशास्त्र में महत्ता निम्नलिखित भी है-
(1) फील्डवर्क से अनुसंधानकर्ता को अध्ययन किए जाने वाले समूह के काफ़ी नज़दीक जाने का अवसर प्राप्त होता है जिससे वह ज्यादा सूक्ष्म रूप से अध्ययन कर सकता है। किसी व्यक्ति के परिवार के जीवन का सबसे बढ़िया तथा सच्चा परिचय उसको होगा जो उसके साथ उसके घर में रहा हो।

(2) फील्डवर्क में निरीक्षणकर्ताओं को समूह के अलग-अलग व्यवहारों, आपसी संबंधों तथा रिवाजों को अच्छी तरह समझने की शक्ति प्राप्त होती है। कोई भी बाहर से रीति-रिवाजों, व्यवहार को नहीं समझ सकता। उसके लिए समूह के अंदर जाना पड़ता है तथा फील्डवर्क में यह मुश्किल है।

(3) फील्डवर्क स्वाभाविक हालात में संभव है। जब लोगों को पता चलता है कि कोई उनका निरीक्षण कर रहा है तो उनके व्यवहार में अस्वाभाविकता आ जाती है तथा बनावटीपन भी आ जाता है। इससे निरीक्षणकर्ता को सही सूचना प्राप्त नहीं होती। इसलिए सही सूचना प्राप्त करने के लिए फील्डवर्क बहुत ज़रूरी है।

(4) फील्डवर्क देखने वाले की नज़र को ज्यादा सूक्ष्म बना देता है ताकि वह जल्दी-से-जल्दी उचित नतीजों को ग्रहण कर सके। समूह में रहने के बाद निरीक्षणकर्ता समूह की क्रियाओं तथा व्यवहार से परिचित हो जाता है तथा छोटी-सी ग़लती भी उसका ध्यान खींच लेती है।

(5) फील्डवर्क ज्यादा सुविधाजनक होता है। इसमें व्यक्ति समूह में उसके सदस्य के रूप में जाता है न कि निरीक्षणकर्ता के रूप में चाहे उसका उद्देश्य दूसरा होता है। संबंधित व्यक्ति भी इसका विरोध नहीं करते। इस तरह फील्डवर्क निरीक्षणकर्ता को ज्यादा सुविधा देता है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र में फील्डवर्क की बहुत महत्ता है। किसी समूह या संस्था के बारे में विस्तृत जानकारी फील्डवर्क की मदद से ही संभव है।

परियोजना कार्य के लिए सुझाव HBSE 12th Class Sociology Notes

→ इस अध्याय में हमें कुछ छोटी-छोटी अनुसंधान परियोजनाओं के बारे में पता चलेगा जिन पर हम कार्य कर सकते हैं। वास्तव में अनुसंधान के बारे में पढ़ने तथा उसे वास्तव में करने में बहुत अंतर होता है तथा यह अध्याय हमें इसके बारे में ही बताता है।

→ प्रत्येक अनुसंधान प्रश्न पर कार्य करने के लिए एक उपयुक्त अनुसंधान पद्धति की आवश्यकता होती है तथा एक प्रश्न का उत्तर अक्सर एक से अधिक पद्धतियों से दिया जा सकता है। परंतु यह ज़रूरी नहीं है कि एक अनुसंधान पद्धति सभी प्रश्नों के लिए उपयुक्त हो। इसे बहुत ही सावधानीपूर्वक चुनना पड़ता है। अनुसंधान पद्धति के चुनाव के लिए व्यावहारिकता को ध्यान में रखना चाहिए। व्यावहारिकता में कई बातें शामिल होती हैं जैसे कि अनुसंधान के लिए उपलब्ध समय की मात्रा, लोगों एवं सामग्री दोनों के रूप में उपलब्ध संसाधन, वह हालात जिनमें शोध किया जाना है इत्यादि।

→ शोध में बहुत-सी पद्धतियां प्रयोग की जा सकती हैं। सबसे पहली पद्धति है सर्वेक्षण प्रणाली जिसमें सामान्यतः निर्धारित प्रश्नों को अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में लोगों से पूछा जाता है। इसमें उत्तरदाता प्रश्न सुनकर उत्तर देता है तथा अन्वेषक उन उत्तरों को लिख लेता है। इसे प्रश्नावली विधि में भी प्रयोग किया जा सकता है।

→ शोध में साक्षात्कार प्रणाली को भी प्रयोग किया जाता है जिसमें उत्तरदाता से आमने-सामने बैठ कर प्रश्न पूछे जाते हैं तथा अन्वेषक उन उत्तरों को या तो रिकार्ड कर लेता है या लिख लेता है। साक्षात्कार लेते समय तक भी चल सकता है।

→ प्रेक्षण पद्धति में शोधकर्ता अपने शोधकार्य के लिए निर्धारित परिस्थिति या संदर्भ में क्या कुछ हो रहा है इस पर बारीकी से नज़र रखता है तथा उसका अभिलेख तैयार करता है। चाहे वह कार्य काफ़ी सरल दिखाई देता है परंतु यह होता नहीं है। परियोजना कार्य पर शोध करने के लिए एक से अधिक पदधतियों का सम्मिश्रण भी किया जा सकता है तथा इसके लिए अक्सर सिफ़ारिश भी की जा जाती है।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

HBSE 12th Class Sociology सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
सांस्कृतिक विविधता का क्या अर्थ है? भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश क्यों माना जाता है?
अथवा
सांस्कृतिक विविधता के दो कारकों (कारणों) की व्याख्या कीजिए।
अथवा
भारत में सांस्कृतिक विविधता की झलक का परिचय दें।
उत्तर:
शब्द विविधता में असमानताओं के स्थान पर अंतरों पर जोर दिया जाता है। जब हम यह कहते हैं कि हमारा देश भारत एक महान् सांस्कृतिक विविधताओं से भरपूर राष्ट्र है तो इसका अर्थ यह होता है कि यहाँ बहुत से सामाजिक समूह तथा समुदाय रहते हैं। इन समुदायों को सांस्कृतिक चिह्नों जैसे कि भाषा, धर्म, पंथ, प्रजाति या जाति के द्वारा परिभाषित किया जाता है।

भारत में कई प्रकार की जातियों व धर्मों के लोग रहते हैं जिस कारण उनकी भाषा, खान-पान, रहन-सहन, परंपराएं, रीति-रिवाज़ इत्यादि अलग-अलग हैं। हरेक समूह के विवाह के ढंग, जीवन प्रणाली इत्यादि भी अलग अलग हैं। प्रत्येक धर्म के धार्मिक ग्रंथ अलग-अलग हैं तथा उनको सभी अपने माथे से लगाते हैं। यहां नृत्य, वास्तुकला, चित्रकला, त्योहार, मेले इत्यादि अलग-अलग हैं। इस कारण ही भारत को अत्यंत विविधतापूर्ण देश माना जाता है।

प्रश्न 2.
सामुदायिक पहचान क्या होती है और वह कैसे बनती है?
उत्तर:
सामुदायिक पहचान जन्म तथा संबंधों पर आधारित होती है न कि किसी की अर्जित योग्यता अथवा उपलब्धि के आधार पर। यह इस बात का सूचक है कि ‘हम क्या हैं न कि हम क्या बन गए हैं। किस समुदाय में हमने जन्म लेना है यह हमारे हाथ में नहीं होता है। असल में यह हमारे वश में नहीं है कि हमारा जन्म किस परिवार, समुदाय या देश में होता है। इस प्रकार सामुदायिक पहचान प्रदत्त होती है अर्थात् यह जन्म के अनुसार निर्धारित होती है तथा संबंधित लोगों की पसंद या ना पसंद इसमें शामिल नहीं होती।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

प्रश्न 3.
राष्ट्र को परिभाषित करना क्यों कठिन है? आधुनिक समाज में राष्ट्र और राष्ट्र कैसे संबंधित हैं?
उत्तर:
आज के समय में राष्ट्र को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है तथा इसके संबंध में यही कहा जा सकता है कि राष्ट्र एक ऐसा समुदाय होता है जिसने अपना राज्य बना लिया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके विपरीत रूप भी अधिक मात्रा में सच हो गए हैं। जिस प्रकार आज भावी राष्ट्रीयताएँ अपना राज्य बनाने के प्रयास कर रही हैं वैसे ही मौजदा राज्य यह दावा कर रहे हैं कि वे एक राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

आप महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक वैधता के प्रमुख स्रोतों के रूप में लोकतंत्र तथा राष्ट्रवाद स्थापित हुए हैं। इसका अर्थ यह है कि आज एक राज्य के लिए राष्ट्र एक सबसे अधिक स्वीकृत आवश्यकता है। जबकि लोग राष्ट्र की वैधता के सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राज्यों को राष्ट्र की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी राष्ट्रों को राज्य की।

प्रश्न 4.
राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु क्यों होते हैं?
उत्तर:
सांस्कृतिक विविधता का अर्थ है देश में अलग-अलग धर्मों, समुदायों, प्रजातियों, संस्कृतियों, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों का मौजूद होना। परंतु सांस्कृतिक विविधता के कारण देश में बहुत-सी समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं जैसे कि जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, जातीय दंगे इत्यादि। इससे देश का माहौल काफ़ी खराब हो जाता है। इस कारण ही राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु होते हैं।

प्रश्न 5.
क्षेत्रवाद क्या होता है? आमतौर पर यह किन कारकों पर आधारित होता है?
अथवा
क्षेत्रवाद की कोई दो विशेषताएँ बताएँ।
अथवा
क्षेत्रवाद के कोई दो कारण बताइए।
अथवा
भारतीय समाज में संदर्भ में क्षेत्रवाद पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
जब कोई अपने क्षेत्र को प्यार करने लगे तथा दूसरे क्षेत्रों से नफरत करने लगे तो उसे क्षेत्रवाद कहते हैं। अपने क्षेत्र के लोगों को बढ़ावा देना भी क्षेत्रवाद का एक रूप है। इसमें दूसरे क्षेत्र के लोगों को विदेशी समझा जाता है। उदाहरण के लिए पंजाब में बिहारी को विदेशी समझा जाता है। इस प्रकार अपने ही क्षेत्र के हितों की माँग करने को क्षेत्रवाद कहते हैं। क्षेत्रवाद का संकल्प स्वतंत्रता के पश्चात् सामने आया। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने राज्यों को अंग्रेजों द्वारा स्थापित स्थिति के अनुसार बना कर रखा।

इससे देश के अलग-अलग भागों से भाषायी आधार पर अलग अलग राज्य बनाने की माँग उठने लगी। मद्रास राज्य में कई भाषाएं बोलने वाले लोग रहते थे जिस कारण उनमें काफ़ी समस्याएँ उत्पन्न होती थीं इसलिए ही भारत सरकार ने 1956 में राज्यों का भाषायी आधार पर पुनर्गठन किया तथा भाषा के आधार पर 19 राज्यों का गठन किया। इसके बाद भी भाषा के आधार पर अथवा क्षेत्र के आधार पर राज्यों का गठन किया गया। यहीं से क्षेत्रवाद की भावना उत्पन्न हुई।

क्षेत्रवाद के कारक-अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद असंतुलन क्षेत्रवाद का प्रमुख कारण है। किसी क्षेत्र को केंद्र की अधिक सहायता प्राप्त होती है तथा किसी को कम, किसी क्षेत्र के स्वयं के संसाधन अधिक हैं किसी में कम।। अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएं इत्यादि ऐसे कारण हैं जो क्षेत्रवाद को जन्म देते हैं। इस कारण राजनीतिक दल सामने आते हैं तथा वह क्षेत्रवाद की भावनाओं को भड़काते हैं जिससे क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार क्षेत्रीय असंतुलन के कारण क्षेत्रवाद उत्पन्न होता है।

प्रश्न 6.
आपकी राय में, राज्यों के भाषायी, पुनर्गठन ने भारत का हित या अहित किया है?
उत्तर:
1956 में भारत सरकार ने राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया था। इससे सरकार को प्रशासन चलाने में काफ़ी सुविधा हुई तथा उसने अलग-अलग क्षेत्रों की भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात भी मान ली थी। परंतु उसने इसके नकारात्मक प्रभाव के बारे में नहीं सोचा। राज्यों के भाषाई पुनर्गठन ने देश का अहित ही किया है। इससे क्षेत्रवाद की भावना उत्पन्न हुई। अलगाववाद की भावना को बल मिली, भाषा के आधार पर और राज्यों के गठन की मांग शुरू हुई। दक्षिण भारत के लोग तो आज भी हिंदी को अपनी भाषा नहीं मानते हैं। वह अपनी मातृ भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना ही पसंद करते हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

प्रश्न 7.
‘अल्पसंख्यक’ (वर्ग) क्या होता है? अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की क्यों ज़रूरत होती है?
अथवा
अल्पसंख्यकों को परिभाषित करें।
उत्तर:
किसी समाज में जब जनसंख्या में कुछ लोगों का कम प्रतिनिधित्व होता है उन्हें अल्पसंख्यक कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि कुल जनसंख्या में से कोई समूह जो धर्म, जाति या किसी और आधार पर कम संख्या में होते हैं वे अल्पसंख्यक होते हैं। भारत में मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, जैन धर्मों के लोग अल्पसंख्यक समूह हैं।

अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की ज़रूरत काफ़ी अधिक होती है क्योंकि वह कम संख्या में होते हैं। अगर उन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त न हो तो हो सकता है कि उन्हें बहुसंख्यक वर्ग द्वारा तंग किया जाए तथा उनका हरेक प्रकार से शोषण किया जाए। यह भी हो सकता है कि उनमें श्रीलंका की तरह जातीय संघर्ष उत्पन्न ह्ये जाए। इसलिए ही भारत में अल्पसंख्यकों को राज्य द्वारा हरेक प्रकार का संरक्षण दिया जाता है।

प्रश्न 8.
सांप्रदायवाद या सांप्रदायिकता क्या है?
अथवा
सांप्रदायिकता से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सांप्रदायवाद अथवा सांप्रदायिकता का अर्थ है धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद। उग्रवाद, अपने आप में एक ऐसी अभिवृत्ति है जो अपने समूह को ही वैध या श्रेष्ठ समूह मानती है और अन्य समूहों को निम्न, अवैध अथवा विरोधी समझती हैं। सरल शब्दों में सांप्रदायिकता एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म स प्रकार हम कह सकते हैं कि सांप्रदायिकता और कुछ नहीं बल्कि एक विचारधारा है जो जनता में एक धर्म के धार्मिक विचारों का प्रचार करने का प्रयास करता है तथा यह धार्मिक विचार और धार्मिक स विचारों से बिल्कुल ही विपरीत होते हैं। सांप्रदायिकता का मूल विचार है कि एक विशेष धर्म का और धर्मों की कीमत पर उत्थान। यह एक विचारधारा है जो यह कहती है कि एक धर्म के सदस्य एक समुदाय के सदस्य हैं तथा अलग-अलग धर्मों के सदस्य एक समुदाय का निर्माण नहीं करते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में वह विभिन्न भाव (अर्थ) कौन-से हैं जिनमें धर्म निरपेक्षता या धर्म निरपेक्षतावाद को समझा जाता है?
उत्तर:
भारतीय समाज 20 वीं शताब्दी से ही पवित्र समाज से एक धर्म-निरपेक्ष समाज में परिवर्तित हो रहा है। इस शताब्दी के अनेक विद्वानों ने यह देश महसूस किया कि धर्म-निरपेक्षता के आधार पर ही विभिन्न धर्मों का देश भारत संगठित रह पाया है। धर्म-निरपेक्षता के आधार पर राज्य के सभी धार्मिक समूहों एवं धार्मिक विश्वासों को एक समान माना जाता है।

निरपेक्षता का अर्थ समानता या तटस्थता से है। राज्य सभी धर्मों को समानता की नज़र से देखता है तथा किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। धर्म-निरपेक्षता ऐसी नीति या सिद्धांत है जिसके अंतर्गत लोगों को किसी विशेष धर्म को मानने या पालन के लिए बाध्य नहीं किया जाता है।

प्रश्न 10.
आज नागरिक समाज संगठनों की क्या प्रासंगिकता है?
उत्तर:
नागरिक समाज उस व्यापक कार्यक्षेत्र को कहते हैं जो परिवार के निजी क्षेत्र से दूर होता है, परंतु राज्य और बाज़ार दोनों के क्षेत्र से बाहर होता है। नागरिक समाज सार्वजनिक अधिकार का गैर-राजकीय तथा गैर बाजारी भाग होता है जिसमें अलग-अलग व्यक्ति संस्थाओं और संगठनों का निर्माण करने के लिए स्वेच्छा से परस्पर आ जुड़ते हैं।

यह सक्रिय नागरिकता का क्षेत्र है जहाँ व्यक्ति मिलकर सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करते हैं, राज्य को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं अथवा उसके समक्ष अपनी माँगें रखते हैं, अपने सामूहिक हितों को पूर्ण करने की कोशिश करते हैं या अलग-अलग कार्यों के लिए समर्थन चाहते हैं। इस क्षेत्र में नागरिकों के समूहों द्वारा बनाए गए स्वैच्छिक संघ, संगठन अथवा संस्थाएँ सम्मिलित होते हैं। इसमें राजनीतिक दल, जनसंचार की संस्थाएँ, मजदूर संघ, गैर-सरकारी संगठन, धार्मिक संगठन और अन्य प्रकार के सामूहिक तत्त्व सम्मिलित होते हैं।

नागरिक समाज में शामिल मुख्य कसौटियाँ यह हैं कि संगठन पर राज्य का नियंत्रण नहीं होना चाहिए तथा यह विशुद्ध रूप से मुनाफ़ा कमाने वाले तत्त्व न हों। उदाहरण के लिए दूरदर्शन नागरिक समाज का हिस्सा नहीं हैं जबकि निजी टी०वी० चैनल है। इसी प्रकार कार निर्माता कंपनी नागरिक समाज का अंग नहीं है, परंतु उसके मजदूरों के मज़दूर संघ इसका हिस्सा हैं। असल में यह कसौटियां बहुत सारे क्षेत्रों को स्पष्ट नहीं कर पाती हैं। जैसे एक समाचार पत्र को विशुद्ध रूप से एक वाणिज्यिक उद्यम के रूप में चलाया जा सकता है अथवा एक गैर-सरकारी संगठन को सरकारी खजाने में से मदद की जा सकती है।

सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हमारा देश भारत एक सांस्कृतिक विविधताओं से भरपूर देश है जहां पर समुदायों को सांस्कृतिक चिह्नों जैसे कि भाषा, धर्म, पंथ, प्रजाति या जाति द्वारा परिभाषित किया जाता है। इसी कारण ही देश में सांस्कृतिक विविधता कठोर चुनौतियां पेश करती है।

→ सामुदायिक पहचान जन्म तथा संबंध पर आधारित होती है न कि किसी अर्जित उपलब्धि पर। इसका अर्थ है कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति मुख्यतः उसके परिवार पर आधारित प्रदत्त होती है न कि उसके द्वारा अर्जित की होती है।

→ प्रत्येक व्यक्ति में अपने समुदाय के प्रति एक भावना अर्थात् सामुदायिक भावना होती है तथा यह सामुदायिक भावना सर्वव्यापक होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामुदायिक पहचान तथा सामुदायिक भावना के साथ गहरे रूप से जुड़ा हुआ होता है।

→ राष्ट्र एक प्रकार का बड़े स्तर का समुदाय होता है जो कई समुदायों से मिलकर बनता है। राष्ट्र के सदस्य एक ही राजनीतिक सामूहिकता का हिस्सा बनने की इच्छा रखते हैं। राजनीतिक एकता की यह इच्छा स्वयं को एक राज्य बनाने की आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त करती है।

→ राज्य एक ऐसा अमूर्त सत्य है जिसका अपना ही एक भौगोलिक क्षेत्र होता है, अपनी प्रभुसत्ता होती है, अपनी ही जनसंख्या होती है तथा प्रशासन चलाने के लिए सरकार होती है। इन चारों तत्त्वों में से किसी एक के न होने की स्थिति में राष्ट्र स्थापित नहीं हो पाएगा। इस प्रकार राष्ट्र तथा राज्य दो अलग-अलग संकल्प हैं।

→ भारत एक ऐसा राष्ट्र राज्य है जहां पर सांस्कृतिक विविधता मौजूद है। यहां 1632 अलग-अलग भाषाएं हैं, कई प्रकार के धर्म हैं, बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक लोग रहते हैं। अलग-अलग धर्मों के मौजूद होने के कारण भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया हुआ है।

→ भारत में क्षेत्रवाद भारत की भाषाओं, संस्कृतियों, जनजातियों तथा धर्मों की विविधता के कारण पाया जाता है। क्षेत्रवाद का अर्थ है अपने क्षेत्र के हितों के सामने अन्य क्षेत्रों को तुच्छ समझना तथा उन हितों को प्राप्त करने के लिए लड़ना।

→ हमारा देश भारत एक संघ है जिसमें एक संघीय सरकार तथा अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग सरकारें होती हैं। संविधान ने संघीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच शक्तियों तथा वित्तीय साधनों का साफ़ तौर पर बँटवारा किया हुआ है ताकि उनमें कोई समस्या उत्पन्न न हो सके।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

→ धर्म-निरपेक्षता का अर्थ है किसी विशेष धर्म को न मानकर सभी धर्मों को समान महत्त्व देना। अगर किसी विशेष धर्म को अधिक महत्त्व दिया जाएगा तो सांप्रदायिकता के बढ़ने का ख़तरा उत्पन्न हो जाता है।

→ हमारे देश में कई धर्मों के लोग रहते हैं। इनमें से कई तो बहुसंख्या में हैं तथा कई अल्पसंख्यक हैं। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए संविधान में प्रावधान रखे गए हैं तथा सभी को कानून की दृष्टि में समान माना गया है। अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति का प्रचार करने की आज्ञा भी दी गई है।

→ सांप्रदायिकता का अर्थ है धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद। उग्रवाद अपने आप में एक ऐसी अभिवृत्ति है जो अपने समूह को ही वैध या श्रेष्ठ समूह मानती है तथा अन्य समूहों को निम्न, अवैध या विरोधी समझती है। यह एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म से जुड़ी होती है।

→ सांप्रदायिकता की एक प्रमुख विशेषता उसका यह दावा है कि धार्मिक पहचान अन्य सभी की तुलना में उच्च होती है। चाहे व्यक्ति अमीर हो या निर्धन, किसी भी व्यवसाय, जाति या राजनीतिक विश्वास का हो, धर्म ही सब कुछ होता है, उसी के आधार पर उसकी पहचान है।

→ नागरिक समाज उस व्यापक कार्यक्षेत्र को कहते हैं जो पारिवारिक क्षेत्र से दूर होता है, परंतु राज्य और बाज़ार दोनों क्षेत्रों से बाहर होता है। ছাত্রাবলী

→ सांस्कृतिक विविधता-देश में अलग-अलग समूहों की संस्कृति में अंतर होना सांस्कृतिक विविधता है।

→ सांस्कृतिक समुदाय-वह समुदाय जो जाति, नृजातीय समूह, क्षेत्र अथवा धर्म जैसी सांस्कृतिक पहचानों पर आधारित होते हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ

→ नागरिक समाज-वह व्यापक कार्यक्षेत्र जो परिवार के निजी क्षेत्र से परे होता है, परन्तु राज्य और बाजार दोनों क्षेत्र से बाहर होता है।

→ सांप्रदायिकता-धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद।

→ अल्पसंख्यक-वह समुदाय जो राष्ट्र में कम संख्या में होता है।

→ बहुसंख्यक-वह समुदाय जो राष्ट्र में अधिक संख्या में होता है।

→ संघवाद-वह प्रक्रिया जिसमें कई छोटे-छोटे राज्य इकट्ठे मिलकर एक बड़े संघ का निर्माण करते हैं।

→ राष्ट्र-एक प्रकार का बड़े स्तर का समुदाय जो कई समुदायों से मिलकर बना एक समुदाय है।

→ प्रदत्त पहचान-वह पहचान जो व्यक्ति को जन्म के अनुसार प्राप्त होती है।

→ अर्जित पहचान-वह पहचान जो व्यक्ति अपनी योग्यता तथा उपलब्धि के आधार पर प्राप्त करता है।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

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Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

HBSE 12th Class Sociology सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक विषमता व्यक्तियों की विषमताओं से कैसे भिन्न है?
अथवा
सामाजिक असमानता व्यक्तिगत असमानता से भिन्न होती है। व्याख्या कीजिए।
अथवा
सामाजिक विषमता सामाजिक क्यों है? विस्तृत चर्चा करें।
उत्तर:सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति को सामाजिक विषमता कहा जाता है। कुछ सामाजिक विषमताएँ व्यक्तियों के बीच स्वाभाविक भिन्नता को दर्शाती हैं जैसे कि उनकी योग्यता तथा प्रयासों में अंतर। कोई व्यक्ति असाधारण प्रतिभा का भी हो सकता है तथा कोई अधिक बुद्धिमान भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि उस व्यक्ति ने अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए अधिक परिश्रम किया हो। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक विषमता व्यक्तियों के बीच प्राकृतिक अंतरों के कारण नहीं बल्कि उस समाज द्वारा उत्पन्न होती है जिसमें वह रहते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण की कुछ विशेषताएं बतलाइए।
अथवा
सामाजिक स्तरीकरण की चार प्रमुख विशेषताएं बताइए।
अथवा
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएं बताइए।
उत्तर:

  • सामाजिक स्तरीकरण में समाज को अलग-अलग भागों अथवा स्तरों में विभाजित किया जाता है जिसमें समाज के व्यक्तियों का आपसी संबंध उच्चता निम्नता पर आधारित होता है।
  • सामाजिक स्तरीकरण में अलग-अलग वर्गों की असमान स्थिति होती है। किसी की सबसे उच्च, किसी की उससे कम तथा किसी की बहुत निम्न स्थिति होती है।
  • स्तरीकरण में अंतक्रियाएं विशेष स्तर तक ही सीमित होती हैं। हरेक व्यक्ति अपने स्तर के व्यक्ति से संबंध स्थापित करता है।
  • सामाजिक स्तरीकरण पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है। यह परिवार और सामाजिक संसाधनों के एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में उत्तराधिकार के रूप में घनिष्ठता से जुड़ा है।
  • सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास व विचारधारा द्वारा समर्थन मिलता है।

प्रश्न 3.
आप पूर्वाग्रह और अन्य किस्म की राय अपना विश्वास के बीच कैसे भेद करेंगे?
अथवा
पूर्वग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पूर्वाग्रह एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे के बारे में पूर्वकल्पित विचार अथवा व्यवहार होता है। पूर्वाग्रह शब्द के शाब्दिक अर्थ हैं पूर्व निर्णय अर्थात् किसी के बारे वह धारणा जो उसे जाने बिना तथा उसके तथ्यों को परखे बिना शुरू में ही स्थापित कर ली जाती है। एक पूर्वाग्रहित व्यक्ति के पूर्वकल्पित विचार तथ्यों के विपरीत सुनी सुनाई बातों पर ही आधारित होते हैं। चाहे इनके बारे में बाद में नई जानकारी प्राप्त हो जाती है, परंतु फिर भी यह बदलने से मना कर देते हैं।

पर्वाग्रह सकारात्मक भी होता है तथा नकारात्मक भी। वैसे मख्यता इस शब्द को नकारात्मक रूप से लिए गए पूर्वनिर्णयों के लिए ही प्रयोग किया जाता है परंतु इसे स्वीकारात्मक पूर्वनिर्णयों पर भी प्रयोग किया जाता है। जैसे कि कोई व्यक्ति अपने समूह के सदस्यों या जाति के पक्ष में पूर्वाग्रहित हो सकती है तथा उन्हें दूसरी जाति या समूह के सदस्य श्रेष्ठ मान सकता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

प्रश्न 4.
सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार क्या है?
अथवा
सामाजिक बहिष्कार सामाजिक क्यों है? विस्तृत चर्चा करें।
अथवा
सामाजिक अपवर्जन से आप क्या समझते हैं?
अथवा
सामाजिक बहिष्कार क्या है?
अथवा
सामाजिक अपवर्जन (बहिष्कार) क्या है?
उत्तर:
सामाजिक अपवर्जन अथवा बहिष्कार वह ढंग हैं जिनकी सहायता से एक व्यक्ति अथवा समूह को समाज में पूर्णतया घुलने मिलने से रोका जाता है तथा पृथक् रखा जाता है। बहिष्कार उन सभी कारकों की तरफ ध्यान दिलाता है जिनसे उस व्यक्ति या समूह को उन मौकों से वंचित किया जाता है जो और जनसंख्या के लिए खुले होते हैं। व्यक्ति को क्रियाशील तथा भरपूर जीवन जीने के लिए मूलभूत ज़रूरतों जैसे कि रोटी, कपड़ा तथा मकान के साथ-साथ अन्य ज़रूरी चीज़ों तथा सेवाओं जैसे कि बैंक, यातायात के साधन, शिक्षा इत्यादि की भी आवश्यकता होती है। सामाजिक भेदभाव अचानक नहीं बल्कि व्यवस्थित ढंग से होता है। यह समाज की संरचनात्मक विशेषताओं का नतीजा है।

परंतु एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक बहिष्कार हमेशा अनैच्छिक होता है अर्थात् बहिष्कार उन लोगों की इच्छा के विरुद्ध होता है जिनका बहिष्कार किया जा रहा हो। उदाहरण के लिए शहरों में हजारों बेघर लोग फुटपाथ या पुलों के नीचे सोते हैं, धनी व्यक्ति नहीं। इसका अर्थ यह नहीं है कि धनी व्यक्ति फुटपाथ का प्रयोग करने से बहिष्कृत हैं। अगर वह चाहें तो वह इनका प्रयोग कर सकते हैं, परंतु वह ऐसा नहीं करते । सामाजिक भेदभाव को कभी-कभी गलत तर्क से ठीक कहा जाता है कि बहिष्कृत समूह स्वयं समाज में शामिल होने के इच्छुक नहीं हैं। इस प्रकार का तर्क इच्छित चीज़ों के लिए बिल्कुल ही गलत है।

प्रश्न 5.
आज जाति और आर्थिक असमानता के बीच क्या संबंध है?
उत्तर:
प्राचीन समय में जाति और आर्थिक असमानता एक-दसरे से गहरे रूप से संबंधित थे। व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तथा आर्थिक स्थिति एक-दूसरे के अनुरूप होती थी। उच्च जातियों के लोगों की आर्थिक स्थिति प्रायः अच्छी होती थी जबकि निम्न जातियों के लोगों की आर्थिक स्थिति काफ़ी निम्न होती थी। परंतु आधुनिक समय अर्थातु 19वीं शताब्दी के बाद से जाति तथा व्यवसाय के संबंधों में काफ़ी परिवर्तन आए हैं।

आज के समय में जाति के व्यवसाय तथा धर्म संबंधी प्रतिबंध लागू नहीं होते। अब व्यवसाय अपनाना पहले की अपेक्षाकृत आसान हो गया है। अब व्यक्ति कोई भी व्यवसाय अपना सकता है। पिछले 100 वर्षों की तुलना में आज जाति तथा आर्थिक स्थिति का संबंध काफ़ी कमज़ोर हो गया है। आजकल में अमीर तथा निर्धन लोग हरेक जाति में मिल जाएंगे। परंतु मुख्य बात यह है कि जाति-वर्ग परस्पर संबंध वृहत स्तर पर अभी भी पूर्णतया कायम है। जाति व्यवस्था के कमजोर होने से सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति वाली जातियों के बीच अंतर कम हो गया है। परंतु अलग-अलग सामाजिक आर्थिक समूहों के बीच जातीय अंतर अभी भी मौजूद है।

प्रश्न 6.
अस्पृश्यता क्या है?
अथवा
अस्पृश्यता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय समाज में जाति प्रथा का काफ़ी महत्त्व था। उच्च तथा निम्न जातियों को अस्पश्यता की सहायता से अलग किया जाता था। अस्पृश्यता की धारणा यह थी कि निश्चित निम्न जातियों के लोगों के छूने अथवा परछाईं से उच्च जातियों के लोग अपवित्र हो जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि यदि उच्च जाति के लोग अछूत जाति के लोगों के नज़दीक भी आ जाएंगे अथवा उनकी छाया भी यदि उन पर पड़ गई तो वह अपवित्र हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में उन्हें दोबारा पवित्र होने के लिए या तो गंगाजल से नहाना पड़ेगा या विशेष धार्मिक कर्मकांड करने पड़ेंगे। 1955 के अस्पृश्यता अपराध कानून से इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया था।

प्रश्न 7.
जातीय विषमता को दूर करने के लिए अपनाई गई कुछ नीतियों का वर्णन करें।
उत्तर:
जातीय विषमता को दूर करने के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों ने कुछ नीतियां अपनाई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  • केंद्र सरकार ने कई प्रकार के कानून बनाए हैं जिनसे जातीय निर्योग्यताएं खत्म कर दी गई हैं। इससे जातीय अंतर कम हुआ है।
  • निम्न जातियों के लोगों को गांवों में भूमि वितरित की गई है ताकि वह अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठा सके।
  • निम्न जातियों के लोगों को कम ब्याज पर तथा आसान किश्तों पर अपना धंधा शुरू करने के लिए ऋण उपलब्ध करवाए जा रहे हैं।
  • उनकी बस्तियों में सुधार करने के लिए सरकारें विशेष प्रबंध कर रही हैं तथा उन्हें कई प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा रही हैं।
  • निम्न जातियों के लोगों को कृषि उत्पादन के लिए अच्छे बीज, उवर्रक तथा मशीनें उपलब्ध करवाई जा रही हैं।
  • सरकार ने 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम चलाए हैं जिसमें उन्हें रोज़गार दिलाने की तरफ विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

इन सब कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य जातीय विषमता को दूर करके निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाना है।

प्रश्न 8.
अन्य पिछड़े वर्ग, दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं?
उत्तर:
भारतीय समाज में या तो उच्च जातियों की उच्चता या फिर अनुसूचित जातियों के शोषण को महत्व दिया गया है। परंतु उच्च जातियों तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के अतिरिक्त भी भारतीय समाज में एक ऐसा बड़ा वर्ग रहा है जो सैंकड़ों वर्षों से उपेक्षित रहा है। अगड़ी जातियों, समुदायों से नीचे तथा अनुसूचित जातियों से ऊपर समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो विभिन्न कारणों से उपेक्षित रहा है तथा भारतीय समाज की विकास यात्रा में निरंतर पिछड़ता गया। इसी वर्ग को अन्य पिछड़ा वर्ग कहते हैं।

इसी प्रकार अन्य पिछड़ा वर्ग अनुसूचित जातियों से ऊपर भारतीय समाज में बहुसंख्यक ऐसा वर्ग है जो सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा भौगोलिक कारणों से कमजोर रह गया है। स्वतंत्रता के बाद इसके लिए अन्य पिछड़ा वर्ग शब्द का प्रयोग किया गया। यह हिंदुओं के दविजों तथा हरिजनों के बीच की जातियों का समूह है । इसके अतिरिक्त इसमें गैर-हिंदुओं, अनुसूचित जातियों व जनजातियों को छोड़कर अन्य निम्न वर्गों को शामिल किया जाता है।

सुभाष तथा बी०पी० गुप्ता द्वारा तैयार किए गए राजनीति कोष में अन्य पिछड़े वर्ग की परिभाषा दी गई है। उनके अनुसार, “अन्य पिछड़े हुए वर्ग का अर्थ समाज के उस वर्ग से है जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक निर्योग्यताओं के कारण समाज के अन्य वर्गों की तुलना में निम्न स्तर पर हों।’

1953 में काका कालेलकर आयोग गठित किया गया जिसने पिछड़ेपन की चार कसौटियों पर पिछड़ी जातियों की सूची तैयारी की। यह मानदंड थे-जातीय संस्तरण में निम्न स्थान, शिक्षा का अभाव, सरकारी नौकरियों में कम पार व उदयोगों में कम प्रतिनिधित्व। 1978 में मंडल आयोग गठित किया गया जिसने पिछडे वर्ग निर्धारण के लिए तीन मानदंडों का चयन किया था वह थे सामाजिक, शैक्षणिक तथा आरि में विभाजित किया तथा प्रत्येक मानदंड के लिए महत्त्व अलग-अलग दिया गया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

प्रश्न 9.
आज आदिवासियों से संबंधित बड़े मुद्दे कौन-से हैं?
उत्तर:
जनजातियां हमारे समाज, सभ्यता तथा संस्कृति से बहुत ही दूर रहती हैं जिस कारण यह कुछ समय पहले ही हमारे समाज के संपर्क में आई हैं। इसलिए ही हमारे समाज की अनुसूचित जातियों को जिन निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ा है, उन निर्योग्यताओं का सामना जनजातियों को नहीं करना पड़ा है। उनसे संबंधित बड़े मुद्दे अलग ही प्रकृति के हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) जनजातियों का शोषण-अंग्रेज़ों के शासन के समय कबायली लोग हमारे समाज के संपर्क में आना शुरू हुए। असल में कबायली लोग न तो किसी के मामले में हस्तक्षेप करते हैं तथा न ही किसी को अपने मामलों में हस्तक्षेप करने देते हैं। जब अंग्रेजों ने भारत में अपनी शासन व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए यहां डाक-तार की तारें बिछाने का कार्य शुरू किया तो उन्हें कबायली इलाकों में से अपनी तारें बिछानी पड़ी। इस बात का कबायली लोगों ने हिंसात्मक विरोध किया।

इससे नाराज़ होकर अंग्रेजों ने अपने ज़मींदारों, व्यापारियों तथा सूद पर पैसा देने वाले साहूकारों को कबायली लोगों को शोषित करने के लिए प्रेरित किया। साहूकारों तथा ज़मींदारों ने धीरे-धीरे इनका शोषण करना शुरू किया तथा इनका जम कर शोषण किया। इससे इन लोगों का जीवन स्तर इतना निम्न हो गया कि यह अच्छा जीने के काबिल ही न रहे। इस प्रकार इनमें यह निर्योग्यता आ गई।

(ii) निर्धनता-कबायली लोग हमारी सभ्यता से दूर पहाड़ों, जंगलों, घाटियों इत्यादि में रहते हैं। इन लोगों का समाज में कोई वर्ग नहीं पाया जाता है तथा यह बहुत ही साधारण जीवन जीते हैं। इनकी आवश्यकताएं काफ़ी सीमित हैं जिस कारण इन्हें अधिक चीजों की आवश्यकता नहीं होती है।

परंतु धीरे-धीरे यह हमारे समाज के संपर्क में आए जिस कारण इनकी आवश्यकताएं बढ़ती गईं। परंतु काफ़ी समय से कबायली लोगों का साहूकारों तथा जमींदारों से शोषण होता रहा है। इस शोषण के कारण यह निर्धन से और निर्धन हो गए। इस प्रकार निर्धनता के कारण उन्नति न कर पाए तथा पिछड़ते चले गए।

(iii) अलग-थलग करने की नीति-जब अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन का विस्तार करना शुरू किया तो उनके रास्ते में कबायली लोग आ गए। कबायली लोग न तो किसी के मामले में हस्तक्षेप करते हैं तथा न ही किसी को हस्तक्षेप करने की आज्ञा देते हैं। परंतु जब अंग्रेजों ने अपने शासन का विस्तार करना शुरू किया तो कबायली लोगों ने इसका हिंसात्मक विरोध किया। इस विरोध के कारण अंग्रेजों को अपने इलाकों में विस्तार का कार्य छोड़ना पड़ा।

इसके बाद अंग्रेज़ों ने इन लोगों को अलग-थलग करने की नीति को अपनाया। इसलिए उनके क्षेत्रों को अलग-थलग किया गया ताकि उनके हितों की रक्षा हो सके तथा उनके हिंसात्मक विरोध को भी रोका जा सके। इस प्रकार चाहे अंग्रेजों ने प्रशासनिक कारणों से उन्हें अलग-थलग करने की नीति अपनाई जिससे वह समाज में पिछड़ते ही चले गए तथा निर्धन से और निर्धन हो गए।

(iv) मध्यस्त रास्ता-स्वतंत्रता के बाद संविधान ने देश के सभी नागरिकों तथा समूहों की प्रगति करने का निर्देश सरकार को दिया। इसलिए भारत ने अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिए बीच का रास्ता अपनाया। इसके अनुसार उनके क्षेत्र में न केवल प्रगति के अवसर उत्पन्न किए गए बल्कि उनकी संस्कृति का ध्यान भी रखा गया।

इससे कबायली लोग धीरे-धीरे प्रगति करने लगे। चाहे इस नीति से वह प्रगति करने लगे, परंतु इसका उन्हें नुकसान भी हुआ। चाहे कुछ शिक्षा प्राप्त की गई, परंतु वह नौकरी लेने लायक न थी तथा साथ ही वह अपने परंपरागत कार्यों से भी दूर होते चले गए। इस प्रकार वह सामाजिक क्षेत्र में भी पिछड़ते चले गए।

प्रश्न 10.
नारी आंदोलन ने अपने इतिहास के दौरान कौन-कौन से मुद्दे उठाए हैं?
अथवा
महिलाओं की समानता के लिए संघर्षों पर अपने विचार दें।
अथवा
स्त्रियों की समानता और अधिकारों के लिए किए संघर्षों की जानकारी दीजिए।
अथवा स्त्रियों द्वारा समानता के लिए किए गए संघर्षों का वर्णन करें।
उत्तर:
वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी उच्च थी क्योंकि उस समय नारी को देवी समझा जाता था। परंतु समय के साथ-साथ अलग-अलग कालों अथवा युगों में उनकी स्थिति में काफ़ी गिरावट आई। मध्य काल को तो स्त्रियों के लिए काला यग कहा जाता है। चाहे मध्य काल में बहुत से संत महात्माओं ने उनकी सामाजिक स्थिति सधारने का प्रयास किया. परंतु वह अधिक सफल न हो पाए।

मध्य काल के अंत तथा आधुनिक काल की शुरुआत में समाज में महिलाओं से संबंधित बहुत सी बुराइयां व्याप्त थीं जैसे कि बहुविवाह, बाल विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा, पर्दा प्रथा इत्यादि। आधुनिक समाज सुधारकों ने इन बुराइयों के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा महिला आंदोलन को सुदृढ़ता प्रदान की।

कुछ सुधारकों अंग्रेजों की सहायता से कानून भी पास करवाए ताकि इन बुराइयों को खत्म किया जा सके। इसके बाद गाँधी जी ने महिलाओं को घरों से बाहर निकल कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था कि अगर महिलाएं घरों से बाहर निकल आईं तो उनकी निर्योग्यताओं का खात्मा हो जाएगा। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा पर भी काफ़ी बल दिया। इस कारण ही हजारों लाखों महिलाएं घरों से बाहर निकल आई।

स्वतंत्रता के पश्चात् महिलाओं के उत्थान से संबंधित कई प्रकार के कानून बनाए गए ताकि उन्हें शिक्षा, मातृत्व लाभ, जायदाद संबंधी अधिकार, अच्छा स्वास्थ्य तथा बुराइयों के विरुद्ध अधिकार प्रदान किया जा सके। समय समय पर महिला आंदोलन चले जिन्होंने समाज का ध्यान उनके कल्याण की तरफ खींचा। महिलाओं के शोषण, बलात्कार, छेड़छाड़, वैवाहिक हिंसा, गर्भपात, प्रतिकुल लिंग अनुपात, दहेज के कारण हत्या इत्यादि जैसे कई मुद्दे हैं जिन्हें आधुनिक समय में उठाया जा रहा है ताकि महिलाओं को इन सबसे मुक्ति दिलाई जा सके।

प्रश्न 11.
हम यह किस अर्थ में कह सकते हैं कि ‘असक्षमता जितनी शारीरिक है उतनी ही सामाजिक भी’?
अथवा
अक्षमता के लक्षण बताएं।
उत्तर:
असक्षमता शब्द के लिए मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त (Mentally challenged) दृष्टि बाधित (Visually impaired) और शारीरिक रूप से बाधित (Physically impaired), जैसे शब्दों का प्रयोग अब पुराने घिसे-पिटे नकारात्मक अर्थ बताने वाले शब्दों जैसे मंदबुद्धि, अपंग अथवा लंगड़ा-लूला इत्यादि के स्थान पर किया जाने लगा है। कोई भी विकलांग जैविक असक्षमता के कारण विकलांग नहीं बनता बल्कि उन्हें समाज द्वारा ऐसा बनाया जाता है।

असक्षमता के संबंध में एक सामाजिक विचारधारा भी है। असक्षमता तथा निर्धनता के बीच गहरा संबंध है। कुपोषण, कई बच्चे पैदा करने से कमजोर हुई माताओं की रोग प्रतिरक्षा के कम कार्यक्रम, भीड़-भाड़ भरे घरों में दुर्घटनाएँ इत्यादि सभी बातें इकट्ठे मिलकर निर्धन लोगों में असक्षमता के ऐसे हालात उत्पन्न कर देते हैं जो आसान हालातों में रहने वाले लोगों की तुलना में बहुत गंभीर होते हैं।

इसके अतिरिक्त असक्षमता, व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण परिवार के लिए अलगपन और आर्थिक दबाव को बढ़ाते हुए निर्धनता की स्थिति उत्पन्न करके उसे और गंभीर बना देती है। इस बात में कोई शक नहीं है कि निर्धन देशों में असक्षम लोग सबसे निर्धन होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि असक्षमता शारीरिक होने के साथ-साथ सामाजिक भी हैं।

सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हमारे देश भारत में सामाजिक विषमताओं एवं बहिष्कार के कई स्वरूप देखने को मिल जाएंगे जैसे कि जाति पर आधारित भेदभाव, आदिवासियों तक सुविधाओं का न पहुँच पाना, पिछड़े वर्गों से भेदभाव, स्त्रियों तथा निम्न वर्गों की निर्योग्यताएं तथा अंत में अन्यथा सक्षम व्यक्तियों का संघर्ष।

→ सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति को ही सामाजिक विषमता कहा जाता है। सामाजिक विषमता प्राकृतिक भिन्नता की वजह से नहीं बल्कि यह उस समाज द्वारा उत्पन्न होती है जिसमें हम रहते है।

→ सामाजिक बहिष्कार वह तौर तरीके हैं जिनके द्वारा किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूरी तरह घुलने मिलने से रोका जाता है या अलग रखा जाता है। प्राचीन समय में निम्न तथा अस्पृश्य जातियों के साथ ऐसा ही होता था।

→ जाति व्यवस्था सामाजिक बहिष्कार का ही एक रूप है जिसमें उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का बहिष्कार करके उन्हें समाज से अलग रखा जाता था। चाहे आजकल यह वैधानिक रूप से प्रतिबंधित है परंतु फिर भी दूरदराज के क्षेत्रों में ऐसा हो रहा है। अस्पृश्यता को छुआछूत भी कहा जाता है। अस्पृश्य जातियों का समाज में कोई स्थान नहीं था। उनके साथ स्पर्श करना पाप समझा जाता था। अस्पृश्यता के तीन आयाम हैं-बहिष्कार, अनादर तथा शोषण। इन लोगों का इतना अधिक शोषण हुआ था कि स्वतंत्रता के 67 वर्षों के बाद भी यह अच्छी तरह प्रगति नहीं कर पाए है।

→ जातियों की तरह जनजातियां भी पिछड़े हुए वर्ग का एक हिस्सा हैं जो सामाजिक प्रगति की दौड़ में काफी पीछे हैं। उन्हें भी बहुत-सी निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ा है।

→ निम्न जातियों तथा जनजातियों के प्रति भेदभाव खत्म करने के लिए राज्य तथा अन्य संगठनों द्वारा बहुत से कदम उठाए गए हैं। उनके शोषण, बहिष्कार को गैर-कानूनी घोषित किया गया है। उनकी स्थिति ऊपर उठाने के लिए संविधान में कई प्रावधान रखे गए हैं तथा उन्हें आरक्षण देकर उन्हें ऊँचा उठाने का प्रयास किया जा रहा है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

→ निम्न जातियों की तरह अन्य पिछड़े वर्ग भी भारतीय जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा हैं जिन्हें बहुत सी सामाजिक निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ा था। यह न तो उच्च जातियों में आते थे तथा न ही निम्न जातियों में। यह जातियां हिंदू धर्म तक ही सीमित नहीं थे बल्कि सभी प्रमुख भारतीय धर्मों में मौजूद थे।

→ इनके उत्थान के लिए कई कार्यक्रम बनाए गए। पहले काका कालेलकर आयोग बनाया गया फिर मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर उनके लिए आरक्षण लागू कर दिया गया ताकि यह भी सामाजिक सोपान में अपने आपको ऊँचा उठा सकें।

→ आदिवासी लोगों ने अपने आपको बचा कर रखने के लिए काफ़ी संघर्ष किया। पहले उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किए तथा स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया। सरकार ने भी उनके उत्थान के लिए कई कार्यक्रम चलाए, उन्हें आरक्षण दिया ताकि वह देश की मुख्य धारा में मिलकर अपनी स्थिति सुधार सकें।

→ इन सबके साथ देश का एक और बड़ा वर्ग है जो सदियों से शोषण का शिकार होता रहा है तथा वह है वैदिक काल में उनकी स्थिति बहत अच्छी थी परंत उसके बाद सभी कालों में उनकी स्थिति खराब होती चली गई। मध्य काल तो उनके लिए काला युग था। आधुनिक समय में उनकी स्थिति सुधारने के लिए बहत से समाज सधारकों ने प्रयास किए।

→ सरकार तथा समाज सुधारकों के प्रयासों के फलस्वरूप स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ है। उनसे जुड़ी कुप्रथाएँ खत्म हो रही हैं, उनकी शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है तथा उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो रही है। उन्हें अब पैर की जूती नहीं बल्कि जीवन साथी समझा जाता है। उन्हें हरेक प्रकार का वह अधिकार प्राप्त है जिससे कि अच्छा जीवन व्यतीत हो सके।

→ अन्यथा सक्षम लोग न केवल शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम होते हैं बल्कि समाज भी कुछ इस रीति से बना है कि वह उनकी ज़रूरतों को पूर्ण नहीं करता। उन्हें भारत में निर्योग्य, बाधित, अक्षम, अपंग, अंधा तथा बहरा भी कहा जाता है।

→ यहां एक बात उल्लेखनीय है कि उनकी स्थिति को सुधारने के प्रयास स्वयं विकलांगों की ओर से ही नहीं किए गए हैं, सरकार को भी अपनी ओर से कार्यवाही करनी पड़ी है। उन्हें शिक्षण संस्थाओं तथा सरकारी नौकरियों में कुछेक प्रतिशत आरक्षण भी दिया गया है ताकि वह किसी पर बोझ न बनकर अपने पैरों पर स्वयं खड़े हो सकें।

→ सामाजिक विषमता-सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति को सामाजिक विषमता कहा जाता है।

→ पूर्वाग्रह-एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार या व्यवहार।

→ सामाजिक बहिष्कार-वह तौर तरीके जिनके द्वारा किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूर्णतया घुलने मिलने से रोका जाता हो तथा पृथक् रखा जाता हो।

→ अस्पृश्यता-वह प्रक्रिया जिसके द्वारा समाज की कुछ निम्न जातियों को अछुत अथवा अस्पृश्य समझा जाता था।

→ हरिजन-अस्पृश्य जातियों को महात्मा गांधी द्वारा दिया गया नाम जिसका शाब्दिक अर्थ है परमात्मा के बच्चे।

→ आरक्षण-सार्वजनिक जीवन के विभिन्न पक्षों में विशेष जातियों के लिए कुछ स्थान या सीटें निर्धारित करना।

→ आदिवासी-वह पिछड़े हुए लोग जो हमारी सभ्यता से दूर जंगलों पहाड़ों में रहते हुए अविकसित जीवन व्यतीत करते तथा अपनी ही संस्कृति के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

HBSE 12th Class Sociology बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
अदृश्य हाथ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एडम स्मिथ आरंभिक राजनीतिक अर्थशास्त्री थे जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘द वेल्थ ऑफ नेशन्स’ में बाज़ार र्थव्यवस्था को समझाने का प्रयास किया जोकि उस समय अपनी आरंभिक अवस्था में थी। स्मिथ का कहना था कि जारी अर्थव्यवस्था व्यक्तियों के आदान-प्रदान अथवा लेन-देन का एक लंबा क्रम है जो अपनी क्रमबदधता के कारण स्वयं ही एक कार्यशील और स्थिर व्यवस्था स्थापित करती है। यह उस समय होता है जब करोड़ों के लेन देन में शामिल व्यक्तियों में से कोई भी व्यक्ति इसको स्थापित करने का इरादा नहीं रखता।

हरेक व्यक्ति अपने लाभ को बढ़ाने के बारे में सोचता है तथा इसके लिए वह जो भी कुछ करता है वह अपने आप ही समाज के हितों में होता है। इस तरह ऐसा लगता है कि कोई एक अदृश्य बल यहां कार्य करता है जो इन व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में परिवर्तित कर देता है। इस बल को ही एडम स्मिथ ने ‘अदृश्य हाथ’ का नाम दिया था।

प्रश्न 2.
बाज़ार एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण, आर्थिक दृष्टिकोण से किस तरह अलग है?
उत्तर:
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बाज़ार सामाजिक संस्थाएं हैं जो विशेष सांस्कृतिक तरीकों द्वारा निर्मित हैं। जैसे कि बाजारों का नियंत्रण अथवा संगठन विशेष सामाजिक समूहों के द्वारा होता है तथा यह अन्य संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं तथा संरचनाओं से विशेष रूप से संबंधित होता है। परंतु आर्थिक दृष्टिकोण से बाज़ार में केवल आर्थिक क्रियाओं तथा संस्थाओं को भी शामिल किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि बाज़ार में केवल लेन-देन तथा सौदे ही होते हैं जोकि पैसे पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 3.
किस तरह से एक बाज़ार जैसे कि एक साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार, एक सामाजिक संस्था है?
अथवा
बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में स्पष्ट करें।
अथवा
‘बाज़ार एक सामाजिक संस्था है’ स्पष्ट करें।
उत्तर:
ग्रामीण तथा नगरीय भारत में साप्ताहिक बाज़ार अथवा हाट.एक आम नज़ारा होता है। पहाड़ी तथा जंगलाती इलाकों में (विशेषतया जहां आदिवासी रहते हैं) जहां लोग दूर-दूर रहते हैं, सड़कों तथा संचार की स्थिति काफी जर्जर होती है तथा अपेक्षाकृत अर्थव्यवस्था अविकसित होती है, वहां पर साप्ताहिक बाज़ार चीज़ों के लेन देन के साथ-साथ सामाजिक मेलजोल की प्रमुख संस्था बन जाता है। स्थानीय लोग अपने कृषि उत्पाद अथवा जंगलों से इकट्ठी की गई वस्तुएं व्यापारियों को बेचते हैं जिन्हें व्यापारी दोबारा कस्बों में ले जाकर बेचते हैं।

स्थानीय इस कमाए हुए पैसे से ज़रूरी चीजें जैसे कि नमक, कृषि के औजार तथा उपभोग की चीजें जैसे कि चू कि चूड़ियां और गहने खरीदते हैं। परंत अधिकतर लोगों के लिए इस बाज़ार में जाने का प्रमख कारण सामाजिक है। जहां वह अपने रिश्तेदारों से मिल सकता है, घर के जवान लड़के-लड़कियों का विवाह तय कर सकता है, गप्पें मार सकता है तथा कई अन्य कार्य कर सकता है। इस प्रकार साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार एक सामाजिक संस्था बन जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

प्रश्न 4.
व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी संपर्क कैसे योगदान कर सकते हैं?
उत्तर:
अगर हम प्राचीन भारतीय परिदृश्य को देखें तो हमें पता चलता है कि व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। व्यापार के कुछ विशेष क्षेत्र विशेष समुदायों द्वारा नियंत्रित होते हैं। व्यापार और खरीद-फरोख्त साधारणतया जाति तथा नातेदारी तंत्रों में ही होती है।

इसका कारण यह है कि व्यापारी अपने स्वयं के समुदायों के लोगों पर विश्वास औरों की अपेक्षा अधिक करते हैं। इसलिए वे बाहर के लोगों की अपेक्षा इन्हीं संपर्कों में व्यापार करते हैं। इससे व्यापार के कुछ क्षेत्रों पर एक जाति का एकाधिकार हो जाता है तथा वह अधिक से अधिक लाभ कमाते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों में भी मालिक के साथ बोर्ड ऑफ डायरैक्टर्ज़ में मालिक के नातेदार ही होते हैं जो उसकी व्यापार करने में तथा कंपनी चलाने में सहायता करते हैं।

प्रश्न 5.
उपनिवेशवाद के आने के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था किन अर्थों में बदली?
अथवा
उपनिवेशवाद के आने से भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या परिवर्तन आये हैं?
अथवा
भारतीय समाज पर उपनिवेशवाद के प्रभाव का वर्णन करें।
अथवा
उपनिवेश आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या परिवर्तन आये?
उत्तर:
भारत में उपनिवेशवाद के आते ही यहां की अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन हुए जिससे उत्पादन, व्यापार और कृषि में काफी विघटन हुआ। हम उदाहरण ले सकते हैं हस्तकरघा के कार्य के खत्म हो जाने की। ऐसा इस कारण हुआ कि उस समय इंग्लैंड के बने सस्ते कपड़े की बाज़ार में बाढ़ सी आ गई। चाहे भारत में उपनिवेशवाद के आने से पहले एक जटिल मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था मौजूद थी फिर भी इतिहासकार औपनिवेशिक काल को एक संधि काल के रूप में देखते हैं। इस समय दो मुख्य परिवर्तन आए तथा वे हैं :

(i) भारतीय अर्थव्यवस्था का पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ना-अंग्रेजी राज में भारतीय अर्थव्यवस्था संसार की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से गहरे रूप से जुड़ गई। अंग्रेजों से पहले भारत से बना बनाया सामान काफी अधिक निर्यात होता था। परंतु उपनिवेशवाद के भारत आने के पश्चात् भारत कच्चे माल तथा कृषि उत्पादों का स्रोत और उत्पादित माल का उपभोग करने का मुख्य केंद्र बन गया। इन दोनों कार्यों से इंग्लैंड के उद्योगों को लाभ होना शुरू हो गया।

उसी समय पर नए समूह (मुख्यतः यूरोपीय लोग) व्यापार तथा व्यवसाय करने लगे। वह या तो पहले से जमे हुए व्यापारियों के साथ अपना व्यापार शुरू करते थे या फिर कभी उन समुदायों को अपना व्यापार छोड़ने के बाध्य करते थे। परंतु पहले से ही मौजूद आर्थिक संस्थाओं को पूर्णतया नष्ट करने के स्थान पर भारत में बाज़ार अर्थव्यवस्था के विस्तार ने कुछ व्यापारिक समुदायों को नए मौके प्रदान किए। इन समुदायों ने बदले हुए आर्थिक हालातों के अनुसार अपने आपको ढाला तथा अपनी स्थिति में सुधार किया।

(ii) नए समुदायों का सामने आना-उपनिवेशवाद के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे समुदाय सामने आए जो मुख्यता व्यापार से ही संबंधित थे। उदाहरण के तौर पर मारवाड़ी जोकि सबसे जाना माना व्यापारिक समुदाय है तथा जो हरेक स्थान पर पाया जाता है। मारवाड़ी न केवल बिड़ला परिवार जैसे प्रसिद्ध औद्योगिक घरानों से हैं बल्कि यह तो छोटे-छोटे व्यापारी और दुकानदार भी हैं जो हरेक नगर में पाए जाते हैं। अंग्रेजों के समय उन्होंने नए शहरों, कलकत्ता में मिलने वाले नए अवसरों का लाभ उठाया और सफल व्यापारिक समुदाय बन गए।

यह देश के सभी भागों में बस गए। मारवाड़ी अपने गहन सामाजिक तंत्र के कारण सफल हुए जिसने उनकी बैंकिंग व्यवस्था के संचालन के लिए ज़रूरी विश्वास से भरपूर संबंधों को स्थापित किया। बहुत-से मारवाड़ी परिवारों के पास इतनी पंजी इकटठी हो गई कि वह ब्याज पर कर्ज देने लगे। इन बैंकों जैसी आर्थिक प्रवत्ति की सहायता से भारत के वाणिज्यिक विस्तार को भी सहायता प्राप्त हुई।

स्वतंत्रता से कुछ समय पहले तथा स्वतंत्रता के पश्चात् कुछ मारवाड़ी परिवारों ने आधुनिक उद्योग स्थापित किए जिस कारण आज के समय में उद्योगों में मारवाड़ियों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। अंग्रेजों के समय में नए व्यापारिक समूहों का सामने आना तथा छोटे प्रवासी व्यापारियों का बड़े उद्योगपतियों में बदल जाना आर्थिक प्रक्रियाओं में सामाजिक संदर्भ के महत्त्व को प्रदर्शित करता है।

प्रश्न 6.
उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पण्यीकरण उस समय होता है जब कोई चीज़ बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो तथा अब वह बेची खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह वस्तु बाजार में बिकने वाली बन गई है। उदाहरण के लिए कौशल तथा श्रम अब ऐसी चीजें बन गई हैं जिन्हें बाजार में खरीदा तथा बेचा जा सकता हैं। कार्ल मार्क्स तथा पूंजीवाद के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी है। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है, परंतु और भी उदाहरण समाज में मिल जाते हैं।

उदाहरण के लिए आजकल निर्धन लोगों द्वारा अपनी किडनी उन अमीर लोगों को बेचना जिन्हें किडनी बदलने की आवश्यकता है। बहुत से लोगों का कहना है कि मनुष्यों के अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। कुल समय पहले तक मनुष्यों को गुलामों के रूप में खरीदा तथा बेचा जाता था, परंतु आज के समय में मनुष्यों को वस्तु समझना अनैतिक समझा जाता है। परंतु आधुनिक समाज में यह विचार व्याप्त है कि मनुष्य का श्रम बिकाऊ है अर्थात पैसे के साथ कौशल या अन्य सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स का कहना था कि यह स्थिति केवल पूंजीवादी समाजों में पाई जाती है जहां पर पण्यीकरण की प्रक्रिया व्याप्त है।

उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए। – उत्तर:पण्यीकरण उस समय होता है जब कोई चीज़ बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो तथा अब वह बेची खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह वस्तु बाजार में बिकने वाली बन गई है। उदाहरण के लिए कौशल तथा श्रम अब ऐसी चीजें बन गई हैं जिन्हें बाजार में खरीदा तथा बेचा जा सकता हैं। कार्ल मार्क्स तथा पूंजीवाद के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी है। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है, परंतु और भी उदाहरण समाज में मिल जाते हैं।

उदाहरण के लिए आजकल निर्धन लोगों द्वारा अपनी किडनी उन अमीर लोगों को बेचना जिन्हें किडनी बदलने की आवश्यकता है। बहुत से लोगों का कहना है कि मनुष्यों के अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। कुल समय पहले तक मनुष्यों को गुलामों के रूप में खरीदा तथा बेचा जाता था, परंतु आज के समय में मनुष्यों को वस्तु समझना अनैतिक समझा जाता है। परंतु आधुनिक समाज में यह विचार व्याप्त है कि मनुष्य का श्रम बिकाऊ है अर्थात पैसे के साथ कौशल या अन्य सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स का कहना था कि यह स्थिति केवल पूंजीवादी समाजों में पाई जाती है जहां पर पण्यीकरण की प्रक्रिया व्याप्त है।

प्रश्न 7.
‘प्रतिष्ठा का प्रतीक’ क्या है?
उत्तर:
अपने रिश्तेदारों, नातेदारों अथवा जाति में ही व्यापार करना प्रतिष्ठा का प्रतीक है क्योंकि इससे अपनी जाति, नातेदारी में प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी होती है।

प्रश्न 8.
‘भूमंडलीकरण’ के तहत कौन-कौन सी प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं?
उत्तर:
भूमंडलीकरण के कई पहलू हैं, उनमें से विशेष हैं-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं, पूंजी, समाचार और लोगों का संचलन एवं साथ ही प्रौद्योगिकी (कंप्यूटर, दूरसंचार और परिवहन के क्षेत्र में) और अन्य आधारभूत सुविधाओं का विकास, जो इस संचलन को गति प्रदान करते हैं।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

प्रश्न 9.
उदारीकरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
उदारीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें कई प्रकार की नीतियां सम्मिलित हैं जैसे कि सरकारी विभागों का निजीकरण, पूंजी, श्रम और व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए आयात शुल्क में कमी करना तथा विदेशी कंपनियों को देश में उद्योग स्थापित करने में सुविधाएं प्रदान करना।

प्रश्न 10.
आपकी राय में, क्या उदारीकरण के दूरगामी लाभ उसकी लागत की तुलना में अधिक हो जाएंगे? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
भारतीय अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण मुख्यतः उदारीकरण की नीति के कारण हुआ जोकि 1980 के दशक में शुरू हुई। उदारीकरण में कई प्रकार की नीतियां सम्मिलित हैं जैसे कि सरकारी विभागों का निजीकरण, पूंजी, श्रम तथा व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए सीमा शुल्क कम करना तथा विदेशी कंपनियों को देश में उद्योग स्थापित करने के लिए सुविधाएं देना।

इसमें आर्थिक नियंत्रण को सरकार द्वारा कम या खत्म करना, उदयोगों का निजीकरण तथा मज़दूरी और मूल्यों पर से सरकारी नियंत्रण खत्म करना भी शामिल है। जो लोग बाजारीकरण के समर्थक हैं उनका कहना है कि इससे समाज आर्थिक रूप से समृद्ध होगा क्योंकि निजी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं की अपेक्षा अधिक कुशल होती हैं।

उदारीकरण से कई परिवर्तन आए जिनसे आर्थिक संवृद्धि बढ़ी तथा साथ ही भारतीय बाजार विदेशी कंपनियों के लिए खुल गए। जैसे कि अब भारत में बहुत-सी विदेशी वस्तुएं मिलने लग गई हैं जो पहले नहीं मिलती थीं। यह माना जाता है कि विदेशी पूंजी के निवेश से आर्थिक विकास के साथ रोज़गार के अवसर भी बढ़ते हैं। सरकारी कंपनियों का निजीकरण करने से उनकी कुशलता बढ़ती है तथा सरकार पर दबाव कम होता है।

चाहे हमारे देश में उदारीकरण का प्रभाव मिश्रित ही रहा है परंतु फिर भी बहुत-से लोग यह मानते हैं कि उदारीकरण से हम अपनी अधिक चीजें खोकर कम चीजों को पाएंगे तथा इसका भारतीय परिवेश पर प्रतिकल असर हुआ है। उनका कहना है कि भारतीय योग किलोदेवर या पचना तकनीमा सो महणी सफल उत्पादन को वैश्विक बाज़ार से लाभ होगा परंतु कई क्षेत्रों कि आटोमोबाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और तेलीय अनाजों के उद्योग पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि हम विदेशी उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे।

अब भारतीय किसान अन्य देशों के किसानों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं क्योंकि अब कृषि उत्पादों का आयात होता है। पहले भारतीय किसान कृषि सहायता मूल्य (M.S.P.) तथा सबसिडी द्वारा विश्व बाजार से सुरक्षित थे। इस समर्थन मूल्य से किसानों की न्यूनतम आय सुनिश्चित होती है क्योंकि इस मूल्य पर सरकार किसानों से उनके उत्पाद खरीदने को तैयार होती है। सबसिडी देने से किसानों द्वारा प्रयोग की जाने वाली चीज़ों जैसे कि डीज़ल, उर्वरक इत्यादि का मूल्य सरकार कम कर देती है।

परंतु उदारवाद इस सरकारी सहायता के विरुद्ध है जिस कारण सबसिडी का समर्थन मूल्य या तो कम कर दिया गया या हटा लिया गया। इससे बहुत-से किसान अपनी रोजी-रोटी कमाने में भी असफल रहे हैं। इसके साथ ही छोटे उत्पादकों को विश्व स्तर के उत्पादकों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। इससे हो सकता है कि उनका बिल्कुल ही सफाया हो जाए। निजीकरण से सरकारी नौकरियां भी कम हो गई हैं तथा उनमें स्थिरता कम हो रही है। गैर-सरकारी असंगठित रोज़गार सामने आ रहे हैं। उदारीकरण कामगारों के लिए भी ठीक नहीं है क्योंकि उन्हें कम तनख्वाह तथा अस्थायी नौकरियां ही मिलेंगी।

प्रश्न 11.
बस्तर में एक आदिवासी गांव का बाज़ार।
धोराई एक आदिवासी बाज़ार वाले गांव का नाम है जोकि छत्तीसगढ़ के उत्तरी बस्तर जिले के भीतरी इलाके में बसा है… जब बाज़ार नहीं लगता, उन दिनों धोराई एक उँघता हुआ, पेड़ों के छपरों से छना हुआ, घरों का झुरमुट है जो पैर पसारे उन सड़कों से जा मिलता है जो बिना किसी नाप-माप के जंगल भर में फैली हुई है… धोराई का सामाजिक जीवन, यहां की दो प्राचीन चाय की दुकानों तक सीमित है, जिसके ग्राहक राज्य वन सेवा के निम्न श्रेणी के कर्मचारी हैं जो दुर्भाग्यवश इस दूरवर्ती और निरर्थक इलाके में कर्मवश फंसे पड़े हैं…

धोराई का गैर-बाज़ारी दिनों में या शक्रवार को छोडकर अस्तित्व शन्य के बराबर होता है. पर बाजार वाले दिन वो किसी और जगह में तबदील हो जाता है। टकों से रास्ता जाम हआ होता है…वन के सरकारी कर्मचारी अपनी इस्तरी की हई पोशाकों में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे होते हैं और वन सेवा के महत्त्वपूर्ण अधिकारी अपनी डयटी बजाकर वन विभाग के विश्राम गृहों के आँगनों से बाज़ार पर बराबर नज़र बनाए रखते हैं। वे आदिवासी श्रमिकों को उनके काम का भत्ता बांटते हैं…

जब अफ़सरात आराम घर में सभा लगाते हैं तो आदिवासियों की कतार चारों ओर से खिंचती चली जाती है, वो जंगल के समान अपने खेतों की उपज या फिर अपने हाथ से बनाया हुआ कुछ लेकर आते हैं। इनमें तरकारी बेचने वाले हिंदू एवं विशेषज्ञ शिल्पकार, कुम्हार, जुलाहे एवं लोहार सम्मिलित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि समृद्धि के साथ अस्त-व्यस्तता है, बाज़ार के साथ-साथ कोई धार्मिक उत्सव भी चल रहा है…लगता है जैसे सारा संसार, इंसान, भगवान् सब एक ही जगह बाज़ार में एकत्रित हो गए हैं। बाज़ार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है, लगभग 100 एकड़ के वर्गमूल में बसा हुआ है जिसके बीचों-बीच एक भव्य बरगद का पेड़ है।

बाजार की छोटी-छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी है और यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे से बन गए हैं, जिनमें से खरीदार संभलते हुए किसी तरह कम स्थापित दुकानदारों के कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थाई दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

स्रोत : गेल 1982 : 470-71
दिए गए उद्धरण को पढ़िए एवं नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
(1) यह लेखांश आप को आदिवासियों और राज्य (जिसका प्रतिनिधित्व वन विभाग के अधिकारियों द्वारा होता है) के बीच के संबंध के बारे में क्या बताता है? वन विभाग के अर्दली, आदिवासी जिलों में इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारी आदिवासी श्रमिकों को भत्ता क्यों दे रहे हैं?

(2) बाज़ार की रूपरेखा उसके संगठन और कार्य-व्यवस्था के बारे में क्या प्रकट करती है? किस प्रकार के लोगों की स्थाई दुकानें होंगी और ‘कम स्थापित’ दुकानदार कौन हैं, जो ज़मीन पर बैठते हैं?

(3) बाज़ार के मुख्य विक्रेता और खरीदार कौन हैं? बाज़ार में किस प्रकार की वस्तुएं होती हैं और इन विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को कौन लोग खरीदते व बेचते हैं? इससे आपको इस क्षेत्र की स्थानीय अर्थव्यवस्था और आदिवासियों के बड़े समाज और अर्थव्यवस्था से संबंध के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
(1) इस लेखांश से हमें राज्य तथा आदिवासियों के बीच के संबंध के बारे में पता चलता है कि आदिवासियों का जीवन राज्य कर्मचारियों के बिना पूर्ण नहीं है बल्कि अधूरा है क्योंकि वन के सरकारी कर्मचारी उनके बाज़ारों पर नज़र रखते हैं तथा उनकी सहायता करते हैं। वन विभाग के अर्दली आदिवासी जिलों में महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वह वनों की देख-रेख करते हैं तथा इस कारण कर्मचारियों के आदिवासियों से अच्छे संबंध बन गए हैं।

(2) धोराई एक आदिवासी साप्ताहिक बाज़ार वाला ग्राम है। बाज़ार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है जो लगभग 100 एकड़ वर्गमूल में बसा हुआ है। इसके बीचोंबीच एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है। बाज़ार की छोटी छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी हुई है तथा यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे बने हुए हैं जिनमें से खरीदार संभलते हुए, किसी प्रकार कम स्थापित दुकानदारों के कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थायी दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

(3) इस बाज़ार के मुख्य खरीदार तथा विक्रेता आदिवासी ही हैं। इस बाज़ार में वनों में मिलने वाली चीजें तथा शहर से आने वाली आवश्यकता की चीजें उपलब्ध होती हैं। आदिवासियों की स्थानीय अर्थव्यवस्था एक-दूसरे पर आश्रित होती है तथा इनका काफ़ी बड़ा समाज होता है।

प्रश्न 12.
तमिलनाडु के नाकरट्टारों में जाति आधारित व्यापार।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नाकारट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था अर्थशास्त्रियों के पश्चिमी स्वरूप के बैंकिंग व्यवस्था के प्रारूप से मिलती है…नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जोकि व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था।

आधनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था के विपरीत, नाकरटटारों में नेकनामी (प्रतिष्ठा) निर्णय, क्षमता और जमा पूंजी जैसे सिद्धांतों के अनुसार विनिमय होता था, न कि सरकार नियंत्रित केंद्रीय बैंक के नियमों के अंतर्गत और यही प्रतीक संपूर्ण जाति के प्रतिनिधि की तरह प्रत्येक एकल नाकरट्टर व्यक्ति के इस व्यवस्था में विश्वास को सुनिश्चित करते थे। दूसरे शब्दों में, नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी।

हर एक नाकरट्टार ने अपना जीवन विभिन्न प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में शामिल होने और उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया था। यह वह संस्थाएं थीं जो उनके समुदाय में पूंजी जमा करने और बांटने में जुटी हुई थीं।
स्रोत : रुडनर 1994 : 234
कास्ट एंड केपिटेलिज्म इन कॉलोनियल इंडिया (रुडनर 1994) से लिए गए लेखांश को पढ़ें और निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दें-
(1) लेखक के अनुसार, नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में क्या महत्त्वपूर्ण अंतर हैं?
(2) नाकरट्टाओं की बैंकिंग और व्यापारिक गतिविधियां अन्य सामाजिक संरचनाओं से किन विभिन्न तरीकों से जुड़ी हुई हैं।
(3) क्या आप आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत ऐसे उदाहरण सोच सकते हैं जहां आर्थिक गतिविधियां नाकरट्टाओं की ही तरह सामाजिक संरचना में घुली-मिली हों?
उत्तर:
(1) यह अंतर अग्रलिखित हैं:

  • नाकरट्टाओं में एक दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित संबंधों से जुड़ा होता है जबकि आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में ऐसा नहीं होता है।
  • नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित थी परंतु पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था पैसे पर आधारित है।
  • नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी परंतु पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था सरकार द्वारा नियंत्रित होती है।

(2) नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जोकि व्यापार के भूभाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था। उनकी बैंकिंग व्यवस्था जाति पर आधारित व्यवस्था थी। हरेक नाकरट्टार ने अपने जीवन को अलग प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में सम्मिलित होने तथा उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया हुआ था।

(3) आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सहकारी संस्थाएं होती हैं जहां पर आर्थिक गतिविधियां नाकरट्टाओं की तरह ही सामाजिक संरचना में घुली-मिली होती हैं।

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प्रश्न 13.
इस गद्यांश में दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
पण्यीकरण बड़ा शब्द है, जो सुनने में जटिल लगता है। पर जिन प्रक्रियाओं की तरफ़ वो इशारा करता है उनसे हम परिचित हैं और वे हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। एक साधारण उदाहरण है : बोतल का पानी।

शहर या कस्बे में, यहां तक कि अधिकांश गांवों में भी बोतल का पानी खरीदना अब संभव है, 2, 1 लीटर या उससे छोटे पैमाने में वो हर एक जगह बेची जाती है। अनेक कंपनियां हैं और अनेक ब्रांड के नाम हैं जिससे पानी की बोतलें पहचानी जाती हैं। पर यह एक नयी प्रघटना है जो दस-पंद्रह साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। मुमकिन है कि आप खुद उस समय को याद कर सकते हैं जब पानी की बोतलें नहीं बिका करती थीं। बड़ों से पूछो। माता-पिता के पीढ़ी के लोगों को अजीब लगा होगा और आप के दादा-दादी के जमाने में तो इसके बारे में बिरले लोगों ने सुना या सोचा होगा। ऐसा सोचना भी कि पेयजल के लिए कोई पैसा मांग सकता है, उनके लिए अविश्वसनीय होगा।

पर, आज यह हमारे लिए आम बात है, एक साधारण-सी बात, एक वस्तु जिसे हम खरोद (या बेच) सकते हैं। इसी को पण्यीकरण (commoditisation/commodification) कहते हैं, एक प्रक्रिया जिसके द्वारा कोई भी चीज़ जो बाज़ार में नहीं बिकती हो वह बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बन जाती है और बाजार अर्थव्यवस्था का एक भाग बन जाती है। क्या आप ऐसी चीजों के बारे में सोच सकते हैं जो हाल ही में बाजारों में शामिल हुई हों? याद रहे कि यह ज़रूरी नहीं कि कोई वस्तु ही एक पण्य हो, कोई सेवा भी पण्य हो सकती है।

ऐसी चीजों के बारे में भी सोचें जो आज पण्य भले न हों पर भविष्य में हो सकती हों। आप कारण भी सोचें कि ऐसा क्यों होगा। अंत में, इस बारे में भी सोचें कि पहले जमाने की कुछ चीजें अब बिकनी बंद क्यों हो गई हैं (मतलब जिनका पहले विनिमय में योगदान था पर अब नहीं है) क्यों और कब कोई कमॉडिटी, कमॉडिटी नहीं रह जातो?
उत्तर:
(i) आजकल के समय में बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जो हमारे बाजार में शामिल हई हैं जैसे कि बना हुआ पैक्ड खाना, बोतलों में पानी, विदेशी कारें, विदेशी इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान. इंटरनेट तथा उस पर मौजूद कई प्रकार की सेवाएं इत्यादि।

(ii) कई चीजें जो हो सकता है आने वाले समय में बाजार में मौजूद हों वे हैं- भगवान के दर्शन, इच्छा अनुसार रूप बदलना, अपनी इच्छा की संतान प्राप्ति इत्यादि।

(iii) बहुत-सी प्राचीन चीजें हमारे समाज में बिकनी बंद हो गई हैं जैसे कि कई प्रकार के आभूषण। हो सकता है कि उनकी समाज के लिए उपयोगिता ही खत्म हो गई हो जिस कारण यह आज बिकनी बंद हो गई हैं।

प्रश्न 14.
जब बाज़ार भी बिकता हो : पुष्कर पशु मेला
“कार्तिक का महीना आते ही…. ऊंटों के गाड़ीवान अपने रेगिस्तानी जहाजों को सजाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के वक्त पहुंचने के लिए समय से पुष्कर की लंबी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं…हर साल लगभग 2,00,000 लोग और 50,000 ऊँट और अन्य पशुओं का यहां जमावड़ा लगता है।

वो उन्माद देखते ही बनता है जब रंग, शोर और चहल-पहल से लोग घिरे होते हैं, संगीतवादक, रहस्यवादी, पर्यटक, व्यापारी, पशु और भक्त सब एक जगह इकट्ठा होते हैं। एक तरह से कहें तो यह ऊंटों को सँवारने का निर्वाण है-जिसमें मकई के बाल की तरह बाल संवारे हुए ऊंटों, पायलों की झनकार, कढ़ाई किए वस्त्रों और टम-टम पर सवार लोगों से आपकी अद्भुत भेंट हो सकती है।”

“ऊंटों के मेले के साथ ही धार्मिक प्रतिष्ठान भी एक जंगली-जादुई चरम पर होता है-अगरबत्तियों का घना धुआं, मंत्रों का शोर और मेले की रात में, हजारों भक्त नदी में डुबकी लगाकर अपने पाप धोते हैं और पवित्र पानी में टिमटिमाते दिए छोड़ते हैं।”

स्रोत : लोनली प्लानेट, भारत के लिए पर्यटन गाइड के ग्यारहवें संस्करण से। पीछे दिए लेखांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें:
(1) पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से इस जगह पर कौन सी नयी वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी और लोगों के दायरे का विकास हुताा है?
(2) आपके विचार में बड़ी संख्या में भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से मेले का रूप किस तरह बदल गया
(3) इस जगह का धार्मिक उन्माद किस तरह से इसकी बाज़ारी कीमत को बढ़ाता है? क्या हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्मक का एक बाज़ार है?
उत्तर:
(1) पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से यहां पर विदेशी वस्तुओं, सभी प्रकार की सुविधाओं, विदेशी पूंजी तथा विदेशी लोगों के आने से यहां के लोगों के दायरे का काफी विकास हुआ है।

(2) पहले इस मेले को एक क्षेत्रीय मेले के रूप में देखा जाता था परंतु भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से यह मेला क्षेत्रीय मेले से अंतर्राष्ट्रीय मेले का रूप धारण कर चुका है।

(3) यह कहा जाता है कि पुष्कर के सरोवर में स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। इस समय लाखों लोग यहां पर आते हैं। यहां पर धर्म से संबंधित खूब साहित्य बिकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्म का एक काफी बड़ा बाजार है।

बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में HBSE 12th Class Sociology Notes

→ दैनिक बोलचाल की भाषा में बाजार शब्द को विशेष वस्तु के बाजार के रूप में प्रयोग किया जाता है जैसे कि फलों का बाज़ार, सब्जी का बाजार अर्थात् हम इसे अर्थव्यवस्था से संबंधित करते हैं। परंतु यह एक सामाजिक संस्था भी है जिसका अध्ययन इस अध्याय में किया जाएगा।

→ समाजशास्त्रियों के अनुसार बाज़ार वह सामाजिक संस्थाएं हैं जो विशेष सांस्कृतिक तरीकों द्वारा निर्मित हैं। बाज़ारों का नियंत्रण तो विशेष सामाजिक वर्गों द्वारा होता है तथा इसका अन्य संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं और संरचनाओं से भी विशेष संबंध होता है।

→ विभिन्न सामाजिक समूह अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अपने बाजार निर्मित कर लेते हैं। जैसे कि जनजातीय क्षेत्रों में साप्ताहिक बाज़ार स्थापित किए गए थे। उपनिवेशिक दौर में तो जनजातीय श्रम का एक बाज़ार विकसित हो गया था।

→ बाजारों का एक सामाजिक संगठन भी होता है तथा समाज में पारंपरिक व्यापारिक समुदाय भी होते हैं। चाहे यह समुदाय वैश्य वर्ण से संबंधित होते हैं परंतु कई और समुदाय भी इनमें जुड़ गए हैं जैसे कि पारसी, सिंधी, बोहरा, जैन इत्यादि।

→ उपनिवेशवाद के कारण प्राचीन बाज़ार नष्ट हो गए तथा नए बाज़ार सामने आ गए। उपनिवेशवाद के कारण भारत कच्चे माल का उत्पादक तथा उत्पादित माल के उपयोग का साधन बन गया। इसका मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड को आर्थिक लाभ पहुंचाना था। स्वतंत्रता के बाद तो बाज़ार का स्वरूप ही बदल गया।

→ पूंजीवाद में उत्पादन बाजार के लिए किया जाता है ताकि अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। पूंजीपति धन का निवेश करके लाभ कमाता है। वह श्रमिकों को अधिक पैसा न देकर उनके श्रम से अतिरिक्त मूल्य निकाल लेता है।

→ भूमंडलीकरण का अर्थ है संसार के चारों कोनों में बाजारों का विस्तार और एकीकरण का बढ़ना। इस एकीकरण का अर्थ है कि संसार में किसी एक कोने में किसी बाज़ार में परिवर्तन होता है तो दूसरे कोनों में उसका अनुकूल-प्रतिकूल असर हो सकता है।

→ उदारवादिता में सरकारी दखल कम करना, सीमा शुल्क खत्म करना तथा अपने देश के बाज़ार को और देशों की कंपनियों के लिए खोलना है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है तथा उपभोक्ताओं का लाभ होता है।

→ भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण के कारण स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजारों का गठजोड़ हो रहा है जिससे स्थानीय क्षेत्र में संसार की हरेक वस्तु उपलब्ध हो रही है।

→ अदृश्य हाथ-वह अदृश्य बल जो व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में बदल देता है।

→ लेसे-फेयर-वह नीति जिसके अनुसार बाज़ार को अकेला छोड़ दिया जाए अथवा हस्तक्षेप न किया जाए।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में

→ बाज़ार-वह स्थान जहां वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है या उन्हें खरीदा या बेचा जाता है।

→ जजमानी व्यवस्था-गाँवों में विभिन्न प्रकार की गैर-बाज़ारी विनिमय व्यवस्था अथवा सेवा के बदले चीज़ देने का प्रचलन।

→ खेतिहर-किसान अथवा कषि का कार्य करने वाले लोग।

→ पण्यीकरण-वस्तु को खरीद या बेच सकने की प्रक्रिया।

→ निजीकरण-सरकारी संस्थानों को प्राइवेट कंपनियों को बेच देने की प्रक्रिया।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति व्यवस्था में पृथक्करण (Separation) और अधिक्रम (Hierarchy) की क्या भूमिका है?
अथवा
जाति व्यवस्था में पृथककरण तथा अधिकार की भूमिका पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अगर हम ध्यान से जाति व्यवस्था को देखें तो हमें पता चलता है कि जाति व्यवस्था में पृथक्करण तथा अधिक्रम की बहुत बड़ी भूमिका है। इन दोनों के न होने की स्थिति में जाति व्यवस्था के मुख्य लक्षण ही खत्म हो जाएंगे।
इनका विवेचन इस प्रकार है-
1. पृथक्करण (Separation)-जाति व्यवस्था की यह विशेषता थी कि इसमें हरेक जाति दूसरी जाति से पूर्णतया पृथक् होती थी। पृथक् होने के कारण दो जातियों के एक-दूसरे में मिश्रित होने का खतरा नहीं रहता है। प्रत्येक जाति के कुछ नियम होते थे; जैसे कि खाने-पीने के, विवाह के, सामाजिक संबंध रखने के, व्यवसाय के इत्यादि तथा इनके कारण ही वह एक-दूसरे से पृथक् होती थी। चाहे यह सभी जातियां एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् होती थीं, परंतु इनका अस्तित्व संपूर्ण जाति-व्यवस्था के कारण ही संभव था। इससे अलग होने से इनका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता था।

2. अधिक्रम (Hierarchy)-जाति व्यवस्था की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता इसमें अधिक्रम का पाया जाना था। अधिक्रम का अर्थ है प्रत्येक वर्ग अथवा जाति का व्यवस्था में विशेष स्थान होता था
तथा एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का विशेष स्थान। प्रत्येक जाति के बीच कुछ अंतर होते थे तथा ये अंतर शुद्धता तथा अशुद्धता पर आधारित होते थे। उन जातियों को उच्च स्थान प्राप्त होता था जिन्हें शुद्ध माना जाता था तथा जिन जातियों को अशुद्ध समझा जाता था उन्हें निम्न स्थान प्राप्त होता था। मुख्यतः आजकल के समाजों में उन वर्गों को उच्च स्थान प्राप्त होता था जिनके पास सत्ता अथवा शक्ति होती थी।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 2.
वे कौन-से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।
अथवा
जाति व्यवस्था की चार विशेषताएं बताइए।
अथवा
जाति व्यवस्था की कुछ विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
जाति व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक होता है जिनका वर्णन इस प्रकार है
(i) प्रत्येक व्यक्ति की जाति जन्म से ही निर्धारित हो जाती थी अर्थात् जिस जाति में व्यक्ति जन्म लेता है उसे उस जाति में ही तमाम आयु व्यतीत करनी पड़ती थी। वह योग्यता होते हुए भी अपनी जाति को परिवर्तित नहीं कर सकता था। हम न तो अपनी जाति को छोड़ सकते थे तथा न ही अन्य जाति को अपना सकते थे।

(ii) प्रत्येक जाति में विवाह के संबंध में नियम बनाये होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को पता होता है कि किस जाति से वैवाहिक संबंध स्थापित करने थे। जाति अंतर्वैवाहिक होती थी अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था।

(iii) जाति व्यवस्था में एक निश्चित अधिक्रम पाया जाता था। अर्थात् इसमें एक निश्चित सोपान होता है। प्रत्येक जाति का एक निश्चित स्थान होता था तथा इसके आधार पर प्रत्येक जाति की सामाजिक स्थिति उच्च अथवा निम्न होती थी।

(iv) जाति व्यवस्था में खाने-पीने के संबंध में प्रतिबंध होते हैं। प्रत्येक जाति के लिए यह निश्चित होता है कि किस जाति के साथ खाने-पीने के संबंध रखने हैं तथा किस के साथ नहीं रखने हैं।

(v) प्रत्येक जाति का अपना एक निश्चित व्यवसाय होता था तथा व्यक्ति का व्यवसाय उसके जन्म के अनुसार ही निश्चित हो जाता था। व्यक्ति को उस जाति का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था जिसमें उसने जन्म लिया था।

(vi) प्रत्येक जाति आगे बहुत-सी उपजातियों में विभाजित होती थी तथा प्रत्येक उपजाति के अपने ही नियम होते थे। प्रत्येक व्यक्ति इन नियमों को मानने को बाध्य होता था।

प्रश्न 3.
उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?
अथवा
उपनिवेशवाद व जाति में संबंध बताइए।
उत्तर:
भारत में उपनिवेशवाद के स्थापित होने से पहले तथा स्थापित होने के कुछ समय तक जाति व्यवस्था सुदृढ़ता से कार्य कर रही थी। परंतु उपनिवेशवाद के स्थापित होने के बाद औपनिवेशिक शासकों ने भारत में बहुत से परिवर्तन किए जिनका जाति व्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस प्रकार उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) पश्चिमी शिक्षा के कारण आए परिवर्तन-उपनिवेशवाद में भारत में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के बच्चों को समान रूप से शिक्षा दी जाती थी। पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के बाद सभी को एक-दूसरे के अधिकारों के बारे में पता चला जिससे जाति प्रथा का प्रभाव कम हो गया। स्त्रियों तथा निम्न जातियों के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए गए जिस कारण जाति प्रथा की इन्हें शिक्षा न देने की विशेषता खत्म हो गई तथा जाति प्रथा का प्रभाव कम हो गया।

(ii) सर्वेक्षण करवाना-औपनिवेशिक शासकों ने भारत में बहुत-से परिवर्तन तो किए तथा यह सभी परिवर्तन सोच समझकर लाए गए। शुरू में उन्होंने जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया ताकि शासन को कुशलतापूर्वक चलाया जा सके। इसलिए उन्होंने अलग-अलग जातियों तथा जनजातियों की प्रथाओं तथा तौर-तरीकों के बारे में गहन सर्वेक्षण किए तथा रिपोर्ट तैयार की गई। इनके आधार पर उन्होंने समाज में परिवर्तन लाने शुरू किए जिससे जाति व्यवस्था भी परिवर्तित होनी शुरू हो गई।

(iii) समाज सुधार-पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के बाद पढ़े-लिखे भारतीयों ने समाज-सुधार के कार्य शुरू किए तथा उनका मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा को समाज में से खत्म करना था। अंग्रेजों ने भी उनका साथ दिया। सभी समाज सुधारकों ने जाति-प्रथा के विरुद्ध कई प्रकार के प्रयास किए। निम्न जातियों के कल्याण के कार्य किए गए, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया गया, विधवा विवाह को तथा बाल विवाह खत्म करने को कानूनी मान्यता प्राप्त हुई। इससे जाति प्रथा की जटिलता कम होनी शुरू हो गई।

(iv) परंपरागत व्यवसायों का कम होना-उपनिवेशवाद के आने से भारत में नए सैंकड़ों प्रकार के व्यवसाय भी आए। उद्योग शुरू हुए, स्कूल, कॉलेज इत्यादि शुरू हुए, दफ्तर खुल गए जिससे लोगों ने अपनी पसंद तथा योग्यता के अनुसार कार्य करने शुरू किए। इससे परंपरागत व्यवसायों का समाप्त होना शुरू हुआ जिससे जाति व्यवस्था में परिवर्तन आना शुरू हो गया।

(v) निम्न जातियों का कल्याण-औपनिवेशिक काल के अंतिम दौर में निम्न जातियों के कल्याण के कार्य शुरू हुए। प्रशासन ने इनके कल्याण में विशेष रुचि ली। 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया गया जिसने राज्य द्वारा विशेष व्यवहार के लिए निर्धारित जातियों तथा जनजातियों की सूचियों या अनुसूचियों को वैध मान्यता प्रदान कर दी।

इससे अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियाँ जैसे शब्द अस्तित्व में आए। जातीय सोपान में निम्न स्थान पर रहने वाली जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया तथा उनके कल्याण के अनेकों कार्य किए गए। इस प्रकार उपनिवेशवाद से जाति व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। यदि हम यह कहें कि औपनिवेशिक काल में जाति व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन आए हैं तो गलत भी नहीं होगा।

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प्रश्न 4.
किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई है?
अथवा
जाति व्यवस्था के समकालीन रूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में जाति व्यवस्था में आए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक परिवर्तन यह भी है कि अब नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य होती जा रही है। यह समूह, जो स्वतंत्रता के बाद की विकासात्मक नीतियों से सबसे अधिक लाभांवित हुए हैं, जातीय महत्ता को बहुत ही कम महत्त्व देते हैं। इसका कारण यह है कि जाति व्यवस्था का कार्य अच्छी तरह संपन्न हो चुका है। इन समूहों की जातीय परिस्थिति ने यह बात सुनिश्चित किया है कि इन समूहों के लिए विकास करने के लिए आवश्यक आर्थिक तथा शैक्षिक संसाधन उपलब्ध हों। उच्च जातियों के लोग सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों विशेषतया विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा प्रबंधन इत्यादि से व्यावसायिक शिक्षा लेने में सफल हुए।

उन्होंने राजकीय क्षेत्रों में स्वतंत्रता के पश्चात् नौकरियां की तथा लाभ उठाया। इनकी अग्रणी शैक्षिक स्थिति के कारण इन्हें किसी गंभीर प्रतिस्पर्धा का सामना करना नहीं पड़ा। उनकी दूसरी तथा तीसरी पीढ़ियों में जब उनकी स्थिति और सुदृढ़ हो गई तो इन समूहों को यह विश्वास हो गया कि उनकी प्रगति का जाति से कुछ भी लेना देना नहीं है।

उनकी अगली पीढ़ियों की आर्थिक तथा शैक्षिक पूँजी यह सुनिश्चित करने के लिए काफी थी कि उन्हें जीवन में सर्वोत्तम अवसर प्राप्त होते रहेंगे। इन समूहों के सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्त्व खत्म हो गया है। अगर है भी तो वह है धार्मिक रीति-रिवाज अथवा नातेदारी के.व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही सीमित है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई है।

प्रश्न 5.
भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
अथवा
भारत में जनजातियों के वर्गीकरण की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
अथवा
जनजातियों के अर्जित विशेषकों पर संक्षेप में प्रकाश डालिये।
अथवा
जनजातियों के स्थायी विशेषकों पर प्रकाश डालिये।
अथवा
जनजातीय समाज की स्थायी एवं अर्जित विशेषताएं बताइए।
अथवा
भाषायी दृष्टि से जनजातियों की कौन-कौन सी श्रेणियाँ हैं?
अथवा
जनजातीय समाज के अर्जित विशेषक क्या हैं?
उत्तर:
यदि हम ध्यान से देखें तो जनजातियों को स्थायी तथा अर्जित विशेषताओं के आधार पर विभाजित किया जाता है। इन दोनों आधारों का वर्णन इस प्रकार है-
1. स्थायी विशेषक-भारत में जनजातियाँ अलग-अलग क्षेत्रों में फैली हुई हैं, परंतु कुछ क्षेत्रों में यह काफ़ी अधिक हैं। 85% जनजातीय लोग मध्य भारत में रहते हैं जो पश्चिम में गुजरात और राजस्थान से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा तक फैला हुआ है। इनकी 11% जनसंख्या पूर्वोत्तर राज्यों में तथा 3% से कुछ अधिक शेष भारत में रहते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी जनसंख्या सबसे घनी हैं। असम को छोड़कर उनका घनत्व 30% से अधिक है, परंतु अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम तथा नागालैंड जैसे राज्यों में इनकी जनसंख्या 60% से लेकर 95% तक है। देश के शेष भागों में इनकी जनसंख्या बहुत ही कम है।

(a) भाषा के आधार पर विभाजन-भाषा के आधार पर इन्हें चार श्रेणियों में बाँटा गया है। इनमें से दो श्रेणियों अर्थात् भारतीय आर्य तथा द्रविड़ परिवार की भाषाएँ शेष भारतीय जनसंख्या द्वारा भी बोली जाती हैं। जनजातियों में से लगभग 1% लोग भारतीय आर्य परिवार की भाषाएँ तथा 3% लोग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। दो और भाषा समूह-आस्ट्रिक तथा तिब्बती-बर्मी, जनजातीय लोगों द्वारा बोले जाते हैं। इनमें से आस्ट्रिक परिवार की भाषाएँ पूर्णतया जनजातीय लोगों द्वारा तथा तिब्बती-बर्मी परिवार की भाषाएँ 80% से अधिक जनजातीय लोगों द्वारा ही प्रयुक्त होती हैं।

(b) शारीरिक प्रजातीय आधार-शारीरिक प्रजातीय दृष्टि से जनजातियों के लोगों को नीग्रिटो, आर्टेलॉयड, द्रविड़ तथा आर्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। भारत की जनसंख्या का शेष भाग भी आर्य तथा द्रविड़ श्रेणियों के अंतर्गत आता है।

(c) जनसंख्या के आधार पर-जनसंख्या के आधार पर जनजातियों में काफी विविधता पाई जाती है। सबसे बड़ी जनजाति की संख्या 70 लाख के लगभग है जबकि सबसे छोटी जनजाति के लोग 100 से भी कम हैं। गोंड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो तथा मुंजा जनजातियों की जनसंख्या 10 लाख से ऊपर है। यह लोग भारत की जनसंख्या का 8.2% अथवा 8.4 करोड़ लोग हैं।

(ii) अर्जित विशेषक-अर्जित विशेषताओं के आधार पर उन्हें अजीविका साधन तथा हिंदू समाज में उनके समावेश की सीमा अथवा दोनों के आधार पर विभाजित किया जा सकता है।

(a) आजीविका के आधार पर-आजीविका के आधार पर इन्हें मछुआ, खाद्य संग्राहक तथा शिकारी, भूमि कृषि करने वाले, कृषक और बागान तथा औद्योगिक कामगारों की श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। परंतु इनका सबसे प्रभावी वर्गीकरण इस बात पर आधारित है कि हिंदू समाज में किसी जनजाति को कहाँ तक शामिल किया गया है। मुख्यधारा के दृष्टिकोण से, जनजातियों को हिंदू समाज में मिली परिस्थिति की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। कुछेक को तो उच्च स्थान दिया जाता है, परंतु अधिकांश को मुख्यता निम्न स्थान ही दिया जाता है।

प्रश्न 6.
जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं, इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर:
कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि जनजातियों को ऐसे आदिम अथवा मौलिक समाज मानने का कोई आधार नहीं है कि यह सभ्यता से अछूते रहे हों। इनके स्थान पर उनका कहना था कि जनजातियों को वास्तव में ऐसी दवितीयक प्रघटना माना जाए जो पहले से मौजूद राज्यों तथा जनजातियों जैसे राज्येतर समहों के बीच शोषण करने वाले और उपनिवेशवादी संपर्क के कारण अस्तित्व में आया। इस प्रकार का संपर्क स्वयं ही एक जनजातिवादी विचारधारा को जन्म देता है-जनजातीय समूह नए संपर्क में आए अन्य लोगों से अपने आपको अलग दिखाने के लिए. स्वयं को जनजातीय के रूप में परिभाषित करने लगता है।

प्रश्न 7.
आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है उसके पीछे क्या कारण हैं?
अथवा
समकालीन जनजातीय पहचान की विवेचना कीजिए।
अथवा
जनजातीय पहचान आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आज के समय में जनजातीय पहचान को बनाए रखने का आग्रह लगातार बढ़ रहा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जनजातीय समाज के अंदर भी एक मध्य वर्ग का प्रादुर्भाव हो चला है। विशेष रूप से इस वर्ग के आगे आने के साथ ही परंपरा, संस्कृति, आजीविका यहाँ तक कि भूमि तथा संसाधनों पर नियंत्रण और आधुनिकता की परियोजनाओं के लाभों में हिस्से की मांगें भी जनजातियों में अपनी पहचान को बनाए रखने के आग्रह का अभिन्न अंग बन गई हैं। इसलिए अब जनजातियों में उनके मध्य वर्ग के कारण एक नई जागरूकता की लहर आ रही है। यह मध्य वर्ग स्वयं भी आधुनिक शिक्षा तथा आधुनिक व्यवसायों के कारण सामने आया है जिन्हें सरकार की आरक्षण रखने की नीतियों से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है।

प्रश्न 8.
परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
यदि हम ध्यान से देखें तो आधुनिक समाज में मुख्य दो प्रकार के परिवार पाए जाते हैं जो कि इस प्रकार हैं-
(i) एकाकी परिवार-परिवार का मूल रूप एकाकी परिवार है। एकाकी परिवार में पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। जब उनके बच्चों का विवाह हो जाता है तो वह अपना नया घर बसा लेते हैं। चाहे परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ जाती है, परंतु मौलिक रूप से परिवार एकाकी ही रहता है। इस परिवार में पति-पत्नी को समान परिस्थिति… तथा समान अधिकार प्राप्त होते हैं। कोई निर्णय लेने से पहले पत्नी तथा बच्चों की राय भी ली जाती है।

(ii) संयुक्त परिवार-चाहे आजकल के नगरीय परिवारों में परिवार का यह रूप बहत ही कम देखने को मिलता है, परंतु ग्रामीण परिवार आज भी संयुक्त परिवार ही होते हैं। इस प्रकार के परिवार में परिवार की कई पीढ़ियों के सदस्य एक ही छत के नीचे इकट्ठे रहते हैं तथा एक ही रसोई में बना हुआ भोजन खाते हैं। परिवार पर सबसे बड़े सदस्य का पूर्ण अधिकार होता है तथा वह ही परिवार की सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार रखता है।

प्रश्न 9.
सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर:
यह निश्चित है कि सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों से पारिवारिक संरचना में भारी परिवर्तन होता है। कभी-कभी तो यह परिवर्तन अचानक तथा कभी-कभी यह धीरे-धीरे होते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर अंग्रेजों के भारत में आने से शासन व्यवस्था में परिवर्तन आया, पश्चिमी शिक्षा का प्रसार हुआ, औद्योगिकीकरण का विकास हुआ जिससे विभिन्न प्रकार के पेशे सामने आए। लोगों ने कार्य की तलाश में ग्रामीण क्षे परिवारों को छोड़ दिया। वह शहरों में रहने लगे तथा उन्होंने एकाकी परिवार स्थापित कर लिए। इस प्रकार उपनिवेशवाद द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन आया तथा इससे पारिवारिक संरचना में भी परिवर्तन आया।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 10.
मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarachy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
हमारे समाज में कई प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। आवास के आधार पर कुछ समाज पत्नी-स्थानिक तथा कुछ पति-स्थानिक होते हैं। पत्नी-स्थानिक परिवार में नवविवाहित जोड़ा लड़की के माता-पिता के साथ रहता है तथा पति-स्थानिक परिवार में लड़के के माता-पिता के साथ। उत्तराधिकार के नियम के अनुसार, मातृवंशीय समाज में बेटी को माँ से जायदाद प्राप्त होती है तथा पितृवंशीय समाज में पिता से पुत्र को। पितृतंत्रात्मक परिवार में सत्ता तथा प्रभुत्व पुरुष के पास होता है तथा मातृतंत्रात्मक परिवारों में स्त्रियों के पास सत्ता तथा प्रभुत्व होता है। चाहे पितृतंत्र के विपरीत मातृतंत्र एक आनुभाविक संकल्पना की जगह एक सैद्धांतिक कल्पना है।

माततंत्र का कोई मानवशास्त्रीय अथवा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है अर्थात ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ स्त्रियों का प्रभुत्व अधिक हो। चाहे मातृवंशीय समाज होते हैं जहाँ स्त्रियाँ अपनी माताओं से उत्तराधिकार के रूप में जायदाद प्राप्त करती हैं। परंतु उस पर उनका न तो अधिकार होता है तथा न ही सार्वजनिक क्षेत्र में उन्हें कोई निर्णय लेने का अधिकार होता है।

सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ कोई भी समाज संस्थाओं के बिना नहीं चल सकता है। इसलिए सभी समाजों ने अपने क्रिया-कलापों को ठीक ढंग से चलाने के लिए कुछेक संस्थाओं का निर्माण किया हुआ है। इन संस्थाओं को अलग-अलग हिस्सों में भी वर्गीकृत किया गया है जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक इत्यादि।

→ इस अध्याय में केवल सामाजिक संस्थाओं का ही वर्णन किया जाएगा। भारत में भी बहुत-सी सामाजिक संस्थाएं व्याप्त हैं। उनमें से जाति व्यवस्था, विवाह, परिवार, नातेदारी इत्यादि प्रमुख हैं। इस अध्याय में इन संस्थाओं का अध्ययन किया जाएगा।

→ जाति व्यवस्था अपने आप में भारतीय समाज की एक ऐसी संस्था है जिसकी उदाहरण संसार के किसी और देश में देखने को नहीं मिलती है। जाति व्यवस्था का प्रमुख आधार भेदभाव है। चाहे कई आधारों पर अन्य देशों में भी भेदभाव देखने को मिल जाता है, परंतु ऐसी सुदृढ़ संस्था कहीं और देखने को नहीं मिलती है जिसने संपूर्ण समाज तथा देश को बाँधकर रखा था।

→ जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था थी जिसने खान-पान, विवाह करने, सामाजिक संबंधों इत्यादि के संबंध में बहुत से नियम बनाए हुए थे। व्यक्ति के पास चाहे जितनी मर्जी योग्यता हो, वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता।

→ वैसे तो बहुत-से समाजशास्त्रियों ने इसकी परिभाषाएं दी हैं परंतु घुर्ये के अनुसार यह इतनी जटिल व्यवस्था है कि इसको परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए उन्होंने जाति व्यवस्था की छः परिभाषाएं दी हैं।

→ चाहे प्राचीन समय से लेकर 20वीं शताब्दी तक जाति प्रथा के पाँव मज़बूती से भारतीय समाज में बने रहे, परंतु अंग्रेजों के आने के पश्चात् तथा स्वतंत्रता के पश्चात् जाति प्रथा कमजोर पड़नी शुरू हो गई। विधानों, औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण, पश्चिमी शिक्षा जैसी प्रक्रियाओं ने जाति प्रथा को आज के समय में काफी कमजोर कर दिया है।

→ हमारे देश में एक ऐसा समुदाय भी है जो आधुनिक समाज तथा अवस्था से दूर जंगलों, पहाड़ों, घाटियों इत्यादि में आदिम अवस्था में रहता है। इसे जनजातीय समुदाय कहते हैं। इनकी अपनी ही संस्कृति तथा भाषा होती है तथा अपना ही समाज होता है जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहता है।

→ जनजाति को कबीला, आदिवासी, वनवासी, अनुसूचित जनजाति इत्यादि के नाम से भी जाना जाता है। यह माना जाता है कि भारत के असली निवासी तो यही हैं। जब आर्य लोग भारत में आए तो इन्हें जंगलों की तरफ़ खदेड़ दिया गया।

→ क्योंकि यह लोग आदिम अवस्था में रहते हैं इसलिए इनके उत्थान तथा कल्याण के लिए सरकार ने कई प्रकार के कल्याण कार्यक्रम चलाए हैं। यहाँ तक कि इन्हें शैक्षिक संस्थाओं तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया ताकि यह अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठा सकें। इनके नाम तो संविधान में भी दर्ज हैं।

→ परिवार हमारे समाज की सबसे मौलिक संस्थाओं में से एक है। संसार में कोई भी ऐसा समाज नहीं है, जहाँ पर परिवार मौजूद न हो। समाज में बहुत-सी संस्थाएं बनीं, विकसित हुईं तथा खत्म हो गईं, परंतु परिवार नाम की संस्था सदियों से समाज में चल रही है तथा यह चलती ही रहेगी।

→ परिवार उस समूह को कहते हैं जो यौन संबंधों पर आधारित होता है तथा जो इतना छोटा व स्थायी है कि उससे बच्चों की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण हो सके। जो हमदर्दी तथा प्यार व्यक्ति को परिवार में रहकर प्राप्त होता है वह और कहीं भी नहीं होता है।

→ परिवार व्यक्ति के लिए हरेक प्रकार के कार्य करता है। परिवार में बच्चे पैदा होते हैं, उनका पालन-पोषण होता है, उन्हें हरेक प्रकार की शिक्षा दी जाती है, उनका समाजीकरण किया जाता है, उन्हें प्रस्थिति प्रदान की जाती है, उन्हें नियंत्रण में रहना सिखाया जाता है इत्यादि। अगर ध्यान से देखा जाए तो परिवार ही ऐसी संस्था है जो व्यक्ति के लिए हरेक प्रकार का कार्य करती है।

→ हमारे समाज में कई प्रकार के परिवार कई आधारों पर पाए जाते हैं जैसे कि संख्या के आधार पर, रहने के स्थान के आधार पर, सत्ता के आधार पर। वैसे मुख्य रूप से हमारे समाज में एकाकी परिवार तथा संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। चाहे बहुत-सी प्रक्रियाओं के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, परंतु फिर भी एकाकी परिवार हमारे सामने आ रहे हैं। नातेदारी ऐसे संबंधियों के बीच संबंधों की व्यवस्था होती है जिनसे हमारा संबंध वंशावली के आधार पर होता है। वंशावली संबंध परिवार के द्वारा विकसित होते हैं। नातेदारी संसार के सभी समाजों में व्याप्त है। नातेदारी के लिए बंधुत्व, संगोत्रता तथा स्वजनता इत्यादि जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

→ नातेदारी मुख्य दो आधारों पर विकसित होती है। पहला है रक्त संबंधों के आधार पर अर्थात् इसमें केवल रक्त संबंधियों को ही शामिल किया जाता है जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताया-दादा, पौत्र इत्यादि। दूसरा आधार है विवाह का जिसमें केवल विवाह संबंधियों को शामिल किया जाता है जैसे कि सास-ससुर, जीजा, साला, ननद, बहनोई इत्यादि।

→ नातेदारी में तीन प्रकार के संबंध पाए जाते हैं-प्राथमिक, द्वितीय तथा तृतीय। प्राथमिक संबंधों में वे संबंध आते हैं जो सीधे तौर पर बनते हैं जैसे कि पिता, माता, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री इत्यादि। द्वितीय संबंध प्राथमिक संबंधों के आधार पर बनते हैं जैसे कि पिता का भाई, माता का भाई इत्यादि। तृतीय संबंधी द्वितीय संबंधियों के कारण बनते हैं जैसे कि पिता के भाई की पत्नी चाची। शब्दावली

→ जाति (Caste)-वह अंतर्वैवाहिक समूह जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा जिसने सामाजिक सहवास, खान-पान, पेशे इत्यादि से संबंधित सख्त नियम बना कर रखे हैं।

→ संस्कृतिकरण (Sanskritization)-वह प्रक्रिया जिसके द्वारा निम्न जातियों के लोग किसी उच्च जाति की धार्मिक क्रियाओं, घरेलू या सामाजिक पारिपाटियों को अपनाकर अपनी सामाजिक परिस्थिति को ऊँचा करने का प्रयत्न करते हैं।

→ प्रबल जाति (Dominent Caste) यह शब्द ऐसी जातियों के लिए प्रयोग किया जाता है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनसंख्या में काफ़ी बड़ी होती है अथवा वह उस क्षेत्र में अपने पैसे या शक्ति के आधार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करती हैं। इसके सदस्य कम भी हो सकते हैं।

→ जनजातीय (Tribal)-यह एक आधुनिक शब्द है जो उन समुदायों के लिए प्रयोग होता है जो बहुत प्राचीन हैं तथा उप-महाद्वीप के सबसे प्राचीन निवासी हैं। ये हमारी सभ्यता से दूर जंगलों, पहाड़ों पर रहते हैं तथा इनकी अपनी ही संस्कृति होती है।

→ आदिम (Prestine)-मौलिक अथवा विशुद्ध समाज जो सभ्यता से अछूते रहे हों।

→ मूल परिवार (Nuclear Family)-परिवार का वह रूप जिसमें केवल पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे ही रहते हैं।

→ संयुक्त परिवार (Joint Family)-परिवार का वह रूप जिसमें दो-तीन पीढ़ियों के सदस्य इकट्ठे एक ही छत के नीचे रहते हैं तथा एक ही रसोई में पका हुआ भोजन खाते हैं।

→ पति स्थानिक (Patrilocal)-परिवार का वह रूप जिसमें विवाह के पश्चात् पत्नी, पति अथवा उसके पिता के घर जाकर रहती है।

→ पत्नी स्थानिक (Matrilocal)-परिवार का वह रूप जिसमें विवाह के पश्चात् पति पत्नी के घर जाकर रहता है।

→ मातृवंशीय समाज (Matriarchal Society)-वह समाज जहाँ पर वंश का नाम माता के नाम से चलता है तथा जायदाद माँ से बेटी को मिलती है।

→ पितृवंशीय समाज (Patriarchal Society)-वह समाज जहाँ पर वंश का नाम पिता के नाम से चलता है तथा जायदाद पिता से पुत्र को मिलती है।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

HBSE 12th Class Sociology भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
जनसांख्यिकीय संक्रमण के सिद्धांत के बुनियादी तर्क को स्पष्ट कीजिए। संक्रमण अवधि जनसंख्या विस्फोट के साथ क्यों जुड़ी है?
अथवा
जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
जनसांख्यिकीय विषय में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत जनसांख्यिकीय संक्रमण का सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि जनसंख्या में वदधि आर्थिक विकास के सभी स्तरों के साथ जडी होती है तथा हरेक समाज विकास से संबंधित जनसंख्या वृद्धि के एक निश्चित स्वरूप के अनुसार चलता है। जनसंख्या वृद्धि के तीन मुख्य स्तर होते हैं। पहले स्तर में जनसंख्या वृद्धि कम होती है क्योंकि समाज कम विकसित तथा तकनीकी रूप से पिछड़ा होता है। वृद्धि दर के कम होने का कारण जन्म दर तथा मृत्यु दर काफ़ी ऊँची होने के कारण कम अंतर होता है। तीसरे चरण में भी विकसित समाजों में भी जनसंख्या वृद्धि दर कम होती है क्योंकि जन्म दर तथा मृत्यु दर दोनों ही कम होते हैं।

इसलिए उनमें अंतर भी काफी कम होता है। इन दोनों स्तरों के बीच एक तीसरी संक्रमणकालीन अवस्था होती है जब समाज पिछड़ी अवस्था से उस अवस्था में पहुँच जाता है जब जनसंख्या वृद्धि की दर काफ़ी अधिक होती है। संक्रमण अवधि जनसंख्या विस्फोट से इसलिए जुड़ी होती है क्योंकि मृत्यु दरों को रोग नियंत्रण, स्वास्थ्य सुविधाओं से तेज़ी से नीचे कर दिया जाता है। परंतु जन्म दर इतनी तेजी से कम नहीं होती तथा जिस कारण वृद्धि दर ऊँची हो जाती है। बहुत से देश जन्म दर घटाने को संघर्ष कर रहे हैं परंतु वह कम नहीं हो पा रही है।

प्रश्न 2.
माल्थस का यह विश्वास क्यों था कि अकाल और महामारी जैसी विनाशकारी घटनाएँ, जो बड़े पैमाने पर मृत्यु का कारण बनती हैं, अपरिहार्य हैं?
अथवा
माल्थस का जनसंख्या सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
जनसांख्यिकी के सबसे अधिक प्रसिद्ध सिद्धांतों में से एक सिद्धांत अंग्रेज़ राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस माल्थस के नाम से जुड़ा है। माल्थस का कहना था कि जनसंख्या उस दर की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ती है जिस दर पर मनुष्य के भरण पोषण के साधन बढ़ सकते हैं। इस कारण ही मनुष्य निर्धनता की स्थिति में रहने को बाध्य होता है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि की दर कृषि उत्पादन की वृद्धि दर से अधिक होती है। क्योंकि जनसंख्या वृद्धि दर कृषि उत्पादन की वृद्धि दर से अधिक होती है इसलिए समाज की समृद्धि को एक ढंग से बढ़ाया जा सकता है तथा वह है जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रण में रखा जाए।

या तो मनुष्य अपनी इच्छा से जनसंख्या को नियंत्रण में रख सकते हैं या फिर प्राकृतिक आपदाओं से। माल्थस का मानना था कि अकाल तथा महामारी जैसी विनाशकारी घटनाएं जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए अपरिहार्य होती हैं। इन्हें प्राकृतिक निरोध कहा जाता है क्योंकि यह ही बढ़ती जनसंख्या तथा खाद्य आपूर्ति के बीच बढ़ते असंतुलन को रोकने का प्राकृतिक उपाय है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

प्रश्न 3.
मृत्यु दर तथा जन्म दर का क्या अर्थ है? कारण स्पष्ट कीजिए कि जन्म दर में गिरावट अपेक्षाकृत धीमी गति से क्यों आती है जबकि मृत्यु दर बहुत तेज़ी से गिरती है।
अथवा
जन्म दर तथा मृत्यु दर से क्या अभिप्राय है? जब मृत्यु दर में कमी आती है तो जन्म दर में अपेक्षाकृत गिरावट क्यों हो जाती है?
अथवा
मृत्यु दर क्या है?
उत्तर:
जन्म दर-किसी विशेष क्षेत्र में एक वर्ष में प्रति एक हजार व्यक्तियों के पीछे जितने बच्चे जन्म लेते हैं, उसे जन्म दर कहते हैं। इसका अर्थ है कि किसी क्षेत्र में एक वर्ष में एक हजार व्यक्तियों के पीछे कितने बच्चों ने जन्म लिया है।

मृत्यु दर-किसी विशेष क्षेत्र में एक वर्ष में प्रति एक हजार व्यक्तियों के पीछे मरने वाले व्यक्तियों की संख्या को मृत्यु दर कहते हैं अर्थात् एक वर्ष में एक हजार व्यक्तियों के पीछे कितने व्यक्तियों की मृत्यु हुई।

यह सच है कि जन्म दर में गिरावट मृत्यु दर की तुलना में काफ़ी धीमी गति से आती है। इसका कारण यह है कि मृत्यु दर को तो स्वास्थ्य सुविधाओं की सहायता से तथा अकाल, बीमारियों जैसी आपदाओं पर काबू करके आसानी से कम किया जा सकता है परंतु जन्म दर को उतनी तेजी से कम नहीं किया जा सकता। जन्म दर अधिक प्रजनन क्षमता, धार्मिक विचारों, सामाजिक विचारों, निर्धनता, भाग्यवाद, शारीरिक रोगों से मुक्ति इत्यादि के कारण अधिक होती है तथा लोगों के विचारों को बदलना बेहद मुश्किल होता है। वे सोचते हैं कि बच्चे तो भगवान ने दिए हैं इसलिए वह ही पाल लेगा। इसलिए जन्म दर उतनी तेज़ी से कम नहीं होती जितनी तेज़ी से मृत्यु दर कम होती है।

प्रश्न 4.
भारत में कौन-से राज्य जनसंख्या संवृद्धि के प्रतिस्थापन स्तरों को प्राप्त कर चुके हैं अथवा प्राप्ति के बहुत नज़दीक हैं? कौन-से राज्यों में अब भी जनसंख्या संवृद्धि की दरें बहुत ऊँची हैं? आपकी राय में इन क्षेत्रीय अंतरों के क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर:
प्रतिस्थापन स्तर का अर्थ है हरेक जोड़े अर्थात् पति पत्नी द्वारा दो बच्चों को जन्म देना। जो राज्य प्रतिस्थापन स्तर को प्राप्त कर चुके हैं वे हैं तमिलनाडु, त्रिपुरा, गोवा, पंजाब, केरल, जम्मू कश्मीर, नागालैंड इत्यादि हैं। जिन राज्यों में जनसंख्या संवृद्धि की दरें अभी भी बहुत ऊँची हैं वे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान इत्यादि हैं। जो राज्य प्रतिस्थापन स्तरों को प्राप्त करने के नज़दीक हैं वे हैं : महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, कर्नाटक, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश इत्यादि।

प्रतिस्थापन स्तरों तथा जनसंख्या संवदधि की दरों में अंतरों के क्षेत्रीय कारण हो सकते हैं जो कि इस प्रकार हैं-
(i) अगर जनता साक्षर है तो उनकी सोच सकारात्मक होगी। परंतु अगर जनसंख्या अनपढ़ है तो उनकी सोच नकारात्मक होगी तथा उनमें अज्ञानता होगी। जो राज्य साक्षर हैं वहां संवृद्धि दर कम हैं तथा जहां अनपढ़ लोग अधिक हैं वहां संवृद्धि दर अधिक है।

(ii) हरेक राज्य की अपनी-अपनी रूढ़ियां तथा संस्कार होते हैं जो इस संवृद्धि दर तथा प्रतिस्थापन दर को प्रभावित करते हैं।

(iii) बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो अधिक बच्चे पैदा करने के समर्थक हैं तथा वह किसी विशेष राज्य में पाए जाते हैं। इस कारण भी अलग-अलग क्षेत्रों की दरों में अंतर होता है।

(iv) हरेक क्षेत्र की सामाजिक सांस्कृतिक संरचना तथा साक्षरता की दर अलग-अलग होती है तथा इसका भी संवृद्धि दर पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 5.
जनसंख्या की आयु संरचना का क्या अर्थ है? आर्थिक विकास और संवृद्धि के लिए उसकी क्या प्रासंगिकता है?
अथवा
जनसंख्या की आयु संरचना पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
जनसंख्या की आयु संरचना का अर्थ है कि कुल जनसंख्या के संदर्भ में विभिन्न आयु वर्गों में व्यक्तियों का अनुपात क्या है। इसमें तीन आयु वर्ग लिए जाते हैं तथा वे हैं-

  • 0-14 वर्ष
  • 1 5-59 वर्ष तथा
  • 60 वर्ष से ऊपर।

पहले वर्ग में बच्चे अर्थात् आश्रित वर्ग होते हैं। दूसरे वर्ग में युवाओं को कार्यशील वर्ग कहते हैं तथा तीसरे वर्ग अर्थात् बुर्जुगों को पराश्रितता जनसंख्या कहते हैं। आगे दी गई सारणी से यह स्पष्ट हो जाएगा-

वर्ष           आयु वर्गजोड़
0-14 वर्ष15-59 वर्ष60 वर्ष से अधिक
1961411006100
1971421005100
1981401006100
1991381007100
2001341007100
201129.71005.5100

इस सारणी से पता चलता है कि हमारे देश में कार्यशील वर्ग के लोग सबसे अधिक हैं। 1961-2001 तक के समय में यह अधिक ही रहे हैं। इसके बाद आश्रित वर्ग अर्थात् बच्चे आते हैं। चाहे इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। सबसे अंत में पराश्रितता वर्ग अर्थात बुजुर्ग लोग आते हैं। हमारे देश में जीवन प्रत्याशा 66 वर्ष के लगभग है जिस कारण इनकी संख्या कम है।

आर्थिक विकास तथा संवृद्धि में जनसंख्या की आयु संरचना की प्रासंगिकता (Importance of Age Structure in Economic Development and Growth) इसका वर्णन निम्नलिखित है-
(i) ऊपर दी गई सारणी से हमें पता चलता है कि 0-14 वर्ष की आयु वर्ग में 1961 के बाद से लगातार कमी हो रही है। इसका कारण है कि 1976 के बाद से राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को लागू किया गया तथा जनता को कम जनसंख्या के फायदों का पता चल गया है।

(ii) इस सारणी से हमें यह भी पता चलता है कि 60 वर्ष से अधिक आय के लोगों की संख्या बढ़ रही है। इससे हमें यह पता चलता है कि हमारे देश में जीवन प्रत्याशा लगातार बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि देश में प्रगति हो रही है तथा स्वास्थ्य सुविधाएं लगातार बढ़ रही हैं जिससे 60 वर्ष से अधिक लोग लंबा जीवन जी रहे हैं।

(iii) इस सारणी से हमें यह भी पता चलता है कि कार्यशील जनसंख्या अर्थात् युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। वे तरक्की करने में लगे हुए हैं जिससे देश की प्रगति हो रही है।

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प्रश्न 6
स्त्री-पुरुष अनुपात का क्या अर्थ है? एक गिरते हुए स्त्री-पुरुष अनुपात के क्या निहितार्थ हैं? क्या आप यह महसूस करते हैं कि माता-पिता आज भी बेटियों की बजाए बेटों को अधिक पसंद करते हैं? आपकी राय में इस पसंद के क्या-क्या कारण हो सकते हैं?
अथवा
भारत में गिरते हुए स्त्री-पुरुष अनुपात के कारण दीजिए।
अथवा
स्त्री-पुरुष अनुपात में गिरावट आने के कारण बताइए।
उत्तर:
किसी विशेष क्षेत्र में एक हजार पुरुषों के पीछे मिलने वाली स्त्रियों की संख्या के अनुपात को स्त्री-पुरुष अनुपात कहते हैं। स्त्री-पुरुष अनुपात जनसंख्या में लिंग संतुलन का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो स्त्री-पुरुष अनुपात स्त्रियों के पक्ष में रहा है परंतु पिछली एक शताब्दी में भारत में यह गिरता चला जा रहा भी की शरुआत में यह कम होकर 1000 : 972 था परंता 21वीं शताब्दी की शरुआत में यह कम होकर 1000 : 933 हो गया है। यह गिरता अनुपात समाज के लिए काफ़ी चिंता का विषय बना हुआ है।

जी हाँ, यह सच है कि आज भी माता-पिता बेटियों के स्थान पर बेटों को अधिक पसंद करते हैं। आज भी भ्रूण हत्या होती है, बेटा प्राप्त करने के लिए बलि दी जाती है, तरह-तरह के प्रयास किए जाते हैं ताकि बेटा प्राप्त किया जा सके। यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस बात का निर्धनता से कम संबंध होता है बल्कि इसका अधिक संबंध तो सामाजिक सांस्कृतिक कारकों के साथ होता है। लड़की की अपेक्षा लड़के को पसंद करने के कई कारण हो सकते हैं जैसे कि-
(i) सबसे पहला कारण तो धर्म ही है। धर्म यह कहता है कि व्यक्ति को मृत्यु के बाद तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता जब तक कि उसकी चिता को उसका बेटा अग्नि न दे। इसके साथ ही धर्म में कुछ संस्कार ऐसे दिए गए हैं जिनमें बेटे की आवश्यकता है। इन सभी के कारण लोग लड़के को अधिक पसंद करते हैं।

(ii) अकसर लोग यह सोचते हैं कि अगर लड़का न हुआ तो उसके साथ ही उसके खानदान का नाम समाप्त हो जाएगा क्योंकि लड़की तो विवाह के बाद अपने पति के घर चली जाएगी। उसके खानदान को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी न होगा। इस प्रकार खानदान को आगे बढ़ाने की इच्छा लोगों को लड़का प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है।

(iii) कई लोग यह सोचते हैं कि अगर लड़की हुई तो उसे विवाह के समय बहुत सा दहेज देना पड़ेगा तथा विवाह के पश्चात् भी बहुत कुछ देना पड़ेगा। इसमें बहुत सा खर्चा होगा परंतु लड़के के साथ तो दहेज आएगा। इस प्रकार खर्चा बचाने के लिए अथवा निर्धनता के कारण भी लोग लड़की की अपेक्षा लड़के को पसंद करते हैं।

भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना HBSE 12th Class Sociology Notes

→ अगर हम जनसंख्या की दृष्टि से संसार में भारत की स्थिति देखें तो इसमें भारत का स्थान दूसरा है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 121 करोड़ के करीब लोग रहते हैं।

→ जनसंख्या के व्यवस्थित अध्ययन को जनसांख्यिकी कहते हैं। जनसांख्यिकी शब्द का अर्थ है लोगों का वर्णन। जनसांख्यिकी विषय के अंतर्गत जनसंख्या से संबंधित अनेक प्रवृत्तियों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जैसे जनसंख्या के आकार में परिवर्तन, जन्म, मृत्यु तथा प्रवसन के स्वरूप, तथा जनसंख्या की संरचना और गठन अर्थात् उसमें स्त्रियों, पुरुषों और विभिन्न आयु वर्ग के लोगों का क्या अनुपात है।

→ जनसांख्यिकी कई प्रकार की होती है, जैसे आकारिक जनसांख्यिकी जिसमें जनसंख्या के आकार अर्थात् मात्रा का अध्ययन किया जाता है तथा सामाजिक जनसांख्यिकी जिसमें जनसंख्या के सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक पक्षों पर विचार किया जाता है।

→ जनसांख्यिकी का अध्ययन समाजशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। समाजशास्त्र के उद्भव तथा एक अलग अकादमिक विषय के रूप में इसकी स्थापना का क्षेत्र काफ़ी हद तक जनसांख्यिकी को ही जाता है। वैसे भी जनसांख्यिकीय आँकड़े राज्य की नीतियों, विशेष रूप से आर्थिक विकास और सामान्य जन कल्याण संबंधी नीतियाँ बनाने और कार्यान्वित करने के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं।

→ जनसांख्यिकी के प्रसिद्ध सिद्धांतों में से एक सिद्धांत अंग्रेज़ राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रोबर्ट माल्थस ने दिया था। उनका सिद्धांत एक निराशावादी सिद्धांत था। उनके अनुसार समृद्धि को बढ़ाने का एक ढंग यह है कि जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रित किया जाए। उन्होंने दो प्रकार के ढंग दिए हैं जिनसे जनसंख्या को नियंत्रित किया जा सकता है। पहला है कृत्रिम निरोध जिन्हें व्यक्ति स्वयं पर नियंत्रण करके जनसंख्या कम कर सकता है।

→ दूसरा है प्राकृतिक निरोध अर्थात् अकालों तथा बीमारियों से जनसंख्या वृद्धि का रुकना। जनसांख्यिकीय विषय में एक अन्य उल्लेखनीय सिद्धांत है-जनसांख्यिकीय संक्रमण का सिद्धांत। इसका अर्थ यह है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास के समग्र स्तरों से जुड़ी होती है तथा प्रत्येक समाज विकास से संबंधित जनसंख्या वृद्धि के एक निश्चित स्वरूप का अनुसरण करता है।

→ जनसांख्यिकीय में बहुत सी संकल्पनाओं का प्रयोग किया जाता है जैसे कि प्राकृतिक वृद्धि दर, जनसंख्या वृद्धि दर, प्रजनन दर, जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, स्त्री पुरुष अनुपात, आयु संरचना, पराश्रितता अनुपात जनसंख्या इत्यादि। इन सभी का वर्णन आगे अध्याय में दिया गया है।

→ भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या वाला देश है। 2011 में इसकी आबादी 121 करोड़ के लगभग थी। भारत में जनसंख्या संवृद्धि दर हमेशा बहुत ऊँची नहीं रही है। अगर हम भारत सरकार द्वारा प्रकाशित चार्ट को देखें तो यह अधिकतम 2.22% रही है। इस चार्ट को देखने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि संवदधि दर कितनी है।

वर्षकुल जनसंख्या (लाखों में)औसत वार्षिक संवृद्धि दर
19513611.25
19614391.96
19715482.22
19816832.20
19918462.14
200110281.93
201112101.8

इस चार्ट को देखने से पता चलता है कि 1971 के बाद से यह लगातार कम हो रही है।

→ स्वतंत्रता से पहले हमारे देश में जन्म दर तथा मृत्यु दर में कोई अधिक अंतर नहीं था क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं थीं। अगर जन्म दर अधिक थी तो मृत्यु दर भी अधिक थी। इसलिए अधिक जनसंख्या नहीं बढ़ती थी। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात् स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ने से मृत्यु दर तो अप्रत्याशित रूप से कम हो गई परंतु जन्म दर इतनी अधिक कम न हुई। इसलिए दोनों में अंतर बढ़ता जा रहा है।

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→ भारत की जनसंख्या बहुत जवान है अर्थात् अधिकांश भारतीय युवावस्था में हैं तथा यहां की आयु का औसत भी अधिकांश अन्य देशों की तुलना में कम है। निम्न सारणी देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा-

वर्ष                      आयु वर्गजोड़
0-14 वर्ष15-59 वर्ष60 वर्ष से अधिक
196141536100
197142535100
198140546100
199138567100
200134597100
201129.764.95.5100

→ इस प्रकार इस सारणी से यह स्पष्ट है कि भारत में 15-59 वर्ष की आयु में सबसे अधिक लोग होते हैं। उससे कम 0-14 वर्ष की आयु के लोग आते हैं तथा 60 वर्ष से अधिक लोग सबसे कम हैं। इसका कारण यह है कि भारत में आयु प्रत्याशा 63 वर्ष के करीब है।

→ स्त्री पुरुष अनुपात जनसंख्या में लैंगिक या लिंग संतुलन का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। स्त्री पुरुष अनुपात का अर्थ है कि किसी विशेष क्षेत्र में एक वर्ष में 1000 पुरुषों के पीछे कितनी स्त्रियां हैं। सन् 2011 में स्त्री पुरुष अनुपात 1000 : 940 था। स्त्रियों की कम होती संख्या का सबसे बड़ा कारण लोगों में लड़का प्राप्त करने की इच्छा है।

→ अगर जनता शिक्षित होगी तो उन्हें जनसंख्या के अधिक होने के दुष्परिणामों के बारे में पता होगा तथा वह जनसंख्या को कम रखने का प्रयास करेंगे। इसलिए जनसंख्या कम करने में शिक्षा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सापान बन सकती है।

→ मुख्यतः भारत एक ग्रामीण देश है जहां की लगभग 72% जनसंख्या अभी भी गांवों में रहती है। केवल 28% जनसंख्या ही शहरों में रहती है। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह लगभग 11% थी जोकि एक ही शताब्दी में लगभग ढाई गुना बढ़ गई है। नीचे दी गई सारणी से हमें इसका पता चल जाता है-

वर्षजनसंख्या(दस लाख में)कुल जनसंख्या का प्रतिशत
त्रामीणनगरीयग्रामीणनगरीय
19012132689.210.8
19112262689.710.3
19212232888.811.2
19312463388.012.0
19412754486.113.9
19512996282.717.3
19613607982.018.0
197143910980.119.9
198152415976.723.3
199162921874.325.7
200174328672.227.8
201183337768.8431.16

इस सारणी को देखकर पता चलता है कि स्वतंत्रता के पश्चात् नगरीय जनसंख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।

→ जनसंख्या संवृद्धि दर (Growth Rate of Population)-जन्म दर तथा मृत्यु दर के बीच का अंतर। जब यह अंतर शून्य होता है तब हम कह सकते हैं कि जनसंख्या स्थिर हो गई है।

→ प्रजनन दर (Fertility Rate)-बच्चे पैदा करने वाली प्रति 1000 स्त्रियों की इकाई के पीछे जीवित जन्मे बच्चों की संख्या।

→ शिश मत्य दर (Infant Mortality Rate)-यह उन बच्चों की मत्य की संख्या दर्शाती है जो जीवित पैदा हुए 1000 बच्चों में से एक वर्ष की आयु प्राप्त होने से पहले ही मौत के मुँह में चले जाते हैं।

→ स्त्री-परुष अनपात (Sex Ratio)-यह अनपात यह दर्शाता है कि किसी क्षेत्र विशेष में एक निश्चित अवधि के दौरान 1000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या क्या है।

→ जनसंख्या की आयु संरचना (Age Structure of Population)-कुल जनसंख्या के संदर्भ में विभिन्न आयु वर्गों में व्यक्तियों का अनुपात। आयु संरचना विकास के स्तरों और औसत आयु संभाविता के स्तरों में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार बदलती रहती है।

→ पराश्रितता अनुपात जनसंख्या (Dependency Ratio)-यह जनसंख्या के पराश्रित और कार्यशील हिस्सों को मापने का साधन है। पराश्रित वर्ग में बुजुर्ग लोग तथा छोटे बच्चे आते हैं। कार्यशील वर्ग में 15-64 वर्ष की आयु के लोग आते हैं।

→ जनसंख्या घनत्व (Population Density)-किसी विशेष क्षेत्र के प्रति वर्ग कि० मी० क्षेत्रफल में रहने वाले लोगों की संख्या।

→ जन्म दर (Birth Rate)-किसी विशेष क्षेत्र में प्रति 1000 जनसंख्या के पीछे जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या।

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→ मृत्यु दर (Death Rate)-किसी विशेष क्षेत्र में प्रति एक हज़ार व्यक्तियों के पीछे मरने वाले व्यक्तियों की संख्या।

→ जनसंख्या वृद्धि (Population Growth)-जनसंख्या का लगातार बढ़ना जनसंख्या वृद्धि होता है।

→ ग्रामीण समुदाय (Rural Society)-प्रकृति से निकटता वाला समुदाय जिसमें प्राथमिक संबंधों की बहुलता होती है, कम जनसंख्या, सामाजिक एकरूपता, गतिशीलता का अभाव तथा कृषि मुख्य व्यवसाय होता है।

→ नगरीय समुदाय (Urban Society)-वह समुदाय जो प्रकृति से दूर रहता है, जहां अधिक जनसंख्या, पेशों की भरमार, अधिक गतिशीलता, द्वितीय संबंध होते हैं तथा वहां 75% से अधिक लोग गैर-कृषि कार्यों में लगे होते हैं।

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