Class 11

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

HBSE 11th Class Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) ‘बेगार’ अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर:
(क) परिवार की संपति में से पुत्र और पुत्री दोनों को बराबर हिस्सा देना सामाजिक मूल्य से संबंधित है। यह संविधान में वर्णित समानता के मौलिक अधिकार के अनुरूप है, क्योंकि समानता के अधिकार के अंतर्गत लिंग, जाति, नस्ल, धर्म अथवा क्षेत्र आदि के आधार पर किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। अतः यह सामाजिक न्याय के सिद्धांत के अनुरूप है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पुत्र और पुत्री को संपत्ति में बराबर का हक देना समानता पर आधारित और भेदभाव रहित समाज की स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन अलग-अलग करने से आर्थिक न्याय के सिद्धांत का. पालन होता है, क्योंकि विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं का समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा उपयोग किया जाता है जिनकी कर-देय क्षमता भी अलग-अलग होती है।

(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा का न दिया जाना संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य धार्मिक मामलों में न तो किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करेगा तथा न ही किसी प्रकार की सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्रदान करेगा।

(घ) बेगार अथवा बंधुआ मजदूरी का निषेध सामाजिक न्याय के मूल्य पर आधारित है। यह संविधान के अनुच्छेद 23 में उल्लेखित शोषण के विरूद्ध अधिकार के अंतर्गत मानव के बालत् प्रतिरोध की व्यवस्था करता है। जिसके अंतर्गत समाज के किसी भी वर्ग द्वारा किसी भी अन्य वर्ग का शोषण दंडनीय अपराध ठहराया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी के लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएँ।
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है। .
उत्तर:
उपर्युक्त विकल्पों में से केवल (ग) में दिया गया विकल्प उपर्युक्त कथन को पूरा करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में यह पूर्णतया गलत है कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।

प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं-(अ) इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं। (ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।

(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।

(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ सवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
अ. (क) जब आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है, तो यह कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि संविधान सभा की ये बहसें प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि जीविका मनुष्य की पहली आवश्यकता है। इस प्रथम समस्या से ही जूझते व्यक्ति के लिए संविधान सभा की बहसों का कोई महत्त्व नहीं है।

(ख) आज की परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान निर्माण के समय की चुनौतियों और स्थितियों से बहुत अलग एवं भिन्न हैं। आज समय बहुत बदल गया है। अतः यह तर्क इस बात को स्पष्ट करता है कि ये बहसें आज के जमाने की बदलती स्थिति में प्रासंगिक नहीं हैं।

(ग) यह कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि संसार की वर्तमान चुनौतियों को समझने और जानने के लिए संविधान सभा की बहसें प्रासंगिक हैं। वास्तव में ये तर्क वर्तमान परिस्थितियों को समझाने में सहायक हैं।

ब. (क) मैं इस बात से सहमत हूँ कि जीविका व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। अतः अन्य कार्यों पर इसे प्राथमिकता दी जा सकती है।

(ख) मैं इस तथ्य से सहमत हूँ कि आज की स्थितियाँ संविधान निर्माण के समय से काफी बदल चकी हैं। संविधान के लाग होने से लेकर आज तक लगभग 70 वर्षों में संविधान में 104 संवैधानिक संशोधन स्वयं की पुष्टि करते हैं।

(ग) मैं इस बात से सहमत हूँ कि ये बहसें आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि समस्त चुनौतियाँ और यह संसार आज भी पूरी तरह नहीं बदले हैं। ऐसे में तर्कों को समझने की उपेक्षा से हम संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर देंगे।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें-
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार
उत्तर:
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ-भारत में धर्मनिरपेक्षता की धारणा पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से काफी भिन्न है। पश्चिमी धारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की नागरिकता से संबंधित अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान का राजनीतिक दर्शन धर्मनिरपेक्षता को धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया हैं, जबकि भारत में धर्म व्यक्ति का अपना निजी विषय है।

राज्य की इसमें कोई भूमिका एवं हस्तक्षेप नहीं होता है। भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता के सम्बन्ध में सर्व-धर्म समभाव के सिद्धान्त को अपनाया गया है। इस सिद्धान्त के आधार पर देश में प्रचलित सभी धर्मों के साथ समानता के आधार . पर व्यवहार किया जाएगा। राज्य किसी धर्म को न तो संरक्षण देगा और न ही किसी धर्म को राज्य धर्म के रूप में मान्यता देगा। लेकिन कभी-कभी राज्य को धर्म के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप करना पड़ता है।

राज्य इसलिए ऐसा राज्य धर्म के रूप में करता है क्योंकि इसमें व्यापक सार्वजनिक हित निहित होते हैं। जैसे सरकार द्वारा तीन तलाक कानून पास करके मुस्लिम महिलाओं को कानूनी समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया जबकि धार्मिक कट्टरपंथियों ने इसे धर्म में हस्तक्षेप. कहा। इसके अतिरिक्त संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में हमने व्यापक प्रावधान किए हैं।

(ख) अनुच्छेद 370 और 371-संविधान के अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर राज्य संबंधी विशेष प्रावधान किया गया था। इसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त था। विशेष दर्जे का मुख्य कारण जम्मू तथा कश्मीर के भारत में विलय के समय भारतीय शासक द्वारा जम्मू तथा कश्मीर राज्य के तत्कालीन शासक से किए गए वायदे थे। इसके अंतर्गत जम्मू तथा कश्मीर का अपना एक विशेष संविधान था।

यद्यपि यह भारतीय संघ का अभिन्न अंग रहा परंतु अन्य राज्यों की तुलना में इसकी स्थिति भिन्न थी। यद्यपि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था ही थी, जिसे दिसम्बर, 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक के द्वारा पूर्णतः समाप्त कर दिया गया है और अब इसे जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख के रूप में दो केंद्र-शासित प्रदेशों के रूप में विभाजित कर दिया गया है।

अतः पूर्व में अनुच्छेद 370वीं अस्थाई व्यवस्था को उग्र सवैधानिक संशोधन द्वारा समाप्त कर इस राज्य को भी भारत संघ के अन्य राज्यों के समान दर्जा दे दिया गया है। अनुच्छेद 371 का संबंध उत्तर-पूर्वी राज्यों से है। इसके अंतर्गत नागालैंड, असम, मणिपुर, आंध्रप्रदेश, सिक्किम, गोवा, मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के संबंध में विशेष प्रावधान किए गए हैं। अनुच्छेद 371 वाले राज्यों पर केंद्र का सीधा-साधा नियंत्रण है। दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 371 में वर्णित या उल्लेखित राज्य एक निश्चित सीमा तक स्वायत्तता का उपयोग कर सकते हैं। ये व्यवस्थाएँ पश्चिमी अवधारणा से भिन्न हैं।

(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन का अभिप्राय यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र-‘वसु धैव कुटुम्बकम्’ के व्यापक सन्दर्भ में संविधान में राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद, समाजवाद, संघात्मकता, भ्रातृत्व जैसी धारणाओं को अपनाया है और समाज के सभी वर्गों की भावनाओं एवं संस्कृतियों का सम्मान करते हुए सम्बन्धित प्रावधान लागू किए हैं। इस प्रकार समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यह पाश्चात्य अवधारणा से भिम्न रूप रखती है।

वयस्क मताधिकार-सार्वभौम वयस्क मताधिकार का तात्पर्य हमारे संविधान द्वारा सभी वयस्कों को बिना किसी भेदभाव, जाति, जन्म, वर्ग, वंश, कुल एवं लिंग के बिना समान रूप से मताधिकार प्रदान किया गया है। मूल संविधान में हमने 21 वर्ष का वयस्क माना था। जबकि 61वें संशोधन द्वारा इसे 18 वर्ष कर दिया गया है। इस प्रकार भारत में हमने महिलाओं को भी पुरुषों के समान मताधिकार प्रदान किया है। जबकि अनेक पश्चिमी देशों में स्त्रियों को मताधिकार संविधान लागू होने के काफी बाद दिया गया है। उन्हें संविधान निर्माण के समय यह अधिकार नहीं दिया गया था।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धांतों को अपनाया गया है (क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। (घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा। (ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी। आधारभूत महत्व की उपलब्धि
(ख) संविधान-सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। प्रक्रियागत उपलब्धि

व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। लैंगिक-न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 उदारवादी व्यक्तिवाद महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार। धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना।
उत्तर:
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की अलोचना प्रक्रियागत उपलब्धि की आजादी। आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं  बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना।
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। लैंगिक न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 उदारवादी व्यक्तिवाद
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपति में असमान अधिकार। ध्यान देना। धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति

प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें से किस-से सहमत हैं और क्यों?
जयेश – मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।

सबा – क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?

जयेश – मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय-शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?

नेहा – तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर:
उपर्युक्त चर्चा में बहस का मुख्य विषय यह है कि भारतीय संविधान एक उधार का दस्तावेज़ है। संविधान के बहुत से प्रावधान हमने अन्य देशों; जैसे इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी एवं आयरलैंड आदि के संविधान से लिए. हैं। यद्यपि कुछ प्रावधान तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से लिए गए हैं अतः संविधान में मौलिकता का अभाव है, परंतु यह आलोचना उचित नहीं है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने विदेशी संविधानों से बहुत-सी बातें ली हैं जिनके परिणामस्वरूप कई बार इसे ‘उधार ली गई वस्तुओं का थैला’ (Beg of Borrowing) अथवा ‘विविध संविधानों की खिचड़ी’ (Hold Patch) कहकर पुकारा जाता है, परतु यह आलोचना न्यायसंगत नहीं है। वास्तव में उनके द्वारा विदेशी संविधानों की उन धारणाओं तथा व्यवस्थाओं को अपने संविधान में ग्रहण कर लिया गया जो उन देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही थीं और भारत की परिस्थितियों के अनुकूल थीं।

इस प्रकार भारतीय संविधान विदेशों से उधार लिया हुआ संविधान नहीं, बल्कि विभिन्न विदेशी संविधानों की आदर्श व्यवस्थाओं का संग्रह है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि यदि हम अन्य संविधानों से आदर्श व्यवस्थाएँ ग्रहण नहीं करते तो सम्भवतः अपने अहम् की संतुष्टि करते, परन्तु भारत की व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते।

इसके अतिरिक्त द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के समय तक संवैधानिक सिद्धान्तों का पर्याप्त विकास हो चुका था और ऐसी स्थिति में किसी मौलिक संविधान के निर्माण की बात सोचना सम्भव नहीं था। वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता का ही कार्य किया। मूंदकर नकल नहीं की गई है, बल्कि विभिन्न संविधानों की विशेषताओं के संग्रह से भारतीय संविधान में मौलिकता भी आ गई है। अतः भारतीय संविधान को ‘उधार ली गई वस्तुओं का थैला’ कहना सरासर गलत है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा संविधान जिन मूल आदर्शों एवं मूल्यों को लेकर निर्मित हुआ था, वास्तव में वे उस समय की तात्कालिक आवश्यकताएँ थीं और जिन पर चलकर हमारी शासन-व्यवस्था ने उनकी व्यावहारिकता को प्रमाणित किया है। अतः सबा के इस कथन से सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं कि कोई भी मूल्य, मूल्य होता है; आदर्श, आदर्श होते हैं; हम इसे किसी विशेष श्रेणी में नहीं बाँट सकते, किसी सीमा में नहीं बाँध सकते। हम केवल इसी आधार पर किसी मूल्य अथवा आदर्श की अनदेखी नहीं कर सकते कि यह ‘भारतीय’ है अथवा ‘पाश्चात्य’।

यदि हम नेहा के तर्क को देखें कि जो बातें हमारे लिए उपयोगी और लाभदायक हैं, उसे केवल इस कारण अनदेखा कर देना कि यह पाश्चात्य अवधारणा है, बिलकुल ही गलत है। बल्कि अपनी आवश्यकताओं और स्थितियों के अनुरूप उसे ग्रहण कर लेना ही बुद्धिमानी है। संक्षेप में, ग्रेनविल ऑस्टिन के शब्दों में, “भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को अपनाया गया है।”

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प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान की आलोचना प्रायः इस आधार पर भी की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है, अर्थात् इसका निर्माण एक ऐसी संविधान सभा द्वारा किया गया है जिसके प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने हुए नहीं थे, क्योंकि, 1946 में गठित इस संविधान सभा के सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से राज्य विधानमंडलों द्वारा निर्वाचित किए गए थे। यहाँ यह स्पष्ट उल्लेखनीय है कि कुछ विद्वान इस कारण से इसे प्रतिनिध्यात्मक नहीं मानते क्योंकि इसका निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन ऐसे सदस्यों से हुआ था जिनका चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था।

परन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया का गहन विश्लेषण करने पर यह बात निराधार ही लगती है, क्योंकि संविधान सभा के निर्माण के समय प्रत्यक्ष चुनाव सम्भव नहीं थे। यद्यपि माँऊटबेटन योजना के आधार पर बनी हमारी संविधान सभा ने संविधान के हर प्रावधान पर गहन वाद-विवाद, तर्क-वितर्क और व्यापक विचार-विमर्श किया और तब जाकर उसे अंतिम रूप से स्वीकार किया गया।

प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान को लोकप्रिय स्वीकृति प्राप्त नहीं थी क्योंकि निर्मित संविधान को जनमत-संग्रह द्वारा अनुसमर्थित नहीं कराया गया था। परंतु सच्चाई यह है. कि यदि निर्मित संविधान का जनमत-संग्रह भी करवाया जाता तब भी संविधान के स्वरूप में विशेष परिवर्तन नहीं होना था। इस तथ्य की पुष्टि सन् 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव से भी होती है, क्योंकि इस चुनाव में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव लड़ा और संविधान का स्वरूप चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा था। ये सदस्य अच्छे बहुमत से चुनाव में विजयी रहे। जो यह दर्शाता है कि संविधान सभा के सदस्यों ने जनता की इच्छानुसार कार्य किया है। अतः निष्कर्ष रूप में यह कहना गलत होगा कि हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं है।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-सा प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारत का संविधान विश्व का अनूठा, विस्तृत संविधान है जिसमें समाज और सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियों और अधिकारों की अलग-अलग व्याख्या की गई है। फिर भी भारतीय संविधान पूर्णतः दोषरहित नहीं है। यह एक संपूर्ण प्रलेखन ही है। इसमें सबसे बड़ी त्रुटि लैंगिक न्याय-विशेषतया परिवार की संपत्ति में बेटी और बेटे के साथ भेदभाव है।

परिवार की संपत्ति में स्त्री और बच्चों के साथ भी भेदभाव किया जाता है। यद्यपि सरकार द्वारा कानून बनाकर इस भेदभाव को अब समाप्त कर दिया गया है। परंतु संविधान के मूल में लैंगिक भेदभाव थे। वास्तव में ये व्यक्ति के मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार हैं। इन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। परंतु संविधान की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इन अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में सम्मिलित किया गया है जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, जबकि मौलिक अधिकार न्यायालय में वाद योग्य हैं।

यदि इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाता तो उन्हें न्यायालय में चुनौती दी जा सकती थी। भारतीय संविधान की सीमाओं में से एक यह भी है कि आज तक निरन्तर ‘मांग के पश्चात भी महिलाओं को संसद या विधानमंडल में से एक-तिहाई आरक्षण नहीं दिया गया। यदि आज की बदलती हुई परिस्थितियों में संविधान लिखा जाता तो निश्चित रूप से इन त्रुटियों को दूर करने के लिए प्रावधान किए जाते। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक अधिकारों, जिनसे व्यक्ति और समाज का विकास प्रत्यक्षतः जुड़ा होता है, उन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निदेशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए यह स्पष्ट नहीं है। आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर:
भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्व भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। इसके द्वारा भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य रखा गया है जिसमें हम आयरलैंड के संविधान से प्रेरित हुए। इन सिद्धान्तों के द्वारा हमने भारत के समक्ष ऐसे सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य रखे हैं जिन तक पहुँचकर भारत को एक कल्याणकारी राज्य बनाया जा सकता है। ये तत्त्व वास्तव में राज्य नैतिक कर्तव्य हैं। शासन के तत्त्वों में ये मूलभूत हैं। यह सर्वविदित है कि नीति-निर्देशक तत्त्वों का कोई कानूनी आधार नहीं है, फिर भी ये शासन संचालन के आधारभूत सिद्धांत हैं।

परन्तु इनका पालन राज्यों की इच्छा पर छोड़ा गया। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इतने महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के होते हुए भी संविधान निर्माताओं द्वारा इन्हें कानूनी आधार न देना और इन्हें राज्यों की इच्छा पर छोड़ देना कुछ व्यवहारिक नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय बात यह है कि जब भारत स्वतंत्र हुआ था तो उस समय

इसकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि इन निर्देशक तत्त्वों का पालन करने की बाध्यता होने पर आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकता था। इससे अन्य आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक समस्याएँ खड़ी हो सकती थीं। अतः तत्कालीन स्थिति की वास्तविकता को देखते हुए नीति-निर्देशक तत्त्वों के पालन को राज्य की इच्छा पर छोड़ दिया गया ताकि राज्यों पर किसी भी प्रकार का अतिरिक्त भार न पड़े और भविष्य में आर्थिक रूप से सक्षम होने पर इन। के अनुरूप कानून बनाकर भारत को कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करने का प्रयास करें।

संविधान का राजनीतिक दर्शन HBSE 11th Class Political Science Notes

→ प्रत्येक देश का संविधान उस देश की शासित होने वाली जनता के लिए शासन-व्यवस्था के विभिन्न अंगों के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्यों के अनुरूप एक आधारभूत ढाँचे को निश्चित करता है।

→ अन्य देशों की तरह भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी भावी भारतीय समाज के नागरिकों के लिए एक राजनीतिक दर्शन को अभिव्यक्त किया है। जैसा कि श्री गजेन्द्र गड़कर ने कहा है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना से संविधान के बुनियादी दर्शन का ज्ञान होता है।

→ यद्यपि कानूनी दृष्टि से प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती और न ही इसे न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है, लेकिन फिर भी प्रस्तावना संविधान का महत्त्वपूर्ण भाग है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं, आदर्शों एवं सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालती है।

→ इसी कारण प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संविधान रूपी दस्तावेज के पीछे प्रस्तावना रूपी नैतिक दृष्टि एक राजनीतिक दर्शन के रूप में काम कर रही है।

→ इस अध्याय में हम विशेषतः भारतीय संविधान के राजनीतिक दर्शन को स्पष्ट करने के लिए संविधान के राजनीतिक दर्शन के अर्थ की स्पष्टता के साथ-साथ संविधान के सारभूत प्रावधान तथा संविधान के प्रावधानों में अन्तर्निहित परिकल्पनाओं की विस्तार से चर्चा करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़

HBSE 11th Class Political Science संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज़ कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है।
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर:
(क) संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ।
(क) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
(ख) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
(ग) न्यायपालिका सवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परंतु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(घ) संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं? इस प्रक्रिया में ये कैसे शामिल होते हैं?
(क) मतदाता,
(ख) भारत का राष्ट्रपति,
(ग) राज्य की विधान सभाएँ,
(घ) संसद,
(ङ) राज्यपाल,
(च) न्यायपालिका
उत्तर:
(क) मतदाता भारतीय संविधान के संशोधन की प्रक्रिया में इनकी कोई सक्रिय भागीदारी नहीं होती; यद्यपि मतदाताओं द्वारा निर्वाचित किए गए जन प्रतिनिधि संशोधन प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका अवश्य निभाते हैं।

(ख) भारत का राष्ट्रपति-संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राष्ट्रपति की एक निश्चित भूमिका रहती है। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद अन्य विधेयकों की भाँति संशोधन विधेयक भी राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है जिसकी स्वीकृति मिलने पर वह संविधान का हिस्सा बन जाता है। परंतु इस सम्बन्ध में यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संसद द्वारा पारित संवैधानिक संशोधन पर राष्ट्रपति का अधिकार सीमित है। वह इसे संसद को पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।

(ग) राज्य की विधान सभाएँ संविधान के कुछ विशिष्ट अनुच्छेद एवं विषय, जो संघ एवं राज्य दोनों से सम्बन्धित हैं, को संशोधित कराने के लिए संसद के विशेष बहुमत के साथ ही आधे राज्यों की विधानमंडलों की स्वीकृति भी आवश्यक होती है। अतः राज्यों की आवश्यक स्वीकृति मिलने पर ही उन्हें राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

(घ) संसद भारतीय संविधान में किसी भी प्रकार की संशोधन प्रक्रिया में संसद की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। संसद की भागीदारी के बिना संविधान में संशोधन प्रक्रिया की प्रक्रिया का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता, चाहे साधारण बहुमत से संशोधन हो, दो-तिहाई बहुमत से संशोधन हो या अति विशेष बहुमत के अन्तर्गत संसद से पारित होने के बाद आधे राज्यों द्वारा स्वीकृति आवश्यकता हो, संसद की भूमिका सदैव महत्त्वपूर्ण बनी रहती है। अभिप्राय यह है कि किसी भी विषय पर किसी भी अनुच्छेद में या किसी भी प्रक्रिया द्वारा संशोधन संसद द्वारा ही प्रारम्भ किया जा सकता है। अतः संसद ही संशोधन प्रक्रिया का केंद्र होता है।

(ङ) राज्यपाल-संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका बहुत सीमित होती है। जिन अनुच्छेदों एवं विषयों पर संशोधन करने के लिए आधे राज्यों की विधानमंडलों द्वारा सहमति लेनी आवश्यकता होती है, उन संशोधन विधेयकों के विधान मंडलों द्वारा पारित होने के बाद उन पर राज्यपाल के हस्ताक्षर होते हैं तभी राज्य विधानमंडलों में संविधान संशोधन की स्वीकृति की प्रक्रिया पूर्ण मानी जाती है।

(च) न्यायपालिका-संविधान संशोधन में न्यायपालिका की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती। हाँ, संविधान द्वारा न्यायपालिका को संविधान संशोधन की व्याख्या करने का अधिकार अवश्य दिया गया है। इस मुद्दे पर कई बार सरकार और न्यायपालिका के बीच हैं; जैसे संसद द्वारा न्यायिक आयोग गठन सम्बन्धी किए गए सवैधानिक संशोधन को न्यायपालिका द्वारा निरस्त किया गया था।

प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ख) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(ग) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर:
भारतीय संविधान में किया गया 42वाँ संशोधन एक बहुत बड़ा और विवादास्पद संशोधन था। अनेक कारणों में एक प्रमुख कारण इस संशोधन का राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा के समय किया जाना था जो अपने आप में ही एक विवाद का विषय बना। इस संशोधन में अनेक विवादास्पद प्रावधान थे। एक महत्त्वपूर्ण विवादास्पद प्रावधान यह था कि इसके द्वारा संविधान संशोधन में संसद की भूमिका को विस्तृत कर दिया गया।

इसके अनुसार संसद को संविधान के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार का संशोधन करने का अधिकार प्रदान किया गया तथा संसद द्वारा किए गए किसी संशोधन पर न्यायपालिका में चुनौती देने पर अंकुश लगाया गया। एक प्रकार से यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद मामले में दिए गए निर्णय को भी चुनौती थी। इसके अतिरिक्त लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई।

यह संशोधन न्यायपालिका की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति पर भी अंकुश लगाता है। इस संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना सातवीं अनुसूची तथा संविधान के 53वें अनुच्छेद आदि में परिवर्तन किए गए। अतः यह कहा जाता है कि इस संशोधन के द्वारा संविधान के बड़े मौलिक हिस्से को ही बदलने का प्रयास किया गया। इसके साथ-साथ यहाँ यह भी स्पष्ट है कि जब यह संशोधन संसद में पास किया गया तो विरोधी दलों के बहुत-से सांसद जेल में थे। इस प्रकार यह संशोधन विवाद का केन्द्र ही रहा।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता
(क) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ख) खंडन-मंडन बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं। संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़ के रूप में
(ग) कुछ नियमों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षा कृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्यवस्था की गई है।
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(ङ) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर:
उपर्युक्त कथनों में से (ङ) में दिया गया कथन विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता है किसी भी कानून की सवैधानिकता निर्धारित करने की शक्ति संविधान द्वारा न्यायपालिका में निहित की गई है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिन्हित करें। गलत वाक्य को सही करें। (क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है। (ख) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अंतर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
(क) यह कथन सही नहीं है कि संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है, क्योंकि संविधान में कहीं भी अलग से मूल ढाँचे की कोई व्याख्या नहीं की गई है। वास्तव में यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक व्याख्याओं से उत्पन्न हुआ है। इस धारणा का सर्वप्रथम प्रतिपादन सर्वोच्च न्यायालय के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के वाद में हुआ था। बाद में मिनर्वा मिल्ज़ मामले में यह निर्णय दिया गया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन पर कर सकती है, परन्तु संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार बुनियादी मान्यताओं के सिद्धांत ने संविधान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

(ख) यह कथन सही है क्योंकि विधायिका बुनियादी ढाँचे को छोड़कर संविधान के सभी हिस्से में संशोधन कर सकती है। इस बात की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती एवं मिनर्वा मिल्ज़ विवाद में किया गया।

(ग) यह कथन सही है कि बुनियादी ढाँचे की किसी अवधारणा का उल्लेख संविधान में नहीं मिलता। यह तो न्यायिक व्याख्याओं की उपज है। संविधान की बुनियादी मान्यताओं का आशय है कि वे संविधान कुछ व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है, वे संविधान के मूल ढाँचे के सक्षम हैं और समस्त सवैधानिक व्यवस्था उन पर ही आधारित है।

(घ) यह कथन निश्चित रूप से सही है कि बुनियादी ढाँचे का सिद्धांत सर्वप्रथम सन् 1973 के केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया।

(ङ) निश्चित रूप से इस सिद्धान्त द्वारा न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई और इस सिद्धान्त को सरकार एवं राजनीतिक दलों की सहमति प्राप्त हुई। केशवानंद भारती विवाद के बाद से इस सिद्धांत का संविधान की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः यह कथन पूर्णतः सत्य है

प्रश्न 7.
सन 2000-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
(ङ) संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
उपर्युक्त निष्कर्षों में से संविधान संशोधनों के विषय में (ग) और (ङ) में उल्लिखित निष्कर्ष सही हैं, क्योंकि उस समय संशोधन के लिए जनता का दबाव था तथा राजनीतिक दलों के बीच भी संशोधन के विषय और प्रकृति के संबंध में पर्याप्त सहमति थी, जिसके कारण संशोधन में कोई बाधा नहीं आई। संशोधन प्रस्ताव पर प्रायः राजनीतिक दलों में आम राय थी।

प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अन्तर्गत अनुच्छेद 368 में दी गई संशोधन विधि के अंतर्गत संविधान के जो विषय अत्याधिक महत्त्वपूर्ण जैसे मूल एवं निर्देशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित तथा संघ एवं राज्य से सम्बन्धित सवैधानिक भाग हैं उन्हें संशोधित करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत से अभिप्राय यह है कि किसी भी प्रस्ताव को संसद द्वारा पारित होने के लिए विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या का स्पष्ट बहुमत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए।

संशोधन को संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग पारित होना आवश्यक होता है। संविधान संशोधन के लिए विशेष बहमत का प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि प्रस्तावित विधेयक पर जब तक सदस्यों यानी सत्तारूढ़ एवं विपक्षी दलों के बीच पर्याप्त सहमति नहीं बन जाती, तब तक उसे पारित नहीं किया जा सकता।

इसके लिए संविधान निर्माताओं का उद्देश्य किसी भी संशोधन प्रस्ताव के पीछे अप्रत्यक्ष जन-समर्थन की भावना का सम्मान तथा राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करना था। इसके अतिरिक्त संशोधन प्रक्रिया के राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति इसलिए सम्मिलित की गई कि राज्यों से सम्बन्धित संविधान के संशोधित विषयों के बारे में राज्यों को भी पता चल जाए ताकि संवैधानिक व्यवस्थाओं की ठीक प्रकार से पालना हो सके। इसके अतिरिक्त संविधान के महत्त्वपूर्ण भाग में संसद मनमाना परिवर्तन भी न कर सके।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान की व्याख्या प्रायः एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। संसद और न्यायपालिका द्वारा विभिन्न संशोधनों की है। वास्तव में संविधान में संशोधन इसी मतभेद का परिणाम है। सन 1951 में मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित किए गए पहले संविधान संशोधन के पीछे भी यही कारण था। संविधान की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा रही थी और संविधान की विभिन्न प्रक्रियाओं की व्यवस्था भी लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से की जा रही थी।

प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान में संवैधानिक संशोधन प्रक्रिया एक विवादास्पद विषय रहा है। यह विधायिका और न्यायपालिका के बीच परस्पर टकराव का विषय भी रहा। विधायिका के संशोधन के अधिकार के पक्ष में प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि जब संशोधन जनता की इच्छानुसार जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है, तो न्यायपालिका को इसमें हस्तक्षेप कर जनता की इच्छाओं को दबाने का अधिकार नहीं होना चाहिए। परंतु इस तर्क से असहमति के कारण हैं; जैसे 70 के दशक में होने वाले अनेक संशोन विशेषकर आपातकाल के दौरान किए गए संशोधन बहुत ही विवादास्पद रहे।

इसके पीछे कारण यह था कि ये संशोधन प्रस्ताव 38वाँ, 39वाँ एवं 42वाँ तब पारित किए जब अनेक विपक्षी नेता जेल में थे। इन प्रस्तावों द्वारा संविधान के मूल ढाँचे को ही बदला गया। ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका सक्रिय न होती तो संसद के तानाशाही व्यवहार पर नियंत्रण करना कठिन होता। जन-प्रतिनिधियों के निरंकुश व्यवहार के कारण जनता की अपूरणीय क्षति होती। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका का हस्तक्षेप सर्वथा उचित और न्यायसंगत कहा जा सकता है।

संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़ HBSE 11th Class Political Science Notes

→ किसी भी देश का संविधान उस देश की राजनीतिक व्यवस्था के संचालन के आदर्शों, सिद्धान्तों एवं लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करने वाला होता है। समय एवं परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ उस समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था के आदर्शों एवं लक्ष्यों में परिवर्तन करना भी अपरिहार्य हो जाता है।

→ इसीलिए प्रत्येक देश के संविधान निर्माता सदैव इस बात को ध्यान में रखते हैं कि प्रगतिशील देश की आवश्यकताओं के अनुरूप इसमें परिवर्तन या संशोधन का प्रावधान अवश्य होना चाहिए, अन्यथा ऐसे देश में क्रान्ति की सम्भावना सदैव बनी रहती है।

→ इसीलिए अन्य देशों की तरह भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन विधि का उल्लेख किया है।

→ मल्फोर्ड (Mulford) के कथन को यहाँ उद्धृत करना उपयुक्त होगा जिसमें उन्होंने कहा था, “ऐसा संविधान जिसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है, उसे बुरे समय की बुरी-से-बुरी निरंकुशता कहा जा सकता है।”

→ अतः यह कैसे सम्भव था कि हम इस आधुनिक लोकतान्त्रिक युग में एक जीवंत एवं गतिशील संविधान के प्रारूप को न अपनाते।

→ इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए भारतीय संविधान को नए समय की आवश्यकतानुरूप संशोधित करने के लिए एवं संविधान की जीवंतता को बनाए रखने के लिए लचीली एवं कठोर विधि का सुन्दर समन्वय करने का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप संविधान में अनावश्यक संशोधनों से भी बचा जा सके और आवश्यक संशोधनों को आसानी से अमली जामा पहनाया जा सके।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

HBSE 11th Class Political Science स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व-शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइए कि स्व-शासन की इकाई बनने के क्रम में ग्राम पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?

(क) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कंपनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आने वाले गाँवों में से एक की ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गाँववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए।

(ख) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा।

(ग) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने माँग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आबंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता।

(घ) सरकार ने डुंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डुंगरपुर नामक गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है।

(ङ) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इलाके में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायत ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ।
उत्तर:
प्रश्न में कुल पाँच स्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनका उत्तर निम्नलिखित प्रकार से है-
(क) प्रश्न की प्रथम स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक सिद्ध होगी,
(ख) द्वितीय स्थिति भी ग्राम पंचायत के लिए सहायक है,
(ग) प्रश्न की तीसरी स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक हो सकती है,
(घ) प्रश्न की चौथी स्थिति भी ग्राम पंचायत के लिए बाधक है,
(ङ) पाँचवीं स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 2.
मान लीजिए कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व-शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पाँच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत स्थानीय स्व-शासन की त्रिस्तरीय ढाँचे में सबसे निम्न स्तर की संस्था है। ग्राम पंचायत स्व-शासन की इकाई के रूप में कार्य करें, इसके लिए उसे निम्नलिखित शक्तियाँ देनी चाहिएँ
1. नागरिक सुविधाएँ-नागरिक सुविधाओं के अधीन ग्राम पंचायत अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है। उदाहरण के लिए – गाँव के लोगों के लिए स्वच्छ पानी, प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था, चिकित्सालयों की व्यवस्था, दूषित पानी की निकासी आदि।

2. समाज कल्याण का कार्य-ग्राम पंचायतें समाज कल्याण के लिए अनेक कार्य कर सकती हैं; जैसे परिवार नियोजन तथा कल्याण के कार्यों को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न उपाय कर सकती हैं।

3. विकास कार्य-विकास के लिए भी ग्राम पंचायतें बहुत सारे कार्य कर सकती हैं; जैसे गाँव में छोटे-छोटे कुटीर उद्योग लगा सकती हैं। इससे ग्रामीणों को रोजगार मिलेगा और उनकी आय में वृद्धि होगी तथा जीवन-स्तर भी उन्नत होगा।

4. शिक्षा का प्रबंध ग्राम पंचायत ग्रामीण लोगों के विकास एवं समृद्धि के लिए शिक्षा का प्रबंध करें ताकि ग्रामीण बच्चों की । शिक्षा में रुचि बढ़े और वे आसानी से शिक्षा ग्रहण कर आदर्श नागरिक बन सकें।

5. मनोरंजन कार्य-ग्राम पंचायतें ग्रामीण लोगों के लिए मनोरंजन की व्यवस्था कर सकती है। इसके लिए वह स्टेडियम में खेल-प्रतियोगिता आदि का आयोजन भी कर सकती है जिससे गाँव के बच्चों का शारीरिक विकास भी होगा।

प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदला है?
उत्तर:
24 अप्रैल, 1993 को 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम अर्थात् नए पंचायती राज अधिनियम को लागू कर शक्तिशाली स्थानीय स्वशासी सरकार की दिशा में संसद ने ऐतिहासिक कार्य किया। कमजोर वर्गों के लिए उक्त संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं

(1) कुल स्थानों में से 50% स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करने की घोषणा की गई।

(2) अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों (S.C., S.T.) के सदस्यों का आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार होगा। इन आरक्षित पदों में से 1/3 स्थान इन्हीं जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाएंगे। उदाहरण के लिए, यदि गाँव की जनसंख्या 10,000 है और उसमें (S.C., S.T.) की संख्या 2,000 है, तो S.C., S.T. के लिए कुल सीटों का 5वाँ हिस्सा आरक्षित होगा अर्थात् यदि कुल 20 सीटें हैं तो S.C., S.T. के लिए चार सीटें आरक्षित करनी पड़ेंगी,

(3) पिछड़ी जातियों के आरक्षण का निर्णय राज्य की विधानसभा कानून के द्वारा करेगी, (4) पंचायतों के तीनों स्तरों पर अध्यक्षों के पदों का भी आरक्षण किया गया है। इन पदों पर S.C., S.T. और महिलाओं के लिए क्रमवार (Rotation) स्थान आरक्षित किए गए हैं। यह व्यवस्था 24 अप्रैल, 1994 से पूरे देश में लागू हो गई है। इस प्रकार कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान करने से इनकी स्थिति में काफी परिवर्तन आया है। विशेषकर महिलाओं को अपनी कार्यक्षमता सिद्ध करने का अवसर मिला है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद के स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर:
भारत में ग्रामीण स्थानीय शासन का इतिहास काफी पुराना है। वैदिक काल में भी इस बात के संकेत मिलते हैं कि लोग मिल-जुलकर अपनी स्थानीय समस्याओं का समाधान निकाल लेते थे। मुगल, मौर्य और ब्रिटिश काल में भी ग्रामीण स्वशासन की इकाइयों के कार्यों एवं शक्तियों में परिवर्तन होते रहे। स्वतंत्र भारत में इन संस्थाओं को राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों (धारा 40 के अनुसार राज्य के द्वारा पंचायतों का गठन) में स्थान दिया गया। फिर भी इनके विकास में आशातीत सफलता नहीं मिली। बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के अनुसार 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में प्रथम पंचायत की स्थापना की गई।

राज्य सरकारों द्वारा पंचायतों को भंग करना, अनियमित चुनाव, वित्त की समस्या व कमजोर वर्गों तथा महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व न मिलना आदि कुछ ऐसी समस्याएँ थीं, जिनका हल निकालने के लिए तथा पंचायती राज संस्थाओं को संविधान में दर्जा देने के लिए 24 अप्रैल, 1993 से 73वाँ संवैधानिक संशोधन लागू किया गया। संविधान के 73वें संशोधन से पूर्व स्थानीय संस्थाओं की शक्ति बहुत कम थी। वह स्थानीय संस्थाओं की देखभाल करने में असमर्थ थी और उसे वित्तीय मदद के लिए केंद्र पर बहुत निर्भर रहना पड़ता था।

परंतु 73वें संशोधन के बाद स्थिति बहुत बदल गई है। अब स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में मतदाता भाग लेते हैं। सीटों के अनुरूप निर्वाचन क्षेत्र बनाए जाते हैं। महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण दिया गया है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए भी विशेष आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान किए गए हैं। अतः 73वें संशोधन के पहले और बाद की स्थिति में बहुत अन्तर आया है।

प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढ़ें। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाए गए हैं उसके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।
आलोक – हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों में स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।
नेहा – लेकिन, महिलाओं का सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।
जयेश – मुझे आरक्षण का यह गोरखधंधा पसंद नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का ख्याल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जाएगी।
उत्तर:
उपर्युक्त बातचीत का मुख्य विषय महिलाओं के समानाधिकार से संबंधित है। संविधान में महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में समानता का अधिकार दिया गया है। इसके के अध्याय चार में उल्लेखित नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में भी महिलाओं के हितों को संरक्षित करने का प्रयास किया गया हैं। अनुच्छेद 39 राज्य को अपनी नीतियाँ इस प्रकार से बनाने का निर्देश देता है कि स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से आजीविका का साधन जैसे समान कार्य के लिए समान वेतन आदि की व्यवस्था सम्बन्धी निर्देश दिए गए हैं।

अनुच्छेद 40 में स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाने का प्रयास करे। इसी प्रतिबद्धतता के अधीन संसद ने पंचायती बन्धी 73वाँ और 74वाँ अधिनियम पारित किया है और महिलाओं के लिए पंचायत और नगरपालिकाओं में एक-तिहाई आरक्षण निश्चित किया है। उपर्युक्त प्रश्न में आलोक के अनुसार स्त्री-पुरुष दोनों को संविधान में बराबर का दर्जा दिया गया है।

स्थानीय निकायों में आरक्षण देकर महिलाओं को सत्ता में पुरुषों के बराबर लाने का प्रयास किया गया है। नेहा के अनुसार बजट में भी स्त्रियों के लिए विशेष प्रावधान करना चाहिए और जयेश का मत है कि स्थानीय निकायों को सभी के हित के लिए कार्य करना चाहिए अर्थात् पंचायतें सभी ग्रामवासियों के कल्याण के कार्यक्रम बनाएँ तो स्वतः ही स्त्रियों का कल्याण होगा।

यहाँ यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त तीनों विचारों के संदर्भ में यह कहना महत्त्वपूर्ण होगा कि भारत के मतदाताओं में लगभग आधा भाग महिलाओं का है और उस अनुपात में राजनीति में इनका प्रतिनिधित्व नहीं है। संविधान में समानता के सिद्धांत को स्वीकार करने के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं के लिए आरक्षण आवश्यक है।

प्रश्न 6.
73वें संशोधन के प्रावधानों को पढ़ें। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
(क) पद से हटा दिये जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
(ख) भूस्वामी सामंत और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज़्यादा है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर:
(क) सामान्यत ग्राम पंचायत का कार्यकाल विभिन्न राज्यों में 5 वर्षों का होता है परंतु राज्य सरकार यदि ग्राम पंचायत को निश्चित अवधि से पूर्व भंग करती है तो उसे 6 महीने के भीतर दोबारा चुनाव करवाना आवश्यक है। अतः जन-प्रतिनिधियों में भय की स्थिति बनी रहती है जिसके कारण जनप्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायित्व की स्थापना के आधार पर कार्य करने का प्रयास करते हैं।

(ख) भारतीय संविधान के पंचायती राज सम्बन्धी 73वें संशोधन द्वारा महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण अनिवार्य रूप से सुनिश्चित किया गया है। जहाँ महिलाओं को प्रत्येक वर्ग में एक-तिहाई आरक्षण सुनिश्चित किया गया है, वहाँ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान किया गया है। इस प्रकार इस संशोधन में उन ताकतवर वर्गों को एक तरह से झटका लगा है जिन्होंने अभी तक सत्ता में अपना दबदबा बनाया हुआ था।

(ग) 73वें संशोधन के माध्यम से पंचायत को कार्य करने के लिए 29 विषय प्रदान किए गए हैं। इन विषयों में तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा का भी उल्लेख किया गया है। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि गाँव के लोग बहुत निरक्षर होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण द्वारा गाँव के उत्थान के विषय में योजना बनाने एवं निर्णय लेने में सक्षम बनाया जा सके और उनकी निरक्षरता कोई बाधा न बने।

(घ) भारतीय संविधान के 73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार हर वर्ष एक वित्त आयोग गठित करने का प्रावधान किया गया है जो पंचायत के वित्त का पुनरावलोकन करेगा और राज्य सरकारों से पंचायत अनुदान के लिए सिफारिश करेगी। अतः गाँव की विकास योजनाओं के लिए संसाधन के रूप में सरकार आर्थिक सहायता प्रदान करेगी।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कछ तर्क दिए गए हैं। इन तर्कों को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजायें और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज़्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है। आपके जानते वेगवसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों में से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गई विकास योजना से ज़्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की ज़रूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन के पक्ष में जो तर्क दिए गए हैं, उनका वरीयत-क्रम इस प्रकार है (क) प्रश्न के चौथे (घ) तर्क को प्रथम वरीयता दी जाएगी, क्योंकि आम जनता का राष्ट्रीय विधायिका के जनप्रतिनिधियों से संपर्क कर पाना कठिन होता है और स्थानीय शासन के प्रतिनिधि हर समय अपने क्षेत्र में उपलब्ध रहते हैं इसलिए इनसे संपर्क तुरंत हो जाता है और समस्या का समाधान भी जल्दी हो जाता है, (ख) प्रश्न के तीसरे तर्क (ग) को दूसरे वरीयता-क्रम में रखा जा सकता है, क्योंकि लोग भी स्थानीय होते हैं और समस्याएँ भी स्थानीय होती हैं,

इसलिए निर्णय लेने में कोई मुश्किल नहीं होती, (ग) प्रश्न के दूसरे तर्क (ख) को तीसरी वरीयता में रखा गया है, क्योंकि पंचायती राज में स्थानीय स्तर पर शक्तियों को विकेंद्रित किया गया है। इसलिए उन स्थानीय लोगों की विकास योजनाओं को भी अधिक महत्त्व दिया जाता है, (घ) प्रश्न के प्रथम तर्क (क) को अंतिम वरीयता में रखा गया है। वेगवसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला उस तर्क पर आधारित था कि स्थानीय जनता द्वारा बनाई गई विकास योजना सरकारी अधिकारी द्वारा बनाई गई विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत ही नहीं होती बल्कि स्थानीय लोगों की सहायता से कम लागत में भी पूरा कर सकती है।

प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेंद्रीकरण का साधन है? शेष को विकेंद्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत स्थानीय स्वशासन का सबसे निम्न स्तर है। प्रश्न में दिए गए कथनों में कथन (ख) विकेंद्रीकरण का साधन है। यद्यपि ग्राम सभा की बैठक बुलाने का अधिकार भी ग्राम पंचायत के कार्यों का हिस्सा है, परन्तु यह विकेंद्रीकरण का साधन होने के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि यह बैठक बुलाने की शक्ति उच्च अधिकारियों को भी होती है।

वास्तव में, जब तक गाँव के निवासी ही इस शक्ति का प्रयोग न करें, तब तक यह विकेंद्रीकरण का साधन नहीं हो सकता। आम नागरिक की समस्या और उसकी दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ग्रामीण लोग ग्राम पंचायत के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करें। यही सच्चा लोकतंत्र है। लोकतंत्र में सत्ता का वास्तविक विकेंद्रीकरण स्थानीय लोगों की सत्ता में भागीदारी से ही हो सकता है।

यहाँ यह भी स्पष्ट है कि एक ग्राम पंचायत को खंड विकास पदाधिकारी द्वारा इस आशय की रिपोर्ट प्राप्त होना कि प्रदेश की सरकार द्वारा चालू अमुक परियोजना की प्रगति कहाँ तक हुई है, यह विकेंद्रीकरण का साधन नहीं है क्योंकि अमुक परियोजना ग्राम सभा या ग्राम पंचायत द्वारा नहीं चलायी जा रही। अतः विकेंद्रीकरण का साधन वास्तव में (ख) भाग ही है जिसमें गाँव के निवासी स्वयं ही यह निश्चित करते हैं कि कौन-सी योजना अथवा नीति गाँव के विकास के लिए उपयोगी होगी।

प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेंद्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गाँववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गाँववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते? गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाए, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिएँ इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलाई जानी है।

(क) बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?
(अ) खंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) गाँव का बाज़ार जिस दिन लगता है।
(स) रविवार
(द) नाग पंचमी/संक्रांति

(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।
(अ) जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह।
(ब) गाँव का कोई धार्मिक स्थान।
(स) दलित मोहल्ला।
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला।
(ध) गाँव का स्कूल।
(ग) ग्राम सभा की बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कंदम उठाये जाएँ और रैली किस रास्ते होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते।

बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने-बंद होने के समय के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इस को आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बताएँ। (घ) अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ उपाय सुझायें।
उत्तर:
(क) ग्राम सभा की बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका निर्णय करने से पहले यह सोचना होगा कि अधिक-से-अधिक लोग किस दिन उपस्थित हो सकते हैं। प्रश्न में दिए गए दिन निम्नलिखित हैं (अ) खंड विकास पदाधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन (ब) जिस दिन गाँव का बाज़ार लगता है (स) रविवार (द) नागपंचमी/संक्रांति इन सब दिनों में खंड विकास पदाधिकारी
अथवा
कलेक्टर द्वारा निश्चित किया गया दिन उपयुक्त रहेगा। मैं यहाँ यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जिस दिन गाँव का बाज़ार लगता है, लोग अपनी खरीददारी में व्यस्त रहते हैं। इसके अतिरिक्त रविवार के दिन सम्बन्धित कर्मचारी एवं महिला शिक्षक उपस्थित नहीं हो पाएंगे। नागपंचमी अथवा संक्रांति तो त्योहार का दिन है जिसमें लोग व्यस्त रहते हैं।

(ख) ग्राम सभा की बैठक के लिए कौन-सा स्थान उचित होगा, इसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्थान का चुनाव करते समय यह देखा जाए कि अधिक-से-अधिक ग्रामीण सभा में उपस्थित हो सकें। प्रश्न में दिए गए स्थान निम्नलिखित हैं

(अ) जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह पर बैठक करने अथवा (ब) गाँव का कोई धार्मिक स्थान या (स) दलित मोहल्ला या (द) ऊँची जाति के लोगों का टोला अथवा (ध) गाँव का स्कूल प्रश्न में दिए गए उपर्युक्त सभी स्थानों में से सबसे उपयुक्त स्थान गाँव का स्कूल है जिसे सभी वर्गों, धर्मों एवं जातियों के लोगों द्वारा समान आदर भाव के साथ निष्पक्ष स्थान के रूप में देखा जाता है।

(ग) ग्राम सभा बैठक में पहले जिला कलेक्टर द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते से होकर गुजरे, बैठक में उन बच्चों के विषय में चर्चा नहीं हुई जो कभी विद्यालय नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में कोई चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक उस बैठक में नहीं आई।

अतः इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि जनता की भागीदारी के लिहाज से बैठक की इस कार्यवाही में कोई कार्य जनता के हित में नहीं किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा भेजे गए पत्र में मुख्य समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया है, क्योंकि स्थानीय समस्याएँ तो स्थानीय व्यक्तियों की व्यापक भागीदारी से ही हल हो सकती है।

(घ) अपनी कक्षा की ग्राम सभा के रूप में कल्पना करते हुए सर्वप्रथम हम एक मीटिंग बुलाने की घोषणा करेंगे। बैठक का मुख्य विषय इस प्रकार होगा-

  • उन बच्चों की समस्या पर चर्चा की जाए जो कभी स्कूल नहीं आते,
  • गरीबी उन्मूलन के उपायों पर चर्चा,
  • ग्रामीण विकास हेतु शिक्षा के महत्त्व पर चर्चा,
  • ग्राम प्रधान-द्वारा समापन-भाषण।

इस प्रकार ग्राम सभा द्वारा सर्वसम्मति से प्रत्येक बालक/बालिका को माता-पिता द्वारा विद्यालय में भेजने की अनिवार्यता निश्चित करने के साथ-साथ एक निगरानी समिति भी बनाई जाए जो गाँव में प्रत्येक घर के स्कूल जाने योग्य बच्चों एवं उनके माता-पिता को बराबर प्रेरित करने का कार्य करें।

स्थानीय शासन HBSE 11th Class Political Science Notes

→ आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है और आज प्रजातन्त्र को सर्वोत्तम शासन माना जाता है। यह जन-प्रभुसत्ता पर आधारित होता है। जन-प्रतिनिधि लोक कल्याण की भावना से शासन चलाते हैं।

→ प्रजातन्त्र एक कल्याणकारी राज्य होता है। लोक कल्याण के सभी कार्य अकेली केन्द्रीय सरकार नहीं कर सकती। इसलिए सरकार के कार्य को कुशलतापूर्वक चलाने के लिए अत्यावश्यक है कि प्रजातान्त्रिक संस्थाओं का निचले स्तर तक प्रसार किया जाए।

→ इससे हमारा अभिप्राय है कि गाँवों एवं शहरों में जन-निर्वाचित संस्थाएँ होनी चाहिएँ। इन संस्थाओं को स्थानीय समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

→ भारत में भी जनता को सक्रिय रूप से भागीदार बनाने के लिए शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण के सिद्धान्त को अपनाया गया है। आज ग्रामों व शहरों में स्थानीय संस्थाओं की स्थापना की गई है।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

HBSE 11th Class Political Science संघवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?
(क) केंद्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केंद्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी। केंद्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।

(ग) दिल्ली के लिए नए आयुक्त। देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जाएगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह संभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।

(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा । राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मंत्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।

(ङ) केंद्र ने धन दिया। केंद्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 553 लाख रुपए दिए हैं। इस धन की पहली किश्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपए दिए गए हैं।

(च) हम बिहारियों को बताएंगे कि मुंबई में कैसे रहना है। करीब 100 शिवसैनिकों ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।

(छ) सरकार को भंग करने की माँग। काँग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की माँग की है।

(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी काँग्रेस तथा सीपीआई (एम) के वॉक आऊट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
उत्तर:
(क) प्रथम सूची ‘क’ की घटना संघवाद की कार्य-प्रणाली को दर्शाती है, क्योंकि इसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकार सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले जीएनएलएफ के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

(ख) द्वितीय सूची ‘ख’ की घटना भी संघवाद की कार्य-प्रणाली को चिहनित करती है क्योंकि संविधान के अनुसार संघ सरकार राज्यों के निर्देश देने एवं राहत सहायता देने का अधिकार राज्यों पर रखती है।

(ग) तृतीय सूची ‘ग’ की घटना को भी संघवाद के रूप में चिहनित किया जा सकता है क्योंकि संघीय शासन व्यवस्था में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों का तबादला एक राज्य से दूसरे राज्य में संघीय सरकार करती है अर्थात् यह घटना भी संघवाद की कार्य-प्रणाली को दर्शाती है।

(घ) चौथी सूची ‘घ’ की घटना भी संघवाद की कार्य-प्रणाली को दर्शाती है क्योंकि मणिपुर विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने का अधिकार संघीय संसद एवं केंद्र सरकार को है।

(ङ) प्रश्न की पाँचवीं सूची भी संघवाद की कार्य-प्रणाली को दर्शाती है। संघीय ढाँचे में केंद्र सरकार राज्यों को वित्तीय सहायता के रूप में अनुदान सहायता प्रदान कर सकती है।

(च) छठी सूची ‘च’ की घटना संघवाद की कार्य-प्रणाली के प्रतिकूल है, क्योंकि भारतीय संविधान में इकहरी नागरिकता प्रदान की जाती है और देश के किसी भी नागरिक को देश के किसी भी राज्य में रहने और व्यवसाय करने का अधिकार है।

(छ) सातवीं सूची ‘छ’ की घटना संघीय प्रणाली की परिचायक है, क्योंकि संविधान के अनुसार जब किसी राज्य में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने लगती है तो केंद्र को अधिकार है कि वह राज्यपाल से राज्य की संवैधानिक स्थिति पर रिपोर्ट माँग सकता है और राज्यपाल की अनुशंसा पर राज्य में सरकार को भंग कर संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा कर सकता है।

(ज) प्रश्न की आठवीं अर्थात् अंतिम सूची ‘ज’ संघीय प्रणाली के अनुरूप नहीं है, क्योंकि उक्त घटना राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आती है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 2.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?
(क) संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
(ख) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेनदेन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
(ग) संघीय प्रणाली इस बात को सनिश्चित करती है कि जो केंद्र में सत्तासीन हैं उनकी शक्तियाँ सीमित रहें।
उत्तर:
प्रश्न में दिए गए उक्त तीनों कथनों में कथन ‘क’ सही होगा, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 1 के अंतर्गत भारत को राज्यों का संघ कहा गया है। यहाँ एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र के लोगों के साथ आपसी मेल-जोल एवं सहयोग से रह सकते हैं और अपनी-अपनी संस्कृति को बनाए भी रख सकते हैं।

प्रश्न 3.
बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्ज़ियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें। शीर्षक I : संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र?
अनुच्छेद-1-बेल्ज़ियम एक संघीय राज्य है जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2-बेल्जियम तीन समुदायों से बना है-फ्रैंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।
अनुच्छेद-3-बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र
अनुच्छेद-4-बेल्ज़ियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं फ्रेंच-भाषी क्षेत्र, डच-भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5-वैलून क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले प्रांत हैं वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रांत हैं-एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर:
अनुच्छेद-1 : बेल्जियम एक संघीय राज्य है जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है। इसी तरह भारत के संविधान का प्रथम अनुच्छेद है-

  • भारत राज्यों का एक संघ है,
  • राज्य और उनके राज्यक्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं,
  • भारत के राज्य क्षेत्र में
    (क) राज्यों के राज्य क्षेत्र,
    (ख) पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट संघराज्य क्षेत्र और,
    (ग) ऐसे अन्य राज्य क्षेत्र जो अर्जित किए जाएँ, समाविष्ट होंगे।

अनुच्छेद-2 : बेल्जियम तीन समुदायों से बना है-फ्रेंच, फ्लेमिश और जर्मन । ठीक इसके विपरीत भारत एक ऐसे समाज की स्थापना के लिए प्रेरित है जो जाति भेद की भावना से ऊपर हो।

अनुच्छेद-3 : बेल्जियम तीन क्षेत्रों से बना है-

  • वैलून क्षेत्र,
  • फ्लेमिश क्षेत्र,
  • ब्रूसेल्स क्षेत्र। ठीक इसी तरह भारत 28 राज्यों तथा 8 केंद्र शासित प्रदेशों को मिलाकर बना है। अनुच्छेद-1 के अनुसार भारत राज्यों का संघ होगा। राज्य तथा संघ शासित प्रदेश वे होंगे जो अनुसूची (i) में वर्णित हैं।

अनुच्छेद-4 : बेल्जियम में चार भाषाई क्षेत्र हैं-फ्रेंच भाषी क्षेत्र, डच भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स की राजधानी का हि जर्मन भाषी क्षेत्र, राज्य के प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में किसी एक का हिस्सा है। भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं का उल्लेख संविधान की आठवीं अनुसूची में किया गया है। इस समय अनुसूची में कुल 22 भाषाएँ हैं जो इस प्रकार हैं-असमिया, बंगला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलगु, उर्दू, नेपाली, कोंकणी, मणिपुरी, मैथिली, डोगरी, संथाली तथा बोडो

इस प्रकार आज संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त संवैधानिक भाषाओं की कुल संख्या 22 है। अनुच्छेद 345 के अधीन प्रत्येक राज्य के विधानमंडल को यह अधिकार दिया गया है कि वह संविधान की आठवीं अनुसूची में दी गई भाषाओं में से किसी एक या एक से अधिक सरकारी कार्यों के लिए राज्य की भाषा के रूप में अपना सकता है, परन्तु राज्यों के परस्पर संबंधों तथा संघ और राज्यों के परस्पर संबंधों में संघ की राजभाषा को ही प्राधिकृत भाषा माना जाएगा।

अनुच्छेद-5 : वैलून क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले प्रांत हैं वैलून, ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग, और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रांत हैं-एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंगबर्ग। यहाँ यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में अलग-अलग क्षेत्रों का उल्लेख नहीं किया गया। यद्यपि इनकी तुलना हम पहाड़ी क्षेत्र, उत्तरी क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र, दक्षिण क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, पूर्वोतर भारत तथा मध्य भारत आदि के रूप में कर सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद एक में केवल इतना ही कहा गया है भारत राज्यों का संघ होगा, जिसमें राज्य तथा संघ शासित प्रदेश इस प्रकार सम्मिलित होंगे; जैसे अनुसूची (i) में दिए गए हैं।

प्रश्न 4.
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिंदुओं पर आपके सुझाव हों
(क) केंद्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा,
(ख) वित्त-संसाधनों का वितरण,
(ग) राज्यपालों की नियुक्ति।
उत्तर:
(क) केंद्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा-संघात्मक शासन में दो स्तर की सरकारें होती हैं संघीय स्तर पर संघ की और राज्य स्तर पर संघ की इकाई (राज्य) की। संविधान के अनुच्छेद 246 में अंकित तीन सूचियों के द्वारा इन दोनों सरकारों के बीच शक्ति विभाजन किया गया है। परंतु इस विभाजन में केंद्र को अधिक शक्तियाँ दी गई हैं क्योंकि संघ सूची में संख्या की दृष्टि से 100 विषय (मूलतः 97) दिए गए हैं,

जबकि राज्य सूची में 61 विषय (मूलत : 66) हैं और समवर्ती सूची में 52 विषय (मूलतः 47) हैं। संविधान के अनुसार समवर्ती सूची पर कानून बनाने का अधिकार संघीय संसद और राज्य विधानमंडल दोनों को दिया गया है। परंतु कानून निर्माण की प्रक्रिया में परस्पर विरोध की स्थिति में संघ के कानून मान्य होंगे। इसके अतिरिक्त अवशिष्ट शक्तियाँ भी केंद्र को ही प्रदान की गई हैं।

राज्य सूची के विषय पर भी संघीय संसद को राज्यसभा द्वारा राज्य सूची के किसी विषय में विशेष बहुमत से प्रस्ताव द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित करने, दो या दो से अधिक राज्यों द्वारा अनुरोध करने एवं राज्य सूची के किसी विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संधि या समझौता करने पर विधि बनाने का अधिकार है।

यहाँ यह भी स्पष्ट है कि मूल संविधान द्वारा संघ और राज्य व्यवस्थापिका के मध्य शक्तियों का जो विभाजन हुआ है, उसमें भी 42वें संशोधन द्वारा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया गया है और राज्य सूची के पाँच विषयों को समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिया गया है। वे पाँच विषय हैं-शिक्षा, वन, जंगली जानवरों की रक्षा, नाप-तोल तथा जनसंख्या नियंत्रण।

(ख) वित्तीय संसाधनों का वितरण-संविधान के भाग 12 द्वारा संघ तथा राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों अर्थात् आय के साधनों का भी बँटवारा किया गया है। कुछ वित्तीय साधन केवल संघीय सरकार के पास हैं और कुछ राज्य सरकारों के अधीन हैं, परंतु इस विभाजन के अंतर्गत वे सभी विषय जिनसे अधिक आय होती है, संघीय सरकार के अधीन हैं। इस कारण से राज्य सदा ही आर्थिक सहायता के लिए केंद्र की ओर देखते रहते हैं। संघ तथा राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है

1. संघ सरकार द्वारा लगाए जाने वाले प्रमुख कर-कृषि के अतिरिक्त अन्य आय पर आय-कर, निर्यात कर, आयात कर, शराब, अफीम, गांजा, भांग आदि पर उत्पाद कर, संपति कर, समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय पर कर, रेल तथा हवाई जहाजों में यात्रा करने वाले यात्रियों और उनके सामान पर लिया जाने वाला कर, स्टांप कर तथा संघीय सरकार द्वारा संचालित रेलवे, हवाई जहाज, टेलीफोन, बैंक, बीमा आदि से होने वाली आय इत्यादि शामिल हैं।

2. राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले प्रमुख कर भू-राजस्व, कृषि की आय पर आय-कर, खेती की भूमि पर उत्तराधिकार र, समाचार-पत्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय पर कर, विज्ञापनों पर कर, सड़कों और जलमार्गों पर आने-जाने वाले माल पर कर, यात्री कर, मनोरंजन कर तथा दस्तावेजों की रजिस्ट्री पर कर तथा राज्य सरकार द्वारा संचालित उद्योगों और कारखानों से होने वाली आय पर कर। राज्यों को दिए गए साधनों से स्पष्ट है कि वे इनकी आवश्यकताओं के लिए बहुत कम हैं, इसलिए वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अन्य साधनों की व्यवस्था की गई है जो इस प्रकार है

(क) कुछ कर ऐसे भी हैं जो संघ द्वारा लगाए जाते हैं, लेकिन राज्य सरकारें उन्हें वसूल करती हैं और अपने ही पास रखती हैं। इस श्रेणी में सौंदर्य प्रसाधनों पर उत्पादन कर, स्टांप शुल्क, दवाइयों तथा नशीले पदार्थों पर कर शामिल हैं।

(ख) कुछ ऐसे कर हैं जो संघ द्वारा ही लगाए जाते हैं और उसी द्वारा वसूल किए जाते हैं, परंतु उनकी कुल आय संघ और राज्यों के बीच बाँट दी जाती है। इस श्रेणी में कृषि संबंधी आय को छोड़कर अन्य आयकर शामिल हैं।

(ग) जूट और उसके निर्यात से होने वाली आय असम, बिहार, ओडिशा तथा बंगाल के राज्यों को एक निश्चित अनुपात में बाँट दी जाती है। संघ राज्यों को उनके विकास में सहायता के लिए अनुदान भी देता है। संघ तथा राज्यों के वित्तीय संबंधों से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में राज्यों की स्थिति बड़ी दयनीय है। वे अपनी विकास योजनाओं के लिए संघ पर निर्भर रहते हैं। इस व्यवस्था में राज्यों पर संघ का नियंत्रण रहता है।

(ग) राज्यपालों की नियुक्ति-राज्यों में राज्यपाल कार्यपालिका का संवैधानिक मुखिया होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति साधारणतः उसके लिए मंत्रिपरिषद् एवं उसके मुखिया प्रधानमंत्री से परामर्श करता है। आजकल ऐसा देखा जा रहा है कि मंत्रिपरिषद् का मुखिया प्रधानमंत्री भी ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल के पद पर नियुक्त करने की अनुशंसा करता है जो उसका विश्वासपात्र होता है।

राज्य के राज्यपाल राष्ट्रपति की इच्छा-पर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं। इस प्रकार राज्यपाल पूरी तरह से राष्ट्रपति या केंद्र के प्रति ही उत्तरदायी रहता है। ऐसी स्थिति में राज्यपाल राज्यों में केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करते हैं। इसके माध्यम से केंद्र राज्यों के शासन पर अंकुश रखते हैं।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों? (क) सामान्य भाषा, (ख) सामान्य आर्थिक हित, (ग) सामान्य क्षेत्र, (घ) प्रशासनिक सुविधा।
उत्तर:
अंग्रेजों ने भारत के राज्यों का गठन प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से किया था, परंतु आधुनिक युग में भाषाई आधार पर प्रांत का गठन किया जा सकता है। यद्यपि कोई एक इकाई, प्रांत, भाषाई समुदाय के आधार पर संघ का निर्माण नहीं करते हैं। समाज में अनेक विभिन्नताएँ होती हैं और आपसी विश्वास एवं सहयोग के आधार पर संघवाद का कार्य सुचारू रूप से चलाने का प्रयास किया जाता है।

कई इकाई, प्रांत, भाषाई समुदाय आदि मिलकर संघ का निर्माण करते हैं और संघवाद मजबूती के साथ आगे . बढ़े, उसके लिए इकाइयों में टकराव कम-से-कम अर्थात् भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया है। कोई एक भाषाई समुदाय पूरे संघ पर हावी न हो जाए, इस कारण इकाई क्षेत्रों की अपनी भाषा, धर्म संप्रदाय या सामुदायिक पहचान बनी रहती है और वह इकाई होते हुए भी संघ की एकता में विश्वास रखती है।

प्रश्न 6.
उत्तर भारत के प्रदेशों – राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिंदी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाय तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचार से संगत होगा? तर्क दीजिए।
उत्तर:
उत्तर भारत के अधिकांश लोग हिंदी भाषी हैं। भाषा के आधार पर उपर्युक्त प्रांतों को मिलाकर यदि एक प्रदेश बना दिया जाए तो यह संघवाद के विचार से संगत नहीं होगा। क्योंकि संघीय प्रणाली में द्वि-व्यवस्थापिका है-एक केंद्र की, दूसरी प्रांत की अर्थात् उसके अंतर्गत लोगों की पहचान दोहरी होती है-प्रथम क्षेत्रीय पहचान, द्वितीय राष्ट्रीय पहचान अर्थात् उपर्युक्त प्रदेशों को केवल हिंदी भाषी होने के कारण एक प्रदेश बनाना तर्कसंगत नहीं लगता।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिसमें प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केंद्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई है।
उत्तर:
भारतीय संविधान द्वारा संघात्मक शासन की व्यवस्था की गई है। यहाँ एक संघ की सरकार होती है और दूसरी इकाई (राज्यों) की। दोनों सरकारों की शक्तियों का विभाजन भी संविधान के अनुसार किया गया है। परंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में केंद्र को इकाई (राज्यों) की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया गया है, जिसका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है

1. वैधानिक क्षेत्र में संघ की प्रभुता-वैधानिक क्षेत्र में केंद्र को राज्यों के मुकाबले में बहुत ही अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य सूची में 66 विषय रखे गए हैं। समवर्ती सूची में दिए गए विषयों के सम्बन्ध में यद्यपि दोनों (ससंद तथा राज्य विधानमंडल) को ही कानून बनाने का अधिकार दिया गया है, परन्तु इस सम्बन्ध में केंद्र को प्रभुत्व दिया गया है।

इसके अतिरिक्त अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) केंद्रीय सरकार को सौंप कर उसे और अधिक मजबूत बना दिया गया है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैधानिक क्षेत्र में केंद्र को इतना अधिक शक्तिशाली बना दिया गया है कि इससे राज्यों की स्वायत्तता (Autonomy) ही समाप्त हो जाती है।

2. कुछ परिस्थितियों में संसद को राज्य-सूची के विषयों के सम्बन्ध में भी कानून बनाने का अधिकार-संविधान में अनेक ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनके उत्पन्न होने पर संसद को राज्य-सूची में दिए गए विषयों के सम्बन्ध में भी कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है। ऐसी परिस्थितियाँ निम्नलिखित हो सकती हैं

(1) संविधान के अनुच्छेद 249 के अधीन यदि राज्यसभा अपने उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से यह प्रस्ताव पास कर दे कि राज्य सूची में दिया गया कोई भी विषय अब राष्ट्रीय महत्त्व का बन गया है और उस पर संघीय संसद द्वारा कानून बनाना सारे राष्ट्र के लिए हितकारी होगा, तो संसद को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।

(2) संविधान के अनुच्छेद 250 के अधीन यदि संसद अपने किसी अंतर्राष्ट्रीय समझौते अथवा सन्धि आदि में निहित उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए राज्य सूची के किसी विषय पर स्वयं कानून आवश्यक समझे तो उसे ऐसा करने का अधिकार प्राप्त है।

(3) संविधान के अनुच्छेद 252 के अधीन, यदि दो या इससे अधिक राज्य सूची के अंकित विषय पर संघीय संसद को ऐसा करने के लिए प्रार्थना करें, परन्तु संसद द्वारा बनाया गया वह कानून केवल उन्हीं राज्यों पर लागू होगा, जिन्होंने संसद से ऐसा करने के लिए प्रार्थना की थी।

(4) यदि अनुच्छेद 352 के अधीन देश में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा लागू हो तो, ऐसी स्थिति में केंद्रीय संसद राज्य सूची के किसी भी विषयों पर कानून बना सकती है।

(5) यदि अनुच्छेद 356 के अधीन किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए तो, संघीय संसद संबंधित राज्य में राज्य-सूची के किसी भी विषय पर कानून बना सकती है। अतः उपर्युक्त व्यवस्था में संघ की महत्त्वपूर्ण स्थिति भारतीय संघीय प्रणाली की आत्मा के विरुद्ध है।

3. प्रशासकीय सम्बन्धों में भी केंद्र की प्रभुता वैधानिक क्षेत्र की भांति प्रशासनिक क्षेत्र में भी केंद्रीय सरकार बहुत अधिक शक्तिशाली है। राज्यपाल यद्यपि राज्य सरकारों के संवैधानिक मुखिया होते हैं, परन्तु उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। ऐसी स्थिति में वे केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं और केंद्रीय सरकार राज्यपाल द्वारा राज्य के प्रशासन में हस्तक्षेप कर सकती है।

संविधान में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक राज्य सरकार अपनी प्रशासनिक शक्ति का प्रयोग इस प्रकार से करेगी, जिससे संघीय संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन निश्चित रूप से हो सके और संघीय सरकार की प्रशासनिक शक्ति के प्रयोग में किसी प्रकार की बाथा न आए। संघीय सरकार राज्य सरकारों को प्रशासन के सम्बन्ध में निर्देश दे सकती है। यदि कोई राज्य सरकार केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन नहीं करती तो राष्ट्रपति उस राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता की घोषणा करके उस राज्य की समस्त शक्तियाँ केंद्र सरकार को सौंप सकता है।

4. वित्तीय सम्बन्धों में भी केंद्र का प्रभुत्व-वित्तीय क्षेत्र में तो राज्य सरकारों की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। राज्यों को विकास कार्यों के लिए धन की अधिक आवश्यकता होती है, परन्तु उनकी आय के साधन बहुत सीमित हैं। इस कारण से राज्यों को अपने विकास सम्बन्धी कार्य करने के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। जिन राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें होती . हैं, केंद्रीय सरकार प्रायः उन राज्यों के साथ भेदभाव करती है और उन्हें उचित वित्तीय सहायता नहीं देती, जिससे उन राज्यों का विकास रुक जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 8.
बहुत-से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर:
संविधान के अनुसार राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक मुखिया बनाया गया है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। उसका कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है, परंतु वह राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त अपने पद पर बना रहता है। परंतु हाल के कुछ वर्षों से राज्यपाल की भूमिका, अधिकार क्षेत्र, नियुक्ति के तरीके आदि को लेकर केंद्र और राज्य में मतभेद उत्पन्न हए हैं। विरोधी दल की राज्य सरकारें यह आरोप लगाती रही हैं कि केंद्र सरकार राज्यपाल के माध्यम से उनकी सरकारों का पतन करने में लगी रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि सन् 1950 से लेकर अब तक लगभग 127 से भी अधिक बार अनुच्छेद 356 का प्रयोग संघवाद के द्वारा किया जा चुका है।

अधिकांश मामलों में राज्यपाल की भूमिका निन्दा की पात्र बनी है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह की घटनाएँ आए दिन भारतीय राजनीति में घटती रहती हैं जिससे राज्यपाल की भूमिका विवादास्पद बन गई और अन्य लोगों में भी असन्तोष देखने को मिलता है। यद्यपि राज्यपाल का पद बहुत ही गौरव और गरिमा का पद है। इसलिए संविधान के अनुरूप राज्यपाल को अपने पद की प्रतिष्ठा हर प्रकार से बनाए रखनी चाहिए। राज्य को प्रशासन में अपनी भूमिका स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर निभानी चाहिए। इसके अतिरिक्त विशेष परिस्थितियों में उसे भी स्वविवेक की शक्तियाँ दी गई हैं, उसका प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर केंद्र के हाथों में कठपुतली बनकर नहीं बल्कि उचित एवं विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिए।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं? संक्षेप में कारण भी दें
(क) राज्य के विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केंद्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
(ङ) सांप्रदायिक दंगों में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया।
उत्तर:
(क) दिए गए प्रश्नों में ‘क’ के लिए राष्ट्रपति शासन संगत नहीं है। विपक्षी दलों की माँग अनुचित है, क्योंकि सदस्यों को मारे जाने के बदले में अपराधियों को दंडित करना चाहिए न कि सरकार को भंग करने का काम। अन्यथा संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति हेतु अपराधिक घटनाएँ बढ़ सकती हैं।

(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों का अपहरण और महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इज़ाफा को रोकने के लिए राष्ट्रपति शासन की आवश्यकता नहीं बल्कि अपराधियों को उचित सजा और कानून व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है ताकि राज्य में ऐसी घटनाएँ करने के बारे में कोई सोच भी न सके।

(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और विधायकों की खरीद-फरोख्त का के आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू करना असंगत है क्योंकि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में भारत के राज्यों में अनेक गठबन्धन सरकारें बनी हैं।

(घ) केंद्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं यह स्थिति राष्ट्रपति शासन के योग्य नहीं है, क्योंकि संघात्मक एवं केंद्रीय सरकार संघ एवं राज्य सत्ता पर अलग-अलग दलों की सरकारों का होना कोई अस्वाभाविक स्थिति नहीं है। अतः यदि केंद्र में एक दल की सरकार है तो राज्य में दूसरे दल की सरकार हो सकती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति प्रशासन थोपना गलत होगा।

(ङ) सांप्रदायिक दंगों में 200 से ज़्यादा लोग मारे गए यह घटना सरकार की संवैधानिक विफलताओं को दर्शाती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जाना न्यायसंगत माना जाएगा।

(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इन्कार कर दिया। इस स्थिति में भी राष्ट्रपति शासन उचित नहीं होगा।

प्रश्न 8.
बहुत-से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर:
संविधान के अनुसार राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक मुखिया बनाया गया है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती । उसका कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है, परंतु वह राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त अपने पद पर बना रहता है। परंतु हाल के कुछ वर्षों से राज्यपाल की भूमिका, अधिकार क्षेत्र, नियुक्ति के तरीके आदि को लेकर केंद्र और राज्य में मतभेद उत्पन्न हुए हैं।

विरोधी दल की राज्य सरकारें यह आरोप लगाती रही हैं कि केंद्र सरकार राज्यपाल के माध्यम से उनकी सरकारों का पतन करने में लगी रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि सन् 1950 से लेकर अब तक लगभग 127 से भी अधिक बार अनुच्छेद 356 का प्रयोग संघवाद के द्वारा किया जा चुका है। अधिकांश मामलों में राज्यपाल की भूमिका निन्दा की पात्र बनी है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह की घटनाएँ आए दिन भारतीय राजनीति में घटती रहती हैं जिससे राज्यपाल की भूमिका विवादास्पद बन गई और अन्य लोगों में भी असन्तोष देखने को मिलता है।

यद्यपि राज्यपाल का पद बहुत ही गौरव और गरिमा का पद है। इसलिए संविधान के अनुरूप राज्यपाल को अपने पद की प्रतिष्ठा हर प्रकार से बनाए रखनी चाहिए। राज्य को प्रशासन में अपनी भूमिका स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर निभानी चाहिए। इसके अतिरिक्त विशेष परिस्थितियों में उसे भी स्वविवेक की शक्तियाँ दी गई हैं, उसका प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर केंद्र के हाथों में कठपुतली बनकर नहीं बल्कि उचित एवं विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिए।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं? संक्षेप में कारण भी दें
(क) राज्य के विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केंद्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्र हैं। (ङ) सांप्रदायिक दंगों में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। (च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया।
उत्तर:
(क) दिए गए प्रश्नों में ‘क’ के लिए राष्ट्रपति शासन संगत नहीं है। विपक्षी दलों की माँग अनुचित है, क्योंकि सदस्यों को मारे जाने के बदले में अपराधियों को दंडित करना चाहिए न कि सरकार को भंग करने का काम पूर्ति हेतु अपराधिक घटनाएँ बढ़ सकती हैं।

(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों का अपहरण और महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा को रोकने के लिए राष्ट्रपति शासन की आवश्यकता नहीं बल्कि अपराधियों को उचित सजा और कानून व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है ताकि राज्य में ऐसी घटनाएँ करने के बारे में कोई सोच भी न सके।

(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और विधायकों की खरीद-फरोख्त की आशंका के आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू करना असंगत है क्योंकि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में भारत के राज्यों में अनेक गठबन्धन सरकारें बनी हैं।

(घ) केंद्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं यह स्थिति राष्ट्रपति शासन के योग्य नहीं है, क्योंकि संघात्मक एवं केंद्रीय सरकार संघ एवं राज्य सत्ता पर अलग-अलग दलों की सरकारों का होना कोई अस्वाभाविक स्थिति नहीं है। अतः यदि केंद्र में एक दल की सरकार है तो राज्य में दूसरे दल की सरकार हो सकती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति प्रशासन थोपना गलत होगा।

(ङ) सांप्रदायिक दंगों में 200 से ज़्यादा लोग मारे गए यह घटना सरकार की संवैधानिक विफलताओं को दर्शाती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जाना न्यायसंगत माना जाएगा।

(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इन्कार कर दिया। इस स्थिति में भी राष्ट्रपति शासन उचित नहीं होगा।

प्रश्न 10.
ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
उत्तर:
भारत में संघात्मक शासन है और संघ और इकाइयों के अधिकार क्षेत्र संविधान द्वारा बँटे हुए हैं, परंतु केंद्र को अधिक शक्ति प्रदान की गई है। राज्यों में अधिक स्वायत्तता की माँग सन् 1960 के बाद आरंभ हुई। स्वायत्तता का अर्थ स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है कि राज्यों को उनके मामलों में केंद्रीय सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

राज्यों को शक्तियाँ संविधान द्वारा उपलब्ध कराई गई हैं और उन्हें उनका प्रयोग करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। राज्यों को जन-कल्याण की योजनाएँ बनाने एवं उन्हें लागू करने की शक्तियाँ बिना किसी रोक-टोक के प्राप्त होनी चाहिएँ। यही नहीं वित्तीय क्षेत्र में भी राज्य स्वतंत्र होने चाहिएँ। तभी राज्य की स्वायत्तता को लागू किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, केंद्र का राजनीतिक व प्रशासनिक मामलों में न्यूनतम हस्तक्षेप होना चाहिए।

केंद्र का कार्य-क्षेत्र सीमित होना चाहिए। उसे केवल विदेश संबंध, रक्षा, मुद्रा और जन-संचार के विषयों के मामलों में शक्तियाँ प्रदान की जानी चाहिएँ। कराधान के क्षेत्र में भी उनकी शक्तियाँ सीमित होनी चाहिएँ। उन्हें केवल उतने ही कर लगाने का अधिकार दिया जाना चाहिए, जितने उन्हें उपर्युक्त कार्य सम्पन्न करने के लिए आवश्यक हों। राज्यों को कराधान के इतने अधिकार प्रदान किए जाने चाहिएँ, जिससे कि वे साधनों का अभाव महसूस न करें।

प्रश्न 11.
क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिएँ? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराज़गी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद जब कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होंगे तो अन्य राज्यों में नाराजगी या असन्तोष पनपना स्वाभाविक है। इसका एक उदाहरण यह है-उत्तराखंड राज्य का दर्जा पाने से पूर्व उत्तर प्रदेश का भाग था और उत्तर प्रदेश के लोग जहाँ चाहे रह सकते थे।

परंतु जब उत्तराखंड को विशेष दर्जा प्राप्त हो गया तो उत्तराखंड के बाहर के लोग वहाँ अचल संपत्ति नहीं खरीद सकते थे जबकि उत्तराखंड के लोग उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहाँ चाहे संपत्ति खरीद सकते हैं। स्थायी रूप से मूल निवासी का दर्जा उत्तराखंड अथवा अन्य किसी विशेष दर्जा प्राप्त अर्थात् विशेष प्रावधानों द्वारा शासित राज्यों में किसी बाहरी राज्य के व्यक्ति को नहीं मिल सकता। अर्थात्न होती है।

संविधान द्वारा संघ एवं राज्यों में शक्तियों का विभाजन समान रूप से किया गया है। परंतु कुछ राज्यों की ऐतिहासिक, सामाजिक तथा जनसंख्या संबंधी अवस्थाओं को देखते हुए विशेष प्रावधान किया गया है। अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड आदि राज्य ऐसे हैं जहाँ कुछ विशेष प्रावधान लागू हैं। संघीय व्यवस्था में शक्तियों का विभाजन संघ के सभी प्रांतों में सामान रूप से होना चाहिए। यद्यपि कुछ पिछड़े एवं आदिम जातियों वाले राज्यों के लिए विशेष प्रावधानों का किया जाना भी आवश्यक था। इसीलिए संविधान में अपवादस्वरूप विशिष्ट उद्देश्यों के अंतर्गत ऐसे प्रावधान किए गए हैं।

संघवाद HBSE 11th Class Political Science Notes

→ भूमिका आधुनिक युग में प्रजातन्त्र को शासन का लोकप्रिय स्वरूप माना जाता है। प्राचीन समय में नगर-राज्य होते थे, जिनकी जनसंख्या व उनका क्षेत्र सीमित होता था।

→ वर्तमान काल में राज्यों की जनसंख्या और कार्य-क्षेत्र इतना बढ़ गया है कि उन्हें राष्ट्रीय-राज्य (National State) कहा जाने लगा है। इन राष्ट्रीय-राज्यों का प्रशासन एक-स्थान से चलाना कठिन कार्य है।

→ इसलिए शासन सुविधा की दृष्टि से राज्य को कई इकाइयों (Units) में बाँट दिया जाता है।

→इन इकाइयों में अलग-अलग शासन-व्यवस्था स्थापित कर दी जाती है तथा उन्हें स्थानीय मामलों का प्रबन्ध करने की शक्तियाँ या अधिकार प्रदान कर दिए जाते हैं और राष्ट्रीय स्तर के मामलों का प्रबन्ध केंद्रीय या राष्ट्रीय सरकार को सौंप दिया जाता है।

→ अतः इन इकाइयों की सरकारों व राष्ट्रीय सरकार में क्या संबंध स्थापित होते हैं, इस आधार पर शासन-व्यवस्था को दो भागों एकात्मक व संघात्मक (Unitary and Federal) में बाँटा जाता है।

→ इस अध्याय में संघात्मक या संघवाद व्यवस्था का विवेचन करते हुए इसके अर्थ, लक्षण या आवश्यक तत्त्व, भारतीय संघवाद का स्वरूप एवं संघात्मक स्वरूप में केंद्र को शक्तिशाली बनाने के कारणों तथा संघ एवं राज्यों के बीच संबंधों तथा दोनों के बीच पाए जाने वाले तनाव के कारणों के परिणामस्वरूप राज्यों के बीच उठने वाली स्वायत्तता की माँग से जुड़े विभिन्न प्रश्नों पर भी प्रकाश डाला जाएगा।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

HBSE 11th Class Political Science न्यायपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें।
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है।।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके निम्नलिखित हैं
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जा सकता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्वपूर्ण तरीके हैं। लंबी कार्यावधि उसकी स्वतंत्रता में सहायक है।
(ग) प्रश्न के अन्तर्गत दिए गए बिंदुओं में से (ग) बेमेल है जो निम्नलिखित है-उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का कोई दखल नहीं है। इस प्रकार न्यायपालिका को व्यवस्थापिका से स्वतंत्र रखा गया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र न्यायपालिका का होना बहुत आवश्यक है। भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान दिए गए हैं। परंतु उसका यह अर्थ नहीं है कि वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। हमने संविधान में सरकार के तीनों अंगों में सन्तुलन एवं नियंत्रण स्थापित किया है।

हमने संविधान में न्यायपालिका को भी विधायिका प्रति उत्तरदायी बनाया है। यदि न्यायपालिका अपनी सीमा से बाहर जाकर कोई कार्य करती है तो विधायिका के विधि अथवा संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका के कार्य को निरस्त कर सकती है। अतः न्यायपालिका की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि यह बिना किसी राजनीति, आर्थिक, सामाजिक हस्तक्षेप के प्रत्येक विवाद पर निष्पक्ष एवं स्वतंत्र होकर अपना निर्णय देने का कार्य करे।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने तथा उसे विधानपालिका व कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रखने के लिए निम्नलिखित प्रावधानों की व्यवस्था की गई है

1. कार्य-अवधि की सुरक्षा- संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को ‘पद की सुरक्षा’ (Security) प्रदान की गई है। सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं। उस अवधि के समाप्त होने से पहले इन्हें केवल अयोग्य तथा दुराचार आदि के आधार पर केवल महाभियोग की विधि द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।

2. पर्याप्त वेतन-न्यायाधीशों को स्वतंत्र बनाने के लिए भारतीय संविधान में उनके लिए पर्याप्त वेतन तथा भत्ते की व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपए तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। इस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपए मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। यह राशि इतनी पर्याप्त है जिससे कि वे अपने खर्च को ठीक प्रकार से चला सकते हैं। न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) में से दिए जाते हैं। उनमें केवल उस समय कमी की जा सकती है जब राष्ट्रपति देश में वित्तीय संकट (Financial Emergency) की घोषणा कर दे।

3. उच्च योग्यताएँ न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि केवल योग्य तथा कानुन को ठीक प्रकार से जानने वाले व्यक्ति ही न्यायाधीशों के पद पर नियुक्त होंगे। हमारे संविधान में भी सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के … न्यायाधीशों के पद पर नियुक्त होने के लिए निश्चित योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं।

4. शपथ ग्रहण-संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि अपने पद को ग्रहण करते समय न्यायाधीशों को एक शपथ लेनी पड़ती है कि वे बिना किसी दबाव या ‘पक्षपात’ या ‘द्वेष’ के न्याय करेंगे तथा देश के संविधान’ तथा ‘कानून’ का पालन करेंगे। इस व्यवस्था में उनसे यह आशा की जाती है कि वे न्याय करते समय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरतेंगे और निष्पक्ष होकर कार्य करेंगे।

5. न्यायाधीशों की नियुक्ति इसलिए हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति यद्यपि राष्ट्रपति करता है तो भी इस कार्य में वह मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों से परामर्श लेता है। ऐसी स्थिति में दलीय आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं होती। उस पर किसी अधिकारी का दबाव नहीं रहता और वह अपने कर्त्तव्य का उचित रूप से पालन करने में समर्थ होता है।

6. वकालत पर प्रतिबन्ध-न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि सेवा-निवृत्त होने के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश देश के किसी भी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश केवल सर्वोच्च न्यायालय या अन्य उच्च न्यायालयों (उस उच्च न्यायालय को छोड़कर जिसमें उसने न्यायाधीश के पद पर काम किया है।) में ही वकालत कर सकते हैं।

प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें।
(क) मामला किस बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कंपनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएँगे?

सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपए देने को कहा-निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च 2005 मुंबई – सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुंबई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपए देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी।

अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है। दहानु मुंबई से 150 कि०मी० दूर है। एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थ व्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई।

कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रण का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपए की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर:
उपर्युक्त रिपोर्ट पढ़ने के पश्चात् ज्ञात होता है कि-
(क) यह रिलायंस ताप-ऊर्जा संयंत्र द्वारा उत्पन्न प्रदूषण से सम्बन्धित मामला है,
(ख) इस मामले में किसान लाभार्थी है,
(ग) इस मामले में किसान ही फरयादी है,
(घ) इस विवाद पर कंपनी की तरफ से उक्त क्षेत्र में ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले लाभों का तर्क दिया जाएगा,
(ङ) जबकि किसानों की ओर से यह तर्क दिया जाएगा कि इस ताप-ऊर्जा संयंत्र से न केवल चीकू की फसल खराब हुई अपितु मत्स्य पालन का धंधा भी चौपट हो गया जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र के लोग भी बेरोजगार हो गए।

प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है।
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से संबद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से संबंधित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।
सीएनजी – मुद्दे पर केंद्र और दिल्ली सरकार एक साथ स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2001 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे।

दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हई है। दिल्ली और केंद्र की सरकार ने परी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों ने सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेंगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केंद्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिंदुओं को उठाया जाएगा। केंद्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्री राम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केंद्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ० आरए मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असंभव है। डॉ० मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छः माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया- ‘सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने – सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इन्कार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला।

श्री राम नाईक का कहना था कि केंद्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाईपलाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर:
दी गई रिपोर्ट को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि उक्त समस्या पर केंद्र और राज्य स्तर की सरकारें सक्रिय दिखाई देती हैं केन्द्र सरकार और राज्य स्तर (दिल्ली) की सरकार अर्थात् दिल्ली की सरकारें सर्वोच्च न्यायालय को सीएनजी विवाद पर संयुक्त रूप से अपना पक्ष प्रस्तुत करने को सहमत हैं।

(क) प्रदूषण से बचने के लिए यह निश्चित किया गया कि राजधानी में सरकारी तथा निजी दोनों प्रकार की बसों में सीएनजी के प्रयोग से छूट देने पर रोक लगाई जाएगी, परंतु टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए न्यायालय ने कभी सीएनजी के लिए दबाव नहीं डाला।

(ख) राजधानी में प्रदूषण हटाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि केवल सीएनजी वाली बसें ही महानगर में चलाई जाएँ। साथ-ही-साथ यह भी किया गया कि निजी वाहनों के मालिक को सीएनजी के प्रयोग के लिए प्रेरित किया जाएगा। इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार दोनों को अलग-अलग शपथ पत्र दाखिल करने को कहा गया।

(ग) प्रस्तुत रिपोर्ट में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाने से संबंधित है। सभी व्यावसायिक वाहन जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं, उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाए। साथ ही सरकार यह भी चाहती थी कि समय-सीमा बढ़ाई जाए, क्योंकि 10,000 बसों को एक निश्चित अवधि में सीएनजी में परिवर्तित करना आसान काम नहीं है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं? सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे अपना फैसला और उसका का आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर:
उक्त उदाहरण और भारत की न्यायपालिका में बहुत असमानता है। भारत में न्यायिक निर्णय एक अभिलेख बन जाता है। सर्वोच्च न्यायालय अथवा प्रसिद्ध न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं। भारत के न्यायाधीश संविधान के अनुसार अपने विवेक से, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होकर निर्णय देते हैं। आवश्यकता पड़ने पर कानून अथवा संविधान में संशोधन करते हैं। इक्वाडोर की अदालत में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ की कार्य-प्रणाली भारत से बिल्कुल विपरीत है। वहाँ अदालत बिना कोई कारण बताए एक दिन एक तरह से तो दूसरे दिन दूसरी तरह से निर्णय देती है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार मसलन – मूल, अपीली और परामर्शकारी – से इनका मिलान कीजिए।
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान – अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के संबंध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल. विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बांध स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर:

कयनक्षेत्राधिकार
(क) सरकार जानना …………………. पारित कर सकती है?परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार
(ख) कावेरी नदी के जल वियाद …………………. लेना चाहती है।मूल क्षेत्राधिकार
(ग) बाँध स्थल से हटाए जाने के …………………. ठुकरा दिया।अपीलीय क्षेत्राधिकार

प्रश्न 8.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन न्याय पाने का अधिकार उसी व्यक्ति को होता है जिसके मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण होता है, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 32 को बहुत व्यापक कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि न्यायिक प्रक्रिया लोकहित में सरल और सुलभ हो गई और दलित, निर्धन, पिछड़े, निरक्षर एवं अक्षम लोगों को शीघ्र न्याय मिलने लगा।

इस प्रकार न्यायिक सक्रियता का इतिहास जन-हित के लिए की गई मुकद्दमेबाजी से जुड़ा है। इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत 1978 ई० में विख्यात ठग चार्ल्स शोभराज के उच्चतम न्यायालय को लिखे उस पत्र से हुई जिसमें उसने यह शिकायत की थी कि उसे व उसके साथियों को जेल-खाने में भयंकर यन्त्रणा से गुजरना पड़ रहा है।

न्यायालय ने उस पत्र के आधार पर जेल-खानों की दशा की जाँच का आदेश दिया। बाद में सामाजिक न्यायिक संगठनों द्वारा उठाए गए मुद्दों को लेकर और भी बहुत-से मा की जाँच-पड़ताल की गई। उन दिनों उच्चतम न्यायालय के दो प्रमुख न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर और जस्टिस भगवती) ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि जन-हित के मामलों में यह नहीं देखा जाएगा कि दुःख या कष्ट सहने वाला व्यक्ति स्वयं न्यायालय के द्वार पर दस्तक देता है या उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति या संगठन अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं।

अभिप्राय यह है कि कोई भी जनहितैषी व्यक्ति या संस्था जन-हित के मामले को न्यायालय में उठा सकते हैं। गरीब, अनपढ़ और सताए गए लोगों की एवज में दूसरे व्यक्ति भी न्याय माँगने का अधिकार रखते हैं। इतना ही नहीं जागरूक नागरिकों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे देश के अभागे लोगों के मामलों को न्यायालय में उठाने के लिए तैयार हों। इससे गरीबों और आरक्षित लोगों को अपने अधिकारों को लागू करवाने के लिए न्यायालयों में पहुंच पाने के अवसर मिलेंगे। इस तरह जनहित याचिका की स्वीकृति है। न्याय व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक बनी और गरीबों के लिए न्याय प्राप्ति के द्वार खुले।

प्रश्न 9.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
न्यायपालिका की न्यायिक सक्रियता के कारण कार्यपालिका और न्यायपालिका में न केवल विरोध पनपा है बल्कि इसको लेकर कार्यपालिका और विधायिका में भय भी पैदा हुआ है। संविधान के अनुसार न्यायपालिका एवं विधायिका द्वारा निर्मित कानूनों का न्यायिक पुनर्वालोकन कर सकती है और यह देख सकता हैं कि विधायिका द्वारा निर्मित कानून संविधान के अनुकूल है या नहीं। कानून के संविधान के प्रतिकूल पाए जाने पर न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

जैसे संसद द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन से सम्बन्धी संवैधानिक संशोधन को न्यायपालिका ने असंवैधानिक घोषित किया। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका निश्चित रूप से असहज की स्थिति में भी आ गई और इसे सरकार ने बढ़ती न्यायिक सक्रियता की चिन्ता जाहिर की। अतः स्पष्ट है कि न्यायपालिका की ऐसी शक्ति से दोनों अंगों के बीच विरोध पनपा है। इसी प्रकार, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में अपनी शक्तियों का अतिक्रमण करने वाली कार्यपालिका, न्यायपालिका द्वारा नियंत्रित की जा सकती है।

हाँ, दूसरी तरफ जब न्यायपालिका अपने सीमा क्षेत्र का अतिक्रमण करती है, तो विधायिका, विधि या संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका के कार्य का परिसीमन कर सकती है। संविधान में तीनों अंगों में नियंत्रण एवं संतुलन कायम किया जाता है। अतः सरकार के तीनों अंगों को मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए। जिससे टकराव की स्थिति पैदा ही न हो; जैसे दिल्ली – में सीएनजी बसों का चालन, वायु प्रदूषण, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच, चुनाव सुधार जैसे मुद्दों पर।

प्रश्न 10.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर:
न्यायिक सक्रियता ने मानवीय अधिकारों की रक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। न्यायिक क्रियाशीलता के अभाव में गैर-कानूनी, नजरबन्दी, बच्चों के शोषण के मामले, स्रियों के शोषण के मामले, स्त्रियों के अनैतिक व्यापार के मामले आदि जनता के सामने नहीं आते। यद्यपि भारतीय संविधान में लोगों को अपने अधिकारों की रक्षा का अधिकार प्राप्त है। वे अधिकारों की अवहेलना की स्थिति में न्यायपालिका का दरवाजा खटखटा सकते हैं। परन्तु बहुत कम लोग ऐसा करते हैं।

क्योंकि उनके पास इतने साधन नहीं होते। धन के अभाव तथा जानकारी के अभाव में लोगों के अधिकारों का लगातार हनन होता रहता है। लेकिन न्यायिक क्रियाशीलता ने सार्वजनिक हित की मुकद्दमेबाजी को जन्म दिया है जिसके द्वारा आम जनता के अधिकारों या मानवाधिकारों की रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मान्यता पर बल देता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन का अर्थ केवल भौतिक अस्तित्व की सुरक्षा मात्र नहीं है बल्कि उसकी समस्त नैसर्गिक शक्तियाँ भी हैं। मानव प्रतिष्ठा के साथ-साथ जीवनयापन के अधिकार को इस मौलिक अधिकार के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।

न्यायपालिका HBSE 11th Class Political Science Notes

→ भूमिका न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य कार्य विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानूनों की व्याख्या करना तथा उन्हें तोड़ने वालों को दण्ड देना है।

→ एक राज्य में विधानमण्डल तथा कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी भी अच्छी तथा श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय-व्यवस्था दोषपूर्ण है अर्थात् निष्पक्ष तथा स्वतंत्र नहीं है, तो नागरिकों का जीवन सुखी नहीं रह सकता।

→ न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है और उन्हें सरकार के अत्याचारों से बचाती है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका का महत्त्व और अधिक होता है, क्योंकि न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है और केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच उत्पन्न होने वाले झगड़ों का निपटारा करती है।

→ लॉर्ड ब्राईस (Lord Bryce) ने ठीक ही लिखा है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जानने के लिए उसकी न्याय-व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और वस्तु का नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र तथा निष्पक्ष न्याय व्यवस्था पर निर्भर करता है।”

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

HBSE 11th Class Political Science विधायिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रिगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
आलोक का उक्त विचार उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल चुनने से शासन का संचालन जनहित की अपेक्षा स्वहित के लिए होगा। शासक वर्ग निरंकुश हो जाएगा। इसलिए विधायिका का होना अत्यंत जरूरी है। विधायिका ही कार्यपालिका को नियंत्रित करती है और उसके अनुचित एवं मनमाने कार्यों की आलोचना करती है। विधायिका के ऐसे नियन्त्रण से ही कार्यपालिका जन-कल्याण के कार्य करने के लिए बाध्य होती है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। इन तर्कों को पढ़िए और इनसे अपनी सहमति-असहमति के कारण बताइए।
(क) नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर:
(क) मैं नेहा के तर्क पर असहमति व्यक्त करता हूँ क्योंकि नेहा के अनुसार द्वि-सदनीय व्यवस्था से कोई उद्देश्य नहीं सधता, जबकि ऐसा नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए विश्व में केवल सभ्यवादी देशों को छोड़कर सभी जगह द्वि-सदनीय विधानमंडल ही पाया जाता है। भारत में द्वि-सदनीय विधानमंडल की व्यवस्था को अपनाया गया है जिसके द्वारा दूसरा सदन प्रथम सदन के मनमाने निर्णय लेने पर अंकुश लगाता है वहाँ निर्विवाद बिलों पर पहले विचार-विमर्श कर प्रथम सदन के समय को भी बचाता है। अतः द्वि-सदनीय प्रणाली अपने उद्देश्य में सफल हो जाती है।

(ख) मैं शमा के तर्क पर सहमति व्यक्त करते हुए यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि दूसरे सदन में मनोनयन की प्रणाली सही है जैसे कि भारत में ऐसी व्यवस्था है। राष्ट्रपति उन 12 सदस्यों को राज्यसभा में मनोनीत करते हैं, जिन्हें कला, विज्ञान, साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त होती है। ये मनोनीत सदस्य विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञ होने के कारण संसद में विशेष क्षेत्रों सम्बन्धी नीति-निर्माण करवाने में अपने-अपने अनुभवों एवं ज्ञान के माध्यम से विशेष योगदान दे सकते हैं।

(ग) त्रिदेव के अनुसार संघीय शासन में ही द्वितीय सदन की आवश्यकता होती है अन्यथा यह निरर्थक है। यह तर्क उचित प्रतीत होता है। साधारणतः संघीय व्यवस्था वाले राज्यों में द्वितीय सदन संघ की इकाइयों (प्रदेशों) का प्रतिनिधित्व करता है। यद्यपि गैर-संघात्मक देशों में भी द्वितीय सदन पाया जाता है। परन्तु यह प्रथम सदन की अपेक्षा कमजोर होता है।

यह जनहित के लिए कोई भी कार्य नहीं करता। हालाँकि कानून निर्माण में इसकी भी भूमिका होती है। कोई भी विधेयक इसकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। परन्तु उस विधेयक पर इसका निर्णय अंतिम नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त धन विधेयक पर इसकी स्वीकृति औपचारिक मात्र ही होती है। साधारण विधेयक को यह सदन 6 माह से अधिक नहीं रोक सकता है। इस प्रकार गैर-संघात्मक राज्यों में द्वितीय अनावश्यक कार्य में विलम्ब एवं शक्तिहीन प्रतीत होता है।

प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर:
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में इसलिए अधिक कारगर ढंग से नियंत्रित करती है, क्योंकि कार्यपालिका संघीय विधायिका के निम्न सदन लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है और लोकसभा में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने के कारण लोकसभा को जनता के प्रति भी उत्तरदायी माना जाता है। इसके अतिरिक्त लोकसभा में बहुमत दल का नेता प्रधानमंत्री होता है। प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति करता है।

मंत्रिपरिषद् में भी लोकसभा के ही सदस्य होते हैं। परन्तु, फिर भी मंत्रिपरिषद् को अपने प्रत्येक कार्य एवं निर्णय के लिए लोकसभा को विश्वास में लेना आवश्यक है। यदि लोकसभा मंत्रिपरिषद् के किसी निर्णय के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव बहुमत से पास कर दे तो उसे अपना त्यागपत्र देना पड़ता है जबकि राज्यसभा को ऐसा अविश्वास प्रस्ताव पारित करने का अधिकार नहीं होता। इसलिए यह कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में अधिक आसानी से नियंत्रित कर लेता है।

प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर:
हाँ, निश्चित रूप से मैं लोकसभा को ऐसा मंच मानता हूँ जहाँ जनभावनाओं का सम्मान किया जाता है और उसकी । इच्छा के अनुरूप कार्य किया जाता है, क्योंकि लोकसभा वास्तविक रूप से जनता की ही सभा है। जनता यहाँ अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके भेजती है। ये प्रतिनिधि जन-अभिव्यक्ति के साधन होते हैं अर्थात् यह न केवल कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है बल्कि जन-सामान्य के कल्याण एवं विकास के लिए भी सदैव तत्पर रहती है। इस तरह लोकसभा को एक विचारशील मंच भी कहा जाता है, जिसमें जनहितों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर विचार-विमर्श कर नीतियों का निर्माण किया जाता है।

प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज़्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज़्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दंडित कर सकें।
उत्तर:
(क) संसद को अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करना चाहिए। इस पर सहमति व्यक्त की जा सकती है। वर्तमान में यदि देखा जाए तो संसद की बैठकों की अवधि का कार्य दिवस निरन्तर कम होता जा रहा है। संसद की बैठकों का अधिकांश समय धरने, बहिष्कार, सदन की कार्यवाही को स्थगित करने में ही निकल जाता है, जबकि महत्त्वपूर्ण निर्णयों पर पर्याप्त विचार-विमर्श ही नहीं हो पाता और महत्त्वपूर्ण विधेयक भी बिना बहस के ही पास हो जाता है। इसलिए यदि संसद की कार्य अवधि को हम बढ़ाएंगे तो सदन में पर्याप्त संघ से जनहित के मुद्दों पर विचार-विमर्श होगा एवं कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर भी अंकुश लगेगा।

(ख) दूसरे तर्क पर सहमति व्यक्त करते हुए यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि सांसद की उपस्थिति अनिवार्य करनी चाहिए, क्योंकि जनता अपना बहुमूल्य मत देकर इन्हें देश एवं अपने हितों की रक्षा करने के लिए निर्वाचित कर संसद में भेजती है। वास्तव में जनप्रतिनिधियों की सक्रिय भागीदारी से ही उत्तरदायी शासन की स्थापना की जा सकती है।

(ग) तीसरे कथन के सन्दर्भ में यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि लोकसभा के स्पीकर को यह अधिकार होना चाहिए कि वह सदन में व्यवधान उत्पन्न करने वाले सदस्य को दंडित करे। स्पीकर का कार्य होता है कि वह सदन में शांति स्थापित करे, परंतु आजकल जिस तरह लोकसभा में सांसद अनुचित एवं असंसदीय आचरण करते हैं और सदन की कार्यव हैं, इससे संसद सत्र का बहुमूल्य समय नष्ट होता है। यदि स्पीकर को यह अधिकार देने से संसद निःसंदेह सदस्य अनुचित व्यवहार करने से डरेंगे और सदन में भी अनुशासन के साथ कार्यवाही का संचालन सम्भव हो सकेगा।।

प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्त्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अकसर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे?
उत्तर:
आरिफ के प्रश्न के उत्तर में मैं यह कह सकता हूँ कि कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। धन विधेयक को छोड़कर शेष विधेयक किसी भी सदन में पेश किए जा सकते हैं। यह एक सदन से पारित होने के उपरांत दूसरे सदन में जाता है। इस संदर्भ में स्पष्टता हेतु यह उल्लेखनीय है कि प्रत्येक सदन में किसी विधेयक को विभिन्न अवस्थाओं या चरणों से पास होना पड़ता है;

जैसे प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन, तृतीय वाचन, समिति स्तर, रिपोर्ट स्तर। इन सभी अवस्थाओं/चरणों से पास होने के बाद विधेयक अंतिम स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास जाता है। राष्ट्रपति भी संसद का अभिन्न अंग होता है जिनकी स्वीकृति मिलने पर पारित विधेयक कानून का रूप ले लेता है। इस प्रकार विधि निर्माण में संसद की भूमिका पर अंगुली उठाने का कोई औचित्य नज़र नहीं आता। वास्तव में कानून निर्माण में संसद की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है।

प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण दें।
(क) सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए।
(ख) दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री-पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर:
(क) सांसद विधायकों को किसी दल के चुनाव चिह्न पर या निर्दलीय निर्वाचित होने पर अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी छूट देने से राजनीतिक अस्थिरता बनी रहेगी। जिन सांसदों या विधायकों को जिस दल में अपना स्वार्थ सिद्ध होता या भविष्य सुनहरा होता नज़र आएगा, वे उसी दल में शामिल हो जाएँगे, जैसा कि आजकल हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप न केवल राजनीतिक मूल्यों का ह्रास होगा बल्कि अस्थाई एवं दुर्बल सरकार का निर्माण होगा। ऐसी स्थिति निश्चित ही लोकसभा के प्रति एक प्रश्न चिह्न लगाएगी।

(ख) दलबदल विरोधी कानून के अस्तित्व में आने के बाद भी इस दलबदल की राजनीति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। है क्योंकि अब दलबदल सामूहिक रूप से बढ़ा है। हाँ, इससे नेताओं का दबदबा अवश्य बढ़ा है। इन्हें अपने नेता द्वारा जारी किए गए आदेश को मानना पड़ता है अन्यथा दलबदल कानून के अंतर्गत उनकी सदस्यता समाप्ति की कार्यवाही की जा सकती है।

(ग) तीसरे कथन से मैं सबसे अधिक सहमत हूँ, क्योंकि इस कथन के अनुसार दलबदल करने पर किसी सांसद या विधायक को मंत्री-पद के आयोग्य घोषित करने से इस प्रथा पर कुछ हद तक रोक लगेगी। जैसा कि प्रायः देखने में आता है कि अधिकतर दलबदल सरकार बनाने या सरकार में शामिल होने के लिए होते हैं। दलबदल की प्रक्रिया पूरी करने हेतु सांसद या विधायक को मंत्री-पद का प्रलोभन दिया जाता है। अतः इस दलबदल की बुराई को रोकने के लिए इस प्रकार का प्रावधान प्रभावी सिद्ध हो सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज़्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी है, धराशायी हुई है। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन-सा तर्क देंगे?
उत्तर:
भारत में पिछले कुछ वर्षों में संसद में जिस तरह अप्रिय घटनाएँ एवं असंसदीय व्यवहार हो रहा है, उससे तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि संसद का बहुमूल्य समय नष्ट हो रहा है। इसलिए इस बात में कोई दोराय नहीं है कि हाल ही के दिनों में संसद की कार्यकुशलता एवं क्षमता पर प्रश्न-चिह्न लगा है, यद्यपि ऐसा कुछ सदस्य ही करते हैं। उस संदर्भ में डॉली का तर्क उचित नहीं है। संसद के अधिकांश सदस्य सदन में उचित रूप से कार्य करते हैं। सदन तो वाद-विवाद का मंच है। यहाँ सभी सदस्य अपने विचारों एवं तर्कों को रखते हैं, जिन पर बहस होती है। संसद देश की कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था है। इसी कार्य से संसद की गरिमा बनी रहेगी और देश का विकास भी होगा।

प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(घ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है – समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि-मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर:
किसी विधेयक को कानून बनाने के लिए निम्नलिखित क्रम से विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है

(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।

(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। इस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अति आवश्यक है। कोई विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद ही कानून बनता है। परंतु राष्ट्रपति चाहे तो इसे पुनः विचार के लिए वापिस कर स लेकिन यदि संसद पुनः उसे पारित कर दे तो राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।

(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है। (ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है। और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।

(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है-समिति उसमें कुछ फेरबदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।

(छ) संबद्ध मंत्री विधयेक की ज़रूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।

(ज) विधि-मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।

प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
संसदीय समिति व्यवस्थापिका के समस्त कार्यों का निरीक्षण करने के कारण एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। संसदीय समिति का गठन विधायी कार्यों को उचित ढंग से निपटाने के लिए ही किया गया है, क्योंकि संसद केवल अधिवेशन के दौरान ही बैठती है। इसलिए उसके पास समय बहुत कम जबकि काम बहुत अधिक होता है। अतः ऐसी स्थिति में संसदीय समितियाँ विभिन्न मामलों की जाँच एवं निरीक्षण का कार्य करती हैं। ये समितियाँ विभिन्न मंत्रालयों के अनुदान माँगों का अध्ययन करती हैं।

संसद के दोनों सदनों में व्यवस्था कुछ मामलों में छोड़कर एक-जैसी है। ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं तदर्थ और स्थायी। इसमें स्थायी समितियाँ विभिन्न विभागों के कार्यों, उनके बजट, व्यय तथा संबंधित विधेयक की देखरेख करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विधायी कार्यों पर इन समितियों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। संसदीय समितियों द्वारा की जाने वाली जाँच और आलोचना के भय से अधिकारी अनुचित निर्णय लेने से घबराते हैं एवं सचेत भी रहते हैं। सरकार द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया जाता है और इसके सुझावों को सरकार स्वीकार भी करती है।

विधायिका HBSE 11th Class Political Science Notes

→ साधारण शब्दों में, सरकार उस व्यवस्था का नाम है जो शासन चलाती है। राजतन्त्र में कानून बनाने व उन्हें लागू करने की शक्ति राजा या सम्राट के पास होती है।

→ परन्तु आधुनिक लोकतन्त्र के युग में सरकार का निर्माण जनता के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। प्रजातन्त्र में सरकार के तीन अंग होते हैं कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका। तीनों अंगों में विधानपालिका अधिक महत्त्वपूर्ण है।

→ विधानपालिका का मुख्य कार्य कानूनों का निर्माण करना होता है। कार्यपालिका विधानपालिका द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करने का कार्य करती है। अतः विधानपालिका सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है।

→ वह जनता की इच्छाओं का दर्पण है। इस अध्याय में अध्ययन का विषय रहेगा कि निर्वाचित विधायिकाएँ कैसे काम करती हैं और प्रजातान्त्रिक सरकार बनाए रखने में कैसे सहायता करती हैं? भारत में संसद और राज्यों की विधायिकाओं की संरचना और कार्यों तथा लोकतान्त्रिक शासन में उनके महत्त्व का अध्ययन करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

HBSE 11th Class Political Science कार्यपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है
(क) जहाँ संसद हो वहाँ कार्यपालिका का होना
(ख) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका
(ग) जहाँ संसद कार्यपालिका के रूप में काम करती है
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो
उत्तर:
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों?
अमित – संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना है।
शमा – राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमंत्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए।
राजेश – हमें राष्ट्रपति की ज़रूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधानमंत्री बने।
उत्तर:
उक्त तीनों संवादों से पता चलता है कि संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति की स्थिति पर चर्चा की गई है। प्रथम संवाद के अनुसार राष्ट्रपति को रबर स्टांप बताया गया है। उक्त कथन को हमें संसदीय शासन प्रणाली के अनुरूप देखना चाहिए जिसमें राष्ट्रपति की भूमिका संवैधानिक मुखिया के रूप में निश्चित की गई है। इसलिए संविधान में प्रदत अपनी शक्तियों का प्रयोग वह वास्तविक मुखिया प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही करता है। इसी कारण उसकी स्थिति संदेहात्मक हो जाती है। लेकिन उसका पद गौरव और गरिमा का पद है।

दूसरा कथन प्रधानमंत्री की नियुक्ति पदच्युति पर राष्ट्रपति के अधिकारों की स्थिति के सम्बन्ध में है। इस कथन के सम्बन्ध में मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति देश के राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। इस नियक्ति के संबंध में वस्ततः राष्ट्रपति के अधिकार सीमित है क्योंकि संसदीय प्रणाली के सिद्धांत के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा में बहमत दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।

यद्यपि कुछ विशेष परिस्थिति में राष्ट्रपति को स्वैच्छिक शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है; जैसे यदि लोकसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार संसद के किसी भी सदन के सदस्य को जिस पर उन्हें लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने का विश्वास हो उसे प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है। यद्यपि उन्हें एक ‘निश्चित’ अवधि में बहुमत सिद्ध करने के लिए कहा जाता है। इसी क्रम यह कहना कि राष्ट्रपति को विशेष परिस्थिति में प्रधानमंत्री को हटाने का अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए ताकि वह परिस्थिति के अनुसार उसका प्रयोग कर सके।

यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि प्रधानमंत्री को लोकसभा के प्रति उत्तरदायी ठहराया गया है। ऐसे में विशेष परिस्थिति में भी यह अधिकार जनता के प्रतिनिधियों को ही होना चाहिए न कि राष्ट्रपति को हटाने का अधिकार दिया जाए। तीसरे संवाद के अनुसार राष्ट्रपति की उपस्थिति व्यर्थ बताई गई है। परंतु इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि आज जिस तरह छोटे-छोटे दल उभर रहे हैं और कई बार किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

राष्ट्रपति अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए संसद के किसी भी सदन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकता है। इसके अतिरिक्त हमने संविधान में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया है जिसमें दो प्रकार की कार्यपालिका-संवैधानिक एवं वास्तविक होनी अनिवार्य है। प्रधानमंत्री हमारी वास्तविक कार्यपालिका अध्यक्ष है तो राष्ट्रपति संवैधानिक कार्यपालिका की पूर्ति करता है। इसलिए हम राष्ट्रपति के पद को समाप्त नहीं कर सकते।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित को सुमेलित करें
(क) भारतीय विदेश सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं ओर।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केंद्रीय सेवाएँ भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
उत्तर:
(क) भारतीय विदेश सेवा – भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा – जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ – जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है। इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केंद्रीय सेवाएँ – केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं ओर।

प्रश्न 4.
उस मंत्रालय की पहचान करें जिसने निम्नलिखित समाचार को जारी किया होगा। यह मंत्रालय प्रदेश की सरकार का है या केंद्र सरकार का और क्यों?
(क) आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि सन् 2004-05 में तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 की नई पुस्तकें जारी करेगा।

(ख) भीड़ भरे तिरूवल्लुर-चेन्नई खंड में लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा के लिए एक नई रेल लूप लाइन बिछाई जाएगी। नई लाइन लगभग 80 कि०मी० की होगी। यह लाइन पुटुर से शुरू होगी और बंदरगाह के निकट अतिपटू तक जाएगी।

(ग) रमयमपेट मंडल में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की पुष्टि के लिए गठित तीन सदस्यीय उप-विभागीय समिति ने पाया कि इस माह आत्महत्या करने वाले दो किसान फ़सल के मारे जाने से आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे थे।
उत्तर:
(क)उक्त प्रश्न में प्रथम समाचार राज्य मंत्रिमंडल द्वारा जारी किया गया है, जो राज्य सरकार के अधीन शिक्षा मंत्रालय के कार्यक्षेत्र में आता है। ये पुस्तकें इसलिए जारी करेगा क्योंकि सन् 2004-05 में नए सत्र का आरंभ होगा जिसमें तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 में नई पुस्तकें होंगी। शिक्षा संघ एवं राज्य दोनों का विषय है।

(ख) दूसरा समाचार रेल मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है। यह कार्य केंद्र सरकार के अधीन रेल मंत्रालय द्वारा लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा को ध्यान में रखकर किया गया है। रेल सम्बन्धी विषय संघ सूची के अन्तर्गत केन्द्र सरकार के अधीन आता है।

(ग) तीसरा समाचार भी राज्य मंत्रिमण्डल के अधीन कृषि मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है। यद्यपि यह विषय समवर्ती सूची के अन्तर्गत आता है। उस आधार पर केंद्र सरकार राज्य सरकार के माध्यम से किसानों को विभिन्न प्रकार की योजनाओं के द्वारा सहायता प्रदान करने का कार्य भी कर सकती है।

प्रश्न 5.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति
(क) लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबंधन-दलों में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ग) राज्यसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।
उत्तर:
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।

प्रश्न 6.
इस चर्चा को पढ़कर बताएँ कि कौन-सा कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है
आलोक – प्रधानमंत्री राजा के समान है। वह हमारे देश में हर बात का फ़ैसला करता है।
शेखर – प्रधानमंत्री सिर्फ ‘बराबरी के सदस्यों में प्रथम’ है। उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं। सभी मंत्रियों और प्रधानमंत्री के अधिकार बराबर हैं।
बॉबी – प्रधानमंत्री को दल के सदस्यों तथा सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो नीति-निर्माण तथा मंत्रियों के चयन में प्रधानमंत्री की बहुत ज्यादा चलती है।
उत्तर:
उपर्युक्त कथनों में बॉबी द्वारा व्यक्त किया गया कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है क्योंकि देश का प्रधानमंत्री बहुमत दल का नेता होने के साथ-साथ लोकसभा का नेता भी होता है। प्रधानमंत्री की शक्तियाँ एवं अधिकार व्यापक है।

प्रश्न 7.
क्या मंत्रिमंडल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है? आप क्या सोचते हैं? अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली होने के कारण राष्ट्रपति नाममात्र का अध्यक्ष है। भारतीय संविधान के निर्माण के समय डॉ० बी० आर० अम्बेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) ने कहा था, “राष्ट्रपति की वैसी ही स्थिति है जैसी ब्रिटिश संविधान में सम्राट की है। वह राज्य का मुखिया है, कार्यपालिका का नहीं।” इसी विचार का समर्थन करते हुए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) ने कहा था,

“यद्यपि संविधान में कोई ऐसी धारा नहीं रखी गई है जिसके अनुसार राष्ट्रपति के लिए मंत्रिमंडल की सलाह मानना आवश्यक हो, परन्तु यह आशा की जाती है कि जिस संवैधानिक परम्परा के अनुसार इंग्लैण्ड में सम्राट् सदा ही अपने मंत्रियों का परामर्श मानता है, उसी प्रकार की परम्परा भारत में भी स्थापित की जाएगी और राष्ट्रपति एक सवैधानिक शासक अर्थात् मुखिया बन जाएगा।”

इसके बावजूद भी कुछ विद्वानों का यह मत था कि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है। परन्तु अब संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा राष्ट्रपति की स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया गया है। अब संविधान के अनुच्छेद 74 में संशोधन करके इसे इस प्रकार बना दिया गया है, “राष्ट्रपति को परामर्श तथा सहायता देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रि-परिषद् होगा तथा राष्ट्रपति उसके परामर्श के अनुसार कार्य करेगा।” इस प्रकार अब राष्ट्रपति केवल सवैधानिक मुखिया (Constitutional Head) है और वह मंत्रि-परिषद् के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है।

प्रश्न 8.
संसदीय-व्यवस्था में कार्यपालिका को नियंत्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत-से अधिकार दिए हैं। कार्यपालिका को नियंत्रित करना इतना जरूरी क्यों है? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार देश में संसदीय शासन की व्यवस्था की गई है। संसदीय शासन व्यवस्था विशेषतः विधानमंडल एवं कार्यपालिका के घनिष्ठ सम्बन्धों पर आधारित होती है। इन्हीं सम्बन्धों के आधार पर ब्रिटेन की तरह भारत में भी मंत्रिमंडल का निर्माण संसद में से किया जाता है। संसद के निम्न सदन लोकसभा में जिस राजनीतिक दल अथवा दलीय गठबन्धन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो जाता है उस दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है और फिर प्रधानमंत्री के परामर्श के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति की जाती है।

इसके साथ-साथ विधानमंडल के प्रति मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय शासन-प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 में कहा गया है, “मंत्रि-परिषद् सामूहिक रूप में लोकसभा के सामने उत्तरदायी है।” इसका अर्थ यह है कि मंत्रिमंडल जो भी निर्णय संसद तथा देश के सामने रखता है प्रत्येक मंत्री उसके लिए उत्तरदायी होता है। मंत्रिमंडल तब तक ही कार्य करता है जब तक वह विधायिका के निम्न सदन लोकसभा के प्रति पूर्णतः उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। इसके अतिरिक्त संसद के पास भी कार्यपालिका पर नियन्त्रण रहते अनेक अधिकार; जैसे अधिवेशन के दौरान प्रश्न पूछकर, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव एवं अविश्वास प्रस्ताव आदि दिए गए हैं।

ऐसा करना आवश्यक भी है, क्योंकि कार्यपालिका देश के शासन का सबसे प्रमुख अंग है। इसकी शक्ति असीमित है। इसका वास्तविक अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। चूंकि प्रधानमंत्री जनता द्वारा निर्वाचित होता है अत: वह जनता के प्रति उत्तरदायी भी होना चाहिए, जो वह लोकसभा के प्रति उत्तरदायित्व के आधार पर निभाता है।

यदि कार्यपालिका को विधायिका नियंत्रण में न रखे तो इसके निरंकुश होने की संभावना अत्यधिक हो सकती है और वह कोई भी असंवैधानिक कार्य कर सकता है। परंतु विधायिका का नियंत्रण होने से उसमें यह भय बना रहता है कि यदि ऐसा किया गया तो संसद अथवा विधायिका अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर संघीय मन्त्रि-परिषद् एवं उसके मुखिया प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर सकती है। अतः इसीलिए संसदीय शासन को उत्तरदायी शासन कहा जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि प्रशासनिक-तंत्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एजेंसियाँ बननी चाहिए जिन्हें मंत्रियों को जवाब न देना पड़े।
(क) क्या आप मानते हैं कि इसमें प्रशासन ज्यादा जन-हितैषी होगा?
(ख) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन की कार्य कुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतंत्र का अर्थ यह होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो?
उत्तर:
(क) जैसा कि सर्वविदित है कि भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है, जहाँ प्रशासनिक तंत्र जनता और सरकार के बीच एक कड़ी का काम करता है। सरकार द्वारा जनहित में बनाए गए कानून इसी तंत्र के द्वारा क्रियान्वित कर जनता तक पहुँचाए जाते हैं। दूसरी ओर यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि प्रशासनिक तंत्र अथवा नौकरशाही में अहंभाव एवं मालिक बनने की भावना होती है जिससे जनसाधारण प्रशासनिक अधिकारियों तक नहीं पहुँच पाते है तथा नौकरशाही भी आम नागरिकों की माँगों और आशाओं के प्रति संवेदनशील नहीं होती है।

इसी कारण लोकतंत्रीय ढंग से निर्वाचित सरकार का महत्त्व नौकरशाही को नियंत्रित करने एवं जन समस्याओं को प्रभावी तरीके से हल करने में बढ़ जाता है। परंतु इसका दूसरा परिणाम यह भी होता है कि इससे नौकरशाही राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बन जाती है। अत: तमाम समस्याओं के निदान के लिए यह सुझाव दिया जा सकता है कि स्वायत्त एजेंसियाँ स्थापित होनी चाहिए। इस तरह की एजेंसियाँ प्रायः सरकार अथवा राजनीतिज्ञ हस्तक्षेप से मुक्त रहती है जिससे प्रशासन के जन-हितैषी बनने की अधिक सम्भावनाएँ होगी।

(ख) स्वायत्त एजेंसियाँ स्थापित होने से प्रशासन की कार्य कुशलता अवश्य बढ़ेगी, क्योंकि राजनीतिक हस्तक्षेप से इनका कार्य बहुत प्रभावित होता है और प्रशासनिक अधिकारी कोई भी कार्य स्वतंत्र एवं निष्पक्ष वातावरण में नहीं कर पाते हैं। स्वायत्त एजेंसियों के स्थापित होने से ये अपना कार्य अधिक से अधिक कुशलता पूर्वक करने में सफल हो सकते हैं।

(ग) लोकतंत्र का अर्थ जनता द्वारा निर्वाचित हुई सरकार से होता है, जहाँ शासन का संचालन जनता की इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप हो। परंतु प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो, यह उचित नहीं है। क्योंकि प्रशासनिक तंत्र एक स्वतंत्र निकाय है। यह सरकार द्वारा बनाई गई नई नीतियों को क्रियात्मक रूप प्रदान करता है। यदि यह राजनीतिज्ञों के नियंत्रण में हो जाएगा तो पूरी व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाएगी और जनता के हितों की उपेक्षा होने लगेगी। जिससे प्रशासन का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 10.
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना चाहिए – इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखो।
उत्तर:
इस प्रश्न के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना सर्वथा अनुचित होगा, क्योंकि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश, जहाँ कि जनसंख्या ही लगभग 130 करोड़ से अधिक है और जहाँ ..कि लोकतांत्रिक व्यवस्था अभूतपूर्व है लेकिन प्रशासनिक कार्य कुशलता की दृष्टि से निम्न श्रेणी में आता हो वहाँ निर्वाचन पद्धति को आधार बनाकर नियुक्ति करने का कोई औचित्य नहीं है। इसके अतिरिक्त ऐसी पद्धति से सत्ता में बैठे भ्रष्ट नेताओं को, जो अपने-अपने क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, अपने चेहतों एवं समर्थकों को प्रशासनिक अधिकारी बनाने का मौका मिल जाएगा।

जिसके द्वारा वे प्रशासनिक मामले में ज्यादा से ज्यादा हस्तक्षेप करने लगेंगे। जिसके परिणामस्वरूप प्रशासनिक भ्रष्टाचार जाएगी। अतः ऐसा करना बिल्कुल भी सही नहीं होगा क्योंकि अपराध से ग्रस्त इस देश में अपराधी न सिर्फ खुली हवा में इन नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से घूम सकेंगे बल्कि इससे अपराध का ग्राफ भी काफी बढ़ जाएगा।

अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति एक स्वतंत्र निकाय के द्वारा परीक्षाओं के माध्यम से होने से प्रतिभागियों की विभागीय क्षमता और प्रशासनिक कार्य कुशलता को आँका जाता है। इसके साथ-साथ उनसे ये अपेक्षा भी की जाती है कि वे विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी इस विशाल देश की जनता की भावनाओं और संवेदनाओं का आदर करते हुए अपनी कार्यक्षमता का परिचय देंगे और विषम से विषम परिस्थितियों का सामना भी सफलतापूर्वक करेंगे, जो निर्वाचन आधारित प्रशासन के . द्वारा कतई संभव नहीं लगता है।

कार्यपालिका HBSE 11th Class Political Science Notes

→ सरकार राज्य का आवश्यक तत्त्व है। यह राज्य का कार्यवाहक यन्त्र है जो राज्य की इच्छा को निर्धारित, व्यक्त व क्रियान्वित करता है। सरकार के बिना राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि सरकार राज्य का मूर्त रूप है।

→ सरकार को राज्य की आत्मा कहा जा सकता है। सरकार राज्य का वह यन्त्र है जिस पर राज्य को कानून बनाने, उन्हें क्रियान्वित तथा उनकी व्याख्या करने की जिम्मेवारी होती है।

→ सरकार के तीनों अंगों में से कार्यपालिका सरकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है, जो विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करता है। वास्तव में यह वह धुरी है जिसके चारों ओर राज्य का शासन तन्त्र घूमता है।

→ विशाल अर्थों में ‘कार्यपालिका’ शब्द का प्रयोग सरकार के उन सभी अधिकारियों के लिए किया जाता है जो विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करने का कार्य करते हैं।

→ इस प्रकार राज्य के अध्यक्ष से लेकर छोटे-से-छोटे कर्मचारी तक कार्यपालिका में आ जाते हैं परन्तु राजनीतिक विज्ञान में कार्यपालिका का विशेष अर्थ है।

→ इस अध्याय में हम कार्यपालिका के अर्थ, प्रकार, कार्य तथा भारत की संसदीय व्यवस्था के अधीन संघीय एवं राज्य स्तरीय कार्यपालिका के गठन एवं इसके कार्यों का उल्लेख करते हुए नौकरशाही रूपी कार्यपालिका पर भी दृष्टिपात करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

HBSE 11th Class Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन प्रत्यक्ष लोकतंत्र के सबसे नजदीक बैठता है?
(क) परिवार की बैठक में होने वाली चर्चा
(ख) कक्षा-संचालक (क्लास-मॉनीटर) का चुनाव
(ग) किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने उम्मीदवार का चयन
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह
उत्तर:
(ख) कक्षा-संचालक (क्लास-मॉनीटर) का चुनाव

प्रश्न 2.
इनमें कौन-सा कार्य चुनाव आयोग नहीं करता?
(क) मतदाता-सूची तैयार करना
(ख) उम्मीदवारों का नामांकन
(ग) मतदान केंद्रों की स्थापना
(घ) आचार-संहिता लागू करना
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण
उत्तर:
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन-सी राज्य सभा और लोक सभा के सदस्यों के चुनाव की प्रणाली में समान है?
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।
(ख) विभिन्न प्रत्याशियों के बारे में मतदाता अपनी पसंद को वरीयता क्रम में रख सकता है।
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(घ) विजयी उम्मीदवार को आधे से अधिक मत प्राप्त होने चाहिएँ।
उत्तर:
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।

प्रश्न 4.
फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है जो
(क) सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव-क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर:
(ग) चुनाव-क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।

प्रश्न 5.
पृथक निर्वाचन-मंडल और आरक्षित चुनाव-क्षेत्र के बीच क्या अंतर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
उत्तर:
पृथक निर्वाचन-मंडल एक ऐसी व्यवस्था को कहते हैं जिसके अंतर्गत किसी जाति-विशेष के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी वर्ग के लोग मतदान कर सकते हैं। भारत में अंग्रेजों के शासन काल में 1909 के एक्ट द्वारा मुसलमानों के लिए यह व्यवस्था लागू की गई थी। जबकि दूसरी तरफ आरक्षित चुनाव-क्षेत्र का अर्थ है कि चुनाव में सीट जिस वर्ग के लिए आरक्षित है, प्रत्याशी उसी वर्ग-विशेष अथवा समुदाय का होगा परंतु मतदान का अधिकार समाज के सभी वर्गों को प्राप्त होगा।

अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल को क्यों स्वीकार नहीं किया तो इस संदर्भ में सबसे विशेष तर्क यह है कि यह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति पर आधारित थी। यह राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को चुनौती देने में सहायक सिद्ध हो रही थी। इसके अतिरिक्त यह व्यवस्था पूरे देश को जाति के आधार पर विभाजित करने वाली थी इस व्यवस्था में प्रत्याशी अपने समुदाय के हितों का ही प्रतिनिधित्व करता है।

इसके विपरीत, आरक्षित निर्वाचन व्यवस्था में प्रत्याशी समाज के सभी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है और पूरे समाज के विकास पर बल देता है। इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल व्यवस्था में व्याप्त दोषों को देखते हुए देश विभाजन के साथ ही इस व्यवस्था को ही अस्वीकार कर दिया और आरक्षित चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था करते हुए संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था को लागू किया।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदलकर, जोड़कर अथवा नये क्रम में सजाकर इसे सही करें।
(क) एक फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत से जीत वाली) प्रणाली का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर:
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता। यह कथन गलत है, क्योंकि भारत का राष्ट्रपति चुनाव आयुक्त को अपने पद से हटा सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 7.
भारत की चुनाव-प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या केवल 12 प्रतिशत तक पहुँची है। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझायेंगे?
उत्तर:
भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था को समाज के विशेष पिछड़े वर्गों को समाज के अन्य वर्गों के बराबर लाने के उद्देश्य से की गई है। संविधान के अनुसार किसी भी वर्ग को आरक्षण प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि वह वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो तथा उसे राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न प्राप्त हो। यदि उपर्युक्त सन्दर्भ में देखा जाए तो राजनीतिक क्षेत्र में संघ एवं राज्यों के स्तर पर महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है। देश की जनसंख्या के अनुपात में इनकी स्थिति बहुत खराब है।

संघीय संसद जो देश की कानून निर्मात्री संस्था है। वहाँ इतनी बड़ी जनसंख्या की उपेक्षा करना, राष्ट्र के विकास की दृष्टि से अनुचित है। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में समानता के अधिकार पर बल दिया गया है और स्त्री-पुरुष में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया गया है। इसलिए भारत में पिछले कई वर्षों से महिला संगठनों द्वारा माँग की जा रही है कि महिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्रदान किया जाए ताकि देश के कानून निर्माण में उन्हें भी भागीदार बनाया जा सके। महिला एवं पुरुषों की जब समान भागीदारी होगी तभी कोई समाज अथवा राष्ट्र पूर्ण रूप से विकसित एवं समृद्ध हो सकता है।

प्रश्न 8.
एक नये देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जतायीं। प्रत्येक कथन के बारे में बताएं कि उनके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत से जीत वाली)प्रणाली उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए कि उनका प्रतिनिधि कौन है ताकि वे उसे निजी तौर पर जिम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषाई रूप से अल्पसंख्यक छोटे-छोटे समुदाय हैं और देश भर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक-ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसंद न करते हों।
उत्तर:
उपर्युक्त कथनों में
(क) इसके लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली उचित होगी।
(ख) इसके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली उचित होगी।
(ग) इसके लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली उचित होगी।
(घ) इसके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली उचित होगी।

प्रश्न 9.
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आये। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की संभावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। आप इसमें किस पक्ष से सहमत हैं और क्यों?
उत्तर:
भारत विश्व का सबसे बड़ा एक लोकतांत्रिक देश है। इस लोकतंत्र को सफल एवं सुचारू रूप से चलाने के लिए समय-समय पर चुनाव आयोग द्वारा एक निश्चित अवधि के पश्चात् चुनाव कराने की व्यवस्था की गई है। हमारा वर्तमान चुनाव आयोग बहु-सदस्यीय है जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं। देश में चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र वातावरण में हों, यह चुनाव आयोग के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की सफलता की आवश्यकता शर्त है। चुनाव प्रणाली को पारदर्शी बनाने में मुख्य चुनाव आयुक्त की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त छः वर्ष का कार्यकाल या अधिकतम 65 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर सेवानिवृत्त हो जाते हैं।

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या सेवानिवृत्ति के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति देनी चाहिए या नहीं? ऐसी स्थिति में इस संदर्भ में ऊपर दिए गए कथनों में पहला कथन उचित एवं सही है। मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति मिलनी चाहिए, क्योंकि वह भी देश का अन्य नागरिकों की तरह एक स्वतंत्र नागरिक है। इसलिए एक साधारण नागरिक को चुनाव लड़ने के जो अधिकार संविधान द्वारा प्राप्त हैं, उन्हें भी होने चाहिएँ। यद्यपि राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ने से जनसाधारण में यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि इससे चुनाव की निष्पक्षता प्रभावित होती है, परंतु ऐसी कोई बात नहीं होती। उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता पर कोई आँच नहीं आएगी क्योंकि चुनाव लड़ने वाला मुख्य चुनाव आयुक्त अपना कार्यकाल पूरा करके ही चुनाव लड़ता है।

उसके पास एक लंबा कार्य-अनुभव तथा व्यावहारिक ज्ञान होता है। निर्वाचित होने पर संसद सदस्य के रूप में वह अपने बहुमूल्य सुझावों के द्वारा चुनाव सुधारों एवं राष्ट्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इसलिए भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति देनी चाहिए और इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न 10.
भारत का लोकतंत्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यिात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क दें।
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा द्वारा जब भारत के संविधान का निर्माण किया जा रहा था तभी इस विषय पर विवाद उत्पन्न हो गया था जिसके परिणामस्वरूप स्थिति का अवलोकन करते हुए भारत के चुनाव में ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट’ अर्थात् सर्वाधिक मत से विजय वाली प्रणाली को स्वीकार किया गया। इस प्रणाली के अन्तर्गत एक निर्वाचन-क्षेत्र में एक उम्मीदवार जिसे अन्य उम्मीदवारों की अपेक्षा सबसे अधिक मत मिलते हैं, चाहे उसे कुल मतों का एक छोटा-सा भाग ही मिले, को विजयी घोषित कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, विजय स्तम्भ (Post) चुनावी दौड़ का अन्तिम बिन्दु बचता है और जो उम्मीदवार इसे पहले पार कर लेता है, वही विजेता होता है।

पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)-इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क हैं

(1) यह प्रणाली बहुत ही सरल है, जिसे सभी मतदाता आसानी से समझ सकते हैं। एक मतदाता किसी भी दल अथवा उम्मीदवार के पक्ष में मतदान कर सकता है, जिसे वह सबसे अच्छा समझता है। इस प्रणाली पर आधारित निर्वाचन-क्षेत्रों में मतदाता जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।

(2) इस प्रणाली के अन्तर्गत सदन में किसी एक दल के पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के अवसर बढ़ जाते हैं, जिससे एक स्थायी सरकार की स्थापना करना सम्भव हो जाता है।

(3) इस प्रणाली में द्वि-दलीय प्रणाली के विकास को बल मिलता है, लेकिन भारत में अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है।
विपक्ष में तर्क (Arguments in Against)-कई विद्वानों द्वारा चुनाव की इस प्रणाली की आलोचना की जाती है। उनका कहना है कि यह प्रणाली अलोकतान्त्रिक और अनुचित है क्योंकि इसके अन्तर्गत यह आवश्यक नहीं है कि निर्वाचित व्यक्ति उस निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं का बहुमत प्राप्त करने वाला हो। उदाहरणस्वरूप, चुनाव में चार उम्मीदवार खड़े होते हैं और उन्हें मत प्राप्त हुए-
(क) एक लाख,
(ख) 80,000,
(ग) 70,000 तथा
(घ) 50,000
इस चुनाव में ‘क’ को निर्वाचित घोषित कर दिया जाएगा, जिसे केवल एक-तिहाई मतदाताओं ने अपना मत दिया है। उदाहरणस्वरूप, सन् 1984 में हुए लोकसभा चुनावों में काँग्रेस पार्टी को कुल 48.1 प्रतिशत वोट मिले, परन्तु उसने लोकसभा के 76 प्रतिशत स्थानों पर विजय प्राप्त की। इस चुनाव में भाजपा 7.4 प्रतिशत मत लेकर दूसरे स्थान पर रही, परन्तु लोकसभा की 542 सीटों में से उसे केवल 2 स्थानों पर ही विजय प्राप्त हुई।

इसके विपरीत मार्क्सवादी साम्यवादी दल को 5.8 प्रतिशत मत मिले और उसे लोकसभा में 22 स्थान प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त इस प्रणाली का एक दोष यह भी है कि यह अल्पसंख्यकों तथा छोटे और कम शक्तिशाली राजनीतिक दलों के हितों के विरुद्ध है, क्योंकि इसके अन्तर्गत, उन्हें जितने मत प्राप्त होते हैं, उस अनुपात में उन्हें स्थान (सीटें) प्राप्त नहीं होते। अत: उपर्युक्त पक्ष एवं विपक्ष के तर्कों के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि समानुपातिक प्रणाली की जटिल व्यवस्था को भारत में अपनाना कठिन है इसलिए सरलता की दृष्टि से फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली ही उपयुक्त है।

चुनाव और प्रतिनिधित्व HBSE 11th Class Political Science Notes

→ आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। लोकतन्त्र में शासनाधिकार जनता के हाथों में होता है। वास्तविक प्रभुसत्ता जनता के हाथों में होती है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन में भागीदार होती है।

→ प्राचीन समय में छोटे-छोटे नगर-राज्य होते थे जिनकी जनसंख्या बहुत कम होने के कारण सभी नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शासन में भाग लिया जाता था। धीरे-धीरे नगर-राज्यों के स्थान पर बड़े-बड़े राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हुआ जिनकी जनसंख्या अरबों तक पहुंच गई है।

→ इसके परिणामस्वरूप सभी नगारिकों के लिए प्रत्यक्ष रूप से शासन चलाने में भाग लेना सम्भव नहीं रहा और प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के स्थान पर प्रतिनिधिक लोकतन्त्र (Representative Democracy) प्रणाली का उदय हुआ।

→ इस प्रणाली में जनता शासन में अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से भाग लेती है। इस शासन-प्रणाली के दो आधार होते हैं। प्रथम, मताधिकार जिसके आधार पर जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है।

→ जिन व्यक्तियों को मतदान करने का अधिकार होता है, उन्हें मतदाता (Voter) कहते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने की विधि को चुनाव अथवा निर्वाचन-व्यवस्था कहते हैं।

→ मतदान करने की व्यवस्था को निर्वाचन-व्यवस्था (Election System) कहा जाता है। वोट किसे दिया जाए और इसका प्रयोग किस प्रकार से किया जाए, यह विषय राजनीति-विज्ञान के विद्वानों के बीच वाद-विवाद का विषय रहा है।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

HBSE 11th Class Political Science भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि वह सही है या गलत
(क) अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
(ख) अधिकार-पत्र व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
(ग) विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) गलत।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन मौलिक अधिकारों का सबसे सटीक वर्णन है?
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार
(ख) कानून द्वारा नागरिकों को प्रदत्त समस्त अधिकार
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर:
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित स्थितियों को पढ़ें। प्रत्येक स्थिति के बारे में बताएँ कि किस मौलिक अधिकार का उपयोग या उल्लंघन हो रहा है और कैसे?
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है-नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला सहकर्मियों को, दंडित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था।

(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।

(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं।

(घ) आंध्र-सोसायटी आंध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम के विद्यालय चलाती है।
उत्तर:
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला सहकर्मियों को, दंडित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था। इस स्थिति में महिला सहकर्मियों के समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 14 के द्वारा सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समक्ष समान संरक्षण प्रदान किया गया है।

इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 15 (1) में इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के धर्म, लिंग, मूलवंश, जाति, जन्म-स्थान या इनमें किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत सभी को अवसर की समानता का अधिकार प्रदान किया गया है तथा राज्य के अधीन किसी पद के सम्बन्ध में किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। उपर्युक्त घटना में महिला कर्मियों के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया है और उन्हें पदोन्नति से वंचित किया गया। इस प्रकार इनके संविधान द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है।

(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है और इसके माध्यम से वह सरकार की नीतियों की आलोचना करता है। उक्त घटना में एक निर्देशक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अन्तर्गत दिए गए विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करता है। स्पष्ट है कि इस अधिकार के अन्तर्गत भारत के सभी नागरिकों को अपने विचारों को प्रकट प्रकाशित, प्रचारित एवं आलोचना करने का पूर्ण अधिकार है। अतः उक्त स्थिति में निर्देशक द्वारा मूल अधिकारों का सही उपयोग किया जा रहा है।

(ग) इस घटना में एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ पर विस्थापितों द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ख) के अन्तर्गत प्रत्याभूत शांतिपूर्ण एवं निरस्र सम्मेलन की स्वतंत्रता का उपयोग किया गया है। अतः विस्थापितों की रैली मूल अधिकारों के अधीन है।

(घ) आंध्र-सोसायटी द्वारा आंध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम से विद्यालय के चलाए जाने की घटना में अनुच्छेद 30 (1) द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार का उपयोग किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि इस अनुच्छेद द्वारा धर्म या भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा संस्था का गठन करने तथा उनके प्रबन्ध एवं प्रशासन का अधिकार प्राप्त है। अतः आंध्र-सोसायटी द्वारा विद्यालय का संचालन मूल अधिकारों का उपयोग है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में कौन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या है?
(क) शैक्षिक संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।

(ख) सरकारी विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।

(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।

(घ) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्थान में नहीं पढेंगे।
उत्तर:
(क) उपर्युक्त कथनों में से

(ग) में दिया गया कथन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या करता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 29 (1) अल्पसंख्यक वर्गों के हितों के संरक्षण हेतु उन्हें अपनी विशेष भाषा लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार प्रदान करता है एवं अनुच्छेद 30 (1) के अनुसार अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति के विकास के लिए शिक्षण संस्थाओं का गठन और प्रशासन का अधिकार देता है। ऐसी शिक्षण संस्थाओं को सरकार द्वारा आर्थिक सहायता देते समय किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

प्रश्न 5.
इनमें कौन-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और क्यों?
(क) न्यूनतम देय मजदूरी नहीं देना।
(ख) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना।
(ग) 9 बजे रात के बाद लाऊड-स्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(घ) भाषण तैयार करना।
उत्तर:
(क) न्यूनतम मज़दूरी न देना ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ का उल्लंघन है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 23 द्वारा मानव के दुर्व्यापार और बेगार तथा इस प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया जाने वाला श्रम प्रतिबंधित किया गया है। इसका उद्देश्य दुराचारी व्यक्तियों तथा राज्य द्वारा समाज के दुर्बल वर्गों के शोषण की रक्षा करना है।

(ख) इस घटना में मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा है। यद्यपि किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाए जाने से उस व्यक्ति के विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन तो होता है, परंतु संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अनुसार यदि इससे किसी वर्ग या समुदाय-विशेष की भावनाएँ आहत होती हैं या राष्ट्र विरोधी विचार हैं तो सदाचार, शिष्टाचार एवं देशहित के दृष्टिकोण से उन पर प्रतिबंध लगाया जाना कानून के अनुसार सही है।

(ग) उक्त घटना से भी मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा है क्योंकि रात 9 बजे के बाद लाऊड-स्पीकर पर प्रतिबंध लगाने में भी समाज के व्यापक हितों को ध्यान में रखा जा रहा है। हमें किसी भी कार्य द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाने का अधिकार नहीं है।

(घ) किसी नागरिक द्वारा भाषण तैयार करना किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है क्योंकि नागरिकों को अपने विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है।

प्रश्न 6.
गरीबों के बीच काम कर रहे एक कार्यकर्ता का कहना है कि गरीबों को मौलिक अधिकारों की ज़रूरत नहीं है। उनके लिए जरूरी यह है कि नीति-निर्देशक सिद्धांतों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बना दिया जाए। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि मौलिक अधिकारों द्वारा जहाँ एक ओर राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास किया गया है, वहीं नीति-निर्देशक तत्त्वों द्वारा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास किया गया है। यद्यपि दोनों का उद्देश्य जनकल्याण एवं न्याय की स्थापना करना है। इसके अतिरिक्त मौलिक अधिकारों के पीछे कानून की शक्ति है, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांतों के पीछे कानून की शक्ति न होकर केवल जनमत एवं नैतिक शक्ति है।

चूँकि नीति-निर्देशक सिद्धांतों में समाज के व्यापक हित एवं जनकल्याण का उद्देश्य निहित है। ऐसी स्थिति में इन्हें कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाकर इन लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सकती है। अत: इनके प्रभावी क्रियान्वयन द्वारा राज्य के गरीब लोगों संबंधी आदर्शों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करना अधिक सरल होगा।

प्रश्न 7.
अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि जो जातियाँ पहले झाडू देने के काम में लगी थीं उन्हें अब भी मज़बूरन यही काम करना पड़ रहा है। जो लोग अधिकार-पद पर बैठे हैं वे इन्हें कोई और काम नहीं देते। इनके बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने पर हतोत्साहित किया जाता है। इस उदाहरण में किस मौलिक-अधिकार का उल्लंघन हो रहा है?
उत्तर:
उपर्युक्त घटना के सन्दर्भ में वर्णित जातियों के कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, जिन्हें हम इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं

1. समानता का अधिकार-उक्त स्थिति में इनके समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि अधिकार-पद पर बैठे लोग उन्हें कोई और काम नहीं देते हैं। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है। अनुच्छेद 15 के अनुसार किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध है।

2. स्वतंत्रता का अधिकार-उक्त घटना में इन जातियों को विवश होकर वही कार्य करना पड़ रहा है, क्योंकि वे इसी व्यवसाय को अपनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसी स्थिति में उनकी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार सभी नागरिकों को अपनी इच्छानुसार वृत्ति, व्यवसाय, व्यापार, आजीविका की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। अतः उपर्युक्त घटना के अन्तर्गत उन जातियों के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।

3. संस्कृति और शिक्षा का अधिकार-इस घटना में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने से हतोत्साहित किया जाता है जो संविधान में दिए गए उनके सांस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार का उल्लंघन है। यहाँ यह स्पष्ट है कि संविधान के अनुच्छेद 29 (2) के अनुसार किसी भी व्यक्ति को केवल धर्म, मूलवंश, लिंग, जाति, भाषा के आधार पर राज्य द्वारा घोषित या राज्य विधि से सहायता प्राप्त किसी शिक्षा संस्थान में प्रवेश से वंचित या भेदभाव नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
एक मानवाधिकार-समूह ने अपनी याचिका में अदालत का ध्यान देश में मौजूद भूखमरी की स्थिति की तरफ खींचा। भारतीय खाद्य-निगम के गोदामों में 5 करोड़ टन से ज्यादा अनाज भरा हुआ था।शोध से पता चलता है कि अधिकांश राशन-कार्डधारी यह नहीं जानते कि उचित-मूल्य की दुकानों से कितनी मात्रा में वे अनाज खरीद सकते हैं। मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत से निवेदन किया कि वह सरकार को सार्वजनिक-वितरण-प्रणाली में सुधार करने का आदेश दे।
(क) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ख) क्या ये अधिकार जीवन के अधिकार का एक अंग हैं?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त वर्णित घटनाओं में संवैधानिक उपचार का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार एवं सूचना का अधिकार सम्मिलित हैं। मानवाधिकार समूह द्वारा अदालत में याचिका दायर करना संवैधानिक उपचार का अधिकार है। भूख से होने वाली मौत उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। राशन कार्डधारी को उचित मूल्य की दुकान से मिलने वाली अनाज की मात्रा का न मालूम होना, उनके सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।

(ख) ये सभी अधिकार अलग-अलग हैं। परंतु इस घटना में ये सभी जीवन के अधिकार के अंग के रूप में जुड़े हुए हैं।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में उद्धत सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान-सभा में दिए गए वक्तव्य को पढ़ें। क्या आप उनके कथन से सहमत हैं? यदि हाँ तो इसकी पुष्टि में कुछ उदाहरण दें। यदि नहीं तो उनके कथन के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान सभा में दिए गए वक्तव्य का विश्लेषण करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को जो भी मौलिक अधिकार दिए गए हैं, वे अपर्याप्त हैं। कई ऐसी बातों की उपेक्षा की गई है जिन्हें मूल अधिकारों में स्थान दिया जाना चाहिए था; जैसे आजीविका का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, चिकित्सा-सुविधा का अधिकार इत्यादि यद्यपि इनमें शिक्षा एवं सूचना के अधिकार को तो मौलिक अधिकारों का रूप दे दिया गया है, लेकिन चिकित्सा-सुविधा के अधिकार इत्यादि को नहीं। जबकि चिकित्सा-सुविधा का अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है वहाँ राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की आधारशिला भी है।

आलोचकों की दृष्टि में इस अधिकार की उपेक्षा करना गलत है। लाहिड़ी के असंतोष का अन्य कारण यह है कि प्रत्येक मौलिक अधिकार के साथ प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है। आलोचकों का मत है कि भारतीय संविधान एक हाथ से मौलिक अधिकार देता हैं तो दूसरे हाथ से इसे छीन लेता है। संविधान द्वारा जिस प्रकार विशेष परिस्थितियों में अलग-अलग प्रतिबंध लगाए गए हैं, उसने मौलिक अधिकारों को एक तरह से व्यर्थ बना दिया है।

सोमनाथ लाहिड़ी का यह कथन है कि-“अनेक मौलिक अधिकारों को एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाया गया है।” संक्षेप में सोमनाथ लाहिड़ी के वक्तव्य से सहमति व्यक्त कर सकते हैं जैसे कि विष्णु कामथ ने मौलिक अधिकारों की आलोचना करते हुए संविधान सभा में कहा था कि-“इस व्यवस्था द्वारा हम तानाशाही राज्य और पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।”

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 10.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को संक्षेप में लिखें और तर्क देकर बताएँ कि यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अध्याय तीन में मौलिक अधिकारों की प्रारम्भिक संख्या 7 थी जोकि बाद में 44वें संशोधन द्वारा सन् 1978 में संपत्ति के अधिकार को समाप्त करने पर मौलिक अधिकारों की संख्या 6 रह गई। इस प्रकार वर्तमान में संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार निम्नलिखित हैं-

  • समानता का अधिकार,
  • स्वतंत्रता का अधिकार,
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार,
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
  • सांस्कृतिक और शिक्षा का अधिकार,
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

यहाँ यह स्पष्ट है कि किसी भी अधिकार की उपयोगिता तथा सार्थकता तभी है जब उन्हें कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाए। इस क्रम में संवैधानिक उपचारों का अधिकार इस दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित किया गया है। यह अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों को न्यायिक संरक्षण प्रदान करता है।

राज्य द्वारा अन्य मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय को इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक कानूनी कार्रवाई का अधिकार दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा दिए गए संवैधानिक उपचारों के अधिकार के तहत कोई भी नागरिक अपने अधिकारों की अवहेलना होने पर न्यायालय में प्रार्थना-पत्र देकर अपने अधिकारों की रक्षा कर सकता है।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका को मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए पाँच प्रकार के लेख जारी करने का अधिकार है जो बंदी-प्रत्यक्षीकरण लेख, परमादेश लेख, प्रतिषेध लेख, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा लेख हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि संवैधानिक उपचार का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है। इसी कारण से इस अधिकार को डॉ० भीमराव अंबेडकर ने इसे संविधान की मूल आत्मा कहा है। २७ मा अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न मार कर सकता ।

भारतीय संविधान में अधिकार HBSE 11th Class Political Science Notes

→ राज्य तथा व्यक्ति के आपसी संबंधों की समस्या सदा से ही एक जटिल समस्या रही है और वर्तमान समय की लोकतंत्रीय व्यवस्था में इस समस्या ने विशेष महत्त्व प्राप्त कर लिया है।

→ यदि एक ओर शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिकों के जीवन पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है तो दूसरी ओर राज्य की शक्ति पर भी कुछ सीमाएँ लगाना आवश्यक है, ताकि राज्य मनमाने तरीके से कार्य करते हुए नागरिकों की स्वतंत्रता तथा अधिकारों के विरुद्ध कार्य न कर सके।

→ अधिकारों की व्यवस्था राज्य की स्वेच्छाचारी शक्ति पर प्रतिबंध लगाने का एक श्रेष्ठ उपाय है।

→ मानव इतिहास में सर्वप्रथम 1789 को फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने ‘मानवीय अधिकारों की घोषणा करके राजनीति विज्ञान को क्रांतिकारी सिद्धान्त दिया था।

→ तब से मानवीय अधिकारों का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया है कि आधुनिक युग में शायद ही कोई ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था हो जहाँ के संविधान में इन मानवीय अधिकारों को स्थान नहीं दिया गया हो। भारतीय संविधान निर्माता भी इससे वंचित नहीं रहे।

→ भारत में मौलिक अधिकारों की माँग 1895 ई० में बाल गंगाधर तिलक द्वारा की गई थी। – इसके बाद 1918 में काँग्रेस के अधिवेशन में यह माँग की गई थी कि भारतीय अधिनियम 1919 के द्वारा भारतवासियों को मौलिक अधिकार दिए जाएँ, जिसकी ओर ब्रिटिश शासन ने कोई ध्यान नहीं दिया।

→ सन 1925 में श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों के लिए अनेक मौलिक अधिकारों की माँग की थी। सन 1928 में नेहरू समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारतीयों के लिए ब्रिटिश शासन से अनेक मौलिक अधिकारों की माँग की थी।

→ इन अधिकारों के विषय में विचार लन्दन में हुई गोलमेज कान्फ्रेंस में हुआ। भारत सरकार अधिनियम, 1935 में कुछ अधिकारों को सीमित रूप में मान्यता दी गई।

→ 1946 में जब संविधान सभा गठित हो गई तो मौलिक अधिकारों के संबंध में, सप्रू समिति (Sapru Committee) ने अपने प्रतिवेदन में कहा था, “हमारे विचार से भारत की विशेष परिस्थितियों में यह बहुत जरूरी है कि नए संविधान में मौलिक अधिकार अवश्य शामिल किए जाएँ जिससे देश के अल्पसंख्यक वर्गों को सुरक्षा की गारण्टी देने के साथ-साथ देश के विधानमंडलों, प्रशासनिक विभागों और न्यायालयों में एक समान कार्रवाई की जा सके।”

→ फिर भी भारत के स्वतंत्र होने से पहले मौलिक अधिकार देश के नागरिकों को प्राप्त नहीं थे और भारतीय संविधान द्वारा अपने तीसरे भाग (Part III) में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई है।

→ ये अधिकार व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास के लिए बहुत जरूरी समझकर सभी नागरिकों को दिए गए हैं। अतः सर्वप्रथम यहाँ मौलिक अधिकारों का अर्थ स्पष्ट करना आवश्यक है।

→ तत्पश्चात् भारतीय संविधान में दिए मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण एवं अध्याय चार में दिए गए राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों पर प्रकाश डालेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

HBSE 11th Class Political Science संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
इनमें कौन-सा संविधान का कार्य नहीं है?
(क) यह नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है।
(ख) यह शासन की विभिन्न शाखाओं की शक्तियों के अलग-अलग क्षेत्र का रेखांकन करता है।
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।
(घ) यह कुछ साझे मूल्यों की अभिव्यक्ति करता है।
उत्तर:
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन इस बात की एक बेहतर दलील है कि संविधान की प्रमाणिकता संसद से यादा है?
(क) संसद के अस्तित्व में आने से कहीं पहले संविधान बनाया जा चुका था।
(ख) संविधान के निर्माता संसद के सदस्यों से कहीं ज्यादा बड़े नेता थे।
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
(घ) संसद, संविधान का संशोधन नहीं कर सकती।
उत्तर:
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

प्रश्न 3.
बतायें कि संविधान के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत?
(क) सरकार के गठन और उसकी शक्तियों के बारे में संविधान एक लिखित दस्तावेज़ है।
(ख) संविधान सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में होता है और उसकी जरूरत ऐसे ही देशों में होती है।
(ग) संविधान एक कानूनी दस्तावेज़ है और आदर्शों तथा मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं।
(घ) संविधान एक नागरिक को नई पहचान देता है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) गलत,
(घ) सही।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 4.
बतायें कि भारतीय संविधान के निर्माण के बारे में निम्नलिखित अनुमान सही हैं या नहीं? अपने उत्तर का कारण बतायें।
(क) संविधान-सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई। इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।

(ख) संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।

(ग) संविधान में कोई मौलिकता नहीं है क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा दूसरे देशों से लिया गया है।
उत्तर:
(क) भारत की संविधान सभा का निर्माण कैबिनेट मिशन योजना, 1946 के अनुसार किया गया था। इस योजना के अनुसार पहले प्रांतों की विधानसभाओं के चुनाव हुए। विधानसभा के चुने हुए सदस्यों के द्वारा प्रांतों में संविधान सभा के प्रतिनिधियों को निर्वाचित किया गया। देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को देशी रियासतों के राजाओं के द्वारा मनोनीत किया गया था।

भारतीय संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गई, जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर वाले प्रांतों के तथा 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि होते थे। प्रांतों के 296 सदस्यों के चुनाव जुलाई, 1946 में करवाए गए। इनमें से 212 स्थान काँग्रेस को, 73 मुस्लिम लीग को एवं 11 स्थान अन्य दलों को प्राप्त हुए।

काँग्रेस की इस शानदार सफलता को देखकर मुस्लिम लीग को बड़ी निराशा हुई और उसने संविधान सभा का बहिष्कार करने का निर्णय किया। 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का विधिवत उद्घाटन हुआ। प्रायः संविधान सभा के गठन के लिए यह आरोप लगाया जाता है कि इसके प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था, लेकिन उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह अनिवार्य था कि संविधान सभा को शीघ्र गठित किया जाए। अगर मान लिया जाए कि चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर भी होता तो भी यही प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आने थे, क्योंकि काँग्रेस देश में एक बहुत ही शक्तिशाली एवं प्रभावशाली संस्था बन चुकी थी। जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व था।

इसके अतिरिक्त इसमें भी तनिक सन्देह नहीं कि देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को भी संविधान सभा में मनोनीत किया गया था और यह पद्धति प्रजातंत्र सिद्धांतों के विपरीत थी, लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए ऐसा करना आवश्यक था, अन्यथा देशी रियासतों के राजा संविधान सभा में शामिल ही नहीं होते। अतः भारतीय संविधान सभा हर दृष्टि से भारत की एक सच्ची प्रतिनिधित्व सभा थी। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि इसमें भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई।

(ख) यदि देखा जाए तो किसी भी विविधतापूर्ण एवं व्यापक प्रतिनिध्यात्मक संस्था में सदस्यों के बीच मतभेद का होना अस्वाभाविक नहीं है। भारतीय संविधान सभा में भी सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद होते थे लेकिन वे मतभेद वास्तव में वैध सैद्धान्तिक आधार पर होते थे। भारतीय संविधान सभा में व्यापक मतभेद के पश्चात् भी संविधान का केवल एक ही प्रावधान ऐसा है, जो बिना किसी वाद-विवाद के पास हुआ। यह प्रावधान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार था, जिस पर वाद-विवाद आवश्यकह सदस्यों के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का ही सचक था। अत: यह कहना सही नहीं है कि संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया, क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में सामान्यतया आम सहमति थी।

(ग) यह कहना सही नहीं है कि भारतीय संविधान में कोई मौलिकता नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा विश्व के दूसरे देशों से लिया गया है। वास्तविकता तो यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधान के आदर्शों, मूल्यों एवं परंपराओं से बहुत कुछ सीखने अथवा ग्रहण करने का प्रयास किया।जो उन देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही थीं और भारत की परिस्थितियों के अनुकूल थीं। इस प्रकार भारतीय संविधान विदेशों से उधार लिया हुआ संविधान नहीं, बल्कि विभिन्न विदेशी संविधानों की आदर्श-व्यवस्थाओं का संग्रह है।

वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता का ही कार्य किया। विदेशी संविधान की आँख मूंदकर नकल नहीं की गई है, बल्कि विभिन्न संविधानों की विशेषताओं को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल संशोधित कर अपनाने से भारतीय संविधान में मौलिकता भी आ गई है। वैसे भी संवैधानिक व्यवस्थाओं पर किसी भी देश का एकाधिकार नहीं है और कोई भी देश किसी भी सवैधानिक व्यवस्था को अपना सकता है। ऐसे में भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भी विश्व की किसी संवैधानिक व्यवस्था को अपनाने से भारतीय संविधान की मौलिकता के प्रति कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहिए।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान के बारे में निम्नलिखित प्रत्येक निष्कर्ष की पुष्टि में दो उदाहरण दें।
(क) संविधान का निर्माण विश्वसनीय नेताओं द्वारा हुआ। उनके लिए जनता के मन में आदर था।
(ख) संविधान ने शक्तियों का बँटवारा इस तरह किया कि इसमें उलट-फेर मुश्किल है।
(ग) संविधान जनता की आशा और आकांक्षाओं का केंद्र है।
उत्तर:
(क) भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐसी संवैधानिक सभा द्वारा किया गया था जिसका निर्माण समाज के सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदायों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा ये प्रतिनिधि सक्रिय रूप से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से भी जुड़े हुए थे। अतः स्वाभाविक रूप से उन्हें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और समस्याओं का पूर्ण ज्ञान था।

संविधान निर्माण के क्रम में इन नेताओं द्वारा समस्त तथ्यों का गहन विश्लेषणात्मक अध्ययन कर देश के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए संविधान का निर्माण किया गया। इन नेताओं के प्रति जनता के मन में आदर होना बिल्कुल स्वाभाविक है। जनता के इसी आदर भाव के कारण लोकसभा संविधान लागू होने के बाद हुए प्रथम आम लोकसभा चुनाव, 1952 में संविधान सभा के लगभग सभी सदस्यों ने चुनाव लड़ा और जिनमें अधिकांश विजयी हुए। अतः जनता द्वारा उनको विजयी बनाना संविधान सभा के सदस्यों के प्रति आदर भाव को ही व्यक्त करना है।

(ख) संविधान में विभिन्न संस्थाओं और अंगों की शक्तियों और दायित्वों का स्पष्ट और पृथक वितरण किया गया है ताकि सरकार के विभिन्न अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कार्य-संचालन में किसी प्रकार की समस्या एवं टकराहट उत्पन्न न हो। इसके साथ-साथ संविधान में शक्ति-वितरण में नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत को अपनाया गया और जन-कल्याण के लिए प्रतिबद्धता को भी दर्शाया गया।

संविधान सभा ने शक्ति के समुचित और संतुलित वितरण के लिए संसदीय शासन व्यवस्था और संघात्मक व्यवस्था को स्वीकार किया तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र एवं सर्वोच्च रखा और उसे संसद तथा समीक्षा का अधिकार भी दिया गया। इस प्रकार किसी भी प्रकार के टकराहट और उलट-फेर को रोकने का पर्याप्त प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है।

(ग) भारतीय संविधान बहुत ही संतुलित एवं न्यायपूर्ण स्वरूप का है। इसमें समाज के विभिन्न वर्गों के व्यापक हितों के अनुरूप अनेक विशेष प्रावधान किए गए हैं। इसमें समाज के उपेक्षित, दलित, शोषित और कमजोर वर्गों के लिए अलग से विशेष प्रावधान किए गए हैं। संविधान में जन-कल्याण को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। संविधान निर्माण में न्याय के बुनियादी सिद्धांत का पालन किया गया है।

इसके अतिरिक्त वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को साकार करने की व्यवस्था भी की गई है। अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान जनता की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप है और उनका केंद्र भी है।

प्रश्न 6.
किसी देश के लिए संविधान में शक्तियों और जिम्मेदारियों का साफ-साफ निर्धारण क्यों जरूरी है? इस तरह का निर्धारण न हो तो क्या होगा?
उत्तर:
किसी भी संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों और कार्यों का स्पष्ट और संतुलित विभाजन बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके अभाव में इन संस्थाओं के बीच परस्पर टकराहट और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच शक्ति का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि उनमें शक्ति संतुलन बना रहे और उनका आचरण संविधान की मर्यादाओं के विरुद्ध न हो; जैसे यदि विधायिका द्वारा अपने अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है अथवा किसी प्रकार संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण किया जाता है, तो न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इसके द्वारा बनाए कानून को ही असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

उसी प्रकार, विधायिका कार्यपालिका के कार्यों को; जैसे प्रश्नकाल, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव आदि द्वारा नियंत्रण रख सकती है। इस प्रकार वह सभी संस्थाएँ स्वतंत्र एवं सुचारु रूप से अपना कार्य कर सकती हैं, परन्तु अपने-अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकती हैं। यदि इनके द्वारा अतिक्रमण का प्रयास किया जाता है तो दूसरी संस्थाओं द्वारा उस पर संविधान द्वारा नियंत्रण का पर्याप्त प्रावधान किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अत्यंत सूझबूझ एवं दूरदर्शिता के साथ विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया है।

हाँ, इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इन संवैधानिक संस्थाओं द्वारा परस्पर अतिक्रमण की संभावनाएँ हो सकती थी जिसके परिणामस्वरूप अराजकता एवं अव्यवस्था की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। ऐसी स्थिति में जनता के अधिकार एवं स्वतंत्रताएँ भी असुरक्षित हो सकती हैं। अतः इससे देश का संवैधानिक ढाँचा ही असफलता की ओर अग्रसर हो सकता है।

प्रश्न 7.
शासकों की सीमा का निर्धारण करना संविधान के लिए क्यों ज़रूरी है? क्या कोई ऐसा भी संविधान हो सकता है जो नागरिकों को कोई अधिकार न दें।
उत्तर:
किसी भी शासन में शासकों की निरंकुश तथा असीमित शक्ति पर नियंत्रण लगाने के लिए संविधान द्वारा शासकों की सीमाओं का निर्धारण किया जाता है। समाज में नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित रखना संविधान का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। कई बार संसद या मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा मनमाना कानून बनाकर जनता की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया जाता है। ऐसी स्थिति में संसद अथवा मंत्रिमंडल की इस शक्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है। इसीलिए संविधान में शासकों की शक्तियों पर अंकुश लगाने के व्यापक प्रावधान किए गए हैं।

किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस शक्ति का उपयोग एक निश्चित अवधि के पश्चात् होने वाले चुनाव में जनता द्वारा मताधिकार के रूप में किया जाता है। संविधान शासकों की सीमाओं को संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्पष्ट प्रावधान करके भी नियंत्रित कर सकता है। क्योंकि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कोई भी सरकार नहीं कर सकती है। इस प्रकार शासकों की शक्ति पर सीमाएँ लगाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी स्पष्ट है कि विश्व में कोई ऐसी संवैधानिक व्यवस्था नहीं है जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का प्रावधान नहीं किया गया हो। यहाँ तक कि साम्यवादी व्यवस्था वाले देशों; जैसे चीन के संविधान में भी मौलिक अधिकारों का . प्रावधान किया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 8.
जब जापान का संविधान बना तब दूसरे विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद जापान अमेरिकी सेना के कब्जे में था। जापान के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान होना असंभव था, जो अमेरिकी सेना को पसंद न हो। क्या आपक लगता है कि संविधान को इस तरह बनाने में कोई कठिनाई है? भारत में संविधान बनाने का अनुभव किस तरह इससे अलग है?
उत्तर:
जापान का संविधान-निर्माण करते समय जापान पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण था। इसलिए संवैधानिक प्रावधानों पर अमेरिकी प्रभाव का होना स्वाभाविक सी बात है। इसीलिए जापान के संविधान का कोई भी प्रावधान अमेरिका की सरकार की आकांक्षाओं एवं इच्छाओं के विरुद्ध नहीं था। इसमें अमेरिका के हितों एवं प्राथमिकताओं को पर्याप्त महत्त्व दिया गया। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि किसी भी देश के संविधान का निर्माण किसी दूसरे देश के प्रभाव में करना निश्चित रूप से बहुत ही कठिन कार्य है।

संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर अन्य देश का नियंत्रण होने के कारण स्वयं उस देश की जनता की अपेक्षाओं एवं आशाओं की अनदेखी की जाती है। अतः ऐसा संविधान जनता की इच्छाओं पर खरा नहीं उतर सकता है। दूसरी तरफ, भारतीय संविधान का निर्माण सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में निर्मित हुआ था। भारतीय संविधान का निर्माण एक प्रतिनिध्यात्मक संविधान सभा द्वारा किया गया था।

विभिन्न विषयों के लिए संविधान सभा में अलग-अलग समितियाँ थीं। सदस्यों द्वारा विभिन्न विषयों पर व्यापक तर्क-वितर्क एवं गहन विचार-विमर्श के बाद ही अधिकांशतः सर्वसम्मति के आधार पर अंतिम निर्णय लिया गया। ऐसे में कहा जा सकता है कि संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक आधार पर किया गया।

यद्यपि सदस्यों के बीच कुछ विषयों पर मत-भेद थे, तथापि देश के व्यापक हितों के मद्देनजर सहमति एवं समायोजन के सिद्धांत के आधार पर फैसले लिए गए। भारतीय संविधान का निर्माण एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। भारतीय संविधान के निर्माण में 2 वर्ष, 11 महीने एवं 18 दिन लगे। संविधान निर्माण में राष्ट्रीय आंदोलनों के क्रम में उभरी जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं को भी प्राथमिकता दी गई।

इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान में समाज के सभी वर्गों के व्यापक हितों का ध्यान रखा गया है। अतः संविधान में समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता है। अतः संविधान निर्माण का भारतीय अनुभव दूसरे देशों से सर्वथा भिन्न था।

प्रश्न 9.
रजत ने अपने शिक्षक से पूछा- “संविधान एक पचास साल पुराना दस्तावेज़ है और इस कारण पुराना पड़ चुका है। किसी ने इसको लागू करते समय मुझसे राय नहीं माँगी। यह इतनी कठिन भाषा में लिखा हुआ है कि मैं इसे समझ नहीं सकता। आप मुझे बतायें कि मैं इस दस्तावेज़ की बातों का पालन क्यों करूँ?” अगर आप शिक्षक होते तो रजत को क्या उत्तर देते?
उत्तर:
रजत के प्रश्न का उत्तर यह है कि संविधान पचास साल पुराना दस्तावेज़ मात्र नहीं है बल्कि यह नियमों एवं कानूनों का एक ऐसा संग्रह है जिसका पालन समाज के व्यापक हितों की दृष्टि से बहुत आवश्यक है। जैसा कि हम जानते हैं कि कानूनों के कारण ही समाज में शांति और व्यवस्था कायम रहती है। लोगों का जीवन एवं संपत्ति सुरक्षित रहती है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास के लिए उचित वातावरण सम्भव होता है।

इसके अतिरिक्त संविधान सरकार के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों का स्रोत है। संविधान द्वारा ही सरकार के तीन अंगों का गठन होता है तथा इनकी शक्तियों का विभाजन होता है। इसके द्वारा ही जनता के अधिकारों को सुरक्षित एवं कर्त्तव्य निश्चित किया जाता है। संविधान ही सरकार के निरंकुश स्वच्छेचारी आचरण पर अंकुश लगाता है।

इसके अतिरिक्त यह कहना गलत है कि संविधान पचास साल पुराना दस्तावेज़ हो चुका है और इसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह कठोर और लचीले संशोधन विधि का मिश्रित रूप है। इसमें समय, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन किया जा सकता है।

संविधान में विषयानुरूप संशोधन की अलग-अलग प्रक्रियाओं का प्रावधान है। कुछ विषयों में संसद के स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर संशोधन किया जा सकता है। परंतु कुछ विषयों में संशोधन की प्रक्रिया जटिल है। इसके लिए कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों से प्रस्ताव का अनुमोदित होना आवश्यक है।

दूसरे शब्दों में, भारतीय संविधान एक ऐसा संविधान है जो कभी भी पुराना नहीं पड़ सकता, क्योंकि इसके प्रावधानों को समय और परिस्थिति के अनुकूल संशोधित किया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मात्र लगभग 70 वर्षों में ही संविधान में 104 संशोधन किए जा चुके हैं। इस प्रकार समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए संविधान में पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं। अतः हमारा संविधान एक जीवन्त प्रलेख है जो सदैव गतिमान रहता है। इसलिए हमें संविधान की पालना अवश्य करनी चाहिए।

प्रश्न 10.
संविधान के क्रिया-कलाप से जुड़े अनुभवों को लेकर एक चर्चा में तीन वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पक्ष लिए
(क) हरबंस-भारतीय संविधान एक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।

(ख) नेहा-संविधान में स्वतंत्रता, समता और भाईचारा सुनिश्चित करने का विधिवत् वादा है। चूँकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए संविधान असफल है।

(ग) नाजिमा संविधान असफल नहीं हुआ, हमने उसे असफल बनाया। क्या आप इनमें से किसी पक्ष से सहमत हैं, यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं, तो आप अपना पक्ष बतायें।
उत्तर:
वाद-विवाद के द्वारा इन वक्ताओं ने संविधान की सार्थकता, उपयोगिता और सफलता पर अलग-अलग प्रश्न उठाने का प्रयास किया है। प्रथम वक्ता हरबंस के अनुसार भारतीय संविधान लोकतांत्रिक शासन का ढाँचा तैयार करने में सफल रहा है, तो दूसरे वक्ता नेहा के अनुसार संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के वायदे किए गए, परन्तु ये पूरे नहीं हुए।

इस कारण संविधान असफल रहा, जबकि तीसरे वक्ता नाजिमा का दृष्टिकोण है कि संविधान स्वयं असफल नहीं हुआ, बल्कि हमने ही इसे असफल बनाया। इस तथ्य को हम सब स्वीकार करते हैं कि भारतीय संविधान का निर्माण तत्कालीन समय के योग्यतम, अनुभवी एवं दूरदर्शी नेताओं द्वारा व्यापक विचार-विमर्श एवं गहन तर्क-वितर्क के आधार पर ही किया गया था।

इसमें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं का पूरा ध्यान रखा गया। इसके अतिरिक्त जन सामान्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इसमें मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया तथा न्यायपालिका को इन मूल अधिकारों के संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है। संविधान द्वारा व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता को मौलिक अधिकारों के द्वारा सुनिश्चित किया गया।

वास्तविक सत्ता का केंद्र जनता में निहित किया गया है। जिसका प्रयोग जनता अपने मताधिकार के माध्यम से करती है, क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से ही सरकार का गठन एवं संचालन किया जाता है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है।

इन सबके मूल में एक प्रमुख उद्देश्य यह था कि भारत में लोकतांत्रिक ढाँचा सशक्त बने । जिसमें हमें काफी हद तक सफलता भी मिली है, जिसका प्रमाण यह है कि यहाँ अब तक 17 लोकसभा एवं अनेक राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं। जनता द्वारा मताधिकार का प्रयोग किया जाता रहा है।

या है कि चुनाव के समय धन और बाहुबलियों द्वारा चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है जिससे संविधान की मूल भावना को ठेस भी पहुँची है। नेहा के अनुसार संविधान असफल रहा, क्योंकि संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए गए वायदे सफल नहीं हुए। लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल अलग है।

क्योंकि जनता द्वारा विभिन्न स्तरों पर व्यापक स्वतंत्रता का उपयोग किया जाता है। कुछ विशेष स्थितियों में ही सरकार द्वारा नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों को शिक्षा, रोजगार तथा अन्य प्रकार की समानता प्राप्त है। छुआछूत और भेदभाव की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा है। यद्यपि इसमें हमें पूर्ण सफलता प्राप्त करना शेष है। परन्तु फिर भी स्थिति में सुधार हुआ है।

तीसरी वक्ता नाजिमा का विश्वास है कि संविधान असफल नहीं हुआ बल्कि हमने इसे असफल बनाया। हाँ, नाजिमा के तर्क से सहमत होने के कारण पर्याप्त हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने संकीर्ण हितों के मद्देनजर संविधान के मूल ढाँचे से भी छेड़छाड़ करने से नहीं चूकते हैं। यद्यपि संविधान में विभिन्न परिस्थितियों और परिवर्तनों तथा चुनौतियों का सामना करने के लिए व्यापक प्रावधान किए गए हैं तथापि संविधान में छुआछूत की समाप्ति, बाल-श्रम उन्मूलन, समान कार्य के लिए समान वेतन इत्यादि अनेक प्रावधानों के होते हुए भी व्यवहार में अमल न करना यही दर्शाता है कि हमने संवैधानिक व्यवस्थाओं और प्रावधानों को पूर्ण सच्चाई और ईमानदारी से लागू नहीं किया है।

संविधान में समाजवादी ढाँचे को अपनाया है, लेकिन आजादी के 70 वर्षों के बाद भी देश की जनसंख्या का लगभग 26 प्रतिशत भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। आज भी देश के विभिन्न भागों में लोग भुखमरी एवं कुपोषण के शिकार हैं। ये सारे तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि कहीं न कहीं हमारी कार्यप्रणाली में दोष है। इन सबके बावजूद देश में हो रहे चहुंमुखी विकास, साक्षरता की बढ़ती दर, लोक-स्वास्थ्य की बेहतर स्थिति, गिरती मृत्यु दर, बढ़ती औसत आयु आदि ऐसे संकेत हैं, जो भारत के सुखद भविष्य की ओर संकेत कर रहे हैं।

संविधान : क्यों और कैसे? HBSE 11th Class Political Science Notes

→ आधुनिक समय में प्रत्येक राज्य का प्रायः एक संविधान होता है। साधारण शब्दों में, संविधान उन मौलिक नियमों, सिद्धांतों तथा परंपराओं का संग्रह होता है, जिनके अनुसार राज्य की सरकार का गठन, सरकार के कार्य, नागरिकों के अधिकार तथा नागरिकों और सरकार के बीच संबंध को निश्चित किया जाता है।

→ शासन का स्वरूप लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, कुछ ऐसे नियमों के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता जो राज्य में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं तथा शासकों की भूमिका को निश्चित करते हैं।

→ इन नियमों के संग्रह को ही संविधान कहा जाता है। संविधान में शासन के विभिन्न अंगों तथा उनके पारस्परिक संबंधों का विवरण होता है।

→ इन संबंधों को निश्चित करने हेतु कुछ नियम बनाए जाते हैं, जिनके आधार पर शासन का संचालन सुचारू रूप से संभव हो जाता है तथा शासन के विभिन्न अंगों में टकराव की संभावनाएँ कम हो जाती हैं।

→ संविधान के अभाव में शासन के सभी कार्य निरंकुश शासकों की इच्छानुसार ही चलाए जाएँगे जिससे नागरिकों पर अत्याचार होने की संभावना बनी रहेगी।

→ ऐसे शासक से छुटकारा पाने के लिए नागरिकों को अवश्य ही विद्रोह करना पड़ेगा जिससे राज्य में अशांति तथा अव्यवस्था फैल जाएगी।

→ इस प्रकार एक देश के नागरिकों हेतु एक सभ्य समाज एवं कुशल तथा मर्यादित सरकार का अस्तित्व एक संविधान की व्यवस्थाओं पर ही निर्भर करता है।

→ इसीलिए हम इस अध्याय में संविधान के अर्थ को जानने के पश्चात् संविधान की आवश्यकता एवं संविधान के निर्माण की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए संविधान के विभिन्न स्रोतों का भी हम उल्लेख करेंगे।

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