HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

HBSE 11th Class Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) ‘बेगार’ अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर:
(क) परिवार की संपति में से पुत्र और पुत्री दोनों को बराबर हिस्सा देना सामाजिक मूल्य से संबंधित है। यह संविधान में वर्णित समानता के मौलिक अधिकार के अनुरूप है, क्योंकि समानता के अधिकार के अंतर्गत लिंग, जाति, नस्ल, धर्म अथवा क्षेत्र आदि के आधार पर किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। अतः यह सामाजिक न्याय के सिद्धांत के अनुरूप है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पुत्र और पुत्री को संपत्ति में बराबर का हक देना समानता पर आधारित और भेदभाव रहित समाज की स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन अलग-अलग करने से आर्थिक न्याय के सिद्धांत का. पालन होता है, क्योंकि विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं का समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा उपयोग किया जाता है जिनकी कर-देय क्षमता भी अलग-अलग होती है।

(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा का न दिया जाना संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य धार्मिक मामलों में न तो किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करेगा तथा न ही किसी प्रकार की सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्रदान करेगा।

(घ) बेगार अथवा बंधुआ मजदूरी का निषेध सामाजिक न्याय के मूल्य पर आधारित है। यह संविधान के अनुच्छेद 23 में उल्लेखित शोषण के विरूद्ध अधिकार के अंतर्गत मानव के बालत् प्रतिरोध की व्यवस्था करता है। जिसके अंतर्गत समाज के किसी भी वर्ग द्वारा किसी भी अन्य वर्ग का शोषण दंडनीय अपराध ठहराया गया है।

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प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी के लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएँ।
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है। .
उत्तर:
उपर्युक्त विकल्पों में से केवल (ग) में दिया गया विकल्प उपर्युक्त कथन को पूरा करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में यह पूर्णतया गलत है कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।

प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं-(अ) इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं। (ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।

(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।

(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ सवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
अ. (क) जब आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है, तो यह कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि संविधान सभा की ये बहसें प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि जीविका मनुष्य की पहली आवश्यकता है। इस प्रथम समस्या से ही जूझते व्यक्ति के लिए संविधान सभा की बहसों का कोई महत्त्व नहीं है।

(ख) आज की परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान निर्माण के समय की चुनौतियों और स्थितियों से बहुत अलग एवं भिन्न हैं। आज समय बहुत बदल गया है। अतः यह तर्क इस बात को स्पष्ट करता है कि ये बहसें आज के जमाने की बदलती स्थिति में प्रासंगिक नहीं हैं।

(ग) यह कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि संसार की वर्तमान चुनौतियों को समझने और जानने के लिए संविधान सभा की बहसें प्रासंगिक हैं। वास्तव में ये तर्क वर्तमान परिस्थितियों को समझाने में सहायक हैं।

ब. (क) मैं इस बात से सहमत हूँ कि जीविका व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। अतः अन्य कार्यों पर इसे प्राथमिकता दी जा सकती है।

(ख) मैं इस तथ्य से सहमत हूँ कि आज की स्थितियाँ संविधान निर्माण के समय से काफी बदल चकी हैं। संविधान के लाग होने से लेकर आज तक लगभग 70 वर्षों में संविधान में 104 संवैधानिक संशोधन स्वयं की पुष्टि करते हैं।

(ग) मैं इस बात से सहमत हूँ कि ये बहसें आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि समस्त चुनौतियाँ और यह संसार आज भी पूरी तरह नहीं बदले हैं। ऐसे में तर्कों को समझने की उपेक्षा से हम संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर देंगे।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें-
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार
उत्तर:
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ-भारत में धर्मनिरपेक्षता की धारणा पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से काफी भिन्न है। पश्चिमी धारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की नागरिकता से संबंधित अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान का राजनीतिक दर्शन धर्मनिरपेक्षता को धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया हैं, जबकि भारत में धर्म व्यक्ति का अपना निजी विषय है।

राज्य की इसमें कोई भूमिका एवं हस्तक्षेप नहीं होता है। भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता के सम्बन्ध में सर्व-धर्म समभाव के सिद्धान्त को अपनाया गया है। इस सिद्धान्त के आधार पर देश में प्रचलित सभी धर्मों के साथ समानता के आधार . पर व्यवहार किया जाएगा। राज्य किसी धर्म को न तो संरक्षण देगा और न ही किसी धर्म को राज्य धर्म के रूप में मान्यता देगा। लेकिन कभी-कभी राज्य को धर्म के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप करना पड़ता है।

राज्य इसलिए ऐसा राज्य धर्म के रूप में करता है क्योंकि इसमें व्यापक सार्वजनिक हित निहित होते हैं। जैसे सरकार द्वारा तीन तलाक कानून पास करके मुस्लिम महिलाओं को कानूनी समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया जबकि धार्मिक कट्टरपंथियों ने इसे धर्म में हस्तक्षेप. कहा। इसके अतिरिक्त संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में हमने व्यापक प्रावधान किए हैं।

(ख) अनुच्छेद 370 और 371-संविधान के अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर राज्य संबंधी विशेष प्रावधान किया गया था। इसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त था। विशेष दर्जे का मुख्य कारण जम्मू तथा कश्मीर के भारत में विलय के समय भारतीय शासक द्वारा जम्मू तथा कश्मीर राज्य के तत्कालीन शासक से किए गए वायदे थे। इसके अंतर्गत जम्मू तथा कश्मीर का अपना एक विशेष संविधान था।

यद्यपि यह भारतीय संघ का अभिन्न अंग रहा परंतु अन्य राज्यों की तुलना में इसकी स्थिति भिन्न थी। यद्यपि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था ही थी, जिसे दिसम्बर, 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक के द्वारा पूर्णतः समाप्त कर दिया गया है और अब इसे जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख के रूप में दो केंद्र-शासित प्रदेशों के रूप में विभाजित कर दिया गया है।

अतः पूर्व में अनुच्छेद 370वीं अस्थाई व्यवस्था को उग्र सवैधानिक संशोधन द्वारा समाप्त कर इस राज्य को भी भारत संघ के अन्य राज्यों के समान दर्जा दे दिया गया है। अनुच्छेद 371 का संबंध उत्तर-पूर्वी राज्यों से है। इसके अंतर्गत नागालैंड, असम, मणिपुर, आंध्रप्रदेश, सिक्किम, गोवा, मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के संबंध में विशेष प्रावधान किए गए हैं। अनुच्छेद 371 वाले राज्यों पर केंद्र का सीधा-साधा नियंत्रण है। दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 371 में वर्णित या उल्लेखित राज्य एक निश्चित सीमा तक स्वायत्तता का उपयोग कर सकते हैं। ये व्यवस्थाएँ पश्चिमी अवधारणा से भिन्न हैं।

(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन का अभिप्राय यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र-‘वसु धैव कुटुम्बकम्’ के व्यापक सन्दर्भ में संविधान में राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद, समाजवाद, संघात्मकता, भ्रातृत्व जैसी धारणाओं को अपनाया है और समाज के सभी वर्गों की भावनाओं एवं संस्कृतियों का सम्मान करते हुए सम्बन्धित प्रावधान लागू किए हैं। इस प्रकार समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यह पाश्चात्य अवधारणा से भिम्न रूप रखती है।

वयस्क मताधिकार-सार्वभौम वयस्क मताधिकार का तात्पर्य हमारे संविधान द्वारा सभी वयस्कों को बिना किसी भेदभाव, जाति, जन्म, वर्ग, वंश, कुल एवं लिंग के बिना समान रूप से मताधिकार प्रदान किया गया है। मूल संविधान में हमने 21 वर्ष का वयस्क माना था। जबकि 61वें संशोधन द्वारा इसे 18 वर्ष कर दिया गया है। इस प्रकार भारत में हमने महिलाओं को भी पुरुषों के समान मताधिकार प्रदान किया है। जबकि अनेक पश्चिमी देशों में स्त्रियों को मताधिकार संविधान लागू होने के काफी बाद दिया गया है। उन्हें संविधान निर्माण के समय यह अधिकार नहीं दिया गया था।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धांतों को अपनाया गया है (क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। (घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा। (ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी। आधारभूत महत्व की उपलब्धि
(ख) संविधान-सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। प्रक्रियागत उपलब्धि

व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। लैंगिक-न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 उदारवादी व्यक्तिवाद महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार। धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना।
उत्तर:
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की अलोचना प्रक्रियागत उपलब्धि की आजादी। आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं  बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना।
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। लैंगिक न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 उदारवादी व्यक्तिवाद
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपति में असमान अधिकार। ध्यान देना। धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति

प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें से किस-से सहमत हैं और क्यों?
जयेश – मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।

सबा – क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?

जयेश – मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय-शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?

नेहा – तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर:
उपर्युक्त चर्चा में बहस का मुख्य विषय यह है कि भारतीय संविधान एक उधार का दस्तावेज़ है। संविधान के बहुत से प्रावधान हमने अन्य देशों; जैसे इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी एवं आयरलैंड आदि के संविधान से लिए. हैं। यद्यपि कुछ प्रावधान तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से लिए गए हैं अतः संविधान में मौलिकता का अभाव है, परंतु यह आलोचना उचित नहीं है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने विदेशी संविधानों से बहुत-सी बातें ली हैं जिनके परिणामस्वरूप कई बार इसे ‘उधार ली गई वस्तुओं का थैला’ (Beg of Borrowing) अथवा ‘विविध संविधानों की खिचड़ी’ (Hold Patch) कहकर पुकारा जाता है, परतु यह आलोचना न्यायसंगत नहीं है। वास्तव में उनके द्वारा विदेशी संविधानों की उन धारणाओं तथा व्यवस्थाओं को अपने संविधान में ग्रहण कर लिया गया जो उन देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही थीं और भारत की परिस्थितियों के अनुकूल थीं।

इस प्रकार भारतीय संविधान विदेशों से उधार लिया हुआ संविधान नहीं, बल्कि विभिन्न विदेशी संविधानों की आदर्श व्यवस्थाओं का संग्रह है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि यदि हम अन्य संविधानों से आदर्श व्यवस्थाएँ ग्रहण नहीं करते तो सम्भवतः अपने अहम् की संतुष्टि करते, परन्तु भारत की व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते।

इसके अतिरिक्त द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के समय तक संवैधानिक सिद्धान्तों का पर्याप्त विकास हो चुका था और ऐसी स्थिति में किसी मौलिक संविधान के निर्माण की बात सोचना सम्भव नहीं था। वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता का ही कार्य किया। मूंदकर नकल नहीं की गई है, बल्कि विभिन्न संविधानों की विशेषताओं के संग्रह से भारतीय संविधान में मौलिकता भी आ गई है। अतः भारतीय संविधान को ‘उधार ली गई वस्तुओं का थैला’ कहना सरासर गलत है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा संविधान जिन मूल आदर्शों एवं मूल्यों को लेकर निर्मित हुआ था, वास्तव में वे उस समय की तात्कालिक आवश्यकताएँ थीं और जिन पर चलकर हमारी शासन-व्यवस्था ने उनकी व्यावहारिकता को प्रमाणित किया है। अतः सबा के इस कथन से सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं कि कोई भी मूल्य, मूल्य होता है; आदर्श, आदर्श होते हैं; हम इसे किसी विशेष श्रेणी में नहीं बाँट सकते, किसी सीमा में नहीं बाँध सकते। हम केवल इसी आधार पर किसी मूल्य अथवा आदर्श की अनदेखी नहीं कर सकते कि यह ‘भारतीय’ है अथवा ‘पाश्चात्य’।

यदि हम नेहा के तर्क को देखें कि जो बातें हमारे लिए उपयोगी और लाभदायक हैं, उसे केवल इस कारण अनदेखा कर देना कि यह पाश्चात्य अवधारणा है, बिलकुल ही गलत है। बल्कि अपनी आवश्यकताओं और स्थितियों के अनुरूप उसे ग्रहण कर लेना ही बुद्धिमानी है। संक्षेप में, ग्रेनविल ऑस्टिन के शब्दों में, “भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को अपनाया गया है।”

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प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान की आलोचना प्रायः इस आधार पर भी की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है, अर्थात् इसका निर्माण एक ऐसी संविधान सभा द्वारा किया गया है जिसके प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने हुए नहीं थे, क्योंकि, 1946 में गठित इस संविधान सभा के सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से राज्य विधानमंडलों द्वारा निर्वाचित किए गए थे। यहाँ यह स्पष्ट उल्लेखनीय है कि कुछ विद्वान इस कारण से इसे प्रतिनिध्यात्मक नहीं मानते क्योंकि इसका निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन ऐसे सदस्यों से हुआ था जिनका चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था।

परन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया का गहन विश्लेषण करने पर यह बात निराधार ही लगती है, क्योंकि संविधान सभा के निर्माण के समय प्रत्यक्ष चुनाव सम्भव नहीं थे। यद्यपि माँऊटबेटन योजना के आधार पर बनी हमारी संविधान सभा ने संविधान के हर प्रावधान पर गहन वाद-विवाद, तर्क-वितर्क और व्यापक विचार-विमर्श किया और तब जाकर उसे अंतिम रूप से स्वीकार किया गया।

प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान को लोकप्रिय स्वीकृति प्राप्त नहीं थी क्योंकि निर्मित संविधान को जनमत-संग्रह द्वारा अनुसमर्थित नहीं कराया गया था। परंतु सच्चाई यह है. कि यदि निर्मित संविधान का जनमत-संग्रह भी करवाया जाता तब भी संविधान के स्वरूप में विशेष परिवर्तन नहीं होना था। इस तथ्य की पुष्टि सन् 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव से भी होती है, क्योंकि इस चुनाव में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव लड़ा और संविधान का स्वरूप चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा था। ये सदस्य अच्छे बहुमत से चुनाव में विजयी रहे। जो यह दर्शाता है कि संविधान सभा के सदस्यों ने जनता की इच्छानुसार कार्य किया है। अतः निष्कर्ष रूप में यह कहना गलत होगा कि हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं है।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-सा प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारत का संविधान विश्व का अनूठा, विस्तृत संविधान है जिसमें समाज और सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियों और अधिकारों की अलग-अलग व्याख्या की गई है। फिर भी भारतीय संविधान पूर्णतः दोषरहित नहीं है। यह एक संपूर्ण प्रलेखन ही है। इसमें सबसे बड़ी त्रुटि लैंगिक न्याय-विशेषतया परिवार की संपत्ति में बेटी और बेटे के साथ भेदभाव है।

परिवार की संपत्ति में स्त्री और बच्चों के साथ भी भेदभाव किया जाता है। यद्यपि सरकार द्वारा कानून बनाकर इस भेदभाव को अब समाप्त कर दिया गया है। परंतु संविधान के मूल में लैंगिक भेदभाव थे। वास्तव में ये व्यक्ति के मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार हैं। इन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। परंतु संविधान की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इन अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में सम्मिलित किया गया है जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, जबकि मौलिक अधिकार न्यायालय में वाद योग्य हैं।

यदि इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाता तो उन्हें न्यायालय में चुनौती दी जा सकती थी। भारतीय संविधान की सीमाओं में से एक यह भी है कि आज तक निरन्तर ‘मांग के पश्चात भी महिलाओं को संसद या विधानमंडल में से एक-तिहाई आरक्षण नहीं दिया गया। यदि आज की बदलती हुई परिस्थितियों में संविधान लिखा जाता तो निश्चित रूप से इन त्रुटियों को दूर करने के लिए प्रावधान किए जाते। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक अधिकारों, जिनसे व्यक्ति और समाज का विकास प्रत्यक्षतः जुड़ा होता है, उन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निदेशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए यह स्पष्ट नहीं है। आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर:
भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्व भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। इसके द्वारा भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य रखा गया है जिसमें हम आयरलैंड के संविधान से प्रेरित हुए। इन सिद्धान्तों के द्वारा हमने भारत के समक्ष ऐसे सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य रखे हैं जिन तक पहुँचकर भारत को एक कल्याणकारी राज्य बनाया जा सकता है। ये तत्त्व वास्तव में राज्य नैतिक कर्तव्य हैं। शासन के तत्त्वों में ये मूलभूत हैं। यह सर्वविदित है कि नीति-निर्देशक तत्त्वों का कोई कानूनी आधार नहीं है, फिर भी ये शासन संचालन के आधारभूत सिद्धांत हैं।

परन्तु इनका पालन राज्यों की इच्छा पर छोड़ा गया। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इतने महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के होते हुए भी संविधान निर्माताओं द्वारा इन्हें कानूनी आधार न देना और इन्हें राज्यों की इच्छा पर छोड़ देना कुछ व्यवहारिक नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय बात यह है कि जब भारत स्वतंत्र हुआ था तो उस समय

इसकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि इन निर्देशक तत्त्वों का पालन करने की बाध्यता होने पर आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकता था। इससे अन्य आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक समस्याएँ खड़ी हो सकती थीं। अतः तत्कालीन स्थिति की वास्तविकता को देखते हुए नीति-निर्देशक तत्त्वों के पालन को राज्य की इच्छा पर छोड़ दिया गया ताकि राज्यों पर किसी भी प्रकार का अतिरिक्त भार न पड़े और भविष्य में आर्थिक रूप से सक्षम होने पर इन। के अनुरूप कानून बनाकर भारत को कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करने का प्रयास करें।

संविधान का राजनीतिक दर्शन HBSE 11th Class Political Science Notes

→ प्रत्येक देश का संविधान उस देश की शासित होने वाली जनता के लिए शासन-व्यवस्था के विभिन्न अंगों के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्यों के अनुरूप एक आधारभूत ढाँचे को निश्चित करता है।

→ अन्य देशों की तरह भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी भावी भारतीय समाज के नागरिकों के लिए एक राजनीतिक दर्शन को अभिव्यक्त किया है। जैसा कि श्री गजेन्द्र गड़कर ने कहा है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना से संविधान के बुनियादी दर्शन का ज्ञान होता है।

→ यद्यपि कानूनी दृष्टि से प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती और न ही इसे न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है, लेकिन फिर भी प्रस्तावना संविधान का महत्त्वपूर्ण भाग है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं, आदर्शों एवं सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालती है।

→ इसी कारण प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संविधान रूपी दस्तावेज के पीछे प्रस्तावना रूपी नैतिक दृष्टि एक राजनीतिक दर्शन के रूप में काम कर रही है।

→ इस अध्याय में हम विशेषतः भारतीय संविधान के राजनीतिक दर्शन को स्पष्ट करने के लिए संविधान के राजनीतिक दर्शन के अर्थ की स्पष्टता के साथ-साथ संविधान के सारभूत प्रावधान तथा संविधान के प्रावधानों में अन्तर्निहित परिकल्पनाओं की विस्तार से चर्चा करेंगे।

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