Class 12

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

HBSE 12th Class History उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
ग्रामीण बंगाल के बहुत-से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
उत्तर:
जोतदार बंगाल के गाँवों में संपन्न किसानों के समूह थे। गाँव के मुखिया भी इन्हीं में से होते थे। संक्षेप में इन जोतदारों की ताकत में वृद्धि होने के निम्नलिखित मुख्य कारण थे

1. ज़मीनों के वास्तविक मालिक-जोतदार गाँव में ज़मीनों के वास्तविक मालिक थे। कईयों के पास तो हजारों एकड़ भूमि थी। वे बटाइदारों से खेती करवाते थे। जो फसल का आधा भाग अपने पास और आधा जोतदार को दे देते थे। इससे जोतदारों की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती चली गई।

2. व्यापारी तथा साहूकार-जोतदार केवल भू-स्वामी ही नहीं थे। उनका स्थानीय व्यापार व साहूकारी पर भी नियंत्रण था। वे एक व्यापारी, साहूकार तथा भूमिपति के रूप में अपने क्षेत्र के प्रभावशाली लोग थे।

3. भू-राजस्व भुगतान में जान-बूझकर देरी-जोतदार जान-बूझकर गाँव में ऐसा माहौल तैयार करवाते थे कि ज़मींदार के अधिकारी (अमला) गाँव से लगान न एकत्रित कर पाए। यह विलंब ज़मींदार के लिए कुड़की लेकर आता था। इससे जोतदार को लाभ मिलता था।

4. ज़मीन की खरीद-ज़मींदार की ज्यों ही ज़मीन की नीलामी होती थी, उसे प्रायः जोतदार ही खरीदता था। इससे उनकी शक्ति में और वृद्धि होती जाती थी और ज़मींदारों की शक्ति का दुर्बल होना स्वाभाविक था।

प्रश्न 2.
जमींदार लोग अपनी ज़मींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखते थे? उत्तर:ज़मींदारों ने अपनी सत्ता और ज़मींदारी बचाने के लिए निम्नलिखित तिकड़मबाजी लगाई

1. बेनामी खरीददारी-ज़मींदारों ने अपनी ज़मींदारी को बचाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण हथकंडा बेनामी खरीददारी का अपनाया। इसमें प्रायः ज़मींदार के अपने ही आदमी नीलाम की गई संपत्तियों को महँगी बोली देकर खरीद लेते थे। फिर वे देय राशि सरकार को नहीं देते थे। सरकार को पुनः उस ज़मीन को नीलाम करना पड़ता था और इस बार भी ज़मींदार के दूसरे एजेंट वैसा ही करते और सरकार को फिर राशि जमा नहीं करवाते। यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती जब तक सरकार और बोली लगाने वाले दोनों हार न जाते। बोली लगाने वाले नीलामी के समय आना ही छोड़ जाते थे। अन्ततः सरकार को वह ज़मींदारी पुराने ज़मींदार को देनी पड़ती थी।

2. ज़मीन का कब्जा न देना-यदि बाहर के शहरी धनी लोग अधिक बोली देकर ज़मीन खरीदने में सफल हो जाते थे तो ऐसे लोगों को कई बार ज़मींदार के लठैत (लठियाल) ज़मीन में प्रवेश ही नहीं करने देते थे। कई बार ज़मींदार अपनी रैयत को नए ज़मींदार के विरुद्ध भडका देते थे। या फिर रैयत की पुराने जमींदार के साथ लगाव व सहानुभूति होती थी। इस कारण से वह नए जमींदार को ज़मीन में घुसने ही नहीं देती थी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 3.
पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शाई?
उत्तर:
बाहरी लोगों का आगमन पहाड़िया लोगों के लिए जीवन का संकट बन गया था। उनके पहाड़ व जंगलों पर कब्जा करके खेत बनाए जा रहे थे। पहाड़िया लोगों में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों के आक्रमणों में तेजी आती गई। अनाज व पशुओं की लूट के साथ इन्होंने अंग्रेजों की कोठियों, ज़मींदारों की कचहरियों तथा महाजनों के घर-बारों पर अपने मुखियाओं के नेतृत्व में संगठित हमले किए और लूटपाट की।

दूसरी ओर ब्रिटिश अधिकारियों ने दमन की क्रूर नीति अपनाई। उन्हें बेरहमी से मारा गया परंतु पहाड़िया लोग दुर्गम पहाड़ी गों में जाकर बाहरी लोगों (ज़मींदारों व जोतदारों) पर हमला करते रहे। ऐसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के सैन्य बलों के लिए भी इनसे निपटना आसान नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने शांति संधि के प्रयास शुरू किए। जिसमें उन्हें वार्षिक भत्ते की पेशकश की गई। बदले में उनसे यह आश्वासन चाहा कि वे शांति व्यवस्था बनाए रखेंगे। उल्लेखनीय है कि अधिकतर मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जिन कुछ मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था, उन्हें पहाड़िया लोगों ने पसंद नहीं किया।

प्रश्न 4.
संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?
अथवा
संथालों के विद्रोह के क्या कारण थे?
उत्तर:
संथालों के विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे
(1) उनकी ज़मीनें धीरे-धीरे उनके हाथों से निकलकर ज़मींदारों और साहूकारों के हाथों में जाने लगीं। साहूकार और ज़मींदार उनकी ज़मीनों के मालिक बनने लगे। महेशपुर और पाकुड़ के पड़ोसी राजाओं ने संथालों के गाँवों को आगे छोटे ज़मींदारों व साहूकारों को पट्टे पर दे दिया। वे मनमाना लगान वसूल करने लगे।

(2) इससे शोषण व उत्पीड़न का चक्र शुरू हुआ। लगान अदा न कर पाने की स्थिति में संथाल किसान साहूकारों से ऋण लेने के लिए विवश हुए। साहूकार ने 50 से 500 प्रतिशत तक सूद वसूल किया।

(3) किसान की दरिद्रता बढ़ने लगी। वे ज़मींदारों के अर्ध-दास व श्रमिक बनने लगे।

(4) सरकारी अधिकारी, पुलिस, थानेदार सभी महाजनों का पक्ष लेते थे। वे स्वयं भी संथालों से बेगार लेते थे। यहाँ तक कि संथाल कृषकों की स्त्रियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं थी। अतः दीकुओं (बाहरी लोगों) के विरुद्ध संथालों का विद्रोह फूट पड़ा।

प्रश्न 5.
दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?
उत्तर:
1870 ई० के आसपास दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति अत्यधिक क्रुद्ध थे। विद्रोह के दौरान उन्होंने उनके बही-खाते और कई जगह तो घरों को भी जला डाला था। वास्तव में अमेरिकी गृह युद्ध के बाद उनके लिए ऋण का स्रोत सूख गया था। उन्हें ऋण मिलना बंद हो गया था।

जब साहूकारों ने उधार देने से मना किया तो किसानों को बहुत गुस्सा आया। क्योंकि परंपरागत ग्रामीण व्यवस्था में न तो अधिक ब्याज लिया जाता था और न ही मुसीबत के समय उधार से मनाही की जाती थी। किसान विशेषतः इस बात पर अधिक नाराज़ थे कि साहूकार वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनके हालात पर रहम नहीं खा रहा है। सन् 1874 में साहूकारों ने भू-राजस्व चुकाने के लिए किसानों को उधार देने से स्पष्ट इंकार कर दिया था। वे सरकार के इस कानून को नहीं मान रहे थे कि चल-सम्पत्ति की नीलामी से यदि उधार की राशि पूरी न हो तभी साहूकार जमीन की नीलामी करवाएँ। अब उधार न मिलने से मामला और भी जटिल हो गया। किसान विद्रोही हो उठे।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी ज़मींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गईं?
उत्तर:
इस्तमरारी बंदोबस्त यानी ज़मींदारी प्रथा के कारण बहुत-से ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी गई थीं क्योंकि वे समय पर सरकार को देय राशि का भुगतान नहीं कर पाते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई थी। जिस दशक में यह बंदोबस्त लागू किया गया था, उसी दशक में मंदी का दौर चल रहा था। इसलिए रैयत (किसान) अपने लगान को चुकाने की स्थिति में ही नहीं था। दूसरी ओर, कंपनी सरकार ने ज़मींदारों की सैनिक व प्रशासनिक शक्तियों को कम कर दिया था। उनके सैनिक दस्ते भंग कर दिए थे। पुलिस और न्याय के अधिकार भी छीन लिए थे। अब वे किसानों से डंडे के बल पर लगान वसूल नहीं कर सकते थे। वे लगान न देने वाले किसानों के खिलाफ न्यायालय में तो जा सकते थे परंतु न्यायालयों में न्याय की प्रक्रिया काफी लंबी थी। उदाहरण के लिए बर्दवान जिले में ही 1798 में 30,000 से अधिक मुकद्दमें बाकीदारों के विरुद्ध लम्बित थे।

सरकार का राजस्व वसूली का रवैया बहुत ही कठोर था। इसके लिए सूर्यास्त विधि (Sunset Law) का अनुसरण किया गया था अर्थात् निश्चित तारीख को सूर्य छिपने तक देय राशि का भुगतान न करने वाले ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी जाती थीं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि संपन्न ग्रामीण वर्ग (जोतदार और धनी किसान) भी ज़मींदार की नीलामी से खुश होता था। वह सामान्य किसानों (रैयत) को ज़मींदार के विरुद्ध लगान न देने के लिए प्रोत्साहित भी करता था। कई बार तो फसल न होने पर और कई बार तो जान-बूझकर भी वह ज़मींदार को लगान नहीं देता था। उसे यह पता था कि ज़मींदार सैनिक कार्रवाई नहीं कर सकता और न्यायालय में मुकद्दमों का आसानी से निर्णय नहीं हो सकता। अतः यही वे परिस्थितियाँ थीं जिनमें इस्तमरारी प्रथा के चलते बहुत-सी ज़मींदारियाँ 18वीं सदी के अंतिम दशक में नीलाम कर दी गई थीं।

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प्रश्न 7.
पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस रूप में भिन्न थी?
उत्तर:
पहाड़िया और संथाल दो जनजातियाँ थीं। लेकिन दोनों की आजीविका के साधनों में अंतर था। संथाल पहाड़ियों की. अपेक्षा अग्रणी बाशिंदे थे।
दोनों जनजातियों की आजीविका के साधनों में अंतर को निम्नलिखित तरीके से स्पष्ट किया जा सकता है

पहाड़िया लोगों की आजीविकासंथालों की आजीविका
1. पहाड़िया लोगों की खेती कुदाल (Hoe) पर आधारित थी। ये राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहते थे। वे हल को हाथ लगाना पाप समझते थे।1. संथाल हल (Plough) की खेती यानी स्थायी कृषि सीख रहे थे। ये गंजुरिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले लोग थे।
2. पहाड़िया लोग झूम की खेती करते थे। वे झाड़ियों को काटकर व घास-फूँस को जलाकर एक छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा निकाल लेते थे। यह छोटा-सा खेत पर्याप्त उपजाऊ होता था। घास व झाड़ियों के जलने से बनी राख उसे और भी उपजाऊ बना देती थी। ये लोग साधारण कृषि औजार-कुदाल से ज़मीन को थोड़ा खुरचकर खेती करते थे। कुछ वर्षों तक उसमें खाने के लिए विभिन्न तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगाते और फिर कुछ वर्षों के लिए उसे खाली (परती) छोड़ देते, ताकि यह पुनः उर्वर हो जाए।2. यह अपेक्षाकृत स्थायी प्रवृत्ति के थे। ये परिश्रमी थे और इन्हें खेती की समझ थी। इसलिए जमींदार लोग इन्हें नई भूमि निकालने तथा खेती करने के लिए मजदूरी पर रखते थे।
3. कृषि के अतिरिक्त शिकार व जंगल के उत्पाद पहाड़िया लोगों की आजीविका के साधन थे। वे काठ कोयला बनाने के लिए जंगल से लकड़ियाँ एकत्र करते थे। खाने के लिए महुआ नामक पौधे के फूल एकत्र करते थे। जंगल से रेशम के कीड़े के कोया (Silkcocoons) एवं राल (Resin) एकत्रित करके बेचते थे।3. संथाल जंगल तोड़कर अपनी जमीनें निकालकर खेती करने लगे। वे पहाड़िया लोगों के क्षेत्रों में घुसे आ रहे थे। वे नए निकाले खेतों में तम्बाकू सरसों, कपास तथा चावल की खेती करते थे।
4. पहाड़िया लोग जंगलों को बर्बाद करके उस क्षेत्र में हल नहीं चलाना चाहते थे। वे बाजार के लिए खेती नहीं चाहते थे।4. ये जंगलों को तोड़कर खेती कसने में परहेज नहीं करते थे।

प्रश्न 8.

अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:
अमेरिका में गृहयुद्ध सन् 1861 से 1865 के बीच हुआ। इस गृहयुद्ध के दौरान भारत की रैयत को खूब लाभ मिला। कपास की कीमतों में अचानक उछाल आया क्योंकि इंग्लैंड के उद्योगों को अमेरिका से कपास मिलना बंद हो गया था। भारतीय कपास की माँग बढ़ने के कारण कपास उत्पादक रैयत को ऋण की भी समस्या नहीं रही। कपास सौदागरों ने बंबई दक्कन के जिलों में कपास उत्पादन का आँकलन किया। किसानों को अधिक कपास उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया। कपास निर्यातकों ने शहरी साहकारों को पेशगी राशियाँ दी ताकि वे ये राशियाँ ग्रामीण ऋणदाताओं को उपलब्ध करवा सकें और वे आगे किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें उधार दे सकें।

निर्यातक, साहूकार, व्यापारी तथा किसान सभी अपने-अपने मुनाफे के लिए कपास की पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयत्न करने लगे। ऋण की समस्या अब किसानों के लिए नहीं थी। साहूकार भी अपनी उधार राशि की वापसी के लिए आश्वस्त था।

दक्कन के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। किसानों को लंबी अवधि के ऋण प्राप्त हुए। कपास उगाई जाने वाली प्रत्येक एकड़ भूमि पर सौ रुपए तक की पेशगी राशि किसानों को दी गई। चार साल के अंदर ही कपास पैदा करने वाली ज़मीन दो गुणी हो गई। 1862 ई० तक स्थिति यह थी कि इंग्लैंड में आयात होने वाले कुल कपास आयात का 90% भाग भारत से जा रहा था। बंबई में दक्कन में कपास उत्पादक क्षेत्रों में इससे समृद्धि आई। यद्यपि इस समृद्धि का लाभ मुख्य तौर पर धनी किसानों को ही हुआ। गरीब किसान इस तेजी के दौर में भी साहूकार के कर्ज से निकल नहीं पाए। परंतु ज्यों ही गृहयुद्ध समाप्त हुआ। पुनः अमेरिका से कपास ब्रिटेन में आयात होने लगी। भारतीय रैयत का माल बिकना कम हो गया। साथ में उनका ऋण स्रोत भी सूख गया। इससे उनमें
आक्रोश बढ़ा।

प्रश्न 9.
किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के बारे में क्या समस्याएँ आती हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों को किसानों संबंधी इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के दौरान कई तरह की समस्याएँ आती हैं; जैसे कि ये स्रोत निष्पक्ष नहीं होते। राजस्व अभिलेख, विभिन्न दंगा आयोग की रिपोर्ट, सरकार द्वारा नियुक्त सर्वेक्षणकर्ताओं की रिपोर्ट, प्रशासनिक पत्राचार, अधिकारियों के निजी कागज-पत्र तथा उनकी डायरी वृत्तांत इत्यादि सभी दस्तावेज सरकारी स्रोत कहे
जाते हैं।

इन सरकारी स्रोतों के आधार पर किसानों संबंधी इतिहास लिखने में सबसे बड़ी समस्या होती है उन स्रोतों के ‘उद्देश्य एवं दृष्टिकोण’ की खोज-बीन करना। क्योंकि वे किसी-न-किसी रूप में सरकारी दृष्टिकोण एवं अभिप्राय के पक्षधर होते हैं। वे निष्पक्ष नहीं होते। उदाहरण के लिए ‘दक्कन दंगा आयोग’ नियुक्ति का उद्देश्य यह पता लगाना था कि सरकारी राजस्व की माँग का विद्रोह के साथ क्या संबंध था अर्थात् क्या किसान राजस्व की ऊँची दर के कारण विद्रोही हुए थे या फिर इसके अन्य कारण थे। जाँच-पड़ताल के बाद रिपोर्ट में आयोग ने स्पष्ट किया कि सरकारी माँग किसानों के आक्रोश का कारण बिल्कुल नहीं थी।

इसके लिए साहूकार तथा उनके हथकंडे ही उत्तरदायी थे। परन्तु साहूकार की शरण में किसान क्यों जाने के लिए विवश हुआ, यहाँ आयोग निष्पक्ष नहीं रहा। राजस्व की ऊँची दर और उसे वसूलने के तरीके, विशेषतः मंदी व प्राकृतिक आपदाएँ (अकालों आदि) ही किसान को साहूकार के चंगुल में फंसाती थीं। आयोग ने इन सब बातों को उत्तरदायी नहीं माना। अतः स्पष्ट है कि आयोग सरकार का पक्ष ले रहा था। औपनिवेशिक सरकार अपने दोष को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। ध्यान रहे सरकारी रिपोर्ट इतिहास-लेखन में बहुमूल्य स्रोत तो होते हैं, लेकिन उन्हें सदैव सावधानीपूर्वक पढ़ना चाहिए। साथ ही समाचार-पत्रों, गैर सरकारी वृत्तांतों, वैधिक अभिलेखों तथा यथासंभव मौखिक स्रोतों के साक्ष्यों से मिलान करना चाहिए।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
उपमहाद्वीप के बाह्यरेखा मानचित्र (खाके) में इस अध्याय में वर्णित क्षेत्रों को अंकित कीजिए। यह भी पता लगाइए कि क्या ऐसे भी कोई इलाके थे जहाँ इस्तमरारी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू थी। ऐसे इलाकों को मानचित्र में भी अंकित कीजिए।
उत्तर:
उपमहाद्वीप में कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ दोनों प्रणालियाँ लागू की गई थीं जैसे कि बंगाल (बिहार, उड़ीसा सहित), मद्रास . प्रेजीडेंसी, सूरत, बंबई प्रेजीडेंसी, मद्रास के कुछ इलाके, उत्तर पूर्वी भारत में पड़ने वाले पहाड़िया और संथाल लोगों के स्थान।

इस्तमरारी बंदोबस्त मुख्यतः बंगाल बिहार व उड़ीसा क्षेत्र में लागू किया गया था। यह ब्रिटिश भारत के लगभग 19% भाग पर लागू थी।

रैयतवाड़ी प्रणाली को सन् 1820 तक मद्रास, बंबई के कुछ भागों, बर्मा तथा बरार, आसाम व कुर्ग के कुछ क्षेत्रों में लागू किया गया। इसमें कुल मिलाकर ब्रिटिश भारत की कुल भूमि के 51 प्रतिशत हिस्से को शामिल किया गया।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
फ्रांसिस बुकानन ने पूर्वी भारत के अनेक जिलों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की थीं। उनमें से एक रिपोर्ट पढ़िए और इस अध्याय में चर्चित विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हुए उस रिपोर्ट में ग्रामीण समाज के बारे में उपलब्ध जानकारी को संकलित कीजिए। यह भी बताइए कि इतिहासकार लोग ऐसी रिपोर्टों का किस प्रकार उपयोग कर सकते हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अध्यापक के दिशा निर्देश में परियोजना रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 12.
आप जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहाँ के ग्रामीण समदाय के वद्धजनों से चर्चा कीजिए और उन खेतों में जाइए जिन्हें वे अब जोतते हैं। यह पता लगाइए कि वे क्या पैदा करते हैं, वे अपनी रोजी-रोटी कैसे कमाते हैं, उनके माता-पिता क्या करते थे, उनके बेटे-बेटियाँ अब क्या करती हैं और पिछले 75 सालों में उनके जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए हैं। अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी इसके लिए गाँव के सरपंच, नंबरदार तथा वृद्धजनों से सूचना प्राप्त करें। यथासंभव गाँव संबंधी रिकॉर्ड को देखें।
साक्षात्कारों और विभिन्न रिकॉर्डस के आधार पर अपने अध्यापक के निर्देशन में ‘प्रोजेक्ट रिपोर्ट’ बनाएँ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन HBSE 12th Class History Notes

→ उपनिवेशवाद-यह वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत किसी देश, राष्ट्र या संप्रदाय को अन्य राष्ट्र या समुदाय के लोगों द्वारा अधीन बनाकर विभिन्न क्षेत्रों (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक) को प्रभावित करने के लिए प्रेरित करती है।

→ साम्राज्यवाद-जब कोई एक राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र या उसके किसी भू-क्षेत्र पर राजनीतिक अधिकार स्थापित करके अपने हितों की पूर्ति करता है, तो उसे साम्राज्यवाद कहते हैं। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का परस्पर गहरा संबंध होता है।

→ औपनिवेशिक व्यवस्था-ऐसी व्यवस्था जिसका विकास उपनिवेशवाद की विचारधारा के तहत हुआ हो। उदाहरण के लिए भारत में अंग्रेजों की व्यवस्था औपनिवेशिक थी। अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए उन्होंने भारत में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन किए।

→ अभिलेखागार-उस स्थान को कहा जाता है जहाँ पुराने दस्तावेज, सरकारी रिपोर्ट, फाइलें, वैधिक निर्णय, अभियोग, याचिकाएँ, डायरियाँ, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ इत्यादि सुरक्षित रखे जाते हैं जिन्हें शोधकर्ता उपयोग करते हैं और अपने निष्कर्षों के साथ इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।

→ ताल्लकेदार-यह शब्द ज़मींदारों के लिए प्रयोग में आता है। लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जिसके साथ ताल्लुक (संबंध) हो। आगे चलकर ताल्लुक का अर्थ क्षेत्रीय इकाई हो गया था।

→ राजा-बंगाल में 18वीं सदी में ‘राजा’ शब्द का प्रयोग प्रायः शक्तिशाली ज़मींदारों के लिए किया जाता था। इनके पास अपने न्यायिक और सैनिक अधिकार होते थे। ये नवाब को अपना ज़मींदारी-राजस्व देते थे। वैसे काफी सीमा तक ये स्वायत्त थे।

→ ज़मींदार-बंगाल के ‘राजाओं’ तथा ‘ताल्लुकेदारों को इस्तमरारी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के तहत ‘जमींदारों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया। उन्हें सरकार को निर्धारित राजस्व निश्चित समय पर देना होता था। इस परिभाषा के अनुसार वे गाँव में भू-स्वामी नहीं थे, बल्कि भू-राजस्व समाहर्ता यानी संग्राहक मात्र थे।

→ जोतदार-उत्तरी बंगाल में जोतदार धनी किसानों को कहा जाता था। कुछ जोतदार तो हजारों एकड़ के मालिक थे। वे अपनी खेती बटाईदारों (बरगादारों या अधियारों) से करवाते थे।

→ रैयत-अंग्रेज़ों के विवरणों में रैयत’ शब्द का प्रयोग किसानों के लिए किया जाता था। गाँव का प्रत्येक छोटा या बड़ा रैयत ज़मींदार को लगान अदा करता था।

→ शिकमी रैयत-रैयत (किसान) कुछ ज़मीन तो स्वयं जोतते थे और कुछ आगे बटाईदारों को जोतने के लिए दे देते थे। ये बटाईदार किसान शिकमी रैयत कहलाते थे। ये रैयत को फसल का हिस्सा (लगान) देते थे।

→ अमला-ज़मींदार का वह अधिकारी जो गाँव में रैयत से लगान एकत्र करने आता था।

→ जमा-गाँव की भूमि का कुल लगान।

→ लठियाल-लाठीवाला। बंगाल में ज़मींदार के लठैतों को लठियाल कहा जाता था।

→ बेनामी-इसका शाब्दिक अर्थ है ‘गुमनाम’, किसी फर्जी व्यक्ति के नाम से किए जाने वाले सौदे। इसमें असली फायदा उठाने वाले व्यक्ति का नाम सामने नहीं आता।

→ हवलदार या गाँटीदार या मंडल-उत्तरी बंगाल में जोतदार गाँवों में मुखिया (मुकद्दम) बनकर उभरे, लेकिन अन्य भागों में ऐसे धनी प्रभावशाली मुखियाओं को हवलदार या गाँटीदार (Gantidars) या मंडल कहा जाता था।

→ महालदारी-भूमि बंदोबस्त, जिसमें महाल अथवा गाँव को इकाई मानकर राजस्व की माँग निर्धारित की गई। यह मुख्यतः उत्तर भारत में लागू किया गया।

→ साहूकार-यह ऐसा व्यक्ति होता था जो पैसा ब्याज पर उधार देता था और साथ ही व्यापार भी करता था।

→ किरायाजीवी-यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग में लाया गया जो अपनी सम्पत्ति की आय पर जीवनयापन करते हैं।

→ योमॅन कंपनी के शासनकाल के रिकॉर्ड में छोटे किसान को ‘योमॅन’ कहा गया।

→ ताम्रपट्टोत्कीर्णन या एक्वाटिंट-ऐसी तस्वीर होती है जो ताम्रपट्टी में अम्ल (Acid) की सहायता से चित्र के रूप में कटाई करके बनाई जाती है।

→ इस अध्याय का संबंध औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था के उन प्रभावों से है, जो भारत के गाँवों पर पड़े। उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज के कारण देहाती समाज की परंपरागत व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। कुछ लोग धनवान और कुछ गरीब हो गए। बहुत-से लोगों के हाथों से गुजर-बसर के साधन तक छिन गए। राजस्व की ऊँची दर निर्धारित करने से किसानों के जीवन पर काफी बुरा असर हुआ। वे साहूकारी के जाल में फँसते गए। अन्यायपूर्ण सरकारी कानूनों के प्रति किसानों की प्रतिक्रिया विद्रोहों के रूप में हुई। इस अध्याय में बंगाल तथा बंबई दक्कन के देहात में हुए परिवर्तनों को ही अध्ययन का आधार बनाया गया है।

→ सन् 1793 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में भू-राजस्व की एक नई प्रणाली अपनाई, जिसे ‘ज़मींदारी प्रथा’, ‘स्थायी बंदोबस्त’ अथवा ‘इस्तमरारी-प्रथा’ कहा गया। यह प्रणाली बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा बनारस व उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई थी। इस व्यवस्था से सरकार की आय निश्चित हो गई और प्रशासन व व्यापार दोनों को नियमित करने में लाभ हुआ। परन्तु यह बंगाल की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं कर सकी। कालांतर में यह प्रणाली कंपनी के लिए भी आर्थिक तौर पर घाटे की सिद्ध हुई। साथ ही इसमें रैयत को ज़मींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था। उनके हितों की पूरी तरह उपेक्षा की गई। शीघ्र ही कंपनी अधिकारियों को इसमें एक आर्थिक बुराई और भी नज़र आने लगी। इस व्यवस्था में समय-समय पर भूमिकर में वृद्धि का अधिकार सरकार के पास नहीं था।

→ प्रारंभ में स्थाई बंदोबस्त ज़मींदारों के लिए काफी हानिप्रद सिद्ध हुआ। बहुत-से ज़मींदार सरकार को निर्धारित भूमि-कर का भुगतान समय पर नहीं कर सके। परिणामस्वरूप उन्हें उनकी ज़मींदारी से वंचित कर दिया गया। समकालीन स्रोतों से ज्ञात होता है कि बर्दवान के राजा (शक्तिशाली ज़मींदार) की ज़मींदारी के अनेक महाल (भू-संपदाएँ) सार्वजनिक तौर पर नीलाम किए गए थे। ध्यान रहे ये ज़मींदार अपनी ज़मींदारियों को बचाने के लिए तरह-तरह की तिकड़मबाजी भी लगाते थे। इस व्यवस्था के चलते गाँवों के संपन्न किसान समूहों एवं जोतदारों को शक्तिशाली होने का अवसर मिला।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

→ बंगाल में जिस अवधि के परिवर्तनों पर हम विचार कर रहे हैं उसका एक प्रमुख समकालीन स्रोत 1813 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट है। यह पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से जानी गई। इसमें 1002 पृष्ठ थे जिनमें से 800 से अधिक पृष्ठों में परिशिष्ट लगाए गए थे। इन परिशिष्टों में भू-राजस्व से संबंधित आंकड़ों की तालिकाएँ, अधिकारियों की बंगाल व मद्रास में राजस्व व न्यायिक प्रशासन पर लिखी गई टिप्पणियाँ, जिला कलेक्टरों की अपने अधीन भू-राजस्व व्यवस्था पर रिपोर्ट तथा ज़मींदारों एवं रैयतों के आवेदन पत्रों को सम्मिलित किया गया था। ये साक्ष्य इतिहास लेखन के लिए बहुमूल्य हैं। लेकिन यह कोई निष्पक्ष रिपोर्ट नहीं कही जा सकती। इसका अध्ययन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। जो प्रवर समिति के सदस्य इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले थे उनका प्रमुख उद्देश्य कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करना था। राजस्व प्रशासन की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया।

→ इस अध्याय के एक भाग में ‘पहाड़िया’ और ‘संथालों’ के जीवन पर पड़े प्रभावों को बहुत ही गम्भीरता से वर्णित किया गया है। राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहने वाले पहाड़िया लोगों की खेती तो अभी कुदाल (Hoe) पर आधारित ही थी। जबकि गंजुरिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले संथाल हल (Plough) की खेती यानी स्थायी कृषि सीख रहे थे। अंग्रेजों ने अपने हितों के लिए पहाड़िया और संथालों के जीवन में हस्तक्षेप करके उनके परंपरागत जीवन को बदला दिया था। फिर पहाड़िया और संथालों की प्रतिक्रिया काफी तीखी हुई।
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→ सन् 1855-56 में तो संथालों का आक्रोश एक ज़बरदस्त सशस्त्र विद्रोह के रूप में फूट पड़ा। जून को भगनीडीट गाँव में लगभग 400 आदिवासी गाँवों से करीब 6,000 आदिवासी प्रतिनिधियों की सभा हुई जिसमें एक स्वर से खले विद्रोह का आह्वान किया गया। विद्रोह के नेता सीदो, कान्ह, चाँद और भैरव थे। ये चारो भाई थे। सीदो (सिधू मांझी) ने स्वयं को देवीपुरुष बताया और संथालों के भगवान् ‘ठाकुर’ का अवतार घोषित किया। संथालों को विश्वास था कि भगवान् उनके साथ हैं। ये नेता हाथी, घोड़े और पालकी पर चलते थे।

गाँव-गाँव में ढोल, नगाड़ों के साथ जुलूस निकालकर विद्रोह का आह्वान किया गया। एक अनुमान के अनुसार लगभग 60,000 सशस्त्र संथाल संगठित हो गए थे। इन्होंने महाजनों, ज़मींदारों के घरों को जला दिया, जमकर लूटपाट की तथा उन बही-खातों को भी बर्बाद कर दिया जिनके कारण वे गुलाम हो गए थे। चूंकि अंग्रेज़ सरकार महाजनों और ज़मींदारों का पक्ष ले रही थी। अतः संथालों ने सरकारी कार्यालयों, पुलिस कर्मचारियों पर हमले किए। थानों में आग लगा दी। भागलपुर और राजमहल के बीच रेल, डाक और तार सेवा को तहस-नहस कर दिया।
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→ विद्रोहियों को कुचलने के लिए सेना ने कत्लेआम मचा दिया। गाँव-के-गाँव जलाकर राख कर दिए। निःसंदेह संथालों ने वीरतापूर्वक अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला किया, परन्तु सीधे तीर-धनुष और छापामार युद्ध के सहारे तोपों और गोलियों के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके। लगभग 15,000 संथाल मारे गए। 1855 ई० में सीदो को पकड़कर मार डाला गया। 1856 ई० में कान्हू को भी पकड़ लिया गया।

→ 1875 का दक्कन विद्रोह-यह विद्रोह 12 मई, 1875 को महाराष्ट्र के एक बड़े गाँव सूपा (Supe) से शुरू हुआ। दो महीनों के अंदर यह पूना और अहमदनगर के दूसरे बहुत-से गाँवों में फैल गया। 100 कि०मी० पूर्व से पश्चिम तथा 65 कि०मी० उत्तर से दक्षिण के बीच लगभग 6500 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इसकी चपेट में आ गया। हर जगह गुजराती और मारवाड़ी महाजनों और साहूकारों पर आक्रमण हुए। उन्होंने साहूकारों से उनके ऋण-पत्र (debt bonds) और बही-खाते (Account books) छीन लिए और उन्हें जला दिया। जिन साहूकारों ने बही-खाते और ऋण-पत्र देने का विरोध किया, उन्हें मारा-पीटा गया। उनके घरों को भी जला दिया गया। इसके अलावा अनाज की दुकानें लूट ली गईं।

→ यह विद्रोह मात्र अनाज के लिए दंगा’ (Grain Riots) नहीं था। किसानों का निशाना साफ तौर पर ‘कानूनी दस्तावेज’ (Legal Documents) थे। इस विद्रोह के फैलने से ब्रिटिश अधिकारी भी घबराए। उन्होंने इस इलाके को सेना के हवाले करना पड़ा। 95 किसानों को गिरफ्तार करके दंडित किया गया। विद्रोह पर नियंत्रण के बाद भी स्थिति पर नज़र रखी गई। किसानों के इन विद्रोहों का संबंध देहाती अर्थव्यवस्था में उन परिवर्तनों से है जो ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों से आए। विशेषतः इन नीतियों के चलते साहकास और कृषकों के मध्य परंपसुगत संबंध समाप्त हो गए।

→ ऋण-प्राप्ति और उसकी वापसी दोनों ही दक्कन के किसानों के लिए एक जटिल प्रक्रिया थी। परंपरागत साहूकारी कारोबार में कानूनी दस्तावेजों का इतना झंझट नहीं था। जुबान अथवा वायदा ही पर्याप्त था। क्योंकि किसी सौदे के लिए परस्पर सामाजिक दबाव रहता था। ब्रिटिश अधिकारी वर्ग बिना विधिसम्मत अनुबंधों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जुबानी लेन-देन कानून के दायरे में कोई महत्त्व नहीं रखता था जबकि परंपरागत प्रणाली में गाँव की पंचायत महत्त्व देती थी।

→ कर्ज में डूबे किसान को जब और उधार की जरूरत पड़ती तो केवल एक ही तरीके से यह संभव हो पाता कि वह ज़मीन, गाड़ी, हल-बैल ऋण दाता को दे दे। फिर भी जीवन के लिए तो उसे कुछ-न-कुछ साधन चाहिए थे। अतः वह इन साधनों को साहूकार से किराए पर लेता था जो वास्तव में उसके अपने ही होते थे।

क्रम संख्याकालघटना का विवरण
1 .1757अंग्रेज़ों व सिराजुद्दौला के मध्य प्लासी की लड़ाई हुई।
2 .1764बक्सर की लड़ाई।
3 .1765इलाहाबाद की संधि हुई।
4 .1772वारेन हेस्टिग्स बंगाल का गवर्नर बनकर आया जिसे 1773 में गवर्नर जनरल बनाया गया।
5 .1773कंपनी की सैनिक व राजनीतिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया गया।
6 .1784रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए ‘पिट्स इंडिया एक्ट’ पास किया गया।
7 .1793स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी अथवा ज़मींदारी) लॉर्ड कार्नवालिस ने लागू किया।
8 .1780 का दशकसंथाल बंगाल में आए और ज़मींदारों के खेतों में काम करने लगे।
9 .1800 का दशकसंथाल जनजाति के लोग राजमहल की पहाड़ियों में आकर बसने लगे।
10 .1813‘पाँचवीं रिपोर्ट’ ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई।
11 .1818पहला भू-राजस्व बंदोबस्त, बंबई दक्कन में।
12 .1820 के दशककृषि उत्पादों के मूल्यों में गिरावट का प्रारंभ।
13 .1832-34
14 .1855-56बंबई दक्कन में भयंकर अकाल। आधी जनसंख्या समाप्त हो गई। संथालों का विद्रोह।
15 .1855संथाल नेता सीदो की हत्या की गई।
16 .1861-65अमेरिका गह यद्ध।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

HBSE 12th Class History राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
मुगल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुग़लकालीन भारत में मुद्रण कला का विकास नहीं हुआ था। इसलिए सभी इतिवृत्तों की रचना पांडुलिपियों (हस्तलिखित ग्रंथ) के रूप में हुई। पांडुलिपियों की रचना का मुख्य केन्द्र ‘शाही किताबखाना’ कहलाता था। फारसी भाषा में किताबखाना का आम अर्थ पुस्तकालय से लिया जाता है। मुगलकाल में किताबखाना पुस्तकालय से भिन्न था। किताबखाना सही अर्थों में लिपिघर था जहाँ बादशाह के आदेशानुसार लेखक व उनके सहयोगी सुबह से शाम तक पांडुलिपियों की रचना में व्यस्त रहते थे। इसी स्थान पर लिखी गई पांडुलिपियों को संग्रह करके रखा भी जाता था। किताबखाना काफी बड़ा तथा सुनियोजित स्थल था। वहाँ मात्र लेखक ही नहीं होते थे, बल्कि विविध प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्ति होते थे।

ये सभी किताबखाना के नेतृत्व में कार्य करते थे। पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया में सबसे पहले कागज व उसके पन्ने बनाने वाले कारीगर कार्य करते थे। इसी तरह स्याही बनाने वालों का वर्ग था। कागज व स्याही के तैयार होने पर लेखक लिखता था। फिर उन पृष्ठों पर चित्रकार लेखक की सलाह के अनुरूप चित्र बनाता था। लेखन व चित्र कार्य होने के बाद जिल्दसाज जिल्द चढ़ाता था। इस तरह पांडुलिपि एक. पूरी प्रक्रिया के तहत तैयार होती थी।

प्रश्न 2.
मुगल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?
उत्तर:
मुग़ल शासकों ने भारत में सत्ता स्थापित करने के बाद मध्य-एशिया, ईरान व प्राचीन भारतीय शासन-व्यवस्था को अपनाकर इस तरह की परम्पराएँ अपनाईं जिससे राज्य मजबूत हुआ। इसके साथ ही शासक की सत्ता भी जनता के मन में बैठी। इसके लिए दरबार के अग्रलिखित प्रतीकों को लिया गया है

1. राज सिंहासन-सम्राट का केंद्र बिंदु राज सिंहासन था जिसने संप्रभु के कार्यों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया था। इसे ऐसे आधार के रूप में स्वीकार किया जाता था जिस पर पृथ्वी टिकी हुई है।

2. अधिकारियों के बैठने के स्थान प्रत्येक अधिकारी (दरबारी) की हैसियत का पता उसके बैठने के स्थान से लगता था। जो दरबारी जितना सम्राट के निकट बैठता था उसे उतना ही सम्राट् के निकट समझा जाता था।

3. सम्मान प्रकट करने का तरीका-शासक को किये गये अभिवादन के तरीके से भी अभिवादनकर्ता की हैसियत का पता चलता था।

4. दिन की शुरुआत-बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था।

5. सार्वजनिक सभा (दीवान-ए-आम)-बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों को पूरा करने के लिए दीवान-ए-आम में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते थे।

6. खास उत्सवों के अवसर-अनके धार्मिक त्योहार; जैसे होली, ईद, शब-ए-बारात आदि त्योहारों का आयोजन खूब ठाट-बाट से किया जाता था।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 3.
मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में शाही परिवार की महिलाएँ मुख्य रूप से हरम में रहती थीं। हरम की सारी व्यवस्था का संचालन वे स्वयं करती थीं। हरम में सभी महिलाओं की स्थिति एक जैसी नहीं थी। इसके अतिरिक्त कई बार शाही परिवार की महिलाएँ भी राजनीति में सक्रिय रहती थीं। उदाहरण के लिए नूरजहाँ के राजनीति में आने के बाद हरम की स्थिति व पहचान दोनों बदल गईं। 1611 ई० से 1626 ई० तक जहाँगीर के शासन काल में नूरजहाँ ने प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लिया। वह झरोखे पर बैठती थी तथा सिक्कों पर उसका नाम आता था। ‘नूरजहाँ गुट’ सही अर्थों में जहाँगीर के शासन में सारे फैसले करता था। जहाँगीर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि मैंने बादशाहत नूरजहाँ को दे दी है, मुझे कुछ प्याले शराब तथा आधा सेर माँस के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए। शाहजहाँ के शासन काल में उसकी पुत्री जहाँआरा तथा रोशनआरा लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक फैसलों में शामिल होती थीं। वे उच्च पदों पर आसीन मनसबदारों की भाँति वार्षिक वेतन लेती थीं।

आर्थिक तौर पर सम्पन्न होने पर हरम की प्रमख महिलाओं ने इमारतों व बागों का निर्माण कार्य कराया। नरजहाँ ने आगरा में एतमादुद्दौला (अपने पिता) के मकबरे का निर्माण करवाया। शालीमार व निशात बागों को बनवाने में भी उसकी मुख्य भूमिका थी। इसी प्रकार दिल्ली में शाहजहाँनाबाद की कई कलात्मक योजनाओं में जहाँआरा की भूमिका थी। उसने शाहजहाँनाबाद में आँगन, बाग व चाँदनी चौक की रूप रेखा तैयार की। शाही परिवार की महिलाएँ प्रायः शिक्षित भी होती थीं। इसलिए साहित्य लेखन में भी अपनी भूमिका अदा करती थीं। गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा नामक पुस्तक लिखी। अतः स्पष्ट है कि शाही परिवार की महिलाएँ हरम व राजनीतिक मामलों में सक्रिय रहती थीं।

प्रश्न 4.
वे कौन-से मुद्दे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुगल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?
उत्तर:
मुग़ल जिस तरह आन्तरिक व्यवस्था पर ध्यान देते थे उसी तरह उनकी विदेश नीति भी काफी परिपक्व थी। शासक जिस तरह की उपाधियों या पदवियों को धारण करते थे उनका असर पड़ोसी राज्यों पर अवश्य होता था। जहाँगीर (विश्व पर कब्जा करने वाला), शाहजहाँ (विजय का शासक) तथा आलमगीर (विजय का स्वामी) द्वारा धारण की गई उपाधियाँ खास थीं। मुग़ल अविजित क्षेत्रों पर भी राजनीतिक नियंत्रण बनाने के लिए कदम उठाते रहते थे तथा एक बार विजित करने के उपरांत उस पर हमेशा के लिए अधिकार के लिए कार्य करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि मुगल अपने साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे, उनकी इस नीति के आधार पर ही उनके पड़ोसी देशों के साथ संबंधों का निर्धारण होता था।

इन रिश्तों में कूटनीतिक चाल व संघर्ष साथ-साथ चलता था। इस कड़ी में पड़ोसी राज्यों के साथ क्षेत्रीय हितों के तनाव व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। इसके साथ-साथ दूतों का आदान-प्रदान भी होता रहता था। उनकी विभिन्न देशों तथा धर्मों के प्रति नीति ने उनके प्रभाव को स्थापित किया। इनके निम्नलिखित मुख्य पक्ष थे

1. ईरानियों एवं तूरानियों से संबंध-मुग़ल बादशाहों के ईरान व मध्य एशिया के पड़ोसी देशों से राजनीतिक रिश्ते हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा पर निर्भर करते थे।

2. कंधार का किला-नगर-यह किला मुगलों तथा सफावियों के बीच झगड़े का मुख्य कारण था। आरंभ में यह किला नगर हुमायूँ के अधिकार में था। सन् 1595 में अकबर ने इस पर दोबारा कब्जा कर लिया। जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार स्वीकारने को कहा परंतु सफलता नहीं मिली। क्योंकि शाह ने 1621 ई० में इस पर कब्जा कर लिया। शाहजहाँ ने 1638 ई० में इसे फिर जीत लिया। 1649 ई० में सफावी शासकों ने इस पर फिर अधिकार कर लिया। अतः यह मुगलों व ईरान के बीच झगड़े की जड़ रहा।

3. ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थयात्रा और व्यापार-ऑटोमन राज्य के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह धर्म और व्यापार को मिलाने की कोशिश करते थे। वे बिक्री से अर्जित आय को धर्मस्थलों व फकीरों में दान में बाँट देते थे। औरंगजेब को अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया।

4. ईसाई धर्म-मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराना है। पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक सीधे समुद्र की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। इस प्रकार ईसाई धर्म भारत में आया। इन बातों से स्पष्ट है कि मुगल अपनी स्थिति के प्रति सचेत थे। इसलिए बाह्य शक्तियों पर अपना दबाव बनाने के लिए कार्य करते रहते थे।

प्रश्न 5.
मुग़ल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह से प्रांतों पर नियंत्रण रखता था ?
उत्तर:
मुगल साम्राज्य काफी विस्तृत था। एक जगह से उसकी व्यवस्था संचालित नहीं हो सकती थी। मुगलों ने इसे आगे विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया था। इन्हें प्रांत या सूबा कहा जाता था। इन इकाइयों में भी केन्द्रीय व्यवस्था की तरह हर स्तर (छोटे-बड़े) के अधिकारी व नौकरशाह होते थे। उनके संबंध शाही दरबार से निरंतर रहते थे।

प्रांतों का आकार एक-जैसा नहीं था लेकिन इनके नाम भौगोलिकता के अनुरूप थे। सूबे का मुखिया सबेदार होता था जिसकी नियुक्ति शासक द्वारा की जाती थी। वह उसी के प्रति जिम्मेदार होता था। सूबेदार की सहायता के लिए दीवान, बख्शी तथा सद्र के नाम से सहायक वजीर (मंत्री) होते थे। वे सूबेदार के सहयोगी अवश्य थे लेकिन इनकी नियुक्ति भी प्रत्यक्षतः शासक द्वारा की जाती थी। इस तरह सूबेदार स्वतंत्र होते हुए भी नियंत्रण में था। अकबर के काल में सूबों की संख्या 15, जहाँगीर के काल में 17, शाहजहाँ के काल में 22 तथा औरंगजेब के काल में 21 थी।

जैसे संपूर्ण राज्य सूबों में विभाजित था, उसी तरह सूबे सरकारों में विभाजित थे। सरकार में सबसे बड़ा अधिकारी फौजदार था। किसी सूबे में सरकारों की संख्या कितनी होगी यह निश्चित नहीं था। सरकार को आगे परगनों में विभाजित किया गया था। परगना का स्तर वर्तमान जिले का रहा होगा। परगना स्तर पर कानूनगो, चौधरी व काजी नामक अधिकारी थे। कानूनगो, राजस्व का रिकॉर्ड रखने वाला अधिकारी था जबकि चौधरी का मुख्य कार्य राजस्व संग्रह करना था। ये दोनों अधिकारी वंशानुगत थे। प्रशासन में सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसकी व्यवस्था ग्राम पंचायत देखती थी। मुग़लों का प्रांतीय शासन केंद्र से अलग-थलग नहीं था बल्कि तंत्र का एक हिस्सा था। विभिन्न प्रांतों व उसकी इकाइयों के अधिकारियों का तबादला प्रति वर्ष या दो वर्ष में किया जाता था। मगलों के प्रशासन की पकड गाँव तक थी। मगल अपने अधिकारियों को स देते थे। इस तरह प्रान्त के अनियन्त्रित होने की गुंजाइश नहीं थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
उदाहरण सहित मुग़ल इतिहासों के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।
अथवा
इतिवृत्त की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
इतिवृत्त (क्रॉनिकल्स) मुगलकालीन इतिहास की जानकारी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। सभी मुग़ल शासकों ने इतिवृत्तों के लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। इतिवृत्त के विभिन्न आयामों व पक्षों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है-

1. रचना के उद्देश्य-मुगलकाल में रचे गए इतिवृत्त बहुत सोची-समझी नीति का उद्देश्य थे। विभिन्न इतिहासकारों व विद्वानों ने इस बारे में अपने-अपने मतों की अभिव्यक्ति की है जिनमें से ये पक्ष उभरकर सामने आते हैं

  • इतिवृत्तों के माध्यम से मुगल शासक अपनी प्रजा के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि बनाना चाहते थे।
  • इतिवृत्तों के वृत्तांत के माध्यम से शासक उन लोगों को संदेश देना चाहते थे जिन्होंने राज्य का विरोध किया था तथा भविष्य में भी कर सकते थे। उन्हें यह बताना चाहते थे कि यह राज्य बहुत शक्तिशाली है तथा उनका विद्रोह कभी सफल नहीं होगा।
  • इतिवृत्तों के माध्यम से शासक अपने राज्य के विवरणों को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाना चाहते थे।

2. इतिवृत्तों की विषय-वस्तु-मुग़ल शासकों ने इतिवृत्त लेखन का कार्य दरबारियों को दिया। अधिकतर इतिवृत्त शासक की देख-रेख में लिखे जाते थे या उसे पढ़कर सुनाए जाते थे। कुछ शासकों ने आत्मकथा लेखन का कार्य स्वयं किया। इस माध्यम से ये शासक स्वयं को प्रबुद्ध वर्ग में स्थापित करना चाहते थे, साथ ही अन्य लेखकों का मार्गदर्शन भी करना चाहते थे। इन सभी पक्षों से यह स्पष्ट होता है कि इन इतिवृत्तों के केन्द्र में स्वयं शासक व उसका परिवार रहता था। इस कारण इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासक, शाही परिवार, दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध व प्रशासनिक संस्थाएँ रहीं। इन इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासकों के नाम अथवा उनके द्वारा धारण उपाधियों की पुष्टि भी करना था।

3. भाषा-मुग़ल दरबारी इतिहास फारसी भाषा में लिखे गये थे। क्योंकि मुगलों की मातृभाषा तुर्की थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और संस्मरण तुर्की में लिखे थे।

4. अनुवाद-बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद किया गया था। महाभारत और रामायण का अनुवाद भी फारसी भाषा में हुआ।

5. शिल्पकारों का योगदान-पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले लोग शामिल होते थे; जैसे चित्रकार, जिल्दसाज तथा आवरणों को अलंकृत करने वाले लोग।

6. मुगल काल के प्रमुख इतिवृत्त-मुगलकाल के प्रमुख इतिवृत्त यह है

बाबरनामा या तुक-ए-बाबरी लेखक बाबर, हुमायूँनामा लेखिका हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम, अकबरनामा-लेखक अबुल फज्ल, तुक-ए-जहाँगीरी लेखक जहाँगीर, शाहजहाँनामा लेखक मामुरी, बादशाहनामा (शाहजहाँ पर आधारित) लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी, आलमगीरनामा लेखक मुहम्मद काजिम । इन इतिवृत्तों के नामों से स्पष्ट होता है कि ये इतिवृत्त शासक-विशेष के साथ जुड़े हैं तथा या तो स्वयं का वृत्तांत हैं या दरबारी द्वारा अपने संरक्षण का विवरण है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 7.
इस अध्याय में दी गई दृश्य सामग्री किस हद तक अबल फज्ल द्वारा किए गए ‘तसवीर’ के वर्णन से मेल खाती है?
उत्तर:
अकबर के दरबारी लेखक अबुल फज़्ल ने चित्रकारी को ‘जादुई कला’ कहा है। वह कहता है कि चित्रकारी निर्जीव को सजीव की भाँति प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है। इसलिए वह तसवीर के वर्णन में चित्रकारों की प्रशंसा करता है। अबुल फज्ल ने अपने वृत्तांत में अकबर के विचारों को उद्धत किया है कि बादशाह कहते हैं, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे लगता है कि कलाकार के पास खुदा को समझने का बेजोड़ तरीका है। चूंकि कहीं-न-कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।”

इस्लाम सामान्य रूप से प्राकृतिक चित्रों की चित्रकारी का समर्थन नहीं करता। ऐसी धारणा है कि चित्रकारी एक सृजन है जबकि सृजन का अधिकार केवल खुदा के पास है। इसलिए कुरान और हदीस में मानव रूपों के चित्रण पर प्रतिबंध का वर्णन है। उसी वर्णन के अनुरूप उलेमा (धर्मशास्त्री) चित्रकारी को गैर-इस्लामी घोषित करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि कलाकार अपने इस कार्य से खुदा की रचना करने की शक्ति को अपने हाथ में लेने का प्रयास करता है। हमें मुगलकाल में शासकों तथा कट्टरपंथी धर्मशास्त्रियों के बीच निरंतर तनाव दिखाई देता है। उलेमा शासक की गतिविधियों को धर्म-विरोधी बताते हैं जबकि शासक इसे मानव भावों की अभिव्यक्ति तथा खुदा को समझने का मार्ग बताते हैं।

अबुल फज़्ल के वर्णन के आधार पर शासकों ने धर्म की कट्टरता को महत्त्व न देते हुए चित्रकला को महत्त्व दिया। इससे चित्रकला की व्याख्या ही बदल गई। जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि इस्लाम प्राकृतिक चीजों व रूपों के चित्रण की आज्ञा नहीं देता, इसके बाद भी मुगलकाल में चित्रकारी खूब फली-फूली। समय के साथ इस्लाम में विश्वास करने वाले विद्वानों व धर्मशास्त्रियों ने चित्रकारी के बारे में नई व्याख्याएँ की, जिसके कारण मोटे तौर पर धारणा में बदलाव आया। मात्र कुछ रूढ़िवादी चिन्तक ऐसे थे जो बाद तक भी विरोध करते रहे।

नए व्याख्याकारों ने राज्य की राजनीतिक आवश्यकता के अनुरूप इसे उचित बताया। इस व्याख्या के अनुसार स्पष्ट किया गया कि इससे शासक व जनता के बीच की दूरी में कमी आती है तथा राजा व प्रजा एक-दूसरे के भाव समझ पाते हैं। शासक केवल किसी एक धर्म विशेष का नहीं है। ईरान के मुस्लिम शासकों (सफावी) ने भी चित्रकारी को संरक्षण दिया। इसके लिए कार्यशालाएँ आयोजित कीं। इन सबका प्रभाव भी मुगल शासकों पर पड़ा। अतः चित्रकारी संबंधी नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें चित्रकारी को धर्म विरोधी घोषित न कर, सांस्कृतिक विकास का पहलू घोषित किया।

नई व्याख्याओं के चलते हुए मुगल दरबार चित्रकारों के लिए संरक्षण क्षेत्र बन गया। कुछ कलाकार; जैसे मीर सैय्यद अली, अब्दुस समद व विहजाद ईरान से भारत आए। अकबर के समय केसू, जसवन्त, बसावन जैसे हिन्दू कलाकार भी दरबार में पहुंचे। अकबर सप्ताह में एक दिन चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन करवाता था। उसी परंपरा को जहाँगीर ने आगे बढ़ाया। उसका काल चित्रकला की दृष्टि से स्वर्ण काल माना जाता था।

मुगल शासकों ने पांडुलिपि चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया। अकबर के काल में चित्रित होने वाली मुख्य पांडुलिपियों में बाबरनामा, हुमायूँनामा, अकबरनामा, हम्जनामा, रज्मनामा (महाभारत का अनुवाद), तारीख-ए-अल्फी व तैमूरनामा थीं। बाद के शासकों ने अपने इतिवृत्तों विशेषकर तुक-ए-जहाँगीरी व शाहजहाँनामा को चित्रित करवाया। इसके साथ ही उन्होंने पहले लिखे गए इतिवृत्तों की और पांडुलिपियों को तैयार करवाकर उन्हें चित्रित करवाया। ये पांडुलिपियाँ सैकड़ों की संख्या में किताबखाना में रखी गई थीं। मुग़ल शासकों द्वारा जिस तरह से पांडुलिपियों को चित्रित करवाया गया, उसकी नकल यूरोप के शासकों ने भी की। इस काल में चित्रित पुस्तकों को उपहार में देना एक प्रकार की परंपरा बन गई थी।

प्रश्न 8.
मुगल.अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके संबंध किस तरह बने?
उत्तर:
मुगलकाल के नौकरशाहों यानी अधिकारियों के समूह को अभिजात वर्ग का नाम दिया गया है। इस समूह में विभिन्न क्षेत्रों व धार्मिक समूहों के लोग थे। मुगल शासक इस बात का ध्यान रखते थे कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह संगठित होकर राज्य के लिए चुनौती बन जाए। यह नौकरशाहों का समूह उस गुलदस्ते जैसा था जिसमें अलग-अलग रंग तथा अलग-अलग किस्म के फूल हैं, लेकिन वे एक मुट्ठी में बंधकर शोभा प्रदान करने की स्थिति में हों। ये चाहे किसी धर्म या क्षेत्र से हों, इनकी खास बात यह थी कि ये शासक के प्रति वफादार थे।

अकबर के शासन काल के प्रारंभिक दौर में इस अभिजात वर्ग में तुरानी (मध्य-एशिया) तथा ईरानी मुख्य थे। 1560 ई० के। बाद अभिजात वर्ग में बदलाव आया। इसमें दो वर्ग और जुड़े। ये राजपूत तथा भारतीय मुसलमान थे। राजपूत परिवारों से सर्वप्रथम आमेर (अंबर) का राजा भारमल (बिहारीमल) था जिसने वैवाहिक राजनीतिक संबंधों द्वारा अकबर के अभिजात वर्ग में प्रवेश किया।

जहाँगीर के काल में अभिजात वर्ग की मौलिक संरचना वही बनी रही, परंतु अधिक ऊँचे पदों पर ईरानी पहुँचने में सफल रहे। इसका मुख्य कारण नूरजहाँ थी क्योंकि वह स्वयं ईरान से आई थी। उसके पिता ग्यास बेग, भाई आसफ खाँ इत्यादि बहुत ऊँचे पदों तक पहुँचे। उनके साथ संबंधों का फायदा उठाकर अन्य ईरानी भी आगे बढ़ गए। शाहजहाँ के काल में अभिजात वर्ग सन्तुलित था। उसमें भारतीय व विदेशी सभी शामिल थे। औरंगजेब के समय भी स्थिति लगभग इसी तरह की रही। सामान्यतः यह कहा जाता है कि उसने यह पद केवल सुन्नीओं के लिए रखे थे। परंतु आंकड़े बताते हैं कि उसके दरबार में राजपूत व मराठे काफी अच्छी संख्या में थे। सिंहासन ग्रहण करने के समय तथा मृत्यु तक संख्या में कमी नहीं आई बल्कि आंकड़े वृद्धि दर्ज कराते थे।

मुग़ल साम्राज्य सैन्य प्रधान राज्य था। इसलिए अभिजात वर्ग की सेना संबंधित गतिविधियों को बहुत महत्त्व दिया जाता था। अभिजात वर्ग के सदस्य सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करते थे साथ ही केन्द्र व प्रान्त स्तर पर अधिकारी के रूप में कार्य भी करते थे। वे अपनी टुकड़ी के सैनिक प्रमुख होते थे। उन्हें अपने सैनिकों व घुड़सवारों को भर्ती करना होता था। इन सैनिक व घुड़सवारों के लिए हथियार, रसद व प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी मनसबदार की होती थी। उसके घोड़ों की पीठ के दोनों ओर मुगलों का शाही निशान बना होता था। उसके मुखिया तथा घोड़े का नम्बर भी दर्ज होता था। शासक विभिन्न अवसरों पर नियमित रूप से इन अधिकारियों की सेना का निरीक्षण करता था। समय के साथ बदलाव के चलते हुए शासक व अभिजात वर्ग के बीच रिश्ते मुरीद व मुर्शीद जैसे बन गए थे। कुछ के साथ रिश्ते बहुत अधिक अपनेपन के भी थे।

मुगल दरबार में नौकरी पाना बेहद कठिन कार्य था। दूसरी ओर अभिजात व सामान्य वर्ग के लोग शाही सेवा को शक्ति, धन व उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा का एक साधन मानते थे। नौकरी में आने वाले व्यक्ति से आवेदन लिया जाता था, फिर मीरबख्शी की जाँच-पड़ताल के बाद उसे दरबार में प्रस्तुत होना होता था। मीरबख्शी के साथ-साथ दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) तथा सद्र-उस-सद्धर (जन कल्याण, न्याय व अनुदान का मंत्री) भी उस व्यक्ति को कागज तैयार करवाकर अपने-अपने कार्यालयों की मोहर लगाते थे। फिर वे शाही मोहर के लिए मीरबख्शी के द्वारा ले जाए जाते थे। ये तीनों मंत्री दरबार में दाएँ खड़े होते थे, बाईं ओर नियुक्ति व पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति खड़ा होता था। शासक उससे कुछ औपचारिक बात करके उसे दरबार के प्रति वफादार रहने की बात कहता था तथा संकेत करता था कि वह किस स्थान पर खड़ा हो। इस तरह उस व्यक्ति की नियुक्ति तथा पदोन्नति मानी जाती थी।

शासक द्वारा नौकरशाहों पर नियंत्रण के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। उनके अनुसार शासक सामान्य रूप से इनके प्रति कठोर व्यवहार रखता था। नियमित निरीक्षण में इन्हें किसी तरह की छूट नहीं थी। थोड़ा-सा भी शक होने या अनुशासन की उल्लंघना करने पर इन्हें दण्ड दिया जाता था। इनकी कभी भी कहीं भी बदली की जा सकती थी। कोई भी अधिकारी किसी भी कार्य को करने की मनाही नहीं कर सकता था। इन सबके अतिरिक्त यह कि इनका पद पैतृक नहीं होता था अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जीवन की शुरुआत करनी होती थी। किसी भी अभिजात वर्ग के व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति, उसकी सन्तान को नहीं दी जाती थी बल्कि यह स्वतः ही बादशाह या दरबार की सम्पत्ति बन जाती थी।

प्रश्न 9.
राजत्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्त्वों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
मुग़लों ने भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया। उन्होंने अपने शासन में कुछ सिद्धान्तों को महत्त्व दिया। ये सिद्धांत भारत की परंपरागत शासन-व्यवस्था से भी जुड़े तथा दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों से भी। इनके राजत्व के सिद्धांत में मध्य-एशियाई तत्त्व भी थे तो ईरान का प्रभाव भी साफ दिखाई देता है। इनके राजत्व के आदर्शों को विभिन्न इतिवृत्तों में विशेष जगह मिली है। कई स्थानों पर तो इतिवृत्त मुगल राजत्व सिद्धांत की स्पष्ट व्याख्या भी करते हैं। मुग़ल इतिवृत्तों में मुग़ल राज्य को आदर्श राज्य वर्णित किया है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ प्रस्तुत की हैं

1. मुगल राज्य : एक दैवीय राज्य-मुगलकाल के सभी इतिवृत्त इस बात की जानकारी देते हैं कि मुगल शासक राजत्व के दैवीय सिद्धान्त में विश्वास करते थे। उनका विश्वास था कि उन्हें शासन करने की शक्ति स्वयं ईश्वर ने प्रदान की है। ईश्वर की इस तरह की कृपा सभी व्यक्तियों पर नहीं होती, बल्कि व्यक्ति-विशेष पर ही होती है।
मुगल शासकों के दैवीय राजत्व के सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्व अबुल फज़्ल ने दिया। वह इसे फर-ए-इज़ादी (ईश्वर से प्राप्त) बताता है। वह इस विचार के लिए प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 में मृत्यु) से प्रभावित था। उसने इस तरह के विचार ईरान के शासकों के लिए प्रस्तुत किए थे।

2. सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत-मुग़ल इतिवृत्त साम्राज्य को हिन्दुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

मुगल शासक विशेषकर अकबर ने धर्म व राजनीति दोनों के संबंधों को समझने का प्रयास किया। उसने इनकी सीमा व महत्त्व को समझा। इस समझ के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरी तरह धर्म का त्याग संभव नहीं है लेकिन धर्म की कट्टरता को त्यागकर अवश्य चला जाए। उसने धर्म को राजनीति से भी थोड़ा दूर करने का प्रयास किया। इस कड़ी में उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर को समाप्त कर, यह सन्देश दिया कि गैर-इस्लामी प्रजा से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। उसने युद्ध में पराजित सैनिकों को दास बनाने पर रोक लगाई तथा जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन को गैर-कानूनी घोषित किया। अकबर ने अपने साम्राज्य में गौ-वध को देशद्रोह घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी।

3. सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता-मुग़ल शासकों ने न्याय को विशेष महत्त्व दिया। वे यह मानते थे कि न्याय व्यवस्था ही उनसे सही अर्थों में प्रजा के साथ संबंधों की व्याख्या है। अबुल फज्ल ने अकबर के प्रभुसत्ता के सिद्धांत को स्पष्ट किया है। उसके अनुसार बादशाह अपनी प्रजा के चार तत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान और विश्वास (दीन) की रक्षा करता है। इसके बदले में जनता से आशा करता है कि वह राजाज्ञा का पालन करे तथा अपनी आमदनी (संसाधनों) में से कुछ हिस्सा राज्य को दे। अबुल फज़्ल स्पष्ट करता है कि इस तरह का चिन्तन किसी न्यायपूर्ण संप्रभु का ही हो सकता है जिसे दैवीय मार्गदर्शन प्राप्त हो।

मुग़ल शासकों ने सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्याय को अपनाया तथा जनता में प्रचारित भी किया। इसके लिए विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को प्रयोग में लाया गया। इसमें सर्वाधिक कार्य चित्रकारों के माध्यम से करवाया गया। मुगल शासकों ने दरबार तथा सिंहासन के आस-पास विभिन्न स्थानों पर जो चित्रकारी करवाई उसमें वो शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय साथ-साथ बैठे दिखाई देते हैं। उनकी चित्रकारी जनता को यह सन्देश देने का साधन था कि इस राज्य में सबल या दुर्बल दोनों परस्पर मिलकर रह सकते हैं। इनमें भी कुछ चित्रों में शासक को शेर पर सवार दिखाया गया है जो इस बात का संदेश है कि उसके साम्राज्य में उनसे शक्तिशाली कोई नहीं था।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व मानचित्र के एक रेखाचित्र पर उन क्षेत्रों को अंकित कीजिए जिनसे मुगलों के राजनीतिक व सांस्कृतिक संबंध थे।
उत्तर:
इसके लिए विद्यार्थी विश्व के मानचित्र में वर्तमान अफगानिस्तान, ईरान, अरब क्षेत्र के देश, तुर्की, उजबेगिस्तान व मध्य एशिया के देशों को दिखाएँ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
किसी मुग़ल इतिवृत्त के विषय में और जानकारी ढूंढिए। इसके लेखक, भाषा, शैली और विषयवस्तु का वर्णन करते हुए एक वृत्तांत तैयार कीजिए। आपके द्वारा चयनित इतिहास की व्याख्या में प्रयुक्त कम-से-कम दो चित्रों का, बादशाह की शक्ति को इंगित करने वाले संकेतों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल के इतिवृत्त या वृत्तांत में से किसी एक का चयन करते हुए हम अकबरनामा को चुन सकते हैं तथा यह जानकारी ले सकते हैं।

  • वृत्तांत (इतिवृत्त का नाम)-अकबरनामा
  • लेखक – अबुल फल
  • शैली – दरबारी लेखन
  • भाषा – फारसी
  • विषय-वस्तु – अकबर के काल की घटनाओं का विवरण

इस बारे में विस्तृत जानकारी आप जे०बी०डी० पुस्तक में मुख्य इतिवृत्त के रूप में वर्णित अकबरनामा के संदर्भ में जानकारी से ले सकते हैं।

मौलिक रूप में इस पुस्तक में 150 से अधिक चित्र दिए गए हैं। इन चित्रों को पुस्तक की मूल प्रति, इंटरनेट तथा राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में रखी चित्रकारियों में देख सकते हैं। इन चित्रों में दरबार से संबंधित किन्हीं भी दो चित्रों को देख सकते हैं, इन चित्रों में आप पाएँगे कि शासक के बैठने की जगह अन्यों से ऊँची है तथा अन्य दरबारी भी एक निश्चित क्रम में बैठे हैं। इस तरह शासक के बैठने के स्थान पर आप प्रायः शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय के चित्र पाएंगे। इसका अर्थ स्पष्ट है कि शासक शक्तिशाली-से-शक्तिशाली व सामान्य-से-सामान्य दोनों का रक्षक है। शासक अपनी परंपरा व बादशाह की शक्ति को इन संकेतों से प्रदर्शित कर रहा है।

प्रश्न 12.
राज्यपद के आदर्शों, दरबारी रिवाजों और शाही सेवा में भर्ती की विधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए व समानताओं और विभिन्नताओं पर प्रकाश डालते हुए मुगल दरबार और प्रशासन की वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था से तुलना कर एक वृत्तांत तैयार कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में नौकरशाही शासन-व्यवस्था का केंद्र थी, परंतु इस नौकरशाही की शक्ति का स्रोत मुगल शासक थे। इसलिए वे नौकरशाहों को नियुक्त करते समय दरबारी प्रतिष्ठा, व्यक्ति की सामाजिक, धार्मिक हैसियत का ध्यान रखते थे। शासक के विचार तथा कार्य-प्रणाली पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था। शासक का अपने बड़े-से-बड़े तथा छोटे-से-छोटे अधिकारी के प्रति व्यवहार प्रायः कठोर होता था। इस काल में कार्य की विशेषज्ञता को महत्त्व नहीं दिया जाता था बल्कि सेवा में आया हुआ व्यक्ति सैनिक, असैनिक, दरबार संबंधी व राजस्व संबंधी सभी कार्य करने के लिए बाध्य होता था। उदाहरण के लिए अकबरनामा का लेखक अबुल फज्ल दरबारी लेखक था परंतु उसने 15 से अधिक सैन्य अभियानों में सेना का नेतृत्व किया। वह शासक का सलाहकार भी था। शासक ने उसे कई बार सेना निरीक्षण का कार्य भी दिया।

इसकी तुलना जब हम भारतीय शासन-व्यवस्था से करते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह व्यवस्था एक संविधान के तहत चलती है जिसको राष्ट्र द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इस संविधान व सरकार में शक्ति का स्रोत जनता है। वह हर तरह के परिवर्तन की शक्ति रखती है। शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए विशाल नौकरशाही, केंद्र तथा राज्य स्तर पर है। इनको एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा नियुक्त किया जाता है। इस बारे में यह ध्यान भी रखा जाता है कि व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ हो। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुगलकालीन शासन-व्यवस्था आज की शासन-व्यवस्था से काफी भिन्न थी।

राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार HBSE 12th Class History Notes

→ तैमूरी वंशज तैमूर के वंश से संबंध रखने वाले मुग़ल स्वयं को तैमूरी वंशज कहते थे।

→ बहु या यायावर-वह समुदाय जो एक स्थान पर न बसा हो बल्कि विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए जीवन जीता हो।

→ पादशाह या बादशाह-शाहों का शाह अर्थात् शासकों का शासक बाबर द्वारा यह उपाधि काबुल व कंधार जीतने के बाद ली गई थी।

→ न्याय की जंजीर-जहाँगीर द्वारा स्वयं को न्यायप्रिय घोषित करने के लिए आगरा के किले में सोने की जंजीर लगवाई जिसे कोई भी फरियादी खींच सकता था।

→ इतिवृत्त-मुगल शासकों के दरबार में दरबारियों द्वारा लिखे गए वृत्तांत।

→ चगताई तुर्की-बाबर की आत्मकथा की भाषा। मूलतः यह तुर्की थी लेकिन इस पर बाबर के कबीले के बोली चगताई का प्रभाव था।

→ हिंदवी-मुगलकाल में उत्तर-भारत में जन साधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा।

→ रज्मनामा मुगलकाल में महाभारत नामक पुस्तक का अनुवाद करके उसे रज्मनामा का नाम दिया गया।

→ शाही किताबखाना-मुग़ल शासकों के महल में स्थित वह जगह जहाँ पर पुस्तकें लिखी जाती थीं।

→ नस्तलिक-मुगलकाल में कागज पर कलम से लिखने की एक शैली।

→ फर-ए-इज़ादी ईश्वर से प्राप्त राज्य, अबुल फज्ल ने मुगलों के राज्य को फर-ए-इज़ादी का नाम दिया।

→ सुलह-ए-कुल-अकबर की सबके साथ मिलकर चलने की नीति सुलह-ए-कुल कहलाई। शाब्दिक अर्थ के रूप में इसे ‘पूर्ण शांति’ कहा जाता है।

→ जियारत-किसी सूफी फकीर की दरगाह पर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना के लिए जाना।

→ दीन-पनाह मुग़ल शासक हुमायूँ द्वारा दिल्ली में बनाया गया भवन।

→ बुलंद दरवाजा-अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में बनाई गई दरवाजा रूपी इमारत।

→ शाहजहाँबाद-मुग़ल शासक शाहजहाँ द्वारा दिल्ली में ही बसाया गया एक नया शहर जिसमें लाल किला, जामा मस्जिद व चाँदनी चौक शामिल थे।

→ जमींबोसी-अपने से बड़े के प्रति झुककर जमीन चूमकर अभिवादन की प्रा।।

→ चार तसलीम-चार बार झुककर अभिवादन करना।

→ झरोखा-मुग़ल शासकों की सूर्योदय के समय जनता को महल की विशेष जगह से दर्शन देने की प्रथा।

→ नौरोज-ईरानी परंपरा के अनुसार नववर्ष का उत्सव, इसे मुग़ल दरबार में उत्सव के रूप में मनाया जाता था।

→ हिजरी कैलेंडर-इस्लामी परम्परा के अनुरूप समय गणना बताने वाला कैलेंडर।

→ तख्त-ए-मुरस्सा-शाहजहाँ द्वारा बनाया गया हीरे-जवाहरातों से जड़ा सिंहासन । इसे सामान्यतः मयूर सिंहासन कहा जाता था।

→ नकीब-दरबार में किसी भी विशेष व्यक्ति या शासक के आने की घोषणा करने वाला व्यक्ति।

→ नजराना मगल शासक, शहजादे का राज परिवार के किसी सदस्य को भेंटस्वरूप दिया जाने वाला उपहार।

→ पादशाह बेगम-मुगल बादशाह की वह पत्नी जो शाही आवास की देख-रेख करती थी।

→ हरम-शाब्दिक अर्थ पवित्र यह वह स्थान था जहाँ मगल शासकों का परिवार रहता था।

मनसबदार-मुगलों की सेवा में सैनिक या असैनिक सेवा करने वाला उच्च पद का व्यक्ति।

→ सूबा मुगलकाल में प्रांत के लिए प्रयुक्त शब्द।

→ जेसुइट-ईसाई धर्म प्रचारकों के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द।

→ दीन-ए-इलाही-सभी धर्मों के बारे में सुनने के बाद अकबर द्वारा 1582 ई० में स्थापित नया मत।

15वीं तथा 16वीं शताब्दी में विश्व भर में अनेक युग प्रवर्तक घटनाएं घटीं। नए-नए राजवंशों की स्थापना हुई, यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance) तथा धर्म सुधार (Reformation) आंदोलन चले। उसी प्रकार भारत में भी दिल्ली सल्तनत का पतन हुआ तथा उसके खण्डहरों पर मुगल साम्राज्य का उदय हुआ। यह परिवर्तन भारतीय इतिहास में एक ऐसा परिवर्तन था जिसने न केवल देश के इतिहास की धारा को ही नया मोड़ दिया, अपितु एक नए क्षितिज एवं नव-प्रभात का भी सूत्रपात किया। यह एक महान् राजनीतिक परिवर्तन था। इस परिवर्तन का सूत्रधार तैमूर का वंशज बाबर था।।

→ मुगल वंश के संस्थापक बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को मध्य-एशिया के फरगाना (वर्तमान में उजबेगिस्तान) में हुआ। 1494 ई० में बाबर अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद फरगाना का शासक बना। उसने 1504 ई० में काबुल तथा 1507 ई० में कन्धार को जीता। 1519 से 1526 ई० तक उसने भारत पर पाँच आक्रमण किए तथा वह सभी में सफल रहा। 1526 ई० में उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अन्तिम सुल्तान इब्राहिम लोधी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी। उसने अपने राज्य को सुदृढ़ आधार दिया। 1530 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। .. बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ शासक बना। शेरशाह ने उसे 1540 ई० में बेलग्राम (कन्नौज) के युद्ध में पराजित कर दिया तथा उसे भारत से निर्वासित होना पड़ा। उसने 1555 ई० में शेरशाह के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर एक बार फिर दिल्ली व आगरा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1556 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर शासक बना। अकबर ने अपनी प्रारंभिक सफलताएँ अपने शिक्षक व संरक्षक बैहराम खाँ के नेतृत्व में पाईं। तत्पश्चात् उसने प्रत्येक क्षेत्र में साम्राज्य का विस्तार किया। उसने आन्तरिक दृष्टि से अपने राज्य का विस्तार कर इसे विशाल, सुदृढ़ तथा समृद्ध बनाया। उसने राजपूतों व स्थानीय प्रमुखों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर हटाकर गैर-इस्लामी जनता को यह एहसास करवाने का प्रयास किया कि वह उनका भी शासक है। इस तरह अकबर अपने राजनीतिक, प्रशासनिक व उदारवादी व्यवहार के कारण मुग़ल शासकों में महानतम स्थान प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से शासक बना। उसने अकबर की नीतियों को आगे बढ़ाया। उसने अपने जीवन का अधिकतर समय लाहौर में बिताया। 1611 ई० में उसने मेहरूनिसा (बाद में नूरजहाँ) से शादी की। नूरजहाँ शासन में इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसने शासन व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। 1627 ई० में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई।

→ जहाँगीर के बाद उसका पुत्र खुर्रम, शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। खुर्रम ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण किया। अपनी पत्नी मुमताज महल की मृत्यु के बाद उसने ताजमहल का निर्माण प्रारंभ करवाया। दक्षिण के बारे में उसने बीजापुर, गोलकुण्डा व अहमदनगर के सन्दर्भ में सन्तुलित नीति अपनाई। उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध था जो 1657-58 ई० में लड़ा गया। इसमें उसके तीन पुत्र दारा शिकोह, मुराद व शुजा मारे गए तथा औरंगज़ेब सफल रहा। उसने 1658 ई० में शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर जेल में डाल दिया।

→ 1658 ई० में अपने भाइयों को हराकर व पिता को बन्दी बनाकर औरंगज़ेब सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा। वह व्यक्तिगत जीवन में सादगी को पसन्द करता था, लेकिन धार्मिक दृष्टि से संकीर्ण था। प्रशासनिक व्यवस्था में उसने कोई बदलाव नहीं किया। उसके काल में मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई, जिससे सैन्य तंत्र भी कमजोर हुआ। इस तरह 1707 ई० में उसकी मृत्यु के समय मुगल साम्राज्य चारों ओर से संकटों से घिरा हुआ था।

→ 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल वंश में एक के बाद एक कमजोर शासक आए। इन शासकों के काल में शासन, दरबार व अभिजात वर्ग पर शासकों की पकड़ कमजोर हुई, जिसके कारण सत्ता का केन्द्र दिल्ली, आगरा व लाहौर न होकर विभिन्न क्षेत्रीय नगर हो गए। इन क्षेत्रीय नगरों में क्षेत्रीय सत्ता की स्थापना हुई। 1739 ई० में ईरान के शासक नादिरशाह ने मुग़ल शासक मुहम्मद शाह को बुरी तरह से पराजित कर दिल्ली में लूटमार की। इससे मुगल साम्राज्य का वैभव, सम्मान व पहचान मिट्टी में मिल गई।

→ 1857 ई० केजन-विद्रोह में एक बार फिर जन-विद्रोहियों ने मुग़ल राज्य व वंश के नाम का प्रयोग किया तथा अन्तिम मुगल शासक . बहादुरशाह जफर को इसका नेतृत्व दे दिया। अन्ततः वह हार गया तथा उसके पुत्रों व परिवार के अधिकतर सदस्यों का कत्ल कर दिया । गया। उसे बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद मुगल वंश समाप्त हो गया। मुग़ल शासकों ने शासन के लिए जिस तरह की व्यवस्था अपनाई, उसके द्वारा वे विशाल विजातीय जनता तथा बहु-सांस्कृतिक जीवन के बीच तालमेल बना सके। शासन-व्यवस्था की इस कड़ी में इस वंश के शासकों ने अपने वंश के इतिहास-लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। यह इतिहास-लेखन दरबारी संरक्षण में दरबारियों एवं विद्वानों के द्वारा लिखा गया। इन दरबारी लेखकों द्वारा जहाँ शासक की इच्छा व भावना का ध्यान रखा गया, वहीं उन्होंने इस महाद्वीप से संबंधित विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ भी उपलब्ध कराई हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

→ आधुनिक इतिहासकारों विशेषतः अंग्रेज़ी में लिखने वालों ने मुगलों की इस लेखन शैली को ‘क्रॉनिकल्स’ का नाम दिया है, जिसको अनुवादित रूप में इतिवृत्त या इतिहास कहा जा सकता है। ये इतिवृत्त (वृत्तांत) मुगलकाल की घटनाओं का कालानुक्रमिक विवरण प्रस्तुत करते हैं। इन इतिवृत्तों की सामग्री दरबारी लेखकों द्वारा कड़ी मेहनत से एकत्रित की गई। फिर इन्होंने इसे व्यवस्थित ढंग से वर्गीकृत किया। मुगलकालीन इतिहास-लेखन के लिए यह इतिवृत्त सबसे प्रमुख स्रोत है, क्योंकि इनमें तथ्यात्मक जानकारी प्रचुर मात्रा में है।

→ इन इतिवृत्तों में मुगल शासकों की विजयों, राजधानियों, दरबार, केंद्रीय व प्रांतीय शासन व विदेश नीति पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ-साथ मुगल शासकों की धार्मिक नीति तथा प्रजा के साथ व्यवहार का विस्तृत वर्णन भी है। निःसंदेह ये इतिवृत्त या वृत्तांत मुगलकालीन इतिहास के लेखन का महत्त्वपूर्ण आधार हैं।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
1483 ईoबाबर का फरगाना में जन्म
1494 ई०बाबर का फरगाना का शासक बनना
1497 ईoबाबर के हाथ से राज्य का निकलना व निर्वासन जीवन की शुरुआत
1504 ई०बाबर की काबुल विजय, सिकंदर लोधी द्वारा आगरा की स्थापना
1526 ईoपानीपत की पहली लड़ाई व बाबर की जीत
1530 ईoबाबर की मृत्यु तथा बाबरनामा की पाण्डुलिपि को संगृहीत करना।
1540 ई०हुमायूँ की शेरशाह के हाथों हार व भारत से बाहर जाना
1555 ईoहुमायूँ की पुनः भारत विजय
1556 ई०हुमायूँ की मृत्यु, पानीपत की दूसरी लड़ाई व अकबर का शासक बनना
1562 झoअकबर द्वारा किसी राजपूत परिवार से वैवाहिक संबंधों की शुरुआत
1563 ई०अकबर द्वारा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति
1564 ई०अकबर द्वारा जजिया कर को हटाना
1570-85 ई०अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में भवन निर्माण व उसे राजधानी बनाना
1587 ई०गुलबदन बेगम द्वारा हुमायूँनामा के लेखन की शुरुआत
1589 ई०बाबरनामा का तुर्की से फारसी में अनुवाद
1589-1602 ईoअबुल फण्ल द्वारा अकबरनामा का लेखन
1596-98 ई०अबुल फण्ल्ल द्वारा आइन-ए-अकबरी का लेखन
1605 ई०अकबर की मृत्यु व सलीम का जहाँगीर के नाम से शासक बनना
1611 ई०जहाँगीर की नूरजहाँ से शादी
1605-22 ई०जहाँगीर द्वारा आत्मकथा तुज़्क-ए-जहाँगीरी (जहाँगीरनामा) का लेखन
1627 ई०जहाँगीर की मृत्यु
1631 ई०मुमताज महल की मृत्यु
1639-47 ई०अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा बादशाहनामा के दो खण्डों का लेखन
1657-58 ई०शाहजहाँ के काल में उत्तराधिकार का युद्ध
1658 ई०औरंगज़ेब का शासक बनना
1668 ई०मुहम्मद काजिम द्वारा औरंगज़ेब के काल के पहले 10 वर्षों का इतिवृत्त आलमगीरनामा के नाम से संकलन
1669 ई०औरंगज़ेब के काल में जाटों का विद्रोह
1679 ई०औरंगज़ेब द्वारा जजिया कर फिर से लगाना औरंगज़ेब की मृत्यु
1707 ई०से संकलन

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

HBSE 12th Class History  किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
कृषि इतिहास लिखने के लिए आईन-ए-अकबरी को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन-सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी मुगलकालीन कृषि इतिहास लेखन का एक अति महत्त्वपूर्ण स्रोत है। यह अकबर के काल की कृषि व्यवस्था के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालती है। इससे हमें मुगलकाल की फसलों, सिंचाई तकनीक, कृषकों तथा ज़मींदारों के आपसी संबंधों की जानकारी मिलती है। इतना होते हुए भी इस पुस्तक की कुछ सीमा रूपी समस्याएँ हैं। इसका वर्णन इस प्रकार है

(i) आइन-ए-अकबरी पूरी तरह से दरबारी संरक्षण में लिखी गई है। लेखक कहीं भी अकबर के विरुद्ध कोई शब्द प्रयोग नहीं कर पाया। उसने विभिन्न विद्रोहों के कारणों व दमन को भी एक पक्षीय ढंग से प्रस्तुत किया है।

(ii) आइन-ए-अकबरी में विभिन्न स्थानों पर जोड़ में गलतियाँ पाई गई हैं। यहाँ यह माना जाता है कि गलतियाँ अबल-फज्ल के सहयोगियों की गलती से हुई होंगी या फिर नकल उतारने वालों की गलती से।

(iii) आइन में आंकड़े राज्य के सन्दर्भ में तो सहायक हैं, जिसमें दर इत्यादि का वर्णन सही है। परन्तु मजदूरों की मजदूरी, जन-सामान्य की कर सम्बन्धी समस्या का वर्णन इसमें नहीं है। इसी तरह कई क्षेत्रों के सन्दर्भ में कीमतें भी विरोधाभासपूर्ण बताई गई हैं।

(iv) अबुल-फज़ल ने आइन का लेखन आगरा में किया; इसलिए आगरा व इसके आस-पास का वर्णन बहुत अधिक विस्तार के साथ किया गया है। इस बारे में उसकी सूचनाएँ पूरी तरह सही भी हैं। अन्य स्थानों के आंकड़ों एवं सूचनाओं में कमियाँ भी हैं तथा ये सीमित भी हैं।

इतिहासकार इन सीमा रूपी समस्याओं का निपटारा, अन्य स्रोतों का प्रयोग तुलना रूप में या जानकारी प्राप्त करके करता है। आंकड़ों से संबंधित जानकारी अबुल फज़्ल के ही वर्णन के अन्य स्थानों में मिल जाती है। जोड़ इत्यादि की गलतियों का निदान पुनः जोड़ करके इतिहासकार इसे स्रोत के रूप में प्रयोग कर लेता है।

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प्रश्न 2.
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल की मुख्य फसलें गेहूँ, चावल, जौ, ज्वार, कपास, बाजरा, तिलहन, ग्वार इत्यादि थीं। सामान्यतः कृषक खाद्यान्नों का ही उत्पादन करते थे। ये फसलें भौगोलिक स्थिति के अनुरूप उगाई जाती थीं। चावल मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में होता था जहाँ 40 इंच या इससे अधिक वार्षिक वर्षा होती थी। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जौ, ज्वार, बाजरा इत्यादि बोए जाते थे, जबकि गेहूँ लगभग भारत के प्रत्येक क्षेत्र में बोई जाती थी। फसलों के उत्पादन में सर्वाधिक महत्त्व मानसून पवनों का था। जहाँ वे अधिक सक्रिय होती थीं वहाँ गेहूँ व चावल का फसल चक्र रहता था। कम सक्रिय क्षेत्रों में कम वर्षा या कम पानी वाली फसलें उत्पादित होती थीं। इस काल में गन्ना, कपास व नील इत्यादि फसलें भी उगाई जाती थीं। इन फसलों को जिन्स-ए-कामिल कहा जाता था। मुगलकाल में रेशम, तम्बाकू, मक्का, जई, पटसन इत्यादि भी उत्पादित होने लगा था।

इन सभी तरह के फसलों के उत्पादन के बाद भी यह कहा जा सकता है कि इस समय कृषि उत्पादन महज गुजारे के लिए था। ऐसा इसलिए क्योंकि खाद्यान्न फसलों के अतिरिक्त फसलें सीमित क्षेत्र में उत्पादित होती थीं। कृषक समाज फसलें उत्पादित करते समय परिवार के भरण-पोषण का ध्यान भी रखता था। सरकार के पास राजस्व के रूप में फसल ही आती थी। नकदी मुद्रा नहीं के बराबर ही थी। सरकार तथा ग्रामीण समुदाय के पास अनाज के भंडार न होना भी इस बात की पुष्टि करता है कि अतिरिक्त अनाज का अभाव था। इस कारण और अकाल इत्यादि के समय भूख से मरने के उदाहरण से भी इस बात की पुष्टि होती है कि कृषक जितना उत्पादन करता था उतना साथ-साथ उपभोग भी हो जाता था।

प्रश्न 3.
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
उत्तर:
मुगलकालीन समाज में महिलाएं पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर कार्य किया करती थीं। कार्य विभाजन की कड़ी में सामाजिक तौर पर यह माना जाता था कि पुरुष बाहर के कार्य करेंगे तथा महिलाएँ चारदीवारी के अन्दर। यहाँ विभिन्न स्रोतों में महिलाएँ कृषि उत्पादन व विशेष कार्य अवसरों पर साथ-साथ चलती हुई प्रतीत होती हैं। इस व्यवस्था में पुरुष खेत जोतने व हल चलाने का कार्य करते थे, जबकि महिलाएँ निराई, कटाई व फसल से अनाज निकालने के कार्य में हाथ बँटाती थीं। फसल की कटाई व बिजाई के अवसर पर जहाँ श्रम शक्ति की आवश्यकता होती थी तो परिवार का प्रत्येक सदस्य उसमें शामिल होता था ऐसे में महिला कैसे पीछे रह सकती थी। सामान्य दिनचर्या में भी कृषक व खेतिहर मजदूर प्रातः जल्दी ही काम पर जाता था तो खाना, लस्सी व पानी इत्यादि को उसके पास पहुँचाना महिला के कार्य का हिस्सा माना जाता था। इसी तरह जब पुरुष खेत में होता था तो घर पर पशुओं की देखभाल का सारा कार्य महिलाएँ करती थीं। अतः स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन में महिला की भागीदारी काफी महत्त्वपूर्ण थी।
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प्रश्न 4.
विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर:
16वीं व 17वीं सदी में एशिया व यूरोप दोनों में हो रहे मौद्रिक परिवर्तनों से भारत को काफी लाभ हो रहा था। जल व स्थल मार्ग के व्यापार से भारत की चीजें पहले से अधिक दुनिया में फैली तथा नई-नई वस्तुओं का व्यापार भी प्रारंभ हुआ। इस व्यापार की खास बात यह थी कि भारत से विदेशों को जाने वाली मदों में उपयोग की चीजें थीं तथा बदले में भारत में चाँदी आ रही थी। भारत में चाँदी की प्राकृतिक दृष्टि से कोई खान नहीं थी। उसके बाद भी विश्व की चाँदी का बड़ा हिस्सा भारत में एकत्रित हो रहा था। चाँदी के साथ-साथ व्यापार विनिमय से भारत में सोना भी आ रहा था।

भारत में विश्व भर से सोना-चाँदी आने के कारण मुग़ल साम्राज्य समृद्ध हुआ। इसके चलते हुए अर्थव्यवस्था में कई तरह के बदलाव आए। मुग़ल शासकों के द्वारा शुद्ध-चाँदी की मुद्रा का प्रचलन किया गया। बाह्य व्यापार में मुद्रा के प्रचलन का प्रभाव आन्तरिक व्यापार पर भी पड़ा। इसमें भी अब वस्तु-विनिमय के स्थान पर मुद्रा विनिमय अधिक प्रचलन में आने लगी। शहरों में बाजार बड़े आकार के होने लगे। गाँवों से बिकने के लिए फसलें शहर आने लगीं। मुद्रा के प्रचलन में राज्य का राजस्व जिन्स के साथ नकद भी आने लगा। मुद्रा के कारण ही मज़दूरों को मज़दूरी के रूप में नकद पैसा दिया जाने लगा।

प्रश्न 5.
उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था।
उत्तर:
मुगलकाल में राज्य की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था। राज्य की आर्थिक स्थिति तथा कोष इस बात पर निर्भर करता था कि भू-राजस्व कितना तथा कैसे एकत्रित किया जा रहा है। आइन-ए-अकबरी में टोडरमल की नीति को स्पष्ट किया गया है कि अकबर ने अपने राजकोष को समृद्ध बनाने के लिए इस तरह की नीति अपनाई। उसने अपने राजकोष की स्थिति को देखकर सारे साम्राज्य की भूमि को नपवाया। इस नपाई के बाद प्रत्येक क्षेत्र को इस आधार पर बांटा की उससे भू-राजस्व एक करोड़ रुपया बनता हो। इस तरह सारा साम्राज्य 182 परगनों में विभाजित किया गया। नपाई के बाद जमीन का बंटवारा भी उसके उपजाऊपन के आधार पर किया गया। इस बंटवारे का उद्देश्य भी राजस्व की वास्तविकता का ज्ञान करना था।

मुगलकाल में राज्य की आर्थिक स्थिति भी उसी समय तक अच्छी रही जब तक भू-राजस्व ठीक एकत्रित किया गया। उदाहरण के लिए औरंगजेब के काल में हम सर्वाधिक कृषक विद्रोह देखते हैं क्योंकि उसने कठोरता के साथ अधिक भू-राजस्व वसूलने का प्रयास किया। यह प्रयास असफल रहा। अतः स्पष्ट है कि मुगलकाल में राजकोषीय व्यवस्था का आधार भू-राजस्व व्यवस्था थी। * निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
उत्तर:
ग्रामीण समुदाय में पंचायत, गाँव का मुखिया, कृषक व गैर-कृषक समुदाय के लोग थे। इस समुदाय के इन घटकों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति में गहरा तालमेल था अर्थात् जो वर्ग साधन सम्पन्न था, उसी का सामाजिक स्तर भी ऊँचा था। वह अपने स्तर को बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता था। गाँव में रहने वाला हर व्यक्ति सामाजिक ताने-बाने का एक हिस्सा था। मुगलकाल में जाति व गाँव एक-दूसरे के पूरक भी थे। अर्थात् जाति गाँव को बांधती थी तथा गाँव जाति व्यवस्था को बनाकर रखने में मदद करता था। एक गाँव में कृषक, दस्तकार तथा सेवा करने वाली जातियाँ होती थीं। प्रत्येक जाति अपना पुश्तैनी कार्य करती थी।

आर्थिक व सामाजिक स्तर पर इन जातियों में समानता की स्थिति नहीं थी। निम्न जातियों में मुख्य रूप से वो जातियाँ थीं जिनके पास भूमि की मिल्कियत नहीं थी। ये लोग गाँव में वे कार्य करते थे जिन्हें निम्न या हीन समझा जाता था; जैसे मृत पशुओं को उठाना, चमड़े के कार्य या सफाई कार्य इत्यादि। इन जातियों के लोग खेतों में मजदूरी भी करते थे। उस काल में खेती योग्य जमीन की कमी नहीं थी। फिर भी निम्न जातियों के लिए कुछ कार्य ही निर्धारित थे क्योंकि अन्य कार्य को करने की जिम्मेदारी अन्य उच्च वर्गों की मानी जाती थी। इस तरह यह कहा जा सकता है कि निम्न जातियों के लोग निर्धनता का जीवन जीने के लिए मजबूर थे।

जैसा कि स्पष्ट है कि गाँव में जाति, गरीबी व सामाजिक हैसियत के बीच प्रत्यक्ष संबंध था। निम्न वर्ग के लोगों की स्थिति अधिक गरीबी वाली थी। समाज में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी स्थिति बीच वाली थी। इस बीच वाले समुदाय में कुछ वर्गों की आर्थिक स्थिति में बदलाव के साथ सामाजिक हैसियत में भी कुछ बदलाव आया। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि इस काल में पशुपालन व बागबानी का काफी विकास हुआ। इसके कारण इन कार्यों को करने वाली अहीर, गुज्जर व माली जैसी जातियों की आर्थिक स्थिति सुधरी।

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प्रश्न 7.
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिंदगी किस तरह बदल गई?
उत्तर:
16वीं व 17वीं सदी में कृषि व्यवस्था पर आधारित समाज के अतिरिक्त भी भारत का ग्रामीण समाज था। यह समाज बड़े जंगल क्षेत्र, झाड़ियों (खरबंदी) का क्षेत्र, पहाड़ी कबीलाई क्षेत्र इत्यादि था। यह समाज मुख्य रूप से झारखंड, उड़ीसा व बंगाल का कुछ क्षेत्र, मध्य भारत, हिमालय का तराई क्षेत्र तथा दक्षिण के पठार व तटीय क्षेत्रों में फैला था। जंगल के लोगों का जीवन कृषि व्यवस्था से भिन्न था।

इस काल में भारत का विशाल भू-क्षेत्र जंगलों से सटा था तथा यहाँ के लोग आदिवासी थे जो कबीलों की जिन्दगी जीते थे। वे जंगलों में प्राकृतिक जीवन-शैली के अनुरूप रह रहे थे। जंगलों के उत्पादों, शिकार व स्थानांतरित कृषि के सहारे वे लोग अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनके कार्य मौसम (जलवायु) के अनुकूल होते थे। मुगलकाल में जंगल की व्यवस्था व जीवन-शैली में तेजी से बदलाव आया। विभिन्न तरह के व्यापारियों, सरकारी अधिकारियों एवं स्वयं शासक भी विभिन्न अवसरों पर जंगलों में जाया करते थे। इस तरह अब जंगल का जीवन पहले की तरह स्वतंत्र व शान्त नहीं रहा, बल्कि समाज के आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों से प्रभावित होने लगा। इन परिवर्तनों के लिए बहुत-से कारण जिम्मेदार थे। इनमें से मुख्य का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है

(i) हाथियों की प्राप्ति-मुगलकाल की सेना में हाथियों का बहुत महत्त्व था। ये हाथी जंगलों में मिलते थे। राज्य इन्हें प्राप्त करने के लिए जंगली क्षेत्र पर नियंत्रण रखता था। मुगलकाल में राज्य जंगलवासियों से यह उम्मीद करता था कि वे भेंट अर्थात् पेशकश के रूप में हाथी दें।

(ii) शिकार यात्राएँ-मुग़ल शासक अपना सारा समय दरबार व महल में नहीं गुजारते थे, बल्कि वे अपने अधिकारियों व मनसबदारों के साथ शिकार के लिए भी जाया करते थे। यह शिकार मात्र मनोरंजन या भोजन विशेष के लिए नहीं होता था बल्कि इससे कुछ अधिक इसके सरोकार थे। शासक इस माध्यम से अपने पूरे साम्राज्य की वास्तविकता को जानना चाहता था। वह वहाँ लोगों की शिकायतें सुनता था तथा न्याय भी करता हेत शिविर था। शासक की इस तरह की गतिविधियों ने राज्य व जंगलवासियों की बीच की दूरियों में कमी की।
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(iii) वाणिज्यिक कृषि-वाणिज्यिक खेती व व्यापार के कारण भी जंगलवासियों का जीवन प्रभावित हुआ। जंगल में उत्पादित होने वाले पदार्थों विशेषकर शहद, मोम व लाख भारत से काफी मात्रा में निर्यात होता था। इन पदार्थों की पूर्ति जंगल से होती थी। भारतीय लाख की यूरोप में माँग बढ़ती जा रही थी। इसको जंगलवासी बड़ी कुशलता से तैयार करते थे। इस तरह धीरे-धीरे जंगलवासियों का एक वर्ग इन चीजों को उपलब्ध कराने वाला हो गया। इस समय जंगल में मुख्य व्यापार वस्तुओं के माध्यम से होता था, परन्तु धीरे-धीरे धातु मुद्रा भी वहाँ घुसपैठ कर रही थी।

(iv) व्यापारिक गतिविधियाँ-कुछ छोटे कबीले दो बस्तियों के बीच रहते थे। इन्होंने इन बस्तियों को जोड़ने के लिए व्यापारिक कार्य करने शुरू कर दिए। इस काल में कुछ कबीले गाँव व शहर के बीच व्यापार की कड़ी का काम कर रहे थे। इनके ऊपर गाँव व शहर दोनों की जीवन-शैली का प्रभाव पड़ रहा था।

(v) मुखियाओं का ज़मींदारों के रूप में उदय-जंगल की सामाजिक संरचना में कबीलों के कुछ सरदार या मुखिया जंगल के सरदार या ज़मींदार बन गए। उन्हें अपने जंगल की रक्षा के लिए सेना की आवश्यकता महसूस होने लगी। दूसरी ओर, शासक व अधिकारियों के सम्पर्क में रहने के कारण वह उस तरह की जीवन-शैली अपनाने लगा। कुछ कबीलों के मुखिया तो सरकारी क्षेत्र में आ गए। उन्होंने अपने करीबी लोगों एवं कबीलों के अन्य लोगों को भी सरकारी सेवा में लेने की स्थितियाँ बना दीं। इस तरह स्पष्ट है कि इस सामाजिक बदलाव ने जंगलवासियों व कबीलों की जिन्दगी को पूरी तरह से बदल दिया।
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प्रश्न 8.
मुग़ल भारत में ज़मींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में ज़मींदार महत्त्वपूर्ण था क्योंकि वह बहुत बड़े भू-क्षेत्र का मालिक था। यह सारा भू-क्षेत्र उसके निजी प्रयोग के लिए था। अपने इस अधिकार के कारण वह गाँव व क्षेत्र में सामाजिक तौर पर भी ऊँची पहचान रखता था। इस ऊँची पहचान का कारण उसकी जाति भी थी। इस तरह वह व्यक्ति सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से बहुत ऊँची पहचान रखता था।

उसकी यह स्थिति पैतृक थी तथा राज्य उसकी इस स्थिति में सामान्य तौर पर बदलाव नहीं कर सकता था। इसलिए राज्य उससे विभिन्न प्रकार की सेवाएँ (खिदमत) लेता था जिनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण राजस्व की वसूली थी। राज्य की सेवाओं के बदले उसकी राजनीतिक हैसियत भी ऊँची होती थी। इन स्थितियों के चलते हुए उसके लिए कार्य करने वाले कृषक, दिहाड़ीदार मजदूर, खेतिहर वर्ग तथा गाँवों के अन्य लोग लगभग उसकें पराधीन होते थे। इसलिए उसे स्थानीय स्तर पर कोई चुनौती नहीं मिलती थी।
मुगलकाल में ज़मींदार की तीन श्रेणियाँ थीं। इनका वर्णन इस प्रकार है

(i) प्रारंभिक ज़मींदार ये ज़मींदार वो ज़मींदार होते थे जो अपनी ज़मीन का राजस्व स्वयं कोष में जमा कराते थे। एक गाँव में प्रायः ऐसे ज़मींदार 4 या 5 ही हुआ करते थे।

(ii) मध्यस्थ ज़मींदार ये ज़मींदार वो थे जो अपने आस-पास के क्षेत्रों के ज़मींदारों से कर वसूल करते थे तथा उसमें से कमीशन के रूप में एक हिस्सा अपने पास रखकर कोष में जमा कराते थे। ऐसे ज़मींदार या तो एक गाँव में एक या फिर दो या तीन गाँवों का एक होता था।

(ii) स्वायत्त मुखिया ये ज़मींदार बहुत बड़े क्षेत्र के मालिक होते थे। कई बार इनके पास 200 या इससे अधिक गाँव भी होते थे। इनकी पहचान स्थानीय राजा की तरह होती थी। सरकारी तन्त्र भी उनके प्रभाव में होता था। इनके क्षेत्र में कर एकत्रित करने में सरकार के अधिकारी भी सहयोग देते थे। ये बहुत साधन सम्पन्न होते थे।

जमींदारों के अधिकार व कर्त्तव्य (Rights and Duties of Zamindars) अधिकार व कर्तव्यों की दृष्टि से इनको सामाजिक तौर पर कोई चुनौती नहीं थी। ज़मींदार वर्ग के बारे में बताया गया कि इससे ऊपर व अधीन वर्ग दोनों को इसकी जरूरत थी। ऐसे में अपनी ज़मीन की खरीद, बेच, हस्तांतरण, गिरवी रखने का अधिकार इनके पास था। विभिन्न तरह के प्रशासनिक पदों पर इन्हें नियुक्त किया जाता था। अपने क्षेत्र में विशेष पोशाक, घोड़ा, वाद्य यन्त्र बजवाने का अधिकार इनके पास था। भू-राजस्व से इन्हें एक निश्चित मात्रा में कमीशन मिलता था।

ज़मींदारों के कर्त्तव्यों के बारे में कहा जा सकता है कि अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित करने की जिम्मेदारी इनकी थी। इनके क्षेत्र से शासक व शाही परिवार का कोई सदस्य गुजरता था तो उन्हें वहाँ उपस्थित होना पड़ता था। राज्य के प्रति स्वामीभक्ति इनका सबसे बड़ा कर्त्तव्य था। कुछ ज़मींदार अपनी पहचान बनाने के लिए सामाजिक पंचायतों में भाग लेते थे तथा विभिन्न तरह के झगड़ों को निपटाने के फैसले किया करते थे। कुछ ज़मींदार अपने क्षेत्र में धर्मशालाएँ बनवाना व कुएँ खुदवाना भी जरूरी समझते थे।

प्रश्न 9.
पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण समुदाय में एक महत्त्वपूर्ण पहलू पंचायत व्यवस्था थी। गाँव की सारी व्यवस्था, आपसी संबंध तथा स्थानीय प्रशासन का संचालन पंचायत द्वारा ही किया जाता था। ग्राम पंचायत प्राचीनकाल में ही शक्तिशाली संस्था के रूप में कार्य कर रही थी। विभिन्न प्रकार के राजनीतिक परिवर्तनों का इस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। विभिन्न शक्तिशाली शासकों ने भी इसकी कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं किया। मुग़ल शासकों ने भी इस बारे में पहले से प्रचलित नीति का पालन किया।

(i) पंचायत का गठन-ग्राम पंचायत में मुख्य रूप से गाँव के सम्मानित बुजुर्ग होते थे। इन बुजर्गों में भी उनको महत्त्व दिया जाता था जिनके पास पुश्तैनी ज़मीन या सम्पत्ति होती थी। प्रायः गाँव में कई जातियाँ होती थी इसलिए पंचायत में भी इन विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि होते थे। परन्तु इसमें विशेष बात यह है कि साधन सम्पन्न व उच्च जातियों को ही पंचायत में महत्त्व दिया जाता था। खेती पर आश्रित भूमिहीन वर्ग को पंचायत में शामिल अवश्य किया जाता था, लेकिन उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता था। हाँ, इतना अवश्य है कि पंचायत में लिए गए फैसले को मानना सभी के लिए जरूरी था।

(ii) पंचायत का मुखिया-गाँव की पंचायत मुखिया के नेतृत्व में कार्य करती थी। इसे मुख्य रूप से मुकद्दम या मंडल कहते थे। मुकद्दम या मंडल का चुनाव पंचायत द्वारा किया जाता था। इसके लिए गाँव के पंचायती बुजुर्ग बैठकर किसी एक व्यक्ति के नाम पर सहमत हो जाते थे। प्रायः गाँव के सबसे बड़े कृषक या प्रभावशाली व्यक्ति को मुखिया माना जाता था। मुखिया का चुनाव होने के बाद पंचायत उसका नाम स्थानीय ज़मींदार के पास भेजती थी। ज़मींदार प्रायः उस नाम को स्वीकार कर लेता था। इस तरह मुखिया के चयन की औपचारिकता पूरी होती थी। मुखिया के कार्यों में पटवारी मदद करता था। गाँव की आमदनी, खर्च व अन्य विकास कार्यों के करवाने की जिम्मेदारी उसकी होती थी। गाँव की जातीय व्यवस्था तथा सामाजिक बंधनों को लागू करने में वह अधिक समय लगाता था।

(iii) पंचायत के कार्य ग्राम पंचायत व मुखिया को गाँव के विकास तथा व्यवस्था की देख-रेख में कार्य करने होते थे। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

(a) गाँव की आय व खर्च का नियंत्रण पंचायत करती थी। गाँव का अपना एक खजाना होता था जिसमें गाँव के प्रत्येक परिवार का हिस्सा होता था। इस खजाने से पंचायत गाँव में विकास कार्य कराती थी।

(b) गाँव में प्राकृतिक आपदाओं विशेषकर बाढ़ व अकाल की स्थिति में भी पंचायत विशेष कदम उठाती थी। इसके लिए वह अपने कोष का प्रयोग तो करती ही थी साथ में सरकार से तकावी (विशेष आर्थिक सहायता) के लिए भी कार्य करती थी।

(c) गाँव के सामुदायिक कार्य जिन्हें कोई एक व्यक्ति या कृषक नहीं कर सकता था तो वह कार्य पंचायत द्वारा किए जाते थे। इनमें छोटे-छोटे बाँध बनाना, नहरों व तालाबों की खुदाई करवाना, गाँव के चारों ओर मिट्टी की बाड़ बनवाना तथा सुरक्षा के लिए कार्य करना इत्यादि प्रमुख थे।

(d) गाँव की सामाजिक संरचना विशेषकर जाति व्यवस्था के बंधनों को लागू करवाना भी पंचायत का मुख्य काम था। पंचायत किसी व्यक्ति को जाति की हदों को पार करने की आज्ञा नहीं देती थी। पंचायत शादी के मामले व व्यवसाय के मामले में इन बंधनों को कठोरता से लागू करती थी।

(e) गाँव में न्याय करना पंचायत का अति महत्त्वपूर्ण कार्य था। गाँव में हर प्रकार के झगड़े व सम्पत्ति-विवाद का समाधान पंचायत करती थी। पंचायत दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड दे सकती थी, जिसमें व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया जाता था।

इस तरह स्पष्ट है कि पंचायत व गाँव का मुखिया गाँव नियमन परंपरावादी ढंग से करते थे। ग्रामीण ताना-बाना व जातीय परंपरा को बनाए रखना इनका मुख्य ध्येय होता था।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के बहिरेखा वाले नक्शे पर उन इलाकों को दिखाएँ जिनका मुग़ल साम्राज्य के साथ आर्थिक संपर्क था। इन इलाकों के साथ यातायात-मार्गों को भी दिखाएँ।
उत्तर:
मुग़लों का आर्थिक संपर्क, जल व थल मार्ग से कई देशों से था। इन देशों को विश्व के मानचित्र में प्रदर्शित किया जा सकता है मध्य एशिया के देश, पश्चिमी एशिया के देश, दक्षिणी एशिया के देश, अरब क्षेत्र के देश, फ्रांस, ब्रिटेन और पुर्तगाल।
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परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
पड़ोस के एक गाँव का दौरा कीजिए। पता कीजिए कि वहाँ कितने लोग रहते हैं, कौन-सी फसलें उगाई जाती हैं, कौन-से जानवर पाले जाते हैं, कौन-से दस्तकार समूह रहते हैं, महिलाएँ ज़मीन की मालिक हैं या नहीं, और वहाँ की पंचायत किस तरह काम करती है। जो आपने सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के बारे में सीखा है उससे इस सूचना की तुलना करते हुए, समानताएँ नोट कीजिए। परिवर्तन और निरंतरता दोनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी इसके लिए सर्वप्रथम अपने गाँव या पड़ोस के गाँव का चयन करें। इसके लिए वह एक प्रश्नावली तैयार करें। जैसे

  • आपके गाँव में कौन-कौन सी फसलें होती हैं।
  • गाँव के लोग किन-किन पशुओं को पालते हैं।
  • गाँव में किस-किस दस्तकारी से संबंधित लोग रहते हैं।
  • क्या गाँव में महिलाओं को भूमि के मालिक होने का अधिकार है।
  • आपकी पंचायत क्या-क्या कार्य करती है।
  • आपकी पंचायत का चुनाव कैसे होता है।

इन प्रश्नों की जानकारी के बाद विद्यार्थी अध्याय को ध्यान से पढ़कर तुलना करें कि फसलों व जानवरों में कोई बदलाव आया है। इसमें विशेष अंतर पंचायत व्यवस्थाएँ यह हैं कि मुगल काल में पंचायतें प्रभावी वर्ग की स्थायी पैतृक पदों वाली तथा जातीय आधार पर होती थी जबकि आज की पंचायतों को चुनाव में गाँव का प्रत्येक स्त्री पुरुष बिना किसी जाति धर्म, क्षेत्र, भाषा के भेदभाव के बिना हिस्सा ले सकता है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 12.
आइन का एक छोटा सा अंश चुन लीजिए (10 से 12 पृष्ठ, दी गई वेबसाइट पर उपलब्ध)। इसे ध्यान से पढ़िए और इस बात का ब्योरा दीजिए कि इसका इस्तेमाल एक इतिहासकार किस तरह से कर सकता है?
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक में वर्णित आइन को पढ़िए। इसके लिए आप इंटरनेट से भी मदद ले सकते हैं या फिर किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय के पुस्तकालय से आइन पुस्तक के रूप में ले सकते हैं। इस पुस्तक के किसी एक अध्याय को पढ़कर अपने विचार निश्चित कर सकते हैं। इसके लिए J.B.D. की पाठ्यपुस्तक आपके लिए मददगार होगी क्योंकि इस पुस्तक में अध्याय के प्रारंभ में भी स्रोतों का अध्ययन किया गया है। इसमें आइन-ए-अकबरी के विभिन्न भागों व अध्यायों का वर्णन है। आइन-ए-अकबरी की स्रोतों के रूप में सीमाएँ तथा महत्त्व को भी स्पष्ट रूप से इंगित किया गया है। इन्हीं पक्षों का प्रयोग आप विस्तृत विश्लेषण के लिए अपने चयनित किए गए अध्याय पर भी कर सकते हैं।

किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य HBSE 12th Class History Notes

→ आइन-ए-अकबरी-अकबर के शासनकाल में उसके दरबारी अबुल फज्ल द्वारा लिखी गई पुस्तक।

→ रैयत-इसका शाब्दिक अर्थ प्रजा है। मुगलकाल में यह शब्द कृषकों के लिए प्रयोग किया गया है। इस शब्द का बहुवचन ‘रिआया’ है।

→ खुद-काश्त-वह किसान जो ज़मीन का मालिक भी था तथा स्वयं उसको जोतता भी था।

→ पाहि-काश्त-यह वह किसान था जिसके पास अपनी जमीन नहीं होती थी। वह पड़ोस के गाँव या अपने ही गाँव में पड़ोसी की ज़मीन पर खेती करता था।

→ खालिसा-मुगलकाल की वह ज़मीन जिससे एकत्रित भू-राजस्व सीधे सरकारी कोष में जाता था।

→ जागीर-ज़मीन का वह हिस्सा जिसका राजस्व किसी अधिकारी को उसकी सरकारी सेवा अर्थात् वेतन के बदले दिया जाता था।

→ जिन्स-ए-कामिल-मुगलकाल में उत्पादित होने वाली वे फसलें जो खाद्यान्न नहीं होती थीं। राज्य को इन फसलों से अधिक कर प्राप्त होता था।

→ रबी-वह फसल जो अक्तूबर-नवंबर में बोई जाती तथा मार्च-अप्रैल में काटी जाती थी।

→ खरीफ वह फसल जो मई, जून व जुलाई में रोपित की जाती तथा अक्तूबर व नवंबर में काटी जाती थी।

→ पुश्तैनी-वह कार्य या संपत्ति जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता हो।

→ मल्लाहजादा-मल्लाह वह व्यक्ति होता है जो नौका चलाता है। उसका पुत्र मल्लाहजादा कहलाता था।

→ खेतिहर-वह व्यक्ति जो स्वयं ज़मीन का मालिक नहीं होता बल्कि कृषक के साथ मिलकर मज़दूर इत्यादि के रूप में कार्य करता था।

→ मीरास-किसी व्यक्ति को उसकी सेवा के बदले भूमि दी जाती थी। उसे मीरास या वतन कहा जाता था।

→ जंगली-वे लोग जिनका निवास स्थान जंगल में था।

→ कारवाँ–सामूहिक रूप में पशुओं व गाड़ियों के साथ व्यापार करने वाले लोग।

→ ज़मींदार-मुगलकाल का वह व्यक्ति जो ज़मीन का मालिक होता था। उसे अपनी ज़मीन बेचने, खरीदने व हस्तांतरण का अधिकार होता था।

→ स्वायत्त मुखिया-मुगलकाल में एक ऐसा ज़मींदार जो बहुत बड़े क्षेत्र का स्वामी होता था। जनता उन्हें उस क्षेत्र में शासक ही समझती थी।

→ जरीब-ज़मीन को नापने के लिए प्रयोग की जाने वाली लोहे की जंजीर जरीब कहलाती थी।

→ शिजरा-किसी गाँव, शहर या क्षेत्र का कपड़े पर बनाया गया नक्शा शिजरा कहलाता था। इसमें निवास क्षेत्र व कृषि क्षेत्र का उल्लेख होता था।

→ पोलज-मुगलकाल की वह कृषि भूमि जो सबसे अधिक उपजाऊ थी।

→ जमा-मुगलकाल में किसी क्षेत्र विशेष के लिए निर्धारित लगान दर जमा कहलाती थी। ”

→ हासिल-मुगलकाल में किसी क्षेत्र विशेष से जितना कर एकत्रित होता था वह हासिल कहलाता था।

→ टकसाल वह स्थान जहाँ पर किसी राज्य अथवा देश की मुद्रा छपती थी या आज भी छपती है।

→ मुकद्दम-मुगलकाल में गाँव के मुखिया को कहा जाता था।

→ एक ‘छोटा गणराज्य’-भारतीय गाँव के लिए अंग्रेज लेखकों द्वारा प्रयोग किया गया शब्द।

→ पायक-असम क्षेत्र में पैदल सैनिकों को पायक कहा जाता था।

→ सफावी-ईरान के शासकों को सफावी कहा जाता था।

मुगलकाल में कुल जनसंख्या के लगभग 85% से अधिक लोग गाँवों में रहते थे। गाँवों की अर्थव्यवस्था का केन्द्र कृषि थी। छोटे-से-छोटे कृषक तथा खेतिहर मजदूर से लेकर बड़े-से-बड़े व्यक्ति का सम्बन्ध कृषि से था। समाज के सभी वर्ग कृषि उत्पादन में अपना-अपना हिस्सा अपने-अपने ढंग से लेते थे। इस उत्पादन के बँटवारे में समाज के विभिन्न वर्गों में सहयोग, टकराव व प्रतिस्पर्धा साथ-साथ चलती थी। इन्हीं रिश्तों व परिस्थितियों के बीच ग्रामीण समाज की संरचना बनती थी। मुगल साम्राज्य की आय का मुख्य साधन भू-राजस्व था। वह विभिन्न तरीकों से विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से इसे एकत्रित करता था। इस राजस्व के एकत्रित करने में यह आवश्यक था कि ग्रामीण समाज पर नियंत्रण रखा जाए। मुग़ल शासकों ने भू-राजस्व को एकत्रित करने के लिए जिन्स के साथ-साथ मुद्रा की नीति को भी अपनाया। इस काल में खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ नकदी या वाणिज्यिक फसलें भी उगाई जाती थीं। इस प्रक्रिया के चलते हुए व्यापार, मुद्रा व बाजार का सम्बन्ध गाँवों से हो गया। इस कारण गाँव भी अब अलग-अलग न रह कर शहर से जुड़ गए।

→ मुगलकाल का आर्थिक इतिहास जानने का एक प्रमुख साधन आइन-ए-अकबरी है। इस स्रोत से हमें यह पता चलता है कि राज्य का कृषि, कृषक व ज़मींदारों के बारे में दृष्टिकोण कैसा था? इसके अतिरिक्त कुछ और स्रोत भी हैं जो आर्थिक पक्ष की जानकारी देते हैं। इन स्रोतों का प्रयोग कर 16वीं व 17वीं शताब्दी के आर्थिक इतिहास का पुनर्निर्माण किया जा सकता है।

→ जैसा कि स्पष्ट है मुगलकाल में भी भारत कृषि प्रधान देश था। उस समय लोग आज की तुलना में कृषि पर अधिक निर्भर थे। ये लोग वर्ष भर खेती के कार्यों में लगे रहते थे। ज़मीन की जुताई, बिजाई व कटाई के अनुरूप इनकी दिनचर्या जुड़ी थी। इस समय कृषि पर आधारित उद्योग लगभग प्रत्येक गाँव में थे जिसमें लोग कृषि के मुख्य काम के अतिरिक्त समय गुजारते थे। भौगोलिक दृष्टि से भारत में कृषक व कृषि व्यवस्था की प्रणाली एक-जैसी नहीं थी। मैदानी क्षेत्रों में बड़े-बड़े खेत थे तथा उनमें उत्पादन बड़े स्तर पर होता था। पहाड़ी क्षेत्रों में छोटे-छोटे खेत व उत्पादन भी सीमित थे। इस तरह पठारी व मरुस्थल क्षेत्र की स्थिति भी अन्य से भिन्न थी। भारत के बहुत बड़े हिस्से पर जंगल भी थे। वहाँ रहने वाले लोगों की जीवन-शैली पूरी तरह से भिन्न थी। इस तरह से पूरे भारत के बारे में कृषक व कृषि के सन्दर्भ में एक जैसे निष्कर्ष निकालना सम्भव नहीं है।

→ मुगलकाल में कृषक के लिए मोटे तौर पर रैयत या मुज़रियान शब्द का प्रयोग मिलता है। कई स्थानों पर हमें कृषक के लिए किसान व आसामी शब्द भी मिलते हैं। 17वीं शताब्दी के स्रोतों में खुद-काश्त व पाहि-काश्त इत्यादि शब्दों का प्रयोग कृषकों के लिए मिलता है। यह शब्द उनकी प्रकृति में अन्तर को स्पष्ट करता है। कहीं-कहीं यह विभिन्न क्षेत्रों के भाषायी अन्तर के कारण है।

→ मुगलकाल में फसल चक्र खरीफ व रबी के नाम से जाना जाता था। यह फसल चक्र भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में था। उपजाऊ क्षेत्रों में दोनों फसलें होती थीं। जबकि कम उपजाऊ क्षेत्रों में एक फसल मौसम के अनुरूप ली जाती थी। रबी (बसन्त) की फसल अक्तूबर-नवम्बर में रोपित होती थी तथा मार्च-अप्रैल में काटी जाती थी जबकि खरीफ (पतझड़) की फसल की बिजाई मई, जून व जुलाई में होती थी तथा कटाई सितम्बर, अक्तूबर व नवम्बर में होती थी। इस फसल चक्र का आधार मानसून पवनें थीं। भारत में जिन क्षेत्रों में वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती थी या सिंचाई के साधन उपलब्ध थे, वहाँ तीन फसलें भी ली जाती थीं। तीसरी फसल मोटे तौर पर पशुओं के लिए चारा इत्यादि होता था। दूसरी ओर गन्ना व नील इस तरह की फसलें भी थीं जो वर्ष में एक बार ही हो पाती थीं।

→ कृषि सम्बन्धी इन पक्षों की एक विशेष बात यह थी कि मुगलकाल में जोत क्षेत्र काफी बड़ा था। कृषि क्षेत्र को बढ़ाने के लिए राज्य तथा कृषकों द्वारा लगातार कार्य किए गए। जोत क्षेत्र के बढ़ने तथा नई फसलों के आगमन का परिणाम यह रहा कि अकाल व भुखमरी की स्थिति पहले से कम हुई। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव जनसंख्या पर पड़ा। 1600 से 1700 तक भारत की जनसंख्या में लगभग 5 करोड़ की वृद्धि हुई तथा आगामी 100 वर्षों में यह और अधिक बढ़ी। स्रोतों के अनुमान के अनुसार 16वीं व 17वीं शताब्दी में भारत की जनसंख्या में लगभग 33% की वृद्धि हुई। इस जनसंख्या वृद्धि से कृषि उत्पादन भी बढ़ा क्योंकि कृषि पर काम करने वाले लोग भी बढ़े।

→ गाँव में व्यवस्था का संचालन पंचायतें करती थीं। गाँव में प्रायः कई जातियाँ होती थीं। प्रत्येक जाति की अपनी एक पंचायत होती थी। ये जातीय पंचायत गाँव की परिधि के बाहर भी महत्त्व रखती थी। इनका अस्तित्व क्षेत्रीय आधार पर भी होता था। ये बहुत शक्तिशाली होती थीं। ये पंचायतें अपनी जाति (बिरादरी) के झगड़ों का निपटारा करती थीं। जातीय परंपरा व बन्धनों के दृष्टिकोण से ये ग्रामीण पंचायतों की तुलना में अधिक कठोर थीं। दीवानी झगड़ों का निपटारा, शादियों के जातिगत मानदण्ड, कर्मकाण्डीय गतिविधियों का आयोजन तथा अपने व्यवसाय को मजबूत करना इनके काम थे। व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को ये पंचायतें जाति से बाहर कर देती थीं। सामाजिक अस्तित्व की दृष्टि से यह दण्ड बेहद कठोर होता था क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति अपने परिवार, व्यवसाय व वैवाहिक संबंधों इत्यादि से भी कट जाता था।

→ ग्राम पंचायतों पर मुख्य रूप से उच्च वर्ग का प्रभुत्व था। वह वर्ग अपनी मनमर्जी के फैसले पंचायत के माध्यम से लागू करवाता था। सामान्य तौर पर निम्न वर्ग के लोग पंचायत की इस तरह की कार्रवाई को झेल लेते थे। परन्तु स्रोतों में विशेषकर महाराष्ट्र व राजस्थान से प्राप्त दस्तावेजों में इस तरह के प्रमाण मिले हैं कि निम्न वर्ग ने विरोध किया हो। इन दस्तावेज़ों में ऊँची जातियों व सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध जबरन कर वसूली या बेगार की शिकायत है, जिसके अनुसार निम्न वर्ग के लोग स्पष्ट करते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है तथा उन्हें उनसे न्याय की उम्मीद भी नहीं है।

→ भारतीय ग्राम प्राचीनकाल से छोटे गणराज्य के रूप में कार्य कर रहे थे। मुगलकाल में इस व्यवस्था में थोड़ा-बहुत बदलाव आना शुरू हो गया था। इस काल में शहरीकरण का थोड़ा विकास हुआ जिसके चलते गाँव व शहर के बीच व्यापारिक रिश्ते बढ़े। इस कड़ी में वस्तु-विनिमय की बजाय नकद धन का अधिक प्रयोग होने लगा। इसी तरह मुग़ल शासकों ने भू-राजस्व की वसूली जिन्स के साथ-साथ नकदी में भी प्रारंभ की। शासक की ओर से नकदी को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इस काल में विदेशी व्यापार में भी वृद्धि हुई। विदेशों को निर्यात होने वाली चीजें गाँव में बनती थीं। इस व्यापार से नकद धन मिलता था। इस तरह धीरे-धीरे मजदूरी का भुगतान भी नकद किया जाने लगा। इस काल में खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ नकदी फसलें भी उगाई जाने लगी, जिससे कृषक को पर्याप्त मात्रा में लाभ होता था। रेशम तथा नील मुगलकाल में अत्यधिक लाभ देने वाली फसलें मानी जाती थीं। इस तरह ग्रामीण समाज में वस्तु विनिमय के साथ मुद्रा का प्रयोग भी होने लगा। इससे ग्रामीण ताना-बाना व व्यवस्था प्रभावित होने लगी।

→ जंगलवासियों के जीवन में भी मुगलकाल में कई तरह के परिवर्तन आए। विभिन्न कारणों के होते हुए जंगलवासियों की दूरियाँ गाँव व नगरों से कम हुई, वहीं राज्य के साथ भी संबंधों में बदलाव आया। 16वीं सदी के एक बंगाली कवि मुकंदराम चक्रवर्ती ने ‘चंडीमंगल’ नामक कविता लिखी। इस कविता के नायक कालकेतु ने जंगल खाली करवाकर नए साम्राज्य की स्थापना की। उसने अपनी कविता में उस प्रक्रिया को वर्णित किया है जो जंगल में साम्राज्य का विस्तार करने के लिए अपनाई गई तथा जिसने जंगल के जीवन व व्यवस्था को बदल दिया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

→ मुगलकाल में कृषि संबंधों का अध्ययन करते हुए अभी तक हमने कृषक, गैर-कृषक व ग्रामीण समुदायों के कुछ पक्षों का वर्णन किया है। इन संबंधों में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष का अध्ययन जरूरी है। यह पक्ष ज़मींदार के नाम से जाना जाता था। यह कृषि व्यवस्था का केन्द्र था, क्योंकि वह भूमि का मालिक था। उसे ज़मीन के बारे में सारे अधिकार प्राप्त थे अर्थात् वह अपनी ज़मीन को बेच सकता था या किसी को हस्तांतरित कर सकता था। वह अपनी भूमि से कर एकत्रित करके राज्य को देता था। इस तरह यह वर्ग अपने से ऊपर तथा नीचे वाले दोनों वर्गों पर प्रभाव रखता था। ज़मींदार के सन्दर्भ में एक खास बात यह भी है कि वह खेती की कमाई खाता था, लेकिन स्वयं खेती नहीं करता था। बल्कि वह अपने अधीन कृषकों व मजदूरों से कृषि करवाता था।

→ निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि 16वीं व 17वीं सदी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। इस काल में ग्रामीण व्यवस्था व कृषि व्यवस्था में कई तरह के बदलाव आए। ये बदलाव आपस में जुड़े थे। ग्रामीण व्यवस्था में जाति व्यवस्था प्रमुख थी। उसी आधार पर सामाजिक ताना-बाना बना था। कृषक समुदाय इस व्यवस्था में शीर्ष पर था। उसकी जाति भी उच्च थी। निम्न जातियों के लोग भूमि के मालिक नहीं थे। वे या तो गैर-कृषक कार्य करते थे या फिर खेतिहर मजदूर थे।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
1483 ई०बाबर का मध्य एशिया के फरगाना में जन्म
1504 ई०बाबर की काबुल-विजय
1526 ई०बाबर की पानीपत की पहली लड़ाई में जीत, दिल्ली सल्तनत का अन्त व मुग़ल वंश की स्थापना
1530 ई०हुमायूँ का गद्दी पर बैठना
1540 ई०हुमायूँ की शेरशाह सूरी द्वारा पराजय व हुमायूँ का (1540-55) भारत से निर्वासन
1540-45 ई०शेरशाह सूरी का शासन काल
1545-55 ई०शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारियों का काल
1555-56 ई०हुमायूँ द्वारा फिर से सत्ता पर अधिकार करना
1556 ई०पानीपत की दूसरी लड़ाई व अकबर के शासन काल का प्रारंभ
1556-1605 ई०अकबर का शासन काल
1605-1627 ई०जहाँगीर का शासन काल
1628-1658 ई०शाहजहाँ का शासन काल
1658-1707 ई०औरंगज़ेब का शासन काल
1707-1857 ई०औरंगज़ेब के बाद 11 मुग़ल शासकों का काल या उत्तर मुग़लकाल
1739 ई०नादिरशाह का दिल्ली पर आक्रमण व लूटमार
1757 ई०प्लासी की लड़ाई में बंगाल पर अंग्रेजों का कब्ना
1761 ई०पानीपत की तीसरी लड़ाई व मराठों की अब्दाली के हाथों हार
1765 ई०बंगाल, बिहार व उड़ीसा में अंग्रेजों को दीवानी अधिकार की प्राप्ति
1857 ई०1857 का जन विद्रोह, अन्तिम मुग़ल बादशाह को बन्दी बनाकर बर्मा की राजधानी रंगून भेजना।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 7 एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 7 एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 7 एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर

HBSE 12th Class History एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
पिछली दो शताब्दियों में हम्पी के भवनावशेषों के अध्ययन में कौन-सी पद्धतियों का प्रयोग किया गया है? आपके अनुसार यह पद्धतियाँ विरुपाक्ष मन्दिर के पुरोहितों द्वारा प्रदान की गई जानकारी का किस प्रकार पूरक रहीं?
उत्तर:
विजयनगर की जानकारी का मुख्य स्रोत हम्पी से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री है। यह पुरातात्विक सामग्री एक खुदाई या खनन प्रक्रिया के बाद ही प्रयोग हो सकी है। संक्षेप में हम इस प्रक्रिया को इस तरह समझ सकते हैं।

1. खनन मानचित्र-सर्वप्रथम पूरे क्षेत्र के फोटोग्राफ लिए गए तथा मानचित्र का निर्माण किया गया। इसके पहले चरण में संपूर्ण क्षेत्र को 25 वर्गाकार भागों में बांटा गया। फिर उस प्रत्येक भाग को 25 भागों में बांटा गया। उसके बाद फिर इन टुकड़ों को अन्य छोटी इकाइयों में आगे-से-आगे विभाजित किया जाता रहा। जब तक प्रत्येक फुट का क्षेत्र मानचित्र के दायरे में नहीं आ गया।

2. खनन कार्य-पूरे क्षेत्र को इस तरह विभाजित करके खनन कार्य प्रारंभ किया गया। इसके बाद अलग-अलग क्षेत्र को अलग-अलग विशेषज्ञ की देखरेख में बांटा गया तथा फिर गहन खनन का कार्य प्रारंभ हुआ। अलग-अलग क्षेत्रों में संरचनाएँ बाहर आने लगीं, लेकिन इन्होंने आकार तब लिया जब आपस में इन टुकड़ों को जोड़ दिया गया। फिर यहाँ से देवस्थल, मंडप, विशाल गोपुरम्, शाही स्थल, धार्मिक केंद्र, सड़क, बरामदे, बाजार इत्यादि के अवशेष सामने आए। जॉन एम. फ्रिट्ज (John M. Fritz), जॉर्ज मिशेल (George Michell) तथा एम.एस. नागराज राव (M.S. Nagraja Rao) वे व्यक्ति थे जो प्रारंभ से अंत तक खुदाई के कार्य से जुड़े रहे। पुरातात्विक सामग्री से प्राप्त इस भव्य नगर के बारे में सर्वप्रथम जानकारी कॉलिन मैकेन्जी ने दी। उसे इस बारे में ज्ञान विरुपाक्ष मन्दिर के पुजारियों से हुआ था। वे पुजारी बताते थे कि इस क्षेत्र में कभी भव्य साम्राज्य था इस तरह यह सत्य है कि दो शताब्दियों के खनन ने पुजारियों द्वारा दी गई जानकारी की पुष्टि की है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 7 एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर

प्रश्न 2.
विजयनगर की जल-आवश्यकताओं को किस प्रकार पूरा किया जाता था?
उत्तर:
विजयनगर की जल-आवश्यकताओं की पूर्ति जल प्रबंधन की एक निश्चित योजना के अनुरूप थी। शासकों ने इस ओर विशेष ध्यान दिया। विजयनगर प्राकृतिक दृष्टि से पहाड़ियों के बीच था। इसके उत्तर:पूर्व में तुंगभद्रा नदी बहती थी। पहाड़ियों की जल धाराओं से यहाँ एक प्राकृतिक कुण्ड बना है। वहीं पर शासकों ने बाँधों का निर्माण किया। इन बाँधों से पानी लेकर बड़े-बड़े कुण्डों में एकत्रित किया जाता था। इन कुण्डों से कृषि में सिंचाई की जरूरत को पूरा किया जाता था। इसके साथ ही शासकों द्वारा नहर के माध्यम से इस जलाशय का पानी शहर के मुख्य हिस्से ‘राजकीय केंद्र’ तक पहुँचाया जाता था। अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि तुंगभद्रा नदी पर बाँध बनाकर कर हिरिया नहर का निर्माण करवाया गया।

प्रश्न 3.
शहर के किलेबंद क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के आपके विचार में क्या फायदे और नुकसान थे?
उत्तर:
खेतों को किलेबंदी क्षेत्र में लाने के फायदे व नुकसान देखने से पहले जरूरी है कि प्रश्न उठाया जाए कि इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? इसका जवाब ढूँढने के लिए हमें मध्यकालीन युद्ध पद्धति को समझना होगा। इस काल में युद्ध मुख्य रूप से घेरा बंदियों से जीते जाते थे। यह घेराबंदी महीनों तक चलती थी तथा शत्रु खाद्यान्न व जल का संकट पैदा किया करता था जिससे बचने के लिए शासक किलों के अंदर बड़े-बड़े अन्नागारों का निर्माण करवाया करते थे। विजयनगर व बहमनी में संघर्ष महीनों नहीं वर्षों चला करते थे। इसलिए विजयनगर के शासकों ने न केवल अन्नागारों बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र को ही किलेबंद कर दिया। यह व्यवस्था महँगी जरूर थी, लेकिन इसके परिणाम सुखद थे।

प्रश्न 4.
आपके विचार में महानवमी डिब्बा से संबद्ध अनुष्ठानों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
विजयनगर शहर में सबसे आकर्षक एवं ऊँचा स्थान ‘महानवमी डिब्बा’ था। यह 11000 वर्ग फीट वाले विशाल मंच पर 40 फीट की ऊँचाई वाला मंच था। इस विशाल मंच पर लकड़ी की संरचना बनी होने के प्रमाण मिलते हैं।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 7 Img 1
इतिहासकार व पुरातत्वविद ‘महानवमी’ का अर्थ महान ‘नौवें दिवस’ से लेते हैं। यह कब आता था, इस बारे में साक्ष्य कोई जानकारी नहीं देते। इसलिए इसे अनुमानतः दशहरा, दुर्गा पूजा तथा नवरात्रों इत्यादि त्यौहारों से जोड़ा गया है। इनके आयोजन की कोई तिथि निर्धारित नहीं की जा सकती। लेकिन इस बात का अनुमान लगाया जाता है कि शासक इस दिन को अपनी शक्ति प्रदर्शन, पहचान व संपन्नता इत्यादि के रूप में देखते थे। इस दिन विभिन्न तरह के अनुष्ठान किए जाते थे। अनुष्ठान के अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों के नायक एवं अधीनस्थ राजा विजयनगर के राय व अतिथियों को भेंट देते थे। इस माध्यम से वे अपनी स्वामीभक्ति का प्रदर्शन भी करते थे। शासक इस कार्यक्रम के अंतिम दिन शाही सेना तथा नायकों की सेना का निरीक्षण भी करता था। अतः स्पष्ट है कि महानवमी डिब्बा अनुष्ठानों का केन्द्र बिन्दु था। ये अनुष्ठान शासक की शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक होते थे।

प्रश्न 5.
दिया गया चित्र विरुपाक्ष मन्दिर के एक अन्य स्तंभ का रेखाचित्र है। क्या आप कोई पुष्प-विषयक रूपांकन देखते हैं? किन जानवरों को दिखाया गया है? आपके विचार में उन्हें क्यों चित्रित किया गया है? मानव आकृतियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दिखाया गया स्तम्भ रेखाचित्र काफी महत्त्वपूर्ण है। इस स्तंभ पर उत्कीर्ण की गई चीजें कई पक्षों को स्पष्ट करती हैं। इस स्तम्भ रेखाचित्र को कलाकारी के अनुरूप 8 भागों में बांटा जा सकता है। इसके प्रत्येक भाग में वनस्पति, मनुष्य या किसी-न-किसी जीव-जन्तु को दिखाया गया है। इसमें विभिन्न चार तरह के फूल दिखाए गए हैं। जबकि पशुओं व बड़े जंतुओं में हाथी, घोड़ा, शेर व मगरमच्छ अधिक स्पष्ट उभरकर सामने आते हैं। इन पशुओं में शेर राज्य की शक्ति का प्रतीक है जबकि हाथी व घोड़ा थल सेना में इनके महत्त्व को इंगित करता है। मगरमच्छ इनकी समुद्री सीमा के सुदृढ़ पक्ष को बताता है। चित्र में वर्णित नाचता हुआ मोर साम्राज्य की समृद्धि को अभिव्यक्त करता है।
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चित्र में दिखाई गई मानव आकृतियों में तीन किसी-न-किसी देवता को अभिव्यक्त करती हैं जबकि एक में एक व्यक्ति शिवलिंग के सम्मुख विशेष नृत्य करता हुआ दिखाया गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह स्तम्भ चित्र विजयनगर साम्राज्य की समृद्धि, सुरक्षा व सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन की सजीव प्रस्तुति है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
“शाही केंद्र” शब्द शहर के जिस भाग के लिए प्रयोग किए गए हैं, क्या वे उस भाग का सही वर्णन करते हैं।
उत्तर:
पुरातत्वविदों को विजयनगर की खुदाई के दौरान विभिन्न प्रकार के अवशेष मिले। शहर के केन्द्र में कुछ भवन बड़े भव्य तथा अन्य स्थानों की तुलना में अधिक सुरक्षात्मक ढंग से बनाए गए थे। इनकी बनावट को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी स्थल से विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन चलता था इसलिए पुरातत्वविदों ने इसे शाही या राजकीय केंद्र कहा है। इस क्षेत्र में शासक का आवास, 60 से अधिक मन्दिर तथा बड़े-बड़े सभा स्थल हैं। शहर के इसी हिस्से में ‘महानवमी डिब्बा’ जैसा भव्य चबूतरा है जहाँ शासक अपनी भव्यता, शक्ति का प्रदर्शन करते थे। हर तरह के शाही उत्सवों का आयोजन स्थल भी यही स्वीकारा जाता है। विभिन्न मंडपों के आंगन भी यहाँ हैं। शासक द्वारा सलाहकारों की सभा का आयोजन जिस कमल महल में होता है वह भी इसी क्षेत्र में है।

शाही केंद्र में हजार राम मंदिर जैसा दर्शनीय भव्य स्थल है जिसके बारे में यह कहा जाता है कि यह मंदिर केवल शाही परिवार के सदस्यों के लिए था। यह क्षेत्र राज्य के बीच में था। विजयनगर शहर सात दुर्गों की दीवारों के अन्दर था तो केवल यही क्षेत्र सातवें दुर्ग में था। इस केंद्र के बाहर राज्य की सबसे अधिक शक्तिशाली मानी जाने वाली सेना (अर्थात् हाथी सेना) का अस्तबल भी यहीं था। इस तरह के विभिन्न पक्षों को देखने के उपरांत तथा भवनों के अवशेषों के मूल्यांकन से स्पष्ट है कि यह शाही केंद्र था। इस बारे में जो वर्णन जिस तरह दिया गया है वह सही अर्थों में इसकी पुष्टि करता है।

प्रश्न 7.
कमल महल और हाथियों के अस्तबल जैसे भवनों का स्थापत्य हमें उनके बनवाने वाले शासकों के विषय में क्या बताता है?
उत्तर:
विजयनगर शहर के अवशेषों का नामकरण पुरातत्वविदों व इतिहासकारों ने उनकी बनावट, स्थिति व प्रयोग के आधार पर दिया है। विजयनगर शहर के शाही केंद्र में स्थित दो भवन अधिक चर्चा का मुद्दा है। जिनमें पहला है कमल महल तथा दूसरा है हाथियों का अस्तबल। इन दोनों भवनों का स्थापत्य अलग-अलग तरह का है। ऐसे में इनके बनाने के बारे में शासकों का दृष्टिकोण भी एक नहीं कहा जा सकता। इन दोनों को अलग-अलग करके ठीक समझा जा सकता है

(क) कमल महल-यह शाही केंद्र की सबसे सुन्दर इमारत है। किसी लिखित साक्ष्य । में इसके प्रयोग की जानकारी नहीं मिलती। यह भवन विभिन्न मंडपों के बीच बना है। इसके स्तम्भों पर चारों ओर नक्काशी की गई है। इसकी मेहराबों को चाहे किसी भी कोने से देखें तो यह कमल जैसी दिखती हैं। इसलिए अंग्रेज यात्रियों, पुरातत्वविदों ने इसे कमल (लोटस) महल का नाम दे दिया। इसकी स्थिति के विभिन्न पक्षों को देखकर पता चलता है कि शासक इसके माध्यम से अपनी समृद्धि तथा राज्य के वास्तुविदों के कौशल को दुनिया के सामने रखना चाहता थी ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शासक यहाँ अपने सलाहकारों से भेंट किया करता था। विभिन्न राजदूतों का स्वागतकक्ष भी यही था।
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(ख) हाथियों का अस्तबल हाथियों का अस्तबल भी शाही केंद्र में है तथा कमल महल के पास है। शाही केंद्र क्षेत्र में यह सबसे बड़ी इमारत है। हाथियों के अस्तबल के आकार को देखने से इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि विजयनगर के शासकों की सेना में हाथी काफी थे एवं उनका महत्त्व भी काफी अधिक था। इसके निर्माण के पीछे शासकों का उद्देश्य अपनी हाथी सेना को सुरक्षा देना था। इसके साथ इस भवन की निर्माण शैली का अन्य कोई उदाहरण नहीं मिलता। शाही निवास के अति नजदीक होने के कारण यह भी कहा जा सकता है कि शासक हाथियों की सेना से शाही महल की सुरक्षा भी करवाता था।
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सारांश में यह कहा जा सकता है कि शासकों के इसे बनवाने के उद्देश्य को लिखित साक्ष्यों के अभाव में शत-प्रतिशत नहीं बताया जा सकता। लेकिन निर्माण शैली भवनों की स्थिति के आधार पर निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 7 एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर

प्रश्न 8.
स्थापत्य की कौन-कौन सी परंपराओं ने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रेरित किया? उन्होंने इन परंपराओं में किस प्रकार बदलाव किए?
उत्तर:
विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के जिस क्षेत्र में स्थापित हुआ। वह स्थापत्य कला की दृष्टि से काफी समृद्ध था। इस क्षेत्र में पल्लव, चालुक्य, होयसल व चोलों का शासन रहा। इन सभी वंशों के शासकों ने पिछली कई शताब्दियों से विभिन्न तरह के भवनों का निर्माण करवाया। इन भवनों में सबसे अधिक मात्रा में मन्दिर थे। विजयनगर के वास्तुविदों को इन्हीं भवनों विशेषकर मन्दिरों को देखकर भवन बनाने की प्रेरणा मिली। इसके अतिरिक्त विजयनगर के शासकों के अरब क्षेत्र के साथ लगातार संबंध रहे। वहाँ से वस्तुओं का आदान-प्रदान निरंतर होता रहा। विजयनगर के वास्तुविदों को अरब क्षेत्र विशेषकर ईरान के भवन देखने का मौका मिला। उत्तर भारत के भवनों तथा उड़ीसा के गजपति शासकों के भवनों ने भी उन्हें मार्गदर्शन दिया।

विजयनगर के वास्तुविदों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत से सीख लेकर भारत के अन्य स्थानों के भवनों जैसे भवन बनाने प्रारंभ किए। उन्होंने अरब क्षेत्र की भवन निर्माण शैली का भी प्रचूर भाषा में प्रयोग किया। उनका यह प्रयोग शाही भवनों, महलों, शहरी क्षेत्र की इमारतों के साथ-साथ बाजारों इत्यादि में भी दिखाई देता है। विजयनगर में वास्तुविदों ने इस मिश्रित वास्तुकला का प्रयोग जल प्रबंधन में किया। इसमें मैदानी व पर्वतीय दोनों शैलियाँ प्रयोग की। राज्य को सुरक्षा देने की सोचते हुए इन्होंने दुर्गों की सात पंक्तियाँ बनाईं। दुर्गों की दीवारें, दरवाज़े व गुंबद तुर्की प्रभाव

आनुष्ठानिक दृष्टि से इस काल के दो भवन महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। पहला है निजामुद्दीन औलिया की खानकाह जो बाद में दरगाह बनी और दूसरी है दिल्ली की जामा मस्ज़िद जो मक्का के बाद इस्लाम जगत की सबसे बड़ी मस्ज़िद है। ये सभी भवन सामान्य आवास व्यवस्था से दूर तथा सुरक्षा की दृष्टि से विशेष चारदीवारी से घिरे थे।

संकेत 2-इन भवनों के स्थापत्य के लिए प्राध्यापक के निर्देशन में भ्रमण करें। साथ में ‘इंटरनेट’ पर उपलब्ध जानकारी का लाभ उठाएँ।

प्रश्न 11.
अपने आस-पास के किसी धार्मिक भवन को देखिए। रेखाचित्र के माध्यम से छत, स्तंभों, मेहराबों, यदि हों तो, गलियारों, रास्तों, सभागारों, प्रवेशद्वारों, जलआपूर्ति आदि का वर्णन कीजिए। इन सभी की तुलना विरुपाक्ष मन्दिर के अभिलक्षणों से कीजिए। वर्णन कीजिए कि भवन का हर भाग किस प्रयोग में लाया जाता था। इसके इतिहास के विषय में पता कीजिए।
उत्तर:
संकेत 1-हरियाणा के क्षेत्र में हम कई महत्त्वपूर्ण धार्मिक भवनों को देखते हैं, जिनमें ऐतिहासिक दृष्टि से कुरुक्षेत्र में छटी पातशाही का गुरुद्वारा, पानीपत में बू अली कलंदर की दरगाह, नारनौल में इब्राहिम सूर द्वारा बनाई गई मस्ज़िद तथा हिसार की लाट की मस्ज़िद प्रमुख हैं। कलायत के दो प्राचीन मंदिर भी उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आधुनिक काल में बनी बहुत-सी इमारतें हर शहर में देखी जा सकती हैं।
यह सभी भवन स्थापत्य की दृष्टि से जहाँ महत्त्वपूर्ण हैं, अपने युग की जीवन-शैली को भी कुछ हद तक स्पष्ट करते हैं। जैसे कि हम विरुपाक्ष के मंदिर में पाते हैं। इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं

  • इसमें दो प्रवेश द्वार हैं। पूर्वी द्वार विशाल गोपुरम् है।
  • गोपुरम् से तीन प्रवेश द्वारों से गुजरकर हम बरामदे से होकर देवालय तक पहुँचते हैं जहाँ विरुपाक्ष की मूर्ति स्थापित है।
  • गोपुरम् से देवालय तक चार मंडप बने हैं।
  • मंदिर के उत्तर में कमलपुरम् जलाशय है।

संकेत 2-इस मंदिर की विशेषताओं तथा ऊपर बताई गई हरियाणा की इमारतों की विशेषताओं की तुलना करें। कुछ स्थानों का स्वयं भ्रमण करें। स्थापत्य की विशेषताओं को नोट करें। उसके ऐतिहासिक पक्ष की जानकारी लें।

एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर HBSE 12th Class History Notes

→ शास्त्ररूढ़ शास्त्रों से संबंधित

→ विजयनगर-विजय का शहर

→ राय-विजयनगर के शासकों की उपाधि

→ तेलुगु-आन्ध्र प्रदेश क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा

→ कुदिरई चेट्टी-घोड़ों के व्यापारी

→ संगम वंश-विजयनगर का पहला राजवंश

→ सर्वेयर-सर्वेक्षण करने वाला

→ कन्नड़ कर्नाटक क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा

→ गजपति-उड़ीसा के शासकों की उपाधि

→ रायचूर दोआब-तुंगभद्रा व कृष्णा नदियों के बीच का क्षेत्र

→ गोपुरम्-मन्दिर का प्रवेश द्वार

→ नायक-सैनिक टुकड़ी के प्रमुख (क्षेत्र-विशेष में)

→ अमर-नायक-प्रशासन तथा सैनिक प्रमुख

→ इंडो-इस्लामिक-हिंद-इस्लामी

→ महानवमी-महान् नौवां दिन

→ पम्पादेवी-कर्नाटक क्षेत्र में स्थानीय देवी

→ देवस्थल-मन्दिर में देवता की मूर्ति स्थापित करने वाला स्थान

→ हिन्दू सूरतराणा-हिन्दू सुलतान

→ विरुपाक्ष-विजयनगर क्षेत्र का सबसे प्रमुख देवता

→ बिसनगर-विजयनगर के लिए डोमिंगो पेस द्वारा प्रयुक्त शब्द

→ हम्पी-विजयनगर का वर्तमान नाम

→ महानवमी डिब्बा-विजयनगर शहर में मंच पर बनाया गया एक भवन

→ विट्ठल महाराष्ट्र क्षेत्र में विष्णु के रूप में पूजा जाने वाला देवता

दक्षिण क्षेत्र में चोल व चालुक्यों के पतन के बाद देवगिरी, वारंगल द्वारसमुद्र तथा मदुरई जैसे राज्यों का उत्थान हुआ। इन राज्यों पर दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों (विशेषकर अलाऊद्दीन खलजी) द्वारा अधिकार कर लिया गया। दिल्ली से दूर होने के कारण दिल्ली के सुल्तान इस क्षेत्र को सुगमता से नियंत्रित नहीं कर पाए। मुहम्मद तुगलक ने दूरी की बाधा को पार करते हुए वर्तमान महाराष्ट्र के देवगिरी नामक स्थान का नाम दौलताबाद बदलकर इसे अपनी राजधानी बनाया। परन्तु उसे वापिस दिल्ली पर ही केंद्रित करना पड़ा तथा दक्षिण अव्यवस्था के दौर में उलझ गया। यहाँ दो राज्यों का उत्थान हुआ, जिन्हें विजयनगर व बहमनी के नाम से जाना जाता है।

→ 1336 ई० में हरिहर व बुक्का राय दो भाइयों ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य का प्रथम शासक हरिहर (1336-56) बना तथा उसने राज्य के लिए नियम कानून बनाए। उसकी मृत्यु के पश्चात् बुक्का (1356-1377) शासक बना। उसने प्रशासन व राज्य की समृद्धि की ओर ध्यान दिया। उसके समय में ही पड़ोसी राज्य बहमनी के साथ संघर्ष की शुरुआत हुई वह साम्राज्य को सही दिशा दे पाया। उसके पश्चात् हरिहर द्वितीय (1377-1405) तथा देवराय प्रथम (1406-22) शासक बने। इन्होंने बहमनी से संघर्ष जारी रखा। साथ ही आर्थिक विकास, कृषि व व्यापार को भी प्रोत्साहन दिया। उनके बाद देवराय द्वितीय (1422-46) शासक बना। उसने इस साम्राज्य की सीमा का खूब विस्तार किया। फारसी यात्री अब्दुर रज्जाक ने उसकी खुले मन से प्रशंसा की है। इसके बाद इस साम्राज्य में कई कमजोर शासक आए जिनको बहमनी के शासकों ने पराजित कर इनकी सीमा को छोटा कर दिया। विजयनगर अपने चरमोत्कर्ष पर कृष्णदेव राय (1509-29) के शासन काल में पहुँचा।

→ बहमनी साम्राज्य के तीन राज्यों-बीजापुर, अहमदनगर व गोलकुण्डा की संयुक्त सेना ने 1565 ई० में विजयनगर पर आक्रमण किया। विजयनगर का नेतृत्व रामराय ने किया। यह युद्ध तालीकोटा (वास्तव में राक्षसी-तांगड़ी क्षेत्र) में हुआ। इस युद्ध में विजयनगर की हार हुई तथा विजयी सेना ने विजयनगर शहर में भारी लूटमार की। जिससे यह क्षेत्र पूरी तरह उजड़ गया। विजयनगर शहर ही साम्राज्य की राजधानी था। इसकी संरचना व स्थापत्य कला को देखने से यह ज्ञात होता है कि यह महत्त्वपूर्ण शहर था। यह शहर वे सारी विशेषताएँ रखता था जो किसी भी शक्तिशाली राज्य की राजधानी की जरूरत होती थी।

→  इस शहर के मन्दिर, भवन तथा अन्य अवशेष व्यापक रूप में मिलते हैं। नायक व अमर-नायकों के अभिलेख तथा यात्रियों का वृत्तांत शहर के बारे में विस्तृत प्रकाश डालता है। 15वीं शताब्दी के यात्रियों में इटली के निकोलो दे कॉन्ती (Nicolo-De-Konti), फारस के अब्दुर रज्जाक (Abdur Razak) तथा रूस के अफानासी निकितिन (Afanaci Niktian) मुख्य हैं। 16वीं शताब्दी के यात्रियों में दुआर्ते बरबोसा (Duarate Barbosa), डोमिंगो पेस (Domingo Pesh) तथा पुर्तगाल के फर्नावो नूनिज़ (Fernao Nuniz) के नाम आते हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 7 एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर

→ विजयनगर साम्राज्य के रायों ने जहाँ जल प्रबंधन उच्चकोटि का किया, वहीं सुरक्षा व्यवस्था तथा सड़कों के निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया। नगर की किलेबंदी बेजोड़ थी। जिसके बारे में हमें जानकारी फारस के दूत तथा यात्री अब्दुर रज्जाक से मिलती है। वह सुरक्षा व्यवस्था से प्रभावित होकर लिखता है कि यहाँ दुर्गों की सात पंक्तियाँ हैं। इन दुर्गों की पंक्तियों में केवल शहर का आवासी क्षेत्र नहीं है, बल्कि कृषि क्षेत्र, जंगलों व जलाशयों के क्षेत्र को चारदीवारी के अंदर लिया गया है।

→ विजयनगर साम्राज्य की सारी प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन जिस स्थल से होता था उसे शाही स्थल कहा गया है। पुरातत्वविदों ने इसे शाही केंद्र तथा राजकीय केंद्र इत्यादि नाम भी दिए हैं। शाही निवास, दरबार के अति महत्त्वपूर्ण भवनों के अतिरिक्त यहाँ 60 से अधिक मंदिर थे। यह इस बात का प्रमाण है कि शासक इन मन्दिरों व उपासना स्थलों को बनाकर जनता में यह संदेश देना चाहता था कि वह सबका शासक है इसलिए सभी उसे स्वीकार करें। इस तरह शाही स्थल पर मंदिरों का होना शासक द्वारा वैधता को प्राप्त करने का एक तरीका कहा जा सकता है।

→ विजयनगर की जानकारी के स्रोत हमें विभिन्न रूपों में मिलते हैं। इनमें पुरातात्विक सामग्री, साहित्यिक स्रोत तथा विदेशी यात्रियों के वृत्तांत शामिल हैं। इनमें से अध्ययनकर्ताओं ने फोटोग्राफ, मानचित्र, उपलब्ध भवनों की खड़ी संरचनाएँ व मूर्तियों की ओर विशेष ध्यान दिया है। मैकेन्जी द्वारा प्रारंभ के सर्वेक्षण के पश्चात् जो रिपोर्ट दी गई, उसको अभिलेखों के वर्णन तथा यात्रियों के वृत्तांत के साथ जोड़ा गया। इस क्षेत्र के अध्ययन का कार्य भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण तथा कर्नाटक पुरातात्विक एवं संग्रहालय विभाग द्वारा बड़े स्तर पर निरंतर ही किया गया। इस कड़ी में मिली सफलता ने सन् 1976 में हम्पी को राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित करवा दिया। 1980 के दशक में खनन कार्य और अधिक गहन, व्यापक, योजनाबद्ध किया गया। इसके परिणामस्वरूप विजयनगर के अवशेष सामने आए।

समय रेखा
क्रम संख्याकालघटना का विवरण
1.1206 ई०दिल्ली सल्तनत की स्थापना
2.1290 ई०खलजी वंश की स्थापना
3.1320 ईoतुगलक वंश की स्थापना
4.1325 ईoमुहम्मद तुगलक का सत्ता पर आना
5.1336 ई०विजयनगर साम्राज्य की स्थापना
6.1347 ई०बहमनी साम्राज्य की स्थापना
7.1435 ई०उड़ीसा के गजपति राज्य की स्थापना
8.1486 ई०विजयनगर में सुलुव वंश की सत्ता
9.1490 ईoगुजरात, बीजापुर व बरार में स्वतंत्र राज्यों का उदय
10.1509-29 ई०विजयनगर में कृष्णदेव राय का शासन
11.1518 ई०बहमनी राज्य का अन्त, गोलकुण्डा का उत्थान
12.1526 ईभारत में मुगल वंश की स्थापना
13.1565 ई०तालीकोटा के युद्ध में विजयनगर की हार व पतन का प्रांरभ
14.1707 ई०औरंगजेब की मृत्यु व मुगलों का पतन
15.1800 ई०कॉलिन मैकेन्जी की विजयनगर यात्रा
16.1815 ई०कॉलिन मैकेन्जी भारत में प्रथम सर्वेयर बना
17.1821 ई०कॉलिन मैकेन्जी की मृत्यु
18.1836 ई०पुरातत्वविदों द्वारा हम्पी के अभिलेखों का संकलन प्रारंभ
19.1856 ईअलेक्जैंडर ग्रनिलो द्वारा हम्पी के चित्र लेना
20.1876 ई०जे०एफ० फ्लीट द्वारा अभिलेखों का प्रलेखन प्रारंभ
21.1902 ईसर जॉन मार्शल द्वारा संरक्षण कार्य की शुरुआत
22.1986 ई०यूनेस्को द्वारा हम्पी को विश्व विरासत में शामिल करते हुए पुरातत्व स्थल घोषित

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

HBSE 12th Class History भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों की दृष्टि में भारत के विभिन्न समुदायों में विचारों व विश्वासों का आदान-प्रदान होता था। धार्मिक विश्वासों के बारे में वे मानते हैं कि कम-से-कम दो प्रक्रियाएँ चल रही थीं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार की थी। यह परंपरा मूल रूप से उच्च वर्गीय परंपरा थी जो वैदिक ग्रंथों में फली-फूली। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में भी रचे गए। वैदिक परंपरा का यह सरल साहित्य सामान्य लोगों के लिए था। दूसरी परंपरा शूद्र, स्त्रियों व अन्य सामाजिक वर्गों के बीच स्थानीय स्तर पर विकसित हुई विश्वास प्रणालियों पर आधारित थी। अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ऐसी प्रणालियाँ काफी लंबे समय में विकसित हुईं। इन दोनों अर्थात् ब्राह्मणीय व स्थानीय परंपराओं के संपर्क में आने से एक-दूसरे में मेल-मिलाप हुआ। इसी मेल-मिलाप को (ख) इतिहासकार समाज की गंगा-जमुनी संस्कृति या संप्रदायों के समन्वय के रूप में देखते हैं। इसमें ब्राह्मणीय ग्रंथों में
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शूद्र व अन्य सामाजिक वर्गों के आचरणों व आस्थाओं को स्वीकृति मिली। दूसरी ओर सामान्य लोगों ने कुछ सीमा तक ब्राह्मणीय परंपरा को स्थानीय विश्वास परंपरा में शामिल कर लिया। इसका एक बेहतरीन उदाहरण उड़ीसा में पुरी में देखने को मिलता है। यहाँ स्थानीय देवता जगन्नाथ अर्थात् संपूर्ण विश्व का स्वामी था। बारहवीं सदी तक आते-आते उन्होंने अपने इस देवता को विष्णु के रूप में स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 2.
किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है?
उत्तर:
इस्लाम का लोक प्रचलन जहाँ भाषा व साहित्य में देखने को मिलता है, वहीं स्थापत्य कला (विशेषकर मस्जिद) के निर्माण में भी स्पष्ट दिखाई देता है। मस्जिद के लिए अनिवार्य है कि उसका प्रार्थना स्थल का दरवाजा मक्का की ओर खुले तथा मस्जिद में मेहराब तथा मिनबार (व्यासपीठ) हो। इन समानताओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ मस्जिदें बनीं जिनमें मौलिकताएँ तो वही हैं लेकिन छत की स्थिति, निर्माण का सामान, सज्जा के तरीके व स्तंभों के बनाने की विधि अलग थी। इनको जन-सामान्य ने अपनी भौगोलिक व परंपरा के अनुरूप बनाया। कश्मीर में श्रीनगर स्थित झेलम नदी के किनारे बनी चरार-ए-शरीफ को देखिए जो पहाड़ी क्षेत्र की भवन निर्माण परंपराओं को प्रदर्शित करती है। इससे स्पष्ट होता है कि इस्लामिक स्थापत्य स्थानीय लोक प्रचलन का एक हिस्सा बन गया, अर्थात् इनमें मस्जिद के सार्वभौमिक गुण भी थे तथा स्थानीय परिपाटी को भी अपनाया गया था।
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प्रश्न 3.
बे शरिया और बा शरिया सूफी परंपरा के बीच एकरूपता और अंतर, दोनों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूफी फकीरों ने सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या कर नवीन मतों की नींव रखी। जैसे उन्होंने खानकाह का जीवन त्यागकर रहस्यवादी, फकीर की जिंदगी को निर्धनता व ब्रह्मचर्य के साथ जिया। इन्हें कलंदर, मदारी, मलंग व हैदरी इत्यादि नामों से जाना गया। इन सूफी मतों में जो शरिया में विश्वास करते थे उन्हें बा-शरिया कहते थे तथा जो शरिया की अवहेलना करते थे उन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इनमें एकरूपता इस बात की थी कि ये दोनों सूफी आंदोलन से थे। इनकी जीवन-शैली सरल थी। ये इस्लामिक परंपराओं की व्याख्या सरल ढंग से करते थे। इनमें अंतर इनके विश्वास को लेकर था। बा-शरिया के फकीर धर्म को राजनीति से जुड़ा मानते थे तथा वे शासन को शरियत के अनुसार चलाने के पक्षधर थे, जबकि बे-शरिया धर्म की व्याख्या देश, काल, परिस्थिति के अनुसार करने में विश्वास करते थे।

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प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार व वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
अलवार, नयनार व वीरशैव दक्षिण भारत में उत्पन्न विचारधाराएँ थीं। इनमें अलवार व नयनार तमिलनाडु में तथा वीरशैव कर्नाटक में थे। इन्होंने जाति प्रथा के बंधनों को अपने ढंग से नकारा। अलवार व नयनार संतों ने जाति प्रथा का खंडन किया। उन्होंने सभी मनुष्यों को एक ईश्वर की संतान घोषित किया। इनके साहित्य में वैदिक ब्राह्मणों की तुलना में विष्णु भक्तों को प्राथमिकता दी गई है। ये भक्त चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण से थे। अलवार व नयनार संत ब्राह्मण समाज, शिल्पकार और किसान समुदाय से थे। इनमें से कुछ तो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों में से भी थे। अलवार समाज ने इन संतों व उनकी रचनाओं को पूरा सम्मान दिया तथा उन्हें वेदों जितना प्रतिष्ठित बताया।

अलवार संतों का एक मुख्य काव्य ‘नलयिरादिव्यप्रबंधम्’ को तमिल वेद के रूप में मान्यता दी गई। लिंगायत समुदाय के लोगों ने भी जाति व्यवस्था का विरोध किया। इन्होंने ब्राह्मणीय धर्मशास्त्रों की मान्यताओं को नहीं स्वीकारा। उन्होंने वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान की। इस समुदाय में अधिकतर वे लोग शामिल हुए जिनको ब्राह्मणवादी व्यवस्था में विशेष महत्त्व नहीं मिला। इनका विश्वास था कि जाति व्यवस्था वर्ग विशेष के हितों की पूर्ति करती है।

प्रश्न 5.
कबीर तथा बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस तरह संप्रेषण हुआ ?
उत्तर:
कबीर तथा गुरु नानक मध्यकालीन संत परंपरा में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके उपदेशों ने समाज को नई दिशा दी। कबीर-कबीर के जन्म, प्रारंभिक जीवन और वंश आदि के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार उनका जन्म बनारस में हिन्दू परिवार में हुआ, परन्तु उनका पालन-पोषण नीरू नामक जुलाहे के घर में हुआ। वे ईश्वर की एकता, समानता में विश्वास रखते थे। उन्होंने अच्छे कर्मों, चरित्र की उच्चता व मन की पवित्रता पर बल दिया। जाति-पांति व वर्ग में वे विश्वास नहीं करते थे। उन्हें हिन्दू-मुसलमान एकता में दृढ़ विश्वास था। हजारों हिन्दू, मुस्लिम उनके शिष्य थे। वे मूर्ति-पूजा, व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों व आडंबरों के घोर विरोधी थे। मूर्ति-पूजा का खंडन करते हुए
उन्होंने बहुत सुंदर दोहा लिखा

“जे पाहन पूजै हरि मिलें, तो मैं पूनँ पहार।
वा ते यह चाकी भली, पीस खाए संसार।”

कबीर को रामानन्द का शिष्य माना जाता है। भक्ति आंदोलन के सुधारकों में कबीर को बड़ा ऊँचा और महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किए। उन्होंने जात-पात, छुआछूत, व्यर्थ के रीति-रिवाज़, मूर्ति पूजा, धार्मिक यात्राओं, अंधविश्वासों और बाह्य आडम्बरों का खंडन किया। उन्होंने मन की शुद्धता और अच्छे कर्म करने पर अधिक बल दिया।

श्री गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी सिख धर्म के प्रणेता थे। उनका जन्म 1469 ई० में रावी नदी के तट पर स्थित तलवंडी (वर्तमान ननकाना साहिब) नामक गाँव में हुआ था। उनका झुकाव शुरू से ही अध्यात्मवाद की ओर था। उन्होंने सारे भारत में, दक्षिण में श्रीलंका से पश्चिम में मक्का और मदीना तक का भ्रमण किया था।

उनकी प्रमुख शिक्षा थी कि ईश्वर एक है। वह सर्वशक्तिमान है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने निष्काम भक्ति, शुभ कर्म, शुभ जीवन, नाम के स्मरण और आत्मसमर्पण पर अधिक बल दिया। मार्गदर्शन के लिए उन्होंने गुरु की अनिवार्यता को स्वीकार किया है। वे जाति-पाति, ऊँच-नीच, धर्म व वर्ग के भेदभाव के विरुद्ध थे। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। वे गृहस्थ जीवन को सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उसके त्याग के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने गृहस्थ जीवन में ही ईश्वर की प्राप्ति को संभव बताया। धर्मनिरपेक्षता के प्रचार के लिए उन्होंने लंगर की प्रथा प्रारंभ की, उन्हें गरीबों से अत्यधिक सहानुभूति थी, धर्म के नाम पर आपसी संघर्ष व्यर्थ है। इन्होंने एक साधारण व्यक्ति का जीवन जीते हुए लोक भाषा में अपनी बात कही। इनके तर्क करने का ढंग तथा उपदेश जनता में लोकप्रिय हुए जिस कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग इनका अनुसरण करने लगे।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सूफी मत के धार्मिक विश्वास सरल थे। ये सरल आदर्श ही इनके आचरण का आधार बने। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है नौवीं सदी में जब सूफी मत का आंदोलन के रूप में आविर्भाव हुआ, तो इसके लिए कुछ नियमों तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। सूफी साधकों ने परमात्मा, आत्मा तथा सृष्टि आदि की विवेचना की। संक्षेप में, सूफी मत के सिद्धान्तों को निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जा सकता है

(1) परमात्मा के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि परमात्मा एक है। उनका मानना था कि वह अद्वितीय पदार्थ जो

(2) आत्मा को सूफी साधक ईश्वर का अंग मानते हैं। यह सत्य प्रकाश का अभिन्न अंग है, परन्तु मनुष्य के शरीर से उसका अस्तित्व खो जाता है।

(3) जगत के संबंध में सूफी साधकों का विचार है कि परमात्मा से सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, नक्षत्रगण आदि उत्पन्न हुए। परमात्मा की कृपा से ही अग्नि, हवा, जल, पृथ्वी का निर्माण हुआ। सूफी साधक जगत को माया से पूर्ण नहीं देखते थे।

(4) मनुष्य के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि मनुष्य परमात्मा के सभी गुणों को अभिव्यक्त करता है।

(5) सूफी साधकों ने पूर्ण मानव को अपना गुरु (मुर्शीद) माना। बिना आध्यात्मिक गुरु के वह कभी, कुछ नहीं प्राप्त कर सकता है।

(6) प्रेम को प्रायः सभी धर्मों में परमात्मा को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधक माना है। सूफियों ने भी इसी प्रेम के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने की आशा की।

(7) परमात्मा के साक्षात्कार के लिए, मिलन या एकाकार होने के लिए अपनी यात्रा में सूफियों को दस अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। सूफी मत के अनुसार ये दस अवस्थाएँ इस प्रकार थीं

  • तैबा (प्रायश्चित)
  • बरा (संयम)
  • जुहद (धर्मपरायणता)
  • फगर (निर्धनता)
  • सब्र (धैर्य)
  • शुक्र (कृतज्ञता)
  • खौफ (भय)
  • रज़ा (आशा)
  • तवक्कुल (संतुष्टि)
  • रिजा (देवी इच्छा के समक्ष आत्म-समर्पण)

इन सिद्धान्तों पर चलते हुए सूफी संत व उनके अनुयायी कष्टमय जीवन जीना पसन्द करते थे। उनके लिए सुख, साधन इतना अर्थ नहीं रखते थे जितना कि जिंदगी के सरलतम व ऊँचे आदर्शों के अनुरूप जीना। ये प्रायः समझौतावादी चिंतन नहीं अपनाते थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 7.
क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तर:
अलवार, नयनार व सूफी संत जन-साधारण के बीच काफी लोकप्रिय होते थे। शासक की तुलना में समाज पर उनकी पकड़ काफी अच्छी होती थी। शासकों की हमेशा यह इच्छा रहती थी कि वे इन संत-फकीरों का विश्वास जीत लें। इससे जनता के साथ जुड़ने में आसानी रहेगी तथा उन्हें जन समर्थन मिलने की उम्मीद रहेगी। तमिलनाडु क्षेत्र में शासकों ने अलवार-नयनार संतों को हर प्रकार का सहयोग दिया। इन शासकों ने उन्हें अनुदान दिए तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया।

चोल शासकों ने चिदम्बरम, तंजावुर तथा गंगैकोंडचोलपुरम में विशाल शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया। इन मन्दिरों में शिव की कांस्य प्रतिमाओं को बड़े स्तर पर स्थापित किया। अलवार व नयनार संत वेल्लाल कृषकों व सामान्य जनता में ही सम्मानित नहीं थे, बल्कि शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। सुन्दर मन्दिरों का निर्माण व उनमें मूर्तियों (कांस्य, लकड़ी, पत्थर व अन्य धातुओं) की स्थापना के अतिरिक्त शासक वर्ग ने संत कवियों के गीतों व विचारों को भी महत्त्व दिया। उन्होंने इन संत-कवियों की प्रतिमाएँ भी देवताओं के साथ लगवाईं। इन संतों के उपदेशों व भजनों का संग्रह करवाकर शासकों ने एक तमिल ग्रन्थ ‘तवरम’ का संकलन भी किया।

इसी तरह से सूफी संतों को भी शासकों ने विभिन्न तरह के अनुदान दिए। अजमेर में मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह तो शासक व शाही परिवार के सदस्यों की पहली पसन्द बन गई थी। मुहम्मद तुगलक सल्तनत काल का पहला सुल्तान था जिसने इस दरगाह की यात्रा की। मुहम्मद तुगलक स्वयं निजामुद्दीन औलिया की खानकाह पर भी निरन्तर जाया करता था। मुगल काल में अकबर ने अपने जीवन में अजमेर की 14 बार यात्रा की। उसने इस दरगाह को विभिन्न चीजें दीं। इसके बाद जहाँगीर, शाहजहाँ व शाहजहाँ की
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पुत्री जहाँआरा द्वारा भी इस स्थान पर जाने के प्रमाण मिलते हैं। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में सलीम चिश्ती से न केवल भेंट की, बल्कि उससे प्रभावित होकर अपनी राजधानी भी आगरा से बदलकर फतेहपुर सीकरी कर दी। बाद में उसने सलीम चिश्ती की दरगाह का निर्माण भी फतेहपुर सीकरी के अन्य भवनों के बीच करवाया।
अतः स्पष्ट है कि शासक इन संत फकीरों के माध्यम से समाज से जुड़ना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे संतों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते थे और समाज पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता था।

प्रश्न 8.
उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर:
सूफी फकीरों व भक्ति संतों की लोकप्रियता का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने स्थानीय भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी। चिश्ती सिलसिले के शेख व अनुयायी तो मुख्य रूप से हिंदवी में बात करते थे। बाबा फरीद, कबीर व श्री गुरु नानक की काव्य रचनाएँ स्थानीय भाषा में थीं। इनमें से अधिकतर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। कुछ और सूफियों ने ईश्वर के प्रति आस्था व मानवीय प्रेम को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया। इनकी भाषा भी सामान्य व्यक्ति की थी। मलिक मोहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ चित्तौड़ के राजा रतनसेन व पद्मिनी के बीच प्रेम-प्रसंग पर आधारित है। इसने समाज को सूफी विचारधारा से जोड़ने में मदद की। जायसी के अनुसार, प्रेम आत्मा का परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग है। चिश्तियों की तरह अन्य सूफियों ने भी विभिन्न तरह का काव्य वाचन किया। इस काव्य को खानकाहों व दरगाहों पर विभिन्न अवसरों पर गाया जाता था।

सूफी कविता की एक विधा 17वीं व 18वीं शताब्दी में कर्नाटक में बीजापुर क्षेत्र में विकसित हुई। इसे दक्खनी (उर्दू का एक रूप) कहा गया। इसमें महिलाओं के दैनिक जीवन व कार्य प्रणाली की छोटी-छोटी कविताएँ चिश्ती संतों द्वारा रची गईं। इनमें विभिन्न पारिवारिक परंपराओं पर कविताएँ लोरीनामा, शादीनामा तथा चरखानामा इत्यादि थीं। ये कविताएँ कार्य करते समय महिलाएँ गाया करती थीं। भक्ति सन्तों के उपदेश आज भी गीतों इत्यादि में इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वे सामान्य व्यक्ति की भाषा में थे। इसी सरल भाषा के माध्यम से आम व्यक्ति धर्म व अध्यात्म जैसी जटिल बातों को समझ पाते थे। इसी तरह सामाजिक रूढ़ियों व अन्ध-विश्वासों को कमजोर करने में सफलता तभी मिल सकती थी जब भाषा को समझा जा सके। इस तरह सूफी फकीरों व भक्ति संतों ने अपने विचार सामान्य व्यक्ति की भाषा में अभिव्यक्त किए।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
यह भक्ति व सूफी परंपराओं से संबंधित है। ये परंपराएँ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ी हुई नहीं हैं। मुख्यतयाः इनका आकार सामाजिक व धार्मिक है। विषय की प्रकृति में भिन्नता के कारण इनके स्रोतों में भी अंतर है। इस अध्याय में प्रयुक्त मुख्य पाँच स्रोतों व उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचार इस प्रकार हैं

1. लोकधारा-भक्ति व सूफी संतों की जानकारी के लिए अध्याय में मूर्ति कला, स्थापत्य कला एवं धर्म गुरुओं के संदेशों का प्रयोग किया गया है। इसी तरह उनके अनुयायियों द्वारा रचित गीत, काव्य रचनाएं, जीवनी इत्यादि भी प्रयोग में लाई गई हैं। सामाजिक-धार्मिक दृष्टि से इन्हें इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि जन-मानस उनमें विश्वास कर सके तथा जीवन के आदर्शों की प्रेरणा ले सके।

2. ‘कश्फ-उल-महजुब’-यह अली बिन उस्मान हुजविरी (मृत्यु 1071) द्वारा सूफी विचार व आचरण पर लिखित प्रारंभिक मुख्य पुस्तक है। इस पुस्तक में यह ज्ञान मिलता है कि बाह्य परंपराओं ने भारत के सूफी चिन्तन को कैसे प्रभावित किया या इससे स्थानीय समाज व धर्म कैसे प्रभावित हुआ।

3. मुलफुज़ात (सूफी संतों की बातचीत)-यह फारसी के कवि अमीर हसन सिजज़ी देहलवी द्वारा संकलित है। इस कवि द्वारा शेख निजामुद्दीन औलिया की बातचीत को आधार बनाकर ‘फवाइद-अल-फुआद’ ग्रन्थ लिखा गया। इनका उद्देश्य शेखों के उपदेशों एवं कथनों को संकलित करना होता था ताकि नई पीढ़ी उनका अनुकरण कर सके।

4. मक्तुबात-यह लिखे हुए पत्रों का संकलन होता है जिन्हें या तो स्वयं शेख ने लिखा था या उसके किसी करीबी अनुयायी ने। इन पत्रों में धार्मिक सत्य, अनुभव, अनुयायियों के लिए आदर्श जीवन-शैली व शेख की आकांक्षाओं का पता चलता है। शेख अहमद सरहिंदी (मृत्यु 1624) के लिखे पत्र ‘मक्तुबात-ए-इमाम रब्बानी’ में संकलित हैं जिसमें अकबर की उदारवादी तथा असांप्रदायिक विचारधारा का ज्ञान मिलता है।

5. ‘तज़किरा’-इसमें सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण होता है। भारत में पहला सूफी तज़किरा मीर खुर्द किरमानी का सियार-उल-औलिया है जो चिश्ती संतों के बारे में है। भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण तज़किरा ‘अख्यार-उल-अखयार’ है। तज़किरा में सिलसिले की प्रमुखता स्थापित करने का प्रयास किया जाता था। इसके साथ ही आध्यात्मिक वंशावली की महिमा को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा जाता था। इस तरह तज़किरा में कल्पनीय, अद्भुत व अविश्वसनीय बातें भी होती हैं। परंतु इतिहासकार का दायित्व है कि वह इन पक्षों के होते हुए भी इसमें से जानकारी ग्रहण करें। प्रस्तुत अध्याय में धार्मिक परंपरा के इतिहास लेखन के बारे में मौखिक व लिखित दोनों तरह की परंपराओं को समझने का प्रयास किया गया है। इनमें अभी कुछ ही साक्ष्य सुरक्षित हो पाए हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
भारत के एक मानचित्र पर, 3 सूफी स्थल और 3 वे स्थल जो मंदिरों (विष्णु, शिव तथा देवी से जुड़ा एक मंदिर) से संबद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।
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परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
इस अध्याय में वर्णित 3 धार्मिक उपदेशकों/चिंतकों/संतों का चयन कीजिए और उनके जीवन व उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और हमें क्यों लगता है कि वे महत्त्वपूर्ण हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें। इसके लिए दीर्घउत्तरीय प्रश्न 7 एवं 8 में संत कबीर एवं गुरु नानक देव जी का अध्ययन करें।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित सूफी व देव स्थलों से संबद्ध तीर्थयात्रा के आचारों के बारे में अधिक जानकारी हासिल कीजिए। क्या ये यात्राएँ अभी भी की जाती हैं? इन स्थानों पर कौन लोग और कब-कब जाते हैं? वे यहाँ क्यों जाते हैं? इन तीर्थयात्राओं से जुड़ी गतिविधियाँ कौन सी हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ HBSE 12th Class History Notes

→ शास्त्ररूढ़ शास्त्रों से संबंधित

→ जगन्नाथ-संपूर्ण विश्व का स्वामी

→ अलवार-तमिलनाडु में विष्णु के भक्त

→ अंडाल-तमिलनाडु की एक अलवार स्त्री भक्त

→ वीरशैव-शिव के वीर

→ आनुष्ठानिक-धार्मिक अनुष्ठान संबंधी

→ पतंजलि की कृति-पतंजलि की रचना

→ वैष्णव-विष्णु को इष्टदेव मानने वाले

→ नयनार-तमिलनाडु में शिव के भक्त

→ तवरम-तमिल भाषा में नयनारों के भजनों का एक ग्रन्थ

→ लिंगायत-लिंग धारण करने वाले शिव भक्त

→ जिम्मी-इस्लामिक राज्य में (गैर इस्लामी) संरक्षित श्रेणी के लोग

→ मुकद्दस-पवित्र

→ तामीर-निर्माण

→ मातृकुलीयता-माता के कुल से अपना संबंध जोड़ना

→ मिनबार-व्यासपीठ

→ जजिया-इस्लामिक राज्य में जिम्मियों से लिया जाने वाला कर

→ तामील-आज्ञा का पालन

→ मातृ-गृहता-माता का अपनी संतान के साथ मायके में रहना व पति का भी उसी परिवार में रहना

→ मेहराब-प्रार्थना का स्थल

→ इन्सान-ए-कामिल-मर्यादा पुरुषोत्तम

→ मुरीद-भक्त या अनुयायी

→ दरगाह-शेख का समाधि-स्थल

→ लंगर-सामुदायिक रसोई

→ काकी-रोटी (अन्न) बाँटने वाला

→ जियारत प्रार्थना

→ उलटबाँसी-विपरीत अर्थ वाली उक्तियाँ

→ कबीर-महान

→ सगुण-ईश्वर को किसी रूप या आकार में मानना

→ खालसा पंथ-पवित्रों की सेना

→ मक्तुबात-लिखे हुए पत्रों का संकलन

→ मुर्शीद-पीर या शेख

→ खानकाह-शेख का निवास

→ उर्स-पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन

→ फुतूह-बिना मांगा दान

→ मुरक्का-ए-दिल्ली-दिल्ली का एलबम

→ सल्तान-उल-मशेख शेखों में सुल्तान

→ नाम-सिमरन-ईश्वर का सच्चा जाप

→ निर्गुण-ईश्वर को किसी आकार या रूप में न स्वीकारना

→ संगत-सामुदायिक उपासना (उपासक)

→ मुलफुजात-सूफी संतों की बातचीत

→ तजकिरा-सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण

→ 8वीं से 18वीं सदी का काल भारत के इतिहास में धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है, क्योंकि इस काल में धार्मिक विश्वास व श्रद्धा में विभिन्न तरह के परिवर्तन हो रहे थे। ये परिवर्तन आन्तरिक व बाह्य दोनों कारणों से हो रहे थे। इनके कारण केवल धर्म व धार्मिक परंपराएँ ही नहीं बदल रही थीं, बल्कि सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित हो रहा था। इस तरह के सामाजिक-धार्मिक परिवर्तनों के कारण राजनीतिक व्यवस्था, स्थिति व शासन करने की शैली में भी बदलाव आ रहा था। इन सभी परिवर्तनों की जड़ में भक्ति व सूफी परंपराएँ थीं। यहीं भक्ति व सूफी परंपराएँ इस अध्याय की विषय-वस्तु हैं।

→ वैदिक धर्म में जीवन के चार उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष बताए गए हैं। इन उद्देश्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मोक्ष को माना जाता है। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए तीन मार्ग ज्ञान, कर्म व भक्ति बताए गए हैं। इन मार्गों में जनसामान्य में सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति मार्ग रहा। मध्यकाल में तो इसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना गया है, परंतु ध्यान योग्य पहलू यह है कि मध्यकाल तो इस परंपरा का शिखर काल था। इसकी जड़ें प्राचीन काल में ही प्रकट होने लगी थीं। जब उपासक अपने इष्टदेव की आराधना मंदिरों में तल्लीनता से करते हुए प्रेम-भाव को व्यक्त करते थे। ये उपासक विभिन्न तरह की रचनाओं को गाते एवं श्रद्धा व्यक्त करते थे। इस तरह के भाव वैष्णव व शैव दोनों संप्रदायों के लोग अभिव्यक्त करते थे।

→ भक्ति शब्द की उत्पत्ति ‘भज्’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ सेवा से लिया जाता है। भक्ति व्यापक अर्थ में मनुष्य द्वारा ईश्वर या इष्टदेव के प्रति पूर्ण समर्पण होता है जिसके अनुरूप व्यक्ति स्वयं को अपने श्रद्धेय में समा लेता है। इसमें सामाजिक रूढ़ियाँ, ताना-बाना, मर्यादाएँ तथा बंधनों की भूमिका नहीं होती, बल्कि सरलता, समन्वय की भावना तथा पवित्र जीवन पर बल दिया जाता है। भक्ति संत कवियों ने समाज की रूढ़ियों व नकारात्मक चीजों का विरोध कर, उसके प्रत्येक वर्ग को अपने साथ जोड़ा, जिनके चलते हुए समाज का एक बड़ा वर्ग इनका अनुयायी व समर्थक बन गया। सभी भक्त कवियों ने मोटे तौर पर एक ईश्वर में विश्वास, ईश्वर के प्रति निष्ठा व प्रेम तथा गुरु के महत्त्व पर बल दिया। साथ ही मानव मात्र की समानता, जीवन की पवित्रता, सरल धर्म तथा समन्वय की भावना के लिए कहा। इन संत कवियों में सगुण व निर्गुण के आधार पर अंतर था। सगुण के कुछ संत कवि भगवान राम के रूप में लीन थे, जबकि कुछ को कृष्ण का रूप पसन्द था। इन्हीं आधारों पर इन्हें राममार्गी तथा कृष्णमार्गी कहा जाता था।

→ भक्ति परंपरा की शुरुआत वर्तमान तमिलनाडु क्षेत्र में छठी शताब्दी में मानी जाती है। प्रारंभ में इस परंपरा का नेतृत्व विष्णु भक्त अलवारों तथा शिव भक्त नयनारों ने किया। ये अलवार तथा नयनार संतों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। ये अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन इत्यादि गाते थे। इन संतों ने कुछ स्थानों को अपने इष्टदेव का निवास स्थान घोषित कर दिया जहाँ पर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण किया गया। इस तरह ये स्थल तीर्थ स्थलों के रूप में उभरे। संत-कवियों के भजनों को मन्दिरों में अनुष्ठान के समय गाया जाने लगा तथा इन संतों की प्रतिमा भी इष्टदेव के साथ स्थापित कर दी गई। इस तरह इन संतों की भी पूजा प्रारंभ हो गई।
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→ बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक क्षेत्र में एक नए आंदोलन की शुरुआत हुई जिसको बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण संत ने नेतृत्व दिया। बासवन्ना चालुक्य राजा के दरबार में मंत्री थे व जैन धर्म में विश्वास करते थे। उनकी विचारधारा को कर्नाटक क्षेत्र में बहुत लोकप्रियता मिली। उसके अनुयायी शिव के उपासक वीरशैव कहलाए। उनमें से लिंग धारण करने वाले लिंगायत बने। इस समुदाय के लोग शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं तथा पुरुष अपने बाएं कंधे पर, चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। इन लिंगधारी पुरुषों को लोग बहुत सम्मान देते हैं तथा श्रद्धा व्यक्त करते हैं। कन्नड़ भाषा में इन्हें जंगम या यायावर भिक्षु कहा जाता है।

→ अरब क्षेत्र में इस्लाम का उदय विश्व के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। 7वीं शताब्दी में इसके उदय के पश्चात् यह धर्म पश्चिमी एशिया में तेजी से फैला और कालांतर में यह भारत में भी पहुँचा। तत्पश्चात् यहाँ बाहर से आई धार्मिक व वैचारिक पद्धति के साथ आदान-प्रदान की प्रक्रिया शुरू हुई। फलतः एक नया सामाजिक ताना-बाना उभरा।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

→ इस्लाम के भारत में आगमन के पश्चात् जो परिवर्तन हुए वे मात्र शासक वर्ग तक सीमित नहीं थे, बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप के जन-सामान्य के विभिन्न वर्गों; जैसे कृषक, शिल्पी, सैनिक, व्यापारी इत्यादि से भी जुड़े थे। समाज के बहुत-से लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया। उन्होंने अपनी जीवन-शैली व परंपराओं का पूरी तरह परित्याग नहीं किया, लेकिन इस्लाम की आधार स्तम्भ पाँच बातें अवश्य स्वीकार कर लीं।

→ सूफी शब्द की उत्पत्ति के बारे में सभी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। हाँ यह स्पष्ट है कि सूफीवाद का अंग्रेज़ी समानार्थक शब्द ‘सूफीज्म’ है। सूफीज्म शब्द हमें प्रकाशित रूप में 19वीं सदी में मिलता है। इस्लामिक साहित्य में इसके लिए तसब्बुफ शब्द मिलता है। कुछ विद्वान यह स्वीकारते हैं कि यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ है ऊन अर्थात् जो लोग ऊनी खुरदरे कपड़े पहनते थे उन्हें सूफी कहा जाता था। कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ साफ होता है। इसी तरह कुछ अन्य विद्वान सूफी को सोफिया (यानि वे शुद्ध आचरण) से जोड़ते हैं। इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति के बारे में एक मत तो नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि इस्लाम में 10वीं सदी के बाद अध्यात्म, वैराग्य व रहस्यवाद में विश्वास करने वाली सूचियों की संख्या काफी थी तथा ये काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह 11वीं शताब्दी तक सूफीवाद एक विकसित आंदोलन बन गया।

→ भारतीय उपमहाद्वीप में कई सिलसिलों की स्थापना हुई। इनमें सर्वाधिक सफलता चिश्ती सिलसिले को मिली, क्योंकि जन-मानस इसके साथ अधिक जुड़ पाया। चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती ने की। परंतु भारत में इसकी स्थापना का श्रेय मुईनुद्दीन चिश्ती को जाता है। मुईनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1141 ई० में ईरान में हुआ। इस सिलसिले के अन्य संतों में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हमीदुद्दीन नागौरी, निजामुद्दीन औलिया व शेख सलीम चिश्ती इत्यादि हैं। इनकी कार्य प्रणाली, जीवन-शैली व ज्ञान ने भारत के जन-सामान्य को आकर्षित किया।

समय-रेखा

काल (लगभग)व्यक्ति व क्षेत्र की जानकारी
1. छठी व सातवीं शताब्दी 500-700 ईoतमिलनाडु में अलवार व नयनारों के नेतृत्व में भक्ति आन्दोलन का उदय।
2. आठवीं व नौवीं शताब्दी 700-900 ई०तमिलनाडु में सुन्दर मूर्ति, नम्मलवर, मणिक्वचक्कार व अंडाल का समय, शंकराचार्य (788-820) का काल
3. दसर्वं व ग्यारहवीं शताब्दी 900-1100 ई०उत्तर भारत में राजपूतों का उत्थान, पंजाब में अल हुजविरी, दाता गंज बख्श तथा तमिलनाडु में रामानुजाचार्य का काल।
4. बारहवीं शताब्दी 1100-1200 ई०कर्नाटक में बासवन्ना (1106-68) तथा उत्तर भारत में मोहम्मद गोरी के आक्रमण 1192 ई० में मुइनुद्दीन चिश्ती का भारत आगमन।
5. तेरहवीं शताब्दी 1200-1300 ई०खाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का अजमेर में स्थापित होना, दिल्ली में बख्तियार काकी, महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, पंजाब में बहाऊद्दीन जकारिया व फरीदुद्दीन गंज-ए-शंकर; दिल्ली सल्तनत की स्थापना।
6. चौदहवीं शताब्द्री 1300-1400 ई०दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो व जियाऊद्दीन बर्नी, सिन्ध में शाहबाज कलन्दर, कश्मीर में लाल देद, उत्तर प्रदेश में रामानंद।
7. पंद्रहवीं शताब्द्री 1400-1500 ई०उत्तर प्रदेश में कबीर, रैदास व सूरदास; पंजाब में गुरुनानक; महाराष्ट्र में तुकाराम व नामदेव; असम में शंकरदेव; गुजरात में बल्लभाचार्य व ग्वालियर में अब्दुल्ला सत्तारी।
8. सोलहवीं शताब्दी 1500-1600 ई०राजस्थान में मीराबाई; पंजाब में गुरु अंगददेव व गुरु अर्जुन देव, उत्तर प्रदेश में मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास। भारत में मुगल वंश की स्थापना, बंगाल में श्री चैतन्य।
9. सत्रहवीं शताब्दी 1600-1700 ई०हरियाणा क्षेत्र में शेख अहमद सरहिन्दी; पंजाब व दिल्ली में गुरु तेग बहादुर, उत्तर भारत में गुरु गोबिन्द सिंह व पंजाब में मियाँ मीर।
10. अठारहवीं शताब्दी 1700-1800 ई०बंगाल में संन्यासी व चुआरो का उत्थान, भारत में अंग्रेजी शासन का प्रारंभ, राजा राम मोहन राय का जन्म (1774)।

 

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

HBSE 12th Class History यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
किताब-उल-हिन्द पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
‘किताब-उल-हिन्द’, अल-बिरूनी द्वारा रचित सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसे ‘तहकीक-ए-हिन्द’ के नाम से भी जाना जाता है। मौलिक तौर पर यह ग्रंथ अरबी भाषा में लिखा गया है तथा बाद में यह विश्व की कई प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हुआ। इसमें कुल 80 अध्याय हैं जिनमें भारत के धर्म, दर्शन, समाज, परंपराओं, चिकित्सा, ज्योतिष इत्यादि विषयों को विस्तृत ढंग से लिखा गया है। भाषा की दृष्टि से लेखक ने इसे सरल व स्पष्ट बनाने का प्रयास किया है।

अल-बिरूनी ने इस रचना के लेखन में विशेष शैली का प्रयोग किया है। वह प्रत्येक अध्याय को एक प्रश्न से प्रारंभ करता है, फिर उसका उत्तर संस्कृतवादी परंपराओं के अनुरूप विस्तृत वर्णन के साथ करता है। फिर उसका अन्य संस्कृतियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करता है। वह इस कार्य में पाली, प्राकृत इत्यादि भाषाओं के अनुवाद का प्रयोग करता है। वह विभिन्न दन्त कथाओं से लेकर विभिन्न वैज्ञानिक विषयों खगोल-विज्ञान व चिकित्सा विज्ञान इत्यादि विषयों की रचनाएँ है। वह प्रत्येक पक्ष का वर्णन आलोचनात्मक ढंग से करता है।

प्रश्न 2.
इब्न बतूता और बर्नियर ने जिन दृष्टिकोणों से भारत में अपनी यात्राओं के वृत्तांत लिखे थे, उनकी तुलना कीजिए तथा अंतर बताइए।
उत्तर:
इब्न बतूता और बर्नियर दोनों ही विदेशी यात्री हैं। इन दोनों ने ही भारत के बारे में अपना वृत्तांत विस्तार से लिखा है। तुलनात्मक दृष्टि से इनके वृत्तांत में कुछ समानता है तो कुछ अंतर भी है।

इब्न बतूता अफ्रीका में मोरक्को देश का रहने वाला था। वह धर्मशास्त्री था। उसने साहित्यिक व शास्त्रीय यात्राओं के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से 1325 ई० में यात्रा प्रारंभ की। मध्य-एशिया में उसने भारत के शासक मुहम्मद-बिन-तुगलक की प्रशंसा सुनी। इससे उसके मन में शासक से मिलने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। वह 1334 ई० में दिल्ली पहुँचा।

मुहम्मद-बिन-तुगलक व इब्न बतूता दोनों एक-दूसरे की विद्वता से प्रभावित हुए। शासक ने उसे दिल्ली का काज़ी नियुक्त किया तथा बाद में दूत बनाकर चीन भी भेजा। चीन जाने के बाद वह 1349 ई० में स्वदेश चला गया। मोरक्को के शासक के निर्देश पर इन जुजाई ने उससे अनुभव लेकर ‘रिला’ नामक ग्रंथ की रचना की।

दूसरी ओर बर्नियर फ्रांस का रहने वाला था। वह व्यवसाय से चिकित्सक था। वह शाहजहाँ के शासन काल के अंतिम दिनों 1656 ई० में भारत आया तथा 1668 में स्वदेश चला गया। उसने ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ नामक पुस्तक लिखी। . दोनों में समानता यह है कि दोनों ने अपने-अपने समय के शासकों के दरबार, सामंतों व अन्य उच्च वर्ग के लोगों के जीवन की जानकारी दी। दोनों ने समाज की परंपराओं विशेषकर विवाह प्रणाली, सती प्रथा तथा त्योहारों इत्यादि का वर्णन किया है। दोनों का वृत्तांत अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बना है।

दोनों में अंतर मुख्य रूप से उद्देश्य को लेकर है। बतूता अधिक-से-अधिक जानकारी लेकर जिज्ञासा को शांत करना चाहता है जबकि बर्नियर पूर्व (भारत) तथा पश्चिम (यूरोप) की तुलना करते हुए, भारत को निम्न बताना चाहता है। वह यूरोप में पूंजीवाद के उत्थान की स्थितियों के अनुरूप लिखता है। इब्न बतूता ने स्वयं कुछ नहीं लिखा जबकि बर्नियर ने रचना स्वयं लिखी है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

प्रश्न 3.
बर्नियर के वृत्तांत से उभरने वाले शहरी केंद्रों के चित्र पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
बर्नियर ने मुगल काल के नगरों का वर्णन किया है। उसके अनुसार भारत की जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग मनपात यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। मुगलकालीन नगरों को बर्नियर शिविर नगर’ कहता था अर्थात् ऐसे नगर जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर करते थे। ये ‘शिविर नगर’ तभी बनते थे जब राजकीय दरबार का आगमन होता था। राजकीय कारवाँ के निकल जाने के बाद इन शिविर नगरों का आविर्भाव समाप्त हो जाता था। यह सामाजिक और आर्थिक रूप से राजकीय प्रश्रय पर निर्भर करते थे।

बर्नियर के अनुसार उस काल में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे। ये नगर उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि श्रेणियों में विभाजित थे। वास्तव में इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का परिचायक था। . इस काल में नगरों की एक विशेषता और भी उभरकर सामने आई। घ्यापारी वर्ग मजबूत सामुदायिक एवं बंधुत्व के संबंधों से जुड़े हुए थे।

वे व्यावसायिक और जातिगत संस्थाओं के माध्यम से संगठित थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा. जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों के सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया या सेठ द्वारा होता था। शहर के अन्य समुदायों के व्यावसायिक वर्ग में चिकित्सक (हकीम-वैद्य), अध्यापक (मुल्ला-पंडित), अधिवक्ता (वकील) चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मलित थे। ये राजकीय आश्रय अथवा अन्य के संरक्षण में रहते थे।

प्रश्न 4.
इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के संबंध में दिए गए साक्ष्यों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के बारे में कई साक्ष्य दिए गए हैं। उसके अनुसार भारत में दास बाजार में उसी तरह बिकते हैं जैसी कि अन्य दैनिक प्रयोग की वस्तुएँ। लोग इन दास-दासियों को घरेलू कार्यों तथा उपहार इत्यादि के लिए खरीदते हैं। वह जब स्वयं सिन्ध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक को भेंट देने के लिए दास खरीदे। उसने मुल्तान पहुँचकर, वहाँ के गवर्नर को किशमिश व बादाम के साथ एक दास और कुछ घोड़े भेंट किए। सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने नसीरुद्दीन नामक एक धर्मोपदेशक को उसके ज्ञान व प्रवचन से प्रभावित होकर एक लाख टके तथा दो सौ दास दिए।

इब्न बतूता के अनुसार, पुरुष दास का प्रयोग घरेलू कार्यों; जैसे बाग-बगीचों की देखभाल, पशुओं की देखरेख, महिलाओं व पुरुषों को पालकी या डोली में एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिए होता था। दासियाँ शाही महल, अमीरों के आवास पर घरेलू कार्य करने व संगीत गायन के लिए खरीदी जाती थीं। वह बताता है कि शासक की बहन की शादी में इन दासियों ने बहुत उच्चकोटि के कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे। सुल्तान अपने अमीरों व दरबारियों पर नियंत्रण रखने के लिए भी दासियों का प्रयोग करता था।

प्रश्न 5.
सती प्रथा के कौन से तत्वों ने बर्नियर का ध्यान अपनी ओर खींचा?
उत्तर:
बर्नियर ने अपने वृत्तांत में सती प्रथा के बारे में काफी विस्तार से लिखा है। उसने 12 वर्ष की आयु की एक लड़की के सती होने का मार्मिक वर्णन किया है। उसने सती होने या करने की विधि भी लिखी है। बर्नियर अपने वर्णन में सती के विभिन्न पक्षों का उल्लेख करते हुए जिस तरह लिखता है उससे स्पष्ट होता है कि कई तत्वों ने उसका ध्यान इस दिशा में खींचा। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

  • सती प्रथा यूरोप की प्रथाओं से अलग थी। किसी जीवित व्यक्ति को जलाने की प्रथा उसे अमानवीय लगी।
  • उसे भारत में अल्पवयस्क शादी आश्चर्यजनक लगी और अल्पावस्था में विधवा को सती करना और अधिक आश्चर्यजनक लगा।
  • उसे सती होने जा रही बच्ची की मनोदशा पर तरस आ रहा था।
  • उसे परिवार की बूढ़ी महिला व ब्राह्मणों का व्यवहार अजीब लगा। क्योंकि वे किसी जीवित व्यक्ति को जलाने को महसूस नहीं कर रहे थे, बल्कि प्रथा का पालन करने में व्यस्त थे।
  • विधवा के हाथ-पाँव बाँधना तथा फिर ढोल-नगाड़ों की आवाज में मरने वाले प्राणी की आवाज को दबाने से अधिक आश्चर्यजनक पहलू और क्या हो सकता था।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
जाति व्यवस्था के संबंध में अल-बिरूनी की व्याख्या पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
अल-बिरूनी की भारतीय समाज के बारे में समझ उसी वैदिक ज्ञान पर आधारित थी जिसमें वर्गों की उत्पत्ति बताई गई है। इस समझ के अनुसार ब्राह्मण का इस समाज में सर्वोच्च स्थान था। उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के सिर से हुई, उसके बाद क्षत्रियों का स्थान था जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के कंधों व हाथों से हुई। क्षत्रियों के बाद वैश्यों का स्थान था। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की जंघाओं से हुई है। इस कड़ी में चौथा स्थान शूद्रों का है। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के चरणों से हुई है। वह यह भी लिखता है कि तीसरे व चौथे वर्ण में कोई अधिक अंतर नहीं है।

अल-बिरूनी इस विभाजन को ब्राह्मण वर्ग द्वारा संचालित बताता है, परन्तु वह अपवित्रता की धारणा को स्वीकार नहीं कर पाता। वह लिखता है कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है वह पूर्णतया स्थायी नहीं होती बल्कि वह अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करती है तथा अन्ततः सफल भी होती है। वह अपने मत के पक्ष में उदाहरण देकर स्पष्ट करता है कि हवा कितनी भी प्रदूषित क्यों न हो, सूर्य उसे स्वच्छ कर देता है। इसी तरह समुद्र के पानी में नमक की उपस्थिति भी उसे गंदा होने से बचाती है। उसके अनुसार यदि प्रकृति में अशुद्ध को शुद्ध करने का गुण नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं होता।

इसी तरह जाति-व्यवस्था में अपवित्रता की व्याख्या प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। अल-बिरूनी भारतीय समाज की जाति प्रथा की तुलना फारस से करता है। वह यह भी स्पष्ट करता है कि भारत में वर्गों की उत्पत्ति का संबंध ब्रह्मा से माना जाता है लेकिन फारस में विभाजन का आधार कार्य है। वहाँ पहले वर्ग में शासक व घुड़सवार (अर्थात सैनिक), दूसरे वर्ग में भिक्षु, तीसरे में चिकित्सक, शिक्षक, पुरोहित थे, जबकि चौथे में कृषक व शिल्पकार थे। इन सभी में व्यवसायों में बदलाव से समाज में इनकी पहचान भी बदल जाती थी।

अल-बिरूनी बताता है कि भारतीय समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के अतिरिक्त भी एक वर्ग था जिससे व्यवस्था से बाहर माना जाता था। उसे लोग अंत्यज कहते थे। यह वर्ग सामाजिक दृष्टि से व्यवस्था से बाहर अवश्य था, लेकिन आर्थिक तौर पर कृषि इत्यादि में अपनी सेवा निरंतर देता रहता था।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

प्रश्न 7.
क्या आपको लगता है कि समकालीन शहरी केंद्रों में जीवन-शैली की सही जानकारी प्राप्त करने में इब्न बतूता का वृत्तांत सहायक है? अपने उत्तर के कारण दीजिए।
उत्तर:
इन बतूता ने भारत के विभिन्न शहरों में अपना काफी समय बिताया। उसने जो कुछ वहाँ देखा, उसका वर्णन कर दिया। उसने अपना वर्णन इतनी कुशलता से किया है कि पाठक को यह एहसास होता है जैसे वह उस स्थान पर हो। उसके वृत्तांत से तत्कालीन शहर की बसावट तथा जीवन-शैली की विस्तार से जानकारी मिल जाती है। इस बात की पुष्टि उसके द्वारा दिल्ली व दौलताबाद के वृत्तांत से हो जाती है। उदाहरण के लिए इस वृत्तांत को लिया जा सकता है। . दिल्ली-बतूता के अनुसार “देहली बड़े क्षेत्र में फैला घनी आबादी वाला शहर है………. शहर के चारों ओर बनी प्राचीर अतुलनीय है, दीवार की चौड़ाई ग्यारह हाथ है; और इसके भीतर रात्रि के पहरेदार तथा द्वारपालों के कक्ष हैं। प्राचीर के अन्दर खाद्य सामग्री, हथियार, बारूद, प्रक्षेपास्त्र तथा घेरेबंदी में काम आने वाली मशीनों के संग्रह के लिए भंडार गृह बने हुए थे……….. प्राचीर के भीतरी भाग में घुड़सवार तथा पैदल सैनिक शहर की ओर से दूसरे छोर तक आते-जाते हैं।

प्राचीर में खिड़कियाँ बनी हुई हैं जो शहर की ओर खुलती हैं और इन्हीं खिड़कियों के माध्यम से प्रकाश अंदर आता है। प्राचीर का निचला भाग पत्थर से बना है जबकि ऊपरी भाग ईंटों से। इस शहर में कुल 28 द्वार हैं जिन्हें दरवाजा कहा जाता है। इनमें सबसे विशाल बदायूँ दरवाजा है। मांडवी दरवाजे के अन्दर अनाज मण्डी है, गुल दरवाजे के बगल में फलों का एक बगीचा है…….देहली शहर में एक बेहतरीन कब्रगाह है जिसमें : बनी कब्रों के ऊपर गुंबद बनाई गई है और जिन कब्रों पर गुंबद नहीं हैं उनमें निश्चित रूप से मेहराब है। कब्रगाह में कंदाकार, चमेली

तथा जंगली गुलाब जैसे फूल उगाए जाते हैं और ये फूल सभी मौसमों में खिले रहते हैं।” दौलताबाद-दौलताबाद के बारे में बतूता बताता है कि यह दिल्ली से किसी तरह कम नहीं था और आकार में उसे चुनौती देता था। यहाँ पुरुष व महिला गायकों के लिए एक बाजार था जिसे ताराबंबाद कहते थे। यह सबसे बड़े एवं सुन्दर बाजारों में से एक था। यहाँ बहुत सी दुकानें थीं। दुकानों को कालीन से सजाया जाता था। बाजार के मध्य में एक विशाल गुंबद खड़ा था जिसमें कालीन बिछाए गए थे। प्रत्येक गुरुवार सुबह की इबादत के बाद संगीतकारों के प्रमुख अपने सेवकों और दासों के साथ स्थान ग्रहण करते थे।

गायिकाएँ एक के बाद एक झुण्डों में उनके समक्ष आकर सूर्यास्त का गीत गाती और नाचती थीं। इन बतूता के दोनों शहरों के वृत्तांत को जानने के बाद शहरी जन-जीवन की विस्तृत झांकी आँखों के सामने आती है जिससे स्पष्ट होता है कि शहर की बनावट कैसी थी। उसकी सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए गए थे। वहाँ बाजार में क्या मिलता था। शहरों में सांस्कृतिक गतिविधियाँ किस तरह चलती थीं। अतः स्पष्ट है कि इन बतूता का वृत्तांत समकालीन शहरी केंद्रों की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि बर्नियर का वृत्तांत किस सीमा तक इतिहासकारों को समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित .. करने में सक्षम करता है?
उत्तर:
बर्नियर ने अपने वृत्तांत में भारतीय ग्रामीण समाज के बारे में बहुत कुछ लिखा है। वह इस बारे में स्पष्ट करता है कि भारत में ग्रामीण समाज पिछड़ा हुआ है। उसके अनुसार “हिंदुस्तान के साम्राज्य के विशाल ग्रामीण अंचलों में अधिकतर रेतीली या बंजर हैं। यहाँ की खेती अच्छी नहीं है और इन इलाकों में आबादी भी कम है। यहाँ तक कि कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा श्रमिकों के अभाव में कृषि विहीन रह जाता है, गरीब लोग अपने लोभी स्वामियों की माँगों को पूरा करने में प्रायः असमर्थ रहते हैं। वे अत्यंत निरंकुशता से हताश हो गाँव छोड़कर चले जाते हैं।” बर्नियर का यह वृत्तांत एक पक्षीय है। इस बात को समझने के लिए इतिहासकार को उसके लेखन का उद्देश्य समझना होगा। जिसमें यह स्पष्ट है कि वह यूरोप में निजी स्वामित्व जारी रखना चाहता है। वह भारत के कृषक व ग्रामीण समाज की दुर्दशा के लिए भूमि स्वामित्व को जिम्मेदार ठहराता है। यह भारत में स्वामित्व निजी के स्थान पर शासकीय मानता है।

इतिहासकार उसके वृत्तांत को पढ़कर सामान्य रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि भारतीय ग्राम पिछड़े हुए थे। ऐसा कार्ल मार्क्स व मॉन्टेस्क्यू ने भी कहा है। इसके लिए जरूरी है कि इतिहासकार अन्य तुलनात्मक स्रोतों का अध्ययन करें। वह बर्नियर की स्थिति तथा लेखन के उद्देश्य को भी समझे। इतिहासकार ग्रामीण समाज के अन्य पक्षों विशेषकर लोगों की जीवन शैली के बारे में भी जानने का प्रयास करे। इन बिंदुओं पर ध्यान रखकर 17वीं शताब्दी के गाँवों के बारे में इतिहासकार समझ बना सकता है।

इसी कदम पर आगे बढ़ते हुए इतिहासकार समकालीन ग्रामीण समाज को भी समझ सकता है। वह बर्नियर की तरह के स्रोतों का जब मूल्यांकन कर लेगा तथा अन्य स्रोतों का अध्ययन उसकी विषय-वस्तु में होगा तो निश्चित तौर पर समकालीन समाज को अच्छी तरह समझ सकता है। अतः बर्नियर का वृत्तांत इतिहास को समकालीन ग्रामीण समाज समझने का मार्ग तो देता है लेकिन उसके दोषों के प्रति भी उसे सचेत होना होगा।

यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ HBSE 12th Class History Notes

→ शास्त्ररूढ़-शास्त्रों से संबंधित

→ शरिया (शरियत)-इस्लामी कानून

→ कारवाँ-बड़ी सामूहिक यात्रा

→ श्रुतलेख-सुनकर लिखना

→ इतालवी-इटली का निवासी

→ ऑटोमन साम्राज्य-तुर्की का साम्राज्य

→ अमीर (मध्यकाल में) सामंत

→ डच हॉलैण्ड के निवासी

→ पुनः मुद्रित दोबारा प्रकाशन

→ हस्तलिपियाँ हाथ से लिखे गए ग्रन्थ

→ अवरोध-समस्या

→ पतंजलि की कृति–पतंजलि की रचना

→ अंत्यज-सामाजिक वर्ण व्यवस्था से बाहर के लोग

→ काज़ी-न्याय करने वाला इस्लाम धर्म का विशेषज्ञ

→ ताराबबाद-गायकों का बाजार

→ उलुक-अश्व वाली डाक सेवा

→ दावा-पैदल डाक सेवा

→ कालीकट-वर्तमान कोजीकोड (केरल)

→ द्वि-विपरीतता दोनों को एक-दूसरे के विपरीत

→ बेहतर-भूमि धारकों का वर्ग

→ बलाहार-भूमिहीन कृषक

→ टका-सल्तनत काल की मुद्रा

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

→ भारत में प्राचीन काल से विदेशी यात्री आते रहे हैं। ये यात्री व्यापार, रोजगार, तीर्थ यात्रा या धर्म प्रचार इत्यादि उद्देश्यों से आए। इन यात्रियों में से कुछ ने अपने वृत्तांत पुस्तक, व्यक्तिगत डायरी व संस्मरण के रूप में लिखे हैं। उनके यही लिखित साक्ष्य हमें भारतीय इतिहास के विभिन्न पक्षों को समझने का आधार देते हैं।

→ प्रस्तुत अध्याय में भारतीय उपमहाद्वीप में आने वाले उन यात्रियों का वर्णन है जिन्होंने मध्यकालीन समाज के बारे में विस्तृत वर्णन दिया है। इस बारे में भी सभी यात्रियों का वर्णन सम्भव नहीं है अतः केवल तीन यात्रियों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। ये यात्री ग्यारहवीं शताब्दी में मध्य-एशिया वर्तमान उज्बेकिस्तान से आने वाले अल-बिरूनी, चौदहवीं शताब्दी में मोरक्को (अफ्रीका) से आने वाले इब्न बतूता तथा सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी यात्री फ्रांस्वा बर्नियर हैं। इन यात्रियों ने जिस तरह सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है उससे कालक्रम के अनुरूप लगभग पूरे मध्यकाल की समझ बनती है। अरब लेखकों में सबसे महत्त्वपूर्ण व विस्तृत जानकारी देने वाला व्यक्ति अल-बिरूनी है जो महमूद क देने वाला व्यक्ति अल-बिरूनी है जो महमूद के साथ भारत आया, जिसने तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डाला।

→ अल-बिरूनी का वास्तविक नाम अबू रेहान था। उसका जन्म मध्य-एशिया में स्थित आधुनिक उज्बेकिस्तान के ख्वारिज्म (वर्तमान नाम खीवा) नामक स्थान पर 973 ई० में हुआ। ख्वारिज्म इस समय शिक्षा का अति महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। अल-बिरूनी को इसी स्थान पर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। उसने यहाँ पर सीरियाई, हिब्रू, फारसी, अरबी व संस्कृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इसलिए वह इन भाषाओं में लिखित मौलिक ग्रन्थों को पढ़ पाया। वह यूनानी भाषा को नहीं समझता था लेकिन इस भाषा के सभी प्रमुख ग्रन्थ अनुवादित हो चुके थे। इसी कारण वह प्लेटो व अरस्तु के दर्शन व ज्ञान को अनुवादित रूप में पढ़ पाया। इस तरह वह अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में ही विभिन्न भाषाओं के साहित्य से परिचित हो गया।

→1017 ई० में महमूद ने ख्वारिज्म पर आक्रमण किया तथा जीत हासिल की। विजय के बाद उसने यहाँ पर कुछ लोगों को बंदी बनाया। इनमें कुछ विद्वान तथा कवि भी थे। अल-बिरूनी भी इन्हीं बंदी लोगों में एक था तथा वह इसी अवस्था में गजनी लाया गया। गजनी में रहते हुए महमूद उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुआ। फलतः न केवल महमूद ने उसे मुक्त किया वरन् उसे दरबार में सम्मानजनक पद भी दिया। बाद में अल-बिरूनी उसका राजकवि भी बना। गजनी प्रवास के दौरान उसने खगोल-विज्ञान, गणित व चिकित्सा से संबंधित पुस्तकें पढ़ीं। वह महमूद के साथ भारत में कई बार आया तथा उसने इस क्षेत्र में ब्राह्मणों, पुरोहितों व विद्वानों के साथ काफी समय बिताया। उनके साथ रहने के कारण वह संस्कृत भाषा में और प्रवीण हो गया। अब वह न केवल इसे समझ सकता था बल्कि अनुवाद करने में भी सक्षम हो गया। उसने सहारा रेगिस्तान से लेकर वोल्गा नदी तक की यात्रा के आधार पर लगभग 20 पुस्तकों की रचना की। इन रचनाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण ‘किताब-उल-हिन्द’ है जिसे ‘अल बरूनीज इण्डिया’ के नाम से जाना जाता है। गजनी में ही 1048 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ इब्न बतूता चौदहवीं शताब्दी का यात्री था। उसने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण 1325 से 1354 ई० तक किया। अफ्रीका, एशिया व यूरोप के कुछ हिस्से की यात्रा करने के कारण इसे, एक प्रारंभिक विश्व यात्री की संज्ञा दी जाती है। इब्न बतूता का जन्म अफ्रीका महाद्वीप के मोरक्को नामक देश के तैंजियर नामक स्थान पर 24 फरवरी, 1304 ई० को हुआ। बतूता का परिवार इस क्षेत्र में सबसे सम्मानित, शिक्षित व इस्लामी कानूनों का विशेषज्ञ माना जाता था। बतूता कम आयु में ही उच्चकोटि का धर्मशास्त्री बन गया।

→ इन बतूता साहित्यिक व शास्त्रीय ज्ञान से सन्तुष्ट नहीं था। उसके मन में यात्राओं के माध्यम से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न हुई। इसी की पूर्ति हेतु वह 22 वर्ष की आयु में घर से निकला तथा विश्व के विभिन्न स्थानों तथा दूर-दराज क्षेत्रों की यात्रा की। 1325-1332 ई० तक उसने मक्का व मदीना की यात्रा की तथा इसके बाद सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान तथा पूर्वी अफ्रीका के देशों की यात्रा की। उसने अपनी यात्राएँ जल एवं थल दोनों मार्गों से की। इन देशों की यात्रा के उपरांत वह मध्य-एशिया के रास्ते से भारत की ओर बढ़ा तथा 1333 ई० में सिन्ध पहुँचने में सफल रहा। बतूता 1334 ई० में दिल्ली पहुँचा तथा सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से भेंट की। ये दोनों एक दूसरे की विद्वता से प्रभावित हुए। सुल्तान ने बतूता को दिल्ली का काजी (न्यायाधीश) नियुक्त कर उसे शाही सेवा में ले लिया। उसने 8 वर्षों तक इस पद पर कार्य किया। इसी दौरान सुल्तान के साथ उसका मतभेद हो गया जिसके कारण उसे पद से हटाकर जेल में डाल दिया गया।

→ परन्तु यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रही तथा सुल्तान ने एक बार फिर उस पर विश्वास कर शाही सेवा में ले लिया। इस बार उसे चीन में सुल्तान की ओर से दूत बन कर जाने का आदेश दिया। इस समय चीन में मंगोलों का राज्य था। इस तरह 1342 ई० में इन बतूता ने नई नियुक्ति स्वीकार कर चीन की ओर प्रस्थान किया। . वह सुमात्रा होते हुए चीनी बन्दरगाह जायतुन (वर्तमान नाम क्वानझू) उतरा। उसने यहाँ से चीन के विभिन्न स्थानों की यात्रा की तथा मंगोल शासक को बीजिंग में महम्मद तगलक का पत्र सौंपा। शासक ने उसे दूत के रूप में स्वीकार किया, लेकिन बतता स्वयं वहाँ लम्बे समय तक नहीं रुक सका।

→ 1347 ई० में वहाँ से वापिस अपने देश मोरक्को के लिए चल दिया। वह 8 नवम्बर, 1349 ई० को अपने पैतृक स्थान तेंजियर मोरक्को के शासक ने उससे अपने अनुभव तथा विभिन्न स्थानों की जानकारी देने के लिए कहा। उसने अपनी स्मृति के आधार पर यह सारी जानकारी शासक को उपलब्ध कराई जिसे संकलित कर रिला या रला या सफरनामा नामक पुस्तक के रूप में सुरक्षित किया गया। इब्न बतूता की अपने पैतृक स्थान तैंजियर में 1377 ई० में मृत्यु हो गई।

→ बर्नियर एक राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा इतिहासकार था। उसने बारह वर्ष (1656-68) का समय भारत में लगाया। वह शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह का चिकित्सक था। बर्नियर का जन्म फ्रांस के अजों नामक प्रान्त के जुं नामक स्थान पर 1620 ई० में हुआ। उसका परिवार कृषि का कार्य करता था। उसने कृषि के साथ-साथ पढ़ाई की तथा पेशे से चिकित्सक बन गया। इसी व्यवसाय को करते हुए उसने फिलिस्तीन, सीरिया व मिस्र की यात्रा की। वह 1656 ई० में सूरत पहुँचा तथा इसी वर्ष दारा शिकोह ने उसे अपना चिकित्सक बना दिया। उसने शाहजहाँ के शासनकाल में उत्तराधिकार के युद्ध की कुछ घटनाएँ देखी जिसका उसने विस्तार से वर्णन किया है। दारा की मृत्यु के बाद उसे आर्मीनियाई अमीर (सामन्त) डानिश मंडखान ने संरक्षण दिया। उसने भारत में सूरत, आगरा, लाहौर, कश्मीर, कासिम बाजार, मसुलीपट्टम व गोलकुण्डा इत्यादि स्थानों का भ्रमण किया। वह 1668 ई० में भारत से फ्रांस लौट गया। 1688 ई० में उसके पैतृक स्थान पर ही उसकी मृत्यु हो गई।

→ फ्रांस्वा बर्नियर ने मुगल काल में भारत की यात्रा की। उसने जो कुछ देखा व समझा उसे ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ नामक रचना में लिखता गया। उसकी यह रचना फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुई तथा इसे फ्रांस के शासक लुई XIV को समर्पित किया गया। प्रारंभिक पाँच वर्षों 1670-75 के बीच यह रचना अंग्रेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी में अनुवादित हो गई तथा आठ बार फ्रांसीसी में इसका पुनर्मुद्रण हुआ। इन तीनों ही यात्रियों ने भारत के बारे में वृत्तांत दिया है। यह वृत्तांत काफी सूचनाप्रद तथा रोचक है।

क्रम संख्याकालयात्रीदेश/क्षेत्र
1.711-12मोहम्मद-बिन-कासिमअरब क्षेत्र
2.973-1048अल-बिरूनीउज्बेकिस्तान
3.1254-1323मार्को पोलोइटली
4.1304-1377इब्न बतूतामोरक्को (अफ्रीका)
5.1413-82अंब्दुर-रज़्ज़ाकसमरकन्द
6.1498वास्कोडिगामापुर्तगाल
7.1518दूरते बारबोसापुर्तगाल
8.1580-84फादर मान्सरेतस्पेन
9.1582-91राल्फ फिचइंग्लैड
10.1615-19सर टॉमस रोइंग्लैंड
111617-20एडवर्ड टेरीइंग्लैंड
121626-31महमूदवली बलखीबल्ख
131620-27फ्रेन्को पेलसर्टइंग्लैंड
141600-1667पीटर मुंडीइंग्लैंड
151605-1689तैवर्नियरफ्रांस
161620-1688फ्रांस्वा बर्नियरफ्रांस
171653-1708मनूकीइटली

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

HBSE 12th Class History विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
निःसंदेह नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार उपनिषदों के दार्शनिकों से भिन्न थे। उपनिषदों में आत्मिक ज्ञान पर बल दिया गया था, जिसका अर्थ था आत्मा और परमात्मा के संबंधों को जानना। परमात्मा ब्रह्म है, जिससे संपूर्ण जगत पैदा हुआ है। जीवात्मा अमर है और ब्रह्म का ही अंश है। जीवात्मा ब्रह्म में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करती है। इसके लिए सद्कर्मों और आत्मिक ज्ञान की जरूरत है। उपनिषदों के इस ज्ञान से नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार भिन्न थे जो निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट हैं

  • नियतिवादियों का मानना था कि प्राणी नियति यानी भाग्य के अधीन है। मनुष्य उसी के अनुरूप सुख-दुख भोगता है। सद्कर्मों अथवा आत्मज्ञान से नियति नहीं बदलती।
  • भौतिकवादियों का मानना था कि मानव का शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु से बना है। आत्मा और परमात्मा कोरी कल्पना है। मृत्यु के पश्चात् शरीर में कुछ शेष नहीं बचता। अतः भौतिकवादियों के विचार भी आत्मा-परमात्मा या अन्य विचार भी उपनिषदों के दार्शनिकों से बिल्कुल भिन्न थे।

प्रश्न 2.
जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ इस प्रकार हैं
1. अहिंसा-जैन धर्म की शिक्षाओं का केंद्र-बिंदु अहिंसा का सिद्धांत है। जैन दर्शन के अनुसार संपूर्ण विश्व प्राणवान है अर्थात् पेड़-पौधे, मनुष्य, पशु-पक्षियों सहित पत्थर और पहाड़ों में भी जीवन है। अतः किसी भी प्राणी या निर्जीव वस्तु को क्षति न पहुँचाई जाए। यही अहिंसा है। इसे मन, वचन और कर्म तीनों रूपों में पालन करने पर जोर दिया गया।

2. तीन आदर्श वाक्य-जैन शिक्षाओं में तीन आदर्श वाक्य हैं सत्य विश्वास, सत्य ज्ञान तथा सत्य चरित्र। इन तीनों वाक्यों को त्रिरत्न कहा गया है।

3. पाँच महाव्रत-जैन शिक्षाओं में मनुष्य को पापों से बचाने के लिए पाँच महाव्रतों के पालन पर जोर दिया गया है। ये ब्रत हैं। अहिंसा का पालन, चोरी न करना, झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना।

4. कठोर तपस्या-जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए और पिछले जन्मों के बरे कर्मों के फल को समाप्त करने के लिए कठोर तपस्या पर बल दिया गया है।

प्रश्न 3.
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
भोपाल की दो शासिकाओं शाहजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप को बनाए रखने में उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने इसके संरक्षण के लिए धन भी दिया और इसके पुरावशेषों को भी संरक्षित किया। 1818 में इस स्तूप की खोज के बाद बहुत-से यूरोपियों का इसके पुरावशेषों के प्रति विशेष आकर्षण था। फ्रांसीसी और अंग्रेज़ अलंकृत पत्थरों को ले जाकर अपने-अपने देश के संग्रहालयों में प्रदर्शित करना चाहते थे। फ्रांसीसी विशेषतया पूर्वी तोरणद्वार, जो सबसे अच्छी स्थिति में था, को पेरिस ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से इजाजत माँगी। ऐसा प्रयत्न अंग्रेज़ों ने भी किया। बेगम ने सूझ-बूझ से काम लिया। वह इस मूल कृति को भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही संरक्षित रखना चाहती थी। सौभाग्यवश कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने भी इसका समर्थन कर दिया। इससे यह स्तूप अपनी जगह सुरक्षित रह पाया। भोपाल की बेगमों ने स्तूप के रख-रखाव के लिए धन भी उपलब्ध करवाया। सुल्तानजहाँ बेगम ने स्तूप स्थल के पास एक संग्रहालय एवं अतिथिशाला भी बनवाई।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

प्रश्न 4.
निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए और उत्तर दीजिए
महाराज हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या, त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता के बहन की बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ
मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।
(क) धनवती ने अपने अभिलेख की तारीख कैसे निश्चित की?
(ख) आपके अनुसार उन्होंने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की?
(ग) वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं?
(घ) वे कौन-से बौद्ध ग्रंथों को जानती थीं?
(ङ) उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे?
उत्तर:
(क) धनवती ने तत्कालीन कुषाण शासक हुविष्क के शासनकाल के तैंतीसवें वर्ष के गर्म मौसम के प्रथम महीने के आठवें दिन का उल्लेख करके अपने अभिलेख की तिथि को निश्चित किया।

(ख) उन्होंने बौद्ध धर्म में अपनी आस्था प्रकट करने और स्वयं को सच्ची भिक्खुनी सिद्ध करने के लिए मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति की स्थापना की।

(ग) वह अभिलेख में अपनी मौसी (माता की बहन) बुद्धमिता तथा उसके गुरु बल और अपने माता-पिता का नाम लेती है।

(घ) धनवती त्रिपिटक (सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्म पिटक) बौद्ध ग्रंथों को जानती थी।

(ङ) उन्होंने यह पाठ बल की शिष्या बुद्धमिता से सीखे थे। प्रश्न 5. आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे?
उत्तर:
बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना की। बौद्ध संघ महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित एक धार्मिक व्यवस्था भी थी। अतः इसमें स्त्री-पुरुष निम्नलिखित कारणों से शामिल हुए

(1) बौद्ध संघ की व्यवस्था समानता पर आधारित थी। इसमें किसी वर्ण, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था। संघ का संगठन गणतंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित था।

(2) शुरू में संघ में स्त्रियों को शामिल नहीं किया गया था परंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ की सदस्या बनाया गया। वे भी बौद्ध धर्म की ज्ञाता बनीं।

(3) बौद्ध धर्म के शिक्षक-शिक्षिकाएँ बनने के लिए स्त्री-पुरुष संघ के सदस्य बनते थे। वे बौद्ध धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन करते थे ताकि वे संघ की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर सकें।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है ?
उत्तर:
साहित्यिक ग्रंथों के व्यापक अध्ययन से प्राचीन मूर्तिकला के अर्थ को समझा जा सकता है। यह बात साँची स्तूप की मूर्तिकला के संदर्भ में भी लागू होती है। इसलिए इतिहासकार साँची की मूर्ति गाथाओं को समझने के लिए बौद्ध साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों का गहन अध्ययन करते हैं। बहुत बार तो साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती हैं। साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य काफी हद तक सहायक है; जैसे कि नीचे दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होता है

1. वेसान्तर जातक की कथा साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक हिस्से में एक मूर्तिकला अंश को देखने से लगता है कि उसमें एक ग्रामीण दृश्य चित्रित किया गया है। परंतु यह दृश्य वेसान्तर जातक की कथा से है, जिसमें एक राजकुमार अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंपकर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वनों में रहने के लिए जा रहा है।
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अतः स्पष्ट है कि जिस व्यक्ति को जातक कथाओं का ज्ञान नहीं होगा वह मूर्तिकला के इस अंश को नहीं जान पाएगा।

2. प्रतीकों की व्याख्या-मूर्तिकला में प्रतीकों को समझना और भी कठिन होता है। इन्हें तो बौद्ध परंपरा के ग्रंथों को पढ़े बिना समझा ही नहीं जा सकता। साँची में कुछ एक प्रारंभिक मूर्तिकारों ने बौद्ध वृक्ष के नीचे ज्ञान-प्राप्ति वाली घटना को प्रतीकों के रूप में दर्शाने का प्रयत्न किया है। बहुत-से प्रतीकों में वृक्ष दिखाया गया है, लेकिन कलाकार का तात्पर्य संभवतया इनमें एक पेड़ दिखाना नहीं रहा, बल्कि पेड़ बुद्ध के जीवन की एक निर्णायक घटना का प्रतीक था।

इसी तरह साँची की एक और मूर्ति में एक वृक्ष के चारों ओर बौद्ध भक्तों को दिखाया गया है। परंतु बीच में जिसकी वे पूजा कर रहे हैं वहाँ महात्मा बुद्ध का मानव रूप में चित्र नहीं है, बल्कि एक खाली स्थान दिखाया गया है यही रिक्त स्थान बुद्ध की ध्यान की दशा का प्रतीक बन गया।

अतः स्पष्ट है कि मूर्तिकला में प्रतीकों अथवा चिह्नों को समझने के लिए बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन होना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रहे कि केवल बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से ही साँची की सभी मूर्तियों को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए तत्कालीन अन्य धार्मिक परंपराओं और स्थानीय परंपराओं का ज्ञान होना भी जरूरी है, क्योंकि इसमें लोक परंपराओं का समावेश भी हुआ है। उत्कीर्णित सर्प, बहुत-से जानवरों की मूर्तियाँ तथा शालभंजिका की मूर्तियाँ इत्यादि इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 7.
चित्र I और II में साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या नज़र आता है? वास्तुकला, पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धंधों को पहचान कर यह बताइए कि इनमें से कौन-से ग्रामीण और कौन-से शहरी परिदृश्य हैं?
उत्तर:
साँची के स्तूप में मूर्तिकला के उल्लेखनीय नमूने देखने को मिलते हैं। इनमें जातक कथाओं को उकेरा गया है, साथ ही बौद्ध परंपरा के प्रतीकों को भी उभारा गया है, यहाँ तक कि अन्य स्थानीय परंपराओं को शामिल किया गया है।
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चित्र I और II में भी बौद्ध परंपरा से जुड़ी धारणाओं को उकेरा गया है।
चित्र को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें अनेक पेड़-पौधे और जानवरों को दिखाया गया है। दृश्य ग्रामीण परिवेश का लगता है। लेकिन बौद्ध धर्म की दया, प्रेम और अहिंसा की धारणाएँ इसमें स्पष्ट झलकती हैं। चित्र के ऊपरी भाग में जानवर निश्चिंत भाव से सुरक्षित दिखाई दे रहे हैं, जबकि निचले भाग में कई जानवरों के कटे हुए सिर और धनुष-बाण लिए हुए मनुष्यों के चित्र हैं, जो बलि प्रथा और शिकारी-जीवन, हिंसा को प्रकट करते हैं।

चित्र-II बिल्कुल अलग परिदृश्य को व्यक्त कर रहा है। संभवतः यह कोई बौद्ध संघ का भवन है जिसमें बौद्ध भिक्षु ध्यान और प्रवचन जैसे कार्यों में व्यस्त हैं। चित्र में उकेरा गया भव्य सभाकक्ष और उसके स्तंभों में भी बौद्ध धर्म के प्रतीक दिखाई दे रहे हैं। स्तंभों के ऊपर हाथी और दूसरे जानवर बने हैं। ध्यान रहे इनसे जुड़े साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो संभवतः इन चित्रों का और भी गहन अर्थ निकालने में सक्षम हो पाएँगे।

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प्रश्न 8.
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
लगभग 600 ईसा पूर्व से 600 ई० के मध्य वैष्णववाद और शैववाद का विकास हुआ। इसे हिंदू धर्म या पौराणिक हिंदू धर्म भी कहा जाता है। इन दोनों नवीन विचारधाराओं की अभिव्यक्ति मूर्तिकला और वास्तुकला के माध्यम से भी हुई। इस संदर्भ में मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास का परिचय निम्नलिखित है

1. मूर्तिकला–बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति पौराणिक हिंदू धर्म में भी मूर्ति-पूजा का प्रचलन शुरू हुआ। भगवान् विष्णु व उनके अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया। अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। प्रायः भगवान् शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में प्रस्तुत किया गया। लेकिन कई बार उन्हें मानव रूप में भी दिखाया गया। विष्णु की प्रसिद्ध प्रति देवगढ़ दशावतार मंदिर में मिली है। इसमें उन्हें शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए दिखाया गया है। वे कुण्डल, मुकुट व माला आदि पहने हैं। इसके एक ओर शिव तथा दूसरी ओर इन्द्र की प्रतिमाएँ हैं। नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा विराजमान हैं। लक्ष्मी विष्णु के चरण दबा रही हैं। वराह पृथ्वी को प्रलय से बचाने के लिए दाँतों पर उठाए हुए हैं। पृथ्वी को भी नारी रूप में दिखाया गया है। गुप्तकालीन शिव मंदिरों में एक-मुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग मिले हैं।

2. वास्तुकला- वैष्णववाद और शैववाद के अंतर्गत मंदिर वास्तुकला का विकास हुआ। संक्षेप में, शुरुआती मंदिरों के स्थापत्य (वास्तुकला) की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(i) मंदिरों का प्रारंभ गर्भ-गृह (देव मूर्ति का स्थान) के साथ हुआ। ये चौकोर कमरे थे। इनमें एक दरवाजा होता था, जिससे उपासक पूजा के लिए भीतर जाते थे। गर्भ-गृह के द्वार अलंकृत थे।

(ii) धीरे-धीरे गर्भ-गृह के ऊपर एक ऊँचा ढांचा बनाया जाने लगा, जिसे शिखर कहा जाता था।
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(iii) शुरुआती मंदिर ईंटों से बनाए गए साधारण भवन हैं, लेकिन गुप्तकाल तक आते-आते स्मारकीय शैली का विचार उत्पन्न हो चुका था, जो आगामी शताब्दियों में भव्य पाषाण मंदिरों के रूप में अभिव्यक्त हुआ। इनमें ऊँची दीवारें, तोरण, तोरणद्वार और विशाल सभास्थल बनाए गए, यहाँ तक कि जल आपूर्ति का प्रबंध भी ‘किया गया।

(iv) पूरी एक चट्टान को तराशकर मूर्तियों से अलंकृत पूजा-स्थल बनाने की शैली भी विकसित हुई। उदयगिरि का विष्णु मंदिर इसी शैली से बनाया गया। इस संदर्भ में महाबलीपुरम् (महामल्लपुरम्) के मंदिर भी विशेष उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 9.
स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
स्तूप बौद्ध धर्म के अनुयायियों के पूजनीय स्थल हैं। यह क्यों और कैसे बनाए गए, इसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है

1. स्तूप क्यों बनाए गए?-स्तूप का शाब्दिक अर्थ टीला है। ऐसे टीले, जिनमें महात्मा बुद्ध के अवशेषों (जैसे उनकी अस्थियाँ, दाँत, नाखून इत्यादि) या उनके द्वारा प्रयोग हुए सामान को गाड़ दिया गया था, बौद्ध स्तूप कहलाए। ये बौद्धों के लिए पवित्र स्थल थे।

यह संभव है कि स्तूप बनाने की परंपरा बौद्धों से पहले रही हो, फिर भी यह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। इसका कारण वे पवित्र अवशेष थे जो स्तूपों में संजोकर रखे गए थे। इन्हीं के कारण वे पूजनीय स्थल बन गए। महात्मा बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद ने बार-बार आग्रह करके बुद्ध से उनके अवशेषों को संजोकर रखने की अनुमति ले ली थी। बाद में सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से करके उन पर मुख्य शहर में स्तूप बनाने का आदेश दिया। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक सारनाथ, साँची, भरहुत, बौद्ध गया इत्यादि स्थानों पर बड़े-बड़े स्तूप बनाए जा चुके थे। अशोक व कई अन्य शासकों के अतिरिक्त धनी व्यापारियों, शिल्पकारों, श्रेणियों व बौद्ध भिक्षुओं व भिक्षुणियों ने भी स्तूप बनाने के लिए धन दिया।

2. स्तूप कैसे बनाए गए?-प्रारंभिक स्तूप साधारण थे, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ इनकी संरचना जटिल होती गई। इनकी शुरुआत कटोरेनुमा मिट्टी के टीले से हुई। बाद में इस टीले को अंड (Anda) के नाम से पुकारा जाने लगा। अंड के ऊपर बने छज्जे जैसा ढांचा ईश्वर निवास का प्रतीक था। इसे हर्मिका कहा गया। इसी में बौद्ध अथवा अन्य बोधिसत्वों के अवशेष रखे जाते थे। हर्मिका के बीच में एक लकड़ी का मस्तूल लगा होता था। इस पर एक छतरी बनी होती थी। अंड (टीले) के चारों ओर एक वेदिका होती थी। यह पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से पृथक् रखने का प्रतीक थी।

परियोजना कार्य (कोई एक)

(क) इस अध्याय में चर्चित धार्मिक परंपराओं में से क्या कोई परंपरा आपके अड़ोस-पड़ोस में मानी जाती है? आज किन धार्मिक ग्रंथों का प्रयोग किया जाता है? उन्हें कैसे संरक्षित और संप्रेषित किया जाता है? क्या पूजा में मूर्तियों का प्रयोग होता है? यदि हाँ, तो क्या ये मूर्तियाँ इस अध्याय में लिखी गई मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं या अलग हैं? धार्मिक कृत्यों के लिए प्रयुक्त इमारतों की तुलना प्रारंभिक स्तूपों और मंदिरों से कीजिए।

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(ख) इस अध्याय में वर्णित धार्मिक परंपराओं से जुड़े अलग-अलग काल और इलाकों की कम से कम पाँच मूर्तियों और चित्रों की तस्वीरें इकट्ठी कीजिए। उनके शीर्षक हटाकर प्रत्येक तस्वीर दो लोगों को दिखाइए और उन्हें इसके बारे में बताने को कहिए। उनके वर्णनों की तुलना करते हुए अपनी खोज की रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
परियोजना (क) के लिए संकेत :

  • पौराणिक हिंदू धर्म (वैष्णववाद, शैववाद) की परंपरा वर्तमान में हिंदू धर्म के नाम से सर्वाधिक प्रचलन में है-इसमें मूर्ति पूजा है। इन मूर्तियों की तुलना आप अध्याय में वर्णित मूर्तियों से कर सकते हैं। मंदिरों की वास्तुकला की तुलना कर सकते हैं।
  • जैन मंदिर भी प्रायः मिल जाते हैं। इनकी मूर्तियों और वास्तुकला की तुलना की जा सकती है।
  • कुरुक्षेत्र में प्राचीन बौद्ध स्तूप के अवशेष भी हैं।

परियोजना (ख) के लिए संकेत :
इसके लिए विद्यार्थी स्तूप, साँची व अमरावती से प्राप्त मूर्तियों के चित्रों तथा वैष्णववाद व शैववाद से जुड़े विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र ले सकते हैं। जैन धर्म से संबंधित चित्रों का उपयोग भी कर सकते हैं। इस संदर्भ में इंटरनेट से भी चित्र ‘डाऊनलोड’ करके उपयोग में लाए जा सकते हैं।

विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास HBSE 12th Class History Notes

→ श्रमण-शिक्षक और विचारक जो स्थान-स्थान पर घूमकर अपनी विचारधाराओं से लोगों को अवगत करवाते थे तथा तर्क-वितर्क करते थे।

→ कुटागारशालाएँ–’नुकीली छत वाली झोंपड़ी’, जहाँ घुमक्कड़ श्रमण आकर ठहरते थे और विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद करते थे।

→ स्तूप-ढेर या टीला जहाँ महात्मा बुद्ध या अन्य किसी पवित्र भिक्षु के अवशेष (दाँत, अस्थियाँ, नाखून) आदि रखे जाते थे।

→ संतचरित्र-किसी संत या धार्मिक नेता की जीवनी जिसमें उस संत की उपलब्धियों का गुणगान होता है।

→ चैत्य ऐसे टीले जहाँ शवदाह के बाद शरीर के कुछ अवशेष सुरक्षित रख दिए जाते थे।

→ थेरवाद-महायान परंपरा के लोग दूसरी बौद्ध परंपरा के लोगों को हीनयान के अनुयायी कहते थे, लेकिन ये लोग (हीनयान के अनुयायी) अपने आपको थेरवादी कहते थे। इसका मतलब है वे लोग जो पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहते थे) के बनाए रास्ते पर चलने वाले हैं।

→ तीर्थंकर-जैन परंपरा के अनुसार ऐसे महापुरुष जो लोगों को संसार रूपी सागर से पार उतार सकें।

→ निर्ग्रन्थ-बिना ग्रन्थि के अर्थात् बंधन मुक्त। जैन परंपरा में जैन मुनि और संन्यासी को निर्ग्रन्थ कहा गया।

→ वैष्णव-विष्णु की उपासना करने वाले।

→ शैव-शिव के उपासक।

→ महाभिनिष्क्रिमण-महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग की घटना को बौद्ध मत में महाभिनिष्क्रिमण कहा गया।

→ महापरिनिर्वाण-महात्मा बुद्ध के देहावसान को बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण कहा गया।

→ उपसंपदा-बौद्ध संघ में प्रवेश करना।

→ बोधिसत्त बौद्ध धर्म के अनुयायी जो अपने सत्त कर्मों से पुण्य कमाते थे।

समकालीन बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में 60 से भी अधिक नए संप्रदाय उभरकर आए। इन संप्रदायों के संन्यासी घूम-घूमकर अपने विचारों का जन-समुदाय में प्रचार करते थे और साथ ही विरोधी मत वालों के साथ वाद-विवाद भी करते थे। उनके विचार मौखिक व लिखित परंपराओं में संगृहीत हुए। कलाकारों ने उन्हें अपनी कला-कृतियों में अभिव्यक्ति दी। इन संन्यासी मनीषियों में महावीर और महात्मा बुद्ध सबसे विख्यात हुए।

→ जैन और बौद्ध धर्मों का उदय उत्तर वैदिक काल (लगभग 1000 ई०पू० से 600 ई० तक) के दौरान विकसित हुई परिस्थितियों से हुआ। इस अवधि में आर्थिक स्तर पर कृषि की नई व्यवस्था विकसित हुई, सामाजिक विषमता में वृद्धि हुई। साथ ही धर्म में कई तरह की बुराइयाँ व दिखावा बढ़ चुका था। इस दौरान नए राजनीतिक परिवर्तन भी हुए। विशेषतः राजतन्त्र प्रणाली का विस्तार हुआ। सामूहिक तौर पर यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने पूर्वोत्तर भारत में नए धार्मिक संप्रदायों को जन्म दिया।

→ उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में बलि व यज्ञादि कर्मकांडों के खिलाफ जबरदस्त प्रतिक्रिया शुरू हुई। विशेष तौर पर धर्म व दर्शन पर नए प्रश्न उठ रहे थे। उपनिषदों में नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। इन सिद्धांतों में कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष थे। लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना तथा पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे। परंतु उपनिषदों का गूढ़ ज्ञान सामान्य जनता की समझ से बाहर था। इस वैदिक परंपरा को नकारने वाले दार्शनिक सत्य के स्वरूप पर बहस कर रहे थे। सत्य, अहिंसा, तपस्या, पुनर्जन्म, कर्मफल तथा आत्मा-परमात्मा इत्यादि विषयों पर वाद-विवाद और चर्चाएँ कर रहे थे। वे अपनी-अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर रहे थे। इनमें से यदि कोई अपने प्रतिद्वन्द्वी को अपना ज्ञान समझाने में सफल हो जाता था तो वह प्रतिद्वन्द्वी अपने अनुयायियों के साथ उसका शिष्य बन जाता था। इनमें से कई मनीषियों ने ब्राह्मणवादी समझ से अपनी अलग समझ प्रस्तुत की।

→ ‘जैन’ शब्द संस्कृत के ‘जिन्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘विजेता’ अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो। जैन परंपरा के अनुसार महावीर स्वामी से पहले 23 तीर्थंकर (आचाय) हो चुके थे और महावीर स्वामी 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ है ऐसा महापुरुष जो लोगों (स्त्री व पुरुष दोनों) को संसार रूपी सागर से पार उतार सके।
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→ जैन विचारधारा को व्यापक बनाने का श्रेय महात्मा महावीर स्वामी का है। इसलिए उन्हें इस धर्म का वास्तविक संस्थापक .. भी कहा जाता है। उनका मूल नाम वर्धमान था एवं जन्म वैशाली के पास कुड़ीग्राम में 540 ई० पू० में हुआ। उनके पिता सिद्धार्थ जातृक क्षत्रियगण के मुखिया थे तथा माता त्रिशला लिच्छवी शासक चेटक की बहन थी। महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोधा तथा पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। 30 वर्ष की आयु में इन्होंने अपने बड़े भाई नंदीवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। 12/2 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें केवल्य अथवा परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। तब वह केवलीन या केवली कहलाए। अपनी इंद्रियों पर विजय पा लेने के कारण उन्हें ‘जिन’ अथवा जैन कहा गया। वे महावीर (अतुल पराक्रमी) भी कहलाए। .

→ बौद्ध धर्म का प्रभाव जैन धर्म से भी अधिक व्यापक रहा। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध उस युग के सबसे प्रभावशाली शिक्षकों में से एक थे। महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन शाक्यगण के मुखिया और कपिलवस्तु के शासक थे। उनकी माता माया कोलियागण से थीं। नेपाल की तराई के लुम्बिनी वन में बुद्ध का जन्म हुआ। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। माता का निधन हो जाने पर सिद्धार्थ का पालन-पोषण सौतेली माँ गौतमी ने किया, इसी कारण ये गौतम कहलाए।

→ बौद्ध दर्शन में संसार की समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। ये प्रवाह के रूप में स्थायी दिखती हैं; जैसे किनारे से देखने वाले को बहता हुआ पानी ठहरा हुआ दिखता है। उनके अनुसार किसी वस्तु या जीव में कोई आत्मा नहीं है। सब कुछ हर क्षण बदल रहा है। कुछ भी स्थायी एवं शाश्वत् नहीं है।

→ महात्मा बुद्ध का निष्कर्ष था कि मनुष्य अष्ट मार्ग का अनुसरण करके पुरोहितों के फेर से व मिथ्या आडम्बरों से बच जाएगा तथा अपना लक्ष्य (मुक्ति) भी प्राप्त करेगा। उन्होंने निर्वाण के लिए व्यक्ति केंद्रित प्रयास पर बल दिया जिसमें गुरु की आवश्यकता नहीं थी। अपने शिष्यों के लिए उनका अंतिम संदेश आत्मज्ञान का था : “तुम सब अपने लिए स्वयं ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें स्वयं ही अपनी मुक्ति का रास्ता खोजना है।”

→ बुद्ध के मतानुसार जन्म व मृत्यु का चक्र आत्मा से नहीं, बल्कि अहंकार (अहम्) के कारण चलता है अर्थात् पुनर्जन्म आत्मा का नहीं, बल्कि अहंकार का होता है। यदि इस पर विजय पा ली जाए तो मनुष्य को मुक्ति (निर्वाण) मिल जाएगी। बौद्ध चिंतन में आत्मा व परमात्मा जैसे विषय अप्रासंगिक हैं।

→ बौद्ध संघ की कार्य-प्रणाली गणों की परंपरा पर आधारित थी। इस प्रणाली में जनवाद अधिक था। संघ के सदस्य परस्पर बातचीत से सहमति की ओर बढ़ते थे। सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यदि किसी विषय पर सहमति न बन पाती तो मतदान करके बहुमत से निर्णय लिया जाता जो सभी को स्वीकार्य होता। अपराधी अथवा नियमों की उल्लंघना करने वाले भिक्षु को जो दण्ड मिलता, वह उसे अनिवार्य तौर पर भोगना पड़ता था। कालान्तर में भिक्षुओं में तीखे मतभेद पैदा हो गए, जिनके समाधान के लिए बौद्धों की चार महासभाएँ हुईं।

→ बहुत-से लोग प्राचीन मूर्तियों को पाने के लिए लालायित रहते हैं, क्योंकि वे खूबसूरत और अनुपम होती हैं। परंतु कला इतिहासकार के लिए वे ज्ञान का स्रोत होती हैं। वे उनका गहन अध्ययन करके इतिहास की कुछ लुप्त कड़ियों को जोड़ने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह तभी संभव हो पाता है जब इतिहासकार को अन्य स्रोतों (साहित्य) का भी व्यापक ज्ञान हो। उदाहरण के लिए, बौद्ध स्तूपों पर उत्कीर्ण की हुई मूर्तियों का ऐतिहासिक अर्थ वही कर सकता है जिसने बौद्ध ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन कर रखा हो। क्योंकि बहुत बार साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती हैं।
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→ अमरावती के स्तूप से प्राप्त एक मूर्ति को देखें जिसमें एक दूसरी जातक कथा को प्रदर्शित किया गया है। यह बुद्ध द्वारा अपनी विनम्रता (करुणा) से एक मतवाले हाथी (गजराज) को वश में किए जाने की है। दृश्य कुछ यूँ है महात्मा बुद्ध की ओर एक मतवाला हाथी आगे बढ़ रहा है; स्त्री-पुरुष सब भयभीत हैं, पुरुषों के हाथ खड़े हैं और औरतें भय से उनके साथ चिपकी हुई हैं। तभी बुद्ध विनम्रता की मुद्रा में हाथी की ओर बढ़ते हैं और हाथी नतमस्तक हो जाता है। इस घटना को लोग अपने घरों के झरोखों से भी देख रहे हैं।

→ कालान्तर में बौद्ध धर्म दो शाखाओं में विभाजित हो गया। ये शाखाएँ थीं-महायान और हीनयान। इनका शाब्दिक अर्थ है क्रमशः ‘बड़ा जहाज’ और ‘छोटा जहाज’। अर्थात् जो अनुयायी बहुमत में थे, उन्होंने अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए स्वयं को महायान कहा और अल्पसंख्यकों को हीनयान के नाम से पुकारा। लेकिन पुरातन परंपरा के अनुयायियों ने स्वयं को थेरवादी माना जिसका अर्थ था कि वे पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहा जाता था) के अनुयायी हैं।
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पौराणिक हिंदू धर्म में भी बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति मुक्तिदाता की कल्पना उभरकर आई। विशेषतया हिंदू धर्म में ‘मुक्तिदाता’ वाली परिकल्पना में वैष्णव और शैव परंपराएँ शामिल हैं। हिंदू धर्म की वैष्णव परंपरा में विष्णु को परमेश्वर माना
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गया है, जबकि शैव परंपरा में शिव परमेश्वर है अर्थात् दोनों में एक विशेष देवता की आराधना को महत्त्व दिया गया। उल्लेखनीय है कि इस पूजा पद्धति में उपासना और परम देवता के बीच का संबंध समर्पण और प्रेम का स्वीकारा गया। इसलिए यह भक्ति कहलाया।
काल-रेखा

कालघटना का विवरण
प्राचीन इमारतों व मूर्तियों की खोज व संरक्षण

(आधुनिक काल)

1796 ईअमरावती स्तूप के अवशेष मिले
1814 ई०इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता की स्थापना
1818 ई०साँची के स्तूप की खोज
1834 ई०रामराजा द्वारा रचित एसेज़ ऑन द आकिटैक्वर ऑफ़ द हिंदूज का प्रकाशन; कनिंघम ने सारनाथ के स्तूप का सर्वेक्षण किया।
1835-42 ई०जेम्स फर्गुसन ने भारत के महत्त्वपूर्ण प्राचीन महत्त्व के स्थलों का सर्वेक्षण किया।
1851 ईमद्रास में गवर्नमेंट म्यूज़ियम की स्थापना हुई।
1854 ई०गुंदूर के कमिश्नर एलियट ने अमरावती के स्तूप स्थल की यात्रा की; अलेक्जैंडर कनिंघम ने भिलसा टोप्स नामक पुस्तक लिखी। यह साँची पर सबसे प्रारंभिक रचनाओं में से एक है।
1876 ई०एच०डी० बारस्टो ने शाहजहाँ बेगम की आत्मकथा ताज-उल-इकबाल तारीख भोपाल (भोपाल का इतिहास) का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।
1878 ई०राजेन्द्र लाल मित्र द्वारा लिखित बुद्ध गया : द हेरिटेज़ ऑफ़ शाक्य मुनि का प्रकाशन हुआ।
1880 ई०प्राचीन भवनों का संग्रहाध्यक्ष एच०एच०कोल को बनाया गया।
1888 ई०ट्रेजरर-ट्रोव एक्ट पास हुआ जिसके अनुसार सरकार पुरातात्विक महत्त्व की किसी भी चीज को अपने अधिकार में ले सकती थी।
1914 ई०जॉन मार्शल और अल्फ्रेड फूसे की रचना ‘द मॉन्युमेंट्स ऑफ़ साँची  का प्रकाशन हुआ।
1923 ई०जॉन मार्शल द्वारा तैयार कंजर्वेशन मैनुअल का प्रकाशन।
1955 ई०भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की स्थापना।
1989 ई०साँची को एक ‘वर्ल्ड हेरिटेज़ साइट’ घोषित किया गया।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

HBSE 12th Class History बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्त्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर:
पितृवंशिकता वह पारिवारिक परंपरा है जिसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती है। इसमें परिवार की संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र ही होते हैं। राजाओं के संदर्भ में सिंहासन के उत्तराधिकारी पुत्र ही थे।

ब्राह्मण ग्रंथों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पितृवंशिकता का ‘आदर्श’ स्थापित हो चुका था। ऋग्वेद में भी इन्द्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई है। विशिष्ट उच्च परिवारों में पितृवंशिकता और भी अधिक महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उनमें भूमि और सत्ता के स्वामित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता था। महाभारत का युद्ध सत्ता और साधनों के प्रश्न को लेकर ही हुआ था। इस युद्ध में पांडव और कौरव दोनों चचेरे परिवार थे। जीत पांडवों की हुई तो ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया। इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। पितृवंशिकता के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। जैसे कि पुत्र के न होने पर भाई या फिर चचेरा भाई राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेता था। कुछ विशेष परिस्थितियों में औरतें भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।

प्रश्न 2.
क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज की रक्षा का दायित्व और शासक बनने का अधिकार क्षत्रियों के पास था। परंतु हम देखते हैं कि आरंभिक राज्यों में सभी शासक क्षत्रिय वंश से नहीं थे। बहुत-से गैर-क्षत्रिय शासक वंशों का भी पता चलता है। उदाहरण के लिए ह्यूनसांग के समय उज्जैन व महेश्वरपुर के शासक ब्राह्मण थे। चन्द्रगुप्त मौर्य को भी ब्राह्मण ग्रंथों (पुराणों) में शूद्र बताया गया जबकि बौद्ध ग्रंथ उसे क्षत्रिय मानते हैं। मौर्यों के बाद शुंग व कण्व ब्राह्मण शासक बने। गुप्तवंश के शासक तथा हर्षवर्धन भी संभवतः वैश्य थे। इनके अतिरिक्त प्राचीन काल में बाहर से आने वाले बहुत-से आक्रमणकारी शासक (शक, कुषाण इत्यादि) भी क्षत्रिय, नहीं थे। दक्कन भारत के सातवाहन शासक भी स्वयं को ब्राह्मण मानते थे। अतः स्पष्ट है कि भारत में आरम्भिक राज्यों में सभी शासक संभवतः क्षत्रिय नहीं थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 3.
द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए तथा उनके अंतर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
महाभारत के आदिपर्व में द्रोण व हिडिम्बा की तथा जातक ग्रंथ में बोधिसत्त्व मातंग की कथा मिलती है। तीनों कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना बड़ी रुचिकर है। भारतीय संदर्भ में धर्म की व्याख्या वर्ण-कर्त्तव्य पालन के संदर्भ में की गई है। ब्राह्मण ग्रंथों में वर्ण-धर्म के पालन पर अत्यधिक बल दिया गया है। उसे ‘उचित’ सामाजिक कर्त्तव्य बताया गया है।

द्रोण की कथा में एकलव्य निषाद जाति से था जिसे वर्ण-धर्म के अनुसार धनुर्विद्या सीखने का अधिकार नहीं था। इसलिए ने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया था। फिर भी एकलव्य ने यह विद्या अपनी लगन से प्राप्त की। गुरु द्रोण ने गुरु दक्षिणा में दायें हाथ का अंगूठा लिया। स्पष्ट है कि इस कथा के माध्यम से निषादों को धर्म का संदेश दिया जा रहा था। दूसरी कथा हिडिम्बा-भीम की है जिसमें भीम ने वर्ण-धर्म का पालन करते हए वनवासी लड़की (हिडिम्बा) के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था। लेकिन इसमें भी प्रचलित परंपरा से हटने का आभास मिलता है जब युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीम (उच्च कुल) को निम्न कुल से संबंधित हिडिम्बा के साथ विवाह की अनुमति दे दी थी। – तीसरी कथा मातंग की है जिसका जन्म चाण्डाल के घर में हुआ था।

जिसे देखकर मांगलिक नामक व्यापारी की बेटी (दिथ्थ) चिल्लाने लगी कि उसने ‘अशुभ’ देख लिया है। मातंग को मारा पीटा गया परंतु उसने हार मानने की बजाय विरोध स्वरूप ‘मरण व्रत’ धारण कर लिया। वस्तुतः यह कथा ब्राह्माणिक धर्म परंपरा के विरोध का उदाहरण है। यह विरोध मातंग के इन शब्दों में स्पष्ट झलकता है, “जिन्हें अपने जन्म पर गर्व है पर अज्ञानी हैं, वे भेंट के पात्र नहीं हैं। इसके विपरीत जो दोषमुक्त हैं, वे भेंट के योग्य हैं।” अतः तीनों कथाओं में वर्ण-धर्म के पालन करने पर बल दिया गया है, परंतु ाथ ही इस धर्म के विरुद्ध विरोध का स्वर स्पष्ट झलकता है।

प्रश्न 4.
किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो ‘पुरुषसूक्त’ पर आधारित था।
उत्तर:
ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ पर आधारित सामाजिक विषमताओं की व्याख्या मिलती है। इस व्याख्या में वर्ण व जाति को ईश्वरीय बताया गया है। इसमें सामाजिक भेदभाव निहित था। बौद्ध ग्रंथों में इसके विपरीत सामाजिक विषमताओं (भेदभावों) को ईश्वर की देन या पुनर्जन्म का परिणाम नहीं माना गया है। उनके अनुसार ये भेदभाव सदैव से नहीं थे। प्रारम्भ में मानव सहित सभी जीव शान्ति की अवस्था में रहते थे। इनमें कोई मेरा-तेरा नहीं था, न कोई अमीर व न कोई गरीब था। संग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं थी। यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी जब मानव में लालसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ पैदा हुईं। ऐसी स्थिति में सामाजिक भेदभावों का उदय हुआ।

सामाजिक भेदभावों को दूर करने के लिए बौद्ध ग्रंथों में एक सामाजिक अनुबंध की व्याख्या मिलती है, जिसके अनुसार सब लोगों ने मिलकर राजपद स्थापित किया। ऐसे व्यक्ति (राजा) को यह अधिकार दिया कि वह अपराधी को सजा दे। इस प्रकार बौद्ध व्याख्या में राजपद ईश्वरीय नहीं माना गया, जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथ मानते हैं, बल्कि इसे एक सामाजिक समझौता (अनुबंध) माना गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर दूत संजय को संबोधित कर रहे हैं :
संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हूँ….. मैं कृपाचार्य के चरण स्पर्श करता हूँ….. (और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा (धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएँ देता हूँ, … मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं का अभिनंदन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र और पौत्र हैं…. सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता और माता के सदृश हैं…. मैं उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती हैं। जो हमारी पत्नियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, “मैं आशा करता हूँ कि वे सुरक्षित हैं”….. मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों की माताएँ हैं, अभिनंदन कीजिएगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा….. सुंदर, सुगंधित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा। दासियों और उनकी संतानों तथा वृद्ध, विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा….

इस सूची को बनाने के आधारों की पहचान कीजिए-उम्र, लिंग, भेद व बंधुत्व के संदर्भ में। क्या कोई अन्य आधार भी हैं? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर क्यों रखा गया है?
उत्तर:
इस अवतरण में ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर आयु, लिंग-भेद और बंधुत्व के अतिरिक्त समाज में स्थिति, ज्ञान के आधार पर संबोधन करते हैं। संबोधन की इस सूची में वर्ण व्यवस्था द्वारा स्थापित मानदंडों का विशेष ध्यान रखा गया है। उदाहरण के लिए सबसे पहले ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित का अभिवादन किया गया है। गुरु द्रोण व कृपाचार्य को चरण स्पर्श कहा गया है फिर कुरु वंश के प्रमुख भीष्म पितामह और फिर धृतराष्ट्र के प्रति सम्मान व्यक्त किया गया है। दुर्योधन और अन्य कुरु योद्धाओं को शुभकामनाएँ दी गई हैं। तत्पश्चात् महामति विदुर (दासीपुत्र) का आदरपूर्वक अभिवादन किया गया है। इसके बाद महिलाओं को सूची में शामिल किया गया है जो पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को दर्शाता है। इसके बाद गणिकाओं और सबसे अंत में वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर स्थित दास-दासियों को शामिल किया गया है। इनके साथ विकलांग व असहायों को रखा गया है। स्पष्ट है कि सामाजिक स्थिति के अनुरूप बनाए गए मानदंडों के कारण ही इस सूची में विभिन्न लोगों को स्थान दिया गया है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 6.
भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मौरिस विंटरविट्ज़ ने महाभारत के बारे में लिखा था कि : चूँकि महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है………….. बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं …. (वह) भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।” चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत एक विस्तृत महाकाव्य है। इसकी मूल कथा कौरवों और पांडवों के बीच सत्ता और साधनों को लेकर लड़े गए युद्ध से संबंधित है। चूंकि यह एक गतिशील ग्रंथ रहा है इसलिए इसमें इस मूल कथा के साथ-साथ अन्य कथाएँ, मिथक और घटनाक्रम जुड़ते गए। इसमें बहुत-से उपदेश भी हैं। विद्वानों का विचार है कि लगभग 1000 वर्षों (500 ई→पू→ से 500 ई→) में यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ है। शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक थे और जयस यानी विजय संबंधी ग्रंथ कहलाता था। कालांतर में यह लगभग 24000 श्लोकों के साथ भारत नाम से जाना गया। अन्ततः यह महाभारत कहलाया। अब इसमें लगभग एक लाख श्लोक हैं।

चूँकि महाभारत दीर्घ अवधि में रचा और लिखा गया है, इसलिए इसमें भारतीय समाज के अनेक पक्ष शामिल होते गए। आर्यों के उत्तर भारत में विस्तार के बाद मध्य और दक्षिणी भारत में उनका फैलाव हुआ तो उनके इस ग्रंथ में भी अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक पक्ष जुड़ते गए। यह ग्रंथ मात्र आर्यों का नहीं रह गया। आर्य लोगों का भारत में बसने वाले अन्य जन-जातियों और कबीलों से समायोजन हुआ, तो इन लोगों के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष भी इसमें जुड़ते गए। इस प्रकार मौरिस विन्टरविट्ज़ का यह निष्कर्ष उचित है कि ‘महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।

उनका यह वाक्य और भी सारगर्भित है कि यह ग्रंथ ‘भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।’ इसका अर्थ है कि इस ग्रंथ में मात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का ही वर्णन नहीं है बल्कि नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और गहन दार्शनिक विवेचन भी है। उदाहरण के लिए इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण भाग श्रीमद्भगवद् गीता को लें जो संपूर्ण भारतीय दर्शन का निचोड़ है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के तीनों मार्गों-ज्ञान, कर्म और भक्ति का अद्भुत समन्वय मिलता है।

भारतीय समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता वर्ण व जाति व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था के नैतिक और सामाजिक आदर्शों को महाभारत ग्रंथ ने विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। यहाँ तक कि उपदेशों के माध्यम से भी उन्हें व्यक्त किया है। उदाहरण के लिए एकलव्यगाथा, जिसमें वर्ण-धर्म की पालना का उपदेश दिया गया है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि महाभारत में भारतीयों के सामाजिक जीवन का सार मिलता है। इसलिए यह संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 7.
क्या यह संभव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत के रचनाकार के विषय में भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। जनश्रुतियों के अनुसार.महर्षि व्यास ने इस ग्रंथ को श्रीगणेश जी से लिखवाया था। परंतु आधुनिक विद्वानों का विचार है कि इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं हुई। वर्तमान में इस ग्रंथ में एक लाख श्लोक हैं लेकिन शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक ही थे। दीर्घकाल में रचे गए इन श्लोकों का रचयिता कोई एक लेखक नहीं हो सकता। इतिहासकार मानते हैं कि इसकी मूल गाथा के रचयिता भाट सारथी थे, जिन्हें सूत कहा जाता था। यह ‘सूत’ क्षत्रिय योद्धाओं के साथ रणक्षेत्र में जाते थे और उनकी विजयगाथाएँ रचते थे। विजयों का बखान करने वाली यह कथा परंपरा मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती रही। इतिहासकारों का अनुमान है कि पाँचवीं शताब्दी ई→पू→ से इस कथा परंपरा को ब्राह्मण लेखकों ने अपनाकर इसे और विस्तार दिया। साथ ही इसे लिखित रूप भी दिया। यही वह समय था जब उत्तर भारत में क्षेत्रीय राज्यों और राजतंत्रों का उदय हो रहा था। कुरु और पांचाल, जो महाभारत कथा के केंद्र बिंदु हैं, भी छोटे सरदारी राज्यों से बड़े राजतंत्रों के रूप में उभर रहे थे। संभवतः इन्हीं नई परिस्थितियों में महाभारत की कथा में कुछ नए अंश शामिल हुए। यह भी संभव है कि नए राजा अपने इतिहास को नियमित रूप से लिखवाना चाहते हों।

जैसे-जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती गईं, महाभारत की मूल गाथा में उनके अनुरूप नए अंश .. जुड़ते गए। महाभारत ज्ञान का एक अपूर्व खजाना बनता गया। धर्म, दर्शन और उपदेश इत्यादि अंश मूल कथा के साथ जुड़कर महाभारत एक विशाल ग्रंथ बनता गया। इस ग्रंथ की रचना का एक और महत्त्वपूर्ण चरण लगभग 200 ई→पू→ से 200 ईसवी के बीच शुरू हुआ। यह वही चरण था जिसमें आराध्य देव के रूप में विष्णु की महत्ता बढ़ रही थी। श्रीकृष्ण, जो इस महाकाव्य के महानायकों में से एक थे, को भगवान श्री विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया। इस प्रकार लगभग 1000 वर्ष से भी अधिक अवधि में यह ग्रंथ अपना वृहत् रूप धारण कर पाया। इससे यह भी स्पष्ट है कि इसकी रचना करने में एक से अधिक विद्वानों का योगदान है।

प्रश्न 8.
आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों की विषमताएँ कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
आरंभिक भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव (विषमताएँ) था। ब्राह्मण ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि समाज में पितृवंशिकता का ‘आदर्श’ स्थापित हो चुका था। इसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि की ओर चलती थी। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में औरत के प्रति सम्मान तो झलकता है, फिर भी पुरुषों को समाज में अधिक महत्त्व प्राप्त था। ऋग्वेद में पुत्र-कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषतः इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि ‘मैं इसे (बेटी) यहाँ से यानी पिता के घर से मुक्त करता हूँ किंतु वहाँ (पति के घर) से नहीं। मैंने इसे वहाँ मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य इसे प्राप्त हो।

शासक वर्गों में सिंहासन के उत्तराधिकारी भी पुत्र थे। उपनिषदों में पिता के आध्यात्मिक पुण्य का उत्तराधिकारी पुत्र को बताया गया अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति किसी परिवार के लिए धर्म के अनुसार भी आवश्यक हो गई। फलतः सामान्य लोग भी इसी परंपरा से जुड़ते गए। पितृवंशिक परंपरा समाज की एक आदर्श पंरपरा बन गई। महाभारत के युद्ध में भी पांडवों के विजयी होने के उपरांत युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया। इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। वस्तुतः इस आदर्श के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही कुछ महिलाएँ सत्ता की उत्तराधिकारी बनी हैं। जैसे कि प्रभावती गुप्त का शासिका बनने का उदाहरण मिलता है।

विवाह प्रणाली में भी स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव स्पष्ट झलकता है। गोत्र-बहिर्विवाह प्रणाली में पिता अपनी पुत्री का विवाह एक ‘योग्य’ युवक से कन्यादान संस्कार को संपन्न करता हुआ करता था। ‘कन्यादान’ का अर्थ कहीं-न-कहीं चेतन या अचेतन रूप में स्त्री को वस्तुसम मान लेना रहा है। प्रायः छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। विशेषतः ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में और भी खराब थी। उच्च या शासक परिवारों में बहु-पत्नी विवाह का प्रचलन था।

अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते हैं। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई। परिवार में औरत का अधिकार केवल उसे उपहार से प्राप्त धन (स्त्रीधन) पर ही था। अन्य किसी तरीके से अर्जित धन पर औरत का स्वामित्व नहीं था। कुलीन परिवारों में भी, जहाँ साधनों की कमी नहीं थी, औरत की स्थिति गौण ही रही, बल्कि पुरुष नियंत्रण ऐसे परिवारों में और भी अधिक होता था। सातवाहन (दक्कन में) शासकों की सूची से आभास मिलता है कि उनमें पिता की अपेक्षा माताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि शासकों को मातृनाम से (जैसे गौतमी-पुत्त सिरी-सातकणि) जाना गया। परंतु हमें यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि सातवाहन शासकों में भी राजसिंहासन की उत्तराधिकारी महिलाएँ नहीं बल्कि पुरुष ही बनें।

प्रश्न 9.
उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर:
बंधुत्व और विवाह संबंधी नियम ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं। इन ग्रंथों के लेखकों का यह विश्वास था कि इन नियमों के निर्धारण में उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक (सर्वत्र अनुसरण होने वाला) था। इन नियमों का पालन सभी स्थानों पर सभी के द्वारा होना चाहिए परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं था। व्यवहार में तो जब इन नियमों की उल्लंघना होने लगी थी तभी तो ब्राह्मण विधि ग्रंथों (जैसे कि मनुस्मृति, नारदस्मृति या अन्य ग्रंथ) की जरूरत महसूस हुई और उनकी रचना की गई। इन ग्रंथों में बंधुत्व व विवाह संबंधी नियमों की उल्लंघना करने वालों के लिए दंड का विधान बताया गया था।

भारत एक उपमहाद्वीप है। इसके विशाल भू-भाग में अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान थीं। सामाजिक संबंधों में अनेक जटिलताएँ थीं। संचार के साधन अविकसित थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना आसान नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में ब्राह्मणीय नियम सार्वभौमिक नहीं बन सकते थे। ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार चचेरे, मौसेरे व ममेरे आदि भाई-बहनों में रक्त संबंध होने के कारण विवाह वर्जित था। परंतु यह नियम दक्षिण भारत के अनेक समुदायों में प्रचलित नहीं था। उत्तर भारत में भी सर्वत्र रूप से इनका अनुसरण नहीं होता था। आश्वलायन गृहसूत्र में विवाह के आठ प्रकारों के बारे में पता चलता है। स्पष्ट है कि विवाह के नियम एक जैसे नहीं थे। इन विवाहों में से पहले चार विवाहों (ब्रह्म, देव, आर्ष व प्रजापत्य) को ही उत्तम माना गया। उन्हें धर्मानुकूल और आदर्श बताया गया। जबकि असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को अच्छा नहीं माना गया, परंतु ये प्रचलन में तो थे। यह इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणीय नियमों से बाहर विवाह प्रथाएँ अस्तित्व में थीं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
मानचित्र को देखकर कुरु-पांचाल क्षेत्र के पास स्थित महाजनपदों और नगरों की सूची बनाइए।
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उत्तर:
संकेत

  • महाजनपदों के नाम–गांधार, कंबोज, कुरु, शूरसेन, मत्स्य, अवन्ती, चेदी वत्स, अश्मक, मगध, अंग, लिच्छवी, शाक्य, पांचाल, मल्ल, कोशांबी।
  • नगरों के नाम हस्तिनापुर, मथुरा, विराट, उज्जैन, अयोध्या, कपिलवस्तु, पावा, वैशाली, कुशीनगर, सारनाथ, वाराणसी, पाटलिपुत्र, श्रावस्ती।

परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
अन्य भाषाओं में महाभारत की पुनर्व्याख्या के बारे में जानिए। इस अध्याय में वर्णित महाभारत के किन्हीं दो प्रसंगों का इन भिन्न भाषा वाले ग्रंथों में किस तरह निरूपण हुआ है उनकी चर्चा कीजिए। जो भी समानता और विभिन्नता आप इन वृत्तांत में देखते हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वयं अध्ययन करके निष्कर्ष निकालें।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 12.
कल्पना कीजिए कि आप एक लेखक हैं और एकलव्य की कथा को अपने दृष्टिकोण से लिखिए।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं सामाजिक स्थितियों का गहन अध्ययन करते हुए एकलव्य कथा को अपने दृष्टिकोण से लिखें।

बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज HBSE 12th Class History Notes

→ बहिर्विवाह किसी समूह से बाहर विवाह; जैसे कि गोत्र-बहिर्विवाह, ग्राम-बहिर्विवाह या फिर सपिंड-बहिर्विवाह।

→ अंतर्विवाह-अपने ही वर्ण, जाति, जनजाति में विवाह करना। धर्मशास्त्रों में अपने वर्ण अथवा जाति में ही विवाह पर बल दिया गया है।

→ सपिंड-बहिर्विवाह-स्मृतियों में एक ही पूर्वज को पिंडदान करने वाले तथा एक ही माता-पिता से उत्पन्न संतानों में विवाह निषेध बताया गया है। उन्हें ऐसे समूह से बाहर विवाह पर जोर दिया गया, जिन्हें सपिंड-बहिर्विवाह कहा गया।

अनुलोम विवाह-ऐसा अंतर्जातीय विवाह, जिसमें पुरुष उच्च वर्ण अथवा जाति का होता था, जबकि स्त्री निम्न वर्ण या जाति की होती थी।

→ प्रतिलोम विवाह ऐसा अंतर्जातीय विवाह जिसमें स्त्री उच्च वर्ण या जाति से होती थी जबकि पुरुष निम्न वर्ण या जाति से होता था।

→ पितृसत्तात्मक-ऐसे परिवार जिनमें वंश-परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती हो।

→ मातृसत्तात्मक-ऐसे परिवार जिनमें वंश-परंपरा माँ से जुड़ी हो। इसमें लड़की का महत्त्व अधिक होता है।

→ बांधव समूह भाई-बंधुओं का एक बड़ा समूह जिसे समाज विज्ञान की भाषा में जाति समूह (Kinfolk) कहा गया है।

→ बहु-पत्नी प्रथा-एक पुरुष द्वारा एक से अधिक पत्नियाँ रखने की प्रथा।

→ धर्मशास्त्र-इनमें धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और उन पर लिखी गई टीकाएं शामिल हैं। ये मुख्यतः प्राचीन भारत के सामाजिक कानूनों के ग्रंथ हैं।

→ वर्ण–’वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वरी’ धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है वरण (चयन) करना। कुछ विद्वान वर्ण का अर्थ ‘रंग’ मानते हैं।

→ समालोचनात्मक कार्य संस्कृत साहित्य के संदर्भ में समालोचनात्मक कार्य मूलकथा को खोजने का प्रयास होता है।

→ बहुपति प्रथा-एक स्त्री के एक से अधिक पति होना।

→ गोत्र-ऐसा समूह जो स्वयं को एक ही पूर्वज की संतान होने का दावा करता है।

→ श्रेणी-गिल्ड अथवा संगठन को श्रेणी कहा गया है। प्राचीन भारत में प्रायः शिल्पकार और व्यापारियों की श्रेणियाँ होती थीं।

→ स्त्रीधन-एक स्त्री को विवाह के समय पिता, पति, भाई इत्यादि से प्राप्त होने वाले उपहार अथवा भेंट। इन पर स्त्री का निजी अधिकार माना जाता था।

→ महाकाव्य-ऐसा विशाल काव्य-ग्रंथ जो किसी देश अथवा संप्रदाय के जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालता हो।

प्रस्तुत अध्याय में लगभग एक हजार वर्षों (लगभग 600 ई→ पू→ से 600 ईसवी) के दौरान भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों और सामाजिक संस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। हम जानते हैं कि वैदिक युग में पशुचारी कबीलाई समाज धीरे-धीरे रूपांतरित होता हुआ कृषक समाज में बदला। खेती के विकास के साथ-साथ दस्तकारियों की संख्या भी बढ़ती गई। समय बीतने के साथ अपने-अपने व्यवसाय में दक्ष कारीगरों के विभिन्न सामाजिक समूह उभरकर सामने आए। पुश्तैनी व्यवसाय करते-करते ये समूह कारीगर जातियों में बदलते गए। लेकिन यह सामाजिक विकास समानता पर आधारित नहीं था। इसमें संपत्ति का वितरण असमान होने के कारण आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं में वृद्धि होने लगी।

→ हम यहाँ बंधुत्व (परिवार) व विवाह नियमों का अध्ययन करते हुए इन आर्थिक व सामाजिक विभेदों का अध्ययन भी करेंगे। साथ ही यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक इतिहास लेखन में इतिहासकार साहित्यिक परंपराओं; जैसे कि महाभारत या रामायण का उपयोग कैसे करते हैं?

→ भारत में पितृवंशिक व्यवस्था का आदर्श ऋग्वैदिक काल से ही चला आ रहा था। शासक वर्ग ही नहीं, धनी वर्ग के लोग और ब्राह्मण भी संभवतः ऐसा ही दृष्टिकोण रखते थे। इस आदर्श को लेकर यदा-कदा अपवाद भी मिलते हैं। पुत्र के न होने पर कई बार तो एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव (kinsmen) राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेते थे। कई बार कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।

→ विवाह संस्था का स्वरूप धार्मिक संस्कारों और नियमों से निर्धारित हुआ। इसका मूल उद्देश्य विवाह संबंधों में स्थायित्व कायम करना और पितृवंश को आगे बढ़ाना था। साथ ही भारत में जातीय व्यवस्था (Caste System) को स्थायित्व प्रदान करने में भी इसकी मुख्य भूमिका रही। यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पितृवंशिक व्यवस्था के अंतर्गत पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र का विशेष महत्त्व था, जबकि पुत्रियों को भिन्न दृष्टि से देखा गया। उन्हें पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं मिला। साथ ही रक्त संबंधों से बाहर के परिवारों में उनका विवाह जरूरी माना गया। जबकि अंतर्विवाह प्रणाली (Endogamy) के अंतर्गत वर्ण अथवा जाति के अंदर ही विवाह को उत्तम माना गया। अतः वर्ण व जाति से बाहर विवाह वर्जित होता गया।

→ भारत में ‘जाति’ एक अनोखी व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था में प्रत्येक जाति का समाज में ऊपर से नीचे तक स्थान निर्धारित था। अतः सामाजिक विषमता इसके इस स्वरूप में ही थी। ‘जाति’ का शाब्दिक अर्थ ‘जन्म’ है अर्थात् जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है, जिसकी सदस्यता जन्मजात थी। एक जाति के सदस्यों का एक पुश्तैनी (वंशागत) व्यवसाय था और उस जाति के सदस्य अपनी ही जाति में विवाह करते थे। अन्य जातियों के साथ संबंधों में उच्च-निम्न तथा पवित्र-अपवित्रता के भावों का अहम स्थान रहा। जाति संबंधी आचार-संहिता धर्मशास्त्रों में स्पष्ट हुई, जिसे व्यवहार में बनाए रखने के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए जाते रहे।

→ फिर भी वर्ण अथवा जाति-व्यवस्था पूर्णतः एक जड़-व्यवस्था नहीं रही है। इसमें आवश्यकतानुसार गतिशीलता रही है। उदाहरण के लिए, शुरू में वैश्य (विश के साधारण सदस्य) पशुचारक और किसान थे और शूद्र सेवक थे। धीरे-धीरे उन्नति करके वैश्य व्यापारी व जमींदार हो गए और शद्र कृषक बन गए, परंतु इस पर भी उन्हें वर्ण-व्यवस्था में द्विज का दर्जा नहीं मिला। विचाराधीन काल के अंत तक आते-आते उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण जैसे ग्रंथों को सुनने का अधिकार मिला। उनकी स्थिति में कुछ सुधार आया।

→ वर्ण-व्यवस्था वाले समाज में सबसे निचले स्तर पर जो लोग थे, उन्हें चांडाल कहा जाता था। प्रायः धर्म-ग्रंथों में इनका वर्णन बहुत ही अपमानजनक है। उन्हें चोर, झूठे, झगड़ालू, लोभी, क्रोधी व अपवित्र बताया गया है। सामान्यतः इनका काम मृत-पशुओं को उठाना, उनकी खाल उतारना और उससे कई तरह का सामान बनाना, शवों का अंतिम संस्कार करना तथा सड़कों-गलियों की सफाई करना आदि था। इन कामों को दूषित और अपवित्र माना जाता था। यद्यपि ये सभी काम ‘सभ्य’ समाज के लिए निहायत ज़रूरी थे। धर्म-कर्म करने वाले ब्राह्मण स्वयं को सबसे पवित्र मानते थे। उनका कहना तक उच्च वर्ण के लोगों को अपवित्र कर देता है। उन्हें ‘अस्पृश्य’ अथवा ‘अछूत’ बताया गया। वस्तुतः इस दृष्टिकोण ने सामाजिक विषमता को अमानवीय-स्तर तक पहुँचा दिया। फाहियान के विवरण से पता चलता है कि चाण्डाल शहर और गाँवों से बाहर अलग बस्तियों में रहते थे। ये लोग माँस का व्यवसाय करते थे। जब कभी वे नगर या गाँव में आते तो उन्हें अपने आने की सूचना किसी वस्तु से आवाज़ करके देनी पड़ती थी, ताकि स्वयं को पुनीत कहने वाले लोग उनके साये से बच सकें।

→ विचाराधीन काल में दास, भूमिहीन कृषि मज़दूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान, ग्राम मुखिया, कारीगर-दस्तकार, व्यापारी तथा अधिकारी और राजा सभी भारत उप-महाद्वीप के विभिन्न भागों में समाज के अंग थे। इन सभी सामाजिक समुदायों एवं वर्गों का किसी-न-किसी रूप में आर्थिक क्रिया-कलापों में योगदान था, परंतु इनकी सामाजिक स्थिति एक समान नहीं थी। वस्तुतः समाज में उनका स्थान आर्थिक साधनों पर उनके नियंत्रण पर निर्भर करता था, जिनके पास भी ये साधन जितने अधिक थे उनकी समाज में स्थिति उतनी ही ऊँची थी। अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण रही।

→ बौद्ध व्याख्या में सामाजिक विषमताओं को ईश्वर की देन या पूर्वजन्म का परिणाम नहीं बताया गया है, बल्कि इसके लिए लालसा को दोषी ठहराया। अतः बौद्ध व्याख्याकारों ने सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए एक सामाजिक समझौते की व्याख्या दी। इसके अनुसार सामाजिक विषमता सदैव से नहीं थी। शुरू में न तो मानव पूर्ण रूप में विकसित था और न ही वनस्पति जगत। तब सभी जीव शांति की अवस्था में निवास करते थे। कोई तेरा-मेरा नहीं था। संचय की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी, जब मानव में लालसा, कपट, प्रतिहिंसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ बलवती होने लगीं। स्पष्ट है कि इन भावनाओं से सामाजिक विषमताओं ने जन्म लिया। तब सब लोगों ने मिलकर विचार करके राजपद को मान्यता दी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

भारत की मूलकथा कौरवों व पांडवों के बीच लड़े गए संहारक युद्ध की है। ये दोनों चचेरे परिवार थे। इनमें यह युद्ध राजगद्दी व भू-क्षेत्र को लेकर हुआ। इस मुख्य कथा के अतिरिक्त महाभारत में कई तरह के मिथक, कथाएँ, वर्णन और उपदेश भी हैं। ग्रंथ तात्कालिक सामाजिक समुदायों के सामाजिक व्यवहार को भी दर्शाता है। शुरू में महाभारत की गाथा मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से अलग पीढ़ी में चलती रही। कालांतर में इसे ब्राह्मण विद्वानों ने लिखित रूप दिया। फिर यह हस्तलिखित परंपरा में संप्रेषित होती रही।

→ इतिहासकार इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए साहित्यिक स्रोतों का उपयोग बड़ी सावधानी और विवेकपूर्ण तरीके से करते हैं। वे इस बात का ध्यान करते हैं कि अमुक ग्रंथ का लेखक कौन है, उसका सामाजिक दृष्टिकोण क्या है, क्योंकि लेखक भी अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकता है। वे ग्रंथ की भाषा पर भी विचार करते हैं। उदाहरण के लिए क्या वे ग्रंथ संस्कृत में हैं या फिर पालि, प्राकृत या तमिल जैसी भाषाओं में हैं। उल्लेखनीय है कि संस्कृत ब्राह्मण विद्वानों की भाषा थी तो जनसामान्य की भाषा पालि व प्राकृत थी। इसलिए भाषा से संकेत मिलता है कि अमुक ग्रंथ किसी वर्ग विशेष में प्रचलित था अथवा सामान्य लोगों में। संस्कृत भी जटिल है या सरल, पद्य है या गद्य, यह पहलू भी विचारणीय होता है। इतिहासकार किसी ग्रंथ का अध्ययन करते समय उसके संभावित संकलन या रचना काल तथा उसके रचना क्षेत्र पर भी ध्यान देते हैं।

III. काल-रेखा

कालघटना का विवरण
लगभग 500 ई० पू०पाणिनि की (संस्कृत व्याकरण) अष्टाध्यायी की रचना
लगभग 500 से 200 ई० पू०धर्मसूत्रों का संस्कृत भाषा में रचनाकाल
लगभग 500 से 100 ई० पू०आरंभिक बौद्ध-ग्रंथों (त्रिपिटक सहित) का पालि भाषा में रचनाकाल
लगभग 500 ई० पू० से 400 ई०रामायण और महाभारत का संस्कृत भाषा का रचनाकाल
लगभग 200 ई० पू० से 200 ई०मनुस्मृति का रचनाकाल
405 से 411 ई०फाहियान भारत में रहा
630 से 643 ई०ह्यूनसांग भारत में रहा
1919 से 1966 ई०महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण परियोजना का काल
1973 ई०जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन द्वारा महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण

के अंग्रेज़ी अनुवाद की शुरुआत

1978 ई०जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन की मृत्यु

 

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

HBSE 12th Class History राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?
उत्तर:
आरंभिक ऐतिहासिक नगरों का उदय छठी सदी ई→पू→ में हुआ। इनके शिल्प उत्पाद निम्नलिखित प्रकार से थे

(1) इस काल में मिट्टी के उत्तम श्रेणी के कटोरे व थालियाँ बनाई जाती थीं। इन बर्तनों पर चिकनी कलई चढ़ी होती थी। इन्हें उत्तरी काले पॉलिश मृदभांड (N.B.P.W.) के नाम से जाना जाता है।

(2) नगरों में लोहे के उपकरण, सोने, चाँदी के गहने, लोहे के हथियार, बर्तन (कांस्य व ताँबे के), हाथी दाँत का सामान, शीशे, शुद्ध व पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं।।

(3) भूमि अनुदान पत्रों से जानकारी मिलती है कि नगरों में वस्त्र बनाने का कार्य, बढ़ई का कार्य, आभूषण बनाने का कार्य, मृदभांड बनाने का कार्य, लोहे के औजार बनाने का कार्य होता था। हड़प्पा के नगरों से तुलना-हड़प्पा के शिल्प उत्पादों तथा आरंभिक ऐतिहासिक नगरों के शिल्प उत्पादों में काफी भिन्नता पाई जाती है। हड़प्पा सभ्यता के शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातु-कर्म, मुहर बनाना तथा बाट बनाना सम्मिलित थे। परंतु हड़प्पा के लोग लोहे के उपकरण नहीं बनाते थे। उनके उपकरण पत्थर, कांस्य व ताँबे के थे। दूसरी ओर, प्रारंभिक नगरों के लोग बड़ी मात्रा में लोहे के औजार, उपकरण और वस्तुएँ बनाते थे।

प्रश्न 2.
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
छठी सदी ई→पू→ के बौद्ध और जैन ग्रंथों में हमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथ अंगुतर निकाय में हमें इन राज्यों के नामों का उल्लेख मिलता है।
विशिष्ट अभिलक्षण-इन महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण निम्नलिखित प्रकार से हैं

(1) अधिकांश जनपदों में राजतंत्रात्मक प्रणाली थी जिसमें राजा सर्वोच्च व वंशानुगत था, लेकिन निरंकश नहीं था। मन्त्रिपरिषद – अयोग्य राजा को पद से हटा दिया करती थी।

(2) कुछ महाजनपदों में गणतंत्रीय व्यवस्था थी। इन्हें गण या संघ कहते थे। गणराज्यों का मुखिया ‘गणमुख्य’ कहलाता था। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि शासन करते थे। ये ‘राजन’ (राजा) कहलाते थे। वह अपनी परिषद् के सहयोग से राज्य करता था। वस्तुतः इन गण राज्यों में कुछ लोगों के समूह (Oligarchies) का शासन होता था।

(3) प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी।

(4) इस काल में रचित धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है। इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर प्राप्त करे। पड़ोसी राज्य पर हमला कर धन लूटना या प्राप्त करना वैध (Legitimate) उपाय बताया गया।
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(5) धीरे-धीरे इनमें से कई राज्यों ने स्थायी सेना और नौकरशाही तंत्र का गठन कर लिया था परंतु कुछ राज्य अभी भी अस्थायी सेना पर निर्भर थे।

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प्रश्न 3.
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर:
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने में इतिहासकारों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सामान्य लोगों ने अपने विचारों और अनुभवों के संबंध में शायद ही कोई वृत्तांत छोड़ा हो। फिर भी इतिहासकार सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने का प्रयास करते हैं क्योंकि इतिहास निर्माण में इन लोगों के द्वारा ही अहम् भूमिका निभाई गई। इस कार्य को पूरा करने के लिए इतिहास विभिन्न प्रकार के स्रोतों का सहारा लेते हैं।

(1) विभिन्न स्थानों पर खुदाई से अनाज के दाने तथा जानवरों की हड्डियाँ मिलती हैं जिससे यह पता चलता है कि वे किन फसलों से परिचित थे तथा किन पशुओं का पालन करते थे।

(2) भवनों और मृदभांडों से उनके घरेलू जीवन का पता चलता है।

(3) अभिलेखों से शिल्प उत्पादों का पता चलता है।

(4) भूमि अनुदान पत्रों से भी ग्रामीण जीवन की झांकी का पता चलता है। इनमें ग्राम के उत्पादन तथा ग्राम के वर्गों की जानकारी मिलती है।

(5) कुछ साहित्य भी सामान्य लोगों के जीवन पर प्रकाश डालते हैं। उदाहरण के लिए जातक कथाओं और पंचतंत्र की कहानियों से इस प्रकार के संदर्भ निकाले जाते हैं।

(6) विभिन्न ग्रन्थों में नगरों में रहने वाले सर्वसाधारण लोगों का पता चलता है। इन लोगों में धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहार, छोटे व्यापारी आदि होते थे।

प्रश्न 4.
पांड्य सरदार (स्रोत 3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत 8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर:
पांड्य सरदार को भेंट की गई वस्तुओं की जानकारी हमें शिल्पादिकारम् में दिए वर्णन से प्राप्त होती है तथा दंगुन गाँव वह गाँव है जिसे प्रभावती गुप्त ने एक भिक्षु को भूमि अनुदान में दिया था। इस अनुदान पत्र से हमें गाँव में पैदा होने वाली वस्तुओं की जानकारी मिलती है। पांडय सरदार को प्राप्त वस्तओं व दंगन गाँव की वस्तओं की सची निम्नलिरि

(1) पहाड़ी लोग वञ्जि के राजा के लिए हाथी दाँत, शहद, चंदन, सिंदूर के गोले, काजल, हल्दी, इलायची, काली मिर्च, कंद का आटा वगैरह भेंट लाए। उन्होंने राजा को बड़े नारियल, आम, दवाई में काम आने वाली हरी पत्तियों की मालाएँ, तरह-तरह के फल, प्याज़, गन्ना, फूल, सुपारी के गुच्छे, पके केलों के गुच्छे, जानवरों व पक्षियों के बच्चे आदि का अर्पण किया।

(2) दंगुन गाँव की वस्तुओं में घास, जानवरों की खाल, कोयला, मदिरा, नमक, खनिज-पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल, दूध आदि सम्मिलित थे।

समानताएँ-दोनों सूचियों की वस्तुओं में बहुत कम समानता है। दोनों सूचियों में मात्र फूल का नाम पाया गया है। ऐसा लगता है कि पांड्य राजा भी उपहार मिलने के बाद जानवरों की खाल का प्रयोग करते थे।

असमानताएँ-इन दोनों सूचियों में अधिकतर असमानताएँ ही दिखाई देती हैं। वस्तुएँ प्राप्त करने के तरीकों में भी बहुत । असमानताएँ दिखती हैं। एक ओर जहाँ पांड्य सरदार को लोग खुशी से नाच गाकर वस्तुएँ भेंट कर रहे हैं तो दूसरी ओर दंगुन गाँव के लोगों को दान प्राप्तकर्ता को ये वस्तुएँ देनी ही पड़ती थीं। अनुदान पत्र से स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए वे बाध्य थे।

प्रश्न 5.
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर:
अभिलेखों के अध्ययनकर्ता तथा विश्लेषणकर्ता को अभिलेखशास्त्री कहते हैं। अपने कार्य के संपादन में अभिलेखशास्त्रियों ‘को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है

(1) अभिलेखशास्त्रियों को कभी-कभी तकनीकी सीमा का सामना करना पड़ता है। अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना कठिन होता है। कभी-कभी अभिलेखों के कुछ भाग नष्ट हो जाते हैं। इससे अक्षर लोप हो जाते हैं जिस कारण शब्दों/वाक्यों का अर्थ समझ पाना कठिन हो जाता है।

(2) कई अभिलेख विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं, इससे भी हम वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते।

(3) एक सीमा यह भी रहती है कि अभिलेखों में उनके उत्कीर्ण करवाने वाले के विचारों को बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त किया जाता है। अतः तत्कालीन सामान्य विचारों से इनका संबंध नहीं होता। फलतः कई बार ये जन-सामान्य के विचारों और कार्यकलापों पर प्रकाश नहीं डाल पाते। अतः स्पष्ट है कि सभी अभिलेख राजनीतिक और आर्थिक इतिहास की जानकारी प्रदान नहीं कर पाते।

(4) अनेक अभिलेखों का अस्तित्व नष्ट हो गया है या अभी प्राप्त नहीं हुए हैं। अतः अब तक जो अभिलेख प्राप्त हुए हैं वे कुल अभिलेखों का एक अंश हैं।

(5) अभिलेखशास्त्रियों को अनेक सूचनाएँ अभिलेखों पर नहीं मिल पातीं। विशेष तौर पर जनसामान्य से जुड़ी गतिविधियों पर अभिलेखों में बहुत कम या नहीं के बराबर लिखा गया है।

(6) अभिलेखों में सदा उन्हीं के विचारों को व्यक्त किया जाता है जो उन्हें उत्कीर्ण करवाते हैं। ऐसे में अभिलेखशास्त्री को अत्यंत सावधानी तथा आलोचनात्मक अध्ययन से इनकी सूचनाओं को परखना जरूरी होता है।

प्रश्न 6.
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इसमें से कौन-कौन से तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य भारत में प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य था। मगध महाजनपद ने अन्य जनपदों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्य का निर्माण किया। साम्राज्य की अवधारणा चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में फलीभूत हुई। बिंदुसार तथा सम्राट अशोक इस साम्राज्य के अन्य प्रमुख शासक रहे। मौर्य साम्राज्य के अभिलक्षणों की जानकारी हमें उस काल के ग्रंथों तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रमुख अभिलक्षण निम्नलिखित प्रकार हैं

1. राजा-मौर्य राज्य भारत में प्रथम सर्वाधिक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य था। साम्राज्य में समस्त शक्ति का स्रोत सम्राट था। वास्तव में राजा और राज्य का भेद कम रह गया था। अर्थशास्त्र में लिखा है कि ‘राजा ही राज्य’ है। वह सर्वाधिकार संपन्न (Supreme Authority) था। वह सर्वोच्च सेनापति व सर्वोच्च न्यायाधीश था।

2. मंत्रि परिषद्-चाणक्य ने कहा है, “रथ केवल एक पहिए से नहीं चलता इसलिए राजा को मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए और उनकी सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए। मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को अमात्य क थे-प्रधानमंत्री, पुरोहित और सेनापति। समाहर्ता (वित्त मंत्री) और संधिधाता (कोषाध्यक्ष) अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे।”

3. प्रांतीय प्रशासन विस्तृत साम्राज्य को पाँच प्रांतों (राजनीतिक केंद्रों) में बाँटा हुआ था।

  • उत्तरापथ-इसमें कम्बोज, गांधार, कश्मीर, अफगानिस्तान तथा पंजाब आदि के क्षेत्र शामिल थे। इसकी राजधानी . तक्षशिला थी।
  • पश्चिमी प्रांत-इसमें काठियावाड़-गुजरात से लेकर राजपूताना-मालवा आदि के सभी प्रदेश शामिल थे। इसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
  • दक्षिणपथ इसमें विंध्याचल से लेकर दक्षिण में मैसूर (कर्नाटक) तक सारा प्रदेश शामिल था। इसकी राजधानी सुवर्णगिरी थी।
  • कलिंग-इसमें दक्षिण-पूर्व का उड़ीसा का क्षेत्र शामिल था, जिसमें दक्षिण की ओर जाने के महत्त्वपूर्ण स्थल व समुद्री मार्ग थे। इसकी राजधानी तोशाली थी।
  • प्राशी (पूर्वी प्रदेश) इसमें मगध तथा समस्त उत्तरी भारत का प्रदेश था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। यह प्रदेश पूर्ण रूप से सम्राट के नियन्त्रण में ही था।
    प्रांतों का शासन-प्रबन्ध राजा का प्रतिनिधि (वायसराय) करता था, जिसे कुमार या आर्यपुत्र कहते थे।

4. नगर का प्रबन्ध-मैगस्थनीज़ के अनुसार नगर का प्रशासन 30 सदस्यों की एक परिषद् करती थी, जो 6 उपसमितियों में विभाजित थी।

  • पहली समिति-यह शिल्प उद्योगों का निरीक्षण करती थी। शिल्पकारों के अधिकारों की रक्षा भी करती थी।
  • दूसरी समिति-यह विदेशी अतिथियों का सत्कार, उनके आवास का प्रबंध तथा उनकी गतिविधियों पर नजर रखने का कार्य करती थी। उनकी चिकित्सा का प्रबंध भी करती थी।
  • तीसरी समिति-यह जनगणना तथा कर निर्धारण के लिए, जन्म-मृत्यु का ब्यौरा रखती थी।
  • चौथी समिति-यह व्यापार की देखभाल करती थी। इसका मुख्य काम तौल के बट्टों तथा माप के पैमानों का निरीक्षण तथा सार्वजनिक बिक्री का आयोजन यानी बाजार लगवाना था।
  • पाँची समिति-यह कारखानों और घरों में बनाई गई वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी। विशेषतः यह ध्यान रखती थी कि व्यापारी नई और पुरानी वस्तुओं को मिलाकर न बेचें। ऐसा करने पर दण्ड की व्यवस्था थी।
  • छठी समिति-इसका कार्य बिक्री कर वसूलना था। जो वस्तु जिस कीमत पर बेची जाती थी, उसका दसवां भाग बिक्री कर के रूप में दुकानदार से वसला जाता था। यह कर न देने पर मृत्यु दण्ड की व्यवस्था थी।

5. असमान शासन व्यवस्था-मौर्य साम्राज्य अति विशाल साम्राज्य था। साम्राज्य में शामिल क्षेत्र बड़े विविध और भिन्न-भिन्न . प्रकार के थे। इसमें अफगानिस्तान का पहाड़ी क्षेत्र शामिल था, वहीं उड़ीसा जैसा तटवर्ती क्षेत्र भी था। स्पष्ट है कि इतने बड़े तथा विविधताओं से भरपूर साम्राज्य का प्रशासन एक-समान नहीं होगा। साम्राज्य के सभी भागों पर नियंत्रण भी समान नहीं था। मगध प्रांत व पाटलिपुत्र में अधिक नियंत्रण होगा तथा प्रांतीय राजधानियों में भी सख्त नियंत्रण होगा। परंतु अन्य भागों में नियंत्रण उतना कठोर नहीं था।

6. आवागमन की सुव्यवस्था साम्राज्य के संचालन के लिए भू-तल और नदी मार्गों से आवागमन होता था। इनकी सुव्यवस्था की जाती थी। राजधानी से प्रांतों तक पहुँचने में भी समय लगता था। अतः मार्ग में ठहरने व खान-पान की व्यवस्था की जाती थी। अशोक ने मार्गों पर सराएँ बनवाईं, कुएँ खुदवाए तथा पेड़ लगवाए।

7. धम्म महामात्र-अशोक के अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि अशोक ने धम्म नीति से अपने साम्राज्य में शांति-व्यवस्था तथा एकता बनाने का प्रयास किया। उसने लोगों में सार्वभौमिक धर्म के नियमों का प्रचार-प्रसार किया। अशोक के अनुसार, धर्म के प्रसार का लक्ष्य, लोगों के इहलोक तथा परलोक को सुधारना था। इसके लिए उसने राज्य की ओर से विशेष अधिकारी नियुक्त किए जो ‘धम्म महामात्र’ के नाम से जाने जाते थे। इन्हें व्यापक अधिकार दिए गए थे। उन्हें समाज के सभी वर्गों के कल्याण और सुख के लिए कार्य करना था।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 7.
यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी.सी. सरकार का वक्तव्य है : भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है : चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सुप्रसिद्ध अभिलेखशास्त्री डी→सी→ सरकार ने मत व्यक्त किया है कि अभिलेखों से भारतीयों के जीवन, संस्कृति और . सभी गतिविधियों से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। अभिलेखों से मिलने वाली जानकारी का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. शासकों के नाम-अभिलेखों से हमें राजाओं के नाम का पता चलता है। साथ ही हम उनकी उपाधियों के बारे में भी जान पाते हैं। उदाहरण के लिए अशोक का नाम अभिलेखों में आया है तथा उसकी दो उपाधियों (देवनाम् प्रिय तथा पियदस्स) का भी उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त, खारवेल, रुद्रदामा आदि के नाम भी अभिलेखों में आए हैं।

2. राज्य-विस्तार-उत्कीर्ण अभिलेखों की स्थापना वहीं पर की जाती थी जहाँ पर उस राजा का राज्य विस्तार होता था। उदाहरण के लिए मौर्य साम्राज्य का विस्तार जानने के लिए हमारे पास सबसे प्रमुख स्रोत अशोक के अभिलेख हैं।

3. राजा का चरित्र-ये अभिलेख शासकों के चरित्र का चित्रण करने में भी सहायक हैं। उदाहरण के लिए अशोक जनता के . बारे में क्या सोचता था। अनेक विषयों पर उसने स्वयं के विचार व्यक्त किए हैं। इसी प्रकार समुद्रगुप्त के चरित्र-चित्रण के लिए प्रयाग प्रशस्ति उपयोगी है। यद्यपि इनमें राजा के चरित्र को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया है।

4. काल-निर्धारण-अभिलेख की लिपि की शैली तथा भाषा के आधार पर शासकों के काल का भी निर्धारण कर लिया जाता है।

5. भाषा व धर्म के बारे में जानकारी-अभिलेखों की भाषा से हमें उस काल के भाषा के विकास का पता चलता है। इसी प्रकार अभिलेखों पर धर्म संबंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, अशोक के धम्म की जानकारी के स्रोत उसके अभिलेख हैं। भूमि अनुदान पत्रों से भी धर्म व संस्कृति के बारे में जानकारी मिलती है।

6. कला-अभिलेख कला के भी नमूने हैं। विशेषतौर पर मौर्यकाल के अभिलेख विशाल पाषाण खंडों को पालिश कर चमकाया गया तथा उन पर पशुओं की मूर्तियाँ रखवाई गईं। ये मौर्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।

7. सामाजिक वर्गों की जानकारी-अभिलेखों से हमें तत्कालीन वर्गों के बारे में भी जानकारी मिलती है। हमें पता चलता है कि शासक एवं राज्याधिकारियों के अलावा नगरों में व्यापारी व शिल्पकार (बुनकर, सुनार, धोबी, लौहकार, बढ़ई) आदि भी रहते थे।

8. भू-राजस्व व प्रशासन-अभिलेखों से हमें भू-राजस्व प्रणाली तथा प्रशासन के विविध पक्षों की जानकारी भी प्राप्त होती है। विशेषतौर पर भूदान पत्रों से हमें राजस्व की जानकारी मिलती है। साथ ही जब भूमि अनुदान राज्याधिकारियों को दिया जाने लगा तो धीरे-धीरे स्थानीय सामंतों की शक्ति में वृद्धि हुई। इस प्रकार भूमि अनुदान पत्र राजा की घटती शक्ति जानकारी भी देते हैं। उक्त सभी बातों के साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन अभिलेखों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। अभिलेखों की सीमाएँ भी होती हैं। विशेषतौर पर जनसामान्य से संबंधित जानकारी इन अभिलेखों में कम पाई जाती है। तथापि अभिलेखों से समाज के विविध पक्षों से काफी जानकारी मिलती है।

प्रश्न 8.
उत्तर:मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उत्तर:मौर्य काल में राजत्व का एक नया विचार जोर पकड़ने लगा। यह नया विचार या सिद्धांत दिव्य राजत्व का सिद्धांत था। इस सिद्धांत के तहत राजा अपने आपको ईश्वर से जोड़ने लगे। स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है कि श देवता या देवताओं से उत्पन्न बताया। इस माध्यम से वे प्रजा में अपना रुतबा बहुत ऊँचा कर लेना चाहते थे। प्रजा के दिलो-दिमागों में अपना नेतृत्व (Hegemony) स्थापित करना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि धर्म या धार्मिक रीतियों का प्रयोग कर, स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि या दैवीय उत्पत्ति बताकर प्रजा में राजा के प्रति आस्था पैदा करना शासकों की प्राचीन काल से ही रणनीति रही थी। उत्तरवैदिक काल में शासक अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए यज्ञों का सहारा लेते थे। यह यज्ञ बहुत-से ब्राह्मणों द्वारा लंबे समय तक करवाए जाते थे। इन यज्ञों में राजसूय यज्ञ (राज्यारोहण पर), वाजपेय (शक्तिप्रदपेय) तथा अश्वमेध यज्ञ प्रमुख थे जिसके माध्यम से राजाओं को दैवीय शक्तियाँ प्राप्त होती थीं।

मौर्य शासक अशोक ने भी दैवीय सिद्धांत का सहारा लिया। वह अपने आपको ‘देवानाम् प्रियदर्शी’ (देवों का प्यारा) की उपाधि से विभूषित करता है। मौर्योतर काल में कुषाण शासकों ने भी बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किया तथा दिव्य राजत्व को अपनाया। कुषाणों ने मध्य एशिया से मध्य भारत तक के विशाल भू-क्षेत्र पर लगभग प्रथम सदी ई→पू→ से प्रथम ई→ सदी तक शासन किया। उनके द्वारा प्रचलित दैवत्व की परिकल्पना उनके सिक्कों और मूर्तियों से बेहतर रूप में अभिव्यक्त होती है।

मथुरा (उत्तरप्रदेश) के समीप माट (Mat) के एक देवस्थान से स्थापित की गई कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

इसी प्रकार की मूर्तियाँ अफगानिस्तान में एक देवस्थान से प्राप्त हुई हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि देवस्थानों में विशाल मूर्तियों की स्थापना का विशेष उद्देश्य रहा होगा। वस्तुतः वे अपने आपको ‘देवतुल्य’ प्रस्तुत करना चाहते होंगे। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने भारतीय धर्मों (शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि) को अपनाया तथा इन धर्म के प्रतीकों को अपने सिक्कों पर भी खुदवाया। विम ने अपने सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशूल आदि का प्रयोग किया। कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र’ (Son of God) की उपाधि धारण की। ऐसा करने की प्रेरणा कुषाणों को चीनी शासकों से मिली होगी जो स्वयं को ‘स्वर्गपुत्र’ (Sons of Heaven) मानते थे।

प्रश्न 9.
वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?
उत्तर:
600 ई→पू→ से 600 ई→ के लंबे कालखंड में भारत में अनेक परिवर्तन आए। इन परिवर्तनों का प्रमुख आधार कृषि प्रणाली का विकसित होना था। इस काल में शासक अधिक मात्रा में कर वसूल करना चाहते हैं। करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसान उपज बढ़ाने के उपाय ढूँढने लगे। शासकों ने भी इसमें योगदान दिया। उन्होंने सिंचाई कार्यों को बढ़ावा दिया। फलतः कृषि के तौर-तरीकों में निम्नलिखित बदलाव आए

1. सिंचाई कार्य मौर्य शासकों ने खेती-बाड़ी को बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान दिया। राज्य किसानों के लिए सिंचाई व्यवस्था/जल वितरण का कार्य करता था। मैगस्थनीज़ ने ‘इंडिका’ में लिखा है कि मिस्र की तरह मौर्य राज्य में भी सरकारी अधिकारी जमीन की पैमाइश करते थे। नहरों का निरीक्षण करते थे जिनसे होकर पानी छोटी नहरों में पहुँचता था। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के एक गवर्नर पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र (गुजरात) में गिरनार के पास सुदर्शन झील पर एक बाँध बनवाया था जो सिंचाई के काम आता था। … पाँचवीं सदी में स्कंदगुप्त ने भी इसी झील का जीर्णोद्धार करवाया था। कुँओं व तालाबों से सिंचाई कर कृषि उपज बढ़ाई जाती थी। नहरों का निर्माण शासक या संपन्न लोग ही करवा पाते थे। परंतु कुओं तालाबों के निर्माण में समुदाय तथा व्यक्तिगत प्रयास भी प्रमुख भूमिका निभाते थे।

2. हल से खेती-कृषि उपज बढ़ाने का एक उपाय हल का प्रचलन था। अधिक बरसात वाले क्षेत्रों में हल के लोहे के फाल का प्रयोग प्रचलन में आया। इसकी मदद से मिट्टी को गहराई तक जोता जाने लगा। उल्लेखनीय है कि गंगा व कावेरी की घाटियों के उपजाऊ क्षेत्र में छठी सदी ई→ पू→ से लोहे वाले फाल सहित हल का प्रयोग होने लगा था। प्राचीन पालि ग्रंथों में कृषि के लिए लोहे के औजारों का उल्लेख है। अष्टाध्यायी में भी आयोविकर कुशि (लोहे की फाल) का उल्लेख है। उत्तरी भारत में इस संबंध में कुछ पुरातात्विक साक्ष्य भी मिलते हैं। इसका परिणाम कृषि क्षेत्र में वृद्धि, कृषक बस्तियों का प्रसार और उत्पादन का बढ़ना है, जिसका लाभ राज्य को भी मिला।

3. धान रोपण की विधि की शुरुआत-कृषि क्षेत्र में पैदावार बढ़ाने में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय धान रोपण की शुरुआत है। भारत में धान रोपण की शुरुआत 500 ई→पू→ में स्वीकार की जाती है। धान लगाने की प्रक्रिया के लिए रोपण और रोपेति जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। सालि का तात्पर्य उखाड़कर लगाए जाने वाली जाड़े की फसलों से है। पालि ग्रंथों में इस प्रक्रिया को बीजानि पतितापेति के नाम से जाना जाता है। ज्ञातधर्म कोष में प्राकृत वाक्यांश उक्खाय निहाए का अर्थ है “उखाड़ना और । प्रतिरोपित करना” प्रतिरोपण की इस प्रणाली से पैदावार बढ़ी। इससे गाँवों में परिवर्तन आया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 10.
मानचित्र 1 और 2 की तुलना कीजिए और उन महाजनपदों की सूची बनाइए जो मौर्य साम्राज्य में शामिल रहे होंगे। क्या इस क्षेत्र में अशोक के कोई अभिलेख मिले हैं?
उत्तर:
(1) अशोक के साम्राज्य में शामिल महाजनपदों के नाम-(i) अंग, (ii) मगध, (iii) काशी, (iv) कौशल, (v) वज्जि, (vi) मल्ल, (vii) चेदी (चेटी), (viii) वत्स, (ix) कुरू, (x) पांचाल, (xi) मत्स्य, (xii) शूरसेन, (xiii) अश्मक, (xiv) (rv) गांधार, (xvi) कम्बोज।

(2) अशोक के साम्राज्य में महाजनपदीय क्षेत्रों में मिले अभिलेख-लौरिया अराराज, लौरिया नंदगढ़, रामपुरवा, सहसराम, बैरार, भाबू, टोपरा, शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा, सारनाथ, कौशाम्बी तथा कई अन्य अभिलेख मिले हैं।
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प्रश्न 11.
एक महीने के अखबार एकत्रित कीजिए। सरकारी अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों के बारे में दिए गए वक्तव्यों को काटकर एकत्रित कीजिए। समीक्षा कीजिए कि इन परियोजनाओं के लिए आवश्यक संसाधनों के बारे में खबरों में क्या लिखा है। संसाधनों को किस प्रकार से एकत्र किया जाता है और परियोजनाओं का उद्देश्य क्या है। इन वक्तव्यों को कौन जारी करता है और उन्हें क्यों और कैसे प्रसारित किया जाता है? इस अध्याय में चर्चित अभिलेखों के साक्ष्यों से इनकी तुलना कीजिए। आप इनमें क्या समानताएँ और असमानताएँ पाते हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अध्यापक के दिशा-निर्देश में परियोजना रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 12.
आज प्रचलित पाँच विभिन्न नोटों और सिक्कों को इकट्ठा कीजिए। इनके दोनों ओर आप जो देखते हैं उनका वर्णन कीजिए। इन पर बने चित्रों, लिपियों और भाषाओं, माप, आकार या अन्य समानताओं और असमानताओं के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कीजिए। इस अध्याय में दर्शित सिक्कों में प्रयुक्त सामग्रियों, तकनीकों, प्रतीकों, उनके महत्त्व और सिक्कों के संभावित कार्य की चर्चा करते हुए इनकी तुलना कीजिए।
उत्तर:
संकेत-(1) आधुनिक प्रचलित 10 रुपए, 50 रुपए, 100 रुपया, 500 रुपए तथा 1000 रुपए के नोटों पर देखकर विवरण लिखें। जैसे कि भारत सरकार, रिजर्व बैंक, गवर्नर, चित्र (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, नोट नम्बर, रिजर्व बैंक की मोहर, राष्ट्रीय चिह्न, गवर्नर क्या वचन देता है, इत्यादि। इन सारे तथ्यों के आधार पर स्वतन्त्र भारत के नोटों की विशेषताओं पर विचार करें।

(2) 1 रुपया, 2 रुपए तथा 5 रुपए के सिक्कों पर अंकित चिह्नों की तुलना उन सिक्कों से करें जो प्राचीनकालीन सिक्के अध्याय में दिखाए गए हैं।

राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ HBSE 12th Class History Notes

→ मुद्राशास्त्र-सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। प्राचीनकाल में धातु के बने सिक्के होते थे। इन सिक्कों पर पाए जाने वाले चित्रों, लिपि तथा सिक्कों की धातु का विश्लेषण किया जाता है। जिन संदर्भो में ये सिक्के पाए जाते हैं, उनका अध्ययन भी मुद्राशास्त्र में किया जाता है।

→ अभिलेख-अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु, मिट्टी के बर्तन इत्यादि जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं।

→ अभिलेखशास्त्र-अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र कहते हैं।

→ पंचमार्क सिक्के-चाँदी और ताँबे के आयताकार या वृत्ताकार टुकड़े बनाकर उन पर ठप्पा मारकर विभिन्न चिह्न (जैसे सूर्य, वृक्ष, मानव आदि) खोदे जाते थे। इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहते हैं।

→ धान की रोपाई धान की रोपाई उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ पानी काफी मात्रा में न की रोपाई उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ पानी काफी मात्रा में पाया जाता है। पहले बीज अंकुरित किए जाते हैं तथा पानी से भरे खेत में पौधों की रोपाई की जाती है। इस प्रक्रिया से उपज में वृद्धि होती है।

→ गहपति-गहपति घर का मुखिया होता था। घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों और दासों पर उसका नियंत्रण होता था। घर से जुड़ी भूमि, पशुओं और अन्य सभी वस्तुओं का वह स्वामी होता था। कभी-कभी गहपति शब्द शहरों में रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों और व्यापारियों के लिए भी होता था।

→ संगम साहित्य-प्रारंभिक तमिल साहित्य को संगम साहित्य कहते हैं। दक्षिण भारत में पाण्ड्य राजाओं की राजधानी मदुरा में तमिल कवियों के सम्मेलन हुए। इन सम्मेलनों को संगम के नाम से जाना जाता है। ये तीन सम्मेलन (संगम) लगभग 300 ई→ पूर्व से 300 ई→ के बीच बुलाए गए। इन संगमों के फलस्वरूपं वृहद् संगम साहित्य की रचना हुई।

→ जातक-महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं को जातक कहते हैं। प्रत्येक कथा एक प्रकार की लोककथा है। इसमें 549 लोककथाएँ हैं। ये पाली भाषाएँ हैं।

→ अग्रहार-अग्रहार से अभिप्राय उस भूमि से है जो अनुदान पत्रों के माध्यम से ब्राह्मणों को दी जाती थी। इस भूमि में ब्राह्मणों को सभी प्रकार के करों से मुक्त रखा गया था।

→ तमिलकम् प्राचीन काल में भारत के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों को तमिलकम् नाम से जाना जाता था। इसमें तमिलनाडु तथा आंध्र व केरल के कुछ प्रदेश शामिल थे।

→ जनपद-वह भूखंड या क्षेत्र जहाँ पर कोई जन (कबीला, लोग या कुल) अपना पाँव रखता था या बस जाता था, जनपद कहलाता था। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं में मिलता है।

→ महाजनपद-एक बड़ा और शक्तिशाली राज्य जैसे मगध।

→ अल्पतन्त्रीय राज्य (ओली गाकी) यह एक ऐसा राज्य होता है जिसमें सत्ता कुछ गिने चुने लोगों के हाथों में होती है। उदाहरण के लिए रोम में गणतन्त्र या अल्पतन्त्र की स्थापना हुई थी।

→ दानात्मक अभिलेख (अनुदान पत्र)-धार्मिक संस्थाओं या ब्राह्मणों, भिक्षुओं आदि को दिया गया दान तथा दान के प्रमाण के रूप में प्रदान किए ताम्रपत्र को ‘अनुदान पत्र’ कहते हैं।

→ पेरिप्लस व एरीशियन-यह यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है समुद्री यात्रा। एरीथ्रियन यूनानी भाषा में लाल सागर को कहते हैं।

→ प्रतिवेदक मौर्य विशेष तौर पर अशोक के काल में रिपोर्टर (सूचना देने वाले) को प्रतिवेदक कहा जाता था। अभिलेखशास्त्री इसे संवाददाता बताते हैं।

→ हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद डेढ़ हजार वर्षों का लंबा काल अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अनेक विकास (Developments) हुए। सिंधु और उसकी सहायक नदियों के किनारे रहने वाले लोगों ने ऋग्वेद की रचना की। उत्तर भारत, दक्कन के पठार और कर्नाटक के क्षेत्रों में कृषक बस्तियों की शुरुआत हुई।

→ इसके साथ ही दक्कन और दक्षिण भारत में चरवाहा समुदाय के प्रमाण मिलते हैं। ईसा पूर्व की प्रथम सहस्राब्दी के दौरान मध्य और दक्षिण भारत में महापाषाणीय संस्कृति अस्तित्व में आई। वस्तुतः यह शवों के अंतिम संस्कार का नया तरीका था, जिसमें दफनाने के लिए बड़े-बड़े पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। कई स्थानों पर इन शवाधानों में शवों के साथ लोहे के बने उपकरण और हथियारों को भी दफनाया गया था। इसका अर्थ था कि इन क्षेत्रों में लोहे का प्रयोग हो रहा था जो भौतिक संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण कदम था।

→ छठी शताब्दी ई→पू→ से अनेक प्रवाहों (Trends) के भी प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः इनमें सबसे ज्यादा मुखर आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों (kingdoms) का विकास है। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं की पृष्ठभूमि में भी अनेक परिवर्तन कार्य कर रहे थे। कृषि क्षेत्र का विस्तार और उत्पादन बढ़ाने के अनेक तरीके अपनाए जा रहे थे, अर्थात् भारत में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था की स्थापना हो रही थी और किसानों का महत्त्व बढ़ता जा रहा था। इसके साथ-साथ व्यापार और वाणिज्य का भी उदय और विकास हो रहा था। मुद्रा का प्रचलन बढ़ रहा था। फलतः उपमहाद्वीप पर नए नगरों का उत्कर्ष हुआ। वस्तुतः 600 ई→पू→ से 600 ई→ का काल ‘राजा, किसान और नगरों के उदय और उनके अन्तर्संबंधों का काल था।

→ अभिलेख मोहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों (भूमि अनुदानपत्र) इत्यादि पर मिलते हैं। ये ईंटों या मूर्तियों पर भी मिलते हैं। अभिलेख का महत्त्व इसलिए भी है कि इन पर इनके निर्माताओं की उपलब्धियों, क्रियाकलापों और विचारों को उत्कीर्ण किया जाता है। अभिलेख स्थायी प्रमाण होते हैं तथा इनमें फेर-बदल नहीं किया जा सकता।

→ अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। यह आधुनिक भारतीय लिपियों की उद्गम लिपि भी है। ब्राह्मी लिपि को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने 1838 में पढ़ने (Decipher) में सफलता पाई।

→ भूमि अनुदान पत्र अभिलेखों में ही सम्मिलित किए जाते हैं। इन दान पत्रों में राजाओं, राज्याधिकारियों, रानियों, शिल्पियों, व्यापारियों इत्यादि द्वारा दिए गए धर्मार्थ धन, मवेशी, भूमि आदि का उल्लेख मिलता है। राजाओं और सामंतों द्वारा दिए गए भूमि अनुदान पत्र का विशेष महत्त्व है क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की व्यवस्था और प्रशासन से संबंधित जानकारी मिलती है।

→ पुरातात्विक सामग्री में सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शासकों की राज्य सीमा, राज्यकाल, आर्थिक स्थिति तथा धार्मिक विश्वासों के संबंध में सिक्के महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। इनसे सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व की जानकारी भी प्राप्त होती है। मुद्रा प्रणाली का आरंभ मानव की आर्थिक प्रगति का प्रतीक है। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहा जाता है।

→ सबसे पहले छठी शती ई→पू→ में चाँदी और ताँबे के आयताकार या वृत्ताकार टुकड़े बनाए गए। इन टुकड़ों पर ठप्पा मारकर अनेक प्रकार के चिह्न जैसे कि सूर्य, वृक्ष, मानव, खरगोश, बिच्छु, साँप आदि खोदे हुए थे। इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहते हैं।

→ प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी (Capital) थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी। राज्य को किलेबंद शहर, सेना और नौकरशाही के लिए आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती थी। इस काल में रचित इन धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है। इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर तथा अधिकार (Tribute) प्राप्त करे।

→ प्रारंभ में मगध की राजधानी राजगृह (राजगीर का प्राकृत नाम) थी जिसका अभिप्राय था राजा का घर (House of King)। राजगृह पहाड़ियों के बीच स्थित एक किलेबंद था। बाद में 4 शताब्दी ई→पू→ में पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) मगध की राजधानी बना। पाटलिपुत्र का गंगा नदी के संपर्क मार्गों पर नियंत्रण था। उल्लेखनीय है कि छठी शताब्दी ई→पू→ से चौथी शताब्दी ई→पू→ के मध्य में 16 महाजनपदों में से मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली होकर उभरा।

→ अन्ततः मगध महाजनपद विस्तार करते हुए भारत में प्रथम साम्राज्य का रूप धारण कर गया। यह प्रथम साम्राज्य मौर्य साम्राज्य था जिसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 321 ई→पू→ में की। चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य का विस्तार उत्तर:पश्चिम में . अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान तक फैला हुआ था। भारतीय इतिहास का महान शासक अशोक चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र (Grandson) था जिसने कलिंग (वर्तमान ओडिशा) को जीता।

→ अशोक ने प्रजा में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना पैदा करने का प्रयास किया। सामूहिक रूप से उसकी इसी नीति को धम्म कहा गया है।

→ मौर्य राज्य भारत में प्रथम सर्वाधिक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य था। साम्राज्य में समस्त शक्ति का स्रोत सम्राट था। वास्तव में राजा और राज्य का भेद कम रह गया था। अर्थशास्त्र में लिखा है कि ‘राजा ही राज्य’ है। वह सर्वाधिकार संपन्न (Supreme Authority) था। वह सर्वोच्च सेनापति व सर्वोच्च न्यायाधीश था। सभी पदों पर वही नियुक्ति करता था।

→ अशोक के अनुसार, धर्म के प्रसार का लक्ष्य, लोगों के इहलोक तथा परलोक को सुधारना था। इसके लिए उसने राज्य की ओर से विशेष अधिकारी नियुक्त किए जो ‘धम्म महामात्र’ के नाम से जाने जाते थे।

→ मौर्य शासकों के पास एक शक्तिशाली सेना थी, जिसकी सहायता से राज्य का क्षेत्रीय विस्तार किया गया, साथ ही उस पर नियन्त्रण बनाए रखने में भी उसकी विशेष भूमिका रही। प्लिनी (Pliny) के अनुसार उनके पास 9,000 हाथी, 30,000 अश्वारोही और 6,00,000 पैदल सैनिक थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में रथ भी उनकी सेना में थे।

→ इतिहासकारों को यह जानकर भी सुखानुभूति हुई कि अशोक के अभिलेखों के संदेश दूसरे शासकों के आदेशों के बिल्कुल भिन्न थे। ये अभिलेख उन्हें बताते थे कि अशोक बहुत ही शक्तिर्शाली तथा मेहनती सम्राट था जो विनम्रता से (बिना बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किए) जनता को पुत्रवत मानकर उनके नैतिक उत्थान में लगा रहा। इस प्रकार इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन इतिहासकारों ने अशोक को प्रेरणादायक व्यक्तित्व स्वीकारा तथा मौर्य साम्राज्य को अत्यधिक महत्त्व दिया।

→ सुदूर दक्षिण में इस काल में तीन राज्यों का उदय हुआ। यह क्षेत्र तमिलकम् (इसमें आधुनिक तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश व केरल के भाग शामिल थे) कहलाता था। तीन राज्यों के नाम हैं-चोल, चेर और पाण्ड्य । दक्षिण के ये राज्य संपन्न थे तथा लंबे समय तक अस्तित्व में रहे।

→ संगम साहित्य बहुत ही विपुल -कुछ विद्वान इसे महासंग्रह कहते हैं। इस काव्य को भ्रमणशील भाट और विद्वान कवि दोनों ने लिखा। यह साहित्य चोल, चेर, पाण्ड्य शासकों तथा अनेक छोटे-मोटे राजाओं या नायकों की जानकारी देता है।

→ प्रारम्भिक चोल शासकों में कारिकाल सबसे प्रसिद्ध है। कारिकाल का अर्थ ‘जले हुए पैर वाला व्यक्ति’ होता है।

→ पाण्ड्य शासकों में सबसे महान नेडुजेलियन था। इसकी उपाधि से ज्ञात होता है कि इसने किसी आर्य (उत्तर भारत) सेना को पराजित किया। वह तलैयालंगानम् के युद्ध को जीतने के कारण बहुत प्रसिद्ध हुआ।

→ स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है कि शासकों ने अपने आपको देवता या देवताओं से उत्पन्न बताया। इस माध्यम से वे प्रजा में अपना रुतबा बहुत ऊँचा कर लेना चाहते थे। प्रजा के दिलो-दिमागों में अपना नेतृत्व (Hegemony) स्थापित करना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि धर्म या धार्मिक रीतियों का प्रयोग कर, स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि या दैवीय उत्पत्ति बताकर प्रजा में राजा के प्रति आस्था पैदा करना शासकों की प्राचीन काल से ही रणनीति रही थी।
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→ कुषाण शासकों ने भारतीय धर्मों (शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि) को अपनाया तथा इन धर्मों के प्रतीकों को अपने सिक्कों पर भी खुदवाया। विम ने अपने सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशूल आदि का प्रयोग किया। कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र’ (Son of God) की उपाधि धारण की।

→ कृषि व्यवस्था के उदय के आरंभ से ही उपज बढ़ाने के अनेक उपाय किए जाते रहे थे। फलतः नई फसलों को उगाना, मिट्टी को उपजाऊ बनाना, खेती में हल तथा धातु का प्रयोग इत्यादि तरीके प्रचलन में आए। फसल की सिंचाई कर उपज बढ़ाना भी प्रमुख तरीका था।

→ कृषि क्षेत्र में पैदावार बढ़ाने में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय धान रोपण की शुरुआत है। भारत में धान रोपण की शुरुआत 500 ई→पू→ में स्वीकार की जाती है। धान लगाने की प्रक्रिया के लिए रोपण और रोपेति जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है।

→ गुप्तकाल में अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सम्राटों ने धार्मिक कार्यों या परोपकार के लिए अनेक गाँव अनुदान में दिए। सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त द्वारा दिए अनुदानपत्र का विवरण भी हमें प्राप्त होता है। प्रभावती ने अभिलेख में ग्राम कुटुंबिनों (गृहस्थ और कृषक), ब्राह्मणों और दंगुन गांव के अन्य निवासियों को स्पष्ट आदेश दिया।

→ भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग छठी शताब्दी ई→पू→ में विभिन्न क्षेत्रों में कई नगरों का उदय हुआ। ये नगर हड़प्पा सभ्यता के काफी समय बाद हड़प्पा क्षेत्रों से उत्तर:पूर्व में मुख्यतः गंगा-यमुना की घाटी में पैदा हुए। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थीं। इस काल के प्रमुख नगर तक्षशिला अस्सपुर, वैशाली, कुशीनगर, उज्जयिनी, कपिलवस्तु, मिथिला, शाकल, साकेत, चम्पा, पाटलिपुत्र आदि थे।

→ नगरों में शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों या संघों का भी उल्लेख मिलता है। प्रत्येक श्रेणी का एक अध्यक्ष होता था। इन श्रेणियों में विभिन्न व्यवसायों से जुड़े कारीगर सम्मिलित होते थे। प्रमुख शिल्पकार श्रेणियाँ थीं-धातुकार (लुहार, स्वर्णकार, ताँबा, कांसा व पीतल का काम करने वाले), बढ़ई, राजगीर, जुलाहे, कुम्हार, रंगसाज, बुनकर, कसाई, मछुआरे इत्यादि। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती थीं।

→ तमिल व संस्कृत साहित्य तथा विदेशी वृत्तांतों से जानकारी मिलती है कि भारत में अनेक प्रकार का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाता था। इन वस्तुओं में प्रमुख थीं-नमक, अनाज, वस्त्र, लोहे का सामान, कीमती पत्थर, लकड़ी, औषधीय पौधे इत्यादि। भारत का विदेशी व्यापार रोमन साम्राज्य तक फैला हुआ था।

क्रम संख्याकालघटना का विकरण
1.लगभग 600 ई०पू०उत्तर प्रदेश और पश्चिम बिहार में लोहे का बड़े पैमाने पर प्रयोग
2.लगभभग 600 ई०पू०धान रोपण विधि, गंगा द्रोणी में नगरीकरण और महाजनपदों का उदय, आहत सिक्कों का प्रयोग
3.लगभग 500 ई०पू० से 400 ई० पू०मगध शासकों द्वारा सत्ता का सुदृढ़ीकरण करना
4.लगभग 327-325 ई०पू०सिकंदर का भारत पर आक्रमण
5.लगभग 321 ई०पू०चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
6.268-231 ई०पू०अशोक का शासन काल
7.लगभग 200 ई०पू०मध्य एशिया से घनिष्ठ व्यापार संपर्क प्रारंभ
8.लगभग 100 ई०पू० से 200 ई०पू०उत्तर-पश्चिम में शक शासक, रोम से व्यापार
लगभग 78 ई०पू०कनिष्क का राज्यारोहण; शक संवत् आरंभ
10.लगभग 320 ई०पू०गुप्त शासन का आरंभ
11.लगभग $335-375$ ई० पू०समुद्रगुप्त का शासनकाल
12.लगभग $375-415$ ई० पू०चंद्रगुप्त II, दक्षिण में वाकाटक
13.लगभग $500-600$ ई० पू०चालुक्य (कर्नाटक में) व पल्लव (तमिलनाडु में)
14.लगभग $606-647$ ई० पू०हर्षवर्धन कन्नौज में शासक, ह्यनसांग का भारत आना।
15.1784 ईoबंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन
16.1838 ई०जेम्स प्रिंसेप अशोक के अभिलेख पढ़ने में सफल हुआ
17.1877 ईoअलेक्जैंडर कनिंघम द्वारा अशोक के अभिलेखों के अंक अंश का प्रकाशन
18.1886 ई०एपिग्राफिआ कर्नाटिका (Ephigraphia Carnatica) का प्रथम अंक प्रकाशित
19.1888 ई०एपिग्राफिआ इंडिका (Ephigraphia Indica) का प्रथम अंक प्रकाशित
20.1965-66 ई०डी. सी. सरकार द्वारा ‘इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन एपिग्राफ़िकल ग्लोसरी (Indian Ephigraphy and Indian Ephigraphical Glossary) का प्रकाशन

 

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

HBSE 12th Class History ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता के शहरों में लोगों को उपलब्ध भोजन सामग्री की सूची बनाइए। इन वस्तुओं को उपलब्ध कराने वाले समूहों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों की खुदाई से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि इस सभ्यता के लोगों की भोजन सामग्री में निम्नलिखित वस्तुएँ या चीजें सम्मिलित थीं

  • अनाज-गेहूँ, जौ, मटर, ज्वार, बाजरा, तिल, सरसों, राई, चावल आदि।
  • पेड़-पौधों के उत्पाद-खजूर, तरबूज आदि।
  • माँस-पालतू पशुओं एवं जंगली जानवरों का।
  • दूध-पशुओं से।

भोजन सामग्री में शामिल इन वस्तुओं/चीजों को निम्नलिखित समूहों द्वारा उपलब्ध करवाया जाता था

  • किसान-शहरी आबादी को गाँवों के लोग अनाज उपलब्ध करवाते थे।
  • व्यापारी-व्यापारी समूह गाँवों से अनाज को शहरों तक पहुँचाते थे जहाँ अन्नागारों में इसे रखा जाता था।
  • पशुचारी समूह कृषक समुदायों के साथ-साथ पशुचारी समूह भी थे जो माँस और दूध उपलब्ध कराते थे।
  • आखेटक व मछुवारे–हड़प्पा क्षेत्र में आखेटक समूह भी थे जो जंगली पशु, शहद, जड़ी-बूटियाँ उपलब्ध कराते थे। मछुवारे भी भोजन की जरूरत पूरी करते थे।

प्रश्न 2.
पुरातत्वविद् हड़प्पाई समाज में सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं? वे कौन-सी भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं?
उत्तर:
पुरातत्वविद् हड़प्पा सभ्यता के समाज में विद्यमान सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने के लिए एक निश्चित विधि अपनाते हैं। वे शवाधानों का परीक्षण करते हैं। दूसरा खुदाई में प्राप्त हुए विलासिता संबंधी सामग्री का विश्लेषण करते हैं। इन आधारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. शवाधान-हड़प्पा में मृतकों के अन्तिम संस्कार का सबसे ज्यादा प्रचलित तरीका दफनाना ही था। शव सामान्य रूप से उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाते थे। कब्रों में कई प्रकार के आभूषण तथा अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं। जैसे कुछ कब्रों में ताँबे के दर्पण, सीप और सुरमे की सलाइयाँ पाई गई हैं। कुछ शवाधानों में बहुमूल्य आभूषण और अन्य सामान मिले हैं। कुछ कब्रों में बहुत ही सामान्य सामान मिला है।

शवाधानों की बनावट से भी विभेद प्रकट होता है। कुछ कळे सामान्य बनी हैं तो कुछ कब्रों में ईंटों की चिनाई की गई है। ऐसा लगता है कि चिनाई वाली कब्रे उच्चाधिकारी वर्ग अथवा अमीर लोगों की हैं। सारांश में हम कह सकते हैं कि शवाधानों से प्राप्त सामग्री से हमें हड़प्पा के समाज की सन्तोषजनक जानकारी अवश्य प्राप्त हो जाती है।

2. विलासिता-हड़प्पा सभ्यता के नगरों से प्राप्त कलातथ्यों (Artefacts) से भी सामाजिक विभेदन का अनुमान लगाया जाता है। इन कलातथ्यों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जाता है पहले ऐसे अवशेष थे जो दैनिक उपयोग (Utility) के थे तथा दूसरे । विलासिता (Luxury) से जुड़े थे। दैनिक उपयोग की वस्तुएं हड़प्पा सभ्यता के सभी स्थलों से प्राप्त हुई हैं। दूसरा विलासिता की वस्तुओं में महँगी तथा दुर्लभ वस्तुएँ शामिल थीं। इनका निर्माण बाहर से प्राप्त सामग्री/पदार्थों से या जटिल तरीकों द्वारा किया जाता था। उदाहरण के लिए फयॉन्स (घिसी रेत या सिलिका/बालू रेत में रंग और गोंद मिलाकर पकाकर बनाए बर्तन) के छोटे बर्तन इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

ये फयॉन्स से बने छोटे-छोटे पात्र संभवतः सुगन्धित द्रवों को रखने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे। हड़प्पा के कुछ पुरास्थलों से सोने के आभूषणों की निधियाँ (पात्रों में जमीन में दबाई हुई) भी मिली हैं। उल्लेखनीय है कि जहाँ दैनिक उपयोग का सामान हड़प्पा की सभी बस्तियों में मिला है, वहीं विलासिता का सामान मुख्यतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े नगरों में ही मिला है जो संभवतः राजधानियाँ भी थीं। पुरातत्वविद् सामाजिक, आर्थिक स्थिति, खानपान, मकानों, विलासिता आदि भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं।

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प्रश्न 3.
क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों की जल निकास प्रणाली, नगर-योजना की ओर संकेत करती है? अपने उत्तर के कारण बताइए।
उत्तर:
इस तथ्य से सहमति के पर्याप्त प्रमाण हैं कि हड़प्पा सभ्यता के नगरों की जल निकासी प्रणाली नगर-योजना की ओर संकेत करती है। सारे नगर में नालियों का निर्माण नियोजित और सावधानीपूर्वक किया जाता था।

  • वास्तव में ऐसा लगता है कि नालियों तथा गलियों की संरचना पहले की गई थी तथा बाद में इनके साथ घरों का निर्माण किया जाता था। प्रत्येक घर के गंदे पानी की निकासी एक पाईप (पक्की मिट्टी के) से होती थी जो सड़क और गली की नाली से जुड़ी होती थी।
  • शहरों के नक्शों से जान पड़ता है कि सड़कों और गलियों को लगभग एक ग्रिड प्रणाली से बनाया गया था और वे एक-दूसरे को समकोण काटती थीं।
  • जल निकासी की प्रणाली बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि यह कई छोटी बस्तियों में भी दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए लोथल में आवासों के बनाने के लिए. जहाँ कच्ची ईंटों का इस्तेमाल हुआ है वहीं नालियाँ पक्की ईंटों से बनाई गई थीं। नालियों के विषय में मैके नामक पुरातत्वविद् (अर्ली इण्डस सिविलाईजेशन) ने लिखा है, “निश्चित रूप से यह अब तक खोजी गई सर्वथा संपूर्ण प्राचीन प्रणाली है।”

प्रश्न 4.
हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने के लिए प्रयुक्त पदार्थों की सूची बनाइए। कोई भी एक प्रकार का मनका बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(A) पदार्थ-हड़प्पा सभ्यता के लोग गोमेद, फिरोजा, लाल पत्थर, स्फटिक (Crystal), क्वार्ट्ज़ (Quartz), सेलखड़ी (Steatite) जैसे बहुमूल्य एवं अर्द्ध-कीमती पत्थरों के अति सुन्दर मनके बनाते थे। मनके व उनकी मालाएं बनाने में ताँबा, कांस्य और सोना जैसी धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। शंख, फयॉन्स (faience), टेराकोटा या पक्की मिट्टी से भी मनके बनाए जाते थे। इन्हें अनेक आकारों चक्राकार, गोलाकार, बेलनाकार और खंडित इत्यादि में बनाया जाता था। कुछ मनके अलग-अलग पत्थरों को जोड़कर बनाए जाते थे। पत्थर के ऊपर सोने के टोप वाले सुन्दर मनके भी पाए गए हैं।
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(B) प्रक्रिया मनके भिन्न-भिन्न प्रक्रिया से बनाए जाते थे। वस्तुतः यह प्रक्रिया पदार्थ (Material) के अनुसार होती थी। जिस प्रकार सेलखड़ी जैसे मुलायम पत्थर के मनके सरलता से बन जाते थे और ये सबसे ज्यादा संख्या में पाए गए हैं। सेलखड़ी के चूर्ण से लेप तैयार कर उसे सांचे में डालकर अनेक आकारों के मनके तैयार किए जाते थे। सेलखड़ी के सूक्ष्म मनके बनाने की कला तकनीक अभी भी पुरातत्ववेत्ताओं के लिए पहेली बनी हुई है।

कठोर पत्थरों के मनके बनाने की प्रक्रिया कठिन थी। उदाहरण के लिए पुरातत्वविदों का विचार है कि लाल इन्द्रगोपमणि (Carnelian) एक जटिल प्रक्रिया द्वारा बनाई जाती थी। इसे पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पकाकर प्राप्त किया जाता था। कठोर पत्थरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा जाता था। आरी से काटकर आयताकार छड़ में बदला जाता था, फिर उसके बेलनाकार टुकड़े करके पॉलिश से चमकाया जाता था। अन्त में चर्ट बरमे या कांसे के नलिकाकार बरमे से उनमें छेद किया जाता था। मनकों में छेद करने के ऐसे उपकरण चन्हदडो, लोथल, धौलावीरा जैसे स्थलों से प्राप्त हुए हैं।

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प्रश्न 5.
नीचे दिए गए चित्र को देखिए और उसका वर्णन कीजिए। शव किस प्रकार रखा गया है? उसके समीप कौन-सी वस्तुएँ रखी गई हैं? क्या शरीर पर कोई पुरावस्तुएँ हैं? क्या इनसे कंकाल के लिंग का पता चलता है?
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उत्तर:
चित्र देखकर शव के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जाते हैं

  • शव एक गर्त में रखा हुआ है। यह उत्तर-दक्षिण दिशा में रखा हुआ है।
  • शव के समीप सिर की तरफ मृदभाण्ड रखे हैं, इनमें मटका, जार आदि शामिल हैं।
  • शव पर पुरावस्तुएँ हैं विशेषतः कंगन आदि आभूषण हैं। ऐसा लगता है कि ये वस्तुएँ मृतक द्वारा अपने जीवन काल में प्रयोग की गई थीं और हड़प्पाई लोगों का विश्वास था कि वह अगले जीवन में भी उनका प्रयोग करेगा।
  • शव को देखकर उसके लिंग (sex) के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि यह किसी महिला का शव है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी नगर-योजना प्रणाली थी। इसका संबंध विकसित हड़प्पा अवस्था (2600-1900 ई.पू.) से था। नगरों में सड़कें और गलियाँ एक योजना के अनुसार बनाई गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते थे। अन्य सड़कें और गलियाँ मुख्य मार्ग को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खण्डों में विभाजित हो जाते थे। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगन तथा अन्य छोटे नगरों में नगर-योजना प्रणाली में काफी समानताएँ देखने को मिलती हैं। मोहनजोदड़ो नगर में व्यापक खुदाई हुई है, इससे इस नगर की विशिष्टताओं की जानकारी मिलती है। इन विशिष्टताओं से हम अन्य नगरों की विशिष्टताओं को भी समझ सकते हैं।

मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताएँ-मोहनजोदड़ो को हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा शहरी केंद्र माना जाता है। इस सभ्यता की नगर-योजना, गृह निर्माण, मुद्रा, मोहरों आदि की अधिकांश जानकारी मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है।

1. नगर दुर्ग–यह नगर दो भागों में बँटा था। एक भाग में ईंटों से बनाए ऊँचे चबतरे पर स्थित बस्ती है। इसके चारों ओर ईंटों से बना परकोटा (किला) था, जिसे ‘नगर दुर्ग’ (Citadel) कहा जाता है। ‘नगर दुर्ग’ का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था। इसमें पकाई ईंटों से बने अनेक बड़े भवन पाए गए हैं। दुर्ग क्षेत्र में शासक वर्ग के लोग रहते थे। निचले नगर के चारों ओर भी दीवार थी। इस क्षेत्र में भी कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था। ये चबूतरे भवनों की आधारशिला (Foundation) का काम करते थे। दुर्ग क्षेत्र के निर्माण तथा निचले क्षेत्र में चबूतरों के निर्माण के लिए विशाल संख्या में श्रमिकों को लगाया गया होगा।

2. प्लेटफार्म-इस नगर की यह भी विशेषता रही होगी कि पहले प्लेटफार्म या चबूतरों का निर्माण किया जाता होगा तथा बाद में इस तय सीमित क्षेत्र में निर्माण कार्य किया जाता होगा। इसका अभिप्राय यह हुआ कि पहले योजना बनाई जाती होगी तथा बाद में उसे योजनानुसार लागू किया जाता था। नगर की पूर्व योजना (Pre-planning) का पता ईंटों से भी लगता है। यह ईंटें पकाई हुई (पक्की) तथा धूप में सुखाई हुई होती थीं। इनका मानक (1:2:4) आकार था। इसी मानक आकार की ईंटें हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगरों में भी प्रयोग हुई हैं।

3. गृह स्थापत्य-मोहनजोदड़ो से उपलब्ध आवासीय भवनों के नमूनों से सभ्यता के गृह स्थापत्य का अनुमान लगाया जाता है। घरों की बनावट में समानता पाई गई है। ज्यादातर घरों में आंगन (Courtyard) होता था और इसके चारों तरफ कमरे बने होते थे। ऐसा लगता है कि आंगन परिवार की गतिविधियों का केंद्र था। उदाहरण के लिए गर्म और शुष्क मौसम में आंगन में खाना पकाने व कातने जैसे कार्य किए जाते थे। ऐसा भी प्रतीत होता है कि घरों के निर्माण में एकान्तता (Privacy) का ध्यान रखा जाता था। भूमि स्तर (Ground level) पर दीवार में कोई भी खिड़की नहीं होती थी। इसी प्रकार मुख्य प्रवेश द्वार से घर के अन्दर या आंगन में नहीं झांका/देखा जा सकता था। बड़े घरों में कई-कई कमरे, रसोईघर, शौचालय एवं स्नानघर होते थे। कई मकान तो दो मंजिले थे तथा ऊपर पहुंचने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं। मोहनजोदड़ो में प्रायः सभी घरों में कुएँ होते थे। विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि मोहनजोदड़ो नगर में लगभग सात सौ कुएँ थे।

4. दुर्ग क्षेत्र में भवन-हमने जाना कि मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और कालीबंगन जैसे नगर दो भागों में बँटे हुए थे। एक भाग कच्ची ईंटों से बने ऊँचे चबूतरे पर बना होता था तथा इसके चारों ओर मोटी दीवार होती थी। इसे दुर्ग कहा जाता है। मोहनजोदड़ो दुर्ग क्षेत्र में सार्वजनिक महत्त्व अनेक भवनों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं

(i) विशाल स्नानागार-यह मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल है। यह ईंटों के स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। आयताकार में बना यह स्नानागार 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.45 मीटर गहरा है। इसके उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी हैं। ये सीढ़ियाँ स्नानागार के तल तक जाती हैं। यह स्नानागार पक्की ईंटों से बना है। इसे बनाने में चूने तथा तारकोल का प्रयोग किया गया था। इसके साथ ही कुआँ था जिससे इसे पानी से भरा जाता था। साफ करने के लिए इसकी पश्चिमी दीवार में तल पर नालियाँ बनी थीं। स्नानागार के तीन ओर मंडप एवं कक्ष बने हुए थे। विद्वानों का मानना है कि इस स्नानागार और भवन का प्रयोग धार्मिक समारोहों के लिए किया जाता था।
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(ii) विशाल भवन-विशाल स्नानागार के समीप ही एक विशाल इमारत के अवशेष हैं। यह भवन 69 x 23.5 मीटर आकार का है। इसके बारे में अनुमान है कि यह किसी उच्चाधिकारी (पुरोहित) का निवास स्थान रहा होगा। इसमें 33 वर्ग फुट का खुला आंगन है और इसमें तीन बरांडे खुलते हैं।

(iii) अन्नागार-मोहनजोदड़ो में स्नानागार के साथ (पश्चिम में) एक विशाल अन्नागार भी मिला है। इस अन्नागार में ईंटों से निर्मित 27 खण्ड (Blocks) हैं। इन खंडों में प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हुए हैं। हड़प्पा में भी इसी प्रकार का अन्नागार मिला है। इस भवन का आकार 50 x 40 मीटर है। इस भवन के बीच में सात मीटर चौड़ा गलियारा था। इसमें अनाज, कपास तथा व्यापारिक वस्तुओं का भण्डारण किया जाता था।

5. सड़कें और गलियाँ-जैसा हमने बताया कि सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो में निचले नगर में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है। अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। गलियाँ एवं गलियारे 1.2 मीटर (4 फुट) या उससे अधिक चौड़े थे। घरों के बनाने से पहले ही सड़कों व गलियों के लिए स्थान छोड़ दिया जाता था। उल्लेखनीय है कि मोहनजोदड़ो के अपने लम्बे जीवनकाल में इन सड़कों पर अतिक्रमण (encroachments) या निर्माण कार्य दिखाई नहीं देता।

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6. नालियों की व्यवस्था-मोहनजोदड़ो नगर में नालियों का निर्माण भी बहुत सावधानीपूर्वक किया गया था। ऐसा लगता है कि नालियों तथा गलियों की संरचना पहले की गई थी तथा बाद में इनके साथ घरों का निर्माण किया गया था। प्रत्येक घर के गन्दे पानी (Waste Water) की निकासी एक पाईप (Terracotta Pipe) से होती थी जो सड़क गली की नाली से जुड़ा होता था। जल निकासी की प्रणाली बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि यह कई छोटी बस्तियों में भी दिखाई पड़ती है।

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता में शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की सूची बनाइए तथा चर्चा कीजिए कि ये किस प्रकार प्राप्त किए जाते होंगे?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता अपने हस्तशिल्प उत्पादों के लिए विख्यात थी। हड़प्पा के लोगों ने इन शिल्प उत्पादों में महारत हासिल कर ली थी। मनके बनाना (bead-making), सीपी उद्योग (Shell Cutting Industry), धातु-कर्म (सोना-चांदी के आभूषण, ताँबा, कांस्य के बर्तन, खिलौने उपकरण आदि), तौल निर्माण, प्रस्तर उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाना (Pottery), ईंटें बनाना (Brick Laying), मुद्रा निर्माण (Seal-making) आदि हड़प्पा के लोगों के प्रमुख शिल्प उत्पाद थे। कई बस्तियाँ तो इन उत्पादों के लिए ही प्रसिद्ध थीं। उदाहरण के लिए चन्हुदड़ो बस्ती में मुख्यतः शिल्प उत्पादों का ही कार्य होता था। .

(A) सूची-इन उत्पादों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी। कच्चे माल की सूची निम्नलिखित प्रकार की है-चिकनी मिट्टी, पत्थर, तांबा, जस्ता, कांसा, सोना, शंख, कार्नीलियन (सुन्दर लाल रंग), स्फटिक, क्वार्टज़, सेलखड़ी, लाजवर्द मणि (नीले रंग के अफगानी पत्थर), कीमती लकड़ी, कपास, ऊन, सुइयाँ, फयॉन्स, जैस्पर, चक्कियाँ आदि।

(B) माल प्राप्त करने के तरीके कच्चे माल की सूची में से कई चीजें स्थानीय तौर पर मिल जाती थीं परंतु अधिकतर; जैसे पत्थर, धातु, लकड़ी इत्यादि बाहर से मंगवाई जाती थीं। पकाई मिट्टी से बनी बैलगाड़ियों के खिलौने इस बात का संकेत हैं कि बैलगाड़ियों का प्रयोग सामान का आयात करने के लिए होता था। सिन्धु व सहायक नदियों का भी मार्गों के रूप में प्रयोग होता था। समुद्र तटीय मार्गों का इस्तेमाल भी माल लाने के लिए किया जाता था।
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1. अंतर्खेत्रीय संपर्कों से माल की प्राप्ति-हड़प्पावासी भारतीय उपमहाद्वीप व आसपास के क्षेत्रों से माल उत्पादन के लिए वस्तुएँ (कच्चा माल) प्राप्त करते थे।

1. बस्तियों की स्थापना-सिन्ध, बलूचिस्तान के समुद्रतट, गुजरात, राजस्थान तथा अफगानिस्तान तक के क्षेत्र से कच्चा माल प्राप्त करने के लिए उन्होंने बस्तियों का निर्माण किया हुआ था। इन क्षेत्रों में प्रमुख बस्तियां थीं-नागेश्वर (गुजरात), बालाकोट, शोर्तुघई (अफगानिस्तान), लोथल आदि। नागेश्वर और बालाकोट से शंख प्राप्त करते थे। शोर्तुघई (अफगानिस्तान) से कीमती लाजवर्द मणि (नीलम) आयात करते थे। लोथल के संपर्कों से भड़ौच (गुजरात) में पाई जाने वाली इन्द्रगोपमणि (Carnelian) मँगवाई जाती थी। इसी प्रकार उत्तर गुजरात व दक्षिण राजस्थान क्षेत्र से सेलखड़ी का आयात करते थे।

स्थान/बस्तीआयातित कच्चा माल
नागेश्वरशंख
बालाकोटशंख
शोर्तुघईनीलम (लाजवर्द मणि)
लोथलइन्द्रगोपमणि
दक्षिण राजस्थान व उत्तर गुजरातसेलखड़ी
खेतड़ीतांबा
दक्षिण भारतसोना

2. अभियानों से माल प्राप्ति हड़प्पा सभ्यता के लोग उपमहाद्वीप के दूर-दराज क्षेत्रों तक अभियानों (Expeditions) का आयोजन कर कच्चा माल प्राप्त करने का तरीका भी अपनाते थे। इन अभियानों से वे स्थानीय क्षेत्रों के लोगों से संपर्क स्थापित करते थे। इन स्थानीय लोगों से वे वस्तु विनिमय से कच्चा माल प्राप्त करते थे। ऐसे अभियान भेजकर राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र से तांबा तथा दक्षिण भारत में कर्नाटक क्षेत्र से सोना प्राप्त करते थे। उल्लेखनीय है कि इन क्षेत्रों से हड़प्पाई पुरा वस्तुओं तथा कला तथ्यों के साक्ष्य मिले हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने खेतड़ी क्षेत्र से मिलने वाले साक्ष्यों को गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है जिसके विशिष्ट मृदभांड हड़प्पा के मृदभांडों से भिन्न हैं।

2. दूरवर्ती क्षेत्रों से संपर्क-हड़प्पा सभ्यता के नगरों व्यापारियों का पश्चिम एशिया की सभ्यताओं के साथ संपर्क था। उल्लेखनीय है कि मेसोपोटामिया हड़प्पा सभ्यता के मुख्य क्षेत्र से बहुत दूर स्थित था फिर भी इस बात के साक्ष्य मिल रहे हैं कि इन दोनों सभ्यताओं के बीच व्यापारिक संबंध था।

1. तटीय बस्तियाँ–यह व्यापारिक संबंध समुद्रतटीय क्षेत्रों के समीप से (समुद्री मार्गों से) यात्रा करके स्थापित हुए थे। मकरान (बलूचिस्तान) तट पर सोटकाकोह बस्ती तथा सुत्कागेंडोर किलाबन्द बस्ती इन यात्राओं के लिए आवश्यक राशन-पानी प्रदान करती होगी।

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2. मगान-ओमान की खाड़ी पर स्थित रसाल जनैज (Rasal-Junayz) भी व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थी। सुमेर के लोग ओमान को मगान (Magan) के नाम से जानते थे। मगान में हड़प्पा सभ्यता से जुड़ी वस्तुएँ; जैसे मिट्टी का मर्तबान, बर्तन, इन्द्रगोप के मनके, हाथी-दांत व धातु के कला तथ्य मिले हैं। हाल ही में पुरातात्विक खोजों से संकेत प्राप्त होते हैं कि हड़प्पा के लोग संभवतः ओमान (अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिम छोर पर स्थित) से ताँबा मँगवाते थे। हड़प्पाई कला तथ्यों (Artefacts) और ओमानी ताँबे दोनों में निकिल (Nickel) के अंशों का मिलना दोनों के सांझा उद्भव (Origin) की ओर संकेत करता है।

3. दिलमुन–फारस की खाड़ी में भी हड़प्पाई जहाज पहुँचते थे। दिलमुन (Dilmun) तथा पास के तटों पर जहाज जाते थे। दिलमुन से हड़प्पा के कलातथ्य तथा लोथल से दिलमुन की मोहरें प्राप्त हुई हैं।

4. मेसोपोटामिया-वस्तुतः दिलमुन (बहरीन के द्वीपों से बना) मेसोपोटामिया का प्रवेश द्वार था। मेसोपोटामिया के लोग सिंधु बेसिन (Indus Basin) को मेलुहा (Meluhha) के नाम से जानते थे (कुछ विद्वानों के मतानुसार मेलुहा सिंधु क्षेत्र का बिगड़ा हुआ नाम है)। मेसोपोटामिया के लेखों (Texts) में मेलुहा से व्यापारिक संपर्क का उल्लेख है। पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात हुआ है कि मेसोपोटामिया में हड़प्पा की मुद्राएँ, तौल, मनके, चौसर के नमूने (dice), मिट्टी की छोटी मूर्तियाँ मिली हैं। इसका अभिप्राय है कि हड़प्पाई लोग मेसोपोटोमिया से व्यापार संपर्क रखते थे तथा संभवतः वे यहाँ से चाँदी एवं बढ़िया किस्म की लकड़ी प्राप्त करते थे।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि पुरातत्वविद् किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं।
उत्तर:
पुरातत्वविदों को खुदाई के दौरान अनेक प्रकार के शिल्प तथ्य प्राप्त होते हैं। वे इन शिल्प तथ्यों को अन्य वैज्ञानिकों की मदद से अन्वेषण व विश्लेषण करके व्याख्या करते हैं। इस कार्य में वे वर्तमान में प्रचलित प्रक्रियाओं, विश्वासों आदि का भी सहारा लेते हैं। हड़प्पा सभ्यता के संबंध में पुरातत्वविदों के अग्रलिखित निष्कर्षों से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वे किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं

1. जीवन-निर्वाह का आधार कृषि-पुरावशेषों तथा पुरावनस्पतिज्ञों की मदद से पुरातत्वविद् हड़प्पा सभ्यता की जीविका निर्वाह प्रणाली के संबंध में निष्कर्ष निकलते हैं। उनके अनुसार नगरों में अन्नागारों का पायां जाना इस बात का प्रमाण है कि इस सभ्यता के लोगों के जीवन-निर्वाह या भरण पोषण का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी। सिंधु नदी के जलोढ़ मैदानों में यहाँ के किसान अनेक फसलें उगाते थे। पुरा-वनस्पतिज्ञों (Archaeo-botanists) के अध्ययनों से इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली अनेक फसलों की जानकारी मिली है।

सभ्यता के विभिन्न स्थलों से गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, तिल, राई और मटर जैसे अनाज के दाने मिले हैं। गेहूँ की दो किस्में पैदा की जाती थीं। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन से गेहूँ और जौ प्राप्त हुए हैं। गुजरात में ज्वार और रागी का उत्पादन होता था। सौराष्ट्र में बालाकोट में बाजरा व ज्वार के प्रमाण मिले हैं। 1800 ई.पू. में लोथल में चावल उगाने के प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोग सम्भवतः दुनिया में पहले थे जो कपास का उत्पादन करते । इसके साक्ष्य मेहरगढ़, मोहनजोदड़ो आदि स्थानों से मिले हैं। .

2. पशुपालन व शिकार-इसी प्रकार सभ्यता से प्राप्त शिल्प तथ्यों तथा पुरा-प्राणिविज्ञानियों (Archaeo-zoologists) के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि हड़प्पन भेड़, बकरी, बैल, भैंस, सुअर आदि जानवरों का पालन करने लगे थे। कूबड़ वाला सांड उन्हें विशेष प्रिय था। गधे और ऊँट का पालन बोझा ढोने के लिए करते थे। ऊँटों की हड्डियाँ बड़ी मात्रा में पाई गई हैं। इसके अतिरिक्त भालू, हिरण, घड़ियाल जैसे पशुओं की हड्डियाँ भी मिली हैं। मछली व मुर्गे की हड्डियाँ भी प्राप्त हुई हैं। वे हाथी, गैंडा जैसे पशुओं से भी परिचित थे।

3. सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं की पहचान-पुरातत्वविद् विभिन्न प्रकार की सामग्री से विभिन्न तरीकों से यह जानने की। कोशिश करते हैं कि अध्ययन किए जाने वाले समाज में सामाजिक-आर्थिक विभेदन मौजद था या नहीं। उदाहरण के लिए हड के समाज में सामाजिक-आर्थिक स्थिति में भेद को जानने के लिए कई विधियाँ अपनाई गई हैं। शवाधानों से प्राप्त सामग्री के आधार पर इस भेद का पता लगाया जाता है। आप संभवतः मिस्र के विशाल पिरामिडों (जिनमें से कुछ हड़प्पा के समकालीन थे) से परिचित हैं। इनमें से कई राजकीय शवाधान थे जहाँ बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति दफनाई गई थी। इसी प्रकार पुरातत्वविद् दैनिक प्रयोग तथा विलासिता से संबंधी सामग्री की पहचान कर सामाजिक-आर्थिक भिन्नता का पता लगाते थे।

4. शिल्प उत्पादन केंद्रों की पहचान-हड़प्पा के शिल्प उत्पादन केंद्रों की पहचान के लिए भी विशेष विधि अपनाई जाती है। पुरातत्वविद् किसी उत्पादन केंद्र को पहचानने में कुछ चीजों का प्रमाण के रूप में सहारा लेते हैं। पत्थर के टुकड़ों, पूरे शंखों, सीपी के ट्रकडों, तांबा, अयस्क जैसे कच्चे माल, अपूर्ण वस्तुओं, छोड़े गए माल और कडा-कर्कट आदि चीजों से उत्पादन केंद्रों की पहचान की जाती है। कारीगर वस्तुओं को बनाने के लिए पत्थर को काटते समय या शंख-सीपी को काटते हुए अनुपयोगी सामग्री छोड़ देते थे। कार्यस्थलों (Work Shops) से प्राप्त ऐसी सामग्री के ढेर होने पर अनुमान लगाया जाता है कि वह स्थल उत्पादन केंद्र रहा होगा।

5. परोक्ष तथ्यों के आधार पर व्याख्या कभी-कभार पुरातत्वविद् परोक्ष तथ्यों का सहारा लेकर वर्गीकरण करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ हड़प्पा स्थलों पर कपड़ों के अंश मिले हैं। तथापि कपड़ा होने के प्रमाण के लिए दूसरे स्रोत जैसे मूर्तियों का सहारा लिया जाता है। किसी भी शिल्प तथ्य को समझने के लिए पुरातत्ववेत्ता को उसके.संदर्भ की रूपरेखा विकसित करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए हड़प्पा की मोहरों को तब तक नहीं समझा जा सका जब तक उन्हें सही संदर्भ में नहीं रख पाए। वस्तुतः इन मोहरों को उनके सांस्कृतिक अनुक्रम (Cultural Sequence) एवं मेसोपोटामिया में हुई खोजों की तुलना के आधार पर ही इन्हें सही अर्थों में समझा जा सका।

निष्कर्ष व्यापक तथ्यों के अभाव, विस्तृत खुदाई न होने, लिपि न पढ़े जाने के कारण हड़प्पा सभ्यता के संबंध में पुरातत्वविदों के कई निष्कर्ष संदिग्ध बने हुए हैं। जैसे विशाल स्नानागार का संबंध आनुष्ठानिक क्रिया से था या नहीं। नारी मृण्मूर्तियों का क्या उपयोग था। साक्षरता कितनी थी। फिर भी पुरातत्वविद् उपलब्ध साक्ष्यों से इतिहास का पुनर्निर्माण करने का प्रयास करते हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 9.
हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के समय में राजनीतिक सत्ता का क्या स्वरूप था तथा वे क्या-क्या कार्य करते थे। इस संबंध में पुरातत्वविदों तथा इतिहासकारों में एक मत नहीं है। विशेषतौर पर हड़प्पा लिपि के नहीं पढ़ पाने के कारण यह पक्ष अभी तक अस्पष्ट है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि वहाँ पर शासक वर्ग अवश्य था। चाहे वह कुलीनतंत्र हो या धर्मतंत्र। ऐसा निष्कर्ष इसलिए भी निकाला जाता है कि इतने बड़े पैमाने पर नगर तथा उसमें उत्तम व्यवस्था के लिए शासक वर्ग होना जरूरी है।

इसी प्रकार अन्नागारों, विशाल भवनों, औजारों, हथियारों, मोहरों में समरूपता से लगता है कि शासक अवश्य होंगे। व्यापार को नियंत्रण करने के लिए भी कोई प्रशासन की व्यवस्था रही होगी। हड़प्पा सभ्यता के सभी साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि हड़प्पाई समाज में शासक थे तथा उनके द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से दिया जा सकता है

1. शासकों के द्वारा जटिल फैसले लिए जाते होंगे तथा उन्हें लागू करवाने जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए जाते होंगे। हड़प्पा स्थलों पर प्राप्त पुरावशेषों में असाधारण एकरूपता इस बात का सूचक है कि इस बारे में नियम रहे होंगे। मृदभाण्ड, मोहरें, बाट तथा ईंटों में यह असाधारण एकरूपता शासकों के आदेशों पर ही रही होगी।

2. बस्तियों की स्थापना व नियोजन का निर्णय लेना, बड़ी संख्या में ईंटों को बनवाना, शहरों में विशाल दुर्ग/दीवारें, सार्वजनिक भवन, दुर्ग क्षेत्र के लिए चबूतरे का निर्माण कार्य, लाखों की संख्या में विभिन्न कार्यों के लिए मजदूरों की व्यवस्था करना ; जैसे कार्य शासकों के द्वारा ही करवाए जाते रहे होंगे। नगरों की सारी व्यवस्था की देखभाल शासक वर्ग द्वारा की जाती थी।

3. कुछ पुरातत्वविदों का कहना है कि मेसोपोटामिया के समान हड़प्पा में भी पुरोहित शासक रहे होंगे। पाषाण की एक मूर्ति की पहचान ‘पुरोहित राजा’ के रूप में की जाती है जो एक प्रासाद महल में रहता था। लोग उसे पत्थर की मूर्तियों में आकार देकर सम्मान करते थे। यह संभावना भी व्यक्त की जाती है कि यह पुरोहित राजा धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते थे। यह भी कहा जाता है कि विशाल स्नानागार एक आनुष्ठानिक क्रिया के आयोजन के लिए बनवाया गया होगा। यद्यपि हड़प्पा सभ्यता की आनुष्ठानिक प्रथाओं को अभी तक ठीक प्रकार से नहीं समझा जा सका है।

4. कुछ विद्वानों का मत है कि हड़प्पाई समाज में एक राजा नहीं था बल्कि कई शासक थे जैसे मोहनजोदड़ो हड़प्पा आदि के अपने अलग-अलग शासक होते थे। वे अपने-अपने क्षेत्र में व्यवस्था को देखते थे।

5. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा राज्य कांस्य युग का था तथा यह लोह युग के राज्य से भिन्न था। न इसकी स्थायी सेना थी और न स्थायी नौकरशाही। भू-राजस्व भी वसूल नहीं किया जाता था। शासक वर्ग में विभिन्न समुदायों के प्रमुख लोग शामिल थे जो आपस में मिलकर इसे चलाते थे। इन लोगों का तकनीकी, शिल्पों तथा व्यापार पर अधिकार था। ये शिल्पकारों से उत्पादन करवाते थे। दूर-दूर तक व्यापार करते थे। किसानों से अनाज शहरों तक आता था तथा इसे अन्नागारों में रखा जाता था।

6. हड़प्पा सभ्यता के काल में उभरे क्षेत्रीय, अन्तक्षेत्रीय तथा बाह्य व्यापार को सुचारू रूप से चलाने का कार्य भी शासक के हाथों में ही होगा। शासक बहुमूल्य धातुओं व मणिकों के व्यापार पर नियंत्रण रखते होंगे। इस व्यापार से उन्हें धन प्राप्त होता था। बड़े पैमाने पर शिल्प उत्पादों, माप-तोल प्रणाली, कलाओं का संचालन भी शासक करते होंगे।

स्पष्ट है कि नगर नियोजन, भवन निर्माण, दुर्ग निर्माण, निकास प्रणाली, गलियों का निर्माण, मानव संसाधन को कार्य पर लगाना, शिल्प उत्पाद, खाद्यान्न प्राप्ति, व्यापारिक कार्य, धार्मिक अनुष्ठान जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों का संपादन हड़प्पाई शासकों द्वारा किया जाता होगा।

ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता HBSE 12th Class History Notes

→ पुरातात्विक साक्ष्य-पुरानी ऐतिहासिक वस्तुओं को पुरातात्विक साक्ष्य कहते हैं। इनमें भौतिक अवशेष; जैसे मकान, घर, इमारतें आदि तथा मृदभांड, मोहरें, औजार, सिक्के आदि सम्मिलित हैं।

→ सेलखड़ी-एक प्रकार का पत्थर जिसका प्रयोग हड़प्पा सभ्यता में मोहरें बनाने के लिए होता था।

→ कांस्य युग-इस युग का अर्थ है जब ताँबा व टिन को मिलाकर कांसा बनाया जाता था तथा इस धातु के बर्तन, औजार, उपकरण, हथियार आदि बनाए जाते थे।

→ शिल्प तथ्य-मनुष्य की कारीगरी का नमूना । पुरातत्वविद् इससे इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।

→ मोहर-पत्थर या लाख अथवा अन्य किसी वस्तु का टुकड़ा। इस पर कोई आकृति बनी होती थी। इसे प्रमाणीकरण के लिए प्रयोग में लाया जाता था।

→ रेडियो कार्बन डेटिंग इसे सी-14 (कार्बन-14) भी कहते हैं। यह निर्जीव कार्बनिक पदार्थ में रेडियोधर्मी आइसोटोप को मापने की विधि है। सी-14 का आधा जीवन 5568 वर्ष तथा पूर्ण कार्बन जीवन 111,36 वर्ष होता है। मृत वस्तु में कार्बन घटता रहता है।

→ खानाबदोशी-पशुचारी और चारे की तलाश में घूमने वाले समुदायों से जुड़ी जीवन-शैली। ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं।

→ कछारी मैदान-नदी किनारे के आस-पास वह क्षेत्र जिस पर बाढ़ के कारण नदी की गाद जमा होती है।

→ उत्खनन-प्राचीन स्थल की खुदाई करना।

→ अन्नागार-अनाज रखने के लिए भंडार गृह।

→ चित्रलिपि-जिस लिपि में चित्रों को प्रतीक के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।

→ टेराकोटा-मूर्तियाँ बनाने के लिए चिकनी मिट्टी तथा रेत का मिश्रण कर आग में पकाना। यह भूरे लाल रंग का बन जाता है।

→ मनका-पत्थर का छोटा टुकड़ा जिसके बीच में धागा पिरोने के लिए छेद होता था।

→ मेसोपोटामिया-इराक का प्राचीन नाम।

→ अग्निवेदियां कालीबंगन में पाए गए ईंटों से बने गड्ढे। इनमें जानवरों की हड्डियाँ तथा राख मिली है।

→ पारिस्थितिकी पौधों का पशुओं या मनुष्यों या संस्थाओं का पर्यावरण के संबंध में अध्ययन।

→ विवर्तनिक विक्षोभ-वह प्रक्रिया जिससे पृथ्वी के धरातल के बहुत बड़े क्षेत्र ऊपर उठ जाते हैं।

→ शमन-वे महिलाएँ या पुरुष जो जादुई तथा इलाज करने की शक्ति होने के साथ ही दूसरी दुनिया से संपर्क बनाने की सामर्थ्य का दावा करते हैं।

→ बी.सी. (B.C.)-बिफोर क्राइस्ट (Before Christ) ईसा पूर्व (ई.पू.)।

→ ए.डी. (A.D.)-ऐनो डॉमिनी (Anno-Domini) लैटिन भाषा में अभिप्राय है इन द इयर आफ लॉर्ड (In the Year of Lord) अर्थात् ईसा के जन्म के वर्ष से।

→ सी.ई. (CE.)-कॉमन एरा (Common Era) आजकल ए.डी. के बजाए सी.ई. का प्रयोग किया जाने लगा है।

→ बी.सी.ई. (BCE)-बिफोर कॉमन एरा (Before Common Era) आजकल बी.सी. (ई.पू.) के स्थान पर बी.सी.ई. का प्रयोग किया जाता है।

→ सी. (Circa)-सिरका (Circa) लैटिन भाषा का शब्द है। इसका प्रयोग अनुमानतः के अर्थ में किया जाता है।

→ बी.पी. (B.P.)-बी.पी. (Before Present) अर्थात् वर्तमान से पहले।

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में हुई खुदाई तथा नवीन नगरीय सभ्यता की घोषणा ने भारतीय इतिहास की हमारी धारणा को बदल दिया। इससे पूर्व ऋग्वेद व अन्य वैदिक साहित्य के आधार पर लगभग 15वीं सदी ई.पू. से वैदिक समाज से भारतीय इतिहास का प्रारंभ माना जाता था। शहरों के विषय में यह विचार था कि भारत में इनका उद्भव 6वीं सदी ई.पू. में गंगा-यमुना की द्रोणी से हुआ। हड़प्पा सभ्यता की खोज ने इस धारणा को पूर्णतः बदल दिया। ऐसा इसलिए हुआ कि अब जिन नगरों व सभ्यता का पता चला वह लगभग 2500 ई.पू. के थे। इनका विशाल क्षेत्र सिंधु व सहायक नदियों तथा उससे बाहर तक फैला हुआ था। पुरातत्वविदों की दृष्टि से इस नगरीय सभ्यता के विशिष्ट पहचान बिंदु थे-ईंटें (पक्की व कच्ची), कीमती व अर्द्धकीमती पत्थर के मनके, मानव व पशुओं की अस्थियाँ, मोहरें आदि। उल्लेखनीय है कि नई बस्तियों की खोजों, खुदाइयों तथा अनुसंधानों ने इस सभ्यता के संबंध में हमारे ज्ञान में वृद्धि की है।

आज भी नए-नए स्थलों की खोज हो रही है और हो सकता है कि भविष्य में और भी नए-नए कला तथ्यों (Artefacts) के प्रकाश में आने पर हड़प्पावासियों के बारे में हमारे विचारों में बदलाव आए। प्रस्तुत अध्याय में इन प्रथम नगरों की कहानी के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। हम इन शहरी केंद्रों की आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं को समझने का प्रयास करेंगे। अध्याय में हम यह जान पाएँगे कि पुरातत्वविद् प्राप्त शिल्प तथ्यों का विश्लेषण किस प्रकार करते हैं। साथ ही हम यह भी जानेंगे कि नई सामग्री (Material) तथा तथ्य (Data) मिलने पर किस प्रकार इतिहास की स्थापित अवधारणाओं (exisiting notions) में परिवर्तन आता है।

→ हड़प्पा की खोज के बाद अब तक इस सभ्यता से जुड़ी लगभग 2800 बस्तियों की खोज की जा चुकी है। इन बस्तियों की विशेषताएँ हडप्पा से मिलती हैं। विद्वानों (सरजॉन मार्शल) ने इस सभ्यता को “सिंध घाटी की सभ्यता” का नाम दिया क्योंकि शुरू में बहुत-सी बस्तियाँ सिंधु घाटी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थीं।

→ वर्तमान में पुरातत्ववेत्ता इसे “हड़प्पा की सभ्यता” कहना पसंद करते हैं। यह नामकरण इसलिए उचित है कि इस संस्कृति से संबंधित सर्वप्रथम खुदाई हड़प्पा में हुई थी। अन्य स्थानों की खुदाई से भी सभ्यता के वही लक्षण प्राप्त हुए जो हड़प्पा से प्राप्त हुए थे।

→ यद्यपि परिपक्व हड़प्पा सभ्यता का केंद्र स्थल सिन्ध और पंजाब में (मुख्यतः सिंधु घाटी में) दिखाई पड़ता है, तथापि यह सभ्यता बलूचिस्तान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू, उत्तरी राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरी महाराष्ट्र तक फैली हुई थी अर्थात् इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान से लेकर उत्तर-पूर्व में मेरठ तक का था। यह सारा क्षेत्र त्रिभुज के आधार का था। इसका पूरा क्षेत्रफल लगभग 1,299,600 वर्ग किलोमीटर आंका जाता है। हड़प्पा सभ्यता का विस्तार इसकी समकालीन मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से काफी बड़ा था।

→ पूर्ण विकसित सभ्यता का समय लगभग 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू. माना जाता है। इस सभ्यता के पूर्ण विकसित रूप से पहले तथा बाद में भी इसका काल माना जाता है। विकसित स्वरूप को अलग दर्शाने के लिए इन्हें आरंभिक हड़प्पा (Early Harappan) तथा उत्तर हड़प्पा (Late Harappan) नाम दिया जाता है।

→ प्राक हड़प्पा काल में सिंधु क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न कृषक समुदायों में सांस्कृतिक परम्पराओं में समानता लगती है। इन छोटी-छोटी परंपराओं के मेल से एक बड़ी परंपरा प्रकट हुई। परंतु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये समुदाय कृषक व पशुचारी थे। कुछ शिल्पों में पारंगत थे। इनकी बस्तियाँ सामान्यतः छोटी थीं तथा कोई भी बड़ी इमारतें नहीं थीं। कुछ प्राक हड़प्पा बस्तियों का परित्याग भी हुआ तथा कुछ स्थलों पर जलाये जाने के भी प्रमाण मिले हैं। तथापि यह स्पष्ट लगता है कि हड़प्पा सभ्यता का आविर्भाव लोक संस्कृति के आधार पर हुआ।

→ नगरों में अन्नागारों का पाया जाना इस बात का प्रमाण है कि इस सभ्यता के लोगों के जीवन-निर्वाह या भरण पोषण का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी।

→ उपलब्ध साक्ष्यों से कृषि तकनीक से संबंधित कुछ निष्कर्ष निकाले गए हैं। उदाहरण के लिए बनावली (हरियाणा) से मिट्टी के हल का नमूना मिला है। बहावलपुर से भी ऐसा नमूना मिला है। कालीबंगन (राजस्थान) में प्रारंभिक हड़प्पा काल के खेत को जोतने के प्रमाण मिले हैं। शोर्तुघई (उत्तरी अफगानिस्तान) से भी जुते हुए खेत (Plough and field) प्राप्त हुए हैं। पक्की मिट्टी से बनाए वृषभ (बैल) के खिलौनों के साक्ष्य तथा मोहरों पर पशुओं के चित्रों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे बैलों का खेतों की जुताई के लिए प्रयोग करते थे।

→ संभवतः लकड़ी के हत्थों में लगाए गए पत्थर के फलकों (Stone blades) का प्रयोग फसलों को काटने के लिए किया जाता था। धातु के औजार (तांबे की हँसिया) भी मिले हैं परंतु महंगी होने की वजह से इसका प्रयोग.क्रम होता होगा।

→ सभ्यता से प्राप्त शिल्प तथ्यों तथा पुरा-प्राणिविज्ञानियों (Archaeo-zoologists) के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि हड़प्पन भेड़, बकरी, बैल, भैंस, सुअर आदि जानवरों का पालन करने लगे थे। कूबड़ वाला सांड उन्हें विशेष प्रिय था।

→ हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी नगर योजना प्रणाली थी। इसका संबंध विकसित हड़प्पा अवस्था (2600-1900 ई.पू.) से था। नगरों में सड़कें और गलियाँ एक योजना के अनुसार बनाई गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते थे। अन्य सड़कें और गलियाँ मुख्य मार्ग को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खण्डों में विभाजित हो जाते थे।

→ सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो में निचले नगर में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है।

→ अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। जिस प्रकार मोहनजोदड़ो में गृहों का निर्माण नियोजित तथा सावधानीपूर्वक किया गया था, उसी प्रकार सारे नगर में नालियों का निर्माण भी बहुत सावधानीपूर्वक किया गया था।

→ मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार है। यह ईंटों के स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। आयताकार में बना यह स्नानागार 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.45 मीटर गहरा है। इसके उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी हैं। ये सीढ़ियाँ स्नानागार के तल तक जाती हैं। यह स्नानागार पक्की ईंटों से बना है।

→ पुरातत्ववेत्ता किसी सभ्यता में विद्यमान सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को जानने के लिए कई प्रकार के अवशेषों का प्रमाण के तौर पर प्रयोग करते हैं। कब्रों में पाई जाने वाली सामग्री इसमें प्रमुख होती है जिनसे इस प्रकार के भेदभाव का पता चलता है।

→ हड़प्पा के लोगों ने शिल्प उत्पादों में महारत हासिल कर ली थी। मनके बनाना, सीपी उद्योग, धातु-कर्म (सोना-चांदी के आभूषण, ताँबा, कांस्य के बर्तन, खिलौने उपकरण आदि), तौल निर्माण, प्रस्तर उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाना, ईंटें बनाना, मुद्रा निर्माण आदि हड़प्पा के लोगों के प्रमुख शिल्प उत्पाद थे। कई बस्तियाँ तो इन उत्पादों के लिए ही प्रसिद्ध थीं।

→ हड़प्पा सभ्यता के लोग गोमेद, फिरोजा, लाल पत्थर, स्फटिक (Crystal), क्वार्ट्ज़ (Quartz), सेलखड़ी (Steatite) जैसे . बहुमूल्य एवं अर्द्ध-कीमती पत्थरों के अति सुन्दर मनके बनाते थे। मनके व उनकी मालाएं बनाने में ताँबा, कांस्य और सोना जैसी धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। शंख, फयॉन्स (faience), टेराकोटा या पक्की मिट्टी से भी मनके बनाए जाते थे।

→ हल्की चमकदार सतह वाली सफेद रंग की आकर्षक मोहरें (Seals) हड़प्पा सभ्यता के लोगों का उच्चकोटि का योगदान कही जा सकती हैं। सेलखड़ी की वर्गाकार व आयताकार मुद्राएँ सभी सभ्यता स्थलों पर मिली हैं।

→पुरातत्वविद् किसी उत्पादन केंद्र को पहचानने में कुछ चीजों का प्रमाण के रूप में सहारा लेते हैं। पत्थर के टुकड़ों, पूरे शंखों, सीपी के टुकड़ों, तांबा, अयस्क जैसे कच्चे माल, अपूर्ण वस्तुओं, छोड़े गए माल और कूड़ा-कर्कट आदि चीजों से उत्पादन केंद्रों की पहचान की जाती है। कारीगर वस्तुओं को बनाने के लिए पत्थर को काटते समय या शंख-सीपी को काटते हुए अनुपयोगी सामग्री छोड़ देते थे।

→ हड़प्पा सभ्यता के लोग अपने उत्पादों के लिए विविध प्रकार का कच्चा माल प्रयोग में लाते थे। शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल में शामिल वस्तुएँ थीं-चिकनी मिट्टी, पत्थर, तांबा, जस्ता, कांसा, सोना, शंख, कार्नीलियन (सुन्दर लाल रंग), स्फटिक, क्वार्टज, सेलखड़ी, लाजवर्द मणि (नीले रंग के अफगानी पत्थर), कीमती लकड़ी, कपास, ऊन इत्यादि। इनमें से कई चीजें स्थानीय तौर पर मिल जाती थीं परंतु अधिकतर; जैसे पत्थर, धातु, लकड़ी इत्यादि बाहर से मंगवाई जाती थीं।

→ हड़प्पा सभ्यता के नगरों/व्यापारियों का पश्चिम एशिया की सभ्यताओं के साथ संपर्क था। उल्लेखनीय है कि मेसोपोटामिया हड़प्पा सभ्यता के मुख्य क्षेत्र से बहुत दूर स्थित था फिर भी इस बात के साक्ष्य मिल रहे हैं कि इन दोनों सभ्यताओं के बीच व्यापारिक संबंध था। हड़प्पा की मोहरों पर चित्रों के माध्यम से लिखावट है। मुद्राओं के अतिरिक्त ताम्र उपकरणों व पट्टिकाओं, मिट्टी की लघु पट्टिकाओं, कुल्हाड़ियों, मृदभांडों आभूषणों, अस्थि छड़ों और एक प्राचीन सूचनापट्ट पर भी हड़प्पा लिपि के कई नमूने प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि यह लिपि अभी तक पढ़ी न जा सकने के कारण रहस्य बनी हुई है।

→ हड़प्पा सभ्यता की एक अन्य विशेषता माप और तौल व्यवस्था में समरूपता का पाया जाना था। दूर-दूर तक फैली . बस्तियों में एक ही प्रकार के बाट-बट्टे पाए गए हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने तौल की इस प्रणाली से आपसी व्यापार और विनिमय को नियन्त्रित किया होगा।

→ मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल भवन को ‘राजप्रासाद’ का नाम दिया जाता है। यद्यपि विशाल इमारत में अन्य कोई अद्भुत अवशेष नहीं मिले हैं। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त पत्थर की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसे ‘पुरोहित-राजा’ का नाम दिया जाता रहा है। व्हीलर महोदय ने तो इस आधार पर हड़प्पा की शासन प्रणाली को ‘धर्मतन्त्र’ नाम दिया है।

→ हड़प्पा सभ्यता के पतन के बारे में अनेक व्याख्याएँ दी जाती हैं। जलवायु परिवर्तन, नदियों में बाढ़ व भूकम्प या नदियों का सूख जाना या मार्ग बदलना इसके कारण बताए जाते हैं। इसी प्रकार कुछ विद्वानों ने बर्बर आक्रमणों को सभ्यता के अवसान का कारण बताया है। हाल ही में सभ्यता-क्षेत्र में पर्यावरणीय-असन्तुलन (Environmental Imbalances) से जोड़कर परिवर्तनों की व्याख्या प्रस्तुत की है।

→ मार्शल ने भारतीय पुरातत्व को महत्त्वपूर्ण दिशा प्रदान की। भारत में वह पहला पुरातत्वविद् था। वह यूनान तथा क्रीट के अनुभव भी अपने साथ लेकर आया था। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि वह न केवल कनिंघम की तरह ही अद्भुत खोज करना चाहता था बल्कि वह दैनिक जीवन की पद्धतियों को भी जानना चाहता था। मार्शल ने पुरा स्थल की स्तर विन्यास (Stratigraphy) पर ध्यान न देकर सारे टीले को समान आकार की क्षैतिज इकाइयों में उत्खनन करवाया।

→ 1980 के दशक के बाद हड़प्पा-पुरातत्व में अन्तर्राष्ट्रीय रुचि लगातार बढ़ी है। भारतीय उपमहाद्वीप तथा बाहर के पुरातत्वविद् .. सांझे रूप से हड़प्पा व मोहनजोदड़ो में कार्यरत हैं। ये लोग आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग करके मिट्टी, पत्थर, धातु, पादप (Plant)तथा पशुओं के अवशेषों को प्राप्त करने के लिए सतहों के अन्वेषण एवं प्राप्त तथ्यों के प्रत्येक सूक्ष्म हिस्से के विश्लेषण में लगे हैं।

→ एक मोहर पर एक पुरुष देवता को योगी की मुद्रा में दिखाया गया है। इसके दाईं ओर हाथी तथा बाघ एवं बाईं ओर गैंडा तथा भैंसा हैं। पुरुष देवता के सिर पर दो सींग हैं। पुरातत्वविदों ने इस देवता को ‘आद्य शिव’ की संज्ञा दी है।

→ एक मोहर में एक शृंगी पशु उत्कीर्णित है। यह घोड़े जैसा पशु है, जिसके सिर के बीच में एक सींग निकला हुआ है। यह कल्पित तथा संश्लिष्ट लगता है। ऐसा बाद में हिन्दू धर्म के अन्य देवता (नरसिंह देवता) के बारे में कहा जा सकता है।
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काल-रेखा

हड़प्पाई पुरातत्व के विकास के प्रमुख चरण
19 वीं सदी 1875हड़प्पा की मोहर पर कनिंघम की रिपोर्ट
20 वीं सदी 1921दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा की खोज एवं माधो स्वरूप वत्स द्वारा हड़प्पा में खुदाई का आरंभ राखालदास बनर्जी द्वारा मोहनजोदड़ो की खोज
1922सर जॉन मार्शल द्वारा नवीन सभ्यता की घोषणा
1924मोहनजोदड़ो में उत्खननों का प्रारंभ
1925क्रीलर महोदय द्वारा हड़प्पा में खुदाई
1946एस. आर. राव द्वारा लोथल में खुदाई का आरंभ
1955बी.बी. लाल तथा बी. के थापर द्वारा कालीबंगन में उत्खननों का आरंभ
1960एम.आर. मुगल द्वारा बहावलपुर में उत्खनन व अन्वेषण शुरू
1974जर्मन-इतालवी संयुक्त दल द्वारा मोहनजोदड़ो में सतह-अन्वेषणों का कार्य शुरू
1980अमेरिकी दल द्वारा हड़प्पा में उत्खनन शुरू
1986धौलावीरा में आर. एस. बिष्ट द्वारा खुदाई कार्य आरंभ
1990हड़प्पाई पुरातत्व के विकास के प्रमुख चरण

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