Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 12 बाज़ार दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 12 बाज़ार दर्शन
HBSE 12th Class Hindi बाज़ार दर्शन Textbook Questions and Answers
पाठ के साथ
प्रश्न 1.
बाज़ार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?
उत्तर:
बाज़ार का जादू चढ़ने पर मनुष्य बाज़ार की आकर्षक वस्तुओं को खरीदने लगता है और अकसर अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लेता है, परंतु जब बाज़ार का जादू उतर जाता है तो उसे पता चलता है कि जो वस्तुएँ उसने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए खरीदी थीं, वे तो उसके आराम में बाधा उत्पन्न कर रही हैं।
प्रश्न 2.
बाज़ार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनका आचरण समाज में शांति-स्थापित करने में मददगार हो सकता है?
उत्तर:
भगत जी चौक बाज़ार में चारों ओर सब कुछ देखते हुए चलते हैं, लेकिन वे बाज़ार के आकर्षण की ओर आकृष्ट नहीं होते। वे न तो बाजार को देखकर भौंचक्के हो जाते हैं और न ही बाजार की बनावटी चमक-दमक हुई अनेक प्रकार की वस्तुओं के प्रति न तो उन्हें लगाव होता है और न ही अलगाव, बल्कि वे तटस्थ भाव तथा संतुष्ट मन से सब कुछ देखते हुए चलते हैं। उन्हें तो केवल जीरा और काला नमक ही खरीदना होता है। इसलिए वे फैंसी स्टोरों पर न रुककर सीधे पंसारी की दुकान पर चले जाते हैं। उनके जीवन का यह पहलू सशक्त उभरकर हमारे सामने आता है।
निश्चय से भगत जी का यह आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है। अनावश्यक वस्तुओं का घर में संग्रह करने से घर-परिवार में अशांति ही बढ़ती है। यदि मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार ही वस्तुओं की खरीद करता है तो इससे बाज़ार में महंगाई भी नहीं बढ़ेगी और लोगों में संतोष की भावना उत्पन्न होगी जिससे समाज में शांति की व्यवस्था उत्पन्न होगी।
प्रश्न 3.
‘बाज़ारूपन’ से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें है?
उत्तर:
‘बाज़ारूपन’ का अर्थ है-ओछापन। इसमें दिखावा अधिक होता है और आवश्यकता बहुत कम होती है। इसमें गंभीरता नहीं होती केवल ऊपरी सोच होती है। जिन लोगों में बाजारूपन होता है, वे बाजार को निरर्थक बना देते हैं, उसके महत्त्व को घटा देते हैं।
परंतु जो लोग आवश्यकता के अनुसार बाज़ार से वस्तुएँ खरीदते हैं, वे ही बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं। ऐसे लोगों के कारण ही बाज़ार में केवल वही वस्तुएँ बेची जाती हैं जिनकी लोगों को आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में बाज़ार हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनता है। भगत जी जैसे लोग जानते हैं कि उन्हें बाज़ार से क्या खरीदना है। अतः ऐसे लोग ही बाज़ार को सार्थक बनाते हैं।
प्रश्न 4.
बाज़ार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता; वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर:
यह कहना सही है कि बाज़ार किसी भी व्यक्ति का लिंग, जाति, धर्म अथवा क्षेत्र नहीं देखता। चाहे सवर्ण हो या अवर्ण, सूचित-अनुसूचित जातियों के लोग आदि सभी उसके लिए एक समान हैं। बाज़ार यह नहीं पूछता कि आप किस जाति अथवा धर्म से संबंधित हैं, वह तो केवल ग्राहक को महत्त्व देता है। ग्राहक के पास पैसे होने चाहिए, वह उसका स्वागत करता है। इस दृष्टि से बाज़ार निश्चय से सामाजिक समता की रचना करता है, क्योंकि बाज़ार के समक्ष चाहे ब्राह्मण हो या निम्न जाति का व्यक्ति हो, मुसलमान हो या ईसाई हो, सभी बराबर हैं। वे ग्राहक के सिवाय कुछ नहीं हैं। इस दृष्टिकोण से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। दुकानदार के पास सभी प्रकार के लोग बैठे हुए देखे जा सकते हैं। वह किसी से यह नहीं पूछता कि वह किस जाति अथवा. धर्म को मानने वाला है, परंतु मुझे एक बात खलती है, आज बढ़ती हुई आर्थिक विषमता के कारण केवल अमीर व्यक्ति ही बाज़ार में खरीददारी कर सकता है। महंगाई के कारण गरीब व्यक्ति बाज़ार जाने का साहस भी नहीं करता। फिर भी यह सत्य है कि बाज़ार सामाजिक समता की स्थापना करता है।
प्रश्न 5.
आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें (क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ। (ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।
उत्तर:
सचमुच पैसे में बड़ी शक्ति है। पैसे का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब हम पैसे के अभाव को महसूस करते हैं। लेकिन यह भी सही है कि जीवन में पैसा ही सब कुछ नहीं है।
(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ-भले ही हमारे देश में कहने को तो लोकतंत्र है, लेकिन गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता। आज के माहौल में विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए कम-से-कम दो करोड़ रुपये तो चाहिए ही। आम आदमी इतने पैसे कहाँ से जुटा सकता है। अतः हमारे चुनाव भी पैसे की शक्ति के परिचायक बन चुके हैं। अमीर तथा दबंग लोग ही चुनाव लड़ते हैं और जीतकर पैसे बनाते हैं। चाहे कोई एम०एल०ए० हो या संसद सदस्य सभी करोड़पति हैं। इसी से पैसे की शक्ति का पता चल जाता है।
(ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई-पैसे में पर्याप्त शक्ति होती है, लेकिन जीवन में अनेक अवसर ऐसे भी आते हैं जब पैसे की शक्ति काम नहीं आती। सेठ जी के पुत्र को कैंसर हो गया। सेठ जी ने उसके उपचार पर लाखों रुपये खर्च कर दिए। यहाँ तक कि वह उसे ईलाज के लिए अमेरिका भी ले गया, लेकिन उसका बेटा बच नहीं सका। सेठ जी के पैसे की शक्ति भी काम नहीं आई।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1.
बाज़ार दर्शन पाठ में बाजार जाने या न जाने के संदर्भ में मन की कई स्थितियों का जिक्र आया है आप इन स्थितियों से जुड़े अपने अनुभवों का वर्णन कीजिए।
(क) मन खाली हो
(ख) मन खाली न हो
(ग) मन बंद हो
(घ) मन में नकार हो
उत्तर:
(क) मन खाली हो-एक बार मैं बिना किसी उद्देश्य से एक मॉल में प्रवेश कर गया। मेरी जेब में पैसे भी काफी थे। यहाँ-वहाँ भटकते हुए मैं यह निर्णय नहीं कर पाया कि मैं घर के लिए कौन-सी वस्तु खरीदकर ले जाऊँ। आखिर मैंने बड़ा-सा एक रंग-बिरंगा खिलौना खरीद लिया। घर पहुँचते ही पता चला कि वह खिलौना चीन का बना हुआ था। एक घंटे बाद ही वह खिलौना खराब हो गया। अतः अब वह हमारे स्टोर की शोभा बढ़ा रहा है। यह सब मन खाली होने का परिणाम है।
(ख) मन खाली न हो-सर्दी आरंभ हो चुकी थी। मेरी माँ ने कहा कि बेटा एक गर्म जर्सी खरीद लो। दो-चार दिन बाद मैं अपने पिता जी के साथ बाज़ार चला गया। हमने बाज़ार में अनेक वस्तुएँ देखीं, लेकिन कुछ नहीं खरीदा। मैंने तो सोच लिया कि मुझे केवल एक गर्म जर्सी ही खरीदनी है। अन्ततः हम लायलपुर जनरल स्टोर पर गए। मैंने वहाँ से मनपसंद जर्सी खरीद ली और मैं पिता जी के साथ घर लौट आया।
(ग) मन बंद हो-एक दिन सायंकाल मैं अपने मित्रों के साथ बाज़ार गया। लेकिन मेरा मन बड़ा ही उदास था। दुकानदारों की आवाजें मुझे व्यर्थ लग रही थीं। मुझे बाज़ार की रौनक से भी अपकर्षण हो गया। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मित्रों ने यहाँ-वहाँ से कछ सामान लिया लेकिन मैं खाली हाथ ही घर लौट आया।
(घ) मन में नकार हो मैं कुछ दिनों से दूरदर्शन पर जंकफूड के बारे में बहुत कुछ सुन रहा था। धीरे-धीरे मेरे मन में जंक फूड के प्रति घृणा-सी उत्पन्न हो गई। मैं अपने मित्रों के साथ एक अच्छे होटल में गया। वहाँ पर पीज़ा, बरगर, डोसा, चने-भटूरे आदि बहुत कुछ था। लेकिन मेरे मन में नकार की स्थिति बनी हुई थी। मेरा मन तो सादी दाल-रोटी खाने को कर रहा था। अतः मैं मित्रों के साथ वहाँ से भूखा ही लौटा और घर में अपनी माँ के हाथों से बनी सब्जी-रोटी ही खाई।
प्रश्न 2.
बाज़ार दर्शन पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं?
उत्तर:
बाज़ार दर्शन पाठ में दो प्रकार के ग्राहकों की बात की गई है। प्रथम श्रेणी में वे ग्राहक आते हैं, जिनके मन खाली हैं तथा जिनके पास खरीदने की शक्ति ‘पर्चेजिंग पावर’ भी है। ऐसे लोग बाजार की चकाचौंध के शिव से अनावश्यक सामान खरीदकर अपने मन की शांति भंग करते हैं। द्वितीय श्रेणी में वे ग्राहक आते हैं जिनका मन खाली नहीं होता अर्थात जो मन में यह निर्णय करके बाज़ार जाते हैं कि वे बाज़ार से अमुक आवश्यक वस्तु खरीदकर लाएँगे। ऐसे ग्राहक भगत जी के समान होते हैं। मैं द्वितीय श्रेणी की ग्राहक हूँ। मैं हमेशा मन में यह निर्णय करके बाज़ार जाती हूँ कि मुझे बाज़ार से क्या खरीद कर लाना है।
प्रश्न 3.
आप बाज़ार की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाज़ार और हाट की संस्कृति में आप क्या अंतर पाते हैं? पर्चेजिंग पावर आपको किस तरह के बाज़ार में नज़र आती है?
उत्तर:
आज के महानगरों में विभिन्न प्रकार के बाज़ार हैं-साप्ताहिक बाज़ार सप्ताह में एक बार लगता है। इसी प्रकार थोक बाज़ार, कपड़ा बाज़ार और करियाना बाज़ार भी हैं। फर्नीचर बाज़ार से केवल फर्नीचर मिलता है और पुस्तक बाज़ार से पुस्तकें। ये सभी हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं। लेकिन मॉल आम लोगों के लिए नहीं है। उनमें केवल वही लोग जा सकते हैं जिनके पास काला धन होता है। गरीब लोगों के लिए वहाँ पर कोई स्थान नहीं है। सामान्य बाज़ार तथा हाट में अमीर-गरीब सभी लोग जाते हैं, क्योंकि इन बाजारों में आवश्यक वस्तुएँ उचित मूल्य पर मिल जाती हैं। पर्चेजिंग पावर मॉल में ही देखी जा सकती है जहाँ लोग अपना स्टेट्स दिखाते हैं। अनाप-शनाप खाते हैं और अनावश्यक वस्तुएँ खरीदते हैं। पूंजीपतियों के पास ही क्रय शक्ति होती है।
प्रश्न 4.
लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी-कभी बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
लेखक के अनुसार ‘पर्चेजिंग पावर’ दिखाने वाले पूँजीपति लोग ही बाज़ार के ‘बाज़ारूपन’ को बढ़ाते हैं। इन लोगों के कारण बाज़ार में छल-कपट तथा शोषण को बढ़ावा मिलता है। दुकानदार अकसर ग्राहक का शोषण करता हुआ नज़र आता है। लेकिन कभी-कभी हमारी आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। हाल ही में आटा, चावल, चीनी, दालों तथा सब्जियों के दाम आकाश को छूने लग गए हैं। ये सभी वस्तुएँ हमारी नित्य-प्रतिदिन की आवश्यकता की वस्तुएँ हैं। लेकिन दुकानदार तथा बिचौलिए खुले आम हमारा शोषण कर रहे हैं। यदि घर में गैस का सिलिंडर नहीं है तो हम इसे अधिक दाम देकर खरीद लेते हैं और शोषण का शिकार बनते हैं। मैं लेखक के इस विचार से सहमत हूँ कि प्रायः आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है।
प्रश्न 5.
स्त्री माया न जोड़े यहाँ माया शब्द किस ओर संकेत कर रहा है? स्त्रियों द्वारा माया जोड़ना प्रकृति प्रदत्त नहीं, बल्कि परिस्थितिवश है। वे कौन-सी परिस्थितियाँ होंगी जो स्त्री को माया जोड़ने के लिए विवश कर देती हैं?
उत्तर:
माया जोड़ने का अर्थ है-घर के लिए आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करना और चार पैसे जोड़ना। स्त्री ही घर-गृहस्थी है। उसे ही घर-भर की सुविधाओं का ध्यान रखना होता है। वह प्रायः घर के लिए वही वस्तुएँ खरीदती है जो नितांत आवश्यक होती हैं।
अनेक बार कुछ स्त्रियाँ देखा-देखी अनावश्यक वस्तुएँ भी खरीद लेती हैं। वे पुरुषों की नज़रों में सुंदर दिखने के लिए अपना बनाव-श्रृंगार भी करती हैं और इसके लिए आकर्षक वस्त्र तथा आभूषण भी खरीदती हैं। पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की यह मज़बूरी बन गई है कि वह माया को जोड़े अन्यथा उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।
आपसदारी
प्रश्न 1.
ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ति से तुलना कीजिए-
चाह गई चिंता गई मनुआँ बेपरवाह
जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह। कबीर
उत्तर:
भगत जी बाज़ार से उतना ही सामान खरीदते हैं, जितनी उनको आवश्यकता होती है। ज़रूरत-भर जीरा-नमक लेने के बाद उनके लिए सारा बाज़ार और चौक न के बराबर हो जाता है। लगभग यही भाव कबीर के दोहे में व्यक्त हुआ है। जब मनुष्य की इच्छा पूरी हो जाती है तो उसका मन बेपरवाह हो जाता है। उस समय वह एक बादशाह के समान होता है। भगत जी की संतुष्ट निस्पृहता कबीर की इस सूक्ति से सर्वथा मेल खाती है। कबीर ने तो यह लिखा है, लेकिन भगत जी ने इस दोहे की भावना को अपने जीवन में ही उतार लिया है।
प्रश्न 2.
विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (जिस पर ‘पहेली’ फिल्म बनी है) के अंश को पढ़ कर आप देखेंगे/देखेंगी कि भगत जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही गड़रिए की जीवन-दृष्टि है, इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं?
गड़रिया बगैर कहे ही उस के दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नहीं की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला ‘मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अंगूठी मेरे किस काम की! न यह अँगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूंघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।’-विजयदान देथा
उत्तर:
निश्चय से भगत जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि गड़रिए की जीवन-दृष्टि से मेल खाती है। मानव जितना भौतिक सुखों के पीछे भागता है, उतना ही वह अपने लिए असंतोष तथा अशांति का जाल बुनता जाता है। इस जाल में फंसे हुए मानव की स्थिति मृग की तृष्णा के समान है। सुख तो मिलता नहीं, अलबत्ता वह धन-संग्रह के कारण अपने जीवन को नरक अवश्य बना लेता है। उसकी असंतोष की आग कभी नहीं बुझती। इस संदर्भ में कविवर कबीरदास ने कहा भी है
माया मुई न मन मुआ मरि मरि गया सरीर।
आसा तृष्णा ना मिटी कहि गया दास कबीर।
प्रश्न 3.
बाज़ार पर आधारित लेख नकली सामान पर नकेल ज़रूरी का अंश पढ़िए और नीचे दिए गए बिंदुओं पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
(क) नकली सामान के खिलाफ जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं?
(ख) उपभोक्ताओं के हित को मद्देनज़र रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का क्या नैतिक दायित्व है?
(ग) ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए।
नकली सामान पर नकेल ज़रूरी
अपना क्रेता वर्ग बढ़ाने की होड़ में एफएमसीजी यानी तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियाँ गाँव के बाजारों में नकली सामान भी उतार रही हैं। कई उत्पाद ऐसे होते हैं जिन पर न तो निर्माण तिथि होती है और न ही उस तारीख का ज़िक्र होता है जिससे पता चले कि अमुक सामान के इस्तेमाल की अवधि समाप्त हो चुकी है। आउटडेटेड या पुराना पड़ चुका सामान भी गाँव-देहात के बाजारों मे खप रहा है। ऐसा उपभोक्ता मामलों के जानकारों का मानना है। नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन के सदस्य की मानें तो जागरूकता अभियान में तेजी लाए बगैर इस गोरखधंधे पर लगाम कसना नामुमकिन है।
उपभोक्ता मामलों की जानकार पुष्पा गिरिमा जी का कहना है, ‘इसमें दो राय नहीं कि गाँव-देहात के बाजारों में नकली रीय उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में कसकर बहराष्ट्रीय कंपनियाँ, खासकर ज्यादा उत्पाद बेचने वाली कंपनियाँ, गाँव का रुख कर चुकी हैं। वे गाँववालों के अज्ञान और उनके बीच जागरूकता के अभाव का पूरा फायदा उठा रही हैं। उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए कानून ज़रूर हैं लेकिन कितने लोग इनका सहारा लेते हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं। गुणवत्ता के मामले में जब शहरी उपभोक्ता ही उतने सचेत नहीं हो पाए हैं तो गाँव वालों से कितनी उम्मीद की जा सकती है।
इस बारे में नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्रस रिड्रेसल कमीशन के सदस्य जस्टिस एस.एन. कपूर का कहना है, ‘टीवी ने दूर-दराज़ के गाँवों तक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पहुंचा दिया है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ विज्ञापन पर तो बेतहाशा पैसा खर्च करती हैं लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता को लेकर वे चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं। नकली सामान के खिलाफ जागरूकता पैदा करने में स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी मिलकर ठोस काम कर सकते हैं। ऐसा कि कोई प्रशासक भी न कर पाए।’
बेशक, इस कड़वे सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि गुणवत्ता के प्रति जागरूकता के लिहाज़ से शहरी समाज भी कोई ज़्यादा सचेत नहीं है। यह खुली हुई बात है कि किसी बड़े ब्रांड का लोकल संस्करण शहर या महानगर का मध्य या निम्नमध्य वर्गीय उपभोक्ता भी खुशी-खुशी खरीदता है। यहाँ जागरूकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह ऐसा सोच-समझकर और अपनी जेब की हैसियत को जानकर ही कर रहा है। फिर गाँववाला उपभोक्ता ऐसा क्योंकर न करे। पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यदि समाज में कोई गलत काम हो रहा है तो उसे रोकने के जतन न किए जाएँ। यानी नकली सामान के इस गोरखधंधे पर विराम लगाने के लिए जो कदम या अभियान शुरू करने की ज़रूरत है वह तत्काल हो।
-हिंदुस्तान 6 अगस्त 2006, साभार
उत्तर:
(क) नकली सामान के खिलाफ जागरूकता उत्पन्न करना नितांत आवश्यक है। यह कार्य स्कूल तथा कॉलेज के विद्यार्थियों द्वारा मिलकर किया जा सकता है। इसी प्रकार समाचार पत्र, दूरदर्शन, रेडियो आदि संचार माध्यम भी नकली सामान के विरुद्ध अभियान चला सकते हैं। इसके लिए नुक्कड़ नाटक भी खेले जा सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि लोगों को नकली सामान के विरुद्ध सावधान किया जाए।
(ख) उपभोक्ताओं के हित को मद्देनज़र रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का यह दायित्व है कि ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सही वस्तुओं का उत्पादन करें। अन्यथा उनका व्यवसाय अधिक दिन तक नहीं चल पाएगा।
(ग) ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे लोगों की यह मानसिकता है कि ब्रांडेड वस्तुएँ बनाने वाली कंपनियाँ ग्राहक के संतोष को ध्यान में रखती हैं, परंतु जो कंपनियाँ नकली सामान बनाती हैं, सरकार को भी उन पर नकेल करनी चाहिए।
टिप्पणी-इन सभी बिंदुओं पर विद्यार्थी अपनी कक्षा में अपने-अपने विचार प्रस्तुत कर सकते हैं, परंतु यह विचार-विमर्श शिक्षक की देख-रेख में होने चाहिए।
उपभोक्ता क्लब में भी इस गद्यांश का वाचन किया जा सकता है।
प्रश्न 4.
प्रेमचंद की कहानी ईदगाह के हामिद और उसके दोस्तों का बाजार से क्या संबंध बनता है? विचार करें।
उत्तर:
ईदगाह कहानी में हामिद के सभी मित्र बाज़ार में चाट पकौड़ी और मिठाइयाँ खाते हैं। इसी प्रकार वे मिट्टी के खिलौने भी खरीदते हैं। इन बच्चों को घर से काफी पैसे ईदी के रूप में मिले थे। परंतु हामिद को तो बहुत कम पैसे मिले थे। हामिद के मुँह में भी पानी भर आया। लेकिन उसने मन में प्रतिज्ञा की थी कि वह अपनी दादी अमीना के लिए एक चिमटा खरीदकर ले जाएगा। हामिद के मित्र “बाज़ार दर्शन” के कपटी ग्राहकों के समान हैं। वे बाज़ार से अनावश्यक सामान खरीदते हैं और बाद में पछताते हैं, परंतु हामिद भगत जी के समान सब मित्रों के साथ घुलमिल कर रहता है, परंतु केवल आवश्यक वस्तु ही खरीदता है।
विज्ञापन की दुनिया
प्रश्न 1.
आपने समाचारपत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता है। नीचे लिखे बिंदुओं के संदर्भ में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह भी लिखिए कि आपको विज्ञापन की किस बात ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया।
1. विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय-वस्तु
2. विज्ञापन में आए पात्र व उनका औचित्य
3. विज्ञापन की भाषा
उत्तर:
भारतीय जीवन बीमा निगम’ का उपरोक्त विज्ञापन सामान्य व्यक्ति को भी बीमा कराने की प्रेरणा देता है। इस विज्ञापन ने मुझे भी निम्नलिखित बिंदुओं में से प्रभावित किया है
(1) विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय वस्तु-विज्ञापन में दिखाया गया परिवार (पति-पत्नी तथा उनका बेटा-बेटी) बीमा कराने के बाद सुरक्षित एवं प्रसन्न दिखाई देता है। अतः यह विज्ञापन विषय-वस्तु तथा चित्र के सर्वथा अनुकूल एवं प्रभावशाली है।
(2) एक स्वस्थ एवं जागरूक परिवार हमेशा अपने भविष्य के प्रति चिंतित होता है। उपर्यक्त चित्र में परिवार के मुखिया ने अपनी पत्नी तथा बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए ‘जीवन निश्चय’ बीमा करवाया है। यह एक एकल प्रीमियम प्लान है जोकि 5, 7, तथा 10 वर्ष की अवधि के बाद गांरटीयुक्त परिपक्वता लाभ दिलाता है।
(3) विज्ञापन की भाषा-प्रस्तुत विज्ञापन की भाषा ‘गांरटी हमारी, हर खुशी तुम्हारी’ मुझे अत्यधिक पसंद है जिसे सुनकर कोई भी समझदार व्यक्ति अपने परिवार के लिए यह बीमा अवश्य लेना चाहेगा। स्लोगन सुनकर या पढ़कर ही ग्राहक इसकी ओर आकर्षित हो जाता है।
प्रश्न 2.
अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए आज किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए। आप स्वयं किस तकनीक या तौर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह भी न हो।
उत्तर:
आज के वैज्ञानिक युग में सामान की बिक्री बढ़ाने के लिए विज्ञापन का सहारा लेना ज़रूरी है। मैं अपने उत्पाद को ग्राहकों तक पहुँचाने के लिए निम्नलिखित उपाय करूँगा
- दूरदर्शन के लोकप्रिय सीरियल पर विज्ञापन दूंगा।
- किसी लोकप्रिय समाचार पत्र में अपने उत्पाद का विज्ञापन दूंगा। इसके लिए मैं अखबार में छपे हुए पर्चे भी डलवा सकता हूँ।
- मोबाइल पर एस०एम०एस० द्वारा भी विज्ञापन दे सकता हूँ।
- रेडियो पर भी उत्पाद का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है।
- एजेंटों को घर-घर भेज कर भी उत्पाद का प्रचार किया जा सकता है।
मैं उपर्युक्त साधनों में से समाचार पत्र व दूरदर्शन पर विज्ञापन देना अधिक पसंद करूँगा। मैं उपभोक्ता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखुंगा, ताकि लोगों तक अच्छी वस्तुएँ पहुँच सकें।
भाषा की बात
प्रश्न 1.
विभिन्न परिस्थितियों में भाषा का प्रयोग भी अपना रूप बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ में से दोनों प्रकार के तीन-तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
(क) भाषा का औपचारिक रूप-
- कोई अपने को न जाने तो बाज़ार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोडे………. असंतोष तृष्णा से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।
- उनका आशय था कि पत्नी की महिमा है, उस महिमा का मैं कायल हूँ।
- एक और मित्र की बात है यह दोपहर के पहले गए और बाज़ार से शाम को वापिस आए।
(ख) भाषा का अनौपचारिक रूप-
- यह देखिए, सब उड़ गया। अब जो रेल टिकट के लिए भी बचा हो।
- बाज़ार है कि शैतान का जाल है? ऐसा सज़ा-सज़ा कर माल रखते हैं कि बेहया ही हो जो न फँसे।
- बाज़ार को देखते क्या रहे?
लाए तो कुछ नहीं। हाँ पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या?
प्रश्न 2.
पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक अपनी बात कहता है कुछ वाक्य ऐसे हैं जहाँ वह पाठक-वर्ग को संबोधित करता है। सीधे तौर पर पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक से रचना पढ़वा लेने में मददगार होते हैं?
उत्तर:
पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वाक्य:
- लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक और महत्त्व का तत्त्व है जिसे नहीं भूलना चाहिए।
- यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत ज़रूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए।
- क्या जाने उसे भोले आदमी को अक्षर-ज्ञान तक भी है या नहीं। और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी और हम न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं।
- पर उस जादू की जकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय है।
- कहीं आप भूल न कर बैठना।
इस प्रकार के वाक्य निश्चय से पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। अतः इन वाक्यों की निबंध में विशेष उपयोगिता मानी गई है।
प्रश्न 3.
नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए।
(क) पैसा पावर है।
(ख) पैसे की उस पर्चेजिंग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।
(ग) मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया।
(घ) पेशगी ऑर्डर कोई नहीं लेते।
ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा की है लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेजी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को कोड मिक्सिंग कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल। अब तक आपने जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए। यह भी बताइए कि आगत शब्दों की जगह उनके हिंदी पर्यायों का ही प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर क्या प्रभाव पड़ता है।
उत्तर:
कोड मिक्सिंग हिंदी भाषा में प्रायः होता रहता है। आधुनिक हिंदी भाषा देशज तथा विदेशज शब्दों को स्वीकार करती हुई आगे बढ़ रही है। पुस्तक के पठित पाठों के आधार पर निम्नलिखित उदाहरण उल्लेखनीय हैं
- दाल से एक मोटी रोटी खाकर मैं ठाठ से यूनिवर्सिटी पहुँची। (भक्तिन)
- पैसा पावर है। पर उस के सबूत में आस-पास माल-ढाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है। पैसे को देखने के लिए बैंक हिसाब देखिए……..।
- वहाँ के लोग कैसे खूबसूरत होते हैं, उम्दा खाने और नफीस कपड़ों के शौकीन, सैर-सपाटे के रसिया, जिंदादिली की तस्वीर।
- बाज़ार है कि शैतान का जाल है।
- अपने जीवन के अधिकांश हिस्सों में हम चार्ली केटिली ही होते हैं।
प्रश्न 4.
नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए उन्हें पढ़िए
(क) निर्बल ही धन की ओर झुकता है।
(ख) लोग संयमी भी होते हैं।
(ग) सभी कुछ तो लेने को जी होता था।
ऊपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश ‘ही’, ‘भी’, ‘तो’ निपात हैं जो अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने-न-होने और स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता है, जैसे
मुझे भी किताब चाहिए। (मुझे महत्त्वपूर्ण है।)
मुझे किताब भी चाहिए। (किताब महत्त्वपूर्ण है।)
आप निपात (ही, भी, तो) का प्रयोग करते हुए तीन-तीन वाक्य बनाइए। साथ ही ऐसे दो वाक्यों का भी निर्माण कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आते हों।
उत्तर:
(क) ही
मित्र! केवल आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं।
मैं ही तो तुम्हारे घर में था।
पिता जी ने आज ही दिल्ली जाना था।
(ख) भी
मैं भी तुम्हारे साथ सैर पर चलूँगा।
राधा ने भी स्कूल में प्रवेश ले लिया है।
तुम भी काम की तरफ ध्यान दो।
(ग) तो
यदि तुम मेरी सहायता नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगा।
यूँ ही शोर मत करो। मेरी बात तो सुनो।
मैं यहीं तो खड़ा था।
(ग) ही, तो, भी
(1) यदि यह बात है तो तुम भी राधा के ही साथ चले जाओ।
(2) तुम भी तो हमेशा गालियाँ ही बकते रहते हो।
चर्चा करें
1. पर्चेजिंग पावर से क्या अभिप्राय है?
बाज़ार की चकाचौंध से दूर पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? आपकी मदद के लिए संकेत दिया जा रहा है-
(क) सामाजिक विकास के कार्यों में।
(ख) ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में…….।
उत्तर:
विद्यार्थी शिक्षक के सहयोग से कक्षा में अपने सहपाठियों के साथ चर्चा करें तथा प्रत्येक विद्यार्थी को अपने विचार प्रकट करने का अवसर दिया जाए।
HBSE 12th Class Hindi बाज़ार दर्शन Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
प्रस्तुत पाठ में कितने प्रकार के ग्राहकों का उल्लेख किया गया है?
उत्तर:
इस पाठ में पहला ग्राहक लेखक का मित्र है, जो बाज़ार में मामूली सामान लेने गया था, परंतु बाज़ार से बहुत-से बंडल खरीदकर ले आया। लेखक का दूसरा मित्र दोपहर में बाज़ार गया, लेकिन सायंकाल को खाली हाथ घर लौट आया। उसके मन में बाज़ार से बहुत कुछ खरीदने की इच्छा थी, परंतु बाज़ार से खाली हाथ लौट आया।
तीसरा ग्राहक लेखक के पड़ोसी भगत जी हैं जो आँख खोलकर बाज़ार देखते हैं, पर फैंसी स्टोरों पर नहीं रुकते। वे केवल पंसारी की एक छोटी-सी दुकान पर रुकते हैं। जहाँ से काला नमक तथा जीरा खरीदकर वापिस लौट आते हैं। तीसरा ग्राहक अर्थात् भगत जी केवल आवश्यक वस्तुएँ ही खरीदते हैं।
प्रश्न 2.
‘बाज़ार दर्शन’ नामकरण की सार्थकता का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत निबंध में बाज़ार के बारे में समुचित प्रकाश डाला गया है। लेखक ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि कौन-सा ग्राहक किस दृष्टि से बाज़ार का प्रयोग करता है। लेखक ने इस निबंध में बाज़ार की उपयोगिता पर समुचित प्रकाश डाला है। जो लोग बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर अपनी पर्चेज़िग पावर का प्रदर्शन करते हैं, वे बाज़ार को निरर्थक सिद्ध करते हैं, परंतु कुछ ऐसे ग्राहक हैं जो बाज़ार से आवश्यकतानुसार सामान खरीदते हैं और संतुष्ट रहते हैं। इस प्रकार के लोग बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं। यहाँ लेखक ने बाज़ार के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है, साथ ही दुकानदार तथा ग्राहक की मानसिकता का उद्घाटन किया है। अतः ‘बाज़ार-दर्शन’ नामकरण पूर्णतः सार्थक है।
प्रश्न 3.
‘मन खाली नहीं रहना चाहिए’, खाली मन होने से लेखक का क्या मन्तव्य है?
उत्तर:
‘मन खाली नहीं रहना चाहिए’ से अभिप्राय है कि जब हम बाज़ार में जाएँ तो मन में आवश्यक वस्तुएँ खरीदने के बारे में सोचकर ही जाएँ, बिना उद्देश्य के न जाएँ। जब कोई व्यक्ति निरुद्देश्य बाज़ार जाता है तो वह अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर लाता है। इससे बाज़ार में एक व्यंग्य-शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसा करने से न तो बाजार को लाभ पहुँचता है, न ही ग्राहक को, बल्कि केवल प्रदर्शन की वृत्ति को ही बढ़ावा मिलता है।
प्रश्न 4.
‘बाज़ार का जादू सब पर नहीं चलता’। भगत जी के संदर्भ में इस कथन का विवेचन करें।
उत्तर:
बाज़ार में एक जादू होता है जो प्रायः ग्राहकों को अपनी ओर खींचता है, किंतु कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जिनका मन भगत जी की तरह संतुष्ट होता है। बाज़ार का आकर्षण उनके मन को प्रभावित नहीं कर पाता। लेखक के पड़ोसी भगत जी दिन में केवल छः आने ही कमाते थे। वे इस धन-राशि से अधिक नहीं कमाना चाहते थे। उनके द्वारा बनाया गया चूरन बाज़ार में धड़ाधड़ बिक जाता था। जब उनकी छः आने की कमाई पूरी हो जाती तो बचे चूरन को वह बच्चों में मुफ्त बाँट देते थे। वे चाहते तो थोक में चूरन बनाकर बेच सकते थे। परंतु उनके मन में धनवान होने की कोई इच्छा नहीं थी। उनके सामने फैंसी स्टोर इस प्रकार दिखाई देते थे जैसे उनका कोई अस्तित्व नहीं है। वे केवल बाजार से अपनी आवश्यकता का सामान खरीदने के लिए जाते थे और बाजार की आकर्षक वस्तुओं की ओर नहीं ललचाते थे। इसलिए कह सकते हैं कि बाज़ार का जादू सब पर नहीं चलता।
प्रश्न 5.
लेखक के पड़ोस में कौन रहता है तथा उनके बारे में क्या बताया गया है?
उत्तर:
लेखक के पड़ोस में एक भगत जी रहते हैं जो चूरन बेचने का काम करते हैं। वे न जाने कितने वर्षों से चूरन बेच रहे हैं लेकिन उन्होंने छः आने से अधिक कभी नहीं कमाया। वे चौक बाज़ार में काफी लोकप्रिय हैं। जब उन्हें छः आने की कमाई हो जाती है तो वे बच्चों में मुफ्त चूरन बाँट देते हैं, परंतु भगत जी ने बाज़ार के गुर को नहीं पकड़ा अन्यथा वे मालामाल हो जाते। वे अपना चूरन न तो चौक में बेचते हैं न पेशगी ऑर्डर लेते हैं। लोगों की उनके प्रति बड़ी सद्भावना है। वे हमेशा स्वस्थ प्रसन्न तथा संतुष्ट रहते हैं। सच्चाई तो यह है कि चूरन वाले भगत जी पर बाज़ार का जादू नहीं चल सका।
प्रश्न 6.
लेखक ने भगत जी से मुलाकात होने पर उनसे क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की है?
उत्तर:
एक बार लेखक को बाज़ार चौक में भगत जी दिखाई दिए। लेखक को देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया और लेखक ने भी उनको जय-जयराम किया। उस समय भगत जी की आँखें बंद नहीं थीं। बाज़ार में और भी बहुत-से लोग और बालक मिले। वे सभी भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने हँसकर सभी को पहचाना, सबका अभिवादन किया और सबका अभिवादन लिया। वे बाज़ार की सज-धज को देखते हुए चल रहे थे। परंतु भगत जी के मन में उनके प्रति अप्रीति नहीं थी विद्रोह भी नहीं था, बल्कि प्रसन्नता थी। वे खुली आँख, संतुष्ट और मग्न से बाज़ार चौक में चल रहे थे।
प्रश्न 7.
चौक बाज़ार में चलते हुए भगत जी कहाँ पर जाकर रुके और उन्होंने क्या किया?
उत्तर:
चौक बाज़ार में चलते हुए भगत जी एक पंसारी की दुकान पर रुके। बाज़ार में हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं थी। अतः उन्होंने पंसारी की दुकान से आवश्यकतानुसार काला नमक व जीरा लिया और वापिस लौट पड़े। इसके बाद तो सारा चौक उनके लिए नहीं के बराबर हो गया। क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें जो कुछ चाहिए था वह उन्हें मिल गया है।
प्रश्न 8.
बाजार के जादू चढ़ने-उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बाज़ार का जादू मनुष्य के सिर पर चढ़कर बोलता है। बाज़ार कहता है-मुझे लूटो, और लूटो। इस पर बाज़ार मनुष्य को विकल बना देता है और वह अपना विवेक खो बैठता है। बाज़ार का जादू उतरने पर मनुष्य को लगता है कि उसका बजट बिगड़ गया है। वह फिजूल की चीजें खरीद लाया है। यही नहीं, उसके सुख-चैन में भी खलल पड़ गया है।
प्रश्न 9.
लेखक ने किस बाज़ार को मानवता के लिए विडंबना कहा है और क्यों?
उत्तर:
लेखक ने उस बाज़ार को मानवता के लिए विडंबना कहा है, जिसमें ग्राहकों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए क्रय-विक्रय नहीं होता, बल्कि अमीर लोगों की क्रय-शक्ति को देखते हुए अनावश्यक वस्तुएँ बेची जाती हैं। पूँजीपति अपनी क्रय-शक्ति का प्रदर्शन इस बाज़ार में करते हैं जिससे बाज़ार में छल-कपट तथा शोषण को बढ़ावा मिलता है। यही नहीं, सामाजिक सद्भाव भी नष्ट होता है। इस प्रकार के बाज़ार में ग्राहक और बेचक दोनों ही एक-दूसरे को धोखा देने का प्रयास करते हैं। अतः इस प्रकार का बाज़ार समाज के लिए हानिकारक है। यदि हम इसे मानवता के लिए विडंबना कहते हैं तो अनुचित नहीं होगा।
प्रश्न 10.
इस पाठ में बाज़ार को ‘जादू’ क्यों कहा गया है?
उत्तर:
प्रायः जादू दर्शक को मोहित कर लेता है। उसे देखकर हम ठगे से रह जाते हैं और अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। इसी प्रकार बाजार में भी बड़ी आकर्षक और सुंदर वस्तुएँ सजाकर रखी जाती हैं। ये वस्तुएँ हमारे मन में आकर्षण पैदा करती हैं। हम बाज़ार के रूप जाल में फँस जाते हैं और अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लेते हैं। इसीलिए बाज़ार को ‘जादू’ कहा गया है।
प्रश्न 11.
भगत जी की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भगत जी लेखक के पड़ोस में रहते थे। वे निर्लोभी तथा संतोषी व्यक्ति थे। वे न तो अधिक धन कमाना चाहते थे और न ही धन का संग्रह करना चाहते थे। वे चूरन बनाकर बाज़ार में बेचते थे। जब वे छः आने की कमाई कर लेते थे, तो बचा हुआ चूरन बच्चों में मुफ्त बाँट देते थे।
भगत जी पर बाज़ार के आकर्षण का कोई प्रभाव नहीं था। वे बाज़ार को आवश्यकता की पूर्ति का साधन मानते थे। इसीलिए वे पंसारी की दुकान से काला नमक और जीरा खरीदकर घर लौट जाते थे। भगत जी बाज़ार में सब कुछ देखते हुए चलते थे, लोगों का अभिवादन लेते थे और करते भी थे। वे हमेशा बाज़ार तथा व्यापारियों और ग्राहकों का कल्याण मंगल चाहते थे।
प्रश्न 12.
‘बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर बताइए कि पैसे की पावर का रस किन दो रूपों में प्राप्त होता है?
उत्तर:
पैसे की पावर का रस निम्नलिखित दो रूपों में प्राप्त होता है-
- अपना बैंक बैलेंस देखकर।
- अपना बंगला, कोठी, कार तथा घर का कीमती सामान देखकर।
प्रश्न 13.
भगत जी बाज़ार को सार्थक तथा समाज को शांत कैसे कर रहे हैं? ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर:
भगत जी निश्चित समय पर पेटी उठाकर चूरन बेचने के लिए बाज़ार में निकल पड़ते हैं। छः आने की कमाई होते ही वे चूरन बेचना बंद कर देते हैं और बचा हुआ चूरन बच्चों में मुफ्त बाँट देते हैं। वे पंसारी से आवश्यकतानुसार नमक और जीरा खरीद कर लाते हैं तथा सबको जय-जयराम कहकर सबका स्वागत करते हैं। वे बाज़ार की चमक-दमक से आकर्षित नहीं होते, बल्कि बड़े संतुष्ट और मग्न होकर बाजार में चलते हैं। इस प्रकार वे बाजार को सार्थक करते हैं और समाज को शांत रहने का उपदेश देते हैं।
प्रश्न 14.
कैपिटलिस्टिक अर्थशास्त्र को लेखक ने मायावी तथा अनीतिपूर्ण क्यों कहा है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार कैपिटलिस्टिक अर्थशास्त्र धन को अधिक-से-अधिक बढ़ाने पर बल देता है। इसलिए यह मायावी तथा छली है। बाज़ार का मूल दर्शन आवश्यकताओं की पूर्ति करना है, लेकिन इस लक्ष्य को छोड़कर व्यापारी अधिकाधिक धन कमाने की कोशिश करते हैं। वे ग्राहक को आवश्यकता की उचित वस्तु सही मूल्य पर न देकर उससे अधिक दाम लेते हैं। इससे व्यापार में कपट बढ़ता है और ग्राहक की हानि होती है। यही नहीं, इससे शोषण को भी बल मिलता है जो कि अनीतिपूर्ण है। ऐसे पूँजीवादी बाज़ार से मानवीय प्रेम, भाईचारा तथा सौहार्द समाप्त हो जाता है। इसके साथ-साथ पूँजीवादी अर्थशास्त्र के कारण बाज़ार में फैंसी वस्तुओं को बेचने पर अधिक बल देता है जिससे लोग बिना आवश्यकता के उसके रूप-जाल में फँस जाते हैं। यह निश्चय से बाज़ार का मायावीपन है।
प्रश्न 15.
लेखक के दोनों मित्रों के स्वभाव में कौन-सी समानता है और कौन-सी असमानता है?
उत्तर:
समानता-लेखक के दोनों मित्र खाली मन से बाज़ार गए। पहला मित्र मन में थोड़ा-सा सामान लेने का लक्ष्य रखकर बाज़ार गया, लेकिन उसका मन कुछ भी खरीदने के लिए खाली था। दूसरा मित्र बिना उद्देश्य के बाज़ार में घूमने गया और उसके रूप-जाल में फँस गया। दोनों में से एक ने कुछ खरीदा और दूसरा केवल मन में सोचता ही रह गया।
असमानता-पहले मित्र के पास पैसा अधिक है। वह पैसा खर्च करना जानता है। परंतु दूसरा मित्र दुविधाग्रस्त है लेकिन शीघ्र निर्णय नहीं ले पाता।
प्रश्न 16.
लेखक के अनुसार परमात्मा और मनुष्य में क्या अंतर है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
लेखक के अनुसार परमात्मा स्वयं में पूर्ण है। उसमें कोई भी इच्छा शेष नहीं है। वह शून्य है, परंतु मनुष्य अपूर्ण है। प्रत्येक मानव में कोई-न-कोई इच्छा बनी रहती है। उसकी सभी इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। इसका कारण स्वयं मनुष्य है। परंतु यदि मानव इच्छाओं से मुक्त हो जाए तो वह भी परमात्मा की तरह संपूर्ण हो सकता है।
प्रश्न 17.
भगत जी का चूरन हाथों-हाथ कैसे बिक जाता है?
उत्तर:
भगत जी शुद्ध चूरन बनाते थे और सब लोग उनका चूरन खरीदने के लिए उत्सुक रहते थे। लोग उन्हें सद्भावना देते थे और उनसे सद्भावना लेते थे। इसलिए भगत जी स्वयं लोगों में लोकप्रिय थे और उनका चूरन भी लोगों में प्रसिद्ध था।
प्रश्न 18.
प्रथम मित्र ने फालतू वस्तुएँ खरीदने के लिए किसे जिम्मेवार ठहराया, परंतु सच्चाई क्या है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रथम मित्र ने फालतू वस्तुएँ खरीदने के लिए अपनी पत्नी की इच्छा तथा बाज़ार के जादू भरे आकर्षण को दोषी माना है। परंतु असली दोषी तो पैसे की गर्मी तथा मन का खाली होना है। इन दोनों स्थितियों में बाजार का जादू भरा आकर्षण ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
प्रश्न 19.
खाली मन और बंद मन में क्या अंतर है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार खाली मन का अर्थ है मन में कोई इच्छा धारण करके न चलना। परंतु बंद मन का अर्थ है-मन में किसी प्रकार की इच्छा को उत्पन्न न होने देना और मन को बलपूर्वक दबाकर रखना।
प्रश्न 20.
“चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखर जाता है”-इसका आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यह गंद्य पंक्ति भगत जी के लिए कही गई है। भगत जी निस्पृही मनोवृत्ति वाले व्यक्ति हैं। वे अपने मन में सांसारिक आकर्षणों को संजोकर नहीं रखते। यही कारण है कि चाँदनी चौक का आकर्षण उनके मन को प्रभावित नहीं कर पाता। बाज़ार के जादू तथा आकर्षण के मध्य रहते हुए वे उसके मोहजाल से बच जाते हैं। वे एक संतुष्ट व्यक्ति हैं। इसलिए चाँदनी चौक का आकर्षण उनको प्रभावित नहीं कर पाता।
प्रश्न 21.
पैसे की व्यंग्य-शक्ति किस प्रकार साधारण व्यक्ति को चूर-चूर कर देती है और किस व्यक्ति के सामने चूर-चूर हो जाती है?
उत्तर:
पैसे में बहुत व्यंग्य-शक्ति होती है। पैसे वाले व्यक्ति का बंगला, कोठी एवं कार को देखकर साधारण जन के हृदय में लालसा, ईर्ष्या तथा तृष्णा उत्पन्न होने लगती है। पैसे की कमी के कारण वह व्याकुल हो जाता है। वह सोचता है कि उसका जन्म किसी अमीर परिवार में क्यों नहीं हुआ।
परंतु भगत जी जैसे व्यक्ति में न अमीरों को देखकर ईर्ष्या होती है, न तृष्णा होती है। पैसे की व्यंग्य-शक्ति उन्हें छू भी नहीं हैं कहता है कि तुम मुझे ले लो, परंतु वे पैसे की परवाह नहीं करते, इसलिए भगत जी जैसे निस्पृह व्यक्ति के सामने पैसे की व्यंग्य-शक्ति चूर-चूर हो जाती है।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
1. ‘बाज़ार दर्शन’ के रचयिता हैं
(A) महादेवी वर्मा
(B) फणीश्वर नाथ ‘रेणु’
(C) धर्मवीर भारती
(D) जैनेंद्र कुमार
उत्तर:
(D) जैनेंद्र कुमार
2. जैनेंद्र का जन्म किस प्रदेश में हुआ?
(A) उत्तर प्रदेश
(B) मध्य प्रदेश
(C) बिहार
(D) झारखंड
उत्तर:
(A) उत्तर प्रदेश
3. जैनेंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के किस नगर में हुआ?
(A) आगरा
(B) अलीगढ़
(C) मेरठ
(D) कानपुर
उत्तर:
(B) अलीगढ़
4. जैनेंद्र का जन्म कब हुआ?
(A) सन् 1907 में
(B) सन् 1908 में
(C) सन् 1905 में
(D) सन् 1906 में
उत्तर:
(C) सन् 1905 में
5. जैनेंद्र का जन्म अलीगढ़ के किस कस्बे में हुआ?
(A) कौड़ियागंज
(B) गौड़ियागंज
(C) लखीमपुर
(D) रामपुरा
उत्तर:
(A) कौड़ियागंज
6. जैनेंद्र कुमार ने उपन्यासों तथा कहानियों के अतिरिक्त किस विधा में सफल रचनाएँ लिखीं?
(A) एकांकी
(B) नाटक
(C) निबंध
(D) रेखाचित्र
उत्तर:
(C) निबंध
7. भारत सरकार ने जैनेंद्र कुमार को किस उपाधि से सुशोभित किया?
(A) पद्मश्री
(B) पद्मभूषण
(C) पद्मसेवा
(D) वीरचक्र
उत्तर:
(B) पद्मभूषण
8. जैनेंद्र कुमार को पद्मभूषण के अतिरिक्त कौन-कौन से दो प्रमुख पुरस्कार प्राप्त हुए?
(A) शिखर सम्मान और भारत-भारती सम्मान
(B) प्रेमचंद सम्मान और उत्तर प्रदेश सम्मान
(C) साहित्य अकादमी पुरस्कार और भारत-भारती पुरस्कार
(D) ज्ञान पुरस्कार और गीता पुरस्कार
उत्तर:
(C) साहित्य अकादमी पुरस्कार और भारत-भारती पुरस्कार
9. जैनेंद्र कुमार के प्रथम उपन्यास ‘परख’ का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1930 में
(B) सन् 1931 में
(C) सन् 1932 में
(D) सन् 1929 में
उत्तर:
(D) सन् 1929 में
10. जैनेंद्र कुमार का निधन किस वर्ष में हुआ?
(A) सन् 1990 में
(B) सन् 1991 में
(C) सन् 1988 में
(D) सन् 1992 में
उत्तर:
(A) सन् 1990 में
11. ‘कल्याणी’ उपन्यास का प्रकाशन कब हआ?
(A) सन् 1939 में
(B) सन् 1932 में
(C) सन् 1928 में
(D) सन् 1931 में
उत्तर:
(A) सन् 1939 में
12. ‘त्यागपत्र’ उपन्यास का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1936 में
(B) सन् 1938 में
(C) सन् 1937 में
(D) सन् 1941 में
उत्तर:
(C) सन् 1937 में
13. जैनेंद्र की रचना ‘मुक्तिबोध’ किस विधा की रचना है?
(A) कहानी
(B) नाटक
(C) उपन्यास
(D) एकांकी
उत्तर:
(C) उपन्यास
14. जैनेंद्र के उपन्यास ‘सुनीता’ का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1938 में
(B) सन् 1932 में
(C) सन् 1937 में
(D) सन् 1935 में
उत्तर:
(D) सन् 1935 में
15. ‘अनाम स्वामी’ किस विधा की रचना है?’
(A) निबंध
(B) नाटक
(C) उपन्यास
(D) कहानी
उत्तर:
(C) उपन्यास
16. ‘वातायन’ किस विधा की रचना है?
(A) कहानी-संग्रह
(B) उपन्यास
(C) निबंध-संग्रह
(D) एकांकी-संग्रह
उत्तर:
(A) कहानी-संग्रह
17. ‘नीलम देश की राजकन्या’ कहानी-संग्रह का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1931 में
(B) सन् 1933 में
(C) सन् 1935 में
(D) सन् 1936 में
उत्तर:
(B) सन् 1933 में
18. ‘प्रस्तुत प्रश्न निबंध संग्रह का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1932 में
(B) सन् 1936 में
(C) सन् 1933 में
(D) सन् 1934 में
उत्तर:
(B) सन् 1936 में
19. ‘पूर्वोदय’ निबंध-संग्रह का प्रकाशन किस वर्ष हुआ?
(A) सन् 1951 में
(B) सन् 1950 में
(C) सन् 1952 में
(D) सन् 1953 में
उत्तर:
(A) सन् 1951 में
20. ‘विचार वल्लरी’ निबंध-संग्रह का प्रकाशन वर्ष कौन-सा है?
(A) सन् 1950
(B) सन् 1951
(C) सन् 1952
(D) सन् 1954
उत्तर:
(C) सन् 1952
21. ‘मंथन’ के रचयिता कौन हैं?
(A) धर्मवीर भारती
(B) महादेवी वर्मा
(C) फणीश्वर नाथ ‘रेणु’
(D) जैनेंद्र कुमार
उत्तर:
(D) जैनेंद्र कुमार
22. ‘मंथन’ किस विधा की रचना है?
(A) उपन्यास
(B) निबंध
(C) कहानी
(D) रेखाचित्र
उत्तर:
(B) निबंध
23. ‘मंथन’ का प्रकाशन किस वर्ष में हुआ?
(A) सन् 1953 में
(B) सन् 1952 में
(C) सन् 1954 में
(D) सन् 1955 में
उत्तर:
(A) सन् 1953 में
24. ‘जड़ की बात’ का प्रकाशन वर्ष है?
(A) 1936
(B) 1937
(C) 1945
(D) 1946
उत्तर:
(C) 1945
25. ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’ के रचयिता हैं-
(A) महादेवी वर्मा
(B) कुंवर नारायण
(C) जैनेंद्र कुमार
(D) धर्मवीर भारती
उत्तर:
(C) जैनेंद्र कुमार
26. साहित्य का श्रेय और प्रेय की रचना कब हुई?
(A) 1952 में
(B) 1953 में
(C) 1951 में
(D) 1954 में
उत्तर:
(B) 1953 में
27. ‘सोच-विचार’ के रचयिता हैं-
(A) जैनेंद्र कुमार
(B) धर्मवीर भारती
(C) रघुवीर सहाय
(D) शमशेर बहादुर सिंह
उत्तर:
(A) जैनेंद्र कुमार
28. संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की कौन-सी विशेषता प्रभावित होती है?
(A) निर्बलता
(B) सबलता
(C) संपन्नता
(D) धनाढ्यता
उत्तर:
(A) निर्बलता
29. बाजार चौक में भगतजी क्या बेचते थे?
(A) मिठाई
(B) चूरन
(C) सब्जी
(D) फल
उत्तर:
(B) चूरन
30. लेखक ने चूरन वाले को ‘अकिंचित्कर’ कहा है, जिसका अर्थ है-
(A) ठग
(B) अर्थहीन
(C) व्यापारी
(D) भिखारी
उत्तर:
(B) अर्थहीन
31. चूरन बेचने वाले महानुभाव को लोग किस नाम से पुकारते थे?
(A) फेरीवाला
(B) चूरन वाला
(C) मनि राम
(D) भगत जी
उत्तर:
(D) भगत जी
32. ‘बाज़ार दर्शन’ का प्रतिपाद्य है
(A) बाज़ार के उपयोग का विवेचन
(B) बाज़ार से लाभ
(C) बाज़ार न जाने की सलाह
(D) बाज़ार जाने की सलाह
उत्तर:
(A) बाज़ार के उपयोग का विवेचन
33. लेखक का मित्र किसके साथ बाज़ार गया था?
(A) अपने पिता के साथ
(B) मित्र के साथ
(C) पत्नी के साथ
(D) अकेला
उत्तर:
(C) पत्नी के साथ
34. क्या फालतू सामान खरीदने के लिए पत्नी को दोष देना उचित है?
(A) हाँ
(B) नहीं
(C) कह नहीं सकता
(D) बाज़ार का दोष है
उत्तर:
(B) नहीं
35. लेखक के अनुसार पैसा क्या है?
(A) पावर है
(B) हाथ की मैल है
(C) माया का रूप है
(D) पैसा व्यर्थ है
उत्तर:
(A) पावर है
36. जैनेन्द्र जी ने केवल बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को क्या बताया है?
(A) नीतिशास्त्र
(B) सुनीतिशास्त्र
(C) अनीतिशास्त्र
(D) अधोनीतिशास्त्र
उत्तर:
(C) अनीतिशास्त्र
37. हमें किस स्थिति में बाज़ार जाना चाहिए?
(A) जब मन खाली हो
(B) जब मन खाली न हो
(C) जब मन बंद हो
(D) जब मन में नकार हो
उत्तर:
(B) जब मन खाली न हो
38. बाज़ार किसे देखता है?
(A) लिंग को
(B) जाति को
(C) धर्म को
(D) क्रय-शक्ति को
उत्तर:
(D) क्रय-शक्ति को
39. ‘बाज़ारूपन’ से क्या अभिप्राय है?
(A) बाज़ार से सामान खरीदना
(B) बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदना
(C) बाज़ार से आवश्यक वस्तुएँ खरीदना
(D) बाज़ार को सजाकर आकर्षक बनाना
उत्तर:
(B) बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदना
40. बाजार में जादू को कौन-सी इन्द्रिय पकड़ती है?
(A) आँख
(B) नाक
(C) हाथ
(D) मुँह
उत्तर:
(A) आँख
41. ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ के आधार पर धन की ओर कौन झुकता है?
(A) निर्धन
(B) विवश
(C) निर्बल
(D) असहाय
उत्तर:
(C) निर्बल
42. फिजूल सामान को फिजूल समझने वाले लोगों को क्या कहा गया है?
(A) स्वाभिमानी
(B) खर्चीला
(C) मूर्ख
(D) संयमी
उत्तर:
(D) संयमी
43. जैनेन्द्र कुमार के मित्र ने बाजार को किसका जाल कहा है?
(A) शैतान का जाल
(B) जी का जंजाल
(C) आलवाल
(D) प्रणतपाल
उत्तर:
(A) शैतान का जाल
बाज़ार दर्शन प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
[1] उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोई? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी। [पृष्ठ-86]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है।
व्याख्या-लेखक का मित्र अपनी पत्नी के साथ बाजार से बहुत-सा सामान लेकर लौटा था। इस पर लेखक ने उससे कहा कि यह सब क्या है। इस पर मित्र ने उत्तर दिया कि उसकी पत्नी जो साथ थी, इसलिए उसे बहुत-सा सामान लाना पड़ा। लेखक का कहना है कि मित्र के कहने का भाव था कि यह पत्नी की महत्ता का परिणाम है। कोई भी व्यक्ति पत्नी के कहने को टाल नहीं सकता। लेखक भी पत्नी के महत्त्व को स्वीकार करने वाला है। प्राचीनकाल से ही इस विषय को लेकर पति की अपेक्षा पत्नी को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि घर का सामान खरीदने में पत्नी की बात ही सुनी जाती है।
इसमें किसी के महत्त्व का प्रश्न नहीं है, बल्कि नारी का प्रश्न है। घर-गृहस्थी में प्रायः पत्नी की ही चलती है। लेखक कहता है कि स्त्री यदि धन-संपत्ति नहीं जोड़ेगी तो लेखक अर्थात् पुरुष तो नहीं जोड़ सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है। हर आदमी इस बात में पत्नी का ही सहारा लेता है। परंतु बाज़ार से सामान खरीदने के लिए एक अन्य तत्त्व का भी विशेष महत्त्व है और वह है-धन से भरा हुआ थैला। अन्य शब्दों में हम इसे पैसे की गरमी भी कह सकते हैं। भाव यह है कि जिसके पास पैसे की गरमी होगी, वह निश्चय से सामान खरीदने में अपनी पत्नी का सहयोग करेगा।
विशेष-
- इसमें लेखक ने पत्नी की महिमा का प्रतिपादन किया है। बाज़ार से सामान खरीदने में भी पत्नी की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।
- इसके साथ-साथ लेखक ने धन के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला है, क्योंकि धन के कारण ही मनुष्य की क्रय-शक्ति बढ़ती है।
- यहाँ लेखक ने सहज, सरल तथा साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग किया है जिसमें तत्सम शब्दों के अतिरिक्त उर्द (कायल) एवं अंग्रेजी (मनीबैग, एनर्जी) शब्दों का संदर मिश्रण किया है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
- विश्लेषणात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
गद्यांश ,पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए।
(ख) बाज़ार से सामान खरीदने पर पुरुष पत्नी के नाम का ही सहारा क्यों लेते हैं?
(ग) लेखक के अनुसार बाज़ार से अनचाही वस्तुएँ खरीदने का क्या कारण है?
(घ) आदिकाल से पति-पत्नी में से किसे अधिक महत्त्व दिया जाता है?
उत्तर:
(क) पाठ का नाम बाज़ार दर्शन, लेखक-जैनेंद्र कुमार
(ख) बाज़ार से सामान खरीदने पर पुरुष हमेशा सारा दोष पत्नियों के सिर मढ़ देते हैं और साथ में यह तर्क देते हैं कि स्त्री माया का रूप है। अतः उसका स्वभाव ही माया जोड़ना है।
(ग) बाज़ार से अनचाही वस्तुएँ खरीदने का मुख्य कारण मनीबैग है अर्थात जिसके पास धन की शक्ति होती है वही व्यक्ति बाज़ार से चाही-अनचाही वस्तुएँ खरीदकर लाता है।
(घ) आदिकाल से सामान खरीदने के बारे में पति की अपेक्षा पत्नी को ही अधिक महत्त्व दिया जाता है। चाहे पुरुष बाज़ार से अनचाहा सामान खरीदकर लाए, परंतु वह सारा दोष पत्नी को ही देता है।
[2] पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेजिंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है। [पृष्ठ-86]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक सद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाजार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक पैसे की शक्ति पर प्रकाश डालता हुआ कहता है कि
व्याख्या-पैसा निश्चय से ही एक शक्ति है, परंतु वह शक्ति तभी दिखाई दे सकती है जब उसके परिणामस्वरूप घर में काफी सारा सामान एकत्रित किया गया हो! क्योंकि सामान के बिना पैसे की शक्ति का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि किसी के पास पैसा है अथवा नहीं, यह उसके बैंक के हिसाब-किताब से जाना जा सकता है जो कि लोगों के लिए संभव नहीं है। यदि किसी के पास बहुत बड़ा मकान, आलीशान कोठी और घर में तरह-तरह का सामान होगा, कार होगी, तो बिना देखे ही उसका पैसा दिखाई देगा। लेखक कहता है कि यदि कोई पैसे की क्रय-शक्ति का प्रयोग करता है तो पैसे के प्रयोग में पैसे की शक्ति का आनंद लिया जा सकता है।
परंतु कुछ लोग ऐसे नहीं होते। वे संयम और नियम से काम लेते हैं। बेकार सामान को वे बेकार समझकर नहीं खरीदते। उसे खरीदना वे फिजूलखर्ची मानते हैं। वे पैसे को व्यर्थ में नष्ट नहीं करते। इसीलिए ऐसे लोग समझदार कहे जाते हैं। वे अपनी बुद्धि का प्रयोग करके और किफायत करते हुए धन का संग्रह करते हैं और इस प्रकार धन को जोड़ते हुए चले जाते हैं। उन्हें पैसे की शक्ति पर पूरा भरोसा होता है। परंतु वे पैसे के प्रयोग की कभी भी जाँच नहीं करते। केवल धन का संग्रह होने के कारण ही उनके मन में अभिमान भरा रहता है। वे गर्व के कारण फूले नहीं समाते। ऐसे लोग केवल धन का संग्रह करते हैं, उसे खर्च नहीं करते।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि पैसे की सार्थकता उसकी क्रय-शक्ति में निवास करती है। एक धनवान व्यक्ति के धनी होने का पता हमें उसके घर, मकान तथा उसके कीमती सामान को देखकर चलता है, न बैंक में रखे पैसे को देखकर।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग है, जिसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू (खाक, माल, असबाब, फिजूल) तथा अंग्रेज़ी (पर्चेजिंग पावर, बैंक) शब्दों का सुंदर मिश्रण हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
- विश्लेषणात्मक तथा विवेचनात्मक शैलियों का सफल प्रयोग हुआ है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) पैसे को पावर कहने का क्या आशय है?
(ख) लोग पैसे की पावर का प्रयोग किस प्रकार करते हैं?
(ग) यहाँ ”संयमी’ किन लोगों को कहा गया है?
(घ) किन लोगों का मन गर्व से फूला हुआ रहता है?
उत्तर:
(क) पैसे को पावर कहने का आशय यह है कि धन ही मनुष्य की शक्ति का प्रतीक है। धन के द्वारा वह अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त कर सकता है और स्वयं को औरों से अधिक ताकतवर सिद्ध कर सकता है। धन से ही मनुष्य की क्रय-शक्ति बढ़ जाती है।
(ख) लोग पैसे की पावर का प्रयोग घर का सामान, बंगला, कोठी, कार आदि खरीदकर करते हैं। वे अन्य लोगों को अपनी क्रय-शक्ति दिखाकर अपने शक्तिशाली होने का प्रमाण देते हैं।
(ग) यहाँ ‘संयमी’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया गया है जो पैसे को खर्च नहीं करते। वस्तुतः इस शब्द में करारा व्यंग्य छिपा हुआ है। कंजूस लोग धन का संग्रह करके स्वयं को बुद्धिमान सिद्ध करते हैं। अतः यहाँ लेखक ने कंजूस अमीरों पर करारा व्यंग्य किया है।
(घ) अमीर लोगों का मन इकट्ठे किए गए धन के कारण गर्व से फूला हुआ रहता है। वे धन को खर्च करना नहीं जानते।
[3] मैंने मन में कहा, ठीक। बाज़ार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़ है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाज़ार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह! [पृष्ठ-87]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने बाज़ार की प्रवृत्ति पर समुचित प्रकाश डाला है।
व्याख्या-इससे पूर्व लेखक का मित्र कहता है कि बाज़ार तो शैतान का जाल है, जिसमें सजा-सजाकर सामान रखा जाता है। इसलिए भोले-भाले लोग उसके जाल में फंस जाते हैं। इस पर लेखक मन-ही-मन सोचता है कि यह तो सर्वथा उचित है। बाजार मनुष्य को अपने प्रति आकर्षित करता है। मानों वह कहता है कि यहाँ आओ। मुझे आकर लूट लो। अन्य सब बातों को भूल जाओ और मेरी तरफ देखो, मैं जो यहाँ सजधज कर तैयार खड़ा हूँ किसी और के लिए नहीं अपितु तुम्हारे लिए खड़ा हूँ। यदि तुम कुछ भी खरीदना नहीं चाहते तो न खरीदो, परंतु मुझे देखने में क्या बुराई है। मेरे पास आओ और मुझे अच्छी तरह से देखो।
बाजार द्वारा दिया गया यह आमंत्रण विशेष प्रकार का है। यह आमंत्रण ऐसा है जिसमें कोई खुशामद नहीं है, क्योंकि खुशामद के कारण मनुष्य में अपमान की भावना उत्पन्न होती है। जो जितना बड़ा होता है, उसका आमंत्रण भी मौन रूप से होता है जिससे ग्राहक में सामान खरीदने की इच्छा पैदा होती है। इच्छा से अभिप्राय मनुष्य में किसी-न-किसी चीज की कमी है। जब मनुष्य बाज़ार में खड़ा हो जाता है तो उसे यह लगने लगता है कि उसके पास पर्याप्त मात्रा में सामान नहीं है। उसे और अधिक सामान खरीदना चाहिए। यह चाहत वस्तुएं खरीदने के लिए मजबूर करती है। वह सोचता है कि उसके पास सीमित साधन हैं जबकि बाज़ार में असंख्य और अनेक वस्तुएँ पड़ी हैं। इसलिए उसे अधिकाधिक वस्तुएँ खरीदनी चाहिएँ।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने बाज़ार की महिमा पर समुचित प्रकाश डाला है जो कि ग्राहक को स्वतः अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है, जिसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू (हर्ज, खूबी) आदि शब्दों का सुंदर मिश्रण हुआ है।
- छोटे-छोटे वाक्यों के कारण भाव स्वतः स्पष्ट होने लगता है।
- आत्मकथात्मक शैली द्वारा लेखक ने बाज़ार के आकर्षण पर समुचित प्रकाश डाला है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) बाज़ार में माल देखने के लिए आमंत्रण क्यों दिया जाता है?
(ख) कौन-सा आमंत्रण ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है और क्यों?
(ग) बाज़ार का चौक लोगों में किस प्रकार की भावना उत्पन्न करता है?
(घ) ग्राहक यह क्यों सोचने लगता है कि उसके पास कितना परिमित है और कितना अतुलित है?
उत्तर:
(क) बाज़ार में माल देखने के लिए आमंत्रण इसलिए दिया जाता है ताकि देखने वाले के मन में वस्तुएँ खरीदने की लालसा जागृत हो और वह बिना आवश्यकता के भी सामान खरीदने लग जाए।
(ख) बाज़ार का मौन-मूक आमंत्रण ही ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। बाज़ार किसी को आवाज़ देकर अपने पास नहीं बुलाता। वस्तुतः बाज़ार की आकर्षक वस्तुएँ ही ग्राहक को यह सोचने को मजबूर कर देती हैं कि वह भी बाज़ार से कुछ-न-कुछ खरीद कर अवश्य ले जाए।
(ग) बाज़ार का चौक लोगों में वस्तुएँ खरीदने की कामना को जागृत करता है। लोग उन वस्तुओं को भी खरीद लेते हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं होती।
(घ) बाज़ार में वस्तुओं के भंडार को देखकर ग्राहक को लगता है कि उसके घर में बहुत कम वस्तुएँ हैं जबकि यहाँ तो असीमित और अपार सामान सजा है। अतः उसे भी यहाँ से और वस्तुएँ खरीद लेनी चाहिए।
[4] बाज़ार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाज़ार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान ज़रूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैंसी चीज़ों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को ज़रूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान की गिल्टी की और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी? [पृष्ठ-88]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि बाज़ार में एक ऐसा जादू होता है जो ग्राहक को तत्काल मोहित कर लेता है।
व्याख्या-लेखक का कथन है कि बाजार की सजधज में एक ऐसा जादू है जो देखने वाले की आँखों के माध्यम से अपना प्रभाव छोड़ जाता है। वस्तुतः उसका जादू नई-नई वस्तुओं के सुंदर रूप पर निर्भर करता है। जिस प्रकार चुंबक का जादू केवल लोहे पर ही चलता है, ईंट व पत्थर पर नहीं, उसी प्रकार बाज़ार के जादू की एक सीमा होती है। यदि किसी व्यक्ति के पास बहुत सारा पैसा हो, परंतु उनका मन पूर्णतः खाली हो तो ऐसे लोगों पर बाज़ार के जादू का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार अगर किसी के पास पैसे नहीं हैं और उसके मन में वस्तुएँ खरीदने की इच्छाएँ हों तो उस पर भी बाज़ार का आकर्षण कारगर सिद्ध होता है। यदि किसी व्यक्ति के पास धन का अभाव है परंतु उसके मन में इच्छा है तो बाज़ार की सजी असंख्य वस्तुओं का आकर्षण उसे अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
भाव यह है कि व्यक्ति कहीं से भी उधार लेकर वस्तुएँ खरीदने में नहीं हिचकिचाएगा, परंतु यदि दुर्भाग्य से किसी ग्राहक के पास काफी सारे पैसे हों, तब उसका मन किसी की बात को नहीं सुनता। तब उस व्यक्ति का मन यह अनुभव करता है जो कुछ बाज़ार में है, मैं सब कुछ खरीद लूँ। मुझे बाज़ार की सभी वस्तुओं की इच्छा है। वह सोचता है कि बाज़ार की ये सब वस्तुएँ मेरे लिए आरामदायक सिद्ध होंगी, बाज़ार के जादू के प्रभाव के कारण मनुष्य ऐसे सोचने लगता है, जैसे ही बाज़ार का जादू अर्थात् आकर्षण उसके मन से उतर जाता है वैसे ही उसे यह महसूस होता है कि ये सब वस्तुएँ तो उसके लिए बेकार हैं। इन वस्तुओं की अधिकता उसे आराम देने में सहायक सिद्ध नहीं होगी, बल्कि उसके जीवन में बाधा उत्पन्न करेंगी। तब व्यक्ति में बाज़ार के आकर्षण के प्रति अपकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वह सोचने लगता है कि मैंने ये वस्तुएँ व्यर्थ में ही खरीद ली हैं। मुझे तो उनकी आवश्यकता ही नहीं थी।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि बाज़ार का जादू भले ही आकर्षक होता है, परंतु उसका आकर्षण क्षणिक होता है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है जिसमें हिंदी के तत्सम, तद्भव तथा उर्दू (बाज़ार, जादू, राह, असर, वक्त, जरूरी, सवारी, खलल) आदि शब्दों का सुंदर मिश्रण हुआ है।
- छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग भावाभिव्यक्ति में सफल रहा है।
- विवेचनात्मक शैली के प्रयोग से निबंध की भाषा में निखार आ गया है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) बाज़ार का जादू ‘रूप का जादू’ कैसे है?
(ख) ‘जेब भरी हो, और मन खाली हो’ का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) बाज़ार का जादू किस प्रकार के व्यक्तियों को प्रभावित करता है?
(घ) बाज़ार के जादू का असर खत्म होने पर क्या अनुभव होने लगता है?
उत्तर:
(क) बाज़ार में अनेक प्रकार की वस्तुओं को सजा-सजा कर प्रस्तुत किया जाता है। ग्राहक नई-नई वस्तुओं के सुंदर रूप को देखकर धोखा खा जाता है और उनके मन में वस्तुओं को खरीदने की इच्छा उत्पन्न होने लगती है।
(ख) जब व्यक्ति के मन में बाज़ार से कुछ भी खरीदने की इच्छा नहीं होती, तब उसके मन को खाली कहा जाता है, परंतु यदि उसके पास बहुत सारे पैसे होते हैं तो लोग अपने धन की शक्ति को दिखाने के लिए वस्तुओं का क्रय करते हैं। अतः जेब भरी होने का अर्थ है-बहुत सारा धन होना और मन खाली का अर्थ है कि कोई निश्चित सामान खरीदने की इच्छा न होना।
(ग) बाज़ार का जादू केवल उन व्यक्तियों को प्रभावित करता है जिनके पास पैसे की भरमार होती है, लेकिन मन में कोई वस्तु खरीदने की लालसा नहीं होती, परंतु बाज़ार की सजी-धजी वस्तुएँ ऐसे लोगों को अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने के लिए मजबूर कर देती हैं।
(घ) जब बाज़ार के आकर्षण का प्रभाव समाप्त हो जाता है तब ग्राहक यह अनुभव करने लगता है कि जो लुभावनी वस्तुएँ उसने आराम के लिए खरीदी थीं, वे तो उसके किसी काम की नहीं हैं। वे आराम देने की बजाए उसके जीवन में बाधा उत्पन्न कर रही हैं और उसके मन की शांति को भंग कर रही हैं।
[5] पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो खाली मन न हो मन खाली हो, तब बाज़ार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाज़ार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाज़ार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाज़ार की असली कृतार्थता है। आवश्यकता के समय काम आना। [पृष्ठ-88]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक बाज़ार के जादू से बचने का एक श्रेष्ठ उपाय बताता है कि जब भी हम बाज़ार जाएँ, उस समय हमारा मन खाली नहीं होना चाहिए।
ख्या-जब भी बाजार जाना हो तो हमारे मन में किसी प्रकार का भटकाव एवं भ्रम नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें एक निश्चित वस्तु का लक्ष्य रखकर ही बाज़ार जाना चाहिए। बाज़ार के जादू से बचने का सीधा-सरल उपाय यही है। यदि तुम्हारे मन में कोई वस्तु खरीदने का लक्ष्य न हो तो बाज़ार मत जाओ। लेखक एक उदाहरण देता हुआ कहता है कि लू से बचने का एक ही उपाय है कि पानी पीकर ही लू में बाहर जाना चाहिए। यदि शरीर में पानी होगा तो लू शरीर को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं कर पाएगी। अतः यदि हमारे मन में किसी वस्तु को खरीदने का लक्ष्य है तो बाज़ार की व्यापकता और आकर्षण हमारे लिए किसी काम का नहीं रहेगा, वह हमें कोई पीड़ा नहीं दे सकेगा, बल्कि हम आनन्दपूर्वक बाज़ार का दर्शन कर सकेंगे। दूसरी ओर बाज़ार भी तुम्हारे प्रति कृतज्ञता का भाव रखेगा, क्योंकि तुमने उसे थोड़ा-बहुत सही लाभ पहुंचाया है। बाज़ार का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह आवश्यकता पड़ने पर हमारे काम आता है।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने बाज़ार के प्रभाव से बचने का एक सरल उपाय यह बताया है कि हमें मन में कोई निश्चित वस्तु खरीदने का लक्ष्य रखकर ही बाज़ार में जाना चाहिए, तभी हम बाज़ार के जादू से बच सकेंगे।
- सहज, सरल तथा साहित्यिक हिंदी भाषा का सफल प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
- विवेचनात्मक शैली के प्रयोग के कारण भाव पूरी तरह स्पष्ट हुए हैं।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) बाज़ार के जादू की जकड़ से बचने का सीधा उपाय क्या है?
(ख) लू में जाते समय हम पानी पीकर क्यों जाते हैं?
(ग) बाज़ार की सार्थकता किसमें है?
(घ) मन में लक्ष्य रखने का तात्पर्य क्या है?
(ङ) बाज़ार हमें किस स्थिति में आनंद प्रदान करता है?
उत्तर:
(क) बाज़ार के जादू से बचने का सीधा एवं सरल उपाय यह है कि हमें खाली मन के साथ बाज़ार नहीं जाना चाहिए, बल्कि किसी वस्तु को खरीदने का लक्ष्य रखकर ही बाज़ार जाना चाहिए।
(ख) हम लू में पानी पीकर इसलिए घर से बाहर जाते हैं ताकि हमारे शरीर में पानी हो। यदि हमारे शरीर में पानी होगा तो लू हमें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचा सकेगी।
(ग) बाज़ार की सार्थकता ग्राहकों की आवश्यकताएँ पूरी करने में है। जब ग्राहकों को अपनी ज़रूरत की वस्तुएँ बाजार से मिल जाती हैं तो बाज़ार अपनी सार्थकता को सिद्ध कर देता है।
(घ) मन में लक्ष्य भरने का तात्पर्य यह है कि उपभोक्ता बाज़ार जाते समय किसी निश्चित वस्तु को खरीदने का लक्ष्य बनाकर ही बाज़ार में जाए। यदि वह बिना लक्ष्य के बाज़ार जाएगा तो वह निश्चित रूप से बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर ले आएगा, जो बाद में उसकी अशांति का कारण बनेंगी।
(ङ) जब उपभोक्ता बाज़ार से व्यर्थ की वस्तुएँ खरीदने की बजाय केवल अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदता है तो बाज़ार उसे आनंद प्रदान करने लगता है इससे बाज़ार भी कृतार्थ हो जाता है।
[6] यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत ज़रूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। [पृष्ठ-88-89]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने मन के खाली होने तथा बंद होने के अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
व्याख्या-लेखक का कथन है कि हमें इस अंतर को भली प्रकार से पहचान लेना चाहिए कि हमारा मन खाली है अथवा भरा हुआ है। मन को खाली रखने का मतलब यह नहीं है कि हम अपने मन को पूर्णतः बंद कर दें अर्थात् हम मन में सोचना ही बंद कर दें। यदि हमारा मन चिंतनहीन हो जाएगा तो वह निश्चय से शून्य हो जाएगा। इसका अर्थ है मन का मर जाना और उसकी इच्छाएँ समाप्त हो जाना। इस स्थिति पर अधिकार प्राप्त करने का अधिकार केवल ईश्वर को है, जो कि अपने अन्दर सनातन भाव को लिए है। ईश्वर के अतिरिक्त संपूर्ण सृष्टि अधूरी है, पूर्ण नहीं है, क्योंकि संपूर्णता केवल परमात्मा के पास है। इसलिए हमारा मन इच्छाओं से रहित नहीं हो सकता। यह कहना सरासर झूठ है कि कोई व्यक्ति सभी इच्छाओं को त्याग सकता है और यह कहना भी गलत है कि इच्छाओं का निरोध ही तपस्या है। यदि कोई इस प्रकार के नकारात्मक अर्थ को स्वीकार करके उसे तपस्या का नाम देता है, वह भी सरासर झूठ है। लेखक के अनुसार तपस्या का मार्ग रेगिस्तान के समान व्यर्थ और बेकार है। वह मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग नहीं है। आनंद पूर्ण साधना यही है कि मानव संसार में रहते हुए उसके बंधनों से बचने का प्रयास करे।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि मन को मारने की कोई आवश्यकता नहीं है। मन में इच्छाएँ तो होनी ही चाहिएँ।
- सहज, सरल तथा साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग है जिसमें ‘इच्छानिरोधस्तपः’ संस्कृत की सूक्ति का सफल प्रयोग किया गया है।
- वाक्य-विन्यास भावाभिव्यक्ति में पूरी तरह सहायक है।
- गंभीर विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग किया गया है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) मन के खाली होने तथा बंद होने में क्या अंतर है?
(ख) लेखक ने ईश्वर और मानव की प्रकृति में क्या अंतर बताया है?
(ग) लेखक ने किस प्रवृत्ति को नकारात्मक कहा है?
(घ) लेखक ने तप के रास्ते को रेगिस्तान का गंतव्य क्यों कहा है? इसके पीछे कौन-सा व्यंग्य छिपा है?
उत्तर:
(क) मन के खाली होने का अर्थ है- मन में कोई निश्चित लक्ष्य अथवा कोई विशेष इच्छा न होना। दूसरी ओर मन के बंद होने का आशय है कि मन की सभी इच्छाओं का समाप्त हो जाना अर्थात् मर जाना। ये दोनों स्थितियाँ एक-दूसरे के विपरीत हैं।
(ख) ईश्वर और मानव की प्रकृति में मुख्य अंतर यह है कि ईश्वर अपने आप में संपूर्ण है। उसकी कोई भी इच्छा शेष नहीं है, परंतु मानव हमेशा अपूर्ण होता है। उसमें हमेशा इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं तथा नष्ट होती रहती हैं।
(ग) लेखक के अनुसार मानव द्वारा अपनी सब इच्छाओं पर नियंत्रण पा लेना ही नकारात्मक प्रवृत्ति है। जो लोग मन को मारने की प्रवृत्ति को तपस्या का नाम देते हैं, वे सर्वथा झूठ का आश्रय लेते हैं। कोई भी मनुष्य अपने मन की सब इच्छाओं पर काबू नहीं पा सकता।
(घ) तप का रास्ता एक सारहीन और व्यर्थ का रास्ता है। जो लोग यह समझते हैं कि इच्छाओं को मारकर ही तप किया जा सकता है, वे झूठ बोलते हैं। वस्तुतः संसार में रहकर उसके बंधनों से बचने का प्रयास करना ही मोक्ष है। जो कि आनंदपूर्वक साधना कही जा सकती है। रेगिस्तान की राह द्वारा लेखक यह व्यंग्य करता है कि सभी इच्छाओं को समाप्त करना संभव नहीं है। यह तो रेगिस्तान के मार्ग की तरह शुष्क तथा बेकार का परिश्रम है।
- [7] ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दीखना बंद हो जाएगा? क्या आँख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठवाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूंदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। [पृष्ठ-89]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके नेर हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंन उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि मन की सभी इच्छाओं एवं उमंगों को मार डालना निर्जीवता है। इस संदर्भ में लेखक कहता है कि
व्याख्या-सुख-सुविधाएँ प्रदान करके मन को शांत रखना निर्जीवता ही कही जाएगी। ऐसा करके हम लोभ पर विजय प्राप्त नहीं करते। यदि हमारे मन में लोभ है तो हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक हो जाएगा। जिस मन में लोभ पैदा होता है यदि हम उसे पूरी तरह बंद कर दें तो निश्चय से यह मनुष्य की हार कही जाएगी। यदि कोई व्यक्ति अपनी आँखों को ही नष्ट कर देगा और सोचेगा कि वह लोभ को प्रेरणा देने वाली वस्तु को देखने से बच जाएगा तो उसकी यह सोच व्यर्थ कही जाएगी। इससे तो उसकी अपनी हानि होगी। इस प्रकार से लोभ-लालच को मिटाया नहीं जा सकता। यह कहना सर्वथा अनुचित है कि आँखें नष्ट करने से सुंदर रूप दिखाई देना बंद हो जाएगा। इस तथ्य से सभी लोग परिचित हैं कि हम सभी आँखें बंद करके ही सपने लेते हैं। उनमें अनेक सपने ऐसे होते हैं जो हमारी सुख-शांति को भंग करते हैं और हमें आराम से नहीं बैठने देते। इसलिए मन को बंद करने की ऐसी कोशिश करना व्यर्थ ही कहा जाएगा। यह एक बेकार का कार्य है। इसे हम योग नहीं कह सकते, केवल हठ ही कह सकते हैं।
इससे हमारा मन उसी प्रकार शक्तिहीन तथा कमजोर होता है जैसे किसी विद्वान का ज्ञान शक्तिहीन या कमज़ोर होना। इससे मुक्ति नहीं मिलती। मन को बंद करने से मनुष्य की व्यापकता तथा विराटता समाप्त हो जाती है तथा क्षुद्रता एवं संकीर्णता उत्पन्न होती है। इसलिए लेखक का विचार है कि हमें मन की इच्छाओं को मारना नहीं चाहिए। इससे हमारा मन कभी भी पूर्ण नहीं बन सकता। यदि हमारे अन्दर पूर्णता होती तो हम परमात्मा से कभी अलग न होते। यह अपूर्णता ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा आधार है। इसी के कारण हमारा अस्तित्व बना हुआ है। सच्चा ज्ञान वही है जो हमारी इस अपूर्णता के ज्ञान को और अधिक गहरा बनाता है। जब हम अपनी इस अपूर्णता को स्वीकार कर लेते हैं तो हम सच्चा कर्म करने में सक्षम होते हैं। अतः यह सोचना ही व्यर्थ है कि हम अपने मन को मारकर ईश्वर के समान पूर्ण हो जाएँगे।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने इस बात पर बल दिया है कि मनुष्य को अपने मन की इच्छाओं को समाप्त नहीं करना चाहिए। इसीलिए लेखक कहता है कि सच्चा ज्ञान अपूर्णता के बोध में है।
- सहज, सरल तथा साहित्यिक हिंदी भाषा का सफल प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
- गंभीर विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) लेखक मन को बंद रखने के विरुद्ध क्यों है?
(ख) किस स्थिति में लोभ की जीत और आदमी की हार होती है?
(ग) आँख फोड़ डालने के पीछे क्या व्यंग्य छिपा है?
(घ) आँख फोड़ डालने पर भी मनुष्य बेचैन तथा व्याकुल क्यों रहता है?
(ङ) लेखक ने किसे हठ योग कहा है?
(च) लेखक के अनुसार सच्चा ज्ञान क्या है?
उत्तर:
(क) लेखक का विचार है कि मन को बंद रखना अर्थात् मन की सभी इच्छाओं को समाप्त कर देना किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इच्छाओं को मार डालने से हमारा मन ही जड़ हो जाएगा और उर गतिशीलता नष्ट हो जाएगी।
(ख) जब मनुष्य अपने उस मन को पूरी तरह बंद कर देता है जिसमें लोभ उत्पन्न होता है तो उस स्थिति में लोभ की विजय होती है और आदमी की हार होती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मनुष्य ने लोभ से डर कर अपने मन के द्वार बंद कर दिए हैं। उसमें लोभ से संघर्ष करने की शक्ति नहीं रही।
(ग) ‘आँख फोड़ डालने’ का व्यंग्य यह है कि संसार की गतिविधियों को अनदेखा करना और उसकी ओर से मन को हटा लेना और मन में यह निर्णय ले लेना कि वह संसार के आकर्षणों की ओर ध्यान नहीं देगा।
(घ) जब मनुष्य संसार की सारी गतिविधियों को अनदेखा करने लगता है तब भी उसके मन में अनेक प्रकार के सपने बनते-बिगड़ते रहते हैं। अतः मनुष्य अपने उन सपनों के बारे में सोचता हुआ हमेशा बेचैन ही रहता है और उसके मन को शांति नहीं मिलती।
(ङ) संसार की सभी इच्छाओं, स्वादों और आनंदों का निषेध करना ही हठ योग कहलाता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब मनुष्य अपने मन में यह हठ कर लेता है कि वह संसार की गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं देगा और अपनी इच्छाओं को मार लेगा, तभी वह हठ योग की ओर अग्रसर होने लगता है।
(च) लेखक के अनुसार सच्चा ज्ञान वही है जो हमें हमारी अपूर्णता का बोध कराता है। इस प्रकार के ज्ञान से हम पूर्णता प्राप्त करने के लिए प्रेरित होते हैं और कर्म करने लगते हैं।
[8] क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर-ज्ञान तक भी है या नहीं। और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम-आप न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीज़ आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य होकर भी , मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाजार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग र पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य-शक्ति कुछ भी चलती होगी? [पृष्ठ-90]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक चूरन बेचने वाले भगत जी की बात कर रहा है जो बिना आवश्यकता के बाज़ार में देखता तक नहीं।
व्याख्या-लेखक कहता है कि शायद उस भोले भगत जी को अक्षर-ज्ञान है या नहीं अर्थात् वह अनपढ़ व्यक्ति लगता है। इसलिए वह बड़ी-बड़ी बातें नहीं करना चाहता है और न ही उसे बड़ी-बड़ी बातों का पता है। अन्य लोग तो बड़ी-बड़ी बातें जानते भी हैं और करते भी हैं। इससे लोग यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि भगत जी उनके सामने मामूली व्यक्ति हैं जिसका कोई महत्त्व नहीं है। भले ही लेखक पाठकों की पढ़ी-लिखी श्रेणी का ही व्यक्ति है, परंतु वह इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। भगत जी जैसे मामूली व्यक्ति को जो कुछ प्राप्त है, वह शायद हम में से बहुत कम लोगों को प्राप्त है। सत्य तो यह है कि भगत जी पर बाज़ार का जादू चल ही नहीं सकता। उसके सामने बाज़ार का माल फैला रहता है, परंतु उसका मन कभी चंचल नहीं होता। वह स्थिर रहता है।
पैसा उसके सामने भीख माँगता हुआ कहता है कि मुझे स्वीकार कर लो, परंतु भगत जी पैसे की माँग को ठुकरा देते हैं। उन्हें पैसे पर दया नहीं आती। जिससे पैसे का गर्व टूटकर बिखर जाता है। पैसे के संबंध में भगत जी एक कठोर हृदय वाले व्यक्ति हैं। ऐसा लगता है कि मानों पैसा उसके आगे रोने लगता है और भगत जी के स्वाभिमान के आगे नतमस्तक हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति पर पैसे की व्यंग्य-शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता पैसे की व्यंग्य-शक्ति उसके आगे कुंठित हो जाती है और अपने आपको कोसने लगती है।
विशेष-
- यहाँ लेखक यह स्पष्ट करता है कि यदि व्यक्ति के मन में संयम, विवेक और संतोष वृत्ति है तो सांसारिक आकर्षण उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ऐसा व्यक्ति मायावी आकर्षणों की परवाह किए बिना आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करता
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
- यहाँ विवेचनात्मक तथा विश्लेषणात्मक शैलियों का प्रयोग किया गया है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) यहाँ लेखक ने किस भोले आदमी की बात की है और किस बात में उसका भोलापन दिखाई देता है?
(ख) लेखक ने चूरन वाले भगत जी को अपदार्थ क्यों कहा है?
(ग) भगत जी के पास ऐसा क्या है जो बड़े-बड़े विद्वानों के पास नहीं है?
(घ) भगत जी पर बाज़ार के जादू का प्रभाव क्यों नहीं होता? (ङ) पैसे की व्यंग्य-शक्ति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
(क) यहाँ चूरन वाले भगत जी को भोला आदमी कहा गया है। दुनिया की नज़रों में वे बहुत सीधे और भोले व्यक्ति हैं। संसार के अन्य लोग तो अवसर मिलने पर बाज़ार की सभी वस्तुएँ खरीद लेना चाहते हैं, परंतु भगत जी आवश्यकता के बिना कुछ नहीं खरीदते। इसलिए उन्हें भोला व्यक्ति कहा गया है।
(ख) अपदार्थ का अर्थ है-बेचारा या अंकिचन संसार की नज़रों में भगत जी न अमीर हैं और न ही शिक्षित हैं, इसलिए लोग उन्हें अपदार्थ कहते हैं।
(ग) भगत जी एक संतोषी, विवेकशील तथा संयमी व्यक्ति हैं। ये गुण संसार के बड़े-बड़े विद्वानों में भी नहीं मिलते। संसार के अधिकांश लोग लोभी, लालची होते हैं।
(घ) भगत जी सीधा-सादा जीवन व्यतीत करते हैं। उनके मन में आकर्षक वस्तुएँ खरीदने की तृष्णा नहीं है। इसलिए बाज़ार का जादू उनको प्रभावित नहीं कर पाता। वे अपनी आवश्यकतानुसार जीरा व काला नमक लेकर घर लौट आते हैं।
(ङ) पैसे,की व्यंग्य-शक्ति का अभिप्राय है कि पैसे की शक्ति लोगों को लुभाती है, उन्हें लोभी बनाती है तथा तृष्णा से व्याकुल कर देती है, परंतु भगत जी पर पैसे की व्यंग्य-शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे तो बाज़ार की अनावश्यक वस्तुओं को देखते तक नहीं। फलस्वरूप पैसे की व्यंग्य-शक्ति विफल हो जाती है।
[9] पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि ज़रा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है।। [पृष्ठ-90]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति के प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
व्याख्या-पैसे की व्यंग्य-शक्ति बडी विचित्र और कठोर है, लेखक उस शक्ति का वर्णन करता हआ कहता है कि एक व्यक्ति बाज़ार में पैदल जा रहा था। उसके पास से धूल उड़ाती एक मोटरकार निकल जाती है। उस मोटरकार के निकलते ही पैदल चलने वाले व्यक्ति के कलेजे को पार करती हुई एक कठोर व्यंग्य की लकीर निकल जाती है। उस व्यक्ति के हृदय में एक जलन-सी होने लगती है मानों कोई उसकी आँखों में उँगली डालकर यह दिखाने का प्रयास करता है कि तुम्हारे सामने से मोटरकार गुजर गई है। यह मोटरकार तुम्हारे पास नहीं है। इससे पैदल चलने वाले व्यक्ति को अपनी मजबूरी का पता चल जाता है और वह अपनी हालत के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। वह सोचने लगता है कि उसके पास इस प्रकार की मोटरकार क्यों नहीं है। बड़े दुख मैंने ऐसे माँ-बाप के यहाँ जन्म लिया जिनके पास मोटरकार नहीं है। मैं मोटरकारों वालों के यहाँ क्यों नहीं जन्मा? उस व्यंग्य में इतनी तीव्र शक्ति होती है कि मैं अपने सगे-संबंधियों से भी घृणा करने लगता हूँ और मेरे अन्दर अकृतज्ञता का भाव उत्पन्न हो जाता है।
विशेष-
- यहाँ पर लेखक यह बताना चाहता है कि पैसे की व्यंग्य-शक्ति मनुष्य में ईर्ष्या और द्वेष की भावना उत्पन्न करती है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावानुकूल है।
- आत्मसंबोधनात्मक शैली के कारण भावाभिव्यक्ति पूर्णतः स्पष्ट हो गई है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) लेखक ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति को दारुण क्यों कहा है?
(ख) पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटरकार का पैदल चलने वाले पर क्या प्रभाव पड़ा?
(ग) पैदल चलने वाला व्यक्ति क्या सोचने के लिए मजबूर हो जाता है?
(घ) पैदल चलने वाला व्यक्ति किन कारणों से सगे-संबंधियों के प्रति कृतघ्न हो जाता है?
उत्तर:
(क) पैसे की शक्ति को लेखक ने दारुण इसलिए कहा है क्योंकि वह आम आदमी में ईर्ष्या, जलन तथा तृष्णा को उत्पन्न करती है। अपने से अमीर व्यक्ति के समान वह भी सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना चाहता है।
(ख) पास ही धूल उड़ाती निकली मोटरकार ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति का प्रभाव दिखा दिया। पैदल चलने वाले व्यक्ति को यह तत्काल ही महसूस हो गया कि उसके पास मोटरकार नहीं है, इससे उसे अपनी हीनता महसूस होने लगी।
(ग) पैदल चलने वाला व्यक्ति यह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि वह ऐसे माँ-बाप के यहाँ क्यों जन्मा, जिनके पास मोटरकार नहीं है। काश! मैं मोटरकार वाले माँ-बाप के यहाँ जन्म लेता।
(घ) पैदल चलने वाला व्यक्ति पैसे की व्यंग्य-शक्ति के कारण ही अपने सगे-संबंधियों के प्रति कृतघ्न हो जाता है। वह यहाँ तक सोचने लगता है कि उसका जन्म भी किसी अमीर परिवार में होता।
[10] उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखू और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। [पृष्ठ-90-91]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाजार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। इससे पूर्व लेखक यह स्पष्ट कर चुका है कि लोक वैभव की व्यंग्य-शक्ति उस सामान्य चूरन वाले व्यक्ति के सामने चूर-चूर हो गई थी। उसमें ऐसा कौन-सा बल था जो इस तीखे व्यंग्य के सामने अजेय बना रहा। इस संदर्भ में लेखक कहता है कि
व्याख्या-उस बल को कोई भी नाम दिया जा सकता है। वह निश्चय से कोई ऐसी गहरी वस्तु नहीं है जिस पर खड़ा होकर संसार का धन-वैभव बढ़ता है। वह बल धन-संपत्ति को नहीं बढ़ाता और न ही वह उससे संबंधित है। वह तो एक अलग प्रकार का तत्त्व है जिसे लोग आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं। उसे धार्मिक, नैतिक अथवा आत्मिक शक्ति भी कहा जा सकता है। लेखक स्वीकार करता है कि उसके पास ऐसी सोच-समझ नहीं है जिसके द्वारा वह गहराई में जाए और उस शक्ति की व्याख्या करे। लेखक यह भी स्वीकार करता है शब्दों में अंतर से उसका कोई संबंध नहीं है।
वह यह भी स्वीकार करता है कि वह ऐसा विद्वान नहीं है जो यहाँ-वहाँ भटकता फिरे। लेकिन फिर भी वह अपनी समझ से प्रकाश डालता हुआ कहता है कि जिन लोगों में धन प्राप्त करने की इच्छा है, धन का संग्रह करने की चाह है, ऐसे लोगों के पास वह बल नहीं है, परंतु उस बल को यदि सच्चा बल मान लिया जाए तो धन-संग्रह की इच्छा और धन-वैभव की चाह मनुष्य को कमज़ोर ही बनाती है और कमज़ोर व्यक्ति ही धन की ओर भागता है जिसे लेखक बलहीनता कहता है। अन्य शब्दों में लेखक कहता है ऐसी स्थिति में मनुष्य पर धन की विजय होती है अर्थात् वह धन का गुलाम हो जाता है। यह चेतन पर जड़ की विजय है। मनुष्य तो चेतनशील है, परंतु धन-वैभव जड़ है। फिर भी वह चेतनशील मनुष्य पर विजय प्राप्त कर लेता है।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने उस बल की चर्चा की है जो धन-वैभव के तीखे व्यंग्य के आगे अजेय बना रहता है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावानुकूल है।
- आत्मविश्लेषणात्मक शैली द्वारा आध्यात्मिक शक्ति की विवेचना की गई है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) लोग किस बल को ‘स्पिरिचुअल’ कहते हैं। लेखक ने इस बल को और कौन-से नाम दिए हैं?
(ख) लेखक के अनुसार कौन व्यक्ति सबल है और कौन निर्बल है?
(ग) व्यक्ति की निर्बलता किस बात से प्रमाणित होती है?
(घ) मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
(क) सांसारिक वैभव के सामने न झुकने वाला बल ही स्पिरिचुअल है। लेखक ने इसे आत्मिक, धार्मिक और नैतिक बल कहा है।
(ख) जिस व्यक्ति में न तो संचय की तृष्णा है और न ही वैभव की चाह है, वह सबल है, परंतु जिसमें ये दोनों चीजें हैं वह निर्बल है। निर्बल व्यक्ति ही धन की ओर झुकता है, सबल नहीं।
(ग) व्यक्ति की निर्बलता इस बात से प्रमाणित होती है कि उसमें धन-संपत्ति का संचय करने की तृष्णा और वैभव की चाह होती है।
(घ) मनुष्य में जब धन का संग्रह करने की तष्णा पैदा होती है तो यह मनुष्य पर धन की विजय है। मनुष्य एक चेतनशील प्राणी है और धन जड़ और निर्जीव है। इसलिए यह जड़ पर चेतन की विजय कहलाती है।
[11] एक बार चूरन वाले भगत जी बाज़ार चौक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया। मैंने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाज़ार को किसी भाँति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक-बाज़ार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं। लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख, तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाज़ार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम की चीज़ ली और चले आते हैं। बाजार से हठ पूर्वक विमुखता उनमें नहीं है। [पृष्ठ-91]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यहाँ लेखक उस घटना का हवाला देता है जब उन्हें बाज़ार चौक में भगत जी दिखाई दिए थे। उस समय भी भगत जी संतुष्ट और प्रसन्न थे।
व्याख्या-लेखक कहता है कि एक बार उन्हें चूरन वाले भगत जी बाज़ार चौक में मिल गए। लेखक को देखते ही भगत जी ने उनसे जय-जयराम किया। लेखक ने भी उत्तर में उनका अभिवादन किया। उस समय भी उनकी आँखें पूरी तरह से खुली थीं। ऐसा लगता था कि वे किसी भी प्रकार बाज़ार की निंदा या आलोचना नहीं कर रहे थे। भाव यह था कि उनको बाज़ार से किसी प्रकार की आसक्ति नहीं थी। बाज़ार में बहुत-से लोग व बालक थे। वे चाहते थे कि भगत जी उन्हें पहचानें। भगत जी ने हँसते हुए सभी को पहचाना। सभी से अभिवादन लिया और सभी को अभिवादन किया। इससे पता चलता है कि भगत जी बहुत मिलनसार व्यक्ति थे। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि भगत जी चौक बाज़ार में चलते समय बाज़ार और वहाँ के लोगों की तरफ ध्यान न दे रहे हों। वे सब लोगों को देख रहे थे और बाज़ार की वस्तुओं को भी देख रहे थे, परंतु उनमें हैरान होने की मजबूरी नहीं थी। न ही उनके व्यवहार में किसी प्रकार का असमंजस था।
वे बाज़ार को हैरान होकर देखकर खड़े भी नहीं होते थे। बाज़ार चौक बढ़िया-से-बढ़िया वस्तुओं से भरा हुआ था। उन वस्तुओं में एक विचित्र आकर्षण भी था। परंतु भगत के मन में इन वस्तुओं के प्रति घृणा की भावना भी नहीं थी। ऐसा लगता था मानों वे बाज़ार के माल को मन-ही-मन आशीर्वाद दे रहे हों। उनके मन में विद्रोह की भावना नहीं थी, बल्कि प्रसन्नता की भावना थी। कारण यह है कि किसी का भी मन किसी समय खाली नहीं होता। कोई-न-कोई विचार मन में चलता रहता है। भगत जी का मन इस समय प्रसन्न था। लेखक ने देखा कि भगत जी खुली आँखों से संतुष्ट तथा निमग्न होकर चौक बाज़ार के बीचों-बीच चले जा रहे हैं। मार्ग में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर भी हैं, परंतु भगत जी कहीं भी नहीं रुकते। वे निरंतर बाज़ार को देखते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं और अंत में पंसारी की एक छोटी-सी दुकान पर जाकर रुक जाते हैं। वहाँ से वे दो चार आने का सामान खरीद लेते हैं और लौट आते हैं। बाज़ार के प्रति उनके मन में कोई विद्रोह का भाव या विमुखता भी नहीं थी। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि बाज़ार के प्रति भगत जी का न तो कोई लगाव था, न अलगाव था। वे केवल अपनी आवश्यकता की वस्तु खरीदने के लिए बाज़ार में जाते हैं।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने भगत जी के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि हमें केवल बाज़ार से आवश्यकता-पूर्ति का सामान ही खरीदना चाहिए, अनावश्यक सामान नहीं खरीदना चाहिए।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास बड़ा ही सटीक व भावानुकूल है।
- वर्णनात्मक शैली द्वारा भगत जी की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन किया गया है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) “भगत जी की आँखें बंद नहीं थीं” इससे क्या अभिप्राय है?
(ख) बाज़ार में भगत जी प्रसन्न और संतुष्ट क्यों दिखाई देते हैं?
(ग) रास्ते में लोग और बालक भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक क्यों थे?
(घ) भगत जी फैंसी माल को देखकर भी भौंचक्के क्यों नहीं होते? (ङ) भगत जी बाज़ार किसलिए जाते थे?
उत्तर:
(क) इस पंक्ति का अभिप्राय है कि भगत जी खुली आँखों से बाज़ार को देखते हुए चल रहे थे। उन्होंने बाज़ार की वस्तुओं के लोभ से बचने के लिए अपनी आँखें बंद नहीं की। इससे यह स्पष्ट होता है कि बाजार के प्रति उनके मन में न तिरस्कार की भावना थी, न निषेध की भावना थी।
(ख) भगत जी बाज़ार में प्रसन्न व संतुष्ट इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि उन्हें बाज़ार से अपनी आवश्यकतानुसार काला नमक व जीरा मिल जाता है। इसके अतिरिक्त बाज़ार की वस्तुओं के प्रति उनके मन में न तिरस्कार है और न ही उन्हें खरीदने की इच्छा है। बाज़ार का आकर्षण उनके मन में विकार उत्पन्न नहीं करता। इसलिए वह सहज भाव से प्रसन्न व संतुष्ट दिखाई देते हैं।
(ग) भगत जी रास्ते में चलते हुए सबसे जय-जयराम करते थे। वे सबसे हँसकर मिलते थे और उनका अभिवादन भी करते थे। कारण यह था कि वे बड़े मिलनसार व्यक्ति थे। इसलिए रास्ते के लोग चाहते थे कि भगत जी पहचान कर उनका अभिवादन करें।
(घ) बाज़ार की फैंसी वस्तुओं को देखकर वही लोग भौंचक्के होते हैं जिनके मन में उन वस्तुओं को खरीदने की इच्छा होती है। ऐसे लोग तृष्णा के कारण ही आकर्षक वस्तुओं को देखकर भौंचक्के होते हैं। भगत जी के मन में फैंसी माल के प्रति कोई तृष्णा नहीं थी और न ही उन्हें इसकी आवश्यकता थी। इसलिए वे फैंसी माल को देखकर भौंचक्के नहीं हुए।
(ङ) भगत जी बाज़ार में काला नमक व जीरा खरीदने के लिए जाते थे। इनसे वे चूरन बनाकर बाज़ार में बेचते थे।
[12] लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाज़ार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ-बाएँ भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चाँदनी बिछी रहती है तो बड़ी खुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं। [पृष्ठ-91]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि भगत जी के लिए बड़े-बड़े फैंसी स्टोरों का कोई महत्त्व नहीं है। उनके लिए केवल छोटी-सी पंसारी की दुकान का महत्त्व है।
व्याख्या-लेखक कहता है कि भगत जी के रास्ते में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर हैं, पर भगत जी कहीं पर नहीं रुकते। भगत जी के सामने वे फैंसी स्टोर ज्यों-के-त्यों पड़े रह जाते हैं। क्योंकि भगत जी तो एक छोटी-सी पंसारी की दुकान पर जाकर रुकते हैं। जहाँ से वे दो-चार आने का सामान लेकर लौट पड़ते हैं। इस स्थिति में भगत जी के मन में न तो बाज़ार के लिए हठ है और न ही विमुखता। उन्हें तो केवल जीरा और काला नमक चाहिए था जिसे उन्होंने खरीद लिया। भगत जी के लिए चौक बाज़ार का अस्तित्व तब तक है जब तक उन्हें बाज़ार से जीरा व काला नमक उपलब्ध होता है। जब उन्होंने अपनी आवश्यकतानुसार जीरा खरीद लिया तो सारा चौक उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता।
उनके लिए तो केवल जीरे और नमक का महत्त्व है, जो उन्हें बाज़ार से मिल गया। भगत जी के इसी निश्चित विश्वास के कारण शेष संपूर्ण चाँदनी चौक का निमंत्रण उनके लिए बेकार है। भगत जी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते। चौक का आकर्षण दोनों दिशाओं में मानों भूख से व्याकुल होकर देखता रह जाता है। भगत जी को केवल जीरा ही चाहिए था जिसे उन्होंने केवल पंसारी की दुकान से बड़े सहज भाव से खरीद लिया। चाँदनी चौक के आकर्षण से न भगत जी को कोई लगाव है, न अलगाव है। चाँदनी चौक का संपूर्ण सौंदर्य उनके लिए फैला रहता है। भगत जी उस बाज़ार का भला ही चाहते हैं, परंतु उसके आकर्षण के प्रति आसक्त नहीं होते और अपनी ज़रूरत की वस्तुएँ खरीदकर लौट जाते हैं।
विशेष-
- इसमें लेखक ने चाँदनी चौक के आकर्षण के प्रति भगत जी के तटस्थ भाव का सजीव वर्णन किया है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास बड़ा ही सटीक व भावानुकूल है।
- वर्णनात्मक शैली द्वारा भगत जी पर समूचा प्रकाश डाला गया है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) भगत जी बड़े-बड़े फैंसी स्टोरों के पास क्यों नहीं रुकते?
(ख) भगत जी एक छोटी पंसारी की दुकान पर क्यों रुकते हैं?
(ग) सारा चौक भगत जी के लिए नहीं के बराबर कब और क्यों हो जाता है?
(घ) चौक की चाँदनी भगत जी के लिए कोई महत्त्व क्यों नहीं रखती?
उत्तर:
(क) भगत जी बड़े-बड़े फैंसी स्टोरों के पास इसलिए नहीं रुकते क्योंकि उनके लिए फैंसी स्टोर का आकर्षक सामान अनावश्यक है। वे फैंसी स्टोर के आकर्षणों के शिकार नहीं होते और आगे बढ़ते चले जाते हैं।
(ख) भगत जी बाज़ार में बेचने के लिए चूरन तैयार करते हैं। अतः उन्हें अपनी आवश्यकता का सामान अर्थात् काला नमक व जीरा इसी छोटी-सी पंसारी की दुकान पर मिल जाता है। इसलिए वह पंसारी की दुकान पर रुक जाते हैं।
(ग) जब भगत जी बाज़ार से अपनी ज़रूरत के अनुसार जीरा और नमक खरीद लेते हैं तो सारा चौक तथा बाज़ार उनके लिए नहीं के बराबर हो जाता है, क्योंकि उन्हें जो कुछ चाहिए था, वह उसे लेकर लौट आते हैं।
(घ) भगत जी केवल अपनी ज़रूरत का सामान खरीदने ही चाँदनी चौक बाज़ार में जाते हैं। चाँदनी चौक का आकर्षण भगत जी को व्यामोहित नहीं कर पाता। इसलिए सारा चौक भगत जी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता।
[13] यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी। [पृष्ठ-91]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाजार दर्शन’ लेखक का एक महत्त उपभोक्तावाद तथा बाजारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बाज़ार की सार्थकता पर समुचित प्रकाश डाला है।
व्याख्या-लेखक का कथन है कि वही व्यक्ति बाज़ार को सार्थक बना सकता है जिसे पता है कि उसे बाज़ार से क्या खरीदना है, परंतु जो लोग यह नहीं जानते कि उन्हें क्या खरीदना है, उनका मन खाली होता है। वे अपनी क्रय-शक्ति के अभिमान में बाज़ार को केवल अपनी विनाशक शक्ति प्रदान करते हैं। लेखक इसे शैतानी-शक्ति अथवा व्यंग्य की शक्ति कहता है। कहने का भाव यह है कि इस प्रकार के लोग अपनी पर्चेजिंग पावर का अभिमान प्रकट करते हुए बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लेते हैं। उनकी यह शक्ति एक शैतानी शक्ति है जो कि समाज तथा बाज़ार का ही विनाश करती है। इस प्रकार के लोग न तो स्वयं बाज़ार से कोई लाभ उठा सकते हैं और न ही बाज़ार को सच्चा लाभ पहुंचा सकते हैं। इस प्रकार के लोगों के कारण बाज़ार के बाजारूपन को बढ़ावा मिलता है। यही नहीं, इससे छल-कपट की भी वृद्धि होती है और कपट बढ़ने का अर्थ यह है कि लोगों में सद्भाव घट जाता है अर्थात् अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने वाले लोग बाज़ार में छल-कपट को बढ़ावा देते हैं तथा आपसी सद्भावना को नष्ट करते हैं।
विशेष-
- यहाँ लेखक ने बाज़ार की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने वाले लोगों पर करारा व्यंग्य किया है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
- वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) बाज़ार की सार्थकता से क्या अभिप्राय है?
(ख) किस प्रकार के लोग बाजारूपन को बढ़ावा देते हैं और कैसे?
(ग) धन की शक्ति बाज़ार को किस प्रकार प्रभावित करती है?
(घ) किन कारणों से बाज़ार में सद्भाव घटता है तथा कपट बढ़ता है?
उत्तर:
(क) लेखक के अनुसार वही बाज़ार सार्थक है जो ग्राहकों को आवश्यक सामान उपलब्ध कराता है। जो बाज़ार अनावश्यक तथा आकर्षक वस्तुओं का प्रदर्शन करता है, वह लोगों की इच्छाओं को भड़काकर अपनी निरर्थकता व्यक्त करता है।
(ख) जो लोग धन की ताकत के बल पर अनावश्यक वस्तुओं को बाजार से खरीदते हैं वे लोग ही बाजारूपन तथा छल-कपट को बढ़ावा देते हैं। इस प्रकार के लोग मानों “ह दिखाना चाहते हैं कि उनमें कितना कुछ खरीदने की ताकत है। इससे लोगों में अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने की होड़ लग जाती है। फलस्वरूप वस्तुएँ आवश्यकता के लिए नहीं, बल्कि झूठी शान के लिए खरीदी जाती हैं जिससे छल-कपट तथा शोषण को बढ़ावा मिलता है।
(ग) धन की शक्ति बाज़ार में शैतानी-शक्ति को बढ़ावा देती है। अमीर लोग बाज़ार से अनावश्यक फैंसी वस्तुएँ खरीद कर अपनी शान का ढोल पीटते हैं। दूसरी ओर दुकानदार अर्थात् विक्रेता कपट का सहारा लेते हुए उसका शोषण करता है जिससे ग्राहक और दुकानदार में सद्भाव नष्ट हो जाता है। दुकानदार और ग्राहक एक-दूसरे को धोखा देने में लगे रहते हैं।
(घ) जब बाजार ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने का साधन बनता है तब लोगों में सदभावना बढ़ती है, परंतु जब ग्राहक अपनी शान का डंका बजाने के लिए अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने लगता है तो बाज़ार भी छल-कपट का सहारा लेने लगता है जिससे दुकानदार और ग्राहक में सद्भाव नहीं रहता। दोनों एक-दूसरे को धोखा देने की ताक में लगे रहते हैं।
[14] इस सद्भाव के हास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक ही हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाज़ार का, बल्कि इतिहास का; सत्य माना जाता है ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाज़ार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाज़ार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है; वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है। [पृष्ठ-91-92]
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘बाज़ार दर्शन’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार तथा निबंधकार जैनेंद्र कुमार हैं। ‘बाज़ार दर्शन’ लेखक का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा की है। यह निबंध बाज़ार के आकर्षण तथा क्रय-विक्रय की शक्ति पर समुचित प्रकाश डालता है। यहाँ लेखक यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार दुकानदार तथा ग्राहक के बीच सदभाव का पतन होने लगता है।
व्याख्या-लेखक कहता है कि जब दुकानदार तथा ग्राहक के बीच सद्भाव नष्ट हो जाता है तो वे दोनों न तो आपस में भाई-भाई होते हैं, न मित्र होते हैं और न ही पड़ोसी होते हैं, बल्कि दोनों एक-दूसरे के साथ ग्राहक और बेचक जैसा व्यवहार करने लगते हैं। दुकानदार सौदेदारी करता है और ग्राहक भी मूल्य घटाने का काम करता है। ऐसा लगता है कि मानों दोनों एक-दूसरे को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं। यदि एक को हानि होती है तो दूसरे को लाभ पहुँचता है। जो कि बाज़ार का नियम नहीं है, बल्कि इतिहास का नियम है। यह कटु सत्य है कि इस प्रकार के बाज़ार में लोगों के बीच आवश्यकताओं का लेन-देन नहीं होता, केवल छल-कपट होता है। सच्चाई तो यह है कि दुकानदार शोषक बनकर ग्राहकों का शोषण करने लगता है जिससे छल-कपट को सफलता मिलती है तथा भोले-भाले लोग उसका शिकार बनते हैं। इस प्रकार का बाज़ार संपूर्ण मानव जाति के लिए सबसे बड़ा धोखा है। जो लोग इस प्रकार के बाज़ार को बढ़ावा देते हैं और उनके द्वारा जो शास्त्र बनाया गया है वह अर्थशास्त्र बिल्कुल उल्टा है। वह धोखे का शास्त्र है। इस प्रकार का अर्थशास्त्र अनीति पर टिका है जो कि ग्राहक का कदापि कल्याण नहीं कर सकता।
विशेष-
- इसमें लेखक ने छल तथा कपट को बढ़ावा देने वाले बाज़ार की भर्त्सना की है।
- सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
- वाक्य-विन्यास सर्वथा सार्थक व सटीक है।
- विवेचनात्मक शैली का प्रयोग है।
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) लेखक किस सद्भाव के ह्रास की बात करता है?
(ख) लेखक ने किस अर्थशास्त्र को अनीति शास्त्र कहा है?
(ग) बाज़ार में शोषण क्यों होने लगता है?
(घ) लेखक ने किस प्रकार के बाज़ार को मानवता का शत्रु कहा है?
उत्तर:
(क) यहाँ लेखक ने दुकानदार तथा ग्राहक के बीच होने वाले सद्भाव की चर्चा की है। जब ग्राहक अपनी झूठी शान दिखाने के लिए अपनी पर्चेजिंग पावर के द्वारा बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदता है तब बाज़ार में कपट को बढ़ावा मिलता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि ग्राहक और दुकानदार के बीच सद्भाव समाप्त हो जाता है।
(ख) लेखक ने उस अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र कहा है जो कि बाज़ार में बाजारूपन तथा छल-कपट को बढ़ावा देता है। इस प्रकार का बाज़ार अनीति पर आधारित होता है और वह ग्राहकों से धोखाधड़ी करने लगता है।
(ग) जब बाजार में बाजारूपन बढ़ जाता है और छल-कपट बढ़ने लगता है तो दुकानदार और ग्राहक दोनों ही एक-दूसरे का शोषण करने लगते हैं। दुकानदार ग्राहक को ठगना चाहता है और ग्राहक दुकानदार को।
(घ) लेखक का कहना है कि जो बाज़ार छल-कपट तथा शोषण पर आधारित होता है वह मानवता का शत्रु है। इस प्रकार के बाज़ार में सीधे-सादे ग्राहक हमेशा ठगे जाते हैं। कपटी लोग निष्कपटों को अपना शिकार बनाते रहते हैं।
बाज़ार दर्शन Summary in Hindi
बाज़ार दर्शन लेखिका-परिचय
प्रश्न-
श्री जैनेंद्र कुमार का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
श्री जैनेंद्र कुमार का साहित्यिक परिचय अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
1. जीवन-परिचय-श्री जैनेंद्र कुमार सुप्रसिद्ध कथाकार थे, किंतु उन्होंने उच्चकोटि का निबंध-साहित्य लिखा। उनका जन्म सन् 1905 को अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक गाँव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा हस्तिनापुर जिला मेरठ में हुई। उन्होंने 1919 ई० में पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् उन्होंने काशी विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश लिया, किंतु गांधी जी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़कर वे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। गांधी जी जीवन-दर्शन का प्रभाव उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैनेंद्र जी ने कथा-साहित्य के साथ-साथ उच्चकोटि के निबंधों की रचना भी की है। सन् 1970 में उनकी महान् साहित्यिक सेवाओं के कारण भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी सन् 1973 में इन्हें डी० लिट् की मानद उपाधि से विभूषित किया। जैनेंद्र कुमार को ‘साहित्य अकादमी’ तथा ‘भारत-भारती’ पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। सन् 1990 में उनका देहांत हो गया।
2. प्रमुख रचनाएँ-श्री जैनेंद्र कुमार की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
- उपन्यास-परख’ (1929), ‘सुनीता’ (1935), ‘कल्याणी’ (1939), ‘त्यागपत्र’ (1937), ‘विवर्त’ (1953), ‘सुखदा’ (1953), ‘व्यतीत’ (1953), ‘जयवर्द्धन’ (1953), ‘मुक्तिबोध’।
- कहानी-संग्रह-‘फाँसी’ (1929), ‘वातायन’, (1930), ‘नीलम देश की राजकन्या’ (1933), ‘एक रात’ (1934), ‘दो चिड़िया’ (1935), ‘पाजेब’ (1942), ‘जयसंधि’ (1929)।
- निबंध-संग्रह-‘प्रस्तुत प्रश्न’ (1936), ‘जड़ की बात’ (1945), ‘पूर्वोदय’ (1951), ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’ (1953), ‘मंथन’ (1953), ‘सोच-विचार’ (1953), ‘काम, प्रेम और परिवार’ (1953), ‘ये और वे’ (1954), ‘साहित्य चयन’ (1951), ‘विचार वल्लरी’ (1952)।
3. साहित्यिक विशेषताएँ-जैनेंद्र कुमार ने प्रायः विचार-प्रधान निबंध ही लिखे हैं। उनके निबंधों में लेखक एक गंभीर चिंतक के रूप में हमारे सामने आता है। ये विषय साहित्य, समाज, राजनीति, संस्कृति, धर्म तथा दर्शन से संबंधित हैं। भले ही हिंदी साहित्य में वे एक मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार तथा कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हैं, परंतु निबंध-लेखक के रूप में उन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। वस्तुतः उनके निबंधों में वैचारिक गहनता के गुण देखे जा सकते हैं। एक गंभीर चिंतक होने के कारण वे अपने प्रत्येक निबंध के विषय में सभी पहलुओं पर समुचित प्रकाश डालते हैं।
इसके लिए हम उनके निबंध बाज़ार दर्शन को ले सकते हैं जिसमें उपभोक्तावाद तथा बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा देखी जा सकती है। भले ही यह निबंध कुछ दशक पहले लिखा गया हो, परंतु आज भी इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। इसमें लेखक यह स्पष्ट करता है कि यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाज़ार का उपयोग करेंगे तो निश्चय ही हम उससे लाभ उठा सकेंगे, परंतु यदि हम खाली मन के साथ बाज़ार में जाएँगे तो उसकी चमक-दमक में फँसकर अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर लाएँगे जो आगे चलकर हमारी शांति को भंग करेंगी।
वे अपने प्रत्येक निबंध में अपने दार्शनिक अंदाज में अपनी बात को समझाने का प्रयास करते हैं। परंतु फिर भी कहीं-कहीं उनके विचार अस्पष्ट और दुरूह बन जाते हैं जिसके फलस्वरूप साधारण पाठक का साधारणीकरण नहीं हो पाता।
4. भाषा-शैली-यद्यपि कथा-साहित्य में जैनेंद्र कुमार ने सहज, सरल तथा स्वाभाविक हिंदी भाषा का प्रयोग किया है, परंतु निबंधों में उनकी भाषा दुरूह एवं अस्पष्ट बन जाती है। फिर भी वे संबोधनात्मक तथा वार्तालाप शैलियों का प्रयोग करते समय अपनी बात को सहजता तथा सरलता से करने में सफल हुए हैं। यद्यपि वे भाषा में प्रयुक्त वाक्यों के संबंध में व्याकरण के नियमों का पालन नहीं करते, फिर भी उनके द्वारा प्रयक्त वाक्यों की अशद्धि कहीं नहीं खटकती। उनकी भाषा में रोचकता आदि से अंत तक बनी रहती है। वे अपनी भाषा में प्रचलित शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। यत्र-तत्र वे अंग्रेज़ी, उर्दू तथा देशज शब्दों का मिश्रण कर लेते हैं।
श्री तारा शंकर के शब्दों में-“जैनेंद्र की सबसे बड़ी विशेषता इनकी रचना का चमत्कार, कहने का ढंग या शैली है। उनकी भाषा के वाक्य प्रायः छोटे-छोटे, चलते, परंतु साथ ही मानों फूल बिखेरते चलते हैं। वे पारे की तरह ढुलमुल करते रहते हैं। जैनेंद्र को न तो उर्दू से घृणा है, न अंग्रेज़ी से परहेज है और न ही संस्कृत से दुराव है। इसलिए उनकी भाषा सहज, सरल तथा प्रवाहमयी है।” एक उदाहरण देखिए-“यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं।”
बाज़ार दर्शन पाठ का सार
प्रश्न-
जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित ‘बाज़ार दर्शन’ नामक निबंध का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तत निबंध हिंदी के सप्रसिद्ध निबंधकार, कथाकार जैनेंद्र कमार का एक उल्लेखनीय निबंध है। इसमें लेखक ने बाज़ार के उपयोग तथा दुरुपयोग का सूक्ष्म विवेचन किया है। लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि बाज़ार हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। हम बाज़ार से केवल वही वस्तुएँ खरीदें जिनकी हमें आवश्यकता है।
1. पैसे की गरमी का प्रभाव लेखक का एक मित्र अपनी पत्नी के साथ बाज़ार में गया। वहाँ से लौटते समय वह अपने साथ बहुत-से बंडल लेकर लौटा। लेखक द्वारा पूछने पर उसने उत्तर दिया कि श्रीमती जो उसके साथ गई थी। इसलिए काफी कुछ अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर लाया है। लेखक का विचार है कि पत्नी को दोष देना ठीक नहीं है। फालतू वस्तुओं को खरीदने के पीछे ग्राहक की पैसे की गरमी है। वस्तुतः पैसा एक पावर है जिसका प्रदर्शन करने के लिए लोग बंगला, कोठी तथा फालतू का सामान खरीद लेते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग पैसे की पावर को समझकर उसे जोड़ने में ही लगे रहते हैं और मन-ही-मन बड़े प्रसन्न होते हैं। मित्र ने लेखक को बताया कि यह सब सामान खरीदने पर उसका सारा मनीबैग खाली हो गया है।
2. बाज़ार का प्रभावशाली आकर्षण-फालतू सामान खरीदने का सबसे बड़ा कारण बाज़ार का आकर्षण है। मित्र ने लेखक को बताया कि बाज़ार एक शैतान का जाल है। दुकानदार अपनी दुकानों पर सामान को इस प्रकार सजाकर रखते हैं कि ग्राहक फँस ही जाता है। वस्तुतः बाजार अपने रूप-जाल द्वारा ही ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। ब आग्रह नहीं होता। वह ग्राहकों को लूटने के लिए प्रेरणा देता है। यही कारण है कि लोग बाज़ार के आकर्षक जाल का शिकार बन जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति खाली मन से बाज़ार जाता है तो वह निश्चय से लुट कर ही आता है।
लेखक का एक अन्य मित्र दोपहर के समय बाज़ार गया, परंतु वह शाम को खाली हाथ लौट आया। जब लेखक ने पूछा तो उसने बताया कि बाज़ार में सब कुछ खरीदने की इच्छा हो रही थी। परंतु वह एक भी वस्तु खरीदकर नहीं लाया। पूछने पर उसने बताया कि यदि मैं एक वस्तु खरीद लेता तो उसे अन्य सब वस्तुएँ छोड़नी पड़ती। इसलिए मैं खाली हाथ लौट आया। लेखक का विचार है कि यदि हम किसी वस्तु को खरीदने का विचार बनाकर बाज़ार जाते हैं तो फिर हमारी ऐसी हालत कभी नहीं हो सकती।
3. बाज़ार के जादू का प्रभाव-बाज़ार में रूप का जादू होता है। जब ग्राहक का मन खाली होता है, तब वह उस पर अपना असर दिखाता है। खाली मन बाज़ार की सभी वस्तुओं की ओर आकर्षित होता है और यह कहता है कि सभी वस्तुएँ खरीद ली जाएँ। परंतु जब बाज़ार का जादू उतर जाता है तब ग्राहक को पता चलता है कि उसने जो कुछ खरीदा है, वह उसे आराम पहुँचाने की बजाय बेचैनी पहुंचा रहा है। इससे मनुष्य में अभिमान बढ़ता है, परंतु उसकी शांति भंग हो जाती है। बाज़ार के जादू का प्रभाव रोकने का एक ही उपाय है कि हम खाली मन से बाज़ार न जाएँ बल्कि यह निर्णय करके जाएँ कि हमने अमुक वस्तु खरीदनी है। ऐसा करने से बाज़ार ग्राहक से कृतार्थ हो जाएगा। आवश्यकता के समय काम आना बाज़ार की वास्तविक कृतार्थता है।
4. खाली मन और बंद मन की समस्या-यदि ग्राहक का मन बंद है तो इसका अभिप्राय है कि मन शून्य हो गया है। मनुष्य का मन कभी बंद नहीं होता है। शून्य होने का अधिकार केवल ईश्वर का है। कोई भी मनुष्य परमात्मा के समान पूर्ण नहीं है, सभी अपूर्ण हैं। इसलिए मानव-मन में इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। इच्छाओं का विरोध करना व्यर्थ है। यह तो एक प्रकार से ठाट लगाकर मन को बंद करना है। ऐसा करके हम लोभ को नहीं जीतते, बल्कि लोभ हमें जीत लेता है।
जो लोग मन को बलपूर्वक बंद करते हैं। वे हठयोगी कहे जा सकते हैं। इससे हमारा मन संकीर्ण तथा क्षुद्र हो जाता है। प्रत्येक मानव अपूर्ण है, हमें इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। सच्चा कर्म हमें अपूर्णता का बोध कराता है। अतः हमें मन को बलपूर्वक रोकना नहीं चाहिए अपितु बात को सुनना चाहिए। क्योंकि मन की सोच उद्देश्यपूर्ण होती है, परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम मन को मनमानी करने की छूट दें, क्योंकि वह अखिल का एक अंग है। अतः हमें समाज का एक अंग बनकर रहना होता है।
5. भगत जी का उदाहरण लेखक के पड़ोस में चूरन बेचने वाले एक भगत जी रहते हैं। उनका यह नियम है कि वह प्रतिदिन छः आने से अधिक नहीं कमाएँगे। इसलिए वह अपना चूरन न थोक व्यापारी को बेचते हैं न ही ऑर्डर पर बनाते हैं। जब वे बाज़ार जाते हैं तो वह बाज़ार की सभी वस्तुओं को तटस्थ होकर देखते हैं। उनका मन बाज़ार के आकर्षण के कारण मोहित नहीं होता। वे सीधे पंसारी की दुकान पर जाते हैं जहाँ से वे काला नमक तथा जीरा खरीद लेते हैं और अपने घर लौट आते हैं।
भगत जी द्वारा बनाया गया चूरन हाथों-हाथ बिक जाता है। अनेक लोग भगत के प्रति सद्भावना प्रकट करते हुए उनका चूरन खरीद लेते हैं। जैसे ही भगत जी को छः आने की कमाई हो जाती है तो वे बचा हुआ चूरन बच्चों में बाँट देते हैं। वे हमेशा स्वस्थ रहते हैं। लेखक का कहना है कि भगत जी पर बाज़ार का जादू नहीं चलता। भले ही भगत जी अनपढ़ हैं और बड़ी-बड़ी बातें नहीं करते परंतु उस पर बाज़ार के जादू का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। पैसा मानों उनसे भीख माँगता है कि मुझे ले लो परंतु भगत जी का मन बहुत कठोर है और उन्हें पैसे पर दया नहीं आती। वह छः आने से अधिक नहीं कमाना चाहते।।
6. पैसे की व्यंग्य शक्ति का प्रभाव पैसों में भी एक दारुण व्यंग्य शक्ति है। जब हमारे पास से मोटर गुज़रती है तो पैसा हम पर एक गहरा व्यंग्य कर जाता है तब मनुष्य अपने आप से कहता है कि उसके पास मोटरकार क्यों नहीं है? वह कहता है कि उसने मोटरकार वाले माता-पिता के घर जन्म क्यों नहीं लिया? पैसे की यह व्यंग्य-शक्ति अपने सगे-संबंधियों के प्रति कृतघ्न बना देती है, परंतु चूरन बेचने वाले भगत जी पर इस व्यंग्य-शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसके सामने व्यंग्य-शक्ति पानी-पानी हो जाती है। भगत जी में ऐसी कौन-सी शक्ति है जो पैसे के व्यंग्य के समक्ष अजेय बनी रहती है। हम उसे कुछ भी नाम दे सकते हैं, परंतु यह भी एक सच्चाई है कि जिस मन में तृष्णा होती है, उसमें शक्ति नहीं होती। जिस मनुष्य में संचय की तृष्णा और वैभव की चाह है, वह मनुष्य निश्चय से निर्बल है। इसी निर्बलता के कारण वह धन-वैभव का संग्रह करता है।
7. बाज़ार के बारे में भगत जी का दृष्टिकोण एक दिन भगत जी की लेखक के साथ मुलाकात हुई। दोनों में राम-राम हुई। लेखक यह देखकर दंग रह गया कि भगत जी सबके साथ हँसते हुए बातें कर रहे हैं। वे खुली आँखों से बाज़ार में आते-जाते हैं। वे बाज़ार की सभी वस्तुओं को देखते हैं। बाज़ार के सामान के प्रति उनके मन में आदर की भावना है। मानों वे सबको दे रहे हैं क्योंकि उनका मन भरा हआ है। वे खली आँख तथा संतष्ट मन से सभी फैंसी स्टोरों को छोडकर पंसारी की दकान से काला नमक और जीरा खरीदते हैं। ये चीज़े खरीदने पर बाज़ार उनके लिए शून्य बन जाता है, मानों उनके लिए बाज़ार का अस्तित्व नहीं है। चाहे चाँदनी चौक का आकर्षण उन्हें बुलाता रहे या चाँदनी बिछी रहे, परंतु वे सभी का कल्याण, मंगल चाहते हुए घर लौट आते हैं। उनके लिए बाज़ार का मूल्य तब तक है, जब तक वह काला नमक और जीरा नहीं खरीद लेते।
8. बाज़ार की सार्थकता-लेखक के अनुसार बाज़ार की सार्थकता वहाँ से कुछ खरीदने पर है। जो लोग केवल अपनी क्रय-शक्ति के बल पर बाज़ार में जाते हैं, वे बाज़ार से कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकते और न ही बाज़ार उन्हें कोई लाभ पहुंचा सकता है। ऐसे लोगों के कारण ही बाज़ारूपन तथा छल-कपट बढ़ रहा है। यही नहीं, मनुष्यों में भ्रातृत्व का भाव भी नष्ट हो रहा है। इस मनोवृत्ति के कारण बाज़ार में केवल ग्राहक और विक्रेता रह जाते हैं। लगता है कि दोनों एक-दूसरे को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रकार का बाज़ार लोगों का शोषण करता है और छल-कपट को बढ़ावा देता है। अतः ऐसा बाज़ार मानव के लिए हानिकारक है। जो अर्थशास्त्र इस प्रकार के बाज़ार का पोषण करता है, वह अनीति पर टिका है। उसे एक प्रकार का मायाजाल ही कहेंगे। इसलिए बाज़ार की सार्थकता इसमें है कि वह ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करे और बेकार की वस्तुएँ न बेचे।
कठिन शब्दों के अर्थ
आशय = प्रयोजन, मतलब। महिमा = महत्त्व, महत्ता। प्रमाणित = प्रमाण से सिद्ध । माया = धन-संपत्ति। मनीबैग = धन का थैला, पैसे की गरमी। पावर = शक्ति। माल-टाल = सामान। पजे ग पावर = खरीदने की शक्ति। फिजूल = व्यर्थ। असबाब = सामान। करतब = कला। दरकार = आवश्यकता, ज़रूरत। बेहया = बेशर्म, निर्लज्ज। हरज़ = हानि। आग्रह = खुशामद करना। तिरस्कार = अपमान। मूक = मौन। काफी = पर्याप्त। परिमित = सीमित। अतुलित = जिसकी तुलना न हो सके। कामना = इच्छा। विकल = व्याकुल । तृष्णा = लालसा। ईर्ष्या = जलन। त्रास = दुख, पीड़ा। बहुतायत = अधिकता। सेंक = तपन, गर्मी। खुराक = भोजन। कृतार्थ = अनुगृहीत। शून्य = खाली। सनातन = शाश्वत। निरोध = रोकना। राह = रास्ता, मार्ग।
अकारथ = व्यर्थ। व्यापक = विशाल, विस्तृत। संकीर्ण = संकरा। विराट = विशाल । क्षुद्र = तुच्छ, हीन। अप्रयोजनीय = बिना किसी मतलब के। खुशहाल = संपन्न। पेशगी = अग्रिम राशि। बँधे वक्त = निश्चित समय पर। मान्य = सम्माननीय। नाचीज़ = महत्त्वहीन, तुच्छ। अपदार्थ = महत्त्वहीन, जिसका अस्तित्व न हो। दारुण = भयंकर। निर्मम = कठोर। कुंठित = बेकार, व्यर्थ। लीक = रेखा। वंचित = रहित। कृतघ्न = अहसान को न मानने वाला। लोकवैभव = सांसारिक धन-संपत्ति। अपर = दूसरा। स्पिरिचुअल = आध्यात्मिक। प्रतिपादन = वर्णन। सरोकार = मतलब। स्पृहा = इच्छा। अकिंचित्कर = अर्थहीन। संचय = संग्रह। निर्बल = कमज़ोर। अबलता = निर्बलता, कमजोरी। कोसना = गाली देना। अभिवादन = नमस्कार। पसोपेश = असमंजस। अप्रीति = शत्रुता। ज्ञात = मालूम। विनाशक = नष्ट करने वाला, नाशकारी। सद्भाव = स्नेह तथा सहानुभूति की भावना। बेचक = बेचने वाला या व्यापारी। पोषण = पालन।