HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

Haryana State Board HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

HBSE 9th Class Hindi उपभोक्तावाद की संस्कृति Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लेखक ने ‘सुख’ को व्यंग्यात्मक शैली में परिभाषित करते हुए कहा है कि आज उपभोग का भोग ही सुख है।

प्रश्न 2.
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ?
उत्तर-
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित कर रही है। एक ओर इस संस्कृति में उपभोग की वस्तुओं का अत्यधिक निर्माण हो रहा है जिससे आकृष्ट होकर हम उसे बिना सोचे-समझे खरीदते चले जा रहे हैं। इससे संतुष्टि की अपेक्षा अशांति एवं अँधी होड़ की भावना बढ़ती है। दूसरी ओर, समाज के विभिन्न वर्गों में सद्भाव की अपेक्षा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। सीमित साधनों का अपव्यय हो रहा है। सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। हम पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने के कारण अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास से हमारी अपनी संस्कृति के मूल्य खतरे में पड़ गए हैं।

प्रश्न 3.
गांधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है ?
उत्तर-
गांधी जी सदा भारतीय संस्कृति के पुजारी रहे हैं। वे चाहते थे कि हम नए विचारों को अपनाएँ, किन्तु अपनी संस्कृति की नींव से दूर न हटें अर्थात् अपनी संस्कृति का त्याग न करें। गांधी जी ने अनुभव कर लिया था कि उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है। यह हमारे समाज के लिए खतरा है। इसलिए गांधी जी ने इसे समाज के लिए चुनौती कहा है।

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

प्रश्न 4.
आशय स्पष्ट कीजिए
(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों।
उत्तर-
(क) इस पंक्ति में लेखक ने उपभोक्तावाद की संस्कृति के विकास से उत्पन्न वातावरण के प्रभाव को चित्रित किया है। जाने-अनजाने आज के वातावरण में हमारा चरित्र बदल रहा है अर्थात् हमारी सोच में परिवर्तन आ रहा है। हम जिन बातों या विचारों को पहले उचित नहीं समझते थे, आज उन्हीं को करने में गर्व अनुभव करने लगे हैं। हम अपने-आपको उत्पाद के प्रति समर्पित करते जा रहे हैं अर्थात् उत्पादन ही हमारा सब कुछ बन गया है, मानवीय मूल्य गौण होते जा रहे हैं।

(ख) इस पंक्ति में लेखक ने आज के दिखावे की प्रतिष्ठा पर करारा व्यंग्य किया है। लेखक ने बताया है कि हम अपनी प्रतिष्ठा अर्थात् मान-सम्मान को बनाने के लिए तरह-तरह के ढंग अपना रहे हैं, भले ही वे हास्यास्पद ही क्यों न हों। कहने का तात्पर्य है कि हम साधनों की चिंता नहीं करते, वे कैसे भी हों हमें तो अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखनी है।

रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 5.
कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी०वी० पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं, क्यों ?
उत्तर-
आज के युग में किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए उसकी आवश्यकता का होना अनिवार्य नहीं है। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हैं, जिन्हें हम विज्ञापन देखकर इसलिए खरीदते हैं, क्योंकि उन वस्तुओं को खरीदने से हमारी हैसियत का पता चलता है और समाज में प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। अतः स्पष्ट है कि हम दिखावे की शान को बनाए रखने के लिए ऐसी वस्तुओं को खरीदने के लिए लालायित होते हैं।

प्रश्न 6.
आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट करें।
उत्तर-
हमारे अनुसार किसी भी वस्तु को खरीदने का प्रमुख आधार उसकी गुणवत्ता एवं उपयोगिता होनी चाहिए, न कि विज्ञापन। यदि हम केवल विज्ञापन को देखकर किसी वस्तु को खरीदते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि उसमें वे सभी गुण होंगे, जो हम चाहते हैं। इसलिए हमें किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए उसके गुणों को देखना चाहिए। यही उचित एवं सार्थक होगा। विज्ञापन में तो केवल चमक-दमक ही अधिक दिखाई जाती है।

प्रश्न 7.
पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पाठ में आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही दिखावे की संस्कृति का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। सर्वप्रथम इस संस्कृति से हमारे धन का अपव्यय बढ़ा है। हम अधिकाधिक वस्तुओं को खरीदने के लिए लालायित हो उठते हैं। इस संस्कृति के विकास से भारतीय संस्कृति के मूल्यों को आघात पहुँचा है। हम उपभोक्तावाद के चक्कर में फँसकर अथवा झूठी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए मानवीय मूल्यों से दूर हटते जा रहे हैं। लेखक का यह भी मानना है कि उपभोक्तावादी युग में समाज के विभिन्न वर्गों की दूरियाँ कम होने की अपेक्षा बढ़ी हैं। सामाजिक सद्भावना व सहयोग की भावना की अपेक्षा अँधी प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है जिसमें दया, सहिष्णुता, ममता आदि सद्भावों के लिए कोई स्थान नहीं है।

प्रश्न 8.
आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर-
आज की उपभोक्ता संस्कृति न केवल हमारे दैनिक जीवन को, अपितु हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को भी प्रभावित कर रही है। इससे पूर्व रीति-रिवाज व त्योहार एक महान् उद्देश्य की पूर्ति हेतु मनाए जाते थे। उनसे आपस में प्रेम, सद्भाव, मेल-जोल आदि भावों का विकास होता था। यही उनका मुख्य लक्ष्य भी था, किन्तु आज उपभोक्ता संस्कृति के आने पर हम रीति-रिवाजों व त्योहारों पर अनेकानेक वस्तुएँ खरीदते हैं और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए महँगे-महँगे उपहार देते हैं। दिखावे के लिए अनावश्यक वस्तुओं को खरीदते हैं। इससे समाज के लोगों में होड़ की भावना उत्पन्न होती है और धन का अपव्यय होता है। उदाहरणार्थ, दीपावली दीपों एवं सद्भावना का त्योहार है। हम दीप जलाने की अपेक्षा महँगे पटाखे, बम आदि चलाते हैं। अपने संबंधियों व पड़ोसियों को महँगे-महँगे तोहफे देते हैं। हम इस त्योहार के वास्तविक उद्देश्य से भटककर दिखावे की भावना में फँस जाते हैं। इस प्रकार उपभोक्ता की संस्कृति का हमारे रीति-रिवाजों व त्योहारों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

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भाषा-अध्ययन

प्रश्न 9.
धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है।
इस वाक्य -में ‘बदल रहा है’ क्रिया है। यह क्रिया कैसे हो रही है-धीरे-धीरे। अतः यहाँ धीरे-धीरे क्रिया-विशेषण है। जो शब्द क्रिया की विशेषता बताते हैं, क्रिया-विशेषण कहलाते हैं। जहाँ वाक्य में हमें पता चलता है क्रिया कैसे, कब, कितनी और कहाँ हो रही है, वहाँ वह शब्द क्रिया-विशेषण कहलाता है।

(क) ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया-विशेषण से युक्त लगभग पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए।
उत्तर-

  1. आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं।
  2. हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें।
  3. विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं।
  4. नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं।
  5. शीघ्र ही शायद कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाए।

(ख) धीरे-धीरे, जोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज्यादा, यहाँ, उधर, बाहर-इन क्रिया-विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
उत्तर-
धीरे-धीरे – मोहन धीरे-धीरे चल रहा है।
जोर से – जोर से मत बोलो।
लगातार – वह लगातार दौड़ रहा है।
हमेशा – प्रभु शर्मा हमेशा गाता है।
आजकल – तुम आजकल पढ़ते नहीं हो।
कम – तुम कम तोलते हो।
ज्यादा – वह ज्यादा हँसता है।
यहाँ – राम यहाँ सोता है।
उधर – वह उधर रहता है।
बाहर – सीता बाहर देख रही थी।

(ग) नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिए-

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति 1
उत्तर-
क्रिया-विशेषण– विशेषण
(1) निरंतर — कल
(2) मुँह में पानी आ गया — पके
(3) जोरों की — हलकी
(4) उतना ही — जितनी
(5) भरा — आजकल

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

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पाठेतर सक्रियता

‘दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों का बच्चों पर बढ़ता प्रभाव’ विषय पर अध्यापक और विद्यार्थी के बीच हुए वार्तालाप को संवाद शैली में लिखिए।
इस पाठ के माध्यम से आपने उपभोक्ता संस्कृति के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की। अब आप अपने अध्यापक की सहायता से सामंती संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त करें और नीचे दिए गए विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में कक्षा में अपने विचार व्यक्त करें।

क्या उपभोक्ता संस्कृति सामंती संस्कृति का ही विकसित रूप है।

आप प्रतिदिन टी.वी. पर ढेरों विज्ञापन देखते-सुनते हैं और इनमें से कुछ आपकी ज़बान पर चढ़ जाते हैं। आप अपनी पसंद की किन्हीं दो वस्तुओं पर विज्ञापन तैयार कीजिए।
उत्तर-
ये प्रश्न परीक्षोपयोगी नहीं हैं। विद्यार्थी इन्हें अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करेंगे।

HBSE 9th Class Hindi उपभोक्तावाद की संस्कृति Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक पाठ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ नामक इस निबन्ध में लेखक का उद्देश्य यह बताना है कि आज के बदलते युग की नवीन . जीवन-शैली के साथ-साथ उपभोक्तावादी संस्कृति भी पनप रही है। आज उपभोक्तावादी जीवन-दर्शन में सुख की परिभाषा बदल गई हैं। मानव का चरित्र भी बदल रहा है। लेखक ने मानव को विलासिता की वस्तुओं व दिखावे का जीवन न जीने का उपदेश दिया है। विज्ञापनों की चकाचौंध में न आकर अपनी आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं के अवमूल्यन के प्रति भी हमारा ध्यान आकृष्ट करना लेखक का प्रमुख लक्ष्य है। दिखावे की संस्कृति से निरन्तर अशांति बढ़ती है, इसलिए दिखावे को त्यागकर सत्य का दामन थामना चाहिए उसी से ही शांति मिल सकती है। लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के प्रति चिंता व्यक्त की है तथा हमें उसके प्रति सचेत किया है। यह इस निबन्ध का परम लक्ष्य है।

प्रश्न 2.
आधुनिक युग में आम आदमी के जीवन में विज्ञापन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में आम आदमी का जीवन अत्यंत व्यस्त हो गया है। हर वस्तु की जाँच-पड़ताल करना उसके लिए असंभव हो गया है। इसलिए वह अपनी इस कमी को विज्ञापन की सहायता से पूरा करता है। वह विज्ञापन के द्वारा वस्तुओं के गुणों, उनके प्रयोग आदि की जानकारी हासिल करता है। विज्ञापन ही आम व्यक्ति के सामने वस्तुओं के कई-कई विकल्प प्रस्तुत करता है जिससे वह अपनी पसंद की वस्तु प्राप्त कर सकता है। विज्ञापन आम आदमी के लिए कई बार हानिकारक भी सिद्ध होता है। वह आम आदमी के मन में नई वस्तुओं के लिए लालच उत्पन्न करता है। तब उसे पुरानी वस्तुएँ व्यर्थ लगने लगती हैं। इससे फिजूलखर्ची बढ़ती है।

प्रश्न 3.
लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उत्तर-
लेखक का मानना है कि हम नए विचारों को अपनाने के साथ-साथ अपनी संस्कृति की नींव से दूर न हटें अर्थात् अपनी संस्कृति का त्याग न करें। परन्तु उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है। आपसी दूरी बढ़ती जा रही है। नैतिकता पीछे छूटती जा रही है। स्वार्थ परमार्थ पर भारी पड़ता जा रहा है। यह हमारे समाज के लिए खतरा है। इसलिए लेखक ने इसे समाज के लिए चुनौती कहा है।

प्रश्न 4.
हम भारतीय लक्ष्य-भ्रम की पीड़ा से पीड़ित हैं। कैसे ?
उत्तर-
प्राचीनकाल से भारत के लोगों का उच्च विचार साधारण जीवन-शैली में विश्वास था। इस प्रकार हर व्यक्ति शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करता था। किन्तु आज हम आधुनिकता की चमक-दमक में फँस गए हैं। हम अपने जीवन का लक्ष्य भूल गए हैं। भारतीय जीवन के पुराने संस्कार जो हमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि के लिए जीना सिखाते थे, हम उन्हें पूरी तरह भूल चुके हैं। हम पश्चिमी जीवन के उपभोक्तावाद के समर्थक बन बैठे हैं जिसमें कही संतुष्टि व शांति नहीं है। इस दिखावे व चमक-दमक के छलावे में फँसकर जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित हो गए हैं। हर समय दिखावे व उपभोक्तावाद की भावना से ग्रसित रहने के कारण हमारे जीवन में अशांति व दुःख ही छाए रहते हैं। इसलिए हम लक्ष्य-भ्रम की पीड़ा से पीड़ित रहने लगे हैं।

प्रश्न 5.
उपभोक्तावादी युग में विशिष्ट जन समाज का सामान्य जन पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
उत्तर-
उपभोक्तावादी संस्कृति एवं सभ्यता के प्रचार-प्रसार से समाज का हर वर्ग प्रभावित हुआ है। जिनके पास अधिक धन है वे उपभोक्तावादी समाज के उच्च वर्ग के लोग हैं। इन्हें ही विशिष्ट जन भी कहते हैं। इस वर्ग के लोगों के सुख व वैभवपूर्ण जीवन को देखकर सामान्य जन भी उनका अनुकरण करने लगता है। वह भी उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर लालायित हो उठता है। किन्तु उनकी आय सीमित होती है। वे उपभोक्तावादी संस्कृति में अपने आपको चाहते हुए भी सम्मिलित नहीं कर सकते इसलिए तनावपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं।

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प्रश्न 6.
भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास कौन और क्यों कर रहा है? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पाठ में बताया गया है कि भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास करने में सामंती संस्कृति का योगदान रहा है। भारत में भले ही सामंत बदल गए हैं, किन्तु उनके गुण व आदतें अब तक वहीं हैं। इसके अतिरिक्त पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता का अंधानुकरण भी उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है। विज्ञापन का प्रचार-प्रसार भी उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास का एक प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त आधुनिकता और दिखावे की अंधी दौड़ भी कुछ हद तक उपभोक्तावादी संस्कृति को प्रोत्साहित करने के लिए जिम्मेदार है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के लेखक कौन हैं ?
(A) आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
(B) प्रेमचंद
(C) महादेवी वर्मा
(D) श्यामाचरण दुबे
उत्तर-
(D) श्यामाचरण दुबे

प्रश्न 2.
श्यामाचरण दुबे का जन्म कब हुआ था ?
(A) सन् 1912 में
(B) सन् 1922 में
(C) सन् 1932 में
(D) सन् 1942 में
उत्तर-
(B) सन् 1922 में

प्रश्न 3.
श्यामाचरण दुबे की मृत्यु कब हुई ? .
(A) सन् 1986 में
(B) सन् 1990 में
(C) सन् 1992 में
(D) सन् 1996 में
उत्तर-
(D) सन् 1996 में

प्रश्न 4.
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ है एक
(A) निबंध
(B) कहानी
(C) एकांकी
(D) संस्मरण
उत्तर-
(A) निबंध

प्रश्न 5.
नए जीवन-दर्शन को लेखक ने कौन-सा दर्शन कहा है ?
(A) समाज-दर्शन
(B) उपभोक्तावाद का दर्शन
(C) साहित्य-दर्शन
(D) शिक्षा का दर्शन
उत्तर-
(B) उपभोक्तावाद का दर्शन

प्रश्न 6.
लेखक के अनुसार चारों ओर किस बात पर जोर दिया जा रहा है ?
(A) गीत गाने पर
(B) अधिक खर्च करने पर
(C) उत्पादन बढ़ाने पर ।
(D) बचत करने पर
उत्तर-
(C) उत्पादन बढ़ाने पर

प्रश्न 7.
लेखक के अनुसार आज किसे सुख समझा जाता है ?
(A) ईश्वर-भक्ति को
(B) उपभोग-भोग को
(C) अधिक धन को
(D) अत्यधिक वस्तुएँ खरीदने को
उत्तर-
(B) उपभोग-भोग को

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

प्रश्न 8.
बाजार कैसी सामग्री से भरा पड़ा है ?
(A) आवश्यकता की
(B) विलासिता की
(C) हवन की
(D) पूजा की
उत्तर-
(B) विलासिता की

प्रश्न 9.
नए डिज़ाइन के परिधान कैसे हैं ?
(A) सस्ते
(B) सुंदर और टिकाऊ
(C) महँगे
(D) घटिया
उत्तर-
(C) महँगे

प्रश्न 10.
उपभोक्तावादी समाज को कौन ललचाई दृष्टि से देखते हैं ?
(A) कंजूस लोग
(B) अमीर लोग
(C) साधारण लोग
(D) गरीब लोग
उत्तर-
(C) साधारण लोग

प्रश्न 11.
हमारी नई संस्कृति कैसी संस्कृति बन गई है ?
(A) अनुकरण की
(B) त्याग की
(C) उपभोग की
(D) पैसे की
उत्तर-
(A) अनुकरण की

प्रश्न 12.
हम कौन-सी दासता को स्वीकार करते जा रहे हैं ?
(A) धन की दासता
(B) बौद्धिक दासता
(C) भाषा की दासता
(D) सभ्यता की दासता
उत्तर-
(B) बौद्धिक दासता

प्रश्न 13.
कौन-सी शक्तियों के अभाव में हम दिग्भ्रमित होते जा रहे हैं ?
(A) संस्कृति की नियंत्रक शक्ति
(B) चारित्रिक शक्ति
(C) वैराग्य की शक्ति
(D) संस्कृति के परिवर्तन की शक्ति
उत्तर-
(A) संस्कृति की नियंत्रक शक्ति

प्रश्न 14.
हमारी मानसिक शक्ति कौन बदल रहा है ?
(A) सरकार
(B) विज्ञापन और प्रसार के तंत्र
(C) फैशन
(D) उद्योगपति
उत्तर-
(B) विज्ञापन और प्रसार के तंत्र

प्रश्न 15.
उपभोक्तावाद की संस्कृति में किसका घोर अपव्यय हो रहा है ?
(A) सीमित साधनों का
(B) भावनाओं का
(C) धर्म का
(D) पारस्परिक संबंधों का
उत्तर-
(A) सीमित साधनों का

प्रश्न 16.
लेखक ने ‘सुख’ किसे कहा है ?
(A) उपभोग सुख
(B) मानसिक व शारीरिक आराम
(C) धन की प्राप्ति
(D) वैराग्य सुख
उत्तर-
(A) उपभोग सुख

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प्रश्न 17.
सांस्कृतिक अस्मिता का अर्थ है-
(A) सांस्कृतिक पहचान
(B) सांस्कृतिक विकास
(C) सांस्कृतिक पतन
(D) सांस्कृतिक मेल
उत्तर-
(A) सांस्कृतिक पहचान

प्रश्न 18.
दूसरों को श्रेष्ठ समझकर उनकी बौद्धिकता के प्रति बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए उसे स्वीकार कर लेना कहलाता है-
(A) बौद्धिक दासता
(B) बौद्धिक विलास
(C) बौद्धिक उन्नति
(D) बौद्धिक दिवालिया
उत्तर-
(A) बौद्धिक दासता

प्रश्न 19.
संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर कितने हजार की सौंदर्य सामग्री का होना मामूली बात है ?
(A) दस
(B) बीस
(C) तीस
(D) चालीस
उत्तर-
(C) तीस

प्रश्न 20.
सामान्य जन किस समाज को ललचाई दृष्टि से देखते हैं ?
(A) पूँजीपति समाज
(B) विशिष्टजन समाज
(C) संत-समाज
(D) वेतनभोगी समाज
उत्तर-
(B) विशिष्टजन समाज

प्रश्न 21.
लेखक के अनुसार भारत में अशांति और आक्रोश का प्रमुख कारण क्या है ?
(A) दिखावे की संस्कृति का विकास
(B) संस्कृति को भूल जाना
(C) संस्कृति का परिवर्तन
(D) पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव
उत्तर-
(A) दिखावे की संस्कृति का विकास

प्रश्न 22.
भारतीय संस्कृति के पुराने संस्कार सिखाते हैं-
(A) संतोषमय जीवन जीना
(B) आवेशमय जीवन जीना
(C) आक्रोशमय जीवन जीना
(D) प्रतियोगितामय जीवन जीना
उत्तर-
(A) संतोषमय जीवन जीना

प्रश्न 23.
आधुनिक चकाचौंध में भारतीय किस पीड़ा से पीड़ित हैं ?
(A) वियोग की
(B) लक्ष्य भ्रम की
(C) अपव्यय की
(D) धन की बचत होने की
उत्तर-
(B) लक्ष्य भ्रम की

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उपभोक्तावाद की संस्कृति प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या/भाव ग्रहण

1. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है; आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोग-भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं। [पृष्ठ 35]

शब्दार्थ-जीवन-शैली = जीवन जीने का ढंग। वर्चस्व = प्रमुखता। जीवन-दर्शन = जीवन संबंधी विचारधारा। उत्पादन = निर्माण। माहौल = वातावरण। समर्पित होना = अपने-आपको सौंप देना।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग-1 में संकलित ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके रचयिता श्री श्यामाचरण दुबे हैं। इस पाठ में लेखक ने आज की उपभोक्तावादी संस्कृति और विज्ञापन की चमक-दमक से भ्रमित समाज आदि के प्रश्नों पर प्रकाश डाला है। इन पंक्तियों में बताया गया है कि उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के विकास के कारण सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव आ गया है।

व्याख्या/भाव ग्रहण-लेखक ने बताया है कि आज भौतिक विकास के कारण समाज में धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। आज एक नए जीवन जीने के ढंग की प्रमुखता स्थापित हो रही है। जीवन के प्रति नई सोच, विचारधारा, दर्शन अथवा उपभोक्तावाद का दर्शन आ रहा है। चारों ओर उत्पादन बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है अर्थात अधिक-से-अधिक वस्तुओं का निर्माण किया जा रहा है। यह उत्पादन आपके उपभोग के लिए है। आप इन सब वस्तुओं का प्रयोग करके सुख प्राप्त कर सकते हैं। आज के युग में सुख की परिभाषा बदल गई है। पहले सुख संतुष्टि या संतोष से संयमपूर्वक जीवन जीने से प्राप्त होता था। अब उपभोग-भोग ही सुख है अर्थात् अधिक-से-अधिक वस्तुओं का उपभोग ही सुख है। इस प्रकार इन परिस्थितियों में जीवन में एक सूक्ष्म बदलाव आया है। जीवन जीने के मानदंड अथवा मूल्य ही बदल गए हैं। अधिकाधिक भोग में संतुष्टि नहीं है। उपभोग की कामनाएँ बढ़ती ही जाती हैं। निश्चय ही, सभी उत्पादन हमारे लिए हैं, किन्तु हम यह भूल गए हैं जाने-अनजाने आज के वातावरण में हमारा चरित्र भी बदल गया है। हम आज उत्पादनों के प्रति अपने-आपको अर्पित कर रहे हैं। वस्तुतः विकास के साथ-साथ हमारे चरित्र का भी विकास होना चाहिए था, परन्तु ऐसा लगता है कि जैसे हम केवल उत्पादकों के भोग के लिए जी रहे हैं। यही हमारे जीवन का लक्ष्य बन गया है।

विशेष-

  1. लेखक ने आज की उपभोक्तावादी परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य किया है।
  2. भौतिकवाद की कमियों की ओर संकेत किया गया है।
  3. उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास के साथ-साथ मानव चरित्र में आई गिरावट का उद्घाटन करना भी लेखक का लक्ष्य है।
  4. भाषा-शैली सरल, सहज एवं भावानुकूल है।

उपर्युक्त गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-
(1) धीरे-धीरे क्या बदल रहा है ?
(2) उपभोक्तावाद किसे कहते हैं ?
(3) सुख की व्याख्या में क्या परिवर्तन आया है ?
(4) हम क्या भूल जाते हैं ?
उत्तर-
(1) धीरे-धीरे हमारा वातावरण बदल रहा है। एक नई संस्कृति पनप रही है। जीने का नया ढंग हम पर हावी हो रहा है।
(2) उपभोग को ही जीवन का सब कुछ मान लेना, उपभोक्तावाद कहलाता है। इसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि मनुष्य उपभोग को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लेता है।
(3) पहले सुख के अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक हर प्रकार का आनंद व संतुष्टि आती थी। किन्तु अब तो केवल उपभोग के साधनों को भोगना ही सुख कहलाता है।
(4) हम भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने में आज के माहौल में हमारा चरित्र बदल रहा है। हम उत्पादन को समर्पित होते जा रहे हैं। हम उत्पादों के पूर्णतः गुलाम बनते जा रहे हैं।

2. संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य सामग्री होना तो मामूली बात है। पेरिस से परफ्यूम मँगाइए, इतना ही और खर्च हो जाएगा। ये प्रतिष्ठा-चिह्न हैं, समाज में आपकी हैसियत जताते हैं। पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। पहले उनका काम साबुन और तेल से चल जाता था। आफ्टर शेव और कोलोन बाद में आए। अब तो इस सूची में दर्जन-दो दर्जन चीजें और जुड़ गई हैं। [पृष्ठ 36]

शब्दार्थ-संभ्रांत = अमीर। सौंदर्य = सुंदरता। परफ्यूम = सुगंधित तेल । प्रतिष्ठा = सम्मान। आफ्टर शेव = शेव करने के बाद लगाया जाने वाला पदार्थ।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग-1 में संकलित एवं श्री श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक निबंध से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने आज के युग में बढ़ती हुई उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के दुष्परिणामों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। इन पंक्तियों में अमीर वर्ग की स्त्रियों द्वारा सौंदर्य प्रसाधनों पर किए गए फिजूलखर्च का वर्णन किया गया है।

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

व्याख्या/भाव ग्रहण-लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास में अंधी प्रतिस्पर्धा का उल्लेख करते हुए कहा है कि आज अमीर वर्ग की नारियाँ केवल अपने-आपको श्रेष्ठ दिखाने की ललक में महँगे-से-महँगे सौंदर्य प्रसाधन खरीदती हैं। एक संभ्रांत महिला के ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार की सौंदर्य सामग्री का होना उसके लिए साधारण-सी बात है। ये लोग पेरिस से सुगंधित तेल मँगवाते हैं, जो इतनी ही कीमत में आते हैं। ऐसे महँगे सौंदर्य प्रसाधनों की आवश्यकता नहीं, अपितु ये तो प्रतिष्ठा के चिह्न हैं। समाज में अमीर होने के भाव को प्रदर्शित करते हैं तथा उनकी हैसियत भी बताते हैं कि उनमें कितना धन खर्च करने की शक्ति है। यह बात स्त्रियों पर ही लागू नहीं, अपितु पुरुष भी आज इस दौड़ में पीछे नहीं हैं। पहले पुरुष केवल साबुन और तेल का ही प्रयोग करते थे। अब तो आफ्टर शेव, कोलोन आदि तरह-तरह के सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग भी खूब करते हैं। अब तो सौंदर्य प्रसाधनों की सूची में दर्जन-दो-दर्जन चीजें और जुड़ गई हैं। कहने का तात्पर्य है कि उपभोक्तावादी संस्कृति में कुछ वस्तुएँ तो पहले की भाँति अनिवार्य हैं किन्तु कुछ समाज में अपनी हैसियत का प्रदर्शन करने के लिए खरीदी जाती हैं।

विशेष-

  1. लेखक ने अमीर वर्ग के लोगों की प्रदर्शनप्रिय वृत्ति पर व्यंग्य किया है।
  2. उपभोक्तावादी संस्कृति फिजूलखर्ची को अधिक बढ़ावा देती है।
  3. अन्य प्रतिस्पर्धाओं की भाँति सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग की प्रतिस्पर्धा पर भी प्रकाश डाला गया है।
  4. भाषा व्यंग्यात्मक एवं प्रभावशाली है।

उपर्युक्त गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-
(1) संभ्रांत महिलाएँ कौन हैं ? उनकी किस वृत्ति पर कटाक्ष किया गया है ?
(2) सौंदर्य प्रसाधन क्या बनते जा रहे हैं ?
(3) पुरुष वर्ग भी किस दौड़ से पीछे नहीं और कैसे ?
(4) प्रस्तुत गद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(1) अमीर परिवारों की महिलाओं को संभ्रांत महिलाएँ कहा जाता है। लेखक ने उनकी फिजूलखर्ची पर कटाक्ष किया है। उनकी ड्रेसिंग टेबल पर तीस-चालीस हजार की सामग्री का होना तो मामूली बात है।
(2) सौंदर्य प्रसाधन आज के समाज की झूठी प्रतिष्ठा के प्रतीक बनते जा रहे हैं। इससे समाज में आपकी हैसियत का पता चलता है।
(3) पुरुष वर्ग भी सौंदर्य प्रसाधन प्रयोग की अंधी दौड़ में पीछे नहीं रहा। पहले पुरुष साबुन व तेल से काम चला लेते थे। अब तो वे भी इस तरह साबुन, शैंपू, आफ्टर शेवलोशन, कोलोन आदि का प्रयोग करते हैं। उनकी इस सूची में और भी कई वस्तुएँ जुड़ गई हैं।
(4) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि उपभोक्तावाद के इस युग में जहाँ फिजूलखर्ची बड़ी वहीं दिखावे की भावना ने भी जन्म लिया। कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं जिनका वास्तव में इतना प्रयोग नहीं होता अपितु अपनी प्रतिष्ठा बनाने के लिए उन्हें महँगे दामों में खरीदकर रखा जाता है। इस दौड़ में स्त्रियों के साथ-साथ पुरुष भी आगे बढ़ रहे हैं।

3. हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। [पृष्ठ 37]

शब्दार्थ-अस्मिता = अस्तित्व, सत्ता। अवमूल्यन = मूल्यों में गिरावट आना। आस्था = विश्वास। क्षरण = विनाश । दासता = गुलामी। अनुकरण = पीछे चलने वाली।

प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग-1 में संकलित ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक निबंध में से उद्धृत है। इसके रचयिता श्री श्यामाचरण दुबे हैं। इस निबंध में लेखक ने आज के युग में पनपती ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ के दुष्परिणामों से सावधान किया है। इन पंक्तियों में लेखक ने बताया है कि इस संस्कृति के विकास से मानवीय जीवन-मूल्यों को हानि पहुँची है।

व्याख्या/भाव ग्रहण-लेखक का मत है कि आज हम भले ही अपने सांस्कृतिक जीवन की कितनी ही बातें क्यों न करें, किन्तु इसमें संदेह नहीं है कि इस नई संस्कृति के विकास से अर्थात् उपभोक्तावादी संस्कृति से हमारी परंपराओं के मूल्य में गिरावट अवश्य आई है। हमारे विश्वासों का भी. विनाश हुआ है। आज हम केवल भौतिक विकास की बात तो करते हैं, किन्तु इससे भावात्मक संबंधों के टूटने की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। यह कटु सत्य है कि हम बौद्धिक दासता को स्वीकार करते जा रहे हैं अर्थात् मानसिकता के स्तर पर हम दूसरों के गुलाम बनते जा रहे हैं। हमारी अपनी सोच व जीवन-शैली समाप्त हो रही है। पश्चिम देशों के लोगों ने अपने सांस्कृतिक उपनिवेश बना लिए हैं। आज की उपभोक्तावाद की नई संस्कृति वस्तुतः हमारी संस्कृति नहीं रही, अपितु वह दूसरों की नकल की संस्कृति बन गई है। कहने का भाव है कि आज की उपभोक्तावादी सोच के कारण हमारी भारतीय संस्कृति के मूल्यों को आघात पहुँचा है और हम पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति के मानसिक तौर पर गुलाम बनते जा रहे हैं।

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

विशेष-

  1. लेखक ने उपभोक्तावाद की संस्कृति से उत्पन्न खतरों के प्रति हमें सचेत एवं सावधान किया है।
  2. भाषा-शैली विषयानुकूल एवं विश्लेषणात्मक है।

उपर्युक्त गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-
(1) ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ से आप क्या समझते हैं ?
(2) कड़वा सच क्या है ?
(3) कौन और कैसे बौद्धिक दास बने हैं ?
(4) सांस्कृतिक उपनिवेश क्या होते हैं ?
उत्तर-
(1) सांस्कृतिक अस्मिता, इन दोनों शब्दों के अर्थ अलग-अलग हैं। सांस्कृतिक का अर्थ है संस्कृति से संबंधित या विशेष जीवन-शैली जिसे अपनाकर लोग जीवन व्यतीत करते हैं। अस्मिता का अर्थ है-पहचान। इस प्रकार सांस्कृतिक अस्मिता का तात्पर्य है एक ऐसी जीवन-शैली जिससे किसी समाज विशेष की पहचान होती है।
(2) लेखक ने इस बात को कड़वा सच बताया है कि हम भारतीय अपनी परंपराओं एवं विचारधाराओं से हटकर पश्चिम से आई उपभोक्तावादी संस्कृति को स्वीकार करते जा रहे हैं।
(3) भारतवासी पश्चिम देशों की बौद्धिकता के दास बनते जा रहे हैं अर्थात हम भारतीय अपनी विचारधारा व सोच को हेय समझते हैं। पश्चिमी विचारों को श्रेष्ठ समझकर उन्हें अपना रहे हैं। इस प्रकार दूसरों की सोच को सही मानकर हम उनके बौद्धिक दास बन रहे हैं।
(4) जब कोई शक्तिशाली देश विजेता के रूप में दूसरे देश पर अपनी संस्कृति या जीवन-शैली को बलात् थोपता है और वहाँ के लोग उसे स्वीकार करके अपनी पहचान भूल जाते हैं, तब वह देश विजेता देश का सांस्कृतिक उपनिवेश बन जाता है। कहने का भाव है कि अपनी संस्कृति व विचारधारा तथा जीवन-शैली का प्रचार-प्रसार करके अपनी तरह की एक और कॉलोनी बना लेना।

4. समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का हास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। [पृष्ठ 38]

शब्दार्थ-सरोकार = संबंध, मेल-मिलाप। अंतर = भीतरी। आक्रोश = विरोध। अस्मिता = अस्तित्व, पहचान। हास = विनाश। लक्ष्य-भ्रम = उद्देश्य से भटकना। पीड़ित = दुखी। विराट = महान् । तुष्टि = संतुष्टि, पूर्ति । तात्कालिक = क्षणिक, उसी समय का।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग-1 में संकलित ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इस पाठ के लेखक श्री श्यामाचरण दुबे हैं। इस प्राठ में लेखक ने उपभोक्तावाद की संस्कृति से उत्पन्न खतरों के प्रति हमें सावधान किया है। इन पंक्तियों में बताया गया है कि आज उपभोक्तावाद के विकास से सामाजिक संबंधों में बिखराव आया है और मानसिक अशांति भी बढ़ी है। हम अपने जीवन के महान उद्देश्यों को भूल गए हैं।

व्याख्या/भाव ग्रहण-लेखक ने बताया है कि हम उपभोक्तावाद की इस संस्कृति के विकास से समाज में विद्यमान वर्गों की दूरियाँ बढ़ी हैं अर्थात् अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा गरीब और गरीब। मालिक और नौकर तथा कारखानेदार और मजदूर में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो रही है। आपसी सद्भाव की भावना समाप्त होती जा रही है। एक ओर जीवन स्तर बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर मन की शांति समाप्त होती जा रही है। हर व्यक्ति विकास के लिए व्याकुल है। लोगों के मन में आक्रोश की भावना बढ़ती जा रही है। लेखक का मत है कि जैसे-जैसे उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रसार एवं विकास होगा, वैसे-वैसे सामाजिक अशांति बढ़ेगी। उपभोक्तावाद के विकास से प्रतिस्पर्धा का जन्म होता है और प्रतिस्पर्धा में कभी किसी को चैन नहीं मिलता। इससे समाज में अशांति को बढ़ावा मिलता है। हमारे सांस्कृतिक जीवन का विनाश हो रहा है। हम अपनी संस्कृति को भूलकर उपभोक्तावाद की संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। आज हम अपने लक्ष्य से भटकने की पीड़ा से पीड़ित हैं। हमारे सामने कोई स्पष्ट एवं महान् उद्देश्य नहीं है, इसलिए हम भटकने की स्थिति में फँस गए हैं। हम झूठी तुष्टि के क्षणिक लक्ष्यों को अपनाते जा रहे हैं। तात्कालिक लक्ष्यों की पूर्ति से कभी भी स्थायी शांति प्राप्त नहीं हो सकती।

विशेष-

  1. लेखक ने उपभोक्तावाद से उत्पन्न नई संस्कृति में समाज के विभिन्न वर्गों में उत्पन्न संघर्ष व दूरियों की स्थिति पर प्रकाश डाला है।
  2. तात्कालिक व क्षणिक लक्ष्यों की अपेक्षा अपने जीवन में विराट एवं उदात्त लक्ष्यों की अपनाने की प्रेरणा दी गई है।
  3. भाषा-शैली अत्यंत सरल, स्पष्ट एवं भावानुकूल है।

उपर्युक्त गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-

(1) आज के समाज की सबसे बड़ी चिंता क्या है ?
(2) समाज में आक्रोश और अशांति क्यों बढ़ रही है ?
(3) हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का हास कैसे हो रहा है ?
(4) ‘झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्य’ का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
(1) आज के समाज की सबसे बड़ी चिंता यह है कि समाज के विभिन्न वर्गों की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। सामाजिक संबंध बिखरते जा रहे हैं।
(2) जीवन स्तर के बढ़ते अंतर के कारण समाज में अशांति और आक्रोश बढ़ रहा है। आज अमीर अधिक अमीर होता जा रहा है। आम आदमी की खरीदने की क्षमता कम होती जा रही है। इस वर्ग के मन में इसलिए अशांति और आक्रोश है और धनी वर्ग में आपसी प्रतियोगिता की भावना के कारण अशांति है।
(3) आज हम अपनी जीवन-शैली, रहन-सहन व सोच को त्यागकर पश्चिम की जीवन-शैली और सोच को अपनाते जा रहे हैं। इसलिए हमारी सांस्कृतिक अस्मिता (पहचान) का ह्रास (हानि) हो रहा है।
(4) मानव को भोग के साधनों के उपभोग से कभी संतुष्टि नहीं हो सकती। इनके उपभोग की इच्छा बढ़ती ही जाती है। फिर वह इन्हीं को सुख मानकर मन को सांत्वना दे देता है। इसे ही ‘झूठी तुष्टि’ कहते हैं। इस झूठी तुष्टि को प्राप्त करने का तात्कालिक लक्ष्य है-उपभोग के आधुनिक साधन; जैसे एल.इ.डी., फ्रिज, कंप्यूटर, कार, मोबाइल फोन आदि।

उपभोक्तावाद की संस्कृति Summary in Hindi

उपभोक्तावाद की संस्कृति लेखक-परिचय

प्रश्न-
श्री श्यामाचरण दुबे का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
श्री श्यामाचरण दुबे का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर-
1. जीवन-परिचय-श्री श्यामाचरण दुबे का नाम सामाजिक वैज्ञानिकों में बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने भारतीय समाज की बदलती परिस्थितियों पर जमकर लिखा है। ऐसे गंभीर चिंतक का जन्म सन् 1922 में मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ। उन्होंने आरंभिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में प्राप्त की। बाद में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से मानव-विज्ञान में पीएच०डी० की उपाधि प्राप्त की। वे भारत के अग्रणी समाज-वैज्ञानिक रहे हैं। उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया तथा अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर भी सफलतापूर्वक कार्य किया। इसके साथ ही आजीवन लेखन-कार्य भी किया। ऐसे महान् लेखक का निधन सन् 1996 में हुआ।

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2. प्रमुख रचनाएँडॉ० श्यामाचरण दुबे ने अनेक ग्रंथों की रचना की है। उनमें से हिंदी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं’मानव और संस्कृति’, ‘परंपरा और इतिहास बोध’, ‘संस्कृति तथा शिक्षा’, ‘समाज और भविष्य’, ‘भारतीय ग्राम’, ‘संक्रमण की पीड़ा’, ‘विकास का समाज-शास्त्र’, ‘समय और संस्कृति’ आदि।

3. साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ० श्यामाचरण दुबे जहाँ महान् समाजशास्त्री हैं, वहीं साहित्यकार भी हैं। उन्होंने आजीवन अध्यापन कार्य किया। उन्होंने अपने युग के समाज, जीवन और संस्कृति का गहन अध्ययन किया है। उनसे संबंधित ज्वलंत विषयों पर उनके विश्लेषण और स्थापनाएँ उल्लेखनीय हैं। डॉ० -दुबे ने आज के बदलते जीवन मूल्यों में आ रही गिरावट पर चिंता व्यक्त की है। वे परिवर्तन के विरोधी नहीं हैं, अपितु गलत दिशा में हो रहे परिवर्तनों का उन्हें बेहद दुःख है। आज के भौतिकतावादी और प्रतियोगिता की अंधी दौड़ के युग में वे चाहते हैं कि हमें विकास तो करना चाहिए, किन्तु अपनी सभ्यता और संस्कृति का मूल्य चुकाकर नहीं। व्यक्तिगत विकास व सुख के साथ-साथ परोपकार की भावना को नहीं भूलना चाहिए। ऐसा उनका स्पष्ट मत है।
भारत की जन-जातियों और ग्रामीण समुदायों पर केंद्रित उनके लेखों ने बृहत समुदाय का ध्यान आकृष्ट किया है। वे जानते हैं कि भारतवर्ष की संस्कृति की जड़ें यहाँ के ग्रामीण जीवन में ही फँसी हुई हैं। यदि हम अपनी संस्कृति के वास्तविक रूप को देखना चाहते हैं तो हमें ग्रामीण जीवन-शैली को समझना होगा।

4. भाषा-शैली-श्री श्यामाचरण दुबे के साहित्य की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज एवं स्वाभाविक है। वे जटिल विचारों को तार्किक विश्लेषण के साथ सहज भाषा में व्यक्त करने की कला में कुशल हैं। उनकी भाषा में वाक्य-गठन अत्यंत सरल एवं स्पष्ट है। उन्होंने लोक प्रसिद्ध मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भी विषयानुकूल किया है।

उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ-सार/गद्य-परिचय

प्रश्न-
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक पाठ का सार/गद्य-परिचय अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ आज के जीवन की समस्या को उजागर करने वाला निबंध है। यह पाठ बाजार की गिरफ्त में आ रहे समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करता है। आज का युग तीव्र गति से बदल रहा है। इस बदलते युग में एक नई जीवन-शैली का उद्भव हो रहा है। इसके साथ ही उपभोक्तावादी जीवन-दर्शन भी आ रहा है। चारों ओर उत्पादन के बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है। यह सब हमारे सुख के लिए तथा भोग के लिए हो रहा है। आज सुख की परिभाषा भी बदल गई है। वस्तुओं का भोग ही सुख समझा जाने लगा है। नई परिस्थितियों में जाने-अनजाने में हमारा चरित्र ही बदलता जा रहा है। हम अपने-आपको उत्पाद को अर्पित करते जा रहे हैं।

आज बाजार विलासिता की वस्तुओं से भरा पड़ा है। आज हमें लुभाने के लिए दैनिक जीवन मे काम आने वाली वस्तु के तरह-तरह के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ, टूथ-पेस्ट को ही ले लीजिए। कितने ही प्रकार के टूथ-पेस्ट आ गए हैं।

प्रत्येक टूथ-पेस्ट के अलग-अलग गुण बताकर हमें लुभाया जा रहा है। इसी प्रकार टूथ-ब्रश के लिए भी तरह-तरह के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। इससे हम इनके प्रति आकृष्ट होकर आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ खरीद लेते हैं। इसी प्रकार सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुओं को देख सकते हैं। प्रति माह बाजार में नए-नए उत्पादन आ रहे हैं। उच्चवर्ग की महिलाएँ तो अपने ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार रुपए का सामान खरीदकर रख लेती हैं। यह सब उनके उपभोग के लिए कम और प्रतिष्ठा के लिए अधिक है। पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहते।

इसी प्रकार वस्त्रों की दुनिया में भी यही दशा है। जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं। नए-नए डिजाइन के परिधान बाजार में आ गए हैं। प्रतिदिन नए-नए डिज़ाइन आते हैं और पहले वाले परिधान व्यर्थ लगने लगते हैं। इसी प्रकार घड़ी का काम समय बताना है। चार-पाँच सौ रुपए की घड़ी भी यह काम करती है, किन्तु अपनी प्रतिष्ठा दिखाने के लिए पचास-साठ हजार रुपए की ही नहीं लाख, डेढ़ लाख रुपए की घड़ियाँ भी खरीदी जाती हैं। इसी प्रकार म्यूजिक सिस्टम और कंप्यूटर आदि वस्तुएँ भी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए खरीदी जाती हैं। यह बात उच्च वर्ग के लिए ही नहीं है, अपितु मध्य वर्ग के लोग भी पीछे नहीं रहते। अतः समाज में उपभोक्तावाद की संस्कृति के युग में अंधी होड़ से समाज में जीवन-स्तर भले ऊपर उठ रहा हो, किन्तु सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं।

आज बात भोजन खाने की हो या फिर बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलवाने की हो, पाँच सितारा होटल या स्कूल का होना अनिवार्य है। बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में जाना भी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन है। इतना ही नहीं, अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में तो स्वयं मरने से पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते हैं, किन्तु एक विशेष मूल्य चुकाकर। आने वाले समय में यह कार्य भारत में भी हो सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप हो सकते हैं, भले ही वे हास्यास्पद ही क्यों न हों। यह उदाहरण विशिष्टजन समाज (धनी लोगों) का है, किन्तु साधारण व्यक्ति भी इसे ललचाई हुई दृष्टि से देखते हैं तथा अपने मन की शांति को खो बैठते हैं।

भारतवर्ष में धनी लोग अर्थात् सामंती संस्कृति के तत्त्व पहले भी रहे हैं, किन्तु आज सामंती संस्कृति के अर्थ बदल गए हैं। आज हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात भले ही करें, किन्तु सच्चाई यह है कि परंपराओं का अवमूल्यन हो रहा है और आस्थाएँ टूट रही हैं। हम पश्चिम की बौद्धिक दासता को तेज गति से अपनाने में लगे हुए हैं। आज की नई संस्कृति केवल ढोंग है। यह तो अनुकरण संस्कृति है। प्रतिष्ठा की अंधी दौड़ में हम अपने को खोकर छदम आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं, दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही दूसरे से निर्देशित हो गया है। विज्ञापन और प्रसार के साधनों ने हमारी मानसिकता बदल डाली है।

लेखक ने इस संस्कृति के फैलाव व प्रसार के परिणाम के प्रति गंभीर चिंता व्यक्त की है। हमारे सीमित साधनों का अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधर सकती और न ही नए बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। आज उपभोक्तावाद की संस्कृति के उदय के कारण आपसी दूरी बढ़ती जा रही है। जीवन का बढ़ता हुआ स्तर मानव-जीवन में अशांति और आक्रोश को जन्म दे रहा है। दिखावे की संस्कृति से अशांति बढ़ेगी तथा सांस्कृतिक अस्मिता का विनाश होगा। हमारे विराट उद्देश्य धुंधले पड़ गए हैं तथा मर्यादाएँ टूट रही हैं। नैतिकता पीछे छूटती जा रही है। स्वार्थ परमार्थ पर भारी पड़ता जा रहा है। भोग की कामनाएँ आकाश को छू रही हैं। इनकी कोई सीमा दिखाई नहीं देती।

गांधी जी ने कहा था कि स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी सामाजिक नींव को ही हिलाकर रख दिया है। यह हमारे लिए चिंता एवं चुनौती का विषय है।

कठिन शब्दों के अर्थ –

(पृष्ठ-35) : वर्चस्व = प्रधानता। स्थापित होना = बनना। जीवन-दर्शन = जीवन के प्रति विचारधारा, सोच। उत्पादन = वस्तुओं का निर्माण। सूक्ष्म = बारीक । बदलाव = परिवर्तन। माहौल = वातावरण, परिस्थितियाँ । विलासिता = ऐश्वर्य। लुभाना = आकृष्ट करना। दुर्गंध = बदबू। मैजिक फार्मूला = जादुई तरीका। बहुविज्ञापित = अत्यधिक प्रचारित/सूचित। कीमती ब्रांड = महँगी वस्तु। सौंदर्य प्रसाधन = सुंदरता बढ़ाने वाली सामग्री।

(पृष्ठ-36) : जर्स = सूक्ष्म कीटाणु। संभ्रांत औरतें = अमीर महिलाएँ। प्रतिष्ठा-चिहून = सम्मानसूचक। परिधान = पहनने के वस्त्र। बुटीक = वस्त्र भंडार। ट्रेंडी = रिवाज के। म्यूज़िक सिस्टम = संगीत के साधन।

(पृष्ठ-37) : हास्यास्पद = हँसी के योग्य। विशिष्टजन = विशेष व्यक्ति (अमीर लोग)। निगाहें = नज़रें । सामंत = अमीर लोग। मुहावरा बदलना = अर्थ में परिवर्तन होना। अस्मिता = पहचान, अस्तित्व। अवमूल्यन = मूल्य गिरा देना।
प्रतिस्पर्धा = होड़। उपनिवेश = वह विजित देश, जिसमें विजेता राष्ट्र के लोग आकर बस गए हों।

HBSE 9th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति

(पृष्ठ-38) : गिरफ्त = पकड़। नियंत्रक = नियंत्रण करने वाली। क्षीण = कमजोर। दिग्भ्रमित = दिशाहीन, रास्ते से भटकना। वशीकरण = वश में करना। अपव्यय = फिजूलखर्च। आक्रोश = गुस्सा। तात्कालिक = उसी समय का। परमार्थ = दूसरों की भलाई। हावी होना = प्रभाव पड़ना। आकांक्षाएँ = इच्छाएँ। आसमान को छूना = बहुत अधिक बढ़ना। बुनियाद = नींव।

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