HBSE 10th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक

Haryana State Board HBSE 10th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 10th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक

HBSE 10th Class Hindi मानवीय करुणा की दिव्य चमक Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
फादर की उपस्थिति देवदार की छाया जैसी क्यों लगती थी?
उत्तर-
फादर ‘परिमल’ की गोष्ठियों में सबसे बड़े माने जाते थे। वे सबके साथ पारिवारिक संबंध अथवा मेलजोल बनाकर रखते थे। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि वे सबके घरों में होने वाले विभिन्न उत्सवों के अवसर पर उपस्थित रहते थे। सबको ऐसे शुभ अवसर पर आशीर्वाद देकर कृतार्थ करते थे। हर व्यक्ति के प्रति उनके हृदय में स्नेह था। वात्सल्य का भाव तो उनकी नीली आँखों में सदैव तैरता रहता था। इसलिए सबको उनकी उपस्थिति देवदार वृक्ष की छाया के समान अनुभव होती थी।

प्रश्न 2.
फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग हैं, किस आधार पर ऐसा कहा गया है?
उत्तर-
लेखक ने फादर बुल्के को भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग स्वीकार किया है। फादर बुल्के बेल्जियम के रहने वाले थे। उन्होंने संन्यासी बनकर भारत में आकर रहने का निर्णय लिया था। भारत आकर उन्होंने भारतीय संस्कृति को गहराई से समझा। ईसाई धर्म से संबंधित होते हुए भी उन्होंने हिंदी भाषा को सीखा और पढ़ा। इतना ही नहीं, उन्होंने ‘रामायण’ विषय को लेकर शोध प्रबंध लिखा। इससे उनके भारतीय संस्कृति के प्रति अधिक लगाव का पता चलता है। जब तक राम-कथा रहेगी तब तक उस विदेशी संन्यासी को राम-कथा के लिए आदर के साथ याद किया जाएगा। इस आधार पर ही लेखक ने उसे भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग कहा है।

प्रश्न 3.
पाठ में आए उन प्रसंगों का उल्लेख कीजिए जिनसे फादर बुल्के का हिंदी प्रेम प्रकट होता है।
उत्तर-
फादर बुल्के बेल्जियम के रहने वाले थे। वे एक संन्यासी के रूप में भारत में आए। यहाँ आकर उन्होंने हिंदी का अच्छा-खासा ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने हिंदी में प्रयाग विश्वविद्यालय से शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। फादर ने मातरलिंक द्वारा रचित सुप्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का ‘नीलपंछी’ के नाम से हिंदी अनुवाद किया। उन्होंने अंग्रेजी-हिंदी कोश का निर्माण भी किया। उनका शोध प्रबंध हिंदी में था जिसके कुछ अध्याय ‘परिमल’ में पढ़े गए थे। उन्होंने धार्मिक ग्रंथ ‘बाइबिल’ का अनुवाद हिंदी में किया। वे सदा हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने की चिंता में रहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रयास किए और अकाट्य तर्क भी प्रस्तुत किए। उन्हें उन हिंदी भाषी लोगों पर झुंझलाहट होती थी जो हिंदी जानते हुए भी हिंदी का प्रयोग नहीं करते थे। इन सब बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि फादर कामिल बुल्के को हिंदी के प्रति प्रेम था।

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प्रश्न 4.
इस पाठ के आधार पर फादर कामिल बुल्के की जो छवि उभरती है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
फादर कामिल बुल्के विदेशी होते हुए भी मन से भारतीय हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन भारतीय आदर्शों के अनुकूल व्यतीत किया। वे भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग बनकर रहे। वे लगभग 47 वर्षों तक भारतीय बनकर रहे। उन्होंने हिंदी के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। उनका व्यक्तित्व दूसरों को सहारा देने वाला था। वे सदैव सबके लिए बड़े भाई की भूमिका निभाने का काम करते थे। वे दूसरों के प्रति दया, सहानुभूति, करुणा आदि मानवीय गुणों से सदा भरे रहते थे। वे सच्चे अर्थों में संत थे। उन्हें कभी क्रोध में नहीं देखा गया।

प्रश्न 5.
लेखक ने फादर बुल्के को ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ क्यों कहा?
उत्तर-
फादर कामिल बुल्के अपने हृदय में हर दीन-दुःखी के प्रति करुणा का भाव रखते थे। वे एक बार जिससे रिश्ता बना लेते थे, उनसे जीवन भर निभाते थे। उनके हृदय में एक अनोखी दिव्य शक्ति थी जो बड़े-से-बड़े दुःख के समय भी शांति की वर्षा करती रहती थी। उनके संपर्क में जो भी आता उसका हृदय असीम शांति की अनुभूति करता था। क्रोध तो मानो उन्हें कभी छू भी नहीं सका था। इसी कारण लेखक ने उन्हें ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ कहा है जो उचित प्रतीत होता है।

प्रश्न 6.
फादर बुल्के ने संन्यासी की परंपरागत छवि से अलग एक नई छवि प्रस्तुत की है, कैसे?
उत्तर-
परंपरागत संन्यासी समाज से अपना नाता तोड़ लेते हैं। वे किसी के सुख-दुःख में सम्मिलित नहीं होते। वे सदैव अपनी भक्ति में लीन रहते हैं और ईश्वर प्राप्ति के सुख की अनुभूति करते रहते हैं। किंतु फादर बुल्के की छवि इनसे बिल्कुल अलग थी। वे सदा समाज में रहते थे। एक बार जिससे रिश्ता बना लेते थे उसका निर्वाह सदैव करते थे। उन्हें भारत में रहते हुए भी अपने परिवार वालों की चिंता रहती थी। वे उन्हें पत्र लिखते थे। वे यहाँ भी अपने जान-पहचान के लोगों के हर प्रकार के सुख-दुःख में सम्मिलित होते थे। जब वे दिल्ली आते तो लेखक से अवश्य मिलते। इसके लिए उन्हें कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ते। ऐसा करने के बावजूद भी वे मन से संन्यासी थे। इस प्रकार फादर बुल्के ने परंपरागत संन्यासी परंपरा से हटकर एक नई छवि प्रस्तुत की है।

प्रश्न 7.
आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है।
(ख) फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है।
उत्तर-
(क) किसी के दुःख को अनुभव करने या जान लेने का कोई पैमाना नहीं हो सकता। जिस प्रकार बिखरी स्याही को इकट्ठा करते समय वह और अधिक फैल जाती है, उसी प्रकार कौन कितना दुःखी है, यह नहीं जाना जा सकता।

(ख) जिस प्रकार उदास शाँत संगीत को सुनकर व्यक्ति तन्हाइयों में डूब जाता है, उसी प्रकार फादर को याद करके, उनके साथ बिताए गए सुखद क्षण और उनके वात्सल्य भाव को याद करके मन में एक शांति का भाव अभिव्यंजित होता था। अतः यह कहना उचित है कि फादर बुल्के को याद करना एक उदास शाँत संगीत को सुनने जैसा है।

रचना और अभिव्यक्ति-

प्रश्न 8.
आपके विचार से बुल्के ने भारत आने का मन क्यों बनाया होगा?
उत्तर-
फादर बुल्के बेल्जियम के रहने वाले थे। जब वे इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष के छात्र थे तब उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय लिया था। उन्होंने संन्यासी बनकर भारत में जीवन व्यतीत करने का निर्णय इसलिए लिया होगा क्योंकि उन्होंने भारत के विषय में सुन रखा था कि वह साधुओं, संतों व ऋषि-मुनियों की भूमि है। भारत आध्यात्मिकता का केंद्र है। अतः वहाँ सच्चा ज्ञान मिल सकता है। इसीलिए उन्होंने बेल्जियम से भारत आने का निर्णय लिया होगा।

प्रश्न 9.
‘बहुत सुंदर है मेरी जन्मभूमि-रेम्सचैपल’। इस पंक्ति में फादर बुल्के की अपनी जन्मभूमि के प्रति कौन-सी भावनाएँ अभिव्यक्त होती हैं? आप अपनी जन्मभूमि के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर-
फादर कामिल बुल्के की इस पंक्ति से उनके मन में जन्म भूमि के लिए जो प्यार था, वह अभिव्यंजित हुआ था। किंतु उन्होंने अपने कर्म के लिए भारतवर्ष को चुना था तथा अपना अधिकांश समय भारत में ही बिताया था। किंतु वे अपनी जन्मभूमि को कभी नहीं भुला पाए थे। वे निरंतर अपने परिवार वालों के सुख-दुःख को जानने के लिए पत्र भी लिखते थे। रेम्सचैपल नगर की याद सदैव उनके हृदय में बसी रहती थी। वे उसे कभी नहीं भूले थे। जिस मिट्टी में वे पलकर बड़े हुए थे, उसकी महक सदैव उनके हृदय में अनुभव की जा सकती है। वे अपने देश व वतन की याद से सदा जुड़े रहते हैं। इसलिए लेखक ने जब उनसे पूछा था कि उनकी जन्मभूमि कैसी है तब उन्होंने तपाक से कहा था उनकी जन्मभूमि बहुत सुंदर है। यह उत्तर उनके हृदय की आवाज़ थी।

हमें भी अपनी जन्मभूमि अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है। हमारी जन्मभूमि संसार में सबसे सुंदर है। यह ऋषि-मुनियों की तप-स्थली है। हमारे जीवन में हमारी जन्मभूमि की मिट्टी की महक बसी हुई है। हमारी जन्मभूमि ही हमारी संस्कृति व संस्कारों की पहचान करवाती है। हम अपनी जन्मभूमि का हृदय से सत्कार व आदर करते हैं। हमें उसके सम्मान को कभी किसी प्रकार की आँच नहीं आने देनी चाहिए।

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भाषा-अध्ययन-

प्रश्न 10.
‘मेरा देश भारत’ विषय पर 200 शब्दों में निबंध लिखिए।
उत्तर-
भारत एक महान देश है। इसकी संस्कृति सबसे प्राचीन है। राजा दुष्यन्त और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। संसार में मेरे देश का बड़ा गौरव है। भारत एक विशाल देश है। जनसंख्या की दृष्टि से यह विश्व भर में दूसरे स्थान पर है। इसकी वर्तमान जनसंख्या सवा सौ करोड़ से भी अधिक है। भारत के उत्तर में हिमालय, दक्षिण में लंका और हिंद महासागर हैं। इसमें अनेक प्रकार के पर्वत, नदियाँ और मरुस्थल हैं। भौगोलिक दृष्टि से यहाँ अनेक विविधताएँ हैं।

भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग रहते हैं, किंतु फिर भी यहाँ सांस्कृतिक एकता विद्यमान् है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारा देश एक है। यहाँ अनेक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। हरिद्वार, काशी, कुरुक्षेत्र, मथुरा, गया, जगन्नाथपुरी, द्वारिका आदि यहाँ के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। शिमला, मसूरी, नैनीताल, मनाली, दार्जिलिंग आदि सुंदर पर्वतीय स्थान हैं। मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि यहाँ के प्रमुख औद्योगिक केंद्र हैं। नई दिल्ली हमारे देश की राजधानी है।

भारत कृषि प्रधान देश है। भारत में लगभग छह लाख गाँव बसते हैं। इसकी लगभग अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। यहाँ गेहूँ, मक्का, बाजरा, ज्वार, चना, धान, गन्ना आदि की फसलें होती हैं। अन्न की दृष्टि से अब हम आत्म-निर्भर हैं।
भारतवर्ष कई सदियों की गुलामी झेलने के बाद सन् 1947 में स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता मिलने के तुरंत पश्चात् ही यहाँ बहुमुखी उन्नति के लिए प्रयत्न आरम्भ हो गए थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ अनेक प्रकार के कारखाने लगाए जिनमें आशातीत उन्नति हुई है। यहाँ अनेक प्रकार की योजनाएँ आरम्भ हुईं। पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत हर क्षेत्र में भरपूर उन्नति हुई। जिन वस्तुओं को हम विदेशों से मँगवाते थे, आज उन्हीं देशों को अनेक वस्तुएँ बनाकर भेजी जा रही हैं। विज्ञान के क्षेत्र में यहाँ बहुत उन्नति हुई है। परमाणु और उपग्रह के क्षेत्र में भी हम किसी से पीछे नहीं हैं।

भारत महापुरुषों की जन्म-स्थली है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक आदि महापुरुष इसी देश में हुए हैं। महाराणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोबिंद सिंह जी इसी देश की शोभा थे। दयानंद, विवेकानंद, रामतीर्थ, तिलक, गांधी, सुभाष, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि इसी धरती का श्रृंगार थे। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, सूरदास, कबीर आदि की वाणी यहीं गूंजती रही। भारत ने ही वेदों के ज्ञान से संसार को मानवता का रास्ता दिखाया।

आज भारत में प्रजातंत्र है। यह एक धर्म-निरपेक्ष देश है। भारत संसार का सबसे बड़ा प्रजातंत्र गणराज्य है। हमारा अपना संविधान है। संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार दिए गए हैं। भारतवासी सदा से शांतिप्रिय रहे हैं, किंतु यदि कोई हमें डराने या धमकाने का प्रयत्न करे तो यहाँ के रणबांकुरे उसके दाँत खट्टे कर डालते हैं।

तिरंगा हमारे देश का राष्ट्रीय ध्वज है। यहाँ प्रकृति की विशेष छटा देखने को मिलती है। यहाँ हर दो मास बाद ऋतु बदलती रहती है। कविवर जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही लिखा है-“अरुण यह मधुमय देश हमारा।”

प्रश्न 11.
आपका मित्र हडसन एंड्री ऑस्ट्रेलिया में रहता है। उसे इस बार की गर्मी की छुट्टियों के दौरान भारत के पर्वतीय प्रदेशों के भ्रमण हेतु निमंत्रित करते हुए पत्र लिखिए।
उत्तर-
1149, माल रोड,
करनाल।
10 अप्रैल, 20…..
प्रिय मित्र हडसन एंड्री,
सप्रेम नमस्कार।

आशा है कि आप सब वहाँ कुशलतापूर्वक होंगे। कुछ दिन पूर्व आपका पत्र प्राप्त हुआ था। उससे ज्ञात हुआ कि आपका विद्यालय गर्मी की छुट्टियों के लिए बंद हो चुका है। यहाँ हमारी परीक्षाएँ भी समाप्त हो चुकी हैं। मेरा परीक्षा परिणाम अभी कुछ दिन बाद घोषित किया जाएगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं अच्छे अंक लेकर पास हो जाऊँगा। इस बार गर्मी की छुट्टियों में हम पिताजी के साथ शिमला व कुल्लू, मनाली जा रहे हैं। पंद्रह दिन तक हम शिमला में मामाजी के पास ठहरेंगे और फिर कुछ दिनों के लिए कुल्लू, मनाली भी जाएँगे। शिमला व कुल्लू, मनाली यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं।

प्रिय मित्र, यदि आप भी हमारे साथ चलें तो और भी आनंद आएगा। आप किसी प्रकार का संकोच न करें। अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर भारत आ जाओ। मेरे पिताजी आपसे मिलकर बहुत खुश होंगे। आप अपना यहाँ आने का कार्यक्रम बनाकर हमें सूचित कर देना। हम 15 मई को शिमला जाएँगे। शिमला व कुल्लू, मनाली से लौटकर कुछ दिनों के लिए जम्मू-कश्मीर जाने का विचार भी है। जम्मू-कश्मीर तो प्राकृतिक दृश्यों की खान है। वहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं। वैष्णो देवी का मंदिर तो वहाँ मुख्य आकर्षण का केंद्र है। मैंने भी अभी तक यह मंदिर नहीं देखा है। आशा है कि इस बार अवश्य इसे देलूँगा। आप अपना यहाँ आने का कार्यक्रम बनाकरं हमें अवश्य सूचित कर देना।

अपने माता-पिता को मेरा सादर नमस्कार कहना।
आपका मित्र,
राकेश शर्मा

प्रश्न 12.
निम्नलिखित वाक्यों में समुच्चयबोधक छाँटकर अलग लिखिए-
(क) तब भी जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह दिल्ली आते थे।
(ख) माँ ने बचपन में ही घोषित कर दिया था कि लड़का हाथ से गया।
(ग) वे रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे।
(घ) उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है।
(ङ) पिता और भाइयों के लिए बहुत लगाव मन में नहीं था लेकिन वो स्मृति में अकसर डूब जाते।
उत्तर-
(क) और
(ख) कि
(ग) तो
(घ) जो
(ङ) लेकिन।

पाठेतर सक्रियता

फादर बुल्के का अंग्रेजी-हिंदी कोश’ उनकी एक महत्त्वपूर्ण देन है। इस कोश को देखिए-समझिए।
उत्तर-
यह प्रश्न परीक्षोपयोगी नहीं है।

फादर बुल्के की तरह ऐसी अनेक विभूतियाँ हुई हैं जिनकी जन्मभूमि अन्यत्र थी लेकिन कर्मभूमि के रूप में उन्होंने भारत को चुना। ऐसे अन्य व्यक्तियों के बारे में जानकारी एकत्र कीजिए।
उत्तर-
मदर टेरेसा, ऐनी बेसेंट, भगिनी निवेदिता आदि ऐसी ही विभूतियाँ थीं जिनकी जन्मभूमि तो कोई और स्थल था किंतु उन्होंने अपनी कर्मस्थली भारतवर्ष को ही बनाया।

कुछ ऐसे व्यक्ति भी हुए हैं जिनकी जन्मभूमि भारत है लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि किसी और देश को बनाया है, उनके बारे में भी पता लगाइए।
उत्तर-
हरगोबिंद खुराना, हिंदूजा भाई, लक्ष्मी मित्तल आदि ऐसे ही लोग हैं।

एक अन्य पहलू यह भी है कि पश्चिम की चकाचौंध से आकर्षित होकर अनेक भारतीय विदेशों की ओर उन्मुख हो रहे हैं इस पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर-
आज के भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति अधिक-से-अधिक धन कमा लेना चाहता है। इसलिए लोग भारत में रहकर अपनी बुद्धि या प्रतिभा के बल पर कम धन कमाने की अपेक्षा दूसरे देशों में जाकर अधिक-से-अधिक धन कमा लेना चाहते हैं।

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इसलिए अनेक भारतीय पाश्चात्य चकाचौंध की ओर आकृष्ट हैं। इसके दो पहलू हैं एक तो यह कि ऐसा करने से भारत में विदेशों से अधिक पैसा लाया जा सकेगा। दूसरा पक्ष है कि अपनों से दूर रहने का दुःख सदा बना रहता है। पश्चिमी चकाचौंध से आकृष्ट व्यक्ति दोहरी जिंदगी जीते हैं। वे वहाँ रहते हुए पाश्चात्य जीवन के अनुसार अपने-आपको ढालने का प्रयास करते हैं, किंतु भारतीय जीवन पद्धति को भी पूर्ण रूप से वे त्याग नहीं सकते। आज आवश्यकता है कि हम अपने देश में अपनी प्रतिभा के बल पर नए-नए कार्य करें, देश के विकास में योगदान दें। हम यहाँ रहकर भी धन कमा सकते हैं। विदेशों में जाकर दूसरों की सेवा करना एवं अपनों को भुला देना कोई अच्छी बात नहीं है।

यह भी जानें

परिमल-निराला के प्रसिद्ध काव्य संकलन से प्रेरणा लेते हुए 10 दिसंबर, 1944 को प्रयाग विश्वविद्यालय के साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले कुछ उत्साही युवक मित्रों द्वारा परिमल समूह की स्थापना की गई। ‘परिमल’ द्वारा अखिल भारतीय स्तर की गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनमें कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि पर खुली आलोचना और उन्मुक्त बहस की जाती। परिमल का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद था, जौनपुर, मुंबई, मथुरा, पटना, कटनी में भी इसकी शाखाएँ रहीं। परिमल ने इलाहाबाद में साहित्य-चिंतन के प्रति नए दृष्टिकोण का न केवल निर्माण किया बल्कि शहर के वातावरण को एक साहित्यिक संस्कार देने का प्रयास भी किया।

फादर कामिल बुल्के (1909-1982)
शिक्षा-एम.ए., पीएच.डी. (हिंदी)
प्रमुख कृतियाँ-रामकथा : उत्पत्ति और विकास,
रामकथा और तुलसीदास, मानस-कौमुदी,
ईसा-जीवन और दर्शन, अंग्रेज़ी-हिंदी कोश
1974 में पद्मभूषण से सम्मानित

HBSE 10th Class Hindi मानवीय करुणा की दिव्य चमक Important Questions and Answers

विषय-वस्तु संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
लेखक को ‘परिमल’ के दिनों की स्मृति क्यों आती थी?
उत्तर-
लेखक ने बताया है कि ‘परिमल’ में काम करने वाले सभी लोग एक-दूसरे को बहुत अच्छी प्रकार समझते व जानते थे। वहाँ का वातावरण पूर्णतः पारिवारिक था। वहाँ फादर बुल्के भी सदा आते रहते थे। वे उस परिवार के बड़े सदस्य थे तथा सभी गतिविधियों में भाग लेते थे। वहाँ साहित्यिक विधाओं पर खूब चर्चा होती थी। फादर बुल्के वहाँ खुले दिल से अपनी राय देते थे। लेखक को तो सदैव बड़े भाई की भूमिका में दिखाई देते थे। यही कारण है कि लेखक को ‘परिमल’ की याद आती है।

प्रश्न 2.
फादर बुल्के ने भारत में आकर किस प्रकार की और कहाँ-कहाँ से शिक्षा ग्रहण की थी?
उत्तर-
फादर बुल्के बेल्जियम के रेम्सचैपल स्थान के रहने वाले थे। इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई में ही उन्होंने संन्यास ले लिया था और पादरी बनकर भारत आ गए थे। सर्वप्रथम उन्होंने ‘जिसेट संघ’ में रहकर दो वर्ष तक पादरियों के धर्माचार की शिक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात् 9 -10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। उन्होंने कलकत्ता में रहकर बी.ए. की परीक्षा पास की। तत्पश्चात् इलाहाबाद से एम.ए. हिंदी की परीक्षा पास की। प्रयाग विश्वविद्यालय में डॉ. धीरेंद्रवर्मा हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। वहीं पर फादर बुल्के ने ‘राम कथा : उत्पत्ति और विकास’, विषय पर शोध कार्य किया और पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। अतः स्पष्ट है कि भारत में रहते हुए फादर बुल्के निरंतर अध्ययनशील रहे।

प्रश्न 3.
फादर कामिल बुल्के की झुंझलाहट और दुःख का कारण क्या था?
उत्तर-
फादर कामिल बुल्के की झुंझलाहट और दुःख का कारण हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना था। वे हर मंच से इसकी तकलीफ बयान करते और उसके लिए अकाट्य तर्क देते। हिंदी वालों द्वारा हिंदी की उपेक्षा ही उन्हें बहुत अधिक दुःख पहुँचाती रही है।

प्रश्न 4.
पठित पाठ के आधार पर फादर बुल्के के परिवार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
फादर कामिल बुल्के बेल्जियम के रेम्सचैपल स्थान के रहने वाले थे। यह स्थान संतों व पादरियों का स्थान माना जाता है। इनके पिता एक व्यापारी थे। इनके दो भाई थे जिनमें से एक पादरी बन गया था और दूसरा काम करता था। उसका अपना परिवार था। इनकी एक बहन भी थी जो बहुत जिद्दी स्वभाव की थी। उसने बहुत देर बाद विवाह किया था। भारत आने पर फादर बुल्के को अपनी माँ की बहुत याद आती थी। वह एक साधारण नारी थी। वे अकसर माँ की याद में डूब जाते थे। माँ के पत्र भी उनके पास आते थे।

प्रश्न 5.
फादर कामिल बुल्के के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक संस्मरण को पढ़ने से पता चलता है कि फादर बुल्के इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पढ़ते थे तभी इनके मन में संन्यास लेने की इच्छा उत्पन्न हुई थी। वे संन्यासी बनकर भारत आ गए और भारत की संस्कृति में रच-बस गए।
फादर बुल्के लंबे व गोरे शरीर वाले थे। उनके बाल भूरे रंग के थे, आँखें नीली थीं जिनमें करुणा की छाया बनी रहती थी। उनके चेहरे पर एक तेज़ था। उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था।

उन्होंने भारत आकर बी.ए., एम.ए., पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने संस्कृत भाषा का भी गहन अध्ययन किया। वे रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी अनुवाद भी लिखा।
फादर बुल्के एकदम शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। क्रोध तो मानो उन्हें छू भी नहीं गया था। उनकी वाणी ओजपूर्ण थी। उनका हृदय सदैव उदात्त मानवीय गुणों से परिपूर्ण रहता था। वे दूसरों के दुःख को देखकर दुःखी हो उठते थे। सुख में सबको आशीर्वाद देते थे।
फादर बुल्के मिलनसार व्यक्ति थे। वे एक बार जिससे नाता जोड़ लेते थे, उसे अंत तक निभाते थे।

विचार/संदेश संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 6.
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक संस्मरण का प्रमुख संदेश क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने फादर कामिल बुल्के के जीवन की प्रमुख घटनाओं और उनके व्यक्तित्व के उदात्त गुणों का अत्यंत भावपूर्ण शैली में उल्लेख किया है। लेखक ने बताया कि फादर बुल्के बेल्जियम से भारत आए और यहाँ के होकर रह गए। लेखक को उनके जीवन की शैली को देखकर लगा कि मानो वे यहाँ के पुरोहित बन गए। उन्होंने भारतीय संस्कृति के आदर्शों को पूर्ण रूप से अपने जीवन में उतार लिया था। इसलिए उन्हें भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग कहा गया। उनके हिंदी के प्रति अथाह प्रेम को देखकर तो कहना पड़ेगा कि हिंदी भाषियों को अपनी मातृ भाषा का प्रेम फादर बुल्के से सीखना चाहिए। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे। उन्होंने यहाँ के लोगों के जीवन में मनाए जाने वाले उत्सवों में हृदय से भाग लिया। वे लोगों के जीवन के सुख-दुःखों में भी सम्मिलित होते थे। वे सुख के समय आशीर्वाद देते और दुःख के समय सहानुभूति एवं करुणा व्यक्त करते। उन्हें साहस और धैर्य देते। वे सच्चे भारतीय थे। उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि वे विदेशी हैं। उन्होंने कभी किसी को ईसाई धर्म अपनाने के लिए नहीं कहा अपितु उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद किया ताकि भारत के लोग बाइबिल को भली-भाँति समझ सकें। उन्होंने रामकथा के उद्भव एवं विकास पर शोधप्रबंध प्रस्तुत किया जिससे रामकथा के प्रति उनकी रुचि का पता चलता है। मानवीय करुणा की दिव्य चमक सदा उनके चेहरे पर चमकती रहती थी।

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प्रश्न 7.
फादर बुल्के भारतीय जन-जीवन का अभिन्न अंग बनकर भारत में रहे, कैसे?
उत्तर-
फादर बुल्के भारत में आकर भारतीय जन-जीवन में पूर्ण रूप से रम गए थे। उन्होंने कभी ईसाई पादरी की भाँति ईसाई धर्म का प्रचार नहीं किया, अपितु उन्होंने यहाँ के लोगों के साथ अपने संबंध जोड़े और उनका खूबसूरती के साथ निर्वाह भी किया। उदाहरणार्थ वे जब भी दिल्ली आते थे तो लेखक से अवश्य मिलते थे। उन्होंने भारतीय जीवन-शैली एवं भारतीय संस्कृति को गहराई से समझा और जाना। वे उस पर मुग्ध हुए बिना न रह सके। उन्होंने भारतीय जीवन-शैली को और अधिक समझने व जानने के लिए हिंदी, संस्कृत आदि भाषाओं का अध्ययन किया। उन्होंने हिंदी के विकास के लिए अथक प्रयास भी किए। वे भारत में अपने परिचितों के सुख-दुःख में हृदय से सम्मिलित होते थे। लेखक के लिए वे बड़े भाई के समान थे। वे अपना आशीर्वाद देकर उन्हें कृतार्थ करते थे। दुःख की घड़ियों में सबके प्रति सहानुभूति व करुणा के भाव व्यक्त करते, उनके दुःख को गहराई से समझकर उनका सहारा बनते। इन सब तथ्यों को देखते हुए कहा जा सकता है कि फादर बुल्के भारतीय जन-जीवन में पूर्ण रूप से रच-बस गए थे।

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अति लघुत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ शीर्षक पाठ के लेखक का नाम क्या है?
उत्तर-
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ शीर्षक पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं।

प्रश्न 2.
लेखक ने फादर कामिल बुल्के को याद करने को किसके समान बताया था?
उत्तर-
लेखक ने फ़ादर कामिल बुल्के को याद करने को उदास शांत संगीत सुनने के समान बताया था।

प्रश्न 3.
फ़ादर बुल्के के पिताजी का पेशा क्या था?
उत्तर-
फ़ादर बुल्के के पिता जी एक व्यवसायी थे।

प्रश्न 4.
फादर कामिल बुल्के को देखना किसके समान बताया गया है?
उत्तर-
फादर कामिल बुल्के को देखना निर्मल जल में स्नान करने के समान बताया गया है।

प्रश्न 5.
फ़ादर बुल्के माँ की चिट्टियाँ किसको दिखाया करते थे?
उत्तर-
फ़ादर बुल्के माँ की चिट्ठियाँ डॉ० रघुवंश को दिखाया करते थे।

प्रश्न 6.
लेखक ने फादर बुल्के की तुलना किस वृक्ष से की है?
उत्तर-
लेखक ने फादर बुल्के की तुलना देवदारु वृक्ष से की है।

प्रश्न 7.
फादर कामिल बुल्के ने कहाँ से एम०ए० हिंदी की परीक्षा पास की थी?
उत्तर-
फ़ादर कामिल बुल्के ने इलाहाबाद से हिंदी की परीक्षा पास की थी।

प्रश्न 8.
हिन्दी को लेकर फ़ादर बुल्के की क्या चिंता थी?
उत्तर-
वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। यही उनकी मुख्य चिंता थी।

प्रश्न 9.
‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह’ ये शब्द किसने कहे थे?
उत्तर-
‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह’ ये शब्द फादर कामिल बल्के ने कहे थे।

प्रश्न 10.
संन्यास लेते समय धर्मगुरु के सामने फ़ादर बुल्के ने क्या शर्त रखी है?
उत्तर-
संन्यास लेते समय धर्मगुरु के सामने फ़ादर बुल्के ने यह शर्त रखी कि मैं भारत जाऊँगा।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ शीर्षक पाठ साहित्य की किस विधा के अंतर्गत आता है?
(A) कहानी
(B) संस्मरण
(C) जीवनी
(D) निबंध
उत्तर-
(B) संस्मरण

प्रश्न 2.
फादर कामिल बुल्के की मृत्यु कैसे हुई थी?
(A) बुखार से
(B) कैंसर से
(C) तपेदिक से
(D) ज़हरबाद से
उत्तर-
(D) ज़हरबाद से

प्रश्न 3.
लेखक और फादर कामिल बुल्के के बीच कैसे संबंध थे?
(A) पारिवारिक
(B) राजनीतिक
(C) सामाजिक
(D) व्यापारिक
उत्तर-
(A) पारिवारिक

प्रश्न 4.
लेखक ने ‘देवदारु’ किसे कहा है?
(A) पेड़ को
(B) पर्वत को
(C) फादर कामिल बल्के को
(D) रामकाव्य को
उत्तर-
(C) फादर कामिल बुल्के को

प्रश्न 5.
‘परिमल’ कैसी संस्था थी?
(A) सामाजिक
(B) साहित्यिक
(C) आर्थिक
(D) राजनीतिक
उत्तर-
(B) साहित्यिक

HBSE 10th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक

प्रश्न 6.
लेखक ने फादर कामिल बुल्के की साइकिल कहाँ की सड़कों पर चलती दिखाई देने की बात कही है?
(A) लखनऊ
(B) बनारस
(C) इलाहाबाद
(D) कलकत्ता
उत्तर-
(C) इलाहाबाद

प्रश्न 7.
फादर कामिल बुल्के कहाँ के रहने वाले थे?
(A) अमेरिका
(B) इंग्लैंड
(C) लीबिया
(D) बेल्जियम
उत्तर-
(D) बेल्जियम

प्रश्न 8.
फादर कामिल बुल्के ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई किस वर्ष में छोड़ दी?
(A) द्वितीय
(B) प्रथम
(C) अंतिम
(D) तृतीय
उत्तर-
(C) अंतिम

प्रश्न 9.
लेखक ने फादर कामिल बुल्के को कैसा संन्यासी बताया है?
(A) विवशतामयी संन्यासी
(B) संकल्प से संन्यासी
(C) दिखावे के संन्यासी
(D) ढोंगी संन्यासी
उत्तर-
(B) संकल्प से संन्यासी

प्रश्न 10.
फादर कामिल बुल्के हिंदी को किस रूप में देखना चाहते थे?
(A) एक बोली के रूप में
(B) सामान्य भाषा के रूप में
(C) राष्ट्रभाषा के रूप में
(D) अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में
उत्तर-
(C) राष्ट्रभाषा के रूप में

प्रश्न 11.
फादर कामिल बुल्के ने अपना शोधप्रबंध किस विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था?
(A) लखनऊ विश्वविद्यालय
(B) आगरा विश्वविद्यालय
(C) दिल्ली विश्वविद्यालय
(D) प्रयाग विश्वविद्यालय
उत्तर-
(D) प्रयाग विश्वविद्यालय

प्रश्न 12.
फादर कामिल बुल्के के शोध का विषय क्या था?
(A) रामकथा : उत्पत्ति और विकास
(B) कृष्णलीला
(C) सूर की भक्ति-भावना
(D) निर्गुण संत काव्य
उत्तर-
(A) रामकथा : उत्पत्ति और विकास

प्रश्न 13.
फादर कामिल बुल्के की मृत्यु कब हुई थी?
(A) सन् 1980 में
(B) सन् 1981 में
(C) सन् 1982 में
(D) सन् 1984 में
उत्तर-
(C) सन् 1982 में

प्रश्न 14.
फादर कामिल बुल्के कितने वर्ष जीवित रहे थे?
(A) 47
(B) 57
(C) 73
(D) 83
उत्तर-
(C) 73

प्रश्न 15.
लेखक, फादर कामिल बुल्के के किन गुणों के कारण श्रद्धानत थे?
(A) विद्वता के कारण
(B) मित्रता के कारण
(C) व्यवहार कुशल होने के कारण
(D) मानवीय गुणों के कारण
उत्तर-
(D) मानवीय गुणों के कारण

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प्रश्न 16.
फादर कामिल बुल्के अपनी माँ की चिट्ठियाँ किस मित्र को दिखाते थे?
(A) डॉ० रघुवंश
(B) जैनेन्द्र कुमार
(C) डॉ० सत्य प्रकाश
(D) डॉ० निर्मला जैन
उत्तर-
(A) डॉ० रघुवंश

मानवीय करुणा की दिव्य चमक पद्यांशों के आधार पर अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

(1) फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। मुझे अपना बच्चा और फादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आँखों की चमक में तैरता वात्सल्य भी-जैसे किसी ऊँचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों। [पृष्ठ 85]

प्रश्न-
(क) पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) लेखक ने फादर को याद करना किसके समान और ऐसा क्यों कहा है?
(ग) फादर को मिलने पर लेखक को कैसा अनुभव होता था?
(घ) लेखक के साथ फादर के संबंध कैसे थे?
(ङ) देवदारु की छाया में खड़े होने से लेखक का क्या तात्पर्य था?
(च) ‘परिमल’ क्या था? वहाँ किन विषयों पर चर्चा होती थी?
(छ) लेखक के घर के उत्सवों में फादर का क्या योगदान रहता था?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के प्रसंग को बताकर उसका आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) पाठ का नाम-मानवीय करुणा की दिव्य चमक।
लेखक का नाम श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना।

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(ख) जिस प्रकार उदासी के समय व्यक्ति शांत संगीत को सुनकर कल्पना लोक में विचरने लगता है; उसी प्रकार फादर से मिलकर व्यक्ति शांति और सुकून अनुभव करने लगता है। वस्तुतः फादर सदा ही वात्सल्य भाव से भरे रहते थे। वे जब भी मिलते थे स्नेह से पूर्ण रहते थे। ऐसे फादर को याद करते ही उदास शाँत संगीत सुनने जैसा अनुभव होता था।

(ग) लेखक जब भी फादर से मिलते थे तो उनके व्यवहार से उन्हें लगता था कि मानो वे करुणा के निर्मल से जल से स्नान कर रहे हैं तथा उनसे बात करने पर अपने कर्म के प्रति संकल्प से भर जाते थे।

(घ) लेखक के साथ फादर के पारिवारिक संबंध थे। उनके संबंधों में घनिष्ठता थी। वे परिवार में मनाए जाने वाले हर उत्सव में लेखक के साथ रहते थे। ऐसे अवसर पर लेखक उनको बड़े भाई के समान अनुभव करते थे। फादर बड़े भाई व पुरोहित की भाँति अनेक आशीष दिया करते थे। लेखक के पुत्र के मुख में फादर ने ही पहली बार अन्न डाला था।

(ङ) लेखक फादर को देवदारु की छाया-सा कहता है। कारण यह है कि फादर ने सभी को स्नेह एवं आशीर्वाद दिया है। उन्होंने सबके सुख-दुःख में साथ दिया। फादर का जीवन दया, करुणा, स्नेह व ममता से सदा भरा रहता था। इसी कारण लेखक की दृष्टि में फादर का जीवन देवदारु की छाया के समान था।

(च) परिमल एक साहित्यिक संस्था थी। इस संस्था में समय-समय पर साहित्यिक विचार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। यहाँ तत्कालीन साहित्य की विभिन्न विधाओं पर चर्चा की जाती थी। इन गोष्ठियों में नए-पुराने सभी साहित्यकार अपने-अपने विचार व्यक्त करते थे।

(छ) लेखक के घर के उत्सवों में फादर बुल्के सबके साथ मिल-जुलकर प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते थे। वे बड़े भाई अथवा एक पारिवारिक पुरोहित के समान सबको आशीर्वाद देते थे। उनके इस व्यवहार से घर के सभी लोग प्रसन्न हो उठते थे।

(ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। इस पाठ में उन्होंने फादर कामिल बुल्के के जीवन से जुड़ी यादों का अत्यंत भावपूर्ण शैली में उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में लेखक ने फादर के अत्यंत स्नेहपूर्ण, वात्सल्यमय एवं अपनेपन के व्यवहार का उल्लेख किया है।

आशय/व्याख्या-लेखक ने फादर कामिल बुल्के को स्मरण करते हुए कहा है कि फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने के समान है। जिस प्रकार व्यक्ति शांत संगीत को सुनकर कल्पनालोक में विचरने लगता है, उसी प्रकार फादर से मिलने पर व्यक्ति को शांति और सुकून मिलता था। फादर सदा ही वात्सल्य एवं करुणा भाव से परिपूर्ण रहते थे। उन्हें देखना करुणा के जल में स्नान करने के समान था। उनसे बातें करने से व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा मिलती थी। वे सदा ही एक कर्मठ व्यक्ति की भाँति कर्म में लीन रहते थे। लेखक ‘परिमल’ के दिनों को याद करता हुआ बताता है कि जब वे सब एक पारिवारिक संबंध में बंधे हुए जैसे थे। उन सब में फादर सबसे बड़े थे। वे उम्र में बड़े होते हुए भी हमारी हँसी-मजाक में भी पूर्ण भाग लेते थे। हमारी संगोष्ठियों में वे बहुत गंभीरतापूर्वक बहस करते थे अर्थात् वाद-विवाद करते थे। वे लेखक व उनके अन्य साथियों द्वारा लिखी गई रचनाओं के विषय में बिना किसी पक्षपात के अपनी सलाह देते थे। इतना ही नहीं, लेखक व उनके साथियों के पारिवारिक उत्सवों व संस्कारों में भी बड़े भाई की भाँति और पुरोहित की भाँति ही अपने शुभ आशीर्वाद से उनके जीवन को भर देते थे। कहने का तात्पर्य है कि पारिवारिक उत्सवों में पुरोहित की भूमिका निभाते हुए आशीर्वाद देते थे। लेखक अपने बच्चे को याद करता हुआ कहता है कि फादर कामिल बुल्के ने ही उनके बच्चे के मुख में प्रथम बार अन्न डाला था। उस समय उनकी नीली-नीली आँखों में बच्चों के प्रति अथाह वात्सल्य भाव दिखलाई पड़ा था। लेखक ने फादर के स्नेह को देवदारू वृक्ष की छाया की भाँति बताया है अर्थात् फादर के साथ रहने से सदा ही उनका स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहता था।

(2) फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन से संन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते ज़रूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है? उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच से इसकी तकलीफ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुख-तकलीफ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े-से-बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और फादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी।
[पृष्ठ 87]

प्रश्न-
(क) पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) फादर बुल्के को संकल्प से संन्यासी क्यों कहा गया है?
(ग) रिश्तों के संबंध में फादर बुल्के के क्या विचार थे?
(घ) फादर सचमुच के मसीहा थे, कैसे?
(ङ) हिंदी के प्रति फादर बुल्के का क्या योगदान था?
(च) लेखक ने किस गंध के महसूस होने की बात कही है?
(छ) इस गद्यांश के आधार पर फादर के जीवन की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
(ज) इस गद्यांश का प्रसंग लिखकर इसके आशय को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) पाठ का नाम-मानवीय करुणा की दिव्य चमक। लेखक का नाम श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना।

(ख) फादर बुल्के ने दृढ़ निश्चयपूर्वक संन्यास लिया था। उन्होंने किसी के कहने अथवा दबाव में आकर संन्यास नहीं लिया था। किसी लालच में आकर अथवा कर्म-क्षेत्र से पलायन करने के लिए भी उन्होंने संन्यास नहीं लिया था। उन्होंने स्वेच्छा से संन्यास लिया था। इसीलिए लेखक ने उन्हें संकल्प से संन्यासी कहा है।

(ग) एक संन्यासी होते हुए भी फादर बुल्के रिश्तों की गरिमा अथवा महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से समझते थे। वे रिश्तों को निभाना भी भली-भाँति जानते थे। जिसके साथ भी उनका कोई संबंध बन जाता था, उसे वे अंत तक निभाते थे। वे रिश्तों को जोड़कर कभी तोड़ते नहीं थे। अतः स्पष्ट है कि फादर बुल्के रिश्तों के संबंध में गंभीर विचारधारा रखते थे।

(घ) निश्चय ही फादर एक महान् मसीहा थे। वे लोगों के दुःख-दर्द को महसूस ही नहीं करते थे, अपितु उनमें सम्मिलित भी होते थे। उनकी करुणामयी बातों को सुनकर हृदय को शांति मिलती थी क्योंकि वे बड़े-से-बड़े दुःख को भी कम करने की समर्थता रखते थे। अतः कह सकते हैं कि फादर बुल्के किसी मसीहा से कम नहीं थे।

(ङ) फादर बुल्के विदेशी थे। उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। किंतु हिंदी के प्रति उनके हृदय में अत्यधिक प्रेम था। वे हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक अकाट्य तर्क भी दिए। वे हिंदी भाषियों के द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा देखकर आक्रोश व्यक्त करते थे। उन्होंने हिंदी का केवल अक्षर-ज्ञान ही प्राप्त नहीं किया, अपितु शोधकार्य भी किया।

(च) लेखक कहता है कि यदि फादर बुल्के से कई वर्ष बाद मुलाकात होती थी, तो भी वे इतने प्रेम से मिलते थे कि उनके साथ उसके जो रिश्ते थे, उसकी गहराई की सुगंध उस मिलन में महसूस होती थी। उनका यह अपनापन रिश्तों को और भी अधिक मज़बूत आधार प्रदान करता था।

(छ) इस गद्यांश को पढ़ने से पता चलता है कि फादर बुल्के का व्यक्तित्व संन्यासी जैसा था। किंतु वे बहुत ही आत्मीय, स्नेही और अपनेपन के भाव से भरे रहते थे। इस गद्यांश को पढ़कर हम यह भी जान जाते हैं कि फादर राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे और हिंदी के विकास के लिए हर संभव कार्य करने के लिए तत्पर रहते थे। वे करुणावान व्यक्ति थे। उनके हृदय में दूसरों के लिए दया, स्नेह आदि भाव विद्यमान रहते थे।

(ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक पाठ से लिया गया है। इस पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। इस पाठ में उन्होंने फादर कामिल बुल्के के जीवन के महान गुणों का उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में बताया गया है कि फादर बुल्के का जीवन संन्यासी का जीवन था। वे स्वेच्छाचारी संन्यासी थे।

आशय/व्याख्या-लेखक का कथन है कि फादर कामिल बुल्के ने दृढ़ निश्चयपूर्वक संन्यास लिया था। उन्होंने किसी मज़बूरी या दबाव में आकर संन्यास ग्रहण नहीं किया था। लेखक को तो प्रतीत होता है कि फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे, मन से संन्यासी नहीं थे। वे रिश्तों को बनाते थे तो उन्हें कभी तोड़ते नहीं थे। यदि कोई उन्हें दस वर्ष के बाद भी मिलता था तो उन्हें उनकी पहले जैसी भावना का अनुभव होता था। वे जब भी दिल्ली आते लेखक से अवश्य मिलते। भले ही उन्हें लेखक को खोजना ही क्यों न पड़ता था। वे गर्मी, सर्दी व बरसात के कष्टों को झेलकर भी मिलते थे। ऐसा भला कौन संन्यासी करता है। उनकी सबसे बड़ी चिंता थी हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप देखने की। वे चाहते थे कि हिंदी को राष्ट्र भाषा का पद अवश्य मिले। वे हर मंच पर इस पीड़ा का उल्लेख करते थे और हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के लिए अकाट्य तर्क भी प्रस्तुत करते थे। लेखक ने उन्हें एक इसी बात पर दुःखी होते देखा है कि हिंदी वाले ही हिंदी की उपेक्षा करते हैं। वे जब भी अपने मित्रों से मिलते थे, सदा उनके घर-परिवार की कुशलता के विषय में अवश्य पूछते थे। बड़े-से-बड़े दुख में उनके सांत्वना व सहानुभूति के दो शब्द जीवन में जादू की तरह प्रभाव डालते थे। उनके सहानुभूतिमय शब्द सुनने वाले के जीवन में ऐसी गहन रोशनी भर देते थे कि जो गहरी तपस्या से उत्पन्न होती है। वे कहते थे कि हर मौत जीवन को नया मार्ग दिखाती है। लेखक को जब अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आई, उस समय फादर बुल्के के शब्दों से लेखक को एक अनोखी शांति अनुभव हुई थी।

(3) मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। (नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है।)
इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल-फूल गंध से भरा और सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर, मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी स्मृति हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह आजीवन बनी रहेगी। मैं उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हूँ। [पृष्ठ 88]

HBSE 10th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक

प्रश्न
(क) पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) ‘फादर बुल्के की मृत्यु पर रोने वालों की कमी नहीं थी।’ -लेखक के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) फादर बुल्के को सबसे अधिक छायादार, फल-फूल से भरा हुआ क्यों कहा गया?
(घ) लेखक के लिए फादर बुल्के की स्मृति कैसी और क्यों है?
(ङ) लेखक ने फादर बुल्के को कैसी श्रद्धांजलि दी है?
(च) लेखक के लिए फादर कामिल बुल्के क्या थे?
(छ) लेखक किसकी याद में श्रद्धानत है?
(ज) प्रस्तुत गद्यांश का प्रसंग लिखकर आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) पाठ का नाम-मानवीय करुणा की दिव्य चमक। लेखक का नाम-श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना।

(ख) फादर बुल्के एक संन्यासी थे। संन्यासी सबका मोह त्याग देता है और सांसारिक जीवन से उसका मोह नहीं रह जाता। किंतु वे ऐसे संन्यासी नहीं थे। वे सबके साथ मिलकर रहते थे। सबके सुख-दुःख में बराबर सम्मिलित होते थे। सबके प्रति उनके मन में सहानुभूति, दया व करुणा की भावना थी। इसलिए फादर बुल्के की मृत्यु पर बहुत सारे लोगों को दुःख हुआ था। उन्होंने उसके न रहने पर आँसू बहाए थे।

(ग) लेखक ने फादर बुल्के के जीवन में दया, सहानुभूति, करुणा आदि मानवीय गुणों की अधिकता को देखकर उन्हें ऐसे विशाल वृक्ष की संज्ञा दी है जिसकी छाया में अनेक लोग बैठते हैं और जिसके फल-फूल दूसरों के लिए होते हैं। किंतु वह स्वयं कुछ भी ग्रहण नहीं करता।

(घ) लेखक के लिए फादर बुल्के की स्मृति अत्यंत पवित्र भावनाओं से युक्त थी जैसी किसी यज्ञ की पवित्र अग्नि की तपन सदा अनुभव की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार फादर की पवित्र स्मृति लेखक के मन में आजीवन बनी रहेगी। उनके जीवन की महानता ने ही लेखक के मन में यह भावना उत्पन्न की थी।

(ङ) लेखक ने प्रस्तुत पाठ के माध्यम से उनके जीवन की कुछ घटनाओं का वर्णन करते हुए उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है।

(च) लेखक की दृष्टि में फादर कामिल बुल्के मानवीय करुणा की दिव्य चमक के समान थे। वे उनके लिए बड़े भाई के समान स्नेहशील, मार्गदर्शक, आशीर्वाद देने वाले और शुभचिंतक थे। लेखक के लिए वे महान हिंदी प्रेमी, संन्यासी होते हुए भी संबंधों की गरिमा बनाए रखने वाले और संबंधों का भली-भाँति निर्वाह करने वाले थे।

(छ) लेखक फादर कामिल बुल्के के पवित्र जीवन और महान् मानवीय गुणों के प्रति श्रद्धानत है।

(ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक पाठ से लिया गया है। इस पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। इस पाठ में लेखक ने फादर बुल्के के जीवन से जुड़ी स्मृतियों का भावपूर्ण भाषा में उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में लेखक ने फादर बुल्के की मृत्यु की घटना से जुड़ी यादों का उल्लेख किया है।

आशय/व्याख्या-लेखक का कथन है कि वह नहीं जानता कि इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा या नहीं, किंतु उसकी मृत्यु पर रोने वालों की कमी नहीं थी। उनके नाम गिनना व्यर्थ होगा। इस प्रकार फादर बुल्के हमारे बीच से चले गए अर्थात् उनकी मृत्यु हो गई। वे हमसे अधिक छायादार अर्थात् दूसरों को सहारा देने वाले और सद्गुणों रूपी फल-फूल सद्भावना रूपी गंध से भरे हुए थे। वह सबसे अलग होते हुए भी सबके थे। सबसे महान थे। उनके जीवन में मानवीय करुणा की चमक लहलहाती थी। जो भी उनके समीप थे, उनके जीवन में उसकी यादें यज्ञ की अग्नि की पवित्र आँच की भाँति जीवन भर बनी रहेंगी। लेखक उस पवित्र ज्योति की स्मृति में श्रद्धानत बना रहा। कहने का भाव है कि फादर कामिल बुल्के की मृत्यु पर अनेक लोगों को दुख हुआ और उनकी यादें लोगों के जीवन में सदा बनी रहेंगी। यही उनकी महानता की पहचान है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary in Hindi

मानवीय करुणा की दिव्य चमक लेखक-परिचय

प्रश्न-
श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जीवन परिचय एवं उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
1. जीवन-परिचय-श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नई कविता में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में सन् 1927 में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके पश्चात् उन्होंने अध्यापन कार्य किया। किंतु कुछ ही दिनों पश्चात् वहाँ से त्याग-पत्र देकर आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर के रूप में काम करने लगे। उन्होंने ‘दिनमान’ में उपसंपादक तथा बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ में संपादक के रूप में कार्य किया था। उन्हें ‘खूटियों पर टँगे लोग’ काव्य-संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था। सन् 1983 में उनका निधन हो गया था।

2. प्रमुख रचनाएँ-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार थे। उन्होंने कविता के अतिरिक्त अन्य हिंदी विधाओं पर भी सफलतापूर्वक कलम चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

(क) कविता-संग्रह ‘काठ की घंटियाँ’, ‘खूटियों पर टँगे लोग’, ‘जंगल का दर्द’, ‘कुआनो नदी’ ।
(ख) उपन्यास-‘पागल कुत्तों का मसीहा’, ‘सोया हुआ जल’।
(ग) बाल साहित्य-‘लाख की नाक’, ‘बतूता का जूता’, ‘भौं भौं खौं खौं’।
(घ) कहानी संग्रह ‘लड़ाई’।
(ङ) नाटक-‘बकरी’।

3. साहित्यिक विशेषताएँ-सर्वेश्वर दयाल की पहचान मध्यवर्गीय आकांक्षाओं के लेखक के रूप में की जाती है। उन्होंने मध्यवर्ग के जीवन के विविध पक्षों का मार्मिकता से चित्रण किया है। मध्यवर्गीय जीवन की महत्त्वाकांक्षाओं, सपनों, संघर्ष, हताशा
और कुंठा का चित्रण उनके साहित्य में सजीव रूप में मिलता है। सक्सेना जी के लेखन में बेबाक सच सर्वत्र, देखा जा सकता है। उनकी अभिव्यक्ति में सहजता और स्वाभाविकता है।

4. भाषा-शैली-सर्वेश्वर दयाल के गद्य साहित्य की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज, व्यावहारिक, भावपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ इनका फादर कामिल बुल्के से संबंधित संस्मरण है। इसमें लेखक ने उनके जीवन से संबंधित कुछ अंतरंग प्रसंगों को उजागर किया है। सक्सेना जी ने अपनी रचना में वात्सल्य, आकृति, साक्षी, वृत्त, यातना आदि तत्सम शब्दों के साथ-साथ महसूस, ज़हर, कब्र आदि उर्दू के शब्दों का भी सफल प्रयोग किया है। प्रस्तुत संस्मरण में तो उन्होंने विवरणात्मक शैली के साथ-साथ भावात्मक शैली का भी सफल प्रयोग किया है। इस पाठ में उन्होंने फादर कामिल बुल्के के जीवन से संबंधित अपनी यादों को अत्यंत सजीवता से प्रस्तुत किया है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ का सार

प्रश्न-
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ शीर्षक पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ एक महत्त्वपूर्ण संस्मरण है। संस्मरण स्मृतियों से बनता है तथा स्मृतियों की विश्वसनीयता उसे महत्ता प्रदान करती है। प्रस्तुत संस्मरण में श्री सर्वेश्वर दयाल के द्वारा फादर कामिल बुल्के के जीवन से जुड़ी यादों को अत्यंत भावपूर्ण शैली में उकेरा गया है। फादर बुल्के अपने आपको भारतीय कहते थे। यद्यपि उनका जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था जो गिरजों, पादरियों, संतों और धर्मगुरुओं की भूमि मानी जाती है, किंतु फादर बुल्के ने भारत को अपनी कर्मभूमि बताया। वे संन्यासी थे, किंतु पारंपरिक अर्थ में नहीं। उन्हें हिंदी भाषा से बहुत प्रेम था। रामकथा से तो उनका लगाव देखते ही बनता था। पाठ का सार इस प्रकार है-

फादर कामिल बुल्के के हृदय में सदा दूसरों के प्रति प्रेम रहा है। ईश्वर में उनकी अगाध श्रद्धा व आस्था थी। बीमारी के कारण उनकी मृत्यु से लेखक को गहरा शोक हुआ। लेखक का बुल्के साहब के साथ पैंतीस वर्षों का साथ रहा है। वे उनसे इतने प्रभावित थे कि उनकी याद आते ही निराश हो जाते थे। उनकी बातों में पवित्रता के दर्शन होते थे। वे अपने समीप के लोगों के जीवन के हर अच्छे-बुरे अवसर पर समान भाव से सम्मिलित होते थे। उनकी आँखों में एक बड़े भाई का स्नेह नज़र आता था।

निश्चय ही फादर कामिल बुल्के अध्ययनशील व्यक्ति थे। जब वे इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे तो उन्होंने संन्यासी बनने की ठान ली थी। उनका एक भरा – पूरा परिवार था जिसमें माता-पिता, दो भाई व एक बहन थी। भारत आने पर भी परिवार के साथ उनका पत्र-व्यवहार चलता रहता था। अपने अभिन्न मित्र रघुवंश को वे उन सब चिट्ठियों को दिखाते थे। उनके पिता एक व्यवसायी थे। एक भाई पादरी बन गया था और दूसरा पिता के व्यवसाय में लग गया था। बहन जिद्दी स्वभाव वाली थी। माता के प्रति उनका प्रगाढ़ स्नेह था।

भारत आने पर फादर बुल्के ने ‘जिसेट संघ’ में दो साल पादरियों के बीच धर्माचार की शिक्षा ग्रहण की। 9 से 10 वर्ष तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। उन्होंने कलकत्ता से बी०ए० की परीक्षा पास की तथा इलाहाबाद से एम.ए. ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ पर उन्होंने सन् 1950 में इलाहाबाद से ही शोध प्रबंध पूरा किया। ‘परिमल’ में उनके अध्याय पढ़े गए। फादर बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का ‘नीलपंछी’ के नाम से अनुवाद भी किया। बाद में वे सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची में हिंदी तथा संस्कृत के विभागाध्यक्ष हो गए थे। वहीं रहते हुए उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश की रचना की। उन्होंने ‘बाइबल’ का भी हिंदी रूपांतर किया। वे 47 वर्ष तक इस देश में रहे और 73 वर्ष की आयु तक जीवित रहे।

फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। जिसके साथ वे रिश्ता बनाते थे, उसे अंत तक भली-भाँति निभाते थे। उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलवाने में अपना अनथक प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने अपने अकाट्य तर्क भी दिए। हिंदी वालों द्वारा हिंदी की उपेक्षा ही उन्हें बहुत अधिक दुःख पहुँचाती रही है।

दूसरों के घर-परिवार की कुशलता पूछना तो मानो उनका स्वभाव था। लेखक की पत्नी व पुत्र की मृत्यु के समय पर जो उन्होंने शब्द कहे थे, उनसे प्राप्त शांति सदा याद रही। फादर बुल्के दिल्ली में रहते हुए बीमार पड़े और 18 अगस्त, 1982 की सुबह उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके साथ कुछ पादरी व रघुवंश जी का बेटा और उनके परिजन राजेश्वर सिंह, जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन और मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, डॉ० सत्यप्रकाश आदि सभी कब्र के समीप खड़े थे। फादर की देह कब्र में लिटाई गई। मसीही विधि से अंतिम संस्कार किया गया। तत्पश्चात् जेवियर्स के रेक्टर फादर पास्कल ने उनके जीवन और कर्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए बताया, “फादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों।” वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने फादर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और फादर के शव को कब्र में उतार दिया गया। उस समय सबकी आँखें नम थीं। इस प्रकार सबके बीच से फादर हमेशा के लिए चले गए थे। फादर छायादार, फलदार, सुगंध से भरा, सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहराता खड़ा है। उसकी यादें लेखक के मन में सदा बनी रहेंगी।

कठिन शब्दों के अर्थ

(पृष्ठ-85) मानवीय करुणा = मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली दया। दिव्य = महान्। ज़हरबाद = जहरीला फोड़ा। विधान = रचना की नीति। आस्था = विश्वास। अस्तित्व = जीवन। यातना = दुःख, पीड़ा। उम्र = आयु। परीक्षा = इम्तिहान। आकृति = आकार। संकल्प = दृढ़ निश्चय। आतुर = अधीर, व्याकुल। ममता = अपनेपन की भावना। साक्षी = गवाह। बेबाक राय = खुलकर राय देना। संस्कार = विवाह आदि। अशीष = आशीर्वाद। वात्सल्य = छोटों के प्रति स्नेह । गोष्ठी = किसी विषय पर विचार करने के लिए बुलाई गई सभा। देवदारु = पहाड़ों पर उगने वाले पेड़ का नाम। आवेश = उत्साह, जोश। लबालब = पूर्ण रूप से भरा हुआ।

(पृष्ठ-86) जन्मभूमि = जहाँ जन्म हुआ हो। स्मृति = याद। अभिन्न मित्र = गहरा दोस्त। व्यवसायी = व्यापारी। व्यक्त = प्रकट। घोषित करना = सबके सामने कहना। हाथ से जाना = वश में न रहना। धर्माचार = धर्म का पालन करना।

(पृष्ठ-87) शोध प्रबंध = खोज करने के पश्चात् लिखी गई पुस्तक। परिमल = एक साहित्यिक संस्था जिसमें विभिन्न साहित्यकार साहित्य पर चर्चा करते थे। रूपांतर = बदला हुआ रूप। कोश = शब्दों का खजाना, शब्दकोश। राष्ट्रभाषा = जो भाषा पूरे राष्ट्र के द्वारा बोली जाए। बयान करना = वर्णन करना, कहना। अकाट्य = जो बात काटी न जा सके। तर्क = विचार। उपेक्षा = तिरस्कार करना। निजी = व्यक्ति का अपना। सांत्वना = तसल्ली। तपस्या = साधना। राह = मार्ग। झरती = बहती हुई। विरल = कम मिलने वाली। जादू भरे = प्रभावशाली। ताबूत = शव डालने का संदूक। जिस्म = शरीर। थिर = ठहरी हुई, स्थिर। शांति बरसना = शांति प्रकट होना। परिजन = रिश्तेदार। सँकरी = तंग। घनी = गहरी। छोर = किनारा। कब्रगाह = जहाँ मुर्दो को दफनाया जाता है। अवाक् = मौन। ठंडी उदासी = उत्साहहीन कर देने वाली निराशा।

(पृष्ठ-88) आहट = हल्की आवाज़। मसीही विधि = ईसाई धर्म के अनुकूल। अंतिम संस्कार = मृत्यु के पश्चात् निभाई जाने वाली रस्में। अनुकरणीय = जो अनुकरण करने योग्य हो। नमन = नमस्कार। स्याही फैलाना = लिखने का व्यर्थ प्रयास करना। आजीवन = जीवन भर। श्रद्धानत = प्रेम और आदर से झुकना।

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